आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ग्रंथावली -1
मलिक मुहम्मद जायसी
पद्मावत की कथा
कवि सिंहलद्वीप, उसके राजा गन्धर्वसेन, राजसभा, नगर, बगीचे इत्यादि का
वर्णन करके पद्मावती के जन्म का उल्लेख करता है। राजभवन में हीरामन नाम का
एक अद्भुत सुआ था जिसे पद्मावती बहुत चाहती थी और सदा उसी के पास रहकर अनेक
प्रकार की बातें कहा करती थी। पद्मावती क्रमश: सयानी हुई और उसके रूप की
ज्योति भूमण्डल में सबसे ऊपर हुई। जब उसका कहीं विवाह न हुआ तब वह रात दिन
हीरामन से इसी बात की चर्चा किया करती थी। सूए ने एक दिन कहा कि यदि कहो तो
देश देशान्तर में फिरकर मैं तुम्हारे योग्य वर ढूँढूँ। राजा को जब इस
बातचीत का पता लगा तब उसने क्रुद्ध होकर सूए को मार डालने की आज्ञा दी।
पद्मावती ने विनती कर किसी प्रकार सूए के प्राण बचाए। सूए ने पद्मावती से
विदा माँगी, पर पद्मावती ने प्रेम के मारे सूए को रोक लिया। सूआ उस समय तो
रुक गया, पर उसके मन में खटका बना रहा।
एक दिन पद्मावती सखियों को लिए हुए मानसरोवर में स्नान और जलक्रीड़ा करने
गई। सूए ने सोचा कि अब यहाँ से चटपट चल देना चाहिए। वह वन की ओर उड़ा, जहाँ
पक्षियों ने उसका बड़ा सत्कार किया। दस दिन पीछे एक बहेलिया हरी पत्तियों की
टट्टी लिए उस वन में चला आ रहा था। और पक्षी तो उस चलते पेड़ को देखकर उड़ गए
पर हीरामन चारे के लोभ में वहीं रहा। अन्त में बहेलिये ने उसे पकड़ लिया और
बाजार में उसे बेचने के लिए ले गया। चित्तौर के एक व्यापारी के साथ एक दीन
ब्राह्मण भी कहीं से रुपये लेकर लोभ की आशा से सिंहल की हाट में आया था।
उसने सूए को पण्डित देख मोल ले लिया और लेकर चित्तौर आया। चित्तौर में उस
समय राजा चित्रसेन मर चुका था और उसका बेटा रत्नसेन गद्दी पर बैठा था।
प्रशंसा सुनकर रत्नसेन ने लाख रुपये देकर हीरामन सूए को मोल ले लिया।
एक दिन रत्नसेन कहीं शिकार को गया था। उसकी रानी नागमती सूए के पास आई और
बोली-'मेरे समान सुन्दरी और भी कोई संसार में है?' इस पर सूआ हँसा और उसने
सिंहल की पद्मिनी स्त्रियों का वर्णन करके कहा कि उनमें और तुममें दिन और
अंधेरी रात का अन्तर है। रानी ने सोचा कि यदि यह तोता रहेगा तो किसी दिन
राजा से भी ऐसा ही कहेगा और वह मुझसे प्रेम करना छोड़कर पद्मावती के लिए
जोगी होकर निकल पड़ेगा। उसने अपनी धाय से उसे ले जाकर मार डालने को कहा। धाय
ने परिणाम सोचकर उसे मारा नहीं, छिपा रखा। जब राजा ने लौटकर सूए को न देखा
तब उसने बड़ा कोप किया। अन्त में हीरामन उसके सामने लाया गया और उसने सब
वृत्तान्त कह सुनाया। राजा को पद्मावती का रूपवर्णन सुनने की बड़ी उत्कण्ठा
हुई और हीरामन ने उसके रूप का लम्बा चौड़ा वर्णन किया। उस वर्णन को सुन राजा
बेसुध हो गया। उसके हृदय में ऐसा प्रबल अभिलाष जगा कि वह रास्ता बताने के
लिए हीरामन को साथ ले जोगी होकर घर से निकल पड़ा।
उसके साथ सोलह हजार कुँवर भी जोगी होकर चले। मध्यसप्रदेश के नाना दुर्गम
स्थानों के बीच होते हुए सब लोग कलिंग देश में पहुँचे। वहाँ के राजा गजपति
से जहाज लेकर रत्नसेन ने और सब जोगियों के सहित सिंहलद्वीप की ओर प्रस्थान
किया। क्षार समुद्र, क्षीर समुद्र, दधि समुद्र, उदधि समुद्र, सुरा समुद्र
और किलकिला समुद्र को पार करके वे सातवें मानसरोवर समुद्र में पहुँचे जो
सिंहलद्वीप के चारों ओर है। सिंहलद्वीप में उतरकर जोगी रत्नसेन तो अपने सब
जोगियों के साथ महादेव के मन्दिर में बैठकर तप और पद्मावती का ध्यासन करने
लगा और हीरामन पद्मावती से भेंट करने गया। जाते समय वह रत्नसेन से कहता गया
कि वसन्त पंचमी के दिन पद्मावती इसी महादेव के मण्डप में वसन्तपूजा करने
आएगी; उस समय तुम्हें उसका दर्शन होगा और तुम्हारी आशा पूर्ण होगी।
बहुत दिन पर हीरामन को देख पद्मावती बहुत रोई। हीरामन ने अपने निकल भागने
और बेचे जाने का वृत्तान्त कह सुनाया। इसके उपरान्त उसने रत्नसेन के रूप,
कुल, ऐश्वर्य, तेज आदि की बड़ी प्रशंसा करके कहा कि वह सब प्रकार से
तुम्हारे योग्य वर है और तुम्हारे प्रेम में जोगी होकर यहाँ तक आ पहुँचा
है। पद्मावती ने उसकी प्रेमव्यथा सुनकर जयमाल देने की प्रतिज्ञा की और कहा
कि वसन्त पंचमी के दिन पूजा के बहाने मैं उसे देखने जाऊँगी। सूआ यह समाचार
लेकर राजा के पास मंडप में लौट आया।
वसन्त पंचमी के दिन पद्मावती सखियों के सहित मंडप में गई और उधर भी पहुँची
जिधर रत्नसेन और उसके साथी जोगी थे। पर ज्योंही रत्नसेन की ऑंखें उस पर
पड़ीं, वह मूर्च्छित होकर गिर पड़ा। पद्मावती ने रत्नसेन को सब प्रकार से
वैसा ही पाया जैसा सूए ने कहा था। वह मूर्च्छित जोगी के पास पहुँची और उसे
होश में लाने के लिए उस पर चन्दन छिड़का। जब वह न जागा तब चन्दन से उसके
हृदय पर यह बात लिखकर वह चली गई कि 'जोगी, तूने भिक्षा प्राप्त करने योग्य
योग नहीं सीखा, जब फलप्राप्ति का समय आया तब तू सो गया।'
राजा को जब होश आया तब वह बहुत पछताने लगा और जल मरने को तैयार हुआ। सब
देवताओं को भय हुआ कि यदि कहीं यह जला तो इसकी घोर विरहाग्नि से सारे लोक
भस्म हो जाएँगे। उन्होंने जाकर महादेव पार्वती के यहाँ पुकार की। महादेव
कोढ़ी के वेश में बैल पर चढ़े राजा के पास आए और जलने का कारण पूछने लगे। इधर
पार्वती की, जो महादेव के साथ आईं थीं, यह इच्छा हुई कि राजा के प्रेम की
परीक्षा लें। ये अत्यन्त सुन्दरी अप्सरा का रूप धारकर आईं और बोली -'मुझे
इन्द्र ने भेजा है। पद्मावती को जाने दे, तुझे अप्सरा प्राप्त हुई।'
रत्नसेन ने कहा-'मुझे पद्मावती को छोड़ और किसी से कुछ प्रयोजन नहीं।'
पार्वती ने महादेव से कहा कि रत्नसेन का प्रेम सच्चा है। रत्नसेन ने देखा
कि इस कोढ़ी की छाया नहीं पड़ती है, इसके शरीर पर मक्खियाँ नहीं बैठती हैं और
इसकी पलकें नहीं गिरती हैं अत: यह निश्चय ही कोई सिद्ध पुरुष है। फिर
महादेव को पहचानकर वह उनके पैरों पर गिर पड़ा। महादेव ने उसे सिद्धि गुटिका
दी और सिंहलगढ़ में घुसने का मार्ग बताया। सिद्धि गुटिका पाकर रत्नसेन सब
जोगियों को लिए सिंहलगढ़ पर चढ़ने लगा।
राजा गन्धर्वसेन के यहाँ जब यह खबर पहुँची तब उसने दूत भेजे। दूतों से जोगी
रत्नसेन ने पद्मिनी के पाने का अभिप्राय कहा। दूत क्रुद्ध होकर लौट गए। इस
बीच हीरामन रत्नसेन का प्रेमसन्देश लेकर पद्मावती के पास गया और पद्मावती
का प्रेमभरा सँदेसा आकर उसने रत्नसेन से कहा। इस सन्देश से रत्नसेन के शरीर
में और भी बल आ गया। गढ़ के भीतर जो अगाध कुण्ड था वह रात को उसमें धँसा और
भीतरी द्वार को, जिसमें वज्र के किवाड़ लगे थे, उसने जा खोला। पर इस बीच
सबेरा हो गया और वह अपने साथी जोगियों के सहित घेर लिया गया। राजा
गन्धर्वसेन के यहाँ विचार हुआ कि जोगियों को पकड़कर सूली दे दी जाय। दल बल
के सहित सब सरदारों ने जोगियों पर चढ़ाई की। रत्नसेन के साथी युद्ध के लिए
उत्सुक हुए पर रत्नसेन ने उन्हें यह उपदेश देकर शान्त किया कि प्रेममार्ग
में क्रोध करना उचित नहीं। अन्त में सब जोगियों सहित रत्नसेन पकड़ा गया। इधर
यह सब समाचार सुन पद्मावती की बुरी दशा हो रही थी। हीरामन सूए ने जाकर उसे
धीरज बँधाया कि रत्नसेन पूर्ण सिद्ध हो गया है, वह मर नहीं सकता।
जब रत्नसेन को बाँधकर सूली देने के लिए लाए तब जिसने जिसने उसे देखा सबने
कहा कि यह कोई राजपुत्र जान पड़ता है। इधर सूली की तैयारी हो रही थी, उधर
रत्नसेन पद्मावती का नाम रट रहा था। महादेव ने जब जोगी पर ऐसा संकट देखा तब
वे और पार्वती भाँट भाँटिनी का रूप धरकर वहाँ पहुँचे। इस बीच हीरामन सूआ भी
रत्नसेन के पास पद्मावती का यह संदेसा लेकर आया कि 'मैं भी हथेली पर प्राण
लिए बैठी हूँ, मेरा जीना मरना तुम्हारे साथ है।' भाँट (जो वास्तव में
महादेव थे) ने राजा गन्धर्वसेन को बहुत समझाया कि यह जोगी नहीं राजा और
तुम्हारी कन्या के योग्य वर है, पर राजा इस पर और भी क्रुद्ध हुआ। इस बीच
जोगियों का दल चारों ओर से लड़ाई के लिए चढ़ा। महादेव के साथ हनुमान आदि सब
देवता जोगियों की सहायता के लिए आ खड़े हुए। गन्धर्वसेन की सेना के हाथियों
का समूह जब आगे बढ़ा तब हनुमानजी ने अपनी लम्बी पूँछ में सबको लपेटकर आकाश
में फेंक दिया। राजा गन्धर्वसेन को फिर महादेव का घण्टा और विष्णु का शंख
जोगियों की ओर सुनाई पड़ा और साक्षात् शिव युद्धस्थल में दिखाई पड़े। यह
देखते ही गन्धर्वसेन महादेव के चरणों पर जा गिरा और बोला-'कन्या आपकी है,
जिसे चाहिए उसे दीजिए'। इसके उपरान्त हीरामन सूए ने आकर राजा रत्नसेन के
चित्तौर से आने का सब वृत्तान्त कह सुनाया और गन्धर्वसेन ने बड़ी धूमधाम से
रत्नसेन के साथ पद्मावती का विवाह कर दिया। रत्नसेन के साथी जो सोलह हजार
कुँवर थे उन सबका विवाह भी पद्मिनी स्त्रियों के साथ हो गया और सब लोग बड़े
आनन्द के साथ कुछ दिनों तक सिंहल में रहे।
इधर चित्तौर में वियोगिनी नागमती को राजा की बाट जोहते एक वर्ष हो गया।
उसके विलाप से पशु पक्षी विकल हो गए। अन्त में आधी रात को एक पक्षी ने
नागमती के दु:ख का कारण पूछा। नागमती ने उससे रत्नसेन के पास पहुँचाने के
लिए अपना सँदेसा कहा। वह पक्षी नागमती का सँदेसा लेकर सिंहलद्वीप गया और
समुद्र के किनारे एक पेड़ पर बैठा। संयोग से रत्नसेन शिकार खेलते खेलते उसी
पेड़ के नीचे जा खड़ा हुआ। पक्षी ने पेड़ पर से नागमती की दु:खकथा और चित्तौर
की हीन दशा का वर्णन किया। रत्नसेन का जी सिंहल से उचटा और उसने स्वदेश की
ओर प्रस्थान किया। चलते समय उसे सिंहल के राजा के यहाँ से विदाई में बहुत
सा सामान और धन मिला। इतनी अधिक सम्पत्ति देख राजा के मन में गर्व और लोभ
हुआ। वह सोचने लगा कि इतना अधिक धन लेकर यदि मैं स्वदेश पहुँचा तो फिर मेरे
समान संसार में कौन है। इस प्रकार लोभ ने राजा को आ घेरा।
समुद्रतट पर जब रत्नसेन आया तब समुद्र याचक का रूप धरकर राजा से दान माँगने
आया, पर राजा ने लोभवश उसका तिरस्कार कर दिया। राजा आधे समुद्र में भी नहीं
पहुँचा था कि बड़े जोर का तूफान आया जिससे जहाज दक्खिन लंका की ओर बह गए।
वहाँ विभीषण का एक राक्षस माँझी मछली मार रहा था। वह अच्छा आहार देख राजा
से आकर बोला कि चलो हम तुम्हें रास्ते पर लगा दें। राजा उसकी बातों में आ
गया। वह राक्षस सब जहाजों को एक भयंकर समुद्र में ले गया जहाँ से निकलना
कठिन था। जहाज चक्कर खाने लगे और हाथी, घोड़े, मनुष्य आदि डूबने लगे। वह
राक्षस आनन्द से नाचने लगा। इस बीच समुद्र का राजपक्षी वहाँ आ पहुँचा जिसके
डैनों का ऐसा घोर शब्द हुआ मानो पहाड़ के शिखर टूट रहे हों। वह पक्षी उस
दुष्ट राक्षस को चंगुल में दबाकर उड़ गया। जहाज के एक तख्ते पर एक ओर राजा
बहा और दूसरे तख्ते पर दूसरी ओर रानी।
पद्मावती बहते बहते वहाँ जा लगी जहाँ समुद्र की कन्या लक्ष्मी अपनी
सहेलियों के साथ खेल रही थी। लक्ष्मी मूर्च्छित पद्मावती को अपने घर ले गई।
पद्मावती को जब चेत हुआ तब वह रत्नसेन के लिए विलाप करने लगी। लक्ष्मी ने
उसे धीरज बँधाया और अपने पिता समुद्र से राजा की खोज कराने का वचन दिया।
इधर राजा बहते बहते एक ऐसे निर्जन स्थान में पहुँचा जहाँ मूँगों के टीलों
के सिवा और कुछ न था। राजा पद्मिनी के लिए बहुत विलाप करने लगा और कटार
लेकर अपने गले में मारना ही चाहता था कि ब्राह्मण का रूप धरकर समुद्र उसके
सामने आ खड़ा हुआ और उसे मरने से रोका। अन्त में समुद्र ने राजा से कहा कि
तुम मेरी लाठी पकड़कर ऑंख मूँद लो; मैं तुम्हें जहाँ पद्मावती है उसी तट पर
पहुँचा दूँगा।
जब राजा उस तट पर पहुँच गया तब लक्ष्मी उसकी परीक्षा लेने के लिए पद्मावती
का रूप धारण कर रास्ते में जा बैठीं। रत्नसेन उन्हें पद्मावती समझ उनकी ओर
लपका। पास जाने पर वे कहने लगी। -''मैं पद्मावती हूँ।'' पर रत्नसेन ने देखा
कि यह पद्मावती नहीं है, तब चट मुँह फेर लिया। अन्त में लक्ष्मी रत्नसेन को
पद्मावती के पास ले गई। रत्नसेन और पद्मावती कई दिनों तक समुद्र और लक्ष्मी
के मेहमान रहे। पद्मावती की प्रार्थना पर लक्ष्मी ने उन सब साथियों को भी
ला खड़ा किया जो इधर उधर बह गए थे। जो मर गए थे वे भी अमृत से जिला दिए गए।
इस प्रकार बड़े आनन्द से दोनों वहाँ से विदा हुए। विदा होते समय समुद्र ने
बहुत से अमूल्य रत्न दिए। सबसे बढ़कर पाँच पदार्थ दिए-अमृत, हंस, राजपक्षी,
शार्दूल और पारस पत्थर। इन सब अनमोल पदार्थों को लिए अन्त में रत्नसेन और
पद्मावती चित्तौर पहुँच गए। नागमती और पद्मावती दोनों रानियों के साथ
रत्नसेन सुखपूर्वक रहने लगे। नागमती से नागसेन और पद्मावती से कमलसेन ये दो
पुत्र राजा को हुए।
चित्तौर की राजसभा में राघवचेतन नाम का एक पण्डित था जिसे यक्षिणी सिद्ध
थी। एक दिन राजा ने पण्डितों से पूछा, 'दूज कब है?' राघव के मुँह से निकला
'आज'। और सब पण्डितों ने एक स्वर से कहा कि 'आज नहीं हो सकती, कल होगी।'
राघव ने कहा 'कि यदि आज दूज न हो तो मैं पण्डित नहीं।' पण्डितों ने कहा कि
'राघव वाममार्गी है; यक्षिणी की पूजा करता है, जो चाहे सो कर दिखावे, पर आज
दूज नहीं हो सकती।' राघव ने यक्षिणी के प्रभाव से उसी दिन सन्याे के समय
द्वितीया का चन्द्रमा दिखा दिया।'1 पर जब दूसरे दिन चन्द्रमा देखा गया तब
वह द्वितीया का ही चन्द्रमा था। इस पर पण्डितों ने राजा रत्नसेन से
कहा-''देखिए, यदि कल द्वितीया रही होती, तो आज चन्द्रमा की कला कुछ अधिक
होती; झूठ और सच की परख कर लीजिए।'' राघव का भेद खुल गया और वह वेदविरुद्ध
आचार करनेवाला प्रमाणित हुआ। राजा रत्नसेन ने उसे देशनिकाले का दण्ड दिया।
पद्मावती ने जब यह सुना तब उसने ऐसे गुणी पण्डित का असन्तुष्ट होकर जाना
राज्य के लिए अच्छा नहीं समझा। उसने भारी दान देकर राघव को प्रसन्न करना
चाहा। सूर्यग्रहण का दान देने के लिए उसने उसे बुलाया। जब राघव महल के नीचे
आया तब पद्मावती ने अपने हाथ का एक अमूल्य कंगन-जिसका जोड़ा और कहीं
दुष्प्राप्य था- झरोखे पर से फेंका। झरोखे पर पद्मावती की झलक देख राघव
बेसुध होकर गिर पड़ा। जब उसे चेत हुआ तब उसने सोचा कि अब यह कंगन लेकर
बादशाह के पास दिल्ली चलूँ और पद्मिनी के रूप का उसके सामने वर्णन करूँ। वह
लम्पट है, तुरन्त चित्तौर पर चढ़ाई करेगा और इसके जोड़ का दूसरा कंगन भी मुझे
इनाम देगा। यदि ऐसा हुआ तो राजा से मैं बदला भी ले लूँगा और सुख से जीवन भी
बिताऊँगा।
यह सोचकर राघव दिल्ली पहुँचा और वहाँ बादशाह अलाउद्दीन को कंगन दिखाकर उसने
पद्मिनी के रूप का वर्णन किया। अलाउद्दीन ने बड़े आदर से उसे अपने यहाँ रखा
और सरजा नामक एक दूत के हाथ एक पत्र रत्नसेन के पास भेजा कि पद्मिनी को
तुरन्त भेज दो, बदले में और जितना राज्य चाहो ले लो। पत्र पाते ही राजा
रत्नसेन क्रोध से लाल हो गया और बिगड़कर दूत को वापस कर दिया। अलाउद्दीन ने
चित्तौड़ गढ़ पर चढ़ाई कर दी। आठ वर्ष तक मुसलमान चित्तौड़ को घेरे रहे और घोर
युद्ध होता रहा, पर गढ़ न टूट सका। इसी बीच दिल्ली से एक पत्र अलाउद्दीन को
मिला जिसमें हरेव लोगों के फिर से चढ़ आने का समाचार लिखा
1. लोना चमारिन के सम्बतन्ध में भी प्रसिद्ध है कि उसकी बात इसी प्रकार से
सत्य करने के लिए देवी ने प्रतिपदा के दिन आकाश में जाकर अपने हाथ का कंगन
दिखाया था जिसे देखने वालों को द्वितीया के चन्द्रमा का भ्रम हुआ था।
था। बादशाह ने जब यह देखा कि गढ़ नहीं टूटता है तब उसने कपट की एक चाल सोची।
उसने रत्नसेन के पास सन्धि का एक प्रस्ताव भेजा और यह कहलाया कि मुझे
पद्मिनी नहीं चाहिए; समुद्र से जो पाँच अमूल्य वस्तुएँ तुम्हें मिली हैं
उन्हें देकर मेल कर लो।
राजा ने स्वीकार कर लिया और बादशाह को चित्तौरगढ़ के भीतर ले जाकर बड़ी
धूमधाम से उसकी दावत की। गोरा बादल नामक विश्वासपात्र सरदारों ने राजा को
बहुत समझाया कि मुसलमानों का विश्वास करना ठीक नहीं, पर राजा ने ध्याान न
दिया। वे दोनों वीर नीतिज्ञ सरदार रूठकर अपने घर चले गए। कई दिनों तक
बादशाह की मेहमानदारी होती रही। एक दिन वह टहलते टहलते पद्मिनी के महल की
ओर भी जा निकला, जहाँ एक से एक रूपवती स्त्रियाँ स्वागत के लिए खड़ी थीं।
बादशाह ने राघव से, जो बराबर उसके साथ साथ था, पूछा कि 'इनमें पद्मिनी कौन
है?' राघव ने कहा, 'पद्मिनी इनमें कहाँ? ये तो उसकी दासियाँ हैं।' बादशाह
पद्मिनी के महल के सामने ही एक स्थान पर बैठकर राजा के साथ शतरंज खेलने
लगा। जहाँ वह बैठा था वहाँ उसने एक दर्पण भी रख दिया था कि पद्मिनी यदि
झरोखे पर आवेगी तो उसका प्रतिबिम्ब दर्पण में देखूँगा। पद्मिनी कुतूहलवश
झरोखे के पास आई और बादशाह ने उसका प्रतिबिम्ब दर्पण में देखा। देखते ही वह
बेहोश होकर गिर पड़ा।
अन्त में बादशाह ने राजा से विदा माँगी। राजा उसे पहुँचाने के लिए साथ- साथ
चला। एक एक फाटक पर बादशाह राजा को कुछ न कुछ देता चला। अन्तिम फाटक पार
होते ही राघव के इशारे से बादशाह ने रत्नसेन को पकड़ लिया और बाँधकर दिल्ली
ले गया। वहाँ राजा को तंग कोठरी में बन्द करके वह अनेक प्रकार के भयंकर
कष्ट देने लगा। इधर चित्तौर में हाहाकार मच गया। दोनों रानियाँ रो रोकर
प्राण देने लगीं। इस अवसर पर राजा रत्नसेन के शत्रु कुम्भलनेर के राजा
देवपाल को दुष्टता सूझी। उसने कुमुदनी नाम की दूती को पद्मावती के पास
भेजा। पहले तो पद्मिनी अपने मायके की स्त्री सुनकर बड़े प्रेम से मिली और
उससे अपना दु:ख कहने लगी, पर जब धीरे धीरे उसका भेद खुला तब उसने उचित दण्ड
देकर उसे निकलवा दिया। इसके पीछे अलाउद्दीन ने भी जोगिन के वेश में एक दूती
इस आशा से भेजी कि वह रत्नसेन से भेंट कराने के बहाने पद्मिनी को जोगिन
बनाकर अपने साथ दिल्ली लाएगी। पर उसकी दाल भी न गली।
अन्त में पद्मिनी गोरा और बादल के घर गई और उन दोनों क्षत्रिय वीरों के
सामने अपना दु:ख रोकर उसने उनसे राजा को छुड़ाने की प्रार्थना की। दोनों ने
राजा को छुड़ाने की दृढ़ प्रतिज्ञा की और रानी को बहुत धीरज बँधाया। दोनों ने
सोचा कि जिस प्रकार मुसलमानों ने धोखा दिया है उसी प्रकार उनके साथ भी चाल
चलनी चाहिए। उन्होंने सोलह सौ ढकी पालकियों के भीतर सशस्त्र राजपूत सरदारों
को बिठाया और जो सबसे उत्तम और बहुमूल्य पालकी थी उसके भीतर औजार के साथ एक
लोहार को बिठाया। इस प्रकार वे यह प्रसिद्ध करके चले कि सोलह सौ दासियों के
सहित पद्मिनी दिल्ली जा रही है।
गोरा के पुत्र बादल की अवस्था बहुत थोड़ी थी। जिस दिन दिल्ली जाना था उसी
दिन उसका गौना आया था। उसकी नवागता वधू ने उसे युद्ध में जाने से बहुत रोका
पर उस वीर कुमार ने एक न सुनी। अन्त में सोलह सौ सवारियों के सहित वे
दिल्ली के किले में पहुँचे। वहाँ कर्मचारियों को घूस देकर अपने अनुकूल किया
जिससे किसी ने पालकियों की तलाशी न ली। बादशाह के यहाँ खबर गई कि पद्मिनी
आई है और कहती है कि राजा से मिल लूँ और उन्हें चित्तौर के खजाने की कुंजी
सुपुर्द कर दूँ तब महल में जाऊँ। बादशाह ने आज्ञा दे दी। वह सजी हुई पालकी
वहाँ पहुँचाई गई जहाँ राजा रत्नसेन कैद था। पालकी में से निकलकर लोहार ने
चट राजा की बेड़ी काट दी और वह शस्त्र लेकर एक घोड़े पर सवार हो गया जो पहले
से तैयार था। देखते देखते और हथियारबन्द सरदार भी पालकियों में से निकल
पड़े। इस प्रकार गोरा और बादल राजा को छुड़ाकर चित्तौर चले।
बादशाह ने जब सुना तब अपनी सेना सहित पीछा किया। गोरा बादल ने जब शाही फौज
पीछे देखी तब एक हजार सैनिकों को लेकर गोरा तो शाही फौज को रोकने के लिए डट
गया और बादल राजा रत्नसेन को लेकर चित्तौर की ओर बढ़ा। वृद्ध वीर गोरा बड़ी
वीरता से लड़कर और हजारों को मारकर अन्त में सरजा के हाथ से मारा गया। इस
बीच में राजा रत्नसेन चित्तौर पहुँच गया। पहुँचते ही उसी दिन रात को
पद्मिनी के मुँह से रत्नसेन ने जब देवपाल की दुष्टता का हाल सुना तब उसने
उसे बाँध लाने की प्रतिज्ञा की। सबेरा होते ही रत्नसेन ने कुम्भलनेर पर
चढ़ाई कर दी। रत्नसेन और देवपाल के बीच द्वन्द्व युद्ध हुआ। देवपाल की साँग
रत्नसेन की नाभि में घुसकर उस पार निकल गई। देवपाल साँग मारकर लौटना ही
चाहता था कि रत्नसेन ने उसे जा पकड़ा और उसका सिर काटकर उसके हाथ-पैर
बाँधें। इस प्रकार अपनी प्रतिज्ञा पूरी कर और चित्तौरगढ़ की रक्षा का भार
बादल को सौंप रत्नसेन ने शरीर छोड़ा।
राजा के शव को लेकर पद्मावती और नागमती दोनों रानियाँ सती हो गईं। इतने में
शाही सेना चित्तौरगढ़ आ पहुँची। बादशाह ने पद्मिनी के सती होने का समाचार
सुना। बादल ने प्राण रहते गढ़ की रक्षा की पर अन्त में वह फाटक की लड़ाई में
मारा गया और चित्तौरगढ़ पर मुसलमानों का अधिकार हो गया।
ऐतिहासिक आधार
पद्मावत की सम्पूर्ण आख्यायिका को हम दो भागों में विभक्त कर सकते हैं।
रत्नसेन की सिंहलद्वीप यात्र से लेकर चित्तौर लौटने तक हम कथा का पूर्वार्ध
मान सकते हैं और राघव के निकाले जाने से लेकर पद्मिनी के सती होने तक
उत्तरार्ध। ध्यान देने की बात यह है कि पूर्वार्ध तो बिलकुल कल्पित कहानी
है और उत्तरार्ध ऐतिहासिक आधार पर है। ऐतिहासिक अंश के स्पष्टीकरण के लिए
टाड द्वारा राजस्थान में दिया हुआ चित्तौरगढ़ पर अलाउद्दीन की चढ़ाई का
वृत्तान्त हम नीचे देते हैं -
'विक्रम संवत् 1331 में लखनसी चित्तौर के सिंहासन पर बैठा। वह छोटा था इससे
उसका चाचा भीमसी (भीमसिंह) ही राज्य करता था। भीमसी का विवाह सिंहल के
चौहान राजा हम्मीर शंक की कन्या पद्मिनी से हुआ था जो रूप गुणों में जगत्
में अद्वितीय थी। उसके रूप की ख्याति सुनकर दिल्ली के बादशाह अलाउद्दीन ने
चित्तौर पर चढ़ाई की। घोर युद्ध के उपरान्त अलाउद्दीन ने सन्धि का प्रस्ताव
भेजा कि मुझे एक बार पद्मिनी का दर्शन ही हो जाय तो मैं दिल्ली लौट जाऊँ।
इस पर यह ठहरी कि अलाउद्दीन दर्पण में पद्मिनी की छाया मात्र देख सकता है।
इस प्रकार युद्ध बंद हुआ और अलाउद्दीन बहुत थोड़े से सिपाहियों के साथ
चित्तौरगढ़ के भीतर लाया गया। वहाँ से जब वह दर्पण में छाया देखकर लौटने लगा
तब राजा उसपर पूरा विश्वास करके गढ़ के बाहर तक उसको पहुँचाने आया। बाहर
अलाउद्दीन के सैनिक पहले से घात में लगे हुए थे। ज्यों ही राजा बाहर आया,
वह पकड़ लिया गया और मुसलमानों के शिविर में, जो चित्तौर से थोड़ी दूर पर था,
कैद कर लिया गया। राजा को कैद करके यह घोषणा की गई कि जब तक पद्मिनी न भेज
दी जाएगी, राजा नहीं छूट सकता।
'चित्तौर में हाहाकार मच गया। पद्मिनी ने जब यह सुना तब उसने अपने मायके के
गोरा और बादल नाम के दो सरदारों से मंत्रणा की। गोरा पद्मिनी का चाचा लगता
था और बादल गोरा का भतीजा था। उन दोनों ने राजा के उद्धार की एक युक्ति
सोची। अलाउद्दीन के पास कहलाया गया कि पद्मिनी जाएगी, पर रानी की मर्यादा
के साथ। अलाउद्दीन अपनी सब सेना वहाँ से हटा दे और परदे का पूरा इन्तजाम कर
दे। पद्मिनी के साथ बहुत सी दासियाँ रहेंगी और दासियों के सिवा बहुत सी
सखियाँ भी होंगी जो उसे केवल पहुँचाने और विदा करने जाएँगी। अन्त में सौ
पालकियाँ अलाउद्दीन के खेमे की ओर चलीं। हर एक पालकी में एक एक सशस्त्र वीर
राजपूत बैठा था। एक एक पालकी उठानेवाले जो छह छह कहार थे वे भी कहार बने
हुए सशस्त्र सैनिक थे। जब वे शाही खेमे के पास पहुँचे तब चारों ओर कनातें
घेर दी गईं। पालकियाँ उतारी गईं।
पद्मिनी को अपने पति से अन्तिम भेंट के लिए आधे घंटे का समय दिया गया।
राजपूत चटपट राजा को पालकी में बिठाकर चित्तौरगढ़ की ओर चल पड़े। शेष
पालकियाँ मानो पद्मिनी के साथ दिल्ली जाने के लिए रह गईं। अलाउद्दीन की
भीतरी इच्छा भीमसी को चित्तौरगढ़ जाने देने की न थी। देर देखकर वह घबराया।
इतने में पालकियों से वीर राजपूत निकल पड़े। अलाउद्दीन पहले से सतर्क था।
उसने पीछा करने का हुक्म दिया। पालकियों से निकले हुए राजपूत बड़ी वीरता से
उन पीछा करनेवालों को कुछ देर तक रोके रहे पर अन्त में एक एक करके वे सब
मारे गए।
इधर भीमसी के लिए बहुत तेज घोड़ा तैयार खड़ा था। वह उस पर सवार होकर गोरा,
बादल आदि कुछ चुने साथियों के साथ चित्तौरगढ़ के भीतर पहुँच गया। पीछा करने
वाली मुसलमान सेना फाटक तक साथ लगी आई। फाटक पर घोर युद्ध हुआ। गोरा बादल
के नेतृत्व में राजपूत वीर खूब लड़े। अलाउद्दीन अपना सा मुँह लेकर दिल्ली
लौट गया; पर इस युद्ध में चित्तौर के चुने चुने वीर काम आए। गोरा भी इसी
युद्ध में मारा गया। बादल, जो चारणों के अनुसार केवल बारह वर्ष का था, बड़ी
वीरता के साथ लड़कर जीता बच आया। उसके मुँह से अपने पति की वीरता का
वृत्तान्त सुनकर गोरा की स्त्री सती हो गई।
'अलाउद्दीन ने संवत् 1346 (सन् 1290 ई; पर फरिश्ता के अनुसार सन् 1303 ई.
जो कि ठीक माना जाता है) में फिर चित्तौरगढ़ पर चढ़ाई की। इसी दूसरी चढ़ाई में
राणा अपने ग्यारह पुत्रों सहित मारे गए। जब राणा के ग्यारह पुत्र मारे जा
चुके और स्वयं राणा के युद्धक्षेत्र में जाने की बारी आई तब पद्मिनी ने
जौहर किया। कई सौ राजपूत ललनाओं के साथ पद्मिनी ने चित्तौरगढ़ के उस गुप्त
भूधारे में प्रवेश किया जहाँ उन सती स्त्रियों को अपनी गोद में लेने के लिए
आग दहक रही थी। इधर यह कांड समाप्त हुआ उधर वीर भीमसी ने रणक्षेत्र में
शरीरत्याग किया।'
टाड ने जो वृत्तान्तश दिया है वह राजपूताने में रक्षित चारणों के इतिहासों
के आधार पर है। दो चार ब्योरों को छोड़कर ठीक यही वृत्तान्त 'आइने अकबरी'
में दिया हुआ है। 'आइने अकबरी' में भीमसी के स्थान पर रतनसी (रत्नसिंह या
रत्नसेन) नाम है। रतनसी के मारे जाने का ब्योरा भी दूसरे ढंग पर है। 'आइने
अकबरी' में लिखा है कि अलाउद्दीन दूसरी चढ़ाई में भी हारकर लौटा। वह लौटकर
चित्तौर से सात कोस पहुँचा था कि रुक गया और मैत्री का नया प्रस्ताव भेजकर
रतनसी को मिलने के लिए बुलाया। अलाउद्दीन की बार बार की चढ़ाइयों से रतनसी
ऊब गया था इससे उसने मिलना स्वीकार किया। एक विश्वासघाती को साथ लेकर वह
अलाउद्दीन से मिलने गया और धोखे से मार डाला गया। उसका सम्बान्धीा अरसी
चटपट चित्तौर के सिंहासन पर बिठाया गया। अलाउद्दीन चित्तौर की ओर फिर लौटा
और उस पर अधिकार किया। अरसी मारा गया और पद्मिनी सब स्त्रियों के सहित सती
हो गई।
इन दोनों ऐतिहासिक वृत्तान्तों। के साथ जायसी द्वारा वर्णित कथा का मिलान
करने से कई बातों का पता चलता है। पहली बात तो यह है कि जायसी ने जो
'रत्नसेन' नाम दिया है यह उनका कल्पित नहीं है, क्योंकि प्राय: उनके
समसामयिक या थोड़े ही पीछे के ग्रन्थ 'आइने अकबरी' में भी यही नाम आया था।
यह नाम अवश्य इतिहासज्ञों में प्रसिद्ध था। जायसी को इतिहास की जानकारी थी,
यह 'जायसी की जानकारी' के प्रकरण में हम दिखावेंगे। दूसरी बात यह है कि
जायसी ने रत्नसेन का मुसलमानों के हाथ से मारा जाना न लिखकर जो देवपाल के
साथ द्वन्द्वयुद्ध में कुम्भलनेरगढ़ के नीचे मारा जाना लिखा है उसका आधार
शायद विश्वासघाती के साथ बादशाह से मिलने जाने वाला वह प्रवाद हो जिसका
उल्लेख आइने अकबरीकार ने किया है।
अपनी कथा को काव्योपयोगी स्वरूप देने के लिए ऐतिहासिक घटनाओं के ब्योरों
में कुछ फेरफार करने का अधिकार कवि को बराबर रहता है। जायसी ने भी इस
अधिकार का उपयोग कई स्थानों पर किया है। सबसे पहले तो हमें राघवचेतन की
कल्पना मिलती है। इसके उपरान्त अलाउद्दीन के चित्तौरगढ़ घेरने पर सन्धि की
जो शर्त (समुद्र से पाई हुई पाँच वस्तुओं को देने की) अलाउद्दीन की ओर से
पेश की गई वह भी कल्पित है। इतिहास में दर्पण के बीच पद्मिनी की छाया देखने
की शर्त प्रसिद्ध है। पर दर्पण में प्रतिबिम्ब देखने की बात का जायसी ने
आकस्मिक घटना के रूप में वर्णन किया है। इतना परिवर्तन कर देने से नायक
रत्नसेन के गौरव की पूर्ण रूप से रक्षा हुई है। पद्मिनी की छाया भी दूसरे
को दिखाने पर सम्मत होना रत्नसेन ऐसे पुरुषार्थी के लिए कवि ने अच्छा नहीं
समझा। तीसरा परिवर्तन कवि ने यह किया है कि अलाउद्दीन के शिविर में बन्दी
होने के स्थान पर रत्नसेन का दिल्ली में बन्दी होना लिखा है। रत्नसेन को
दिल्ली में ले जाने से कवि को दूती और जोगिन के वृत्तान्त, रानियों के विरह
और विलाप तथा गोरा बादल के प्रयत्नविस्तार का पूरा अवकाश मिला है। इस अवकाश
के भीतर जायसी ने पद्मिनी के सतीत्व की मनोहर व्यंजना के अनन्तर बालक बादल
का वह क्षात्र तेज तथार कर्त्तव्यस की कठोरता का वह दिव्य और मर्मस्पर्शी
दृश्य दिखाया है जो पाठक के हृदय को द्रवीभूत कर देता है। देवपाल और
अलाउद्दीन का दूती भेजना तथा बादल और उसकी स्त्री का संवाद, ये दोनों
प्रसंग इसी निमित्त कल्पित किए गए हैं। देवपाल कल्पित पात्र है, पीछा करते
हुए अलाउद्दीन के चित्तौर पहुँचने के पहले ही रत्नसेन का देवपाल के हाथ से
मारा जाना और अलाउद्दीन के हाथ से न पराजित होना दिखाकर कवि ने अपने
चरितनायक की आन रखी है।
पद्मिनी क्या सचमुच सिंहल की थी? पद्मिनी सिंहलद्वीप की हो नहीं सकती। यदि
'सिंहल' नाम ठीक मानें तो वह राजपूताने या गुजरात का कोई स्थान होगा। न तो
सिंहलद्वीप में चौहान आदि राजपूतों की बस्ती का कोई पता है, न इधर हजार
वर्ष से कूपमण्डूक बने हुए हिन्दुओं के सिंहलद्वीप में जाकर विवाह
सम्ब,न्धर करने का। दुनिया जानती है कि सिंहलद्वीप के लोग (तमिल और सिंहली
दोनों) कैसे काले कलूटे होते हैं। यहाँ पर पद्मिनी स्त्रियों का पाया जाना
गोरखपन्थी साधुओं की कल्पना है।
नाथपन्थ की परम्परा वास्तव में महायान शाखा के योगमार्गी बौद्धों की थी
जिसे गोरखनाथ ने शैव रूप दिया। बौद्ध धर्म जब भारतवर्ष से उठ गया तब उसके
शास्त्रों के अध्यनयन अध्यायपन का प्रचार यहाँ न रह गया। सिंहलद्वीप में ही
बौद्ध शास्त्रों के अच्छे अच्छे पंडित रह गए। इसी से भारतवर्ष के अवशिष्ट
योगमार्गी बौद्धों में सिंहल द्वीप एक सिद्धपीठ समझा जाता रहा। इसी धारणा
के अनुसार गोरखनाथ के अनुयायी भी सिंहल द्वीप को एक सिद्धपीठ मानते हैं।
उनका कहना है कि योगियों को पूर्ण सिद्धि प्राप्त करने के लिए सिंहलद्वीप
जाना पड़ता है जहाँ साक्षात् शिव परीक्षा के पीछे सिद्धि प्रदान करते हैं पर
वहाँ जानेवाले योगियों के शम दम की पूरी परीक्षा होती है। वहाँ सुवर्ण और
रत्नों की अतुल राशि सामने आती है तथा पद्मिनी स्त्रियाँ अनेक प्रकार से
लुभाती हैं। बहुत से योगी उन पद्मिनियों के हाव भाव में फँस योगभ्रष्ट हो
जाते हैं। कहते हैं, गोरखनाथ (वि. संवत् 1407) के गुरु मत्स्येन्द्रनाथ
(मछंदरनाथ) जब सिंहल में सिद्धि की पूर्णता के लिए गए तब पद्मिनियों के जाल
में इसी प्रकार फँस गए। पद्मिनियों ने उन्हें एक कुएँ में डाल रखा था। अपने
गुरु की खोज में गोरखनाथ भी सिंहल गए और उसी कुएँ के पास से होकर निकले।
उन्होंने अपने गुरु की आवाज पहचानी और कुएँ के किनारे खड़े होकर बोले, 'जाग
मछन्दर गोरख आया।' इसी प्रकार की और कहानियाँ प्रसिद्ध हैं।
अब 'पद्मावत' की पूर्वार्ध कथा के सम्बेन्धद में एक और प्रश्न यह होता है
कि वह जायसी द्वारा कल्पित है अथवा जायसी के पहले से कहानी के रूप में
जनसाधारण के बीच प्रचलित चली आती है। उत्तर भारत में, विशेषत: अवध में,
'पद्मिनी रानी और हीरामन सूए' की कहानी अब तक प्राय: उसी रूप में कही जाती
है जिस रूप में जायसी ने उसका वर्णन किया है। जायसी इतिहासविज्ञ थे इससे
उन्होंने रत्नसेन, अलाउद्दीन आदि नाम दिए हैं, पर कहानी कहनेवाले नाम नहीं
लेते हैं; केवल यही कहते हैं कि 'एक राजा था', 'दिल्ली का एक बादशाह था',
इत्यादि। यह कहानी बीच बीच में गा गाकर कही जाती है। जैसे, राजा की पहली
रानी जब दर्पण में अपना मुँह देखती है तब सूए से पूछती है-
देस देस तुम फिरौ हो सुअटा। मोरे रूप और कहु कोई॥
सूआ उत्तर देता है-
काह बखानौं सिंहल के रानी। तोरे रूप भरै सब पानी॥
इसी प्रकार 'बाला लखनदेव' आदि की और रसात्मक कहानियाँ अवध में प्रचलित हैं
जो बीच बीच में गा गाकर कही जाती हैं।
इस सम्ब न्धक में हमारा अनुमान है कि जायसी ने प्रचलित कहानी को ही लेकर
सूक्ष्म ब्योरों की मनोहर कल्पना करके, इसे काव्य का सुन्दर स्वरूप दिया
है। इस मनोहर कहानी को कई लोगों ने काव्य के रूप में बाँधा। हुसैन गजनवी ने
'किस्सए पद्मावत' नाम का एक फारसी काव्य लिखा। सन् 1652 ई. में रायगोविंद
मुंशी ने पद्मावती की कहानी फारसी गद्य में 'तुकफतुल कुलूब' के नाम से
लिखी। उसके पीछे मीर जियाउद्दीन 'इब्रत' और गुलामअली 'इशरत' ने मिलकर सन्
1769 ई. में उर्दू शेरों में इस कहानी को लिखा। यह कहा जा चुका है कि मलिक
मुहम्मद जायसी ने अपनी पद्मावत सन् 1520 ई. में लिखी थी।
'पद्मावत' की प्रेमपद्धति
'पद्मावत' की जो आख्यायिका ऊपर दी जा चुकी है उससे स्पष्ट है कि वह एक
प्रेम कहानी है। अब संक्षेप में यह देखना चाहिए कि कवियों में दाम्पत्य
प्रेम का आविर्भाव वर्णन करने की जो प्रणालियाँ प्रचलित हैं उनमें से
'पद्मावत' में वर्णित प्रेम किसके अन्तर्गत जाता है।
(1) सबसे पहले उस प्रेम को लीजिए जो आदिकाव्य रामायण में दिखाया गया है।
इसका विकास विवाह सम्बपन्धज हो जाने के पीछे और पूर्ण उत्कर्ष जीवन की विकट
स्थितियों में दिखाई पड़ता है। राम के वन जाने की तैयारी के साथ ही सीता के
प्रेम का स्फुरण होता है; सीताहरण होने पर राम के प्रेम की कान्ति सहसा
फूटती हुई दिखाई पड़ती है। वन के जीवन में इस पारस्परिक प्रेम की
आनन्दविधायिनी शक्ति लक्षित है और लंका की चढ़ाई में इसका तेज, साहस और
पौरुष। यह प्रेम अत्यन्त स्वाभाविक, शुद्ध और निर्मल है। यह विलासिता या
कामुकता के रूप में हमारे सामने नहीं आता बल्कि मनुष्य जीवन के बीच एक
मानसिक शक्ति के रूप में दिखाई पड़ता है। उभयपक्ष में सम होने पर भी
नायकपक्ष में यह कर्त्तव्यपबुद्धि द्वारा कुछ संयत सा दिखाई पड़ता है।
(2) दूसरे प्रकार का प्रेम विवाह के पूर्व का होता है, विवाह जिसका
फलस्वरूप होता है। इसमें नायक नायिका संसारक्षेत्र में घूमते फिरते हुए
कहीं -जैसे उपवन, नदीतट, वीथी इत्यादि में एक दूसरे को देख मोहित होते हैं
और दोनों में प्रीति हो जाती है। अधिकतर नायक की ओर से नायिका की प्राप्ति
का प्रयत्न होता है। इसी प्रयत्नकाल में संयोग और विप्रलम्भ दोनों के
अवसरों का सन्निवेश रहता है और विवाह हो जाने पर प्राय: कथा की समाप्ति हो
जाती है। इसमें कहीं बाहर घूमते फिरते साक्षात्कार होता है, इससे मनुष्य के
आदिम प्राकृतिक जीवन की स्वाभाविकता बनी रहती है। अभिज्ञानशाकुन्तल,
विक्रमोर्वशीय आदि की कथा इसी प्रकार की है। गोस्वामी तुलसीदासजी ने सीता
और राम के प्रेम का आरम्भ विवाह से पूर्व दिखाने के लिए ही उनका जनक की
वाटिका में परस्पर साक्षात्कार कराया है। पर साक्षात्कार और विवाह के बीच
के थोड़े से अवकाश में परशुराम वाले झमेले को छोड़ प्रयत्न का कोई विस्तार
दिखाई नहीं पड़ता। अत: रामकथा को इस दूसरे प्रकार की प्रेमकथा का स्वरूप न
प्राप्त हो सका।
(3) तीसरे प्रकार के प्रेम का उदय प्राय: राजाओं के अन्त:पुर, उद्यान आदि
के भीतर भोगविलास या रंग रहस्य के रूप में दिखाया जाता है, जिसमें
सपत्नियों के द्वेष, विदूषक आदि के हास परिहास और राजाओं की स्त्रौणता आदि
का दृश्य होता है। उत्तरकाल के संस्कृत नाटकों में इसी प्रकार के पौरुषहीन,
नि:सार और विलासमय प्रेम का प्राय: वर्णन हुआ है, जैसे रत्नावली,
प्रियदर्शिका, कर्पूरमंजरी इत्यादि में। इसमें नायक को कहीं वन, पर्वत आदि
के बीच नहीं जाना पड़ता है; वह घर के भीतर ही लुकता छिपता, चौकड़ी भरता
दिखाया गया है।
(4) चौथे प्रकार का वह प्रेम है जो गुणश्रवण, चित्रदर्शन, स्वप्नदर्शन आदि
से बैठे बिठाए उत्पन्न होता है और नायक या नायिका को संयोग के लिए
प्रयत्नवान करता है। उषा और अनिरुद्ध का प्रेम इसी प्रकार का समझिए जिसमें
प्रयत्न स्त्री जाति की ओर से होने के कारण कुछ अधिक विस्तार या उत्कर्ष
नहीं प्राप्त कर सका है। पर स्त्रियों का प्रयत्न भी यह विस्तार या उत्कर्ष
प्राप्त कर सकता है इसकी सूचना भारतेन्दु ने 'पगन में छाले परे, नाँघिबे को
नाले परे, तउ लाल लाले परे रावरे दरस के' के द्वारा दिया है।
इन चार प्रकार के प्रेमों का वर्णन नए और पुराने भारतीय साहित्य में है।
ध्याकन देने की बात यह है कि विरह की व्याकुलता और असह्य वेदना स्त्रियों
के मत्थे अधिक मढ़ी गई है। प्रेम के वेग की मात्रा स्त्रियों में अधिक दिखाई
गई है। नायक के दिन दिन क्षीण होने, विरहताप में भस्म होने, सूखकर ठठरी
होने के वर्णन में कवियों का जी उतना नहीं लगा है। बात यह कि स्त्रियों की
श्रृंगारचेष्टा वर्णन करने में पुरुषों को जो आनन्द आता है, वह पुरुषों की
दशा का वर्णन करने में नहीं। इसी से स्त्रियों का विरहवर्णन हिन्दी काव्य
का एक प्रधान अंग ही बन गया। ऋतुवर्णन तो केवल इसी की बदौलत रह गया।
कहने की आवश्यकता नहीं कि जायसी ने 'पद्मावत' में जिस प्रेम का वर्णन किया
है वह चौथे ढंग का है। पर इसमें वे कुछ विशेषता भी लाए हैं। जायसी के
श्रृंगार में मानसिक पक्ष प्रधान है, शारीरिक गौण है। चुम्बन, आलिंगन आदि
का वर्णन कवि ने बहुत कम किया है, केवल मन के उल्लास और वेदना का कथन अधिक
किया है। प्रयत्न नायक की ओर से है और उसकी कठिनता द्वारा कवि ने नायक के
प्रेम को नापा है। नायक का यह आदर्श लैला मजनूँ, शीरीं फरहाद आदि उन अरबी
फारसी कहानियों के आदर्श से मिलता जुलता है जिनमें हड्डी की ठठरी भर लिए
हुए टाँकियों से पहाड़ खोद डालने वाले आशिक पाए जाते हैं। फारस के प्रेम में
नायक के प्रेम का वेग अधिक तीव्र दिखाई पड़ता है और भारत के प्रेम में
नायिका के प्रेम का। जायसी ने आगे चलकर नायक और नायिका दोनों के प्रेम की
तीव्रता समान करके दोनों आदर्शों का एक में मेल कर दिया है। राजा रत्नसेन
सुए के मुँह से पद्मावती का रूपवर्णन सुन योगी होकर घर से निकल जाता है और
मार्ग के अनेक दु:खों को झेलता हुआ सात समुद्र पार करके सिंहलद्वीप पहुँचता
है। उधर पद्मावती भी राजा के प्रेम को सुन विरहाग्नि में जलती हुई
साक्षात्कार के लिए विह्नल होती है और जब रत्नसेन को सूली की आज्ञा होती है
तब उसके लिए मरने को तैयार होती है।
एक प्रकार का और मेल भी कवि ने किया है। फारसी की मसनवियों का प्रेम
ऐकान्तिक, लोकबाह्य और आदर्शात्मक (आयडियलिस्टिक) होता है। वह संसार की
वास्तविक परिस्थिति के बीच नहीं दिखाया जाता, संसार की और सब बातों से अलग
एक स्वतन्त्र सत्ता के रूप में दिखाया जाता है। उसमें जो घटनाएँ आती हैं वे
केवल प्रेममार्ग की होती हैं, संसार के और व्यवहारों से उत्पन्न नहीं।
साहस, दृढ़ता और वीरता भी यदि कहीं दिखाई पड़ती है, तो प्रेमोन्माद के रूप
में, लोककर्त्तव्यत के रूप में नहीं। भारतीय प्रेमपद्धति आदि में तो
लोकसम्बद्ध और व्यवहारात्मक थी ही, पीछे भी अधिकतर वैसी ही रही। आदिकवि के
काव्य में प्रेम लोकव्यवहार से कहीं अलग नहीं दिखाया गया है, जीवन के और
विभागों के सौन्दर्य के बीच उसके सौन्दर्य की प्रभा फूटती दिखाई पड़ती है।
राम के समुद्र में पुल बाँधने और रावण ऐसे प्रचंड शत्रु के मार गिराने को
हम केवल एक प्रेमी के प्रयत्न के रूप में नहीं देखते, वीर धर्मानुसार
पृथ्वी का भार उतारने के प्रयत्न के रूप में देखते हैं। पीछे कृष्णचरित,
कादम्बरी, नैषधीय चरित, माधवानल कामकन्दला आदि ऐकान्तिक प्रेमकहानियों का
भी भारतीय साहित्य में प्रचुर प्रचार हुआ। ये कहानियाँ अब फारस की
प्रेमपद्धति के अधिक मेल में थीं। नल दमयन्ती की प्रेम कहानी का अनुवाद
बहुत पहले फारसी क्या अरबी तक में हुआ। इन कहानियों का उल्लेख 'पद्मावत'
में स्थान स्थान पर हुआ है।
जायसी ने यद्यपि इश्क के दास्तानवाली मसनवियों के प्रेम के स्वरूप को
प्रधान रखा है पर बीच बीच में भारत के लोक व्यवहार संलग्न स्वरूप का भी मेल
किया है। इश्क की मसनवियों के समान 'पदमावत' लोकपक्षशून्य नहीं है। राजा
जोगी होकर घर से निकलता है, इतना कहकर कवि यह भी कहता है कि चलते समय उसकी
माता और रानी दोनों उसे रो रोकर रोकती हैं। जैसे कवि ने राजा से संयोग होने
पर पद्मावती के रसरंग का वर्णन किया वैसे ही सिंहलद्वीप से विदा होते समय
परिजनों और सखियों से अलग होने का स्वाभाविक दु:ख भी। कवि ने जगह जगह
पद्मावती को जैसे चन्द्र, कमल इत्यादि के रूप में देखा है, वैसे ही उसे
प्रथम समागम से डरते, सपत्नी से झगड़ते और प्रिय के हित के अनुकूल
लोकव्यवहार करते भी देखा है। राघवचेतन के निकाले जाने पर राजा और राज्य के
अनिष्ट की आशंका से पद्मावती उस ब्राह्मण को अपना खास कंगन दान देकर
सन्तुष्ट करना चाहती है। प्रेम का लोकपक्ष कैसा सुन्दर है! लोकव्यवहार के
बीच भी अपनी आभा का प्रसार करने वाली प्रेमज्योति का महत्त्व कुछ कम नहीं।
जायसी ऐकान्तिक प्रेम की गूढ़ता और गम्भीरता के बीच में जीवन के और अंगों के
साथ भी उस प्रेम के सम्पर्क का स्वरूप कुछ दिखाते गए हैं, इससे उनकी
प्रेमगाथा पारिवारिक और सामाजिक जीवन से विच्छिन्न होने से बच गई है। उसमें
भावात्मक और व्यवहारात्मक दोनों शैलियों का मेल है। पर है वह प्रेमगाथा ही,
पूर्ण जीवनगाथा नहीं। ग्रन्थ का पूर्वार्ध-आधे से अधिक भाग-तो प्रेममार्ग
के विवरण से ही भरा है।उत्तरार्ध में जीवन के और अंगों का सन्निवेश मिलता
है पर वे पूर्णतया परिस्फुट नहीं हैं। दाम्पत्य प्रेम के अतिरिक्त मनुष्य
की और वृत्तियाँ, जिनका कुछ विस्तार के साथ समावेश है, वे यात्रा, युद्ध,
सपत्नीकलह, मातृस्नेह, स्वामिभक्ति, वीरता, छल और सतीत्व हैं। पर इनके होते
हुए भी 'पद्मावत' को हम श्रृंगार रस प्रधान काव्य ही कह सकते हैं।
'रामचरित' के समान मनुष्य जीवन की भिन्न भिन्न बहुत सी परिस्थितियों और
सम्ब्न्धोंय का इसमें समन्वय नहीं है।
तोते के मुँह से पद्मावती का रूपवर्णन सुनने से राजा रत्नसेन को जो
पूर्वराग हुआ, अब उस पर थोड़ा विचार कीजिए। देखने में तो वह उसी प्रकार का
जान पड़ता है जिस प्रकार का हंस के मुख से दमयन्ती का रूपवर्णन सुनकर नल को
या नल का रूपवर्णन सुनकर दमयन्ती को हुआ था। पर ध्याान देकर विचार करने से
दोनों में एक ऐसा अन्तर दिखाई पड़ेगा जिसके कारण एक की तीव्रता जितनी अयुक्त
दिखाई देगी उतनी दूसरे की नहीं। पूर्वराग में ही विप्रलम्भ श्रृंगार की
बहुतसी दशाओं की योजना श्री हर्ष ने भी की है और जायसी ने भी। पूर्वराग
पूर्ण रति नहीं है, अत: उसमें केवल 'अभिलाष' स्वाभाविक जान पड़ता है; शरीर
का सूखकर काँटा होना, मूर्च्छा , उन्माद नहीं। तोते के मुँह से पहले ही
पहले पद्मावती का वर्णन सुनते ही रत्नसेन का मूर्च्छित हो जाना और पूर्ण
वियोगी बन जाना अस्वाभाविक सा लगता है। पर हंस के मुँह से रूप, गुण आदि की
प्रशंसा सुनने पर जो विरह की दारुण दशा दिखाई गई है वह इसलिए अधिक नहीं
खटकती कि नल और दमयन्ती दोनों बहुत दिनों से एक दूसरे के रूप गुण की
प्रशंसा सुनते आ रहे थे जिससे उनका पूर्वराग 'मंजिष्ठा राग' की अवस्था को
पहुँच गया था।
जब तक पूर्वराग आगे चलकर पूर्ण रति या प्रेम के रूप में परिणत नहीं होता तब
तक उसे हम चित्त की कोई उदात्त या गम्भीर वृत्ति नहीं कह सकते। हमारी समझ
में तो दूसरे के द्वारा, चाहे वह चिड़िया हो या आदमी, किसी पुरुष या स्त्री
के रूप, गुण आदि को सुनकर चट उसकी प्राप्ति की इच्छा उत्पन्न करनेवाला भाव
लोभमात्र कहला सकता है, परिपुष्ट प्रेम नहीं। लोभ और प्रेम के लक्ष्य में
सामान्य और विशेष का ही अन्तर समझा जाता है। कहीं कोई अच्छी चीज सुनकर दौड़
पड़ना, यह लोभ है। विशेष वस्तु-चाहे दूसरों के निकट वह अच्छी हो या बुरी-देख
उसमें इस प्रकार रम जाना कि उससे कितनी ही बढ़कर अच्छी वस्तुओं के सामने आने
पर भी उनकी ओर ध्यापन न जाय, प्रेम है। व्यवहार में भी प्राय: देखा जाता है
कि वस्तुविशेष के ही प्रति जो लोभ होता है वह लोभ नहीं कहलाता। जैसे, यदि
कोई मनुष्य पकवान या मिठाई का नाम सुनते ही चंचल हो जाय तो लोग कहेंगे कि
वह बड़ा लालची है, पर यदि कोई केवल गुलाबजामुन का नाम आने पर चाह प्रकट करे
तो लोग यही कहेंगे कि इन्हें गुलाबजामुन बहुत अच्छी लगती है। तत्काल सुने
हुए रूपवर्णन से उत्पन्न 'पूर्वराग' और 'प्रेम' में भी इसी प्रकार का अन्तर
समझिए। पूर्वराग रूपगुणप्रधान होने के कारण सामान्योन्मुख होता है पर प्रेम
व्यक्तिप्रधान होने के कारण विशेषोन्मुख होता है। एक ने आकर कहा, अमुक बहुत
सुन्दर है; फिर कोई दूसरा आकर कहता है कि अमुक नहीं अमुक बहुत सुन्दर है।
इस अवस्था में बुद्धि का व्यभिचार बना रहेगा। प्रेम में पूर्ण
व्यभिचारशान्ति प्राप्त हो जाती है।
कोई वस्तु बहुत बढ़िया है, जैसे यह सुनकर हमें उसका लोभ हो जाता है, वैसे ही
कोई व्यक्ति बहुत सुन्दर है, इतना सुनते ही उसकी जो चाह उत्पन्न हो जाती है
वह साधारण लोभ से भिन्न नहीं कही जा सकती। प्रेम भी लोभ ही है पर
विशेषोन्मुख। वह मन और मन के बीच का लोभ है, हृदय और हृदय के बीच का
सम्बनन्धऔ है। उसके एक पक्ष में भी हृदय है और दूसरे पक्ष में भी। अत:
सच्चा सजीव प्रेम प्रेमपात्र के हृदय को स्पर्श करने का प्रयत्न पहले करता
है, शरीर पर अधिकार करने का प्रयत्न पीछे करता है, सुन्दर स्त्री कोई
बहुमूल्य पत्थर नहीं है कि अच्छा सुना और लेने के लिए दौड़ पड़े। इस प्रकार
का दौड़ना रूपलोभ ही कहा जायगा, प्रेम नहीं।
बिना परिचय के प्रेम नहीं हो सकता। यह परिचय पूर्णतया तो साक्षात्कार से
होता है; पर बहुत दिनों तक किसी के रूप, गुण, कर्म आदि का ब्योरा
सुनतेसुनते भी उसका ध्या न मन में जगह कर लेता है। किसी के रूप गुण की
प्रशंसा सुनते ही एकबारगी प्रेम उत्पन्न हो जाना स्वाभाविक नहीं जान पड़ता।
प्रेम दूसरे की ऑंखें नहीं देखता, अपनी ऑंखों देखता है। अत: राजा रत्नसेन
तोते के मुँह से पद्मावती का अलौकिक रूपवर्णन सुन जिस भाव की प्रेरणा से
निकल पड़ता है वह पहले रूपलोभ ही कहा जा सकता है। इस दृष्टि से देखने पर कवि
जो उसके प्रयत्न को तप का स्वरूप देता हुआ आत्मत्याग और विरहविकलता का
विस्तृत वर्णन करता है वह एक नकल सा मालूम होता है। प्रेमलक्षण उसी समय
दिखाई पड़ता है जब वह शिवमन्दिर में पद्मावती की झलक देख बेसुध हो जाता है।
इस प्रेम की पूर्णता उस समय स्फुट होती है जब पार्वती अप्सरा का रूप धारण
करके उसके सामने आती हैं और वह उनके रूप की ओर ध्याीन न देकर कहता है कि-
भलेहि रंग अछरी तोर राता। मोहि दुसरे सौं भाव न बाता॥
उक्त कथन से रूपलोभ की व्यंजना नहीं होती, प्रेम की व्यंजना होती है। प्रेम
दूसरा रूप चाहता नहीं, चाहे वह प्रेमपात्र के रूप से कितना ही बढ़कर हो।
लैला कुछ बहुत खूबसूरत न थी, पर मजनूँ उसी पर मरता था। यही विशिष्टता और
एकनिष्ठता प्रेम है। पर इस विशिष्टता के लिए निर्दिष्ट भावना चाहिए जो एक
तोते के वर्णन मात्र से नहीं प्राप्त हो सकती। भावना को निर्दिष्ट करने के
लिए ही मनस्तत्त्व से अभिज्ञ कवि पूर्वराग के बीच चित्रदर्शन की योजना करते
हैं। पर यह रूपभावना पूर्ण रूप से निर्दिष्ट साक्षात्कार द्वारा ही होती
है। शिवमन्दिर में पद्मावती की एक झलक जब राजा ने देखी तभी उसकी भावना
निर्दिष्ट हुई। मन्दिर में उस साक्षात्कार के पूर्व राजा की भावना
निर्दिष्ट नहीं कही जा सकती। मान लीजिए कि सिंहल के तट पर उतरते ही वही
अप्सरा कहती है कि 'मैं ही पद्मावती हूँ' और तोता भी सकारता, तो रत्नसेन
उसे स्वीकार ही कर लेता। ऐसी अवस्था में उसके प्रेम का लक्ष्य निर्दिष्ट
कैसे कहा जा सकता है? अत: रूपवर्णन सुनते ही रत्नसेन के प्रेम का जो प्रबल
और अदम्य स्वरूप दिखाया गया है वह प्राकृतिक व्यवहार की दृष्टि से उपयुक्त
नहीं दिखाई पड़ता।
राजा रत्नसेन तोते के मुँह से पद्मावती का रूपवर्णन सुन उसके लिए जोगी होकर
निकल पड़ा और अलाउद्दीन ने राघवचेतन के मुँह से वैसा ही वर्णन सुन उसके लिए
चित्तौर पर चढ़ाई कर दी। क्यों एक प्रेमी के रूप में दिखाई पड़ता है और दूसरा
रूपलोभी लम्पट के रूप में? अलाउद्दीन के विपक्ष में दो बातें ठहरती है।
-(1) पद्मावती का दूसरे की विवाहिता स्त्रीं होना और (2) अलाउद्दीन का उग्र
प्रयत्न करना। दोनों प्रकार के अनौचित्य अलाउद्दीन की चाह को प्रेम का
स्वरूप प्राप्त नहीं होने देते। यदि इस अनौचित्य का विचार छोड़ दें तो
रूपवर्णन सुनते ही तत्काल दोनों के हृदय में जो चाह उत्पन्न हुई वह एक
दूसरे से भिन्न नहीं जान पड़ती।
रत्नसेन के पूर्वराग के वर्णन में जो यह अस्वाभाविकता आई है इसका कारण है
लौकिक प्रेम और ईश्वरप्रेम दोनों को एक स्थान पर व्यंजित करने का प्रयत्न।
शिष्य जिस प्रकार गुरु से परोक्ष ईश्वर के स्वरूप का कुछ आभास पाकर
प्रेममग्न होता है उसी प्रकार रत्नसेन तोते के मुँह से पद्मिनी का रूपवर्णन
सुन बेसुध हो जाता है। ऐसी ही अलौकिकता पद्मिनी के पक्ष में भी कवि ने
दिखाई है।
राजा रत्नसेन के सिंहल पहुँचते ही कवि ने पद्मावती की बेचैनी का वर्णन किया
है। पद्मावती को अभी तक रत्नसेन के आने की कुछ भी खबर नहीं है। अत: यह
व्याकुलता केवल काम की कही जा सकती है, वियोग की नहीं। बाह्य या आभ्यन्तर
संयोग के पीछे ही वियोगदशा सम्भव है। यद्यपि आचार्यों ने वियोगदशा को
कामदशा ही कहा है पर दोनों में अन्तर है। समागम के सामान्य अभाव का दु:ख
कामवेदना है और विशेष व्यक्ति के समागम के अभाव का दु:ख वियोग है। जायसी के
वर्णन में दोनों का मिश्रण है। रत्नसेन का नाम तक सुनने के पहले वियोग की
व्याकुलता कैसे हुई, इसका समाधान कवि के पास यदि कुछ है तो रत्नसेन के योग
का अलक्ष्य प्रभाव-
पदमावति तेहि जोग सँजोगा। परी प्रेम बस गहे वियोगा॥
साधनात्मक रहस्यवाद में योग जिस प्रकार अज्ञात ईश्वर के प्रति होता है उसी
प्रकार सूफियों का प्रेमयोग भी अज्ञात के प्रति होता है। पर इस प्रकार के
परोक्षवाद या योग के चमत्कार पर ध्यामन जाने पर भी वह वर्णन के अनौचित्य की
ओर बिना गए नहीं रह सकता। जब कोई व्यक्ति निर्दिष्ट ही नहीं तब कहाँ का
प्रेम और कहाँ का वियोग? उस कामदशा में पद्मावती को धाय समझा ही रही है कि
हीरामन सूआ आकर रत्नसेन के रूप गुण का वर्णन करता है और पद्मावती उसकी
प्रेमव्यथा और तप को सुनकर दयार्द्र और पूर्वरागयुक्त होती है। पूर्वराग का
आरम्भ पद्मावती में यहीं से समझना चाहिए। अत: इसके पहिले योग की दुहाई देकर
भी वियोग का नाम लेना ठीक नहीं जँचता।
विवाह हो जाने के पीछे पद्मावती का प्रेम दो अवसरों पर अपना बल दिखाता है।
एक तो उस समय जब राजा रत्नसेन के दिल्ली में बन्दी होने का समाचार मिलता है
और फिर उस समय जब राजा युद्ध में मारा जाता है। ये दोनों अवसर विपत्ति के
हैं। साधारण दृष्टि से एक में आशा के लिए स्थान है, दूसरे में नहीं। पर
सच्चे पहुँचे हुए प्रेमी के समान प्रथम स्थिति में तो पद्मावती संसार की ओर
दृष्टि रखती हुई विह्नल और क्षुब्ध दिखाई पड़ती है; और दूसरी स्थिति में
दूसरे लोक की ओर दृष्टि फेरे हुए पूर्ण आनन्दमयी और प्रशान्त। राजा के
बन्दी होने का समाचार पाने पर रानी के विरहविह्नल हृदय में उद्योग और साहस
का उदय होता है। वह गोरा और बादल के पास आप दौड़ी जाती है और रो रोकर अपने
पति के उद्धार की प्रार्थना करती है। राजा रत्नसेन के मरने पर रोना धोना
नहीं सुनाई देता। नागमती और पद्मावती दोनों श्रृंगार करके प्रिय से उस लोक
में मिलने के लिए तैयार होती हैं। यह दृश्य हिन्दू स्त्रीर के जीवन दीपक की
अत्यन्त उज्ज्वल और दिव्य प्रभा है जो निर्वाण के पूर्व दिखाई पड़ती है।
राजा के बन्दी होने पर जिस प्रकार कवि ने पद्मावती के प्रेमप्रसूत साहस का
दृश्य दिखाया है उसी प्रकार सतीत्व की दृढ़ता का भी। पर यह कहना पड़ता है कि
कवि ने जो कसौटी तैयार की है वह इतने बड़े प्रेम के उपयुक्त नहीं हुई है।
कुम्भलनेर का राजा देवपाल रूप, गुण, ऐश्वर्य, पराक्रम, प्रतिष्ठा किसी में
भी रत्नसेन की बराबरी का न था। अत: उसका दूती भेजकर पद्मावती को बहकाने का
प्रयत्न गड़ा हुआ खम्भा ढकेलने का बालप्रयत्न सा लगता है। इस घटना के
सनिनवेश से पद्मावती के सतीत्व की उज्ज्वल कान्ति में और अधिक ओप चढ़ती नहीं
दिखाई देती। यदि वह दूती दिल्ली के बादशाह की होती और वह दिल्लीश्वर की
सारी शक्ति और विभूति का लोभ दिखाती तो अलबत यह घटना किसी हद तक इतने बड़े
प्रेम की परीक्षा का पद प्राप्त कर सकती थी; क्योंकि देवलदेवी और कमलादेवी
के विपरीत आचरण का दृष्टान्त इतिहासविज्ञ जानते ही हैं।
पद्मावती के नवप्रस्फुटित प्रेम के साथ साथ नागमती का गार्हस्थ्यपरिपुष्ट
प्रेम भी अत्यन्त मनोहर है। पद्मावती प्रेमिका के रूप में अधिक लक्षित होती
है, पर नागमती पतिप्राण हिन्दू पत्नी के मधुर रूप में ही हमारे सामने आती
है। उसे पहले पहल हम रूपगर्विता और प्रेमगर्विता के रूप में देखते हैं। ये
दोनों प्रकार के गर्व दाम्पत्य सुख के द्योतक हैं। राजा के निकल जाने के
पीछे फिर हम उसे प्रोषितपतिका के उस निर्मल स्वरूप में देखते हैं जिसका
भारतीय काव्य और संगीत में प्रधान अधिकार रहा है, और है। यह देखकर अत्यन्त
दु:ख होता है कि प्रेम का यह पुनीत भारतीय स्वरूप विदेशीय प्रभाव
से-विशेषत: उर्दू शायरी के चलते गीतों से-हटता सा जा रहा है। यार, महबूब,
सितम, तेग, खंजर, जख्म, आबले, खून और मवाद आदि का प्रचार बढ़ रहा है। जायसी
के भावुक हृदय ने स्वकीया के पुनीत प्रेम के सौन्दर्य को पहचाना। नागमती का
वियोग हिन्दी साहित्य में विप्रलम्भ श्रृंगार श्रृंगार का अत्यन्त उत्कृष्ट
निरूपण है।
पुरुषों के बहुविवाह की प्रथा से उत्पन्न प्रेममार्ग की व्यावहारिक जटिलता
को जिस दार्शनिक ढंग से कवि ने सुलझाया है वह ध्या्न देने योग्य है। नागमती
और पद्मावती को झगड़ते सुनकर दक्षिण नायक राजा रत्नसेन दोनों को समझाता है-
एक बार जेइ प्रिय मन बूझा । सो दुसरे सौं काहे क जूझा॥
ऐस ज्ञान मन जान न कोई । कबहूँ राति , कबहूँ दिन होई॥
धूप छाँह दूनौ एक रंगा । दूनों मिले रहहिं एक संगा॥
जूझब छाँड़हु , बूझहु दोऊ। सेव करहु, सेवाफल होऊ॥
कवि के अनुसार जिस प्रकार करोड़ों मनुष्यों का उपास्य एक ईश्वर होता है उसी
प्रकार कई स्त्रियों का उपास्य एक पुरुष हो सकता है। पुरुष की यह विशेषता
उसकी सबलता और उच्च स्थिति की भावना के कारण है जो बहुत प्राचीन काल से
बद्धमूल है। इस भावना के अनुसार पुरुष स्त्रीा के प्रेम का ही अधिकारी नहीं
है, पूज्य भाव का भी अधिकारी है। ऊपर की चौपाइयों में पति पत्नी के
पारस्परिक प्रेमसम्बान्धू की बात बचाकर सेव्य-सेवक भाव पर जोर दिया गया है।
इसी प्रकार की युक्तियों से पुरानी रीतियों का समर्थन प्राय: किया जाता है।
हिन्दुओं और मुसलमानों दोनों में कई स्त्रियों से विवाह करने की रीति बराबर
से है। अत: एक प्रेमगाथा के भीतर भी जायसी ने उसका सन्निवेश करके बड़े कौशल
से उसके द्वारा मत सम्बरन्धीा विवादशान्ति का उपदेश निकाला है।
मलिक मुहम्मद जायसी
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