58. यह क्या ?
क्या है यह
जो मिलने ही नहीं देता पानी को पानी से
अग्नि को अग्नि से, माटी को माटी से
देह को देह और प्राण को प्राण से
क्या है - क्या है यह अदृश्य झिल्ली-सा
जो सिर्फ़ विलग करता है
हर चीज़ को हर चीज़ से
याद है तुम्हें
जब छू लेते थे हम तुम
एक-दूसरे की उपत्यका में उदय होते सूर्य को
जब हमारी आँखें इस क़दर उलझी रहती थीं आपस में
कि कहीं कुछ बचता ही नहीं था अनदेखा
एक-दूसरे की अस्थियों में छुपे खनिज,
मज्जा में डूबी नीहारिकाएँ
उत्तप्त धातुओं-सी नील-लोहित इच्छाएँ
एक-दूसरे की ही नहीं बल्कि
सारे संसार की निगूढ़तम संवेदनाओं को
स्पर्श कर लेते थे हम,
धातुओं में प्रवाहित बिजली की तरह
बहते रहते हम अगाध-संसार के अन्तराल में निर्बाध
इतिहास को अपने सामने से गुज़रते देखकर
तब लगता था
देखो-देखो वह चला जा रहा है समय-सागर में
उलटता-पलटता संसार का सबसे बड़ा तिमिंगल
संसार की सबसे छोटी इच्छा लिये हुए
और अब... अब...
क्या है यह, जो इतिहास तो इतिहास,
छूने नहीं देता हमें हमारा ही वर्तमान !
(शीर्ष
पर वापस)
59. वापसी
धूप है। दर्द है। प्रतीक्षा है। छाया के पीछे भागने की टेक है। तुम
कस्तूरीमृग हो क्या ? तुम्हारी नाभि में तो कुछ नहीं ! हृदय में भी
कोई नहीं। तुमने उन्हें दिया था पलायन। उसी के बूते वे चली गयीं चलती
क्षितिज के सीमान्त तक। अब वहाँ वे अपनी लड़ाई लड़ रही हैं। और तुम
दायीं पसली के पास सुलगती आग में उनको लाना चाहते हो ? दृष्टि की कड़ी
होती है पकड़। अब वे तुम्हें देख भी नहीं सकतीं उतनी दूर से। सो
तुम्हें क्या देंगी वे करावलम्ब ! बहाए लिये जाती है कोई धारा वैतरणी
में। दृष्टि से छूटी चीज़ें जाती हैं स्मृति में, फिर आती हैं वाक्
में, फिर मौन में रमती हैं और धीरे-धीरे वे खिसकती चली जाती हैं
विस्मृति की विराट् छाया में। वहीं कहीं फॉंदकर अस्तित्व की बाड़ वे
और कहीं चली जाती हैं। वे प्रतीक्षा में चली जाती हैं। धूप है। दर्द
है। प्रतीक्षा है। सर्पमणि है। मणि के प्रकाश में चुभन है। किरणों के
विषदन्त। अन्धकार का अमृत पीकर वे खो गयीं। जन्म मरण जरा और जीवन के
बन्धन ख़ुद-ब-ख़ुद ढीले पड़ गये तुम्हारी पराजित मुस्कान की शिथिलता
में। घनघोर धूप है। पीड़ा है। पीड़ा हमने दी और हमने ली पीड़ा। तुम दे
सकते हो पीड़ा की जगह मुझे कोई दूसरा नया शब्द। ऐसा करोगे तो हरोगे
मेरी पीड़ा। गोवंश ने दिया गोरोचन। वंशलोचन मिला बाँस वन से। सीपी ने
दिये मोती। गजराज ने गजमुक्ता और चन्द्रमा ने रात्रि के अन्तिम प्रहर
में दो बूँद टपकाया अमृत। इस तरह चरक ने दिया जीवन को जीवन। तुम तो
मुझे सिर्फ़ एक शब्द दो। जानता हूँ बहुत दूर हो - वहाँ से कुछ भी
नहीं आ सकता यहाँ / यहाँ तक कि एक शब्द भी, फिर भी तुम शुरूआत कर
सकती हो वापसी की। फॉंदो फिर वही बाड़ और विस्मृति के रास्ते मौन और
कविता के भीतर से होते हुए तुम मुझे वापस ले जा सकती हो स्मृति में।
जहाँ मिलेगा शायद अब भी एक शब्द जीवन से लथपथ।
(शीर्ष
पर वापस)
60. विस्फोट
काली नागिन के फन पर जैसे गजमुक्ता
उसकी टिकली चमक रही थी अन्धकार में
बाहर दुपहर के प्रकाश की बर्बरता थी
भीतर कोमल अन्धकार था
जिसमें उसकी आँखों के दो फूल खिले थे
दर्प दया विद्रूप वितृष्णा तिरस्कार की
मिली-जुली-सी दृष्टि भरी थी उन आँखों में
कौतूहल के कॉंटों पर चलता-चलता मैं
इस वर्जित प्रदेश के भीतर भरी दुपहरी
घुस आया था सूरज की भी आँख बचाकर
मुझे देख चौखट पर उसने तुरत बुलाया
‘आओ बच्चा भीतर आओ
वहाँ कहाँ लू-लपट-धूप में खड़े हुए हो’
गुफा-गर्भ में
भीतरवाली तंग कोठरी में बॅंसखट पर
खुले केश बैठी थी उसकी चरणों पर संसार पड़ा था
देहदेश की पटरानी वह-
उसकी कल्पित-केलि-कथा में तपते-तपते
कई किशोरों की तो पूरी रेख फूट आयी थी केवल सात दिनों में
जैसे कंठ फूट आता है शुक-शावक का
जैसे आँखें झुक आती हैं अनुरागी की
सुनता हूँ उस रात ख़ूब सावन बरसा था
जब वह अपने प्रेमी के संग चली गयी थी
माया-मोह मान-मर्यादा गेह-गिरस्ती सब कुछ तज कर,
उसका मर्द गॉंव की डेउढ़ी का लठैत था
भीगे हुए बाँसवन में दावानल तड़पा
आग और बादल में बिजली खुलकर खेली
भासमान विस्फोट की तरह
उस पर प्रेम अचानक फूटा
प्रेम नहीं था एक भॅंवर थी
जिसमें वह बादल को लेकर कूद पड़ी थी
रही घूमती आठ महीने उन देशों में
जिनमें कुछ इस दुनिया में हैं बाक़ी सब हैं दन्तकथा में
मुझे देखती उन सफ़ेद-रक्तिम आँखों में
थोड़ा-सा आलस्य किन्तु उल्लास भरा था
लाज नहीं थी तृप्ति भरी थी
कुछ अतृप्ति की छाया भी थी
और विजय का दर्प भरा था लहराता-सा
बहुत प्यार से उसका पाँच साल का बेटा
उसके पट्टी बाँध रहा था
सात साल की बेटी पुल्टिस बना रही थी
चोट देखकर मैं सकुचाया वो मुस्कायी
बोली ‘मैं पटना हो आयी
देख लिया कलकत्ता मैंने
आसमान भी मैं छू आयी
इसीलिए कुछ थकी हुई हूँ
कुछ दिन में बाहर निकलूँगी
बोलो बच्चा मैं क्या करती
मेरे साथ गया था बादल मुझे छोड़कर वहीं रम गया
मेरा मन अब भी उड़ जाने को करता है’
साँस साधकर उसने थोड़ा पहलू बदला
ऐसा लगा कि जैसे लोहा बजा कहीं जर जैसे तलवारें टकरायीं
कमर करधनी के बजाय जंजीर पड़ी थी
बॅंधी हुई थी वह खूँटे से
खूँटा धरती की छाती पर गड़ा हुआ था
धरती घायल थी लेकिन मुस्करा रही थी-
‘जर-जमीन वालों के ठनगन नहीं पुसाते हम लोगों को
मुझे पता है बड़कों के भीतर का सब कुछ
बड़कों के घर के भीतर तो मुझको उबकाई आती है’
मेरे भयाकाश के जल में डूबा-डूबा
लहरें भरता हुआ वासुकी नाग मन्दराचल को जैसे पीस रहा था
बड़ी कड़ी थी जकड़
तभी मैं चुपके-चुपके लगा सरकने
उल्टे पाँव, दीवार पकड़कर चौखट के बाहर जब आया
मुझे देखकर हॅंसी और रोकर फिर हॅंसने लगी बतसिया
लाखों बन्दिनियों को उस क्षण हमने लोहा होते देखा
जब तक यह दुनिया-धरती है
उस चौखट पर एक अंश मेरा ज्यों-का-त्यों खड़ा रहेगा
मेरे मन की कालकोठरी में बॅंसखट पर
अब भी बिजली तड़प रही है...
अब न रही वो गली न वो घर
वो चौखट जल गयी चिता में
वहाँ खेत जुत गये
नहीं सिंचाई का कुछ साधन लेकिन फिर भी
सबसे गहरी हरी फसल अब भी होती है वहीं
जहाँ काली कोठरी हुआ करती थी
पूछा करती हैं बाजरा ज्वार की बालें
‘कहो बतसिया कहाँ गयी फिर उसके बच्चे, उसका प्रेमी, उसका
पति सब कहाँ खो गये,
इस संसार-सिन्धु में कैसे डूब गये वे
प्रलयकाल की उसी नाव पर वे सवार थे
जिसमें तुम भी तो बैठे थे बीज रूप में।’
(शीर्ष
पर वापस)
61. रेलवे स्टेशन
अक्सर कहीं जाने के लिए
लोग वहाँ आते हैं
गाते हुए रोते हुए
थके और ऊबे हुए
कुछ ख़ुद में डूबे हुए
कुछ मौजमस्ती में
और कुछ पस्ती में
याने कि
हर तरह लोग
आते हैं कहीं से
और कहीं चले जाते हैं
गाड़ी चली जाती है
और कुछ लोग
छूट जाते हैं,
और कुछ छिटक कर
दूर जा गिरते हैं
काल प्रवाह की भॅंवर में,
फिर भॅंवर में फॅंसकर
वहीं चक्कर काटते हैं
क्योंकि उनके पास
कोई गन्तव्य नहीं,
या फिर
उनके लिए निरर्थक हैं
वे गन्तव्य
जहाँ जाती हैं गाड़ियाँ
और वे
वहीं जम जाते हैं
प्लेटफॉर्म पर या
स्टेशन के आसपास,
वहीं रम जाते हैं,
तलछट की तरह
वे जम जाते हैं
अपने ज़माने की पेंदी में
यद्यपि
समझते हैं वे
सभ्यता की परेशानी
समझते हैं
उसका अपराधबोध
और वे अप्रत्यक्ष
ही रहना चाहते हैं-
किन्तु तलछट
पारदर्शी नहीं होती
वह खटकती है
भद्रलोगों की आँखों में
किरकिरी की तरह,
वह होती है ढीठ
भारी भरकम
और उदास रंगों की तरह,
वह गले में लटके
पत्थर की तरह
सभ्यता को पहुँचने
ही नहीं देती आसमान तक
अंगद की तरह
तलछट में जमे हुए लोग
सभ्यता के रावण से
कभी कभी
पैर भी पकड़वाते हैं,
सभ्यता उनका कुछ नहीं
उखाड़ पाती
और वे
अपनी झुग्गियों के साथ
वहीं जमे रहते हैं
अंगद के पाँव की तरह।
(शीर्ष
पर वापस)
62. कितने दिन
चुप की चादर तान चैन से
अब तुम कितने दिन सो लोगे
अनुभव के पार के अर्थ जब आएँगे
उनको किस युक्ति कहो खोलोगे ?
ऐसे भी क्षण होंगे जब वाणी
आभ्यन्तर में ही खो जाएगी
हाथों से रह-रह कर छूटेंगे छोर
गहरे पाताल के मौन में
तब तुम क्या बोलोगे ?
अपनी ही दृष्टि के सत्य का बियाबान
कभी तो आएगा,
होगे तब निपट अकेले तुम-
सत्य का पहाड़ क्या अपने ही बूते पर
ढो लोगे ?
खॉंईं विषमता की गहराती जाती है
बढ़ती हैं दूरियाँ
खिंच कर अब टूट रही है डोरी
छूट रहे हैं अपने उस पार-
कितने दिन इस मायानगरी के हो लोगे ?
आएँगे सुख हॅंस लोगे, दुख में रो लोगे
पीपल के पात बने हवा के साथ-साथ
कितने दिन डोलोगे ?
जिस पानी में सबने धोया अपना कर्दम
क्या अपने रंग अब उसी में घॅंघोलोगे ?
(शीर्ष
पर वापस)
63. बचते - बचाते
भीतर भरी ग्लानि से छुपकर
आते हैं वे समर्थ के द्वार
त्योहार की जोहार करने,
अपनी बीमारियों से नज़रें चुराकर
पर्दा उठाकर भविष्य में झॉंकते हैं
और घड़ी भर आगे भी जाती नहीं नज़र,
अपनी निराशा को झुठलाते हुए
बचकर निकल आते हैं वे
सभ्यता-समीक्षा के कुहराम में
और अपने दुखों को रख आते हैं ऊँचे ताक पर,
अपनी पराजय से छुपकर
बाहुबली की गली से निकलते हैं
वे आँखें बचाकर,
ऐसा भी समय आता है
जब उन्हें
सिर्फ़ अपना चेहरा ही नहीं
अपना सब कुछ पूरा-का-पूरा छुपाना पड़ता है ख़ुद ही से,
छिपते हुए दिन की रोशनी से
रात के अन्धकार से छिपते हुए
चलते हैं वे किनारे-किनारे तट पर
पानी में डूबे अपने ही प्रतिबिम्ब से छिपते-छिपाते
वे डरते हैं गहरे पानी पैठने से,
कर्ज़ वसूलने वालों
और मदद मॉंगने वालों
और उम्मीदें रखने वालों से
बचते बचाते वे भागते हैं कभी
सातवीं शताब्दी में तो कभी पच्चीसवीं शताब्दी में,
अपने भविष्य से छिपते
छिपते हुए अपने वर्तमान से
वे भगते हैं अतीत की कन्दरा में
और अतीत उन्हें दबोच लेता है
और उठाकर वापस फेंकता है लहूलुहान वर्तमान में
वे ऊँघते पहरेदारों की नींद को लॉंघकर
घुस जाते हैं सत्ता की गोपनीयता में
और सरकारी अभिलेखों में जाकर छुप जाते हैं,
कुछ के पास होते हैं छिपने के लिए अपने ही लिखे कोसों तक
फैले हुए लेख
कुछ ले लेते हैं भीड़ की आड़
और कुछ दर्पण देखते-देखते
अपनी छवि में ही हो जाते हैं लीन,
कई तो ऐसे हैं
जिन्हें छिपने छिपाने के लिए
छोटा पड़ जाता है संसार का सबसे ऊँचा पहाड़
और सबसे गहरा समुद्र उथला पड़ जाता है
तमाम पृथ्वी में अट नहीं पाते वे
सो जा छुपते हैं
वे अपनी ही काली छाया के
अनन्त अन्धकार में
इतने सारे छुपने वालों को
छुपते देखती है एक मुस्कान
जिसे कोई नहीं देख पाता
जो सभी से छुपी रह जाती है
देख सको तो देखो
वह मुस्कान विद्रूप की - अकेली, अप्रतिहत, आश्वस्त,
तुम्हारे ही भीतर छुपी हुई !
(शीर्ष
पर वापस)
64. सन्त सरमद
अब जब कि आन पहुँची है वह बेला
अब जब कि बीत चुके हैं सब दिवस-निसि
एक अरसा हो गया है वक़्त को पूरी तरह गुज़रे हुए
मळम पड़ते जाते प्रकाश की तरह तिरोहित हो रहा है आकाश
अब जब कि लेखनी अमूर्त शब्दों के घमासान में
खड़ी रह जाती है ठगी-सी
सघते-सधते लड़खड़ा जाता है सहानुभूति का छोटा-सा वाक्य,
गन्धी के इत्र की तरह ज़रा देर में उड़ जाता है
दिखते-दिखते विलीन होता हुआ सत्य,
एक कैसा भी संकल्प अंजुलि के पानी-सा बह जाता है हाथ से,
जिस ज़मीन पर ज़ोर देकर खड़े रहा जा सकता था
वह जल-सी तरल हो जाती है और
अस्तित्व में आते न आते सभी कुछ
विलीन होने लगता है नास्ति के समुद्र में
अब जब कि मन में उठता है एक हौसला
कि कॉंपने लगती है सारी काइनात,
अब जब कि लुटेरों के छद्म
संसार के अन्तिम सत्य के रूप में प्रचारित किए जा रहे हैं,
पेट्रोल के आतंक में सराबोर है दुनिया
सूखे हुए जंगल-सी,
अब जब कि ख़ुद-ग-ख़ुद
निरपराध अपने सिर ले ले रहे हैं
हत्यारों द्वारा किए गये सारे अपराध
ऐसे में अभी आन पहुँची हुई बेला को
मुल्तवी करना होगा
और अपने पक्ष में करना होगा
भाषा को, जंगलों को, संगीत को, नदियों को,
औषधियों को, बच्चों को, स्त्रियों को और
सारे वंचितों को
साधना होगा अभी इस सारे रचना विधान को
मनुष्य की आत्मा के लिए सन्त सरमद की तरह।
(शीर्ष
पर वापस)
65. ये रंग हैं क्या ?
हवा के शीशों में हमने देखा कि दृश्य कैसे बदल रहे हैं
ये अक्स आता वो अक्स जाता इसी में दर्पण दहल रहे हैं
तभी तो पथरा गई हैं आँखें तभी तो सपने पिघल रहे हैं
ज़मी पे रहते तो डूब जाते अभी तो पानी पे चल रहे हैं
बहुत से रंग हैं उधेड़बुन के उन्हीं में दुनिया उलझ रही है
कहीं जो साबुन का बुलबुला है उसी को सूरज समझ रही है
बस एक गंदली-सी धूप भर है उसी में अब सब लगे हैं तपने
विचित्र भाषा का मंत्र है यह उसी को हम सब लगे हैं जपने
सभी ने जादू का जल पिया है कृतार्थ जीवन सफल किया है
तो रंग फिर क्यों दहक रहे हैं छली ने छल से भी छल किया है
समय के गिरगिट ने रंग बदला रंगों के रंग भी बदल गए हैं
गुफा से आकर पुराने अजगर तमाम इतिहास निगल गए हैं
चलो चलें तब उधर जिधर रंग हज़ारहाँ मुस्कुरा रहे हैं
ये रंग ही है मरुस्थली में जो हँस रहे खिलखिला रहे हैं
हँसी में उनकी गज़ब का जादू मरे हुओं को जिला रहे हैं
ये रंग बिजली पहन के आये सभी को झटके खिला रहे हैं
बुरा भी मानो तो क्या करोगे छुओगे बिजली का तार कैसे
बुझे पुराने वो रंग सातों, नये हैं बिल्कुल अँगार जैसे
थे पहले गिनती में सात ही रंग नये तो हैं बेशुमार जैसे
हवा जो चलती तो बहने लगती रंगों की धारा अपार जैसे
समय की गति जब कभी बदलती तभी छिटकते हैं रंग इतने
उतार में या चढ़ाव में ही उभरते जीने के ढंग इतने
ये रंग ही हैं अमूर्त की लय, पदार्थ में चेतना की रिमझिम
अपार रचना की वर्णमाला, ये रंग हैं रौशनी का सरगम
वो कौन है जो हरी-सी सलवट सपाट ऊसर में डालता है
हरीतिमा में मगर है काँटा घुसा जो आत्मा को सालता है
ये रंग न होते तो कुछ न होता कहाँ पे टिकता प्रकाश आ कर
तो छन्द की लय कहाँ से आती जिसे बुलाता वो तिलमिला कर
न होता जीवन का चक्र भी तब, कोई प्रतिध्वनि कहीं न होती
अकेला होता जो कुछ भी होता न जीत होती न हार होती
ये रंग ही हैं जो द्वन्द्व भरते वहीं से रचना का तार आता
वहीं से राजा वहीं से परजा वहीं से माया-बज़ार आता
वहीं से उठते हैं भेद सारे वहीं से फिर भी अभेद आता
वहीं से आते हैं अपने साथी वहीं से तगड़ा विरोध आता
वहीं से आती है रश्मि रेखा वहीं से घिर अंधकार आता
वहीं से उठती है भ्रम की आँधी दिया वहीं फिर भी टिमटिमाता
(शीर्ष
पर वापस)
66. एक दिन
इक्कीसवीं शताब्दी के एक दिन
हुआ यह कि
सनातन सत्य का एक पुर्जा
टूट कर गिरा पहले
फिर घरघराहट हुई
और सनातन सत्य का
अच्छा ख़ासा हिस्सा
ढह कर गिरा और
जाने कहाँ विलीन हो गया
धरती ज़रा देर को दिखी
आधे छुपे पेय जल के सोते
हरी गहरी घाटियाँ
चट्टानें
गन्ने के खेतों में छुपी आवाज़ें
आँखों पर उभरीं और
फिर बह गयीं
आमों की याद, अमराई की छाया,
विलाप सर्पदंश की पीड़ा में
कलछता हुआ
बिजली की चमक में नहाते
मोटे-मोटे नाग
मोटी काली शाखाएँ
तीन मील लम्बी तलवार
पृथ्वी आकाश जल थल को
काटती हुई,
हत्यारी शक्तियों की
गहरी पैठ
जैसे जोंक धँस गयी हो
दिमाग़ में...
अमरबेल पेड़ों को चूसती हुई
मृत्यु देती और लेती अमरत्व
पीली सुनहरी कभी-कभी हरी भी
अमरबेल
पेड़ों के ऊपर-ऊपर फैली हुई
जिसने पृथ्वी का कीच
कभी हुआ नहीं, पेड़ उगे
पेड़ सूखते गये
अमरबेल बनी रही
बना रहा राजा
बना रहा सेठ
बना रहा सत्ता का यूथपति
साम्यवाद आया, गया,
प्रजातन्त्र तान्त्रिक अनुष्ठान
जातियों में जुते हुए लोग
चिकने चुपड़े नफ़ीस दस-बीस
जाने क्या कहते हैं कि
सौ करोड़ लोग
बिखर जाते हैं रेत की भीत से
समय की यवनिका फटी
कुछ पीछे रंगमंच के
दिखा, फिर घोर अन्धकार
फिर कर्कश पुकार
फिर अन्तर्गुम्फित सत्य और अर्धसत्य
मौन में लिपटा मौन
कौन-सा दृश्य था जिसमें
देखा हो हमने समय को
अन्तिम बार किशोर की तरह
मुस्कराते हुए सलज्ज
गंगा में देखा हो जल
देखें हो आकाश में तारे
देखे हों दयालु लोग
देखे हो तृप्ति में पगुराते बछड़े... अन्तिम बार
कौन-सा था रंगमंच
कौन-सा नाटक था
कहो कुछ आता है याद भाई राम जी
इस सीलन भरी दीवालों से घिरी गली के
मुहाने पर
देखा तुमने, देखा...
एक पाव तरोई ख़रीदते हुए
चे ग्वेवारा को साठ या पैंसठ के पार
कटरा न हुआ
हुआ बोलिविया का घना वन
ये जड़ें नहीं है बेल के दरख़्त की
किसी के सर्पिल पैर हैं जड़ीभूत
तितलियों के पंखों की
ब्लेड-सी धार हवा को घायल करती
हवा से टपकता हुआ नीला रक्त
कौन-सी थी कौन-सी थी रात वह
जब हमें ख़बरें मिलने लगीं पहली बार
अख़बार आने के पहले
किन खपरैलों के नीचे चलते ट्रेडिल छापाख़ानों में
निर्माण होते देखा तुमने पहली बार
भाषा का, शब्दों का निर्माण
धातुओं से निर्मित होते हुए शब्द
काली रात के चमकते हॅंसते
चम्पा की कलियों-से दॉंत
रात उठा ले गयी हमें
हॅंसते-हॅंसते उठा ले गयी हमें रात
कितना भयानक और सुखद था
इस तरह उठा लिया जाना...
और फिर रातों के इश्क़ का जुनून
बाँध ही फट गया हो जैसे प्रेम का
स्त्रियों तुमसे मैं सचमुच
तब भी बात करना चाहता था
प्रेम के उस प्रलयपयोधि में भी
मुझे तुम्हारा ही था विश्वास
स्त्रियों तुम विश्वास करो मुझ पर
मैं दरअसल गेहूँ का खेत हूँ
और मनुष्य भी हूँ
और हल भी हूँ बैल भी
हल का फाल भी, मुलायम कॉंपती मिट्टी भी
मैं ही हूँ खेतों की नमी
स्त्रियों विश्वास करो अपने क्रोध पर
और देखो सनातन सत्य के
भग्नावशेष को
सहानुभूति से इसे ठीक-ठाक
करने की कोशिश करो
मैं तो इधर से कभी गुज़रा भी नहीं
इस देस के अन्न जल कहाँ मेरे भाग में
पृथ्वी दरअसल स्त्रियों का ही देश है
बाक़ी सब चलाचली पल दो पल
तभी न
हम एक-दूसरे से होकर गुज़र जाते हैं आरपार
और किसी को कुछ नहीं होता
किन्तु स्त्री या कविता या पृथ्वी
जिसे भी करती हैं स्पर्श
वही बन जाता है कमल सहस्त्रदल
वही बन जाता है निर्मल जल
इक्कीसवीं शताब्दी के प्रारम्भिक वर्षों में
तय पाया गया कि अब
प्रश्न नहीं किए जाएँगे
हर मुहल्ले गाँव घर-घर
प्रजातन्त्र जाएगा
सब लोग एक ही सत्य के होंगे फ़रमाबरदार
और सराय का मनीजर और उसकी मालकिन
जो कहेंगे वही होगा सत्य
वही होगा पथ का पाथेय, दुस्तर पथ
पृथ्वी हो जाएगी मरूस्थल बियाबान
और स्त्रियाँ बन्द कर दी जाएँगी
तम्बुओं में, किलों में, सुरंगों में,
कुओं में, क़बों में...
(शीर्ष
पर वापस)
67. अपार के पार
धूल भरी भारी
दुपहर की हवा
जेठ की लपट
लपट में काया-छाया
मेड़-मेड़ पकड़े
लगता है दूर विशाखा निकल गई है
ऊर्ध्वाधर समुद्र में
तपती देह
पोत में उठती-गिरती
तीन बकरियाँ साथ
काँख में बच्चा
सिर पर गठरी
मृगमरीचिका के समुद्र में
अपना सब कुछ ले कर
आओ तुम भी उतरो
इस समुद्र के पार
नयी दुनिया में रहने चलो
उतारो तुम भी अपनी नाव
विशाखा वहीं गई है
अस्ति-नास्ति के इस समुद्र पर
अग्नि और जल
दोनों मिल कर बरस रहे हैं
और विशाखा पाल खोल कर
डाँड़ सँभाले सबको ले कर
पार कर रही है अपार को
(शीर्ष
पर वापस)
68. पक्षीज्वर और पुनर्जन्म
अथक-
अथक उनके पंख
चन्द्रमा पर अपनी छाया छोड़ते हुए
तारों को छिटकाते
बादलों को देते हुए अपना आकार
हवाओं के अम्बार बटोरते
अथक
अपार उनके पंख
यूराल, एटलस, किलीमंजारो
की चोटियों की बर्फ़ को उड़ाते,
अपने प्रवाह से
पृथ्वी की नदियों में वेग भरते हुए,
काहिरा कालाहारी कांगो को
रोमांचित करते हुए
युद्धक विमानों-मिसाइलों को
झपट्टा मारकर तोड़ते
बुझाते हुए युद्ध की लपटों को
अपने झोंकों से,
अथक
अजेय उनके पंख!
वोल्गा-की-मिट्टी-सने पंजों के बल
उतरते हैं वे संवेग के साथ
अफ्रीका के जलाशयों पर छपाछप दौड़ते
धरती की गोद में वापस आते हुए
अथक
अबाध उनके पंख
अब जल रहे हैं उनके पंख पृथ्वी पर
भयानक विषमता के फैलते विषमज्वर में
पक्षीज्वर में
जल रहे हैं सम्पाती
जल रहे हैं उनके अनश्वर पंख
देखो देखो!
शताब्दियों बाद
फिर मुस्करायी है
मिस्त्र के प्राचीन स्फिंक्स की प्रतिमा-
कान देकर
ध्यान देकर सुनो उसके वचन
होते हैं अथक-अनश्वर-अजेय जिनके पंख
उन्हें लेना ही होता है जन्म बार-बार
और पुनर्जन्म माता से नहीं
अपनी राख से ही मिलता है
धीरे-धीरे उड़ रही है राख
सुगबुगाहट हो रही है
शुरू हो रही है पंखों की फड़फड़ाहट
आहट आ रही है...।
(शीर्ष
पर वापस)
69. हम काले लोग
पीढ़ी दर पीढ़ी
हमारी त्वचा ने
गाढ़े पसीने से कमाया है काला रंग
ताकि हम सोख सकें
अधिक से अधिक प्रकाश,
और जब भी पड़े साबका
पराजय और निराशा के अन्धकार से-
हम ख़ुद प्रकाशपुंज बनकर जगमगाएँ,
भटकने से बचें,
और अपने लोगों को
घटाटोप काली आँधियों के पार निकाल ले जाएँ
हमारी काली त्वचा ने
इतना आत्मसात् किया है सूर्य को
कि हमारे ख़ून में ही
घुल गये हैं इन्द्रधनुष के सातों रंग
सातों स्वर हमारे हृदय में धड़कते हैं
तभी तो हमीं हुए वारिस चिड़ियों के गीत और
बादल के मादल संगीत के,
अनायास ख़ुद ही लीन होती रहती हैं
हमारे काले रंग में
आसपास बहती हुई बिजलियाँ और ऊर्जाएँ
तभी तो हुए हम
दुनिया के सबसे तेज़ धावक नर्तक धनुर्धर...
हमीं है घन-घमंड के काले बादल
बिजली-पानी से लबरेज़
निःसंकोच रोते, हँसते,
गरजते, बरसते, प्रेम करते
हम पछाड़ रहे हैं एड्स को
अपने ही रक्त के रसायन से....।
(शीर्ष
पर वापस)
70. रहे नाम नीम का
नर्वल का नीम दिखा
दूर अफ्रीका के शहर डकार में
नीम से भी बढ़-चढ़कर
नीम होता हुआ,
और हरा और गझिन
पुष्पित-पल्लवित चरमोत्कर्ष तक
और भी चटक
काली छाल की छटा लिये-
आ गया छा गया नीम सेनेगल में
फैलाता गाँव-गाँव
शीतल-सुगन्ध और ठंडी छाँव
और साथ लिये आया
अपना वही नाम
नीम नीम नीम ही रहा नाम नीम का-
ओलोफ भाषा को
‘हिन्दी का निराला स्नेहोपहार’
एक शब्द-एक वृक्ष !
दो महासागर और दो महाद्वीप
पार करने के बाद
चाहता तो रख लेता नीम भी
अपना कोई नया रौबीला नाम-
बॉबी या सैम या मॉन्टी...
नीम के साथ ही आया होगा सावन-
भीग रहा है डकार हरी-हरी वर्षा में,
झूम रहा है नीम झोंकों में
उसे अफ्रीका के झूलों की बढ़ती हुई पींग
और ख़ालिस अफ्रीकी कजरी का
बहुत दिनों से है इन्तज़ार-
इसलिए दुआ करो दोस्तो दुआ करो
कि रहे नाम नीम का...।
पुनःश्च - हम जैसे ही ज़रा-सा आगे बढ़े कि राह रोक कर नीम ने
हमें अपनी कथा सुनायी जो भारतेन्दु युग की शैली में थी क्योंकि नीम
जब 1870 ई. वर्ष में भारत से सेनेगल पहुँचा ;और जहाँ उसे नीम ही कहा
जाता हैद्ध तब हिन्दी कविता की आज जितनी ‘उन्नति’ नहीं हुई थी-
नीम -
लगते तुम भी भारतवासी तुमको
है परनाम।
हिन्द देस का मूल निवासी नीम हमारा नाम।।
नरवल गाँव परगना-कोड़ा जिला-जहानाबाद।
उखड़ वहाँ से सन् सत्तर में, हुए यहाँ आबाद।।
आए चढ़कर अगिनबोट में हम गोरों के संग।
अफरीका ने बड़े नेह से हमें लगाया अंग।।
सेनेगल की धरती पर जड़ पकड़ी हमने खूब।
पर आँधी में अगिनबोट तो गयी यहीं पर डूब।।
देश-देश की लूट भरी थी बोझ पाप का भारी।
लील गया सागर गोरों की फौज गयी सब मारी।।
किन्तु लुटेरे फिर आएँगे बदल-बदलकर भेस।
भेद समझना और बचाना अपना-अपना देस।।
गाँव-जवार सभी से कहना बारम्बार प्रनाम।
बड़े जतन से ऊँचा रखा है तुम सब का नाम।।
(शीर्ष
पर वापस)
71. अफ्रीका की चूनर
ऋतुमती ऋतुओं की
भीग रही थी चूनर
रात-रात भर चलने वाली
रेगिस्तानी कहानियों की ओस में
ताळपत्रों पर बजती
अफ्रीकी बसन्त की वर्षा में
विषुवत् रेखा के छलछलाते पसीने में
रक्त के दीटों में
भीग रही थी चूनर
चटक गाढे रंग की,
फूलों के बड़े-बड़े छाप वाली,
हवा को तलवार-सी काटती
बाज-सी फड़फड़ाती
पृथ्वी के जलधर पयोधरों के
मातृत्व में भीगती
भारी होती हुई भी
उड़ रही थी चूनर
घहर-घहर-घहर-घहर...
विलाप के आँसुओं, फलों के रस
फूलों के पराग
और वनस्पतियों के गोंद से
चट्टानों पर टूटते ज्वार से
चाँदनी के उन्माद में
भीग रही थी चूनर
नाच रहे थे दरवेश
भुजाएँ पसार कर
नाच रहे थे
औदुम्बर, बोधिवृक्ष, बाओबाब
वृहदारण्य घूर्णन्त !
भीग रही थी चूनर अफ्रीका की...
पृथ्वी के नीले प्रकाश में
ठीक उस घड़ी में जन्म हुआ
अद्वितीय शिशु-कवि का
जब ख़त्म होने ही वाला था इतिहास
जन्म से ही कन्धे पर आ पड़ा भार
जन्म से ही भूमिगत होना पड़ा
शिशु-कवि को,
उसे इतिहास की ही नहीं
बहुत कुछ की रक्षा करनी थी,
मुल्तवी करना पड़ा उसे
अपना बचपन और कैशोर्य और कविता
वह फ़िलहाल भूतिगत है
उसे ढूँढ़ रही हैं
अब तक के प्रबलतम साम्राज्य की सेनाएँ
भाषा में भय में भ्रान्ति में
भूति में भावना में खँगोलती हुई -
और शिशु-कवि
पता नहीं
कब कहाँ-से-कहाँ निकल जाता है
भीतर-ही-भीतर मार करता हुआ,
बहुत गहरी है काइनात
बहुत गहरे हैं
माताओं के अन्तःकरण
माताओं के गर्भ बहुत गहरे हैं
भीतर ही भीतर...
चूनर भीग रही हैं माताओं की
अफ्रीका के विशाल प्रांगण में
नाच रही है विपुल पुलकावली...
(शीर्ष
पर वापस)
72. नील की हंस-नौका
तुम्हारा इतना गम्भीर और दीर्घ मौन
ठीक नहीं
अनास्तासिया !
कुदसिया !
सुतपा !
तुम्हारी चुप्पी के ताप से
अब पिघल चले हैं शब्द
आग लगने ही वाली है भाषा में
सिर्फ़ आँखों ही आँखों
इतना कुछ कह जाना ठीक नहीं...
स्त्रियों की आँखों और खुले बालों से
डरते हैं धर्म और साम्राज्य...
ये धुआँ ये लपटें विस्फोट आर्तनाद
साइरन सन्नाटा
जल रहे हैं पैपिरस
जल रहे हैं कमल
नील का तल
इधर से बड़वानल उधर से दावानल,
आओ पानी पर चलकर, बचाओ
नील के जल पर तैरती हंस-नौका को
अनास्तासिया !
कुदसिया !
सुतपा !
लेबनान के देवदारू से निर्मित
इस हंस-नौका में कील काँटा कुछ नहीं
लताओं से कसकर बाँधे बैठाए गये जोड़ सब
यही पार करेगी वैतरणी
दज़ला-फ़रात के विस्फोटक पानी के पार
यही जाएगी
तैरेगी सूर्य के उफनते कड़ाह में
इसे डूबने मत देना
पाल राब्सन के उत्तराधिकारियों,
तुम्हारी मिसीसिपी भी
डगमग डगती-डगती
गोद लेकर झुलाएगी हंस-नौका को,
अंक भर कर
ज्यों प्रथम नवजात को माँ षोडशी
थरथराती उतरती मातृत्व में...
यह नौका
धातुओं की हिंसा से अछूती है
सँभालना इस हंस-नौका को
अपनी आँखों के जल में भी
डूबने मत देना इसे
क्योंकि इसी पर बचा कर
रखे जाएँगे जीवन के बीज सब,
अनास्तासिया !
कुदसिया !
सुतपा !
अपनी आँखों को डबडबाने मत देना
क्योंकि सबसे गहरा समुद्र आँसुओं का ही होता है।
(शीर्ष
पर वापस)
73. आँखें अक्षर हैं
थीं कहीं आस-पास ही
प्रगाढ़ता से भरी हुई
बिल्कुल वही आँखें
कपोत-कमल-खंजन या मीन की-सी नहीं
पर ठीक-ठीक कह पाना कठिन था
क्योंकि उचटती-सी भी
नहीं टकराई कहीं कोई नज़र
लेकिन था ठीक वही
वैसा ही आँखों का ताप
पूस की धूप-सा त्वचा पर गुनगुनाता हुआ
बड़ी-बड़ी पलकों का उठना-गिरना
बजता रहा कान के पर्दों पर
जैसे धड़क रहा हो
आस्वान प्रदेश की
सबसे सुन्दर अधेड़ स्त्री का हृदय
धड़क रहा हो हृदय
नील के जल की कोमल सुगन्ध का,
सहारा मरुस्थल की
लपलपाती मरीचिका का उत्कंठित हृदय...
हृदय मातंगी वनदेवी का ...
ठीक-ठीक कह पाना कठिन था
संसार की सबसे छोटी यात्रा पल भर की
इतने में कुछ भी जान पाना कठिन था
नील के इस घाट से उस घाट तक
चार-चप्पू भर यात्रा का साथ
बिना देखे देखे जाने का
बिना छुए छुए जाने का
जाने बिना जान लिए जाने का साथ ...
पता नहीं कब घाट पर आ लगी नाव
घाट की सीढ़ियाँ साथ-साथ चढ़ते हुए वर्ष बीतते रहे
पाँच हजार साल पिरामिडों के
पल भर में गुजर गये,
आते रहे लुप्त होते रहे जीव जन्तु,
भेष बदल-बदल कर आते रहे भ्रम और सत्य
बदलती गई तट रेखा
लेकिन चढ़ाई चलती रही
उस अवघट घाट की सीढ़ियाँ....सीढ़ियाँ....
हाँ हैं,
हैं कुछ जगहें इसी भूमण्डल पर !
जहाँ समय खिंचता चला जाता है अन्तहीन
इतना... कि आदमी अमर हो जाता है
और अन्त नहीं होता प्रेम का
छूटता नहीं किसी का किसी से साथ
ऐसी ही जगहों पर
समय बन जाता है जगह
और जगहें बन जाती हैं समय
एक ऐसी ही जगह
कालभित्ति जैसी दीवार पर
चित्रलिपि में लिखी थी गाथा
नेफरतीती के प्रेम की
आँख भी जिसमें एक अक्षर थी
गाथा में अंकित बार-बार
झांकती जीवन और मृत्यु के आर-पार
कपोताक्षी पद्माक्षी खंजन-नयन
फाख्ता की-सी आँखों वाली
कौन थीं तुम
ठीक-ठीक कह पाना कठिन था
अगर तुम्हें देख भी लेता तो भी,
नूबिया भी भारत की तरह
आँखों का देश है आँखें ही आँखें ...
* अफ्रीकी देशों - मिश्र, सेनेगल और मोरक्को
की यात्राओं (वर्ष 2005 और 2006) के समय लिखी गयी कविता।
(शीर्ष
पर वापस)
74. बेली डान्सर
बमाको शहर के
खण्डहरों में मेरा जन्म हुआ
माली के प्राचीन परास्त राजकुल में ...
माँ के सूखते स्तनों से
मिला मुझे मज्जा का स्वाद,
जब गोद में ही थी मैं
सुनी मैंने मृत्यु की पहली पदचाप
क्षयग्रस्त माँ की मंद होती धड़कन में,
गोद में ही लग गई लत मुझे
जिन्दा बने रहने की
सूखी हुई घास, कटीली नागफनी और
ठुर्राई झाड़ियों की मिट्टी ने पाला पोसा मुझे
सीखा मैंने जहरीले साँपों को भून कर खाना
चट्टानों से पाया मैंने नमक
सहारा की रेत से बनी मेरी हड्डियाँ
ओ हड्डी-की-खाद के सौदागर
तुम मुझे क्यों घूरते हो इस तरह!
दास प्रथा का तो अन्त हुए
बीत गये कितने साल
कहते हैं अफ्रीका भी
अब बिल्कुल आज़ाद है
अब मुझे भी गिनती आती है
ओ पेट्रोल के सौदागर
तुम्हारी आँखों में क्यों इतनी आग है
कि हमारी दुनिया ही ख़ाक हुई जाती है
मुझे अपनी सिगरेट के धुएँ में डुबाते हुए
मेरे भाइयों से तुम्हें क्यों नहीं लगता डर !
कोई हिरनी क्या दौड़ेगी मुझसे तेज
चने-सा चबा सकती हूँ बंदूक के छर्रे
तड़ित् को तो रोज चकित करती हूँ
अपने चपल नृत्य से
दरअसल तुम्हें चीर सकती हूँ मैं शेरनी की तरह
फिर भी तुम
अपनी जन्मांध आँखों से
मुझे निर्वस्त्र किये जाते हो
क्या तुम्हें अपनी जिन्दगी प्यारी नहीं
ओ सभ्यताओं के सौदागर ।
कैसे, कैसे हुए तुम इतने निर्द्वंद्व !
एक के बाद एक सीमा लाँघते
पृथ्वी और स्त्रियों को
करते हुए पयर्टित पद्दलित
देखते हुए मेरा निर्वस्त्र नाच
पेट के लिए पेट-का-नाच
मेरी देह की थिरकती माँसपेशियाँ
मछलियाँ हैं
जिनकी हलक में धँस गया लोहे का काँटा,
खून के कीचड़ से
भर गया है रंगमंच लथपथ
जुगुप्सा के इतने व्यंजनों के बीच
तुम्हारे सिवा और कौन हो सकता था इतना लोलुप
ओ लोहे बारूद और मृत्यु के सौदागर !
* अफ्रीकी देशों - मिश्र, सेनेगल और मोरक्को
की यात्राओं (वर्ष 2005 और 2006) के समय लिखी गयी कविता।
(शीर्ष
पर वापस)
75. या निशा...
निकट आती जा रही है रात रेगिस्तान की
अपरिचित स्त्री
किसी पर छा रही हो जिस तरह-
यह अन्तिम वृक्ष है
और ये रहा
घास का अन्तिम हरा तिनका
ठीक इस जगह से शुरू होता है
सहारा मरूस्थल
दूर करोड़ों वर्षों तक फैला हुआ...
देर हुई हमने जब पार की
झाड़ियाँ, कमर तक उगी पीली घास
साँपों की केंचुल से लसी पड़ी,
साँप-सी गरदन वाले बगुले
घास के बीज चुगते हुए,
देर हुई पार किये
रेल की सर्पिल पटरियाँ
दिन भर की धूप में तपी-टंच
पिघलने-पिघलने को,
झूमती निकल गयी खटारा मालगाड़ी
गन्धक छितराती हुई... अजगर,
और अब
आ रही है बिना छाया
रात रेगिस्तान की
किसी दीगर ज़माने की
दूसरे कबीले की, दूसरे लोक की रात !
कितने तो धरातल हैं ज़िन्दगी के
और हर धरातल पर एक-एक रात
घूम रही घायल बेचैन
कोई गाती-नाचती, रोती कोई,
स्तब्ध मुखर मौन शान्त क्लान्त
और ज़रूरी नहीं
कि हर रात के पास एक आकाश हो ही
या हो भी तो ज़रूरी नहीं है तारे भी हों
हो सकता है किसी किसी रात के पास कई-कई
आकाश हों,
रातों के आगे किसी की भी क्या मजाल
रातों ने दाँतों में दबा रखे हैं खंज़र
लेकिन हम जो अफ्रीका के
हमारी कुछ अलग ही बात-
कि हमारे मेरूदंड हमें पक्षियों के कुल से मिले,
और चूँकि
हमारे शरीर में घुलामिला है
सातवें आसमान पर उड़ने वाले
सेमल के बीजों का जीव-द्रव्य,
और कीट पतंगों का तो बहुत कुछ मिला हमें
आँखें, भूख, दुश्मन से बच निकलने की तरकीबें,
बिना खाये वर्षों ज़िन्दा रहने की जुगत
इस नाते
हर क़िस्म की खूँखार या पर्दानशीं रात से
हर क़िस्म की बात हम कर सकते हैं
हम इन्हें गुदगुदा सकते हैं
तोड़कर ले जा सकते हैं इनके तारे
हम बदल सकते हैं इनका भूगोल-खगोल
इन रातों के पदार्थ से हम बना सकते हैं
दिन या दुपहर या शाम या सुबह
या कोई और नया प्रहर किसी नये राग के लिए
या बिल्कुल नयी क़िस्म की अपूर्व एक और रात
हम गढ़ सकते हैं इस पदार्थ से
हमीं तो हैं वो ‘दुखिया’ जात काले-कुजात
जो अपनी अनिद्रा को बदल सकते हैं जागृति में
उगाते मरूस्थली रातों में सपनों की फसल
सपनों से हमने निर्माण किया सत्य का
रेत की नमी से बूँद-बूँद
संचय किया हमने ही
मोरक्को का मदहोश कर देने वाला शहद
कितना विस्तार भर कर
सो रही है रात रेगिस्तान की
उमस और पसीने और प्यार से तरबतर !
(शीर्ष
पर वापस)
76. नदी भी है
आदमी भी पेड़ भी है बाओबाब
पृथ्वी के साथ-साथ
और भी कई पृथ्वियाँ हैं
इसी धराधाम पर,
बाओबाब का दरख़्त भी
ऐसी ही एक पृथ्वी है
जिसके तने के उदार परकोटे में
हँसी-खुशी पूरा मुहल्ला बस सकता है
बशर्ते बसने वालों का वास्ता
कुल्हाड़ी से न हो
सहारा पार करने वाले क़ाफ़िले जानते हैं
सिर्फ़ नदियाँ ही नहीं होती नदियाँ
पेड़ भी हो सकते हैं नदी
ऊपर से नीचे तक पोर-पोर
जल से सराबोर
बाओबाब वास्तव में एक नदी है
सदानीरा, जो
खोल दे अगर अपना हृदय
तो उफन चलेगी विक्टोरिया झील
आस्वान बाँध फट जाएगा
जल के उल्लास में
फूट कर बह चलेंगी बंजर क्यारियाँ
अफ्रीका की काली चमेली और काले गुलाब
की सुगन्ध से दुनिया भर जाएगी
सजल मर्मस्थल सहरा मरूस्थल का
खड़ा है हिम्मत बँधाता बाओबाब
बाओबाब हाथ हैं पृथ्वी के
ऊपर को उठे हुए भुजबिसाल,
कलावन्त चतुर उँगलियों-सी शाखएँ
जिन्होंने सिरजा आकाश
रँगा उसे नील के जल से
केतकी और चम्पा के फूलों के तारे टाँके
चित्रकूट की फटिकसिला से चन्द्रमा
किलीमंजारो की बर्फ़ से बनाया सूर्य
और चला दिया चर्ख
जो तब से थमने का नाम ही नहीं लेता
बाओबाब ने ही बनाये दिन और रात....
और अन्तिम शरण्य भी बना बाओबाब
जिसके तरूकोटर में
चिरसमाधि पाते थे पूर्वज,
धीरे-धीरे तने की कोमल छाल
बेदाग़ चादर-सी फैलकर
फिर से ढँक लेती थी कोटर को-
इस तरह होते थे लीन और आत्मसात
वृहदारण्य में पूर्वज
बाओबाब के रस में घुलती जाती काया
और उनकी अनश्वरता
कोंपलों-फूलों-फलों से होती हुई
ऋतुओं में, तृप्ति में, प्राणों में हमारे
करती रहती संचार आज भी...
सुनो ! लुप्त हो चुके वनों का संगीत और आर्तनाद !
ओ गाम्बिया और सेनेगल नदियों में तैरती गश्ती नौकाओ !
ओ चियस के उजड़ते रेलवे टाउन !
ओ घाटे में डूबते डकार और म्बाओ के कारख़ानो !
दिन-ब-दिन ग़ैबी जुनून में डूबते मुर्शिदो !
करना मुझे माफ़
और पूछना अपनी दन्तकथाओं से -
ईश्वर जब ग़ैर दुनियादार शिशु था
उसने बनायी
ऊँची सुराही-सी एक ज़िन्दा चीज़
उसमें अमृत भरा
और फिर बहुत दिनों रहा पसोपेश में
कि इसे क्या कहे
आदमी कि पेड़
तय आज तक नहीं हुआ
कि बाओबाब पेड़ है कि आदमी।