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हरिऔध समग्र खंड-2

प्रियप्रवास
कविता
अयोध्या सिंह उपाध्याय
'हरिऔध'
 

सप्तदश सर्ग

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 मन्दाक्रान्ता छन्द

ऊधो लौटे नगर मथुरा में कई मास बीते।

आये थे वे ब्रज-अवनि में दो दिनों के लिए ही।

आया कोई न फिर ब्रज में औ न गोपाल आये।

धीरे-धीरे निशि-दिन लगे बीतने व्यग्रता से॥1॥

बीते थोड़ा दिवस ब्रज में एक संवाद आया।

कन्याओं से निधन सुन के कंस का कृष्ण द्वारा।

नाना ग्रामों पुर नगर को फूँकता भू-कँपाता।

सारी सेना सहित मथुरा है जरासन्ध आता॥2॥

ए बातें ज्यों ब्रज-अवनि में हो गई व्यापमाना।

सारे प्राणी अति व्यथित हो, हो गये शोक-मग्न।

क्या होवेगा परम-प्रिय की आपदा क्यों टलेगी।

ऐसी होने प्रति-पल लगीं तर्कनायें उरों में॥3॥

जो होती थी गगन-तल में उत्थिता धूलि यों ही।

तो आशंका विवश बनते लोग थे बावले से।

जो टापें हो ध्वनित उठतीं घोटकों की कहीं भी।

तो होता है हृदय शतधा गोप-गोपांगना का॥4॥

धीरे-धीरे दुख-दिवस ए त्रास के साथ बीते।

लोगों द्वारा यह शुभ समाचार आया गृहों में।

सारी सेना निहत अरि की हो गई श्याम-हाथों।

प्राणों को ले मगध-पति हो भूरि उद्विग्न भागा॥5॥

बारी-बारी ब्रज-अवनि को कम्पमाना बना के।

बातें धावा-मगध-पति की सत्तरा-बार फैलीं।

आया संवाद ब्रज-महि में बार अट्ठार हीं जो।

टूटी आशा अखिल उससे नन्द-गोपादिकों की॥6॥

हा! हाथों से पकड़ अबकी बार ऊबा-कलेजा।

रोते-धोते यह दुखमयी बात जानी सबों ने।

उत्पातों से मगध-नृप के श्याम ने व्यग्र हो के।

त्यागा प्यारा-नगर मथुरा जा बसे द्वारिका में॥7॥

ज्यों होता है शरद त्रातु के बीतने से हताश।

स्वाती-सेवी अतिशय तृष्णावान प्रेमी पपीहा।

वैसे ही श्री कुँवर-वर के द्वारिका में पधारे।

छाई सारी ब्रज-अवनि में सर्वदेशी निराशा॥8॥

प्राणी आशा-कमल-पग को है नहीं त्याग पाता।

सो वीची सी लसित रहती जीवनांभोधि में है।

व्यापी भू के उर-तिमिर सी है जहाँ पै निराशा।

हैं आशा की मलिन किरणें ज्योति देती वहाँ भी॥9॥

आशा त्यागी न ब्रज-महि ने हो निराशामयी भी।

लाखों ऑंखें पथ कुँवर का आज भी देखती थीं।

मातायें थीं समधिक हुईं शोक दु:खादिकों की।

लोहू आता विकल-दृग में वारि के स्थान में था॥10॥

कोई प्राणी कब तक भला खिन्न होता रहेगा।

ढालेगा अश्रु कब तक क्यों थाम टूटा-कलेजा।

जी को मारे नखत गिन के ऊब के दग्ध होके।

कोई होगा बिरत कब लौं विश्व-व्यापी-सुखों से॥11॥

न्यारी-आभा निलय-किरणें सूर्य की औ शशी की।

ताराओं से खचित नभ की नीलिमा मेघ-माला।

पेड़ों की औ ललित-लतिका-वेलियों की छटायें।

कान्ता-क्रीड़ा सरित सर औ निर्झरों के जलों की॥12॥

मीठी-तानें 'मधुर-लहरें गान-वाद्यादिकों की।

प्यारी बोली विहग-कुल की बालकों की कलायें।

सारी-शोभा रुचिर-ऋतु की पर्व की उत्सवों की।

वैचित्रयों से बलित धारती विश्व की सम्पदायें॥13॥

संतप्तों का, प्रबल-दुख से दग्ध का, दृष्टि आना।

जो ऑंखों में कुटिल-जग का चित्र सा खींचते हैं।

आख्यानों से सहित सुखदा-सान्त्वना सज्जनों की।

संतानों की सहज ममता पेट-धंधे सहस्रों॥14॥

हैं प्राणी के हृदय-तल को फेरते मोह लेते।

धीरे-धीरे प्रबल-दुख का वेग भी हैं घटाते।

नाना भावों सहित अपनी व्यापिनी मुग्धता से।

वे हैं प्राय: व्यथित-उर की वेदनायें हटाते॥15॥

गोपी-गोपों जनक-जननी बालिका-बालकों के।

चित्तोन्मादी प्रबल-दुख का वेग भी काल पा के।

धीरे-धीरे बहुत बदला हो गया न्यून प्राय:।

तो भी व्यापी हृदय-तल में श्यामली मूर्ति ही थी॥16॥

वे गाते तो 'मधुर-स्वर से श्याम की कीर्ति गाते।

प्राय: चर्चा समय चलती बात थी श्याम ही की।

मानी जाती सुतिथि वह थीं पर्व औ उत्सवों की।

थीं लीलायें ललित जिनमें राधिका-कान्त ने की॥17॥

खो देने में विरह-जनिता वेदना किल्विषों के।

ला देने में व्यथित-उर में शान्ति भावानुकूल।

आशा दग्ध जनक-जननी चित्त के बोधने में।

की थी चेष्टा अधिक परमा-प्रेमिका राधिका ने॥18॥

चिन्ता-ग्रस्ता विरह-विधुरा भावना में निमग्ना।

जो थीं कौमार-व्रत-निरता बालिकायें अनेकों।

वे होती थीं बहु-उपकृता-नित्य श्री राधिका से।

घंटों आ के पग-कमल के पास वे बैठती थीं॥19॥

जो छा जाती गगन-तल के अंक में मेघ-माला।

जो केकी हो नटित करता केकिनी साथ क्रीड़ा।

प्राय: उत्कण्ठ बन रटता पी कहाँ जो पपीहा।

तो उन्मत्त-सदृश बन के बालिकायें अनेकों॥20॥

ये बातें थीं स-जल घन को खिन्न हो हो सुनाती।

क्यों तू हो के परम-प्रिय सा वेदना है बढ़ाता।

तेरी संज्ञा सलिल-धार है और पर्जन्य भी है।

ठंढा मेरे हृदय-तल को क्यों नहीं तू बनाता॥21॥

तू केकी को स्व-छवि दिखला है महा मोद देता।

वैसा ही क्यों मुदित तुझसे है पपीहा न होता।

क्यों है मेरा हृदय दुखता श्यामता देख तेरी।

क्यों ए तेरी त्रिविध मुझको मुर्तियाँ दीखती हैं॥22॥

ऐसी ठौरों पहुँच बहुधा राधिका कौशलों से।

ए बातें थीं पुलक कहतीं उन्मना-बालिका से।

देखो प्यारी भगिनि भव को प्यार की दृष्टियों से।

जो थोड़ी भी हृदय-तल में शान्ति की कामना है॥23॥

ला देता है जलद दृग में श्याम की मंजु-शोभा।

पक्षाभा से मुकुट-सुषमा है कलापी दिखाता।

पी का सच्चा प्रणय उर में ऑंकता है पपीहा।

ए बातें हैं सुखद इनमें भाव क्या है व्यथा का॥24॥

होती राका विमल-विधु से बालिका जो विपन्ना।

तो श्री राधा 'मधुर-स्वर से यों उसे थीं सुनाती।

तेरा होना विकल सुभगे बुध्दिमत्ता नहीं है।

क्या प्यारे की वदन-छवि तू इन्दु में है न पाती॥25॥

मालिनी छन्द

जब कुसुमित होतीं वेलियाँ औ लतायें।

जब ऋतुपति आता आम की मंजरी ले।

जब रसमय होती मेदिनी हो मनोज्ञा।

जब मनसिज लाता मत्त मानसों में॥26॥

जब मलय-प्रसूता-वायु आती सु-सिक्ता।

जब तरु कलिका औ कोंपलों से लुभाता।

जब मधुकर-माला गूँजती कुंज में थी।

जब पुलकित हो हो कूकतीं कोकिलायें॥27॥

तब ब्रज बनता था मूर्ति उद्विग्नता की।

प्रति-जन उर में थी वेदना वृध्दि पाती।

गृह, पथ, वन, कुंजों मध्य थीं दृष्टि आती।

बहु-विकल उनींदी, ऊबती, बालिकायें॥28॥

इन विविध व्यथाओं मध्य डूबे दिनों में।

अति-सरल-स्वभावा सुन्दरी एक बाला।

निशि-दिन फिरती थी प्यार से सिक्त हो के।

गृह, पथ, बहु-बागों, कुंज-पुंजों, वनों में॥29॥

वह सहृदयता से ले किसी मूर्छिता को।

निज अति उपयोगी अंक में यत्न-द्वारा।

मुख पर उसके थी डालती वारि-छींटे।

वर-व्यजन डुलाती थी कभी तन्मयी हो॥30॥

कुवलय-दल बीछे पुष्प औ पल्लवों को।

निज-कलित-करों से थी धारा में बिछाती।

उस पर यक तप्ता बालिका को सुला के।

वह निज कर से थी लेप ठंढे लगाती॥31॥

यदि अति अकुलाती उन्मना-बालिका को।

वह कह मृदु-बातें बोधती कुंज में जा।

वन-वन बिलखाती तो किसी बावली का।

वह ढिग रह छाया-तुल्य संताप खोती॥32॥

यक थल अवनी में लोटती वंचिता का।

तन रज यदि छाती से लगा पोंछती थी।

अपर थल उनींदी मोह-मग्ना किसी को।

वह शिर सहला के गोद में थी सुलाती॥33॥

सुन कर उसमें की आह रोमांचकारी।

वह प्रति-गृह में थी शीघ्र से शीघ्र जाती।

फिर मृदु-वचनों से मोहनी-उक्तियों से।

वह प्रबल-व्यथा का वेग भी थी घटाती॥34॥

गिन-गिन नभ-तारे ऊब ऑंसू बहा के।

यदि निज-निशि होती कश्चिदर्त्ता बिताती।

वह ढिग उसके भी रात्रि में ही सिधाती।

निज अनुपम राधा-नाम की सार्थता से॥35॥

 

मन्दाक्रान्ता छन्द

राधा जाती प्रति-दिवस थीं पास नन्दांगना के।

नाना बातें कथन करके थीं उन्हें बोध देती।

जो वे होतीं परम-व्यथिता मूर्छिता या विपन्ना।

तो वे आठों पहर उनकी सेवना में बितातीं॥36॥

घंटों ले के हरि-जननि को गोद में बैठती थीं।

वे थीं नाना जतन करतीं पा उन्हें शोक-मग्ना।

धीरे-धीरे चरण सहला औ मिटा चित्त-पीड़ा।

हाथों से थीं दृग-युगल के वारि को पोंछ देती॥37॥

हो उद्विग्ना बिलख जब यों पूछती थीं यशोदा।

क्या आवेंगे न अब ब्रज में जीवनाधार मेरे।

तो वे धीरे 'मधुर-स्वर से हो विनीता बतातीं।

हाँ आवेंगे, व्यथित-ब्रज को श्याम कैसे तजेंगे॥38॥

आता ऐसा कथन करते वारि राधा-दृगों में।

बूँदों-बूँदों टपक पड़ता गाल पै जो कभी था।

जो ऑंखों से सदुख उसको देख पातीं यशोदा।

तो धीरे यों कथन करतीं खिन्न हो तू न बेटी॥39॥

हो के राधा विनत कहतीं मैं नहीं रो रही हूँ।

आता मेरे दृग युगल में नीर आनन्द का है।

जो होता है पुलक करके आप की चारु सेवा।

हो जाता है प्रकटित वही वारि द्वारा दृगों में॥40॥

वे थीं प्राय: ब्रज-नृपति के पास उत्कण्ठ जातीं।

सेवायें थीं पुलक करतीं क्लान्तियाँ थीं मिटाती।

बातों ही में जग-विभव की तुच्छता थीं दिखाती।

जो वे होते विकल पढ़ के शास्त्र नाना सुनातीं॥41॥

होती मारे मन यदि कहीं गोप की पंक्ति बैठी।

किम्वा होता विकल उनको गोप कोई दिखाता।

तो कार्यों में सविधि उनको यत्नत: वे लगातीं।

औ ए बातें कथन करतीं भूरि गंभीरता से॥42॥

जी से जो आप सब करते प्यार प्राणेश को हैं।

तो पा भू में पुरुष-तन को, खिन्न हो के न बैठें।

उद्योगी हो परम रुचि से कीजिये कार्य्य ऐसे।

जो प्यारे हैं परम प्रिय के विश्व के प्रेमिकों के॥43॥

जो वे होता मलिन लखतीं गोप के बालकों को।

देतीं पुष्पों रचित उनको मुग्धकारी खिलौने।

दे शिक्षायें विविध उनसे कृष्ण-लीला करातीं।

घंटों बैठी परम-रुचि से देखतीं तद्गता हो॥44॥

पाई जातीं दुखित जितनी अन्य गोपांगनायें।

राधा द्वारा सुखित वह भी थीं यथा रीति होती।

गा के लीला स्व प्रियतम की वेणु, वीणा बजा के।

प्यारी-बातें कथन करके वे उन्हें बोध देतीं॥45॥

संलग्ना हो विविध कितने सान्त्वना-कार्य्य में भी।

वे सेवा थीं सतत करती वृध्द-रोगी जनों की।

दीनों, हीनों, निबल विधवा आदि को मनाती थीं।

पूजी जाती ब्रज-अवनि में देवियों सी अत: थीं॥46॥

खो देती थीं कलह-जनिता आधि के दुर्गुणों को।

धो देती थीं मलिन-मन की व्यापिनी कालिमायें।

बो देती थीं हृदय-तल के बीज भावज्ञता का।

वे थीं चिन्ता-विजित-गृह में शान्ति-धारा बहाती॥47॥

आटा चींटी विहग गण थे वारि औ अन्न पाते।

देखी जाती सदय उनकी दृष्टि कीटादि में भी।

पत्तों को भी न तरु-वर के वे वृथा तोड़ती थीं।

जी से वे थीं निरत रहती भूत-सम्वर्ध्दना में॥48॥

वे छाया थीं सु-जन शिर की शासिका थीं खलों कीं।

कंगालों की परम निधि थीं औषधी पीड़ितों की।

दीनों की थीं बहिन, जननी थीं अनाथाश्रितों की।

आराधया थीं ब्रज-अवनि की प्रेमिका विश्व की थीं॥49॥

जैसा व्यापी विरह-दुख था गोप गोपांगना का।

वैसी ही थीं सदय-हृदया स्नेह ही मुर्ति राधा।

जैसी मोहावरित-ब्रज में तामसी-रात आई।

वैसे ही वे लसित उसमें कौमुदी के समा थीं॥50॥

जो थीं कौमार-व्रत-निरता बालिकायें अनेकों।

वे भी पा के समय ब्रज में शान्ति विस्तारती थीं।

श्री राधा के हृदय-बल से दिव्य शिक्षा गुणों से।

वे भी छाया-सदृश उनकी वस्तुत: हो गई थीं॥51॥

तो भी आई न वह घटिका औ न वे वार आये।

वैसी सच्ची सुखद ब्रज में वायु भी आ न डोली।

वैसे छाये न घन रस की सोत सी जो बहाते।

वैसे उन्माद-कर-स्वर से कोकिला भी न बोली॥52॥

जीते भूले न ब्रज-महि के नित्य उत्कण्ठ प्राणी।

जी से प्यारे जलद-तन को, केलि-क्रीड़ादिकों को।

पीछे छाया विरह-दुख की वंशजों-बीच व्यापी।

सच्ची यों है ब्रज-अवनि में आज भी अंकिता है॥53॥

सच्चे स्नेही अवनिजन के देश के श्याम जैसे।

राधा जैसी सदय-हृदया विश्व प्रेमानुरक्ता।

हे विश्वात्मा! भरत-भुव के अंक में और आवें।

ऐसी व्यापी विरह-घटना किन्तु कोई न होवे॥54॥

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