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 आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ग्रंथावली -1

मलिक मुहम्मद जायसी

स्वभावचित्रण

आरम्भ में ही हम यह कह देना अच्छा समझते हैं कि जायसी का ध्यान स्वभावचित्रण की ओर वैसा न था। 'पदमावत' में हम न तो किसी व्यक्ति के ही स्वभाव का ऐसा प्रदर्शन पाते हैं जिसमें कोई व्यक्तिगत विलक्षणता पूर्ण रूप से लक्षित होती हो, और न किसी वर्ग या समुदाय की ही विशेषताओं का विस्तृत प्रत्यक्षीकरण हमें मिलता है। मनुष्यप्रकृति के सूक्ष्म निरीक्षण का प्रमाण हमें जायसी के प्रबन्ध के भीतर नहीं मिलता। राम, लक्ष्मण, भरत और परशुराम आदि के चरित्रों में जैसी व्यक्तिगत विशेषताएँ तथा कैकेयी, कौशल्या और मंथरा आदि के व्यवहारों में जैसी वर्गगत विशेषताएँ गोस्वामी तुलसीदासजी हमारे सामने रखते हैं, वैसी विभिन्न विशेषताएँ जायसी अपने पात्रों के द्वारा नहीं सामने लाते। इतना होने पर भी कोई यह नहीं कह सकता कि 'पदमावत' में मानवी प्रकृति के चित्रण का एकदम अभाव है।

    प्रबन्ध काव्य में भाव की व्यंजना पात्रों के वचन और कर्म द्वारा ही होती है, उनके स्वगत भावों और विचारों का उल्लेख बहुत कम मिलता है। 'पदमावत' में प्रबन्ध के आदि से लेकर अन्त तक चलनेवाले पात्र तीन मिलते है। -पद्मावती, रत्नसेन और नागमती। इनमें से किसी के चरित्र में कोई ऐसी व्यक्तिगत विशेषता कवि ने नहीं रखी है जिसे पकड़कर हम इस बात का विचार करें कि उस विशेषता का निर्वाह अनेक अवसरों पर हुआ है या नहीं। इन्हें हम प्रेमी और पति पत्नी के रूप में ही देखते हैं, अपनी किसी व्यक्तिगत विशेषता का परिचय देते नहीं पाते। अत: इनके सम्‍बन्‍ध में चरित्रनिर्वाह का एक प्रकार से प्रश्न ही नहीं रह जाता। राजा रत्नसेन में हम जो कष्टसहिष्णुता, धीरता या साहस इत्यादि देखते हैं वे कोई व्यक्तिगत विशिष्ट लक्षण नहीं जान पड़ते, बल्कि सब सच्चे प्रेमियों का आदर्श पूरा करते पाए जाते हैं। वियोग या  विपत्ति की दशा में उसी रत्नसेन को आत्मघात करने को तैयार देखते हैं। पद्मावती भी चित्तौर आने से पहले तक तो आदर्श प्रेमिका के रूप में दिखाई पड़ती है और चित्तौर आने पर उसके सतीत्व का विकास आरम्भ होता है। नागमती को भी हम सामान्य स्‍त्रीस्वभाव से युक्त पतिपरायण हिन्दू स्‍त्री के रूप में देखते हैं। आदि से अन्त तक चलनेवाले इन तीनों पात्रों का व्यवहार या तो किसी आदर्श की पूर्ति करता है या किसी वर्ग की सामान्य प्रवृत्ति का परिचय कराता है।

    चरित्र का विधान चार रूपों में हो सकता है-(1) आदर्श रूप में, (2) जातिस्वभाव के रूप में, (3) व्यक्तिस्वभाव के रूप में, और (4) सामान्य स्वभाव के रूप में। अत: जिन पात्रों के चरित्र का हम विवेचन करेंगे उनके सम्‍बन्‍ध में पहले यह देखेंगे कि उनके चरित्रों का चित्रण किन किन रूपों में हुआ है। जो चार रूप पीछे कहे गए हैं, उनमें सामान्य स्वरूप का चित्रण तो चरित्रचित्रण के अन्तर्गत नहीं, वह सामान्य प्रकृतिवर्णन के अन्तर्गत है, जिसे पुराने ढंग के आलंकारिक 'स्वभावोक्ति' कहेंगे। आदर्श चित्रण के सम्‍बन्‍ध में एक बात ध्‍यान देने की यह है कि जायसी का आदर्श चित्रण एक देशव्यापी है। तुलसीदासजी के समान किसी सर्वांगपूर्ण आदर्श की प्रतिष्ठा का प्रयत्न उन्होंने नहीं किया है। रत्नसेन प्रेम का आदर्श है, गोरा बादल वीरता के आदर्श हैं, पर एक साथ ही शक्ति, वीरता, दया, क्षमा, शील, सौन्दर्य और विनय इत्यादि सबका कोई एक आदर्श जायसी के पात्रों में नहीं है। गोस्वामीजी का लक्ष्य था मनुष्यत्व के सर्वतोमुख उत्कर्ष द्वारा भगवान् के लोकपालक स्वरूप का आभास देना। जायसी का लक्ष्य था प्रेम का वह उत्कर्ष दिखाना जिसके द्वारा साधक अपने विशेष अभीष्ट की सिद्धि प्राप्त कर सकता है। रत्नसेन प्रेममार्ग के भीतर तो अपना सुखभोग क्या प्राण तक त्याग करने को तैयार है; पर वह ऐसा नहीं है कि प्रेममार्ग के बाहर भी उसे द्रव्य आदि का लोभ कभी स्पर्श न कर सके। प्रेममार्ग के भीतर तो उसे लड़ाई भिड़ाई अच्छी नहीं लगती, अपने साथियों के कहने पर भी वह गंधर्वसेन की सेना से लड़ना नहीं चाहता, पर अलाउद्दीन का पत्र पढ़कर वह युद्ध के उत्साह से पूर्ण हो जाता है। इसी प्रकार पद्मावती को देखिए। जहाँ तक रत्नसेन से सम्‍बन्‍ध है वहाँ तक वह त्याग की मूर्ति है, पर इसका मतलब यह नहीं है कि सपत्नी के प्रति स्वप्न में भी वह ईर्ष्‍या का भाव नहीं रखती।

    यह तो स्पष्ट ही है कि कथा का नायक रत्नसेन और नायिका पद्मावती है। अत: पहले इन्हीं दोनों चरित्रों को लेते हैं -

   रत्नसेन -नायक होने से प्राचीन पद्धति के अनुसार रत्नसेन के चरित्र में आदर्श की प्रधानता है। यद्यपि उसके व्यक्तिगत स्वभाव (जैसे, बुद्धि की अतत्परता, अदूरदर्शिता) तथा जातिगत स्वभाव (जैसे राजपूतों की प्रतिकारवासना) की भी कुछ झलक मिलती है, पर प्रधानता आदर्शप्रतिष्ठापक व्यवहारों की ही है। आदर्श प्रेम का है, और गहरे सच्चे प्रेम का। अत: उस प्रबल प्रेम के आवेग में जो कुछ करणीय अकरणीय रत्नसेन ने भी किया है उसका विचार साधारण कर्मनीति की दृष्टि से न करना चाहिए। प्रसिद्ध पाश्चात्य भाववेत्ता मनोविज्ञानी शैंड ने बहुत ठीक कहा है-'प्रत्येक भाव (रति, शोक, जुगुप्सा आदि) के कुछ अपने निज के गुण होते हैं, जिनमें से लोकनीति के अनुसार कुछ सद्गुण कहे जाते हैं, और कुछ दुर्गुण-जो उस भाव की लक्ष्यपूर्ति के लिए आवश्यक होते हैं।'1 इन गुणों का विकास भावोत्कर्ष की दृष्टि से करना चाहिए, लोकनीति की दृष्टि से नहीं। रत्नसेन अपनी विवाहिता पत्नी नागमती की प्रीति का कुछ विचार न करके घर से निकल पड़ता है और सिंहलगढ़ के भीतर चोरों की तरह सेंध देकर घुसना चाहता है। पहली बात चाहे हिन्दुओं में प्रचलित रीति के कारण बुरी न लगे पर दूसरी बात लोकदृष्टि में निंद्य अवश्य जान पड़ेगी। बात-बात में अपने सदाचार का दम्भ दिखानेवाले तो इसे 'बहुत बुरी बात' कहेंगे। पर प्रेममार्ग की नीति जाननेवाले चोरी से गढ़ में घुसनेवाले रत्नसेन को कभी चोर न कहेंगे। वे इस बात का विचार करेंगे कि वह प्रेम के लक्ष्य से कहीं च्युत तो नहीं हुआ। उनकी व्यवस्था के अनुसार रत्नसेन का आचरण उस समय निंदनीय होता जब वह अप्सरा के वेश में आई हुई पार्वती और लक्ष्मी के रूपजाल और बातों में फँसकर मार्गभ्रष्ट हो जाता। पर उस परीक्षा में वह पूरा उतरा।

    उपयुक्त विवेचन का तात्पर्य यह है कि प्रेम के साधनकाल में रत्नसेन में जो साहस, कष्टसहिष्णुता, नम्रता, कोमलता, त्याग आदि गुण तथा अधीरता, दुराग्रह और चौर्य आदि दुर्गुण दिखाई पड़ते हैं वे प्रेमजन्य हैं, वे स्वतन्त्र गुण या दोष नहीं माने जा सकते। यदि ये बातें प्रेमपथ के अतिरिक्त जीवन के दूसरे व्यवहारों में भी दिखाई गई होतीं तो इन्हें हम रत्नसेन के व्यक्तिगत स्वभाव के अन्तर्गत ले सकते थे।

    इसी प्रकार सिंहलद्वीप से लौटते समय रत्नसेन का जो अर्थलोभ कवि ने दिखाया है वह भी रत्नसेन के व्यक्तिगत स्वभाव के अन्तर्गत नहीं आता। किसी विशेष अवसर पर असाधारण सामग्री के प्रति लोभ प्रकट करते देख हम किसी को लोभी नहीं कह सकते। हाँ, उस असाधारण सामग्री के तिरस्कार से उसे निर्लोभ अवश्य कह सकते हैं। दोनों अवस्थाओं में अन्तर यह है कि एक में लोभ करना साधारण बात है और दूसरी में त्याग करना असाधारण बात है। किसी एक अवसर पर प्रदर्शित मनोवृत्ति स्वभाव के अन्तर्गत तभी समझी जा सकती है जब वह या तो साधारण से अधिक मात्रा में हो अथवा वह ऐसे शब्दों में व्यक्त की जाय जिससे उसका स्वभावगत होना

 

1. एव्री सेंटिमेंट टेंड्स टु ऐक्वायर द वरच्यूज ऐंड वाइसेज दैट आर रिक्वायर्ड बाई इट्स सिस्टम
...दोज वरच्यूज ऐंड वाइसेज आर एकाउटेड सच फ्राम टू डिफरेंट प्वाइंट्स आव व्यू फर्स्ट,
फ्राम द प्वाइंट आव व्यू आव सोसाइटी; सेकेंडली, फ्राम द प्वाइंट आव व्यू आव द सेंटिमेंट इटसेल्फ एकार्डिंग टु ए स्टैंडर्ड ह्निच इट इटसेल्फ फख्रनशेज। -फाउंडेशन्स आव कैरेक्टर।

पाया जाय। जैसे 'चाहे लोग कितना ही बुरा कहें मैं इतना धन छोड़ नहीं सकता' अथवा 'चार पैसे के लिए तो मैं कोस भर दौड़ा जाऊँ, इसमें से चार पैसे तुम्हें कैसे दे दूँ?' पर रत्नसेन के लोभ में इन दोनों में से एक बात भी नहीं पाई जाती। वह लोभवाला प्रसंग केवल इस उपदेश के निमित्त जोड़ा गया है कि बहुत अधिक सम्पत्ति देखकर बड़े बड़े त्यागियों को भी लोभ हो जाता है।

    रत्नसेन की व्यक्तिगत विशेषता की झलक हमें उस स्थान पर मिलती है जहाँ गोरा बादल के चेताने पर भी वह अलाउद्दीन के छल को नहीं समझता और उसके साथ गढ़ के बाहर तक चला जाता है। दूसरे पर छल का संदेह न करने में राजा के हृदय की उदारता और सरलता तथा नीति की दृष्टि से अपनी रक्षा का पूरा ध्‍यान न रखने में अदूरदर्शिता प्रकट होती है।

    जातिगत स्वभाव का आभास इस घटना से मिलता है। दिल्ली से छूटकर जिस दिन राजा चित्तौर आया है उसी दिन रात को पद्मिनी से देवपाल की दुष्टता का हाल सुनकर क्रोध से भर जाता है और सवेरा होते ही बिना पहले से किसी प्रकार की तैयारी किए देवपाल को बाँधने की प्रतिज्ञा करके कुम्भलनेर पर जा टूटता है। पेट में साँग घुसने पर भी वह मरने के पहले देवपाल को मारकर बाँधता है। प्रतिकार की यह प्रबल वासना राजपूतों का जातिगत लक्षण है। वीर लड़ाकी जातियों में प्रतिकारवासना बड़ी प्रबल हुआ करती है। अरबों का भी यही हाल था।

   पद्मावती -नायिका होने से पद्मावती के चरित्र में भी आदर्श ही की प्रधानता है। चित्तौर आने के पूर्व वह सच्ची प्रेमिका के रूप में दिखाई पड़ती है। जब रत्नसेन को सूली की आज्ञा होती है तब वह भी प्राण देने को तैयार होती है। इसके उपरान्त सिंहल से चित्तौर के मार्ग में ही उसमें चतुर गृहिणी के गुण का स्फुरण होने लगता है। समुद्र में जहाज नष्ट हो गए और राजा रानी बहकर दो घाट लगे। राजा का खजाना और हाथी घोड़े सब डूब गए। समुद्र के यहाँ से जब राजा रानी बिदा होकर चलने लगे तब राजा को समुद्र ने हंस, शार्दूल आदि पाँच अलभ्य वस्तुएँ दीं और रानी को लक्ष्मी ने पान के बीड़े के साथ कुछ रत्न दिए। जगन्नाथपुरी में आने पर राजा ने जब देखा कि उसके पास उन पाँच वस्तुओं के सिवा कुछ द्रव्य नहीं है तब वह मार्गव्यय की चिन्ता में पड़ गया। 1

    उसी समय पद्मावती ने वे रत्न बेचने के लिए निकाले जो लक्ष्मी ने विदा होते

 

1. यद्यपि समुद्र से विदा होते समय 'और दीन्ह बहु रतन पखाना' कवि ने कहा है पर जगन्नाथपुरी में आने पर राजा के पास कुछ भी नहीं रह गया था, यह स्पष्ट लिखा है-'राजै पदमावति सौं कहा। साँठि नाठि, किछु गाँठि न रहा॥' अब या तो यह मानें कि समुद्र का दिया हुआ रत्न द्रव्य सब रास्ते में खर्च हो गया अथवा यह मानें कि समुद्र से उन पाँच वस्तुओं के अतिरिक्त द्रव्य मिलने का प्रसंग प्रक्षिप्त है।

समय छिपाकर दिए थे। इस बात से पद्मावती की उस संचयबुद्धि का आभास मिलता है जो उत्तम गृहिणी में स्वाभाविक होती है।

    अपनी व्यक्तिगत दूरदर्शिता और बुद्धिमत्ता का परिचय पद्मावती ने निकाले हुए राघवचेतन को दान द्वारा संतुष्ट करने के प्रयत्न में दिया है। राघव को निकालने का परिणाम उसे अच्छा नहीं दिखाई पड़ा-

'ज्ञान दिस्टि धनि अगम विचारा। भल न कीन्ह अस गुनी निकारा॥

    बुद्धिमानी का दूसरा परिचय पद्मिनी ने राजा के बंदी होने पर गोरा बादल के पास जाने में दिया है। यद्यपि वे राजा से रूठे थे पर पद्मिनी ने उन्हीं को सच्चा हितैषी और सच्चा वीर पहचाना।

    जातिगत स्वभाव उस स्‍त्रीसुलभ प्रेमगर्व और सपत्नी के प्रति उस ईर्ष्‍या में मिलता है जो नागमती के साथ विवाद का कारण है। नागमती के बगीचे में बड़ी चहल पहल है और राजा भी वहीं हैं, यह सुनते ही पद्मावती को इतना बुरा लगता है कि वह तुरन्त वहाँ जा पहुँचती है और विवाद छेड़ती है। उस विवाद में वह राजा के प्रेम का गर्व भी प्रकट करती है। यह ईर्ष्‍या और प्रेमगर्व स्‍त्री जाति के सामान्य स्वभाव के अन्तर्गत माना जाता है। इसी से इनके वर्णन में रसिकों को एक विशेष प्रकार का आनन्द आया करता है। ये भाव व्यक्तिगत दुष्ट प्रकृति के अन्तर्गत नहीं कहे जा सकते। पुरुषों ने अपनी जबरदस्ती से स्त्रियों के कुछ दु:खात्मक भावों को भी अपने विलास और मनोरंजन की सामग्री बना रखा है। जिस दिलचस्पी के साथ वे मेढ़ों की लड़ाई देखते हैं उसी दिलचस्पी के साथ अपनी कई स्त्रियों के परस्पर कलह को। नवोढ़ा का 'भय और कष्ट' भी नायिकाभेद और रसिकों के आनन्द के प्रसंग हैं। इसी परिपाटी के अनुसार स्त्रियों की प्रेमसम्बन्धिनी ईर्ष्‍या का भी श्रृंगाररस में एक विशेष स्थान है। यदि स्त्रियाँ भी इसी प्रकार पुरुषों को प्रेमसम्बन्धिनी ईर्ष्‍या को अपने खेलवाड़ की चीज बनावें तो कैसा?

    सबसे उज्ज्वल रूप जिसमें हम पद्मिनी को देखते हैं वह सती का है। यह हिन्दू नारी का चरम उत्कर्ष को पहुँचा हुआ रूप है। जायसी ने उसके सतीत्व की परीक्षा का भी आयोजन किया है। पर जैसा पहले कहा जा चुका है, जायसी ने ऐसे लोकोत्तर दिव्य प्रेम की परीक्षा के लिए जो कसौटी तैयार की है, वह कदापि उसके महत्त्व के उपयुक्त नहीं है।

    राजपूतों में जौहर की प्रथा थी। पर पद्मावती का सती होना 'जौहर' के रूप में नहीं कहा जा सकता। जौहर तो उस समय होता था जब शत्रुओं से घिरे गढ़ के भीतर सैनिक गढ़रक्षा की आशा न देख शस्‍त्र लेकर बाहर निकल पड़ते थे और उनके पराजित होने या मारे जाने का समाचार गढ़ के भीतर पहुँचने पर स्त्रियाँ शत्रु के हाथ में पड़ने के पहले अग्नि में कूद पड़ती थीं। पर जायसी ने मुसलमान सेना के आने के पहले ही रत्नसेन की मृत्यु दिखाकर पद्मिनी और नागमती का विधिपूर्वक पति की चिता में बैठकर 'सती होना' दिखाया है। इसके उपरान्त और सब क्षत्राणियों का 'जौहर' कहा गया है।

    जातिगत स्वभाव के भीतर क्षत्रिय नारी के उपयुक्त पद्मिनी के उस साहसपूर्ण उद्योग को भी लेना चाहिए जो उसने अपने पति के छुटकारे के लिए किया। उसने कैसे ओजभरे शब्दों में गोरा बादल को बढ़ावा दिया है।

   नागमती -सती नागमती को पहले हम 'रूपगर्विता' के रूप में देखते हैं। यह रूपगर्व स्त्रियों के जातिगत सामान्य स्वभाव के अन्तर्गत समझिए। ऐसा ही सपत्नी के प्रति उसकी ईर्ष्‍या को भी समझना चाहिए। इस जातिगत ईर्ष्‍या की मात्रा सामान्य से अधिक बढ़ी हुई हम नहीं पाते हैं जिससे विशेष ईर्ष्‍यालु प्रकृति का अनुमान कर सके। नागमती पद्मिनी के विरुद्ध कोई भीषण षडयन्त्र आदि नहीं रचती है। कहीं कहीं तो उसकी ईर्ष्‍या भी पति की हितकामना के साथ मिश्रित दिखाई पड़ती है। राजा रत्नसेन के बन्दी होने पर नागमती इस प्रकार विलाप करती है-

पदमिनि ठगिनी भइ कित साथा। जेहि तैं रतन परा पर हाथा॥

    इस जातिगत स्वभाव से आगे बढ़कर हम नागमती के आदर्श पक्ष पर आते हैं। पति पर उसका कैसा गूढ़ और गम्भीर प्रेम है-यह उसकी वियोगदशा द्वारा व्यक्त होता है। पारिवारिक जीवन की दृष्टि से यह पक्ष अत्यन्त गम्भीर और मधुर है। पतिपरायणा नागमती जीवनकाल में अपनी प्रेमज्योति से गृह को आलोकित करके अन्त में सती की दिगन्तव्यापिनी प्रभा से दमककर इस लोक से अदृश्य हो जाती है।

   रत्नसेन और बादल की माता -ये दोनों सामान्य माता के रूप में हमारे सामने आती हैं, क्षत्रिय माता के रूप में नहीं। इनके वात्सल्य की व्यंजना में हम उस स्नेह की झलक पाते हैं जो पुत्र के प्रति माता में समान्यत: होता है। दोनों में किसी प्रकार की व्यक्तिगत विशेषता नहीं दिखाई पड़ती। वर्गविशेष की किसी प्रवृत्ति का भी पता उनमें नहीं है। रण में जाते हुए पुत्र को रोकने का प्रयत्न करके बादल की माता सामान्य माता का रूप दिखाती है, क्षत्राणी या क्षत्रिय माता का नहीं।

   राघवचेतन -इस पात्र का स्वरूप समाज की उस भावना का पता देता है जो लोकप्रिय वैष्णव धर्म के कई रूपों में प्रचार के कारण शाक्तों, तान्त्रिकों या वाममार्गियों के विरुद्ध हो रही थी। इस सामाजिक दृष्टि से यदि हम देखते हैं तो राघवचेतन वर्गविशेष का उसी प्रकार प्रतिनिधि ठहरता है जिस प्रकार शेक्सपियर के 'वेनिस नगर का व्यापारी' का शाइलाक। यह भूत, प्रेत, यक्षिणी की पूजा करता था। उसकी वृत्ति उग्र और हिन्सापूर्ण थी, कोमल और उदात्त भावों से उसका हृदय शून्य था। विवेक का उसमें लेश न था। वह इस बात का मूर्तिमान प्रमाण था कि उत्तम संस्कार और बात है, पांडित्य और बात। हृदय के उत्तम संस्कार के बिना श्रेष्ठ आचरण का विधान नहीं हो सकता। उसकी सम्प्रदायगत प्रवृत्ति के अतिरिक्त उसकी व्यक्तिगत अहंकार वृत्ति का भी कुछ पता इस बात से मिलता है कि वह अपने को औरों से भिन्न और श्रेष्ठ प्रकट करना चाहता था। जो बात सब लोग कहते उसके प्रतिकूल कहकर वह अपनी धाक जमाने की फिक्र में रहता था। सब पंडितों ने अमावस्या बताई तब उसने द्वितीया कहकर सिद्ध यक्षिणी के बल से अपनी बात रखनी चाही।

    जिस राजा रत्नसेन के यहाँ वह जीवन भर रहा, उसके प्रति कृतज्ञता का कुछ भाव उसके हृदय में हम नहीं पाते। देश से निकाले जाने की आज्ञा होते ही उसे बदला लेने की धुन हुई। पद्मिनी ने अत्यन्त अमूल्य दान देकर उसे संतुष्ट करना चाहा पर उस कृपा का उसपर उल्टा प्रभाव पड़ा। पहले तो अपने स्वामी की पत्नी को बुरे भाव से देख उसने घोर अविवेक का परिचय दिया, फिर उसके हृदय में हिन्सावृत्ति और प्रतिकारवासना के साथ ही साथ लोभ का उदय हुआ। वह सोचने लगा कि दिल्ली का बादशाह अलाउद्दीन अत्यन्त प्रबल और लम्पट है, उसके यहाँ चलकर पद्मिनी के रूप का वर्णन करूँ तो वह चित्तौर पर अवश्य चढ़ाई कर देगा जिससे पूरा बदला भी चुक जायगा और धन भी बहुत प्राप्त होगा। निर्लज्ज भी वह परले सिरे का दिखाई पड़ता है। जिस स्वामी के साथ उसने इतनी कृतघ्नता की, चित्तौरगढ़ के भीतर बादशाह के साथ जाकर उसको मुँह दिखाते कुछ भी लज्जा न आई। अपनी नीचता की हद को वह उस समय पहुँचता है जब राजा रत्नसेन के गढ़ के बाहर निकलने पर वह उन्हें बन्दी करने का इशारा करता है।

    सारांश यह कि अहंकार, अविवेक, कृतघ्नता, लोभ, निर्लज्जता और हिन्सा द्वारा ही उसका हृदय संघटित रहता है। यदि पद्मावती के कथानक की रचना सदसत् के लौकिक परिणाम की दृष्टि से की गई होती तो राघव का परिणाम अत्यन्त भयंकर दिखाया गया होता। पर कवि ने उसके परिणाम को कुछ भी चर्चा नहीं की है।

   गोरा बादल -क्षत्रिय वीरता के ये दो अत्यन्त निर्मल आदर्श जायसी ने सामने रखे हैं। अबलाओं की रक्षा से जो माधुर्य योरप के मध्‍य युग के नाइटों की वीरता में दिखाई पड़ता था उसकी झलक के साथ स्वामिभक्ति का अपूर्व गौरव इनकी वीरता में देख मन मुग्‍ध हो जाता है। जायसी की अन्तर्दृष्टि धन्य है जिसने भारत के इस लोकरंजनकारी क्षात्र तेज को पहचाना।

    पहले हम इन दोनों वीरों के खरेपन, दूरदर्शिता, आत्मसम्मान और स्वामिभक्ति, इन व्यक्तिगत गुणों की ओर ध्‍यान देते हैं। गढ़ के भीतर बादशाह को घूमते देख इनसे न रहा गया। इन्हें बादशाह के रंग ढंग से छल का सन्देह हुआ और इन्होंने राजा को तुरन्त सावधान किया। जब राजा ने इनकी बात न मानी तब ये आत्मसम्मान के विचार से रूठकर घर बैठ रहे। मन्त्रणा के कर्तव्य से मुक्त होकर शस्‍त्रग्रहण के कर्तव्य का अवसर देखने लगे। वह अवसर भी आया। रानी पद्मिनी पैदल इनके घर आई और रो रोकर उसने राजा को छुड़ाने की प्रार्थना की। कठोरता के अवसर पर कठोर होनेवाला और कोमलता के अवसर पर कोमल से कोमल होनेवाला हृदय ही प्रकृत क्षत्रिय हृदय है। अत्याचार से द्रवीभूत होनेवाले हृदय की उग्रता ही लोकरक्षा के उपयोग में आ सकती है। रानी की दशा देखते ही-

गोरा बादल दुवौ पसीजे। रोवत रुहिर सीस लहि भीजै॥

    दोनों की तेज भरी प्रतिज्ञा सुनकर पद्मिनी ने जो साधुवाद दिया उसके भीतर क्षात्र धर्म की ओर स्पष्ट संकेत है-

तुम टारन भारन्ह जग जाने। तुम सुपुरुष औ करन बखाने॥

    संसार का भार टालना,  विपत्ति से उद्धार करना, अन्याय और अत्याचार का दमन करना ही क्षात्र धर्म है।

    इस क्षात्र धर्म का अत्यन्त उज्ज्वल स्वरूप इन दोनों वीरों के आचरण में झलकता है। कवि ने बादल की छोटी अवस्था दिखाकर उसकी नवागता वधू को लाकर कर्तव्य की एक बड़ी कड़ी कसौटी सामने रखने के साथ सम्पूर्ण प्रसंग को अत्यन्त मर्मस्पर्शी बना दिया। बादल युद्धयात्रा के लिए तैयार होता है। उसकी माता स्नेहवश युद्ध की भीषणता दिखाकर रोकना चाहती है। इसपर वह अपने बल के विश्वास की दृढ़ता दिखाता है। इसके पीछे उसकी तुरन्त की आई हुई वधू सामने आकर खड़ी होती है, पर वह हृदय को कठोर करके मुँह फेर लेता है-

तब धनि कीन्हि बिहँसि चख दीठी        बादल तबहि दीन्हि फिरि पीठी॥

मुख  फिराइ  मन  अपने  रीसा    चलत न तिरिया कर मुख दीसा॥

    यह कर्तव्य की कठोरता है। फिर स्‍त्री फेंटा पकड़ती है; पर बादल छुड़ाकर अपना कर्तव्य समझाता है-

जौ तुइँ गवन आइ गजगामी  ।  गवन मोर जहँवा मोर स्वामी॥

    कर्तव्य यह कठोरता कितनी सुन्दर और कितनी मर्मस्पर्शिनी है।

    इस आदर्श क्षत्रिय वीरता के अतिरिक्त दोनों में युक्तिपटुता का व्यक्तिगत गुण भी हम पूरा पूरा पाते हैं। सोलह सौ पालकियों के भीतर राजपूत योद्धाओं को बिठाकर दिल्ली जे जाने की युक्ति इन्हीं दोनों वीरों की सोची हुई थी, जो पूरी उतरी।

    वृद्ध वीर गोरा ने अपने पुत्र बादल को 600 सरदारों के साथ छूटे हुए राजा को पहुँचाने चित्तौर की ओर भेजा और आप केवल एक हजार सरदारों को लेकर बादशाही फौज को तब तक रोके रहा जब तक राजा चित्तौर नहीं पहुँच गया। अन्त में उसी युद्ध में वह वीरगति को प्राप्त हुआ। उसके पेट में साँग धँसी और ऑंतें जमीन पर गिर पड़ीं पर ऑंतों को बाँधकर वह फिर घोड़े पर सवार हो लड़ने लगा। उसी समय चारण ने साधुवाद किया-

भाँट कहा, धनि गोरा! तू भा रावन राव।

ऑंति समेटी बाँधि कै, तुरय देत है पाव॥

    बादल भी रत्नसेन की मृत्यु के पीछे चित्तौर गढ़ की रक्षा में फाटक पर मारा गया।

   बादल की स्‍त्री -बादल की स्‍त्री का चित्रण बराबर तो सामान्य स्‍त्री के रूप में है पर अन्त में वह अपना वीरपत्नी और क्षत्राणी का रूप प्रकट करती है। जब उसने देखा कि पति किसी प्रकार युद्ध से विमुख न होंगे, तब वह कहती है-

जौ तुम कंत! जूझ जिउ काँधा     तुम, पिउ! साहस, मैं सत बाँधा

रन संग्राम जूझि जिति आवहु        लाज होइ जौ पीठि देखावहु॥

    इसके उपरान्त अपनी दृढ़ता और क्षात्रगौरव की व्यंजना देखिए, कैसे अर्थगर्भित वाक्य द्वारा वह करती है-

तुम, पिउ! साहस बाँधा , मैं दिय माँग सेंदूर।

दोउ सँभारे होइ सँग, बाजै मादर तूर॥

    तुम युद्ध का साहस बाँधते हो और मैं सती का बाना बना लेती हूँ। इन दोनों बातों का जब दोनों ओर से निर्वाह होगा तभी फिर हमारा तुम्हारा साथ हो सकता है। यदि तुम युद्ध में वीरगति को प्राप्त हुए और मैं सती न हुई तो साथ न होगा; यदि तुम पीठ दिखाकर भाग आए तब भी मैं तुमसे न मिल सकूँगी। यदि दोनों ने अपने अपने पक्ष का निर्वाह किया, जय और पराजय दोनों अवस्थाओं में मिलाप हो सकता है-तुम जीतकर आए तो इसी लोक में और मारे गए तो उस लोक में।

   देवपाल की दूती -इसका चित्रण दूतियों का सामान्य लक्षण लेकर ही हुआ है। दूतियों में जैसा आडम्बर, धूर्तता, प्रगल्भता, वाक्चातुर्य दिखाने की परिपाटी है, वैसा ही कवि ने दिखाया है। पहले तो अपने ऊपर कुछ स्नेह और विश्वास उत्पन्न करने के लिए वह पद्मिनी के मायके की बनती है, फिर उसके रूप, यौवन आदि का वर्णन करके उसके हृदय में विषयवासना उद्दीप्त करना चाहती है। परपुरुष की चर्चा छेड़ने पर जब पद्मिनी चौंककर कहती है कि तू मेरे ऊपर मसि या कालिमा लगाना चाहती है तब वह 'मसि' शब्द पर इस प्रकार तर्क करती है-

पद्मिनी! पुनि मसि बोलु न बैना        सो मसि देखु दुहूँ तोरे नैना॥

मसि सिंगार, काजर सब बोला        मसि क बुंद तिल सोह कपोला॥

लोना  सोइ  जहाँ  मसि  रेखा       मसि पुतरिन्ह जिन्हसों जग देखा॥

मसि केसहि, मसि भौंहउरेही      मसि बिनु दसन सोभ नहिं देही॥

सो कस सेत जहाँ मसि नाहीं         सो कस पिंड न जहँ परछाँहीं?

    देखिए, 'लोना सोइ जहाँ मसि रेखा' कहकर दूती किस प्रकार मसि भीनते हुए जवान की ओर इशारा करके कामवासना उत्पन्न करना चाहती है। फिर अन्त में श्वेत और कृष्ण-सफेद और स्याह को जगत में सापेक्ष दिखाकर पद्मिनी का संकोच दूर करना चाहती है। अन्तिम युक्ति तो दार्शनिकों की सी है।

   अलाउद्दीन -अपने बल, प्रताप और श्रेष्ठता के अभिमान में अलाउद्दीन इस बात को सहन नहीं कर सकता कि और किसी के पास कोई ऐसी वस्तु रहे जैसी उसके पास न हो। जब राघवचेतन पद्मिनी की प्रशंसा करता है तब पहले तो उसे यह समझकर बुरा लगता है कि मेरे हरम में एक से एक बढ़कर सुन्दरी स्त्रियाँ हैं, उन सबसे बढ़कर सुन्दरी का होना यह एक राजा के यहाँ बतला रहा है। पर जब राघवचेतन स्त्रियों के चार भेद बतलाकर पद्मिनी के रूप का विस्तृत वर्णन करता है तब उसे रूपलोभ आ धरता है और वह चित्तौर दूत भेजता है। रत्नसेन के क्रोधपूर्ण उत्तर पर चढ़ाई कर देता है। इस चढ़ाई के कारण लोभ और अभिमान ही कहे जायँगे, क्रोध तो लोभ और अभिमान की तुष्टि के मार्ग में बाधा पड़ने के कारण उत्पन्न हुआ। अलाउद्दीन वीर था अत: वीरों का सम्मान उसके हृदय में था। बादशाह का सन्धि सम्‍बन्‍धी प्रस्ताव जब राजा रत्नसेन ने स्वीकार कर लिया तब इस बात की सूचना बादशाह को देते समय सरजा ने चापलूसी के ढंग पर राजपूतों को 'काग' कह दिया। इस पर अलाउद्दीन ने उसको यह कहकर फटकारा कि 'वे काग नहीं है, काग हो तुम जो धूर्तता करते हो और इधर का सन्देसा उधर कहते फिरते हो। काग धनुष पर बाण चढ़ा हुआ देखते ही भाग खड़े होते हैं, पर वे राजपूत यदि हमारी ओर धनुष पर बाण चढ़ा देखें तो तुरन्त सामना करने के लिए लौट पड़ें।'

    'पदमावत' के पात्रों में राघव और अलाउद्दीन ही ऐसे हैं जिनके प्रति अरुचि या विरक्ति का भाव पाठकों के मन में उत्पन्न हो सकता हैं। इनमें से राघव के प्रति तो जायसी ने अपनी अरुचि का आभास दिया है, पर कथा के बीच में अलाउद्दीन के प्रति उनके किसी भाव की झलक नहीं मिलती। हाँ, ग्रन्थ के अन्त में 'माया अलादीन सुलतानू' कहकर उसके असत् रूप का आभास दिया गया है। अलाउद्दीन का आचरण अच्छा कभी नहीं कहा जा सकता। किसी की ब्याही स्‍त्री माँगना धर्म और शिष्टता के विरुद्ध है। उसके आचरण के प्रति कवि की यह उदासीनता कैसी है? पक्षपात तो हम कह नहीं सकते, क्योंकि जायसी ने कहीं इसका परिचय नहीं दिया है। उसके बल और प्रताप की कवि ने जो रत्नसेन के बल प्रताप से अधिक दिखाया है वह उचित ही है क्योंकि अलाउद्दीन एक बड़े भूखण्ड का बादशाह था। पर राजपूतों की वीरता बादशाह के बल और प्रताप के ऊपर दिखाई पड़ती है। आठ वर्ष तक चित्तौरगढ़ को घेरे रहने पर भी अलाउद्दीन उसे न तोड़ सका। इसके अतिरिक्त कवि ने अलाउद्दीन की दूसरी चढ़ाई में रत्नसेन का मारा जाना, जैसा कि इतिहास में प्रसिद्ध है न दिखाकर उसके पहले ही एक राजपूत के हाथ से मारा जाना दिखाया है। यदि कवि बादशाह द्वारा राजा का गर्व चूर्ण होना दिखाना चाहता तो ऐसा कभी न करता। उसने रत्नसेन के मान की रक्षा की है। अत: कवि की उदासीनता या मौन का कारण पक्षपात नहीं, बल्कि मुसलमान बादशाहों की बराबर चली आती हुई चाल है जो कुचाल होने पर भी व्यक्तिगत नहीं कही जा सकती।

    इस प्रकरण के आरम्भ में ही स्वभावचित्रण हमने चार प्रकार के कहे थे। इनमें से जायसी के सामान्य मानवी प्रकृति के चित्रण के सम्‍बन्‍ध में अभी तक कुछ विशेष नहीं कहा गया। कारण यह कि इसका सन्निवेश 'पदमावत' में बहुत कम मिलता है। गोस्वामी तुलसीदास जी ने जिस प्रकार स्थान-स्थान पर मनुष्य मात्र में सामान्यत: पाई जानेवाली अन्तर्वृत्ति की झलक दिखाई है, उस प्रकार जायसी ने नहीं। एक उदाहरण लीजिए। गौरी के मंदिर में जाकर इच्छा रहते भी जानकी का राम की ओर न ताककर ऑंख मूँदकर ध्‍यान करने लगना उस कृत्रिम उदासीनता की व्यंजना करता है जो ऐसे अवसरों पर स्वाभाविक होती है। सखियों ने उस अवसर पर जो परिहास की स्वच्छन्दता दिखाई है वह भी सामान्य स्वभावतगत है। पर जायसी की पद्मावती महादेव के मण्डप में सीधे जोगी रत्नसेन के पास जा पहुँचती है और उसकी सखियों में ऐसे अवसर पर स्वाभाविक परिहास का उदय भी नहीं दिखाई पड़ता है।

    रूप और शील के साक्षात्कार से मनुष्य मात्र की अन्तर्वृत्ति जिस रूप की हो जाती है उसकी बहुत सुन्दर झाँकी गोस्वामीजी ने उस समय दिखाई है जिस समय वनवासी राम को जनपदवासी कुछ दूर तक पहुँचा आते हैं और उनकी वाणी सुनने के लिए कुछ प्रश्न करते हैं। कैकेयी और मंथरा के संवाद में भी मनोवृत्तियों का बहुत ही सूक्ष्म निरीक्षण है। जायसी भिन्न-भिन्न मनोवृत्तियों की परख में ऐसी दक्षता नहीं दिखलाते।

    कहने का मतलब यह नहीं कि जायसी ने इस बात की ओर ध्‍यान कुछ नहीं दिया है। गोरा बादल के प्रतिज्ञा करने पर कृतज्ञतावश पद्मिनी के हृदय में उन दोनों वीरों के प्रति जो महत्व की भावना जाग्रत होती है वह बहुत ही स्वाभाविक है। पर ऐसे स्थल बहुत कम है। सामान्यत: यही कहा जा सकता है कि भिन्न भिन्न परिस्थितियों को अन्तर्वृत्ति का सूक्ष्म निरीक्षण जायसी में बहुत कम है।

मलिक मुहम्मद जायसी

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