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हरिऔध समग्र खंड-5

ललित लेख
पगली का पत्र

अयोध्या सिंह उपाध्याय
'हरिऔध'
 

पगली का पत्र

 


अयोध्या सिंह उपाध्याय 'हरिऔध'

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उपन्यास
ठेठ हिंदी का ठाट
अधखिला फूल

कविताएँ
प्रियप्रवास
पारिजात
फूल और काँटा
एक बूँद
कर्मवीर
आँख का आँसू

नाटक
रुक्मिणी परिणय
श्रीप्रद्धुम्नविजय व्यायोग

आत्मकथात्मक शैली का गद्य
इतिवृत्त

ललित लेख
पगली का पत्र
चार
भगवान भूतनाथ और भारत
धाराधीश की दान-धारा

 

जन्म

:

15 अप्रैल 1865 (निजामाबाद, आजमगढ़, उत्तर प्रदेश)

भाषा : हिंदी
विधाएँ : कविता, उपन्यास, नाटक, आलोचना, आत्मकथा

कृतियाँ

:

कविता : प्रियप्रवास, वैदेही वनवास, काव्योपवन, रसकलश, बोलचाल, चोखे चौपदे, चुभते चौपदे, पारिजात, कल्पलता, मर्मस्पर्श, पवित्र पर्व, दिव्य दोहावली, हरिऔध सतसई।
उपन्यास : ठेठ हिंदी का ठाट, अधखिला फूल
नाटक : रुक्मिणी परिणय
ललित निबंध : संदर्भ सर्वस्व
आत्मकथात्मक : इतिवृत्त
आलोचना : हिंदी भाषा और साहित्य का विकास, विभूतिमती ब्रजभाषा

संपादन : कबीर वचनावली

पुरस्कार/सम्मान

:

हिंदी साहित्य सम्मेलन के सभापति (1922), हिंदी साहित्य सम्मेलन के चौबीसवें अधिवेशन (दिल्ली, 1934) के सभापति, 12 सितंबर 1937 ई. को नागरी प्रचारिणी सभा, आरा की ओर से राजेंद्र प्रसाद द्वारा अभिनंदन ग्रंथ भेंट (12 सितंबर 1937), 'प्रियप्रवास' पर मंगला प्रसाद पुरस्कार (1938)

निधन

:

: होली, 1947 ई.


पगली का पत्र

सुना है कि तुम मुझे पगली कहते हो। हाँ, मैं पगली हूँ। तुम्हारे सुन्दर मुखड़े की पगली हूँ, तुम्हारे घुँघराले अलकों की पगली हूँ, तुम्हारी साँवली सूरत की पगली हूँ, तुम्हारी जादू-भरी ऑंखों की पगली हूँ, तुम्हारी सुधा-भरी मुस्कान की पगली हूँ, तुम्हारी उस मुरलिया की पगली हूँ, जो संसार को पागल बना देती है; और पगली हूँ उस पत्थर की मूर्ति की, जो वास्तव में अनिर्वचनीय है; आज दिन जो हमारा जीवन-सर्वस्व है, जो पत्थर होकर भी मुझपर पसीजती है, जो अकरुण होकर भी मुझपर उस करुणरस की वृष्टि करती है, जिसका स्वाद वही जान सकता है जिसने उस रस को चखाहै।

तुम कहोगे कि छि:, इतनी स्वार्थ-परायणता! पर प्यारे, यह स्वार्थ-परायणता नहीं है, यह सच्चे हृदय का उद्गार है, फफोलों से भरे हृदय का आश्वासन है, व्यथित हृदय की शान्ति है, आकुलता भरे प्राणों का आह्वान है, संसार-वंचिता की करुण कथा है, मरुभूमि की मन्दाकिनी है, और है सर्वस्व त्यक्ता की चिर-तृप्ति। मैं उन पागलों की बात नहीं कहना चाहती, जो बडे-बड़े विवाद करेंगे, तर्कों की झड़ी लगा देंगे, ग्रन्थ-पर-ग्रन्थ लिख जावेंगे; किन्तु तत्तव की बात आने पर कहेंगे, तुम बतलाए ही नहीं जा सकते, तुम्हारे विषय में कुछ कहा ही नहीं जा सकता। मैं तो प्यारे! तुमको सब जगह पाती हूँ, तुमसे हँसती-बोलती हूँ; तुमसे अपना दुखड़ा कहती हूँ; तुम रीझते हो तो रिझाती हूँ, रूठते हो तो मनाती हूँ। आज तुम्हें पत्र लिखने बैठी हूँ। तुम कहोगे, यह पागलपन ही हद है। तो क्या हुआ, पागलपन ही सही, पागल तो मैं हुई हूँ, अपना जी कैसे हल्का करूँ, कोई बहाना चाहिए-

भरे हैं उसमें जितने भाव!

मलिन हैं या वे हैं अभिराम!

फूल सम हैं या कुलिश समान!

बताऊँ क्या मैं तुमको श्याम!

हृदय मेरा है तेरा धाम!!

एक दिन सखियों ने जाकर कहा-''आज राणा महलों में आयेंगे।'' बहुत दिन बाद यह सुधा कानों में पड़ी, मैं उछल पड़ी, फूली न समायी। महल में पहुँची, फूलों से सेज सजायी, तरह-तरह के सामान किये। कहीं गुलाब छिड़का, कहीं फूलों के गुच्छे लटकाये, कहीं पाँवड़े डाले, कहीं पानदान रखा, कहीं इत्रदान। सखियों ने कहा-''यह क्या करती हो, हम सब किसलिए हैं?'' मैंने कहा-''तुम सब हमारे लिए हो, राणा के लिए नहीं। राणा के लिए मैं हूँ, ऐसा भाग्य कहाँ कि मैं उनकी कुछ टहल कर सकूँ। एक दिन राणा के पाँव में कंकड़ी गड़ गयी। उस दिन जी में हुआ था कि मैंने अपना कलेजा वहाँ क्यों नहीं बिछा दिया। आज मैं ऐसा अवसर न आने दूँगी।''

धीरे-धीरे समय बीतने लगा, बहुत देर हो गयी, राणा न आये। मैं घबरायी, उठ-उठकर राह देखने लगी। जब बहुत उकतायी, वीणा लेकर बजाने लगी; फिर गाया-

गये तुम मुझको कैसे भूल!

किसलिए लूँ न कलेजा थाम ?

न बिछुड़ो तुम जीवन-सर्वस्व!

चाहिए मुझे नहीं धन-धाम!

तुम्हीं हो मेरे लोक-ललाम!!

गाना समाप्त होते ही राणा आये। मेरा राम आया, जो मेरे रोम-रोम में समाया है, वह आया! उनको देख, मैं अपने को भूल गयी। उस समय मैंने क्या किया, क्या नहीं, कुछ याद नहीं। वे बोले-'मीरा!' मैंने कहा-'नाथ!' उन्होंने कहा-''आजकल तुमको क्या हो गया है?'' मैंने कहा-''क्या हो गया है?'' उन्होंने कहा-''तुम पगली हो गयी, लोक-लाज धो बहायी हो; कभी गाती हो, कभी नाचती हो, कभी साधुओं के संग फिरती हो; कभी ऐसा काम करती हो जो राज-मर्यादा के अनुकूल नहीं। मीरा! सँभलो, हमारा मुँह देखो।'' उस समय मैं उन्हीं का मुँह देख रही थी। सोच रही थी-यही तो मेरे गिरिधर गोपाल हैं, यही तो मेरे वंशीवाले हैं। उनके कंठ में मुरली-सी माधुरी पाकर मुझको उन्माद हो रहा था; उनके स्वरूप में प्यारे मुरली मनोहर का सौन्दर्य देखकर मैं आनन्द-समुद्र में निमग्न हो रही थी। उनकी बात समाप्त होते ही मैंने कहा-''मैं आपका ही मुँह तो देख रही हूँ। क्या आपका गुणानुवाद गाने का मेरा अधिकार नहीं? आपका गुण गाते-गाते जब मेरा मन नाच उठता है तब मैं नाचने लगती हूँ, इसमें मेरा अपराध? लोक-लाज किसे कहते हैं, मैं नहीं जानती। जो कार्य आपके प्रेम में बाधा डाले, उससे मैं नाता नहीं रखना चाहती। साधु-सन्त आपके ही रूप तो हैं, उनमें भी तो आप बसते हैं, उनकी सेवा-शुश्रूषा करना, आप ही को तो रिझाना है; फिर मैं आपको क्यों न रिझाऊँ? मेरे राजा-महाराजा आप ही तो हैं-आप की मर्यादा करना ही तो राज-मर्यादा है। मैं जो कुछ कर रही हूँ, आपकी मर्यादा का महत्व समझकर ही कर रही हूँ; फिर वह अनुकूल क्यों नहीं?'' यह कहते-कहते मैं प्रियतम के मुख-चन्द्र की चकोरी बन गयी, उनके ध्यान में मग्न हो गयी। जब ऑंखें खुलीं तो उस समय महल में राणा नहीं थे। हृत्तंत्री में यह ध्वनि हुई-

रँग सका मुझे एक ही रंग!

दूसरों से क्या मुझको काम ?

भली या बुरी मुझे लो मान!

भले ही लोग करें बदनाम!

रमा है रोम-रोम में राम!!

कुछ दिन बीत गये। एक दिन कुछ सखियाँ आयीं। उनका मुख सूखा हुआ था। ऑंखों में जल था, बात मुँह से सीधे निकलती न थी, उनके कलेजे पर पत्थर रखा हुआ था। उनके हाथ में एक सोने का कटोरा था, उसमें कुछ था। मैंने पूछा, क्या है? वे बोल न सकीं, उनकी घिग्घी बँध गयी, शरीर काँपने लगा। मैंने कहा-''डर की बात क्या है, लाओ, कटोरा मुझको दो। क्या इसे राणा ने भेजा है?'' एक ने कहा-''हाँ!'' मैंने कहा-''इसमें सुधा है, मेरे लिए मेरे मनोहर ने जो भेजा है, वह दूसरी वस्तु हो नहीं सकती। यदि दूसरी वस्तु होगी, तो भी वह जीवन-धन के कर-कमलों का स्पर्श करके संजीवनी बन गयी होगी।'' मैंने उसको उनके हाथों से लेकर पान किया। उसमें अलौकिक स्वाद था। सुधा मैंने आज तक पी नहीं थी, उसकी माधुरी का वर्णन सुना था। उसे पीकर मुझे ज्ञान हुआ कि सुधा कैसी अलौकिक वस्तु है। मैं उसे जितना ही पीती थी, मेरा हृदय उतना ही उत्फुल्ल हो रहा था। मैं सब पी गयी फिर भी चाह बनी रह गयी कि और होती तो पीती। इस सुधा-पान के बाद ज्ञात हुआ कि वह मद कौन-सा है जिसको पान कर आत्मा कुछ और से और हो जाती है। जिस दिन मैंने उसे पान किया, उसी दिन से तुम मेरी ऑंखों में और अधिक समा गये, यह मिट्टी का संसार सोने का बन गया और मेरा जीवन सार्थक हो गया।उसी दिन से मैं वास्तव में पगली हुई और प्राय: मेरे कंठ से यह गान होता रहता है-

गरल होवेगा सुधा-समान!

सुशीतल प्रबल अनल की दाह!

बनेगी सुमन सजायी सेज!

विपुल-कण्टक-परिपूरित रात!

हृदय में उमड़े प्रेम-प्रवाह!

संसार बुरी जगह है, बहुत कुछ निर्लेप रहने पर भी उसके पचड़े कुछ सता ही देते हैं। एक दिन कुछ कारणों से मैं खिन्न हो गयी, बड़ी आत्म-ग्लानि हुई, भाव-परिवर्तन के लिए गृहोद्यान में आयी। सन्ध्या समय था, हरे-भरे वृक्ष लहरा रहे थे, फूल फूले हुए थे, चिड़ियाँ गा रही थीं, तितलियाँ नाच रही थीं और भौंरे गूँज रहे थे। वायु मन्द-मन्द चलकर तरुदलों से खेल रहा था, कुसुमों को चूम रहा था, तितलियों को प्यार कर रहा था और लताओं को गोद में लेकर खेल रहा था। वृक्षों का हरा-भरा और आनन्दित भाव देखकर मुझको बड़ा हर्ष हुआ। वे पृथ्वी में गड़े हुए थे, फिर भी प्रसन्न-वदन थे। जो दल चाहता उसे दल देते, जो फल चाहता उसे फल देते, जो उनकी छाया में जा बैठता उसे आराम देते। नाना पक्षी उनकी गोद में बैठे हुए चहक रहे थे। वे उनको सहारा दे रहे थे, उनके खेतों की रक्षा कर रहे थे। कोई ढेला मार जाता, तो भी उससे कुछ न बोलते। सम्भव होता तो एकाध सुन्दर फल उसको भी दे देते। मैंने जी ही जी में कहा-धन्य है इसका जीवन! क्या मनुष्य में इतनी सहिष्णुता और उदारता भी नहीं! फूलों की ओर दृष्टि गयी तो देखा, वे काँटों में रहकर भी विकसित थे। जो रस की कामना करके उनके पास जाता, वे उसी को थोड़ा-बहुत रस दे देते; फिर भी निष्काम रहते। हवा पास होकर निकलती तो उसको सुरभित कर देते। सब ओर इस प्रकार आनन्द का प्रवाह और औदार्य का विकास देखकर मैं कुछ और से और हो गयी; मन-ही-मन कुछ लज्जित भी हुई। इतने में चंद्रदेव निकले, धीरे-धीरे ऊपर आये। उनकी चाँदनी से रात्रि का मुख उज्ज्वल हो गया, वसुधा धुल गयी और उस पर बड़ी सुन्दर सफेद चादर बिछ गयी। चन्द्रदेव हँस रहे थे और सब ओर सुधा की वर्षा कर रहे थे। उनके इस औदार्य की सीमा नहीं थी। सब ओर निराली ज्योति जग रही थी। सब उनके सुधा वर्षण से तृप्त थे। चन्द्रदेव सबको एक ऑंख से देख रहे थे। उनके लिए फूल-काँटे, जल-स्थल, तृण-तरु, पशु-पक्षी, कीट-पतंग समान थे। वे तुम्हारे ही अंग तो हैं, तुम्हारी ही एक ऑंख तो हैं, दो ऑंख से किसी को कैसे देखते? मैं देर तक इन दृश्यों को देखती रही। जितना ही उनको देखती, जितना ही उनके विषय में विचार करती, उतना ही विमुग्ध होती, उतना ही अपने को भूलती, उतनी ही पगली बनती। जिधर मैं ऑंखें उठाती हूँ, उधर ही नाना विभूतियों के रूप में तुमको देखकर मुख से यही निकलता है-''इन ऑंखिन प्यारे, तिहारे बिना जग दूसरो कोऊ दिखातो नहीं।'' मैं पगली कही गयी हूँ तो पगली ही रहूँगी और यही कहती फिरूँगी-

बताता है खग-वृन्द-कलोल!

सरस-तरु-पुंज प्रसून-मरन्द!

वायु-संचार प्रफुल्ल-मयंक!

हमारा ब्रज-जीवन-नभ-चन्द!

सत्य है , चित् है , है आनन्द!!

तुम्हारी ,

पगली मीरा

( संदर्भ-सर्वस्व)



 
 
 

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