पहली पंखड़ी
वैशाख का महीना, दो घड़ी रात बीत गयी है। चमकीले तारें चारों ओर आकाश
में फैले हुए हैं, दूज का बाल सा पतला चाँद, पश्चिम ओर डूब रहा है,
अंधियाला बढ़ता जाता है, ज्यों-ज्यों अंधियाला बढ़ता है, तारों की चमक
बढ़ती जान पड़ती है। उनमें जोत सी फूट रही है, वे कुछ हिलते भी हैं,
उनमें चुपचाप कोई-कोई कभी टूट पड़ते हैं, जिससे सुनसान आकाश में रह-रह
कर फुलझड़ी सी छूट जाती है। रात का सन्नाटा बढ़ रहा है, ऊमस बड़ी है,
पवन डोलती तक नहीं, लोग घबड़ा रहे हैं, कोई बाहर खेतों में घूमता है,
कोई घर की खुली छतों पर ठण्डा हो रहा है। ऊमस से घबड़ा कर कभी-कभी कोई
टिटिहरी कहीं बोल उठती है।
भीतों से घिरे हुए एक छोटे से घर में एक छोटा सा आँगन है, हम वहीं
चलकर देखना चाहते हैं, इस घड़ी वहाँ क्या होता है। एक मिट्टी का छोटा
सा दीया जल रहा है, उसके धुंधले उजाले में देखने से जान पड़ता है, इस
आँगन में दो पलंग पड़े हुए हैं। एक पलंग पर एक ग्यारह बरस का हँसमुख
लड़का लेटा हुआ उसी दीये के उँजाले में कुछ पढ़ रहा है। दूसरे पलंग पर
एक पैतींस छत्तीस बरस की अधेड़ स्त्री लेटी हुई धीरे-धीरे पंखा हाँक
रही है, इस पंखे से धीमी-धीमी पवन निकल कर उस लड़के तक पहँचती है,
जिससे वह ऐसी ऊमस में भी जी लगा कर अपनी पोथी पढ़ रहा है। इस स्त्री
के पास एक चौदह बरस की लड़की भी बैठी है। यह एकटक आकाश के तारों की ओर
देख रही है, बहुत बेर तक देखती रही, पीछे बोली माँ! आकाश में ये सब
चमकते हुए क्या हैं?
माँ ने कहा, बेटी! जो लोग इस धरती पर अच्छी कमाई करते हैं, मरने पर
वे ही लोग स्वर्ग में बास पाते हैं, उनमें बड़ा तेज होता है, अपने तेज
से वे लोग सदा चमकते रहते हैं। दिन में सूरज के तेज से दिखलाई नहीं
पड़ते, रात में जब सूरज का तेज नहीं रहता, हम लोगों को उनकी छवि देखने
में आती है। यह सब चमकते हुए तारे स्वर्ग के जीव हैं, इनकी छटा
निराली है, रूप इनका कहीं बढ़कर है। न इन लोगों के पास रोग आता न ये
बूढ़े होते, दुख इनके पास फटकता तक नहीं। यह जो तारों के बीच से उजली
धार सी दक्खिन से उत्तर को चली गयी है, आकाश गंगा है, इसका पानी बहुत
सुथरा, मीठा और ठण्डा होता है, वह लोग इसमें नहाते हैं, मीठे अनूठे
फलों को खाते हैं, भीनी-भीनी महँकवाले अनोखे फूल सूँघते हैं, भूख
प्यास का डर नहीं, कमाने का खटका नहीं, जब जो चाहते हैं मिलता है, जब
जो कहते हैं होता है, सदा सुख चैन से कटती है, इन लोगों के ऐसा
बड़भागी जग में और दूसरा कोई नहीं है।
उत्तर ओर यह जो अकेला चमकता हुआ तारा दिखलाई पड़ता है, जिसके आस पास
और कोई दूसरा तारा नहीं है, यह ध्रुव है। ध्रुव एक राजा के लड़के थे,
इन्होंने बड़ा भारी तप किया था, उसी तप के बल से आज उनको यह पद मिला
हुआ है।
इन सर के ऊपर के सात तारों को देखो, ये सातों ऋषि हैं। इनमें ऊपर के
चार देखने में चौखटे जान पड़ते हैं, पर नीचे के तीन कुछ-कुछ तिकोने से
हैं। इन्हीं तीनों में जो बीच का तारा है, वे वशिष्ठ मुनि हैं। उनके
पास ही जो बहुत छोटा सा तारा दिखलाई पड़ता है, वे अरुंधती हैं, ये
वशिष्ठ मुनि की स्त्री हैं। ये बड़ी, सीधी, सच्ची, दयावाली, और अच्छी
कमाई करनेवाली हो गयी हैं, अपने पति के चरणों में इन का बड़ा नेह था।
इनकी भाँति जो स्त्री अपने पति के चरणों की सेवकाई करती है, पति को
ही देवता जानती है, उन्हीं की पूजा करती है, उन्हीं में लव लगाती है,
सपने में भी उनके साथ बुरा बरताव नहीं करती, भूलकर भी उनको कड़ी बात
नहीं कहती, कभी उनके साथ छल कपट नहीं करती वह भी मरने पर इसी भाँति
अपने पति के साथ रहकर स्वर्गसुख लूटती है।
जिन जीवों की कमाई पूरी हो जाती है, जिनका पुण्य चुक जाता है, वे सब
फिर स्वर्ग से आकर धरती में जनमते हैं, ऐसे ही जीव ये सब रात के
टूटते हुए तारे हैं। धीरे-धीरे अपना तेज खोकर स्वर्ग से गिरते हैं,
और फिर आकर इस धरती में जन्म लेते हैं।
लड़का चुपचाप माँ की बातों को सुनता था, जब माँ ने बातें पूरी कीं,
बोला, माँ तुम यह सब क्या कहती हो, ये सब तारे ऋषि मुनि नहीं हैं,
जैसी हमारी यह धरती है, वैसे ही एक-एक तारा एक-एक धरती है, इनमें
कोई-कोई हमारी धरती से भी सैकड़ों गुना बड़ा है, ये तारे लाखों कोस की
दूरी पर हैं। इसी से देखने में छोटे जान पड़ते हैं, नहीं तो बहुत सी
बातों में ये सब ठीक हमारी धरती के से हैं। जैसे हमारी धरती पर नदी,
पहाड़, झील, बन, पेड़, गाँव, घर, जीव, जन्तु हैं, वैसे ही इन तारों में
भी समुद्र, नदी, बन, पहाड़, पेड़, पौधे, और जीव हैं; चाँद में जो काले
धाब्बे देखने में आते हैं; वे उसमें के नदी पहाड़ हैं। जैसे अपनी रात
होने पर हम लोग इन तारों को आकाश में चमकता हुआ देखते हैं, वैसे ही
जब उन तारों में रात होती है, तो वहाँ के रहनेवाले भी हमारी धरती को
इसी भाँति आकाश में चमकता हुआ तारा देखते होंगे। तारों के बीच से
उत्तर से दक्खिन को जो उजली धार सी निकल गयी है, यह आकाश गंगा नहीं
है, यह अनगिनत तारों की पांती है जो बहुत छोटे और बहुत दूर होने से
आँखों को दिखलाई नहीं देते, और आँखों से न दिखलाई देने ही से उनकी
पांती एक उजली धार सी जान पड़ती है, नहीं तो सचमुच यह कोई नहीं है, और
न उजली धार ही है। अरुंधती, जिनको तुम वशिष्ठ मुनि के पास बैठी समझती
हो, उनसे लाखों कोस की दूरी पर होगी यहाँ से बहुत दूर पर होने से ही
हम तुमको वे दोनों पास-पास जान पड़ते हैं। ये जो तारे टूटते हैं, वे
स्वर्ग के जीव नहीं हैं जो धरती की ओर जनमने के लिए गिरते हैं, भगवान
ने अन्त सबका बनाया है। दिन पाकर इन तारों का भी नाश होता है, उस घड़ी
ये तारे बिखर जाते हैं, और उनके अनगिनत टुकड़े आकाश में इधर-उधर गिरने
लगते हैं जो टुकड़े हम लोगों की आँखों के सामने होकर निकलते हैं, वे
ही टूटते हुए तारे हैं। आजकल के पढ़े-लिखे लोग कहते हैं, दस सौ बरस
पीछे हमारा चाँद भी बिखर जायगा, जिस घड़ी यह बिखरेगा, इसके टुकड़े भी
टूटते हुए तारे की भाँत आकाश में दिखलाई पड़ेंगे।
वह चौदह बरस की लड़की जो उस अधेड़ स्त्री के पास बैठी हुई थी, लड़के की
बातों को सुनकर खिलखिला कर हँस पड़ी, वह अधेड़ स्त्री भी जो इन दोनों
लड़कों की माँ है, इन बातों को सुनकर कुछ घड़ी चुप रही, फिर बोली,
बेटा! ये सब नई बातें हैं, कुछ अचरज नहीं जो ठीक हों, पर हमलोगों के
उतने काम की नहीं हैं, ऐसी बातें कुछ तुम लोगों ही के काम की होती
हैं।
लड़के ने कहा, माँ! ये बात नई कैसे हैं, एक पण्डित जी परसों कहते थे,
ये सब बातें हमारे यहाँ भी लिखी हुई हैं। यह जो एक तारा दक्खिन ओर
झुका हुआ सर के ऊपर लाल रंग का दिखलाई देता है, इसका नाम मंगल है।
आजकल के पढ़े-लिखे लोग कहते हैं, यह तारा हमारी धरती ही का टुकड़ा है,
और इसी से निकल कर बना है, इसकी सब बातें लगभग धरती ही की सी हैं। वे
पण्डित जी कहते थे कि इस बात को हमारे बड़े लोग भी जानते थे, क्योंकि
जो न जानते होते तो मंगल को धरती का बेटा¹ क्यों कहते। ऐसे ही एक
छोटा सा तारा जो कभी सबेरे बेले पूर्व ओर कभी साँझ को पश्चिम ओर आकाश
में नीचे को दिखलाई देता है, वह बुध है। कहा जाता है कि इसको बने अभी
थोड़ा दिन हुआ है, यह अभी नया है, यह जाना भी बहुत पीछे गया है।
पण्डितजी कहते थे, बुध के लिए ठीक ऐसी ही बातें हमारे यहाँ भी लिखी
हैं।
माँ-बेटे में ये बातें होती ही थीं, इतने ही में आकाश में बड़ा उजाला
हो गया, और एक बड़ा तारा टूटकर आकाश से गिरते हुए उनको दिखलाई पड़ा। यह
तारा ठीक इन लोगों के घर की सीधा में आ रहा था, और ज्यों-ज्यों पास
आता जाता
¹ संस्कृत में मंगल का नाम भौम भूमितनय इत्यादि भी लिखा है।
था, एक सनसनाहट की धुन चारों ओर फैलती जाती थी, जिससे इन लोगों में
खलबली सी मच गयी। पर देखते-ही-देखते यह तारा इन लोगों के घर से दूर
एक खेत में जा गिरा, और लड़का उठकर उसी ओर चला गया।
दूसरी पंखड़ी
जिस खेत में यह टूटा हुआ तारा गिरा, उसमें देखते-ही-देखते एक भीड़ सी
लग गयी, लोग पर लोग चले आते थे, और सब यही चाहते थे, किसी भाँत भीड़
चीरकर उस तारे तक पहुँचें, पर इतने लोग वहाँ इकट्ठे हो गये थे, जिससे
पीछे आये हुए लोगों का उसके पास तक पहुँचना कठिन था। जितना मुँह उतनी
बातें सुनने में आती थीं, सब इस सोच में डूबे हुए थे, यह क्या है।
टूटे हुए तारे के चारों ओर बहुत लोग खड़े थे, पर उनमें से एक भी इतना
जीवट नहीं रखता था, जो उसको छूकर उसका भेद बतलावे, कुछ घड़ी यों ही
बीती, वह जैसे पहले एक पत्थर की बड़ी चट्टान की भाँति खेत में पड़ा हुआ
था, अब भी बिना हिले-डुले वैसे ही पड़ा है, पर उसको कोई हाथ तक नहीं
लगा सकता। पीछे एक ने कुछ जीवट किया, अपना कलेजा थामा, और दूर से एक
ढेला उस पर फेंका। ढेला सनसनाता हुआ आकर उस पर गिरा, उस सुनसान रात
में खटाक का शब्द हुआ, और फिर वैसा ही सन्नाटा छा गया। वह तनिक हिला
तक नहीं, जैसे पहले पड़ा था वैसे ही पड़ा रहा। अब की बार एक दूसरे जन
ने एक मोटी लाठी से ठोक-ठोक कर उसको भली-भाँति देखा, और कहा, यह तो
पत्थर की चट्टान है, कोई डरने की बात नहीं है, सब लोग पास आओ इसको
देखो जो मैं कहता हूँ सच है कि नहीं। धीरे-धीरे छड़ी औेर हाथों से
टटोल कर सब लोगों ने इस दूसरे जन की बात मानी, पर अब यह सोचा जाने
लगा, आकाश से इतनी बड़ी पत्थर की चट्टान क्योंकर गिरी।
लोग यह सोच रहे थे, इसी बीच एक बूढ़ा बोल उठा-भाइयो! यह मैनाक पहाड़ का
एक टुकड़ा है, पहले पहाड़ों को पंख होते थे, इसलिए वे सब उड़ते और बहुत
से गाँवों को गिरकर उजाड़ दिया करते थे, जब यह बात राजा इन्द्र से न
देखी गयी, तो उन्होंने अपने हथियार से सब पहाड़ों का पंख काट डाला।
मैनाक उनके डर से भागा, और समुद्र में जाकर छिप रहा, इससे वह आज तक
बचा हुआ है। जान पड़ता है इस कलयुग में वह फिर समुद्र से निकला है, और
उड़ता हुआ किसी गाँव पर गिरने के लिए किसी ओर गया है, उसी से यह एक
टुकड़ा निकल कर यहाँ गिर पड़ा है, यह एक मन से घट थोड़े ही होगा। जो
उसमें से निकल कर न गिरता, तो आकाश में इतना बड़ा पत्थर का टुकड़ा कहाँ
से आता। बड़ी कुशल हुई जो मैनाक इसी गाँव पर नहीं गिरा, नहीं तो आज हम
लोगों को कहीं ठिकाना भी न मिलता।
एक बूढ़े पुराने ढंग के पण्डित भी वहाँ खड़े थे, वे बोले, यह बात नहीं
है, जो यह मैनाक का टुकड़ा होता तो इसमें जोत कहाँ से आती, आप लोगों
ने नहीं देखा था, इसके गिरने के समय कैसा उजाला हुआ था, और जब यह
आकाश से नीचे को आ रहा था, जान पड़ता था सूरज का टुकड़ा धरती की ओर आ
रहा है। मैं समझता हूँ, यह स्वर्ग का कोई जीव है, किसी शाप से पत्थर
होकर धरती में आया है। पुराणों में लिखा है अपने पति के शाप से
अहल्या को पत्थर होना पड़ा था, जान पड़ता है यही दशा इसकी भी हुई है।
अभी घड़ी भर पहले दूसरे तारों की भाँत आकाश में ये भी चमकते रहे
होंगे, पर जग का कैसा ढंग है, जो घड़ी भर पीछे हम इनको पत्थर होकर धूल
मिट्टी के बीच एक खेत में पड़ा हुआ पाते हैं। राम का नाम जपने के लिए
इससे बढ़कर और कौन सी डरावनी बात दिखलायी जा सकती है।
एक नए पढ़े बाबू भी वहाँ खड़े थे, बोले आप लोग जो कहें, पर जहाँ तक
मैं सोचता हूँ टूटे हुए तारे छोड़ यह और कुछ नहीं है। आकाश में इतने
बड़े और इससे कई गुने लम्बे चौड़े और छोटे अनगिनत टुकड़े दिन रात चक्कर
लगाया करते हैं, दिन पाकर जब ऐसे बहुत से टुकड़े धीरे-धीरे इकट्ठे हो
जाते हैं, तो एक तारा बन जाता है, इस तारे में कुछ दिनों में जोत भी
आ जाती है, और तब यह चमकीला हो जाता है। ऐसे ही बनने के बहुत दिनों
पीछे बहुत से तारे बिखर भी जाते हैं। जिस घड़ी ये बिखरते हैं, उस बेले
इनके अनगिनत टुकड़े आकाश में इधर-उधर फैलते हैं, उनमें से पहले की
भाँति बहुत से फिर आकाश ही में चक्कर लगाने लगते हैं, बहुत से इतने
छोटे होते हैं, जो कठिनाई से देखे जा सकते हैं, जो कुछ इनसे बड़े होते
हैं, वे आकाश से धरती पर पहुँचते-पहुँचते राख बन जाते हैं, इनमें जो
बहुत बड़े होते हैं, वे कभी-कभी धरती पर भी आन गिरते हैं। ऐसी बात
सैकड़ों ठौर हो चुकी है, कुछ पहले पहल यहीं यह बात नहीं हुई है। आप
लोग इसको भली-भाँति देखें, यह पत्थर की चट्टान नहीं है, जिन सब
वस्तुओं से हमारी यह धरती बनी है, वे ही सब वस्तुएँ इसमें भी हैं।
ये सब बातें हो ही रही थीं, इसी बीच पूर्व ओर से बहुत बड़ा धक्का आया,
जिससे सामने के सब लोगों के पाँव उखड़ गये, और एक लड़का धड़ाम से उसी
टूटे हुए तारे के ऊपर गिर पड़ा, गिरते ही उसके सिर में बहुत चोट आयी,
सिर फूट गया, लहू बहने लगा, और वह अचेत हो गया। यह देखकर सब लोग घबरा
उठे, और फिर जितने मुँह उतनी बातें सुनी जाने लगीं। दो-चार लोगों ने
धर-पकड़कर उस लड़के को उसके घर पहुँचाया, और धीरे-धीरे यह चर्चा गाँव
भर में फैल गयी। थोड़ी ही बेर में टूटे हुए तारे के पास की भीड़ भी छँट
गयी।
तीसरी पंखड़ी
एक बहुत ही सजा हुआ घर है, भीतों पर एक-से-एक अच्छे बेल-बूटे बने हुए
हैं। ठौर-ठौर भाँति-भाँति के खिलौने रक्खे हैं, बैठकी और हांड़ियों
में मोमबत्तियाँ जल रही हैं, बड़ा उँजाला है, बीच में एक पलँग बिछा
हुआ है, उस पर बहुत ही सुथरा और सुहावना बिछावन लगा है, पास ही कई एक
बढ़िया चौकियाँ भी पड़ी हैं, इनमें से एक पर एक लम्बा चौड़ा बाजा रखा
हुआ है, यह बाजा अपने आप बज रहा है, कभी मीठे-मीठे सुर भरता है, कभी
अच्छी-अच्छी गीत सुनाता है, कभी अपने आप चुप हो जाता है। रात का
सन्नाटा है, कहीं कोई बोलता नहीं, इससे इस बाजे का सुर रंग दिखला रहा
है। जिस पलंग की बात हमने ऊपर कही है, उसी पर लेटा हुआ एक जन इस बाजे
को बहुत जी लगाकर सुन रहा है, तनिक हिलता तक नहीं। बाहर जो कहीं कुछ
खड़कता है, तो भौंहें टेढ़ी हो जाती हैं, पर बाजे में इतना लीन होने पर
भी वह जैसे कुछ चंचल है, आँखें उसकी किवाड़ की ओर लगी हैं। कान कुछ
खड़े से हैं। जान पड़ता है किसी की बाट देख रहा है। और क्या जाने
उतावले होकर ही जी बहलाने के लिए उसने बाजे में कुंजी दे रखी है,
नहीं तो इतना चंचल क्यों?
खिड़कियों में से धीरे-धीरे ठण्डी-ठण्डी बयार आती है और चुपचाप उस
सन्नाटे में बाजे के मीठे-मीठे सुरों को लेकर बाहर निकलती है, दूर
निराले में जाते हुए किसी थके हुए बटोही के कानों में कहीं अमृत की
बूँद सी ढाल देती है, कहीं गाँव से बाहर खेत के एक कोने में चुपचाप
बैठे हुए किसी किसान के मन को ब्रज की बाँसुरी की सुरति कराती है। एक
ठौर जो किसी कोयलकंठवाली के मतवाले को कलेजे में पीर सी उठाकर बावला
बनाती है, तो दूसरी ठौर अंधियाले में खड़े हुए पेड़ों के धीरे-धीरे
हिलते हुए पत्तों में से उनको कठिनाई से जैसा-का-तैसा बाहर निकालती
है और पास के किसी कोठे में एक आँसू बहाती हुई बिरहिनी को रिझा कर
अपने मन की सी करना चाहती है, पर उलटा उसको अपने आपे से बाहर होता
देखकर एक झरोखे से निकल भागती है, और फिर पहले की भाँति वैसी ही
अठखेलियाँ करने लगती है। अब की बार वह एक हँसमुख स्त्री के मन को बस
करने में लगी, उसके मन को लुभाया, उसकी उमंग को दूना किया, पर उसके
हाथ के गजरों की महँक पर आप भी मोह गयी। इधर यह फूलों की बास से बसी
हुई आगे बढ़ी, उधर वह उन मीठे-मीठे सुरों पर लोट-पोट होती हुई
लम्बी-लम्बी डेग भरने लगी। कुछ ही बेर में उसने उस सजे हुए घर को
देखा।
बाजा बजते-बजते रुक गया, सुरों की दूर तक फैली हुई लहरें पहले पवन
में पीछे धीरे-धीरे आकाश में लीन हुईं। सन्नाटा फिर जैसा-का-तैसा
हुआ। पर यह क्या? फिर यह सन्नाटा क्यों टूट रहा है? यह घँघरुओं की
झनकार कैसी सुनाई पड़ती है? बाजे के सुरों से भी रसीला सुर यह कौन छेड़
रहा है? क्या जिस जन को हमने ऊपर इतना चंचल देखा था, यह उसी का ढाढ़स
बँधानेवाला प्यारा सुर तो नहीं है? वह देखो, वह घर के बाहर भी तो
निकला आ रहा है, क्या जिस ओर से झनकार आ रही है उसी ओर जाना चाहता
है? क्यों जायगा। देखते नहीं, छम्-छम् करती उसके पास आकर कौन खड़ी हो
गयी? क्या यह ऊपर की गजरेवाली स्त्री तो नहीं है?
जो जन अभी घर से बाहर आया है, उसका नाम कामिनीमोहन है। कामिनीमोहन ने
उस स्त्री की ओर देखकर कहा। क्यों बासमती? अच्छी तो हो?
बासमती-हाँ, अच्छी हूँ! बहुत अच्छी हूँ!! आज मैं आप का बहुत कुछ काम
करके आयी हूँ, इसीलिए अच्छी हूँ। मेरे लिए अच्छा होना और दूसरा क्या
है!!!
कामिनीमोहन-क्या सब ठीक हो गया? क्या अब की बार तुम मोहनमाला ले ही
लोगी? मैं सच कहता हूँ, बासमती! जो मेरा काम हो गया, तो मैं तुमको
मोहनमाला ही न दूँगा, उसके संग एक सोने का कण्ठा भी दूँगा।
बासमती-आप इतने उतावले क्यों होते हैं? आपसे मैंने क्या नहीं पाया और
क्या नहीं पाऊँगी। मैं मोहनमाले और कण्ठे को कुछ नहीं समझती। जिससे
आपका जी सुखी हो, मैं उसी की खोज में रहती हूँ, और उसके मिलने पर सब
कुछ पा जाती हूँ।
कामिनीमोहन-क्या हम यह नहीं जानते, तुम कहोगी तब जानेंगे? जो
तुम्हारे में यह गुण न होता तो हम तुम्हारा इतना भरोसा क्यों करते?
पर इस घड़ी इन बातों को जाने दो। आज क्या कर आयी हो, यह बतलाओ?
बसमती-बतलाऊँगी, सब कुछ बतलाऊँगी, पर इस घड़ी नहीं, मैं जो कुछ ठीकठाक
कर आयी हूँ, जो मैं बात करने में फँसूँगी, तो वह सब बिगड़ जावेगा,
इसलिए अब मैं यहाँ ठहरना नहीं चाहती, उसी ओर जाती हूँ। आज मैं आपसे
मिलने के लिए पहले कह चुकी थी, इसीलिए आयी हूँ। जो मैं न आती, आप
घबराया करते।
कामिनीमोहन-क्या दो-एक बातें भी न बताओगी?
बासमती-अभी दो-एक बातें भी न बतलाऊँगी, अब मैं जाती हँ, आप इन गजरों
से अपना जी बहलाइये, मैं जब चलने लगी थी, आपके लिए इनको साथ लेती आयी
थी। देखिए तो इनमें कैसी अच्छी महँक है।
कामिनीमोहन ने गजरों को हाथ में लेकर कहा, अच्छा जाना चाहती हो तो
जाओ, पर जी में एक अनोखी उलझन डाले जाती हो। जब तक फिर आकर मुझसे तुम
सब बातें पूरी-पूरी न कहोगी, मुझको चैन न पड़ेगा। क्या इन गजरों के न
कुम्हलाते-कुम्हलाते तुम आकर मेरे जी की कली खिला सकती हो?
बासमती-आपके जी की कली मैं खिला सकती हूँ, पर इन गजरों के न
कुम्हलाते-कुम्हलाते नहीं। कहाँ गजरों का कुम्हलाना! कहाँ कली का
खिलना। क्या बिना भोर हुए भी कली खिलती है?
कामिनीमोहन-गजरे कब बिना भोर हुए कुम्हलाते हैं?
बासमती-आप ही सोचें। मैं यही कहूँगी जिस घड़ी फूलों से भी कहीं सुन्दर
आपके हाथों में मैंने इन गजरों को दिया, यह अपनी बड़ाई को खो जाते
देखकर उसी घड़ी कुम्हला गये! अब आगे यह क्या कुम्हलायेंगे?
कामिनीमोहन ने देखा, इतना कहकर वह मुसकराती हुई वहाँ से चली गयी। और
देखते-ही-देखते उसी अंधियाले में छिप गयी। कभी-कभी दूर से आकर उसके
बजते हुए घुँघरुओं की झनकार कानों में पड़ जाती थी।
कामिनीमोहन कुछ घड़ी वहीं खड़ा-खड़ा न जाने क्या सोचता रहा, पीछे वह घर
में आया, और फिर उसी पलंग पर लेट गया, पर नींद न आयी, घण्टों इधर-उधर
करवटें बदलता रहा, भाँति-भाँति की उधेड़ बुन में लगा रहा, आँखें मीच
कर नींद के बुलाने का जतन करता रहा, पर नींद कहाँ? अबकी बार वह फिर
पलंग पर से उठा, बिछावन को हाथों से झाड़ा, कुछ घड़ी धीरे-धीरे टहलता
रहा, पीछे सोया, नींद भी आयी, और कुछ घण्टों के लिए भाँति-भाँति की
उलझनों से छुटकारा पा गया।
चौथी पंखड़ी
चाँद कैसा सुन्दर है, उसकी छटा कैसी निराली है, उसकी शीतल किरणें
कैसी प्यारी लगती हैं! जब नीले आकाश में चारों ओर जोति फैला कर वह
छवि के साथ रस की वर्षा सी करने लगता है, उस घड़ी उसको देखकर कौन पागल
नहीं होता? आँखें प्यारी-प्यारी छवि देखते रहने पर भी प्यासी ही रहती
हैं! जी को जान पड़ता है, उसके ऊपर कोई अमृत ढाल रहा है, दिशायें
हँसने लगती हैं, पेड़ की पत्तियाँ खिल जाती हैं। सारा जग उमंग में
मानो डूब सा जाता है। ऐसे चाँद, ऐसे सुहावने और प्यारे चाँद में
काले-काले धाब्बे क्यों हैं? क्या कोई बतलावेगा!!! आहा! यह कमल सी
बड़ी-बड़ी आँखें कैसी रसीली हैं! इनकी भोली-भोली चितवन कैसी प्यारी
है!! इसमें मिसिरी किसने मिला दी है!!! देखो न कैसी हँसती हैं, कैसी
अठखेलियाँ करती हैं! चाल इनकी कैसी मतवाली हैं? यह जी में क्यों पैठी
जाती हैं? बरबस प्रान को क्यों अपनाये लेती हैं? क्या इनकी सुन्दरता
ही यह सब नहीं करती? ओहो! क्या कहना है! कैसी सुन्दरता है!! मन क्यों
हाथों से निकला जाता है? इसलिए कि उस की सुन्दरता में जादू है!!! पर
घड़ी भर पीछे यह क्या गत है? इनको इतना उदास क्यों देखते हैं! यह आँसू
क्यों बहा रही हैं? क्या कोई कह सकता है! जो आँखें ऐसी रसीली, ऐसी
सुन्दर और ऐसी मतवाली हैं, उनको रोने धोने और आँसू बहाने का रोग
क्यों लगा? अभी कुछ घड़ी पहले हमने जिस स्त्री को अपने लड़के लड़की के
साथ मीठी-मीठी बातों से जी बहलाते देखा था, हँसती बोलती पाया था, वह
इस घड़ी क्यों रो-कलप रही है, क्यों सर पर हाथों को मार रही है? क्या
इसका भेद बतानेवाला कोई है? नहीं कहा जा सकता! जग में सभी ढंग के लोग
हैं! कोई बतानेवाला भी होगा! पर मैं समझता हूँ जहाँ सुख है वहाँ दुख
भी है, जहाँ अच्छा है वहाँ बुरा है, जहाँ फूल है, वहाँ काँटा है।
जाड़े का दिन है, शीत से कलेजा काँप रहा है, घने बादल आकाश में छाये
हुए हैं। पवन चल रही है, जो फष्टा कपड़ा पास है, उससे देह तक नहीं ढँक
सकती, सूरज की किरणों का ही सहारा है, पर बादल कैसे हटे? घबड़ाहट बड़ी
है। इतने में आकाश में एक ओर बादल कुछ हटते दिखलाई पड़े, थोड़ा सा आकाश
खुल गया, इसी पथ से सूरज की किरणें आकर कुछ-कुछ काँपते हुए कलेजे को
ढाढ़स बँधाने लगीं! जी थोड़ा ठिकाने हुआ, धीरे-धीरे यह भरोसा भी हुआ-अब
बादल हटते जायेंगे। जग के सब कामों की यही गत है-जहाँ उलझन-ही-उलझन
देखने में आती है-वहाँ थोड़ा-सा सुलझाव ही बहुत गिना जाता है-जो बातें
बहुत ही गूढ़ हैं, उनका थोड़ा सा ओर-छोर मिल जाना ही जी का बहुत कुछ
बोध करता है। परमेश्वर की करतूत के गढ़ भेदों को समझना सहज नहीं-किस
घड़ी कौन काम किसलिए होता है, और उसका छिपा हुआ भेद क्या है, उसको हम
लोग क्या जान सकते हैं? पर ऐसे बेले उस ठौर जो बातें देखने-सुनने में
आती हैं उन्हीं में से किसी एक को हम लोग उस काम का कारण समझ लेते
हैं, और उस घड़ी इतने समझ लेने ही को बहुत जानते हैं। वह स्त्री जिसकी
चर्चा हमने ऊपर की है, इस घड़ी क्यों रो रही है? सर पर क्यों हाथों को
मार रही है? हँसते-ही-हँसते उसकी यह क्या गत हो गयी? हम इसका गूढ़ भेद
क्या बतला सकते हैं, पर जो बात देख सुन रहे हैं उसको बतलावेंगे।
एक खाट बिछी हुई है, उस पर वही लड़का जिसको हमने आँगन में पलँग पर
लेटे हुए पोथी पढ़ते देखा था, अचेत पड़ा हुआ है, सर से लहू बह रहा है,
मुँह पीला पड़ गया है। पास ही पाँच चार स्त्रियों भी बैठी हैं। इनमें
एक लड़के की माँ, दूसरी उसकी बहन और तीसरी गजरेवाली है। दो उसी पड़ोस
की और हैं। लड़के की माँ उसको अचेत और उसके सर से लहू बहता देखकर ही
रो पीट रही है। और उसकी बहन भी बहुत घबराई हुई है, पर इन दोनों को
वही गजरेवाली समझा-बुझा रही है। पड़ोस की दोनों स्त्रियों में से एक
पानी छोड़ती है, और दूसरी लड़के के घाव को धो रही है। लड़के की माँ का
नाम पारवती, और बहिन का नाम देवहूती है। गजरेवाली का नाम बासमती है,
यह आप लोग जानते हैं। यह जाति की मालिनहै।
पारवती और देवहूती को बहुत घबराई हुई देखकर बासमती ने कहा, लहू का
जाना रुकता नहीं, लड़का अचेत पड़ा है, बैदजी आज घर नहीं हैं जो उनको
बुला लाकर दिखलाऊँ, और जो बात मैं कहती हूँ उसको तुम मानती नहीं हो,
फिर काम कैसे चलेगा? मेरी बात मानो, नहीं तो मैं देखती हूँ अनरथ हुआ
चाहता है।
पारवती-मेरे घर आज तक कोई ओझा नहीं आया, देवहूती के बाप कहा करते।
जिस घर में ओझा का पाँव पड़ा वह घर चौपट हुआ! फिर मैं तेरी बात कैसे
मानूँ। पर हाँ! जो कोई दूसरा ऐसा मिले, जो मुझ दुखिया को इस दुख में
सहारा दे सके तो तू जा उसको लिवा ला, मैं तेरा बहुत निहोरा मानूँगी।
बासमती-ओझा होने ही से क्या होता है, क्या सभी ओझे थोड़े ही बुरे होते
हैं, फिर भले बुरे किसमें नहीं होते। मैंने कई एक ऐसे वैद और पण्डित
भी देखे हैं, जिनका नाम लेते पाप लगता है, तो क्या इससे सभी वैद और
पण्डित बुरे हो जावेंगे? यह मैं मानती हूँ, हरलाल जाति का कोहार है,
और ओझा है। पर कोहार और ओझा होने ही से वह बुरा भी है, यह मैं कभी
नहीं मान सकती। फिर हरलाल वैदई भी तो करता है, जब बड़े महाराज नहीं
हैं, तो हरलाल को आप वैदई के लिए ही क्यों नहीं बुलातीं? ओझा होने से
क्या वैदई करने के लिए भी वह नहीं बुलाया जा सकता?
पारवती-जिन लोगों में बहुत लोग बुरे होते हैं, जो उनमें दो-चार अच्छे
भी हों तो उनके बुरे होने ही का डर रहता है। और जिन लोगों में बहुत
लोग अच्छे होते हैं उनमें जो दो-चार बुरे भी हों तो इस बात की खटक जी
में पहले नहीं होती। पण्डित और बैदों में बहुत लोग भले और अच्छे होते
हैं, इससे उनमें जो कोई बुरा भी हो तो, पहले ही उससे जी नहीं खटकता।
पर ओझा लोगों में जो लगभग सभी बुरे होते हैं, और उनमें जो बहुत करके
नीच ही हुआ करते हैं, इससे पहले तो उनमें भलाई होती ही नहीं, और जो
दो एक कोई भला हो भी तो, मन को उनकी परतीत नहीं होती। इसलिए उनसे सदा
दूर ही रहना अच्छा है। पर इस घड़ी मैं बावली बनी हूँ, मेरा कलेजा फट
रहा है, मेरा बच्चा अचेत खाट पर पड़ा है, भाग की खुटाई से वैदजी घर
नहीं हैं। इसलिए जा! तू जा!! जो वह वैदई भी करता है, तो उसी को लिवा
ला। वह साठ बरस का बूढ़ा भी है। पर मैं बड़ी दुबिधा में पड़ी हूँ, जो
मेरे पति का वचन नहीं है, उसको कर रही हूँ, कहीं ऐसा न हो, जो मुझे
कुछ धोखा हो!!!
बासमती-मैं जाती हूँ, आप सब बातों में खटकती बहुत हैं, पर ऐसा न
चाहिए, कभी-कभी हम लोगों की भी परतीत करनी चाहिए। आप देखेंगी, हरलाल
आते ही बाबू को अच्छा कर देगा।
यह कहकर वह वहाँ से चली गयी।
पाँचवीं पंखड़ी
बासमती जाने से कुछ ही पीछे हरलाल को ले कर लौट आयी। हरलाल छड़ी से
टटोल-टटोल कर पाँव रखते हुए घर में आया। उसके आते ही पारबती और
देवहूती वहाँ से हटकर कुछ आड़ में बैठ गयीं, पर पड़ोस की दोनों
स्त्रियों पहले ही की भाँति लड़के की सम्हाल में लगी रहीं। हरलाल घर
में आकर सीधे लड़के की खाट के पास चला गया, पहले उसने उसकी नाड़ी देखी,
पीछे सर और छाती को टटोला, नाक के छेदों के पास हाथ ले जाकर देखा,
साँस कैसे चल रही है, आँखों को खोलकर उनके तारों को देखा, फिर सर में
जो चोट आयी थी, उसकी देखभाल की, और यह सब करके बहुत ही अनमना सा होकर
कहने लगा-बासमती! तुम मुझको लिबा तो लाई हो, पर बाबू की दशा बहुत ही
बिगड़ गयी है, इनके सर से बहुत लहू निकल गया है, और अब तक निकल रहा
है, इससे इनका प्राण इस घड़ी बड़ी जोखों में है। मैं क्या करूँ क्या न
करूँ, कुछ समझ में नहीं आता, जो चला जाऊँ तो कल्ह सबको मुँह कैसे
दिखाऊँगा, और जो जतन और उपाय करने लगूँ तो जी को एक बड़ा भारी खटका
होता है। पर दुरगा माई जो करें, जो मैं आ गया तो बिना कुछ किये अब न
जाऊँगा। हाँ! यह बात मैं कहे देता हूँ, मुझको बल भरोसा दुरगा माता का
है, जो कुछ मैं करूँगा उन्हीं के भरोसे करूँगा, बिना उनका सुमिरन
किये मैं कुछ नहीं कर सकता, बिपत में उन्हीं का नाम सहाय होता है,
उन्हीं का नाम लेने से दुख कटता है, इसलिए अब मैं दुरगा माता का
सुमिरन करूँगा, तू थोड़ा सा धूप, गूगुल ला दे।
पारवती की इस घड़ी बुरी गति थी, बेटे की बुरी दशा देख सुनकर उसका
कलेजा फट रहा था, आँखों से लहू गिर रहा था, रह-रह कर जी बावला होता
था। इसी बीच हरलाल ने अपना टंट घंट फैलाया। आया था बैदई करने, ओझाई
करने पर उतारू हुआ। यह देखकर पारबती के रोयें रोयें में आग लग गयी,
उसका जी जल भुन गया, पर वह करे तो क्या करे, चुपचाप सब कुछ सहना पड़ा।
बिपत सामने खड़ी है, लड़का अचेत खाट पर पड़ा है, भाँत-भाँत की बातें जी
में उपज रही हैं, न जाने कहाँ-कहाँ जी जा रहा है, ऐसे बेले दुरगा
माता का सुमिरन करने को कौन रोक सकता है। जी न होने पर पारवती ने घर
में से धूप और गूगुल ला कर मालिन को दिया। धूप गूगुल को पाकर हरलाल
के जी की अटक भी दूर हुई। उसने आग मँगा कर उस पर धूप और गूगुल जलाया।
देखते-ही-देखते सारा घर महँकने लगा, और इसके थोड़े ही पीछे एक सुरीले
गले का सुर चारों ओर फैल गया। हरलाल ने सुमिरन के बहाने गाया।
गीत
दुरगा माता सीस नवाता हूँ चरणों पर तेरे।
मैं हूँ दास तुम्हारा दया करो तुम ऊपर मेरे।
पार नहीं पाता है कोई बकते हैं बहुतेरे।
अपना भला देखता हूँ जस गाकर साँझ सबेरे।
मुझमें नहिं ऐसी करनी है जो तू आवे नेरे।
अपनी ओर देख कर माता तू मत आँखें फेरे।
कितने दुख कट जाते हैं जो तुम्हें नेह से टेरे।
लिए तुम्हारा नाम बिपत भी रहती है नहिं घेरे।
लाज आज जाती है जो हम करें उपाय घनेरे।
जन की पत रह जाती है पर तनिक तुम्हारे हेरे।
यही आस मेरे जी में है क्या तू नहीं निबेरे।
जग में सब कुछ पाते हैं तेरे चरणों के चेरे।1।
सुमिरन करने पीछे हरलाल ने लड़के के सर और छाती पर हाथ फेरा, कुछ पढ़
कर दो-तीन बार फूँका, फिर थोड़ी सी मली हुई पत्तियाँ मालिन के हाथ में
देकर कहा, इसको पीस कर अभी बाबू के घाव पर लगा दे। पत्तियाँ अभी पीसी
जा रही थीं इसी बीच लड़के ने आँखें खोल दीं, और धीरे-धीरे करवट भी ली।
लड़के को आँखें खोलते और करवट लेते देखकर सबके जी में जी आया। पारवती
के जी को भी बहुत कुछ ढाढ़स हुआ।
हरलाल जब सुमिरन करने लगा, और उसका बहुत ही ऊँचा सुर घर में से निकल
कर बाहर फैलने लगा, उस घड़ी पारबती मर सी गयी। उसने सोचा जो कोई इसको
सुनता होगा, क्या कहता होगा, एक भलेमानस के घर में इतनी रात गये यह
कैसा गीत हो रहा है? क्या यह विचार उसके जी को डावांडोल ने करता
होगा? जो डावांडोल करता होगा, तो वह हम लोगों को क्या समझता होगा?
भले घर की बहू बेटी तो कभी न समझता होगा, क्या इससे भी बढ़कर और कोई
दूसरी बात लाज की है? क्या यह हम लोगों के लिए धरती में गड़ जाने की
बात नहीं है? पारबती जितना ही इन बातों को सोचने लगी, उतना ही दुखी
होती गयी। उसका जी कहता था अभी हरलाल को घर से बाहर निकाल दूँ। पर एक
तो उसका नेह के साथ दुरगा माता का सुमिरन कलेजे को पिघला रहा था,
दूसरे लड़के की बुरी दशा ने उसको आपे में नहीं रखा था, इसलिए वह जैसा
सोचती थी, कर नहीं सकती थी। जब सुमिरन के पूरा होते-होते दो-चार बार
झाड़ फूँक करने ही से लड़के ने आँखें खोल दीं, उस घड़ी पारबती पहले की
सब बातें भूल गयी, और हरलाल की उसको बहुत कुछ परतीत हुई।
जब बासमती हरलाल को लेने गयी, उस बेले पड़ोस की दोनों स्त्रियों ने
लड़के के सर को भली-भाँति धो-धाकर उसपर कपड़े की पट्टी बाँध दी थीं। इस
पट्टी को ठहर-ठहर कर वे दोनों भिंगो रही थीं। हरलाल ने आते ही यह सब
देख लिया था, और नाक के छेद के पास हाथ ले जाकर और इसी भाँत की दूसरी
जाँचों से उसने यह भी जान लिया था, लड़के को चेत अब हुआ ही चाहता है।
वह अपना रंग जमाने के लिए ही आया था, इसलिए औषधी से काम न निकाल कर
उसने अपनी ओझाई को चमकाना चाहा, और ऐसा ही किया। पीछे उसने पत्तियाँ
कुछ दी थीं, पर यह दिखलावा था, यह पत्तियाँ भी ऐसी ही वैसी थीं,
कहने-सुनने से लेता आया था, पर बात वही हुई, जो वह चाहता था,
पत्तियाँ लगाई तक नहीं गयीं; और लड़के ने आँखें खोल दीं। हरलाल की
ओझाई ही पक्की रही।
लड़के को आँख खोलते देखकर हरलाल की नस-नस फड़क उठी, उसने समझा अब मैंने
सबके ऊपर अपना रंग जमा लिया। इसलिए अब वह अपनी दूसरी चाल चला। सबके
देखते-ही-देखते वह हाथ पैर नचाने लगा, सर हिलाने लगा, आँखें निकाल
लीं, मुँह को डरावना बना दिया और रह-रह कर ऐसा तड़पता था, जिसको सुनकर
कलेजा दहल उठता। मालिन को छोड़कर और जितनी स्त्रियों वहाँ थीं, उसका
यह रंग-ढंग देखकर घबड़ा गयीं। मालिन उसकी चाल को ताड़ गयी।
भीतर-ही-भीतर बहुत सुखी हुई। कुछ घड़ी अनजान सी बनकर उसका रंग-ढंग
देखती रही, पीछे बोली-आप कौन हैं!
हरलाल-मैं काली हँ रे, काली, डीह के थानवाली काली!!!
बासमती ने धूप और गूगुल अबकी बार बहुत सा जला कर कहा, आप काली माता
हैं! कहाँ आयी हो महारानी?
हरलाल-कहाँ आयी हूँ रे, कहाँ आयी हूँ, इसी हरललवा ने बुलाया है,
इसीके मारे आयी हूँ, यह मुझे इसी भाँत जहाँ तहाँ बुलाया करता है, यह
नहीं जानता, इस लड़के ने अपनी करनी का फल पाया है, मैं इसे छोड़ थोड़े
ही सकती हूँ।
बासमती आग पर धूप गिराते-गिराते बोली-लड़का आप ही का है, इसे जो आप न
छोड़ेंगी, तो हम लोग कैसे जीयेंगी। इस से जो चूक हुई होगी, अनजान में
हुई होगी, और जो जान में भी कोई चूक हुई हो, तो उसको जो आप न छमा
करेंगी तो हम लोगों को दूसरा किसका भरोसा है।
हरलाल-अनजान! अनजान!! अनजान!!! अनजान रे अनजान! जो अनजान में कोई बात
हुई होती, तो मैं इतना बिगड़ती क्यों? अब के छोकरे देवी देवता को कुछ
समझते ही नहीं। परसों यह जूता पहने मेरे मन्दिर के चौतरे पर बेधड़क चढ़
गया। तनिक भी न डरा। यह न समझा, कलयुग है तो क्या, अब भी देवी देवता
में बहुत कुछ सकत है।
बासमती-सकत है क्यों नहीं माता! यह कौन कहता है सकत नहीं है!!! पर
मैं पाँव पड़ती हूँ, नाक रगड़ती हूँ, मत्था नवाती हँ, आप इस लड़के की
चूक छमा करें! इस लड़के ने चूक तो बहुत बड़ी की है, पर आपकी छमा के आगे
इसकी चूक कुछ नहीं है। जो आप इस लड़के की चूक छमा न करेंगी, तो हम सब
आपके मन्दिर में धरना देकर मर जायेंगी, कभी न जीयेंगी।
हरलाल-छमा!! छमा!!! ऐसे ही छमा करें?
बासमती-कैसे छमा करोगी? माता! जो आप करने को कहेंगी, हमलोग जैसे होगा
वह करेंगी, हमको छमा मिलनी चाहिए।
हरलाल-अच्छा, मैं छमा करूँगी, पर जो उपाय मैं बताती हूँ, वह करना
होगा, जो यह उपाय न होगा, तो मैं कभी इस लड़के को न छोड़ूँगी। मैंने
हरललवा के रोने गाने से इतना किया है, जो लड़के की आँखें खुल गयीं,
नहीं तो अब इसकी आँखें न खुलतीं। मेरे ही कोप से आज यह उस भीड़ में उस
टूटे हुए तारे पर गिरा, और इसका सर फूटा। जो मैं उपाय बतलाती हूँ जो
वह न होगा, तो यह कभी अच्छा न होगा। और जो उपाय होने लगेगा तो यह
दिन-दिन अच्छा होता जावेगा। क्यों, क्या कहती है? बोल!!!
बासमती-मैं क्या कहूँगी माता! जो आप कहेंगी वही होगा, कभी कुछ दूसरा
भी हो सकता है! इस लड़के से बढ़कर हम लोगों को क्या प्यारा है?
हरलाल-अच्छा सुन रे सुन! जो तुम करेगी तो मैं बताती हूँ। देवहूती के
गुण पर मैं रीझी हुई हूँ, जो वह सौ अधखिला फूल अपने हाथों से तोड़ कर
एक महीने तक मुझको नित चढ़ावे तब तो मैं उसके निहोरे इस छोकरे को
छोडूँगी, नहीं तो किसी भाँत न मानूँगी। बोल! क्या कहती है, ऐसा होगा?
बासमती-क्यों न होगा महारानी! यह कौन काम है, जो कोई बड़ा कठिन उपाय
आप बतलातीं, तो इस लड़के के बचाने के लिए हम सब वह भी करतीं। इसमें
क्या है?
हरलाल-अच्छा, जो तू मेरी बात मानती है तो ले मैं जाती हूँ, पर जान ले
जो मेरी बात न हुई तो छ ही सात दिन के भीतर यह लड़का ऐसी जोखों में
पड़ेगा, जिससे फिर इसका छुटकारा न होगा।
इतना कहने पीछे हरलाल का रंग-ढंग फिर पहले का सा हो गया, न अब उसका
हाथ-पाँव हिलता था, और न उसमें वह सब डरानेवाली बातें रह गयी थीं। वह
इस घड़ी बहुत ही धीरा पूरा जान पड़ता था, पर उसके मुँह पर थकावट रूखेपन
के साथ झलक रही थी।
पारवती हरलाल का अभुआना देख और उसकी बातें सुन कर बड़े झंझट में पड़
गयी, पहले हरलाल के ऊपर जो उसका विचार था, उसके सुमिरन का ढंग देखकर
और लड़के को कुछ सम्हला और चेत में आया पाकर, अब वह और भाँत का हो गया
था। अब वह हरलाल को पाखंडी न समझकर भलामानस समझने लगी थी। इसलिए उसने
उसकी बातों को धोखाधड़ी की बात न समझ कर निरी सच्ची बात समझा, और अपने
लड़के की करनी पर बहुत दुखी हुई। पर सबसे झंझट की बात उसके लिए सौ
अधखिले फूलों से एक महीने तक देवी की पूजा हुई। वह मन-ही-मन इन सब
बातों को सोच रही थी। इसी बीच हरलाल ने फिर थोड़ी सी और कोई पत्ती
मालिन के हाथ में देकर कहा, अब मैं जाता हूँ, तुम इस पत्ती को दो-चार
बार और बाबू के घाव पर रगड़वा कर लगवाना, माई चाहेगी तो वह इसी से
अच्छे हो जावेंगे, अब कोई दूसरी औखध न करनी पड़ेगी। मेरा बड़ा भाग है
जो मेरे हाथों बाबू का कुछ भला हुआ, पर आज मैं बड़े जोखों में पड़ गया,
ऐसा अचानक माता कभी मेरे ऊपर नहीं आयी। बासमती! जो तू न सम्हालती तो
न जाने आज क्या हो जाता, देखना उनकी भेंट-पूजा की बात न भूलना। इतना
कहकर वह चला गया। जब वह जाने लगा था, पारवती ने उसको बासमती के हाथ
कुछ दिया था।
छठी पंखड़ी
भोर के सूरज की सुनहली किरणें धीरे-धीरे आकाश में फैल रही हैं, पेड़ों
की पत्तियों को सुनहला बना रही हैं, और पास के पोखरे के जल में
धीरे-धीरे आकर उतर रही हैं। चारों ओर किरणों का ही जमावट है, छतों
पर, मुड़ेरों पर किरण-ही-किरण हैं। कामिनीमोहन अपनी फुलवारी में टहल
रहा है, और छिटकती हुई किरणों की यह लीला देख रहा है। पर अनमना है।
चिड़ियाँ चहकती हैं, फूल महँक रहे हैं, ठण्डी-ठण्डी पवन चल रही है, पर
उसका मन इनमें नहीं है; कहीं गया हुआ है। घड़ी भर दिन आया, फुलवारी
में बासमती ने पाँव रखा, धीरे-धीरे कामिनीमोहन के पास आ कर खड़ी हुई।
देखते ही कामिनीमोहन ने कहा, क्या अभी सोकर उठी हो?
बासमती-हाँ! अभी सोकर उठी हूँ!!! यह तो आप न पूछेंगे! क्या रात जागते
ही बीती?
कामिनीमोहन-क्या सचमुच बासमती, तुम आज रात भर जगी हो? जान पड़ता है
इसी से तुम्हारी आँखें लाल हो रही हैं।
बासमती-नहीं तो क्या अभी सोकर उठी हूँ, इससे आँख लाल हैं!
कामिनीमोहन-मैं तुमको छेड़ता नहीं, बासमती! मैं भी यही कहता था, रात
भर तुम जगी हो, उसी से। अब तक क्या सोती रही हो! अच्छा, इन बातों को
जाने दो। कहो, रात क्या किया?
बासमती-मैंने रात सब कुछ किया, आपकी सब अड़चनें दूर हो गयीं। मुझको जो
कुछ करना था मैं कर चुकी, अब देखूँ आप क्या करते हैं।
कामिनीमोहन-वह क्या बासमती?
बासमती-क्या आपने देवकिशोर बाबू की बात नहीं सुनी?
कामिनीमोहन-हाँ! इतना तो सुना है, वह रात टूटे हुए तारे के ऊपर गिर
पड़ा, उसका सर फूट गया।
बासमती-सर क्या फूट गया, यह कहिये थोड़ी चोट आ गयी थी, पर बड़े लोगों
की बातें ही बड़ी होती हैं और वह सुकुमार भी बहुत हैं, इसीसे थोड़ा सा
लहू निकलते ही अचेत हो गये, नहीं तो कोई बात नहीं थी। दूसरा कोई होता
तो उँह भी नहीं करता।
कामिनीमोहन-तो फिर मुझको इससे क्या?
बासमती-क्यों? इससे ही तो आपका सुभीता हुआ? इस काम ही ने तो आपके पथ
के सब काँटों को दूर कर दिया।
कामिनीमोहन-कैसे?
बासमती-आप जानते हैं हरलाल कैसे हथकण्डे का है, आपके काम के लिए
मैंने उसको बहुत दिनों से गाँठ रखा था, पर यह सोचती थी, जब तक वह
किसी भाँति पारवती ठकुराइन के घर में पाँव न रखेगा, काम न निकलेगा।
जब मैंने देवकिशोर बाबू के गिरने और सर में चोट लगने की बात सुनी,
उसी घड़ी मुझको एक बात सूझी, मैं उसको पूरा करने के लिए चट घर से उठी,
और हरलाल के पास पहुँची, उसको ठीक ठाक करके, लगे पाँव देव-किशोर बाबू
के घर गयी। भाग्य से बैद महाराज भी कल्ह कहीं गये हुए थे, इसलिए
मैंने बातों में फाँसकर पारबती ठकुराइन को अपने रंग में ढाल लिया और
उन्हीं के कहने से हरलाल को उनके घर लिवा गयी। मैं जब हरलाल को लेने
जाती थी पथ में आपसे भी मिलती गयी थी, पर उस घड़ी आपसे कुछ कहा नहीं
था, यह आप जानते हैं। हरलाल ने वहाँ पहुँच कर सब कुछ कर दिया।
कामिनीमोहन-क्या कर दिया? कहो भी तो!
बासमती-हरलाल ने वहाँ पहुँच कर देवकिशोर बाबू के सर की चोट को
भली-भाँति देखा, देख कर जाना, बहुत थोड़ी चोट है, गीला कपड़ा बाँधकर जो
रह-रह कर पानी उस पर दिया जाता है, यही उसको अच्छा कर देगा। पर
दिखलाने को वह झूठ-मूठ जतन करने लगा। एक दिन उसने काली माई के चौरे
पर देवकिशोर बाबू को जूता पहने चढ़ते देखा था, यह बात उसको भूली न थी,
इसलिए इसी बहाने से उसने एक ऐसी नई उपज निकाली, जिससे आपका काम
भली-भाँति निकल आया।
कामिनीमोहन-वह कैसे?
बासमती ने हरलाल के अभुआने की सारी बातें ज्यों-का-त्यों कामिनीमोहन
से कह सुनाई। पीछे कहा। हरलाल के चले जाने पर पारबती ठकुराइन ने
देवकिशोर के पास जाकर पूछा, बेटा, तुम कभी काली माई के चौरे पर जूता
पहने चढ़ गये थे? लड़के ने कहा-हाँ, अम्मा! मुझसे एक दिन यह चूक हो गयी
थी। इतना सुनते ही ठकुराइन के रोंगटे खड़े हो गये, हरलाल की उनको बहुत
कुछ परतीत हुई। वह कुछ घड़ी चुपचाप न जाने क्या सोचती रहीं, फिर
बोलीं-बासमती! हरलाल ने सौ अधाखिले फूल चढ़ाने को तो कहा, पर यह न
बतलाया, किसका फूल! मैंने कहा, क्यों यह भी बतलाने की बात है! कौन
नहीं जानता, कालीमाई को अड़हुल का फूल ही प्यारा है; इसलिए सौ अड़हुल
का अधखिला फूल ही एक महीने तक चढ़ाना होगा। उन्होंने कहा-इतने फूल
मिलेंगे कहाँ! मैंने कहा, कामिनीमोहन बाबू की फुलवारी में कौन फूल
नहीं है? नित सौ नहीं पाँच सौ अधाखिले फूल अड़हुल के वहाँ मिल सकते
हैं। मेरी इन बातों को सुनकर ठकुराइन फिर कुछ घड़ी चुप रहीं, बहुत सोच
विचार करके पीछे बोलीं, क्या और कहीं नहीं मिल सकते? मैंने कहा-इस
गाँव में और कहाँ इतने फूल मिलेंगे? उन्होंने कहा-अच्छा, वहीं से फूल
आवेंगे, पर कब फूल तोड़े जावें जो वह अधाखिले मिलें। मैंने कहा-जो
सूरज डूबते फूल उतार लिए जावें तो वह अधिखिले ही रहेंगे, पर उस बेले
देवहूती को वहाँ जाकर फूल तोड़ लाना चाहिए, नहीं तो रात में फूल तोड़ा
जाता नहीं और दिन निकलने पर फिर वह फूले हुए ही मिलेंगे। ठकुराइन ने
कहा, यही तो कठिनाई है, पर करूँ क्या, समझ नहीं सकती हूँ, जैसा मैं
आज दुबिधा में पड़ी हूँ, वैसा दुविधे में कभी नहीं पड़ी। मैंने मन में
कहा, बासमती फिर क्या ऐसा फंदा डालती है, जो कोई उससे बाहर निकल
जावे। जो ऐसा ही होता तो कामिनीमोहन बाबू मेरी इतनी आवभगत क्यों
करते। पर इस मन की बात को मन ही में रखकर उनसे बोली, क्या आपको किसी
बात का खटका है, मेरे रहते आपको किसी काम में कठिनाई नहीं हो सकती,
मैं आप आकर देवहूती को लिवा जाऊँगी, और उनसे फूल तुड़वा लाया करूँगी।
क्या मुझसे एक महीने तक इतना काम भी न हो सकेगा? उन्हांने कहा, क्यों
नहीं बासमती! तुम सब कुछ कर सकती हो, मुझको तुम्हारा बड़ा भरोसा है।
अच्छा, मैं तुम्हारे ही ऊपर इस काम को छोड़ती हूँ, जैसे बने बनाओ, पर
ऐसी बात न होवे जिससे फिर देवकिशोर को कुछ झेलना पड़े। मैंने कहा, आप
इन बातों से न घबरावें, भगवान् सब अच्छा करेगा। इसके पीछे यह बात ठीक
हो गयी, मैं देवहूती के साथ-साथ रहकर फूल तुड़वा लाया करूँगी, कल्ह से
यह काम होने लगेगा। मैंने जतन करके देवहूती को आपकी फुलवारी तक
पहुँचा दिया। अब आगे आपकी बारी है, देखूँ आप कैसे उस अलबेला को
लुभाते हैं, आकाश का चाँद घर में आया है, उसको वश में कर रखना आपका
काम है, मैं यही बात पहले कहती थी।
कामिनीमोहन बासमती की बात सुनकर फूला न समाता था, आज उसके जी में यह
बात ठन गयी, अब ले लिया है। हँसते-हँसते बोला, क्यों न हो वासमती!
तुम्हारा ही काम है, तुमने बहुत कुछ किया जो कुछ मुझसे हो सकेगा मैं
भी करूँगा, पर सब कुछ करने का बीड़ा तुम्हीं ने उठाया है, इसलिए सब
कुछ तुम्हीं को करना होगा।
बासमती-यह नहीं हो सकता, अब आपको भी कुछ करना होगा। पवन का काम मैं
करूँगी, पर आग आपको लगानी पड़ेगी।
कामिनीमोहन-क्या उसको जला कर मिट्टी में थोड़े ही मिलाना है?
बासमती-क्या यह भी मैं कहूँगी, तब आप जानेंगे! पर यह बातें काम की
नहीं हैं। मैं नेह की आग लगाने को कहती हूँ, जिसको पवन बनकर मैं
सुलगाऊँगी।
कामिनीमोहन-क्या उसका कलेजा ऐसा है, जो नेह की आग मैं वहाँ लगा
सकूँगा?
बासमती-क्यों? वह लोहे और पत्थर से थोड़े ही बनी है? फिर आग लगानेवाले
तो लोहे और पत्थर में भी आग लगाते हैं। ढंग चाहिए।
कामिनीमोहन-लोहे और पत्थर में आग लगाना, काम रखता है। मैं समझता हँ,
बासमती! देवहूती का कलेजा सचमुच लोहे पत्थर का है। उसमें आग लगाना
कठिन है।
बासमती-आपकी बातें ऐसी ही हैं, चाहते हैं बहुत कुछ, करते कुछ नहीं।
उसका कलेजा मक्खन से भी बढ़कर पिघलनेवाला है, आप इस बात को नहीं
जानते, मैं जानती हूँ। अब मैं जाती हूँ, आप अपनी सी करिये, जो न
बनेगा, उस को मैं तो ठीक कर ही दूँगी। यह कह कर बासमती वहाँ से चली
गयी।
सातवीं पंखड़ी
चमकता हुआ सूरज पश्चिम ओर आकाश में धीरे-धीरे डूब रहा है।
धीरे-ही-धीरे उसका चमकीला उजला रंग लाल हो रहा है। नीले आकाश में
हलके लाल बादल चारों ओर छूट रहे हैं। और पहाड़ की ऊँची उजली चोटियों
पर एक फीकी लाल जोत सी फैल गयी है। जो घर की मुड़ेरों के ऊपर उठती हुई
धूप को पकड़ कर किसी ने लाल रंग में रंग दिया है, तो पेड़ों की हरी-हरी
पत्तियों पर भी लाली की वह झलक है, जो देखने से काम रखती है। लाल
फूलों का लाल रंग ही अवसर पाकर चटकीला नहीं हो गया। पीले, उजले और
नीले फूलों में भी ललाई की छींट सी पड़ गयी है। धरती की हरी-हरी
दूबों, नदी, तालाब, पोखरों की उठती हुई छोटी-छोटी लहरों, बेल बूटों
और झाड़ियों की गोद में छिपी हुई एक-एक पत्तियों तक में ललाई अपना रंग
दिखला रही है। जान पड़ता है सारे जग पर एक हलकी लाल चाँदनी सी तन गयी
है।
एक बहुत ही बड़ी और सुहावनी फुलवारी है। उसके एक ओर बहुत से अड़हुल के
पौधे लगे हुए हैं। ये सब पौधे जी खोल कर फूले हैं-हरी-हरी पत्तियों
में इन फूले हुए अनगिनत फूलों की बड़ी छटा है-जान पड़ता है चारों ओर
ललाई का ऐसा समाँ देखकर ही इन फूलों पर इतनी फबन है। इन्हीं बहुत से
फूले हुए फूलों में कुछ फूल अधाखिले से हैं, इन पौधों के पास खड़ी एक
अधेड़ स्त्री इन अधाखिले फूलों को उँगली बताती जाती है, और एक बहुत ही
सुघर और लजीली लड़की अपने लाल-लाल हाथों से धीरे-धीरे उन फूलों को तोड़
रही है। उसका मुँह डूबते हुए सूरज की ओर है, जिस लाली ने सारी धरती
को अपने रंग में डुबाकर चारों ओर एक अनूठी छटा फैला रखी है, वह लाली
इस खिली चमेली सी लड़की की देह की छबि को भी दूना करके दिखला रही है।
इस भोली-भाली लड़की के गोरे-गोरे गालों पर इस घड़ी जो अनूठी और निराली
फबन है, कहते नहीं बनती, उसकी सहज लाली दूनी तिगुनी हो गयी है, जिसको
देखकर जी का भी जी नहीं भरता। पर उसको बिना झंझट देखना आँखों के भाग
में बदा नहीं है, लड़की ने सर के कपड़े को कुछ आगे को खींच रखा है, यही
कपड़ा जी भरकर उस छबि को देखने नहीं देता। जब पवन धीरे-धीरे आकर उस
कपड़े को हटाती है, उस घड़ी उसके काँच से सुथरे गालों की अनोखी लाली
आँखों में रस की सोत सी बहा देती है।
इन अड़हुल के पौधों के ठीक सामने पश्चिम ओर थोड़ी ही दूर पर एक बहुत ही
ऊँची अटारी है। अटारी में पूर्व ओर तीन बड़ी-बड़ी खिड़कियों में से
बीचवाली खिड़की पर कोई छिपा हुआ बैठा है-और छिपे ही छिपे, डूबते हुए
सूरज की, फूली हुई फुलवारी की, चारों ओर फैली हुई लाली की, और उस
सुन्दर सजीली लड़की की अनूठी छटा देख रहा है। डूबते हुए सूरज, चारों
ओर फैली लाली, और भाँति-भाँति के फूलोंवाली फुलवारी के देखने से उसके
जी में जो रस की एक छोटी सी लहर उठती है, और उससे जो सुख उसको होता
है, किसी भाँति बतलाया जा सकता है। पर उस सुन्दर और छबीली लड़की के
देखने से उसके गोरे-गोरे गालों की बढ़ी हुई अनूठी लाली पर, किसी भाँति
दीठ डालने से, जो एक रस की धारा सी उसके कलेजे में बह जाती है, उसका
सुख न किसी भाँति बतलाया जा सकता, न लिखा जा सकता है। वह इस धारा में
अपने आपको खोकर धीरे-धीरे आप भी बह रहा है-और साथ ही अपने सुधा-बुध
को भी चुपचाप बहा रहा है।
जिस घड़ी हमने लड़की को फूल तोड़ते देखा था, वह पिछली बारी थी-जितना फूल
उसको तोड़ना चाहिए था वह तोड़ चुकी-इसलिए अब यह घर की ओर चली,
पीछे-पीछे वह अधेड़ मालिन भी चली। साँझ का समय, चिड़िया चारों ओर
मीठे-मीठे सुरों में गा रही थीं, भाँति-भाँति के फूल, फूल रहे थे,
ठण्डी-ठण्डी पवन धीरे-धीरे चल रही थी, भीनी-भीनी महँक सब ओर फैली थी,
जी मतवाला हो रहा था। साथ की अधेड़ स्त्री समय पर चूकनेवाली न थी।
अपनी गिट्टी जमाने का अवसर देखकर बोली-देवहूती! देखो कैसा सुहावना
समय है! कैसी निराली शोभा है! पर साँझ क्यों इतनी सुहावनी है? उसमें
क्यों इतनी छटा है? क्या तुम इसको बतला सकती हो? साँझ का समय बहुत
थोड़ा है-पर इस थोड़े समय में भी जितना प्यार और आदर उसका हो जाता
है-और समय को होते देखने में नहीं आया। पर क्या यह गुण उसमें यों ही
है? नहीं, यों ही नहीं है? वह अपने समय को जैसा चाहिए उसी भाँति काम
में लाती है-इसी से वह इतने ही समय में अपना बहुत कुछ नाम कर जाती
है। देखो, वह आते ही चाँद से गले मिलती है-पवन का कलेजा ठण्डा करती
है-फूलों को खिला देती है-चिड़ियों को मीठा सुर सिखलाती है-पेड़ों को
हरा-भरा बनाती है-आकाश को तारों से सजाती है-लोगों की दिन भर की
थकावट दूर करती-और चारों ओर चहल-पहल की धुम सी मचा देती है। सच है,
समय रहते ही सब कुछ हो सकता है, समय निकल जाने पर कुछ नहीं होता। पर
देखती हूँ, देवहूती! तुम्हारा समय यों ही निकला जाता है, तुम्हारा यह
रूप! यह जोवन!! और कोई प्यार करनेवाला नहीं! जैसा चाहिए वैसा आदर
नहीं!!! क्या इससे बढ़कर कोई और दुख की बात हो सकती है?
देवहूती ने ठण्डी साँस भरी, उसकी आँखों में पानी आया, पर कुछ बोली
नहीं, जी बहलाने के लिए इधर-उधर देखने लगी। इसी समय सामने फूले हुए
कई पेड़ों की झुरमुट में एक बहुत ही सजीला जवान दिखलाई पड़ा। यह
धीरे-धीरे उन पेड़ों में टहल रहा था, और साँझ की धीरे बहनेवाली पवन
उसके सुनहले दुपट्टे को इधर-उधर उड़ा रही थी। इस जवान की दुहरी गठीली
देह पर सुघराई फिसली पड़ती थी, गोरा रंग तपे सोने को लजाता था।
बड़ी-बड़ी रसीली आँखें जी को बेचैन करती थीं और ऊँचे चौड़े माथे पर
टेढ़े-टेढ़े बाल कुछ ऐसे अनूठेपन के साथ बिखरे थे, जिनके लिए आँखों को
उलझन में डाल देना कोई बड़ी बात न थी। भौंहें घनी और आँखों के ऊपर ठीक
धनुष की भाँति बनी थीं; पर रह-रह कर न जाने क्यों सिकुड़ती बहुत थीं।
मुँह का डौल बहुत ही अच्छा, बहुत ही अनूठा और बहुत ही लुभावना था, पर
उसकी निखरी गोराई में लाली के साथ पीलापन भी झलक रहा था। गला गोल,
छाती चौड़ी और ऊँची बाँहें भरी और लाँबी, और उँगलियाँ बहुत ही सुडौल
थीं। देह की गठन बनावट, लुनाई, सभी बाँकी और अनूठी थीं। देह के कपड़े
हाथों की ऍंगूठियाँ, पाँव के जूते सभी अनमोल और सुहावने थे। इस पर जो
पेड़ों से उसके ऊपर फूलों की वर्षा हो रही थी, समा दिखलाती थी।
देवहूती की आँख जिस घड़ी उसके ऊपर पड़ी, वह सब भूल गयी, सुधा-बुध खो सी
गयी। पर थोड़े ही बेर में काया पलट हो गया। जिस घड़ी उसकी आँख इसकी ओर
फिरी और चार आँखें हुईं, देवहूती चेत में आ गयी और आँखों को नीचा कर
लिया।
वह साथ की स्त्री जो बासमती छोड़ दूसरी नहीं है, यह सब देखकर मन-ही-मन
फूल उठी, सजीले जवान का जी भी अधखिली कली की भाँति खिल उठा, दोनों ने
समझा रंग जैसा चाहिए वैसा जम गया। पर इस घड़ी देवहूती के जी की क्या
दशा थी, इसकी छान-बीन ठीक ठाक न हो सकी। धीरे-धीरे सूरज डूबा, और
धीरे-ही-धीरे देवहूती बासमती के साथ फुलवारी से बाहर होकर घर आयी। पर
उसका जी न जाने कैसा कर रहा है।
यह सजीला जवान कामिनीमोहन है, यह तो आप लोग जान ही गये होंगे। अटारी
पर खिड़की में बैठा हुआ यही देवहूती की छटा देख रहा था-और उसकी छटा
देखकर जो उस पर बीती आप लोगों से छिपा नहीं है। पर वहाँ बैठे-बैठे
देवहूती पर अपना बान न चला सका, इसीलिए जब देवहूती फूल तोड़ कर चली,
तो वह भी चट कोठे से उतर कर पेड़ों की झुरमुट में आया, और टहलने लगा।
यहाँ कुछ उसके मन की सी हो गयी, यह आप लोग जानते हैं।
आठवीं पंखड़ी
फूल तोड़ने के लिए देवहूती नित्य जाती, नित्य उसका जी कामिनीमोहन की
ओर खींचने के लिए बासमती उपाय करती। कामिनीमोहन भी उसको अपनाने के
लिए कोई जतन उठा न रखता, बनाव सिंगार, सज धज सबको काम में लाता। इस
पर पेड़ों से लपटी फूली हुई बेलें, समय का सुहावनापन, हरी-हरी
डालियाँ, लहलही लताएँ, छिपे-छिपे अपना काम अलग करतीं। देवहूती लहू
मांस से ही बनी है, जी उसको भी है, आँखें वह भी रखती है, कहाँ तक वह
इन फंदों से बच सकती। धीरे-धीरे उसका जी न जाने कैसे करने लगा, अनजान
में ही उसके कलेजे में न जाने कैसी एक कसक सी होने लगी। पर उसके जी
में ही भीतर-ही-भीतर ये सब बातें ऐसी चुपचाप और ऐसी छिपे-छिपे होने
लगीं जो बासमती की ऐसी चतुर स्त्री को भी उलझन में डाल रही थीं।
फूल तोड़ते चौबीस दिन हो गये। इतने दिनों में काम कुछ न निकला, यह बात
बासमती के जी में आठ पहर खटकने लगी। कामिनीमोहन भी बेचैन हो चला था,
इसलिए वह भी कभी-कभी बसमाती को जली कटी सुनाता, इससे बासमती और
घबरायी। आज वह चुपचाप देवहूती के घर आयी, और सीधे उसकी कोठरी में चली
गयी। वहाँ उसने देवहूती को सोया पाया, फिर क्या था, चटपट उसने अपना
काम पूरा किया और वहाँ से चलती हुई।
पारबती ने बासमती को आते-जाते देख लिया था। बासमती क्यों आयी? और
क्यों लगे पाँव चली गयी? इस बात का उसको बड़ा खटका हुआ। वह कई दिनों
से देवहूती का रंग-ढंग देख रही थी, पर कोई बात जी में लाती न थी।
क्यों जी में लाती नहीं थी? इसके लिए इस घड़ी मैं इतना ही कहता हूँ।
उसके जी में कोई खटक नहीं थी-पर बासमती की आज की चाल ने उसको चौंका
दिया। वह सोचने लगी, हो न हो कोई बात है। बासमती घर की मालिन है-उसके
लिए कोई रोक नहीं-वह बे-अटक देवहूती के पास आ-जा सकती है-मैंने कभी
उसको देवहूती के पास उठने-बैठने से नहीं रोका। फिर आज वह मेरी आँख
बचा कर क्यों उसके पास गयी? और क्यों बिना मुझसे कुछ कहे-सुने यहाँ
से चुपचाप चली गयी? ये बातें ऐसी हैं जिस से पाया जाता है, उसके मन
में कोई चोरी है! चोर का जी आधा होता है, वह साह का सामना नहीं कर
सकता। अपने मन की चोरी ही से वह इस घड़ी अपना मुँह मुझको न दिखला सकी।
जिस काम को करने के लिए इस घड़ी वह यहाँ आयी थी, उस काम को करके वह
मेरी ओर से बुरी थी, इसी से मेरे सामने आने का बल उसमें नहीं था।
नहीं तो मेरे जी में तो कोई बात न थी। जो बुरा काम करता है, वह बस भर
छिपने का पथ भी ढूँढ़ता है।
फिर सोचने लगी-देवहूती का रंग ढंग भी तो इन दिनों कुछ और हो गया है!
वह इतनी अनमनी क्यों रहती है? मैं इन बातों पर दीठ नहीं डालती थी,
समझती थी लड़की है, कोई बात होगी। पर यह कोई ऐसी वैसी बात नहीं है,
कोई गहरी बात जान पड़ती है। नहीं तो, देवहूती को किस बात का दुख है?
जो चाहती है, खाती है। जो चाहती है, पहनती है। मैं उसका मुँह देखती
ही रहती हँ। एक भाई है, वह भी कभी उसको आधी बात नहीं कहता, फिर वह
इतनी अनमनी क्यों? हाँ, यह मैं कह सकती हूँ वह सयानी हो गयी है! उसके
दूसरे दिन हैं! पर सयानी वह आज तो नहीं हुई है-एक बरस से भी ऊपर हो
गया। जब इतना दिन हो गया-और हँसी खेल ही में वह लगी रही, तो इधर दस
पाँच दिन से-सयानी होने ही से वह अनमनी है, यह बात जी में नहीं
समाती। फिर पड़ोस में नन्दकुमार, कामिनीकिशोर, नन्दकिशोर, देवमोहन,
कामिनीमोहन सभी लड़के हैं-बात चलने पर देवहूती जैसे नन्दकुमार,
नन्दकिशोर और देवमोहन नाम लेती है-वैसा बेअटक कामिनीमोहन का नाम
क्यों नहीं लेती? फिर मौसेरे भाई कामिनीकिशोर को जब वह पुकारती है,
तो क्या कारण है जो कामिनीमोहन का नाम उसके मुँह से निकल जाता है? और
जो निकल जाता है, तो फिर अपने आप वह लजा क्यों जाती है? कोई टोकता भी
तो नहीं। जब घर में कभी कोई बात कामिनीमोहन की उठती है, और देवहूती
वहाँ बैठी रहती है-तो क्या कारण है जो वह इधर-उधर करने लगती है?
क्यों वह वहाँ से उठ जाना चाहती है? क्यों उसकी बातें सुनने में उसको
लाज लगती है? कामिनीमोहन का साथ बहुत दिनों से हमलोगों का है, ऐसे ही
सदा उसकी बातें घर में होती आयी हैं, पर पहले देवहूती की ऐसी दशा तो
कभी नहीं देखी गयी!! फिर थोड़े दिनों से उस के जी का ढंग ऐसा क्यों हो
गया?
अब की बार पारबती का मुँह गम्भीर हो गया, वह फिर सोचने लगी-देवहूती
का ढंग था, वह चार लड़कियों को लेकर सदा खेला करती, किसी को सर
गूंधना, किसी को बेलबूटे बनाना, किसी को गुड़िया बनाना सिखलाती-किसी
को माला गूँथना, किसी को फूल के गहने बनाना, किसी को पोत पिरोना
बतलाती। किसी को छेड़ती-किसी को प्यार करती। पर आजकल ये सब बातें उसकी
छूट सी गयी हैं-अकेले रहना उसको अच्छा लगता है-कोठे पर, कभी-कभी अपनी
कोठरी में चुपचाप बैठी न जाने वह क्या सोचा करती है। दो, चार दिन से
तो उसकी यह गत है-पास ही बैठी रहती है-और पुकारने पर कभी-कभी बोलती
भी नहीं। सच्ची बात यह है-उसका जी किसी ओर खिंचा हुआ है-जब वहाँ से
हटे तब तो दूसरी ओर लगे-किस ओर उसका जी खिंचा है-अब यह समझने को नहीं
है-सब बात भली-भाँति समझ में आ गयी। पर इसमें चूक किसकी है? हमारी!
जो अपने पति की बात नहीं मानती, उसका भला कभी नहीं होता। पति ने कहा
था, जिस घर में ओझा का पाँव पड़ा, वही घर चौपट हुआ। फिर मैं क्यों
उनकी बात भूल गयी, क्यों अपने घर में ओझा को बुलाया, जो बुलाया, तो
अब भुगतेगा कौन?
पारबती ने धीरे-धीरे सब समझा, कुछ घबरायी, पीछे सम्हल गयी, सोचा घबरा
कर क्या होगा, यह घबराने का समय नहीं है, जैसा रंग ढंग देखने में आता
है, उससे बात अभी बहुत बिगड़ी नहीं पायी जाती, अभी बिगड़ने के लच्छन ही
देखे जाते हैं, इस लिए घबराने से बिगड़ती हुई बात के बनाने का जतन
करना अच्छा है। पारबती ने सोच कर ठीक किया, चाहे जो हो अब, आज से
देवहूती को फूल तोड़ने के लिए न जाने दूँगी, इतना करने ही से सब झंझट
दूर होगा। स्त्री कितना ही जीवट करे, पर देवी देवता की बातों में
उसका जीवट काम नहीं करता। देवकिशोर अब तक भली-भाँति अच्छा भी नहीं
हुआ था, इसलिए ठीक करने को उसने ठीक तो किया, पर थोड़े ही पीछे उसका
जी फिर चंचल हो गया, उसने सोचा, देवी की पूजा को अधूरा छोड़ना ठीक
नहीं; जैसे हो छ: दिन इस काम को और करना होगा। तो क्या बासमती भी
पहले की भाँति साथ रहेगी? अब उसके जी में यह बात उठी। उसने सोचकर ठीक
किया, हाँ! बासमती भी साथ रहेगी, जो देखने में हित बनी है, उससे
बिगाड़ा क्यों किया जाय! न जाने वह क्या सोचे, और क्या करे, यह समय
उससे बिगाड़ करने का नहीं है। फिर सुधार क्या हुआ, वे ही सब बातें तो
हुईं-अब यह विचार उसको सताने लगा। पर इस घड़ी सर उसका चकरा रहा था, और
जो अड़चनें सुधार में आन पड़ी थीं, वे सहज न थीं, इसलिए विचार के लिए
दूसरा समय ठीक करके वह घर के दूसरे काम में लग गयी।
नवीं पंखड़ी
कहा जाता है, दिन फल अपने हाथ नहीं, करम का लिखा हुआ अमिट है, हम
अपने बस भर कोई बात उठा नहीं रखते, पर होता वही है, जो होना है, जतन
उपाय ब्योंत सब ठीक है-पर उस खेलाड़ी के आगे किसी की नहीं चलती, चुटकी
बजाते ही वह सब कुछ करता है और पलक मारते ही सबको बिगाड़ कर रख देता
है। हम मिट्टी के पुतले क्या हैं, जो उस की बातों में हाथ डालें। यह
सच है, यहाँ कौन जीभ हिला सकता है। पर हम यह कहेंगे-ये बातें उन्हीं
के लिए हैं-जो सचमुच जी से ऐसा मानते हैं-उन लोगों के लिए नहीं हैं,
जिनके भीतर कुछ और बाहर कुछ और, जहाँ बस चलता है कोई काम बन जाता है,
वहाँ तो सब करतूत उनकी है। और जहाँ बस नहीं चलता, काम बिगड़ने लगता है
वहाँ सब होनहार करती है। ये दुरंगी बातें ठीक नहीं, पक्का एक ही रंग
होता है। एक ही समय में दो नाव पर चढ़ने में बहुत कुछ डर रहता है-पार
एक ही नाव करती है। जिसको धरती पर रहकर बहुत सा काम करना है, घरबारी
बनना है, उस को जतन, ब्योंत उपाय का सहारा न छोड़ना चाहिए। उस खेलाड़ी
को सब करने योग्य कामों में अपना सहाई समझकर जो जतन ब्योंत और उपाय
करता है, वही जग में कुछ कर पाता है। जो ऐसा नहीं कर सकता वह पास की
पूँजी भी गँवा देता है!
हमारे हरमोहन पाण्डे इसी ढंग के लोग हैं-होनहार के भरोसे बाप का
कमाया लाखों रुपया उड़ा चुके हैं। बीसों गाँव पास थे, पर एक-एक करके
सब बिक चुके हैं। अब तक रहने का घर बचा था। आज उससे भी हाथ धोना
चाहते हैं। बाहर बोली हो रही है, पर करम ठोककर आप भीतर पलँग पर पड़े
हैं। उनकी यह गत देखकर उनकी सीधी सच्ची घरनी उनके पास आयी। प्यार के
साथ पास बैठ गयी। दोनों में इस भाँत बातचीत होने लगी।
घरनी-घर बिक रहा है-बाहर बोली हो रही है, क्या आप उनको सुनते हैं?
हरमोहन-सुनता हूँ-जो भाग में लिखा है, होगा।
घरनी-मैं यह नहीं कहती, मैं यह कहती हूँ-थोड़ी ही बेर में यह घर छोड़ना
होगा-उस घड़ी हम लोग क्या करेंगे, कहाँ रहेंगे?
हरमोहन-इस घर के पास जो हमारा खंडहर है, उसमें चलकर रहेंगे। भाग्य
में तो खंडहर लिखा है, घर रहने को कहाँ मिलेगा?
घरनी-खंडहर में दिन कैसे बीतेगा? मेरा मुँह आज तक किसी पराये ने नहीं
देखा, खंडहर में लाज क्योंकर रहेगी?
हरमोहन-भगवान जिसकी लाज नहीं रखना चाहते, उसकी लाज कौन रखे?
घरनी-अच्छा, मैं कुछ कहूँ? आप मानेंगे?
हरमोहन-कहो, क्या कहती हो?
घरनी-बंसनगर में मेरी बहिन रहती है, यह आप जानते हैं। जैसी भलमनसाहत
उसमें है, वैसे ही देवता हमारे बहनोई भी हैं, यह बात भी आपसे छिपी
नहीं है। इनके पास दो घर हैं-एक में वह आप रहते हैं, एक यों ही पड़ा
है। मेरी बहन ने हम लोगों का दुख सुना है-कुछ दिन हुए उसने कहला भेजा
था-जो घर भी बिक जाय तो ये यहाँ आकर रहें। हम लोगों का अब यहाँ क्या
रखा है-जो आप चाहें तो वहाँ चल सकते हैं। यहाँ से वहाँ अच्छा ही
बीतेगा।
हरमोहन-तुमने अच्छा कहा, चलो वहीं चलें। हमारा सोलह सौ रुपया भी तो
उनके यहाँ है।
घरनी-रुपये की बात जाने दीजिए। दुख में उन लोगों ने हम लोगों को बहुत
सम्हाला है। सोलह सौ का चौबीस सौ दे चुके हैं।
हरमोहन-अच्छा जाने दो-हम रुपये की बात नहीं चलाते हैं।
इस बातचीत के दूसरे दिन अपनी घरनी, एक लड़के और एक लड़की के साथ हरमोहन
ने अपने जनम के गाँव देवनगर को छोड़ा। चौबीस घण्टे चलकर बंसनगर
पहुँचे, और वहीं रहने लगे। यहाँ कहने सुनने को वह कुछ काम भी करने
लगे और इसी से उनका दिन बीतने लगा, पर इन लोगों का सब भार उन्हीं
लोगों पर था, जिनके बुलाने से ये लोग वहाँ गये थे। उन लोगों ने इनके
लड़के के पढ़ने-लिखने की ओर भी पूरा ध्यान रखा।
धीरे-धीरे तीन बरस बीत गये, चौथे बरस इन लोगों ने एक ऐसी बात सुनी,
जिससे इन लोगों का रहा सहा कलेजा और टूट गया। इन लोगों ने सुना इनका
एक ही जमाई घरबार छोड़कर किसी साधु के साथ कहीं चला गया, बहुत कुछ
ढूँढ़ा गया, पर कहीं कुछ खोज न मिली।
हरमोहन पाण्डे सीधे और सच्चे थे, अपने कामकाजियों और टहलुओं पर भरोसा
बहुत रखते थे। आँख में शील इतनी थी, जो आजकल नहीं देखा जाता। जिसने
आकर आँसू बहाकर कुछ माँगा, उसी ने कुछ पाया। बिना कुछ लिखाये-पढ़ाये
सैकड़ों दे देते। जो कोई कुछ कहता, कहते जब उसको होगा दे ही जावेगा,
ब्राह्मण का रुपया थोड़े ही मार लेगा। जो यहीं तक होता, बहुत बिगाड़ न
होता! हरमोहन में बड़ा भारी औगुन आलस था। आलस होने के कारण वह सब
कामों में टाल टूल बहुत करते, कामकाजियों ने लाकर जो लेखा साम्हने
रखा, उसी को सच माना, कभी यह न कहा, इतने छोटे काम में इतना रुपया
कैसे लगाया, किसी ने कभी कुछ कहा तो होनहार की दुहाई दे कर, भाग्य पर
सब बातों का होना बतला कर उस से पीछा छुड़ाया। ऐसे लोगों का बेड़ा पार
कब तक हो सकता है-इन सब बातों का बुरा फल हुआ, वह थोड़े ही दिनों में
लुट गये। लोगों ने उनको सीधा पाकर अपना घर भर लिया, और इधर कान पर
जूँ तक न रेंगी। धीरे-धीरे गाँव घर सब छोड़ना पड़ा। इन बातों को छोड़
हरमोहन में जितनी बातें थीं, बड़े काम की थीं, वह झूठ कभी नहीं कहते,
छोटे-बड़े सबसे प्यार से मिलते। पखंडियों से दूर भागते, और दीन
दुखियों के तो माँ बाप थे।
ऐसे लोगों के लिए भी बिपत है-बिपत किसी को नहीं छोड़ती-जब आती है भले
ही आती है। बापुरे हरमोहन का सब तो गया ही था, आज उसको अपने जमाई के
लिए भी रोना पड़ा। जीना तो भारी हो ही रहा था, उस पर और रंग चढ़ गया।
हरमोहन की स्त्री रुपया-पैसा, गहने-कपड़े को कुछ नहीं समझती थी, वह
हरमोहन का मुँह देखकर सब भूल जाती। इसी से हरमोहन को बिपत में भी
बहुत कुछ सहारा रहता था। पर आज जो चोट हरमोहन को लगी है वही चोट दूनी
होकर उसकी स्त्री को लगी। इससे वह जहाँ पड़ी है वहीं बिलख रही है,
हरमोहन की सुधा कौन ले। हरमोहन बहुत घबराये। कब किसके जी में कैसा
उलट फेर होता है, इसको कोई क्या जान सकता है। आज भी हरमोहन को भाग्य
और होनहार से काम लेना चाहिए था, पर बन नहीं पड़ा। वह घबराये हुए घर
के बाहर निकले, और सीधे एक ओर चल खड़े हुए। गाँव के बाहर एक ने
पूछा-कहाँ जाते हो? कहा, कहीं जाता नहीं। गाँव के पूरब ओर एक बन था,
उसी को दिखलाकर कहा, इसी बन तक जाता हूँ। धीरे-धीरे बात उनकी स्त्री
के कानों तक पहँची, वह और घबरायी, लोग दौड़ाये, पर हरमोहन किसी को न
मिले। एक-एक करके दिन बीतने लगे, महीने हुए, दो बरस बीत गये, पर
हरमोहन फिर न लौटे। लोगों ने उनको मरा ही समझा, क्योंकि न वह कहीं जा
सकते थे, और न कुछ कर सकते थे। स्त्री का दिन अपने एक लड़के और एक
लड़की के साथ बड़े दुख से बीतने लगा।
यह स्त्री और हरमोहन कौन हैं? यह तो आप लोग समझ ही गये होंगे। पर जो
न समझे हों तो, मैं बतलाता हँ। स्त्री पारबती है-लड़की देवहूती
है-लड़का देवकिशोर है-और इन दोनों का बाप हरमोहन है।
हरमोहन को लोगों ने मरा समझा, हम क्या समझें? जब पता नहीं लगा; तो हम
और क्या समझेंगे, गाँववालों का साथ हम भी देते हैं।
दसवीं पंखड़ी
चारों ओर आग बरस रही है-लू और लपट के मारे मुँह निकालना दूभर है-सूरज
बीच आकाश में खड़ा जलते अंगारे उगिल रहा है और चिलचिलाती धूप की
चपेटों से पेड़ तक का पत्ता पानी होता है। छर्रों की भाँत धूल के
छोटे-छोटे कण सब ओर छूट रहे हैं, धरती तप्ते तवे सी जल रही है-घर
आवां हो रहे हैं और सब ओर एक ऐसा सन्नाटा छाया हुआ है-जिससे जान पड़ता
है-जेठ की दोपहर जग के सब जीवों को जलाकर उनके साथ आप भी धू-धू जल
रही है। बवण्डर उठते हैं, हा हा हा हा करती पछवाँ बयार बड़े धुम से बह
रही है।
देवहूती अपनी कोठरी में खाट पर लेटी है-लेटे-ही-लेटे न जाने क्या सोच
रही है-कोठरी के किवाड़ लगे हैं-घर के दूसरे लोग अपनी-अपनी ठौरों सोये
हैं। आप लोगों ने अभी एक जेठ की दोपहर देखी है-ठीक वही गत देवहूती के
जी की है। यहाँ भी लू लपट है, बवण्डर है, जलता सूरज है, चिलचिलाती
धूप है, कलेजे को तत्ता तवा, आवाँ जो कहिये सो सब ठीक है। देवहूती के
हाथ में एक चीठी है, वह उस चीठी को पढ़ती है। पढ़ते ही उसके कलेजे में
आग सी बलने लगती है-वह घबराती है, और उसको समेट कर रख देना चाहती है।
पर फिर भी चैन नहीं पड़ता, न जाने कैसा एक बवण्डर सा भीतर ही उठने
लगता है-इसलिए वह उसको फिर खोलती है, फिर पढ़ती है और फिर पहले ही की
भाँत अधीर होती है। कई बेर वह ऐसा कर चुकी है। अब की बेर उसने फिर उस
चीठी को निकाला और पढ़ने लगी। चीठी यह थी।
चीठी
बातें अपनी तुमैं सुनाते हैं।
कुछ किसी ढब से कहते आते हैं।
जब से देखा है चाँद सा मुखड़ा।
हम हुए तेरे ही दिखाते हैं।
दिन कटा तो न रात कटती है।
हम घड़ी भर न चैन पाते हैं।
भूलकर भी कहीं नहीं लगता।
अपने जी को जो हम लगाते हैं।
जलता रहता है जल नहीं जाता।
यों किसी का भी जी जलाते हैं।
बेबसी में पड़े तड़पते हैं।
हम कुछ ऐसी ही चोट खाते हैं।
जी हमारा जला ही करता है।
आँसू कितना ही हम बहाते हैं।
मर मिटेंगे तुम्हें न भूलेंगे।
नेम अपना सभी निभाते हैं।
हम मरेंगे तो क्या मिलेगा तुम्हें।
जी-जलों को भी यों सताते हैं।
है उन्हीं का यहाँ भला होता।
जो भला और का मनाते हैं।
आप ही हैं बुरे वे बन जाते।
जो बुरा और को बनाते हैं।
हो तुम्हारा भला फलो फूलो।
अब चले हम यहाँ से जाते हैं। (कामिनी मोहन)
पढ़ते-पढ़ते उसका जी भर आया, फिर वही गत हुई। वह सोचने लगी, कामिनीमोहन
से मैं कभी बोली भी नहीं-कभी आँख उठाकर भली-भाँति उसकी ओर देखा तक
नहीं-न कभी कोई बात उससे कही। फिर वह इतना मुझको क्यों चाहता है? जान
पड़ता है मैं जो थोड़ा-थोड़ा उसकी ओर खिंचने लगी हूँ-मेरा जी उससे बोलने
के लिए ललचने लगा है-मैं जो उसको देखकर सुख पाने लगी हूँ-ये ही बातें
ऐसी हैं, जो उसकी यह गत है, नहीं तो उसकी यह दशा क्यों होती?
कामिनीमोहन मेरे लिए जलता है, आँसू बहाता है, उसको न रात को नींद आती
है, न दिन को चैन पड़ता है, बेबसी से तड़पता है, जी उसका उचट गया है,
जीना भी भारी है, पर मैं उससे बोलती तक नहीं, दो चार मीठी बातों से
भी उसका जी नहीं बहलाती-क्या इससे बढ़कर भी कोई कठोरपन है? बोलने में
क्या रखा है! जो मेरी दो बातों से किसी का भला होता है, तो इन दो
बातों के कहने में क्या बुराई है।
बुराई कहते ही उसका कलेजा धक से हो गया, वह कुछ लजा सी गयी, उसको ऐसा
जान पड़ा जैसे उसने कोई चोरी की है, वह घबरा कर इधर-उधर देखने लगी। पर
जैसा सन्नाटा उसकी कोठरी में पहले था, अब भी था, किसी के पाँव की चाप
भी कहीं सुनायी नहीं देती थी। उसने भली-भाँति आँख फैला कर चारों ओर
देखा। साम्हने भीत पर एक छिपकली दूसरी छिपकली का पीछा कर रही थी,
कोने में मकड़ी जाले में फँसी हुई एक मक्खी को लम्बी-लम्बी टाँगों से
खींच कर निगलना चाहती थी। एक तितली घर भर में चक्कर लगा रही थी।
बुढ़िया का सूत सर पर उड़ रहा था। और कहीं कुछ न था। वह सम्हली, और फिर
सोचने लगी। नहीं-नहीं, बुराई क्यों नहीं है! माँ कहती हैं भले घर की
बहू बेटी का यह काम नहीं है, जो पराये पुरुष से बोले, पराये पुरुष की
ओर आँख उठाकर देखना भी पाप है। फिर मैं क्यों ऐसा सोचती थी! क्या मैं
भले घर की बहू बेटी नहीं हूँ? हाँ! मैं अभागिन हूँ, मेरे दिन पतले
हैं, तीन बरस हुआ मेरे पति साधु हो गये। उनका पता भी नहीं मिलता। जो
भेंट हो तो किस काम का। क्या वह फिर घरबारी होंगे? और ये बातें ऐसी
हैं, जिससे सब ओर मुझको अंधेरा ही दिखलाता है। पर क्या इस अंधेरे में
उँजाला करने के लिए मुझको अपनी मरजाद छोड़नी चाहिए? कामिनीमोहन मेरे
लिए आँसू बहाता है, तड़पता है, घबराता है, मरने पर उतारू है। पर क्यों
मेरे लिए उसकी यह दशा है? मैं उस की कौन? वह हमारा कौन है? जो इसको
जी की लगावट कहें, तो भी सोचना चाहिए था, मैं क्या करता हूँ, यों जी
लगाते फिरना कैसा? और जो ऐसा ही जी लगाना है, तो आँसू बहाना, घबराना,
तड़पना, पड़ेगा ही, इसके लिए मैं क्या कर सकती हूँ? क्या दूसरा कर सकता
है? रहा उसका रूप! अबकी बार देवहूती फिर घबराई, कामिनीमोहन की छबि
उसकी आँखों के सामने फिर गयी। उसकी बड़ी-बड़ी आँखें, निराली चितवन,
उसका हँसी-भरा मुँह, चाँद सा मुखड़ा, अनूठा ढंग, सहज अलबेलापन-सब
एक-एक करके उसके जी में जागे। वह बहुत ही धीरे-धीरे, अपने जी से भी
छिपे-छिपे, कहने लगी, कामिनीमोहन, तुम क्यों इतने सुन्दर हो? अब वह
बहुत अनमनी हो गयी, जी न होने पर भी कहने लगी-कामिनीमोहन, क्या तुम
सचमुच मेरे लिए मरने पर उतारू हो? क्या सचमुच मेरे बिना तुम्हारा दिन
कटता है तो रात नहीं, और रात कटती है तो दिन नहीं? क्या सचमुच मेरे
लिए तड़पते हो, और आँसू बहाते हो? ये कैसी बातें हैं, मैं समझ नहीं
सकती हूँ। इन बातों के सोचते-सोचते देवहूती के जी में बड़ा भारी उलट
फेर हुआ। उसका सिर घूम गया और वह सन्नाटे में हो गयी।
धीरे-धीरे करताल बजने लगा, धीरे-ही-धीरे एक बहुत ही रसीला सुर चारों
ओर फैल गया। इस खड़ी दुपहरी में यह सुर एक खुली खिड़की से देवहूती की
कोठरी में घुसा। फिर धीरे-धीरे उसके कानों तक पहुँचा। कानों के पथ से
यह और आगे बढ़ा। और कलेजे में पहुँच कर ऐसा रंग लाया जिसमें देवहूती
सर से पाँव तक रंग गयी। यह सुर एक भिखारी बाम्हन के बहुत ही सुरीले
गले से निकलता था, जो बड़ी सिधाई के साथ उसके घर के पास खड़ा यह लावनी
गा रहा था।
लावनी
पति छोड़ नारि के लिए न और गती है।
नारी का देवता जग में एक पती है।
जो पति की सेवा नेह साथ करती हैं।
जो पति गुन की ही ओर सदा ढरती हैं।
पति के दुख में भी जो धीरज धरती हैं।
सपने में भी जो पति से न लरती हैं।
उनके ऐसा धरती पर कौन जती है।
नारी का देवता जग में एक पती है।
जिसका मन पती पराये पर नहिं आया।
पर पति की जिसने छूई तक नहिं छाया।
पति ही जिसकी आँखों में रहे समाया।
पति बिना जगत जिसको सूना दिखलाया।
वह भली नारियों की सिर-धारी सती है।
नारी का देवता जग में एक पती है।
जो लाल आँख पति को है कभी दिखाती।
जो छल करके पति से है पाप कमाती।
जो झूठमूठ पति से है बात बनाती।
जो कभी पराये पति को है पतियाती।
उसकी परतीत न यहाँ वहाँ रहती है।
नारी का देवता जग में एक पती है।
परपति से अहल्या ने जो नेह बढ़ाया।
पत्थर होकर सब अपना भरम गँवाया।
सीता साबित्री ने जो पतिगुन गाया।
अब तक उनका जस सब जग में है छाया।
पुजती पतिसेवा ही से पारबती है।
नारी का देवता जग में एक पती है।1।
देवहूती जिस रंग में रंगी थी, वह बहुत पक्का था, अब यह रंग फीका
पड़नेवाला न था, लावनी सुनकर उसका जी ही ठिकाने न हुआ। उसको अपनी आज
की बातों पर एक ऐसी खिसियाहट और घबराहट हुई, जिससे अपने आप वह धरती
में गड़ी जाती थी। कोठरी में कोई था ही नहीं, पर मारे लाज के उस का सर
ऊपर न उठता था। वह सोचने लगी-मुझको क्या हो गया था, जो आज मैं ऐसी
बुरी बातों में उलझी रही। माँ कहती हैं, जितने पल पराये पुरुष की
बातों में बुरे ढंग से कोई स्त्री बिताती है, उस पर एक-एक पल के लिए
उसको भगवान के सामने कान पकड़ना पड़ता है। फिर क्या मैंने ऐसा किया? इन
सब बातों को सोच कर जी ही जी में बहुत डरी, चीठी को फाड़कर दूर फेंका,
और कोठरी के किवाड़ों को खोल जी बहलाने के लिए बाहर निकल आयी। पर यहाँ
भी वैसा ही सन्नाटा था, घर में कहीं कोई चाल न करता था। देवहूती फिर
अपनी कोठरी में लौटी और किवाड़ लगा कर सो रही।
ग्यारहवीं पंखड़ी
देवहूती और उसकी मौसी के घर के ठीक पीछे भीतों से घिरी हुई एक छोटी
सी फुलवारी है। भाँत-भाँत के फूल के पौधे इसमें लगे हुए हैं, चारों
ओर बड़ी-बड़ी क्यारियाँ हैं, एक-एक क्यारी में एक-एक फूल है-फुलवारी का
समाँ बहुत ही निराला है। जो बेले पर अलबेलापन फिसला जाता है, तो
चमेली की निराली छबि कलेजे में ठण्डक लाती है। नेवारी ने ही आँखों की
काई नहीं निवारी है-जूही के लिए भी फुलवारी में तू ही तू की धुम है।
कुन्द मुँह खोले हँस रहा है, सेवती फूली नहीं समाती। हरसिंगार की
आनबान, केवड़े की ऐंठ, सूरजमुखी की टेक, केतकी का निराला जोबन, मोगरे
की फबन, चंपे की चटक, मोतिये की अनूठी महँक-सब एक-से-एक बढ़कर हैं। इन
फूल के पेड़ों से दूर जहाँ क्यारियाँ निबटती हैं-फूलों के छोटे-छोटे
पौधे थे-इनके पीछे हरे-भरे केले के पेड़ अकड़े खड़े थे, जिनके
लम्बे-लम्बे पत्ते बयार लगने से धीरे-धीरे हिल रहे थे। इन सबके पीछे
फुलवारी की भीत थी, और उसके नीचे एक बहुत ही लम्बी चौड़ी खाई थी, खाई
में जल भरा हुआ था, कई ओर कमल खिले हुए थे।
इस फुलवारी के बीच में एक पक्का चौतरा है, इस पर पारबती और देवहूती
बैठी हुई हैं। भोर हो गया है, सूरज की सुनहली किरणें चारों ओर छिटक
रही हैं। एक भौंरा एक फूल पर गूँज रहा है। गूँजता-गूँजता ठीक फूल की
सीधा में आता है, ठिठकता है, सिकुड़े हुए पाँवों को फैलाकर फूल की ओर
झुकता है। फिर ठिठकता है। और पहले की भाँत चक्कर लगा कर झूमने लगता
है। कितने क्षण यों ही गूँजता रहा, फिर पंख समेट कर उस पर बैठ गया।
कुछ बेर चुपचाप उसका रस पीता रहा। फिर अधरुँधे गले से भन्न-भन्न करने
लगा। इस के पीछे गूँजता हुआ उसपर से उड़ गया। अब दूसरे फूल के पास
गया, पहले इसके भी चारों ओर गूँजता रहा, फिर उसी भाँत इस पर बैठा, रस
लिया, भन्नभन्न बोला, फिर गूँजता हुआ इस पर से भी उड़ गया। पारबती और
देवहूती के देखते-देखते यह बीसियों फूल पर गया, पर इसका मन न भरा।
धीरे-धीरे वह और फूलों पर जाकर गूँजता और रस लेता रहा। पर जिस फूल पर
से एक बार वह रस लेकर उड़ा उसके पास फिर न गया।
पारबती ने कहा-देवहूती! इस भौंरे को देखती हो? जो गत इसकी है, ठीक
वही कुचाली पुरुषों की है। वह अपने रस के लिए इधर-उधर चक्कर लगाते
फिरते हैं। भोली-भाली स्त्रियों को झूठी-मूठी बातें बना कर ठगते हैं।
जब काम निकल जाता है फिर उनकी ओर आँख उठाकर नहीं देखते।
मीठे सुर से हमी लोग नहीं रीझते। चिड़ियाँ ही इसको सुनकर नहीं मतवाली
बनतीं। कीड़े-मकोड़े ही पर इसका रंग नहीं जमता। यह पेड़ों तक को मोह
लेता है। जो अच्छा बाजा मीठे सुर से बजता हो और पास ही कोई फूल का
पौधा रखा हो, तो देखोगी उसकी पत्तियाँ सगबगा उठीं। उसका हरा रंग और
गहरा हो गया। फूल खिल गये और उस पर जोबन छा गया। इसीलिए भौंरा आते ही
फूल पर नहीं बैठ जाता। कुछ घड़ी फूल के आस पास गूँजता है। या अपनी
मीठी गूँज से उसके रस को उभाड़ता है। और तब उस पर रस लेने के लिए
बैठता है।
एक छोटा-सा कीड़ा जो अपना काम निकालने के लिए इतना कुछ कर सकता है-रस
पाने के लिए जो वह ऐसी दूर की चाल चल सकता है, तो अपना काम निकालने
के लिए मनुष्य क्या नहीं कर सकता। जिस स्त्री को वह फँसाना चाहता है,
उसका सामना होने पर वह कहता है, तुम मेरी आँखों की पुतली हो, मेरे
प्राण की प्यारी हो, तुमको देखकर मेरे कलेजे में ठण्डक होती है, जी
में आनन्द की धारा बहती है। तुम्हीं से मेरा जीना है। तुम्हीं से
मेरे अंधेरे जी में उँजाला है। जब तक आँखों के सामने रहती हो, समझता
हूँ स्वर्ग में बैठा हूँ। आँखों से ओझल होते ही मुझ पर बिजली-सी टूट
पड़ती है। जब उसके पास चीठी भेजता है, लिखता है-तुम्हारे बिना मेरा
कलेजा जल रहा है। अनजान में ही न जाने कैसी एक पीर सी हो रही है।
खाना-पीना कुछ नहीं अच्छा लगता। दिन-रात का कटना पहाड़ हो गया है।
चारों ओर सूना लगता है। जी को न जाने कैसी एक चोट सी लग गयी है, हम
सच कहते हैं जो तुम न मिलोगी, हम कभी न जीयेंगे। तुम्हारे बिना हमारा
है कौन? हम जानते हैं तुम्हीं को, नाम जपते हैं तुम्हारा ही, जग में
जहाँ देखते हैं, तुम्हीं को देखते हैं। खाते-पीते उठते-बैठते सूरत
तुम्हारी ही रहती है। हम रहते हैं कहीं, पर मन हमारा तुम्हारे ही पास
रहता है। उसकी सिखायी पढ़ायी कुटनियाँ आती हैं, तो कहती हैं-बहू
तुम्हारा कलेजा न जाने कैसा है, पत्थर भी पसीजता है। पर कितनाहू कहो,
तुम नहीं मानती हो। वह तुम्हारे लिए मर रहे हैं, पड़े तड़पते हैं, आठ
आठ आँसू रोते हैं, खाना-पीना तक छूट गया है, पर तुम्हारे कान पर जूँ
तक नहीं रेंगती। भला इतना भी किसी को सताते हैं! जी की लगावट अपने
हाथ नहीं, जो किसी भाँत तुम पर उनका जी आ गया, तो तुमको इतना कठोर न
होना चाहिए। सबका सब दिन एक ही सा नहीं बीतता। क्या यह जोबन सदा ऐसा
ही रहेगा? फिर थोड़े दिनों के लिए इतना क्यों इतराती हो? प्यासे ही को
पानी पिलाया जाता है। भूखे ही को दो मूठी अन्न दिया जाता है। फिर न
जाने, क्यों तुम इन बातों को नहीं समझती हो। इतना ही नहीं,
गहने-कपड़े, रुपये-पैसे की अलग लालच दी जाती है। कभी-कभी हाथ जोड़ने और
नाक रगड़ने से भी काम लिया जाता है। तलवे की धूल तक सर पर रख ली जाती
है। पर ये सब धोखेधड़ी की बातें हैं। छल और कपट इन बातों में कूट-कूट
कर भरा रहता है। सचाई और भलमनसाहत की इनमें गन्ध तक नहीं होती।
जिसकी हम भगवान के घर से हैं, जिसके लिए हम बनी हैं, जो हमारा
जनम-संघाती है, आँखों की पुतली हम हैं तो उसकी, प्राणों की प्यारी
हैं तो उसी की। हमारे लिए तड़प सकता है, आँसू बहा सकता है, खाना पीना
छोड़ सकता है, जी सकता है, मर सकता है तो वही। जो ये सब गुण उसमें न
हों तो भी जो कुछ है हमारा वही है। कहाँ तक वह हमारे काम न आवेगा। जो
वह हमको छोड़ दे, जो ऐसा संयोग आन पड़े जिससे जन्म भर फिर उसके मिलने
की आस न हो; तो भी उसी के नाम के सहारे हमको अपना दिन काट देना
चाहिए। ऐसा होने पर यहाँ वहाँ हमारी और जैजैकार होगी। दूसरा हमारा
कौन है? जिसकी परछाहीं पड़ते ही हमारा जनम बिगड़ता है, लोगों को मुँह
दिखाना कठिन होता है, उससे हमको किस भलाई की आस हो सकती है? गहने
कपड़े, रुपये पैसे देह और हाथ के मैल हैं! इनके पलटे क्या सतीपन ऐसा
रतन मिट्टी में मिलाया जा सकता है!!! गहने कपड़े, रुपये पैसे फिर मिल
सकते हैं, पर जब स्त्री का सतीपन एक बेर बिगड़ जाता है, तो वह इस जनम
में फिर कभी हाथ नहीं आता। ऐसी दशा में क्या कोई भलेमानस स्त्री,
क्या कोई अच्छे घर की बहू बेटी, गहने कपड़े, रुपये पैसे के लालच से
अपना सतीपन गँवा सकती है?
हमने देखा है बहुत सी भोलीभाली स्त्रियों कुचाली पुरुषों के फंदे में
फँस गयी हैं औेर उनका जनम बिगड़ गया है। ऐसे पुरुषों के हाथ जो
स्त्रियों पड़ीं अपने पति के साथ फिर उनका अच्छा बरताव नहीं होता। यह
एक मोटी बात है। जब अच्छा बरताव न होगा, पतिे का भी वह नेह उस स्त्री
में न रह जावेगा। जब ये बातें हुईं, फूट की नींव पड़ी। जब फूट की नींव
पड़ी, घर नरक हुआ, फिर सुख से दिन नहीं कट सकता, जिससे बढ़कर दुख की
बात कोई हो नहीं सकती। तो क्या थोड़े से सुख के लिए एक अनजान नीच,
खोटे और कुचाली पुरुष के लिए अपना घर यों बिगाड़ देना चाहिए? और जो
कहीं कोई रोग लग गया, क्योंकि ऐसे पुरुष रोग से भरे रहते हैं, तो सब
सत्यनाश हुआ। रोग ने देह में घर किया, लड़के बालों से मुँह मोड़ना पड़ा।
जो लड़के बाले हुए भी, तो पहले तो जीते नहीं, जो जीये तो वह भी जनम भर
झींखते रहे। कहीं किसी ने देख सुन लिया तो भी वही बात हुई। जग में
नीचा अलग देखना पड़ता है और आँख तो किसी के सामने ऊँची हो ही नहीं
सकती। ये तो यहाँ की बातें हुईं। वहाँ जो भगवान इस बुरे काम का पलटा
देंगे सुरत करने से भी रोंगटे खड़े होते हैं।
पारबती इतना कहकर चुप हो गयी और देवहूती के मँह की ओर देखने लगी।
उसने देखा, उसके मुखड़े पर एक अनूठी ललाई झलक रही है, आँखों से जीत
फूट रही है और वह बहुत ही धीरी पूरी जान पड़ती है। पारबती यह देखकर
मन-ही-मन बहुत सुखी हुई। इसके पीछे दोनों वहाँ से उठकर चली गयीं।
बारहवीं पंखड़ी
देवहूती माँ के साथ फुलवारी से घर आयी। कुछ घड़ी घर का काम-काज करती
रही। पीछे अपनी कोठी में आकर चुपचाप बैठी। इस घड़ी कुछ काम इसके पास
नहीं था; पर मन के लिए कुछ काम चाहिए, मन बिना काम नहीं बैठ सकता। जब
सुनसान रात में हम गाढ़ी नींदों सोते हैं, जिस घड़ी हमारे हाथ-पाँव
नाक-कान आँख मुँह किसी के लिए कोई काम नहीं रहता, मन उस घड़ी भी अपनी
रूई-सूत में उलझा रहता है। जो बातें हम दिन में देखते सुनते हैं, जो
काम हम जागते में करते हैं, उन्हीं को उलट-पलट कर वह उस समय ऐसी
मूरतें गढ़ता है, ऐसे-ऐसे दिखलावे दिखलाता है, जो सोच-विचार में भी
नहीं आ सकते। इसी का नाम सपना है। देवहूती का मन भी इस घड़ी एक काम
में लगा। यह सोचने लगी-इस धरती पर भी कैसे-कैसे लोग हैं! दूसरे को
छलने के लिए कैसी-कैसी बातें बनाते हैं! कामिनीमोहन की चीठी को पढ़कर
मैंने उसका एक-एक अक्षर सच समझा था, पर आज उसका भण्डा फूटा। माँ की
बातों को सुनकर मैंने समझा ऊपर से वह जैसा भला और अच्छा है, भीतर से
वह वैसा ही बुरा और टेढ़ा है। राम ऐसे लोगों से काम न डालें। वह इन सब
बातों को सोच ही रही थी, इतने में फूल तोड़ने का समय हुआ जानकर बासमती
वहाँ आयी और उदास मन से देवहूती के पास बैठ गयी। देवहूती ने देखकर
पूछा, बासमती आज इतनी उदास क्यों हो?
बासमती-बेटी! मैं उदास क्यों हूँ, मैं इसको क्या बताऊँ? न जाने मेरा
जी कैसा है, जो दूसरे का दु:ख देख ही नहीं सकता। और न जाने तुमने
मुझपर क्या कर दिया है, जो दिन रात तुम मेरे चित्त से उतरती ही नहीं
हो। जब मैं तुम्हारी बातें सोचती हूँ, तभी मेरा जी भर आता है। इस घड़ी
मैं यही सोच रही थी। इसी से उदास जान पड़ती हूँ-नहीं, तो और कोई दूसरी
बात तो नहीं है।
देवहूती-क्यों? है क्या?
बासमती-क्या यह भी बताना होगा? बेटी! तू बड़ी भोली है। तेरा यह भोलापन
ही तो मुझे और मार डालता है। न जाने तेरा दिन कैसे बीतेगा।
देवहूती-दिन तो सभी बीतते जाते हैं, क्या अब तक कोई नहीं बीता है?
बासमती-बेटी, तुम इन बातों को क्या समझोगी? हम लोगों ने इसी में बाल
पकाये हैं। समय का फेरफार देखा है। हमी लोग इन बातों को समझती हैं।
यह हम भी जानती हैं-सभी दिन बीत जाते हैं। कोई बीतने से नहीं रहता।
पर क्या जैसे तुम्हारा दिन बीत रहा है, इसको इसी भाँत बीतना चाहिए?
तुम्हारे ये ही दिन हँसने-बोलने और रंगरलियाँ मनाने के हैं। तुम्हारे
ये दिन बनाव सिंगार और सजधज के हैं। ये ही दिन हैं जो आँख किसी चाँद
से मुखड़े की ऐसी मतवाली होती है, जो एक पल का ओट भी नहीं सह सकती।
कान किसी मिसरी से भी मीठी बातों के ऐसे प्यासे होते हैं, जो रात दिन
उसका रस पीने पर भी प्यास नहीं उतरती। ये ही दिन हैं, जो घर में
स्वर्ग की बयार चलती है, हाथों में चाँद आता है। थल में कमल फूलता है
और पास ही कोकिल बोलता है, पर तुम्हारा दिन ऐसे कहाँ बीतता हैं?
चमेली खिल गयी है, भँवर कहाँ है? तारों से सजकर रात की छबि दूनी हो
गयी है, पर उसका मुँह उजला करनेवाला चाँद कहाँ है? तुम्हारा जोबन बन
का फूल हो रहा है, जो सुनसान बन में खिलता है और वहीं कुम्हिला जाता
है।
देवहूती-तो क्या दूसरे का सेंदुर देखकर लिलार फोड़ना होगा?
देवहूती ने इस बात को इस ढंग से कहा, और कहने के समय उसके मुखड़े पर
कुछ ऐसा तेज दिखलायी पड़ा, जिसको देखकर बासमती काँप उठी। वह देवहूती
की माँ से बहुत डरती थी, इसलिए चट बात पलट कर बोली-
बासमती-नहीं नहीं, बेटी! मैं यह नहीं कहती। मैं यह कहती हूँ जो आज
बाबू साधु न हो गये होते, तो तुम्हारी यह दशा क्यों होती! मैं
तुम्हारा दुख देखकर ही रोती हूँ। और क्या मैं कोई दूसरी बात कहती
हूँ?
देवहूती-यह सच है, पर क्या तुमको ऐसी बातें मुझसे कहनी चाहिए, जिन
बातों को सुनकर मेरे जी को गहरी चोट लगे? तुमको तो ऐसी बातें करनी
चाहिए, जिससे मैं अपना दुख कुछ घड़ी भूल जाऊँ-मेरा जी कुछ बहले।
बासमती-बेटी! मैं बहुत सीधी हूँ-काट छाँट नहीं जानती। तुमको देखकर जो
दुख मुझको होता है-उसको मैं तुमसे कह देती हूँ-पेट में नहीं रखती।
देवहूती-मैं यह नहीं कहती-पर वैसी बातों को सुनकर मेरे जी को बहुत
बड़ी चोट लगती थी-इसीलिए मैंने तुमसे आज ये बातें कहीं-नहीं तो क्या
काम था। देखो, बासमती! इस धरती पर हँसने, बोलने, रंगरँलियाँ मनाने,
अच्छे गहने कपड़े पहनने, प्यार करने और कराने ही में सुख नहीं है, और
बातों में भी सुख है। जिसका सुहाग बना है, जिसका जोड़ा नहीं बिछुड़ा
है-जिसका पति आँखों में बसता है-कलेजे का हार है, वह रंगरँलियाँ
मनावे, हँसे, बोले, अच्छे गहने कपड़े पहने, तो उसके लिए सब सजता है-जो
वह ऐसा न करे तभी बुरा है। जो जो बातें एक दूसरे के सुख के लिए भगवान
ने बनायी हैं-अपनी और अपने पति की भलाई के लिए उनको काम में न लाना
भगवान की चलाई हुई बातों के मिटाने का जतन करना है। हमारे यहाँ
पोथियों में लिखा है, ''पति स्त्री का देवता है।'' सच है-जो जिसका
देवता है-वही उसका सब कुछ है-स्त्री का पति ही सब कुछ है-जैसे बने
उसी की होकर रहना चाहिए। इसी में सब सुख है। पर जिसका भाग फूट गया
है-जिसका जोड़ा बिछुड़ गया है-जिसके सर का सेहरा उतर गया है-उसको इन
बातों में सुख नहीं है-इन बातों को जी में लाना भी उसके लिए पाप
है-उसके लिए सुख की दूसरी ही बातें हैं। इस धरती पर कितने बच्चे ऐसे
हैं जिनकी माँ नहीं, कितने बाप हैं जिनको बेटी नहीं, कितने भाई हैं
जिनकी बहन नहीं, कितने रोगी हैं जिनकी कोई सेवा करनेवाला नहीं-कितने
दुखिया हैं जिनका कोई आँसू पोछनेवाला नहीं-कितने भूखे, कंगाल हैं
जिनको कोई सहारा देनेवाला नहीं। क्या बिना माँ के बच्चों को पालने
में, क्या बिना बेटी और बहन के बाप-भाई को धर्म की बेटी और बहन बनाने
में, क्या रोगियों की सेवा करने में, दुखियों का आँसू पोछने में,
भूखे और कंगालों को सहारा देने में, सुख नहीं है? बहुत बड़ा सुख है,
और इसी सुख की खोज ऐसी स्त्रियों को करनी चाहिए। घर ही में कोई
झगड़ालू है, किसी में ऐंठ बहुत है, किसी को अपनी ही पड़ी रहती है, कोई
दूसरे की नहीं देख सकता, कोई थोड़े ही में बिगड़ जाता है, कोई मनाने पर
भी नहीं मानता-कहीं कोई स्त्री पति से रूठ कर मुँह लपेटे पड़ी है-कहीं
कोई बच्चा अपनी कड़वी माँ के थपेड़ों को खाकर पड़ा रो रहा है-कहीं
भाई-भाई लड़ रहे हैं-कोई बाप बेटे में चल रही है-कहीं सास पतोहू में
उलझी है-कहीं देवरानी जेठानी तड़प रही हैं-कहीं ननद भौजाई में तू तू
मैं मैं हो रही है। इन सबसे एक रस बरतने में-समय-समय पर सबकी सम्हाल
करने में-उलझते को सुलझाने में-बिगड़ते को बनाने में-क्या सुख नहीं
है? और क्या हम सी स्त्रियों के लिए इस सुख से बढ़कर कोई और सुख हो
सकता है? यह सुख ऐसा वैसा सुख नहीं है-इस सुख के मिलने पर-ऊसर में
गंगा बहती है-अंधेरी रात में चाँद उठता है-जलती दोपहर में ठण्डी पवन
चलती है-घूर पर पारस मिलता है-उकठा हुआ काठ हरा होता है-और रेतीली
धरती पर वर्षा होती है। मैं इसी सुख की खोज में हूँ, इस धरती पर अब
मेरे लिए कोई दूसरा सुख नहीं है।
पतिवाली स्त्रियों के पास बड़ा झंझट होता है, सबसे पहले उसको पति की
सेवा टहल और सम्हाल करनी होती है, क्योंकि सबसे बड़ा धर्म उसका यही
है, इसलिए वह जैसा चाहिए वैसा इस सुख को नहीं पा सकती। हमारी ही ऐसी
स्त्रियों इस सुख को ठीक-ठीक पा सकती हैं। पति के संग स्त्रियों का
कुछ स्वार्थ भी रहता है, इसी से उनके सुख में कभी-कभी दुख की झलक भी
पायी जाती है। पर जिस सुख की बात हमने कही है, माँ कहती हैं इसमें
स्वार्थ की छूत नहीं रहती। इसलिए इसमें दुख का लेश भी नहीं रहता। इसी
ढंग का सुख कोई-कोई पतिवाली स्त्री भी पाती हैं, पर वे ही जो सब
स्वार्थों से मुँह मोड़कर पति की सेवा टहल करती हैं।
बासमती देवहूती की बातों को सुनकर भौचक बन गयी और उसका मुँह तकने छोड़
उससे फिर कुछ कहते न बना। इसके पीछे दोनों फूल तोड़ने के लिए चली
गयीं।
तेरहवीं पंखड़ी
पहाड़ों में जाकर नदियों को देखो, दूर तक कहीं उनका कुछ चिह्न नहीं
मिलता। आगे बढ़ने पर थोड़ा सा पानी सोते की भाँति झिर झिर बहता हुआ देख
पड़ता है और आगे बढ़ने पर इसी की हम एक पतली धार पाते हैं। यही पतली
धार कुछ और आगे बढ़कर और कई एक दूसरे पहाड़ी सोतों से मिलकर एक छोटी
नदी बन जाती है। कलकल कलकल बहती है। लहरें उठती हैं। कहीं पत्थर की
चट्टानों से टकरा कर छींटे उड़ाती है। फिर बड़ी नदी बनती है और बड़े वेग
से समुद्र की ओर बहती है। हमारी चाहों का भी यही ढंग है, पहले जी में
इसका कुछ चिह्न नहीं होता। पीछे धीरे-धीरे उसकी एक झलक सी इसमें
दिखलाई देती है। कुछ दिन और बीतने पर उसकी एक धार सी भीतर ही भीतर
फूटने लगती है। पीछे यही धार फैलकर जी में घड़ी-घड़ी लहरें उठाती है।
अठखेलियाँ करती है। अड़चनों से टक्कर लगाती है। और अपने चाहतें की ओर
बड़े वेग से चल निकलती है।
देवहूती के लिए कामिनीमोहन की चाह भी अब यही पिछले ढंग की चाह है। वह
उस में डूब रहा है। उसी की भँवरों में पड़ कर चक्कर खा रहा है। लाख
हाथ-पाँव मारता है, पर कहीं थल बेड़ा नहीं मिलता। वह अपनी बैठक में
पलँग पर लेटा है, उस की आँखें कड़ियों से लगी हैं, भौंहें कुछ ऊपर को
खिंच गयी हैं और वह चुपचाप देवहूती की छवि मन-ही-मन खींच रहा है।
उसने चम्पे के फूलों से बनाकर एक मूर्ति खड़ी की। कमल की पंखड़ियों से
आँखें बनायीं-तिल के फूल से नाक सँवारी-दुपहरिया के फूल से होठ
बनाया-हाथ और पाँव में भी कमल की पंखड़ियों को लगाना चाहा, पर चम्पे
के फूल से यहाँ भी काम लिया। हाँ! उँगलियाँ बनाने में फूल से काम न
चला, इसलिए वहाँ कलियाँ लगायीं। और सब जैसा-का-तैसा रहने दिया।
भौंरों की पाँतियों को पकड़ कर बाल बनाना चाहा, पर ये सब ठहरते न थे,
इसलिए चुनी हुई पतली-पतली सुथरी सेवारों से काम लिया-तब भी यह बनावट
बहुत ही बाँकी रही। बेले का फूल बहुत ही उजला होता है, नेवारी और
जूही का फूल भी वैसा ही होता है, चमेली का फूल इन सबों के इतना उजला
नहीं होता, पर उसमें कुछ लाली होती है, कामिनीमोहन ने जो साड़ी इस
मूर्ति को पहनायी वह इन फूलों के रंग की न थी। हाँ, चमेली के फूल में
से लाली निकाल ली जावे, तो इस साड़ी का रंग ठीक उसके फूल का-सा होगा।
पर साड़ी के आँचल का एक कोना ऐसा न था, इसका रंग ठीक सरसों के फूल का
सा था, जिससे जान पड़ता है, उतनी साड़ी हलदी में रंगी हुई थी, साड़ी के
नीचे कामिनीमोहन ने झूले की भाँति का एक और कपड़ा पहनाया, यह भी उजला
ही था, जैसा हरसिंगार के फूल की पंखड़ी होती है। गहनों में, कानों में
दो चार बालियाँ, हाथों में पाँच चार चूड़ियों के साथ सोने का कड़ा,
उँगलियों में दो एक ऐसे वैसे छल्ले, और पाँव में चाँदी के कडे थे। पर
झनकार किसी में न थी।
यह सब करके कामिनीमोहन ने उसमें जी डाला, जी डालते ही इस मूर्ति के
मुखड़े पर न जाने कैसी एक जोत दिखने लगी, न जाने कैसी एक छटा उसके ऊपर
छकलने लगी। सहज लजीला मुखड़ा होने से उसकी ललाई जो कुछ गहरी हो गयी
थी, बहुत ही अनूठी थी, भोलापन इन सबों से निराला था। भोर के तड़के
चम्पे की पंखड़ी को सूरज की सुनहली किरणों से चमकते देखा है-चाँद की
प्यारी किरणों से धीरे-धीरे कोईं के फूल को खिलते देखा है-लजालु का
हरी-हरी पत्तियों का कुछ छू जाने पर लाज के बस में पड़ते देखा है-पर
वह बात कहाँ! वह अनूठापन कहाँ!!!
जी डालकर कामिनीमोहन ने अपने आपको खो दिया, बड़ी उलझन में पड़ा, उसके
सर की साड़ी को खसका कर कुछ नीचा करना पड़ा, ज्यों ज्यों वह सर की साड़ी
नीचा करने लगा, उसकी उलझन बढ़ने लगी। वह सोचने लगा, जो देवहूती में
लाज न होती तो क्या अच्छा होता, फिर सोचा, नहीं-नहीं, लाज ही तो उसकी
चाह जी में और बढ़ा देती है! लाज ही से तो वह और प्यारी लगती है!!!
खुले मुँह की स्त्रियों कितनी देखी हैं-पर क्या घूँघटवाली के ऐसा
उनका भी आदर है? कपड़ों में लिपटी किवाड़ों की ओट में खड़ी स्त्री जितना
जी को चंचल करती है-क्या द्वार पर आकर अकड़ी खड़ी हुई स्त्री के लिए भी
जी उतना ही चंचल होता है! सीधी चितवन कितनी ही देखी है-पर क्या वह
तिरछी चितवन के इतनी ही काट करती है? खिलखिला कर हँसना जी की कली
खिलाता है-पर क्या होठों तक आ कर लौट गयी हुई हँसी के इतना ही? और
क्या यह सब लाज के ही हथकण्डे नहीं हैं? जो कुछ हो, पर क्या अच्छा
होता देवहूती, जो तुम्हारा मुखचन्द एक बार मैं बिना बादलों के देखने
पाता! इस घड़ी कामिनीमोहन की सब सुध खो गयी थी, वह बावलों की भाँति
कहने लगा, क्या न देखने दोगी, देवहूती? मान जाओ, एक बार तो देखने दो।
पर फिर अचानक वह चौंक उठा, उसने सुना, जैसे कोई कहता है-आप क्यों
अपने पाँवों में अपने आप कुल्हाड़ी मार रहे हैं? कामिनीमोहन ने सुधि
में आ कर देखा-साम्हने बासमती खड़ी है। उसको देखकर वह कुछ लजाया, पर
छूटते ही पूछा, क्यों बासमती? क्या मैं अपने आप पाँव में कुल्हाड़ी
मार रहा हूँ?
बासमती-और नहीं तो क्या? एक ऐसी वैसी छोकरी के लिए इतना आपे से बाहर
होना, क्या अपने आप अपने पाँव में कुल्हाड़ी मारना नहीं है?
कामिनीमोहन-क्या करूँ, बासमती! जी नहीं मानता, जो देवहूती दो चार दिन
के भीतर मुझसे न मिली, तो मुझको बावला हुआ ही समझो।
बासमती-क्यों? देवहूती में कौन सी ऐसी बात है? देवहूती से बढ़कर कितना
ही आपके लिए मर रही हैं, कितनी ही आप पर निछावर हो चुकी हैं, फिर
देवहूती में क्या रखा है, जो आप उसके लिए बावले होंगे?
कामिनीमोहन-इसको मेरे जी से पूछो। बासमती! मैं बातों से नहीं बतला
सकता।
बासमती-यह आपकी बहुत बड़ी कचाई है, घबड़ाने से कुछ नहीं होता,
धीरे-धीरे सभी बातें ठीक हो जाती हैं। आप की कचाई और घबराहट ही सब
बातें बिगाड़ती हैं। आप जितना ही उसके लिए चंचल होते हैं वह उतना ही
ऐंठती है। मैं कहती थी आप उसके पास कोई चीठी न लिखिये, पर आप ने न
माना, अब यह इतना तन गयी है, जो पुट्ठे पर हाथ तक नहीं रखने देती!
कामिनीमोहन-तुम सदा ऐसी ही बातें कहा करती हो, कुछ होता जाता तो है
नहीं, उलटे सब बातों को मेरे ही सर मढ़ती हो। क्या मेरी चीठी भेजने से
पहले उसके ये ढंग न थे?
बासमती-जी नहीं, ये ढंग नहीं थे। क्या देवकिशोर भी कभी फूल तोड़ते समय
वहाँ आता था, पर जिस दिन से आप की चीठी गयी है, उसी दिन से ज्यों फूल
तोड़ने के लिए देवहूती फुलवारी में आती है, त्यों किसी ओर से देवकिशोर
भी किसी बहाने आ धमकता है। और जब तक देवहूती फुलवारी से नहीं जाती-वह
वहाँ से टलता तक नहीं।
कामिनीमोहन-इसमें भी तुम्हीं से कोई भूल हुई है, नहीं तो देवकिशोर इन
बातों को क्या जानता?
बासमती-मुझसे कोई भूल नहीं हुई है, मैं तुम्हारी चीठी को ऐसा चुपचाप
देवहूती के पास रख आयी...जो वह भी इस बात को न जान सकी। मैं ऐसे काम
के लिए उसके घर में आयी गयी-जैसे छलावा-किसी ने देखा तक नहीं।
कामिनीमोहन-ये तुम्हारी बातें हैं, पारबती की दीठ कौन बचा सकता है।
फूल तोड़ने के समय देवकिशोर का फुलवारी में आना उसी की चाल है।
बासमती कुछ खिसियानी सी होकर अपने आप सोचने लगी बात तो ठीक है, मैंने
भी कुछ ऐसा ही सुना है, पर जी की बात जी ही में रखकर बोली-आप कहेंगे
क्या, मैं पहले से ही जानती हूँ। जितनी चूक है-सब मेरी चूक है। जहाँ
कोई बात बिगड़ी, उसमें मेरा ही दोष है। मैं आपकी लौड़ी हूँ, जो आप ऐसी
बातें कहते हैं तो मैं बुरा नहीं मानती, बात दिनों दिन बिगड़ रही है,
दुख इसी का है। आपका काम हो जावे, मैं कनौड़ी बनकर ही रहूँगी।
कामिनीमोहन-अब मैंने समझा, जान पड़ता है कल्ह जब तू मेरे कहने से उसके
यहाँ गयी, उस घड़ी वह तेरे हाथ न चढ़ी। इसी से आज इतना रंग पलटा हुआ
है। नहीं, तू तो स्वर्ग की अप्सरा को धरती पर उतार लाने को कहती थी।
बासमती-अब भी मैं यही कहती हूँ-क्या अब जो अड़चनें बढ़ गयी हैं-इससे
मैं हार मानूँगी? नहीं-नहीं, ऐसा आप मत सोचिये, बासमती ऐसी मिट्टी से
नहीं बनी है, अपना काम करके ही दिखाऊँगी, पर इतना कहती हूँ-काम अब
इधर नहीं निकल सकता।
कामिनीमोहन-आज तीसवां दिन है, फूल तोड़ते एक महीना हो गया, कल्ह से
देवहूती मेरी फुलवारी में फूल तोड़ने न आवेगी। जो आज काम न निकला, तो
फिर कब निकलेगा, जैसे हो बासमती आज काम पूरा करना चाहिए।
बासमती-आप फिर उतावली करते हैं, मेरी बात मानकर आप उतावले न हों,
आजकल उसके रंग-ढंग ठीक नहीं हैं। आज उसको अपने रंग में ढालना टेढ़ी
खीर है।
कामिनीमोहन-बासमती! तुम भूलती हो, जो आज कुछ न हुआ, फिर कुछ न होगा।
मैं तुम्हारी भाँति जी का कच्चा नहीं हँ। जो कुछ मैंने सोच रखा है,
आज उसको कर दिखाऊँगा। मैं तुमको इस घड़ी देख रहा था तुम कितनी हो,
नहीं तो इन बातों से कुछ काम न था।
बासमती-राम करें आपने जो सोचा है, वह पूरा उतरे, मैं कच्ची हूँ कि
पक्की, यह आप भली-भाँति जानते हैं-आज भी जानेंगे। मैं कितनी हूँ यह
भी आपने बहुत दिनों से समझ रखा है-आज भी समझेंगे, पर आपका जी इस घड़ी
कहाँ है, कुछ समझ में नहीं आता। आप उतावले होकर ऐसी बातें कह रहे
हैं, इसी से मुझको डर है। उतावलापन अच्छा नहीं। पर जब आप नहीं मानते
हैं, तो मैं अपना मुँह पीट डालूँ तो क्या? मैं जाती हूँ-आप जो कुछ
कीजिएगा, बहुत चौकसी से कीजिएगा। आप चाहे इस घड़ी न मानें पर मैं कहे
जाती हूँ, जहाँ तक हो सकेगा, मेरे योग्य जो काम होगा, मैं उसमें न
चूकूँगी।
बासमती के चलते-चलते कामिनीमोहन ने कहा-बासमती! कुछ कहना है।
बासमती पास आयी। फिर न जाने दोनों में क्या चुपचाप बातें हुई-इसके
पीछे दोनों वहाँ से चले गये।
चौदहवीं पंखड़ी
कामिनीमोहन की फुलवारी के चारों ओर जो पक्की भीत है उसमें से
उत्तरवाली भीत में एक छोटी सी खिड़की है। यह खिड़की बाहर की ओर ठीक
धरती से मिली हुई है, पर भीतर की ओर फुलवारी की धरती से कुछ ऊँचाई पर
है। खिड़की से फुलवारी की धरती तक नीचे उतरने को बारह सीढ़ियाँ हैं। इस
घड़ी इन्हीं सीढ़ियों से होकर बासमती और देवहूती फुलवारी में उतर रही
हैं। पर जिस झोंक से देवहूती का पाँव उतरने के लिए उठ रहा है, बासमती
का पाँव वैसा नहीं उठता। वह कुछ ठहर-ठहर कर नीचे उतर रही है। देवहूती
सीढ़ियों से जब फुलवारी में उतरी, बासमती चार सीढ़ी ऊपर थी, देवहूती
फुलवारी में उतर कर दो डेग आगे बढ़ी थी-त्योंही उसका पाँव नीचे की ओर
धरती में धंसने लगा। देवहूती बहुत घबड़ायी, उसने बहुत चाहा, कुछ पकड़कर
ऊपर ही रह जावे, पर चाह पूरी न हुई-उसके औसान जाते रहे।
देखते-ही-देखते देवहूती धरती में लोप हुई। जब उसका पाँव नीचे की धरती
से लगा, उसकी आँखें खुलीं। आँखें खुलते ही उसने देखा, जिस छीके में
वह ऊपर से नीचे आयी थी, और धरती पर पाँव लगते ही जिससे खट से अलग हो
गयी थी, वह अब बड़े वेग से ऊपर को उठ रहा था। ज्यों-ज्यों वह ऊपर उठ
रहा था, ऊपर का वह बड़ा छेद, जिसमें होकर देवहूती नीचे आयी थी, मुँद
रहा था। देखते-ही-देखते छेद मँद गया, और छीका उसी छेद के ऊपर छत में
जा लगा-जो अब देखने में छत का बेल बूटा जान पड़ता था।
देवहूती इस घड़ी एक बहुत ही सजी हुई कोठरी में थी, सजने के लिए जो जो
चाहिए, वह सब इसमें था। इस कोठरी की भीतों की बनावट भी निराली थी,
ऐसे-ऐसे नग इसमें लगे थे, जिससे सारा घर जगमगा रहा था। कोठरी के
सामने एक छोटा सा आँगन था, आँगन के चारों ओर पहाड़ सी ऊँची-ऊँची भीतें
थीं। बाहर निकलने का कहीं कोई पथ न था। देवहूती ने यह बस देखा, और
सोचने लगी, अब मैं क्या करूँ। कामिनीमोहन की ही यह चाल है, यह बात
उसके जी में भली-भाँति जँच गयी, पर अब छुटकारा कैसे हो-यही वह सोच
रही थी। इतने में ऐसा जान पड़ा, जैसे सामने की भीत को पीछे से कोई
ठोंक रहा है, एक-एक करके तीन बार ऐसा हुआ, चौथी बार खटके के साथ भीत
के भीतर छिपी हुई एक खिड़की खुल गयी-और इसी पथ से कामिनीमोहन ने बड़े
ठाट से कोठरी के भीतर पाँव रखा। कामिनीमोहन के कोठरी में आते ही फिर
भीत जैसी की तैसी हुई-अब कहीं खिड़की का चिह्न न था।
पुरुषों के विचलाने के लिए उस खेलाड़ी ने स्त्रियों को बहुत से हथियार
दिये हैं, कौन हथियार कब काम में लाना चाहिए, इसको वे भली-भाँति
जानती हैं। देवहूती भी स्त्री है, वह इस बात को नहीं जानती थी, यह
नहीं कहा जा सकता। हाँ! इतना हो सकता है, सब स्त्रियों अपने हथियारों
को एक ही ढंग से काम में नहीं ला सकतीं, जैसे भाला बरछी चलाने में
कोई बहुत ही चौकस होता है-कोई कुछ उससे घटकर-कोई उससे भी घटकर। उसी
भाँत अपना हथियार चलाने में स्त्रियों की गत है-देवहूती किस ढंग की
थी, हम नहीं बतला सकते-पर जिस घड़ी देवहूती और कामिनीमोहन की चार
आँखें हुईं-देवहूती ने अपनी आँखों से बहुत-सा विष उसके ऊपर उगल दिया।
इस घड़ी उसके सर का कपड़ा माँग से भी कुछ पीछे था, बिखरे हुए बाल दोनों
गालों पर बड़े अनूठेपन के साथ हिलते थे, होठ अनोखे ढंग से खुले थे,
जिस के भीतर मीठी मुसकिराहट झलक रही थी। भौंहें कुछ टेढ़ी थीं, आँखों
में लाल डोरे पड़ रहे थे, और मुखड़े का ढंग बहुत ही निराला था। वह झुकी
हुई अपने बालों में उलझी कान की बालियों को सुलझा रही थी, बीच-बीच
में उसके हाथों की चूड़ियाँ बहुत ही मीठेपन से बजती थीं। यह सब देख
सुनकर कामिनीमोहन का अपने आपे में न रहना कोई बड़ी बात नहीं है-सचमुच
इस घड़ी वह अपने आपे में नहीं था-और सब भाँत देवहूती के हाथों का
खिलौना हो गया था। कुछ घड़ी हक्का-बक्का बना वह उसको देखता रहा, पीछे
जी सम्हाल कर बोला, देवहूती! तुम जितनी सुन्दर हो उतनी ही कठोर हो।
देवहूती-कठोर पुरुष लोग होते हैं, उन्हीं का कलेजा पत्थर का होता है,
हम स्त्रियों कठोर होना क्या जानें।
कामिनीमोहन-हम महीनों से तुम्हारे लिए मर रहे हैं, आँसू बहा रहे हैं,
पर तुमने कभी हमारी ओर आँख उठाकर देखा तक नहीं, उलटे कहती हो,
पुरुषों का ही कलेजा पत्थर का होता है।
देवहूती-तुम हमारे जी की क्या जानते हो! जो तुम मेरे लिए मर रहे
हो-तो मैं तुम्हारे लिए मर चुकी हूँ-जीती क्योंकर हूँ यह नहीं समझ
में आता। तुम मेरे लिए आँसू बहा रहे हो, तो तुम्हारे लिए मेरा कलेजा
जलकर राख हो गया है, उस में एक बूँद लहू नहीं जो आँसू निकाले। हाँ,
यह सच है, मैंने तुम्हारी ओर कभी आँख उठाकर नहीं देखा, पर तुमने कभी
भले घर की बहू बेटी को किसी को किसी के सामने आँख उठाकर देखते देखा
है? मैं कब अकेली रही जो तुम्हारी ओर आँख उठाकर देखती। बासमती के
सामने मुझसे ऐसा काम नहीं हो सकता।
कानिमीमोहन-क्या बासमती कोई और है?
देवहूती-और क्यों नहीं है! जो बात हमारे तुम्हारे बीच की है, उसको
तुम जानो, मैं जानूँ-तीसरी को जनाना मैं नहीं चाहती। इसलिए मैंने
तुम्हारी चीठी के पलटे में कोई चीठी भी नहीं भेजी-किसके हाथ भेजती।
पर मेरा सब किया कराया आज मिट्टी हुआ, आज बासमती ने सब जाना, मेरा
यही उलाहना है-और कुछ नहीं।
कामिनीमोहन-यह चूक तो हुई। पर तुम्हारे फाँसने के लिए ही मैंने ऐसा
किया, तुम्हारे जी की बात मैं नहीं जानता था, नहीं तो कभी ऐसा न
करता।
देवहूती-तुम्हारा रूप, तुम्हारी मतवाली करनेवाली आँखें, तुम्हारी जी
उलझानेवाली लटें, तुम्हारी रसभरी मुसकिराहट, जिसको न
फाँसेगी-तुम्हारी यह चाल उसको नहीं फाँस सकती। इस निराली कोठरी में
भी तुम उसका कुछ नहीं कर सकते। पर मैं तो यों ही तुम्हारे ऊपर मर रही
हूँ-चाहे यों फाँसो चाहे वों-
कामिनीमोहन-यह कौन जानता था, आज जो कुछ मैंने किया उसमें बासमती ही
आँखों की किरकिरी है, नहीं तो क्या तुम्हारे जी की बात मैं किसी भाँत
जान सकता था?
देवहूती-तुम यह क्या कहते हो, जिस दिन मेरी आँख तुम्हारे ऊपर पड़ी,
उसी दिन तुमको समझ लेना चाहिए था, मैं तुम्हारी हो चुकी। वह कौन
स्त्री है जो तुमको देख कर तुम्हारे ऊपर निछावर न होगी।
कामिनीमोहन-यह बात दूसरी स्त्री कहे, पर तुम मत कहो, देवहूती। मैं आप
तुम पर निछावर हूँ, मैं ही नहीं, मेरा धन, प्राण, सब तुम पर निछावर
है, मेरे घर की लक्ष्मी तुम्हीं हो, मैं तुम्हारे लिए सब छोड़ सकता
हूँ-पर तुमको नहीं छोड़ सकता। जिस दिन तुम आँख भरकर मुझको देखोगी, जिस
दिन अपनी फूल ऐसी बाँहों को फैलाकर मुझसे मिलोगी उस दिन मैं अपना बड़ा
भाग समझूँगा।
देवहूती-मुझको धन संपत से कुछ काम नहीं, मैं तुम्हारे रूप गुण की
भिखारिनी हूँ-वही मुझको चाहिए। तुम्हारे संग उजाड़ में भी रहना हो तो
वही स्वर्ग है। मुझको अब किसका आसरा है, जो मैं हाथ लगे सोने से भी
मुँह मोडूँगी। पर बात इतनी है-मैं आजकल देवी की पूजा कर रही हूँ-कल्ह
पूजा पूरी होगी-फिर मैं आपसे बाहर नहीं। देवी देवते की बात में सदा
डरना चाहिए, पीछे कुछ हुआ तो जनम भर पछतावा रहेगा। मेरे दिन खोटे
हैं, इसमें मैं फूँक-फूँक कर पाँव रखती हूँ। थोड़ा सा आज बासमती का भी
खटका लगा है-दूसरे दिन यह खटका भी न रहेगा। जितनी घड़ियाँ यहाँ बीत
रही हैं, मैं लाजों मर रही हूँ, न जाने बासमती क्या सोचती होगी।
कामिनीमोहन-मैं तुम्हारा दास हूँ-जो तुम कहती हो मैं उससे बाहर नहीं
हो सकता। मैं तुमको अभी फुलवारी में पहुँचाऊँगा-पर फिर मैं कैसे
तुमसे मिलूँगा-यह बात मेरी समझ में नहीं आती।
देवहूती-मैं जिस घर में रहती हूँ-उसमें दक्खिन ओर एक बड़ा कोठा है,
कोठे में दो खिड़कियाँ हैं, एक बड़ी और एक छोटी। बड़ी पर मैं बहुत बैठा
करती हूँ-तुम भी उस ओर बहुत आते जाते हो, परसों मैं तुमको जाते देखकर
उस पर से एक चीठी गिराऊँगी, उस चीठी में जो लिखा हो, वही करना, क्या
जाने मेरे दिन फिर पलटें।
कामिनीमोहन-अच्छा देवहूती, जाओ, मुझमें इतना बल नहीं, जो मैं
तुम्हारी बात न मानूँ, पर इस दास को न भूलना।
इतना कहकर कामिनीमोहन ने देवहूती के पीछेवाली भीत को पहले ही की
भाँति तीन बार ठोंका, चौथी बार ठोकने पर इस भीत में भी एक खिड़की
दिखलायी पड़ी। देवहूती चट उसी में से होकर बाहर हुई, भीत फिर जैसी की
तैसी हुई। जाते-जाते देवहूती कह गयी, मैं सब भूल सकती हूँ-पर तुमको
भूल नहीं सकती।
पन्द्रहवीं पंखड़ी
बड़ी गाढ़ी अंधियाली छायी है, ज्यों-ज्यों आकाश में बादलों का जमघट
बढ़ता है, अंधियाली और गाढ़ी होती है। गाढ़ापन बढ़ते-बढ़ते ठीक काजल के
रंग का हुआ, गाढ़ी अंधियाली और गहरी हुई, इस पर अमावस, आधी रात और
सावन का महीना। पहरों से झड़ी लगी है; बड़ी धुम से वर्षा हो रही है,
बादल जी खोलकर पानी उगल रहे हैं। कभी-कभी कौंध होती है-पर बहुत
थोड़ी-बिजली झलक भर जाती है। मुँह निकालना उसको भी दूभर है। गरज
बादलों के भीतर ही घूम रही है, पानी पड़ने की ओर चिंघाड़ सुनकर नीचे
आते उसका कलेजा भी दहलता है। बूँदें धाड़ाके के साथ गिर रही हैं, ओलती
से मुट्ठियों मोटी धार पड़ रही है और चारों ओर पानी बहने की हर हर हर
हर बहुत ही डरावनी धुन फैली हुई है। यह सब बहुत ही छिपे-छिपे घोर
अंधियाली की गोद में होता है। आँखें फाड़ कर देखने पर भी कहीं बँद और
पानी की झलक तक नहीं दिखलाती। हाँ, बूँदों के गिरने, पानी के धुम से
पड़ने और बहने की मिली हुई कठोर धुन इस अंधियाली के कलेजे को भी भेद
कर कानों तक पहुँचती है, और रात के गहरे सन्नाटे को भी तोड़ रही है,
पर घोर अंधियाली ने इसको भी अपने रंग में रँग कर बहुत ही डरावनी बना
रखा है।
इसी बेले एक गली में घुटनों पानी हेलते हुए तीन जन घुस रहे हैं। यह
तीनों बीच गली में जाकर ठहरे। गली की पश्चिम ओर एक ऊँचा कोठा है,
उसकी एक बड़ी खिड़की खुली हुई है। ऐसी घोर अंधियाली में इस खिड़की के
भीतर उँजाला है, खिड़की से गली की धरती तक एक रस्सी की सीढ़ी लगी हुई
है, इन तीनों में से एक ने टटोल कर इस रस्सी की सीढ़ी को पाया और बहुत
फुर्ती से उसके सहारे खिड़की तक पहुँचकर वह कोठे के भीतर पैठ गया।
वहाँ उसने कोठे को सूना पाया, केवल एक चौदह पन्द्रह वर्ष की बहुत ही
सुन्दर लड़की एक पलँग पर अलबेलेपन के साथ अचेत सो रही थी। एक चटाई
पलँग के पास ही धरती पर बिछी हुई थी। एक मिट्टी का दीया टिमटिमाता
हुआ जल रहा था, और कहीं कोई न था। कोठे पर चढ़नेवाला बहुत ही चुपचाप
पहले कोठे की सीढ़ी के पास गया, वहाँ जो द्वार था उसको उसने बाहर की
ओर से लगाया। धीरे-धीरे बिलाई के काँटों को पकड़कर किवाड़ों को आगे की
ओर खींचा पर वह न खुले, जी का पूरा ढाढ़स हुआ। उसने भीतर से भी बिलाई
लगा दी। इस द्वार के दक्खिन ओर एक बड़ी खिड़की थी, वह अब इसके पास आया,
धीरे-धीरे इसके किवाड़ों को भी देखा, यह भी बाहर से लगे हुए थे। इसके
कीलकाँटों को भी भली-भाँत देखकर पीछे इसकी बिलाई भी उसने भीतर से लगा
दी। यह सब करके वह निचिन्त हुआ-एक ऊँची साँस भीतर से निकलकर बाहर
आयी। कलेजा धक-धक करने लगा-पर वह जी को थामकर धीरे-धीरे पलँग की ओर
बढ़ा। पलँग के पास पहुँचा ही था, इतने में जिस खिड़की से वह आया था,
उसी खिड़की से उसने एक दूसरे जन को कोठे के भीतर पैठते देखा, कोठे के
दीये की जोत ठीक इस पैठनेवाले के मुँह पर पड़ती थी, उसी धुंधली जोत
में उसने देखा, पैठनेवाला उन्नीस बीस बरस का लम्बा गठीला जवान है।
हाथ-पाँव बहुत ही कड़े हैं, सारे अंग खुले हुए हैं, केवल एक कसा हुआ
लँगोटा देह पर है। सर के कटे हुए छोटे-छोटे बालों से पानी की अनगिनत
बूँदें टपक रही हैं, मुँह उसका बहुत गम्भीर है-जिस पर बेडरी और
भलमनसाहत एक साथ झलक रही है।
इस पिछले जन को इस भाँत अचानक आया हुआ देखकर उस पहले जन के पेट में
खलबली पड़ गयी, औसान जाते रहे और कलेजा बल्लियों उछले लगा। जिस घड़ी
पहले जन की आँख इस पिछले जन पर पड़ी थी, उसी घड़ी उसने ठीक कर लिया था,
यह मेरे साथवाले दो जनों में से कोई एक नहीं है, यह इस गाँव का लोग
भी नहीं जान पड़ता, क्योंकि इस गाँव का ऐसा कौन है जिसको मैं नहीं
जानता, पर इसको तो आज तक मैंने कभी नहीं देखा। इसलिए फिर यह है कौन?
उसने उसी घड़ी उसी हड़बड़ी में सोचा, यह हो न हो कोई चोर है! और जो चोर
नहीं है तो देवहूती का छैल है! जो इसी भाँति छिपकर नित इसके पास आता
है। ये दोनों बातें ऐसी थीं, जिनके जी में समाते ही वह जल भुन गया,
उसके ऊपर उसको कुछ रोष भी हुआ, जिससे घबराहट दूर हुई, और जी कुछ कड़ा
हुआ, इसलिए उसने कोठे में उसके पाँव रखते ही उससे कुछ अक्खड़पन के साथ
पूछा, क्यों रे, तू कौन है?
पिछला जन-मैं तेरा यम हूँ।
पहला जन-हाँ, तू मेरा यम है! देख मुँह सम्हाल कर बातें कर, छोटा मुँह
बड़ी बात अच्छी नहीं होती।
पिछला जन-मैं ही तो इस अंधियाली रात में छिपकर दूसरे के घर में घुस
आया हूँ। मैं ही तो एक परायी स्त्री का सत इस भाँत कपट करके बिगाड़ना
चाहता हूँ-इसी से मुझको बड़ा डर है।
पहला जन-मैं तो दूसरे के घर में छिपकर परायी स्त्री का सत बिगाड़ने
आया हूँ! पर यह तो बतला-तू यहाँ क्यों आया है? क्या तू चोर नहीं है?
पिछला जन-मैं चोर हूँ या साह तुझे आप जान पड़ेगा, कुछ घड़ी में तू यह
भी जानेगा, मैं किसलिए यहाँ आया हँ।
पहला जन-मैं कुछ घड़ी में क्या जानूँगा, अभी जानता हूँ तू मरने के लिए
यहाँ आया है। चींटी को पंख निकलता है तो अपने आप वह आग पर जाकर जल
मरती है।
पिछला जन-ठीक बात है! मैं मरने के लिए ही यहाँ आया हूँ; पर यह जान ले
तुझे मारकर मरूँगा, बिना तुझे मारे मैं कभी न मरूँगा।
पहला जन-तू किस बूते इतनी हैकड़ी बघारता है? तू नहीं जानता मैं कौन
हूँ?
पिछला जन-मैं जानता हूँ-तू देश का नीच, कुचाली और नटखट है।
पहला जन-चुप रह! जो गाली बकेगा तो जीभ पकड़कर खैंच लूँगा।
पिछला जन-आ, देखूँ तो कैसे मेरी जीभ खैंचता है! एक ही झापड़ में तो
अंधा होकर धरती पर गिर पड़ेगा।
पहला जन-मुन्ना! मुन्ना!! ओ मुन्ना!!! बघेल! बघेल!! ओ बघेल!!! अबकी
बार चिल्ला कर कहा-ओ मुन्ना और बघेल! अभी कोठे पर चढ़ आओ।
पिछला जन-मुन्ना और बघेल के भरोसे ही यह सीटी पटाक थी, तो तेरी देखी
गयी। पापी नीच! जा। अब तू भी वहीं जा जहाँ मुन्ना और बघेल गये हैं।
इतना कहकर कड़क कर पिछला जन पहले जन की ओर झपटा, धन जन और जवानी के मद
से मतवाले पहले जन से भी यह न सहा गया, वह भी छुरी निकाल कर इसकी ओर
दौड़ा, पर पिछले जन ने बहुत ही फुर्ती से उसके हाथ से छुरी छीन ली, और
गला पकड़कर एक ही झटके में उसको पछाड़ कर उसके ऊपर चढ़ बैठा।
इस झपटा-झपटी और कड़का-कड़की में उस पलँग पर सोयी हुई लड़की की नींद टूट
गयी-वह घबड़ा कर पलँग पर उठ बैठी, आँख मलते-मलते बोली, भगमानी!
भगमानी!! यह कैसी धमा चौकड़ी है!!! उसकी बोली उस सुनसान कोठे में गूँज
उठी, पर किसी दूसरे का बोल न सुनाई पड़ा। उसने हड़बड़ी में आँखें खोल
दीं, पास की चटाई पर किसी को न पाया, उससे थोड़ी ही दूर पर उसने
कामिनीमोहन को धरती पर गिरा और उसके ऊपर एक अनजान को बैठे देखा। इस
अनसोची और अनहोनी बात को अचानक देखकर वह काँप उठी-उसकी घिग्घी बँधा
गयी और वह चक्कर में आ गयी। अभी वह सम्हली नहीं थी, इतने ही में उस
पिछले जन ने जिसको अब हम देवस्वरूप नाम से पुकारेंगे, कहा-क्यों रे!
राक्षसी!! भले घर की बहूबेटी का क्या यही काम है?
लड़की ने कहा, आप क्या कहते हैं, मैं समझ नहीं सकती हूँ। पर जिस भले
घर की बहू-बेटी के ऐसे निराले कोठे में, ऐसी अंधियाली रात में, इस
भाँति दो अनजान पुरुष धमाचौकड़ी करते हों वह भले घर की बहू-बेटी काहे
को है। आप मुझको भले घर की बहू-बेटी न कहिये। मुझको अब इस धरती पर
रहना भी भारी है। अब मैं यही चाहती हूँ धरती माता फट जावें और मैं
उसमें सम जाऊँ।
देवस्वरूप ने कहा, तुम मत दुखी हो, मैंने तुम्हारा जी देखने के लिए
ही वह बात कही थी, अब मुझको तुमसे कुछ नहीं कहना है। मैं कामिनीमोहन
से दो-चार बात करना चाहता हूँ। यह कहकर वह कामिनीमोहन की ओर फिरा,
उसको कड़ी आँखों से देखकर बोला, देखो कामिनीमोहन! मैं तुम्हारे ऊपर
चढ़कर बैठा हूँ, तुम्हारी छुरी यह मेरे हाथ में है, मैं इसको तुम्हारे
कलेजे में घुसेड़ दूँ-या तुम्हारे गले में चुभा दूँ, तो तुम अभी तड़प
कर मर जाओगे, इस घड़ी तुम्हारा मरना-जीना मेरे हाथ में है। पर सच बात
यह है-तुमको जी से मारने के लिए यहाँ नहीं आया हूँ-मैं इस लड़की का
धर्म बचाने के लिए यहाँ आया था, राम की दया से वह बात पूरी हुई-मैं
तुम्हारा जी लेकर क्या करूँगा। मैं तुमको अब छोड़ दे सकता हूँ। पर यों
न छोडूँगा। तुम दो बातों के लिए मुझसे शपथ करो, तभी छोड़ँगा, क्या शपथ
करोगे?
कामिनीमोहन ने बहुत धीरे से कहा, आप क्या कहते हैं?
देवस्वरूप ने कहा, मैं यही कहता हूँ-एक तो आज से किसी परायी स्त्री
को तुम छल-कपट करके मत फाँसो और न किसी भाँत उसका सत बिगाड़ो-दूसरे आज
की जितनी बातें हैं, उनको अपने तक रखना, भूल कर भी किसी से न कहना।
कामिनीमोहन ने एक लम्बी साँस ली-विष की सी घूँट घोंट कर देवस्वरूप की
कही हुई बातों के लिए भगवान को बीच देकर शपथ किया, और एक आह भर कर
कहा, आप अब मुझको छोड़ दीजिए, मेरा जी निकल रहा है।
अच्छा, जा छोड़ दिया, पर मेरी बात को भूलना मत, बुरा मान कर तुम मेरा
कुछ नहीं कर सकते, मैं ऐसा वैसा मनुष्य नहीं हूँ-धर्म की रक्षा के
लिए जो लोग कभी-कभी मनुष्य के रूप में दिखलायी पड़ते हैं-मैं वही हँ,
तुम सचेत हो जाओ, धर्म के पथ पर चलोगे, तो आगे को तुम्हारे लिए बहुत
अच्छा होगा। यह कहकर देवस्वरूप ने कहा, अच्छा, कामिनीमोहन अब तू इस
कोठे से उतर, मैं भी तेरे साथ नीचे चलता हूँ।
इतनी बातचीत होने पीछे बारी-बारी दोनों उसी रस्सी की सीढ़ी से नीचे
उतरे। नीचे उतर कर देवस्वरूप ने उस रस्सी की सीढ़ी को खिड़की से खींच
कर टुकड़े-टुकड़े कर डाला। देवहूती चुपचाप यह सब लीला देखती रही, पर
कोई बात उसकी समझ में नहीं आयी। वह खिड़की के किवाड़ लगाकर फिर अपने
पलँग पर सो गयी। पर उसका जी रह-रह कर बहुत घबड़ाता था।
अब भी वर्षा का वही ढंग था, अंधियाली भी वैसी ही गहरी थी, इसी
अंधियाली और वर्षा से देवस्वरूप कामिनीमोहन की आँखों से ओझल हुआ।
कामिनीमोहन ने अपने दोनों साथियों को इधर-उधर बहुत खोजा, पर उनको
कहीं न पाया, चुपचाप मन मारे वह घर आया, आज उसकी रात बहुत ही बेचैनी
से कटी।
सोलहवीं पंखड़ी
''देखो! चाल की बात अच्छी नहीं होती।''
अपनी फुलवारी में टहलते हुए कामिनीमोहन ने पास खड़ी हुई बासमती से
कहा-
बासमती-क्या मैंने कोई आपके साथ चाल की बात की है? आपके होठों पर आज
वह हँसी नहीं है, आँखें डबडबायी हुई हैं, मुँह बहुत ही उतरा हुआ
है-यही सब देखकर मैंने जो पूछा-आपका जी कैसा है?-तो यह मेरी चाल की
बात है? कामिनीमोहन-चाल की बात न है, और क्या है? तुम क्या नहीं
जानती हो?-फिर सब बातें जान बूझकर पूछने का ढचर निकालना चाल की बात
नहीं है, तो क्या?
बासमती-मैं क्या जानती हूँ? जितनी बातें मैं जानती हूँ उनमें एक बात
भी ऐसी नहीं है, जिससे आप इतने उदास हों, मैं आपको हँसता खेलता देखने
आयी थी, पर उलटे मुरझाया हुआ पाती हूँ-अब मैं क्या जानती हूँ बीच में
क्या गड़बड़ हुई।
कामिनीमोहन-चुप रहो, बासमती! क्यों बहुत बात बनाती हो? तुम सब जानती
हो और सब तुम्हारा ही बिगाड़ा बिगड़ता है। मुझसे काम बनाने के बहाने
अलग ऐंठती हो, और वहाँ देवहूती की माँ को सब भेद बतला कर अलग कमाती
हो, अब मैंने तुम्हारा मरम समझा है। पहले मैं तुमको ऐसा नहीं समझता
था।
बासमती-राम! राम!! यह आप क्या कहते हैं, जो मैं आपसे छल कपट करती
होऊँ, तो मेरी आँख फूट जावे, मेरे तन में ढोले पड़ें, मेरा एक पूत
मेरे काम न आवे। मेरा कोई गला काट डाले, तो भी मैं आपकी बात दूसरे को
नहीं बतला सकती, रुपया पैसा क्या है जो उसके लालच से मैं ऐसा करूँगी।
कामिनीमोहन-जो ऐसा नहीं है, तो फिर ऐसी घोर अंधियाली में, ऐसी कठोर
वर्षा में, खड़ी आधी रात को एक अनजान पुरुष मेरा काम बिगाड़ने के लिए
वहाँ कैसे पहुँचा गया।
बासमती-इसको राम जानें-मैं कुछ नहीं जानती, मैं जो झूठ कहूँ तो मेरी
जीभ गल जावे। मैं आपकी लौंड़ी हूँ, काम लगने पर आपके लिए अपना कलेजा
निकालकर सामने रख सकती हूँ-आप इस भाँत मुझको दोष न लगाया करें।
कामिनीमोहन-क्या कहूँ बासमती! रात की बात कुछ समझ में नहीं आती, सौ
ठौर जी जाता है, तुम्हारा मन बूझने के लिए ही मैंने ये बातें कहीं,
नहीं तो मैं जानता हूँ तुम ऐसी नहीं हो, मेरी इन बातों को तुम बुरा न
मानना।
बासमती-आपने क्या कहा जो मैं बुरा मानूँगी, जिसपर चलना है, जो अपना
होता है, उसी पर झाँझ निकाली जाती है। आप बिगड़ेंगे तो हम लोगों पर
बिगड़ेंगे और किस पर बिगड़ेंगे?
बासमती की बातों से कामिनीमोहन का दुख कुछ हलका हुआ, उसने अपने जी का
बोझ और हलका करने के लिए धीरे-धीरे रात की सब बातें बासमती से कहीं,
पीछे एक लम्बी साँस भरकर कहा, बड़ा पछतावा यह है बासमती! मैं रात
देवहूती से दो बातें भी न कर सका।
बासमती-मैं आपके जी की बात समझती हूँ। आप दो नहीं दस बातें करते तो
क्या-अब उस बूँद से भेंट नहीं हो सकती।
कामिनीमोहन-मैं देखता तो वह क्या कहती है!
बासमती-यह आप अपनी खिसियाहट मिटाते हैं, जब वह अपनी चिकनी चुपड़ी
बातों में आपको फाँस कर निकल गयी, तभी आपको समझना चाहिए था। वह नित
फुलवारी के फाटक में होकर आती जाती थी, जब उस दिन फाटक छुड़ाकर मैं
उसको खिड़की की ओर ले चली, तो वह एक डग आगे न रखती थी, पर मेरे ऐसा था
जो मैं किसी भाँत उसको उस ओर लिवा गयी।
कामिनीमोहन-मैं उसको इतना नहीं समझता था, उसके भोले-भाले मुखड़े से
इतना सयानापन नहीं झलकता।
बासमती-वह देखने ही को भोली-भाली है, उसकी माँ ने उसको पूरी पक्की
बना दिया है। देखते नहीं उसका कलेजा! दो महीने आप नित उसके कोठे की
ओर एक-एक नहीं चार-चार बार जाते रहे, पर क्या उसकी झलक तक दिखलाई
पड़ी?
कामिनीमोहन-नहीं, कभी नहीं, झलक का देख पड़ना तो दूर, वह खिड़की भी
मुझको कभी खुली नहीं मिली। इसी से तो बहुत समझ बूझकर रात की बात ठीक
की गयी थी, पर क्या कहूँ हम लोगों की यह चाल भी पूरी न पड़ी।
बासमती-चाल तो सभी पूरी पड़ी थी, पर अनसोची बात के लिए क्या किया
जावे। मैं यह नहीं समझती हूँ, यह दाल भात में मूसल कौन था?
कामिनीमोहन-जो यह बात मैं जानता ही, तो फिर क्या था, आज ही उसको
ठिकाने लगाता! वह तो अपने को देवता बतलाता था, पर वह जैसा देवता है
मैं जानता हँ! वह है कैंडे का! यह मैं कहँगा, पर अपने को देवता
बतलाना उसकी निरी चाल थी।
बासमती-आपने आज उसको खोजवाया था?
कामिनीमोहन-खोजवा कर क्या करूँगा? ऐसी बातों पर धूल डालना ही अच्छा
है, फिर मुझसे बैर करके कोई इस गाँव में ठहर सकता है? वह कभी सटक गया
होगा, यहाँ बैठा थोड़े ही होगा।
बासमती-मुन्ना और बघेल तो आपके निज के लोग हैं, आप इनको क्यों नहीं
उसके पीछे लगाते। इन दोनों के बीच की बात क्यों कर फूटेगी।
कामिनीमोहन-मुन्ना और बघेल का भी रात ही से पता नहीं मिलता, क्या
कहूँ रात की जितनी बातें हैं, सभी निराली हैं।
बासमती-क्यों? यह लोग क्या हुए?
कामिनीमोहन-मैंने पैंतालीस सौ रुपये का गहना देवहूती के लिए बनवाया
था, इन गहनों को मैं इसलिए साथ लेता गया था, जो देवहूती न मानेगी, तो
इन्हीं का लालच देकर उस को मनाऊँगा। जब मैं कोठे पर चढ़ने लगा, गहनों
का डब्बा बघेल को दे दिया, कोठे पर पहुँच कर मैं ऐसा उतावला हुआ जो
यह बात भूल गयी। इसी बीच वे दोनों उस डब्बे को लेकर चंपत हुए। इतने
रुपए का धन हाथ आया था, वह लोग क्यों कर छोड़ते!
बासमती-जो सौ रुपए भगमानी को और पचास साठ रुपए देवहूती के घर के
दूसरे कामकाजियों को दिये गये थे, मैं उसी के लिए मर रही थी, यह बात
तो आपने ऐसी सुनायी, जो मुझ पर बिजली टूट पड़ी।
कामिनीमोहन-भगमानी को जो सौ रुपए दिये गये उसका क्या पछतावा है, उसने
अपना सब काम ठीक-ठीक किया था, घर के भीतर की ओर से किवाड़ियाँ लगा ली
थी, कोठे की बड़ी खिड़की खोलकर उस पर रस्सी की सीढ़ी लगा दी थी, आप भी
कोठा छोड़कर कहीं चली गयी थी। काम पड़ने पर उसके घर के दूसरे कामकाजी
भी सर न उठाते-पर इन दोनों ने बड़ा धोखा दिया।
बासमती-धोखा नहीं दिया, सर काट लेने का काम किया, पर मैं क्या कहूँ,
मुझसे तो आज कुछ कहते ही नहीं बनता।
कामिनीमोहन-जाने दो बासमती! मुझको इन बातों की इतनी खोज नहीं है; पर
देवहूती को हाथ से न जाने देना चाहिए।
बासमती-मैं कब देवहूती को छोड़नेवाली हूँ, पर दु:ख इतना ही है कि काम
बिगड़ता जाता है। मैंने आपसे अभी नहीं कहा, आज पारबती ने अपने यहाँ के
सब कामकाजियों को निकाल दिया। भगमानी बीसों बरस की पुरानी टहलुनी थी,
आज उसको भी छुड़ा दिया। वे सब मेरे यहाँ रोते आये थे-इन सबसे मेरा बड़ा
काम चलता था।
कामिनीमोहन-पारबती कैसी चाल की है, कुछ समझ में नहीं आता। पर वह
कामकाजी लावेगी कहाँ से-रखेगी तो यहाँ ही के लोग! यहाँ कौन ऐसा है जो
मेरा दबाव नहीं मानता, बासमती! पारबती को जो तुमने न पछाड़ा, तो कुछ न
किया।
बासमती-अपने चलते तो मैं चूकती नहीं, पर होनी को क्या करूँ! मैं भी
यही कहती हूँ-जो पारबती ने मुँह की न खायी तो कुछ न हुआ।
कामिनीमोहन-अब की कोई बड़ी गहरी चाल चलनी चाहिए।
बासमती-मैंने समझा, अच्छा, अब मैं इसी सोच में जाती हूँ।
यह कहकर वह चली गयी।
सत्रहवीं पंखड़ी
आज भादों सुदी तीज है, दिन का चौथा पहर बीत रहा है, स्त्रियों के
मुँह में अब तक न एक दाना अन्न गया, न एक बूँद पानी पड़ा, पर वह वैसी
ही फुरतीली हैं, काम काज करने में उनका वही चाव है, दूसरे दिन कुछ
ढिलाई भी होती, पर आज उसके नाम से भी नाक भौं चढ़ती है, घर-घर में
चहल-पहल है, बच्चों तक में उमंग भरी है। धीरे-धीरे घड़ी भर दिन और
रहा, बनी ठनी स्त्रियों घर-घर से निकलने लगीं; थोड़ी ही बेर में गाँव
के बाहर और ठौर-ठौर चलती फिरती फुलवारियाँ दिखलाई पड़ीं। बिछिया और
पैजनियों की छमाछम, कड़े छड़े और घुँघुरुओं की झनकार से, सोती हुई
दिशाएँ भी जाग उठीं-पवन में बीन बजने लगी। झुण्ड की झुण्ड स्त्रियों
दक्खिन से उत्तर को जा रही थीं, उनके कोयल से मतवाले करनेवाले कण्ठ
से जो गाना हो रहा था, उसको सुनकर योगियों के भी छक्के छूटते थे।
स्त्रियों के झुण्ड में कभी-कभी हटो बचो की धुन भी सुनाई देती थी, और
देखते-ही-देखते कहार पालकियाँ लिये बहुत ही फुर्ती से इनके बीच से
होकर निकल जाते थे। इन पालकियों में गाँव की थोड़े दिन की आयी हुई
धनियों की पतोहें और किसी-किसी बड़े धनी के घर की स्त्रियों जाती थीं।
बंसनगर गाँव के उत्तर ओर सरजू नदी अठखेलियाँ करती हुई बह रही है,
स्त्रियों का झुण्ड धीरे-धीरे आगे बढ़कर इसी नदी के तीर पर पहुँचा।
बंसनगर गाँव के ठीक सामने उस पार चाँदपुर गाँव था। सरजू का ढंग
है-सदा अपनी धारों को पलटती रहती है, पर इन दोनों गाँवों के पास की
धरती कंकरीली थी, इसलिए इन दोनों गाँवों के बीच वह सदा एक रस बहती-ये
दोनों गाँव व्यापार की मण्डी थे। इस पार और उस पार बड़े अच्छे-अच्छे
घाट थे। आज दोनों ओर घाट पर स्त्रियों की बड़ी भीड़ है। सरजू नदी कल-कल
बह रही है, सूरज की किरणें उसमें पड़कर जगमगा रही हैं, लहर-पर-लहर
उठती है-सूरज की किरणों में चमकती है-और फिर सरजू की बहती हुई धार
में मिल जाती है। पानी के तल पर मगर, घड़ियाल उतरा और डूब रहे हैं,
पाल से उड़ती हुई नाव आ जा रही हैं, छोटी-मोटी डोंगियाँ लहरों में
डगमगा रही हैं, और दूसरी बहुत सी नाव घाट के एक ओर पाँती बांधे
चुपचाप खड़ी हैं, जब कभी लहरें उठकर घाट से टकराती हैं, एक-एक बार
रहकर ये नावें धीरे-धीरे हिल उठती हैं। सरजू तीर पर दोनों पार बहुत
से मन्दिर और शिवालय थे, उनमें से बहुतों पर ध्वजा लगी हुई थी,
बहुतों पर कलस थे, तीर पर भाँत-भाँत के फूले फले पेड़ थे, और इन सबकी
छाया जल में पड़ रही थी। धीरे-धीरे तीर की स्त्रियों की छाया भी जल
में पड़ी। जब कभी जल थिर रहता, उस घड़ी दोनों पार पानी के भीतर एक बहुत
ही अच्छी बसी हुई बस्ती दिखलायी पड़ती, और जब लहरें उठतीं, पानी के
हिलने पर उसमें सिलवटें पड़तीं, उस घड़ी टुकड़े-टुकड़े होकर गाँव उजड़ता
दिखलायी देता, और धीरे-धीरे जल में लोप हो जाता। जल में यही सब लीला
हो रही है-स्त्रियों नहा धो रही हैं-और उनके गीतों पर सरजू का जल
लहरों के बहाने हाथ उठा-उठा कर नाच रहा है-और सारा गाँव सरजू पर खड़ा
होकर यह सब लीला देख रहा है।
सरजू के तीर पर पचास स्त्रियों के साथ बासमती खड़ी है, उसके साथ की
बहुत सी स्त्रियों नहा-धो चुकी हैं, बहुत सी नहा-धो रही हैं, इसी बीच
देवहूती अपनी मौसी और पड़ोस की दूसरी दो स्त्रियों के साथ वहाँ आयी।
आते ही न जाने क्या बात हुई जो देवहूती की मौसी और बासमती में बातचीत
होने लगी, बासमती के साथ की दो-चार स्त्रियों इनको घेर कर खड़ी हो
गयीं। देवहूती के साथवाली पड़ोस की दो स्त्रियों को भी बासमती के साथ
की दूसरी दो स्त्रियों ने बातों में फाँसा, और इनमें से भी एक एक को
घेरकर बासमती के साथ की पाँच-पाँच, चार-चार स्त्रियों खड़ी हो गयीं।
देवहूती आगे बढ़ गयी, ज्यों वह पानी के पास पहुँची, त्यों उसको भी
घेरकर बासमती के साथ की बीस-पचीस स्त्रियों खड़ी हो गयीं। उनमें से एक
जो देवहूती के जान-पहचान वाली थी, उससे बोली, देवहूती देखो यह कैसा
अच्छा फूल है।
देवहूती-हाँ, बहुत अच्छा फूल है, क्या तुमने बनाया है सरला! इसकी
पंखड़ियाँ बहुत ठीक उतरी हैं, मैंने पहले इसको बेले का फूल ही समझा
था।
सरला-क्या मैं ऐसा फूल बना सकती हूँ-भाभी ने बनाया है। तभी आज इनको
पालकी पर चढ़ाकर लिवा लायी हँ। सब से बड़ी बात इसकी महँक है-देखो न! यह
फूल कैसा महँकता है!
देवहूती-क्या इसमें महँक भी है? फूल तो बहुतों को बनाते देखा है, पर
उसमें महँक भी वैसी ही बना देना, निरी नई बात है।
सरला-देखो न! हाथ कँगन को आरसी क्या?
देवहूती ने हाथ में लेकर फूल सूँघा, सूँघते ही वह अचेत हो गयी, उसके
हाथ के कपड़े सरजू में गिर पड़े जो आगे को वह निकले, और इसी बीच अचानक
कहारों ने एक पालकी उठायी जिसको लेकर वे सब वहाँ से बड़े वेग से चलते
बने। कहारों के पालकी उठाते ही उन्हीं स्त्रियों में से एक स्त्री
दूसरी कई एक स्त्रियों के साथ उन्हीं बहते हुए कपड़ों को दिखला कर
कहने लगी-हाय! हाय!! यह क्या हुआ, नहाते-नहाते देवहूती कहाँ चली गयी,
अरे यह बिना बादलों बिजली कैसे टूट पड़ी! उन सबों का रोना-चिल्लाना
सुनकर बासमती ने दूर ही से पूछा-क्या है! क्या है! तुम सब रोती क्यों
हो? उन्हीं में से एक ने कहा, अभी नहाने के लिए देवहूती जल में पैठी
थी, इसी बीच न जाने कौन जीव उसको पानी में खींच ले गया। यह सुनते ही
देवहूती की मौसी और उसके पड़ोस की दोनों स्त्रियों हाय, हाय करते वहाँ
दौड़ आयीं। उन्हीं स्त्रियों में से कई एक ने देवहूती के पानी में
उतराते हुए कपड़ों को दिखला कर कहा, इन्हीं कपड़ों को फींचने के लिए
देवहूती पानी में पैठी थी, अभी नहाने और कपड़ा फींचने भी नहीं पायी
थी, इसी बीच घड़ियाल जान पड़ता है, उसको पकड़ ले गया। उस की बातों को
सुनकर सब चिल्ला उठीं, देवहूती की मौसी की बुरी गत हुई। वह पछाड़ खाकर
धरती पर गिरी, और कहने लगी, मैं बहन से जाकर क्या कहूँगी। बासमती
उसकी यह गत देखकर भीतर-ही-भीतर बहुत सुखी हुई, पर ऊपर से दिखलाने के
लिए, उसको समझाने-बुझाने लगी। उन सबको रोते चिल्लाते सुनकर दो चार
नावें दौड़ीं, कुछ लोग भी पानी में कूदे, सबों ने समझा कोई डूब गया
है-पर जब यह सुना कि किसी को घड़ियाल उठा ले गया, उस घड़ी सब हाथ मलकर
पछताने लगे-किसी से कुछ न करते बना।
थोड़ी ही बेर में घाट भर में यह बात फैल गयी-देवहूती को घड़ियाल उठा ले
गया। बड़ी कठिनाई से डरते-डरते नहा-धोकर देवहूती की मौसी दूसरी
स्त्रियों के साथ घर आयी। देवहूती का घड़ियाल के मुँह में पड़ना सुनकर
पारबती की जो गत हुई, उसको हम लिखकर नहीं बतला सकते।
अठारहवीं पंखड़ी
एक बहुत ही घना बन है, आकाश से बातें करनेवाले ऊँचे-ऊँचे पेड़ चारों
ओर खड़े हैं-दूर तक डालियों से डालियाँ और पत्तियों से पत्तियाँ मिलती
हुई चली गयी हैं। जब पवन चलती है, और पत्तियाँ हिलने लगती हैं, उस
घड़ी एक बहुत ही बड़ा हरा समुद्र लहराता हुआ सामने आता है, बड़, साल और
पीपल के पेड़ों की बहुतायत है, पर बीच-बीच में दूसरे पेड़ भी इतने हैं
जिससे सारा बन पेड़ों से कसा हुआ है। इस पर बेल, बूटे और झाड़ियों की
भरमार, सूरज की किरणें कठिनाई से धरती तक पहुँचती थीं-कहीं-कहीं तो
उनका पहुँचना भी कठिन था-वहाँ सदा अंधेरा रहता। एक चौड़ी खोर ठीक बन
के बीच से होकर पच्छिम से पूरब को निकली थी, जहाँ पहुँच कर यह खोर
लोप होती-वहाँ कुछ दूर तक बन बहुत घना न था। एक घड़ी दिन और है, बन
में सर सर छटपट की धुन हो रही है, बरसाऊ बादल आकाश में फैले हुए हैं,
पत्तों को खड़खड़ाती हुई बयार चल रही है-धीरे-धीरे सहज डरावना बन और भी
डरावना हो रहा है।
जिस खोर की बात हमने ऊपर कही है, उसी खोर से घोड़े पर चढ़ा हुआ एक जन
पश्चिम से पूर्व को जा रहा है। मुखड़े पर उमंग झलक रही है, आँखों से
जोत निकल रही है, पर माथे में सिलवटें पड़ रही हैं, जिससे जान पड़ता है
वह अपने आप कुछ सोच रहा है। घोड़ा बहुत ही धीमी चाल से चल रहा है-पर
कान उसके खड़े हैं। कभी-कभी वह चौंक भी उठता है, उस घड़ी उसकी
हिनहिनाहट उस सुनसान बन के सन्नाटे को, तोड़ देती है औेर एक बार उसी
हिनहिनाइट से सारा बन गूँज उठता है। धीरे-धीरे तानपूरे का मीठा सुर
चारों ओर फैलने लगा-साथ ही एक बहुत ही सुरीले गले से गीत गाया जाने
लगा। पीछे तानपूरे का मीठा सुर और सुरीले गले की तान मिलकर एक हुई और
एक बहुत ही सुहावनी और जी को बेचैन करनेवाली धुन सारे बन में गूँजने
लगी। यह धुन धीरे-धीरे ऊपर बयार में उठी, पीछे खोर पर जानेवाले के
कानों तक पहुँचा-वह चुपचाप गीत सुनने लगा-गीत यह था-
लावनी
जग का कुछ ऐसा ही है ढंग दिखाता।
एक रंग किसी का कभी नहीं दिन जाता।
जिससे पौधों ने समा निराला पाया।
जिसने बरबस था आँखों को अपनाया।
जिसके ऊपर था जी से भौंर लुभाया।
बहती बयार को भी जिसने महँकाया।
वह खिला सजीला फूल भी है कुम्हलाता।
एक रंग किसी का कभी नहीं दिन जाता।1।
देखा जिसको जग बीच ध्वजा फहराते।
राजे जिसके पाँवों पर शीश नवाते।
सुन करके जिसका नाम बीर घबराते।
जिसकी कीरत सब ओर सभी थे गाते।
कल पड़ा हुआ वह धूल में है बिललाता।
एक रंग किसी का कभी नहीं दिन जाता।2।
पड़ते थे जिसके तीन लोक में डेरे।
यम भी डरता था आते जिसके नेरे।
थे और देवते जितने जिसके चेरे।
काँपता स्वर्ग जिसके आँखों के फेरे।
उस रावण को था गीधा नोच कर खाता।
एक रंग किसी का कभी नहीं दिन जाता।3।
कब तक कितनी हम ऐसी कहें कहानी।
अपने जी में तू समझ सोच रे प्रानी।
क्यों धरम छोड़ कर करता है मनमानी।
तू क्यों बिगाड़ता है अपना पत पानी।
है पल भर में धन जोबन सभी बिलाता।
एक रंग किसी का कभी नहीं दिन जाता।4।
घोड़े पर चढ़ा हुआ कौन जा रहा है, क्या यह बतलाना होगा? ऊपर के गीत को
सुनकर आप लोग आप समझ गये होंगे, वह कौन है? जो न समझे हों तो मैं
बतलाता हूँ, वह कामिनीमोहन है। ऐसे घने बन में जहाँ सूरज की किरनें
भी कठिनाई से जाती हैं, इस भाँत अचानक गीत होता हुआ सुन कर वह
सन्नाटे में हो गया, फिर गीत भी ऐसा जो उसके दोनों कानों को भली-भाँत
मल रहा था-जो वह सोच रहा था, मानो उसी के लिए उसको जली कटी सुना रहा
था। कामिनीमोहन बहुत घबराया, सोचने लगा, बात क्या है! हो न हो दाल
में कुछ काला है, पर कोई बात उसकी समझ में न आयी। सोचते-सोचते उसने
देखा, वन में पेड़ एक ओर बहुत घने नहीं हैं, गाने की धुन उसी ओर से आ
रही थी, गीत अब तक गाया जा रहा था। वह धीरे-धीरे घोड़े पर से उतरा,
घोड़े को पेड़ से बाँध और चुपचाप पाँव दबाये उसी ओर चला। ज्यों-ज्यों
वह आगे बढ़ने लगा, गीत का गाया जाना रुकने लगा। पथ में एक बहुत ही
लम्बा-चौड़ा बड़ का पेड़ था, डालियाँ इस की बहुत दूर तक फैली हुई थीं।
और कई सौ जटाएँ डालियों से निकलकर धरती तक आयी थीं। इस पेड़ तक
पहुँचते-पहुँचते गीत का गाया जाना रुक गया, सोचने पर जान पड़ा इसी पेड़
के नीचे गीत हो रहा था। कामिनीमोहन यहाँ पहुँच कर बड़ के चारों ओर
घूमा, बहुत सी चिड़ियाँ झाड़ियों में से निकलकर ऊपर उड़ गयीं-छोटे-छोटे
वन के जीव इधर-उधर भागते दिखाई पडे, पर और कोई कहीं न दिखलायी दिया।
कामिनीमोहन का जीवट आप लोग जानते हैं, वह चाहता था, पेड़ पर भी चढ़कर
देखें, पर कुछ समझ बूझकर न चढ़ा। उसके हाथ में एक तुपक थी, उसने डर
दिलाने के लिए आकाश में उसको चलाया, सन्नाटे में उसकी धुन सारे बन
में गूँजी गयी-काँ काँ करते बहुत से कौवे पेड़ पर से उड़ गये-पर और कुछ
न हुआ। कामिनीमोहन कुछ घड़ी यहाँ खड़ा न जाने क्या सोचता रहा-पीछे खोर
की ओर फिरा।
खोर पर पहुँच कर वह घोड़े पर चढ़ा ही था, इसी बीच उसने फिर तानपूरे की
धुन और गाना सुना, अबकी बार तानपूरा बड़ी उमंग से बज रहा था, गाना भी
बहुत ऊँचे सुर में हो रहा था, गीत ये थे-
गीत
कितने ही घर हैं पाप ने घाले।
कितने ही के किये हैं मुँह काले।
पाप की बान है नहीं अच्छी।
ओ न पापों से काँपनेवाले।
सोते हो तेल कान में डाले।
धर्म के हैं तुझे पड़े लाले।
नाव डूबेगी बीच धार तेरी।
ओ धरम के न पालनेवाले।
फिर इस भाँत गाना होते सुनकर कामिनीमोहन बहुत चकराया, वह कुछ डरा भी,
जी में आया, फिर उस पेड़ तक चलूँ, और उस पर चढ़कर देखूँ क्या बात है,
वह घोड़े पर से उतरा भी, पर इसी बीच उसको एक पालकी सामने से आती हुई
दिखलायी पड़ी, कहार सब बड़े वेग से पालकी चला रहे थे, पाँच लठधर पालकी
के पीछे थे। पालकी के देखते ही कामिनीमोहन का जी उस ओर गया। उसने
कहारों से तो कहा ले चलो! ले चलो!! पर जो पाँच लठधर पीछे दौड़ रहे थे,
उनमें से एक को पास बुलाया, जो चार रह गये थे, वे सीधे पालकी के साथ
गये। जिसको कामिनीमोहन ने पास बुलाया था, जब वह पास आया, तो उसने
कहा, कपूर! काम तो तुमने बड़ा किया!
कपूर-मैंने कौन काम किया, जो कुछ किया सो बासमती ने किया, आज वह बड़ी
चाल चली।
कामिनीमोहन-हाँ, कहो तो, कैसे क्या-क्या हुआ?
कपूर-आप घोड़े पर चढ़कर धीरे-धीरे चलिए, मैं भी कहता चलता हूँ, नहीं तो
कहार सब बहुत आगे बढ़ जावेंगे।
कामिनीमोहन घोड़े पर चढ़ा, धीरे-धीरे आगे बढ़ा, त्योंही बन में तानपूरे
के साथ गीत होता हुआ उसको फिर सुनायी पड़ा, अब की बार पूरी-पूरी टीप
लग रही थी, पवन में तान की लहर सी फैल रही थी। गीत यह था-
गीत
फिर रहे हो बने जो मतवाले।
तो किसी के पड़ोगे तुम पाले।
जो कसर काढ़ लेगा सब दिन की।
ओ किसी की न माननेवाले।
इस गीत को कपूर भी सुन रहा था। उसने कहा, बाबू! बन में यह आज गाना
कैसा हो रहा है? इस ओर मैं बहुत आया-गया हूँ पर इस भाँत गाना होते
कभी नहीं सुना।
कामिनीमोहन ने कहा-जान पड़ता है यह जागती हुई धरती है, तभी यहाँ ऐसा
गाना सुनाई दे रहा है, नहीं तो और कोई बात तो समझ में नहीं आती-जाने
दो इन पचड़ों को, बन ही है-तुम अपनी बात कहो।
कपूर-आपके कहने से जिस भाँत दस-दस पाँच-पाँच दे कर गाँव की पचास
स्त्रियों को बासमती ने आपके काम के लिए गाँठा था, आप जानते हैं,
बेले के बने हुए फूल में जो अचेत करनेवाली औषधी लगायी गयी थी, उसका
भेद भी आपसे छिपा नहीं है। इन्हीं पचास स्त्रियों और बने हुए बेले के
फूल ने आपका सब काम कर दिया।
यह कहकर कपूर ने सारी बातें कह सुनायी, पीछे कहा, फूल को सूँघ कर
ज्यों देवहूती अचेत हुई त्यों पास की पाँच छ: स्त्रियों ने उसको पकड़
कर एक पालकी में सुला दिया, इसी पालकी में सरला की भौजाई घाट पर आयी
थी। कहार सब भी साट में थे। ज्यों देवहूती पालकी में सुलायी गयी,
त्यों उन सबों ने पालकी उठा दी। पहले ये सब सीधे सरला की भावज के
द्वार पर आये, वहाँ कुछ घड़ी पालकी उतारी, पीछे पालकी को उठाकर कुछ
दूर उसको इस भाँत ले चले, जैसे कोई रीती पालकी ले चलता है, गाँव के
बाहर आकर वे सब पवन से बातें करने लगे-और अब तक उसी ढंग से चले आ रहे
हैं।
कामिनीमोहन-यह तो हुआ, पर क्या इस बात को उसकी मौसी ने नहीं जाना?
कपूर-वह कैसे जानती! जब कहार सब पालकी उठाकर चल दिये, उन्हीं
स्त्रियों में से दो एक ने देवहूती के हाथ से गिरकर पानी में बहते
हुए कपड़ों को दिखलाकर ऐसी बातें कहीं, जिससे उसकी मौसी के जी में
उसके घड़ियाल के मुख में पड़ने की बात ठीक जँच गयी-इस घड़ी सारे गाँव
में यह बात फैल गयी है, देवहूती को घड़ियाल उठा ले गया।
कामिनीमोहन-बासमती अच्छी चाल चली-पारबती का कान काट लिया।
कपूर-बात सच है, पर यह स्त्रियों के बीच की बात है, बहुत दिन न
छिपेगी।
कामिनीमोहन-न छिपे, काम निकल जाने पर कोई जानकर ही क्या करेगा। मैं
देवहूती से ही ऐसी बातें कहलाऊँगा जिस को सुनकर सभी हाथ मलते रह
जावेंगे।
कपूर-राम ऐसा ही करे। पर इस घड़ी जो करना है, उस को कीजिए, देखिए
पालकी खोर तक पहुँच गयी।
कामिनीमोहन-कहारों से कहो पालकी रख दें।
कपूर ने पुकार कर कहा, कहारों ने पालकी रख दी, और घर की ओर फिरे। अब
जो चार लठधर पीछे थे, वे पालकी लेकर वन में धंसे, कपूर ने इन चारों
की आँखों पर पट्टी बाँध दी थी। दूर तक वे सब इसी भाँत पालकी लेकर
चले-कपूर आगे आगे था। पीछे इन सबों से भी पालकी रखा ली गयी। कपूर
साथ-साथ आकर इन सबों को खोर तक पहुँचा गया। यहाँ पहुँचने पर इनकी
पट्टी खोल दी गयी-पट्टी खुलने पर ये चारों भी घर फिर आये। कपूर फिर
बन में चला गया।
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उन्नीसवीं पंखड़ी
बन में जहाँ जाकर खोर लोप होती थी, वहाँ के पेड़ बहुत घने नहीं थे।
डालियों के बहुतायत से फैले रहने के कारण, देखने में पथ अपैठ जान
पड़ता, पर थोड़ा सा हाथ-पाँव हिलाकर चलने से बन के भीतर सभी घुस सकता।
पथ यहाँ भूल-भुलइयाँ की भाँति का था, भूल-भुलइयाँ से बचकर आधा कोस तक
सीधे उत्तर मुँह चलने पर कई एक ख्रडहर दिखलायी पड़ते। इन ख्रडहरों के
तीन ओर बहुत ही घना बन था। इन ख्रडहरों में एक बहुत बड़ा ख्रडहर था,
यह बाहर से देखने पर सब ओर गिरा पड़ा जान पड़ता। पर इसके भीतर एक बहुत
ही अच्छा घर था, जिसको हम गुदड़ी का लाल कहेंगे। इस घर का आँगन बहुत
ही सुथरा था। कोठे कोठरियाँ बहुत ही चिकनी और बढ़ियाँ थीं, बाहर और
भीतर के सब द्वारों में अच्छी-अच्छी किवाड़ियाँ लगी थीं। इस घर के
बाहर पाँच बड़े मोटे-मोटे और काले भील पहरा दे रहे थे। इसी घर की एक
छोटी कोठरी में, जिसमें एक छोटा सा द्वार लगा है-देवहूती मन मारे
चुपचाप एक चटाई पर बैठी है, पास ही एक बढ़िया चौकी पर कामिनीमोहन बैठा
है। दो घड़ी रात बीत गयी है, एक पीतल की दीवट पर एक पीतल का चौकोर
दीया जल रहा है-दीये में चारों ओर चार मोटी-मोटी बत्तियाँ लगी हैं।
कामिनीमोहन ने देवहूती को चुप देखकर कहा, क्या तुम न मानोगी,
देवहूती?
देवहूती-मैं न मानूँगी, तुम मेरा क्या करोगे?
कामिनीमोहन-तुमको मेरी बात माननी पड़ेगी, मैं तुम्हारा सब कुछ कर सकता
हूँ। क्या तुम इतना भी नहीं समझती हो, मैंने आज क्या किया! अब
तुम्हारी ऐंठ नहीं निबह सकती। इस घड़ी मैं जो चाहूँ करूँ, तुम्हारा
किया कुछ नहीं हो सकता। पर रस में मैं विष नहीं घोलना चाहता।
देवहूती-क्या देवी देवते झूठ हैं! क्या परमेश्वर सो गया!! क्या धर्म
रसातल को चला गया!! क्या बन-देवियाँ मर गयीं!!! जो तुम ऐसा कहते हो।
कभी तुमने किसी सती स्त्री का सत इस भाँति बिगाड़ा है? कामिनीमोहन!
ऐसी बात न कहो-नहीं अभी अनर्थ होगा।
कामिनीमोहन-हाँ! ऐसा!!! यह जीवट उस दिन कहाँ था-जिस दिन तू पहली बार
मेरे हाथों पड़ी। उस दिन मुझको बातों में फाँसकर तू निकल गयी-पर अब वह
दिन दूर गये। ऐसी झाँझ मैंने बहुत देखी है।
देवहूती-उस दिन मैं जो थी, आज भी वही हूँ। उस दिन जो तुम थे, आज भी
वही हो। न तुम उस दिन कुछ कर सके-न आज कुछ कर सकोगे। उस दिन तुम्हारे
हाथों से बचने के लिए मुझसे जो करते बन पड़ा, मैंने किया, आज जो करते
बनेगा, फिर करूँगी। इसपर मुझको धर्म का बल है! देवतों का भरोसा है!!
भगवान का सहारा है!!! फिर तुम मुझको क्या धमकाते हो। मुझको मरना
होगा, मैं मरूँगी, पर तुम्हारी बात मानकर अपना धर्म न खोऊँगी।
कामिनीमोहन-देवहूती, मैं अपने जी को बहुत सम्हालता हूँ। तुम्हारी इन
लगती बातों का ध्यान नहीं करता। पर इतना न बढ़ो। नहीं अभी तुमको जान
पड़ेगा-मैं क्या कर सकता हूँ।
देवहूती-कामिनीमोहन, तुम मेरा जी न जलाओ, देखो मेरे पास यह बहुत ही
कड़ा विष है-तुम मेरी ओर दो डग बढ़े नहीं और मैं इसको खाकर मरी
नहीं-मुझ मरती का तुम क्या कर सकते हो। उस दिन जो मेरे पास विष होता,
मैं तेरे सामने रंडियों का सा स्वांग न लाती। तुम्हारी उस दिन की चाल
ही ने मुझको अपने पास विष रखना सिखला दिया है।
कामिनीमोहन देवहूती का जीवट देखकर चक्कर में आ गया। उसके ऊपर बहुत
कड़ाई करना अच्छा न समझ कर बोला-देवहूती! तुम क्यों मरने के लिए इतना
उतारू हो? क्या तुमको अपना जी प्यारा नहीं है? मरने में क्या रखा है,
मरने वाले के लिए चारों ओर अंधेरा है।
देवहूती-जो पाप करके मरते हैं, उन्हीं के लिए चारों ओर अंधेरा है। जो
धर्म के लिए मरते हैं, उनके लिए सब ओर वह उँजाला है, जिस पर सूरज की
आँख भी नहीं ठहरती। मुझको धर्म प्यारा है, अपना जी प्यारा नहीं है।
धर्म के लिए मैं जी को निछावर कर सकती हूँ।
कामिनीमोहन-देवहूती! तुम सब बातों में धर्म की दुहाई देती हो, पर
क्या यह जानती हो धर्म किसे कहते हैं? काया के कसने में धर्म नहीं
है-खाने, पीने सुख भोगने में धर्म है-जिस से जी का बहुत कुछ बोध होता
है।
देवहूती-तुम्हारे लिए यही धर्म होगा, पर मैं तो उसी को धर्म समझती
हूँ, जिसको हमारे यहाँ की पोथियों ने धर्म बतलाया है, जिसको हमारे
बड़े-बूढ़े धर्म मानते आये हैं। तुम्हारा धर्म ऐसा है, तभी न वह काम
करते फिरते हो, जिसको चोर और डाकू भी नहीं कर सकते।
कामिनीमोहन-तुम्हारे फूल ऐसे होठों से इतना कड़वी बातें अच्छी नहीं
लगतीं देवहूती! अब मैं चोर और डाकू से भी बुरा ठहरा!!!
देवहूती-तुम्हीं सोचो! चोर किसी का धन हर लेते हैं-तो वह धन उसको फिर
मिलता है। पर स्त्रियों का जो धन तुम हरते हो, वह उसको फिर इस जनम
में कभी नहीं मिलता। डाकू बहुत करते हैं, किसी का जी लेते हैं; पर
तुम स्त्रियों का धर्म लेते हो, जो जी से कहीं बढ़कर है। फिर क्या
बुरा कहा!!!
कामिनीमोहन-जी की लगावट बुरी होती है! मैं कोई ऐसी बात नहीं कहना
चाहता जिससे तुम्हारा जी दुखे; पर तुम जो भला-बुरा मुँह में आता है,
कह डालती हो। तुम्हारा जी भी किसी पर आया होता तो तुमको हमारी पीर
होती। जिसको काँटा चुभा रहता है; वही पाँव सम्हाल-सम्हाल कर रखता है!
देवहूती-यह तुम कैसे जानते हो। मुझको तुम्हारी पीर नहीं है!! तुम
बड़े-बड़े पापों के करने में भी नहीं हिचकते-तुमने न जाने कितनी
भोली-भाली स्त्रियों का सत बिगाड़ा है! न जाने कितने घर में फूट का
बीज बोया है। न जाने कितने भलेमानसों को मिट्टी में मिलाया है-तो
क्या यह सब करके तुम योंही छूटोगे। नहीं, इन सब पापों के पलटे तुमको
नरक में बड़ा दुख भोगना पड़ेगा। यह सब समझकर मैं तुमको पापों से बचाना
चाहती हूँ-ऐसी बातें कहती हूँ जिससे फिर तुम पाप करने की ओर पाँव न
उठाओ। जो मुझको तुम्हारी पीर न होती, मैं ऐसी बात क्यों कहती।
कामिनीमोहन-नरक स्वर्ग कहीं कुछ नहीं है! परमेश्वर भी एक धोखे की
टट्टी है!! तुम्हारा न मिलना ही मेरे लिए नरक है। तुम्हारे मिलने पर
मैं इसी देह से स्वर्ग में पहुँच जाऊँगा।
जिस घड़ी कामिनीमोहन ने ये बातें कहीं, उस घड़ी सब घरों के साथ-देवहूती
की चटाई-कामिनीमोहन की चौकी-घर में और जो कुछ था वे सब-अचानक हिल
उठे, और चौथाई घड़ी तक हिलते रहे। यह देखकर देवहूती ने कहा, देखो
कामिनीमोहन! तुम्हारी बातें धरती माता से भी न सही गयीं-वह भी काँप
उठीं। पहले लोगों ने बहुत ठीक कहा है, जब पाप का भार बढ़ जाता है तभी
भूचाल आता है।
कामिनीमोहन-ऐसी ही ऐसी बेजड़ बातें तुम्हारे जी में समायी हैं, तभी तो
तुम किसी की नहीं सुनती हो। पाप का भार बढ़ने ही से भूचाल नहीं आता,
इस धरती के नीचे आग है, जब वह कुछ जलनेवाली वस्तु पाती है, तो उसमें
लवर फूटती है। यह लवर ऊपर निकलना चाहती है, पर धरती की कड़ाई से ऊपर
नहीं निकल सकती। उस समय उसका एक धक्का सा धरती के ऊपर लगता है। इसी
धाक्के से धरती हिल जाती है-और इसी को भूचाल कहते हैं। पर तुम तो
मेरी बात मानती नहीं हो, मैं कहूँ तो क्या कहूँ।
देवहूती-अब मानूँगी! देखिए बहुत मनगढ़ंत अच्छी नहीं होती। अभी धरती
काँपी है! अबकी बार छत टूट पड़ेगी।
कामिनीमोहन-भला हो, छत टूट पड़े, तुम्हारे संग मरने में भी सुख है।
देवहूती-जो ऐसे ही मरना है तो किसी भले काम के लिए मरो, इस भाँति
मरकर पहुँचने में नरक में भी खलबली पड़ेगी।
कामिनीमोहन-अब इसी भाँति मरूँगा, देवहूती! नित्य के जलने से एक दिन
किसी भाँति मर जाना अच्छा है। देखो! मेरे पास लाखों की सम्पत्ति
है-बीसों गाँव हैं-पचासों टहलुवे हैं-भाँति-भाँति की फुलवारियाँ
हैं-रंग-रंग की चिड़ियाँ हैं-अच्छे-अच्छे खेलौने हैं-सजे सजाये हाथी
हैं-पवन से बातें करनेवाले घोड़े हैं-खिली चमेली सी घरनी है-सारे गाँव
पर डाँट है-पर मेरा जी इनमें से किसी में नहीं लगता। रात दिन
सोते-जागते तुम्हारी ही सूरत रहती है। घड़ी भर भी चैन नहीं पड़ता-फिर
मैं इन सबको लेकर क्या करूँगा। मैं इन सबको तुम्हारे ऊपर निछावर करता
हूँ, आप भी तुम पर निछावर होता हँ, पर तुम मुझसे जी खोलकर मिलो। जो न
मिलोगी देवहूती तो अब किसी भाँत मरना ही अच्छा है।
देवहूती-लाख, करोड़ की सम्पत्ति क्या है! राज मिलने पर भी धर्म नहीं
गँवाया जा सकता। महाभारत में भीष्म की कथा पढ़ो, रामायण में जानकी
माता को देखो। जहाँ की मिट्टी पवन पानी से ये लोग बने थे, वहीं की
मिट्टी पवन पानी से मैं भी बनी हूँ। फिर तुम मुझको धन सम्पत्ति की
लालच क्या दिखलाते हो! रहा मरना-जीना यह तुम्हारे हाथ नहीं, जब
तुम्हारा दिन पूरा होगा, तुम आप मरोगे। इसके लिए मैं क्या कर सकती
हूँ।
कामिनीमोहन-तुमारा जी बड़ा कठोर है देवहूती! मैंने ऐसी रूखी बातें कभी
नहीं सुनी, पर जैसे हो मैं तुमको मनाऊँगा। तुम भी यह सोच लो, अब हठ
छोड़ने ही में अच्छा है, यहाँ से तुम किसी भाँति बाहर नहीं निकल सकती
हो, न यहाँ कोई किसी भाँति आ सकता है। सब भाँति तुम मेरे हाथ में हो,
कितने दिन तुम्हारी यह टेक रहेगी; हार कर तुमको मेरी होना ही पड़ेगा।
पर आज तुम सारे दिन व्रत रही हो, अब तक भूखी हो, इसपर पहर भर पीछे
अभी तुमको चेत हुआ है, जी तुम्हारा झुँझलाया हुआ है, इससे कोई बात
तुम्हारे मुँह से सीधी नहीं निकलती। लो अब इस घड़ी मैं जाता हूँ, यह
पलँग बिछा हुआ है, तुम इस पर सोओ, कल्ह मैं फिर मिलूँगा, पर मैं जो
कहे जाता हूँ उसको भली भाँति सोचना।
जिस घड़ी कामिनीमोहन ने देवहूती से ये बातें कहीं, उसी समय उसको बन के
भीतर फिर पहले की भाँति मीठे गले से गीत होता हुआ सुनाई दिया। साथ ही
तानपूरा भी वैसे ही मीठे सुर से बज रहा था। गीत यह था-
गीत
मन की जहाँ चौकड़ी न आती।
सूरज की किरण जहाँ न जाती।
है पौन जहाँ नहीं समाती।
घुसने जहाँ डीठ भी न पाती।
वह ईश वहाँ भी है दिखाता।
बिगड़ी सब है वही बनाता।
देवहूती ने इस गीत को सुना, सुनकर बहुत सुखी हुई। और गीत के पूरा
होते ही कहा, सुना! कामिनीमोहन।
कामिनीमोहन-हाँ! सुना क्यों नहीं, पर यह बन है, यहाँ ऐसी लीला बहुत
हुआ करती है, चाहे तुम कुछ समझो पर इन बातों से तुम्हारा कुछ भला
नहीं हो सकता।
यह कहकर कामिनीमोहन चट कोठरी के बाहर हुआ। और बाहर आकर बन के भीलों
से कहा, आज बन में रहरह कर यह गीत कैसा हो रहा है। भीलों ने कहा-बाबू
हम लोगों की समझ में भी कोई बात नहीं आती। अच्छा हम दो जन जाते हैं,
खोज लगाते हैं। यह कहकर दो भील बन के भीतर घुस गये-और विचार में डूबा
हुआ कामिनीमोहन घर के भीतर आया।
बीसवीं पंखड़ी
धीरे-धीरे रात बीती, भोर हुआ, बादलों में मुँह छिपाये हुए पूर्व ओर
सूरज निकला-किरण फूटी। पर न तो सूरज ने अपना मुँह किसी को दिखलाया, न
किरण धरती पर आयी। कल की बातें जान पड़ती हैं, इनको भी खल रही थीं।
काले-काले बादलों की ओट में चुपचाप दिन चढ़ने लगा, धीरे-धीरे पहर भर
दिन आया। देवहूती जिस छोटी कोठरी में रात बैठी थी-अब तक उसी में बैठी
है। कल दिन रात भूखी रही-आज भोर ही नहा धोकर कुछ खाना-पीना चाहिए था।
पर उसने अभी मुँह तक नहीं धोया। रात भी उसकी जागते ही बीती, आँखें
चढ़ी हैं-मुखड़ा खिंचा हुआ है-पर घबराहट का उस पर नाम तक नहीं था-वह
जैसी गम्भीर पहले रहती-अब भी थी। बासमती देवहूती के पास सब ठौर
पहुँचा करती-आज यहाँ भी पहुँची। देवहूती को चुपचाप बैठे देखकर
बोली-बेटी! तुम कब तक इस भाँति बैठी रहोगी? कल का दिन व्रत में बीता,
आज अभी तुमने मुँह तक नहीं धोया, जो होना होगा, होगा, तुम अन्न पानी
क्यों छोड़ती हो?
देवहूती-अभी एक बार धोखा खा चुकी हूँ-और उसका फल भी भुगत रही
हूँ-क्या अबकी बार फिर किसी दूसरे फँदे में फँसाना है-जो तुम ऐसी
चिकनी-चुपड़ी बातें कहती हो, जिसका फूल सूँघकर मेरी सुधबुध खो गयी,
उसका अन्न पानी खा पीकर न जाने कौन गत होगी!!! बासमती! तुम क्यों इस
भाँति मेरे पीछे पड़ी हो?
बासमती-बेटी! तू मेरी आँखों की पुतली है, मैं तेरे पीछे क्यों
पड़ूँगी। तेरा दुख मुझसे देखा नहीं जाता, तेरी आँखों से आँसू गिरते
देखकर मेरा कलेजा फटता है-तब मैं इस भाँति दौड़कर तेरे पास आती हूँ;
नहीं तो मुझको इन पचड़ों से क्या काम था। पर मेरा भाग्य बड़ा खोटा है।
मैं जिसके लिए चोरी करती हूँ-वही मुझको चोर कहता है।
देवहूती-मैं तुमको भली-भाँति जानती हूँ बासमती! बहुत लल्लो-पत्तो
अच्छा नहीं होता, तुम अपना काम करो, मेरे भाग्य में जो होना
होगा-होगा। मैं तुम्हारी कोई नहीं हूँ-पर तुम मुझपर इतना प्यार
जतलाती हो, जितना कोई अपनी बेटी-बेटे का भी नहीं करता। तुम्हारी ये
बातें ऐसी हैं, जो तुम्हारे पेट का भेद बतलाये देतीहैं।
बासमती-बेटी! तुम कहोगी क्या! कलयुग है न!!! अब के लड़के-लड़कियाँ ऐसी
ही हैं। हम लोग तो बड़ी सीधी हैं! गाँव के लड़के-लड़की को अपना समझती
हैं-दूसरों के लड़कों को अपने लड़के से भी बढ़कर प्यार करती हैं। हम
लोगों का जैसा भीतर है, वैसा ही बाहर है, हम लोग कपट करना क्या
जानें।
देवहूती-ठीक है! दूसरे के घर की बहू बेटी को बिगाड़ना, भोली-भाली
स्त्रियों को ठगकर कुचाली पुरुषों के हाथ में डाल देना, तुम ऐसी सीधी
सतयुग की स्त्रियों का काम थोड़े ही है-यह तो कलयुग की स्त्रियों का
काम है। बासमती! मेरा बड़ा भाग्य है-जो आज मैं यह जान गयी-नहीं तो
मेरा मन तुम्हारे ऊपर न जाने कितना कुढ़ता था।
बासमती-बेटी! तुम अभी कल की लड़की हो-बहुत मत उड़ो। तुम्हारा मन मेरे
ऊपर कुढ़ता है-कुढे, पर मेरा मन तो तुम से नहीं कुढ़ता! मैं वही बात
कहती हूँ, जिसमें तुम्हारा भला हो, पर उसको मानना तुम्हारे हाथ है।
देवहूती-मेरा बड़ा अभाग्य है! जो मैं इस बात को नहीं समझती हूँ। सच है
बासमती! तुमसे बढ़कर मेरा भला चाहने वाला कौन होगा!!!
बासमती-तुम्हारी ऐंठने की बान है-इससे तुम सब बातों में ऐंठती हो।
मेरी अच्छी बात भी तुमको खोटी जान पड़ती है। पर सचमुच तुम्हारा बड़ा
अभाग्य है, जो तुम इस भाँति सोने को पाँव दिखलाती हो, कामिनीमोहन ऐसा
चाहनेवाला भाग्य से मिलता है। डुबकी बहुत लोग लगाते हैं-पर मोती कोई
पाता है। कामिनीमोहन पर कितनी स्त्रियों निछावर हुईं, पर कामिनीमोहन
तुपमर आप निछावर है। इस पर लाखों की सम्पत्ति आगे रखता है-सदा के लिए
तुम्हारा दास बनता है-क्या ये बातें ऐसी हैं-जिनपर तुम डीठ न डालो।
पर मिठाई खाने के लिए भी मुँह चाहिए। भील की स्त्रियों घुंघची का ही
आदर करती हैं-वे लाल का मरम क्या जानें।
देवहूती-सच कहा, बासमती! बनरी के गले में मोती की माला नहीं सोहती!!!
पर कठिनाई तो यह है-इसपर भी मेरा जी नहीं छूटता।
बासमती-मुँह मत चिढ़ाओ बेटी! मेरी बातों को अपने जी में सोचो। क्या
तुम्हारा यह जोबन सदा ऐसा ही रहेगा? क्या आँखें ऐसी ही रसीली रहेंगी?
क्या गोरे-गोरे मुखड़े पर ऐसी ही छटा रहेगी? क्या देह ऐसी ही
चिकनी-चुपड़ी रहेगी? क्या चितवन में सदा ऐसा ही टोना रहेगा? कभी
नहीं!!! कुछ ही दिनों में, जोबन ढल जावेगा, आँखों में काली लग
जायेगी, गालों में गड़हे पड़ेंगे, मोती ऐसे दाँत मिट्टी में मिलेंगे,
देह पर झुर्रियाँ पड़ जाएँगी, और तुम्हारी सब ऐंठ धूल में मिल जावेगी।
आज एक राजाओं सा धनी, देवतों सा सुघर और सजीला, तुम्हारी सीधी चितवन
का भिखारी है। पर कुछ दिनों पीछे तुम्हारी ओर एक गया, बीता भी आँख
उठाकर न देखेगा-जो धोखे से किसी की आँख पड़ भी जावेगी-तो वह नाक भौंह
सिकोड़ने लगेगा। तुम्हारे ये दिन सब कुछ हैं-आगे क्या है-पर तुम
इन्हीं दिनों विष खाने बैठी हो-बलिहारी है इस समझ की।
देवहूती-ठीक कहती हो बासमती! जो मैं इन्हीं दिनों कुछ कमा-धमा न
लूँगी, तो आगे फिर कौन पूछेगा!!! अब तक रूप और जीवन बेंचते रंडियों
ही को सुना था। पर आज जाना, भले घर की बहू बेटियाँ-भली स्त्रियों-भी
अपना रूप जोबन बेंचती हैं। झख मारते हैं लोग जो रंडियों को बुरा
समझते हैं।
बासमती-बहुत न बढ़ो! बहुत सी भले घर की बहू बेटियाँ देखी हैं। वह कौन
स्त्री है जो कामिनीमोहन जैसे अलबेले जवान को देखकर उसकी नहीं होती।
जिनकी लाखों की सम्पत्ति है, जिनका काम ऐसा सुन्दर पति है, मैं उनकी
बातें कहती हूँ। जो तुम्हारी ऐसी हैं-वे किस गिनती में हैं। तुम्हारे
पास न तो जैसे चाहिए वैसे गहने कपड़े हैं-न पूरा-पूरा धन है-न
तुम्हारे पति का ही कहीं ठौर ठिकाना है। पर तुम इन बातों को न समझ कर
उलटे मुझी से इठलाती हो-भाग्य का फेर इसी को कहतेहैं।
देवहूती-अब समझूँगी बासमती! भला तुम्हारे ऐसी समझानेवाली कहाँ
मिलेगी! पर तुम भी समझो, जो सचमुच भले घर की बहू बेटी हैं! जो
कहने-सुनने को भली स्त्री नहीं हैं! जो पहनने को उसके पास कपड़ा तक न
हो-हाथ में चूड़ी तक न हो-खाने को दो-दो दिन पीछे मिलता हो-पति भी
निकम्मा और निखट्टू हो-तो भी वह अपनी मरजाद नहीं गँवा सकती-अपना सत
नहीं बिगाड़ सकती-और अपना धर्म नहीं खो सकती। जिसको रत्ती भर समझ
होगी-वह थोड़े से सुख के लिए सदा नरक की आग में जलना अच्छी न समझेगी।
तुम कहती हो, यह जोबन सदा ऐसा ही न रहेगा, जोबन ढल जाने पर कोई सीधे
आँख उठा कर न देखेगा-इस से पाया जाता है, जब तक जोबन है, तभी तक पूछ
है, पीछे घोर अंधियाला है। तो क्या ये ही बातें ऐसी हैं-जिससे जोबन
के दिनों में जी खोलकर मनमानी करनी चाहिए? आँख मँद कर पाप पुण्य का
विचार छोड़ देना चाहिए? ये बातें तो ऐसी नहीं हैं!!! ये बातें तो हमको
और डराती हैं, डंका बजाकर कहती हैं, चार दिन के जोबन पर मत भूलो, पाप
मत कमाओ, यह जोबन बाढ़ के पानी की भाँति देखते-देखते निकल जावेगा, फिर
पछताना ही हाथ रहेगा। इससे पहले ही समझ बूझकर चलो, जो रंग इतना कच्चा
है, उसके भरोसे पाप करना अच्छा नहीं!
बासमती-जान पड़ा बेटी! तुम नरक स्वर्ग का भेद भली-भाँति समझती हो,
धर्म का मरम भी जानती हो, पर यह तो बतलाओ-अपने को आप मार देना किस
पोथी में पुण्य लिखा है? क्या विष खाकर मर जाना पाप नहीं है?
देवहूती-जो मैं ऐसा न समझती, विष खाकर कभी मर गयी होती। मुझको जीना
भी भारी है, पर मैं जो अब तक विष खाकर नहीं मरी, क्या उसका दूसरा
कारण है? नहीं, दूसरा कारण नहीं है! मैं जानती हूँ, मेरे यहाँ की
पोथियों में ऐसा करना बड़ा पाप लिखा है, तभी मैं आज तक ऐसा न कर सकी।
पर धर्म की रक्षा के लिए किसी काम का करना पाप नहीं है। जब मैं
देखूँगी मेरा धर्म जाता है-पापी के हाथ से अब छुटकारा नहीं मिलता, उस
दिन के लिए विष मेरे पास है। उस घड़ी मैं विष खाऊँगी, और विष खाकर
अपने धर्म की रक्षा करूँगी।
बासमती-यह तो विष का पचड़ा हुआ-पर अन्न पानी छोड़कर जी को कलपा-कलपा कर
मारना क्या है? यह कोई पुण्य होगा?
देवहूती-नहीं, यह भी पाप है! पर अन्न पानी कौन छोड़ता है। यहाँ दो चार
दिन मैं अन्न-पानी न खाऊँगी तो क्या मैं अन्न-पानी खाऊँगी ही नहीं?
ऐसा तुम समझ सकती हो-मेरा यह विचार नहीं है। मुझको यहाँ अन्न-पानी
खाने-पीने में भी कोई अटक नहीं है, पर क्या करूँ, अब तुम लोगां की
परतीत नहीं रही।
बासमती-जो जी में आवे करो, जब तुमको अपनी ही बात रखनी है, तो मैं
कहाँ तक कहँ। पर बहुत हठ अच्छा नहीं होता, यहाँ से तुम्हारा छुटकारा
अब कभी नहीं हो सकता-दो चार दिन नहीं, दो चार बरस में भी यहाँ कोई
नहीं पहुँच सकता। पर मुझसे रहा नहीं जाता, एक बात मैं फिर कहती हूँ।
जो तुम यहाँ का अन्न-पानी काम में नहीं ला सकती हो, तो क्या बनफल और
झरनों का पानी भी खा-पी नहीं सकती हो?
देवहूती-जो मेरे जी में आवेगा, मैं करूँगी। अपना प्राण सब को प्यारा
होता है-पर तुम किसी भाँति मेरी आँखों के सामने से दूर हो।
बासमती-बेटी! जितना तुम टेढ़ी हो, मैं उतनी टेढ़ी नहीं हूँ। जो तुमको
मेरा यहाँ रहना अच्छा नहीं लगता तो मैं जाती हूँ। मैं पहरे के भीलों
से कहे जाती हूँ-वह तुमको बन में जाने से न रोकेंगे। तुम बन में जाकर
अपनी भूख-प्यास बुझा आओ। पर भागना मत चाहना, नहीं तो भीलों के हाथ से
दुख उठाओगी। यह कहकर बासमती चली गयी।
इक्कीसवीं पंखड़ी
बासमती के चले जाने पर देवहूती अपनी कोठरी में से निकली, कुछ घड़ी
आँगन में टहलती रही, फिर डयोढ़ी में आयी। वहाँ पहुँच कर उसने देखा,
बासमती पहरे के भीलों से बातचीत कर रही है। यह देखकर वह किवाड़ों तक
आयी-और बहुत फुर्ती के साथ किवाड़ों को लगाकर-फिर भीतर लौट गयी। जब
देवहूती अपनी कोठरी के पास पहुँची-देखा उस कोठरी में से एक जन आँगन
की ओर निकला आ रहा है। यह देखकर वह भौचक बन गयी-सोचा राम-राम करके
अभी बासमती से पीछा छूटा है-फिर यही बिपत कहाँ से आयी। बड़ा अचरज उसको
इस बात का था-यह कोठरी में आया तो कैसे आया ? उसमें तो कहीं से कोई
पथ नहीं जान पड़ता!!! देवहूती घबराने को तो बहुत घबरायी-पर उसके जी को
कुछ ढाढ़स भी हुआ। उसने पहचाना यह वही जन है-जिसने उस अंधियाली रात
में उसके कोठे पर कामिनीमोहन से उसका सत बचाया था। देवहूती यह सब
जान-बूझकर कुछ सोच रही थी, इसी बीच उसने पास आकर कुछ दूर से पूछा,
देवहूती! मुझको पहचानती हो?
देवहूती ने सर नीचे करके कहा-क्यों नहीं पहचानती हूँ! जिसने प्राण से
भी प्यारे मेरे धर्म की रक्षा की, क्या मैं उस को भूल सकती हूँ!
आये हुए जन का नाम देवस्वरूप है, यह आप लोग अब समझ गये होंगे।
देवहूती की बातों को सुनकर उसने कहा-मैं तुमसे कुछ बातचीत करने के
लिए यहाँ आया हूँ-मुझ से बातचीत करने में तुमको कुछ आनाकानी तो नहीं
है? मैं नहीं चाहता बिना पूछे तुमसे सारी बातें कहने लगूँ।
देवहूती-मुझको चेत है-आपने उस दिन कहा था, जो लोग धर्म की रक्षा के
लिए कभी-कभी इस धरती पर दिखलाई देते हैं-मैं वहीं हूँ। जो सचमुच आप
वही हैं तो आपसे बातचीत करने में मुझको कुछ आनाकानी नहीं है। पर बात
इतनी है, इस भाँति आपसे बातचीत करके मुझको इस सुनसान घर में जो कोई
देख लेगा-तो न जाने क्या समझेगा। जो कोई न देखे तो धर्म के विचार से
भी किसी सुनसान घर में किसी पराई स्त्री का पराये पुरुष के साथ रहना
और बातचीत करना अच्छा नहीं है। आप बड़े लोग हैं, इन बातों को सोचकर जो
अच्छा जान पड़े कीजिए, मैं आपसे बहुत कुछ नहीं कह सकती।
देवस्वरूप-मैं यह जानता हँ, बासमती यहाँ आयी हुई है-दूसरी बातें जो
तुम कहती हो मुझको भी उनका वैसा ही विचार है। मैं कभी यहाँ न आता, पर
एक तो मैंने देखा, बिना अन्न-पानी तुम मर जाना चाहती हो। दूसरे आज
अभी एक ऐसी बात हुई है, जिससे तुम्हारी सारी बिपत कट गयी। मुझको यह
बात तुमको सुनानी थी, इसीलिए मुझको यहाँ आना पड़ा।
देवहूती-वह कौन सी बात है जिससे मेरी सारी बिपत कट गयी? आप दया करके
उसको बतला सकते हैं?
देवस्वरूप-कामिनीमोहन कल्ह रात में ही बासमती को यहाँ छोड़कर घर चला
गया था। आज दिन निकले वह गाँव से इस बन की ओर घोड़े को सरपट फेंकता
हुआ आ रहा था। इसी बीच एक गीदड़ एक झाड़ी से दूसरी झाड़ी में ठीक घोड़े
के सामने से होकर दौड़ता हुआ निकल गया। घोड़ा अचानक चौंक पड़ा-और उस पर
से धड़ाम से कामिनीमोहन नीचे गिर पड़ा। गिरते ही उसका सर फट गया-और वह
अचेत हो गया। उसके लोग जो पीछे आ रहे थे-घड़ी भर हुआ उसको उठाकर घर ले
गये। जैसी चोट उसको आयी है-उससे अब उसके बचने का कुछ भरोसा नहीं
है-मैं इसी से कहता था, तुम्हारी सारी बिपत कट गयी।
देवहूती-कामिनीमोहन ने अपनी करनी का फल पाया है, और मैं क्या कहूँ!!!
पर सचमुच क्या आप कोई देवता हैं, जो इस भाँति बिना किसी स्वार्थ के
दूसरों का दुख दूर करते फिरते हैं!
देवस्वरूप-मैं देवता नहीं हूँ-एक बहुत ही छोटा जीव हूँ। उस दिन मैंने
यह बात इसलिए कही थी-जिससे कामिनीमोहन डरकर पाप करना छोड़ देवे।
देवहूती-अभी आपको मुझसे कुछ और कहना है?
देवस्वरूप-दो बातें कहनी हैं। एक तो तुम कुछ खाओ पीओ-दूसरे यहाँ का
रहना छोड़कर घर चलो। तुम्हारी माँ की तुम्हारे बिना बुरी गत है-उनकी
दशा देखकर पत्थर का कलेजा भी फटता है।
देवहूती-आपका कहना सर आँखों पर-आप में बड़ी दया है। पर आप जानते हैं
स्त्रियों का धर्म बड़ा कठिन है! आपने मेरी बहुत बड़ी भलाई की है-मेरा
रोआँ-रोआँ आपका ऋणी है। पर इतना सब होने पर भी आप निरे अनजान हैं-आप
जैसे अनजान और बिना जान-पहचान के पुरुष के साथ मैं कहीं आ-जा नहीं
सकती। दूसरे जो दो दिन पीछे मैं इस भाँत अचानक घर चली चलूँ तो माँ न
जाने क्या समझेंगी। अभी तो उन्हांने यही सुना है-मैं डूबकर मर गयी-रो
कलप कर उनका मन मान ही जावेगा। पर जो कहीं उनके मन में मेरी ओर से
कोई बुरी बात समायी-तो अनर्थ होगा-मेरा उन का दोनों का जीना भारी
होगा। रहा कुछ खाना-पीना, इसके लिए अब आप कुछ न कहें। मैं समझ-बूझ कर
जो करना होगा, करूँगी।
देवस्वरूप-बात तुम बहुत ठीक कहती हो-मैंने तुम्हारी इन बातों को
सुनकर बहुत सुख माना। पर इतना मुझको और कहना है-इस बन से तुम्हारा
छुटकारा बिना मेरी परतीत किए नहीं हो सकता।
देवहूती-क्या मैं आपकी परतीत नहीं करती हूँ-यह आप न कहें। मेरा धर्म
क्या है, इस बात को आप सोचिए। और बतलाइए मुझको क्या करना चाहिए। इस
जग में सैकड़ों बातें लोग ऐसी करते हैं-जिनमें ऊपर से देखने में उनका
कोई अर्थ नहीं होता-पर समय पाकर उन्हीं बातों में उनकी बड़ी दूर की
चाल पायी जाती है। आज जिसको किसी की भलाई के लिए अपना तन मन धन सब
निछावर करते देखते हैं-कल्ह उसी को उसके साथ अपने जी की किसी बहुत ही
छिपी चाल के लिए ऐसा बुरा बरताव करते पाते हैं-जिसको देखकर बड़े पापी
के भी रोंगटे खड़े होते हैं। ये बातें ऐसी हैं जिनका मरम आप जैसे बड़े
लोग भी ठीक-ठीक नहीं पाते। स्त्रियों क्या हैं जो इन भेद की बातों का
ओर-छोर पा सकें। इसीलिए उनको यह एक मोटी बात बतलायी हुई है-अपने
इने-गिने जान-पहचान के लोगों को छोड़कर दूसरे को पतिआना उनका धर्म
नहीं है। मैं आपसे इन्हीं बातों को सोचने के लिए कहती हँ। रहा इस बन
से छुटकारा पाना। यह एक ऐसी बात है जिसके लिए मुझको तनिक घबराहट नहीं
है-अपजस के साथ घर लौटने से जान के साथ बन में मरना अच्छा है।
देवस्वरूप-मैं तुम्हारे इन विचारों को सराहता हूँ। तुम्हारे धीरज
करने से ही तुम्हारी सारी बिपत कटती है।
देवस्वरूप के इतना कहते ही उसी कोठरी में से एक जन और देवहूती की ओर
आता दिखलायी पड़ा। इसके सिर पर बड़ी-बड़ी जटाएँ थीं, उसकी बहुत ही घनी
उजली और लम्बी दाढ़ी थीं, जो छाती पर भोंड़ेपन के साथ फैली थी, मुखड़े
पर तेज था, पर यह तेज निखरा हुआ तेज न था, इसमें उदासी की छींट थी।
माथे में तिलक, गले में तुलसी की माला, बाएँ कंधो पर जनेऊ और हाथ में
तूमा था। ऍंचले की भाँति एक धोती कमर से बँधी थी-जो कठिनाई से ठेहुने
के नीचे तक पहुँचती थी। स्वभाव बहुत ही सीधा और भला जान पड़ता था,
भलमनसाहत रोएँ-रोएँ से टपकती थी। जब यह देवहूती के पास पहुँचा,
देवस्वरूप ने कहा, देवहूती इनकी ओर देखो, इनको मत्था नवाओ, और अब तुम
इनके साथ जाकर कुछ खाओ-पीओ, मैं देखता हँ तुम्हारा जी गिरता जाता
है-इनके साथ जाने में भी क्या तुमको कोई अटक रहेगी?
देवहूती ने बड़ी कठिनाई से सर उठाकर इस दूसरे जन की ओर देखा, देखते ही
चौंक उठी मानो सोते से जाग पड़ी। उस के जी में बड़ा भारी उलट फेर
हुआ-कुछ घड़ी वह ठीक पत्थर की मूर्ति बन गयी। पीछे उसकी आँखों से आँसू
बह निकले। देवस्वरूप ने उस दूसरे जन का भी रंग कुछ पलटता देखकर
कहा-देखो इन सब बातों का अभी समय नहीं है-इस घड़ी चुपचाप यहाँ से निकल
चलना चाहिए, फिर जैसा होगा, देखा जावेगा। यहाँ रहने में भी अब कोई
खटका नहीं है-बासमती कुछ कर नहीं सकती। पर जब तक कामिनीमोहन का क्या
हुआ, यह ठीक न जान लिया जावे, तब तक किसी हाथ आयी बात में चूकना
अच्छा नहीं!। देवस्वरूप की बातों को सुनकर दूसरा जन कोठरी की ओर
चला-देवहूती बिना कुछ कहे उसके पीछे चली। इन दोनों के पीछे देवस्वरूप
चला-तीनों कोठरी में आये।
कोठरी में पहुँचकर देवहूती ने देखा वहाँ की धरती में एक सुरंग है-और
उसी सुरंग में से होकर नीचे उतरने को सीढ़ियाँ हैं। इसी पथ से होकर ये
तीनों जन नीचे उतरे, नीचे उतरकर देवस्वरूप ने वहीं लटकती हुई एक
लम्बी रस्सी को पकड़कर खींचा, उसके खींचते ही सुरंग का मुँह मुँद
गया-और नीचे ऊपर पहले जैसा था-ठीक वैसा ही हुआ। पीछे वह तीनों जन
नीचे ही नीचे बन में एक ओर निकल गये।
बाईसवीं पंखड़ी
दिन बीतता है, रात जाती है, सूरज निकलता है, फिर डूबता है, साथ ही
हमारे जीने के दिन घटते हैं। हम लोगों से कोई पूछता है, तो हम लोग
कहते हैं, मैं बीस बरस का हुआ, कोई कहता है, मैं चालीस का हुआ। कहने
के समय तनिक भी हिचक नहीं होती-मुखड़ा वैसा ही हँसता रहता है-मानो हम
लोग जानते ही नहीं मरना किसे कहते हैं; पर सच बात यह है-हम बीस
बरस-चालीस बरस-के नहीं होते। हमारे जीने के दिन में से-बीस बरस-चालीस
बरस-घट जाते हैं। जो हम को पचास बरस जीना है-तो अब हमारा दिन पूरा
होने में-तीस बरस-और दस बरस-और रह जाते हैं। दूर तक सोचा जावे तो
इसमें हिचकने और मुँह के उदास बनाने की कोई बात है भी नहीं-मरना इतना
डरावना नहीं है, जितना लोग समझते हैं। सच तो यों है मरने ही से जीने
का आदर है-जो जग में मरना न होता-लोग जीने से घबरा जाते, न तो खाना
कपड़ा मिलता, न ठहरने को ठौर मिलती, न रहने को घर अंटता, उस समय धरती
पर कैसा लौट फेर होता-यह बात सोचने से भी जी काँपता है। पर हम बहुत
दूर की बात नहीं कहते हैं-हम उसी बात को दिखलाते हैं जिसको सोचकर सभी
मरने से डरते हैं। धरती एक अनोखी ठौर है, इस पर जनम से लेकर एक-न-एक
बात में सभी उलझ जाते हैं। जिस ढंग का जिसका जी होता है-प्यार करने
के लिए वैसा ही बहुत कुछ उसको यहाँ मिल जाता है। एक चितेरे को लो,
देखो वह यहाँ के फल फूल पत्तियों, चमकते हुए सूरज, प्यारी किरणों
वाले चाँद, जगमगाते हुए तारों, सुथरे जलवाली झीलां, हरे भरे जंगलों,
उजले धाौले पहाड़ों, कलकल बहती हुई नदियों, चाँद से मुखड़ेवाली
नबेलियों, बाँके-बाँके बीरों और दूसरी सहज ही जो लुभानेवाली छटाओं को
कितना प्यार करता है। इनको लेकर वह कैसी-कैसी काट छाँट करता
है-कैसे-कैसे बेल बूटे बनाता है। दिन रात होती है, सूरज उगता और
डूबता है, पर उसको इन कामों से छुट्टी नहीं। वह देखता सब कुछ है, समय
पर करता सब कुछ है, पर जैसा चाहिए उसका जी इधर नहीं रहता। वह अपनी
धुन में डूबा हुआ, अपनी ही काट-छाँट में लगा रहता है। कितनी
मूर्तियाँ बनाता है-कितने बन, परबत, नदी, झीलों की छवि उतारता है। पर
फिर भी सोचता है, अभी मुझको बहुत कुछ करना है। अभी मैंने यह मूर्ति
नहीं बनायी, अभी तक मूर्ति में रंग भरना है, इस मूर्ति के गालों की
लाली ठीक नहीं उतरी, भौंहें भी ठीक-ठीक नहीं बनीं, आँखों के बनाने
में तो मुझसे बहुत ही चूक हुई, तिरछी चितवन क्या योंही दिखलायी जाती
है!!! वह यही सब सोचता रहता है, इसी बीच काल उसको आ घेरता है-मन की
बात मन में ही रह जाती है, वह कितनी बातों के लिए छटपटाता है-पर करे
तो क्या करे-विष की सी घूँट घोंट कर वह काल का सामना करता है-और बहुत
सी चाहों को जी में रखे हुए इस धरती से उठ जाता है। इसी भाँति कोई घर
बार बाल बच्चों में उलझा रहता है, कोई पूजा पाठ और जप तप में लगा
रहता है, कोई राजकाज और धन धरती में फँसा होता है, कोई गाने बजाने और
हँसी खेल में मतवाला होता है, पर सभी के ऊपर काल अचानक टूटता है, और
सभी को बरबस इस धरती से उठा ले जाता है-सभी अपना काम अधूरा छोड़ते
हैं, पछताते हैं, पर कुछ कर नहीं सकते।
कामिनीमोहन की भी आज ठीक यही दशा है-वह खाते पीते, सोते जागते,
भोले-भाले मुखड़े का ध्यान करता, जहाँ रसीली बड़ी-बड़ी आँखें देखता वहीं
लट्टू होता, गोरे-गोरे हाथों में पतली-पतली चूरियाँ उसको बावला
बनातीं, सुरीले कण्ठ का बोल सुनकर वह अपनी देह तक भूल जाता, गरदाया
हुआ जोबन उसके कलेजे में पीर उठाता-उसकी इन्हीं बातों ने उसको
नई-नई जवान स्त्रियों का रसिया बनाया। कितनी स्त्रियों का सत उसके
हाथों खोया गया, कितनी स्त्रियों उसके हाथों मिट्टी में मिलीं, पर
उसकी चाह न घटी, आजकल वह देवहूती पर मर रहा था, बिना देवहूती चारों
ओर उसकी आँखों के सामने अंधेरा था। पर काल ने उसकी इन बातों को न
सोचा, आजकल वह काल के हाथों पड़ा है, काल को उसकी तनिक पीर नहीं है,
आज वह उसको धरती से उठा लेना चाहता है।
कामिनीमोहन अपने घर की एक कोठरी में एक पलँग पर पड़ा हुआ आँखों से
आँसू बहा रहा है। वहीं दस-पाँच जन और बैठे हुए हैं। दो-चार जन उसकी
सम्हाल कर रहे हैं-गाँव के पुराने बैद पास बैठे हुए देखभाल कर रहे
हैं। पर उ]=नके मुखड़े पर उदासी छायी हुई है-वे कामिनीमोहन की दशा
घड़ी-घड़ी बिगड़ते देखकर हाथ मल रहे हैं, पर उनसे कुछ करते नहीं बनता।
कामिनीमोहन पहले अचेत था, पर बैद ने दो-एक बलवाली ऐसी औषधों खिलायी
हैं, जिससे अब वह चेत में है। पर चेत में होने ही से क्या होता
है-लहू सर से इतना निकल गया है और चोट इतनी गहरी आयी है-जिससे अब लोग
उसकी घड़ी गिन रहे हैं-कामिनीमोहन के पास जो दस-पाँच जन बैठे हैं
उनमें कुछ साधु और कुछ घरबारियों के भेस में। एक जन और बैठा है। इसका
मुखड़ा भी उदास है, जी पर कुछ चोट सी लगी जान पड़ती है, आँखें भी थिर
हैं, पर कभी-कभी बिजली की कौंध की भाँत मुखड़े पर तेज भी झलक जाता है।
साथ ही मुँह की एक ठण्डी साँस निकल कर बाहर की पवन में मिल जाती है।
इसने कामिनीमोहन को अपनी ओर निराशभरी दीठ से बार-बार ताकते देखकर
कहा, क्या आप मुझको पहचानते हैं?
कामिनीमोहन-हाँ! पहचानता हूँ! देवस्वरूप आपका नाम है। उस दिन आप
देवहूती की बिपत में सहाय हुए थे, क्या आज मुझको बिपत से उबारने के
लिए आप यहाँ आये हैं?
देवस्वरूप की आँखों में पानी आया, उन्होंने कहा, मेरे हाथों जो आपका
कुछ भला हो सके तो मैं जी से उसको करना चाहता हँ, आपकी दशा देखकर
मुझको बड़ा दुख है पर क्या करूँ, मेरा कोई बस नहीं चलता। उस दिन
देवहूती को बचाने के लिए जी पर खेल गया था, आज आपके लिए भी अपने को
जोखों में डाल सकता हूँ, पर कैसे आपका भला होगा-यह मुझको बतलाया जाना
चाहिए। मैं, जितने जीव हैं सबका भला करना, सबको बिपत से उबारना, अपना
धर्म समझता हूँ-आपका भला करने में क्यों हिचकूँगा।
कामिनीमोहन-आप बड़े लोग हैं जो ऐसा कहते हैं-सच तो यों है, अब मैं
किसी भाँति नहीं बच सकता-मेरे दिन पूरे हो गये। पर आप किसी भाँति
यहाँ आ गये हैं, तो मैं आपसे दो-चार बातें पूछना चाहता हूँ, क्या आप
उनको बतला सकतेहैं?
देवस्वरूप-मैंने जो कुछ किया है-धर्म के नाते किया है, धर्म में खोट
नहीं होती-आप पूछें, मैं सब बातें सच-सच कहूँगा।
कामिनीमोहन ने इतना सुनकर, जो लोग कोठरी में बैठे थे बैद छोड़ उन सब
लोगों से कहा, आप लोग थोड़ी बेर के लिए बाहर जाइये। उन लोगों के बाहर
चले जाने पर उसने देवस्वरूप से कहा-पहले यह बतलाइये उस दिन आप
देवहूती के कोठे पर कैसे पहुँचे, क्या आप देवहूती के कोई हैं? जो आप
देवहूती के कोई नहीं हैं-तो आपने मेरी भेद की बातों को कैसे जान
लिया।
देवस्वरूप-बड़ों ने कहा है पाप कभी नहीं छिपता, क्यों उन्हांने ऐसा
कहा है, यह बात थोड़ा सा विचार करने पर अपने आप समझ में आती है। सच
बात यह है-जिन पापों को हम बहुत छिपकर करते हैं, उनके भी
देखने-सुननेवाले मिल जाते हैं। एक ही समय सब ओर न देखनेवाली हमारी
आँखें चूकती हैं-दूसरी ओर लगा हुआ हमारा कान पास की बात भी नहीं
सुनता। पर हमारे कामों की ओर लगी हुई देखनेवालों की आँखें-हमारी बहुत
ही धीरे कही गयी बातों की ओर लगे हुए सुननेवालों के कान अपने-अपने
अवसर पर नहीं चूकते। बहुत ही चुपचाप ये सब अपना काम करते हैं-और
हमारी बहुत सी बातों को जानकर हमारी बहुत सी होनेवाली बुराइयों का
हाथ बाँटते हैं। पीछे इन्हीं देखने सुननेवालों से हमारे पापों का
भण्डा फूटता है। जिस दिन आपने रात में मुझको देवहूती के कोठे पर
पाया, उसी दिन दोपहर को मैं देवहूती के घर के पासवाले पीपल के पेड़ के
नीचे बैठा था। इस पीपल के पेड़ के पास एक पक्का कुआँ है-इसी कुएँ पर
मुझको दो स्त्रियों बात करती दिखलाई पड़ीं। उनमें एक बासमती थी, और
दूसरी भगमानी। उन दोनों में बातचीत धीरे-धीरे हो रही थी, पर मैं सब
सुनता था। एक दो बार बासमती की दीठ मेरी ओर फिरी थी, पर उसने मुझको
देखकर भी नहीं देखा। एक बार जब उसकी दीठ मुझपर पूरी पड़ी, तो वह कुछ
चौंकी, पर उसी क्षण वह समझ गयी, मैं बटोही हूँ। जो मैं गाँव का होता
तो उसको कुछ उलझन होती भी, पर बटोही समझकर वह मेरी ओर से निचिन्त हो
गयी। और जो बातें भगमानी से कहने को रह गयी थीं, उनको भी उस भाँति
धीरे-धीरे उसने उससे कहा, पीछे दोनों वहाँ से चली गयीं। जितनी बातें
बासमती और भगमानी में हुईं-उनको सुनकर मैं उस दिन होनेवाली सब बातों
को भली-भाँति जान गया, और उसी समय अपने मन में ठाना, जैसे हो एक भले
घर की स्त्री का सत बचाना चाहिए। यह सब सोचकर मैं छ: घड़ी रात गये,
देवहूती के घर के पिछवाडे एक ठौर ओलती के नीचे आकर खड़ा हुआ। आप अपने
दोनों साथियों के साथ ठीक मेरे पास से होकर निकले थे-पर आपने मुझको
नहीं देखा। जिस खिड़की से होकर हम और आप ऊपर गये थे-वह खिड़की उस ठौर
के बहुत पास थी। आपको दो और साथियों के साथ देखकर मैं घबराया, पर कुछ
ही बेर में मेरी विपत टल गयी, जब आपके दोनों साथी आपके गहनों का
डब्बा लेकर वहाँ से नौ दो ग्यारह हुए। उन दोनों के चले जाने पर मैं
कोठे पर चढ़ा। कोठे पर जो कुछ हुआ, वह सब आप जानते हैं। मैंने बातचीत
के समय आपसे कहा था, जहाँ वह दोनों गये वहाँ तू भी जा, पर उस समय
उनको भगा हुआ जानकर मैंने आपको घबड़ा देने के लिए ऐसा कहा था, मेरा उस
समय ऐसा कहने का कोई दूसरा अर्थ न था।
कामिनीमोहन-एक बात तो हुई-दूसरी बात मुझको यह पूछनी है-क्या इस गाँव
के बन में भी आप आ जा सकते हैं? क्योंकि कल्ह जब मैं बन में गया था,
तो उसमें कई बार मैंने गाना होते सुना। यह गाना आप ही के गले से होता
जान पड़ता था; क्योंकि आपके गले को मैं भली-भाँति पहचानता हूँ।
देवस्वरूप-उस दिन मैंने जो कुछ देखा सुना, उससे मेरे जी में बहुत बड़ी
उलझन पड़ गयी। सब बातें जानने के लिए मेरा जी उकताने लगा। पर मुझको
कोई बात ऐसी न सूझी, जिस से मेरा काम निकल सके। इसलिए मैं गाँव के
बाहर धुनी रमाकर साधुओं के भेस में बैठा, यहाँ मुझको तुम्हारी बहुत
सी बातें जान पड़ीं। पर देवहूती पर तुम्हारा जी आया हुआ है-और तुम
उसको फाँसना चाहते हो, ये बातें मैंने किसी से नहीं सुनीं। हाँ,
तुम्हारी चालचलन की जितनी बुराई सुनी गयी, उतना ही पारबती और देवहूती
के चालचलन को लोगों को सराहते सुना। लोगों ने तुम्हारी और बातों के
साथ तुम्हारे बन के अड्डॆ की चर्चा भी मुझसे की। सभों ने मुझसे यही
कहा, न तो उसमें कोई जा सकता है औन न वहाँ का भेद कोई जानता है, पर
इतना सभी कहते, बन के सहारे कामिनीमोहन बड़ा अनर्थ करता है। यह सब
सुनकर मैंने अपने जी में यह दो बातें ठानी। एक तो जैसे हो आपका
चालचलन ठीक किया जावे-दूसरे बन का सारा भेद जान लिया जावे। पहले
मैंने बन का भेद जानना चाहा-और दो दिन पीछे गाँव से बन की ओर चला। बन
का भेद जानने में मुझको पूरा एक महीना लगा। मैंने बन के सब भीलों को
अपना चेला बनाया, और उन सबों ने बन का सारा भेद मुझको बतला दिया। बन
में मिट्टी के नीचे खंडहरों में से होकर बहुत ही सुरंगें निकली हुई
हैं-मैंने उन भीलों के सहारे एक-एक करके उन सबको छान डाला। जिस दिन
मैं सब कुछ देखभालकर गाँव की ओर लौट रहा था, मैंने दूर से आपको बन
में आते देखा, और समझ गया-आप किसी बुरे काम के लिए ही बन में आ रहे
हैं। मेरा दूसरा काम आपको पाप से बचाना था, इसलिए गाने के बहाने
मैंने उस बेले ऐसी सीख आपको दी, जिसको सुनकर आप पाप करने से हिचकें।
पर दुख की बात है-उस दिन के मेरे किसी गीत ने काम नहीं किया, और आप
अपनी बातों पर वैसे ही जमे रहे। जब आप मुझको बड़ के नीचे खोज रहे थे,
तो मैं वहीं मिट्टी के नीचे एक सुरंग में था। जब आपसे और देवहूती से
बातचीत उस खंडहरवाले घर में हुई, तब भी मैं उसी कोठरी के नीचे की एक
सुरंग में खड़ा सब सुनता रहा, और यहीं से बाहर निकलकर आपकी बात पूरी
होने पर मैंने अपना सबसे पिछला गीत देवहूती को ढाढ़स बँधाने के लिए
गाया। आप कह सकते हैं तुम एक बटोही थे, तुमको इन बातों से क्या काम
था, पर सच बात यह है, मैंने जनम भर अपने लिए ऐसे ही कामों का करना
ठीक किया है, मुझको ऐसे कामों को छोड़ दूसरा काम नहीं है, और इसीलिए
मैंने जिस दिन आपके गाँव में पाँव रखा, उसी दिन अपने को जोखों में
डाल दिया था।
कामिनीमोहन ने एक ऊँची साँस भरकर कहा, आप कह सकते हैं मरती बेले
मुझको इन बातां से क्या काम था, पर सच बात यह है, मुझको देवहूती के
चालचलन का खटका था, आपको इस भाँति उसका सहाय होते देखकर ही मेरे जी
में यह खटका हुआ था। मैं अपने जी को बहुत समझाता था, नहीं, देवहूती
का चालचलन कभी बुरा नहीं है-पर यह न मानता। अब आप की बातों को सुनकर
मेरा सब भरम दूर हुआ-अब मैं अपना काम करके मरूँगा।
इतना कहकर कामिनीमोहन ने एक बात देवस्वरूप से कही-देवस्वरूप ने भी
उसको अच्छा कहा। पीछे गाँव के बड़े-बड़े लोग बुलाये गये। सब लोगों के आ
जाने पर एक काम कामिनीमोहन ने बहुत धीरज के साथ किया। पर ज्यों ही वह
काम पूरा हुआ, कामिनीमोहन की साँस ऊपर को चलने लगी, उसकी आँखें बिगड़
गयीं, औेर रह-रह कर वह चौंक उठने लगा। उसकी यह गत देखकर देवस्वरूप ने
कहा, कामिनीमोहन! तुम रह-रह कर इतना चौंकते क्यों हो? कामिनीमोहन की
पलकें उठती न थीं-पर उसने धीरे-धीरे आँखें खोलीं और कहा, बड़ी डरावनी
मूर्तियाँ सामने देख रहा हूँ-क्या यमदूत इन्हीं का नाम है! मैं इनके
डर से काँप रहा हूँ। मुझको जान पड़ता है, मुझको मारने के लिए वह सब
मेरी ओर लपक रहे हैं। ओहो! कैसे-कैसे डरावने हथियार उन लोगों के
हाथों में हैं। आप इनके हाथों से मुझको बचाइए, क्या यह सब मुझको नरक
में ले जावेंगे? मैं इन्हीं सबों से डरकर चौंक उठता हूँ। यह
कहते-कहते कामिनीमोहन की आँखें फिर मुँद गयीं।
देवस्वरूप को कामिनीमोहन की बातें सुनकर बड़ा दुख हुआ। उन्होंने जी
में सोचा, अभी कल्ह तक ये कह रहे थे, नरक स्वर्ग कहीं कुछ नहीं है,
परमेश्वर भी एक धोखे की टट्टी है, और आज इनकी यह गत है, सच है, मरने
के समय बड़े पापी की भी आँखें खुलती हैं। जब तक बने दिन होते हैं,
मनुष्य बेबस नहीं होता, तभी तक उसको सब सीटी पटाक रहती है। बिपत पड़ने
पर उसका जी कभी ठिकाने नहीं रहता। पर यह माटी का पुतला इन बातों को
पहले नहीं सोचता, दु:ख इतना ही है। इतना सोचकर देवस्वरूप ने
कहा-कामिनीमोहन! राम-राम कहो, राम का नाम सब बिपतों को दूर करता है।
कामिनीमोहन-बान लगाने से ही सब कुछ होता है-जैसी बान सदा की होती
है-काम पड़ने पर वही बान काम में आती है। मैंने आज तक राम का नाम जपने
की बान नहीं डाली, इसलिए इस बेले भी मुझसे राम-राम नहीं कहते बनता।
मैंने जो पाप किये हैं-वे एक-एक करके मेरी आँखों के सामने नाच रहे
हैं। मेरा जी बेचैन हो रहा है-अपने पापों का मुझको क्या फल मिलेगा,
यह सोचकर मेरा रोआँ-रोआँ कलप रहा है, गले में काँटे पड़ रहे हैं, जीभ
सूख रही है, तालू जल रहा है-मैं राम-राम कहूँ तो कैसे कहूँ।
इतना कहते-कहते कामिनीमोहन चिल्ला उठा, मुझको बचाओ, बचाओ, ये
काले-काले, डरावने, टेढ़े-टेढ़े दाँतवाले यमदूत मुझको मारे डालते हैं।
फिर कहा, अरे बाप! अरे बाप!! मरा! मरा!!! क्या ऐसा कोई माई का लाल
नहीं है, जो मुझको इनके हाथों से बचावे!!! आह! आह!! जी गया! जी गया!!
मेरे रोएँ रोएँ में भाले क्यों चुभाये जा रहे हैं! मेरी जीभ क्यों
ऐंठी जाती है! मेरी बोटी-बोटी क्यों काटी जाती है! मेरा कलेजा क्यों
निकाला जाता है! लोगो दौड़ो! लोगो दौड़ो!! अब तो नहीं सहा जाता!!!
देवस्वरूप ने कामिनीमोहन के सर पर हाथ रखकर कहा-कामिनीमोहन! राम-राम
कहो, तुम्हारी सब पीड़ा दूर होगी। कामिनीमोहन ने कहा, रा-म रा-म-फिर
कहा, उहँ! उहँ!! रहो! रहो!! अरे मेरे गले में जलते-जलते लोहे के छड़
क्यों डाले देते हो!!! अरे अरे! यह क्या! यह क्या!! हाय बाप! हाय
बाप!! मार डाला! मार डाला!!!
देवस्वरूप की आँखों से कामिनीमोहन की दशा देखकर आँसू चलने लगे-वह
कामिनीमोहन से कुछ न कहकर आप उसकी खाट पर बैठ गये-धीरे-धीरे उसके कान
में राम-राम कहने लगे-पर कामिनीमोहन छटपटाता इतना था, जिससे वह
भली-भाँति उसके कानों में राम-राम भी नहीं कह सकते थे। अब कामिनीमोहन
की साँस बड़े बेग से ऊपर को खिंच रही थी-गले में कफ आ गया था-साँस के
आने-जाने में बड़ी पीड़ा हो रही थी। आ:! आ:!! उहँ! उहँ!! करने छोड़ वह
कुछ कह भी नहीं सकता था। गला घर्र घर्र कर रहा था। इतने में उसकी देह
को एक झटका सा लगा-आँखों के कोये फट गये-और सड़ाके से साँस देह के
बाहर हो गयी। सारे घर में हाहाकार मच गया।
तेईसवीं पंखड़ी
एक चूकता है-एक की बन आती है। एक मरता है-एक के भाग्य जागते हैं। एक
गिरता है-एक उठता है। एक बिगड़ता है-एक बनता है। एक ओर सूरज तेज को
खोकर पश्चिम ओर डूबता है-दूसरी ओर चाँद हँसते हुए पूर्व ओर आकाश में
निकलता है। फूल की प्यारी-प्यारी जी लुभावानेवाली पंखड़ियाँ एक ओर
झड़ती हैं-दूसरी ओर अपने हरे रंग से जी को हरा करते हुए फल सर निकालते
हैं। इधर पतझड़ होती है-उधर नई-नई कोपलों से पौधे सजने लगते हैं।
इधर रात की अंधियाली दूर होती है-उधर दिन का उँजियाला फैलने लगता है।
जग का यही ढंग सदा से चला आया है। कामिनीमोहन मर गया, दो-चार दिन
गाँव में उसकी बड़ी चर्चा रही, कोई उसके लिए आठ-आठ आँसू रोता रहा, कोई
उस पर गालियों की बौछार करता रहा, कोई उसको भला कहता रहा, कोई उसको
बुरा बताता रहा। जो उसके बैरी मित्र कुछ न थे, वे उसके जवान मरने पर
आँसू बहाते, पर जब उसकी बुरी चालों को सुनते, नाक-भौं सिकोड़ते,
कहते-हाय! कामिनीमोहन! चार दिन के जीने पर तुम इतने आपे से बाहर हो
गये थे, तुमको सोचना चाहिए था। मरने पीछे जग में जस और अपसज भी रह
जाता है। दो-चार दिन पीछे लोगों को ये सारी बातें भूल गयीं।
धीरे-धीरे कामिनीमोहन की ठौर एक दूसरा जन लोगों के जी में घर करने
लगा, गाँव में जहाँ देखो वहीं उसी की चर्चा होती-ये हमारे देवस्वरूप
थे। ज्यों-ज्यों वे कामिनीमोहन की क्रिया बिध के साथ लगे,
ज्यों-ज्यों वे गाँव के लोगों के साथ दया और प्यार से बरतने लगे,
त्यों-त्यों लोगों का जी उनकी ओर खिंचने लगा।
धीरे-धीरे कामिनीमोहन का दसवाँ हुआ, फिर तेरहवीं हुई, देवस्वरूप ने
कामिनीमोहन का सब काम पूरा-पूरा कराया, क्रिया कर्म की कोई बिध उठा न
रखी। जब सब कर्म हो चुका, तो एक दिन एक चौपाल में सारा गाँव इकट्ठा
हुआ, गाँव का कोई मुखिया ऐसा न था, जो उस समय वहाँ न पहुँचा हो। जब
सब लोग आकर अपनी-अपनी ठौरों बैठ चुके देवस्वरूप उठकर खड़े हुए, और
कहा-कामिनीमोहन ने मरते समय अपने धन के लिए कुछ लिखापढ़ी की है, और जो
लोग उस समय वहाँ थे उनसे कहा था, मेरा सब कर्म हो जाने पर एक दिन
गाँव के सब लोगों को इकट्ठा करना, और जो लिखावट आज मैं लिखता हूँ
उसको पढ़कर सबको सुनाना, पीछे इस लिखावट में जैसा लिखा है वैसा करना।
आज आप लोग उसी लिखावट को सुनने के लिए यहाँ बुलाये गये हैं। आप लोगों
के गाँव के पाँच बड़े मुखियाओं ने जिनको आप लोग यहाँ बैठे देख रहे
हैं, उस लिखावट को मुझको पढ़ने के लिए दिया है-वह लिखावट यह मेरे हाथ
में है। मैं अब इसको पढ़ता हूँ-आप लोग इसको सुनें। इतना कहकर
देवस्वरूप उस लिखावट को पढ़ने लगे। लिखावट यह थी-
''मैं कामिनीमोहन बेटा राधिकामोहन रहनेवाला बंसनगर, परगना हरगाँव
(गोरखपुर) का हूँ-
''मेरे कोई लड़की लड़का नहीं है, जो सम्पत्ति मेरे पास है, वह सब मेरे
बाप की कमाई हुई है, इसमें मेरे बंस के किसी दूसरे का कोई साझा नहीं
है। मेरे मरने पर मेरा यह सारा धन मेरी स्त्री फूलकुँअर का होगा, पर
इतना धन एक थोड़े बयस की स्त्री के हाथ में छोड़ जाना मैं अच्छा नहीं
समझता, इसलिए मरने के पहले मैं अपने धन के लिए कुछ लिखा-पढ़ी करना
चाहता हूँ-
''किसी का सर पर न होना, और बहुत सा धन अचानक हाथ में आ जाना,
अनर्थों की जड़ है, मेरे बाप के मरने पर मेरी यह गत हुई थी-मेरे मरने
पर मेरी स्त्री की भी ठीक यही गत होगी। मेरा जन्म ब्राह्मण के घर में
हुआ है-मैं लिखा पढ़ा भी हूँ-दस भलेमानस के साथ उठा बैठा भी हूँ-समय
का फेरफार भी देखा है। पर मैंने क्या किया? कोई बुरा कर्म मुझसे करने
से छूटा? जब मेरी यह गत हुई, तो सब भाँति से कोरी एक स्त्री ऐसी दशा
में क्या करेगी-यह कहकर बतलाने का काम नहीं है। पर इन सब बातों को
सोचकर इस बेले जो मैं कोई ढंग निकाल जाऊँ-तो मैं समझता हूँ सभी
समझवाले इस बात को अच्छा समझेंगे-
''मेरे बाप ने बड़ी कठिनाई से इतनी सम्पत्ति कमायी थी, एक-एक पैसे के
लिए उन्होंने कितनों का रोआँ कलपाया था, छल-कपट करके कितनों का सरबस
हरा था, पर इतनी बड़ी सम्पत्ति में से एक पैसा उनके साथ न गया, मैं
उनका प्यारा बेटा हूँ, मैं भी आज इसको छोड़कर चला। फिर क्यों लोग
दूसरों का रोआँ कलपा कर धन इकट्ठा करते हैं, यह कुछ समझ में नहीं
आता। क्या यह उन्हीं कलपे हुए लोगों की आह का फल नहीं है, जो आज इतनी
बड़ी सम्पत्ति का कोई भोगनेवाला नहीं रहा? जान पड़ता है जब तक किसी की
चलती है-तब तक नहीं सूझता। आज मुझको अपने बाप के लिए ये बातें सूझ
रही हैं-पर कल्ह उनसे बढ़-बढ़ कर मैं बुरे-बुरे कर्म गली-गली करता था,
उस घड़ी तो लोगों के समझाने पर भी मेरी आँख न खुली। मुझको इस घड़ी इन
पचड़ों से कुछ काम न था, पर एक तो इन बातों को दिखलाकर मैं इस ढंग से
धन बटोरनेवाले की आँखें खोलता हूँ-दूसरे जिनको अपनी सम्पत्ति सौंपना
चाहता हूँ, उन के कान भी खड़े किये देता हूँ। मरते समय मरनेवाले के
मुँह की ऐसी बातें बहुत काम की होती हैं।
''देवहूती कौन है? कहाँ रहती है? मैं यह बतलाना नहीं चाहता। आजकल
हमारे गाँव के सभी देवहूती को जानते हैं। पर मैं यह कहूँगा, देवहूती
एक बहुत ही सीधी, सच्ची, सती, समझवाली, और भलेमानस स्त्री है। मैंने
आज तक बहुत सी स्त्रियों बहुत से ढंग की देखीं-पर देवहूती ऐसी स्त्री
मुझको देखने में नहीं आयी। मेरे दिन बड़े खोटे थे-जो मेरा जी देवहूती
पर आया और अचरज नहीं है जो एक सती स्त्री पर बुरी दीठ डालने से ही आज
मैं भरी जवानी में इस भाँत अचानक मर रहा हूँ। मैंने देवहूती को
फाँसने के लिए क्या नहीं किया-कैसी-कैसी चाल नहीं चला-पर मेरी सब
चालों में देवहूती के धर्म की जैजैकार रही और मैं सदा मुँह की खाता
रहा। क्या इतना कहने पर भी देवहूती के सत के लिए मुझको कुछ और कहना
चाहिए-मैं समझता हूँ अब कुछ कहने का काम नहीं है-पर इतना कहूँगा।
जैसे गंगाजल खारा नहीं हो सकता, चाँद की किरणें मैली नहीं हो सकतीं,
सूरज पर अंधियाली नहीं दौड़ सकती-वैसे ही देवहूती के सत पर अपजस का
धब्बा नहीं लग सकता। मैं पहले देवहूती को प्यार की दीठ से देखता था,
पर आज मैं उसको एक देवी समझता हूँ-जी से उसके आगे मत्था नवाता हूँ-और
जो कुछ साग पात मेरे पास है, उसको आदर के साथ उसके सामने रखकर उसकी
पूजा करना चाहता हूँ। मैं बड़ा पापी हूँ, क्या जानें इस पूजा के फल से
उस लोक में मेरा कुछ भला हो। दूसरे यह भी दिखलाना है-जो स्त्री संकट
के समय भी अपना धर्म निबाहती है, उस लोक की कौन कहे, उसको यहाँ ही सब
कुछ मिलता है-
''मेरी स्त्री फूलकुँवर कैसी है? मैं इसको क्या कहूँ। पर मुझ ऐसे
कुचाली पति से भी जो कभी उखड़कर नहीं बोली-वह स्त्री कैसी स्त्री
है-इसको समझनेवाले आप समझ लें। हाय! आज उसके ऊपर कैसी विपत ढहती है!
इस को नेक सोचने पर भी कलेजा फटता है। पर मैं उसको देवहूती के हाथ
में सौंपता हूँ-देवहूती से बढ़कर मैं किसी को ऐसा नहीं देखता, जो
फूलकुँवर का आँसू ठीक-ठीक पोंछ सके-और उसको अपने धर्म पर भी रखे।
देवहूती के हाथों फूलकुँवर का अच्छा निबटेरा होगा-मेरे जी को इसकी
पूरी परतीत है-
''मेरे बंस के जो लोग हैं, भगवान की दया से वे सब अच्छे हैं-सबको
दूध-पूत है-धन सम्पत्ति का भी किसी को टोटा नहीं; इसलिए इन लोगों के
लिए मैं कुछ करना नहीं चाहता। पर मुझसे पाँचवीं पीढ़ी में जो पण्डित
रामस्वरूप हैं उनके दिन आज कल पतले हैं। इसलिए आज मैं उनको नहीं भूल
सकता-इस समय मैं उनके लिए भी कुछ कर जाना चाहता हूँ-
''जो कुछ मैंने अब तक कहा और लिखाया है, उससे मेरे सुध बुध का ठीक
होना और मेरा सचेत रहना पाया जाता है-इसलिए ''जो कुछ मैं लिखता हूँ
सुधबुध ठीक होते और सचेत रहते लिखता हूँ'' मैं ऐसी बात अपनी इस
लिखावट में लिखना नहीं चाहता-
''मेरे पास बीस गाँव हैं, इनमें से मनोहरपुर गाँव मैंने पं.
रामस्वरूप को दिया। इस गाँव में बरस में बाहर सौ रुपये बचते हैं-मैं
समझता हँ इतने रुपये बरसौढ़ी मिलते रहने पर वह अपना दिन भली-भाँति
बिता सकेंगे-
''अब उन्नीस गाँव और रहे-इन उन्नीस गाँवों और दूसरी सारी सम्पत्ति को
मैं देवहूती और फूलकुँवर को देता हूँ। उन्नीसों गाँवों पर देवहूती और
फूलकुँवर दोनों का नाम चढ़ेगा, और दूसरी सारी सम्पत्ति भी इन दोनों के
साझे की समझी जावेगी। मेरी स्त्री जैसी सीधी भोली है, और देवहूती
जैसी भलेमानस और समझवाली है, इससे मैं समझता हूँ कोई सम्पत्ति बाँटनी
न पड़ेगी। देवहूती अपनी माँ और भाई के साथ आकर मेरे घर में रहे, और
फूलकुँवर और वह मिलकर सारी सम्पत्ति की सम्हाल करें, मेरे जी की
प्यारी चाह यही है। और जिस लिए मैं फूलकुँवर को देवहूती को सौंपे
जाता हूँ-वह बात भी तभी पूरी होगी। इन दोनों में से किसी एक के मरने
पर सारी सम्पत्ति दूसरे की समझी जावेगी। देवहूती का पति किसी साधु के
साथ निकल गया है-वह कहाँ है कोई नहीं जानता। पर जो देवहूती का दिन
पलटे और उसका खोया हुआ पति उसको फिर मिले, और भगवान उसको कोई बेटा
देवे, तो दवेहूती और फूलकुँवर दोनों के मरने पर सारी सम्पत्ति उसकी
होगी। जो यह दिन भगवान न दिखलावें तो दोनों के मरने पर सारी सम्पत्ति
मेरे वंश के लोग पावेंगे। ये दोनों स्त्रियों मेरी सम्पत्ति किसी
भाँति दूसरे को न लिख सकेंगी-जो लिखेंगी तो वह लिखना न लिखने ऐसा
समझा जावेगा। देवहूती जी करने पर अपने भाई को, ऐसे ही फूलकुँवर अपने
भाई के छोटे लड़के को कोई गाँव लिख सकती है-पर इस गाँव की बचत बरस में
चौबीस सौ से ऊपर की न होगी-
''मैं पण्डित हरनाथ, पण्डित रामस्वरूप, पण्डित रामदेव, बाबू महेश
सिंह और बाबू राजबंस लाल, और जो यहाँ रहें तो देवस्वरूप के हाथों
में-जिनके सामने यह लिखावट लिखी गयी है-अपनी सारी सम्पत्ति की देखभाल
सौंपता हूँ। ये लोग मेरी सम्पत्ति को बिगड़ने और बुरे ढंग से काम में
आने से बचावेंगे-और देवहूती और फूलकुँवर को ऐसी सीख देंगे जिससे वह
मेरी सम्पत्ति को आज से अच्छे कामों में लगावें। स्त्रियों को अपने
ऊपर छोड़ देना हमारे यहाँ अच्छा नहीं समझा जाता, इनके ऊपर किसी का
दबाव भी होना चाहिए, इसलिए मुझको इतना और करना पड़ा। मैं समझता हूँ
ऐसा करके मैंने कोई चूक नहीं की है-
''मुझको एक बात का दुख रह गया, मैं देवस्वरूप को अपनी सम्पत्ति में
से कुछ देना चाहता था, पर उन्होंने न लिया, मेरा बहुत कुछ बोध होता,
जो मेरी सम्पत्ति में से वे कुछ थोड़ा भी लेते। इस लिखावट के लिखने
में मुझको उनसे बहुत सहाय मिली है-इसके लिए मैं उनका निहोरा करता
हूँ-
''जहाँ तक मैं सोचता हूँ अब मुझको कुछ और नहीं लिखना है-इसलिए इस
लिखावट को मैं पूरा करता हूँ-
ह. कामिनीमोहन''
देवस्वरूप पूरी लिखावट पढ़कर बोले-आप लोगों को जो कुछ सुनना था सुनाया
गया। आप लोग इस लिखावट को सुनकर पूछ सकते हैं, देवहूती तो सरजू में
डूबकर मर गयी! फिर क्या कोई दूसरी देवहूती है जिसको कामिनीमोहन ने
अपनी सम्पत्ति दी है? मैं गाँव के उन पाँच बड़े मुखियाओं के कहने
से-जिनका नाम लिखावट पढ़ते समय लिया जा चुका है-आप लोगों का यह भरम
दूर करना चाहता हूँ। पर भरम दूर करने से पहले मैं आप लोगों से पूछता
हूँ-क्या आप लोग हरमोहन पाण्डे को जानते हैं?
लोगों की जो बड़ी भीड़ वहाँ इकट्ठी थी, उनमें से कुछ लोग बोल उठे-क्यों
नहीं जानता हूँ, वह देवहूती के बाप थे। दो बरस हुआ, एक दिन वे गाँव
के दक्खिन बन के पास एक जन को दिखलाई पड़े-फिर तब से उनकी खोज न मिली।
हम लोग जानते हैं, उनको कोई बन का जीव उठा ले गया, और अब वह इस धरती
पर नहीं हैं।
जिस घड़ी लोगों के मुँह से यह बात निकली, उसी समय उस भीड़ में एक जन
उठकर खड़ा हुआ। इस जन को हम बन में देख चुके हैं। जब देवस्वरूप के साथ
घर लौटने में देवहूती ने नाहीं की थी, उस बेले यही जन देवहूती के पास
आया था। उस समय हम लोगों ने जिस भेस में इस जन को देखा था, इस बेले
उसका यह भेस नहीं है। इस घड़ी इस के सर पर पगड़ी है, देह पर अंगा है,
गले में दुपट्टा है, और उजली लम्बी धोती पाँवों को छू रही है। पर
दाढ़ी जैसी की तैसी थी, उसमें कुछ लौट फेर न हुआ था। जब यह जन अपनी
ठौर पर उठकर खड़ा हुआ, देवस्वरूप ने कहा, क्या आप लोग इनको पहचानते
हैं? यह सुनकर सारी भीड़ कुछ घड़ी चुप रही, पीछे दो जन भीड़ में से उठकर
खड़े हुए। और उन लोगों ने कहा, हाँ! हम लोग पहचानते हैं, यही हरमोहन
पाण्डे हैं। इन दोनों की बातें सुनकर सारी भीड़ खड़बड़ा उठी, बारी-बारी
करके बहुत से लोग उठ बैठे। सर ऊँचा नीचा करके सभों ने देखभाल की, और
कहा, ठीक है, यही हरमोहन पाण्डे हैं। इस समय सारी भीड़ अचरज में आ गयी
थी, और जितने मुँह उतनी बातें होने लगने से, हौरा सा मच गया था, पर
देवस्वरूप ने किसी भाँति फिर सबको चुप किया, और कहा अब आप लोग
जानिये, जो दो बरस के मरे हुए हरमोहन पाण्डे जी सकते हैं, तो पन्द्रह
बीस दिन की मरी देवहूती भी जी सकती है। सच बात यह है देवहूती भी मरी
नहीं है, जीती है। यहाँ आप लोग हरमोहन पाण्डे से पूछकर अपना-अपना भरम
दूर करें। और इनके घर पर जाकर देखें, वहाँ आप लोगों को देवहूती जीती
मिलेगी। देवस्वरूप इतना कह पाये थे और हरमोहन पाण्डे उनकी बातों को
ठीक बतला ही रहे थे, इसी बीच भीड़ फिर खड़बड़ा उठी, बहुत लोग अपनी-अपनी
ठौर छोड़कर चौपाल के नीचे उतरने लगे। कोई रोता चिल्लाता भी सुनाई पड़ा।
सब लोग घबड़ा उठे, बात क्या है! पर जो था चौपाल के नीचे उतरा जा रहा
था, इसलिए कुछ ठीक न जान पड़ा क्या है। यह हलचल देखकर गाँव के पाँचों
मुखिया और देवस्वरूप भी चौपाल से नीचे उतरे, और भीड़ चीर कर आगे बढ़े।
तो देखा एक खाट पर बासमती लहू में डूबी हुई पड़ी तड़प रही है, उसकी देह
में छुरी के सैकड़ों घाव लगे हुए हैं, और उसका बेटा उसकी खाट के पास
खड़ा रो चिल्ला रहा है। देवस्वरूप ने उसके बेटे की ओर देखकर कहा, यह
क्या हुआ गंगाराम?
गंगराम-देखो महाराज! गाँव को सूना पाकर न जाने कौन आज मेरी माँ को इस
भाँति छुरियों से घायल कर गया। मैं अभी चौपाल में से उठकर घर गया, तो
वहाँ इसको पड़े तड़पते पाया। यह बहुत पुकारने पर भी नहीं बोलती, न किसी
का नाम बतलाती। इसी से आप लोगों को दिखलाने के लिए मैं इसको यहाँ खाट
पर अपने एक पड़ोसी के साथ उठा लाया हूँ। बाबू आप लोग अब इसका निआव
करें-दोहाई बाबू लोगों की।
जिस घड़ी गंगाराम बातें कर रहा था, बासमती साँस तोड़ रही थी, उसके घाव,
उसकी बुरी गत, और उसका तड़पना देखकर सबके रोंगटे खड़े थे, ऐसा कोई अंग
नहीं था जहाँ छुरी चुभाई नहीं गयी थी। उसकी यह दशा देखकर गाँव के
मुखियाओं ने कहा, इसको अभी थाने में ले जाओ। यह सुनकर गंगाराम ने
ज्यों खाट उठायी, त्यों उसीमें कहीं लिपटी एक लिखावट नीचे गिर
पड़ी-लिखावट यह थी-
''बासमती ने कितनी भोली-भाली स्त्रियों और कितने भले घरों को बिगाड़ा
है। मेरा जी इसी से इसके ऊपर बहुत दिनों से जलता था, पर कामिनीमोहन
का डर मुझको कुछ करने न देता था। जिस दिन कामिनीमोहन मरे उसी दिन
मुझको अपने जी की जलन बुझाने का विचार था। पर अवसर हाथ न आता था। आज
अवसर हाथ आने पर मैं अपने जी की जलन को बासमती के लहू से ठण्डा करता
और जो स्त्रियों कुटनपन करने में बड़ी चोख हैं, उनको बतलाता हूँ, वे
चेत रखें, मेरे ऐसा उनको भी कोई कभी मिल रहेगा। किसी को जी से मारना
और थाने के लोगों के हथकण्डों का विचार न करके एक लिखावट भी पास रख
जाना, एक नई बात है। पर लोगों की भलाई के लिए मैं ऐसा करता हूँ-आगे
मेरे भाग्य में जो बदा हो।
एक अपने जी पर खेलनेवाला।''
लिखावट पढ़ जाने पर गंगाराम बासमती को लेकर थाने की ओर चला गया, पर
जाने से पहले बासमती मर चुकी थी। जितने लोग वहाँ थे सब लोगों ने बड़े
दुख से तड़प-तड़प कर बासमती को मरते देखा था, इसलिए उसी की चर्चा
करते-करते वे लोग भी अपने-अपने घर आये। पर न जाने कैसा एक डर आज गाँव
के सब लोगों के जी में समा गया।
चौबीसवीं पंखड़ी
आज तक मरकर कोई नहीं लौटा, पर जिसको हम मरा समझते हैं, उसका जीते
जागते रहकर फिर मिल जाना कोई नई बात नहीं है। ऐसे अवसर पर जो आनन्द
होता है-वह उस आनन्द से घटकर नहीं कहा जा सकता-जो एक मरे हुए जन के
लौट आने पर मिल सकता है। पारबती बड़ी भागवाली है-आज दो बरस का खोया
हुआ पति ही उसको नहीं मिला, उस की आँखों की पुतली, वह देवहूती भी
अचानक आकर उससे गले मिली-जिसको वह डूब मरी समझकर आठ-आठ आँसू रोती थी।
आज उसके आनन्द का पार नहीं है। कुछ घड़ी के लिए वह बावली बन गयी, अपने
देह तक की सुध भूल गयी, संसार उसकी आँखों में कुछ और हो गया, न उससे
हँसते बनता था न रोते। पर कुछ ही बेर में वह भाप जो धुन बाँधकर भीतर
उठ रही थी, बाहर निकल पड़ी, और वह फूट-फूट कर रोने लगी। जब बहुत दिनों
की जी में लगी दुखड़ों की काई झर-झर बहते हुए आँसुओं से धुल गयी और
पारबती का जी कुछ हलका हुआ, उस घड़ी वह और सब बातें भूलकर हरमोहन से
कहने लगी-क्या आपको मुझको इस भाँति छोड़ देना चाहिए था-आप किसके हाथ
मुझको सौंप गये थे, जो दो बरस तक मेरी सुधा भी न ली? सब तो गया ही
था, मैं आपका ही मुँह देखकर रोती थी, फिर आप इतने कठोर क्यों हुए? पर
फिर भी मेरे भाग्य अच्छे हैं, जो आपने इतने दिनों पीछे भी चेता, और
मेरे उजड़े हुए घर को बसाया।
हरमोहन पाण्डे भी इस बेले चुपचाप आँखों से आँसू बहा रहे थे, जब
पारबती कह चुकी, वह बोले-जिस होनहार ने धन सम्पत्ति और गाँव घर मुझसे
छुड़ाया था, उसी ने तुम्हारी ऐसी घरनी, देवहूती जैसी लड़की, और
देवकिशोर जैसा लड़का भी मुझसे छुड़ाया। मुझको सब भाँत का दुख तो था ही,
पर जमाई के किसी साधु के संग कहीं निकल जाने की बात मैंने सुनी, उसी
घड़ी मेरे दुख का पार न रहा, मैंने सोचा ऐसे घर से तो बन अच्छा है, और
इसी धुन में मैं बन में निकल गया। निकलने को तो मैं बन में निकल गया,
पर वहाँ मुझको बहुत कुछ भुगतना पड़ा। महीनों मुझको बनफल खाकर और झरनों
का पानी पीकर अपने दिन बिताने पड़े। बात यों है-बन में निकल जाने पर
जब दो-चार दिन पीछे जी ठिकाने हुआ, तो मेरे जी में कई बार यह बात
उठी-मैं घर लौट चलूँ-मैं घर की ओर चला भी। पर जिस पथ से मैं बन में
घुसा था, वह पथ कुछ ऐसी भूल-भुलइयाँ के ढंग का है, जिसने मुझको घर न
लौटने दिया। जाते समय मुझको कहाँ जाना है, यह विचार तो था ही नहीं,
इसलिए नाक की सीध में मैं बन में घुसता चला गया, पर निकलते समय मैं
जिधर से निकलना चाहता था, कुछ दूर चलने पर फिर वहीं आ जाता था,
महीनों तक मैं नित बन से निकलने का जतन करता रहा, पर एक दिन भी मेरे
मन की न हुई। उलटे लेने के देने पड़ गये। महीनों बनफल खाने, झरनों का
पानी पीने और धरती पर सोने से मैं रोगी हो गया, और मेरा चलना-फिरना
तक रुक गया। इन दिनों मैं एक पत्ते की झोंपड़ी में-जिसको मैंने अपने
हाथों बनाया था, दिन रात पड़ा रहता था। और इतना दुबला हो गया था,
जिससे किसी जंगली जीव का सामना होने पर किसी भाँति अपने को बचा न
सकता था।
पर मेरे दिन पूरे नहीं हुए थे, इसीलिए रोगी होने के थोड़े ही दिनों
पीछे किसी ओर से घूमते घामते दो भील मेरे पास आये, इन दोनों ने मुझको
देखा, मेरा नाम धाम पूछा और चुपचाप मुझको अपने घर उठा ले गये। मैंने
उन दोनों से घर पहुँचा देने के लिए बहुत कहा, भाँति-भाँति की लालच
दिलायी, पर उन्होंने मेरी एक न सुनी, कहा, आप इतने घबराते क्यों हैं?
जब आप अच्छे हो जावेंगे, घर पहुँचा दिया जावेगा। मैं उनकी बातें
सुनकर चुप हो रहा, कुछ डरा भी, पर अपने घर लाकर उन दोनों ने मेरी
जितनी टहल की, मैं उसके लिए उनका जन्म भर ऋणी रहूँगा। मैं पाँच छ:
महीने अच्छा नहीं हुआ, पर उन दोनों ने एक दिन भी मेरी टहल और सम्हाल
करने से जी न चुराया। जब मैं भली-भाँति चंगा हुआ, उस समय मुझको घर से
निकले एक बरस हो चुका था। बीच-बीच में कई बार मैंने उन सबों से घर
पहुँचाने के लिए कहा, पर जब मैं घर की बात उठाता, तभी वे सब टालटूल
करते। क्यों वह टालटूल करते, मैं पहले इस भेद को न समझता था, इसलिए
मैं सोचता-इन सबका प्यार मेरे साथ बहुत हो गया है, इसीलिए ये सब
मुझको घर पहुँचाना नहीं चाहते। धीरे-धीरे यह बात मेरे जी में जम गयी,
और मैंने सोचा, अपने आप मुझको जंगल से बाहर निकलने के लिए कोई जतन
करना चाहिए। पर यह काम मैं इस भाँति करना चाहता था, जिसमें वे दोनों
भील जानें तक नहीं। क्योंकि सेवा टहल करके उन्होंने इस भाँति मुझको
अपने हाथों में कर लिया था, जिससे मैं किसी भाँति उनका जी तोड़ना
अच्छा न समझता था।
तुम कहोगी भीलों की ओर इतना ध्यान! पर इन भीलों के बरताव की बात मैं
क्या कहूँ। क्या बस्ती में बसनेवालों में इतनी भलमनसाहत हो सकती है?
कभी नहीं! छल कपट का वे सब नाम तक नहीं जानते, सीधे और सच्चे इतने
हैं जितना होना चाहिए। हम लोग मुँह पर बात बनाते हैं, बात चलने पर
धरती आकाश एक करते हैं, कभी-कभी ऐसी चिकनी चुपड़ी सुनाते हैं, जिससे
पाया जाता है हमसे बढ़कर भला कोई दूसरा हो नहीं सकता। पर भीतर की सड़ी
गन्ध से जी भिन्ना जाता है-काम पड़ने पर ऐसा भण्डा फूटता है, जिसके
कहते हुए भी लाज लगती है। मुझको बस्ती के लोगों से भली-भाँति काम पड़
चुका था, मैं बहुत से लोगों का रंग-ढंग देख चुका था, इसलिए जंगल में
पहुँचने पर जब भीलों से पाला पड़ा, तो मुझको जान पड़ा, बस्ती के लोग इन
भोले-भाले भीलों से कितनी दूर हैं। कभी-कभी मेरे जी में घर न
पहुँचाने की बात खटकती थी, पर इसको भी मैं उनका प्यार ही समझ चुका
था, चाहे मेरे साथ उनका यह प्यार न था, तब भी जिसलिए वे मुझको घर न
पहुँचाते थे, यह भी एक ऐसी बात थी, जिससे वह और अच्छे समझे जा सकते
हैं। कामिनीमोहन की ओर से वे सब बन के रखवाले थे, कामिनीमोहन ने उनसे
कह रखा था, जो बन के भीतर गाँव का कभी कोई पाया जावे तो उसको बिना
मुझसे पूछे बाहर न निकलने देना, फिर वह क्यों उनकी बातों पर न चलते?
अवसर पाकर उन सबों ने कामिनीमोहन से मेरे घर पहुँचा देने के लिए पूछा
भी था, पर जान पड़ता है उन दिनों उसकी दीठ देवहूती पर पड़ चुकी थी,
इसलिए उसने मुझको जंगल में रख छोड़ने के लिए ही कहा। ये बातें
कामिनीमोहन के मरने पर मुझको भीलों ने बतलायी थीं।
जब बन में एक बरस बीतकर दूसरा लगा, और बाल-बच्चों का नेह बहुत सताने
लगा, तब मैं चुपचाप नित्य बन से निकलकर घर पहुँचने के लिए पथ ढूँढ़ने
लगा। पर मुझ ऐसे आलसी जीव के लिए बन में पथ ढूंढ़ लेना कठिन बात थी।
जब बन में मैं पथ ढूँढ़ने निकलता और कहीं कुछ उलझन पड़ती, तभी मैं अपनी
झोंपड़ी में पलट आता, कहता अब कल्ह पथ ढूँढ़ईँगा। पर इस भाँति
कल्ह-कल्ह करते दो बरस बीतने पर आये और मुझको पथ न मिला।
भाग्य से एक दिन देवस्वरूप से भेंट हुई। उन्होंने मुझे देखकर साधु
समझा, और कहा, आपका दर्शन बड़े अवसर पर हुआ, आज मैं एक सती स्त्री का
धर्म बचाना चाहता हूँ, पर मुझको डर था वह मेरी परतीत करे न करे। पर
आपको देखकर मैं सुखी हुआ, आप बड़े बूढे हैं, आपकी परतीत करने में उसको
कुछ आगा पीछा न होगा। आप मेरे साथ चलिए और एक धर्म के काम में सहाय
हूजिए। मैं उनकी बातों को कुछ न समझ सका, पर धर्म की दुहाई देते
देखकर उनके साथ हो गया। वे मुझको एक सुरंग से एक कोठरी में ले गये।
ज्यों मैं कोठरी में पहुँचा एक डयोढी में से निकलकर देवहूती को कोठरी
की ओर आते देखा। मैंने देवहूती को देखकर पहचाना, और उनसे कहा, यह तो
मेरी लड़की है। यह यहाँ कैसे आयी, आप सब बातें मुझसे खोलकर कहें।
उन्होंने मेरी बात सुनकर कहा तब तो और अच्छा हुआ, पर आप इस घड़ी न कुछ
पूछें-पाछें और न कुछ बोलें-इस घर से बाहर निकल चलने पर सब बातें
अपने आप जान जावेंगे। जब हम तीनों सुरंग से बाहर निकले, तो देवस्वरूप
मेरी झोंपड़ी तक हम लोगों के साथ आये, पथ में बहुत सी बातें देवहूती
की भलमनसाहत और कामिनीमोहन की चाल की उन्होंने मुझको सुनायीं, मैंने
भी अपना सारा दुखड़ा उनको सुनाया, बीच-बीच में देवहूती फूट-फूट कर
रोती थी। जब मैं अपनी झोंपड़ी में पहुँचा, वे कहने लगे-इस समय मैं एक
काम से बंसनगर जाता हूँ, आप देवहूती के साथ कुछ दिन और बन में रहिये,
थोड़े ही दिनों पीछे मैं आपको देवहूती के साथ आपके घर पहुँचा दूँगा।
गाँव के पंचों के कहने से आज वही देवहूती के साथ मुझको घर लिवा लाये
हैं, पथ में गाँव की बड़ी चौपाल में मुझको थोड़ी बेर के लिए ठहरा लिया
था, चौपाल से थोड़ी दूर पर देवहूती की पालकी भी उतरवायी थी, सोचा था,
क्या जाने कुछ काम पड़े। पर मुझको जीता देखकर गाँववालों ने देवहूती के
लिए कुछ पूछपाछ न की। इसी बीच बासमती का पचड़ा फैल गया। मैंने देखा अब
यहाँ रहना ठीक नहीं, इसलिए देवहूती के साथ घर चला आया। तुमने जो कुछ
कहा ठीक है, पर होनहार किसी के हाथ नहीं, जो-जो नाच उसने नचाया, वह
सब नाचना पड़ा, अब भी जो नाच वह नचावेगा, नाचना पड़ेगा, पर इस बुढ़ौती
में एक बार हमारी तुम्हारी भेंट और बदी थी, वह हुई, आगे की राम
जानें।
पारबती चुपचाप हरमोहन पाण्डे की बातें सुनती रही, कभी रोती, कभी ऊँची
साँसें लेती, और कभी चुपचाप उनके मुँह की ओर ताकती रही। जब हरमोहन
पाण्डे चुप हुए, वह बोली, भगवान ने जैसा मेरा दिन फेरा, सबका दिन
फिरे। आपको और देवहूती को इन दो बरसों में जैसी बिपत झेलनी पड़ी, राम
किसी बैरी को भी ऐसी बिपत में न डालें। मैंने जब भूलकर भी कभी किसी
का बुरा नहीं किया, तो मेरा बुरा कैसे होता। कामिनीमोहन के मरने पर
बासमती मेरे पास दो-तीन दिन आयी थी, उससे देवहूती की सब बातें सुनी
थीं, मैं उससे मिलने की आस में ही दिन गिन रही थी, पर अचानक आपका भी
दर्शन कर भगवान ने मेरे किस जनम के पुण्य का फल आज मुझको दिया है,
मैं नहीं कह सकती।
पारबती इन्हीं बातों को कह रही थी, इसी बीच गाँव की बहुत-सी
स्त्रियों देवहूती से मिलने के लिए वहाँ आयीं। देखकर हरमोहन वहाँ से
उठकर एक दूसरे घर में चले गये। पारबती देवहूती को स्त्रियों के पास
छोड़कर पहले हरमोहन के पास गयी। उनका हाथ मुँह धुलाया, उनको कुछ खाने
को दिया, पीछे स्त्रियों के पास लौट आयी। पारबती, देवहूती, और आयी
हुई स्त्रियों में क्या बातचीत हुई, मैं इसको लिखना नहीं चाहता। ऐसे
अवसर पर जैसी बातें हुआ करती हैं, उसको आप लोग अपने आप समझ लें।
पच्चीसवीं पंखड़ी
जब तक हमको पेट भर खाने के लिए नहीं मिलता, हम दो मूठी अन्न के लिए
तरसते रहते हैं, उन दिनों हमको यही सोच रहता है, कैसे पेट भर खाने को
मिलेगा, कहाँ से दो मूठी अन्न लायें, जिससे पापी पेट की आग बुझे। पर
पेट भर खाना मिलने पर, दो मूठी अन्न का ठिकाना हो जाने पर, हमारा जी
पहले का-सा नहीं रह जाता। इस घड़ी हम सोचते हैं, कुछ कमाना चाहिए,
हमारे पहनने के कपड़े कैसे फटे और बुरे हैं, भलेमानसों को मुँह तक
नहीं दिखाया जाता, कहाँ से कुछ मिले, जो आये दिन पत रहे। जो भगवान ने
दया की, इस दुखड़े से भी छुट्टी मिली, तो जी में आता है, घर चारों ओर
से गिरा पड़ा है, बरसात में घर की छतें चलनी बन जाती हैं, धूप के
दिनों लू और लपट के थपेड़ों से जी पर आ बनती है, जैसे हो घर बनवाना
चाहिए। जो भाग ने साथ दिया, पैसे हाथ चढ़ गये, तो घर बनते भी बेर नहीं
होती। पर क्या हमारी चाहें यहीं आकर ठिकाने लगती हैं ? नहीं, घर बना
तो हाथी घोड़ा चाहिए, धन धरती चाहिए, रुपये चाहिए। सच बात यह है, चाह
कभी पूरी नहीं होती। जिसके लिए आज हम बेकल हैं, जो वह कल्ह मिल गया,
तो परसों दूसरी ही उधेड़ बुन में हम लगते हैं, और उसके लिए हाथ-पाँव
मारते हैं, जो अब हमारे पास नहीं है। पारबती आजकल दिन-रात हरमोहन
पाण्डे और देवहूती के लिए रोती-कलपती थी; सोते-जागते उसको इन्हीं का
ध्यान था। राम-राम करके उसके दुख की रात बीती, सुख के सूरज ने मुँह
दिखलाया, हरमोहन पाण्डे और देवहूती ने आकर उसके अंधेरे घर में उँजाला
किया, वह दो-एक दिन इस सुख में भूली रही। पर दो ही दिन पीछे उसका जी
फिर दुखी रहने लगा, वह देवहूती का रूप जीवन देखती, उसके धन विभव की
बात विचारती, और सोचती, क्या कोई दिन वह भी होगा, जिस दिन देवहूती का
उजड़ा हुआ घर बसेगा? फिर सोचती, यह भी बावलापन है! जो साधु हो गया, वह
घरबारी कैसे होगा!!! फिर जी में बात आती, तो भगवान ने इसको इतना रूप
क्यों दिया! इतना धन विभव क्यों दिया!!! जो सदा उसको जलना ही है, तो
यह रूप और धन विभव किस काम आवेगा! क्या देवहूती को विपत से
उबारनेवाले देवस्वरूप उसकी इस बिपत से रच्छा करने का भी कोई उपाय
सोचेंगे! देवस्वरूप का नाम मुँह पर आते ही वह चौंक उठी। देवस्वरूप को
एक दिन अचानक पारबती ने देख लिया था, देखते ही उसके जी का भाव न जाने
कैसा हो गया था, इस घड़ी भी उसके जी का भाव वैसा ही हुआ, वह मन-ही-मन
सोचने लगी, देवस्वरूप का मुखड़ा देवहूती के पति से इतना क्यों मिलता
है? देवहूती का पति भी साधु हो गया है, देवस्वरूप भी साधु है! फिर
क्या देवस्वरूप ही तो देवहूती का पति नहीं है? इन बातों को सोचकर
पारबती बड़े गोरखधंधे में पड़ी। वह जानना चाहती थी, देवस्वरूप कौन है?
कहाँ का है? क्यों दूसरों की भलाई के लिए दिन-रात उतारू रहता है?
क्यों उसने देवहूती के साथ इतनी भलाइयाँ कीं? पर बहुत कुछ पूँछपाछ
करने पर भी वह इन बातों को न जान सकी। इसी बीच एक दिन पारबती ने
सुना, कल्ह देवस्वरूप बंसनगर से चले जावेंगे, उनको कई तीर्थों में
जाना है, इसीलिए वे उतावली कर रहे हैं। पारबती ने गाँव से चले जाने
के पहले एक दिन अपने यहाँ उनका नेवता करना चाहा-और यह बात हरमोहन
पाण्डे से कही। उन्होंने पारबती की बात मानी, और नेवता देकर एक दिन
देवस्वरूप को अपने यहाँ बुलाया। जब वह खा-पी चुके तो घर से मिली हुई
एक बैठक में उन दोनों जनों में इस भाँति बातचीत होने लगी।
हरमोहन-आपने हम लोगों के साथ जितनी भलाइयाँ की हैं, उनका हम लोग कहाँ
तक निहोरा करें-बिना किसी अर्थ के इस भाँति दूसरों की भलाई करते आपसे
पहले मैंने किसी दूसरे को नहीं देखा। आप अब बंसनगर छोड़कर आजकल में
जाना चाहते हैं, इससे हम लोगों का जी मल रहा है, आँखों से आँसू निकल
रहे हैं। क्या आप फिर दर्शन देकर हम लोगों को कृतार्थ करेंगे? आप
जैसे साधुओं का दर्शन करने ही से हम जैसे घरबारियों का भला होता है।
देवस्वरूप-एक के बिपत में फँसने पर दूसरे का उसके बचाने के लिए उतारू
हो जाना, हम सब लोगों का सबसे बड़ा धर्म है। मैंने वही किया है, इसमें
आप के निहोरा मानने की कोई बात नहीं है। यह आपका बड़प्पन है जो इस
बहाने आप मुझको सराहते हैं। और जो प्यार आप लोगों का मेरे साथ है, वह
आप लोगों की दया है, मुझमें कोई गुण ऐसा नहीं है, जिसके लिए आप लोग
मुझको इतना चाहें। यह सच है, मैं आज कल में बंसनगर छोडँगा, पर कुछ
दिनों पीछे आप लोगों का दर्शन करने की फिर चाह है। मेरा जनम ब्राह्मण
के घर में हुआ है, एक तो यों ही ब्राह्मण और साधुओं का भेस बहुत
मिलता-जुलता है-दूसरे इधर दो-तीन बरस में साधुओं के साथ रहा भी हूँ।
इससे मेरा भेस कुछ साधुओं का-सा देखकर आप मुझको साधु समझ रहे हैं, पर
सच बात यह है, मैं साधु नहीं हूँ। साधु क्या, साधुओं के पाँव की धूल
भी नहीं हूँ।
हरमोहन-आपकी बातें ठीक-ठीक मेरी समझ में नहीं आती हैं, क्या आप साधु
नहीं हैं? घरबारी हैं?
देवस्वरूप-हाँ! घरबारी ही समझिए, जब मैं साधु बनने योग्य अभी नहीं
हूँ तो अपने को घरबारी कहने में क्यों हिचकूँगा। साधु होना टेढ़ी खीर
है, बड़ा कठिन काम है। सर पर जटा बढ़ाये, भभूत रमाये, गेरुआ पहने, हाथ
में तूँबा और चिमटा लिए, आप कितनों को देखते हैं, पर क्या वे सभी
साधु हैं? नहीं, वे सभी साधु नहीं हैं। भेस उनका साधुओं का सा देख
लीजिए, पर गुण किसी में न पाइयेगा। कोई पेट के लिए भभूत रमाता है,
कोई चार पैसा कमाने के लिए जटा बढ़ाता है, कोई लोगों से पुजाने के लिए
गेरुआ पहनता है, और कोई घर के लोगों से लड़कर बिगड़ खड़ा होता है, और
झूठ-मूठ साधुओं का भेस बनाए फिरता है। इन सब लोगों से निराले कुछ ऐसे
लोग होते हैं-जो न तो कुछ काम कर सकते-न किसी काम में जी लगाते-जिस
काम को वे करना चाहते हैं, आलस से वही काम उनके लिए पहाड़ होता है-फिर
उनका दिन कटे तो कैसे कटे! वे सब छोड़-छाड़ कर साधु बनने का ढचर
निकालते हैं, और इसी बहाने किसी भाँति अपना दिन काटते हैं। जब तक इन
लोगों को तन ढाकने और पेट भरने ही तक मिलता है, तब तक कहने-सुनने को
ये लोग कुछ भले होते भी हैं, पर जो कहीं कुछ रुपया पैसा हाथ चढ़ गया,
कुछ धन धरती मिल गयी, तो अनर्थ होता है, जो काम बिगड़े से बिगड़ा
घरबारी नहीं कर सकता, उन कामों को यह झूठा साधु करता है और जितनी
बुराई देश और देश के लोगों की इन लोगों के हाथों होती है, दूसरों के
हाथ कभी नहीं हो सकती-हमसे जवान साधु तो और अनर्थ करते हैं। अभी
भली-भाँति मूँछ भी नहीं आयी है-अठारह-बीस बरस का बय है-जवानी ऊपर
फिसली जाती है-अकड़ तकड़ देह में भरी हुई है-मन में सभी ढंग की चाहें
हैं-एक चाह ने भी पूरा होने का अवसर नहीं पाया-इसी बीच साधु बनने की
धुन समायी। साधु बने, भभूत रमाया, जटा बढ़ायी, गेरुआ पहना, पर इसी
साधु बनने से क्या हुआ, जब तक मन हाथ न आया, और जी की चाहें न मिटीं।
हाँ! इतना होगा, भोले-भाले लोग उनको साधु महात्मा समझकर उनसे किसी
बात की झिझक न रखेंगे और वह महामना देश की और देश के लोगों की बुराई
करते रहेंगे। किसी पोथी में इस भाँति साधु होना नहीं लिखा है, कहीं
ऐसे साधुओं की बड़ाई नहीं की गयी है। आजकल साधु होना भेड़ियाधसान हो
गया है-जिसको देखो वही साधु बना फिरता है, पर इस भाँत साधु होने से
साधु न होना ही अच्छा है।
मैं यह नहीं कहता सभी साधु ऐसे हैं, जितने साधु देखने में आते हैं,
सभी बुरे और खोटे हैं। पर यह कहूँगा जो भली-भाँति पढ़ा लिखा नहीं है,
जिसके साधु होने का समय नहीं आया, जो यह नहीं जानता साधु किसलिए हुआ
जाता है, जिसने यह नहीं समझा, साधुभेस बनाने के पहले साधु का गुण
होना चाहिए, उसका साधु बनना जग को धोखे में डालना है। साधु का भेस
देखकर हमारा आपका उसका आदर मान न करना, एक ऐसी बात है, जिससे कभी
किसी अच्छे साधु का मान न करने का दोष भी हमको आपको लग सकता है। इसी
से हम लोगों में जो साधु के भेस में देखने में आते हैं, उन सबका आदर
और मान करने की चाल है। पर यह हमारा और आप का करतब है, ऐसे झूठे भेस
बनाने वाले के लिए यह और लाज की बात है। जितनी बातें मैं ऊपर कह आया
हूँ, उससे आपने समझा होगा, मुझमें ऐसे गुण अब तक नहीं हैं, जिससे मैं
साधु हो सकूँ, और इसीलिए मैंने आपसे कहा है, मैं साधुओं के पाँव की
धूल भी नहीं हूँ। हाँ! साधु होने के लिए जतन कर रहा हूँ-आप बड़ों की
दया से जो मेरा जतन पूरा हुआ, मेरा मन ठीक हो गया, और चाहें मिट
गयीं, तो समय आने पर मैं साधु होने की चाह रखता हूँ। इस समय साधु
कहकर आप मुझको न लजवावें।
हरमोहन-आप बहुत बड़े लोग हैं जो ऐसी बातें कहते हैं, मैं आपकी बातों
को काटकर यह न कहूँगा-आपसे बढ़कर कौन साधु हो सकता है। पर यह कहूँगा,
हम लोगों का बड़ा भाग्य है, जो आप फिर दर्शन देने के लिए इस गाँव में
आने की चाह रखते हैं। जो कभी आकर आप दर्शन दे जाया करेंगे, तो हम
लोगों का बहुत कुछ भला होगा। इस घड़ी हम आपसे अपनी एक और भलाई की आशा
रखते हैं। आप जानते हैं, दो बरस हुआ, देवहूती का पति किसी साधु के
साथ कहीं निकल गया। आप कितने तीर्थों, नगरों और गाँवों में जाते हैं,
ऐसा संजोग हो सकता है, जो आपके साथ उसकी भेंट होवे, आप का जी इधर
होने से ऐसा होने में और सुभीता होगा। जो भगवान यह दिन दिखलावें, और
आपके साथ किसी दिन उसकी भेंट हो जावे, तो आप उसको घर फेर लाने के लिए
जतन करेंगे। जिस भाँति देवहूती को आपने कितनी बिपतों से बचाया है उसी
भाँति देवहूती को इस बिपत से भी बचावें। हम लोगों की बड़ी गिड़गिड़ाहट
के साथ आपसे यही बिनती है।
देवस्वरूप-आपके बिना कहे उसी दिन से मेरे जी में यह बात बैठी हुई है,
जिस दिन यह बात मैंने जानी। मैं जहाँ तक हो सकेगा देवहूती के पति को
ढूँढ़ने में न चुकूँगा, पर आप दया करके उनका रूप रंग क्या कुछ बतला
सकते हैं?
हरमोहन-मैंने सुना है उसका रूप रंग आपसे बहुत मिलता है।
देवस्वरूप यह सुनकर कुछ घड़ी चुप रहे-एक-एक करके कई बार हरमोहन के
मुखड़े पर दीठ डालते रहे। फिर बोले-आपका नाम हरमोहन पाण्डे छोड़ कुछ और
है? क्या देवहूती का कोई दूसरा नाम भी है?
हरमोहन-मेरा नाम तो हरमोहन पाण्डे ही है-पर मुझको लोग कहते मोहन
पाण्डे हैं। इसी भाँति देवहूती का भी कोई दूसरा नाम नहीं है-हाँ!
प्यार से लोग उसको पियारी पुकारा करते हैं, क्यों? आपने यह क्यों
पूछा?
देवस्वरूप कुछ इधर-उधर करके बोले-पियारी तो मर गयी न?
देवस्वरूप को इधर-उधर करते देखकर हरमोहन पाण्डे ने एक गहरी दीठ उनके
ऊपर डाली, इस समय उनके मुखड़े पर एक रंग आता, और एक जाता था, जी में
अनोखा उलट फेर हो रहा था। पर उन्होंने सम्हल कर कहा, नहीं वह मरी
नहीं, अब तक जीती है। क्यों देवहूती के मरने की बात आप जानते हैं?
देवस्वरूप ने धीरज के साथ कहा-हाँ! मैंने सुना कुछ ऐसा ही था, पर
आपकी बात भी सच हो सकती है। किसी बड़े रोग में बेसुधा हो जाने पर बहुत
लोगों के लिए ऐसी बातें फैल जाती हैं।
हरमोहन-ठीक ऐसा ही देवहूती के लिए भी हुआ है, जिस दिन यहाँ यह बात
फैली, उसके थोड़े ही दिनों पीछे, मैंने उसके पति के किसी साधु के साथ
निकल जाने की बात सुनी। जान पड़ता है अपनी स्त्री को मरा समझ कर ही,
उसने ऐसा किया है। जो हो, पर आप यह बतलावें, आप इन बातों को कैसे
जानते हैं? क्या आप रामनगर के रहनेवाले हैं?
एक जन सच्चे जी से तीर्थ जाने के लिए सजधज कर खड़ा है, कैसे वहाँ जाकर
देवताओं की सेवा पूजा करके अपना जनम सफल करेगा! कैसे साधु महात्माओं
का दर्शन करके अपने को बड़भागी बनावेगा!! वह इन्हीं उमंगों फूला नहीं
समाता है। इसी बीच अचानक उसने एक ऐसी बात सुनी, जिससे उसको तीर्थ
जाने का विचार छोड़ना पड़ा, सारी चाहें उसकी धूल में मिल गयीं, और
मुखड़े पर निराशा-भरी गहरी उदासी झलकने लगी। ठीक यही दशा हरमोहन की
बात सुनकर देवस्वरूप की हुई। मुखड़े का चमकता हुआ चटकीला रंग फीका पड़
गया, आँखों की जोत कुछ मैली हो गयी, और अचानक वह कुछ घबरा से गये, पर
देखते-ही-देखते ये सब बातें दूर हुईं, धीरज मुखड़े पर खेलने लगा, और
उन्होंने कुछ चौंकते-चौंकते कहा, हाँ! मैं रामनगर का ही रहनेवाला
हूँ।
हरमोहन पाण्डे ने कुछ उकताहट के साथ कहा, आपके बाप का नाम?
देवस्वरूप ने वैसे ही धीरज के साथ कहा, पंडित गोबिन्दस्वरूप?
अबकी बार हरमोहन का कलेजा धाक से हो गया, उन्होंने लड़खड़ाती जीभ से
कहा, और आपका नाम? फिर से कहा-क्या देवस्वरूप ही आपका नाम है?
देवस्वरूप बोलना ही चाहते थे, इतने में लाल पगड़ीवाले, थाने के दो
मुचण्डे, अचानक बैठक में घुस पड़े, और डाँट कर बोले तुम लोग बासमती को
मरवा कर यहाँ बैठे अट-कौसल कर रहे हो! उठो! अभी उठो!! देखो आज कैसी
गाढ़ी छनती है। हरमोहन की नानी तो थानेवालों को देखते ही मर गयी थी,
इस पर उन्होंने जो डाँट बतलायी, उससे उसके रहे सहे औसान भी जाते रहे।
पर देवस्वरूप ने बिना किसी घबराहट के कहा, देखो ऊधम करने का काम नहीं
है, जहाँ तुम लोग कहो वहाँ हम लोग चल सकते हैं। देवस्वरूप का रंग-ढंग
और धीरज देखकर फिर वे दोनों कुछ न बोले और जिधर से आये थे, देवस्वरूप
और हरमोहन को लेकर चुपचाप उसी ओर चले गये।
छब्बीसवीं पंखड़ी
बासमती के मारे जाने पर दो चार दिन गाँव में बड़ी हलचल रही, थाने के
लोगों ने आकर कितनों को पकड़ा, मारनेवाले को ढूँढ़ निकालने के लिए कोई
बात उठा न रखी, पर बासमती से गाँववालों का जी बहुत ही जला हुआ था,
इससे लाख सर मारने पर भी थाने के लोग अपनी सी न कर सके, अन्त को उन
लोगों को हार माननी पड़ी, और दो-चार दिन पीछे गाँव में फिर चहल-पहल
हुई। आज बंसनगर की निराली छटा है, फूल पत्तियों से सजकर वह दूसरा
स्वर्ग बन गया है। घर-घर द्वारों पर बंदनवारे बँधी हैं, केले के
खम्भे गड़े हैं, और जल से भरे कलसे रखे हैं। स्त्रियों मीठे सुरों में
गा रही हैं, पुरुष जहाँ-तहाँ खड़े हँस बोल रहे हैं, आपस में चुहलें कर
रहे हैं, और लड़के किलक रहे हैं, उछल कूद रहे हैं, तालियाँ बजा रहे
हैं, और गाँव की छटा देखते हुए झुण्ड-के-झुण्ड इधर-उधर घूम रहे हैं।
देखो, यह साम्हने का मन्दिर कैसा सजा हुआ है, फूल पत्तियों से, केले
के खम्भों से, बंदनवारों से वह कैसे अनूठा और सुहावना बन गया है!
उसके सामने एक मण्डप में बाजा कैसे मीठे सुरों में बज रहा है! इन
सामने उछलते खेलते आते हुए लड़कों की ओर देखो, उनकी धुन बाजों की धुन
के साथ कैसी लग रही है! वे बाजों के मीठे सुर पर कैसा उमग रहे हैं!
मन्दिर के ठीक बीच में एक बहुत ही ऊँचा झण्डा गड़ा हुआ है, इस झण्डे
के इधर-उधर दो छोटे झण्डे और हैं, धीरे बहनेवाली बयार इन झण्डों के
फरहरों को लेकर खेल रही है। हमारा जी भी उनसे उलझा हुआ है। उनके लाल
फरहरों पर उजले कपड़े से बने अच्छरों में कुछ लिखा है, हम उसको पढ़ना
चाहते हैं। अच्छा देखो, हमने उसको पढ़ लिया-जो सबसे बड़ा और ऊँचा झण्डा
है, वह आकाश से बातें करते हुए कह रहा है, ''धर्म की सदा जय'' उसके
पास का एक झण्डा ललकार रहा है ''अन्त भले का भला और बुरे का बुरा''
और दूसरा धीरे-धीरे अपने फरहरे को उड़ाता है, और बतलाता है-''साँच को
आँच नहीं''। इस मन्दिर के पास ही एक घर है, घर के द्वार पर बहुत से
लोग इकट्ठे हैं, इस घर को हम लोग कई बार देख चुके हैं, यह हरमोहन
पाण्डे का घर है, आओ देखें यहाँ क्या हो रहा है।
देखो, सामने एक लम्बी चौड़ी चाँदनी तनी हुई है, चाँदनी के नीचे
चौकियों पर और चौकियों के नीचे धरती पर सुन्दर बिछावन बिछा हुआ है।
एक एक, दो दो, चार चार, दस दस, करके लोग आ रहे हैं, और ढब से बिछावन
पर बैठते जाते हैं। बिछावन ऊपर नीचे लगभग भर गया है, कितने ही लोग
आसपास खड़े भी हैं, पर फिर भी भीड़ पर भीड़ चली आती है-और लोग टूटे पड़ते
हैं, धीरे-धीरे हरमोहन पाण्डे के घर के पास की धरती लोगों से खचाखच
भर गयी, कहीं तिल धरने को ठौर न रही, पर इतनी भीड़ होने पर भी ऊधाम
नहीं था, सब लोग चुपचाप किसी की बाट देख रहे थे, पान बँट रहा था,
पंखे झले जा रहे थे, और हरमोहन पाण्डे अपने दस बीस साथियों के साथ इन
सब लोगों की आवभगत में लगे हुए थे।
अब हम घर के भीतर भी चलकर देखना चाहते हैं, वहाँ क्या होता है। हम
लोगों में भलेमानसों के घर में जाने की चाल नहीं है। जिस भलेमानस के
घर में लोग बेरोक टोक आते जाते हैं, न उसी को कोई भला समझता, और न
वही भला गिना जाता, जो ऐसा करता है। पर आप आइये, हमारे साथ चले आइये,
घबराइये नहीं, हम लोग सब ठौर बेरोकट-टोक आ जा सकते हैं, और अपने साथ
औरों को भी ले जा सकते हैं। इससे न घरवाले को ही कोई बुरा कहता है, न
हम्हीं लोगों को कोई बुरा बनाता। जब यह चाल है, तो वह चाल भले ही न
हो, हमको और आपको हिचकने का कोई काम नहीं। आइये, चले आइये, देखिए,
कैसा निराला समा है। आपने कभी खिला हुआ कमल देखा है? और जो देखा है
तो ऐसे बहुत से कमल जिस तालाब में खिले हों, क्या ऐसे किसी तालाब की
छटा की सुरत आपको है? आपने कभी हँसते हुए पूरे चाँद की शोभा देखी है?
और जो देखी है तो ऐसे सैकड़ों चाँदों से सजे हुए आकाश की छवि को आपने
अपने मन में कभी आँका है? हरे भरे पत्तों की आड़ में डाल पर बैठकर
कोयल को आपने कभी कूकते सुना है? और जो सुना है तो कितने ही पेड़ों की
झुरमुट में ऐसी कई एक कोयलों के बोलने की छटा का ध्यान आपने कभी किया
है? जो सुरत नहीं है, मन में कभी नहीं आँका है, और ध्यान नहीं किया
है, तो उसकी सुरत कीजिए। उस छवि को मन में आँकिये और उस छटा का ध्यान
कीजिए। और फिर हरमोहन पाण्डे के घर की शोभा को उससे मिलाइये। आज
हरमोहन पाण्डे के घर में सैकड़ों पूरे चाँद एक साथ निकले हैं, अनगिनत
कँवल फूले हुए हैं, और रसीले कण्ठ से कितनी ही कोयलें बोल रही हैं।
इस पर भाँत-भाँत और रंग-रंग के कपड़ों की फबन, गोटे पट्टे की चमक दमक,
घुँघरुओं की झनकार और रंग दिखला रही हैं। एक ठौर चढ़ती जवानी की बहुत
सी छबीलियाँ बैठी हैं, चाँद रस बरसा रहा है, कोयल बोल रही है, कँवल
फूले हुए हैं और निराली गन्ध में बसी हुई बयार धीरे-धीरे चल रही है।
वहीं देवहूती भी बैठी हुई घर में उँजाला कर रही है-आज उसके मुखड़े पर
निराला जीवन है! अनूठी छटा है! और अनोखा आनन्द है! आज उसके गहनों
कपड़ों की छवि देखे ही बन आती है। पास बैठी हुई छबीलियाँ उसको छेड़ रही
हैं, और कभी इन सबों का वह ठहाका लगता है, जिससे सारा घर रहकर गूँज
जाता है। हम यहाँ ठहरना नहीं चाहते, इन छबीलियों में हमारा क्या काम!
पर एक बात जी में रही जाती है, देवहूती का आज यह ठाट क्यों!
इस दूसरी ठौर को देखो, यहाँ देवहूती की माँ पारबती बैठी हुई है, पास
ही उसी के बय की सैकड़ों स्त्रियों डटी हुई हैं। भाँत-भाँत की बातें
चल रही हैं, पर ओर छोर किसी का नहीं मिलता, जितने मुँह उतनी बातें
सुनी जा रही हैं। कोई कुछ कहती है, तो दूसरी अपने मन से दस बातें और
गढ़कर उसमें मिला देती है, न जाने कहाँ की छानबीन हो रही है। पारबती
क्या कह रही है, जी करता है उसे सुनें, पर पास की स्त्रियों ने ऐसा
गड़बड़ मचा रखा है, जिससे कुछ सुना नहीं जाता। जाने दो इस पचड़े को, चलो
बाहर ही चलें, देखें अब वहाँ क्या हो रहा है।
देखो, अभी यहाँ वैसा ही जमघट है, लोग अभी तक उसी भाँत चुपचाप किसी की
बाट देख रहे हैं-पर अब कोई आया ही चाहता है, क्योंकि लोगों में कुछ
खलबली सी पड़ रही है। अच्छा, आओ, हम लोग भी यहीं ठहरें, देखें किसकी
अवाई है!
मन्दिर के मण्डप में जो बाजा बज रहा था, धीरे-धीरे वह धुन से बजने
लगा, जय और बधाई की धुन से सारी दिशाएँ गूँज उठीं, साथ ही गाँव के
पाँच सात भलेमानसों के साथ धीरे-धीरे हमारे जाने-पहचाने देवस्वरूप ने
उस जमघटे के बीच पाँव रखा। देवस्वरूप देखने में वैसे ही धीरे पूरे
जान पड़ते थे, उनके मुखड़े का भाव वैसा ही था, धीरज उसी भाँति उस पर
खेल रहा था, और जैसा गम्भीर वह पहले रहता था, अब भी था। वह सबसे
जथाजोग मिलते-जुलते चाँदनी के भीतर आये, और उसके ठीक बीच में एक ठौर
बैठ गये।
जब देवस्वरूप बैठ गये, उनके मौसेरे ससुर नन्दकुमार, अपनी ठौर से उठे,
और सबकी ओर देखकर कहने लगे-
''आज आप लोगों को बड़े आनन्द के साथ मैं यह बतलाता हूँ-देवस्वरूप ही
देवहूती के वह खोये हुए पति हैं-जिनके लिए हम लोगों का एक-एक दिन
एक-एक बरस हो रहा था। मैं यह जानता हूँ मेरे इस बात को बतलाने के
पहले ही सारा गाँव यह बात जान गया है, क्योंकि जो सारा गाँव पहले ही
इस बात को न जान गया होता, तो आज गाँव में यह धुमधाम न होती। पर सबके
सामने इस बात को छोड़ मुझको और दो चार बातें कहनी हैं, इसलिए आप लोगों
के सामने कुछ कहने के लिए मैं खड़ा हुआ हूँ। कई बार देखादेखी होने पर
भी देवस्वरूप ने हरमोहन पाण्डे को और हरमोहन पाण्डे ने देवस्वरूप को
तब तक क्यों नहीं पहचाना, जब तक न्योते के दिन उन लोगों में बातचीत न
हुई, यह शंका अब तक लोगों को बनी हुई है। यह शंका ठीक है; पर आप
लोगों को जानना चाहिए-तिलक के दिन से ब्याह के दिनों तक एक दिन भी इन
दोनों जनों में देखादेखी नहीं हुई थी और इसीलिए भेंट होने पर भी ये
लोग एक दूसरे को न पहचान सके। तिलक चढ़ाने पुरोहितों के साथ मैं गया
था, और ब्याह के दिनों पाण्डेजी अचानक कठिन रोग में फँस गये थे, इसी
से देखा देखी न हो सकी थी। देवहूती ब्याह में बहुत छोटी थी, इसी से न
उसको देवस्वरूप पहचान सके, और न देवस्वरूप को वह पहचान सकी।
देवस्वरूप को पहचाना तो देवहूती की माँ ने पहचाना और वही पहचान सकती
थीं, और उन्हीं के पहचानने से ही हम लोगों को आज का यह दिन देखने में
आया। आप लोग कहेंगे-आज तक तुम कहाँ सोते थे, पर यह भी दिनों का फेर
ही था, जो मैंने भी उसी दिन देवस्वरूप को देखा, जिस दिन यह बात
धीरे-धीरे सब लोगों में फैल गयी थी। देवस्वरूप को लड़कपन में लोग देऊ
कहते थे, उनके इस लड़कपन के नाम ने लोगों को और धोखे में डाला। अब मैं
समझता हूँ आप लोग सब बात भली-भाँति समझ गये होंगे।''
इतना कहकर पण्डित नन्दकुमार अपनी ठौर पर बैठ गये। उस घड़ी जय और बधाई
की वह धुम थी, जो किसी भाँति नहीं लिखी जा सकती है। जिस घड़ी यह धूमे
मच रही थी, एक ऐसा उँजाला चाँदनी के भीतर छा गया, मानो बिजली कौंध
गयी-साथ ही-
''धर्म का बेड़ा पार''
इस ध्वनि से सारी दिशा गूँज उठी।
सत्ताईसवीं पंखड़ी
आज दस बरस पीछे हम फिर बंसनगर में चलते हैं। पौ फट रहा है, दिशाएँ
उजली हो रही हैं, और आकाश के तारे एक-एक कर के डूब रहे हैं। सूरज अभी
नहीं निकला है, पर लाली चारों ओर दिशाओं में फैल गयी है। कहीं-कहीं
पेड़ों के नीचे अभी भी गहरी अंधियाली है-पर अंधेरा धीरे-धीरे दूर हो
रहा है। चिड़ियाँ बोल रही हैं, कौए काँव-काँव कर रहे हैं, फूल खिल रहे
हैं, और सरजू नदी बयार के ठण्डे झोंकों से ठण्डी होकर धीरे-धीरे बह
रही है। इसी सरजू के एक पक्के घाट पर एक जन बैठा हुआ पूजा कर रहा है,
उसके माथे में चन्दन लगा है, उसकी दोनों आँखें अधखुली हैं, और मुखड़ा
तेज से चमक रहा है। वह ऐसा एकचित्त होकर पूजा कर रहा है, और इस भाँति
सच्चे जी से भगवान के भजन में लगा हुआ है, जिसको देखकर बड़े पापी का
जी भी पसीज जाता है। हम जानना चाहते हैं, यह कौन है। यह और कोई नहीं,
हमारे जान पहचानवाले देवस्वरूप हैं। सूरज निकलते-निकलते उन्होंने
अपनी पूजा पूरी की, और सरजू के तीर से उठकर घर की ओर चले-एक टहलू जो
देखने में बड़ा भलामानस जान पड़ता था-पीछे-पीछे साथ-साथ था।
हम कुछ घड़ी के लिए देवस्वरूप का साथ छोड़ना चाहते हैं-और देखना चाहते
हैं, गाँव की आजकल क्या दशा है। बंसनगर गाँव पहले ही हरा भरा था, पर
आजकल वह और चढ़ बढ़ गया था। गाँव में जो धनी थे, उनकी चर्चा ही क्या
है-आजकल दीन दुखियों की दशा भी सुधर गयी थी। देवस्वरूप ने कामिनीमोहन
का बहुत सा धन पाकर अपने ठाट-बाट में नहीं लगाया, जो ढंग उनका पहले
था, अब भी था। देवहूती भी उन्हीं के दिखाये पथ पर चलती थी, लाखों
रुपये की सम्पत्ति पाकर उसने अच्छे-अच्छे गहने नहीं गढ़ाये, अपने लिए
ऊँचे-ऊँचे पक्के घर नहीं बनवाये। देवस्वरूप ने उसको समझाया,
कामिनीमोहन के धन के हम कौन! जो अपने पसीने की कमाई नहीं, उसको अपने
काम में लगाना अच्छा नहीं। तब वह धन जिससे बहुतों का भला हो सकता है,
हम लोग अपने काम में क्यों लावें? चाहें बढ़ाने ही से बढ़ती हैं, फिर
पहले ही उनको बढ़ने का अवसर क्यों दिया जावे? देवस्वरूप ने गाँव के
दीन दुखियों की दशा देखी थी, कितनी ही अभागिनी राँड़ स्त्रियों के
दु:ख पर कई बार आँसू बहाया था, उनको ये सब बातें भूली नहीं थीं। देश
जिन बातों से दिन-दिन गिर रहा था, वे बातें भी दिन रात उनकी आँखों के
सामने फिरा करतीं। इसलिए उन्होंने कामिनीमोहन का बहुत सा धन पाकर
उसको अच्छे कामों में लगाया, आज उनके किये हुए अच्छे कामों से ही
बंसनगर का ढंग निराला हो गया था। देवस्वरूप का साथ छोड़कर ज्यों हम
आगे बढ़े, त्यों एक बहुत ही लम्बा-चौड़ा ऊँचा घर सामने दिखलाई पड़ा। इस
घर के फाटक पर लिखा हुआ था-
कामिनीमोहन की धर्मशाला
आप आकर रहें यहाँ पर आज।
भाग्य ऐसे कहाँ हमारे हैं।
हमने इस धर्मशाले के भीतर पैठकर देखा, इसमें बटोहियों के सुख के लिए
सब कुछ किया गया था। यहाँ बटोहियों को ठहराया ही नहीं जाता था, उनको
दिन तक खाना भी मिलता था। और जो इसके कामकाजी थे, वे कितने भले और
अच्छे थे, यह मुझसे बतलाया भी नहीं जा सकता। मैं उनकी आवभगत का ढंग
देखकर मोह गया, उनकी मीठी बातों का रस चखकर जी ऊबता ही न था। मैं इस
घर को भली-भाँति देखकर बाहर आया। बाहर आते ही इस घर से थोड़ी ही दूर
पर बहुत ही लम्बा चौड़ा और कई खंडों में बँटा हुआ एक दूसरा घर मुझको
दिखलाई पड़ा। इस घर के फाटक पर लिखा हुआ था-
कामिनीमोहन का बनाया हुआ
अनाथालय
है सहारा जिसे नहीं, उस पर।
कौन आँसू नहीं बहावेगा?
इस घर में जब मैं गया, देवस्वरूप के जी में कितनी दया है, यह बात
मुझको भली-भाँति जान पड़ी। यहाँ सैकड़ों लड़के और लड़कियाँ मुझको दिखलाई
पड़ीं। इन लड़के और लड़कियों के माँ-बाप नहीं थे, और न दूसरा कोई इनको
सहारा देनेवाला था, इसलिए देवस्वरूप और देवहूती ने अपनी दया का हाथ
इनके सर पर रखा था। गाँव में जब हम घुसने लगे थे, हमारे कान में यह
भनक पड़ी थी-जिनके माँ-बाप नहीं उनके माँ और बाप देवहूती और देवस्वरूप
हैं-इस घर में आकर हमने यह बात आँखों देखी। जितने लड़के और लड़कियाँ
यहाँ थीं, सब ऐसे कपड़ों में थीं, और उनका मुखड़ा ऐसा हरा भरा था, जैसा
बड़े सुख में पले लड़कों का भी नहीं देखा जाता। इन लड़कों को यहाँ
लिखना-पढ़ना और दूसरे भाँति-भाँति के काम भी सिखलाये जाते थे, जिससे
सयाने होने पर अपना पेट वे पाल सकें। सबसे बड़ी बात यह थी-ऐसे लड़कों
की खोज के लिए देवस्वरूप ने पचीसों ऐसे लोग रखे थे, जो देश-देश में
घूमकर यही काम किया करते थे। मेरा जी इस घर को देखकर भर आया, और मैं
सोचने लगा-हाय! न जाने कितने लड़के इस भाँति सहारा न पाकर इस धरती से
उठ जाते होंगे, न जाने कितने अपना सबसे अच्छा हिन्दू धर्म छोड़कर
दूसरे धर्मों में चले जाते होंगे, पर हमारे देश में देवस्वरूप ऐसे
कितने लोग हैं। हम सैकड़ों रुपये मिट्टी में मिला देते हैं, पर ऐसे
कामों में एक पैसा भी हमसे नहीं उठाया जाता, क्या इससे भी बढ़कर कोई
बात जी को दुखानेवाली है? इन बातों को सोचते मेरी आँखों में आँसू आने
लगे, मैंने उनको बड़ी कठिनाई से रोका। इसी समय एक तीसरे घर पर दीठ
पड़ी, इस घर के फाटक पर लिखा हुआ था-
कामिनीमोहन की पाठशाला
जिसने कुछ भी नहीं पढ़ा लिक्खा।
खो दिया हाथ का रतन उसने।
मैंने इस घर में जाकर देखा, गाँव के सब जात के लड़के इसमें पढ़ रहे थे,
और देश काल के विचार से यहाँ सभी ढंग की पढ़ाई होती थी, साथ ही इसके
जिसका जो निज का काम था वह काम भी उसको यहाँ सिखलाया जाता था। इस घर
में भी बहुत से खंड थे, एक-एक खंड में एक-एक बातें सिखलायी और पढ़ायी
जाती थीं। ब्राह्मणों को और ऐसे लड़कों को जिनको कोई सहारा न था, यहाँ
खाना कपड़ा भी मिलता था। जिस खंड में ब्राह्मण के लड़कों को वेद पढ़ाया
जाता था, उस खंड में जाने पर न जाने कितनी पुरानी बातें जी में घूमने
लगीं। पण्डितों का सहज भेस, सीधी बोल चाल, और वेदों का सुर से पढ़ा
जाना, बड़े पापी के जी में भी धर्म का बीज बोते थे। हमको यहाँ से हटना
कठिन हो गया, पर किसी भाँति यहाँ से निकले, और ज्यों आगे बढ़े त्यों
एक और लम्बा चौड़ा घर सामने दिखलाई पड़ा। इस घर के फाटक पर लिखा था-
कामिनीमोहन के नाम पर इस
घर में सदाबरत बँटता है।
मत कभी पेटजलों को भूलो।
भूख की पीर बुरी होती है।
गाँव में जो दीनदुखी हट्टे-कट्टे और काम करने योग्य थे, उन को रुपया,
अन्न और गाय बैल देकर देवस्वरूप ने कई एक कामों में लगा रखा था। पर
जो लूले, लँगड़े, अंधे, रोगी और अपाहिज थे, उन सबको यहाँ नित्य कोरा
अन्न मिलता था। दूसरे गाँवों के भी ऐसे लोग जो सदाबर्त बँटने के बेले
यहाँ आते, वे फेरे नहीं जाते थे। उन सबों की आवभगत भी यहाँ वैसी ही
होती थी, जैसी गाँववालों की। हम यहाँ से और आगे बढ़े, कुछ दूर जाकर एक
बहुत ही सुथरा और अच्छा घर दिखलाई पड़ा। इस घर के फाटक पर लिखा था-
कामिनीमोहन का बनाया हुआ
रोगियों के औषधी कराने का घर
हम उन्हें भूला समझते हैं बहुत।
रोगियों पर जो दया करते नहीं।
इस घर में, गाँव ही के नहीं, दूसरे गाँवों के भी बहुत से रोगी औषधी
कराने के लिए आते थे। उन सबकी देखभाल और सम्हाल यहाँ बहुत ही जी
लगाकर की जाती थी। रोगियों के ठहरने और रहने के लिए अलग-अलग बहुत से
अच्छे-अच्छे घर थे-वहाँ उनको सब प्रकार का खाना भी मिलता था। जो यहाँ
ठहरना नहीं चाहते थे, उनको औषधी ही दी जाती थी। जो निरे कंगाल और
भूखे रहते, उनको कपड़े भी मिलते थे। जो यहाँ पका पकाया खाना चाहते,
उनके लिए ब्राह्मण रखे हुए थे-जो कोरा अन्न माँगते थे, उनको कोरा
अन्न ही मिलता था-रोगियों की टहल के लिए कई एक टहलू थे। अब तक यह सब
देखते भालते हम सरजू के तीर से थोड़ा ही आगे बढ़े थे-पर अब यहाँ से और
आगे बढ़कर हम गाँव में घुसे। गाँव में घुसने पर हमको एक घर भी उजड़ा
हुआ न मिला। पहले गाँव में पचासों खंडहर थे, पर आजकल वे सब बस गये
थे। गाँव में जिसको देखो वही सुखी, और वही काम में लगा हुआ दिखलाई
देता। बीच गाँव में पहुँचने पर हमको कामिनीमोहन का घर दिखलाई दिया,
साथ ही बहुत सी बातों की एक साथ सुरत हुई। इस घर के फाटक पर पहले
जैसे आठ पहर पहरा पड़ा करता था, आज भी पड़ता था। पर हम पहरेवालों से कह
सुनकर किसी भाँति फाटक के भीतर गये। इस घर में दो खंड थे, एक पुरुषों
का, दूसरा स्त्रियों का। जो खंड पुरुषों का था उसमें हमको बहुत से
लोग काम करते दिखलाई पड़े-ये सब कामकाजी थे, और जो बहुत से
अच्छे-अच्छे काम देवस्वरूप ने खोले थे, उन सबकी लिखापढ़ी, देखभाल और
उनका लेखा-जोखा इन लोगों के हाथ में था। मैं यहाँ से हटा और दूसरे
खंड पर पहुँचा। यहाँ बड़ा कड़ा पहरा था। इस खंड के फाटक पर लिखा हुआ
था-
अभागिनी फूलकुँवर ने अपना यह प्यारा
घर अपनी राँड़ बहनों को भेंट किया
सोग उसका सहा नहीं जाता।
हाय! जिसका रहा सुहाग नहीं।
हम इस खंड में जाने नहीं पाये, पर पूछने पर हमको सब बातें जान पड़ीं।
इस घर में गाँव की ऐसी राँड़ स्त्रियों काम करती थीं, जो भले घर की
थीं, और जिनका कहीं सहारा नहीं था। उनको यहाँ सिलाई, बेलबूटा काढ़ना,
सूत का काम, और इसी ढंग से बहुत से और काम सिखलाये जाते थे, और उनसे
बहुत थोड़ा काम लेकर, उनके खाने-पीने और कपड़ों का ब्योंत लगाया जाता
था। पास ही लड़कियों की एक छोटी पाठशाला भी थी, इसके फाटक पर लिखा था-
फुलकुँवर की लड़कियों
की पाठशाला
वह लड़का भला न क्यों होगा।
माँ जिसकी पढ़ी लिखी होगी।
हम यहाँ से हटकर कामिनीमोहन की फुलवारी के फाटक पर पहुँचे। अब यह
फुलवारी सबकी सम्पत्ति थी। देवस्वरूप ने इसको सारे गाँव के लोगों को
दे दिया था। इसके फाटक पर लिखा हुआ था-
चौतुका
कौन चुप चाप कह रहा है वह।
क्यों छटा देख हम अटकते हैं।
दो दिनों भी न फूल रहता है।
किन्तु काँटे सदा खटकते हैं।
कामिनीमोहन
इस फाटक को छोड़कर हम आगे बढ़े। अब हमको देवस्वरूप का घर देखना था।
जाते-जाते हमको हरिमोहन पाण्डे का घर मिला, और इसी घर की दाहिनी ओर
देवस्वरूप का घर दिखलाई पड़ा, इस घर को देवस्वरूप ने अपने रुपये से
बनवाया था, और आजकल वह देवहूती के साथ इसी में रहता थे। देवस्वरूप के
पास बाप दादे की इतनी सम्पत थी, जिससे वह अपना दिन भली-भाँति बिता
सकते थे, इसलिए कामिनीमोहन की सम्पत्ति में से वे अपने लिए कभी एक
पैसा नहीं लेते थे, और अपने लिए जो कुछ करते थे, वह अपने बाप-दादे की
सम्पत्ति से ही करते थे। इस घर के द्वार पर एक बहुत बड़ी बैठक थी, इसी
बैठक में देवस्वरूप बैठे हुए थे, हम उसके भीतर गये। नित्य छ बजे दिन
से ग्यारह बजे दिन तक देवस्वरूप अपने खोले सारे कामों की जाँच पड़ताल
और देखभाल करते थे, इसके पीछे वे खाने पीने में लगते थे। अब बारह बजा
ही चाहता था, इसलिए देवस्वरूप भी रोटी खाकर बैठक में आ गये थे। एक
पाँच बरस का लड़का उनसे तोतली बातें कर रहा था, वह भी उसको खेला रहे
थे, इसी बीच बारह बजा, और बैठक में एक कामकाजी आकर एक ओर बैठ गया,
कुछ पीछे उजले कपड़ों में एक भलेमानस दिखलाई पड़े-देवस्वरूप ने उनको
आदर से बैठाला, उनका कुशल छेम पूछा, उनसे मीठी-मीठी बातें कीं,
टहलते-टहलते पास जाकर उनके अनजान में सबकी आँखें बचाते हुए उनके एक
कपड़े के कोने में कुछ बाँध, और फिर अपनी ठौर आकर बैठ गये। ये अभी
बाहर गये थे, इसी बीच किसी की चीठी लिए एक जन और वहाँ आया, और वह
चीठी देवस्वरूप को दी। देवस्वरूप ने उसको खोलकर पढ़ा। उसमें लिखा था-
''तुम बिन नाथ सुने कौन मेरी
आपका
जगमोहन''
देवस्वरूप पढ़ते ही सब समझ गये, और उस पर लिखा ''पाँच फूल आपकी भेंट
किये जाते हैं'' और पाँच रुपये उस जन को देकर वहाँ से चलता किया।
बैठक में बैठे हुए कामकाजी ने चुपचाप लेखे के चिट्ठे पर लिखा-
नन्दकुमार लाल 5)
जगमोहन मिसिर 5)
एक बजे से चार बजे तक मेरे देखते-देखते कितने लोग आये, किसी ने अपनी
लड़की का ब्याह बतलाया, किसी ने आँसू बहाया, किसी ने कोई और ही बहाना
किया, और देवस्वरूप ने भी कुछ-न-कुछ सभी को दिया। ये जितने थे सब ऐसे
थे, जिनका दिन कभी बहुत अच्छा था, पर अब पतला पड़ गया था, फिर भी भरम
किसी भाँति बना था, देवस्वरूप ने उनके इस बने बनाये भरम को बिगाड़ना
अच्छा नहीं समझा, और इसीलिए एक यह ढंग भी उन्होंने निकाल रखा था।
उन्होंने अपने सामने एक चौकठा लटका रखा था, उसमें लिखा हुआ था-
देखिए बिगड़े नहीं उनका भरम।
मरते हैं पर माँग जो सकते नहीं।
इस ढंग की स्त्रियों के लिए, ठीक ऐसा ही ढंग देवहूती का था, और
इसीलिए गाँव में घर-घर इन लोगों की जैजैकार होती थी। जो कुछ पढ़ना
लिखना होता, देवस्वरूप इसी बेले पढ़ते लिखते भी थे, और पढ़ते-पढ़ते जो
कोई काम ऐसा जान पड़ता जिसमें हाथ बँटाना वह अच्छा समझते, तो उसमें भी
वह कुछ-न-कुछ देते थे। आज उन्होंने दो कामों में कुछ दिया, उन्हांने
एक ठौर पढ़ा, बिजनौर में एक मन्दिर गिर रहा है, उस को फिर से ठीक करने
के लिए पाँच सौ रुपये चाहिए-देवस्वरूप ने यहाँ सौ रुपये भेजे। दूसरी
ठौर उन्होंने पढ़ा, बिहार में कुछ लोग अपनी देश भाषा की बढ़ती के लिए
जतन कर रहे हैं, पर रुपये के टोटे से ठीक-ठीक काम नहीं चल
सकता-देवस्वरूप ने यहाँ दौ सौ रुपये भेजे। इसी भाँति वे और और कामों
में भी समय-समय पर कुछ-कुछ भेजा करते।
चार बजे देवस्वरूप अपनी बैठक से अपने दो चार साथियों के संग निकले और
टहलते हुए गाँव के उत्तर और सरजू के तीर पर जा पहुँचे, हम भी साथ थे,
यहाँ एक फुलवारी उन्होंने बनवायी थी, इस फुलवारी के चारों ओर ईंट की
पक्की भीत थी, और भाँति-भाँति के बेल बूटे और फल फूल के पेड़ों से
इसकी निराली छटा थी। फुलवारी के ठीक बीच में एक छोटा-सा पक्का तालाब
था। जिसमें बहुत ही सुथरा जल भरा हुआ था। देवस्वरूप टहलते-टहलते इसी
तालाब के पास आये और वहीं एक सुथरी ठौर देखकर बैठ गये। इस तालाब के
पास एक बहुत ही सुन्दर मन्दिर था, इस मन्दिर के द्वार पर सोने के
अच्छरों में खुदा हुआ एक पत्थर लगा था, जिसमें यह लिखा था-
फूलदेवी का मन्दिर
जो भरी हो भले गुनों ही से।
कौन देवी उसे न समझेगा।
देवी कौन है? वही, जिसमें अच्छे गुण हों, मैं समझता हूँ फूलकुँवर ऐसी
अच्छे गुणवाली स्त्री कोई होगी। उनकी दया और भलमनसाहत की बड़ाई कहाँ
तक करें कामिनीमोहन ऐसे पति पर भी उनका इतना सच्चा प्यार था, जो उनके
मरने के एक महीने के भीतर ही उन्होंने भी यह लोक छोड़ा। कौन ऐसा कलेजा
है जो इन बातों को जान कर भी न कसकेगा! हम लोग उसी फूलदेवी का यह
मन्दिर बनाकर अपने को धन्य समझते हैं, और सच्चे जी से उनका और उनके
पति का उस लोक में भला चाहते हैं।
देवस्वरूप और देवहूती।
पत्थर पढ़कर मुझको मन्दिर देखने की बड़ी चाह हुई। मैं हाथ-पाँव धोकर और
कुछ फूल लेकर मन्दिर के भीतर गया। वहाँ जाकर देवी की मूर्ति देखने के
पीछे मेरी जो गत हुई, मैं उस को किसी भाँति नहीं बतला सकता। बहुत मोल
के एक पत्थर की चौकी पर एक अपसरा ऐसी सुन्दर स्त्री की मूर्ति खड़ी
थी-मुखड़ा हँसता हुआ होने पर भी कुम्हलाया हुआ था-उस पर गहरी उदासी
झलक रही थी। दोनों आँखें आकाश की ओर लगी हुई थीं, जिनसे पलपल कलेजे
को टुकड़े-टुकड़े करती हुई निराशा टपक रही थी। दोनों हाथों में दो कमल
के फूल थे, जो खिलते-खिलते कुम्हला गये थे, और देह पर के एकाध गहने
और कपड़े इस ढंग से बने थे, जिनके देखते ही यह बात अचानक मुँह से
निकलती थी-हा! परमेश्वर! ऐसों की भी यह गत!!! सिर के ऊपर ठीक सामने
आकाश में ऊपर उठते हुए कामिनीमोहन की मूर्ति बनी हुई थी, जिसके चारों
ओर धीरे-धीरे अंधियाली घिर रही थी, पर बीच-बीच में एक जोत फूटती थी,
जो उस अंधियाली को दूर करना चाहती थी। पास ही दाहिनी ओर चौकी के नीचे
देवहूती की मूर्ति बनी हुई थी, जो अपने हाथ की अंजुली से उसके पाँवों
पर फूल डाल रही थी।
मैंने भी सर झुकाकर हाथ के फूलों को फूलदेवी के पाँवों पर डाला, पीछे
कलेजा पकड़े हुए मन्दिर के बाहर आया। यहाँ देवस्वरूप की बुरी गत थी,
वे फूलकुँवर और कामिनीमोहन की चर्चा अपने साथियों से कर रहे थे, और
बेढब दुखी थे। पीछे वह सरजू पर आये, सूरज को डूबता देखकर कुछ पूजा
की, फिर घर की ओर चल पड़े। घर आकर वह नौ बजे तक आये हुए लोगों से
मिलते-जुलते रहे, जब नौ बज गया, वे घर के पास के मन्दिर में गये।
यहाँ एक घण्टे तक उन्होंने एक पण्डित से रामायण की कथा सुनी, पीछे
मन्दिर की आरती हो जाने पर घर आये। अब दस बज गये थे, इसलिए खा पीकर
वे सोने गये। हम भी यहीं तक उनके साथ थे। उनके सोने के घर में जाते
ही हम उनसे अलग हुए।
देवस्वरूप बहुत दिन तक इस धरती पर रहे, उनके हाथों देश का, देश के
लोगों का बहुत कुछ भला हुआ। देवहूती भी उन की छाया थी, जितने भले काम
देवस्वरूप ने किये उन सबमें उस का हाथ था।
अब इस धरती पर न देवस्वरूप हैं, न देवहूती! पर यश उन का अब तक है।
नरक स्वर्ग कोई मानता है, कोई नहीं मानता पर यश अपयश सभी मानते हैं।
नित्य लाखों लोग इस धरती पर जनमते मरते हैं, पर देवस्वरूप की भाँत यश
बटोरनेवाले कितने माई के लाल हैं?
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