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दिनेश कुमार शुक्ल/ आखर अरथ (काव्य संग्रह)
 

आखर अरथ
दिनेश कुमार शुक्ल
भाग-
3

भाग-1 भाग-2 भाग-3 भाग-4

 1. वह जगह
 2. वैदर्भी नीति
 3. नया धरातल
 4. काठ और काठी
 5. काया की माया रतनजोति
 6. द्वैत

 7. चतुर्मास
 8. द्वारपाल
 9. तुम्हारा जाना
 10. कॉलसेंटर की गाड़ियाँ
 11. अवगाहन
 12. नज़र में घुस कर छुपे नज़ारे

 13. आवाजाही
 14. रामधनी
 15. अपारता
 16. संध्या
 17. विमाता
 18. सुबह से पहले ही
 19. जल का महल

 

20. सर्वस्व
21. कुहरा
22. विलोम की छाया
23. भीतर की बात
24. मिट्टी का इत्र
25. अपराह्न
26. दुस्साहस

27. राग बिलावल
28. शब्दानुकूलन
29. प्रयोगशाला में
30. मौनानंद
31. लालसा
32. परस्परता
33. आखर अरथ

34. कैशोर्य
35. नयी कॉलोनी
36. मधुकरी
37. केतकी के फूल
38. जीत-हार

39. शकट द्वीप
40. एक युग को डूबते देखा
41. एक आम-एक नीम
42. कालंजर की गोह
43. ऐसे या वैसे
44. विस्मय
45. क्रमशः
46. उन दिनों
47. माघ का जल
48. नाविक-छाया
49. बोझिल राग
50. अजब देस
51. चौपाल की ढोलक
52. हँसी-ठिठोली
53. भविष्य की आँखें
54. सूर्य स्नान
55. रूप-प्रतिरूप-अपरूप
56. अनिश्चय
57. ये दिन हैं अभी सुनने के

58. यह क्या?
59. वापसी
60. विस्फोट
61. रेलवे स्टेशन
62. कितने दिन
63. बचते-बचाते

64. संत सरमद
65. ये रंग हैं क्या
66. एक दिन
67. अपार के पार
68. पक्षी-ज्वर और पुनर्जन्म
69. हम काले लोग

70. रहे नाम नीम का
71. अफ्रीका की चूनर
72. नील की हंस-नौका
73. आँखें अक्षर हैं
74. बेली डान्सर
75. या निशा
76. नदी भी है आदमी भी पेड़ भी है बाओबाब


39. शकट-द्वीप

घुसते ही गॉंव में
एक टुटही बैलगाड़ी खड़ी मिलती
गॉंव के साथ इस क़दर नत्थी थी वह
कि बहुत दिनों बाद
गॉंव की ग़रीबी पर जब
मर्तियासेन का व्याख्यान सुनने जाना पड़ा
तो सबसे आगे आकर अड़ गयी यही टुटही गाड़ी
और लगातार पूरे भाषण भर इस क़दर छायी रही
इस क़दर कि दृश्य जगत से श्रव्य जगत तक सिर्फ़ उसी की
उपस्थिति थी

बैलगाड़ी में कभी कोई बदलाव
समय के साथ नहीं आया
यहाँ तक कि उसके आस-पास की हर चीज़
अपरिवर्तित चली आ रही थी जस-की-तस
समय की उॅंगलियाँ यहाँ तक
आते-आते जैसे झुलस जाती थीं
एक द्वीप में खड़ी थी
टुटही बैलगाड़ी
और आस-पास हहर-हहर बहता रहता
समय का नद

कुछ घरों की भीत उठती चली जाती
कोट-पर-कोट
कुछ की नींव का भी मिट जाता नामोनिशान
पैर रपटते ही कालप्रवाह में
डूबते बहे चले जाते थे कितने युग
और कुछ नये आ लगते उस घाट
घिसट कर पहुँच ही जाते किनारे तक

लेकिन वह शकट द्वीप
पाँच गज का यह प्रसार अजर अक्षय अपरिवर्तनीय
कुछ-कुछ अमरत्व-सा कुछ-कुछ अनस्तित्व-सा,
बैलगाड़ी के सहारे उगी अनाम-सी घास
रूसाह अकौड़े और धतूरे के भीट
न गर्मी में सूखते न फैलते बरसात में,
ख़ुद बैलगाड़ी का अस्थिपंजर पहिए जुआँ
लीक-लीक चलने के निशान पहियों पर
काल की भॅंवर में समानान्तर संसार का एक इलाक़ा
झॉंकता हुआ हमारी दुनिया में
अपने अलग यथार्थ के साथ

एक सुबह लोगों ने देखा-
उन लोगों ने जो अस्सी नब्बे सालों से
एक वही बाना गाड़ी का देख रहे थे,
एक या ही रूप
कि गाड़ी तनी खड़ी थी
अपने टूटे ढॉंचे में भी वह आक्रामक-सी लगती थी
पहिए चलकर लुढ़क गये थे दस गज पीछे
और लुढ़कती गाड़ी खड़ी उलंग हो गयी
जैसे कोई तोप खड़ी हो तनी

क़िस्सा कोताह ये कि इधर
गॉंव पंचायत के चुनाव हुए थे
और उनमें तराजू, चम्मच, लोटा वग़ैरह के साथ
इस बार बैलगाड़ी भी एक चुनाव चिह्न थी
और यह चुनाव चिह्न मिला उसे
जो हर बार जीतता आया था अपनी लाठी के बूते
चुनाव के एक रात पहले अचानक
बैलगाड़ी के आस-पास का कवच
अदृश्य शीशे-सा चटक कर टूट गया,
समय का प्रवाह भरभरा कर घुस गया
उस ‘शकट द्वीप’ में

और विजयी के दुर्दान्त आतंक के बावजूद
गाड़ी डरी नहीं
बल्कि उसने यह किया
कि लगभग अश्लील मुद्रा में
उलंग होकर तन कर खड़ी हो गयी
और हरा दिया अपनी इस मुद्रा से
उसे जो हमेशा जीतता आया था लाठी के बल पर
ऐसा प्रतिकार था यह
जिसका ठीक-ठीक पड़ा था वार !

(शीर्ष पर वापस)

40. एक युग को डूबते देखा

चन्द्रमा है...
और भी इक चन्द्रमा है
तुम्हारे मन में डूबा हुआ हमने चन्द्रमा देखा

चट्टान-सी ये रात
इस चट्टान के भीतर
जग रही सोये हुए जीवाश्म की धड़कन,
चन्द्रमा का रस अभी सैलाब बनकर
रात की चट्टान को भी पीस डालेगा
और चट्टानों के भीतर से निकलकर
गोलबन्द
पक्षियों के झुंड उड़ते आएँगे
उनके डैनों से छिटक कर गगन के तारे
तुम्हारी दीप्ति में खो जाएँगे
तुम जागती रहना

सृष्टि की लय
अभी त्रिवली में तुम्हारी समाएगी
उसे सहना
जागती रहना

किसी का मन
तड़पकर अभी फिर कौंधा
दिख गया खोया अमोलक रतन-धन संसार का,
सरसराती उठी
माटी चढ़ी ऊपर
छिटकती शाखा-प्रशाखा वृक्ष में अभिव्यक्त-
सारी रिक्ति को भरती हुई

उधर लम्बी हो रही है - आ रही छाया
पौंड्रवर्धन से, विशाला से, फतेहपुर सीकरी से
आ रही है विजेता की हवस की छाया
दिक्-काल में कुछ खोजती-सी भटकती
घर-गॉंव-पुर-पत्तन

इधर भागा आ रहा है
चीख़ता जलता घना जंगल
कूदता अस्तित्व की गहरी नदी में,
जा रही बहती
चिता की अधजली लकड़ी
उस नदी में
वहीं हमने
एक युग को डूबते देखा।

(शीर्ष पर वापस)

41. एक आम एक नीम

अबकी सबकी डालों में देखो फल आये
एक अकेले तुम्हीं खड़े हो बिन बौराये,
बारामासी ओढ़े रहो उदासी
ये तो ठीक नहीं है,
सुनो विटपवर !
एक अकेले तुम्हीं नहीं रह गए अकेले,

मुझे याद है कभी तुम्हारी डालों को डालों से छूता
हुआ नीम का पेड़ एक इस जगह खड़ा था
उसको गए बहुत दिन बीते,
पीले-पीले कुछ ललछौंहे स्वाद हींंग का लिए हुए
फल कभी तुम्हारी डालों में झूला करते थे
और चैत में
उसी स्वाद की निंबौरियों के गुच्छे ले कर
नीम टहनियाँ अपनी तुम तक ले आता था,

तुम दोनों का साथ याद है
तोता मैना को कोयल को बादल-बूँदों को बिजली को
वृक्ष युग्म की याद अभी तक बची हुई है तूफ़ानों में,
लेकिन
अब सब भूल चले हैं हींग और मिसरी के
दुर्लभ आस्वादन को,

मोटी-मोटी धूल जमी रहती है तुम पर
दीमक ने भी अपनी बस्ती फैला दी
जड़ से फुनगी तक,
बादल तो अबकी भी तुमको नहला देंगे स्वच्छ करेंगे
तुमको बस इतना करना है
ज्ञान बिराग छोड़ कर फिर से बौराना है
धरती के भीतर से वह रस ले आना है
जिसको पीकर डालों के भीतर की पीड़ा
पीली-पीली मंजरियों में फूट पड़ेगी
फिर आयेंगे तोता मैना
फिर आयेंगे लोग तुम्हारे पास
नीम की याद उन्हें बरबस आयेगी,
याद नीम की बनी रहे इस लिए फलो तुम ।

(शीर्ष पर वापस)

42. कालंजर की गोह

टूटा हुआ पलस्तर
कलई खुली-खुली-सी
बहुत पुराना शहर
मुलम्मा उतरा-उतरा
लेकिन जो कुछ झलक रहा है
ढहती दीवारों के भीतर
उसमें कुछ दयनीय नहीं है
निरीहता है शेरों जैसी
सहज-विनीत सभ्यता वाला
सौम्य दर्प है

उजड़-उजड़कर बसने वाला
कालंजर तो कालभित्ति है
जिस पर लिखने वाले जी भर
लिखते गये मर्म की बातें
जिन्हें हवा ने औ’ बारिश ने
विजयी और पराजित सब ने
अपने-अपने अर्थ दिये हैं
देवनागरी नन्दिनागरी गुप्तयुगीन
खरोष्ठी ब्राह्मी रोमन लिपियों
के आलेख
पढ़ चुका है वो
घनी शरीफे की झाड़ी में
छिपा हुआ खरगोश
हमारी नज़्र बचाकर
फिर चन्दामामा की गोद चला जाएगा
कहीं सो रही, कहीं त्रिभंगी खड़ी हुई उस
शालभंजिका के चेहरे पर
आत्मा का उल्लास देह की पीड़ा के संग,
काल-व्याल को टॉंग उड़ गया है
पत्थर का गरूड़,
गुफा के भीतर जल है,
दाड़िम के दानों जैसा रक्ताक्त-श्वेत
है अट्टहास कालंजर का
जो हिला रहा है शिल्पभ्रष्ट
अनगढ़ काली चट्टानों को
एक पुरातन गोह वहीं पर
घात लगाकर छिपी हुई है
अर्धस्वप्न के, अर्धसत्य के, अर्धचेतना के
पदार्थ से निर्मित काली गोह
झपटती है तितली पर
कभी रही जो वास्तुकार
परमर्दिदेव की

इन प्राचीरों के खॅंडहर में
डाकू अब भी आ छिपते हैं
राजा का संरक्षण अब भी
लेकिन अब तो दोनों मिलकर
पृथ्वी को, उसके खनिजों को,
उसकी सन्तानों को,
उसके जल थल नभ को,
वृक्ष वनस्पति खग को मृग को,
नगर गॉंव घर देह गेह आत्मा तक
सब कुछ चर डालेंगे
पाँच साल या उससे कम में

आतंकित है गोह
ढूँढ़ती गर्भगुफा धरती माता की
उसके साथ-साथ उड़ती तितली भी
आश्रय ढूँढ़ रही है

चट्टानें ही चट्टानें हैं कालिंजर में
लेकिन जीवित चट्टानें हैं
कहीं गोह, तो कहीं वृक्ष, तो कहीं धैर्य
तो कहीं सृजन करते मनुष्य-सी
हाड़-मांस की चट्टानें हैं कालंजर में !

(शीर्ष पर वापस)


43. ऐसे या वैसे

कुछ आत्मपीड़न में जा गिरते हैं
और कुछ घुस जाते हैं परपीड़न में
कुछ वंचना में जा बसते हैं, कुछ रमते विश्वास में
कुछ भागते हैं जीवन की छाया तक से
और कुछ जीवन के आस-पास
काटते हैं चक्कर किनारे-किनारे ही
फिर भी मॅंझधार में डूबते देखे गये हर बार

कुछ आकाश में करते हैं वास
और कुछ अपने संकोच में
सिकुड़ते-सिकुड़ते
ख़ुद में घुलते चले जाते हैं
और जिस ज़मीन पर खड़े होते हैं वे
वो ज़मीन भी सिकुड़ते-सिकुड़ते
कल्पना में विलीन हो जाती है

कुछ लोग विस्तार में ही पाते हैं निस्तार
और वे फैलते-फैलते अपने फैलाव में बिला जाते हैं,
स्मृतियाँ कल्पनाओं का ही
प्रतिबिम्ब हैं काल के दर्पण में,
कुछ अमूर्तन में अन्तर्धान हो जाते हैं
और कुछ का लोप हो जाता है
अभिव्यक्ति के अतिरेक में,

कुछ लोग फैलाते हैं हाथ
और उनकी मुट्ठी में क़ैद हो जाता है
त्रिलोक का वैभव
और कुछ की हथेलियाँ फैली की फैली रह जाती हैं
अन्त तो सभी का ऐसा ही होता है

इस कई-कई पहलू वाले
नज़ारे में
आँखें भी दिखाती हैं अपना कमाल
हरे को लाल और लाल को पीला करतीं
सुबह को शाम और शाम को सावन में तब्दील करतीं

मगर इस सबसे हटकर
इस सबके बावजूद
कभी अनुभवगम्य कभी अनुभव से परे
इतना अधिक इतना कुछ इतनी बार
आना चाहता है हमारे पास
कि कहने को शब्द क्या, आकार क्या,
इशारे, मुद्राएँ, इंगिति, छाया,
या चेहरे पर आने वाली
एक सलवट तक नहीं होती हमारे पास
जो आभास भी दे सकती
इतने घनीभूत अस्तित्व का,
दरअसल
कहीं कुछ है ही नहीं
जहाँ ख़ालीपन हो,
जहाँ पहले से ही कुछ-न-कुछ मौजूद न हो

हम एक सघनता में
तैरते रहते हैं
जैसे धूल के गुबार पर कभी-कभी
दिख जाती है अपनी ही छाया
ठीक उसी तरह
हम ख़ुद को ख़ुदी के तूफ़ान में
देखते हैं
भॉंति-भॉंति की छायाओं में तब्दील होते
पता नहीं किस चीज़ का किस धरातल पर
परावर्तन है ये सारी काइनात !

(शीर्ष पर वापस)

44. विस्मय

निपट उचाट घाट दोपहर का
टपक चुका है यह जीवन-घट
सोया हुआ नदी का जल है
साँस रोककर थमा है समय
किधर जाय किस ओर डगर है?

राह ताकते लोग खड़े हैं
जाने किसके इन्तज़ार में,
चलती चाबुक सन्नाटे की
बार-बार, जिसके प्रहार में
खिंचती और उछरती आती
जलती लाल रक्त की रेखा
जिसे देखकर भी हम सबने
किया हुआ बिल्कुल अनदेखा,
त्वचा फट गयी है धरती की
लेकिन कोई नहीं पसीजा
क्योंकि सभी को ख़ुद की चिन्ता
अपना-अपना जिउ-जॉंगर है
कोई बचे न बचे
मगर हम बच निकलेंगे...
इसीलिए ये सन्नाटा है

फिर भी कुछ हैं भौंहें ताने
ताक रहे जो
जिनके भीतर अब भी कुछ टिमटिमा रहा है
वे सनकेंगे
एड़ी पर चुपचाप मुड़ेंगे
झन्नाटे से भरा हुआ थप्पड़ तौलेंगे
सन्नाटे का शीशा चकनाचूर दूर तक बिखर जाएगा

शीशे के बन्दीगृह से
अब उड़ती आवाज़ें आएँगी
धीरे-धीरे बात बढ़ेगी
तभी समय फिर साँस भरेगा
धूल झाड़कर
देखा-देखी एक-एक कर लोग जुटेंगे
अपने पाँव खड़े होकर
चलकर देखेंगे
कहीं दूर ही सही
दिखेगी ख़ुशियों की धूसरित पताका

इसमें देर नहीं है ज़्यादा
लेकिन कुछ तो करना होगा...
सो क्या यह तो तुम ही जानो
या जाने वह बात
अभी जो तुड़ीमुड़ी कविता जैसी
मन के कोने में पड़ी हुई है
वह निर्जियाँ उदास नब्ज़
जो आज पकड़ में नहीं आ रही
वह अव्यक्त देह औचक ही
उठ बैठेगी,
वह अपनी आवाज़ ढूँढ़कर
चुप्पी की गुमनाम गली से ले आएगी
अपनी भाषा
कथा-कहानी
गाना-रोना हॅंसना
सब कुछ नयी तरह से रचना होगा

ऐसा नहीं कि उसने अपना सब अतीत ही
भुला दिया है,
ऐसा नहीं कि उसने अपने वर्तमान को
बेच दिया है,
ऐसा नहीं कि उसने भीतर भय ही भय है,
कालातीत नहीं है फिर भी
वह केवल सामयिक नहीं है,
अपनी चौहद्दी के बाहर
देश-काल का अतिक्रमण कर
नये-नये आयामों में वह व्यक्त हो रहा
प्रकट हो रहा एक साथ ही
वह अगणित संसारों में

वह जीवन की अमरबेल है
एक लता जो अस्ति-नास्ति के पोर-पोर में
फूट रही है-
हरियाली का घटाटोप वह !

कहीं गुरूत्वाकर्षण की भट्टी के भीतर,
कहीं दुःख के कालियदह में,
स्वप्नभंग के खॅंडहरों में,
भूलभुलैया में भटके शिशुओं के हिचकी भरे रूदन में
बच्चों को ढूँढ़ती हुई माताओं के उद्विग्न वेग में देखो ! देखो !
जीवन की वह लहर अमर, वह देखो देखो !
उस गहराती
रक्तिम होती
गोधूली में
आँख गड़ा कर देखो ! देखो !
सौ करोड़ कंठों से कम्पित
सत्ता का आकाशी गुम्बद
फटने ही वाला है, देखो !

उसके फटने पर कैसा आकाश दिखेगा हमको?
तब कैसे नक्षत्र दिखेंगे
कैसा सूरज कैसी धरती
कैसी करूणा कैसी रचना
कैसे जीव-जन्तु पशु-पक्षी
जन्म-मृत्यु, औषधि, जड़-जंगम, पंच तत्त्व...
कैसे उस क्षण होंगे हम-तुम
बन्धु-बान्धव
आशा-आशंका किस रंग की?
देखो ! देखो ! क्या दिखता है...

हो सकता है इतने पर भी
नये-नये अंकुर जो फूटें
उसी तरह के भय-उत्कंठित
पीले-हरे, उदग्र, लजीले,
हो सकता है
पृथ्वी का हिय हुमस-हुमस कर
फिर भर आये
माताओं का दूध बह चले
फिर भर आये कंठ
और आँखों में उमड़े प्रेम
वही बिल्कुल जैसा अब तक
जीवन में होता आया है
उस अधबनी अजब दुनिया के बाशिन्दे हम !

जगज्जाल में फॅंसी मछलियाँ
तड़प-तड़प कर शान्त हो चलीं
लेकिन अन्तिम बार अभी वे फिर तड़पेंगी
साध रही हैं वे अपना बल,
उनके भय में भी साहस है,
तुमको अब आश्चर्य नहीं होता है लेकिन
अच्छा होता
यदि तुम अब भी
यदाकदा हो लेते विस्मित

विस्मय
साहस और ज्ञान का और प्रेम का अग्रदूत है

यह दुनिया जो अभी अधबनी-सी दिखती है-
अन्तस्तल के दर्पण पर
वह मात्र तुम्हारा एक बिम्ब है
अपूर्णता की सुन्दरता की छाया है वह !

अन्धकार में क्या तुमने मणियाँ देखी हैं ?
तक्षक ने क्या बिना छुए ही तुम्हें डसा है ?
किसी गन्ध ने क्या तुमको बेचैन किया है अक्सर ?
क्या अब भी
तुम यदा-कदा
माया-जल के पुष्कर में धॅंसकर
रक्त-श्वेत-नीलाभ कमल के
फूल तोड़कर ले आते हो ?

(शीर्ष पर वापस)

45. क्रमशः

जो हुआ धीरे-धीरे ही हुआ
पहले प्रजातन्त्र आया
फिर समाजवाद आया
फिर प्रस्ताव किया गया कि
अब बहुत हुआ...
पृथ्वी घूमती जा रही थी
अभी तेज़ अभी धीमी...
फिर विरोध बन्द हो गया और
इतनी सहमति हुई दुनिया में
कि इतिहास की ही इति हुई
उधर अकविता और चिड़ियों
के घोसलों से
होता हुआ कवि
विमर्श के उत्कर्ष पर वर्षानुवर्ष
सहर्ष फ़र्श पर फिसलता चला गया...

सब कुछ तेज़ी से घटित हो रहा था
और आदमी घटता जा रहा था
उत्तरोत्तर उत्तर-आधुनिकता की धुनकी
मन और बुळि को रूई की तरह धुन रही थी,
लोग मुस्काते-मुस्काते इतना मुस्काते
कि बेहद कटु होते जाते थे
और मधुरता जाने क्यूँकर
इतनी बढ़ी कि एक दिन
बम्बई के समुद्रतट पर
किनारे-किनारे तैरती पायी गयी,
गहरे पानी पैठती
तो तय था उठाती ज्वार
किन्तु गहरे पानी पैठने का चलन तो
कब से बन्द था,

फिर भाषा की इतनी उन्नति हुई अचानक
कि किसानों के कत्लेआम को
अर्थशास्त्री आत्महत्या करार देने लगे
देश का अन्नागार चूहे चट कर गये

अचानक ही
दंडकारण्य के वृक्ष-लता-गुल्म
सब लोहे के हो गये,
पूँजी के पुंज-पुंज
कुंज-कुंजन में केलि कर रहे थे,
अचानक ही
उस शरद की रात्रि में
चन्द्रमा सुदर्शन चक्र की तरह
पृथ्वी की ओर बढ़ता देखा गया

(शीर्ष पर वापस)

46. उन दिनों

मैं बड़ा हुआ
एक विशाल छतनार
और उदार नीम की छाया में,
मैं बड़ा हुआ
हर साल नीम के सफ़ेद दूध को
बहता हुआ देखकर,
नीम की डालों पर मचकते
सावन के झूलों की पींगों के साथ-साथ
आसमान छू-छूकर बड़ा हुआ मैं,
दूर तक फैली शाखाओं के
पतझरों के साथ-साथ
मैं बड़ा हुआ

बड़ा हुआ मैं हर साल
नीम को झकझोरती आँधियों के बीच,
ईश्वर को जब भी कभी
पड़ती देवदूतों की ज़रूरत
नीम पर बसेरा करने वाले
परिन्दों या गिलहरियों पर ही
जाती उसकी नज़र

पालव की सघनता के बीच-बीच
झॉंकते आकाश के तारों को गिन-गिनकर
बड़ा हुआ मैं,
और जब मैं बड़ा हो चुका
तब से हर साल
नीम की एक-एक डाल
फट कर गिरने लगी,
नीम को गिरते हुए
सचमुच कहाँ देख पाया मैं
तब तक आँखों से
जा चुका था बचपन
और आँखें उलझ चुकी थीं
झाड़ियों में

(शीर्ष पर वापस)

47. माघ का जल

पृथ्वी के गर्भ में था सूर्योदय
भाप उठ रही थी
गंगा के पानी से
माघ-पूर्णिमा का चन्द्र
लहरों पर टूट-टूट जाता था
टूट-टूट जाता था राग
पानी की नोकीली मिज़राब
छूती सितारों के तार
सिहर-सिहर उठते थे
प्रौढ़-अप्रौढ़ सब अंगराग
पानी में झाग आग पानी में
दीपशिखाएँ कम्पित

गंगा में कदली वन
कदली वन में गंगा
कर्पूरी-हैम-ताम्र-लौह घट-कुम्भ पीन
रजत-मीन
देह-द्रव ओतप्रोत
गंगा में द्रवित-प्लवित अष्टधातु
लहरें भुजंगिनी उठातीं गिरातीं फन
गंगा में कदली-वन

माघ का चन्द्रजल
खिले कितने कमल
शीत के शतदल कितने
गत-दल शतदल कितने
चिता और चूल्हे की लपटों में तपे हुए
कितने मन, मनसिज कितने-कितने !
जितने मन
उनसे भी चौगुने चन्द्रमा
माघ की गंगा में सद्योजात
नहा रहा था अनंग
अंग-अंग पानी में जलता था

सहसा ही निर्मल हो उठा पुनः एक बार
युगों से प्रदूषित विषाक्त जल गंगा का,
दुःख दयनीयता से शिथिल गात हुए अमर, कायाकल्प

जल और जीवन के मिलन का अपूर्व क्षण
गंगा ने देह को
देह ने गंगा को
नवजीवन दिया दान
अमृत स्नान पान

उधर दूऽऽर...
वेत्रवती—कालीसिन्धु—चर्मणावती पीकर
लेकर नीलाभा विन्ध्याचल की
कनखियों देखती लजाती मुस्काती-सी
कन्या कालिन्दी चली जाती थी सनासन्

संगम का होना निकट ही जान
सूर्य अभी ठहरा था माता के गर्भ में...

(शीर्ष पर वापस)


48. नाविक—छाया

निर्जन दोपहरी के तट पर बिखरा-बिखरा
सागर से भी अधिक पुराना है यह पत्तन
यहीं गिराते थे लंगर जलयान अथक-अन्वेषण वाले

अब भी जब-तब आ लगते इस घाट जहाज़ी
किसी अजन्मी और भविष्यत् में डूबी
अपनी दुनिया की राह खोजते

भरी दुपहरी के तट पर मलबे-सी बिखरी
पृथ्वी से भी अधिक पुरानी है यह नगरी
देख रही है अपने ही प्रतिबिम्ब
कॉंपती गर्व हवा के माया-जल में

तूफ़ानों के बियाबान में ध्वस्त नगर का दुर्ग
बुर्ज को पीस चुकी है बरगद की जड़
टॅंगा हुआ है निराधार मिहराब-ईंट का चॉंद
गोह की लपलप करती जीभ
चाटती शिलालेख को
टूटी हुई कमन्द आज तक झूल रही है कंगूरे से

यह दुपहर का दुर्ग
दुर्ग के सिंहद्वार पर
भुजा उठाकर एक भटकती नाविक-छाया
रोक रही है पटाक्षेप को
बुला रही है लुप्त हो चले खग को, मृग को
लतापत्र को, स्पन्दन को
लुप्तप्राय मानव-प्रजाति को बुला रही है
बुला रही है छाया की ध्वनि,
ध्वनि की छाया
निर्जल सागर, निर्जन नगरी
सिर्फ़ अलविदा जैसी कोई जल की चिड़िया
कहीं दूर फड़फड़ा रही है निपट अकेली
मृगमरीचिका की लहरों तक

सिर्फ़ नमक ही नहीं
हवा में जाने क्या-क्या
और बहुत कुछ मचल रहा है
जिसे देख मुस्करा रही है नाविक-छाया।

(शीर्ष पर वापस)

49. बोझिल राग

भले साधे न सधे लय फिर भी
वो उठाता है वही बोझिल राग
फाग के बोल पकड़ते हैं आग
दुखों की जब भी हवा आती है
पूर्णिमा का घना अॅंधेरा है
अधबुझी राख की तरह बेचैन
जिसमें रह-रह के टिमटिमाता है
जगती आँखों-सा अनोखा ये राग
चॉंदनी की ढलान का पानी
छपाछप तोड़ता है रात के कगारों को !

उधर सुनसान बगीची में चल रहा है रास
कभी भूतों का कभी परियों का
हवा की रंग बिरंगी कनात के भीतर
कोई बादल पे थाप देता है
गैसबत्ती की सनसनाहट में
गूँगे गायक की बेकली-सी है
रोशनी खा रही है कीट-पतंग
उठ रही है चिराँध की दुर्गन्ध
छा रहा है अजब-अजब-सा डर
और मितली-सी आ रही है ऊब
फिर भी उठने को जी नहीं करता
एक नाटक अभी शुरू होगा

हमने देखा है इसे कितनी बार
इस कथा का न कोई ओर न छोर
अर्थ इसका सदा अबूझ रहा
जानता हूँ सभी किरदारों को
फिर भी उनको न मैं सका पहचान
जब भी वो ज़िन्दगी में मेरे साथ-साथ चले

इसी नाटक का एक टुकड़ा अभी
छूटकर पटकथा के हाथों से
छिटक के दूर जा गिरा है कहीं
किसी चौराहे पे मजमे में घिरा
खोलता है वो कथानक की पोल-
न कहीं भूत हैं न राग है न परियाँ हैं
न कोई फाग कोई आग कहीं कुछ भी नहीं,
गाय के खुर में जा छुपा है चॉंद
सनसनी घुस के उसी मजमे में
बो रही है नये ज़हर के बीज,
सफ़ेद सूखे बादलों का घेरा-सा
चॉंद को घेरता है ग़ुस्से में
ऐसे में पहले कहा जाता था
अबकी बरसात बहुत कम होगी

दुनिया के सारे कलावन्त इन्हीं वक़्तों में
अपने वक़्तों में डूब जाते हैं
और चुपचाप कहीं गहरे में
वो जगाते हैं फिर नया-सा राग
जिसमें लय है मगर आवाज़ नहीं,
राग के बोल फूटते हैं तभी
लोग ही जब उन्हें देते आवाज़ !

(शीर्ष पर वापस)

50. अजब देस

न लेना न देना न खोना न पाना
न रोना न गाना न लिखना न पढ़ना
पंचर हुई सायकिल की तरह
खु़द को ढोता हुआ वो कहीं जा रहा है
उसे कुछ समझ में नहीं आ रहा है
कि ये रास्ता किस तरफ़ जा रहा है
जो होना था वो क्यूँ हुआ इस तरह
उसने सोचा नहीं था कभी इस तरह
गये जाने वाले बहुत दूर आगे
वो आता हुआ लग रहा जा रहा है

न ताक़त न हिम्मत
न चाहत न राहत
न आगे न पीछे न ऊपर न नीचे
कहीं कोई सूरत नहीं दिख रही है
कोई उसको खींचे लिये जा रहा है,

अगर हार वो मान भी ले तो क्या है
सितमगर को पहचान भी ले तो क्या है
ये एक सिलसिला जो चला आ रहा है
उसे तोड़ने क्या कोई आ रहा है

नहीं दिख रहा दूर तक एक पुतला
और मुश्किल है इसको बियाबान कहना
हवा में भरी सिसकियों को दबाता
हुआ कोई सदियों जिए जा रहा है

अकेला नहीं वो ख़ुद इक क़ाफिला है
जो सपनों का सौदा लिये जा रहा है
कभी लुट रहा है कभी पिट रहा है
मगर पार सरहद किए जा रहा है,
पहुँचता है उस देश जिसमें न कुछ है
जमीं भी नहीं आस्मॉं भी नहीं है
नहीं कोई उस देस का रहने वाला
वही याद आता चला जा रहा है ।

(शीर्ष पर वापस)

51. चौपाल की ढोलक

रसना बानी के रस बोल
बानी भेद अगम के खोल

कहना इस युग का भूगोल
कहना ये कैसा भुइडोल
जाती आसमान तक झोल
सूरज चलता राह टटोल

कोई कहे खतम इतिहास
उस पर मत करना बिसवास
रखना संघर्षो को याद
जिनसे बनता है इतिहास

सबको स्वार्थ-तराजू तोल
सबका लगा रहा जो मोल
कहता कुछ न रहा अनमोल
आओ खोलें उसकी पोल

सच की बानी बड़ी प्रचंड
करती चूर-चूर पाखंड
क्यूँकर बिधना लिखे लिलार
क्यूँकर धर्मधुजी मक्कार
क्यूँकर हज को चली बिलार
खाती सौ-सौ चूहे मार

क्यूँकर पूँजी में दुरगन्ध
क्यूँकर मिल में ताला बन्द
कातिल घूम रहे स्वच्छन्द
जन-गण-मन थाने में बन्द

क्यूँकर पापी है धनवान
क्यूँकर नेता बेईमान
क्यूँकर भूखा रहे किसान
हरदम रहें हलक में प्रान

जीवन अद्‌भुत कथा प्रसंग
इसमें इन्द्रधनुष के रंग
इसमें तीन-ताल मिरदंग
जीवन-जल की तरल तरंग

देखो ! चले पवन झकझोर
अब भी बहे नदी हलकोर
चाहे पीड़ा उठे मरोर
साधे रखना जीवन-डोर
बन में फिर नाचेंगे मोर
फूटेगी फिर सुन्दर भोर

देखो ये जीवन अनमोल
इसमें दे न कोई विष घोल
रसना बानी के रस बोल
बानी भेद अगम के खोल।

(शीर्ष पर वापस)

52. हॅंसी - ठिठोली

ग़ैर की ज़ुबानी में
अटपटी कहानी में
जोकर में रानी में
बालू के पानी में
छप्पर में छानी में
रात आसमानी में
ज्ञानी अज्ञानी में
गूँगे की बानी में
बेमतलब बातों के
भीतर के मानी में
वक़्त की रवानी में
खो गयी निशानी में
आनी में-जानी में
इस दुनिया फ़ानी में
जो कुछ है जितना है
वो सब बस इतना है
इसमें क्या फ़ितना है ?

आमफ़हम बोली में
रंग में रॅंगोली में
अबकी फिर होली में
यही गीत गाना है
खोया सो पाना है
और कहाँ जाना है ?
रहना है यहीं यहीं सब कुछ रह जाना है
रामू की खोली में
बाबा की झोली में
दुलहिन की डोली में
अम्मा की बोली में
अपनों की टोली में
हॅंसी में ठिठोली में
सब कुछ रह जाना है।

(शीर्ष पर वापस)

53. भविष्य की आँखें

आतुर और अधीर
अचानक धीरजधारी
पर्वत पर जब तड़प-तड़प
दामिनी पुकारी

खड्गधार की प्रभा
रक्त की जगमग-जगमग
से भर गया समूचा अग-जग
उठी अचानक
जाने कब से बाट जोहती
फूटी धारा
बहती जैसे राह टोहती

अन्धकार ही अन्धकार था उस प्रकाश में
हाथ उठाकर छुआ गगन
था वहीं पास में
तपता तवा
कि जिस पर तारे भून रहा था
सात नहीं उनचास रंग का सूरज
करता अट्टहास था
वह भी बिल्कुल
कहीं पास था

लेकिन आँखें नहीं किसी के पास बची थीं
तितली बनकर सबकी आँखें
रितु बसन्त में डूब चुकी थीं
अमरबेल के फूलों का रस पीकर वे भी
फूल बन चुकीं थीं
आने वाले बसन्त के
अब वे हमको वर्तमान में नहीं
भविष्यत् में देखेंगी
वे देखेंगी हमको जब
तब देख सकेंगे हम भी ख़ुद को
लेकिन तब हम क्या देखेंगे ?

(शीर्ष पर वापस)

54. सूर्य-स्नान

हम प्यास के तट हैं
हमारे घाट पर आना
हमारी तृप्ति की धारा
न जाने किस अतल में
जा छुपी है
न जाने किस नदी का
पाट है ये
न जाने किन प्रवाहों की लिखी
बिसरी कहानी बालुका पर
इसे पढ़ना गुनगुनाना
यदि समय पाना
हमारे घाट पर आना

निनादित मौन सन्ध्या का
विकल करता हुआ बहता
अगोचर समय की धारा
बहाए लिये जाती है
न डरना तुम,
समय की नदी में गहरे उतरना
तैरना, उस पार जाना
दूसरे तट पर तुम्हें मैं फिर मिलूँगा

इस बीच तुमको याद आये
अगर कुछ ऐसा
कि तुमको अकेला कर दे
तो बैठ जाना सीढ़ियों पर,
अस्त होते सूर्य में स्नान करना,
किन्तु उस सूर्यास्त में ही
डूब मत जाना
हमारे घाट पर आना

नदी भी तो कभी पहली बार
आयी थी हमारे तट
हमारे घाट से लगकर
बहुत गहरी
भरी
बहती रही
भूलकर भी नहीं आता याद
वो गुज़रा ज़माना
दूर वह जो
क्षीण धारा बह रही है
पूछना उससे,
बताएगी कथा अपनी
कभी कोमल क्षणों में,
बोलने देना उसे
तुम पूछकर बस मौन हो जाना
और अपने मौन में जब डूब जाना
तब हमारे घाट पर आना
नदी बनकर ।

(शीर्ष पर वापस)

55. रूप-प्रतिरूप-अपरूप

जागता
तो होता वह
जगत,
सोता
तो होता
टूटी नींद
पसीने में लथपथ

हॅंसता
तो होता वह विद्रूप,
रोता
तो धरता
विदूषक का रूप

उड़ता
तो बन जाता
थकी-सी उड़ान का
टूटा हुआ पंख,
होता अकेला
तब होता वह असंख्य

वह जब भी गाता
होता संसार का
सबसे प्राचीन मौन मुखर,
नाचता
तो डालता
सृष्टि के प्रवाह में
बहुत गहरी भॅंवर

आता वसन्त
तो होता वह
कॉंटों में खिला फूल,
समय की सन्धि पर छा जाता
बनकर ख़ुद
पृथ्वी के खुरों से उड़ी धूल

चुप रहता
तो हो जाता वह भी
सरकारी गवाह
इसीलिए बोलता रहता वह
बनकर भी
शब्दों का निरर्थक प्रवाह

उठता
तो होता वह
फटता हुआ कगार
ढहता
तो हो जाता
अधबने घर की दीवार

तैरता तो बन जाता
बाढ़ का फेना और खर-पतवार
डूबता तो होता वह
कत्ल की रात का
गहन अन्धकार

बजता
तब होता वह सन्नाटा,
भरता जब साँस
तो होता वह
सागर का ज्वार और भाटा

करता जब याद
तब होता वह
पुरखों का प्रतिबिम्ब,
विस्मृति में
झूलता
कालसर्प-सा प्रलम्ब

वह बन जाता है समय
बचकर जब भागता सरपट,
थमता
तब होता वह
पर्वत के माथे पर
चिन्ता की सलवट

थकता
तो होता वह
नदी की तलहटी में सोता जल,
होता जब उदास
तो गहराता
बन जाता
दुर्गम-पाताल-अतल

जीतता
तो होता ख़ुद
उजड़ा हुआ खेत,
पराजय में
उड़ता आकाश तक
होकर भी रेत

जब भी
वह होता
तब वह नहीं होता वह,
और जब नहीं होता
तो अपनी रिक्ति में
भरता अनवरत
कितने ही रूप,
प्रतिरूप, अपरूप

(शीर्ष पर वापस)

56. अनिश्चय

जाने कहाँ से
उड़ती चली आती हैं कथाएँ
कभी घना झीना कभी
बुनता है जीवन अपना वितान

कथाएँ उभरती चली आती हैं
जैसे दुशाले पर बुनकर
भर देता है
पेड़, फूल, हिरन, घर

सम्बन्धों को रोपता है
सींचता है आदमी
अनुराग-विराग की
धूपछाँह
में मन छोड़ता है कभी
कभी गहता है किसी की बाँह

एक राह से फूटती हैं
हज़ार राहें
एक ही गन्तव्य में
छुपे हैं हज़ार गन्तव्य

कठिन है तय कर पाना
अपनी राह, पहचानना
अपना गन्तव्य
इस जगह यूँ ही खड़े-खड़े ।

(शीर्ष पर वापस)

57. ये दिन हैं अभी सुनने के

गगन के मन में
अचानक ही घटा उठ्ठेगी

घटा के साथ
चले आएँगे तमाम स्वप्न
सुधासिन्धु और एक नदी
बहुत ही हल्के-हल्के
बजता हुआ सात रंग का सरगम
तुम्हारी आँखों के
दोनों आकाश,
तमाम बिजलियों के गेंद
धान की लहरें,
और एक पंक्ति
हृदय-सी गहरी

किसी दिन यूँ ही
घटा उठ्ठेगी
ख़ुशी में
भर के भॅंवर नाचेगी
समेटेगी ख़ुद को
अपने गहन अर्थ की सघनता में
उठेंगी सजलता की वृत्त-सी लहरें
घटा उठ्ठेगी अवस
जानती है
खेत की भुलभुल में
अभी तपती हुई दूब की याद

अभी तो प्या स है
और लू के थपेड़े हैं
और दहशत है
बस एक घटाटोप-सा है
धूल भरी आँधी है
पड़ा है बिखरा हुआ
चूर-चूर सात रंग का सरगम

चलो उठाओ
चुनो एक-एक याद
सभी रंगों की
उठाओ फिर से
वो टूटी हुई आवाज़
गमकती थापें

वैसे भी अभी
धूल ही तो उड़नी थी
जो कदमताल करते हुए
क़्त इधर से गुज़रा

बिखरा है जो
ये दिन हैं
उसे चुनने के
सुनो ये शान्त
हवा की धड़कन
ये दिन हैं अभी
सुनने के

(शीर्ष पर वापस)
 

 

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