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हरिऔध समग्र खंड-2

प्रियप्रवास
कविता
अयोध्या सिंह उपाध्याय
'हरिऔध'
 

पंचम सर्ग

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मन्दाक्रान्ता छन्द

तारे डूबे तम टल गया छा गई व्योम-लाली।

पक्षी बोले तमचुर जगे ज्योति फैली दिशा में।

शाखा डोली तरु निचय की कंज फूले सरों में।

धीरे-धीरे दिनकर कढ़े तामसी रात बीती॥1॥

फूली फैली लसित लतिका वायु में मन्द डोली।

प्यारी-प्यारी ललित-लहरें भानुजा में विराजीं।

सोने की सी कलित किरणें मेदिनी ओर छूटीं।

कूलों कुंजों कुसुमित वनों में जगी ज्योति फैली॥2॥

प्रात: शोभा ब्रज अवनि में आज प्यारी नहीं थी।

मीठा-मीठा विहग रव भी कान को था न भाता।

फूले-फूले कमल दव थे लोचनों में लगाते।

लाली सारे गगन-तल की काल-व्याली समा थी॥3॥

चिन्ता की सी कुटिल उठतीं अंक में जो तरंगें।

वे थीं मानो प्रकट करतीं भानुजा की व्यथायें।

धीरे-धीरे मृदु पवन में चाव से थी न डोली।

शाखाओं के सहित लतिका शोक से कंपिता थी॥4॥

फूलों-पत्तों सकल पर हैं वारि बूँदें दिखातीं।

रोते हैं या विटप सब यों ऑंसुओं को दिखा के।

रोई थी जो रजनि दुख से नंद की कामिनी के।

ये बूँदें हैं, निपतित हुईं या उसी के दृगों से॥5॥

पत्रों पुष्पों सहित तरु की डालियाँ औ लतायें।

भींगी सी थीं विपुल जल में वारि-बूँदों भरी थीं।

मानो फूटी सकल तन में शोक की अश्रुधारा।

सर्वांगों से निकल उनको सिक्तता दे बही थी॥6॥

धीरे-धीरे पवन ढिग जा फूलवाले द्रुमों के।

शाखाओं से कुसुम-चय को थी धरा पै गिराती।

मानो यों थी हरण करती फुल्लता पादपों की।

जो थी प्यारी न ब्रज-जन को आज न्यारी व्यथा से॥7॥

फूलों का यों अवनि-तल में देख के पात होना।

ऐसी भी थी हृदय-तल में कल्पना आज होती।

फूले-फूले कुसुम अपने अंक में से गिरा के।

बारी-बारी सकल तरु भी खिन्नता हैं दिखाते॥8॥

नीची-ऊँची सरित सर की बीचियाँ ओस बूँदें।

न्यारी आभा वहन करती भानु की अंक में थीं।

मानो यों वे हृदय-तल के ताप को थीं दिखाती।

या दावा थी व्यथित उर में दीप्तिमाना दुखों की॥9॥

सारा नीला-सलिल सरि का शोक-छाया पगा था।

कंजों में से मधुप कढ़ के घूमते थे भ्रमे से।

मानो खोटी-विरह-घटिका सामने देख के ही।

कोई भी थी अवनत-मुखी कान्तिहीना मलीना॥10॥

द्रुतविलम्बित छन्द

प्रगट चिन्ह हुए जब प्रात के।

सकल भूतल औ नभदेश में।

जब दिशा सितता-युत हो चली।

तममयी करके ब्रजभूमि को॥11॥

मुख-मलीन किये दुख में पगे।

अमित-मानव गोकुल ग्राम के।

तब स-दार स-बालक-बालिका।

व्यथित से निकले निज सद्म से॥12॥

बिलखती दृग वारि विमोचती।

यह विषाद-मयी जन-मण्डली।

परम आकुलतावश थी बढ़ी।

सदन ओर नराधिप नन्द के॥13॥

उदय भी न हुए जब भानु थे।

निकट नन्दनिकेतन के तभी।

जन समागम ही सब ओर था।

नयन गोचर था नरमुण्ड ही॥14॥

वसन्ततिलका छन्द

थे दीखते परम वृध्द नितान्त रोगी।

या थी नवागत वधू गृह में दिखाती।

कोई न और इनको तज के कहीं था।

सूने सभी सदन गोकुल के हुए थे॥15॥

जो अन्य ग्राम ढिग गोकुल ग्राम के थे।

नाना मनुष्य उन ग्राम-निवासियों के।

डूबे अपार-दुख-सागर में स-बामा।

आके खड़े निकट नन्द-निकेत के थे॥16॥

जो भूरि भूत जनता समवेत वाँ थी।

सो कंस भूप भय से बहु कातरा थी।

संचालिता विषमता करती उसे थी।

संताप की विविध-संशय की दुखों की॥17॥

नाना प्रसंग उठते जन-संघ में थे।

जो थे सशंक सबको बहुश: बनाते।

था सूखता धार औ कँपता कलेजा।

चिन्ता अपार चित में चिनगी लगाती॥18॥

रोना महा-अशुभ जान प्रयाण-काल।

ऑंसू न ढाल सकती निज नेत्र से थी।

रोये बिना न छन भी मन मानता था।

डूबी दुविधा जलधि में जन मण्डली थी॥19॥

मन्दाक्रान्ता छन्द

आई बेला हरि-गमन की छा गई खिन्नता सी।

थोड़े ऊँचे नलिनपति हो जा छिपे पादपों में।

आगे सारे स्वजन करके साथ अक्रूर को ले।

धीरे-धीरे सजनक कढ़े सद्म में से मुरारी॥20॥

आते ऑंसू अति कठिनता से सँभाले दृगों के।

होती खिन्ना हृदय-तल के सैकड़ों संशयों से।

थोड़ा पीछे प्रिय तनय के भूरि शोकाभिभूता।

नाना वामा सहित निकलीं गेह में से यशोदा॥21॥

द्वारे आया ब्रज नृपति को देख यात्रा निमित्त।

भोला-भाला निरख मुखड़ा फूल से लाडिलों का।

खिन्ना दीना परम लख के नन्द की भामिनी को।

चिन्ता डूबी सकल जनता हो उठी कम्पमाना॥22॥

कोई रोया सलिल न रुका लाख रोके दृगों का।

कोई आहें सदुख भरता हो गया बावला सा।

कोई बोला सकल-ब्रज के जीवनाधार प्यारे।

यों लोगों को व्यथित करके आज जाते कहाँ हो॥23॥

रोता-धोता विकल बनता एक आभीर बूढ़ा।

दीनों के से वचन कहता पास अक्रूर के आ।

बोला कोई जतन जन को आप ऐसा बतावें।

मेरे प्यार कुँवर मुझसे आज न्यारे न होवें॥24॥

मैं बूढ़ा हूँ यदि कुछ कृपा आप चाहें दिखाना।

तो मेरी है विनय इतनी श्याम को छोड़ जावें।

हा! हा! सारी ब्रज अवनि का प्राण है लाल मेरा।

क्यों जीयेंगे हम सब उसे आप ले जायँगे जो॥25॥

रत्नों की है न तनिक कमी आप लें रत्न ढेरों।

सोना चाँदी सहित धन भी गाड़ियों आप ले लें।

गायें ले लें गज तुरग भी आप ले लें अनेकों।

लेवें मेरे न निजधन को हाथ मैं जोड़ता हूँ॥26॥

जो है प्यारी अवनि ब्रज की यामिनी के समाना।

तो तातों के सहित सब गोपाल हैं तारकों से।

मेरा प्यारा कुँवर उसका एक ही चन्द्रमा है।

छा जावेगा तिमिर वह जो दूर होगा दृगों से॥27॥

सच्चा प्यारा सकल ब्रज का वंश का है उँजाला।

दीनों का है परमधन औ वृध्द का नेत्रतारा।

बालाओं का प्रिय स्वजन औ बन्धु है बालकों का।

ले जाते हैं सुरतरु कहाँ आप ऐसा हमारा॥28॥

बूढ़े के ए वचन सुनके नेत्र में नीर आया।

ऑंसू रोके परम मृदुता साथ अक्रूर बोले।

क्यों होते हैं दुखित इतने मानिये बात मेरी।

आ जावेंगे बिवि दिवस में आप के लाल दोनों॥29॥

आई प्यारे निकट श्रम से एक वृध्दा-प्रवीणा।

हाथों से छू कमल-मुख को प्यार से लीं बलायें।

पीछे बोली दुखित स्वर से तू कहीं जा न बेटा।

तेरी माता अहह कितनी बावली हो रही है॥30॥

जो रूठेगा नृपति ब्रज का वास ही छोड़ दूँगी।

ऊँचे-ऊँचे भवन तज के जंगलों में बसूँगी।

खाऊँगी फूल फल दल को व्यंजनों को तजूँगी।

मैं ऑंखों से अलग न तुझे लाल मेरे करूँगी॥31॥

जाओगे क्या कुँवर मथुरा कंस का क्या ठिकाना।

मेरा जी है बहुत डरता क्या न जाने करेगा।

मानूँगी मैं न सुरपति को राज ले क्या करूँगी।

तेरा प्यारा-वदन लख के स्वर्ग को मैं तजूँगी॥32॥

जो चाहेगा नृपति मुझ से दंड दूँगी करोड़ों।

लोटा-थाली सहित तन के वस्त्र भी बेंच दूँगी।

जो माँगेगा हृदय वह तो काढ़ दूँगी उसे भी।

बेटा, तेरा गमन मथुरा मैं न ऑंखों लखूँगी॥33॥

कोई भी है न सुन सकता जा किसे मैं सुनाऊँ।

मैं हूँ मेरा हृदयतल है हैं व्यथायें अनेकों।

बेटा, तेरा सरल मुखड़ा शान्ति देता मुझे है।

क्यों जीऊँगी कुँवर, बतला जो चला जायगा तू॥34॥

प्यारे तेरा गमन सुन के दूसरे रो रहे हैं।

मैं रोती हूँ सकल ब्रज है वारि लाता दृगों में।

सोचो बेटा, उस जननि की क्या दशा आज होगी।

तेरे जैसा सरल जिस का एक ही लाडिला है॥35॥

प्राचीन की सदुख सुनके सर्व बातें मुरारी।

दोनों ऑंखें सजल करके प्यार के साथ बोले।

मैं आऊँगा कुछ दिन गये बाल होगा न बाँका।

क्यों माता तू विकल इतना आज यों हो रही है॥36॥

दौड़ा ग्वाला ब्रज नृपति के सामने एक आया।

बोला गायें सकल बन को आप की हैं न जाती।

दाँतों से हैं न तृण गहती हैं न बच्चे पिलाती।

हा! हा! मेरी सुरभि सबको आज क्या हो गया है॥37॥

देखो-देखो सकल हरि की ओर ही आ रही हैं।

रोके भी हैं न रुक सकती बावली हो गई हैं।

यों ही बातें सदुख कहके फूट के ग्वाल रोया।

बोला मेरे कुँवर सब को यों रुला के न जाओ॥38॥

रोता ही था जब वह तभी नन्द की सर्व गायें।

दौड़ी आईं निकट हरि के पूँछ ऊँचा उठाये।

वे थीं खिन्ना विपुल विकला वारि था नेत्र लाता।

ऊँची ऑंखों कमल मुख थीं देखती शंकिता हो॥39॥

काकातूआ महर-गृह के द्वार का भी दुखी था।

भूला जाता सकल-स्वर था उन्मना हो रहा था।

चिल्लाता था अति बिकल था औ यही बोलता था।

यों लोगों को व्यथित करके लाल जाते कहाँ हो॥40॥

पक्षी की औ सुरभि सब की देख ऐसी दशायें।

थोड़ी जो थी अहह! वह भी धीरता दूर भागी।

हा हा! शब्दों सहित इतना फूट के लोग रोये।

हो जाती थी निरख जिसको भग्न छाती शिला की॥41॥

आवेगों के सहित बढ़ता देख संताप-सिंधु।

धीरे-धीरे ब्रज-नृपति से खिन्न अक्रूर बोले।

देखा जाता ब्रज दुख नहीं शोक है वृध्दि पाता।

आज्ञा देवें जननि पग छू यान पै श्याम बैठें॥42॥

आज्ञा पाके निज जनक की, मान अक्रूर बातें।

जेठे-भ्राता सहित जननी-पास गोपाल आये।

छू माता के पग कमल को धीरता साथ बोले।

जो आज्ञा हो जननि अब तो यान पै बैठ जाऊँ॥43॥

दोनों प्यारे कुँवरवर के यों बिदा माँगते ही।

रोके ऑंसू जननि दृग में एक ही साथ आयें।

धीरे बोलीं परम दुख से जीवनाधार जाओ।

दोनों भैया विधुमुख हमें लौट आके दिखाओ॥44॥

धीरे-धीरे सु-पवन बहे स्निग्ध हों अंशुमाली।

प्यारी छाया विटप वितरें शान्ति फैले वनों में।

बाधायें हों शमन पथ की दूर हों आपदायें।

यात्रा तेरी सफल सुत हो क्षेम से गेह आओ॥45॥

ले के माता-चरणरज को श्याम औ राम दोनों।

आये विप्रों निकट उनके पाँव की वन्दना की।

भाई-बन्दों सहित मिलके हाथ जोड़ा बड़ों को।

पीछे बैठे विशद रथ में बोध दे के सबों को॥46॥

दोनों प्यारे कुँवर वर को यान पै देख बैठा।

आवेगों से विपुल विवशा हो उठीं नन्दरानी।

ऑंसू आते युगल दृग से वारि-धारा बहा के।

बोलीं दीना सदृश पति से दग्ध हो हो दु:खों से॥47॥

मालिनी छन्द

अहह दिवस ऐसा हाय! क्यों आज आया।

निज प्रियसुत से जो मैं जुदा हो रही हूँ।

अगणित गुणवाली प्राण से नाथ प्यारी।

यह अनुपम थाती मैं तुम्हें सौंपती हूँ॥48॥

सब पथ कठिनाई नाथ हैं जानते ही।

अब तक न कहीं भी लाडिले हैं पधारे।

'मधुर फल खिलाना दृश्य नाना दिखाना।

कुछ पथ-दुख मेरे बालकों को न होवे॥49॥

खर पवन सतावे लाडिलों को न मेरे।

दिनकर किरणों की ताप से भी बचाना।

यदि उचित जँचे तो छाँह में भी बिठाना।

मुख-सरसिज ऐसा म्लान होने न पावे॥50॥

विमल जल मँगाना देख प्यासा पिलाना।

कुछ क्षुधित हुए ही व्यंजनों को खिलाना।

दिन वदन सुतों का देखते ही बिताना।

विलसित अधरों को सूखने भी न देना॥51॥

युग तुरग सजीले वायु से वेग वाले।

अति अधिक न दौड़ें यान धीरे चलाना।

बहु हिल कर हाहा कष्ट कोई न देवे।

परम मृदुल मेरे बालकों का कलेजा॥52॥

प्रिय! सब नगरों में वे कुबामा मिलेंगी।

न सुजन जिनकी हैं वामता बूझ पाते।

सकल समय ऐसी साँपिनों से बचाना।

वह निकट हमारे लाडिलों के न आवें॥53॥

जब नगर दिखाने के लिए नाथ जाना।

निज सरल कुमारों को खलों से बचाना।

संग-संग रखना औ साथ ही गेह लाना।

छन सुअन दृगों से दूर होने न पावें॥54॥

धनुष मख सभा में देख मेरे सुतों को।

तनिक भृकुटि टेढ़ी नाथ जो कंस की हो।

अवसर लख ऐसे यत्न तो सोच लेना।

न कुपित नृप होवें औ बचें लाल मेरे॥55॥

यदि विधिवश सोचा भूप ने और ही हो।

यह विनय बड़ी ही दीनता से सुनाना।

हम बस न सकेंगे जो हुई दृष्टि मैली।

सुअन युगल ही हैं जीवनाधार मेरे॥56॥

लख कर मुख सूखा सूखता है कलेजा।

उर विचलित होता है विलोके दुखों के।

शिर पर सुत के जो आपदा नाथ आई।

यह अवनि फटेगी औ समा जाऊँगी मैं॥57॥

जगकर कितनी ही रात मैंने बिताई।

यदि तनिक कुमारों को हुई बेकली थी।

यह हृदय हमारा भग्न कैसे न होगा।

यदि कुछ दुख होगा बालकों को हमारे॥58॥

कब शिशिर निशा के शीत को शीत जाना।

थर-थर कँपती थी औ लिये अंक में थी।

यदि सुखित न यों भी देखती लाल को थी

सब रजनि खड़े औ घूमते ही बिताती॥59॥

निज सुख अपने मैं ध्यान में भी न लाई।

प्रिय सुत सुख ही से मैं सुखी हूँ कहाती।

मुख तक कुम्हलाया नाथ मैंने न देखा।

अहह दुखित कैसे लाडिले को लखूँगी॥60॥

यह समझ रही हूँ और हूँ जानती ही।

हृदय धन तुमारा भी यही लाडिला है।

पर विवश हुई हूँ जी नहीं मानता है।

यह विनय इसी से नाथ मैंने सुनाई॥61॥

अब अधिक कहूँगी आपसे और क्या मैं।

अनुचित मुझसे है नाथ होता बड़ा ही।

निज युग कर जोड़े ईश से हूँ मनाती।

सकुशल गृह लौटें आप ले लाडिलों को॥62॥

मन्दाक्रान्ता छन्द

सारी बातें अति दुखभरी नन्द अर्धाङ्गिनी की।

लोगों को थीं व्यथित करती औ महा कष्ट देती।

ऐसा रोई सकल-जनता खो बची धीरता को।

भू में व्यापी विपुल जिससे शोक उच्छ्वासमात्रा॥63॥

आविर्भूता गगन-तल में हो रही है निराशा।

आशाओं में प्रकट दुख की मुर्तियाँ हो रही हैं।

ऐसा जी में ब्रज-दुख-दशा देख के था समाता।

भू-छिद्रों से विपुल करुणा-धार है फूटती सी॥64॥

सारी बातें सदुख सुन के नन्द ने कामिनी को।

प्यारे-प्यारे वचन कहके धीरता से प्रबोध।

आई थी जो सकल जनता धर्य्य दे के उसे भी।

वे भी बैठे स्वरथ पर जा साथ अक्रूर को ले॥65॥

घेरा आके सकल जन ने यान को देख जाता।

नाना बातें दुखमय कहीं पत्थरों को रुलाया।

हाहा खाया बहु विनय की और कहा खिन्न हो के।

जो जाते हो कुँवर मथुरा ले चलो तो सभी को॥66॥

बीसों बैठे पकड़ रथ का चक्र दोनों करों से।

रासें ऊँचे तुरग युग की थाम लीं सैकड़ों ने।

सोये भू में चपल रथ के सामने आ अनेकों।

जाना होता अति अप्रिय था बालकों का सबों को॥67॥

लोगों को यों परम-दुख से देख उन्मत्त होता।

नीचे आये उतर रथ के नन्द औ यों प्रबोध।

क्यों होते हो विकल इतना यान क्यों रोकते हो।

मैं ले दोनों हृदय धन को दो दिनों में फिरूँगा॥68॥

देखो लोगों, दिन चढ़ गया धूप भी हो रही है।

जो रोकोगे अधिक अब तो लाल को कष्ट होगा।

यों ही बातें मृदुल कह के औ हटा के सबों को।

वे जा बैठे तुरत रथ में औ उसे शीघ्र हाँका॥69॥

दोनों तीखे तुरग उचके औ उड़े यान को ले।

आशाओं में गगन-तल में हो उठा शब्द हाहा।

रोये प्राणी सकल ब्रज के चेतनाशून्य से हो।

संज्ञा खो के निपतित हुईं मेदिनी में यशोदा॥70॥

जो आती थी पथरज उड़ी सामने टाप द्वारा।

बोली जाके निकट उसके भ्रान्त सी एक बाला।

क्यों होती है भ्रमित इतनी धूलि क्यों क्षिप्त तू है।

क्या तू भी है विचलित हुई श्याम से भिन्न हो के॥71॥

आ आ, आके लग हृदय से लोचनों में समा जा।

मेरे अंगों पर पतित हो बात मेरी बना जा।

मैं पाती हूँ सुख रज तुझे आज छूके करों से।

तू आती है प्रिय निकट से क्लान्ति मेरी मिटा जा॥72॥

रत्नों वाले मुकुट पर जा बैठती दिव्य होती।

धूलि छा जाती अलक पर तू तो छटा मंजु पाती।

धूलि तू है निपट मुझ सी भाग्यहीना मलीना।

आभा वाले कमल-पग से जो नहीं जा लगी तू॥73॥

जो तू जाके विशद रथ में बैठ जाती कहीं भी।

किंवा तू जो युगल तुरगों के तनों में समाती।

तो तू जाती प्रिय स्वजन के साथ ही शान्ति पाती।

यों होहो के भ्रमित मुझ सी भ्रान्त कैसे दिखाती॥74॥

हा! मैं कैसे निज हृदय की वेदना को बताऊँ।

मेरे जी को मनुज तन से ग्लानि सी हो रही है।

जो मैं होती तुरग अथवा यान ही या ध्वजा ही।

तो मैं जाती कुँवर वर के साथ क्यों कष्ट पाती॥75॥

बोली बाला अपर अकुला हा! सखी क्या कहूँ मैं।

ऑंखों से तो अब रथ ध्वजा भी नहीं है दिखाती।

है धूली ही गगन-तल में अल्प उदीयमाना।

हा! उन्मत्ते! नयन भर तू देख ले धूलि ही को॥76॥

जी होता है विकल मुँह को आ रहा है कलेजा।

ज्वाला सी है ज्वलित उर में ऊबती मैं महा हूँ।

मेरी आली अब रथ गया दूर ले साँवले को।

हा! ऑंखों से न अब मुझको धूलि भी है दिखाती॥77॥

टापों का नाद जब तक था कान में स्थान पाता।

देखी जाती जब तक रही यान ऊँची पताका।

थोड़ी सी भी जब तक रही व्योम में धूलि छाती।

यों ही बातें विविध कहते लोग ऊबे खड़े थे॥78॥

द्रुतविलम्बित छन्द

तदुपरान्त महा दुख में पगी।

बहु विलोचन वारि विमोचती।

महरि को लख गेह सिधारती।

गृह गई व्यथिता जनमंडली॥79॥

मन्दाक्रान्ता छन्द

धाता द्वारा सृजित जग में हो धारा मध्य आके।

पाके खोये विभव कितने प्राणियों ने अनेकों।

जैसा प्यारा विभव ब्रज ने हाथ से आज खोया।

पाके ऐसा विभव वसुधा में न खोया किसी ने॥80॥

 

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