1.वह जगह
जा रही है लहर
पीछे छूटता जाता है पानी
लहर में पानी नहीं
कुछ और है जो जा रहा है
शब्द में टिकती नहीं कविता
न कविता में समाता अर्थ
थमता नहीं है संगीत ध्वनि में
रंग रेखा रूप में रुकता नहीं है चित्र
जिया जितना
सिर्फ उतना ही नहीं जीवन,
आ रहा संज्ञान में जो
सिर्फ उतना ही नहीं सब कुछ
यहीं बिल्कुल आस-पास है कहीं वह जगह --
जहाँ अपनी सहज लय में गूँजता संगीत
होते हैं तरंगित अर्थ कविता के,
जहाँ साकार होते हैं सभी आकार अपने आप
जहाँ इतनी सघन है अनुभूति
जैसे गर्भ माता का
अँधेरी रात का तारों भरा आकाश
या फिर अधगिरी दीवार पर
फूले अकेले फूल की पीली उदासी ....
सघनता भी जहाँ जा कर विरल हो जाती !
किसी को दिख जाय शायद "वह जगह"
वह जगह है आदमी के बहुत पास
कभी शायद कह सके कोई --
"यह रही वह जगह
ठीक बिल्कुल यहाँ, उँगली रख रहा हूँ मैं जहाँ" !
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2.वैदर्भी रीति
अब मास्को के ऊपर
तैर रहा होगा सप्तर्षि मंडल
हवाई जहाजों के साथ
अब तुमने बंद की होंगी
खिड़कियाँ रंगून में
बताना तो
क्या नाम है अब वियतनाम का
स्कूलों में क्या
माली अब भी तैयार करते हैं
फूलों की क्यारियाँ
बिल्कुल सच्ची है ख़बर कि दुबारा
फाँसी दी जाएगी भगत सिंह को
लाखों विचार
मस्तिष्क के अंधकार में
टिमटिमा रहे हैं
इस अमावस की रात
मुझे लम्बी यात्रा पर जाना है
पढ़ना तुम
कल सुबह के अखबार में
विदर्भ के किसानों ने
शुरू कर दिया है
एक बिल्कुल ही नई
कविता-सी पृथ्वी का निर्माण...
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3.नया
धरातल
नई भूमि थी नया धरातल
ताँबे का जल जस्ते के फल
काँसे की कलियों के भीतर
चाँदी की चाँदनी भरी थी
पारे का पारावार मछलियाँ सोने की
था मत्स्य न्याय का लोहे जैसा अहंकार
निर्मल अकाट्य था
अष्टधातु का तर्क और
मरकतमणि के गहरे प्रवाल के जंगल थे,
जंगल में आँखें रह-रहकर जल उठतीं थीं फास्फोरस की
सिलिकन के मस्तिष्क में छुपी बुद्धि
शहर के स्कूलों में अपना चारा खोज रही थी
और टीन के कीत-पतंग-मक्खियाँ-चींटे
चाट रहे थे नमक रक्त का
शोरे के पहाड़ थे जिनमें दबी पड़ी अभिव्यक्ति
दहकती थी जैसी बारूदी चुप्पी
अभ्रक की चट्टानों के थे सिद्धपीठ
पर्वत की ऊँची चोटी पर
गंधक के बादल सोते थे
पत्थर की आँखे ती उस युग के भाष्यकार की
नीलम की पुतलियाँ अचंचल
सधी हुई एकाग्र लक्ष्य पर
आखेटक सी
इंटरनेट के राजमार्ग पर
शोभायात्रा निकल रही थी तत्वज्ञान की,
अर्थशास्त्र के सूचकांक में संचित था सारा संवेदन
राजनीति थी गणित, गणित में समीकरण थे
ज्यों ही मानुषगंध भरा कोई विचार
उस देश-काल में करता था संचार
घंटियाँ खतरे की बजने लगती थीं,
सब खिड़कियाँ और दरवाज़े
अपने आप बंद हो जाते
चक्रव्यूह से बचकर कोई
बाहर नहीं निकल सकता था
आभ्यंतर में फिर भी कोई
चिड़िया पिंजरा तोड़ रही थी
धुक् धुक् धुक् धुक्
धुक् धुक् धुक् धुक्
(शीर्ष
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4. काठ
और काठी
पक रही है पानी में
शहतीर
आग पर रोटी
रोग में तन
और आत्मा विछोह में ...
कीचड़ और पानी में
पक रहा है काठ
सिंहल समुद्र के जल
और वैसवाड़े के पसीने
से बना
शीशम का यह तना
गोह साँप गिरगिट
की रेंगन से रोमांचित...
तितलियों-सी
पत्तियों से भरा यह शीशम
घर था अनश्वरता का
कोटरों में घोसले
आँधियों को परास्त करते हुए ...
उन्हीं कोटरों में रहते हैं अब
कछुए मुस्कान जैसे मुँह वाले
वहीं से बुलाती है सबको
अनश्वरता
कीचड़-पानी में
पक रहा है शहतीर
काठ लोहा हो रहा है
और काठी भी ......
(शीर्ष
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5.
काया-की-माया रतनजोति
तरह-तरह की दूरियाँ
और विस्तार
पार कर लौटा अपने द्वार
सँभाले भुवनभार,
चौखट पर झूले-
झुके आ रहे हैं किवाँर
मेरे ऊपर
लाँघी देहरी-आँगन-दलान
चूल्हा-चौका सारा मकान
जिसमें अब रहता आसमान
धुँधला धुँधला
जल्दी में छूट गई थी खूँटी पर कमीज़
सो झूल रही है भारी-भारी
धूल भरी
यह मेरी ही काया किशोर -
वय की छूटी
जो यहीं रही
मिट्टी-पानी में सराबोर
सो अविगत-गति में
सुधियाती-सी
ताक रही है इसी ओर
बाहें निढाल
तन का ताना-बाना मलीन
यह शरदकाल
की कमलनाल
इस बीच न जाने और कौन
आ बैठा टूटी कुर्सी पर
इस ओर पीठ
तो तुम हो ये
मेरी ही एक और काया
वैसी ही गब्बर और ढीठ !
पूरब की तरफ घड़ौंची से
वह कोई एक और निकला
वह कोई बर्तन माँज रहा है
नाली पर
फिर कोई और
रसोई में... वह रतनजोति !
इतने शरीर यह सब मेरे
इनसे ही भरता चला जा रहा
देशकाल...
मैं बहुत दिनों के बाद
दूरियों की दुनिया से लौटा हूँ
सो आ पाया हूँ काया में
तुम समझ रहे थे
क्या यूँ ही
काया की माया के पीछे
मन पागल डोला करता है !
(शीर्ष
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6.द्वैत
वह दोभाषिया है
फिर भी दोनों भाषाओं में
बात एक ही बोलता है
जो देखता है
और आप
आप तो कुल मिलाकर
बोलते ही हैं एक वही शब्द
और हर बार उसका भी अर्थ बदल जाता है
कभी दायें से और कभी बायें से करता हुआ वार
हे सेठ, हे अफ़सर, हे नेता-पत्रकार
आप पर फिर भी हम करेंगे एतबार!
द्वैधताएँ तो और भी हैं
विकास-क्रम के सोपान में-
दो दालों वाले बीज ऊपर हैं
एक दाने वाले अन्नों से,
वास्तु के विकास में
दो आँगन वाले मकानों में
एक आँगन एनीमिया और मृत्यु का मुकर्रर हुआ
और एक पौरूष का,
जीव-जन्तुओं के विकास क्रम में
हम जानते हैं
बिल्कुल विषहीन है
दोमुँहा साँप बावजूद इतने ख़तरनाक नाम के,
और हम यह भी जानते हैं
विकास-क्रम में बहुत ऊपर आता है
दो-मुँहा आदमी
लेकिन क्या करें इन वक़्तों का
कि जिनमें
उदारीकरण छीनता है रोजी-रोटी
कि जिनमें
प्रजातन्त्र की कोख से ही पैदा हुए
लंपट लुटेरे नए राजवंश
कि जिनमें
धर्मनिरपेक्षता को बना लिया है ढाल
संसार की सबसे भयानक धर्मान्धता ने
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7.चतुर्मास
इतनी ऊँची इस फुनगी तक
इतनी मिठास कैसे आयी
कैसे आ पायी यह सुगन्ध
कुछ हींग और कुछ चन्दन-सी
आँधी-तूफ़ानों से बचकर
इस एक अकेली अॅंबिया में
पक रहा ग्रीष्म का प्रौढ़ राग
कुछ-कुछ विषाद
कुछ-कुछ विरक्ति
कुछ भग्नाशा....
मॅंझधार पार कर आयी है
दलदल में धॅंस कर आयी है
तट की कठोरता से होकर
मिट्टी के पोर-पोर भरती
जड़ से होकर शाखाओं तक
टहनी-टहनी पत्ते-पत्ते
यह बौर-बौर बौराई है
पानी की आभा आयी है
अमरस बनकर झलमला रही
स्वर्णिम अमृत की एक बूँद....
आमों का आया चतुर्मास
संन्यासी और दलालु गृहस्थों
की कुटियों-चौपालों
में
भभक रहा है चतुर्मास
इतनी सुगन्ध इतनी मिठास!
आमों का वैभव दो दिन का
रस-रसना का यह चिद्विलास!
है रात अमावस की तो भी
पकते
आमों में
उतर रही है
सान्द्र
चन्द्र
मा की उजास !
(शीर्ष
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8.
द्वारपाल
वे अन्तःकरण के द्वारपाल हैं
अनुशासित विनयशील
तत्पर
सुन्दर सुशील सौम्य
बच्चों को देखते ही वे
मुस्कराते हैं......
बच्चों को देखकर
वे
क्यों
मुस्कराते हैं इतनी तीखी मुस्कान?
और क्या कहूँ इन बच्चों को
अभी उन्हें
डर की समझ नहीं है...
मृगशावक तो
पैदा होते ही
सूँघ लेता है
तीन मील दूर छिपे तीरन्दाज़ को
और बच निकलता है
आदमी के बच्चे को
सब कुछ ख़ुद ही सीखना पड़ता है-
जीवों के विकास क्रम की
यह भी
एक विडम्बना है...
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9.
तुम्हारा जाना
ख़ुद को ख़ुद में लपेटता
लौट रहा है समुद्र-
तुम जा रही हो....
वर्ष बीत-बीत कर
एक-दूसरे में
खोते चले जाते हैं,
हर नए चन्द्रमा के साथ
उतरती है त्वचा की एक पर्त,
छीज रही है छाया
बीत रहे हैं जीवन
धुन्ध में डूबे हुए पुल पर
चलती तुम जा रही हो
ऋतुओं के प्रवाह के पार
दूसरे तट पर
विचित्र वनस्पतियाँ
तुम्हारी प्रतीक्षा कर रही हैं
कड़े हो रहे हैं उनके कॉंटे
चटक और चिपचिपे
हो रहे हैं फूलों के रंग
फलों में भरता है
ज़हरीला गाढ़ा विषाद
सूर्यास्त सूर्योदय का हाथ पकड़
नाच रहा है
तुम जा रही हो...
आठ वर्षों की
आठ पर्वतमालाओं की
आठ उपत्यकाओं की
आठ वैतरणी नदियों के पार
अन्तिम चुम्बन की अग्नि में धॅंस कर
कवि पद्माकर की गंगा में
उतरती हो तुम जल में समाती
जैसे वैदेही जाती है पृथ्वी के गर्भ में
तुम जा रही हो... जल के पाताल में
जाया नहीं जाता जिस तरह
ठीक उस तरह तुम जा रही हो,
आठ वर्षों की गहराई
वाले कालकूप में
तुम स्मृति की तरह
जा रही हो....
और जा नहीं पा रही हो
(शीर्ष
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10. कॉलसेंटर की गाड़ियाँ
तुम्हारी बेटी
कल वापस चली गयी बेंगलूर.... दूर....
आज मेधा पाटकर की-सी
लग रही हैं तुम्हारी लटें
चॉंदी के तार,
कोने में धरा उसका सितार
मई की धूल से धूसरित
धूल जलती है गगन की धमनभट्ठी में...
बन्द हो रहे हैं सरकारी उपक्रम कारख़ाने
निम्बौरियों की सुगन्ध आज भी
हमारे यौवन को छूती है !
अब बहुत कम लोगों के पास
बची हैं नौकरियाँ
तेज़ी से भागती कॉलसेंटर की गाड़ियाँ
पृथ्वी की खाल छीलते हुए
बुझी-बुझी आँखों का असबाब ढोती
टक्कर मारती जा रही हैं
वैतरणी के ठोस जल पर
दौड़ती-खूँदती कॉलसेंटर की गाड़ियाँ...
ये गाड़ियाँ,
बताना भाई,
पेट्रोल से चलती हैं
कि ख़ून से ?
(शीर्ष
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11. अवगाहन
उड़ रही हवा की मलमल
की चादर ओढ़े-ओढ़े
कोई सुन्दरता छुपती
बचती-सी भाग रही थी
जाने अनजाने रंगों
की किरने छिटक रही थीं
या छूट रहे थे रंगों
के तीर उसी के ऊपर
उसकी आकृति भी ऐसे
आकार बदल लेती थी
जैसे पानी बादल बन
कर ऊपर चढ़ जाता है
फिर बरस बरस कर जाने
क्या-क्या कुछ भर देता है
वह सुन्दरता भी ऐसे
ही बरस-बरस जाती थी
लेकिन अपने ही भीतर
इस तरह दिनों दिन उसके
अन्तर का गहरा सागर
भर-भर कर उफन-उफन कर
गहराता ही जाता था
उसका अवगाहन प्रतिपल
होता जाता था दुष्कर
पहले जितना भी पाने
के लिए डूबना होता
था पहले की तुलना में
दस गुना अधिक गहरे में ....
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12. नज़र में घुस कर छुपे
नज़ारे
वहीं पे जाकर अटक गया वो जहाँ से कोई निकल न पाये
थका नहीं है मगर ये उलझन इधर से आगे किधर को जाये
अगर “किधर” का पता चले तो कोई बताना उसे बुला कर
उसे इशारे पता नहीं हैं उसे जगाना हिला-हिला कर
वो ऐसी दुनिया का रहने वाला जहाँ पे चीजें खुली हुई थीं
जहाँ की दुनिया में ठोसपन था जहाँ पे कड़ियाँ जुड़ी हुई थीं
बहुत सहल थी जो उसकी दुनिया यही तो उसकी बेचारगी है
उसे यहाँ का पता नहीं है तभी तो इतनी आवारगी है
अटक रहा है भटक रहा है समझता है वो कि “सच” ही सच है
यही तो उसकी कमी है प्यारे, जिसे समझता वो सादगी है
ये पेच-ओ-ख़म ये यहाँ की गलियाँ नज़र में घुस कर छुपे नज़ारे
वो जा रहा है जिधर भँवर है अभी ख़ड़ा था इधर किनारे
कोई बताओ उसे कि सच में छुपा हुआ है तिलिस्म कितना
उसे बताओ की सादगी में छुपा हुआ है फ़रेब कितना
अलग-अलग हैं क्यूँ इतनी राहें हज़ार रंग की तमाम किस्में
फिर उनमें आपस में भेद इतना अलग-अलग जिन्दगी की रस्में
जो दिख रहा है दो आँख का भ्रम, हज़ार आँखें कहाँ से लाये
उसे बताओ वो खुद से पूछे पता चलेगा किधर को जाये
मगर ये “खुद” भी तो एक बला है जो उसके पाले नहीं पलेगी
ये वो दिया है कि जिसकी बाती लहू जो देगा तभी जलेगी
लहू वो इतना कहाँ से लाये कि ज़िन्दगी भर जले ये बाती
रहा जो ज़िन्दा तो साँस लेगा जो साँस लेगा उठेगी आँधी
जिधर दिया है उधर ही आँधी, ये ज़िन्दगी ख़ुद विरोध अपना
कभी ये आशा कभी निराशा कभी ये सच है कभी ये सपना
सचाई सचमुच छुईमुई है अगर छुआ तो निढाल होगी
नज़र ने जा कर नज़ारा बदला दिखेगा दिन पर वो रात होगी
कुछ और है वो जो दिख रहा है तो कौन है वो जो लिख रहा है
किसी ने फेका है जाल ऐसा गगन के तारे उलझ गये हैं
अब उसकी आँखों की कमसिनी के सभी सितारे भी बुझ गये हैं
तभी से वह सब लगा है दिखने जो उससे अब तक छुपा हुआ था
लगा है फिर वह जुलूस चलने अभी कहीं जो टिका हुआ था
नहीं है उतनी ये बात मोटी सभी को हासिल हो दाल-रोटी
यहीं से उठते सवाल गहरे यहीं से होते जवाब दोहरे
जुड़े यहीं से ख़ुदी के मानी कि आदमी है ख़ुदा का सानी
यहीं से तय अब ये बात होगी कि कौन बोलेगा किसकी बानी
किधर बहेगी नदी समय की किधर ढलेगा अब उसका पानी ।
(शीर्ष
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13.
आवाजाही
बहते पानी और चट्टान के बीच
तैरती एक रोशनी में,
हवा और सुगन्ध के बीच उड़ते
कम्पित स्वर में,
पाँवों और ज़मीन के बीच
आवेग भरती थिरकन में,
सभी का हिस्सा है कुछ न कुछ
स्मृतियाँ मुस्करा रही हैं
रातों की पर्तो के भीतर जुगनू जैसी,
शताब्दियों की गहरायी में
डूबी पड़ी है नींद,
एक असहज-सा
पुराना मकान
अभी तक
दुपहर में सीझा हुआ
जाने कब से खड़ा है
ग़ौर-आबाद
गिरने-गिरने को
इस सबके बीच
न जाने किस दुनिया से कितना कुछ लगातार
जाने-अनजाने
शामिल होता रहता है हमारी दुनिया में
और इस दुनिया से जाने कब
कितना कुछ और किसी लोक जा पहुँचता है
अजब-सी आवाजाही लगी है
बदहवास, बेतरतीब, बेवजह
फिर भी
जीवन से लबरेज़
उत्कंठित
जिज्ञासु...
(शीर्ष
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14. रामधनी
रास्ता परिचित था
सन्नाटा अपरिचित
रह-रहकर रूक जाना पड़ता था
लगता था कोई आ बैठा कॉंधे पर
खिलन्दड़, चपत लगाता धौल जमाता
टॅंगड़ी मारता
दिन पितर-पक्ष के
भूखा-प्यासा क्या जाने कौन हो
मन ही मन हाथ जोड़ आगे चले रामधनी
काठ के किवाड़ों और बिना खिड़कियों वाले घरों की नींव के
साथ-साथ
बहती चली चल रही थी बजबजाती नाली,
गोबर की गन्ध से कभी ख़ुश कभी नाराज़ होती हवा
चबूतरे पर लगी कटियामशीन और उस पर सूखती मटमैली धोती
को छेड़ती हवा दुपहर को गुदगुदाने के चक्कर में,
और दुपहर की धूप जा छुपी थी छतों में
भीगती मसों वाले लड़कों के साथ खोजती अभेद के भेद,
अधसीसी के दर्द और मिर्च की छौंक से भरी गली
बिल्कुल आँगन-सी चौपाल-सी परिचित लगने लगती कभी,
कहीं से बूँदों के टपकने की आ रही थी आवाज़,
सूप पछोरने की आवाज़ और कलह कलेस में डूबी
घायल बैसवाड़ी कहावतों के साथ उड़ते गरियहर विस्फोट
ठिठका समर्पित गली के मोड़ पर
खड़ा था एक रूप
एक पीपल बहुत बूढ़ा पर कदकाठी से लगता बीस बरस की वय
का
पत्ते-पत्ते देवानाम रामधनी मास्टर-सा बिल्कुल
जो हमेशा ‘छोटे’ ही रहे
यहाँ तक कि उनसे बहुत कम उमर के छोकरे भी
गाँव के रिश्ते में लगते उनके मामा और नाना
किस मजबूरी में आ बसना पड़ा होगा बाप को
बन कर घरजॅंवाई
गॉंव पार करते-करते लग रहा था आज
जैसे पाँवों के नीचे से खिसकती दूर चली जा रही है ज़मीन
और गली तो जैसे भाग रही थी अब
और भागते-भागते चने के खेतों वाली कॅंकरीली ज़मीन में
जाकर भरम गयी थी
आगे नाले की पुलिया पर बैठे
तीन चार जन चरा रहे थे बकरी भेंड़ी
उनमें से सबसे छोटे ने
खरी-खरी टहकार लगा कर पूछा- पंडित टैम क्या हुआ होगा
साइकिल रोकी रामधनी ने
हैंडिल थोड़ा दायें मोड़ा
साइकिल का पहिया डग भरता हुआ रूक गया
रामधनी ने कैरियल पर रखी गठरी को फिर से खोला बाँधा छोरा
मोड़ कलाई बड़े ध्यान से देखी घड़ी और फिर बोले टैम बुरा है
नहीं भरोसा किसी बात का किसी चीज़ का
चार बजे होंगे अब भइया-घड़ी बन्द थी कई साल से
पैडल मार बढ़ गये आगे रामधनी
कुछ भूल गये थे कहीं न जाने बरसों पहले
वह गोखुरू के कॉंटे जैसा जब तब टीस दिया करता था,
चरवाहों ने अपनी बकरी भेड़ हॅंकारी
पुलिया के नीचे छुपकर बैठे मेमने निकाले
और चल दिये फिर वापस आकाश मार्ग पर धीरे-धीरे
सूरज उनके साथ आज भी लुढ़क रहा था पहिये जैसा,
पता नहीं किस उषःकाल की भेड़ें औ’ उनके चरवाहे
नरवल के ऊसर से उड़कर
धर कर भेस देवदूतों का उड़ते चले जा रहे जाने किस सन्ध्या में,
अपनी गठरी को सॅंभालते
विडम्बना में मुस्कराते-से-
‘रामधनी के कौन कमी परारब्ध अपनी-अपनी’
(शीर्ष
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15. अपारता
रास्ता छेक कर
अड़ी खड़ी है सामने अपारता
मांसल प्रौढ़ प्रथुल नग्न निःशब्द,
पिछले वसन्त का फूला हुआ
पका हुआ एक फूल अपरम्पार
सौंदर्य की सीमान्त रेखा पर
साक्षात् अश्लील रंगों का विस्फोट,
सुगंध की आदिम गुफा के द्वार पर
इस महापद्म की पंखुरियाँ
खो जायेंगी झर कर शरद के पुष्कर में
और
शरद का जल
शरद के जल सा सिंघाड़ों से भरा हुआ
कंटकाकीर्ण मृदुल पुष्ट ....
आयेगा निपट निदाघ
कोई उठेगा
और खड़े-खड़े भाप बन जाएगा,
बालू पर उगेंगे फूलों के पदचिन्ह
बालू पर....
और बालू क्या
समय ही समझो उसे
जो खिसकता जा रहा है तुम्हारी मुट्ठी से ..
अपारता के आमने-सामने
खड़े हो तुम
जैसे पृथ्वी आती है सूर्य के सामने
और सूर्य के कुण्ड में कूद जाती है
जी भर नहाती है...
(शीर्ष
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16.सन्ध्या
अत्यन्त सुपाठय
किन्तु निरर्थक सन्धिपत्र-सी
सन्ध्या फैली है सामने,
अपनी कठिन शर्तों के
रक्तिम ओज और स्निग्ध अन्धकार के
धब्बों के साथ
विन्ध्य की विशाल गोंडवाना चट्टान पर
सन्ध्या फैलती जा रही है...
विचित्र लिपि में लिखी,
जीवित रेंगते हुए अक्षरों को
बार-बार कतारों में सजाती हुई
गलित मात्राओं और हलन्तों को सॅंभालती
चरम पराभव की यह सन्ध्या
सूर्य को भी अस्त कहॉं होने दे रही है...
त्रिकाल में त्रिलोक में
वाइरस की तरह व्याप्त होती हुई सन्ध्या
बस सन्ध्या....
शायद अब न कभी आएगी रात
न रात के बाद आने वाला प्रात
सब कुछ स्थगित
सन्धिवेला अन्तहीन....
अब केवल हस्ताक्षर चाहिए
तुम्हारे रक्ताक्त हस्ताक्षर
आत्मसमर्पण का सुनहरा मौका...
कोई मुस्करा रहा है वक्र
चुभता हुआ
किन्तु दिख नहीं रहा कहीं कोई चेहरा
न चेहरे का आभास
वैसे
प्रतिकार की मुस्कान तो
अब भी बची है तुम्हारे पास
तुम्हारा अमोघ कवच...
चाहो तो अब भी
बने रह सकते हो तुम
अजेय और अनश्वर
(शीर्ष
पर वापस)
17.विमाता
जन्म देने वाली माँ होती है
आग्नेय देश की निवासिनी
चूल्हे की अग्नि की तरह प्रखर,
उबलते हुए दूध, पकती हुई रोटी
और प्रतिज्ञा में निवास करती है माँ
एक माँ और भी होती है
जो शिशु के भीतर समा जाती है
जैसे ही वह खोलता है अपनी आँखें
गर्भ के बाहर की दुनिया में प्रथम बार
फिर तो वह
शैशव के सपनों में बनी ही रहती है लगातार,
निद्रा और निद्रा और निद्रा के प्रसार में
गुदगुदाती, चूमती, डराती, घूरती
धीरे-धीरे वह हमारी गगन गुफा में
सीधे आकर बस जाती है
इस दूसरी को विमाता कहना
ठीक-ठीक ठीक तो नहीं
लेकिन अभी चलो यही सही ...
विमाता माता के हाथों में
सिलाई के वक्त सुई चुभो देती है,
रसोई में उसके हाथों पर फफोले धर जाती है,
माँ की आँखों के आसपास अंधेरे के वलय
और कमर में धीरे-धीरे कूबड़ भरती जाती है
विमाता हमारी माता का बहुत ध्यान रखती है
धीरे-धीरे मायके से माता का सम्बन्ध
विमाता ही घटाती जाती है
हमारी माता को वह
गीत से लेकर गद्य तक कुछ भी बनाती है
विमाता हमारी माता की छाया है भी
और नहीं भी
वैसे हमने दोनों की छायायें
अलग-अलग पड़ते भी देखी हैं
यद्यपि प्रत्यक्ष विमाता को देखा कभी नहीं
और प्रत्यक्ष भी क्या प्रत्यक्ष,
मेरा प्रत्यक्ष तुम्हारा परोक्ष हो सकता है भाई,
विमाता गगन गुफा में वास करती है
और वही हमें अन्तिम जन्म भी देती है
कि हम जा पैदा होते हैं मृत्युलोक में
इस लोक से उठती है झूले की पींग
इतनी ऊँची
कि फिर आती नहीं वापस, आ नहीं पाती
फीकी
दुपहर के दिये की लौ जैसी
दो आँखें
उदास और अव्यक्त
करना जब महसूस
पीठ पर या गालों पर
तो समझ लेना
अब विमाता तुम्हें गोद भर कर
पालने में झुलाने जा रही है
तब शायद सुन सको
उसकी विचित्र-सी बोली में लोरी भी
प्रथम और अन्तिम बार
(शीर्ष
पर वापस)
18. सुबह से पहले ही
समझ नहीं पाए हम लेकिन
उसका जाना हमने देखा
किसी उपेक्षित विस्मृत भाषा
का वह शायद अन्तिम कवि था,
अभी रात कुछ-कुछ बाकी थी
कच्ची टूटी नींद की तरह
कड़वी-कड़वी हवा नीम के पत्तों को
छू-छू देती थी,
पता नहीं चिड़ियों का कलरव
आज उड़ गया कितना जल्दी,
सूरज के आने के पहले ही आभासी
चूने के पानी के रंग का एक सवेरा
फैल रहा था
उस निचाट ऊसर में बहता....
तीन मील था दूर वहॉं से बस स्टेशन
उसे पकड़नी थी ऐसी बस
जिसका आना-जाना रूकना चलना ढलना
नहीं किसी के भी बस में था,
तिस पर भी
विस्मृत भाषा का वह अनाम कवि
पता नहीं क्या चीज़ ढूँढ़ने चला
और फिर चलते-चलते
धॅंसता गया बहुत सॅंकरी-सॅंकरी गलियों में
जहॉं एक आवाज़
उसे कितने बरसों से बुला रही थी-
कुछ बच्चों ने देख लिया था
वह भुतहा घर
जिसमें दुःख गढ़े जाते थे
उन बच्चों की आवाज़ों की लहरें
उसको खींच रही थीं-
धॅंसता चला गया वह अर्थो
की अपारता के सागर में
डूब रहे थे शब्द
किन्तु कवि तैर रहा था
अपनी भाषा की गठरी को
अपने सिर पर साधे-साधे
जीवन के पुलकित प्रवाह में
पार कर रहा था वह ख़ुद को
तोड़ रहा था वह तिलिस्म दुःखों के गढ़ का...
(शीर्ष
पर वापस)
19. जल
का महल
जाना कहीं न था
वहॉं टिकना भी नहीं था
शायद पड़ाव थी वो जगह
हम जहॉं के थे,
जगते तो स्वप्न देखते
सोते तो जागते
हॅंसते तो बिखर जाते
हम ऐसे दिनों के थे
गठरी में धूप-छाँव पाप-पुण्य बाँधकर
तकिया लगा के नींद में हम तैरते थे ख़ूब
पानी की सेज थी महल भी पानी का
पानी की कथाओं में शोर पानी का
पानी में बन्द था पानी
पानी में झाग जैसी आग
फिर भी सब कुछ थमा थमा-सा था,
इतना गाढ़ा था नींद का पानी
कहीं बहाव खलबली लहर का नाम नहीं
सवाल उठते भी तो कुछ ऐसे
जैसे पत्थर पे खुदी हों लहरें
अभी पौ फटने को थी
रात की चादर में ढॅंकी थी दुनिया
अभी पूरब में बहुत नीचे कहीं था सूरज
सिरहने गठरी में देखा
तो भरा था गेंहुवन !
पछाड़ खा के गिरा जल का महल
जल की वो अचल दुनिया
रेंगती धारें हज़ारों ज़हर की फूट चलीं
और जब निकला नया दिन
तो धूप में कुछ-कुछ
नीम की पत्तियों के स्वाद की हरारत थी