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जायसी की भाषा जायसी की भाषा ठेठ अवधी है और पूरबी हिन्दी के अन्तर्गत है। इससे उसमें ब्रजभाषा और खड़ी बोली दोनों से कई बातों में विभिन्नता है। जायसी को अच्छी तरह समझने के लिए अवधी की मुख्य मुख्य विशेषताओं को जान लेना आवश्यक है। अत: संक्षेप में कुछ बातों का उल्लेख यहाँ किया जाता है। शुद्ध अवधी की बोलचाल में क्रिया का रूप सदा कर्ता के पुरुष, लिंग और वचन के अनुसार होता है; कर्म के अनुसार सकर्मक भूतकालिक क्रिया में भी नहीं होता। कारण यह है कि पूरबी बोलियाँ भूतकाल में कृदन्त रूप नहीं लेती हैं, तिङन्त रूप ही रखती हैं। मूल चाहे इन रूपों का कृदन्त ही हो, जैसा कि कहीं कहीं लिंगभेद से प्रकट होता है, पर व्यवहार तिङन्त ही-सा होता है। नीचे के उदाहरणों से यह बात स्पष्ट हो जाएगी- (1) उत्तम पुरुष (क) देखेउँ तोरे मंदिर घमोई। (पुं. एकवचन) मैं (ख) ढूँढ़िउँ बालनाथ कर टीला। (स्त्री. एकवचन) मैं (ग) औ हम देखा, सखी सरेखा। (पुं. स्त्री बहुवचन) हम (2) मध्यम पुरुष (क) चाहेसि परा नरक के कूऑं पुं. स्त्री. एकवचन तू या तैं धातु कमाय सिखे तैं जोगी (ख) रूप चीन्ह कै जोग बिसेखेहु (पु. बहुवचन) तुम (ग) पूजि मनाइउ बहुतै भाँती। (स्त्री. बहुवचन) तुम (3) प्रथम पुरुष (क) रोइ हँकारेसि माझी सूआ। (पुं. स्त्री एकवचन) वह (ख) कहेन्हि 'न रोव, बहुत तैं रोवा'। (पुं. बहुवचन) तुम मध्यम पुरुष के रूप ही आज्ञा में भी वहाँ आते हैं जहाँ खड़ी बोली में साधारण क्रिया का प्रयोग होता है; जैसे- आयसु लिहे रहिउ निति हाथा। सेवा करिउ लाइ भुँइ माथा॥ प्रथम पुरुष की भूतकालिक क्रिया के स्त्रीलिंग रूपों में 'एसि' और 'एनि' की जगह 'इसि' और 'इनि' अन्त में होते हैं, जैसे-पुं. 'लखेनि', स्त्री. 'लखिनि'। बोलचाल में अकसर अंत्य 'नि' निकालकर बचे हुए खंड के अन्तिम स्वर को सानुनासिक कर देते है। -जैसे पुं. 'गएनि', 'लिखेनि' को 'गएँ', 'लखें' और स्त्री. 'गइनि', 'लखिनि' को 'गईं', 'लखीं' भी बोलते हैं। जायसी ने बोलचाल के इस रूप का भी प्रयोग किया है- लछिमी लखन बतासौ लखीं। (लखीं=लखिन्हि या लखिनि) ऊपर जो सकर्मक क्रिया के रूपों के उदाहरण दिए गए हैं वे ठेठ या पूरबी अवधी के हैं और उनमें पुरुषभेद बराबर बना हुआ है। पश्चिमी हिन्दी की सकर्मक भूतकालिक क्रिया में पुरुषभेद नहीं रहता-जैसे, मैंने किया, तुमने किया, उसने किया। ठेठ अवधी के ऊपर दिए हुए रूपों के अतिरिक्त जायसी और तुलसी दोनों एक सामान्य अकारांत रूप भी रखते हैं जिसका प्रयोग वे तीनों पुरुषों, दोनों लिंगों और दोनों वचनों में समान रूप से करते हैं, जैसे उत्तम पुरुष (1) का मैं बोआ जनम ओहि भूँजी? (2) हम तो ताहिं देखावा पीऊ। मध्यम पुरुष (3) तुइ सिरजा यह समुद अपारा। (4) अब तुम आइ अँतरपट साजाA प्रथम पुरुष (5) भूलि चकोर दिस्टि तहँ लावाA (6) तिन्ह पावा उत्तिम कैलासू। वर्तमानकालिक क्रिया के रूप ब्रजभाषा के समाजन ही होते हैं। केवल मध्यम पुरुष एकवचन के रूप के अन्त में संस्कृत के समान 'सि' होता है जैसे करसि, जासि- तू जुग सारि, चहसि पुनि छूवा। विधि और आज्ञा में भी यही रूप रहता है, पर कभी कभी संस्कृत के समान 'हि' से अन्त होने वाला रूप भी आता है, जैसे- 'तू सपूत माता कर अस परदेस न लेहिA अब ताई मुइ होइहि, मुए जाइ गति देहि॥ भविष्यत् के रूप ठेठ अवधी के कुछ निज के होते है। - उत्तम पुरुष (1) कौन उतर देबौं तेहि पूछे। (एकवचन) मैं (2) कौन उतर पाउब पैसारू (बहुवचन) हम प्रथम पुरुष (1) होइहि नाप औ जोख (एकवचन) (2) देव बार सब जैहैं बारी। (बहुवचन। 'होइहि' पुराना रूप है। 'ह' के घिस जाने से आजकल 'होई' (=होगा) बोलते हैं। इनमें उत्तम पुरुष के बहुवचन का जो रूप (पाउब) है वह अवधी साहित्य में सब पुरुषों में मिलता है (यद्यपि बोलचाल में उत्तम पुरुष बहुवचन 'हम' के ही साथ आता है)। जायसी और तुलसी दोनों ने सब पुरुषों में और दोनों वचनों में इस रूप का व्यवहार किया है, जैसे- घर कैसे पैठब मैं छूछे (उत्तम पुरुष, एकवचन) गुन अवगुन विधि पूछब (प्रथम पुरुष, एकवचन) पूरबी अवधी में साधारण क्रिया (इनफिनिटिव) का भी यही 'ब' वर्णांत रूप है। ठेठ अवधी की एक बड़ी भारी विशेषता को सदा ध्यान में रखना चाहिए। खड़ी बोली और ब्रजभाषा दोनों में कारकचिह्न सदा क्रिया के साधारण रूप में लगते हैं, जैसे-'करने का', 'करने को' या 'करिबे को'। पर ठेठ या पूरबी अवधी में कारकचिह्न प्रथम पुरुष, एकवचन की वर्तमानकालिक क्रिया के से रूप में लगता है, जैसे-'आवै कहँ', 'खाय माँ', 'बैठै कर'- (क) दीन्हेसि स्रवन सुनै कहँ मैना। (ख) सती होइ कहँ सीस उघारा। कहीं-कहीं कारकचिन्ह का लोप भी मिलता है, जैसे- (क) जो नित चलै सँवारै पाँखा। आजु जो रहा कालि को राखा॥ (ख) सबै सहेली देखै धाईं। (चलै=चलने के लिए; देखै=देखने के लिए) इसी प्रकार संयुक्त क्रिया में भी जहाँ पहले साधारण क्रिया का रूप रहता है वहाँ भी अवधी में यही वर्तमान का-सा रूप ही रहता है- (क) तपै लागि अब जेठ असाढ़ी। (ख) मरै चहहिं पै मरै न पावहिं। पूरबी अवधी में मागधी की प्रवृत्ति के अनुसार ब्रजभाषा के ओकारांत सर्वनामों के स्थान पर एकारान्त सर्वनाम होते हैं, जैसे-'को' (=कौन) के स्थान पर 'के', 'जो' के स्थान पर 'जे' और 'कोऊ' के स्थान पर 'केऊ' या 'कोहू'। नीचे कुछ उदाहरण दिए जाते है। - (क) केइ उपकार मरन कर कीन्हा। (=किसने) (ख) जेइ जिउ दीन्ह कीन्ह संसारू। (=जिसने) (ग) तजा राज रावन, का केहू? (=कोई) (घ) जियत न रहा जगत महँ केऊ। (=कोई) इन सर्वनामों का रूप विभक्ति और कारकचिन्ह लगाने के पहले एकारांत ही रहता है (जैसे, केहि कर, जेहि पर); ब्रज भाषा या पश्चिमी अवधी के समान अकारांत (जैसे, जाको और जाकर, तापर और तापै) नहीं होता। जायसी और तुलसी दोनों की रचनाओं में एक विलक्षण नियम मिलता है। वे सकर्मक भूतकालिक क्रिया के कर्ता का तो सविभक्ति पूरबी रूप 'केइ', 'जेइ' 'तेइ' रखते हैं पर अकर्मक क्रिया के कर्ता का 'को, जो, सो', जैसे- (क) जो एहि खीर समुद महँ परे। (ख) जो ओहि विषै मारि कै खाई॥ अवधी के कारकचिन्ह इस प्रकार है। - कर्ता-× कर्म-कहँ (आधुनिक 'काँ'), के करण-सन, से (पश्चिमी अवधी 'सौं') सम्प्रदान-कहँ (आधुनिक 'काँ'), के अपादान-से (पश्चिमी अवधी 'तइँ', 'तैं') सम्बन्ध-कर, कै अधिकरण-पुराना रूप 'महँ, आधुनिक 'माँ', 'पर' हिन्दी के सम्बन्धकारक चिह्न में लिंगभेद होता है। खड़ी बोली में पुं. सम्बन्धकारक चिह्न है 'का' और स्त्री. 'की'। ब्रजभाषा में भी यह भेद है। अवधी की बोलचाल में तो यह भेद लक्षित नहीं होता पर साहित्य की भाषा में भेद दिखाई पड़ता है। जायसी और तुलसी दोनों पुं. सम्बन्धकारक चिह्न 'कर' रखते हैं और स्त्री. सम्बन्धकारक चिह्न 'कै' जैसे- (1) राम तें अधिक राम कर दासा। जेहि पर कृपा राम कै होई॥ -तुलसी (2) सुनि तेहि सन राजा कर नाऊँ। पलुही नागमती कै बारी॥ -जायसी इससे यह स्पष्ट ही है कि अवधी में स्त्री. सम्बन्धकारक चिह्न 'की' कभी नहीं होता, 'कै' ही होता है। बोलचाल में उच्चारण संक्षिप्त करने की प्रवृत्ति स्वाभाविक होती है। इसी प्रवृत्ति के अनुसार 'कर' के स्थान पर केवल 'क' बोल देते हैं। तुलसी और जायसी दोनों में यह संक्षिप्त रूप मिलता है, जैसे- (क) धानपति उहै जेहि क संसारू। -जायसी (ख) पितु आयसु सब धारम क टीका। -तुलसी ठेठ अवधी का एक प्रकार का प्रयोग भाषा के इतिहास की दृष्टि से ध्यान देने योग्य है। वर्तमान रूप में आने के पहले हमारी भाषा के कारकों की कुछ दिनों तक बड़ी अव्यवस्थित दशा रही। कुछ तो सम्बन्धकारक की 'ही' विभक्ति (मागधी 'ह', अप' हो) से काम चलता रहा जिसका प्रयोग सब कारकों में होता था और कुछ स्वतन्त्र शब्दों द्वारा। पुराने ढंग के नमूने अभी टीकाओं आदि में मिल सकते हैं जिसमें 'पृथ्वी पर' के स्थान में 'पृथ्वी विषय' लिखा मिलेगा, जैसे-'नारद जी पृथ्वी विषय आए।' सम्बन्ध कारक के चिह्न के रूप में इस 'कृत' शब्द का प्रयोग गोस्वामी तुलसीदासजी ने कई जगह किया है, जिससे वर्तमान 'कर' और 'का' निकले हैं। यह तो हुई पुरानी बात। पूरबी अवधी में अब तक अपादान कारक के (और करण के भी) चिह्न के रूप में 'भै' या 'भए' शब्द का प्रयोग होता है, जैसे-'मीत भै' (=मित्र से), 'तर भै' (=नीचे से), 'ऊपर भै' (=ऊपर से)। जायसी और तुलसी ने ऐसा प्रयोग किया है- (1) मीत भै माँगा बेगि विमानू। (=मित्र से तुरन्त विमान माँगा)। (2) ऊपर भए सो पातुर नाचहिं (=ऊपर से) तर भए तुरुक कमानहिं खाँचहिं (=नीचे से) (3) भरत आइ आगे भए लीन्हें (=आगे से)-तुलसी इसी तरह जायसी ने 'होइ' शब्द का प्रयोग भी पंचमी विभक्ति के स्थान पर किया है, जैसे- बैठि तहाँ होइ लंका ताका (=वहाँ से) इसमें तो कुछ कहना ही नहीं है कि यह 'भए' या 'होइ' 'भू' धातु से निकले हुए 'होना' क्रिया के रूप हैं। प्राकृत की 'हितों' विभक्ति भी वास्तव में 'भू' धातु से निकली है और 'भूत्वा' शब्द का अपभ्रंश है। जायसी ने 'हुँत' रूप में ही इस विभक्ति का बराबर प्रयोग किया है, जैसे- (क) तेहि बन्दि हुँत छुटै जो पावा। (=बँदि से) (ख) जल हुँत निकसि भुवै नहिं काछू (=जल से) (ग) जबहुँत कहिगा पंखि सँदेसी। (=जब से) (घ) तबहुँत तुम बिनु रहै न जीउ। (=तब से) 'कारण' और 'द्वारा' के अर्थ में भी 'हुँत' का प्रयोग होता है, जैसे- (क) तुम हुँत मँडप गइउँ परदेसी। (=तुम्हारे लिए, तुम्हारे कारण) (ख) उन्ह हुँत देखै पाएउँ दरस गोसाई केर (=उनके द्वारा) जायसी ने ठेठ पूरबी अवधी के शब्दों का जितना अधिक व्यववहार किया है उतना अधिक तुलसीदासजी ने नहीं। नीचे कुछ शब्दों के उदहारण दिए जाते है। - (1) राँध जो मंत्री बोले सोई। तेहि डर राँध न बैठों, मकु साँवरि होइ जाउँ। (राँध=निकट, पास) इस शब्द का व्यवहार अब केवल यौगिक रूप में रह गया है, जैसे-राँध पड़ोसी। और ठेठ शब्द लीजिए, जो साहित्यज्ञों को ग्राम्य लगेंगे- (2) अहक मोरि पुरुषारथ देखेहु। (अहक=लालसा) (3) नौजि होइ घर पुरुष बिहूना। (नौजि=ईश्वर न करे। अरबी नऊज=बिल्ला) (4) जहिया लंक दही श्रीरामा। (जहिया=जब) (5) जौ देखा तीवइ है साँसा। (तीवइ=स्त्री) (6) जस यह समुद दीन्ह दुख मोकाँ।(मोका=मोंकहँ=मुझको) (7) जाना नहिं कि होब अस महूँ।(महूँ=मैं भी) (8) हहरि हहरि अधिकौ हिय काँपै। (अधिकौ=और भी अधिक) ऊपर जो पूरबी अवधी के रूप दिखाए गए उनसे यह न समझना चाहिए कि जायसी ने सर्वत्र पूरबी अवधी ही के व्याकरण का अनुसरण किया है। कवि ने तुलसीदासजी के समान सकर्मक भूतकालिक क्रिया के लिंग, वचन अधिकतर पच्छिमी हिन्दी के ढंग पर कर्म के अनुसार ही रखे हैं, जैसे- बसिठन्ह आइ कही अस बाता। इसी प्रकार भूतकालिक क्रिया का पुरुष भेद शून्य पश्चिमी रूप भी प्राय: मिलता है, जैसे- तुम तौ खेलि मंदिर महँ आईं। इसके अतिरिक्त पश्चिमी साधारण क्रिया (इनफिनिटिव) के 'न' वर्णांत रूप का प्रयोग भी कहीं-कहीं देखा जाता है, जैसे- कित आवन पुनि अपने हाथा। कित मिल कै खेलब एक साथा॥ पूरबी हिन्दी में जब तक कोई कारकचिह्न नहीं लगता तब तक संज्ञाओं के बहुवचन का रूप वही रहता है जो एकवचन का। पर जायसी ने पछाँही हिन्दी के बहुवचन रूप कहीं-कहीं रखे हैं, जैसे- (क) नसैं भइँ सब ताँति। (ख) जोबन लाग हिलौरे लेई॥ जायसी 'तू' या 'तै' के स्थान पर अकसर 'तुई' का प्रयोग करते हैं। यह कन्नौजी और पच्छिमी अवधी का रूप है जो खीरी, शाहजहाँपुर से लेकर कन्नौज तक बोला जाता है- खड़ी बोली और ब्रज भाषा दोनों पछाहीं बोलियों की प्रवृत्ति दीर्घांत पदों की ओर है, पर अवधी की लघ्वन्त प्रवृत्ति है। खड़ी बोली और ब्रज भाषा में जो विशेषण और संबंधकारक के सर्वनाम आकारान्त और ओकारान्त मिलते हैं वे अवधी में अकारान्त पाए जाते हैं। नीचे ऐसे कुछ शब्द दिए जा रहे है। - खड़ी बोली ब्रजभाषा अवधी ऐसा ऐसो ऐस या अस जैसा जैसो जैस या जस तैसा तैसो तैस या तस कैसा कैसो कैस या कस छोटा छोटो छोट बड़ा बड़ो बड़ खोटा खोटो खोट खरा खरो खर भला भलो भल × नीको नीक थोड़ा थोरो थोर गहिरा गहिरो गहिर पतला पतरो, पातरो पातर पिछला पाछिलो पाछिल चकला चकरो चाकर दूना दूनो दून साँवला साँवरो साँवर गोरा गोरो गोर प्यारा प्यारो पियार ऊँचा ऊँचो ऊँच नीचा नीचो नीच अपना अपनो आपन मेरा मेरो मोर तेरा तेरो तोर हमारा हमारो हमार तुम्हारा तुम्हारो तुम्हार पीला पीरो पीयर हरा हरो हरियर साधारण क्रिया (इनफिनिटिव) के रूप अवधी में लघ्वंत वकारान्त होते ही हैं जैसे-आउब, जाब, करब, खाब इत्यादि। पच्छिमी हिन्दी के कुछ दीर्घांत संज्ञा शब्द भी अवधी में कहीं कहीं लघ्वंत होते हैं, जैसे- बहल घोड़ हस्ती सिंहनी खड़ी बोली के समान अवधी में भी भूतकालिक कृदंत होते हैं। बहुत से अकर्मक कृदंत विकल्प से लघ्वंत भी होते हैं जैसे ठाढ़, बैठ, आय, गय इत्यादि। नीचे कुछ उदाहरण दिए जाते है। - (1) बैठ महाजन सिंहलदीपी (बैठ = बैठ हैं = बैठे हैं) (2) रहा न जोबन आव बुढ़ापा (आव = आया) (3) कटक सरह अस छूट (छूट =छूटा) सकर्मक में करना, देना और लेना इन तीनों क्रियाओं के भी विकल्प से क्रमश: 'कीन्ह', 'दीन्ह', और 'लीन्ह', रूप होते हैं। इसी प्रकार पद्य में कभी कभी वर्तमान काल के रूप के स्थान पर संक्षेप के लिए धातु का रूप रख दिया जाता है जैसे- (क) हौं अन्धा जेहि सूझ न पीठी। (सूझ =सूझती है) (ख) बिनु गथ बिरिछ निपात जिमि ठाढ़ ठाढ़ पै सूख। (सूख =सूखता है) सम्भाव्य भविष्यत् का रूप साधारणत: तो वर्तमान ही के समान पुरुषभेद लिए हुए होता है पर ठेठ पूरबी अवधी में प्राय: प्रथम पुरुष में भी मध्यम पुरुष बहुवचन का रूप ही रहता है जैसे- (क) जोबन जाउ, जाउ सो भँवरा। (जाउ =जाय, चाहे चला जाय) (ख) सब लिखनी कै लिखु संसारा। (लिखु =यदि लिखे) (ग) अजस होउ, जग सुजस नसाऊA (होउ =चाहे हो। नसाऊ =चाहे नसाय) तुलसी और जायसी के लिंगनिर्णय में ऊपर लिखी बातों का ध्यान रखना चाहिए। चौपाई में चरण के अन्त का पद यदि लघ्वंत हो तो भी दीर्घान्त कर दिया जाता है, यह तो प्रसिद्ध ही है। अत: चरण के अन्त में आए हुए किसी पद के लिंग का निर्णय करते समय यह विचार लेना चाहिए कि वह छन्द की दृष्टि से लघ्वंत से दीर्घान्त तो नहीं किया गया है। (क) मरम वचन जब सीता बोला-तुलसी। (ख) देखि चरित पदमावति हँसा-जायसी ऊपर कह आए हैं कि कभी कभी वर्तमान में संक्षेप के लिए धातु का रूप रख दिया जाता है। अत: 'बोला' और 'हँसा' वास्तव में 'बोल' और 'हँस' हैं जो छन्द की दृष्टि से दीर्घान्त कर दिए गए हैं। कहने की आवश्यकता नहीं कि इन संक्षिप्त रूपों का व्यवहार दोनों लिंगों में समान रूप से हो सकता है। इसी प्रकार संभाव्य भविष्यत् का रूप भी कभी कभी दीर्घांत होकर चरण के अन्त में आ जाता है जैसे- (क) को हींछा पूरै, दुख खोवा\ (खोवा-खोव या खोउ अर्थात् खोवे) (ख) दरपन साहि भीति तहँ लावा। देखहुँ जबहि झरोखे आवा॥ (आवा =आव या आउ अर्थात् आवे) जायसी और तुलसी दोनों कवियों ने कहीं कहीं बहुत पुराने शब्दों और रूपों का व्यवहार किया है जिनसे परिचय हो जाना बहुत ही आवश्यक है। दिनिअर, ससहर, अहुट्ठ, भुवाल, पइट्ठ, बिसहर, सरह, पुहुमी (दिनकर, शशधार, अध्युष्ठ, भूपाल, प्रविष्ट, विषधर, शलभ, पृथ्वी) आदि प्राकृत संज्ञाओं के अतिरिक्त और प्रकार के पुराने शब्द और रूप भी मिलते हैं। उनमें से मुख्य मुख्य का उल्लेख नीचे किया जाता है। किसी समय सम्बन्ध की 'हि' विभक्ति से सब कारकों का काम लिया जाता था, पीछे वह कर्म और सम्प्रदान में नियत-सी हो गई। इस 'हि' या 'ह' विभक्ति का सब कारकों में प्रयोग जायसी और तुलसी दोनों की रचनाओं में देखा जाता है। जायसी के उदाहरण लीजिए- (1) जेहि जिउ दीन्ह कीन्ह संसारू। (कर्ता) (2) चाँटहि करै हस्ति सरि जोगू। (कर्म) (3) बज्रहि तिनकहि मारि उड़ाई। (करण) (4) देस देस के बर मोहिं आवहि। (संप्रदान) (5) राजा गरबहि बोले नाहीं। (अपादान) (6) सौंजहि तन सब रोवाँ, पंखिहि तन सब पाँख (सम्बन्ध) चतुर वेद हौं पंडित, हीरामन मोहि नावँ (7) तेहि चढ़ि हेर, कोइ नहिं साथा। (अधिकरण) कौन पानि जेहि पवन न मिला? कर्ता कारक में 'हि' की विभक्ति गोस्वामी तुलसीदासजी ने तो केवल सकर्मक भूतकालिक क्रिया के सर्वनाम कर्ता में ही लगाई है (जैसे, तेइ सब लोक लोकपति जीते) पर जायसी में अकारान्त संज्ञा कर्ता में भी यह चिह्न प्राय: मिलता है, जैसे- (क) राजै कहा 'सत्य कहु सूआ'। (राजै =राजहिं =राजा ने) (ख) राजै लीन्ह ऊबि कै साँसा। (ख) सुऐ तहाँ दिन दस कल काटी। (सूऐ =सुअहि =सुए ने) उच्चारण में 'हि' के 'ह' के घिस जाने से केवल स्वर रह गया जिससे 'राजहि' का 'राजइ' हुआ और 'राजई' से 'राजै'। इसी तरह 'केहि', 'जेहि', 'तेहि' भी 'केइ' 'जेइ' 'तेइ' बोले जाने लगे। इसी से हमने पाठ में ये पिछले रूप ही रखे हैं। जायसी के समय इस 'ह' का लोप हो चला था इसका प्रमाण दो चार जगह हकारलुप्त कारकचिद्दों का प्रयोग है, जैसे- जस यह समुद दीन्ह दुख मोकाँA यह 'काँ' आजकल की अवधी बोलचाल में कर्म और सम्प्रदान का चिन्ह है और 'कहँ' का बिगड़ा हुआ (हकारलुप्त) रूप है। 'कहँ' पुराना रूप है। बोलचाल की अवधी में 'काँ' और 'के' दो रूप चलते हैं। यह 'के' भी अपभ्रंश के पुरानी कर्मविभक्ति 'केहि' का घिसा हुआ रूप है। 'हि' और 'ह' दोनों एक ही हैं। 'ह' का व्यवहार पृथ्वीराज रासो में बराबर मिलता है। 'तुम्हारा' में यह 'ह' अब तक लिपटा चला आ रहा है। 'ह' के साथ संयुक्त सर्वनामों का व्यवहार जायसी ने बहुत किया है, जैसे-हम्ह =हमको, तुम्ह= तुमको। इसी प्रकार और कारकों में भी यह 'ह' सर्वनाम में संयुक्त मिलता है। कुछ उदाहरण देखिए- (क) गुरु भएउँ आप कीन्ह तुम्ह चेला। (=तुमको) (ख) आजु आगि हम्ह जूड़। (=हमको, हमारे लिए) (ग) पदुम गन्ध तिन्ह अंग बसाहीं। (=उनके) (घ) जिन्ह एहि हाट न लीन्ह बेसाहा। (=जिन्होंने) (ड) मैं तुम्ह राज बहुत सुख देखा। (=तुम्हारे) (च) एहि बन बसत गई हम्ह आऊ। (=हमारी) (छ) परसन आइ भए तुम्ह राती।(=तुम्हारे ऊपर) इस पुरानी विभक्ति के अतिरिक्त जायसी और तुलसी ने कुछ पुराने शब्दों का भी व्यवहार किया है। इनमें से कई एक ऐसे हैं जो अब प्रसिद्ध नहीं हैं। उदाहरण के लिए 'चाहि' और 'बाज' इन दो शब्दों को लीजिए। चाहि का अर्थ है अपेक्षाकृत अधिक बढ़कर- (क) मेघहु चाहि अधिक वै कारे। (ख) एक सो एक चाहि रुपमनी। (ग) कुलिसहु चाहि कठोर अति, कोमल कुसुमहु चाहि। -तुलसी यह 'चाहि' शायद संस्कृत 'चापि' से निकला हो। बँगला में यह 'चेये' इस रूप में बोला जाता है। अब दूसरा शब्द 'बाज' लीजिए जिसके अर्थ होते हैं बिना, बगैर, अतिरिक्त, छोड़कर। (क) गगन अन्तरिख राखा, बाज खंभ बिनु टेक। (ख) को उठाइ बैठारे बाज पियारे जीउ। (ग) दीन दुख दारिद दरै की कृपाबारिध बाज?-तुलसी यह 'बाज' संस्कृत 'वर्ज्य' का अपभ्रंश है। 'पारना' क्रिया के रूप अब बंगाल ही में सुनाई पड़ते हैं पर जायसी और तुलसी के जमाने तक शायद वे अवध की बोलचाल में भी रहे हों; क्योंकि इनके पहले के कबीर साहब की वाणी में भी वे पाए जाते हैं। जो कुछ हो, जायसी और तुलसी दोनों ने इस 'पारना' (=सकना) क्रिया का खूब व्यवहार किया है, जैसे- (क) परी नाथ कोई छुवै न पारा। - (ख) तुमहि अछत को बरनै पारा। -तुलसी यही दशा 'आछना' क्रिया की भी है। यह 'अस'धा तु से निकली जान पड़ती है जिसके रूप पाली में 'अच्छति' अच्छंति आदि होते हैं। अब हिन्दी में तो उसका वर्तमान कृदंत रूप 'अछत' या 'आछत' ही बोलचाल में है, पर बँगला में इसके और रूप प्रचलित हैं। कबीर साहब और जायसी दोनों में इसके कुछ रूप पाए जाते है। - (क) कह कबीर किछु अछिलो न जहिया। (अछिलो = था; मिलाओ बँगला 'छिलो') (ख) कँवल न आछो अपनि बारी। (आछै =है; बँगला 'आछे') (ग) का निचिंत रे मानुष आपन चीते आछुA (आछु =रह) इसी प्रकार 'आदि' शब्द का प्रयोग 'बिलकुल' या 'निपट' के अर्थ में अब केवल बंगभाषा में ही सुनाई पड़ता है, जैसे, नदी में बिलकुल पानी नहीं है (=आदौजल नाय); पर जायसी ने 'पदमावत' में किया है। 'बादल' अपनी माता से कहता है- मातु न जानसि बालक आदी। हौं बादला सिंह रनबादी॥ अर्थात् माता मुझे बिलकुल बालक न समझ। सत्तार्थक 'होना' क्रिया के रूपों के आदि में 'अ' अक्षर पहले रहता था वह अबतक अवध के कुछ हिस्सों मे -जायस और अमेठी के आसपास वर्तमान काल में बना हुआ है। वहाँ 'है' के स्थान में 'अहै' बोलते हैं। जायसी ने भूतकालिक रूप 'अह' (=था) का भी व्यवहार किया है। संभव है उस समय बोला जाता रहा हो। उदाहरण- (क) भाँट अहै ईसर कै कला। (ख) परबत एक अहा तहँ डूँगा। (ग) जब लग गुरु हौं अहा न चीन्हा। तुलसीदासजी में केवल वर्तमान का रूप 'अहै' मिलता है। यह सत्तार्थक क्रिया 'भू' धातु से न निकलकर अरातु से निकली जान पड़ती है। भूधा तु से निकले हुए पुराने प्राकृत कृदंत 'हुत' (=था) का प्रयोग जायसी की भाषा में हमें प्राय: मिलता है- (क) हुत पहले औ अब है सोई। (ख) गगन हुता नहिं महि हुतौ हुते चंद नहिं सूर। ब्रज और बुंदेलखंड में यह शब्द 'हतो' इस रूप में अब तक बोला जाता है। एक बहुत पुराना निश्चयार्थक शब्द 'पै' है जो निश्चय या 'ही' के अर्थ में आता है। यह ठीक नहीं मालूम होता कि यह 'अपि' शब्द से आया है या और किसी शब्द से; क्योंकि 'अपि' शब्द 'भी' के अर्थ में आता है। जायसी ने इसका प्रयोग बहुत किया है। तुलसी ने कम किया है; पर किया है, जैसे- माँगु माँगु पै कहहु पिय, कबहुँ न देहु न लेहु। उच्चारण -दो से अधिक वर्णों के शब्द के आदि में Ðस्व 'इ' और Ðस्व 'उ' के उपरान्त 'आ' का उच्चारण अवधी को पसंद और पच्छिमी हिन्दी (खड़ी और ब्रज) को नापसंद है। इसी भिन्न प्रवृत्ति के अनुसार अवधी में बोले जानेवाले 'सियार', 'कियारी', 'बियारी', 'बियाज', 'बियाह', 'पियार', 'नियाव' आदि शब्द तथा 'दुआर', 'कुआर', 'खुआर', 'गुवाल' आदि शब्द खड़ी बोली और ब्रजभाषा में क्रमश: स्यार, क्यारी, ब्यारौ, ब्याज, ब्याह, प्यारा, प्यारो, न्याव तथा द्वार, क्वार, ख्वार, ग्वाल बोले जाएँगे। 'इ' और 'उ' के स्थान पर 'य' और 'व' की इसी प्रवृत्ति के अनुसार अवधी 'इहाँ', 'उहाँ' या 'हिऑं' 'हुऑं' खड़ी बोली और ब्रजभाषा में 'यहाँ', 'वहाँ', और 'ह्याँ', 'ह्वाँ', बोले जाते हैं। इसी प्रकार 'अ' और 'आ' के उपरान्त अवधी को 'इ' पसंद है और ब्रजभाषा को 'य' जैसे-अवधी के 'आइ, जाइ, पाइ, कराइ' तथा 'आइहै, जाइहै, पाइहै, कराइहै', (अथवा अइहै, जइहै, पइहै, करइहै) के स्थान पर ब्रजभाषा में क्रमश: 'आय, पाय, जाय, कराय', 'आयहै, जायहै, पायहै, करायहै (अथवा आयहै= ऐहै, जायहै =जैहै)' कहेंगे। इसी रुचिवैचित्रय के कारण 'ऐ' और 'औ' का संस्कृत उच्चारण (अइ, अउ के समान) पच्छिमी हिन्दी से जाता-सा रहा, केवल 'यकार' और 'वकार' के पहले रह गया (जैसे, गैया, कन्हैया) पर यह अवधी में बना हुआ है। इससे अवधी में 'ऐ' और 'औ' का उच्चारण 'अय' और 'अब' सा न करके 'अइ' और अउ सा करना चाहिए जैसे-ऐस-अइस, जैस-जइस, भैंस-भँइस, दौरि-दउरि इत्यादि। केवल पदान्त के 'ऐ' और 'औ' का उच्चारण पश्चिमी हिन्दी के समान 'अय' और 'अव'-सा करना चाहिए, जैसे-कहै लाग=कहय लाग, तपै लाग =तपय लाग, चलौ =चलव इत्यादि। प्राकृत की एक पंचमी विभक्ति 'सूंतो' थी, जो 'से' के अर्थ में आती थी। इसका हिन्दी रूप 'सेंता' (तृतीया में) बहुत दिनों तक बोला जाता रहा। 'वली' आदि उर्दू के पुराने शायरों तक में यह विभक्ति मिलती है। कबीरदास ने भी इसका व्यवहार किया है, जैसे- तोहि पीर जो प्रेम की पाका सेंती खेल॥ तुलसीदास जी ने इसका कहीं व्यवहार किया है या नहीं, ठीक ठीक नहीं कह सकते पर जायसी इसे बहुत जगह लाए हैं, जैसे- (क) सबन्ह कहा मन समझहु राजा। काल सेंति कै जूझ न छाजा॥ (ख) रतन छुवा जिन्ह हाथन्ह सेंतीA हिन्दी कवि कभी कभी श्रवणसुखदता की दृष्टि से लकार के स्थान पर रकार कर दिया करते हैं, जैसे 'दल' के स्थान पर 'दर', 'बल' के स्थान पर 'बर'। जायसी ने ऐसा बहुत किया है। नीचे कुछ उदाहरण दिए जाते है। - (क) होत आव दर जगत असूझ। (=दल) (ख) सत्ता के बर जो नहिन् हिय फटा। (=बल) (ग) कीन्हेसि पुरुष एक निरमरा। (=निर्मल) (घ) नाम मुहम्मद पूनिउँ करा (=कला) यहाँ तक तो इस बात का विचार हुआ कि जायसी की भाषा कौन सी है और उसका व्याकरण क्या है। अब थोड़ा यह भी देखना चाहिए कि जायसी की भाषा कैसी है। जायसी ने अपनी भाषा अधिकांश पूरबी या ठेठ अवधी रखते हुए भी जो बीच बीच में नए पुराने, पूरबी पच्छिमी कई प्रकार के रूपों को स्थान दिया है, इससे भाषा कुछ अव्यवस्थित सी लगती है। पर उन रूपों का विवेचन कर लेने पर यह अवस्था नहीं रह जाती। केशव के अनुयायी भूषण, देव आदि फुटकरिए कवियों की भाषा से इनकी भाषा कहीं स्वच्छ और व्यवस्थित है। चरणों की पूर्ति के लिए अर्थसम्बन्ध और व्याकरण-सम्बन्ध-रहित शब्दों की भरती कहीं नहीं है। कहीं कुछ शब्दों के रूप व्याकरणविरुद्ध मिल जायँ तो मिल जायँ पर वाक्य का वाक्य शिथिल और बेढंगा कहीं नहीं मिलेगा। शब्दों में व्याकरण विरुद्ध रूप अवश्य कहीं कहीं मिल जाते हैं, जैसे- दसन देखि कै बीजु लजाना। 'लजाना' के स्थान पर 'लजानी' चाहिए। पूरबी अवधी में भी 'लजानि' रूप होगा जिसे छंद के विचार से यदि दीर्घांत करेंगे तो 'लजानी' होगा। कहीं कहीं तो जायसी के वाक्य बहुत चलते हुए हैं; जैसे देवपाल की दूती पद्मिनी के मायके की स्त्री बनकर उससे कहती है- सुनि तुम कहँ चितउर महँ कहिउँ कि भेटौं जाइ। बोलचाल में ठीक इसी तरह कहा जाता है-'तुमको चित्तौर में सुनकर मैंने कहा कि जरा चलकर भेंट कर लूँ।' कहावतें और मुहाविरे भी कहीं कहीं मिलते हैं पर वे यों ही भाषा के स्वाभाविक प्रवाह में आए हुए हैं, काव्यरचना के कोई आवश्यक अंग समझकर नहीं बाँधें गए हैं। मुहाविरे को अधिक प्राधान्य देने से रूढ़ पदसमूहों से भाषा बँधी सी रहती है, उसकी शक्तियों का नवीन विकास नहीं होने पाता। कवि अपने विचारों को ढालने के लिए नए नए साँचे न तैयार करके बने बनाए साँचों में ढलने वाले विचारों को ही बाहर करता है। खैर, इस प्रसंग में यहाँ कुछ अधिक कहने की आवश्यकता नहीं। जायसी के दो एक उदाहरण देकर आगे चलते हैं - (क) जोबन नीर घटे का घटा। सत्ता के बर जौ नहिं हिय फटा॥ यहाँ कवि ने 'हृदय फटना' या 'जी फटना' इस मुहावरे का बड़े कौशल से प्रयोग किया है। कवि ने हृदय को सरोवर माना है, यद्यपि 'सरोवर' पद आ नहीं सका है। पद की न्यूनता से अभिप्राय जरा देर से खुलता है। जब जल घटने लगता है तब ताल की गीली मिट्टी सूखकर फट जाती है। कवि का अभिप्राय है कि जिस प्रकार जल घटने से ताल फट जाता है उसी प्रकार यदि यौवन के Ðास से प्रिय से जी न फटे, प्रीति वैसी ही बनी रहे तो कोई हर्ज नहीं। कुछ और उदाहरण लीजिए- (क) हाथ लिए अपना जिउ होई। (ख) आवा पवन बिछोह कर, पात परा बेकरार। तरिवर तजा जो चूरि कै, लागौं केहि के डार? दूसरे उदाहरण में 'किसी की डाल लगना' यह मुहावरा अन्योक्ति में खूब ही बैठा है। लोकोक्तियों के भी कुछ नमूने देखिए- (क) सूधी अँगुरि न निकसै घीऊ। (ख) दरब रहै भुइँ, दिपै लिलारा। (ग) धरती परा सरग को चाटा। जायसी की काव्य रचना स्वच्छ होने पर भी तुलसी के समान सुव्यवस्थित नहीं है। उसमें जो वाक्यदोष मुख्यत: दिखाई पड़ता है वह 'न्यूनपदत्व' है। विभक्तियों का लोप, सम्बन्धवाचक सर्वनामों का लोप, अव्ययों का लोप, जायसी में बहुत मिलता है। विभक्ति या कारकचिह्न का अध्याहार तुलसी की रचनाओं में कहीं कहीं करना पड़ता है, पर उन्होंने लोप या तो ऐसा किया है जैसा बोलचाल में भी प्राय: होता है-जैसे सप्तमी के चिह्न का-अथवा लुप्त चिह्न का पता प्रसंग से बहुत जल्द लग जाता है। पर जायसी ने मनमाना लोप किया है-विभक्तियों का ही नहीं, सर्वनामों, अव्ययों का भी। कहीं कहीं तो इस लोप के कारण 'प्रसादगुण' बिलकुल जाता रहा है और अर्थ का पता लगाना दुष्कर हो गया है, जैसे- सरजै लीन्ह साँग पर धाऊ। परा खड़ग जनु परा निहाऊ॥ इसमें दूसरे चरण का अर्थ शब्दों से यही निकलता है कि 'खड्ग ऐसा पड़ा मानों निहाई पड़ी' पर कवि का तात्पर्य यह है कि 'खड्ग निहाई पर पड़ा।' देखिए इस 'पर' के लोप से अर्थ में कितनी गड़बड़ी पड़ गई। विभक्ति और कारकचिह्न के बेढंगे लोप के और नमूने देखिए- (क) जंघ छपा कदली होइ बारी। (जंघ=जंघ से) (ख) करन पास लीन्हेउ कै छंदू? (पास=पास से) अव्ययों का लोप भी प्राय: मिलता है-और ऐसा जिससे अर्थ समझने में भी कभी कभी कुछ देर लगती है, जैसे- (1) तब तहँ चढ़ै फिरै नौ भँवरी। (फिरै=जब फिरै) (2) दरपन साहि भीति तहँ लावा। देखहुँ जबहिं झरोखे आवा॥ (देखहुँ=इसलिए जिसमें देखूँ) (3) पुनि सो रहै, रहै नहि कोई। (दूसरे 'रहै' के पहले 'जब' चाहिए) (4) काँच रहा तुम कंचन कीन्हा। तब भा रतन जोति तुम दीन्हा॥ ('जोति' के पहले 'जब' चाहिए) सम्बन्धवाचक सर्वनामों के लोप में तो जायसी अँगरेज कवि ब्राउनिंग से भी बढ़े हैं। एक नमूना काफी है- कह सो दीप पतँग कै मारा। इस चरण में 'पतँग' के पहले 'जेई' (=जिसने) पद लुप्त है जिसमें अभिप्रेत अर्थ तक पहुँचने में व्यर्थ देर होती है। पहले देखने में यही अर्थ भासित होता है कि 'पतँग का मारा हुआ दीपक कहाँ है?' न्यूनपदत्व के अतिरिक्त 'समाप्तपुनरात्तत्व' भी प्राय: मिलता है, जैसे-'हिये छाहँ उपना औ सीऊ।' यदि उपना शब्द आदि में कर दें तो यह दोष दूर हो जाय। हिन्दी के अधिकांश कवियों पर शब्दों का अंगभंग करने का दोष लगाया जा सकता है। पर जायसी के चरण के अन्त में पड़नेवाले शब्द को दीर्घांत करने में जितना रूपान्तर होता है उतने से अधिक किसी शब्द का रूप नहीं बिगड़ा है। कहीं एकाध जगह ऐसा उदहारण मिल जाय तो मिल जाय जैसे कि ये है। - (क) दंडा करन बीझ बन जाहाँ ? (=जहाँ) (ख) करन पास लीन्हेउ कै छंदू । विप्र रूप धरि झिलमिल इंदू॥ (इन्द्र के स्थान पर 'इन्दू' करना ठीक नहीं हुआ है।) जायसी के दो शब्दों का व्यवहार पाठकों को कुछ विलक्षण प्रतीत होगा। उन्होंने 'निरास' शब्द का प्रयोग 'जो किसी की आशा का न हो, जो किसी का आश्रित न हो' इस अर्थ में किया है, जैसे- ओहि न मोरि किछु आसा, हौं ओहि आस करेउँ। तेहि निरास प्रीतम कह, जिउ न देउँ, का देउँ॥ व्युत्पत्ति के अनुसार तो इस अर्थ में कोई बाधा नहीं पर प्रवृत्ति से भिन्न होने के कारण 'अप्रयुक्तत्व' दोष अवश्य है। दूसरा शब्द है 'बिसवास' जिसे जायसी 'विश्वासघात' के अर्थ में लाए हैं, जैसे- (क) राजै वीरा दीन्हा, नहिं जाना बिसवास । (ख) आदम हौवा कहँ सृजा, लेइ घाला कैलास। पुनि तहँवा से काढ़ा, नारद के बिसवास । इसी प्रकार 'बिसवासी' शब्द भी विश्वासघाती के अर्थ में कई जगह लाया गया है- अरे मलिछ बिसवासी देवा। कित मैं आइ कीन्हि तोरि सेवा॥ और कवियों ने भी 'बिसासी' शब्द का इसी अर्थ में प्रयोग किया है, जैसे- (क) कबहूँ वा बिसासी सुजान के ऑंगन मों अँसुवान को लै बरसौ॥ -घनानंद (ख) अब तौ उर माहि बसाय कै मारत ए जू बिसासी! कहाँ धौं बसे। -घनानंद (ग) सेखर घेरे करें सिगरे, पुरवासी बिसासी भए दुखदात हैं। -शेखर (घ) जापै ही पठाई ता बिसासी पै गई न दीसै; संकर की चाही चंदकला तैं लहाई री। -दूलह जायसी की भाषा बोलचाल की और सीधी है। समस्त पदों का व्यवहार उन्होंने बहुत ही कम किया है। जहाँ किया भी है वहाँ दो से अधिक पदों के समास का नहीं। दो पदों के समासों का भी हाल यह है कि वे तत्पुरुष ही हैं और अधिकतर संस्कृत की रीति पर नहीं हैं, विपरीत क्रम से हैं, जैसे कि फारसी में हुआ करते हैं। दो उदाहरण नमूने के लिए काफी होंगे- (क) लीक पखान पुरुष कर बोला। (=पखान-लीक) (ख) भा भिनसार किरिन रवि फूटी। (=रवि-किरिन) एक स्थान में तो पद्मावत में फारसी का एक वाक्यखंड ही उठाकर रख दिया गया है- केस मेघावरि सिर ता पाईं । यह 'सिर ता पाई' फारसी का 'सर ता पा' है जिसका अर्थ होता है 'सिर से पैर तक।' फारसी की बस इतनी ही थोड़ी सी झलक कहीं कहीं पर दिखाई पड़ती है, और सब तरह से जायसी की भाषा देशी साँचे में ढली हुई, हिन्दुओं के घरेलू भावों से भरी हुई, बहुत ही मधुर और हृदयग्राहिणी है। 'खुसबोय', 'दराज', ऐसे भोंड़े शब्द, 'खुसाल खुसबाही सौं' ऐसे बेहूदा वाक्य कहीं नहीं मिलते। बादशाही दरबार आदि के वर्णन में 'अरकान', 'बारिगह' आदि कुछ शब्द आए हैं पर वे प्रसंग के विचार से नहीं खटकते। जायसी की भाषा बहुत ही मधुर है पर उसका माधुर्य निराला है। वह माधुर्य 'भाषा' का माधुर्य है, संस्कृत का माधुर्य नहीं। वह संस्कृत की कोमलकान्त पदावली पर अवलम्बित नहीं। उसमें अवधी अपनी निज को स्वाभाविक मिठास लिए हुए है। 'मंजु', 'अमंद' आदि की चाशनी उसमें नही है। जायसी की भाषा और तुलसी की भाषा में यह बड़ा भारी अन्तर है। जायसी की पहुँच अवध में प्रचलित लोकभाषा के भीतर बहते हुए माधुर्यस्रोत तक ही थी, पर गोस्वामीजी की पहुँच दीर्घ संस्कृतपरंपरा द्वारा परिपक्व चाशनी के भांडागार तक भी पूरी-पूरी थी। दोनों के भिन्न प्रकार के माधुर्य का अनुमान नीचे उध्दृत चौपाइयों से हो सकता है- (1) जब हुँत कहिगा पंखि सँदेसी । सुनिउँ की आवा है परदेसी॥ तब हुँत तुम्ह बिनु रहै न जीऊ । चातक भइउँ कहत 'पिउ पीऊ'॥ भइउँ चकोरि सो पंथ निहारी । समुद सीप जस नयन पसारी॥ भइउँ विरह जरि कोइलि कारी । डार डार जिमि कूकि पुकारी॥ -जायसी (2) अमिय मूरि मय चूरन चारू । समन सकल भवरुज परिवारू॥ सुकृत संभु तन बिमल विभूती । मंजुल मंगल मोद प्रसूती॥ जन मन मंजु मुकुर मल हरनी । किए तिलक गुनगन बस करनी॥ श्रीगुरुपद नख मनि गन जोती । सुमिरत दिव्य दृष्टि हिय होती॥ -तुलसी यदि गोस्वामीजी ने अपने 'मानस' की रचना ऐसी ही भाषा में की होती जैसी कि इन चौपाइयों की है- कोउ नृप होउ हमै का हानी । चेरि छाँड़ि अब होब कि रानी॥ जारै जोग सुभाउ हमारा । अनभल देखि न जाइ तुम्हारा॥ तो उनकी भाषा 'पद्मावत' की ही भाषा होती और यदि जायसी ने सारी 'पद्मावत' की रचना ऐसी भाषा में की होती जैसी कि इस चौपाई की है- उदधि आइ तेइ बंधन कीन्हा । हति दसमाथ अमरपद दीन्हा॥ तो उसकी और 'रामचरितमानस' की एक भाषा होती। पर जायसी में इस प्रकार की भाषा कहीं ढूँढ़ने से एकाध जगह मिल सकती है। तुलसीदासजी में ठेठ अवधी की मधुरता भी प्रसंग के अनुसार जगह जगह मिलती है। सारांश यह कि तुलसीदासजी को दोनों प्रकार की भाषाओं पर अधिकार था और जायसी को एक ही प्रकार की भाषा पर। एक ही ढंग की भाषा की निपुणता उनकी अनूठी थी। अवधी की खालिस, बेमेल मिठास के लिए 'पद्मावत' का नाम बराबर लिया जाएगा। संक्षिप्त समीक्षा अब तक जो कुछ लिखा गया उसमें जायसी की इन विशेषताओं और गुणों की ओर मुख्यत: ध्यान गया होगा- (1) विशुद्ध प्रेममार्ग का विस्तृत प्रत्यक्षीकरण -लौकिक प्रेमपथ के त्याग, कष्टसहिष्णुता तथा विघ्नबाधाओं का चित्रण करके कवि ने भगवत्प्रेम की उस साधना का स्वरूप दिखाया है जो मनुष्य की वृत्तियों को विश्व का पालन और रंजन करनेवाली उस परम वृत्ति में लीन कर सकती है। (2) प्रेम की अत्यन्त व्यापक और गूढ़ भावना -लौकिक प्रेम के उत्कर्ष द्वारा जायसी को भगवत्प्रेम की गम्भीरता का निरूपण करना था इससे वियोगवर्णन में सारी सृष्टि वियोगिनी की अनुभूति में योग देती दिखाई गई है। जिस प्रेम का आलम्बन इतना बड़ा है-अनन्त और विश्वव्यापक है-उसके अनुरूप प्रेम की व्यंजना के लिए एक मनुष्य का क्षुद्र हृदय पर्याप्त नहीं जान पड़ता; इससे कहीं कहीं वियोगिनी सारी सृष्टि के प्रतिनिधि के रूप में दिखाई पड़ती है। उसकी 'प्रेमपीर' सारे विश्व की 'प्रेमपीर' सी लगती है। (3) मर्मस्पर्शिनी भावव्यंजना - प्रेम या रति भाव के अतिरिक्त स्वामिभक्ति, वीरदर्प, पतिव्रत तथा और छोटे छोटे भावों की व्यंजना अत्यन्त स्वाभाविक और हृदयग्राही रूप में जायसी ने कराई है; जिससे उनके हृदय की उदात्त वृत्ति और कोमलता का परिचय मिलता है। (4) प्रबंधासौष्ठव -पद्मावत की कथावस्तु का प्रवाह स्वाभाविक है। केवल कुतूहल उत्पन्न करने के लिए घटनाएँ इस प्रकार कहीं नहीं मोड़ी गई हैं जिससे बनावट या अलौकिकता प्रकट हो। किसी गुण का उत्कर्ष दिखाने के लिए भी घटना में अस्वाभाविकता जायसी ने नहीं आने दी है। दूसरी बात यह है कि वर्णन के लिए जायसी ने मनुष्यजीवन के मर्मस्पर्शी स्थलों को पहचानकर रखा है। परिणाम वैसे ही दिखाए गए हैं जैसे संसार में दिखाई पड़ते हैं। कर्मफल के उपदेश के लिए उनकी योजना नहीं की गई है। पद्मावत में राघवचेतन ही का चरित्र खोटा दिखाया गया है; पर उसकी कोई दुर्गति कवि ने नहीं दिखाई। राघव का उतना ही वृत्तान्त आया है जितने का घटनाओं को 'कार्य' की ओर अग्रसर करने में योग है। (5) वर्णन की प्रचुरता -जायसी के वर्णन बहुत विस्तृत हैं-विशेषत: सिंहलद्वीप, नखशिख, भोज, बारहमासा, चढ़ाई और युद्ध के-जिनसे उनकी जानकारी और वस्तुपरिचय का अच्छा पता लगता है। कहीं तो इतनी वस्तुएँ गिनाई गई हैं कि जी ऊब जाता है। (6) प्रस्तुत अप्रस्तुत का सुंदर समन्वय -पद्मावत की अन्योक्तियों और समासोक्तियों में प्रस्तुत अप्रस्तुत का जैसा सुन्दर समन्वय देखा जाता है वैसा हिन्दी के कम कवियों में पाया जाता है। अप्रस्तुत की व्यंजना के लिए जो प्रस्तुत वस्तुएँ काम में लाई गई हैं और प्रस्तुत की व्यंजना के लिए जो अप्रस्तुत वस्तुएँ सामने रखी गई हैं, वे आवश्यकतानुसार कहीं बोधवृत्ति में सहायक होती हैं और कहीं भावों के उद्दीपन में। योगसाधकों के मार्ग की जो व्यंजना चित्तौरगढ़ के प्रस्तुत वर्णन द्वारा कराई गई है, वह रोचक चाहे न हो पर ज्ञानप्रद अवश्य है। इसी प्रकार 'कँवल जो बिगसा मानसर बिनु जल गएउ सुखाइ' वाले दोहे में जो जल बिना सूखे कमल का अप्रस्तुत दृश्य सामने रखा गया है वह सौन्दर्य की भावना के साथ-साथ दया और सहानुभूति के भाव को उद्दीप्त करता है। (7) ठेठ अवधी का माधुर्य -जायसी ने संस्कृत के सुन्दर पदों की सहायता के बिना ठेठ अवधी का भोला-भाला माधुर्य दिखाया है, इसका वर्णन पूर्व प्रकरण में आ चुका है। जिस प्रकार जायसी के उपर्युक्त गुणों और विशेषताओं की ओर पाठक का ध्यान गए बिना नहीं रह सकता उसी प्रकार इन नीचे लिखे त्रुटियों की ओर भी- (1) पुनरुक्ति -'पद्मावत' में एक ही भाव, एक ही उपमा, कहीं कहीं तो एक ही वाक्य में न जाने कितनी जगह और कितनी बार आई है। सूर और चाँद के जोड़े से तो शायद ही कोई पृष्ठ खाली मिले। पद्मावती के नखशिख का जो वर्णन सूए ने रत्नसेन से किया है, प्राय: वही राघवचेतन अलाउद्दीन के सामने दुहराता है। प्राय: वे उपमाएँ और उत्प्रेक्षाएँ फिर आई हैं; कुछ थोड़ी सी दूसरी हों तो हों। सूखे सरोवर के फटने का भाव तीन जगह लाया गया है। इसी प्रकार और बहुत-सी पुनरुक्तियाँ हैं जिनके कारण पाठकों को कभी कभी विरक्ति हो जाती है। (2) अरोचक और अनपेक्षित प्रसंगों का सन्निवेश -रत्नसेन पद्मावती समागम के वर्णन में राजा का रसायनी प्रलाप और शतरंज के मोहरों और चालों की बंदिश, नागमती पद्मावती विवाद के भीतर फूल पौधों के नामों की अनावश्यक योजना इसी प्रकार की है। सोलह श्रृंगार और बारह आभरणों का वर्णन तथा ज्योतिष का लम्बा- चौड़ा यात्राविचार केवल जानकारी प्रकट करने के लिए जोड़े हुए जान पड़ते हैं। ये किसी काव्य के प्रकृत अंग कदापि नहीं हो सकते। पद्मिनी, चित्रिणी आदि चार प्रकार की स्त्रियों के वर्णन भी कामशास्त्र के ग्रन्थ में ही उपयुक्त हो सकते हैं। काव्य कामशास्त्र नहीं है। (3) वर्णनों में वस्तुनामावली का अरोचक विस्तार - रत्नसेन के विवाह और बादशाह की दावत के वर्णन में पकवानों और व्यंजनों की लम्बी सूची, बगीचे के वर्णन में पौधों के नाम ही नाम, युद्ध यात्रा आदि के वर्णन में घोड़ों की जातियों की गिनती से पाठक का जी ऊबने लगता है। वर्णन का अर्थ गिनती नहीं है। (4) अनुचितार्थत्व - कई जगह श्रृंगार के प्रसंग में नायक रत्नसेन रावण कहा गया है-ऐसा हिन्दी के कुछ सूफी कवियों ने भी, शायद 'रावण' का अर्थ रमण करनेवाला मानकर, किया है। पर इस शब्द से 'रुलानेवाले' रावण की ओर ही ध्यान जाता है। रावण बड़ा भारी प्रतापी और शूरवीर रहा हो, पर मनोहर नायक के रूप में कवि परम्परा से उसकी प्रसिद्धि नहीं है। वह हीन और दुष्ट पात्र ही प्रसिद्ध है। (5) न्यूनपदत्व - भाषा पर विचार करते समय विभक्तियों, कारकचिह्नों, सम्बन्धवाचक सर्वनामों और अव्ययों के लोप के ऐसे उदाहरण दिए जा चुके हैं जिनके कारण अर्थ में गड़बड़ी होती है। (6) च्युतसंस्कृति - इसका एक उदाहरण दिया जाता है- दसन देखि कै बीजु लजाना। हिन्दी में चरित्रकाव्य बहुत थोड़े हैं। व्रजभाषा में तो कोई ऐसा चरितकाव्य नहीं जिसने जनता के बीच प्रसिद्धि प्राप्त की हो। पुरानी हिन्दी के पृथ्वीराजरासो, बीसलदेवरासो, हम्मीररासो आदि वीरगाथाओं के पीछे चरितकाव्य की परम्परा हमें अवधी भाषा में मिलती है। व्रजभाषा में केवल ब्रजवासीदास के व्रजविलास का कुछ प्रचार कृष्णभक्तों में हुआ, शेष रामरसायन आदि जो दो एक प्रबन्धकाव्य लिखे गए वे जनता को कुछ भी आकर्षित न कर सके। केशव की रामचंद्रिका का काव्यप्रेमियों में आदर रहा पर इसमें प्रबन्धकाव्य के वे गुण नहीं हैं जो होने चाहिए। चरितकाव्य में अवधी भाषा को ही सफलता हुई और अवधी साहित्य में हम जायसी के उच्च स्थान का अनुमान कर सकते हैं। बिना किसी निर्दिष्ट विवेचनपद्धति के यों ही कवियों की श्रेणी बाँधना और एक कवि को दूसरे कवि से छोटा या बड़ा कहना हम एक बहुत भोंड़ी बात समझते हैं। जायसी के स्थान का निश्चय करने के लिए हमें चाहिए कि हम पहले अलग- अलग क्षेत्र निश्चित कर लें। सुभीते के लिए यहाँ हम हिन्दी काव्य के दो ही क्षेत्रविभाग करके चलते हैं -प्रबन्ध क्षेत्र और मुक्तक क्षेत्र। इन दोनों क्षेत्रों के भीतर भी कई उपविभाग हो सकते हैं। यहाँ मुक्तक क्षेत्र से कोई प्रयोजन नहीं जिसके अन्तर्गत केशव, बिहारी, भूषण, देव, पद्माकर आदि कवि आते हैं। प्रबन्ध क्षेत्र के भीतर हम कह चुके हैं, दो काव्य सर्वश्रेष्ठ हैं -'रामचरितमानस' और 'पद्मावत'। दोनों में 'रामचरितमानस' का पद ऊँचा है, यह हम स्थान स्थान पर दिखाते भी आए हैं और सबको स्वीकृत भी होगा। अत: समग्र प्रबन्धक्षेत्र के विचार से हम कह सकते हैं कि प्रबन्धक्षेत्र में जायसी का स्थान तुलसी से दूसरा है। और जीवनगाथा-और इस व्यवस्था के अनुसार रासो आदि को वीरगाथा के अन्तर्गत, मृगावती, पद्मावती आदि को प्रेमगाथा के अन्तर्गत तथा रामचरिमानस को जीवनगाथा के अन्तर्गत रखते हैं तो प्रेमगाथा की परम्परा के भीतर (जिसमें कुतुबन, उसमान, नूरमुहम्मद आदि हैं) जायसी का नम्बर सबसे ऊँचा ठहरता है। मृगावती, चन्द्रावती, चित्रवली आदि को बहुत कम लोग जानते हैं, पर 'पद्मावत' हिन्दी साहित्य का एक जगमगाता रत्न है। यदि कोई इसके विचार का आग्रह करे कि प्रबन्ध और मुक्तक इन दो क्षेत्रों में कौन क्षेत्र अधिक महत्त्व का है, किस क्षेत्र में कवि की सहृदयता और भावुकता की पूरी परख हो सकती है, तो हम बार बार वही बात कहेंगे जो गोस्वामीजी की आलोचना में कह आए हैं अर्थात् प्रबन्ध के भीतर आई हुई मानवजीवन की भिन्न भिन्न दशाओं के साथ जो अपने हृदय का पूर्ण सामंजस्य दिखा सके वही पूरा और सच्चा कवि है। प्रबन्ध क्षेत्र में तुलसीदासजी का जो सर्वोच्च आसन है, उसका कारण यह है कि वीरता, प्रेम आदि जीवन का कोई एक ही पक्ष न लेकर उन्होंने सम्पूर्ण जीवन को लिया है और उसके भीतर आनेवाली अनेक दशाओं के प्रति अपनी गहरी अनुभूति का परिचय दिया है। जायसी का क्षेत्र तुलसी की अपेक्षा परिमित है पर प्रेमवेदना उनकी अत्यन्त गूढ़ है।
परिशिष्ट : मलिक मुहम्मद जायसी
ये प्रसिद्ध सूफी फकीर शेख मोहिदी (मुहीउद्दीन) के शिष्य थे और जायस में रहते थे। इनकी एक छोटी सी पुस्तक 'आखिरी कलाम' के नाम से फारसी अक्षरों में छपी मिलती है। यह सन् 936 हिजरी में (सन् 1528 ईसवी के लगभग) बाबर के समय में लिखी गई थी। इसमें बाबर बादशाह की प्रशंसा है। इस पुस्तक में मलिक मुहम्मद जायसी ने अपने जन्म के सम्बन्ध में लिखा है। भा अवतार मोर नौ सदी। तीस बरस ऊपर कवि बदी॥ इन पंक्तियों का ठीक तात्पर्य नहीं खुलता। जन्म काल 900 हिजरी मानें तो दूसरी पंक्ति का यह अर्थ निकलेगा कि जन्म से 30 वर्ष पीछे जायसी कविता करने लगे और इस पुस्तक के कुछ पद्य उन्होंने बनाए। जायसी का सबसे प्रसिद्ध ग्रन्थ है 'पदमावत' जिसका निर्माणकाल कवि ने इस प्रकार दिया है- सन नौ सै सत्ताइस अहा। कथा अरंभ बैन कवि कहा॥ इसका अर्थ होता है कि पदमावत की कथा के प्रारम्भिक वचन (अरम्भबैन) कवि ने 927 हिजरी (सन् 1520 ई. के लगभग) में कहे थे। पर ग्रन्थारम्भ में कवि ने मसनवी की रूढ़ि के अनुसार 'शाहेवक्त शेरशाह' की प्रशंसा की है- शेरशाह दिल्ली सुलतानू । चारहु खंड तपै जस भानू॥ ओही छाज राज और पाटू । सब राजा भुइँ धरा ललाटू॥ शेरशाह के शासन का आरम्भ 947 हिजरी अर्थात् सन् 1540 ई. से हुआ था। इस दशा में यही संभव जान पड़ता है कि कवि ने कुछ थोड़े से पद्य तो सन् 1520 ई. में ही बनाए थे, पर ग्रन्थ को 19 या 20 वर्ष पीछे शेरशाह के समय में पूरा किया। 'पद्मावत' का एक बँगला अनुवाद अराकान राज्य के वजीर मगन ठाकुर ने सन् 1650 ई. के आसपास आलोउजाला नामक एक कवि से कराया था। उसमें भी 'नव सै सत्ताइस' ही पाठ माना गया है- शेख मुहम्मद जति जखन रचिल ग्रन्थ संख्या सप्तविंश नवशत। पद्मावत की हस्तलिखित प्रतियाँ अधिकतर फारसी अक्षरों में मिली हैं जिसमें 'सत्ताइस' और 'सैंतालीस' प्राय: एक ही तरह लिखे जाएँगे। इसमें कुछ लोगों को यह भी अनुमान है कि 'सैंतालिस' को लोगों ने भूल से सत्ताइस पढ़ लिया है। जायसी अपने समय के सिद्ध फकीरों में गिने जाते थे। अमेठी के राजघराने में इनका बहुत मान था। जीवन के अंतिम दिनों में जायसी अमेठी से दो मील दूर एक जंगल में रहा करते थे। वहीं इनकी मृत्यु हुई। काजी नसरुद्दीन हुसैन जायसी ने, जिन्हें अवध के नवाब शुजाउद्दौला से सनद मिली थी, अपनी याददाश्त में जायसी का मृत्युकाल 4 रजब 949 हिजरी लिखा है। यह काल कहाँ तक ठीक है, नहीं कहा जा सकता। ये काने और देखने में कुरूप थे। कहते हैं कि शेरशाह इनके रूप को देखकर हँसा था। इस पर यह बोले 'मोहिका हँसेसि कि कोहरहि?' इनके समय में ही इनके शिष्य फकीर इनके बनाए भावपूर्ण दोहे, चौपाइयाँ गाते फिरते थे। इन्होंने तीन पुस्तकें लिखीं -एक तो प्रसिद्ध 'पद्मावत', दूसरी 'अखरावट', तीसरी 'आखिरी कलाम'। 'अखरावट' में वर्णमाला के एक एक अक्षर को लेकर सिद्धान्त सम्बन्धी तत्त्वों से भरी चौपाइयाँ कही गई हैं। इस छोटी सी पुस्तक में ईश्वर, सृष्टि, जीव, ईश्वर प्रेम आदि विषयों पर विचार प्रकट किए गए हैं। 'आखिरी कलाम' में कयामत का वर्णन है। जायसी की अक्षय कीर्ति का आधार है 'पद्मावत', जिसके पढ़ने से यह प्रकट हो जाता है कि जायसी का हृदय कैसा कोमल और 'प्रेम की पीर' से भरा हुआ था। क्या लोकपक्ष में, क्या अध्यात्मपक्ष में दोनों ओर उसकी गूढ़ता, गम्भीरता और सरसता विलक्षण दिखाई देती है। कबीर ने अपनी झाड़ फटकार के द्वारा हिन्दुओं और मुसलमानों के कट्टरपन को दूर करने का जो प्रयास किया वह अधिकतर चिढ़ानेवाला सिद्ध हुआ, हृदय को स्पर्श करनेवाला नहीं। मनुष्य मनुष्य के बीच जो रागात्मक सम्बन्ध है वह उसके द्वारा व्यक्त न हुआ। अपने नित्य के जीवन में जिस हृदयाभास का अनुभव मनुष्य कभी कभी किया करता है, उसकी अभिव्यंजना उससे न हुई। कुतबन, जायसी आदि इन प्रेम कहानी के कवियों ने प्रेम का शुद्ध मार्ग दिखाते हुए उन सामान्य जीवन दशाओं को सामने रखा जिनका मनुष्यमात्र के हृदय पर एक सा प्रभाव दिखाई पड़ता है। हिन्दू हृदय और मुसलमान हृदय आमने सामने करके अजनबीपन मिटानेवालों में इन्हीं का नाम लेना पड़ेगा। इन्होंने मुसलमान होकर हिन्दुओं की कहानियाँ हिन्दुओं की ही बोली में पूरी सहृदयता से कहकर उनके जीवन की मर्मस्पर्शिनी अवस्थाओं के साथ अपने उदार हृदय का पूर्ण सामंजस्य दिखा दिया। कबीर ने केवल भिन्न प्रतीत होती हुई परोक्ष सत्ता की एकता का आभास दिया था। प्रत्यक्ष जीवन की एकता का दृश्य सामने रखने की आवश्यकता बनी थी। यह जायसी द्वारा पूरी हुई। 'पद्मावत' में प्रेमगाथा की परम्परा पूर्ण प्रौढ़ता को प्राप्त मिलती है। यह उस परम्परा में सबसे अधिक प्रसिद्ध ग्रन्थ है। इसकी कहानियों में भी विशेषता है। इसमें इतिहास और कल्पना का योग है। चित्तौर की महारानी पद्मिनी या पद्मावती का इतिहास हिन्दू हृदय के मर्म को स्पर्श करनेवाला है। जायसी ने यद्यपि इतिहास प्रसिद्ध नायक और नायिका ली है पर उन्होंने अपनी कहानी का रूप वही रखा है जो कल्पना के उत्कर्ष द्वारा साधारण जनता के हृदय में प्रतिष्ठित था। इस रूप में इस कहानी का पूर्वार्द्ध तो बिलकुल कल्पित है, और उत्तरार्द्ध ऐतिहासिक आधार पर है। पद्मावती कथा संक्षेप में इस प्रकार है- सिंहल द्वीप के राजा गंधर्वसेन की कन्या पद्मावती रूप और गुण में जगत् में अद्वितीय थी। उसके योग्य वर कहीं न मिलता था। उसके पास हीरामन नाम का एक सूआ था जिसका वर्ण सोने के समान था और जो पूरा वाचाल और पंडित था। एक दिन वह पद्मावती से उसके वर न मिलने के विषय में कुछ कह रहा था कि राजा ने सुन लिया और बहुत कोप किया। सूआ राजा के डर से एक दिन उड़ गया। पद्मावती ने सुनकर बहुत विलाप किया। सूआ वन में उड़ता उड़ता एक बहेलिया के हाथ में पड़ गया जिसने बाजार में लाकर उसे चित्तौर के एक ब्राह्मण के हाथ बेच दिया। उस ब्राह्मण को एक लाख देकर चित्तौर के राजा रत्नसेन ने उसे ले लिया। धीरे धीरे रत्नसेन उसे बहुत चाहने लगा। एक दिन जब राजा शिकार को गया तब उसकी रानी नागमती ने, जिसे अपने रूप पर बड़ा गर्व था, आकर सूए से पूछा कि 'संसार में मेरे समान सुन्दरी भी कहीं है?' इस पर सूआ हँसा और उसने सिंहल की पद्मिनी का वर्णन करके कहा कि उसमें और तुममें दिन और अंधेरी रात का अन्तर है। रानी ने इस भय से कि कहीं यह सूआ राजा से भी न पद्मिनी के रूप की प्रशंसा करे, उसे मारने की आज्ञा दे दी। पर चेरी ने उसे राजा के भय से मारा नहीं, अपने घर छिपा रखा। लौटने पर जब सूए के बिना राजा रत्नसेन बहुत व्याकुल और क्रुद्ध हुआ तब सूआ लाया गया और उसने सारी व्यवस्था कह सुनाई। पद्मिनी के रूप का वर्णन सुनकर राजा मूर्च्छित हो गया और अन्त में वियोग से व्याकुल होकर उसकी खोज में घर से जोगी होकर निकल पड़ा। उसके आगे आगे राह दिखाने वाला वही हीरामन सूआ था और साथ में सोलह हजार कुँवर जोगियों के वेश में थे। कलिंग से जोगियों का यह दल बहुत से जहाजों में सवार होकर सिंहल की ओर चला और अनेक कष्ट झेलने के उपरान्त सिंहल पहुँचा। वहाँ पहुँचने पर राजा तो शिव के एक मंदिर में जोगियों के साथ बैठकर पद्मावती का ध्यान और जप करने लगा और हीरामन सूए ने जाकर पद्मावती से यह सब हाल कहा। राजा के प्रेम की सत्यता के प्रभाव से पद्मावती प्रेम में विकल हुई। श्रीपंचमी के दिन पद्मावती शिवपूजन के लिए उस मंदिर में गई, पर राजा उसके रूप को देखते ही मूर्च्छित हो गया, उसका दर्शन अच्छी तरह न कर सका। जागने पर राजा बहुत अधीर हुआ। इस पर पद्मावती ने कहला भेजा कि समय पर तो तुम चूक गए; अब तो इस दुर्गम सिंहलगढ़ पर चढ़ सको तभी मुझे देख सकते हो। शिव से सिद्धि प्राप्त कर राजा रात को जोगियों सहित गढ़ में घुसने लगा पर सवेरा हो गया और पकड़ा गया। राजा गंधर्वसेन की आज्ञा से रत्नसेन को सूली देने ले जा रहे थे कि इतने में सोलह हजार जोगियों ने गढ़ को घेर लिया। महादेव, हनुमान, आदि सारे देवता जोगियों की सहायता के लिए आ गए। गंधर्वसेन की सारी सेना हार गई। अन्त में जोगियों के बीच शिव को पहचानकर गंधर्वसेन उनके पैरों पर गिर पड़ा और बोला कि 'पद्मावती आपकी है जिसको चाहे दीजिए।' इस प्रकार रत्नसेन के साथ पद्मावती का विवाह हो गया और दोनों चित्तौरगढ़ आ गए। रत्नसेन की सभा में राघवचेतन नामक एक पंडित था जिसे यक्षिणी सिद्ध थी। और पंडितों को नीचा दिखाने के लिए उसने एक दिन प्रतिपदा को द्वितीया कहकर यक्षिणी के बल से चंद्रमा दिखा दिया। जब राजा को यह कार्रवाई मालूम हुई तब उसने राघवचेतन को देश से निकाल दिया। राघव राजा से बदला लेने और भारी पुरस्कार की आशा से दिल्ली के बादशाह अलाउद्दीन के दरबार में पहुँचा और उसने दान में पाए हुए पद्मावती के कंगन को दिखाकर उसके रूप को संसार के ऊपर बताया। अलाउद्दीन ने पद्मिनी को भेज देने के लिए राजा रत्नसेन को पत्र भेजा, जिसे पढ़कर राजा अत्यन्त क्रुद्ध हुआ और लड़ाई की तैयारी करने लगा। कई वर्ष तक अलाउद्दीन चित्तौर घेरे रहा पर उसे तोड़ न सका। अन्त में उसने छलपूर्वक सन्धि का प्रस्ताव भेजा। राजा ने उसे स्वीकार करके बादशाह की दावत की। राजा के साथ शतरंज खेलते समय अलाउद्दीन ने पद्मिनी के रूप की एक झलक सामने रखे हुए एक दर्पण में देख पाई, जिसे देखते ही वह मूर्च्छित होकर गिर पड़ा। प्रस्थान के दिन जब राजा बादशाह को बाहरी फाटक तक पहुँचाने गया तब अलाउद्दीन के छिपे हुए सैनिकों द्वारा पकड़ लिया गया और दिल्ली पहुँचाया गया। पद्मिनी को जब यह समाचार मिला तब वह बहुत व्याकुल हुई; पर तुरन्त एक वीर क्षत्राणी के समान अपने पति के उद्धार का उपाय सोचने लगी। गोरा, बादल नामक दो वीर क्षत्रिय सरदार 700 पालकियों में सशस्त्र सैनिक छिपाकर दिल्ली पहुँचे और बादशाह के पास यह संवाद भेजा कि पद्मिनी अपने पति से थोड़ी देर मिलकर तब आपके हरम में जाएगी। आज्ञा मिलते ही एक ढकी पालकी राजा के कोठरी के पास रखी गई और उसमें से एक लोहार ने निकलकर राजा की बेड़ियाँ काट दी। रत्नसेन पहले से ही तैयार एक घोड़े पर सवार होकर निकल आए। शाही सेना पीछे आते देखकर वृद्ध गोरा तो कुछ सिपाहियों के साथ उस सेना को रोकता रहा और बादल रत्नसेन को लेकर चित्तौर पहुँच गया। चित्तौर आने पर पद्मिनी ने रत्नसेन से कुम्भलनेर के राजा देवपाल द्वारा दूती भेजने की बात कही जिसे सुनते ही राजा रत्नसेन ने कुम्भलनेर को जा घेरा। लड़ाई में देवपाल और रत्नसेन दोनों मारे गए। रत्नसेन का शव चित्तौर लाया गया। उसकी दोनों रानियाँ नागमती और पद्मावती हँसते हँसते पति के शव के साथ चिता में बैठ गईं। पीछे जब सेना सहित अलाउद्दीन चित्तौर में पहुँचा तब वहाँ राख के ढेर के सिवा कुछ न मिला। जैसा कि कहा जा चुका है प्रेमगाथा की परम्परा में पद्मावत सबसे प्रौढ़ और सरस है। प्रेममार्गी सूफी कवियों की और कथाओं से इस कथा में यह विशेषता है कि इसके ब्योरों से भी साधना के मार्ग, उसकी कठिनाइयों और सिद्धि के स्वरूप आदि की जगह जगह व्यंजना होती है, जैसा कि कवि ने स्वयं ग्रन्थ की समाप्ति पर कहा है- तन चितउर मन राजा कीन्हा । हिय सिंघल, बुधि, पदमिनी चीन्हा॥ गुरु सुआ जेइ पंथ देखावा । बिनु गुरु जगत को निरगुन पावा॥ नागमती यह दुनिया धंधा । बाँचा सोइ न एहि चित बंधा ॥ राघवदूत सोई सैतानू । माया अलाउदीं सुलतानू॥ यद्यपि पद्मावत की रचना संस्कृत प्रबन्धकाव्यों की सर्गबद्ध पद्धति पर नहीं है, फारसी की मसनवी शैली पर है, पर श्रृंगार वीर आदि के वर्णन चली आती हुई भारतीय काव्यपरम्परा के अनुसार ही है। इसका पूर्वार्द्ध तो एकान्त प्रेममार्ग का ही आभास देता है, पर उत्तरार्द्ध में लोकपक्ष का भी विधान है। पद्मिनी के रूप का जो वर्णन जायसी ने किया है वह पाठक को सौन्दर्य की लोकोत्तर भावना में मग्न करने वाला है। अनेक प्रकार के अलंकारों की योजना उसमें पाई जाती है। कुछ पद्य देखिए- सरवर तीर पदमिनी आई । खोंपा छोरि केस मुकलाई॥ ससि मुख, अंग मलयगिरि बासा । नागिन झाँपि लीन्ह चहुँ पासा॥ ओनई घटा परी जग छाँहा । ससि के सरन लीन्ह जनु राहा॥ भूलि चकोर दीठि मुख लावा । मेघ घटा महँ चंद देखावा॥ पद्मिनी के रूप के वर्णन में जायसी ने कहीं कहीं उस अनन्त सौन्दर्य की ओर, जिसके विरह में यह सारी सृष्टि व्याकुल सी है, बड़े सुन्दर संकेत किए है। - बरुनी का बरनौ इमि बनी । साधे बान जानु दुइ अनी॥ उन बानन्ह अस को जो न मारा । बेधि रहा सगरौ संसारा॥ गगन नखत जो जाहिं न गने । वे सब बान ओहि कै हने॥ धरती बान बेधि सब राखी । साखी ठाढ़ देहिं सब साखी॥ रोवँ रोवँ मानुष तन ठाढ़े । सूतहि सूत बेध अस गाढ़े॥ बरुनि बान अस ओपहँ , बेधे रन बन ढाख॥ सौजहिं तन सब रोवाँ , पंखिहि तन सब पाँख॥ इसी प्रकार योगी रत्नसेन के कठिन मार्ग के वर्णन में साधक के मार्ग के विघ्नों (काम क्रोध आदि विकारों) की व्यंजना की है- ओहि मिलान जौ पहुँचै कोई । तब हम कहब पुरुष भल होई॥ है आगे परबत कै बाटा । विषय पहार अगम सुठि घाटा॥ बिच बिच नदी खोह औ नारा । ठाँवहि ठाँव बैठ बटपारा॥
मलिक मुहम्मद जायसी भाग - 1 // भाग - 2 // भाग - 3 // भाग - 4 // भाग - 5 // भाग - 6 // भाग - 7 // भाग - 8 // भाग - 9 //
गोस्वामी तुलसीदास
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