संपादक की ओर से...
ग्रन्थावली का पाँचवाँ खंड हरिऔध के गद्य के रचनात्मक पक्ष का प्रकाश
करनेवाला है। गद्य में आलोचनात्मक लेखन तो उन्होंने बाद में किये।
अपने लेखन-प्रकाशन के प्रारम्भिक दौर (1882-1905) में उन्होंने
यत्किंचित जो काव्य-रचना की, उसका सम्बन्ध पारम्परिक
कृष्णभक्ति-काव्य से बनता है। इसी दौर में उन्होंने अंग्रेजी एवं
बंगला के अनेक उपन्यासों के साथ अन्य गद्य-रचनाओं के अनुवाद भी किये।
इन अनुवादों से भी गद्य के प्रति उनके अनुराग को परिलक्षित किया जा
सकता है। उनके कवि-जीवन की शुरुआत 1882 में रचे गये और 1900 में
प्रकाशित 'श्रीकृष्णशतक' नामक काव्य से होती है। इसके बाद उन्होंने
गद्य में 'श्रीरुक्मिणीपरिणय' नामक नाटक की रचना की। इसमें
'प्रार्थना' शीर्षक भूमिका में अपनी साहित्यिक प्रगति का खुलासा करते
हुए वे कहते हैं, 'इस नाटक के प्रथम मैंने कोई दूसरा नाटक लिपिबद्ध
नहीं किया है। नाटक क्या, वास्तव बात तो यह है कि एक 'श्रीकृष्णशतक'
नामक लघुपुस्तिका के अतिरिक्त इस नाटक के प्रथम अपर कथित ग्रन्थ मेरे
द्वारा न अनुवादित हुआ है, न रचा गया है।' यह कथन इस बात का प्रमाण
है कि 'कविसम्राट' हरिऔध का अपने रचनाकर्म के प्रारम्भिक दौर से ही
गद्य-रचना के प्रति आकर्षण दिखाई पड़ता है। बल्कि उपलब्ध प्रमाणों के
आधार पर उक्त नाटक उनकी पहली प्रकाशित कृति साबित होती है क्योंकि
'श्रीकृष्णशतक' का प्रकाशन 1900 में होता है जबकि 'परिणय' का प्रकाशन
1884 में ही हो गया था।
इस खंड में सबसे पहले उनके दो उपन्यासों को-'ठेठ हिंदी का ठाट'
(1899) तथा 'अधखिला फूल' (1908)-शामिल किया गया है। इन दोनों
उपन्यासों की कहानी भी दिलचस्प है। पाठक इसे दोनों उपन्यासों की
भूमिका में स्वयं देख सकते हैं। सबसे दिलचस्प बात तो यह है कि इसमें
साधन ने साध्य की जगह ले ली है और साध्य साधन बन गया है। उपन्यास का
साध्य कथा और तज्जनित अन्तर्वस्तु है और साधन भाषा। लेकिन इन दोनों
उपन्यासों में भाषा साध्य है और कथा या कहानी-रचना साधन। पहला
उपन्यास सर जार्ज ग्रियर्सन के उस अनुरोध पर लिखा गया, जो उन्हें
खड्गविलास प्रेस के स्वामी बाबू रामदीन सिंह की मार्फत मिला था।
इसीलिए पुस्तक ग्रियर्सन महोदय को ही समर्पित है। इन्शा अल्लाह खाँ
की 'रानी केतकी की कहानी' को यदि ठेठ हिंदी की पहली कथात्मक कृति
मानी जाए तो यह 'ठेठ हिंदी का ठाट' ऐसी दूसरी कृति ठहरती है। ठेठ
हिंदी यानी तद्भव प्रधन हिंदी। विदेशज शब्दों से मुक्तप्राय
हिंदी। तत्समता से भी मुक्त हिंदी। देशज ठाटवाली हिंदी।
उपन्यास-रचना के पीछे का मकसद इसके नाम से ही जाहिर हो जाता है। रह
गयी बात कथा की तो 'ठाट' में दो आदर्श प्रिय युवा-युवती की कहानी है,
जो समाज की रूढ़ियों और कुरीतियों के कारण चाहकर भी शादी नहीं कर पाते
हैं। दोनों के प्रेम में स्वार्थ का नाम नहीं है और उनका प्रेम
त्यागमय है। पारम्परिक आदर्शवादी किस्म की कहानी ही यह कही जाएेगी।
लेकिन इसका इस दृष्टि से अवश्य महत्व माना जाएेगा कि देवबाला और
देवनंदन नामक नायिका-नायक के जरिए जो कहानी कही गयी है, उससे हरिऔध
के मानसिक लोक में चलनेवाले उथल-पुथल का परिचय अवश्य मिल जाता है।
उनके पारम्परिक और आदर्शवादी मन में समाज के प्रति विक्षोभ की तरंगें
उठने लगी थीं। उपन्यास का प्रमुख महत्व निश्चय ही उस हिंदी की पहचान
और निर्माण में है जो आज सर्वाधिक लोकप्रिय है और जिस रूप का हिंदी
की लोकप्रियता ही नहीं, उसकी रचनात्मकता के विकास में काफी योगदान
है। संस्कृत के प्रभाव और आतंक से पूर्णत: मुक्त हिंदी का ठाट
उपन्यास के पहले पृष्ठ से ही अत्यन्त चित्तकर्षक रूप में उपस्थित
होता है, 'सूरज डूबने पर है। बादल में लाली छाई हुई है। बयार जी को
ठंढा करती हुई धीरे-धीरे चल रही है। थोड़ी देर में सूरज डूबा। कुछ
झुटपुटा-सा हो गया।' यहाँ मैंने अल्पविराम की जगह पूर्णविराम अपनी ओर
से लगा दिये हैं, जिससे उक्त गद्य-खंड की भास्वरता और भी प्रखर हो
उठती है। वाकई यह हिंदी पाठकों के जी को भी ठंढा करनेवाली कही
जाएेगी। दूसरे उपन्यास 'अधखिला फूल' की रचना का उद्देश्य भी वही है
जो पहले उपन्यास का और इसमें भी नायक देवस्वरूप और नायिका देवहूती की
कथा पहले उपन्यास जैसी ही है। इन दो उपन्यासों के अतिरिक्त उनके एक
अपूर्ण-अप्रकाशित उपन्यास 'प्रद्युम्न पराक्रम' की भी सूचना हमें
मिलती है।
उपन्यास के अतिरिक्त गद्य-विधा में उनके दो नाटक हैं। 'श्री
रुक्मिणीपरिणय' की चर्चा प्रसंगवश हम पहले कर चुके हैं। उनका दूसरा
नाटक है 'प्रद्युम्नविजय व्यायोग'। इसका प्रकाशन 1893 में हुआ था।
लक्ष्य किया जा सकता है कि इन दोनों नाटकों का हरिऔध कृष्णकथा से है
और ये वस्तुत: हरिऔध जी की कृष्णभक्ति की ही नाटकीय अभिव्यक्ति हैं।
नाटकीय ही नहीं; काव्यात्मक अभिव्यक्ति भी क्योंकि इन दोनों नाटकों
में कविता का भी प्रचुर उपयोग हुआ है; इतना कि इसे कोई 'चंपू काव्य'
भी कहना चाहें। कहा तो यहाँ तक जा सकता है कि नाटय-विधा की दृष्टि से
इन दोनों नाटकों का महत्व भले ही संदिग्ध हो, कविता की दृष्टि से
उसके महत्व से शायद ही इनकार किया जा सके। कविता का रंग-ढंग पुराना
है, यह दीगर बात है। 'प्रद्युम्नविजय व्यायोग' नाम में 'व्यायोग'
शब्द नाटक के एक प्रकार के लिए प्रयुक्त हुआ है। भरतमुनि के
'नाटयशास्त्र' में ही नहीं, परवर्ती आचार्यों के काव्यशास्त्र में भी
इसकी चर्चा है। इसमें पुरुष पात्रों की प्रधानता होती है;
स्त्री-पात्र या तो नहीं होते या अत्यन्त गौणस्थिति की भूमिका में
होते हैं। घटना की अवधि भी इसमें एक दिन तक सीमित होती है और अंक भी
प्राय: एक ही होता है। युद्ध पराक्रम-प्रदर्शन, व्यक्ति के संघर्ष
आदि इसके विषय माने जाते हैं। संस्कृत के 'धनंजयविजय' नाटक को
व्यायोग कहकर भारतेन्दु ने उसका अनुवाद भी किया था। हरिऔध जी पर इस
अनुवाद का भी असर था। ऐसे, भारतेन्दु के दरबार में कभी-कभार किशोर
हरिऔध को भी शामिल होने का अवसर मिला था।
उपन्यास और नाटक के अतिरिक्त प्रस्तुत खंड में 1946 में प्रकाशित
'इतिवृत्ता' नाम की गद्य-कृति शामिल है। हरिऔध की इस कृति के
गद्य-रूप के बारे में ठीक-ठिकाने का निर्णय जरा मुश्किल है।
'इतिवृत्त' का शब्दिक अर्थ है घटना, कथा, कहानी आदि। पुस्तक में कुल
सोलह 'प्रसंग' हैं। इनमें जीवन से जुड़े कठिन प्रसंगों का आत्मकथात्मक
शैली में आख्यान है। रोग, झाड़-फूँक, पूजा-पाठ, मृत्यु, स्वर्ग, नरक,
जन्मान्तरवाद, संसार जैसे विषयों को अत्यन्त प्रसन्न शैली में
प्रस्तुत किया गया है, ताकि इसके मर्म को हृदयंगम कर लोग यथासमय
साहस, धर्य और विवेक से काम ले सकें। इस खंड के अन्त में चार ललित
निबन्ध की शैली में लिखे लेख हैं। इनमें 'चार' शीर्षक लेख असंकलित
है, जो हमें 'हरिऔधशती स्मारकग्रन्थ' से उपलब्ध हुआ है। बाकी
विषयानुरोध से यहाँ 'सन्दर्भ सर्वस्व' से संकलित किये गये हैं।
यथास्थान इसे निर्दिष्ट कर दिया गया है। 'पगली का पत्र' प्रेम दीवानी
मीरा के अन्तरंग को बड़े चित्ताकर्षक ढंग से प्रस्तुत करनेवाला लेख
है, जो पत्र-शैली में लिखा गया है। 'चार' शीर्षक लेख में अंक चार के
महत्व को अत्यन्त व्यंजक शैली में प्रस्तुत किया गया है। ऐसे दो और
लेख हैं। इनके माध्यम से हरिऔध जी की कल्पनाशीलता के साथ उनकी भाषा
के लालित्य के भी दर्शन होते हैं।
हरिऔध के रचनात्मक गद्य का, विशेषत: उनके उपन्यासों और नाटकों का
ऐतिहासिक दृष्टि से भी अपना महत्व है। गद्य के विभिन्न रूपों से
संबद्ध ग्रन्थावली का यह खंड हरिऔध के कृती व्यक्तित्व के एक
अलक्षितप्राय पक्ष से पाठकों का परिचय करायेगा, ऐसी उम्मीद है। इति।
-तरुण कुमार
समर्पण
श्रील श्रीयुत महामान्य, अशेष गुणगणालंकृत, विद्वज्जन-
मण्डलीमण्डन, विविध विरदावली विभूषित,
श्री 5 युत जी. ए. ग्रियर्सन बी. ए. आई. सी.
एस. सी. आई. ई. पी. एच. डी. इत्यादि
सज्जनशिरोभूषणेषु!
महात्मन्!
मैं एक साधारण जन हूँ, आप मुझसे सर्वथा अपरिचित हैं। किन्तु महानुभाव
की सत्कीर्ति कलकौमुदी, हिमधवलशृंगसमूह विमण्डित हिमाचल से, भारत
समुद्र के उत्तालतरंगमालाविधौत कन्याकुमारी अन्तरीप तक सुविकीर्ण है।
आज उसकी नैसर्गिक शीतलता पर भारतवर्ष का प्रत्येक पठित समाज विमुग्ध
है, और प्रत्येक सुशिक्षित व्यक्ति उसकी मन: प्राण परितोषिणी माधुरी
पर आसक्त। इसी सूत्र से मुझ अल्पज्ञ को भी आप से परिचय रखने की
प्रतिष्ठा प्राप्त है और यही कारण है जो आज मैं आप की सेवा में एक
सदुपहार लेकर उपस्थित होने का साहसी हुआ हूँ। उपहार अपर कश्चित वस्तु
नहीं, मेरा ही निर्माण किया हुआ 'ठेठ हिंदी का ठाट' नामक एक साधारण
उपन्यास है, किन्तु यत: यह आप ही की प्रेरणा से महाराजकुमार बाबू
रामदीन सिंह जी द्वारा आज्ञापित होकर लिपिबद्ध हुआ है, अत: मैं इसको
आप ही के कर कमलों में सादर समर्पित करता हूँ, आशा है आप इसको ग्रहण
कर मेरे आन्तरिक अनुराग की परितृप्ति साधन कीजिएगा। विशेष निवेदन कर
मैं आप के अमूल्य समय को विनष्ट नहीं करना चाहता।
आश्रित
अयोध्या सिंह उपाध्याय
30 मार्च, सन्
1899 ई.
उपोद्धात
एक वर्ष बीतने पर है, हमारे अमायिकबन्धु महाराजकुमार बाबू रामदीन
सिंह जी ने मुझसे ठेठ हिंदी की कोई पुस्तक लिखने के लिए अनुरोध किया
था, मैं भी उन की आज्ञानुसार उसी समय इस कार्य के सम्पादन के लिए
दत्तचित्त हुआ था, किन्तु कतिपय कारणों और दुर्निवार विघ्नों के
एकत्र समावेश होने से अब तक मैं उस कार्य की पूर्ति से अमनोरथ रहा
हूँ। किन्तु आज मैं बहुत प्रसन्न हूँ कि जिस विषय पर एक वर्ष से
लक्ष्य रहा है, वह आज मेरे हस्तगत हुआ है। आज ठेठ हिंदी में एक
उपन्यास लिखकर मैंने उसको पूरा किया, आशा है उक्त बाबू साहब को भी
इससे यथेष्ट आनन्द होगा।
जहाँ तक मेरा अनुभव है, मैं कह सकता हूँ, ठेठ हिंदी में अब तक केवल
एक ग्रन्थ लिखा गया है, और वह लखनऊ के प्रसिद्ध कवि 'इन्शा अल्लाह
खाँ' की बनाई 'कहानी ठेठ हिंदी' है। जो मेरा यह विचार ठीक है, और
मैं भूलता नहीं हूँ, तो कहा जा सकता है कि मेरा 'ठेठ हिंदी का ठाट'
नामक यह उपन्यास ठेठ हिंदी का दूसरा ग्रन्थ है।
अब देखना यह है कि वास्तव में मेरा उपन्यास ठेठ हिंदी में लिखा जा
सका है, या नहीं? इस बात की मीमांसा के लिए पहले इस बात की परिभाषा
होनी चाहिए कि ठेठ हिंदी किसे कहते हैं? परिभाषा करने के लिए हमको
यह विचारना आवश्यक है कि इस विषय में पहले किसी महाशय ने कुछ लिखा
है, या नहीं? सबसे पहले हम 'कहानी ठेठ हिंदी' ही पर दृष्टि डालते
हैं, उसमें ग्रन्थकार ने लिखा है-
''अब यहाँ से लिखनेवाला यों लिखता है, कि एक दिन बैठे-बैठे यह बात
अपने ध्यान चढ़ी, कोई कहानी ऐसी कहिये जिसमें हिन्दवी छुट और किसी
बोली की पुट न मिले, तब जाके मेरा जी फूल की कली के रूप खिले, बाहर
की बोली और गँवारी कुछ उसके बीच में न हो। अपने मिलनेवालों में से एक
कोई बड़े पढ़े-लिखे पुराने-धुराने डाग, बड़े धाग, यह खटराग लाये, सिर
हिलाकर नाक भौं चढ़ा कर आँखें पथरा कर लगे कहने यह बात होती नहीं
दिखाई देती। हिंदीपन भी न निकले, भाखापन भी न ठुस जाए, जैसे भले लोग
अच्छों से अच्छे आपस में बोलते-चालते हैं, ज्यों-का-त्यों वही सब डौल
रहे, और छाँह किसी की न पड़े, यह नहीं होने का।''
इतने बड़े वाक्य में हमारे काम की इतनी बातें हैं, ''हिन्दवी छुट और
किसी बोली की पुट न मिले, बाहर की बोली और गँवारी कुछ उसके बीच में न
हो। हिन्दवीपन भी न निकले भाखापन भी न ठुस जाए-जैसे भले लोग अच्छों
से अच्छे आपस में बोलते-चालते हैं ज्यों-का-त्यों वही सब डौल रहे-और
छाँह किसी की न पड़े''। ग्र्रन्थकार को बहुत संकीर्ण मार्ग से चलना
पड़ा है इसलिए वह अपने अभिप्राय को स्पष्टतया नहीं प्रकाश कर सके हैं
और पुनरुक्ति दोष से भी लिप्त हुए हैं। किन्तु उनके लेख का अभिप्राय
यह है, कि ''जैसे शिक्षित लोग आपस में बोलते-चालते हैं भाषा वैसी ही
हो, गँवारी न होने पावे, उसमें दूसरी भाषा अरबी, फारसी, तुर्की,
अंग्रेजी इत्यादि का कोई शब्द शुद्ध रूप या अपभ्रंश रूप से न हो,
भाषा अपभ्रंश संस्कृत शब्दों से प्रयुक्त हो, और यदि कोई संस्कृत
शब्द उसमें आवे भी तो वही, जो अत्यन्त प्रचलित हो, और जिसको एक
साधारण जन भी बोलता हो।'' जहाँ तक मैं समझता हूँ ठेठ हिंदी की
परिभाषा भी यही हो सकती है। क्योंकि जब दूसरी ओर दृष्टि दौड़ाते हैं,
तो भी वही सिद्धान्त निश्चित होता है, जिसको मैंने ऊपर निरूपण किया
है। वह दूसरी ठौर भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्र की बनाई 'हिंदी भाषा'
नाम की पुस्तिका है, उसमें जो उन्होंने नम्बर 3 की शुद्ध हिंदी का
नमूना दिया है, वही ठेठ हिंदी है। शुद्ध और ठेठ शब्द का अर्थ लगभग
एक ही है। वह नमूना यह है-
'पर मेरे प्रीतम अब तक घर न आये, क्या उस देश में बरसात नहीं होती,
या किसी सौत के फन्दे में पड़ गये, कि इधर की सुधा ही भूल गये। कहाँ
तो वह प्यार की बातें कहाँ एक संग ऐसा भूल जाना कि चिट्ठी भी न
भिजवाना, हा! मैं कहाँ जाऊँ कैसी करूँ, मेरी तो ऐसी कोई मुँहबोली,
सहेली भी नहीं कि उससे दुखड़ा रो सुनाऊँ, कुछ इधर-उधर की बातों ही से
जी बहलाऊँ''।
इन कतिपय पंक्तियों पर दृष्टि देने से जान पड़ता है कि जितने शब्द इन
में आये हैं, वह सब प्राय: अपभ्रंश संस्कृत शब्द हैं, प्रीतम शब्द भी
शुद्ध संस्कृत शब्द प्रियतम का अपभ्रंश है। विदेशी भाषा का कोई शब्द
वाक्य भर में नहीं है, हाँ! 'कि' शब्द फारसी है, जो इस वाक्य में आ
गया है, पर यह किसी विवाद के सम्मुख न उपस्थित होने के कारण, असावधनी
से प्रयुक्त हो गया है। अन्यथा उनको 'जिसमें किसी भाषा के शब्द आने
का नियम नहीं है'' यह शीर्षक देकर नम्बर 4 की भाषा न सृष्टि करनी
पड़ती। उक्त वाक्य में देश, एक, संग शब्द भी आये हैं, यह सब शुद्ध
संस्कृत शब्द हैं, किन्तु शुद्ध संस्कृत होने पर भी ऐसे शब्द हैं,
जिनको एक साधारण् जन भी बोलता है, और ठेठ हिंदी शब्द के समान हैं,
इसीलिए शुद्ध हिंदी के वाक्य में इन शब्दों का रखना उन्होंने अनुचित
नहीं समझा; यदि कोई कहे 'देश' शब्द वास्तव में 'देस' है, हस्तदोष या
छापे की अशुध्दि के कारण देश हो गया है, क्योंकि साधारण लोग 'देस' ही
बोलते हैं, तो शेष दो शब्दों के शुद्ध संस्कृत होने में कौन सन्देह
है, और ऐसी अवस्था में ठेठ हिंदी लिखने के लिए इस अन्तिम नियम होने
की भी बहुत आवश्यकता है, कि 'यदि इसमें कोई संस्कृत शब्द आये भी तो
वही जो अत्यन्त प्रचलित हो, और जिसको एक साधारण जन भी बोलता हो''
क्योंकि बिना इस नियम के शिक्षित लोगों के बोल-चाल की रक्षा ठेठ
हिंदी लिखने में नहीं हो सकती, यद्यपि मैं यह स्वीकार करता हूँ कि
इस शिक्षित लोगों की बोलचालवाले नियम की रक्षा ठेठ हिंदी लिखने के
समय कहीं-कहीं नहीं होती है, किन्तु उस अवस्था में हम लोगों को
अधिकतर उसकी रक्षा न करने के लिए बाध्य होना पड़ेगा। सोचने का स्थान
है कि जो शुद्ध संस्कृत शब्द अपभ्रंश संस्कृत शब्द से भी अधिक
प्रचलित है, जिनको एक साधारण जन भी बोलता-चालता है जैसे, माला, सुख,
धन, दूर, उपाय, इत्यादि, वह ठेठ हिंदी के शब्द क्यों न समझे जावें
और जब वह ठेठ हिंदी के शब्द हैं, तो उनका व्यवहार ठेठ हिंदी लिखने
में क्यों न किया जावेगा, और ऐसी अवस्था में उक्त नियम की उपयुक्तता
आप प्रकट है।
कहानी ठेठ हिंदी, जो इस भाषा की पहली पुस्तक है, उसके पढ़ने से यह
विषय और स्पष्ट होगा, मैं कतिपय वाक्य उक्त ग्रन्थ के, जिनमें
प्रचलित संस्कृत शब्द का प्रयोग ग्रन्थकार ने किया है, नीचे उध्दृत
करता हूँ-
''जिसका भेद किसी ने न पाया उस फल की मिठाई चक्खे-मरतों को जी दान
दिये-इतने बरस उसी ध्यान में रहें-मेरा जी फूल की कली के रूप
खिले-राई को पर्वत कर दिखाऊँ-बिजली से भी बहुत चंचल औ चपलाहट में
है-उदास मत रहा करो-ब्राह्मण की हत्या का धड़का न होता-प्रीति का
मारा-अधार में सिंहासन पर बैठकर लदाये फिरता था-जब इसे अजन करे,
इत्यादि''
मैं यह स्वीकार करता हूँ कि ''कहानी ठेठ हिंदी'' के लेखक ने उन
नियमों में से एक की भी रक्षा पूरी-पूरी नहीं की है, जिसको मैंने ऊपर
उन्हीं के लेख की छाया लेकर प्रकाश किया है, क्योंकि उनके लेख में
वनस्पति औ कलधौत इत्यादि अप्रचलित संस्कृत शब्द, सम्मुख और चंचल
इत्यादि ऐसे शब्द जिनके स्थान पर अपभ्रंश संस्कृत शब्द प्राप्त हो
सकते हैं, ठठिया, टहोका इत्यादि गँवारी शब्द, और 'अय', 'कूक' इत्यादि
दूसरी भाषा के शब्द भी मौजूद हैं, किन्तु ऐसा उनके अमनोनिवेश और इस
कारण से हुआ है, कि उस समय की उर्दू कविता में प्राय: चंचल और सम्मुख
इत्यादि शब्दों का प्रयोग देखने में आता है, उद्देश्य उनका ऐसा न था।
हाँ! भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्र की लिखी शुद्ध हिंदी की कतिपय
पंक्तियाँ जो ऊपर प्रकाश की गयी हैं, उनमें निस्सन्देह उक्त नियमों
का निर्वाह हुआ है, और मैं समझता हूँ ठेठ हिंदी लिखने के विषय में
उनको एक उत्तम आदर्श मानना उचित है।
जो किसी को अपभ्रंश संस्कृत शब्दों ही द्वारा ठेठ हिंदी लिखने का
आग्रह हो, और ऐसी अवस्था में ऊपर प्रकाश किये गये निमयों में से
अन्तिम नियम की उपेक्षा कर वह शेष नियमों के अनुसार कार्य कर दिखावे,
तो यह उसकी अपूर्व चिन्ता और अलौकिक मनोनिवेश का फल होगा। किन्तु
मेरी अनुमति यही है कि ठेठ हिंदी लिखने के लिए अन्तिम नियम की भी
आवश्यकता है, वरना मैं कह सकता हँ कि बिना इस नियम को कार्य में
परिणत किये ठेठ हिंदी लिखना एक प्रकार असम्भव है।
ऊपर जो नियम प्रकाश किये गये हैं, उन्हीं पर दृष्टि रख के मैंने 'ठेठ
हिंदी का ठाट' नामक उपन्यास लिखा है। और चेष्टा ऐसी ही की है, जिससे
उक्त उपन्यास ठेठ हिंदी का उपन्यास कहलाने के उपयुक्त हो, किन्तु
मैं इस विषय में लब्धकाम हुआ हूँ, या नहीं, इस विषय का विचार
चिन्ताशील, सहृदय, भाषा-मर्मज्ञों के ऊपर छोड़ता हूँ।
उक्त नियमों के अनुसार मैंने अपने उपन्यास में जहाँ कोई अपभ्रंश
संस्कृत शब्द नहीं मिल सका है, या मिला भी है तो उस शब्द के रखने से
भाषा के गँवारी बनने की आशंका दिखलाई पड़ी है, वहाँ अत्यन्त प्रचलित
शुद्ध संस्कृत शब्द लिखा है, किन्तु यह शब्द भी दो या तीन ही अक्षर
का शुद्ध संस्कृत शब्द है, जिससे भाषा कठिन नहीं हो सकी है, जैसे
माला, सुख, दूर, पती, कुल, रीति, जग, देह, रोग, धन, उपाय, उदास
इत्यादि। मैं समझता हूँ संकीर्ण स्थलों पर ऐसे शब्दों के प्रयोग से
भाषा के ठेठ हिंदी होने में कोई शंका नहीं हो सकती। और मेरा विचार
है कि जहाँ भाषा गँवारी बनती हो, और कोई उपयुक्त शब्द न मिलता हो,
वहाँ दो या तीन अक्षर का अत्यन्त प्रचलित शुद्ध संस्कृत शब्द रखने से
भाषा ठेठ हिंदी ही रहेगी। वर्तमान काल के समाचारपत्रों, वा पुस्तकों
की प्रचलित साधु भाषा न बन जावेगी। हाँ! यह अवश्य है कि जहाँ उपयुक्त
अपभ्रंश संस्कृत शब्द मिल सकता हो, वहाँ किसी अत्यन्त प्रचलित शुद्ध
संस्कृत शब्द का भी प्रयोग न करना चाहिए।
भाषा का विषय बहुत गम्भीर है, इदमित्थं नहीं कहा जा सकता, किन्तु इस
विषय में मेरा जो विचार है, उसी को मैंने आज इस लेख द्वारा प्रकट
किया है। जो मननशील भाषा मर्मज्ञ जन इस विषय में कोई दूसरा स्वतन्त्र
मत रखते हों, तो उस के विषय में मुझको कुछ वक्तव्य नहीं है। किन्तु
वह लोग जो मेरे इस लेख और उपन्यास को पढ़कर उदार भाव से इस विषय में
कुछ लिखेंगे, या उचित अनुमति प्रकाश करेंगे, तो मैं अत्यन्त अनुगृहीत
हूँगा, विशेष लिखकर इस लेख के बढ़ाने की आवश्यकता नहीं।
पं. अयोध्या सिंह
मधुबन।
30-3-1899
>> ठेठ हिंदी का ठाट (उपन्यास) >>
(शीर्ष
पर वापस)
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