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हरिऔध समग्र खंड-2

प्रियप्रवास
कविता
अयोध्या सिंह उपाध्याय
'हरिऔध'
 

हरिऔध समग्र-अनुक्रम | खंड-2 के बारे में | भूमिका | प्रथम सर्ग | द्वितीय सर्ग | तृतीय सर्ग | चतुर्थ सर्ग | पंचम सर्ग | षष्ठ सर्ग | सप्तम सर्ग | अष्टम सर्ग | नवम सर्ग | दशम सर्ग | एकादश सर्ग | द्वादश सर्ग | त्रयोदश सर्ग | चतुर्दश सर्ग | पंचदश सर्ग | षोडश सर्ग | सप्तदश सर्ग

खंड- 2

ब्रजभाषा बनाम खड़ी बोली विवाद अभी थमा न था। खड़ी बोली हिन्दी की काव्यभाषा का स्वरूप भी पूरी तरह स्थिर-स्पष्ट न हो पाया था। स्फुट काव्य तो खड़ी बोली में आ चुके थे, प्रबंध-काव्य के नाम पर मैथिलीशरण गुप्त के 'रंग में भंग (1909 ई.), 'जयद्रथ-वध (1910 ई.)' और भारत भारती (1912 ई.) जैसे खंड-काव्य ही अभी प्रकाश में आ पाए थे। तभी हरिऔध जी 1909 ई. से 1913 ई. तक निरंतर रचनारत रहकर 1914 ई. में 'प्रियप्रवास' नामक खड़ी बोली का पहला महाकाव्य लेकर हिन्दी जगत के सामने आए। कविता के भीतर एक लंबी छलाँग। आधुनिक संवेदना को कविता में रूपायित करने का पहला महाकाव्यात्मक प्रयास। कृष्णकथा को पौराणिकता की केंचुल से मुक्त कर उसे ऐहिक धरातल पर प्रतिष्ठित करने वाला काव्य और वह भी बिना किसी 'अनाड़ीपन' के।

'प्रियप्रवास' की कथावस्तु संक्षिप्त है। कंस के बुलावे पर कृष्ण का मथुरा जाना और उनके मथुरागमन की खबर के साथ ही समस्त ब्रज का विरह-दशा में पड़ना। इस संक्षिप्त कथावस्तु में महाकाव्यात्मक उद्भावना की गुंजाइश कम ही थी। आचार्य रामचंद्र शुक्ल का भी मानना है कि ''इसकी कथावस्तु एक महाकाव्य क्या एक अच्छे प्रबंध काव्य के लिए भी अपर्याप्त है।'' निश्चय ही कथावस्तु की यह अपर्याप्तता महाकाव्य के रचयिता के सामने एक रचनात्मक चुनौती थी जिसका हरिऔध जी 'प्रियप्रवास' में सफलतापूर्वक सामना करते हैं। बल्कि, इस अपर्याप्तता ने कवि को कथा के भीतर अपने रंग भरने का भरपूर अवसर उपलब्ध कराया है। कथा संकुलता शायद यह अवसर उन्हें प्रदान नहीं करती। यह एक प्रकार से चुनौती को अवसर में तब्दील करने जैसा था। आचार्य शुक्ल का भी ध्यान इस ओर गया है। वे भावों की व्यंजना, प्रेम की अनेक अंतर्दशाओं की व्यंजना और 'प्रियप्रवास' में जो वर्णनात्मकता है, उसकी ओर पाठकों

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