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दिनेश कुमार शुक्ल/ आखर अरथ (काव्य संग्रह)
 

आखर अरथ
दिनेश कुमार शुक्ल
भाग-
2

भाग-1 भाग-2 भाग-3 भाग-4

1. वह जगह
 2. वैदर्भी नीति
 3. नया धरातल
 4. काठ और काठी
 5. काया की माया रतनजोति
 6. द्वैत

 7. चतुर्मास
 8. द्वारपाल
 9. तुम्हारा जाना
 10. कॉलसेंटर की गाड़ियाँ
 11. अवगाहन
 12. नज़र में घुस कर छुपे नज़ारे

 13. आवाजाही
 14. रामधनी
 15. अपारता
 16. संध्या
 17. विमाता
 18. सुबह से पहले ही
 19. जल का महल

 

20. सर्वस्व
21. कुहरा
22. विलोम की छाया
23. भीतर की बात
24. मिट्टी का इत्र
25. अपराह्न
26. दुस्साहस
27. राग बिलावल
28. शब्दानुकूलन
29. प्रयोगशाला में
30. मौनानंद
31. लालसा
32. परस्परता
33. आखर अरथ
34. कैशोर्य
35. नयी कॉलोनी
36. मधुकरी
37. केतकी के फूल
38. जीत-हार

39. शकट द्वीप
40. एक युग को डूबते देखा
41. एक आम-एक नीम
42. कालंजर की गोह
43. ऐसे या वैसे
44. विस्मय
45. क्रमशः

46. उन दिनों
47. माघ का जल
48. नाविक-छाया
49. बोझिल राग
50. अजब देस
51. चौपाल की ढोलक

52. हँसी-ठिठोली
53. भविष्य की आँखें
54. सूर्य स्नान
55. रूप-प्रतिरूप-अपरूप
56. अनिश्चय
57. ये दिन हैं अभी सुनने के

58. यह क्या?
59. वापसी
60. विस्फोट
61. रेलवे स्टेशन
62. कितने दिन
63. बचते-बचाते
64. संत सरमद

65. ये रंग हैं क्या
66. एक दिन
67. अपार के पार
68. पक्षी-ज्वर और पुनर्जन्म
69. हम काले लोग
70. रहे नाम नीम का

71. अफ्रीका की चूनर
72. नील की हंस-नौका
73. आँखें अक्षर हैं
74. बेली डान्सर
75. या निशा
76. नदी भी है आदमी भी पेड़ भी है बाओबाब

20. सर्वस्व

इसी संसार-सागर में
कई संसार डूबे हैं
कोई तल में अतल में है
कोई पाताल में है
सभी में तुम उपस्थित हो

किसी की डबडबाई हुई आँखों को
यहाँ से दिख रहे हैं जो
न जाने कब की डूबी हुई रातों के उजाले हैं
ये ऐसी ज्योति है जो जल में जाकर भी नहीं बुझती
ये ऐसी लौ जो तूफानों में हॅंसती है

हमारी अपनी दुनिया में
जिसे इतिहास कहते हैं
वहाँ अब भी बसावट है
जहाँ पर समय भी अब तक नहीं पहुँचा
वहाँ उस भविष्यत् में जा बसे हैं लोग

अगर तुम ध्यान से देखो तो पाओगे
जिसे तुम ग़ैर का घर समझते थे
वो तुम्हारी देहरी है
वहीं पर तो तुम्हारे प्राण बसते हैं

ज़रा इन डबडबाई हुई आँखों में
उतर कर डूब कर देखो तो पाओगे
ये आँखें तो तुम्हारी मॉं की आँखें हैं
कि जिनकी पुतलियाँ तुम थे,
अभी जो हाथ फैलाये तुम्हारे सामने कोई खड़ा है
यहाँ ऐसा नहीं कोई, तुम्हारा जो नहीं है
किसी को छोड़ कर तुम जा नहीं सकते
सभी का वास तुममें है
सभी में तुम उपस्थित हो

(शीर्ष पर वापस)


21. कुहरा

जैसे-जैसे होता है सूर्य उदय
कुहरा भी घना और घना होता जाता है,
अपनी सफ़ेद नीलिमा में कुहरा
दरअसल आकाश है बरसता हुआ
रेशा-रेशा उड़ता,
जैसे आँचल में
ढॅंक लेती है मॉं अपने शिशु को
कुहरा ढॅंक लेना चाहता है गोलमटोल बच्चे-सी पृथ्वी को

अमूर्तन से भरता हुआ संसार को
कुहरा हर चीज़ में
भरना चाहता है और अधिक अर्थ
और अधिक आकार

कुहरा छल की रचना नहीं करता न फैलाता है मायाजाल
यह नुकीले कोनों और तीखी रेखाओं को
मध्दम करता हुआ, चुभन को कम करता,
यथार्थ को बनाना चाहता है और अधिक मानवीय

कुहरा संवेदना से गीला कर देता है
भयानक से भयानक बारूद को,
कुहरा प्रकाश को देता है प्रभामंडल
और अग्नि की लपटों को
बनाता है स्निग्ध,
और जब वह समेट लेता है अपना रूप
तो वापस कर जाता है
धुली-पुँछी,
पहले से अधिक साफ़
एक दुनिया

(शीर्ष पर वापस)

22. विलोम की छाया



मेरा अपना समय मुझी पर
जटिल-कुटिल मुस्कुरा रहा है
चुप्पी के गहरे पानी में
देख रहा हूँ मैं अपने विलोम की छाया

खगकुल-संकुल एक वृक्ष है
मृग-जल के सागर के तट पर,
उसी वृक्ष पर सबकी आत्मा का निवास है
उसकी डालें और टहनियाँ
हैं इतनी छतनार कि उनसे अँटा पड़ा है
देश-काल का कोना-कोना,
उसके पपड़ी भरे तने में
सबके सूखे हुए घाव हैं
सबके ही मन की गाँठें हैं,
तपते हुए मृगशिरा में भी
उस पर आ बसता बसन्त है,
यह सब है
लेकिन उसके फल टपक-टपक कर
मृगमरीचिका के जल में
खोते जाते हैं !

फिर औघड़ प्रतिविम्ब की तरह
वही निरावधि काल
उसी विपुला धरती पर
अजब-अजब रंगों में
अपनी छाप लगाता घूम रहा है
जैसे कोई बेकल-पागल
जाने क्या-क्या लिखता फिरता है
दुनिया की दीवारों पर

मेरा ही क्यों, बंधु तुम्हारा भी तो है यह समय
कि जिसका रक्त, पसीना,
जिसके आँसू, जिसकी मज्जा औ जिसका उन्माद
बाढ़ की तरह उफन कर फैल रहा है,
डूब रहा है उसके प्लावन में भविष्य भी,
चाहे कुछ भी करो
सभी कुछ ज्यों का त्यों है
नहीं हटाये हटता है दुख सपनों से भी,
उम्मीदें यदि है भी
तो वे दुख के रँग से मटमैली है
पड़ी हुई कोने-अँतरे में पोंछे जैसी

खगकुल-संकुलता के भीतर से औचक ही
बहुत दिनों के बाद एक दिन जाने कैसे
बज्र फोड़ती मर्म भेदती
कठफोड़वा की टाक - ठकाठक लगी गूँजने,
लगी गूँजने जैसे
श्रम के सहज तर्क की टक्कर, सीधी टक्कर !
वर्तमान में सेंध लगाते कठफोड़वा के पीछे-पीछे
मैं भी घुसता गया
अगम के तरु - कोटर में --
मैने देखा साम-दाम को, दण्ड-भेद को
गुर्दों के बाजार भाव पर चर्चा करते,
नया धर्म देकर बच्चों को
दिल्ली की मेमों के घर में बर्तन धोने
झुण्ड बना कर बेच रहे थे धर्म प्रचारक,
देखा मैने स्वप्नों को भी दुःस्वप्नों से हाथ मिलाते,
दैत्याकार तितलियों को देखा मैने जीवन रस पीते
मैने बीते हुए समय के मलबे में
भविष्य को देखा-किसी अजीब बनस्पति के सूखे अंकुर-सा

मैने खुद को भी अपने विलोम में देखा
देखा मैने अमर सत्य को झूठ बोलते
स्याही सूख नहीं पाती थी शब्द निरर्थक हो जाते थे
इतनी क्षणभंगुर भाषा थी,
मैने देखा वंचित लोगों को वंचक पर फूल चढ़ाते ...

दिन ढलने को आया
छाया आत्मवृक्ष की
लम्बी हो कर मुझको खींच ले गई सँग में,
उस छाया की अजर-अमर दुनिया के भीतर
एक झोपड़ी, जिसको बरसों पहले लपटें चाट गई थीं
ज्यों की त्यों अब तक ज़िन्दा थी,
ढिबरी के पीले प्रकाश का सधा राग था
एक काँपती निर्भय लौ थी
जिसकी आभा में सारा जग जाग रहा था
ऊपर-ऊपर भले दिख रहा हो वह सोया

गंगा के ऊँचे कगार पर बसे गाँव की
उसी झोपड़ी के छप्पर में
खुँसी हुई थी
कागज के पीले पन्ऩों पर मेरी गाथा,
उस टीले पर अब तक खेल रहा था मेरी माँ का बचपन
धूल भरे वे चरण फुदकते थे कपोत-से,
उलटे घट का लिए सहारा
पार कर रहा था मैं धारा
मँझा रहा था मैं समुद्र को घुटनों-घुटनों
मैं द्वीपों की दन्त कथाओं का अन्वेषक
रहना तुम तैयार, तुम्हारे तट पर भी मैं
आ पहुँचूँगा कभी किन्हीं लहरों पर चलता,
आ जाना तुम साथ
तुम्हारा हाथ पकड़ कर
ओ मेरे विलोम मैं तुमको ले जाऊँगा
रंगमंच के नये दृश्य में जहाँ
द्वन्द्व का तुमुल
पुनः जगने वाला है !

(शीर्ष पर वापस)

23. भीतर की बात

न बड़ा न छोटा
न खरा न खोटा
आदमी कोई एक समूची चीज़ नहीं
तमाम छोटे-छोटे जीवों का एक समूह है
छोटे-छोटे रागों की एक सिम्फनी,
छोटे-छोटे जीव और राग भी
आपस में न छोटे न बड़े
तभी न आदमी के भीतर
टकराने की आवाजें सुनाई देती हैं अकसर,
बड़े शहरों में छोटे-छोटे शहर
एक-दूसरे के भीतर-बाहर फैले हुए
नन्द नगरी से नार्थ एवन्यू तक
तभी न इतने पहरे और पुलिस
भीतरी टक्कर रोकने के लिए,
राज की बात तो यह कि
हर विचार में घुसे बैठे हैं चार
या उससे भी अधिक विचार
तभी न हर विचार के भीतर मची है धमाचौकड़ी,
खुली-खुली सीधी-सी दिखती है जो बात
जाल बिछा है उसके भीतर
पेचीदा गलियों का
जिनमें भटकते ही जाना है-
इसीलिए लोग
सीधी सपाट बातों के भीतर घुसने से डरते हैं
वे उन बातों को बस मान लेते हैं चुपचाप
और कन्नी काट कर लेते हैं अपनी राह
और फिर उसी राह में भटकते चले जाते हैं...

ऊपर जो कुछ भी कहा गया है
अगर पढ़ रहा है कोई इसे
तो जान ले कि वह ख़ुद भी इतिहास और भूगोल में
एक साथ फैली एक छोटी-सी जीवित आकाशगंगा है
और इतनी छोटी भी नहीं !

(शीर्ष पर वापस)

24. मिट्टी का इत्र

वैसे तो
ख़ालिस पानी और कमसिन निगाहों तक से
उतारा गया है इत्र एक जमाने में,
लेकिन मिट्टी का इत्र तो अब भी उतारा जाता है
कन्ऩौज में
और मिट्टी जाती है नर्वल के इसी पटकन-तालाब से

चूंकि प्रेम-रस वाली एक लस है इस माटी में
सो र्इट पथाई के लिये भी ये पाई गई बहुत ही मुफ़ीद
लस के रस में
मुनाफ़ाखोर पटक-पटक कर इसे रौंदते
लस बढ़ती, र्इट और खरी उतरतीं, मुनाफा और भी खरा ..

पिटते-पिटाते तपाते-तपाते एक दिन
भट्ठों की आग के ताप में मिट्टी ने चुपचाप
मिला दिया अपना भी संताप
फिर तो फदक-फदक र्इटें बन गई खंझल
सात के सातों भट्ठे बरबाद
भट्ठा ही बैठ गया भट्ठेवालों का
मिट्टी का प्रतिशोघ - खंझल के सात पहाड़,
यह हमारे जन्म के पहले की बात है
तब उफान पर रहा होगा भारत का स्वाधीनता संग्राम

इन्हीं खंझल स्तूपों पर पर्वतारोहण के साथ
शुरू हुई हमारी जीवन यात्रा
रहा होगा वही समय जब तेनसिंग हिलेरी पहुंचे एवरेस्ट पर
भट्ठों पर उगे रुसाह के फूलों की मिठास बटोरते
झरबेरियां चुनते, सर्प भय से रोमांचित
पृथ्वी आकाश के अनश्वर संगीत में तरंगित
कूदते-फांदते, तमाम नश्वरताओं के साथ-साथ
हम भी बड़े हुए
उन दिनों वह शक्ति थी हमारे पास
कि पानी पृथ्वी आकाश और आंखों की मुस्कान के अलावा
हम और भी तमाम सुगन्धों को अलग-अलग पहचान लेते थे
और पाते ही हिंसा की दुर्गन्ध कैसी भी
छूटते थे हम तरकश के तीर-से

दुर्गन्ध बढ़ती रही
हमारी शक्तियों का लोप हुआ
खो दी हमने पिछले जन्मों की स्मृति
इतने पतन के बावजूद
बहुत कुछ बचा रहा, जैसे- यही मिट्टी का विद्रोह,
रुसाह की झाड़ियाँ, भीटें झरबेरियों की,
इनकी प्रत्येक टहनी से मेरा व्यक्तिगत परिचय है
वाकिफ़ हूँ मैं इनके पत्तों की रग-रग से
जो पतझर से लड़े और बने रहे,
हमारी पीढ़ी को तो और भी गहरी बातें पता हैं
जैसे कि आज भी जीवित हैं बहुत से हठ-
जैसे ये आम के दो पेड़ जिनके फल पकने पर
पीले नहीं बल्कि और भी हरे और कड़े हो जाते हैं,

इतने व्यक्तिगत परिचय के बावजूद
सबके अपने अलग-अलग संसार हैं
कोमलता कहां छू पाई बर्बरता को
अहंकार को कहां छू पाया संगीत
प्रेम परास्त नहीं कर पाया युद्ध को
तो, प्रत्येक वस्तु एक संसार है
प्रत्येक क्षण एक संसार है
प्रत्येक व्यक्ति एक संसार है
अपने में भरापूरा एक संसार है प्रत्येक भाव
इतनी अनेकता बनी रही बावजूद इतने पतन के

अब चूंकि नश्वरताएं भी अनश्वर हैं
इसलिए फीकी पड़ी है रुसाह के फूलों की मिठास
झरबेरी के गूदे तक में घुस चुकी है धूल
विद्रोह के बावजूद और भी खोदी गई मिट्टी
पटकन-तालाब गहराया है घाव-सा
गहराई है निराशा, गरीबी गाढ़ी हुई है
गहराये हैं अर्न्तविरोध
बच्चों में घटा है बचपन
परियों और भूतों का जिक्र आते ही
बच्चे हंसने लगते हैं हम पर
बड़ी खतरनाक हंसी हंसते हैं बच्चे

वैसे, मैने तो बचपन में,
जैसा कि होता है- दो पाँव उल्टे दो पाँव सीधे देखे थे भूत के
और थे नागपाश जैसे चार हाथ,
जैसा कि होता है- भूत के आसपास भूकम्प था,
फिर क्या, मैने तो अण्टी चढ़ाई मंत्र पढ़ा
और आकाश मार्ग से सीधे अपने आंगन आ खड़ा हुआ,
किन्तु महान आश्चर्य !
कि मेरे सबसे बड़े शत्रु गोपाल भइया ने अगले दिन
अलग से बुला कर मुझे कम्पट दिये
और दिन भर मुझे हंसाने के बहाने ढूंढते रहे

एक क्षयग्रस्त युग के साथ बीत कर भी
बीते नहीं हैं गोपाल भइया
ये क्या खड़े-खड़े मुस्कुरा रहे हैं हमारे दिशाभ्रम पर..
जब भी दुपहर की नींद टूटती है अचानक
तो वक्त लगता है समझने में कि क्या वक्त हुआ होगा
और कभी-कभी तो बीत जाता है ऐसे में ही पूरा जीवन
और पता ही नहीं लगता कि क्या वक्त हुआ होगा,
भंवर में गिरे हुए लोग ही
भंवर को और गहरा करते चले जाते हैं
और गोपाल भइया मुस्काते हैं कि
देखो भाई देखो अब तो क्रम का भी भ्रम !
हम जानते हैं कि ये चीजें यहां हैं
पर छूते ही वो उड़नछू हो जाती हैं
जितना ही करीब जाओ क्षितिज के
वो उतना ही दूर खिसक जाता है
भविष्य भी इसी तरह छुआई नहीं देता
पर दिखता रहता है
यहां तक कि खुद अपने आपको छुओ
तो 'आपा' भी छिटक कर जा बैठता है टीले पर
और वहीं से करता है टिलीलिली,
यही हाल प्रेम का
मिट्टी के प्रतिशोध का भी वही हाल
और गहराती संध्या के भूतों का तो और भी वही हाल
जितने स्निग्ध उतने ही छलन्तू
जितने स्थूल उतने ही सूक्ष्म
जितने निकट उतने ही दूर

अंधी गलियों से होकर चक्रव्यूह तोड़ते हुए
प्रमाण की तरह छोड़ते हुए अपने रक्ताक्त पदचिन्ह
सत्य आता है
मिट्टी के रस की सुगन्ध में,
खतरनाक हंसी हंसते अबोध शिशु-रूप में
सत्य आता है
रिक्ति में, स्मृति में, भ्रम और विस्मृति में भी
आता है सत्य ही
किन्तु वह क्या है जो दिखता है तभी
जब पहनता है भाषा का वस्त्र
और चलता है तब
जब सवारी करता है हमारी अनुभूति के संवेग पर...

वैसे, यह कोई रहस्य नहीं है
कि गोपाल भइया अब भी मुझ अधेड़ के सिरहाने
छोड़ जाते हैं कम्पट
और हमें हंसाने के बहाने अब भी ढंूढते रहते हैं
हंसी भले विद्रूप की ही हो
और कहां जान पाया मैं उस दूसरे के बारे में
जो उस साँझ
गोपाल भइया के हृदय में गहरा रहा था
बहुत कोमल रात की चूनर-सा

(शीर्ष पर वापस)

25. अपराह्न

बाढ़ में जैसे कभी-कभी
करवट पलटती हैं नदियाँ
पलटे हम एक-दूसरे की ओर
और बेसाख़्ता
हू-ब-हू एक-सी बात आयी हमारे लबों तक
दोनों आवाज़ों का वज़न भी
राई रत्ती बिल्कुल बराबर था
हार कर हम दोनों हॅंस पड़े एक साथ....

फिर धीरे-धीरे
देर तक
दुपहर बीतती रही....
चिड़िया-चुंगन-बादल-पतंग कहीं कुछ नहीं
एक धूसर-सी लहर तक
नहीं उठी हमारे हृदयाकाश में

दिन का चढ़ता हुआ ज्वार
महानगर की सड़कों पर गरज-तरज
वापस जा चुका था शिराओं में,
मालियों ने ख़त्म की काम की पहली पारी,
नेहरू पार्क के आकाश में उतर कर
हिरनों-सी चार आँखें
चुपचाप छक कर पी रही थीं
जीवन के अपराह्न का उत्कट
निःसंग निष्कपट निषिध्द अमृत

प्रेम की अनश्वर चट्टानों के बीच
क्‌वाँर की वर्षा का थोड़ा-सा जल
अब भी थमा हुआ था
शंखपुष्पी की श्वेत पंखुरियों पर
आकाश की नीलिमा अब झलकने लगी थी...

(शीर्ष पर वापस)

26. दुस्साहस

लो सॅंभालो यह स्यमन्तक मणि
उदास हृदयाकाश से तोड़ लाया हूँ यह अन्तिम नक्षत्र
यह भोर का तारा
इसकी फीकी दीप्ति में
तुम कैसे पढ़ पाओगी मेरा लिखा
इस लिखावट में भरेगा तो वक़्त ही भरेगा अब
किन्हीं नये अर्थों की रोशनी

लो सॅंभालो यह स्यमन्तक मणि
खो न जाए ये कहीं
दिन की धूल में धीरे-धीरे मलिन होता चन्द्रमा,
चूँकि तुम्हारा ही दिया हुआ यह
कुलिश-कठोर सत्य जैसा स्वप्न
आग-सी यह अनिद्रा
श्वेत हिम-सा पराजय का जड़ निभृत एकान्त
यह सभी गोचर अगोचर
सब तुम्हारा ही दिया है
इसे ले जाना

जैसे जैसे धुँधले होते हैं प्रतिबिम्ब
संकेत जैसे जैसे होते हैं अस्पष्ट
अश्रव्य आहट पड़ती है कनपटी पर हथौड़े-सी
तब कहीं जाकर
आँखों में बनता है थोड़ा-सा जल
पीठ पर थोड़ी-सी पृथ्वी
आम और जामुन की गन्ध में तब कहीं जाकर
महकता है थोड़ा-सा प्रेम
भय को भेदकर
तब थरथराते हैं दो गुलाब
कॉंपते हैं दो पहाड़ आनन्द में
तुम्हारी देह के समुद्र में
पुनरूज्जीवित होते देखता हूँ
मर्मान्तक कथाओं के निरपराध मारे गये शिशुओं को

तुम्हारी ही आँखों की ज्योति में
पढ़ता हूँ प्रेम के र्चिी चन्द्रमा की रेत पर,
चट्टान जैसे पानी पर
सूर्य की बर्फ़ में पढ़ता हूँ मैं
तुम्हारी उॅंगलियों से लिखा अपना गुमनाम नाम
और
पानी में नमक-सा
घुलता चला जाता हूँ तुम्हारी ही आँखों में

तुम्हारे काव्य के असमाप्त अन्तिम बन्ध पर
सप्तपदी के अन्तिम पद पर
तुम्हारी वाणी का अन्तिम अकेला शब्द मैं
तुम्हारे मौन की वह गन्दुमी-सी गूँज भी मैं ही
कि जिसमें मूँदकर पलकें कभी तुम मुस्कराती हो
जगाती हो मुझे
उस गहन जलती-सी अनिद्रा से

लो तुम्हें वापस किया
वह सभी कुछ जो मिला था मुझे चारों दिशाओं से
देखो तो मेरा दुस्साहस
अपनी नश्वरता के बूते पर
अमर करना चाहता हूँ मैं तुम्हारा नाम
नीहारिकाओं को धारण करने वाली तुमको
दे रहा हूँ धुँधली-सी यह स्यमन्तक मणि
प्रमाण की तरह
एक बुझे हुए सूर्य की स्मृति में....

(शीर्ष पर वापस)

27. राग बिलावल


गोदा-गादी चील-बिलउवा
लिखो और मुस्काओ
सीधी-साधी बातों में भी
अरथ अबूझ बताओ
परम बैस्नव बनो खेलावन
मार झपट्टा लाओ
जिसे किसी ने कभी न गाया
राग बिलावल गाओ

पकनी फुटनी काया लेकर
धरा धाम पर आये
जब देखी सुन्दर अमराई
मन ही मन गदराये
काचे-पाके झोरि गिराये
सुग्गा एक न पाये
बुरा न मानो रामखेलावन
करनी के फल खाओ
बात पित्त में कफ में सानी
बानी ज्ञानी गाओ
राग बिलावल गाओ

दास मलूका बने बिजूका
मन ही मन मुस्कावें
चिड़िया चुंगन आवें जावें
दाना चुग्गा पावें
कौन मलूका की ये खेती
जो वो हाँकैं कउवा
तुम्हें पड़ी हो तो तुम जाओ
अपनी फसल बचाओ
राग बिलावल गाओ

लाँघो अपनी देहरी दुनिया
लाँघो सात समुन्दर
अपने चप्पू आप चलाओ बूड़ो या तर जाओ
कविता के भौफन्द फँसे हो
उलझी को सुलझाओ
झिटिक फिटिक कर जाल तोड़कर
गगन सात मँडलाओ
राग बिलावल गाओ

वो थोड़ा-सा मुस्का देती
तो भादौं आ जाता
ये कीचड़ वाला पोखर भी
ऊपर तक भर आता
लहर-लहर लहराता पानी
सबकी प्यास बुझाता
लेकिन थूथन हिला हिला कर
भैंस खड़ी पगुराये
ज्ञानी से अच्छा अज्ञानी
फिर भी बीन बजाये

बना पोटली सत्तू धनियाँ
काँधे पे लटकाओ
बूढ़ बसन्त तरुन भये धावल
(छिमा करो हे विद्यापति कवि)
राग बिलावल गाओ

(शीर्ष पर वापस)


28. शब्दानुकूलन

ये बकरियाँ तो आपकी बलिदानी भावना को
समझने से रहीं
इसीलिए ये सींग टकरा ही देती हैं जब तब
और तिस भी जुर्रत
कि इनकी मॉं ख़ैर भी मनाती रहती है...

बड़े ढीठ हैं कुछ शब्द
उन्हें आपके गम्भीर साहित्य की
गहराई से डर लगता है
आप सजब घसीट कर लाते हैं उन्हें
तो कभी-कभी आपका लिखा सब फाड़ डालते हैं वे

मिला हूँ मैं उन बच्चों से
जो वयस्क होने से कर देते हैं इनकार
और अपने बच्चों की वयस्कता पर
आँखें फाड़े खड़े रह जाते हैं

मैं जानता हूँ बहुत से मतदाताओं को
जिनके प्राण फड़फड़ाते हैं पोस्टरों की तरह
जब निकट आते हैं चुनाव

जानता हूँ मैं उन दिनों को
जो काटे कटते नहीं बल्कि लोग ही
कटते चले जाते हैं
ऐसे ही दिनों के भीतर भरी-दुपहर
रात फट-फट पड़ती है बारूद-सी

इस शब्दानुकूलित वायुमंडल में
क्या कहूँ मैं आपसे
जब एक शब्द के पास बचता है केवल एक ही अर्थ

आपके स्पष्ट विचारों
और आपकी सफल विभीषिकाओं
की अग्नि में जल रहा है संसार
कौन-सा सत्य अब उद्भासित करने जा रहे हैं आप !

अब मुझे डर लगता है
सच कहूँ तो आपसे
और अपने आप से

(शीर्ष पर वापस)


29. प्रयोगशाला में

अमूमन दुपहर के बाद वाले घण्टों में ही
प्रैक्टिकल की कक्षायें लगती हैं
जब दिन बह रहा होता है अनमनी मटमैली मंथर
नदी सा

लेकिन प्रयोगशाला में घुसते ही
ओज़ोन, बिजली और स्प्रिटलैम्प की सुगंध में
नदारद हो जाती हैं नींद ऊब जमुहाई
और शरारत भर जाती है बॉडी में -
कई मौलिक आविष्कार ऐसे ही शरारतन हो गये...
लेंस, चुम्बक, मैग्नेटोमीटर और तमाम दूसरे उपकरण
बाहर फैली बेकारी की छाया भी नहीं पड़ने देते
जब तक चलता है प्रैक्टिकल क्लास

थोड़ा-थोड़ा घर भी घुस आता है प्रयोगशाला में
कहीं कोने में फ्लास्क में उबलती रहती है
अध्यापकों की चाय, और वे लगते हैं ज्यादा निकट
कभी कभी अचानक ही प्रकट होते हैं
निकिल कोबाल्ट लोहे के हरे नीले लाल गाढ़े रंग
माँ की तहा कर धरी हुई साड़ियों की याद दिलाते,
कभी अमरूद-सी कभी खटमलों-सी फार्मेल्डिहाइड
की गंध
भर देती पूरे वातावरण को, तीखी गैस
आँखों में पानी भर आता
और ऐसे में ही कभी-कभी आँखें उलझ जातीं और फिर
उलझती चलीं जातीं जीवन भर...

प्रयोगशालायें यों भी अच्छी लगतीं कि उनके बाद
फिर और कक्षायें नहीं होती थीं -
सामने फैला खुला मैदान खेलों का
प्रयोगशाला का बड़ा-सा हॉल उनकी भी आज़ादी का
आँगन था
जिन्हें कॉलेज के बाद
रास्ते की फिकरेबाजियों में भीगते हुए वापस घर लौटना होता था
और घर पहुँचकर फिर ख़ातून-ए-ख़ाना बन जाना होता था...

फिर भी प्रयोगशाला की याद
अक्सर सालों बाद रसोई में सूखते होठों पर
आकर फैल जाती थी अकारण मुस्कान-सी

(शीर्ष पर वापस)


30. मौनानन्द


कुछ के जीवन की नींव ही पड़ती है टेढ़ी
पीटे तो वे अक़सर ही जाते हैं
लेकिन इन दिनों, पिट जाने के कारण ही
अनावश्यक हिंसा फैलाने के ज़िम्मेदार भी
वे ही ठहराये जाते हैं-
फलस्वरूप और पीटे जाते हैं।

ढूँढ़े वे ही जाते हैं
अब चाहे मामला हो मेंढकी के जुकाम का
बकरे की मॉं के ख़ैर मनाने का या... या...
नक्कारख़ाने में तूती के बेसुरेपन का,
वे ही पकड़ मॅंगाए जाते हैं

एक बार चढ़ जाए नाम रजिस्टर में
तो तलब-पेशी में आसान रहता है सरकार को
सबकुछ पारदर्शिता की कसौटी पर खरा-
तय है अपराध, अपराधी, प्रक्रिया, दंड...
हर न्यायिक जॉंच में वे ही पाए गये दोषी
अपनी बीमारी ग़रीबी और पिछड़ेपन जैसे संगीन अपराधों के भी !
जैसा कि होता ही है प्रजातन्त्र में
हारे भी वही हर बार
और होते-करते
होते-करते
उन्होंने भी मान लिया कि चलो भई सब अपने किये का फल

तो अब जब भी होती है धरपकड़
वे ख़ुद-ब-ख़ुद हाज़िर हो जाते हैं
और सरकार के वकील से भी कड़ी
जिरह करते हैं अपने ही ख़िलाफ़
और फिर घिघियाकर कहते हैं
हुजूर छोड़ दिहल जाई ई बार
और मज़े की बात कि कभी-कभी छूट भी जाते हैं !

वैसे शोर-शराबे और वक्तव्यों के बीच
वे डूबे रहते हैं अपने ही मौन-आनन्द में ज़्यादातर वक़्त,
प्रजातन्त्र की सफलता का
यही सबसे बड़ा रहस्य है !

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31. लालसा

क्या कहूँ
बस एक लालसा है
जैसे पानी में पानी का स्वाद
जैसे गेहूँ में बाली की चुभन
जैसे मेरी आँखों में तुम,
कोई इतनी बड़ी बात नहीं
बस एक लालसा है
कि अब रहूँ तुम्हारे ही साथ

रक्त ने उठा लिया शर-चाप
त्वचा पर दौड़ता है दावानल
ज्वर जैसी कैसी
कैसी यह लालसा है !

हँसी आती है
जब तुम इसे
समझती हो आत्मा की प्यास
यह तो सीधीसाधी
यूँ ही बस एक लालसा है
जो कभी-कभी
आँखों से भी छलक पड़ती है

आना भी चाहूँ अब
तो कुछ मिलेगा नहीं इस वक्त
निकल गई आखिरी बस भी
लिफ्ट कोई किसी को देता नहीं
अब इस जमाने में

इस अधबसी कालोनी में
बीच-बीच अब भी बचे हैं
दो चार खेत खरगोश लोमड़ी
बिजली कम आती है
कपड़े साफ़ धुलते नहीं पानी में
आकाश में तारे
आखों में स्वप्न देखे हुए
बीत गये कितने साल
देखा नहीं तुम्हें


हवा में अभी अभी आई
तुम्हारे खुले बालों की सुगंध
कोई बड़ी बात नहीं कि
मैं उड़ चलूँ इधर
और तुम भी उधर
इधर आने का
बना ही लो मन
हो न हो
इसी लिये है
है यह लालसा
उद्दीप्त
दीपक की अंतिम लौ-सी
देह और आत्मा को दीप्त करती हुई

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32. परस्परता

सच्चाइयाँ जब हमारे सबसे क़रीब होती हैं
हम उनसे लाखों वर्ष दूर होते हैं,
देखो न
जब हम आये क़रीब
तो किस क़दर बढ़ने लगीं दूरियाँ हमारे बीच
यह तो अच्छा हुआ
हम दूर हो गये

जितना बड़ा है सत्य
असत्य कभी-कभी उससे भी बड़ा दिखता है,
कभी जीवन पर मृत्यु
कभी मृत्यु पर भारी पड़ता है जीवन
पर पासंग बना ही रहता है
इतनी परस्पर नहीं होती परस्परता

और सच पूछो तो
कौन बन सकता है अपनी मॉं की मॉं
कौन बन सकता है सुन्दर अपने प्रतिबिम्ब-सा
गणित में भी
कहाँ सध पाते हैं समीकरण !

सब खड़े हैं अलग-अलग धरातल पर,
जब-तब दो धरातल आमने-सामने आ जाते हैं
लेकिन ज़रा देर में ही कोई ऊपर कोई नीचे चल देता है
ऊँचा-नीच लगा ही रहता है संसार में
लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि
आप
ले उड़ें मरी हुई सभ्यता की आँत
और कहें
कि समानता के स्वप्नों पर भी पाबन्दी है

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33. आखर अरथ


निःशब्द ही अब चल पड़ेंगे अर्थ
जैसे कतार में रेंगती चलती है चीटियाँ,
चलेंगे अर्थ जैसे फूल की पंखुरी पर
चलती है तितली,
अर्थ चलेंगे जैसे गाय भरती है झुरझुरी
और उड़ जाते हैं मच्छर,
इतनी गतिमान और गहराती शान्ति में
असम्भव होगा चुप रह पाना -
रोक कर आत्मसात करना होगा इतने अर्थों को,
मिलना भेंटना होगा अँकवार भर-भर
सारे निहितार्थों से,
पूछना होगा कुशल-क्षेम, सुख-दुख, अता-पता
अनुभूति की देहरी के पार डाल पलक-पाँवड़े
उन्हें आँगन तक ले जाना भाइयो !

बचपन में तो अक़सर ही
आते थे नये-नये अर्थ
भेस धर बिसाती का, कॉंवरियों का,
परब-त्योहार मॉंगने वालों का या
यूँ ही पन्थी-पंछी का धरे भेस
आते थे नित नूतन अर्थ
फेंटा बाँधे या पहने दुपल्ली टोपी
लाठी में लटकाये चमरौधा
क़िस्से ही क़िस्से निकालकर बिसात-सी
बिछा देते थे वे दालान के तखत पर,
चबूतरे पर सिरहाने धरे गिंडी या अँगौछा
झपका कर आँखें कुछ देर,
वे खींच लाते थे सपनों ही सपनों में
आस-पास मॅंडलाती
कितनी ही बातों के अर्थ-
जैसे फूलों की ओर खिंची चली आती हैं
मधुमक्खियाँ
और पताल का मीठा पानी
जैसे चढ़ता चला जाता है फुनगी पर पकते हुए आम में -

तो इस बार इतने दिनों बाद
एक बार फिर उनको रोकना
गो कि सूख चुका है पानी भूगर्भ का
और फूलों का नामोनिशान नहीं दूर तक,
फिर भी अर्थ का टिकेंगे ज़रूर कुछ देर
और जब जाने को होंगे
तो गठरी उठाते-उठाते गुनगुनाएँगे कोई अर्धाली
या हरहराएँगे पीपल की तरह
दे ही जाएँगे तुम्हें वे थोड़ी भाषा और मानुस-गन्ध
और फिर चलते चले जाएँगे मेड़-मेड़
खो जाएँगे
विस्मृत आख्यानों के सुदूर विस्तार में...
हो सकता है
वे लुप्त होकर वहीं व्याप्त हो जाएँ तुम्हारी ही काया में

उनके प्रस्थान के झोंके साथ
हो सकता है अचानक प्रकट हो जाए-
शेरों के सुनहरे अयाल-से लहराते गेहूँ के खेतों से भरा क्षितिज
या तालाब से भाप बनकर उठता वैशाख
और आमों के वृन्तों पर हल्का-सा यौवन-उभार बौरों का,
साथ-साथ झाड़ियों में खोजती झरबेरी आएगी ललमुनियाँ
कॉंटों की नोक पर फुदकती,
कोयल लौट चलेगी सिंहल-द्वीप से,
आर्तनाद-सा प्रचंड सूर्य
उठेगा तूर्य बजाता हुआ,
चौंक कर कान खड़े करेंगे श्वापद और गोवंश,
चबूतरे पर अभी जहाँ बैठे थे अर्थ
वहीं अब धीरे-धीरे
साकार और मूर्त होने लगेगी उनकी अनुपस्थिति
ख़ाली साँचे की तरह,
शायद इसी मिस इसी तरह
फिर वापस लौटेंगे अर्थ
लाएँगे साथ-साथ नयी अभिव्यक्ति
आतप में उत्तप्त...

चॉंदी की तरह तिलमिलाएगी
फ़सल-कटे-खेतों की बलुअर माटी
खलिहानों में चलेगी ओसाई-मड़ाई
मुसकी बॅंधी रहेगी बैलों के मुँह पर
कि खा न सकें भूसा मड़ाई का,
लू की लपटें घुसेंगी घड़े में
बुझाने को प्यास
पर मिलेगा उन्हें वहाँ अर्थहीन शून्य
और फूटी हुई पेंदी

मृद्‌भांड इतिहास के शून्य को
भर कर लिये चले आते हैं वर्तमान तक-
टीलों में गड़े हुए प्राचीन मृद्‌भांड
जिन्हें दुष्ट जमाख़ोर
पानी भर कर लगा कर टोटका गाड़ देते थे जमीन में -
बन्धेज हुआ पानी तो रूक जाती थी बारिश
आता था अकाल
तिजोरियों में चॉंदी बरसाता
पानी के साथ-साथ
सारे ही जीवन को करता बन्धेज...

खोदो अगर भाषा को गहरे
खोदो अपने ही आसपास अगर
खोदो और भी गहरे अपने ही भीतर
तो मिलेगा न जाने क्या-क्या बन्धेज
और मुक्ति के अर्थ
नये तेवर के साथ खुलेंगे
जैसे-जैसे खुलेगी यह सुबह...
क्योंकि
जगहर की पहली पदचाप
सुनाई दी है अभी-अभी
गो कि कहीं दूर बहुत गहरे भाषा के गर्भ में...!

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34. कैशोर्य


इतनी पारदर्शी कि आकाश
इतनी निर्मल कि शून्य
इतनी निष्कलुष कि असम्भव
फिर भी
अगर देखना ही चाहते हो मुझे
तो तुम्हें मिलाना होगा मुझमें
कोई रंग
भले ही अपने रक्त का

ख़ालिस हवा हूँ मैं
इलहामों वाले रेगिस्तान की
निर्गन्ध मदहोश कर लेने वाली कस्तूरी
भोट देश की उपत्यकाओं की
मर्माहत, अदृश्य
हिंसक आत्मा
मैंने आग लगा दी है इन्द्रधनुष में...

फिर भी न जाने क्यों
पसीने-सा छलछला उठता है मेरे ललाट पर
सौन्दर्य की विस्मृति में खोया हुआ
मेरा किशोर्य
जिसने थाम रखी है अभी भी
एक बहुत ही प्यारी
और विचित्र पृथ्वी
कंदुक-सी

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35. नयी कॉलोनी

अरावली पर्वतमाला फिर हार मानकर
आज और कुछ ज़्यादा पीछे खिसक गयी है
भय से आँखें बन्द किये मैं देख रहा हूँ
इन्द्रप्रस्थ के पास खांडव-वन को खाता
छिड़ा हुआ इक घमासान है-

जिसमें धरती हार रही है,
बजी ईंट से ईंट भर गया आत्मा में कंक्रीट
चिन गया दीवारों में प्रेम
पर्वतों की छाती को रौंद
बन रहे ऊँचे ख़ूब मकान
फट रहा आसमान है

ट्रैक्टर की मिक्सर की खड़खड़
अब भी उतनी ही कर्कश है इस साइट पर-
किन्तु आज आदमी बहुत थोड़े आये हैं
लगता है अब सिमट चला है काम
झुग्गियों के चूल्हे अब तक सोये हैं
नहीं उठ रहा धुआँ

लग रहा चले गये मज़दूर भोर होने के पहले...
आज नहीं आयी गायें भी जूठन खाने
धरती भी है गाय, गाय भी धरती ही है
लगता वे भी बिकीं और लद गयीं
लद गया समय, लद गये स्वप्न, लद गये स्वजन
और अब अरूणाभा तक नहीं, कि
ऐसी फीकी भोर कभी इस ठौर नहीं देखी थी मैंने

अभी वहाँ पर दूर दिख रहे जो थोड़े से लोग
न उनमें मिस्त्री या मज़दूर
सिर्फ़ ठेकेदारों का जमावड़ा है-
आसपास की हावा घास कुस कॉंस जल रहे हैं हिंसा में
नाप-जोख चल रही, इक नयी कॉलोनी बनने वाली है

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36. मधुकरी

बहुत दिनों के बाद
अघा कर
आज मिली महराज, बियारी !

आधी भेली गुड़ की पायी
भर पुटकी गुरधनियाँ
भंडरिया की आज सफ़ाई
करती है रूकमिनियाँ

उसके पीछे-पीछे ही तो
आया था गोपाल
उसके कंठ पड़ी थी
सूखे फूलों की बनमाल
बुलडोजर ने चर डाली है
भाई, धरती सारी
गाय चराने कहाँ जाएँ अब
बोलो कृष्ण मुरारी

सारा पानी कालियदह में
जल-थल बसैं भुजंगम
कारे-कारे विष के मारे
डारे हैं जड़-जंगम
चिड़िया-चुनगुन जीउ-जनाउर
भूखे प्यासे धावें
होठ धरे मुरली बनमाली
किसको राग सुनावें

भंडरिया की तरह सफ़ाई
दुनिया की कर कोई
गऊ गोपाल गोप सुख पावें
भूखा जाए न कोई

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37. केतकी के फूल

सीढ़ियों से आया कि लिफ़्ट से...
पर आया भय
थम गयी पदचाप सहसा, और फिर,
थाप थाप थाप ट्रिंग...
रात पौने दो बजे
माफिया का देस
फ़्लैट नब्बे फ़ीसदी
ख़ाली पड़े हैं साँय-साँय

हवा-बइहर क्या पता
क्या जा रहा था
कभी जाना कभी अनजाना
बहुत लम्बा और काला
पहन बाना
या कि
ख़ुद से निकलकर बाहर
कहीं मैं जा रहा था ख़ुद...

दरो-दीवार पर
चस्पॉं अजब-सी रोशनी थी
न बिजली थी
न सूरज चॉंद तारे थे
हमारी ही

किसी उम्मीद की आभा
उजाला भर रही थी
आँख के तारे
हमारे
केतकी के फूल
बाहर खिल रहे थे
अँधेरे में... भय न था !

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38. जीत - हार

नगाड़ा बज रहा है धम्मा-धम्मा
सीने में जलन बढ़ रही है
मतवाला बेचैन हाथी उठाकर धरने ही वाला है पाँव
विजय का जुलूस बढ़ रहा है

विजय चतुर्दिक है उनकी
इस रॅंग की हो या उस रॅंग की
सब कीर्तिपताकाएँ उनकी
सागर की लहरों से लेकर
मर्मस्थल तक उन्हीं की धुन धुकधुकी में भी

उनकी विजय से भी बड़ी
है अपनी पराजय
इतनी विस्तृत और विशाल
कि न तो दिखाई देती है
न आती है समझ में
जैसे पृथ्वी की गोलाई ही कहाँ आती है समझ में
इतनी सघन है पराजय
कि सूझता नहीं हाथ को बढ़ाया हुआ साथी का हाथ

विजयी थोड़े से हैं और वही दिख रहे हैं
वही बेचते हैं
और बाक़ी सब ख़रीदते -ख़रीदते बिकते चले जाते हैं
वे हमें बेच रहे हैं हमी को बेधड़क
डालर पेट्रो-डालर की खनक में
कुछ हैं जो नाच रहे हैं छमक-छमक

लेकिन आज भी
अधिकाई उन्हीं की है और रहेगी भी
जो उठाकर लुकाठा आ जाएँगे बीच बाज़ार
घर तो उनके जाने कब के फुँक चुके हैं...

 

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