हिंदी का रचना संसार

मुखपृष्ठ | उपन्यास | कहानी | कविता | नाटक | आलोचना | विविध | भक्ति काल | हिंदुस्तानी की परंपरा | विभाजन की कहानियाँ | अनुवाद | ई-पुस्तकें | छवि संग्रह | हमारे रचनाकार | हिंदी अभिलेख | खोज | संपर्क

 

  आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ग्रंथावली -1

मलिक मुहम्मद जायसी

प्रेमतत्त्व

प्रेम के स्वरूप का दिग्दर्शन जायसी ने स्थान स्थान पर किया है। कहीं तो यह स्वरूप लौकिक ही दिखाई पड़ता है और कहीं लोकबन्धन से परे। पिछले रूप में प्रेम इस लोक के भीतर अपने पूर्ण लक्ष्य तक पहुँचता हुआ नहीं जान पड़ता। उसका उपयुक्त आलम्बन वही दिखाई पड़ता है जो अपने प्रेम से सम्पूर्ण जगत् की रक्षा करता है।

    प्रिय से सम्‍बन्‍ध रखनेवाली वस्तुएँ भी कितनी प्रिय होती हैं! प्रिय की ओर ले जानेवाला मार्ग नागमती को कितना प्रिय होगा, उसी के मुँह से सुनिए-

वह पथ पलकन्ह जाइ बोहारौं । सीस चरन कै चलौं सिधारौं॥

    पथ पर पलक बिछाने या उसे पलकों से बुहारने की बात उस अवसर पर कही जाती है जब प्रिय उस मार्ग से आने को होता है, पर जहाँ उस मार्ग पर चलने के लिए नागमती ही तैयार है, जैसा कि प्रसंग के पड़ने से विदित होगा (दे. पद्मावती-नागमतीविलाप खण्ड), तो क्या वह अपने चलने के आराम के लिए सफाई करने को कह रही है? नहीं, उस मार्ग के प्रति जो स्नेह उमड़ रहा है, उसकी झोंक में कह रही है। जो मार्ग प्रिय की ओर ले जाएगा उस पर भला पैर कैसे रखेगी, वह उस पर सिर को पैर बनाकर चलेगी। प्रिय के सम्‍बन्‍ध से कितनी वस्तुओं से सुहृद भाव स्थापित हो जाता है। सच्चे प्रेमी को प्रिय ही नहीं, जो कुछ उस प्रिय का होता है, सब प्रिय होता है। जिसे यह जगत् प्रिय नहीं, जो इस जगत् के छोटेबड़े सबसे सद्भाव नहीं रखता, जो लोक की भलाई के लिए सब कुछ सहने को तैयार नहीं रहता, वह कैसे कह सकता है कि ईश्वर का भक्त हूँ? गोस्वामी तुलसीदासजी कहते हैं कि मैं भी वह भक्तजीवन प्राप्त कर सकूँगा और-

परहित निरत निरंतर मन क्रम वचन नेम निबहौंगो॥

    यह दिखाया जा चुका है कि रत्नसेन पद्मावती का प्रेम विषम से सम की ओर प्रवृत्त हुआ है जिसमें एक पक्ष की कष्टसाधना दूसरे पक्ष में पहले दया और फिर तुल्य प्रेम की प्रतिष्ठा करती है। साधना का फलारम्भस्वरूप उस दया की सूचना पाने पर जो तुल्यानुराग का पूर्वलक्षण है, रत्नसेन को समागम का सा ही आनंद होता है, उसकी संजीवनी शक्ति से वह मूर्च्‍छा से जाग उठता है-

सुनि पदमावति  कै असि मया । भा बसंत, उपनी नइ कया॥

सुआ क बोल पवन होइ लागा  । उठा सोइ हनुवँत अस जागा॥

    तुल्यानुराग की सूचना के अद्भुत प्रभाव का अनुभव राजा पुरुरवा ने भी उस समय किया है जब उर्वशी ने अदृश्य भाव से भोजपत्र पर अपने अनुराग की दशा लिखकर गिराई है-

तुल्यानुरागपिशुनं  ललितार्थबं धं पत्रो निवेशितमुदाहरणं  प्रियाया :

उत्पक्ष्मणा , मम सखे ! मदिरेक्षणायास्तस्या  : समागतमिवाननमाननेन॥ 

    (विक्रमोर्वशी, अंक 2)

    राजा रत्नसेन ने 'अनुराग' शब्द का प्रयोग न करके 'मया' शब्द का प्रयोग किया है। यह उसके प्रेम के विकास के हिसाब से बहुत ठीक है। पहले पद्मावती को रत्नसेन के कष्टों की सूचना मिली है, तब उसका हृदय उसकी ओर आकर्षित हुआ है; अत: पद्मावती के हृदय में पहले दया का भाव ही स्वाभाविक है। पर उर्वशी और पुरुरवा का प्रेम आरम्भ ही से सम था, केवल एक दूसरे के प्रेम का परिज्ञान नहीं था। आगे चलकर रत्नसेन जो हर्ष प्रकट करता है, वह तुल्यानुराग पर है। राजा रत्नसेन को जब सूली देने ले जा रहे थे तब हीरामन पद्मावती का यह सन्देसा लेकर आया-

काढ़ि प्रान बैठी लेइ हाथा । मरै तौ मरौं, जिऔं एक साथा॥

    इतना सुनते ही रत्नसेन के हृदय से सूली आदि का सब ध्‍यान हवा हो जाता है, वह आनन्द में मग्न हो जाता है-

सुनि सँदेस राजा तब हँसा । प्रान प्रान घट घट महँ बसा॥

    प्रेम के प्रभाव से प्रेमी की वेदना मानो उसके हृदय के साथ प्रिय के पास चली जाती है। अत: जब वह प्रेम चरम सीमा को पहुँच जाता है तब प्रेमी तो दु:ख की अनुभूति से परे हो जाता है और उसकी सारी वेदना प्रिय के मत्थे जा पड़ती है। सम्वेदना का यही उत्कर्ष तुल्य प्रेम है-

जीउ काढ़ि लेइ तुम अपसई       वह भा कया, जीव तुम भई॥

कया जो लाग धूप औ सीऊ       कया न जान, जान पै जीऊ॥

भोग तुम्हार मिला ओहि जाई  ।  जो ओहि बिथा सो तुम्ह कहँ आई॥

    योगियों के परकाया-प्रवेश का-सा रहस्य समझना चाहिए-

''अस वह जोगी अमर भा, पर काया परवेस॥ ''

    प्रेम की प्राप्ति से दृष्टि आनन्दमयी और निर्मल हो जाती है। जो बात पहले नहीं सूझती थी वे सूझने लगती हैं, चारों ओर सौन्दर्य का विकास दिखाई पड़ने लगता है। पद्मावती की प्रशंसा सुनते ही जो प्रेम रत्नसेन के हृदय में संचरित होता है उसके प्रभाव का वर्णन वह इस प्रकार करता है-

सहसौ करा रूप मन भूला । जहँ जहँ दीठ कँवल जनु फूला॥

तीनि लोक चौदह खं, सबै परै मोहि सूझि।

प्रेम छाँड़ि नहिं लोन किछु , जौ देखा मन बूझि॥

    प्रेम का क्षीर-समुद्र अपार और अगाध है। जो इस क्षीर-समुद्र को पार करते हैं उसकी शुभ्रता के प्रभाव से 'जीव' संज्ञा को त्याग शुद्ध आत्मस्वरूप को प्राप्त हो जाते हैं ।'जो एहि खीर समुद महँ परे। जीव गँवाइ, हंस होइ तरे।' फिर तो वे 'बहुरि न आइ मिलहि एहि छारा।'

    प्रेम की यदि एक चिनगारी हृदय में पड़ गई और उसे सुलगाते बन पड़ा तो फिर ऐसी अद्भुत अग्नि प्रज्वलित हो सकती है जिससे सारे लोक विचलित हो जायँ-

मुहमद चिनगी प्रेम कै सुनि महि गगन डेराइ।

धनि बिरही औ धनि हिया, जहँ अस अगिनि  समाइ॥

    भगवत्प्रेम की यह चिनगारी अच्छे गुरु से प्राप्त हो सकती है। पर गुरु एक चिनगारी भर डाल देगा, उसे सुलगाना चेले का काम है-

गुरु बिरह चिनगी जो मेला । जो सुलगाइ लेइ सो चेला॥

    गुरु केवल उस प्रिय (ईश्वर) के रूप का बहुत थोड़ा-सा आभास भर दे सकता है-उसे शब्दों द्वारा पूर्ण रूप से व्यक्त करना असम्भव है। भावना के निरन्तर उत्कर्ष द्वारा शिष्य को उत्तरोत्तर अधिक साक्षात्कार प्राप्त होता जाएगा और उसके प्रेम की मात्रा बढ़ती चली जायगी।

    दुरारूढ़ प्रेम में प्रिय के साक्षात्कार के अतिरिक्त और कोई (सुख आदि की) कामना नहीं होती। ऐसा प्रेम प्रिय को छोड़ किसी अन्य वस्तु का आश्रित नहीं होता। न उसे सुराही चाहिए, न प्याला, न गुलगुली गिलमें, न गलीचा। न उसमें स्वर्ग की कामना होती है, न नरक का भय। ऐसी निष्कामता का अनुभव राजा रत्नसेन भयंकर समुद्र के बीच इस प्रकार कर रहा है-

ना हौं सरग क चाहौं राजू ।  ना मोहि नरक सेंति किछु काजू॥

चाहौं ओहिकर दरसन पावा ।  जेइ मोहि आनि प्रेम पथ लावा॥

    प्रेम की कुछ विशेषताओं का वर्णन जायसी ने हीरामन तोते के मुँह से भी कराया है। सच्चा प्रेम एक बार उत्पन्न होकर फिर जा नहीं सकता। पहले उत्पन्न होते और बढ़ते समय तो उसमें सुख ही सुख दिखाई पड़ता है; पर बढ़ चुकने पर भारी दु:ख का सामना करना पड़ता है। प्रेम बढ़ जाने पर और किसी भाव के लिए स्वतन्त्र स्थान नहीं छोड़ता। जो और भाव उत्पन्न भी होते हैं वे सब उसके अधीन और वशवर्ती होते हैं -

प्रीति बेलि जिन अरुझै कोई       अरुझै, मुए न छूटै सोई॥

प्रीति बेलि ऐसे तन डाढ़ा   ।   पलुहत सुख, बाढ़त दुख बाढ़ा॥

प्रीति अकेलि बेलि चढ़ि छावा      दूसर बेलि न सँचरै पावा॥

    पद्मावती और नागमती के विवाद में जो 'असूया' का भाव प्रकट होता है वह स्‍त्री स्वभाव चित्रण की दृष्टि से है। वह प्रेम के लौकिक स्वरूप के अन्तर्गत है। जिन कालिदास ने प्रेम की प्रारंभिक दशा में उर्वशी के मुँह से पुरुरवा की रानी की रूपश्री की प्रशंसा कराकर चित्रलेखा को 'असूया पराङ्मुखं मंत्रितम्' कहने का अवसर दिया उन्हीं ने आगे चलकर उर्वशी के लता रूप में परिणत हो जाने पर उसके सम्‍बन्‍ध में सहजन्या के मुँह से कहलाया कि 'दूरारूढ़ खलु प्रणयोऽसहन:'। पर जायसी की दृष्टि इस लौकिक प्रेम से आगे बढ़ी हुई है। वे प्रेम का वह विशुद्ध रूप दिखाना चाहते हैं जो भगवत्प्रेम में परिणत हो सके। इसी से वे प्रेम की ओर भी दूरारूढ़ भावना करके रत्नसेन के मुँह से विवादशान्ति का तत्त्व भरा उपदेश दिलाते हैं।

 

प्रबन्धकल्पना

किसी प्रबन्ध कल्पना पर और कुछ विचार करने के पहले यह देखना चाहिए कि कवि घटनाओं को किसी आदर्श परिणाम पर ले जाकर तोड़ना चाहता है अथवा यों ही स्वाभाविक गति पर छोड़ना चाहता है। यदि कवि का उद्देश्य सत् और असत् का परिणाम दिखाकर शिक्षा देना होगा तो वह प्रत्येक पात्र का परिणाम वैसा ही दिखाएगा जैसा न्यायनीति की दृष्टि से उसे उचित प्रतीत होगा। ऐसे नपे तुले परिणाम काव्यकला की दृष्टि से कुछ कृत्रिम जान पड़ते हैं।

    'पदमावत' के कथानक से यह स्पष्ट है कि घटनाओं को आदर्श परिणाम पर पहुँचाने का लक्ष्य कवि का नहीं है। यदि ऐसा लक्ष्य होता तो राघवचेतन का बुरा परिणाम बिना दिखाए वह ग्रन्थ समाप्त न करता। कर्मों के लौकिक शुभाशुभ परिणाम दिखाना जायसी का उद्देश्य नहीं प्रतीत होता। संसार की गति जैसी दिखाई पड़ती है, वैसे ही उन्होंने रखी है। संसार में अच्छे आदर्श चरित्रवालों का परिणाम भी आदर्श अर्थात् अत्यन्त आनन्दपूर्ण  ही होता है और बुरे कर्म करने वालों पर अन्त में आपत्ति का पहाड़ ही आ टूटता हो, ऐसा कोई निर्दिष्ट नियम नहीं दिखाई पड़ता। पर आदर्श परिणाम के विधान पर लक्ष्य न रहने पर भी जो बात बचानी चाहिए वह बच गई है। किसी सत्पात्र का न तो ऐसा भीषण परिणाम ही दिखाया गया है जिससे चित्त को क्षोभ प्राप्त हो और न किसी बुरे पात्र की ऐसी सुख समृद्धि ही दिखाई गई है जिससे अरुचि और उदासीनता उत्पन्न होती हो। अन्तिम दृश्य से अत्यन्त शान्तिपूर्ण उदासीनता बरसती है। कवि की दृष्टि में मनुष्य जीवन का सच्चा अन्त करुण क्रन्दन नहीं, पूर्ण शान्ति है। राजा के मरने पर रानियाँ विलाप नहीं करती हैं, बल्कि इस लोक से अपना मुँह फेरकर दूसरे लोक की ओर दृष्टि किए आनन्द के साथ पति की चिता में बैठ जाती हैं। इस प्रकार कवि ने सारी कथा का शान्त रस में पर्य्यवसान किया है। पुरुषों के वीरगति प्राप्त हो जाने और स्त्रियों के सती हो जाने पर अलाउद्दीन गढ़ के भीतर घुसा और-

'छार उठाइ लीन्ह एक मूठी । दीन्ह उठाइ पिरिथिवी  झूठी॥ '

    प्रबन्ध काव्य में मानवजीवन का एक पूर्ण दृश्य होता है। उसमें घटनाओं की सम्बद्ध श्रृंखला और स्वाभाविक क्रम के ठीक-ठीक निर्वाह के साथ-साथ हृदय को स्पर्श करनेवाले-उसे नाना भावों का रसात्मक अनुभव करानेवाले-प्रसंगों का समावेश होना चाहिए। इतिवृत्त मात्र के निर्वाह से रसानुभव नहीं कराया जा सकता। उसके लिए घटनाचक्र के अन्तर्गत ऐसी वस्तुओं और व्यापारों का प्रतिबिम्बवत् चित्रण चाहिए जो श्रोता के हृदय में रसात्मक तरंगें उठाने में समर्थ हो। अत: कवि को कहीं तो घटना का संकोच करना पड़ता है, कहीं विस्तार।

    घटना का संकुचित उल्लेख तो केवल इतिवृत्त मात्र होता है। उसमें एक-एक ब्योरे पर ध्‍यान नहीं दिया जाता और न पात्रों के हृदय की झलक दिखाई जाती है। प्रबन्धकाव्य के भीतर ऐसे स्थल रसपूर्ण स्थलों की केवल परिस्थिति की सूचना देते हैं। इतिवृत्तरूप इन वर्णनों के बिना उन परिस्थितियों का ठीक परिज्ञान नहीं हो सकता जिनके बीच पात्रों को देखकर श्रोता उनके हृदय की अवस्था का अपनी सहृदयता के अनुसार अनुमान करते हैं। यदि परिस्थिति के अनुकूल पात्र के भाव नहीं हैं तो विभाव, अनुभाव और संचारी द्वारा उनकी अत्यन्त विशद व्यंजना भी फीकी लगती है। प्रबन्ध और मुक्तक में यही बड़ा भारी भेद होता है। मुक्तक में किसी भाव की रसपद्धति के अनुसार अच्छी व्यंजना हो गई, बस। पर प्रबन्ध में इस बात पर भी ध्‍यान रहता है कि वह भाव परिस्थिति के अनुरूप है या नहीं। पात्र की परिस्थिति भी सहृदय श्रोता के हृदय में भाव का उद्बोधान करती है। उसके ऊपर से जब श्रोता के भाव के अनुकूल उसकी पूर्ण व्यंजना भी पात्र द्वारा हो जाती है तब रस की गहरी अनुभूति उत्पन्न होती है। 'वनवासी राम स्वर्णमृग को मार जब कुटी पर लौटे तब देखा कि सीता नहीं है' यह इतिवृत्तमात्र है; पर यह सहृदयों के हृदय को उस दु:खानुभव की ओर प्रवृत्त कर देता है, जिसकी व्यंजना राम ने अपने विरहवाक्यों में की। इसी बात को ध्‍यान में रखकर विश्वनाथ ने कहा है कि प्रबन्ध के रस से नीरस पद्यों में भी रसवत्ता मानी जाती है-रसवत्पद्यांतर्गतनीरसपदानामिव पद्यरसेन प्रबन्धरसेनैव तेषां रसवत्तााúीकारात्।

    जिनके प्रभाव से सारी कथा में रसात्मकता आ जाती है वे मनुष्य जीवन में मर्मस्पर्शी स्थल हैं जो कथाप्रवाह के बीच-बीच में आते रहते हैं। यह समझिए कि काव्य में कथावस्तु की गति इन्हीं स्थलों तक पहुँचने के लिए होती है। 'पद्मावत' में ऐसे स्थल बहुत से हैं -जैसे, मायके में कुमारियों की स्वच्छन्द क्रीड़ा, रत्नसेन के प्रस्थान पर नागमती आदि का शोक, प्रेममार्ग के कष्ट, रत्नसेन की सूली की व्यवस्था, उस दण्ड के संवाद से विप्रलम्भ दशा में पद्मावती की करुण सहानुभूति, रत्नसेन और पद्मावती का संयोग, सिंहल से लौटते समय की सामुद्रिक घटना से दोनों की विह्नल स्थिति, नागमती की विरहदशा और वियोगसन्देश, उस सन्देश को पाकर रत्नसेन की स्वाभाविक प्रणयस्मृति, अलाउद्दीन के सन्देसे पर रत्नसेन का गौरवपूर्ण रोष और युद्धोत्साह, गोरा-बादल की स्वामिभक्ति और क्षात्रतेज से भरी प्रतिज्ञा, अपनी सजलनेत्रा भोली-भाली नवागता वधू की ओर पीठ फेर बादल का युद्ध के लिए प्रस्थान, देवपाल की दूती के आने पर पद्मावती द्वारा सतीत्वगौरव की अपूर्व व्यंजना, पद्मावती और नागमती का उत्साहपूर्ण सहगमन, चित्तौर की दशा इत्यादि। इनमें से पाँच स्थल तो बहुत ही अगाध और गम्भीर हैं -नागमती वियोग, गोरा-बादल प्रतिज्ञा, कुँवर बादल का घर से निकलकर युद्ध के लिए प्रस्थान, दूती के निकट पद्मावती द्वारा सतीत्व गौरव की व्यंजना और सहगमन। ये पाँचों प्रसंग ग्रन्थ के उत्तरार्द्ध में हैं। पूर्वार्ध्द में तो प्रेम ही प्रेम है; मानव जीवन की और उदात्त वृत्तियों का जो कुछ समावेश है वह उत्तारार्ध्द में है।

जायसी के प्रबन्ध की परीक्षा के लिए सुभीते के विचार से हम उसके दो विभाग कर सकते हैं -इतिवृत्तात्मक और रसात्मक।

    पहले इतिवृत्त लीजिए। प्रबन्धकाव्य में इतिवृत्त की गति इस ढंग से होनी चाहिए कि मार्ग में जीवन की ऐसी बहुत-सी दशाएँ पड़ जायँ, जिनमें मनुष्य के हृदय में भिन्न भिन्न भावों का स्फुरण होता है और जिनका सामान्य अनुभव प्रत्येक मनुष्य स्वभावत: कर सकता है। इन्हीं स्थलों में रसात्मक वर्णनों की प्रतिष्ठा होती है। अत: इनमें एक प्रकार से इतिवृत्त या कथा के प्रवाह का विराम सा रहता है। ऐसे रसात्मक वर्णन यदि छोड़ भी दिए जायँ तो वृतांत खण्डित नहीं होता। रसानुकूल परिस्थिति तक श्रोता को पहुँचाने के लिए बीच बीच में घटनाओं के सामान्य कथन या उल्लेख मात्र को ही शुद्ध इतिवृत्त समझना चाहिए, जैसी कि 'रामचरितमानस' की ये चौपाइयाँ हैं -

आगे  चले  बहुरि  रघुराया   ऋष्यमूक पर्वत नियराया॥

तहँ रह सचिव सहित सुग्रीवा     । आवत देखि अतुल बल सीवा॥

अति सभीत कह सुनु हनुमाना । पुरुष जुगल बल-रूप निधाना॥

धरि  बटुरूप  देख  तै  जाई  । कहेसि जानि जिय सैन बुझाई॥

    हितोपदेश, कथासरित्सागर, सिंहासन बत्तीसी, बैताल पच्चीसी आदि की कहानियाँ इतिवृत्त रूप में ही हैं, इसी से उन्हें कोई काव्य नहीं कहता। ऐसी कहानियों से भी श्रोता या पाठक का मनोरंजन होता है पर यह काव्य के मनोरंजन से भिन्न होता है। रसात्मक वाक्यों में मनुष्य के हृदय की वृत्तियाँ लीन होती हैं और इतिवृत्त से उसकी जिज्ञासा वृत्ति तुष्ट होती है। 'तब क्या हुआ?' इस वाक्य द्वारा श्रोता अपनी जिज्ञासा प्राय: प्रकट करते हैं। इससे प्रत्यक्ष है कि जो कहा गया है उसमें कुछ देर के लिए भी श्रोता का हृदय रमा नहीं है, आगे की बात जानने की उत्कंठा ही मुख्य है। कोरी कहानियों में मनोरंजन इसी कुतूहलपूर्ण जिज्ञासा के रूप में होता है। उनके द्वारा हृदय की वृत्तियों (रति, शोक आदि) का व्यायाम नहीं होता; जिज्ञासा वृत्ति का व्यायाम होता है। उनका प्रधान गुण 'घटनावैचित्रय' द्वारा कुतूहल को बनाए रखना ही होता है। कही जानेवाली कहानियाँ अधिकतर ऐसी ही होती हैं। पर कुछ कहानियाँ ऐसी भी जनसाधारण के बीच प्रचलित होती हैं जिनके बीच बीच में भावोद्रेक करनेवाली दशाएँ भी पड़ती चलती हैं। इन्हें हम रसात्मक कहानियाँ कह सकते हैं। इनमें भावुकता का अंश बहुत कुछ होता है और ये अपढ़ जनता के बीच प्रबन्धकाव्य का ही काम देती हैं। इनमें जहाँ जहाँ मार्मिक स्थल आते हैं वहाँ वहाँ कथोपकथन आदि के रूप में कुछ पद्य या गाना रहता है।

    ऐसी रसात्मक कहानियों का घटनाचक्र ही ऐसा होता है जिसके भीतर सुख दु:खपूर्ण जीवनदशाओं का बहुत कुछ समावेश रहता है। पहले कहा जा चुका है कि 'पद्मिनी और हीरामन तोते की कहानी' इसी प्रकार की है। इसके घटनाचक्र के भीतर प्रेम, वियोग, माता की ममता, यात्रा का कष्ट,  विपत्ति, आनन्दोत्सव, युद्ध, जय, पराजय आदि के साथ साथ विश्वासघात, वैर, छल, स्वामिभक्ति, पतिव्रत, वीरता आदि का भी विधान है। पर 'पद्मावत' श्रृंगारप्रधान काव्य है। इसी से इसके घटनाचक्र के भीतर जीवनदशाओं और मानवसम्‍बन्‍धों की वह अनेकरूपता नहीं है जो रामचरितमानस में है। इसमें रामायण की अपेक्षा बहुत मानव दशाओं और सम्‍बन्‍धों का रसपूर्ण प्रदर्शन और बहुत कम प्रकार के चरित्रों का समावेश है। इसका मुख्य कारण यह है कि जायसी का लक्ष्य प्रेमपथ का निरूपण है। जो कुछ हो, यह अवश्य मानना पड़ता है कि रसात्मकता के संचार के लिए प्रबन्धकाव्य का जैसा घटनाचक्र चाहिए पद्मावत का वैसा ही है। चाहे इसमें अधिक जीवनदशाओं को अन्तर्भूत करनेवाला विस्तार और व्यापकतत्त्व न हो, पर इसका स्वरूप बहुत ठीक है।

 

सम्बन्धनिर्वाह

    प्रबन्धकाव्य में बड़ी भारी बात है सम्‍बन्‍धनिर्वाह। माघ ने कहा है-

बह्वपि स्वेच्छया  कामं प्रकीर्णमभिधीयते।

अनुज्झितार्थसंबंधा  प्रबन्धो दुरुदाहर :

    जायसी का सम्‍बन्‍धनिर्वाह अच्छा है। एक प्रसंग से दूसरे प्रसंग की श्रृखला  बराबर लगी हुई है। कथाप्रवाह खण्डित नहीं है जैसा केशव की 'रामचन्द्रिका' का है, जो अभिनय के लिए चुने हुए पद्यों का संग्रह-सी जान पड़ती है। जायसी में विराम अवश्य है, जो कहीं कहीं अनावश्यक है पर विवरण का लोप नहीं है जिससे प्रवाह खण्डित होता है।

    हमारे आचार्यों ने कथावस्तु दो प्रकार की कही है-आधिकारिक और प्रासंगिक। अत: सम्‍बन्‍धनिर्वाह पर विचार करते समय सबसे पहले तो यह देखना चाहिए कि प्रासंगिक कथाओं का जोड़ आधिकारिक वस्तु के साथ अच्छी तरह मिला हुआ है या नहीं अर्थात् उनका आधिकारिक वस्तु के साथ ऐसा सम्‍बन्‍ध है या नहीं जिससे उसकी गति में कुछ सहायता पहुँचती हो। जो वृत्तान्त इस प्रकार सम्बद्ध न होंगे वे ऊपर से व्यर्थ ठूँसे हुए मालूम होंगे चाहे उनमें कितनी ही अधिक रसात्मकता हो। 'हितोपदेश' में एक कथा के भीतर कोई जो दूसरी कथा कहने लगता है या 'अलिफलैला' में एक कहानी के भीतर का कोई पात्र जो दूसरी कहानी छेड़ बैठता है वह मुख्य कथाप्रवाह से सम्बद्ध नहीं कही जा सकती। पद्मावत में कई प्रासंगिक वृतांत है -जैसे, हीरामन तोता खरीदने वाले ब्राह्मण का वृत्तान्त, राघवचेतन का हाल, बादल का प्रसंग-जिनका आधिकारिक वस्तु के प्रवाह पर पूरा प्रभाव है। उनके कारण आधिकारिक वस्तुओंत का मार्ग बहुत कुछ ीन र्ध‍ि रत थ्‍ हुआ है। प्रासंगिक वस्तु ऐसी ही होनी चाहिए जो आधिाकारिक वस्तु की गति आगे बढ़ाती या किसी ओर मोड़ती हो, जैसे देवपाल के वृत्ता ने अलाउद्दीन के फिर चित्तौर पहुँचने के पहले ही रत्नसेन के जीवन का अन्त कर दिया।

    यह तो हुई प्रासंगिक कथा की बात जिसमें प्रधान नायक के अतिरिक्त किसी अन्य का वृत्ता रहता है। अब आधिाकारिक वस्तु की योजना पर आइए। सबसे पहले तो यह प्रश्न उठता है कि प्रबन्ध काव्य में क्या जीवनचरित के समान उन सब बातों का विवरण होना चाहिए जो नायक के जीवन में हुई हों। संस्कृत के प्रबन्धकाव्यों को देखने से पता चलता है कि कुछ में तो इस प्रकार का विवरण होता है और कुछ में नहीं, कुछ की दृष्टि तो व्यक्ति पर होती है और कुछ की किसी प्रधान घटना पर। जिनकी दृष्टि व्यक्ति पर होती है उसमें नायक के जीवन की सारी मुख्य घटनाओं का वर्णन-गौरववृद्धि या गौरवरक्षा के ध्‍यान से अवश्य कहीं कहीं कुछ उलटफेर के साथ होता है। जिनकी दृष्टि किसी मुख्य घटना पर होती है उनका सारा वस्तुविन्यास उस घटना के उपक्रम के रूप में होता है। प्रथम प्रकार के प्रबन्धों को हम व्यक्तिप्रधान कह सकते हैं जिसके अन्तर्गत रघुवंश, बुद्धचरित, विक्रमांकदेवचरित आदि हैं। दूसरे प्रकार के घटना प्रधानप्रबन्धों के अन्तर्गत कुमारसम्भव, किरातार्जुनीय, शिशुपालवधा आदि हैं। 'पद्मावत' को इसी दूसरे प्रकार के प्रबन्ध के अन्तर्गत समझना चाहिए।

    कहने की आवश्यकता नहीं कि दृश्य काव्य का स्वरूप भी घटनाप्रधान ही होता है। अत: इस प्रकार के प्रबन्ध के वस्तुविन्यास की समीक्षा बहुत कुछ दृश्य काव्य के वस्तुविन्यास के समान ही होनी चाहिए। जैसे दृश्य काव्य का वैसे ही प्रत्येक घटनाप्रधान प्रबन्ध काव्य का एक 'कार्य' होता है जिसके लिए घटनाओं का सारा आयोजन होता है; जैसे, रामचरित में रावण का वधा। अत: घटनाप्रधान प्रबन्ध काव्य में उन्हीं वृत्ताान्तों का सन्निवेश अपेक्षित होता है जो उस साधय 'कार्य' के साधान मार्ग में पड़ते हैं अर्थात् जिनका उस कार्य से सम्‍बन्‍ध होता है। प्राचीन यवन आचार्य अरस्तू ने इसका विचार अपने 'काव्य सिद्धान्त' के आठवें प्रकरण में किया है और यह अब भी पाश्चात्य समालोचकों में 'कार्यान्वय' (यूनिटी ऑफ ऐक्शन) के नाम से प्रसिद्ध है।

    'पदमावत' में कार्य है पद्मावती का सती होना। उसकी दृष्टि से राघवचेतन का उतना ही वृत्ता आया है जितने का घटनाओं के 'कार्य' की ओर अग्रसर करने में योग है। इसी सिद्धान्त पर न तो चित्तौर की चढ़ाई के उपरान्त राघव की कोई चर्चा आती है और न विवाह के उपरान्त तोते की। यहाँ पर दो प्रसंगों पर विचार कीजिए-सिंहल से लौटते समय समुद्र के तूफान के प्रसंग पर और देवपाल के दूती भेजने के प्रसंग पर। तूफानवाली घटना यद्यपि प्रधान नायक के जीवन की घटना है पर यों देखने में 'कार्य' के साथ उसका स्पष्ट सम्‍बन्‍ध नहीं जान पड़ता। वह केवल भाग्य की अस्थिरता, संयोग की आकस्मिकता और विरह की विह्नलता दिखाने तथा लोभ के विरुद्ध शिक्षा देने के निमित्ता लाई जान पड़ती है। पर उक्त उद्देश्य प्रधान होने पर भी वह घटना 'कार्य' से बिलकुल असम्बद्ध नहीं है। कवि ने बड़े कौशल से सूक्ष्म सम्‍बन्‍धसूत्र रखा है। उसी घटना के अन्तर्गत रत्नसेन को समुद्र से पाँच रत्न प्राप्त हुए थे। जब अलाउद्दीन से चित्तौरगढ़ न टूट सका तब उसने सन्धि के लिए वे ही पाँच रत्न रत्नसेन से माँगे। अत: वे ही पाँच रत्न उस सन्धि के हेतु हुए जिनके द्वारा बादशाह का गढ़ में प्रवेश और रत्नसेन का बन्धन हुआ। प्रबन्धनिपुणता यही है कि जिस घटना का सन्निवेश हो वह ऐसी हो कि 'कार्य' से दूर या निकट का सम्‍बन्‍ध भी रखती हो और नए नए विशद भावों की व्यंजना का अवसर भी देती हो। देवपाल की दूती का आना भी इसी प्रकार की घटना है जो सतीत्वगौरव की अपूर्व व्यंजना के लिए अवकाश भी निकालती है और रत्नसेन की उस मृत्यु का हेतु भी होती है जो 'कार्य' का (पद्मावती के सती होने का) कारण है।

    'कार्यान्वयन' के अन्तर्गत ही यवनाचार्य ने कहा है कि कथावस्तु के आदि, मध्य और अन्त तीनों स्फुट हों। आदि से आरम्भ होकर कथाप्रवाह मध्‍य में जाकर कुछ ठहरा-सा जान पड़ता है, फिर चट 'कार्य' की ओर मुड़ पड़ता है। 'पदमावत' की कथा में हम तीनों अवस्थाओं को अलग अलग बता सकते हैं। पद्मावती के जन्म से लेकर रत्नसेन के सिंहलगढ़ घेरने तक कथाप्रवाह का आदि समझिए, विवाह से लेकर सिंहलद्वीप से प्रस्थान तक मध्‍य और राघवचेतन के देशनिर्वासन से लेकर पद्मिनी के सती होने तक अन्त। आदि अंश की सब घटनाएँ मध्‍य अर्थात् विवाह की ओर उन्मुख हैं। विवाह के उपरान्त जो उत्सव, समागम और सुखभोग आदि का वर्णन है उसे मध्‍य का विराम समझिए। उसके उपरान्त राघवचेतन के निर्वासन से घटनाओं का प्रवाह 'कार्य' की ओर मुड़ता है।

    प्राचीनों के अनुसार 'कार्य' महत्त्वपूर्ण होना चाहिए; नैतिक सामाजिक या मार्मिक प्रभाव की दृष्टि से 'कार्य' बड़ा होना चाहिए, जैसा 'रामचरित' में रावण का वध है और 'पदमावत' में पद्मिनी का सती होना। आधुनिक पाश्चात्य काव्यमर्मज्ञ यह आवश्यक नहीं मानते। काउपर, बर्न्स और वर्डस्वर्थ के प्रभाव से अँगरेजी काव्यक्षेत्र में जो विचार विप्लव घटित हुआ उसके अनुसार जिस प्रकार साधारण दीन जीवन के दृश्य काव्य के उपयुक्त विषय हो सकते हैं उसी प्रकार साधारण 'कार्य' भी। इस सम्‍बन्‍ध में आज से पचहत्तर वर्ष पहले प्रसिद्ध साहित्यमर्मज्ञ मैथ्यूआर्नल्ड ने कहा है-

    ''मैं यह नहीं कहता कि कवित्वशक्ति का विकास साधारण से साधारण 'कार्य' के वर्णन में नहीं हो सकता या नहीं होता है। पर यह खेद की बात है कि कवि विषय से भी और शक्ति तथा रोचकता प्राप्त करते हुए अपनी प्रभविष्णुता को दूनी न करके विषय को ही अपनी कवित्वशक्ति से जबरदस्ती शक्ति और रोचकता प्रदान कराए।'1

    इस प्रकार आर्नल्ड ने प्राचीन आदर्श का समर्थन किया है। जो हो; जायसी का भी यही आदर्श है। उन्होंने भी अपने काव्य के लिए 'महत्कार्य' चुना है जिसका आयोजन करनेवाली घटनाएँ भी बड़े डील-डौल की है। जैसे, बड़े बड़े कुँवरों और सरदारों की तैयारी, राजाओं और बादशाहों की लड़ाई इत्यादि। इसी प्रकार दृश्यवर्णन भी ऐसे ऐसे आते हैं, जैसे, गढ़ वाटिका, राज सभा, राजसी भोज और उत्सव आदि के वर्णन।

    सम्‍बन्‍धनिर्वाह के अन्तर्गत ही गति के विराम का विचार कर लेना चाहिए। यह कहना पड़ता है कि 'पद्मावत' में कथा की गति के बीच बीच में अनावश्यक विराम बहुत से हैं। मार्मिक परिस्थिति के विवरण और चित्रण के लिए घटनावाली का जो विराम पहले कह आए हैं वह तो काव्य के लिए अत्यन्त आवश्यक विराम है क्योंकि उसी से सारे प्रबन्ध में रसात्मकता आती है, पर उसके अतिरिक्त केवल पाण्डित्यप्रदर्शन के लिए, केवल जानकारी प्रकट करने के लिए, केवल अपनी अभिरुचि के अनुसार असम्बद्ध प्रसंग छेड़ने के लिए या इसी प्रकार की और बातों के लिए जो विराम होता है वह अनावश्यक होता है। जायसी के कथाप्रवाह में इस प्रकार के अनावश्यक विराम बहुत से हैं बहुत स्थलों पर तो ऐसा विराम कुछ दिनों से चली हुई उस भद्दी वर्णनपरम्परा का अनुसरण हैं जिसमें वस्तुओं के बहुत से नाम और भेद गिनाए जाते हैं -जैसे सिंहलद्वीप वर्णन खण्ड में फलों, फूलों और घोड़ों के नाम, रत्नसेन के विवाह और बादशाह की दावत में पकवानों और व्यंजनों की बड़ी लम्बी सूची। कुछ स्थलों पर तो केवल विषयों की जानकारी के लिए ही अनावश्यक विवरण जोड़े गए हैं -जैसे, पद्मावती के प्रथम समागम के अवसर पर सोलह श्रृंगारों और बारह आभरणों के नाम, सिंहलद्वीप से रत्नसेन और पद्मावती की यात्रा के समय

 

1. नार डू आइ डिनाइ दैट द पोएटिक फैकल्टी कैन ऐंड डज मैनिफेस्ट इटसेल्फ इन ट्रीटिंग द मोस्ट ट्राइफ्लिग एक्शन, द मोस्ट होपलेस सब्जेक्ट, बट इट इज ए पिटी दैट पावर शुड बी कम्पेल्ड टु इंपार्ट इंटरेस्ट ऐंड फोर्स, इंस्टीड आव रिसीविंग देम फ्राम इट, ऐंड देयर बाइ डब्लिंगइट्स इंप्रेसिवनेस।

प्रीफेस टु पोएम्स।

फलित ज्योतिष के यात्राविचार की पूरी उद्धरणी, राघव का बादशाह के सामने पद्मिनी, चित्रण आदि स्त्री-भेद-कथन।

    कई स्थलों पर तो 'गूढ़ बानी' का दम भरनेवाले मूर्खपन्थियों के अनुकरण पर कुछ पारिभाषिक शब्दों से ढँकी हुई थिगलियाँ व्यर्थ जोड़ी जान पड़ती हैं, जैसे, विवाह के समय भोजन के अवसर पर बाजा न बजने पर यह कथोपकथन-

तुम पंडित जानहु सब भेदू         पहिले नाद भएउ तब वेदू॥

आदि पिता जो विधि अवतारा      नाद संग जिउ ज्ञान सँचारा॥

नाद , वेद , मद , पैड़ जो चारी        काया महँ ते लेहू बिचारी॥

नाद हिये , मद उपनै काया         ।    जहँ मद तहाँ पैड़ नहीं छाया॥

    अथवा प्रथम समागम के समय सखियों द्वारा पद्मावती के छिपाए जाने पर राजा रत्नसेन का यह रसायनी प्रलाप-

का  पूछहु  तुम धातु , निछोही    जो गुरु कीन्ह अँतरपट ओही॥

सिधि गुटिका अब मो सँग कहा ।    भएउँ राँग , सत हिए न रहा॥

सो न रूप जासौं दुख खोलौं        गएउ भरोस तहाँ का बोलौं ?

जहँ  लोना  बिरवा  कै  जाती  ।    कहि कै सँदेस आन को पाती?

कै  जो  पार  हरतार  करीजै      गंधक देखि अबहि जिउ दीजै॥

तुम्ह  जोराकै  सूर  मयंकू         पुनि बिछोहि सो लीन कलंकू॥

    इन उक्तियों में 'सोन', 'रूप', 'लोना', 'जोरा कै' आदि में श्लेष और मुद्रा का कुछ चमत्कार अवश्य है पर यह सारा कथन रस में सहायता पहुँचाता नहीं जान पड़ता। कुछ समाधान यह कहकर किया जा सकता है कि राजा रत्नसेन भी जोगी होकर अनेक प्रकार के साधुओं का सत्संग कर चुका था, इससे विप्रलब्ध दशा में उसका यह पारिभाषिक प्रलाप बहुत अनुचित नहीं। पर कवि ने इस दृष्टि से उसकी योजना नहीं की है। पारिभाषिक शब्दों से भरे कुछ प्रसंग घुसेड़ने का जायसी को शौक ही रहता है, जैसे पद्मावती के मुँह से 'तौ लगि रंग न राँचै जो लगि होइ न चून' सुनते ही राजा रत्नसेन पानों की जातियाँ गिनाने लगता है-

हौं तुम नेह पियर भा पानू        पेड़ी हुँत सोनरास बखानू॥

सुनि तुम्हार संसार बड़ौना         जोग लीन्ह , तन कीन्ह गड़ौना॥

फेरि फेरि तन कीन्ह भुँजौना       औटि रकत रँग हिरदय औना॥

    एकदेश प्रसिद्ध ऐसे शब्दों के प्रयोग से जो 'अप्रतीतत्व' दोष आता है वह इस अनावश्यक विराम के बीच और भी खटकता है। कहीं कहीं तो जायसी कोई शब्द पकड़ लेते हैं और उस पर यों ही बिना प्रसंग के उक्तियाँ बाँध चलते हैं -जैसे, बादशाह की दावत के प्रकरण में पानी का जिक्र आया कि 'पानी' को ही लेकर वे यह ज्ञानचर्चा छेड़ चले-

पानी मूल परख  जौ  कोई      पानी बिना सवाद न होई॥

अमृतपान यह अमृत आना      पानी सौं घट रहै पराना॥

पानी दूध  औ पानी घीऊ       पानि घटे घट रहै न जीऊ॥

पानी माँझ समानी जोती   पानिहि  उपजै मानिक मोती॥

सो पानी मन गरब न करई     सीस नाइ खाले पग धरई॥

    जायसी के प्रबन्धविस्तार पर और कुछ विचार करने के पहले हमने उसके दो विभाग किए थे -इतिवृत्तात्मक और रसात्मक। इतिवृत्त की दृष्टि से तो विचार हो चुका। अब रसात्मक विधान की भी थोड़ी बहुत समीक्षा आवश्यक है। इतिवृत्त के विषय में यह कहा जा चुका है कि 'पदमावत' के घटनाचक्र के भीतर ऐसे स्थलों का पूरा सन्निवेश है जो मनुष्य की रागात्मिका प्रकृति का उद्बोधान कर सकते हैं, उसके हृदय को भावमग्न कर सकते हैं। अब देखना यह है कि कवि ने घटनाक्रम के बीच उन स्थलों को पहचानकर उनका कुछ विस्तृत वर्णन किया है या नहीं। किसी कथा के सब स्थल ऐसे नहीं होते जिनमें मनुष्य की रागात्मिका वृत्ति लीन होती है। एक उदाहरण लीजिए। किसी वणिक को व्यापार में घाटा आया जिसके कारण उसके परिवार की दशा बहुत बुरी हो गई। कवि यदि इस घटना को लेगा तो वह घाटा किस प्रकार आया, पूरे ब्योरे के साथ इसका सूक्ष्म वर्णन न करके दीन दशा का ही विस्तृत वर्णन करेगा। पर यदि व्यापारशिक्षा की किसी पुस्तक में यह घटना ली जाएगी तो उसमें घाटे के कारण आदि का पूरा सूक्ष्म ब्योरा होगा। 'पद्मावत' की कथा पर विचार करके हम कह सकते हैं कि उसमें जिन जिन स्थलों का वर्णन अधिक ब्योरे के साथ है-ऐसे ब्योरे के साथ है जो इतिवृत्त मात्र के लिए आवश्यक नहीं, जैसे, किसी का वचन, संवाद या वस्तु व्यापारचित्रण -वे सब रागात्मिका वृत्ति से सम्‍बन्‍ध रखने वाले हैं; केवल उन प्रसंगों को छोड़ जिनका उल्लेख 'अनावश्यक विराम' के अन्तर्गत हो चुका है। काव्यों में विस्तृत विवरण दो रूपों से मिलते हैं -

    (1) कवि द्वारा वस्तु-वर्णन के रूप में।

    (2) पात्र द्वारा भाव-व्यंजना के रूप में।

कवि द्वारा वस्तुवर्णन

वस्तु वर्णन-कौशल से कवि लोग इतिवृत्तात्मक अंशों को भी सरस बना सकते हैं। इस बात में हम संस्कृत के कवियों को अत्यन्त निपुण पाते हैं। भाषा के कवियों में वह निपुणता नहीं पाई जाती। मार्ग चलने का ही एक छोटा-सा उदाहरण लीजिए। राम      किष्किंधा की ओर जा रहे हैं। तुलसीदासजी इसका कथन इतिवृत्त के रूप में इस प्रकार करते हैं -

आगे चले बहुरि रघुराया ।  ऋष्यमूक पर्वत नियराया॥

    किसी पर्वत की ओर जाते समय दूर से उसका दृश्य कैसा जान पड़ता है, फिर ज्यों ज्यों उसके पास पहुँचते हैं त्यों त्यों उस दृश्य में किस प्रकार का अन्तर पड़ता जाता है, पहाड़ी मार्ग के आस पास का दृश्य कैसा हुआ करता है, यह सब ब्योरा उक्त कथन में या उसके आगे कुछ भी नहीं है। वहीं रघुवंश के द्वितीय सर्ग में दिलीप, उनकी पत्नी और नन्दिनी गाय के 'मार्ग चलने का दृश्य' देखिए। आसपास की प्राकृतिक परिस्थिति का कैसा सूक्ष्म बिम्बग्रहण कराता हुआ कवि चला है। चलने में मार्ग के स्वरूप को ही देखिए कवि ने कैसा प्रत्यक्ष किया है-

तस्या : खुरन्यासपवित्रपांसुमपांसुलानां   धूरि कीर्त्तनीया।

मार्गं मनुष्येश्वर -धर्मपत्नी श्रुतेरिवार्थं  स्मृतिरन्वगच्छत्॥

    'गाय के पीछे पीछे पगडंडी पर सुदक्षिणा चली' इतना ही तो इतिवृत्त है, पर 'जिसकी धूल पर नन्दिनी के खुर के चिन्‍ह पड़ते चलते हैं' यह विशेषण वाक्य देकर कवि ने उस मार्ग का चित्र भी खड़ा कर दिया है। वस्तुओं की ऐसी संश्लिष्ट योजना द्वारा बिम्बग्रहण कराने का-वस्तुओं का अलग अलग नाम लेकर अर्थग्रहण मात्र कराने का नही। -प्रयत्न हिन्दी कवियों में बहुत ही कम दिखाई पड़ता है। अत: जायसी में भी हम इसका आभास बहुत कम पाते हैं। इन्होंने जहाँ जहाँ वस्तुवर्णन किया है वहाँ वहाँ भाषाकवियों की पृथक्-पृथक् वस्तुपरिगणनवाली शैली ही पर अधिकतर किया है। अत: ये वर्णन परम्परामुक्त ही कहे जा सकते हैं। केवल वस्तुपरिगणन में नवीनता कहाँ तक आ सकती है? ऋतु का वर्णन होगा तो उस ऋतु में फलने फूलनेवाले पेड़ पौधों और दिखाई पड़नेवाले पक्षियों के नाम होंगे, वन का वर्णन होगा तो कुछ इने गिने जंगली पेड़ों के नाम आ जाएँगे, नगर या हाट का वर्णन होगा तो बाग, बगीचों, मकानों और दुकानों का उल्लेख होगा। नवीनता की सम्भावना तो कवि के निज परीक्षण द्वारा प्रत्यक्ष की हुई वस्तुओं और व्यापारों की संश्लिष्ट योजना में ही हो सकती है। सामग्री नई नहीं होती, उसकी योजना नए रूप में होती है।

    ऊपर लिखी बात का ध्‍यान रखते हुए भी यह मानना पड़ता है कि वस्तुवर्णन के लिए जायसी ने घटना चक्र के बीच उपयुक्त स्थलों को चुना है और उनका विस्तृत वर्णन अधिकतर भाषाकवियों की पद्धति पर होते हुए भी बहुत ही भावपूर्ण है। अब संक्षेप में कुछ मुख्य स्थलों का उल्लेख किया जाता है जिन्हें वर्णनविस्तार के लिए जायसी ने चुना है।

   सिंहलद्वीप वर्णन - इसमें बगीचों, सरोवरों, कुओं, बावलियों, पक्षियों, नगर, हाट, गढ़, राजद्वार और हाथी, घोड़ों का वर्णन है। अमराई की शीतलता और सघनता का अंदाज इस वर्णन से कीजिए-

घन अमराउ लाग चहुँ पासा      उठा भूमि हुँत लागि अकासा॥

तरिवर सबै मलयगिरि  लाई      भइ जग छाँह, रैनि होइ आई॥

मलय समीर सोहावनि  छाँहा   ।   जेठ जाड़ लागै तेहि माहाँ॥

ओही छाँह रैनि होइ आवै    हरियर  सबै अकास देखावै॥

पथिक जो पहुँचै सहिकै घामू      दुख बिसरै , सुख होइ बिसरामू॥

    इतना कहते कहते कवि का ध्‍यान ईश्वर के सामीप्य की भावना की ओर चला जाता है और वह उस अमरधाम की ओर, जहाँ पहुँचने पर भवताप से निवृत्ति हो जाती है, इस प्रकार संकेत करता है-

जेइ पाई वह छाँह अनूपा ।  फिरि नहि आइ सहै यह धूपा॥

    कवि की यही पारमार्थिक प्रवृत्ति उसे हेतूत्प्रेक्षा की ओर ले जाती है। ऐसा जान पड़ता है, मानो उसी अमराई की छाया से ही संसार में रात होती है और आकाश हरा (प्राचीन दृष्टि हरे और नीले में इतना भेद नहीं करती थी) दिखाई देता है।

    जैसा कि पहले कहा जा चुका है, जिन दृश्यों का माधुर्य भारतीय हृदय पर चिरकाल से अंकित चला आ रहा है उन्हें चुनने की सहृदयता जायसी का एक विशेष गुण है। भारत के श्रृंगारप्रिय हृदयों में 'पनघट का दृश्य' एक विशेष स्थान रखता है। बूढ़े केशवदास ने पनघट ही पर बैठे बैठे अपने सफेद बालों को कोसा था। सिंहल के पनघट का वर्णन जायसी इस प्रकार करते हैं -

पानि  भरै  आवहिं  पनिहारी  ।  रूप सुरूप पदमिनी  नारी॥

पद्म गंध तिन्ह अंग बसाहीं       ।  भँवर लागि तिन्ह संग फिराहीं॥

लंक  सिंघिनी सारँग  नैनी  ।  हंस गामिनी, कोकिल बैनी॥

आवहिं झुंड सो पाँतिहि पाँती      ।  गवन सोहाइ सो भाँतिहि भाँती॥

कनक कलस ,मुख चंद दिपाहीं  ।  रहस केलि सन आवहिं जाहीं॥

जा सहुँ वै हेरहि चख नारी       ।  बाँक नैन जनु हनहिं कटारी॥

केस मेघावर सिर ता पाईं    ।  चमकहिं दसन बीजु कै नाईं॥

    पद्मावती का अलौकिक रूप ही सारी आख्यायिका का आधार है। अत: कवि इन पनिहारियों के रूप की झलक दिखाकर पद्मावती के रूप के प्रति पहले ही से इस प्रकार उत्कंठा उत्पन्न करता है-

माथे कनक गागरी आवहिं रूप अनूप।

जेहिके अस पनिहारी सो रानी केहि रूप?

    बाजार के वर्णन में 'हिन्दू हाट' की अच्छी झलक मिल जाती है-

कनक हाट सब कुहकुहँ लीपी । बैठ महाजन सिंहलदीपी।

सोन रूप भल भएउ पसारा     । धावल सिरी पोते घर बारा॥

    जिस प्रकार नगर हाट के वर्णन से सुखसमृद्धि टपकती है उसी प्रकार गढ़ और राजद्वार के अतिशयोक्तिपूर्ण वर्णन से प्रताप और आतंक-

निति गढ़ बाँचि चलै ससि सूरू ।    नाहिं त होइ बाजि रथ चूरू॥

पौरी  नवौ  वज्र  कै  साजी       सहस सहस तहँ बैठे पाजी॥

फिरहिं  पाँच  कोटवार  सुभौरी     काँपै पाँव चपत वह पौरी॥

   जल क्रीड़ा वर्णन -सिंहलद्वीप वर्णन के उपरान्त सखियों सहित पद्मावती की जलक्रीड़ा का वर्णन है (दे. मानसरोदक खण्ड)। यद्यपि जायसी ने इस प्रकरण की योजना कौमार अवस्था के स्वाभाविक उल्लास और मायके की स्वच्छन्दता की व्यंजना के लिए की है, पर सरोवर के जल में घुसी हुई कुमारियों का मनोहर दृश्य भी दिखाया है और जल में उनके केशों के लहराने आदि का चित्रण भी किया है-

धरी तीर सब कंचुकि सारी       सरवर मँह पैठी सब नारी॥

पाइ नीर जानहु सब बेली    हुलसहिं करहिं काम कै केली॥

करिल केस बिसहर बिसभरे       लहरै लेहि कवँल मुख धरे॥

नवल  बसंत  सँवारी  करी       भई प्रगट जानहु रस भरी॥

सरवर  नहिं  समाइ संसारा      चाँद नहाइ पैठ लेइ तारा॥

    उल्लास के अनुरूप क्रिया जायसी ने इस खेल में दिखाई है-

सँवरिहिं  साँवरि , गोरिहि गोरी। आपनि आपनि लीन्हि सो जोरी॥

   सिंहलद्वीप यात्रा वर्णन -वस्तुवर्णन की जो पद्धति जायसी की कही गई है उसे ध्‍यान में रखते हुए मार्गवर्णन जैसा चाहिए वैसे की आशा नहीं की जा सकती। चित्तौर से कलिंग तक जाने में मार्ग में न जाने कितने वन, पर्वत, नदी, निर्झर, ग्राम, नगर तथा भिन्न भिन्न आकृति प्रकृति के मनुष्य इत्यादि पड़ेंगे पर जायसी ने उनका चित्रण करने की आवश्यकता नहीं समझी केवल इतना ही कहकर वे छुट्टी पा गए-

है आगे परबत कै बाटा। विषम पहार अगम सुठि घाटा॥

बिच बिच नदी खोह औ नारा। ठाँवहिं ठाँव बैठ बटपारा॥

    प्राकृतिक दृश्यों के साथ जायसी के हृदय का वैसा मेल नहीं जान पड़ता। मनुष्यों के शारीरिक सुख दु:ख से, उनके आराम और तकलीफ से, उनका जहाँ तक सम्‍बन्‍ध होता है वहीं तक उनकी ओर उनका ध्‍यान जाता है। बगीचों और अमराइयों का वर्णन वे जो करते हैं सो केवल उनकी सघन शीतल छाया के विचार से। वन का जो वे वर्णन करते हैं वह कुश कण्टकों के विचार से, कष्ट और भय के विचार से-

करहू दीठि थिर होइ बटाऊ       आगे देखि धरहु भुइँ पाऊ॥

जो रे उबट होइ परे भुलाने       गए मारि , पथ चलै न जाने॥

पायँन पहिरि लेहू सब पौरी       काँट धँसै न गड़ै अँकरौरी॥

परे आइ बन परबत माहाँ    दंडाकरन  बीझ बन गाहाँ॥

सघन ढाक बन चहुँदिसि फूला  ।    बहु दुख पाव उहाँ कर भूला॥

झाँखर जहाँ सो छाँड़हु पंथा       हिलगि मकोय न फारहु कंथा॥

    फारसी की शायरी में जंगल और बयाबान का वर्णन केवल कष्ट या  विपत्ति के प्रसंग में आता है। वहाँ जिस प्रकार चमन आनन्दोत्सव का सूचक है उसी प्रकार कोह या बयाबान  विपत्ति का। संस्कृत साहित्य का जायसी को परिचय न था। वे वन, पर्वत आदि के अनुरंजनकारी स्वरूप के चित्रण की पद्धति पाते तो कहाँ पाते? उनकी प्रतिभा इस प्रकार की न थी कि किसी नई पद्धति की उद्भावना करके उसपर चल खड़ी होती।

   समुद्र वर्णन -हिन्दी के कवियों में केवल जायसी ने समुद्र का वर्णन किया है, पर पुराणों के 'सात समुद्र' के अनुकरण के कारण समुद्र का प्रकृत वर्णन वैसा होने नहीं पाया। क्षीर, दधि और सुरा के कारण समुद्र के प्राकृतिक स्वरूप का अच्छा प्रत्यक्षीकरण न हो सका। आरम्भ में समुद्र का जो सामान्य वर्णन है उसके कुछ पद्य अवश्य समुद्र की महत्ता और भीषणता का चित्र खड़ा करते हैं, जैसे-

समुद अपार सरग जनु लागा ।  सरग न घाल गनै बैरागा॥

उठै लहरि जनु ठाढ़ पहारा   ।  चढ़ै सरग औ परै पतारा॥

    विशेष समुद्रों में से केवल 'किलकिला समुद्र' का वर्णन अत्यन्त स्वाभाविक तथा वैसे महत्त्वजन्य आश्चर्य और भय का संचार करनेवाला है जैसा समुद्र के वर्णन द्वारा होना चाहिए-

भा किलकिल अस उठै हिलोरा  ।    जनु अकास टूटै चहुँ ओरा॥

उठहि लहरि परबत कै नाईं       फिरि आवहिं जोजन सौ ताईं॥

धरती लेइ सरग लहि बाढ़ा       सकल समुद जानहु भा ठाढ़ा॥

नीर  होइ  तर  ऊपर  सोई      माथे रंभ समुद जस होई॥

    यदि इसी प्रकार के वर्णन का विस्तार और अधिक होता तो क्या अच्छा होता! 'समुद अपार सरग जनु लागा' इस वाक्य में विस्तार का बहुत ही सुन्दर प्रत्यक्षीकरण हुआ है। जहाँ तक दृष्टि जाती है वहाँ तक समुद्र ही फैला हुआ और क्षितिज से लगा हुआ दिखाई पड़ता है। दृश्यरूप में विस्तार का यह कथन अत्यन्त काव्योचित है। अँगरेजी के कवि गोल्डस्मिथ ने भी अपने 'श्रान्त पथिक' (ट्रैवेलर) नामक काव्य में विस्तार का प्रत्यक्षीकरण-'ए बेयरी वेस्ट इक्स्पैडिंग टु द स्काईज' (आकाश तक फैला हुआ मैदान) कहकर किया है। 'परबत कै नाई' इस साम्य द्वारा भी लहरों की ऊँचाई की जो भावना उत्पन्न की गई वह काव्य पद्धति के बहुत ही अनुकूल है। इसके स्थान पर यदि कहा गया होता कि लहरें बीस पचीस हाथ ऊँची उठती हैं तो माप शायद ठीक होती पर जो प्रभाव कवि उत्पन्न किया चाहता था वह उत्पन्न न होता। इसी से काव्य के वर्णनों में संख्या या परिमाण का उल्लेख नहीं होता और जहाँ होता भी है वहाँ उसका लाक्षणिक अर्थ ही लिया जाता है, जैसे 'फिरि आवहिन् जोजन सौ ताई' में। काव्य के वाक्य श्रोता की ठीक मान निर्धारित करनेवाली या सिद्धान्त निरूपित करनेवाली निश्चयात्मिका बुद्धि को सम्बोधन करके नहीं कहे जाते।

    समुद्र के जीव जन्तुओं का जो काल्पनिक और अत्युक्त वर्णन जायसी ने किया है उससे सूचित होता है कि उन्होंने किस्से कहानियों में सुनी सुनाई बातें ही लिखी हैं, अपने अनुभव की नहीं। उन्होंने शायद समुद्र देखा भी न रहा हो।

    सात समुद्रों के नाम जो जायसी ने लिखे हैं उनमें से प्रथम पाँच तो पुराणानुकूल हैं, पर अन्तिम दो किलकिला और मानसर-भिन्न हैं। पुराणों के अनुसार सात समुद्रों के नाम हैं : क्षार (खारे पानी का), जल (मीठे पानी का) क्षीर, दधि, घृत, सुरा और मधु। इनमें से जायसी ने घृत और मधु को छोड़ दिया है। सिंहलद्वीप के पास 'मानसर' की कल्पना वैसी ही है जैसी कैलास में इन्द्र और अप्सराओं की।

   विवाहवर्णन - इसमें आनंदोत्सव और ओज का वर्णन है। सजावट आदि का चित्रण अच्छा है। इसमें राजा के ऐश्वर्य और प्रजा के उल्लास का आभास मिलता है-

रचि रचि मानिक माँड़व छावा   ।  औ भुइँ रात बिछाव बिछावा॥

चंदन  खाँभ  रचे  बहु  भाँती      मानिक  दिया  बरहिं  दिन राती॥

साजा  राजाबाजन  बाजे            मदन सहाय दुवौ दर गाजे॥

औ  राता  सोने  रथ साजा            भए बरात गोहने सब राजा॥

घर  घर  वंदन  रचे  दुवारा          गावत नगर गीत झनकारा॥

हाट बाट सब सिंहघल , जहँ देखहुँ तहँ रात।

धनि रानी पदमावति , जेहिकै  ऐसि बरात॥

    बरात निकलने के समय अटारियों पर दूल्हा देखने की उत्कण्ठा से भरी स्त्रियों का जमावाड़ा भारतवर्ष का एक बहुत पुराना दृश्य है। ऐसे दृश्यों को रखना जायसी नहीं भूलते, यह पहले कहा जा चुका है। पद्मावती अपनी सखियों को लेकर वर देखने की उत्कण्ठा से कोठे पर चढ़ती है-

पद्मावति   धौराहर   चढ़ी          दहुँ कस रवि जेहि कहँ ससि गढ़ी॥

देखि बरात सखिन्ह  सौं कहा    । इन्ह महँ सो जोगी को अहा?

    सखियाँ उँगली से दिखाती हैं कि वह देखो-

जस रवि, देखु, उठै परभाता      उठा छत्र तस बीच बराता॥

ओहि माँझ भा दूलह सोई         और बरात संग सब कोई॥

    इस कथन में कवि ने निपुणता यह दिखाई है कि सखी उस बरात के बीच पहले सबसे अधिक लक्षित होने वाली वस्तु छत्र की ओर संकेत करती है; फिर कहती है कि उसके नीचे वह जोगी दूल्हा बना बैठा है।

    भोज के वर्णन में व्यंजनों और पकवानों की नामावली है।

    गोस्वामी तुलसीदासजी ने राम सीता के विवाह का जितना विस्तृत वर्णन किया है उतना विस्तृत वर्णन जायसी का नहीं है। गोस्वामीजी का रामचरितमानस लोकपक्षप्रधान काव्य है और जायसी के 'पद्मावत' में व्यक्तिगत प्रेमसाधना का पक्ष प्रधान है। अत: 'पदमावत' में लोकव्यवहार का जो इतना चित्रण मिलता है उसी को बहुत समझना चाहिए। जैसा पहले कह आए हैं, इश्क की मसनवियों के समान यह लोकपक्षशून्य नहीं है।

   युद्ध-यात्रा - वर्णन -सेना की चढ़ाई का वर्णन बड़ी धूमधाम का है। ग्रन्थारम्भ में शेरशाह की सेना के प्रसंग की चौपाइयाँ ही देखिए, कितनी प्रभावपूर्ण है। -

हयगय सेन चलै जग पूरी        परबत टूटि मिलहिं होइ धूरी॥

रेनु रैनि होइ रविहिं गरासा       मानुख पंखि लेहि फिरि बासा॥

भुइँ उड़ि अंतरिक्ख  मृदमंडा      खंड खंड धरती बरम्हंडा॥

डोलै  गगन , इंद्र  डरिकाँपा      बासुकि जाइ पतारहिं चाँपा॥

मेरु  धसमसै , समुद  सुखाई  ।    बनखँड टूटि खेह मिलि जाई॥

अगिलहिं  कहँ  पानी  लेइ  बाँटा   ।  पछिलहिं  कहै  नहिं  काँदौ  आटा॥

    इसी ढंग का चित्तौर पर अलाउद्दीन की चढ़ाई का बड़ा विस्तृत वर्णन है-

बादसाह हठि कीन्ह पयाना       इंद्र भँडार डोल भय माना॥

नब्बे लाख सवार जो चढ़ा        जो देखा सो लोहे मढ़ा॥

बीस सहस घुम्मरहिं  निसाना  ।  गलगंजहिं  फेरहिं असमाना॥

बैरख ढाल गगन गा छाई     चला कटक धरती न समाई॥

सहस पाँति गज मत्त चलावा       घुसत अकास, धाँसत भुंइँ आवाँ॥

बिरिछ उपारि पेड़ि सौं लेहीं        मस्तक झारि डोरि मुख देहीं॥

कोइ काहू न सँभारे , होत आव तस चाँप।

धरति आपु कहँ काँपै , सरग आपु कहँ काँप॥

आवै  डोलत  सरग  पतारू       काँपै धरति, अँग वै भारू॥

टूटहिं  परवत  मेरु   पहारा      होइ होइ चूरि उड़हि होइ छारा॥

सत खँड धरती भइ षट खंडा      ऊपर अस्ट भए बरम्हंडा॥

गगन छपान खेह तस छाई       सुरुज छपा, रैनि होइ आई॥

दिनहिं राति अस परी अचाका   ।  भा रवि अस्त ,चंद रथ हाँका॥

मँदिरन्ह  जगत  दीप  परगसे  ।   पंथी चलत बसेरहि बसे॥

दिन के पंखि चरत उड़ि भागे   ।  निसि के निसरि चरै सब लागे॥

    कैसे घोर सृष्टिविप्लव का दृश्य जायसी ने सामने रखा है! मानव व्यापारों की व्यापकता और शक्तिमत्ता का प्रभाव वर्णन करने में जायसी को पूरी सफलता हुई है। मनुष्य की शक्ति तो देखिए! उसकी एक गति से सारी सृष्टि में खलबली पड़ गई है। पृथ्वी और आकाश दोनों हिल रहे हैं। एक के सात के छ: ही खण्ड रहते दिखाई देते हैं और दूसरे के सात के आठ हुए जाते हैं। दिन की रात हो रही है। जिन जायसी ने विशुद्ध प्रेममार्ग में मनुष्य की मानसिक और आध्‍यात्मिक शक्ति का साक्षात्कार किया-सच्चे प्रेमी की वियोगाग्नि की लपट को लोकलोकान्तर में पहुँचाया-उन्होंने यहाँ उसकी भौतिक शक्ति का प्रसार दिखाया है।

    इस वर्णन में बिम्बग्रहण कराने के हेतु चित्रण का प्रयत्न भी पाया जाता है। इसमें कई व्यापारों की संश्लिष्ट योजना कई स्थलों पर दिखाई देती है। जैसे, हाथी पेड़ों को पेड़ी सहित उखाड़ लेते हैं, और फिर मस्तक झाड़ते हुए उन्हें तोड़कर मुँह में डाल लेते हैं। इस रूप में वर्णन न होकर यदि एक स्थान पर यह कहा जाता है कि हाथी पेड़ उखाड़ लेते हैं, फिर कहीं कहा जाता है कि वे मस्तक झाड़ते हैं और आगे चलकर यह कहा जाता कि वे डालियाँ मुँह में डाल लेते हैं तो यह संकेत रूप में (अर्थग्रहण मात्र कराने के लिए, चित्त में प्रतिबिम्ब उपस्थित करने के लिए नहीं) कथन मात्र होता, चित्रण न होता। इसी प्रकार पहाड़ टूटते हैं, टूटकर चूर चूर होते हैं और फिर धूल होकर ऊपर छा जाते हैं। इस पंक्ति में भी व्यापारों की श्रृखला  एक में गुँथी हुई है। ये वर्णन संस्कृत चित्रणप्रणाली पर हैं। जिन व्यापारों या वस्तुओं में जायसी के हृदय की वृत्ति पूर्णतया लीन हुई है उनका ऐसा चित्रण मानो आपसे आप हो गया है।

    इसके आगे राजा रत्नसेन के घोड़ों, हथियारों और उनकी सजावट आदि का अच्छे विस्तार के साथ वर्णन है। सब बातों की दृष्टि से यह युद्ध यात्रा वर्णन सर्वांगपूर्ण कहा जा सकता है।

   युद्धवर्णन -घमासान युद्ध वर्णन करने का भी जायसी ने अच्छा आयोजन किया है। शस्त्रों की चमक और झनकार हथियारों की रेलपेल, सिर और धड़ का गिरना, आदि सब कुछ है-

हस्ती सहुँ हस्ती हठि गाजहिं   ।  जनु परबत परबत सौं बाजहिं॥

कोउ  गयंद  न  टारे टरहीं         ।  टूटहिं दाँत, सूँड़ गिरि परहीं॥

बाजहिं खड़ग, उठै दर आगी         ।  भुइँ जरि चहै सरग कहँ लागी॥

चमकहिं बीजु होइ उँजियारा          ।  जेहि सिर परे होइ दुइ फारा॥

बरसहिं सेल बान, होइ काँदों         ।  जस बरसे सावन औ भादों॥

झपटहिं कोपि परहिं तरवारी         ।  औ गोला ओला जस भारी॥

जूझे  वीर  कहौं  कहँ ताई          ।  लेइ अछरी कैलास सिधाई॥

    अन्तिम पंक्ति में वीरों के प्रति जो सम्मान का भाव प्रकट किया गया है वह हिन्दुओं और मुसलमानों दोनों की महत्त्वभावना के अनुकूल है। रणक्षेत्र में वीरगति को प्राप्त शूरवीरों का स्वागत जैसे हिन्दुओं के स्वर्ग में अप्सराएँ करती हैं वैसे ही मुसलमानों के बहिश्त में भी। लोकसंगत आदर्श के प्रति यह पूज्य बुद्धि जायसी को कबीर आदि व्यक्तिपक्ष ही तक दृष्टि ले जानेवाले साधकों से अलग करती है।

    भारतीय कविपरम्परा युद्ध की भीषणता के बीच गीध, गीदड़ आदि के रूप में कुछ बीभत्स दृश्य भी लाया करती है। जायसी ने भी इस परम्परा का अनुसरण किया है-

अनंद बधाव करहिं मँसखावा   ।  अब भख जनम जनम कहँ पावा॥

चौंसठ जोगिनि खप्पर पूरा    ।  बिग जंबुक घर बाजहिं तूरा॥

गिद्ध चील सब माँड़ो छावहिं   ।  काग कलोल करहि औ गावहिं॥

   बादशाह –भोजन –वर्णन -जैसा पहले कह आए हैं, इसमें अनेक युक्तियों से बनाए हुए व्यंजनों, पकवानों, तरकारियों और मिठाइयों इत्यादि की बड़ी लम्बी सूची है-इतनी लम्बी कि पढ़नेवाले का जी ऊब जाता है। यह भद्दी परम्परा जायसी के पहले से चली आ रही थी। सूरदासजी ने भी इसका अनुसरण किया है।

   चित्तौरगढ़ वर्णन -यह भी उसी ढंग का है जिस ढंग का सिंहलगढ़ का वर्णन है। इसमें भी सात पौरें हैं, पर नवद्वारवाली कल्पना नहीं आई है क्योंकि कवि को यहाँ किसी अप्रस्तुत अर्थ का समावेश नहीं करना था। चित्तौर बहुत दिनों तक हिन्दुओं के बल, प्रताप और वैभव का केन्द्र रहा। सारी हिन्दू जाति उसे सम्मान और गौरव की दृष्टि से देखती रही। चित्तौर के नाम के साथ हिन्दूपन का भाव लगा हुआ था। यह नाम हिन्दुओं के मर्म को स्पर्श करनेवाला है। भारतेन्दु के इस वाक्य में हिन्दूहृदय की कैसी वेदना भरी है-

हाय चित्तौर ! निलज तू भारी। अजहुँ खरो भारतहि मँझारी॥

    उसी प्रिय भूमि के सम्‍बन्‍ध में जायसी क्षत्रिय राजाओं के मुँह से कहलाते हैं -

चितउर हिंदुन कर अस्थाना   ।  सत्रु तुरुक हठि कीन्ह पयाना॥

है चितउर हिंदुन कै माता     ।  गाढ़ परे तजि जाइ न नाता॥

    चित्तौर के इसी गौरव और ऐश्वर्य के अनुरूप गढ़ का यह वर्णन है-

सातौ  पँवरी  कनक  केवारा     सातहु पर बाजहिं घरियारा॥

खँड खँड साज पलँग औ पीढ़ी  ।    मानहुँ  इंद्रलोक  कै सीढ़ी॥

चंदन  बिरिछ  सुहाई  छाहाँ      अमृत कुंड भरे तेहि माहाँ॥

फरे  खजहजा  दारिउँ  दाखा   ।   जो ओहि पंथ जाइ सो चाखा॥

कनक  छत्र सिंघासन  साजा   ।   पैठत पँवरि मिला लेइ राजा॥

चढ़ा साह, गढ़ चितउर देखा      सब संसार पाँव तर लेखा॥

देखा साह गगन गढ़ , इंद्रलोक कर साज।

कहिय राज फुर ताकर , करै सरग अस राज॥

   षट् ऋतु, बारह मास वर्णन -उद्दीपन की दृष्टि से तो इन पर विचार 'विप्रलम्भ श्रृंगार' और 'संयोग श्रृंगार' के अन्तर्गत हो चुका है। वहाँ इनके नाना दृश्यों का जो आनन्ददायक या दु:खदायक स्वरूप दिखाया गया है वह किसी अन्य (आलम्बन रत्नसेन) के प्रति प्रतिष्ठित रतिभाव के कारण है। उद्दीपन में वर्णन दृश्यों के स्वतन्त्र प्रभाव की दृष्टि से नहीं होता। पर यहाँ उन दृश्यों का विचार हमें इस दृष्टि से करना है कि उनका मनुष्य मात्र की रागात्मिका वृत्ति के आलम्बन के रूप में चित्रण कहाँ तक और कैसा हुआ है। ऐसे दृश्यों में स्वत: एक प्रकार का आकर्षण होता है, यह बात तो सहृदय मात्र स्वीकार करेंगे। इसी आकर्षण के कारण प्राचीन कवियों ने प्राकृतिक वस्तुओं और व्यापारों का सूक्ष्म निरीक्षण करके तथा उनके संश्लिष्ट ब्योरों को संश्लिष्ट रूप में ही रखकर दृश्यों का मनोहर चित्रण किया है। पर जैसा कि पहले कह आए हैं, जायसी के ये वर्णन उद्दीपन की दृष्टि से हैं जिसमें वस्तुओं और व्यापारों की झलक मात्र-जो नामोल्लेख मात्र से भी मिल सकती है-काफी समझी जाती है। पर बहुत ही प्यारे शब्दों में दिखाई हुई यह झलक है बहुत मनोहर। कुछ उदाहरण 'विप्रलम्भ श्रृंगार' के अन्तर्गत दिए जा चुके हैं, कुछ और लीजिए-

अद्रा  लाग लागि  भुइँ  लेई      मोहि  बिनु  पिउ  को आदर  देई?

सावन बरस मेह अति पानी             भरनि परी, हौं बिरह झुरानी॥

भा परगास काँस बन फूले          कंत न फिरे , बिदेसहि भूले॥

कातिक सरद चंद उजियारी             जग सीतल , हौं बिरहै जारी॥

टप टप बूँद परहिं , औ ओला    ।  विरह पवन होइ मारै झोला॥

तरिवर झरहिं झरहिं बन ढाखा   ।   भई ओनंत फूलि फरि साखा॥

बौरे  आम  फरै  अब  लागे            अबहुँ आउ घर , कंत सभागे॥

    यह झलक बारहमासे में हमें मिलती है। षट्ऋतु के वर्णन में सुखसम्भोग का ही उल्लेख अधिक है, प्राकृतिक वस्तुओं और व्यापारों का बहुत कम। दोनों का वर्णन यद्यपि उद्दीपन की दृष्टि से है, दोनों में यद्यपि प्राकृतिक वस्तुओं और व्यापारों की अलग अलग झलक भर दिखाई गई है, पर एक आध जगह कवि का अपना निरीक्षण भी अत्यन्त सूक्ष्म और सुन्दर है, जैसे-

चमक बीजु बरसै जल सोना । दादुर मोर सबद सुठि लोना॥

    इसमें बिजली का चमकना और उसकी चमक में बूँदों का सुवर्ण के समान झलकना इन दो व्यापारों की एक साथ योजना दृश्य पर कुछ देर ठहरी हुई दृष्टि सूचित करती है। यही बात बैसाख के इस रूपकवर्णन में भी है-

सरवर हिया घटत निति जाई    ।  टूक टूक होइ कै बिहराई॥

बिहरत हिया करहु, पिउ ! टेका   ।  दीठि दवँगरा , मेरवहु एका॥

    तालों का पानी जब सूखने लगता है तब पानी सूखे हुए स्थान में बहुत सी दरारें पड़ जाती हैं जिससे खाने कटे दिखाई पड़ते हैं। वर्षा के आरम्भ की झड़ी (दवँगरा) जब पड़ती है तब वे दरारें फिर मिल जाती हैं। विदीर्ण होते हुए हृदय को सूखता हुआ सरोवर और प्रिय के दृष्टिपात को 'दवँगरा' बनाकर कवि ने प्रकृति के सूक्ष्म निरीक्षण का बहुत ही अच्छा परिचय दिया है। इसके अतिरिक्त दो प्रस्तुत (बैसाख का वर्णन है इससे सूखते हुए सरोवर का वर्णन प्रस्तुत है, नागमती वियोगिनी है इससे विदीर्ण होते हृदय का वर्णन भी प्रस्तुत ही है) वस्तुओं के बीच सादृश्य की भावना भी अत्यन्त माधुर्यपूर्ण और स्वाभाविक है। मैं तो समझता हूँ इसके जोड़ की सुन्दर और स्वाभाविक उक्ति हिन्दी काव्यों में बहुत ढूँढ़ने पर कहीं मिले तो मिले।

    बारहमासे के सम्‍बन्‍ध में यह जिज्ञासा हो सकती है कि कवि ने वर्णन का आरम्भ आषाढ़ से क्यों किया है, चैत से क्यों नहीं किया। बात यह है कि राजा रत्नसेन ने गंगा दशहरे को चित्तौर से प्रस्थान किया था जैसा कि इस चौपाई से प्रकट है

दसवँ दावँ कै गा जो दसहरा । पलटा सोइ नाव लेइ महरा॥

    यह वचन नागमती ने उस समय कहा है जब राजा रत्नसेन सिंहल से लौटकर चित्तौर के पास पहुँचा है। इसका अभिप्राय यह है कि जो केवट दसहरे के दिन मेरी दशम दशा (मरण) करके गया था, जान पड़ता है कि वह नाव लेकर आ रहा है। दसहरे के पाँच दिन पीछे ही आषाढ़ लगता है इससे कवि ने नागमती की वियोगदशा का आरम्भ आषाढ़ से किया है।

   रूप - सौन्दर्य वर्णन -जैसा कि पहले कह आए हैं, रूपसौन्दर्य ही सारी आख्यायिका का आधार है अत: पद्मावती के रूप का बहुत ही विस्तृत वर्णन तोते के मुँह से जायसी ने कराया है। यह वर्णन यद्यपि परम्पराभुक्त ही है, अधिकतर परम्परा से चले आते हुए उपमानों के आधार पर ही है, पर कवि की भोली भाली और प्यारी भाषा के बल से यह श्रोता के हृदय को सौन्दर्य की अपरिमित भावना से भर देता है। सृष्टि के जिन जिन पदार्थों में सौन्दर्य की झलक है, पद्मावती की रूपराशि की योजना के लिए कवि ने मानों सबको एकत्र कर दिया है। जिस प्रकार कमल, चन्द्र, हंस आदि अनेक पदार्थों से सौन्दर्य लेकर तिलोत्तमा का रूप संघटित हुआ था उसी प्रकार कवि ने मानो पद्मावती का रूपविधान किया है। पद्मावती का सौन्दर्य अपरिमेय है, अलौकिक है और दिव्य है। उसके वर्णन मात्र से, उसकी भावना मात्र से, राजा रत्नसेन बेसुध हो जाता है। उसकी दृष्टि संसार के सारे पदार्थों से फिर जाती है, उसका हृदय उसी रूपसागर में मग्न हो जाता है। वह जोगी होकर निकल पड़ता है।

    पद्मावती के रूप का वर्णन दो स्थानों पर है। एक स्थान पर हीरामन सूआ चित्तौर में राजा रत्नसेन के सामने वर्णन करताे है; दूसरे स्थान पर राघवचेतन दिल्ली में बादशाह अलाउद्दीन के सामने। दोनों स्थानों पर वर्णन नखशिख की प्रणाली पर और सादृश्यमूलक है अत: उसका विचार अलंकारों के अन्तर्गत करना अधिक उपयुक्त जान पड़ता है। यहाँ पर केवल उन दो चार स्थलों का उल्लेख किया जाता है जहाँ सौन्दर्य के सृष्टिव्यापी प्रभाव की लोकोत्तर कल्पना पाई जाती है, जैसे-

सरवर तीर पदमिनी आई । खोंपा छोरि केस मुकलाई॥

ओनई घटा , परी जग छाहाँ।

बेनी छोरि झार जौं बारा । सरग पतार होइ अँधियारा॥

    केशों की दीर्घता, सघनता और श्यामता के वर्णन के लिए सादृश्य पर जोर न देकर कवि ने उनके प्रभाव की उद्भावना की है। इस छाया और अन्धकार में माधुर्य और शीतलता है, भीषणता नहीं।

    पद्मावती के पुतली फेरने से उत्पन्न इस रस-समुद्र-प्रवाह को तो देखिए-

जग   डोलै   डोलत  नैनाहाँ    ।  उलटि अड़ार जाहिं पल माहाँ॥

जबहिं फिराहिं गगन गहि बोरा   ।  अस वै भँवर चक्र के जोरा॥

पवन  झकोरहिं  देइ  हिलोरा    ।    सरग लाइ भुँइँ लाइ बहोरा॥

    उसके मम्द मृदु हास के प्रभाव से देखिए कैसी शुभ्र उज्ज्वल शोभा कितने रूपधारण करके सरोवर के बीच विकीर्ण हो रही है-

बिगसा कुमुद देखि ससिरेखा       भइ तहँ ओप जहाँ जो देखा॥

पावा रूप, रूप जस चहा     ससिमुख सहुँ दरपन होइ रहा॥

नयन जो देखा कँवल भा, निरमल नीर सरीर॥

हँसत जो देखा हंस भा, दसन ज्योति नग हीर॥

    पद्मावती के हँसते ही चन्द्रकिरण-सी आभा फूटी। इससे सरोवर के कुमुद खिल उठे। यहीं तक नहीं, उसके चन्द्रमुख के सामने वह सारा सरोवर दर्पण-सा हो उठा अर्थात् उसमें जो जो सुन्दर वस्तुएँ दिखाई पड़ती थीं वे सब मानो उसी के अंगों की छाया थी। सरोवर में चारों ओर जो कमल दिखाई पड़ रहे थे वे उसके नेत्रों के प्रतिबिम्ब थे, जल जो इतना स्वच्छ दिखाई पड़ रहा था वह उसके स्वच्छ निर्मल शरीर के प्रतिबिम्ब के कारण। उसके हास की शुभ्र कान्ति की छाया वे हंस थे जो इधर उधर दिखाई पड़ते थे और उस सरोवर में (जिसे जायसी ने एक झील या छोटा समुद्र माना है) जो हीरे थे वे उसके दशनों की उज्ज्वल दीप्ति से उत्पन्न हो गए थे। पद्मावती का रूपवर्णन करते करते किस अनन्त सौन्दर्यसत्ता की ओर कवि की दृष्टि जा पड़ी है! जिसकी भावना संसार के सारे रूपों को भेदती हुई उस मूल सौन्दर्यसत्ता का कुछ आभास पा चुकी है वह सृष्टि के सारे सुन्दर पदार्थों में उसी का प्रतिबिम्ब देखता है।

    इसी प्रकार उस 'पारसरूप' का आभास-जिसके छायास्पर्श से यह जगत् रूपवान् है-जायसी ने उस स्थल पर भी दिया है जहाँ अलाउद्दीन ने दर्पण में पद्मावती के स्मित आनन का प्रतिबिम्ब देखा है-

बिहँसि झरोखे आइ सरेखी         निरखि साह दरपन महँ देखी॥

होतहिं दरस, परस भा लोना       धरती सरग भएउ सब सोना॥

    उसकी एक जरा-सी झलक मिलते ही सारा जगत् सौन्दर्यमय हो गया, जैसे पारस मणि के स्पर्श से लोहा सोना हो जाता है। उस 'पारस-रूप-दरस' के प्रभाव से शाह बेसुध हो जाता है और उस दर्पण को एक सरोवर के रूप में देखता है।

    'नखसिख खण्ड' में भी दाँतों का वर्णन करते करते कवि की भावना उस अनन्त ज्योति की ओर बढ़ती जान पड़ती है-

जेहि  दिन  दसन  जोति  निरमई       बहुतै जोति जोति ओहि भई॥

रवि ससि नखत दिपहिं ओहि जोती        रतन पदारथ मानिक मोती॥

जहँ  जहँ  बिहँसि  सुभावहिं हँसी         तहँ तहँ छिटकि जोति परगसी॥

    इसी रहस्यमय परोक्षाभास के कारण जायसी की अत्युक्तियाँ उतनी नहीं खटकतीं जितनी श्रृंगाररस के उद्भट पद्यों की वे उक्तियाँ जो ऊहा अथवा नापजोख द्वारा निर्धारित  की जाती हैं। 'शरीर की निर्मलता' और 'जल की स्वच्छता' के बीच जो बिम्ब-प्रतिबिम्ब सम्‍बन्‍ध जायसी ने देखा है वह हृदय को कितना प्यारा जान पड़ता है। इसके सामने बिहारी की वह स्वच्छता जिसमें भूषण 'दोहरे, तिहरे, चौहरे' जान पड़ते हैं, कितनी अस्वाभाविक और कृत्रिम लगती है। शरीर के ऊपर दर्पण के गुण का यह आरोप भद्दा लगता है। यह बात नहीं है कि उपमान के चाहे जिस गुण का आरोप हम उपमेय में करें वह मनोहर ही होगा।

    कवियों की प्रथा के अनुसार पद्मावती की सुकुमारता का भी अत्युक्तिपूर्ण वर्णन जायसी ने किया है। उसकी शय्या पर फूल की पंखड़ियाँ चुन चुनकर बिछाई जाती हैं। यदि कहीं समूचा फूल रह जाए तो रात भर नींद न आए-

पखूरी काढ़हिं फूलन्ह सेंती        सोई डासहिं सौंर सपेती॥

फूल समूचै रहै जो पावा     व्याकुल  होइ नींद नहिं आवा॥

    बिहारी इससे भी बढ़ गए हैं। उन्होंने अपनी नायिका के सारे शरीर को फोड़ा बना डाला है। वह तो 'झिझकति हिये गुलाब के झवाँ झवाँवत पाय'। जायसी ने भी इस प्रकार की भद्दी अत्युक्तियाँ की हैं, जैसे-

नस पानन्ह कै काढ़हि हेरी     अधर न गड़ै फाँस ओहि केरी॥

मकरि का तार ताहि कर चीरू       सो पहिरे छिरि जाइ सरीरू॥

    सुकुमारता की ऐसी अत्युक्तियाँ अस्वाभाविकता के कारण, केवल ऊहा द्वारा मात्रा या परिमाण के आधिक्य की व्यंजना के कारण कोई रमणीय चित्र सामने नहीं लातीं। प्राचीन कवियों के 'शिरीषपुष्पाधिकसौकुमार्य्य' का जो प्रभाव हृदय पर पड़ता है वह इस खरोंट और छालेवाले सौकुमार्य का नहीं। कहीं कहीं गुण की अवस्थिति मात्र का दृश्य जितना मनोरम होता है उतना उस गुण के कारण उत्पन्न दशान्तर का चित्र नहीं। जैसे, नायिका के होठ की ललाई का वर्णन करते करते यदि कोई 'तद्गुण' अलंकार की झोंक में यह कह डाले कि जब वह नायिका पीने के लिए पानी होठों से लगाती है तब वह खून हो जाता है तो यह दृश्य कभी रुचिकर नहीं लग सकता। इँगुर, बिम्बा आदि सामने रखकर उस लाली की मनोहर भावना उत्पन्न कर देना ही काफी समझना चाहिए। उस लाली के कारण क्या बातें पैदा हो सकती हैं, इसका हिसाब किताब बैठाना जरूरी नहीं।

    इसी प्रकार की विस्तारपूर्ण अत्युक्ति ग्रीवा की कोमलता और स्वच्छता के इस वर्णन में भी है-

पुनि तेहि ठाँव परीं तिनि रेखा । घूँट जो पीक लीक सब देखा॥

    इस वर्णन से तो चिड़ियों के अण्डे से तुरन्त फूटकर निकले हुए बच्चे का चित्र सामने आता है। वस्तु या गुण का परिमाण अत्यन्त अधिक बढ़ाने से ही सर्वत्र सरसता नहीं आती। इस प्रकार की वस्तुव्यंग्य उक्तियों की भरमार उस काल से आरम्भ हुई जब से 'ध्‍वनि' का आग्रह बहुत बढ़ा, और सब प्रकार की व्यंजनाएँ उत्तम काव्य समझी जाने लगीं। पर वस्तुव्यंजनाएँ ऊहा द्वारा ही की और समझी जाती हैं, सहृदयता से उनका नित्य सम्‍बन्‍ध नहीं होता।

     वस्तुवर्णन का संक्षेप में इतना दिग्दर्शन कराके हम यह कह देना आवश्यक समझते हैं कि जिन जिन वस्तुओं का विस्तृत वर्णन हुआ है उन सबको हम 'आलम्बन' मानते हैं। जो वस्तुएँ किसी पात्र के आलम्बन के रूप में नहीं आतीं उन्हें कवि और श्रोता दोनों के आलम्बन रूप में समझना चाहिए। कवि ही आश्रय बनकर श्रोता या पाठक के प्रति उनका प्रत्यक्षीकरण करता है। उनके प्रत्यक्षीकरण में कवि की भी वृत्ति रमती है और श्रोता या पाठक की भी। वन, सरोवर, नगर, प्रदेश, उत्सव, सजावट, युद्ध, यात्रा, ऋतु, इत्यादि सब वस्तुएँ और व्यापार मनुष्य की रागात्मिका वृत्ति के सामान्य आलम्बन हैं। अत: इनके वर्णनों को भी हम रसात्मक वर्णन मानते हैं। आलम्बन मात्र के वर्णन में भी रसात्मकता माननी पड़ेगी। 'नखशिख' की पुस्तकों में श्रृंगार रस के आलम्बन का ही वर्णन होता है और वे काव्य की पुस्तकें मानी जाती हैं। जिन वस्तुओं का कवि विस्तृत चित्रण करता है उनमें से कुछ शोभा, या सौन्दर्य या चिर साहचर्य के कारण मनुष्य के रतिभाव का आलम्बन होती है; कुछ भव्यता, विशालता, दीर्घता आदि के कारण उसके आश्चर्य का; कुछ घिनौने रूप के कारण जुगुप्सा का, इत्यादि। यदि बलभद्र कृत 'नखशिख' और गुलाम नबी कृत 'अंगदर्पण' रसात्मक काव्य है तो कालिदास कृत हिमालयवर्णन और भू प्रदेश-वर्णन भी।

मलिक मुहम्मद जायसी

भाग - 1  //   भाग - 2  //   भाग - 3  //   भाग - 4  //  भाग - 5  //   भाग - 6  //  भाग - 7  //   भाग - 8   //  भाग - 9  //  
 


 

 

मुखपृष्ठ | उपन्यास | कहानी | कविता | नाटक | आलोचना | विविध | भक्ति काल | हिंदुस्तानी की परंपरा | विभाजन की कहानियाँ | अनुवाद | ई-पुस्तकें | छवि संग्रह | हमारे रचनाकार | हिंदी अभिलेख | खोज | संपर्क

Copyright 2009 Mahatma Gandhi Antarrashtriya Hindi Vishwavidyalaya, Wardha. All Rights Reserved.