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हरिऔध समग्र खंड-2

प्रियप्रवास
कविता
अयोध्या सिंह उपाध्याय
'हरिऔध'
 

प्रथम सर्ग

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द्रुतविलम्बित छन्द

दिवस का अवसान समीप था।
गगन था कुछ लोहित हो चला।
तरु-शिखा पर थी अब राजती।
कमलिनी-कुल-वल्लभ की प्रभा॥1॥
विपिन बीच विहंगम-वृन्द का।
कलनिनाद विवर्ध्दित था हुआ।
ध्वनिमयी-विविधा विहगावली।
उड़ रही नभ-मण्डल मध्य थी॥2॥
अधिक और हुई नभ-लालिमा।
दश-दिशा अनुरंजित हो गई।
सकल-पादप-पुंज हरीतिमा।
अरुणिमा विनिमज्जित सी हुई॥3॥
झलकने पुलिनों पर भी लगी।
गगन के तल की यह लालिमा।
सरि सरोवर के जल में पड़ी।
अरुणता अति ही रमणीय थी॥4॥
अचल के शिखरों पर जा चढ़ी।
किरण पादप-शीश-विहारिणी।
तरणि-बिम्ब तिरोहित हो चला।
गगन-मण्डल मध्य शनै: शनै:॥5॥
ध्वनि-मयी कर के गिरि-कन्दरा।
कलित-कानन केलि निकुंज को।
बज उठी मुरली इस काल ही।
तरणिजा-तट-राजित-कुंज में॥6॥
क्वणित मंजु-विषाण हुए कई।
रणित शृंग हुए बहु साथ ही।
फिर समाहित-प्रान्तर-भाग में।
सुन पड़ा स्वर धावित-धेनू का॥7॥
निमिष में वन-व्यापित-वीथिका।
विविध-धेनू-विभूषित हो गई।
धवल-धूसर-वत्स-समूह भी।
विलसता जिनके दल साथ था॥8॥
जब हुए समवेत शनै: शनै:।
सकल गोप सधेनू समण्डली।
तब चले ब्रज-भूषण को लिये।
अति अलंकृत-गोकुल-ग्राम को॥9॥
गगन मण्डल में रज छा गई।
दस-दिशा बहु-शब्दमयी हुई।
विशद-गोकुल के प्रति-गेह में।
बह चला वर-स्रोत विनोद का॥10॥
सकल वासर आकुल से रहे।
अखिल-मानव गोकुल-ग्राम के।
अब दिनान्त विलोकत ही बढ़ी।
ब्रज-विभूषण- दर्शन-लालसा॥11॥
सुन पड़ा स्वर ज्यों कल-वेणु का।
सकल-ग्राम समुत्सुक हो उठा।
हृदय-यंत्र निनादित हो गया।
तुरत ही अनियंत्रित भाव से॥12॥
बहु युवा युवती गृह-बालिका।
विपुल-बालक वृध्द वयस्क भी।
विवश से निकले निज गेह से।
स्वदृग का दुख-मोचन के लिए॥13॥
इधर गोकुल से जनता कढ़ी।
उमगती पगती अति मोद में।
उधर आ पहुँची बलबीर की।
विपुल-धेनू-विमंडित मण्डली॥14॥
ककुभ-शोभित गोरज बीच से।
निकलते ब्रज-वल्लभ यों लसे।
कदन ज्यों करके दिशि कालिमा।
विलसता नभ में नलिनीश है॥15॥
अतसि-पुष्प अलंकृतकारिणी।
शरद नील-सरोरुह रंजिनी।
नवल-सुन्दर-श्याम-शरीर की।
सजल-नीरद सी कल-कान्ति थी॥16॥
अति-समुत्तम अंग समूह था।
मुकुर-मंजुल औ मनभावना।
सतत थी जिसमें सुकुमारता।
सरसता प्रतिबिम्बित हो रही॥17॥
बिलसता कटि में पट पीत था।
रुचिर-वस्त्र-विभूषित गात था।
लस रही उर में बनमाल थी।
कल-दुकूल-अलंकृत स्कंध था॥18॥
मकर-केतन के कल-केतु से।
लसित थे वर-कुण्डल कान में।
घिर रही जिनकी सब ओर थी।
विविध-भावमयी अलकावली॥19॥
मुकुट मस्तक का शिखि-पक्ष का।
मधुरिमामय था बहु मंजु था।
असित रत्न समान सुरंजिता।
सतत थी जिसकी वर-चन्द्रिका॥20॥
विशद उज्ज्वल-उन्नत भाल में।
विलसती कल केसर-खौर थी।
असित-पंकज के दल में यथा।
रज-सुरंजित पीत-सरोज की॥21॥
‘मधुरता-मय था मृदु-बोलना।
अमृत-सिंचित-सी मुसकान थी।
समद थी जन-मानस मोहती।
कमल-लोचन की कमनीयता॥22॥
सबल-जानु विलम्बित बाहु थी।
अति-सुपुष्ट-समुन्नत वक्ष था।
वय-किशोर-कला लसितांग था।
मुख प्रफुल्लित पद्म-समान था॥23॥
सरस-राग-समूह सहेलिका।
सहचरी मन मोहन-मंत्र की।
रसिकता-जननी कल-नादिनी।
मुरलि थी कर में मधुवर्षिणी॥24॥
छलकती मुख की छवि-पुंजता।
छिटकती क्षिति छू तन की छटा।
बगरती बर दीप्ति दिगन्त में।
क्षितिज में क्षणदा-कर कान्ति सी॥25॥
मुदित गोकुल की जन-मण्डली।
जब ब्रजाधिप सम्मुख जा पड़ी।
निरखने मुख की छवि यों लगी।
तृषित-चातक ज्यों घन की घटा॥26॥
पलक लोचन की पड़ती न थी।
हिल नहीं सकता तन-लोम था।
छवि-रता-बनिता सब यों बनीं।
उपल निर्मित पुत्तलिका यथा॥27॥
उछलते शिशु थे अति हर्ष से।
युवक थे रस की निधि लूटते।
जरठ को फल लोचन का मिला।
निरख के सुषमा सुखमूल की॥28॥
बहु-विनोदित थीं ब्रज-बालिका।
तरुणियाँ सब थीं तृण तोड़ती।
बलि गईं बहु बार वयोवती।
छवि विभूति विलोक ब्रजेन्दु की॥29॥
मुरलिका कर-पंकज में लसी।
जब अचानक थी बजती कभी।
तब सुधारस मंजु-प्रवाह में।
जन-समागम था अवगाहता॥30॥
ढिग सुशोभित श्रीबलराम थे।
निकट गोप-कुमार-समूह था।
विविध गातवती गरिमामयी।
सुरभि थीं सब ओर विराजती॥31॥
बज रहे बहु-शृंग-विषाण थे।
क्वणित हो उठता वर-वेणु था।
सरस-राग-समूह अलाप से।
रसवती-बन थी मुदिता-दिशा॥32॥
विविध-भाव-विमुग्ध बनी हुई।
मुदित थी बहु दर्शक-मण्डली।
अति मनोहर थी बनती कभी।
बज किसी कटि की कलकिंकिणी॥33॥
इधर था इस भाँति समा बँधा।
उधर व्योम हुआ कुछ और ही।
अब न था उसमें रवि राजता।
किरण भी न सुशोभित थी कहीं॥34॥
अरुणिमा-जगती-तल-रंजिनी।
वहन थी करती अब कालिमा।
मलिन थी नव-राग-मयी-दिशा।
अवनि थी तमसावृत हो रही॥35॥
तिमिर की यह भूतल-व्यापिनी।
तरल-धार विकाश विरोधिनी।
जन-समूह-विलोचन के लिए।
बन गई प्रति-मूर्ति विराम की॥36॥
द्युतिमती उतनी अब थी नहीं।
नयन की अति दिव्य कनीनिका।
अब नहीं वह थी अवलोकती।
मधुमयी छवि श्रीघनश्याम की॥37॥
यह अभावुकता तम-पुंज की।
सह सकी न नभस्तल तारका।
वह विकाश-विवर्ध्दन के लिए।
निकलने नभ-मण्डल में लगी॥38॥
तदपि दर्शक-लोचन-लालसा।
फलवती न हुई तिलमात्र भी।
यह विलोक विलोचन दीनता।
सकुचने सरसीरुह भी लगे॥39॥
खग-समूह न था अब बोलता।
विटप थे बहु नीरव हो गये।
‘मधुर मंजुल मत्त अलाप के।
अब न यंत्र बने तरु-वृन्द थे॥40॥
विहग औ विटपी-कुल मौनता।
प्रकट थी करती इस मर्म्म को।
श्रवण को वह नीरव थे बने।
करुण अंतिम-वादन वेणु का॥41॥
विहग-नीरवता-उपरांत ही।
रुक गया स्वर शृंग विषाण का
कल-अलाप समापित हो गया।
पर रही बजती वर-वंशिका॥42॥
विविध-मर्म्मभरी करुणामयी।
ध्वनि वियोग-विराग-विबोधिनी।
कुछ घड़ी रह व्याप्त दिगन्त में।
फिर समीरण में वह भी मिली॥43॥
ब्रज-धार-जन जीवन-यंत्रिका।
विटप - वेलि - विनोदित - कारिणी।
मुरलिका जन-मानस-मोहिनी।
अहह नीरवता निहिता हुई॥44॥
प्रथम ही तम की करतूत से।
छवि न लोचन थे अवलोकते।
अब निनाद रुके कल-वेणु का।
श्रवण पान न था करता सुधा॥45॥
इसलिए रसना-जन-वृन्द की।
सरस-भाव समुत्सुकता पगी।
ग्रथन गौरव से करने लगी।
ब्रज-विभूषण की गुण-मालिका॥46॥
जब दशा यह थी जन-यूथ की।
जलज-लोचन थे तब जा रहे।
सहित गोगण गोप-समूह के।
अवनि-गौरव-गोकुल ग्राम में॥47॥
कुछ घड़ी यह कान्त क्रिया हुई।
फिर हुआ इसका अवसान भी।
प्रथम थी बहु धूम मची जहाँ।
अब वहाँ बढ़ता सुनसान था॥48॥
कर विदूरित लोचन लालसा।
स्वर प्रसूत सुधा श्रुति को पिला।
गुण-मयी रसनेन्द्रिय को बना।
गृह गये अब दर्शक-वृन्द भी॥49॥
प्रथम थी स्वर की लहरी जहाँ।
पवन में अधिकाधिक गूँजती।
कल अलाप सुप्लावित था जहाँ।
अब वहाँ पर नीरवता हुई॥50॥
विशद-चित्रपटी ब्रजभूमि की।
रहित आज हुई वर चित्र से।
छवि यहाँ पर अंकित जो हुई।
अहह लोप हुई सब-काल को॥51॥
 
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