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 आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ग्रंथावली -1

मलिक मुहम्मद जायसी


 

पात्र द्वारा भावव्यंजना

पात्र द्वारा जिन स्थायी भावों की प्रधानत: व्यंजना जायसी ने कराई है वे रति, शोक और युध्दोत्साह हैं। दो एक स्थानों पर क्रोध की भी व्यंजना है। भय का केवल आलम्बन मात्र हम समुद्रवर्णन के भीतर पाते हैं, किसी पात्र द्वारा भय का प्रदर्शन नहीं। बीभत्स का भी आलम्बन ही प्रथानुसार युद्धवर्णन में है। हास का तो अभाव ही समझना चाहिए। गौण भावों की व्यंजना कुछ तो अन्य भाव के संचारियों के रूप में है, कुछ स्वतन्त्र रूप में। जायसी की भावव्यंजना के सम्बन्ध में यह समझ रखना चाहिए कि उन्होंने जबरदस्ती विभाव, अनुभाव और संचारी ठूँसकर पूर्ण रस की रस्म अदा करने की कोशिश नहीं की है। भाव का उत्कर्ष जितने से सधा गया है उतने ही से उन्होंने प्रयोजन रखा है। अनुभावों की योजना कम है। 'पदमावत' में यद्यपि श्रृंगार ही प्रधान है पर उसके सम्भोग पक्ष में स्तम्भ, स्वेद, रोमांच नहीं मिलते। वियोग में अश्रुओं का बाहुल्य है। हावों का भी विधान नहीं है। विप्रलम्भ में वैवर्ण्य आदि थोड़े से सात्त्विकों का कहीं कहीं आभास मिलता है। इस कमी से रतिभाव के स्वरूप के उत्कर्ष में तो कोई कमी नहीं हुई है पर सम्भोगपक्ष उतना अनुरंजनकारी नहीं हुआ है।

    भावव्यंजना का विचार करते समय दो बातें देखनी चाहिए-

    (1) कितने भावों और गूढ़ मानसिक विकारों तक कवि की दृष्टि पहुँची है।

    (2) कोई भाव कितने उत्कर्ष तक पहुँचा है।

    पहली बात में हम जायसी को बढ़ाचढ़ा नहीं पाते। इनमें गोस्वामी तुलसीदास जी की सी वह सूक्ष्म अन्तर्दृष्टि नहीं है जो भिन्न भिन्न परिस्थितियों के बीच संघटित होने वाली अनेक मानसिक अवस्थाओं का विश्लेषण करती है। कैकेयी और मंथरा के संवाद में मानव प्रकृति का जैसा सूक्ष्म अध्‍ययन पाया जाता है वैसा पद्मिनी और दूती के संवाद में नहीं। क्षोभ से उत्पन्न उदासीनता और आत्मनिंदा, आश्चर्य से भिन्न चकपकाहट ऐसे गूढ़ भावों तक जायसी की पहुँच नहीं पाई जाती। सारांश यह कि मनुष्यहृदय की अधिक अवस्थाओं का सन्निवेश जायसी में नहीं मिलता। जो भाव संचारियों में गिना दिए हैं उनका भी बहुत ही कम संचरण किसी स्थायी भाव के भीतर दिखाई पड़ता है। इन गिनाए हुए भावों के अतिरिक्त और न जाने कितने छोटे छोटे भाव और मानसिक दशाएँ हैं जो व्यवहार में देखी जाती हैं और अनुसंधान करने पर भावुक कवियों की रचनाओं में बराबर पाई जाएँगी। आश्चर्य ऐसे लोगों पर होता है जो 'देव' कवि के 'छल' नामक एक और संचारी ढूँढ़ निकालने पर वाह- वाह का पुल बाँधते हैं और देव को एक आचार्य समझते हैं। गोस्वामीजी की आलोचना में मैं कई ऐसे भाव दिखा चुका हूँ जिनके नाम संचारियों की गिनती में नहीं हैं। संचारियों में गिनाए हुए भाव तो उपलक्षण मात्र हैं। खैर, यहाँ केवल हमें इतना ही कहना है कि जायसी में भावों के भीतर संचारियों का सन्निवेश बहुत कम मिलता है। 'पदमावत' में रतिभाव की प्रधानता है पर उसके अन्तर्गत भी हम 'असूया', 'गर्व' आदि दो-एक संचारियों को छोड़ 'व्रीड़ा' 'अवहित्था' आदि अनेक भावों का कहीं पता नहीं पाते। इनके अवसर आए हैं पर कवि ने इनका विधान नहीं किया है-जैसे पद्मिनी में मण्डपगमन का अवसर, प्रथम समागम का अवसर।

    अब दूसरी बात भाव के उत्कर्ष पर आइए। इसमें जायसी बहुत बढ़े चढ़े हैं, पर जैसा कि दिखाया जा चुका है, यह उत्कर्ष विप्रलम्भ पक्ष में ही अधिक दिखाई पड़ता है।

    श्रृंगार का बहुत कुछ विवेचन विप्रलम्भ श्रृंगार और संयोग श्रृंगार के अन्तर्गत हो चुका है। यहाँ पर केवल रतिभाव के अन्तर्गत कुछ मानसिक दशाओं की व्यंजना के उदाहरण ही काफी समझाता हूँ। रत्नसेन से विवाह हो जाने पर पद्मावती अपनी कामदशा का वर्णन कैसे सीधे सीधे पर भावगर्भित वचनों द्वारा करती है-

कौन  मोहनी  दहुँ  हुति तोही       जो तोहि बिथा सो उपनी मोही।

बिनु जल मीन तलफ जस जीऊ      चातक भइउँ कहत 'पिउ पीऊ'

जरिउँ बिरह जस दीपक बाती        पथ जोहत भइँ सीप सेवाती॥

×                      ×               ×                  ×               ×

भइउँ बिरह दहि कोइल कारी        डारि डारि जिमि कूकि पुकारी॥

कौन सो दिन जब पिउ मिलै , यह मन राता जासु।

वह दुख देखै मोर सब , हौं दुख देखौं तासु॥

    दोहे में 'अभिलाष' का कैसा सच्चा प्राकृत स्वरूप है। प्रेम प्रेम चाहता है। इसी अभिलाष के अन्तर्गत अपना दु:ख प्रिय के सामने रखने, और प्रिय भी मेरे विरह में दु:खी है, इस बात का निश्चय प्राप्त करने की उत्कंठा प्रेमी को होती है। रतिभाव के संचारी के रूप में 'आशा' या 'विश्वास' की बड़ी सुन्दर व्यंजना जायसी ने पद्मावती के मुँह से कराई है। देवपाल की दूती के यह कहने पर कि 'कस तुइँ, बारि, रहसि कुँभिलानी?' पद्मावती कहती है-

तौ लौं रहौ झुरानी जौ लहि आव सो कंत।

एहि फूल, एहि सेंदुर होइ सो उठै बसंत॥

    इसी फूल (शरीर) से जिसे तुम इतना कुँभलाया हुआ कहती हो और इसी सिंदूर की फीकी रेखा से जो रूखे सिर में दिखाई पड़ती है फिर बसन्त का विकास और उत्सव हो सकता है, यदि पति आ जाय। इस बात का ध्‍यान रखना चाहिए कि होली के उत्सव के लिए जायसी ने अबीर के स्थान पर बराबर सिंदूर का व्यवहार किया है। सम्भव है, उस समय सिंदूर से ही अबीर बनाया जाता रहा हो।

    श्रृंगार के संचारी 'वितर्क' का एक उदाहरण, जो नया नहीं कहा जा सकता, लीजिए। बादल की नवागता वधू युद्ध के लिए जाने को तैयार पति की ओर देख रही है और खड़ी खड़ी सोचती है-

रहौ लजाइ तो पिउ चलै, कहौं तो कह मोहि ढीठ।

    'वात्सल्य' के उद्गार दो स्थानों पर हैं। एक तो वहाँ जहाँ राजा रत्नसेन जोगी होकर घर से निकलने को तैयार होता है-फिर वहाँ जहाँ बादल रत्नसेन को छुड़ाने की प्रतिज्ञा करने के उपरान्त युद्धयात्रा के लिए चलने को उद्यत होता है। दोनों स्थानों पर व्यंजना माता के मुख से है पर विस्तीर्ण और गम्भीर नहीं है, साधारण है। परिस्थिति के अनुसार रत्नसेन की माता का वात्सल्य 'सुख के अनिश्चय' के द्वारा व्यक्त होता है और बादल की माता का 'शंका संचारी' द्वारा। रत्नसेन की माता कहती है-

सब दिन रहेहु करत तुम भोगू      सो कैसे साधब तप जोगू॥

कैसे  धूप  सहब  बिनु छाहाँ      कैसे नींद परिहि भुइँ माहाँ॥

कैसे  ओढ़ब  काथरि  कंथा   ?          कैसे पावँ चलब तुम पंथा॥

कैसे सहब खनहि खन भूखा   ?          कैसे खाब कुरकुटा  रूखा॥

    जितना दु:ख औरों के दु:ख को सुनकर होता है, उतना दु:ख प्रिय व्यक्ति के सुख के अनिश्चय मात्र से होता है। यह अनिश्चय प्रिय व्यक्ति के ऑंख से ओझल होते ही उत्पन्न होने लगता है। तुलसी और सूर ने कौशल्या और यशोदा के मुख से ऐसे अनिश्चय की बड़ी सुन्दर व्यंजना कराई है। ऐसे स्थलों पर इस अनिश्चय का कारण रतिभाव ही होता है; अत: जिस प्रकार 'शंका' रतिभाव का संचारी होती है उसी प्रकार यह 'अनिश्चय' भी। परिस्थितिभेद से कहीं संचारी केवल 'अनिश्चय' तक रहता है और कहीं 'शंका' तक पहुँचता है। छोटी अवस्था का बादल जिस समय रणक्षेत्र में जाने को तैयार होता है, उस समय माता की यह 'शंका' बहुत ही स्वाभाविक है-

बादल राय मोर तुइ बारा         का जानसि कस होइ जुझारा॥

बादसाह  पुहुमीपति  राजा        सनमुख होइ न हमीरहि छाजा॥

बरिसहिं सेल बान घन घोरा      धीरज धीर न बाँधिहिं  तोरा॥

जहाँ दलपती दलमलहिं , तहाँ तोर का काज?

आजु गवन तोर आवै , बैठि मानु सुख राज॥

    शंका तक पहुँचता हुआ यह 'अनिश्चय' प्रेमप्रसूत है, गूढ़ रति भाव का द्योतक है-

ह्नेयर लव इज ग्रेट, द लिटिलेस्ट डाउट्स आर फियर्स।

ह्नेयर लिटिल फियर्स ग्रो ग्रेट, ग्रेट लव इज देयर।

    -शेक्सपियर

    मायके के स्वाभाविक प्रेम की कैसी गम्भीर व्यंजना इन पंक्तियों में है-

गहबर नैन आए भरिऑंसू           छाँड़ब यह सिंहल कबिलासू॥

छाँड़िउँ नैहर , चलिउँ बिछोई             एहि रे दिवस कहँ हौं तब रोई॥

छाड़िउँ आपनि सखी सहेली           दूरि गवन तजि चलिउँ अकेली॥

नैहर आइ काह सुख देखा           जनु होइगा सपने कर लेखा॥

मिलहु सखी ! हम तहँवा जाहीं       जहाँ जाइ पुनि आउब नाहीं॥

हम तुम मिलि एकै सँग खेला       अन्त बिछोह आनि गिउ मेला॥

    दूती और पद्मावती के संवाद में पद्मावती द्वारा पतिव्रत की बड़ी ही विशद व्यंजना हुई है। पतिव्रत कोई भाव नहीं है। वह धर्म और पूज्यबुद्धि मिश्रित दाम्पत्य प्रेम है। उसके अन्तर्गत कभी रतिभाव की व्यंजना होती है, कभी प्रिय के महत्त्व को प्रकाशित करने वाले पूज्य भाव की, कभी प्रिय के महत्त्व के गर्व की और कभी धर्मानुराग की। पहले पद्मावती उस दूती को अपने अनन्य प्रेम की सूचना इस प्रकार देती है-

अहा  न  राजा  रतन अँजोरा     ।  केहि क सिंघासन केहि क पटोरा॥

चहुँ दिसि यह घर भा अँधियारा  ।  सब सिंगार लेइ साथ सिधा

काया  बेलि  जानौ तब जामी     ।  सींचनहार  आव घर स्वामी॥

    इस पर जब दूती दूसरे पुरुष की बात कहती है तब वह क्रोध से तमतमा उठती है और धर्म के तेज से भरे ये वचन कहती है-

रँग ताकर हौं जारौं काँचा  ।  आपन तजि जो पराएहि  राँचा॥

दूसर करै जाइ दुइ बाटा   ।  राजा दुइ न होहिं एक पाटा॥

    साथ ही अपने पति का महत्त्व दिखाती हुई उस पर इस प्रकार गर्व प्रकट करती है-

कुल कर पुरुष सिंह जेहि केरा     ।  तेहि थल कैस सियार बसेरा॥

हिया फार कूकुर तेहि केरा        ।  सिंघहि तजि सियारमुख  हेरा॥

सोन नदी अस मोर पिउ गरुवा ।  पाहन होइ परै जौ हरुवा॥

जेहि ऊपर अस गरुआ पीऊ          ।  सो कस डोलाए डोलै जीऊ॥

    पिछली चौपाई में 'गरुआ' और 'डोलै' शब्दों के प्रयोग द्वारा कवि ने जो एक अगोचर मानसिक विषय का गोचर भौतिक व्यापार के रूप में प्रत्यक्षीकरण किया है वह काव्यपद्धति का अत्यन्त उत्कृष्ट उदाहरण है, पर उससे भी बढ़कर है व्यंजित गर्व की मार्मिकता। यह गर्व पतिव्रत की अचल धुरी है। जिसमें यह गर्व नहीं, वह पतिव्रता नहीं। एक बार एक लुच्चे ने रास्ते में एक स्‍त्री को छेड़ा। वह स्‍त्री छोटी जाति की थी पर उसके ये शब्द मुझे अब तक याद हैं कि ''क्या तू मेरे पति से बहुत सुन्दर है?''

    'सम्मान' और 'कृतज्ञता' ऐसे भावों की व्यंजना भी जायसी ने बड़ी ही मार्मिक भाषा में कराई है। बादल जब राजा रत्नसेन को दिल्ली से छुड़ाकर लाता है तब पद्मिनी बादल की आरती पूजा करके कहती है-

यह  गजगवन  गरब  जो मोरा     ।    तुम राखा बादल औ गोरा॥

सेंदुर तिलक जो ऑंकुस अहा   ।    तुम राखा माथे तौ रहा॥

काछ काछि तुम जिउ पर खेला ।    तुम जिउ आनि मँजूसा मेला॥

राखा  छातचँवर  औधा          ।    राखा  छुद्रघंट  झनकारा॥

    राजा रत्नसेन के बन्दी होने पर नागमती जो विलाप करती है उसके बीच पद्मिनी के प्रति उसकी झुँझलाहट कितनी  स्वाभाविक है, देखिए-

पदमिनि  ठगिनी  भइ किस साथा  ।  जेहि ते रतन परा पर हाथा।

    शोक के दो प्रसंग 'पदमावत' में आए हैं -पहला रत्नसेन के जोगी होने पर और दूसरा रत्नसेन के मारे जाने पर। इनमें से पात्र द्वारा व्यंजना पहले ही प्रसंग में है, दूसरे में केवल करुण दृश्य का चित्रण है। रत्नसेन के जोगी होकर घर से निकलने पर रानियाँ जो विलाप करती हैं उसमें पहले सुख के आधार के हटने का उल्लेख है फिर उससे उत्पन्न विषाद की व्यंजना है-

रोवहिं  रानी  तजहिं  पराना     नोंचहि बार करहिं खरिहाना॥

चूरहिं गिउ -अभरन उर हारा       अब कापर हम करब सिंगारा॥

जाकहँ कहहिं रहसि कै पीऊ        सोइ चला, काकर यह जीऊ॥

मरै चहहिं पै मरै न पावहिं        उठै आगि सब लोग बुझावहिं॥

    रसज्ञों की दृष्टि में यहाँ करुण रस की पूरी व्यंजना है, क्योंकि विभाव के अतिरिक्त रोना और बाल नोचना अनुभाव और विषाद संचारी भी है।

    जैसा पहले कहा जा चुका है, राजा रत्नसेन के मरने पर कवि ने जिस करुण परिस्थिति का दृश्य दिखाया है वह अत्यन्त प्रशान्त और गम्भीर है। रानियों के मुख से क्षुब्ध आवेग की व्यंजना नहीं कराई गई है, केवल पद्मिनी के उस समय के रूप की झलक दिखाकर परिस्थिति की गम्भीरता का आभास दिया गया है-

पदमावति पुनि पहिरि पटोरी       चली साथ पिउ के होइ जोरी॥

सूरुज छिपा रैनि होइ गई     पूनिउँ ससी अमावस भई॥

छूटे केस, मोति लर छूटीं     जानहुँ रैनि नखत सब टूटीं॥

सेंदुर परा जो सीस उघारी         आगि लागि चह जग अँधियारी॥

    सूर्यरूपी रत्नसेन अस्त हुआ। पद्मावती के पूर्ण-चन्द्र-मुख में एक कला भी नहीं रह गई। पहले एक स्थान पर कवि कह चुका है कि 'चाँदहि कहाँ जोति औ करा? सूरुज के जोति चाँद निरमरा'। जब सूर्य ही नहीं रहा, तब चन्द्रमा में कला कहाँ से रह सकती है? काले केश छूट पड़े हैं, मोती बिखरकर गिर रहे है। -अमावस्या की अँधेरी छा गई है जिसमें नक्षत्र इधर उधर टूटकर गिरते दिखाई पड़ते हैं। वह घने काले केशों के बीच सिंदूर की रेखा दिखाई पड़ी-अब घोर अन्धकार के बीच आग भी लगा चाहती है-सती की ज्योति से सारा जगत् जगमगाया चाहता है।

    देखिए, पद्मिनी के तात्कालिक रूप में ही कवि ने प्रस्तुत करुण परिस्थिति की गम्भीरता की पूर्ण छाया दिखा दी है। पद्मिनी सारे जगत् के शोक का स्वच्छ आदर्श हो गई जिसमें सारे जगत् के गम्भीर शोक का प्रशान्त स्वरूप दिखाई पड़ता है। कुछ काल के लिए पद्मिनी के सहित सारा जगत् शोकसागर में मग्न दिखाई पड़ता है। फिर पद्मिनी और नागमती दोनों इस दु:खमय जगत् से मुँह फेरती हैं और उस लोक की ओर दृष्टि करती हैं जहाँ दु:ख का लेश नही। -

दोउ सौति चढ़ि खाट बईठीं। औ सिवलोक परा तिन्ह दीठी॥

    इस जगत् से दृष्टि फिरते ही सारे दु:ख द्वन्द्व छूट गए हैं। अब न झगड़ा और कलह है, न क्लेश और सन्ताप। दोनों सपत्नी एक साथ मिलकर दूसरे लोक में पति से जा मिलने की आशा से परिपूर्ण और शान्त दिखाई पड़ती हैं और सती होने जा रही हैं। आगे बाजा बजता चलता है। यह प्रेममार्ग के विजय का बाजा है-

एक जो बाजा भएउ बियाहू। अब दुसरे होइ ओर निबाहू॥

    रत्नसेन की चिता तैयार है। दोनों रानियाँ चिता की सात प्रदक्षिणा करती हैं। एक बार जो भाँवरी (विवाह के समय) हुई थी उससे इस संसार यात्रा में रत्नसेन का साथ हुआ था, अब इस भाँवरी से परलोक के मार्ग में साथ हो रहा है-

एक  जो  भाँवरि  भई  बियाही     अब दुसरै होइ गोहन जाहीं॥

जियत कन्त! तुम हम्ह घर लाई     मुए कंठ नहिं छोड़हिं साँई॥

औ जो गाँठि कंत! तुम जोरी            आदि अन्त लहि जाइ न छोरी॥

यह जग काह जो अछहि न आथी        हम तुम नाह! दुहूँ जग साथी॥

    सतियों के मुख पर आनन्द की शुभ्र ज्योति दिखाई पड़ती है। इस लोक से मुँह मोड़ अब वे दूसरे लोक के मार्ग के द्वार पर खड़ी हैं। इस लोक की अग्नि में अब उन्हें क्लेश और ताप पहुँचाने की शक्ति नहीं रही है। उनके लिए वह सबसे शीतल करने वाली वस्तु हो गई है क्योंकि वह पतिलोक का द्वार खोलना चाहती है। हिन्दू सती का यह कैसा गम्भीर, शान्त और मर्मभेदी उत्सव है!

आजु सूर दिन अथवा, आजु रैनि ससि बूड़

आजु नाचि जिउ दीजिए, आजु आगि हम्ह जूड़

फिर क्या था?

लेइ सर ऊपर खाट बिछाई       पौढ़ीं दुवौ कंत गर लाई॥

लागी कंठ आगि देई होरी       छार भई जरि, अंग न मोरी॥

   क्रोध का प्रसंग केवल वहाँ आया है जहाँ राजा रत्नसेन को अलाउद्दीन की चिट्ठी मिलती है। पर वहाँ भी रौद्र रस का विस्तृत संचार नहीं है। क्रोध का वह आवेश नहीं है जिसमें नीति और विचार का पता नहीं रह जाता। चिट्ठी पढ़ी जाने पर-

सुनि अस लिखा उठा जरि राजा     जानौ दैउ तड़पि घन गाजा॥

का मोहि सिंघ देखावसि आई       कहौं तौ सारदूल धरि खाई॥

तुरुक! जाइ कहु मरै न धाई            होइहि इसकंदर कै नाई॥

    पर इस उग्र वचन के उपरान्त ही राजा अलाउद्दीन के सन्देश के औचित्य अनौचित्य की मीमांसा करने लगता है-

भलेहि साह पुहुमीपति भारी। माँग न कोउ पुरुष कै नारी॥

    रस की रस्म के विचार से तो उपर्युक्त वर्णन पूरा ठहर जाता है क्योंकि इसके अनुभाव के रूप में डाँट डपट और उग्र वचन तथा संचारी के रूप में अमर्ष मौजूद है। यहीं तक नहीं, साहित्य के आचार्यों ने आत्मावदानकथन अर्थात् अपने मुँह से अपनी बड़ाई को भी रौद्र रस का अनुभाव कहा है। आगे वह भी मौजूद है-

हौं   रनथँभउर   नाह   हमीरू    कलपि माथ जेइ दीन्ह सरीरू॥

हौं  सो   रतनसेन   सकबन्ध    राहु बेधि जीता सैरंध

हनुवँत सरिस भार जेइ काँधा            राघव सरिस समुद जेइ बाँधा

विक्रम सरिस कीन्ह जेइ साका     सिंघलदीप लीन्ह जौ ताका॥

जौ अस लिखा, भएउँ नहिं ओछा    जियत सिंघ कै गह को मोछा॥

    पर यह सामग्री होते हुए भी यह कहना पड़ता है कि रौद्र रस का परिपाक जायसी में नहीं है। न तो अनुभावों और संचारियों की मात्रा ही यथेष्ट है, न स्वरूप ही पूर्ण स्फुट है। जायसी का कोमल भावपूर्ण हृदय उग्र वृत्तियों के वर्णन के उपयुक्त नहीं था।

   वीर रस का वर्णन अच्छा है। अलाउद्दीन के चित्तौरगढ़ घेरने पर तो केवल सेना की सजावट और तैयारी, चढ़ाई की हलचल तथा युद्ध की घमासान के वर्णन में ही कवि रह गया है, युद्धोत्साह की व्यंजना किसी व्यक्ति द्वारा नहीं कराई गई है। उत्साह की व्यंजना गोरा बादल के प्रसंग में हमें मिलती है। पद्मिनी के विलाप पर दोनों वीरों ने कैसी क्षात्र तेज से भरी प्रतिज्ञा की है-

जौ लगि जिउनहिं भागहिं दोऊ   स्वामि जियत कित जोगिनि होऊ॥

उए  अगस्त  हस्ति  जब  गाजा   नीर घटै घर आइहि राजा॥

बरषा  गए  अगस्त  जो दीठिहि   परहि पलानि तुरंगन पीठिहि॥

बेधौं  राहु   छोड़ावहुँ   सूरू            रहै न दुख कर मूल अँकूरू॥

    इसको कहते हैं उत्साह-आशा से भरी हुई साहस की उमंग। अगस्त्य के उदय होने पर नदियों और तालों का जल जब घटने लगेगा तब बन्दीगृह से छूटकर राजा अपने घर आ जायँगे। शरद्काल आते ही चढ़ाई हो जायगी।

    बादल की माता जब हाथियों की रेलपेल और युद्ध की भीषणता दिखाकर उसे रोकना चाहती है, तब वह कहता है-

मातु न जानसि बालक आदी       हौं  बादला  सिंह - रनबादी॥

सुनि गजजूह अधिक जिउ तपा      सिंघ क जोति रहै किमि छपा?

तौ लगि गाज न गाज सिंघेला      सौंह साह सौं जुरौं अकेला॥

को  मोहिं  सौंह  होइमैमंता        फारौं  सूँड़उखारौं  दंता॥

जुरौं  स्वामि  सँकरे  जसढारा      औ भिवँ जस दुरजोधन मारा॥

अंगद कोपि पाँव जस राखा    टेकौ कटक छतीसौ लाखा॥

हनुवँत सरिस जंघ बर जोरौं        दहौं समुद्र, स्वामि बँदि छोरौं॥

    इसी प्रकार के उत्साहपूर्ण वाक्य वृद्ध वीर गोरा के हैं जब वह केवल हजार कुँवर लेकर बादशाह की उमड़ती हुई सेना को रोकने के लिए खड़ा होता है। ऐसे वाक्यों में अपने बल का पूर्ण निश्चय और समुपस्थित कर्म की अल्पता का भाव प्रधान हुआ करता है। इस वीरदर्प को उत्साह का मुख्य अवयव समझना चाहिए। देखिए, इस उक्ति में कैसा अमर्षमिश्रित वीरदर्प है-

रतनसेन जो बाँधा, मसि गोरा के गात।

जौ लगि रुहिर न धबौं, तो लगि होइ न रात॥

   हास्य और बीभत्स -ये दो रस ऐसे हैं जिनमें आलम्बन के स्वरूप से ही कविपरम्परा काम चलाती है, आश्रय द्वारा व्यंजना की अपेक्षा नहीं रहती। वस्तुवर्णन के अन्तर्गत युद्धवर्णन में डाकिनियों आदि का बीभत्स दृश्य दिया जा चुका है। जैसा कहा जा चुका है, भय के आलम्बन का ही चित्रण कवि ने किया है। हास्य रस का तो 'पदमावत' में अभाव ही है।

    अब एक विशेष बात पर पाठकों का ध्‍यान आकर्षित करके इस भावव्यंजना के प्रकरण को समाप्त करता हूँ। एक स्थायी भाव दूसरे स्थायी भाव का संचारी होकर आ सकता है, यह बात तो ग्रन्थों में प्रसिद्ध ही है। पर रीतिग्रन्थों में जो संचारी कहे गए हैं उनमें से भी कुछ ऐसे हैं जो कभी कभी स्थायी बनकर आते हैं और दूसरे भावों को अपना संचारी बनाते हैं। जायसी का एक छोटा सा उदाहरण देते हैं। जब पद्मावती ने सुना कि उपपत्नी नागमती के बगीचे में बड़ी चहल पहल है और राजा भी वहीं बैठा है तब-

सुनि पदमावति रिस न सँभारी। सखिन्ह साथ आई फुलवारी॥

    यह रिस या अमर्ष स्वतन्त्र भाव नहीं है, क्योंकि पद्मावती का कोई अनिष्ट नागमती ने नहीं किया था। यह 'असूया' का संचारी होकर आया है; क्योंकि यह 'असूया' से उत्पन्न भी है और रस की दृष्टि से उससे विरुद्ध भी नहीं पड़ता। एक संचारी का दूसरे संचारी का स्थायी बनकर आना लक्षण ग्रन्थों के अभ्यासियों को कुछ विलक्षण अवश्य लगेगा। किसी दूसरे स्थल पर हम कुछ संचारियों को विभाव, अनुभाव और संचारी तीनों से युक्त दिखाएँगे।

    उक्त उदाहरण में यह नहीं कहा जा सकता कि जिस प्रकार 'असूया' रतिभाव का संचारी होकर आया है उसी प्रकार 'अमर्ष' भी। इस अमर्ष का सीधा लगाव 'असूया' से है, न कि रति से। यदि असूया न होती तो यह अमर्ष न होता। अब प्रश्न यह उठता है कि यदि किसी स्थायी भाव का संचारी भी विभाव, अनुभाव और संचारी से युक्त हो तो क्या वह भी स्थायी कहा जाएगा। स्थायी तो वह अवश्य होगा, पर ऐसा स्थायी नहीं जो रसावस्था तक पहुँचाने वाला हो। इन सब बातों का विवेचन मैं कभी अन्यत्र करूँगा, यहाँ इतना ही दिग्दर्शन बहुत है।

 

अलंकार

अधिकतर अलंकारों का विधान सादृश्य के आधार पर होता है। जायसी ने सादृश्यमूलक अलंकारों का ही प्रयोग अधिक किया है। सादृश्य की योजना दो दृष्टियों से की जाती है-स्वरूपबोध के लिए और भाव तीव्र करने के लिए। कवि लोग सदृश वस्तुएँ भाव तीव्र करने के लिए ही अधिकतर लाया करते हैं पर बाह्य कारणों से अगोचर तथ्यों के स्पष्टीकरण के लिए जहाँ सादृश्य का आश्रय लिया जाता है वहाँ कवि का लक्ष्य स्वरूपबोध रहता है। भगवद्भक्तों की ज्ञानगाथा में सादृश्य की योजना दोनों दृष्टियों से रहती है। 'माया' को ठगिनी और काम, क्रोध आदि को बटपार, संसार को मायका और ईश्वर को पति रूप में दिखाकर बहुत दिनों से रमते साधु उपदेश देते आ रहे हैं। पर इन सदृश वस्तुओं की योजना से केवल स्वरूपबोध ही नहीं होता, भावोत्तेजना भी प्राप्त होती है। बल्कि यों कहना चाहिए कि उत्तेजित भाव ही उन सदृश वस्तुओं की कल्पना कराता है। विरक्तों के हृदय में माया और काम, क्रोध आदि का भाव ही उस भय की ओर ध्यान ले जाता है जो ठगों और बटपारों से होता है। तात्पर्य यह कि स्वरूपबोध के लिए भी काव्य में जो सदृश वस्तु लाई जाती है उसमें यदि भाव उत्तेजित करने की शक्ति भी हो तो काव्य के स्वरूप की प्रतिष्ठा हो जाती है। नाना रागबन्धनों से युक्त इस संसार के छूटने का दृश्य कैसा मर्मस्पर्शी है! भावुक हृदय में उसका क्षणिक साम्य मायके से स्वामी के घर जाने में दिखाई पड़ता है। बस इतनी ही झलक मिल सकती है। सदृश वस्तु के इस कथन द्वारा अगोचर आध्यात्मिक तथ्यों का कुछ स्पष्टीकरण भी हो जाता है और उनकी रूखाई भी दूर हो जाती है।

    यह कहा जा चुका है कि जायसी का कथानक व्यंग्यगर्भित है। यहाँ पर इतना और मान लेना चाहिए कि भगवत्पक्ष को प्रस्तुत मानने पर अप्रस्तुत की योजना दोनों दृष्टियों से की हुई मिलेगी-अगोचर बातों को गोचर स्वरूप देने की दृष्टि से भी और भावोत्तेजन की दृष्टि से भी। साधक के मार्ग की कठिनाइयों की भावना उत्पन्न करने के लिए कवि विषम पहाड़, अगम घाट तथा खोह और नालों की ओर ध्‍यान ले जाता है; काम, क्रोध आदि की भीषणता दिखाने के लिए वह ऐसे प्रबल चोरों को सामने करता है जिनका घर का कोना कोना देखा हो और जो दिन रात चोरी की ताक में रहते हों।

    सादृश्य की योजना में पहले यह देखना चाहिए कि जिस वस्तु, व्यापार या गुण के सदृश वस्तु, व्यापार या गुण सामने लाया जाता है वह ऐसा तो नहीं है जो किसी भाव-स्थायी या क्षणिक-का आलम्बन या आलम्बन का अंग हो। यदि प्रस्तुत वस्तु व्यापार आदि ऐसे हैं तो यह विचार करना चाहिए कि उनके सदृश अप्रस्तुत वस्तु या व्यापार भी उसी भाव के आलम्बन हो सकते हैं या नहीं। यदि कवि द्वारा लाए हुए अप्रस्तुत वस्तुव्यापार ऐसे हैं तो कविकर्म सिद्ध समझना चाहिए। उदाहरण के लिए रमणी के नेत्र, वीर का युद्धार्थ गमन और हृदय की कोमलता लीजिए। इन तीनों के वर्णन क्रमश: रतिभाव, उत्साह और श्रद्धा द्वारा प्रेरित समझे जाएँगे और कवि का मुख्य उद्देश्य यह ठहरेगा कि वह श्रोता को भी इन भावों की रसात्मक अनुभूति कराए। अत: जब कवि कहता है कि नेत्र कमल के समान हैं, वीर सिंह के समान झपटता है और हृदय नवनीत के समान है तो ये सदृश वस्तुएँ सौन्दर्य, वीरत्व और कोमल सुखदता की व्यंजना भी साथ ही साथ करेंगी। इनके स्थान पर यदि हम रसात्मकता का विचार न करके केवल नेत्र के आकार, झपटने की तेजी और प्रकृति की नरमी की मात्रा पर ही दृष्टि रखकर कहें कि 'नेत्र बड़ी कौड़ी या बादाम के समान है', 'वीर बिल्ली की तरह झपटता है' और 'हृदय सेमर के घूए के समान है' तो काव्योपयुक्त कभी न होगा। कवियों की प्राचीन परम्परा में जो उपमान बँधे चले आ रहे हैं उनमें से अधिकांश सौन्दर्य आदि की अनुभूति के उत्तेजक होने के कारण रस में सहायक होते हैं पर कुछ ऐसे भी हैं जो आकार आदि ही निर्दिष्ट करते हैं; सौन्दर्य की अनुभूति अधिक करने में सहायक नहीं होते-जैसे जंघों की उपमा के लिए हाथी की सूँड़, नायिका की कटि की उपमा के लिए भिड़ या सिंहनी की कमर इत्यादि। इनसे आकार के चढ़ाव, उतार और कटि की सूक्ष्मता भर का ज्ञान होता है, सौन्दर्य की भावना नहीं उत्पन्न होती; क्योंकि न तो हाथी की सूँड़ में ही दाम्पत्य रति के अनुकूल अनुरंजनकारी सौन्दर्य है और न भिड़ की कमर में ही। अत: रसात्मक प्रसंगों में इस बात का ध्‍यान रहना चाहिए कि अप्रस्तुत (उपमान) भी उसी प्रकार के भाव के उत्तेजक हों, प्रस्तुत जिस प्रकार के भाव का उत्तेजक हो।

    उपर्युक्त कथन का यह अभिप्राय कदापि नहीं कि ऐसे प्रसंगों में पुरानी बँधी हुई उपमाएँ ही लाई जाएँ, नई न लाई जाएँ। 'अप्रसिद्धि' मात्र उपमा का कोई दोष नहीं, पर नई उपमाओं की सारी जिम्मेदारी कवि पर होती है। अत: रसात्मक प्रसंगों में ऊपर लिखी बातों का ध्‍यान रखना आवश्यक है। जहाँ कोई रस स्फुट न भी हो वहाँ भी यह देख लेना चाहिए कि किसी पात्र के लिए जो उपमान लाया जाय वह उस भाव के अनुरूप हो जो कवि ने उस पात्र के सम्‍बन्‍ध में अपने हृदय में प्रतिष्ठित किया है और पाठक के हृदय में भी प्रतिष्ठित करना चाहता है। राम की सेवा करते हुए लक्ष्मण के प्रति श्रद्धा का भाव उत्पन्न होता है अत: उनकी सेवा का यह वर्णन जो गोस्वामीजी ने किया है कुछ खटकता है-

सेवत लखन सिया रघुवीरहि  । जिमि अविवेकी पुरुष सरीरहि॥

    इस दृष्टान्त में लक्ष्मण का सादृश्य जो अविवेकी पुरुष से किया गया है उससे सेवा का आधिक्य तो प्रकट होता है पर लक्ष्मण के प्रति प्रतिष्ठित भाव में व्याघात पड़ता है। यहाँ यह कहा जा सकता है कि लक्ष्मण का सादृश्य अविवेकी पुरुष के साथ कवि ने नहीं दिखाया है बल्कि लक्ष्मण के सेवाकार्य का सादृश्य अविवेकी के सेवाकर्म से दिखाया गया है। ठीक है, पर लक्ष्मण का कर्म श्लाघ्य है और अविवेकी का निंद्य, इससे ऐसे अप्रस्तुत कर्म को मेल में रखने से प्रस्तुत कर्मसम्बन्धिनी भावना में बाधा अवश्य पड़ती है। रसात्मक प्रसंगों में केवल किसी बात के आधिक्य  या न्यूनता की हद से ही काम नहीं चलता। जो भावुक और रसज्ञ न होकर केवल अपनी दूर की पहुँच दिखाना चाहते हैं वे कभी कभी आधिक्य  या न्यूनता की हद दिखाने में ही फँसकर भाव के प्रकृत स्वरूप को भूल जाते हैं। कोई ऑंखों के कोनों को कान तक पहुँचाता है, कोई नायिका की कटि को ब्रह्म के समान अगोचर और सूक्ष्म बताता है, कोई यार की कमर 'कहाँ है, किधर है' यही पता लगाने में रह जाता है। नायिका श्रृंगार का आलम्बन होती है। उसके स्वरूप के संघटन में इस बात का ध्‍यान चाहिए कि उसकी रमणीयता बनी रहे। प्राचीन कवि जहाँ मृणाल की ओर संकेत करके सूक्ष्मता और सौन्दर्य एक साथ दिखाते थे, वहाँ लोग या तो भिड़ की कमर सामने लाने लगे या कमर ही गायब करने लगे। चमत्कारवादी इसमें अद्भुत रस का आनन्द मानने लगे। पर सोचने की बात है कि नायिका अद्भुत रस का आलम्बन है या श्रृंगार रस का। श्रृंगार रस के आलम्बन में 'अद्भुत' केवल सौन्दर्य का विशेषण हो सकता है। 'अद्भुत सौन्दर्य' हम दिखा सकते हैं पर सौन्दर्य को गायब नहीं कर सकते।

    कहने की आवश्यकता नहीं कि ऊपर जो बात कही गई है वह ऐसी वस्तुओं के सम्‍बन्‍ध में कही गई है जिनका वर्णन कवि किसी भाव में मग्न होकर उसी भाव में मग्न करने के लिए करता है,-जैसे, नायिका का वर्णन, प्राकृतिक शोभा का वर्णन, वीर कर्म का वर्णन; इत्यादि। जहाँ वस्तुएँ ऐसी होती हैं कि उनके सम्‍बन्‍ध में अलग कोई उपयुक्त भाव (जैसे रति, भय, हर्ष, घृणा, श्रद्धा इत्यादि) नहीं होता, केवल उनका रूप, गुण, क्रिया आदि का ही गोचर स्पष्टीकरण करना या अधिकता न्यूनता की ही भावना तीव्र करना अपेक्षित होता है-उनके द्वारा किसी भाव की अनुभूति की वृद्धि करना नहीं -वहाँ आकृति, गुण आदि का निरूपण और आधिक्य  या न्यूनता का बोध कराने वाली सदृश वस्तुओं से ही प्रयोजन रहता है। हाथियों के डीलडौल, तलवार की धार, किसी कर्म की कठिनता, खाई की चौड़ाई इत्यादि के वर्णन से केवल इस प्रकार का सादृश्य अपेक्षित रहता है जैसे पहाड़ के समान हाथी, बाल की तरह धार, पहाड़ सा काम, नदी सी खाई, इत्यादि।

    जायसी ने सादृश्यमूलक अलंकारों का ही आश्रय अधिक लिया है। अत: उपर्युक्त विवेचन के साथ जब हम उनके अप्रस्तुतान्वय या सादृश्यविधान पर विचार करते हैं, तब देखते हैं कि रसात्मक प्रसंगों में अधिकांश भाव के अनुरूप ही अनुरंजनकारी अप्रस्तुत वस्तुओं की योजना हुई है। पर साथ ही यह बात भी ध्‍यान में रखनी चाहिए कि जायसी के वर्णन अधिकतर परम्परानुगत ही हैं। इससे उनमें कविसमयसिद्ध उपमान ही अधिक मिलते हैं और इन परम्परागत उपमानों में कुछ अवश्य ऐसे हैं जो प्रसंग के अनुकूल भाव को पुष्ट करने में सहायक नहीं होते, जैसे हाथी की सूँड़; सिंहनी और भिड़ की कमर। सुन्दरी नायिका की भावना करते समय सिंहनी, भिड़ और हाथी सामने आ जाने से उस भावना की पुष्टि में सहायता के स्थान पर बाधा ही पहुँचती है। ऐसे उपमानों को भी जायसी ने छोड़ा नहीं है। बल्कि यों कहिए कि सादृश्य का आरोप करने में फारसी के जोर पर वे एक आध जगह और बढ़ गए हैं। भारतीय काव्यपद्धति में उपमान चाहे उदासीन हों, पर भाव के विरोधी कभी नहीं होते। 'भाव' से मेरा अर्थ वही है जो साहित्य में लिया जाता है। 'भाव' का अभिप्राय साहित्य में तात्पर्यबोध मात्र नहीं है बल्कि वह वेगयुक्त और जटिल अवस्थाविशेष है जिसमें 'शरीरवृत्ति और मनोवृत्ति दोनों का योग रहता है। क्रोध को ही लीजिए। उसके स्वरूप के अन्तर्गत अपनी हानि या अपमान की बात का तात्पर्यबोध, उग्र वचन और कर्म की प्रवृत्ति का वेग तथा त्योरी चढ़ना, ऑंखें लाल होना, हाथ उठना, ये सब बातें रहती हैं। मनोविज्ञान की दृष्टि से इन सबके समष्टिविधान का नाम क्रोध का भाव है। रौद्र रस प्रसंग में कवि लोग जो उपमान लाते हैं वे भी संतापदायक या उग्र होते हैं, जैसे अग्नि। क्रोध से रक्तवर्ण नेत्रों की उपमा जब कोई कवि देगा तब अंगार आदि की देगा, रक्तकमल या बन्धूूकपुष्प की नहीं। इसी प्रकार श्रृंगार रस में रक्त, मांस, फफोले, हड्डी आदि का बीभत्स दृश्य सामने आना अरुचिकर प्रतीत होता है। पर जहाँ केवल 'तात्पर्य' के उत्कर्ष का ध्‍यान प्रधान रहेगा-ख्याल की बारीकी या बलंदपरवाजी पर ही नजर रहेगी-वहाँ भाव के स्वरूप का उतना विचार न रह जाएगा। फारसी की शायरी में विप्रलम्भ श्रृंगार के अन्तर्गत ऐसे बीभत्स दृश्य प्राय: लाए जाते हैं। इस बात का उल्लेख हो चुका है कि जायसी में कही-कहीं इस प्रकार के वर्णन मिलते हैं; जैसे, 'विरह सरागन्हि भूजै माँसू। ढरि ढरि परहि रकत कै ऑंसू।' इसी प्रकार नखशिख के प्रसंग में हथेली के वर्णन में जो यह हेतूत्प्रेक्षा की गई है वह भी कोई रमणीय रुचिकर दृश्य सामने नहीं लाती-

हिया काढ़ि जनु लीन्हेसि हाथा  । रुहिर भरी अँगुरी तेहि साथा ॥

    यदि कवि सच्चा है, शेष सृष्टि के साथ उसके हृदय का पूर्ण सामंजस्य है, उसमें सृष्टिव्यापिनी सहृदयता है तो उसके सादृश्यविधान में एक बात और लक्षित होगी। वह जिस सदृश वस्तु या व्यापार की ओर ध्‍यान ले जाएगा कहीं कहीं उससे मनुष्य को और प्राकृतिक पदार्थों के साथ अपने सम्‍बन्‍ध की बड़ी सच्ची अनुभूति होगी। विरहताप से झुलसी और सूखी हुई नागमती को जब प्रिय के आगमन का आभास मिलता है तब उसकी दशा कैसी होती है-

जस भुइँ दहि असाढ़ पलुहाई। परहिं बूँद और सौंधि बसाई॥

ओहि भाँति पलुही सुख बारी। उठी करिल नइ कोंप सँवारी॥

    इसमें मनुष्य देखता है कि जिस प्रकार सन्ताप और आधद के चिन्‍ह मेरे शरीर में दिखाई पड़ते हैं वैसे ही पेड़ पौधों के भी। इस प्रकार उनके साथ अपने सम्‍बन्‍ध की अनुभूति का उदय उसके हृदय में होता है। ऐसी अनुभूति द्वारा मानवहृदय का प्रसार करने में जो कवि समर्थ हो वह धन्य है। 'शरीर पनपना' आदि लाक्षणिक प्रयोग जो बोलचाल में आए हैं वे ऐसे ही कवियों की कृपा से प्राप्त हुए हैं।

    सादृश्यमूलक अलंकारों में उपमा, रूपक और उत्प्रेक्षा का व्यवहार अधिक मिलता है। इनमें से हेतूत्प्रेक्षा जायसी को बहुत प्रिय थी। इसके सहारे उन्होंने अपनी कल्पना का विस्तार बहुत दूर तक बढ़ाया है-कहीं कहीं तो सारी सृष्टि को अपने भाव के भीतर लिया है (दे. विरहवर्णन)। रूपवर्णन में कवियों को अलंकार भरने का खूब मौका मिलता है। जायसी का शिखनख वर्णन भी अधिकतर परम्परानुगत ही है। इसमें अलंकारों की भरमार उसमें और जगहों से अधिक देखी जाती है। सादृश्यमूलक अलंकारों में वस्तूत्प्रेक्षा अधिक है। काले केशों के बीच माँग की शोभा देखिए-

कंचन   रेख   कसौटी कसी              जनु घन महँ दामिनी परगसी॥

सुरुज किरन जनु गगन बिसेखी     जमुना माँह सुरसती देखी॥

    इसी प्रकार ऑंख की बरौनियाँ भी कुछ और ही जान पड़ती है। -

बरुनी का बरनौं इमि बनी       साधो बान जान दुइ अनी॥

जुरी राम रावन कै सेना         बीच समुद्र भए दुइ नैना॥

    इस सादृश्य में उपमानों की परिमाणगत अधिकता यदि कुछ खटके तो इस बात का स्मरण कर लेना चाहिए कि जायसी का प्रेम केवल लौकिक नहीं है अत: उसका आलम्बन भी अनन्त सौन्दर्य की ओर संकेत करने वाला है।

    इस सम्‍बन्‍ध में वस्तूत्प्रेक्षा का एक और उदाहरण देकर आगे चलता हूँ। पद्मिनी की कटि इतनी सूक्ष्म जान पड़ती है-

मानहुँ नाल खंड दुइ भए। दुहुँ बिच लंकतार रहि गए॥

    ये तो वस्तूत्प्रेक्षा या स्वरूपोत्प्रेक्षा के उदाहरण हुए। क्रियोत्प्रेक्षा के भी बहुत बढ़े चढ़े उदाहरण इस रूपवर्णन के भीतर मिलते हैं, जैसे-

अस वै नयन चक्र दुइ, भँवर समुद उलथाहिं।

जनु जिउ घालिहिं डोल महँ, लेइ आवहिं लेइ जाहिं॥

    हेतूत्प्रेक्षा के कुछ उदाहरण विरहवर्णन आदि के अन्तर्गत आ चुके हैं। यह अलंकार उत्कर्ष की व्यंजना के लिए बड़ा शक्तिशाली होता है। लोक में कार्य और कारण एक साथ बहुत ही कम देखे जाते हैं। प्राय: कारण परोक्ष ही रहता है। अत: कोई रूप या क्रिया यदि अपने प्रकृत रूप में हमारे सामने रख दी गई तो वह उस प्रभाव का प्रमाणस्वरूप लगने लगती है जिसे कवि खूब बढ़ाकर दिखाना चाहता है और हम इस बात की छानबीन में नहीं पड़ने जाते कि हेतु ठीक है या नहीं। इस अलंकार के दो एक उदाहरण देकर हम यह सूचित कर देना चाहते हैं कि जायसी की हेतुत्प्रेक्षाएँ अधिकतर असिद्धविषया ही मिलती हैं। ललाट का वर्णन करता हुआ कवि कहता है-

सहस किरिन जो सुरुज दिपाई  । देखि लिलार सोउ छपि जाई॥

    सूर्य छिपता अवश्य है पर उसके छिपने का जो हेतु कहा गया है वह कविकल्पित है और उस हेतु का आधार 'लज्जित होना' सिद्ध नहीं है। इसी प्रकार की हेतूत्प्रेक्षा दाँतों पर है-

दारिउँ सरि जो न कै सका, फाटेउ हिया दरक्कि।

    रूपवर्णन के अन्तर्गत फलोत्प्रेक्षा भी कई जगह दिखाई देती है, जैसे नासिका के वर्णन में यह पद्य-

पुहुप सुगंधा करहि एहि आसा। मकु हिरकाइ लेइ हम्ह पासा॥

    अथवा माँग के सम्‍बन्‍ध में ये उक्तियाँ-    

करवत तपा लेहिं होइ चूरु। मकु सो रुहिर लेइ देइ सेंदूरु॥

कनक दुवादस बानि होइ, चह सोहाग ओहि माँग।

    व्यतिरेक के दो उदाहरण नीचे दिए जाते है। -

का सरवरि तेहि देउँ मयंकू। चाँद कलंकी वह निकलंकू॥

औ चाँदहिं पुनि राहु गरासा। वह बिनु राहु सदा परगासा॥

सुवा सो नाक कठोर पँवारी। वह कोमल तिलपुहुप सँवारी॥

    दूसरे उदाहरण में 'तिलपुहुप' पद आक्षेप द्वारा दूसरे उपमान के रूप में नहीं लाया गया है बल्कि तृतीयान्त (तिलपुष्प से) है। इससे व्यतिरेक ही अलंकार कहा जाएगा।

    'रूपकातिशयोक्ति' (भेदप्यभेद:) भी जायसी की अत्यन्त मनोहर है। इसके द्वारा कवि ऐसी मनोहर और रमणीय प्राकृतिक वस्तुएँ सामने रखता है कि हृदय सौन्दर्य की भावना में मग्न हो जाता है। हेतूत्प्रेक्षा के समान यह अलंकार भी कवि को बहुत प्रिय है। स्थान स्थान पर इसका प्रयोग मिलता है। रतनारे नेत्रों के बीच घूमती हुई पुतलियों की शोभा की ओर कवि इस प्रकार इशारा करता है-

राते कँवल करहिं अलि भँवा। घूमहिं माति चहहिं अपसवाँ॥

    इसी कमल और भ्रमरवाले रूपक को अतिशयोक्ति में जायसी और जगह भी बड़ी सुन्दरता से लाए हैं। प्रेमजोगी रत्नसेन के सिंहलगढ़ में पकड़े जाने पर पद्मावती विरह में अचेत पड़ी है, ऑंखें नहीं खोलती है। इतने में कोई सखी आकर कहती है-

कँवल कली तू, पदमिनी ! गह निसि भएउ बिहानु।

अबहुँ न संपुट खोलसि, जब रे उवा जग भानु॥

    यह सुनते ही पद्मावती ऑंखें खोलती है जिसकी सूचना रूपकातिशयोक्ति के बल से कवि इन शब्दों में देता है-

भानु नावँ सुनि कँवल बिगासा। फिर कै भँवर लीन्ह मधु बासा॥

    यहाँ भी कवि ने केवल कमलदल पर बैठे भौंरे का उल्लेख करके ऑंख खुलने (डेले के बीच काली पुतली दिखाई देने) की सूचना दी है। इसी अलंकार के कुछ और नमूने देखिए-

   () साम भुअंगिनि रोमावली। नाभिहि निकसि कँवल कहँ चली॥

      आइ दुवौ नारँग बिच भई। देखि मयूर ठमकि रहि गई॥

   (पन्नग पंकज मुख गहे, खंजन तहाँ बईठ॥

        छत्र, सिंघासन, राज, धनु ता कहँ होइ जो दीठ॥

    कहीं कहीं तो जायसी ने अलंकारों की बड़ी जटिल और गूढ़ योजना की है। देवपाल की दूती पद्मिनी को बहका रही है कि जब तक यौवन है तब तक भोगविलास कर ले-

जोबन जल दिन दिन जस घटा। भँवर छपान, हंस परगटा॥

    जैसे जैसे यौवनरूपी जल दिन दिन घटता जाता है वैसे ही वैसे (शरीर रूपी नदी या सरोवर में) पानी की बाढ़ के भँवर छिपते जाते हैं और हंस (मानसरोवर से आकर) दिखाई पड़ने लगते हैं। यह तो हुआ सांगरूपक। पर एक बात है। जल का आरोप जिस पर किया गया है उस यौवन का उल्लेख तो साथ ही है। पर दूसरी पंक्ति में भँवर और हंस का जिनपर आरोप है उन काले और श्वेत केशों का उल्लेख नहीं है। अत: दूसरी पंक्ति में हमें रूपकातिशयोक्ति माननी पड़ती है। दोनों पंक्तियों का एक साथ विचार करने पर नदी या सरोवर के ही अंग भँवर (पानी के भँवर) और हंस ठहरते हैं जो शरत के दृश्य को पूरा करते हैं। अत: दूसरी पंक्ति में अतिशयोक्ति सिद्ध हो जाने पर ही 'सांग-रूपक' होता है। पर अतिशयोक्ति की सिद्धि के लिए श्लेष द्वारा 'भँवर' शब्द का दूसरा अर्थ, काला भौंरा, लेना पड़ता है तब जाकर उपमेय अर्थात् काले केश की उपलब्धि होती है। इस प्रकार रूपक को प्रधान या अंगी मानने से श्लेष और अतिशयोक्ति उसके अंग हो जाते हैं और अलंकारों का यह मेल 'अंगागि भाव संकर' ठहरता है

    प्रसंगवश 'सांगरूपक' के गुण-दोष का भी थोड़ा विचार कर लेना चाहिए। यह तो मानना ही पड़ेगा कि एक वस्तु से दूसरी वस्तु का आरोप सादृश्य और सामंजस्य के आधार पर ही होता है। अधिकतर देखा जाता है कि 'निरंग रूपक' में तो सादृश्य और साधर्म्य का ध्‍यान रहता है पर सांग और परम्परित में इनका पूरा निर्वाह नहीं होता और जल्दी हो भी नहीं सकता। दो में से एक का भी पूरा निर्वाह हो जाए तो बड़ी बात है, दोनों का एक साथ निर्वाह तो बहुत कम देखा जाता है। सादृश्य से हमारा अभिप्राय बिम्बप्रतिबिम्ब रूप और साधर्म्य से वस्तुप्रतिवस्तु धर्म है। साहित्यदर्पणकार का यह उदाहरण लेकर विचार कीजिए-

    'रावणरूप अवर्षण से क्लांत देवतारूप शस्य को इस प्रकार वाणीरूप अमृतजल से सींच वह कृष्णरूप मेघ अन्तर्हित हो गया।'

    इस उदाहरण में रावण और अवर्षण में रूपसादृश्य नहीं है, केवल साधर्म्य है। इसी प्रकार देवता और शस्य में तथा वाणी और जल में कोई रूपसादृश्य नहीं है, साधर्म्य मात्र है-विष्णु का स्वरूप नील जलद का सा और धर्म भी उसी के समान लोकानन्दप्रदान है। पर सांगरूपक में कहीं-कहीं तो केवल अप्रस्तुत (उपमान) दृश्य को किसी प्रकार बढ़ाकर पूरा करने का ही ध्‍यान कवियों को रहता है। वे यह नहीं देखने जाते कि एक एक अंग या ब्योरे में किसी प्रकार का सादृश्य या साधर्म्य है अथवा नहीं। विनयपत्रिका के 'सेइय सहित सनेह देह भरि कामधेनु कलि कासी' वाले पद में रूपक के अंगों की योजना अधिकतर इसी प्रकार की है।

    अब इस विवेचन के अनुसार जायसी के उपर्युक्त रूपक की समीक्षा कीजिए-यौवनरूप जल, काले केशरूपी भँवर (जलावर्त) और श्वेत केशरूपी हंस। यौवन और जल में उमड़ने या उमंग के धर्म को लेकर साधर्म्य मात्र है। काले केश का पहले तो अतिशयोक्ति में काले भँवरों के साथ वर्णसादृश्य है फिर श्लेष द्वारा रूपक में पहुँचकर जलावर्त के साथ कुछ आकृति सादृश्य (केश कुंचित या घूमे हुए होने से) है। श्वेत केश और हंस में वर्णसादृश्य है। इसके उपरान्त जब दूसरी पंक्ति के इस व्यंग्यार्थ पर आते हैं कि युवावस्था में मनुष्य विषयों के चक्कर में पड़ा रहता है और वृद्धावस्था में उसमें सद्विवेक करनेवाली आत्मा (हंस) का उदय होता है तब हमें सादृश्य और साधर्म्य दोनों मिल जाते हैं क्योंकि जलावर्त का धर्म है चक्कर में डालना और हंस का स्वभाव है नीर क्षीर विवेक।

    उसी दूती के मुख से वृद्धावस्था का यह वर्णन गूढ़ 'अप्रस्तुत प्रशंसा' द्वारा कवि ने कराया है-

छल कै जाइहि बान पै, धनुष छाँड़ि कै हाथ।

    बान या तीर सीधे शरीर का उपमान है और धनुष झुके हुए शरीर का। ये दोनों क्रमश: युवावस्था और बुढ़ापे के कार्य हैं। अत: कार्य द्वारा कारण के निर्देश से यहाँ 'अप्रस्तुत प्रशंसा' हुई, जो रूपकातिशयोक्ति द्वारा सिद्ध हुई है। इस प्रकार दोनों का 'अंगांगिभाव संकर है'। इसके अतिरिक्त 'बान' शब्द का दूसरा अर्थ वर्ण या कान्ति लेने से श्लेष की 'संसृष्टि' भी हुई।

    कहीं-कहीं तो संकर या 'संसृष्टि' के बिना ही रूपकातिशयोक्ति बहुत दुर्बोधा हो गई है, जैसे-

जौ लगि कालिंदि, होहि विरासी। पुनि सुरसरि होइ समुद परासी॥

    यह भी उसी दूती का वचन है। अभिप्राय यह है कि जब तक तू काले केशोंवाली (अर्थात् युवती) है तब तक विलास कर ले, फिर जब श्वेत केशोंवाली हो जाएगी तब तो काल के मुँह में पड़ने के लिए जल्दी जल्दी बढ़ने लगेगी। जमुना की कालीधारा सीधे समुद्र में नहीं गिरती है। जब वह श्वेतधारा वाली गंगा के साथ मिलकर श्वेत गंगा हो जाती है तब समुद्र की ओर जाती है जहाँ जाकर उसका अलग अस्तित्व नहीं रह जाता। यह अतिशयोक्ति दुर्बोध हो गई। दुर्बोधता का कारण है अप्रसिद्धि। रूपकातिशयोक्ति में प्रसिद्ध उपमान ही लाए जाते हैं। प्रसिद्ध और नए कल्पित उपमानों के रखने से तो पद्य पहेली हो जायगा। उक्त पद्य में जायसी ने स्वतन्त्रता यह दिखाई कि परम्परा से व्यवहृत प्रसिद्ध उपमान न लेकर स्वकल्पित अप्रसिद्ध उपमान लिए हैं, जिससे एक प्रकार की दुरूहता आ गई है। काले केशों के लिए कालिंदी नदी की और श्वेत केशों के लिए गंगा की उपमा प्रसिद्ध नहीं है। यह रूपकातिशयोक्ति अलंकार ही लीक पीटने वालों के लिए है। जो नए उपमानों की उद्भावना करे वह इस अलंकार की ओर जाय क्यों?

    इसी प्रकार की गूढ़ और अर्थगर्भित योजना 'तद्गुण अलंकार' की भी लीजिए। देवपाल की दूती बहुत से पकवान लाकर पद्मावती के सामने रखती है। वह उन्हें हाथों से भी न छूकर कहती है-

रतन छुवा जिन्ह हाथन्ह सेंती। और न छुवौं सो हाथ सँकेती॥

दमक रंग भए हाथ मँजीठी। मुकुता लेउँ पै घुघुँची दीठी॥

    अर्थात् जिन हाथों से मैंने उस दिव्य रत्न (राजा रत्नसेन) का स्पर्श किया अब उनसे और वस्तु क्या छूऊँ? उस दिव्य रत्न या माणिक्य के प्रभाव से मेरे हाथ इतने लाल हैं कि मोती भी अपने हाथ में लेकर देखती हूँ तो वह गुंजा (हाथ की ललाई से गुंजा का लाल रंग और देखने से पुतली की छाया पड़ने के कारण गुंजा का सा काला दाग) हो जाता है, अर्थात् उसका कुछ भी मूल्य नहीं दिखाई पड़ता।

    अब इसके अलंकारों पर विचार कीजिए। सबसे पहले तो 'रतन' पद में हमें श्लेष मिलता है। फिर दूसरे चरण में काकुवक्रोक्ति। तीसरे-चौथे चरण में जटिलता है। 'उस रत्न के स्पर्श से मेरे हाथ लाल हुए' इसका विचार यदि हम गुण की दृष्टि से करते हैं तो 'तद्गुण' अलंकार ठहरता है। फिर जब हम यह विचार करते हैं कि पद्मिनी के हाथ तो स्वभावत: लाल हैं (उनमें लाली का आरोप नहीं है) तब हमें रत्नस्पर्श रूप हेतु का आरोप करके हेतूत्प्रेक्षा कहनी पड़ती है। अत: यहाँ इन दोनों अलंकारों का 'सन्देह संकर' हुआ। चौथे चरण में 'तद्गुण' अलंकार स्पष्ट है। पर यह अलंकारनिर्णय भी हमें व्यंग्य अर्थ तक नहीं पहुँचाता। अत: हम लक्षणा से तो 'मुक्ता' का अर्थ लेते हैं 'बहुमूल्य वस्तु' और घुँघची का अर्थ लेते हैं 'तुच्छ वस्तु'। इस प्रकार हम इस व्यंग्य अर्थ पर पहुँचते हैं कि रत्नसेन के सामने मुझे संसार की उत्तम वस्तु तुच्छातितुच्छ दिखाई पड़ती है।

    इन उदाहरणों से पाठक समझ सकते हैं कि जायसी ने अलंकारों से अर्थ पर अर्थ भरने का कैसा कड़ा काम किया है। इसी 'मुक्ता' को लेकर कवियों ने भी तद्गुण अलंकार बाँधा है, पर वे रूपाधिक्य की व्यंजना के आगे नहीं बढ़ सके हैं, जैसे कि इस प्रसिद्ध दोहे में -

अधर जोति बिद्रुम लसत, पिय मुकुता कर दीन्ह।

देखत ही गुंजा भयो, पुनि हंसि मुकुता कीन्ह॥

    सिंदूर से लाल माँग के इस वर्णन में जायसी ने तद्गुण और हेतूत्प्रेक्षा का मेल किया है-

भोर साँझ रवि होइ जो राता। ओहि देखि राता भा गाता॥

    'निदर्शना' और 'यमक' का यह उदाहरण है-

धरती बान बेधि सब राखी। साखी ठाढ़ देहिं सब साखी॥

    इसी प्रकार दाँतों के इस वर्णन में भी 'तृतीय निदर्शना' है-हारी जोति सो तेहि परिछाहीं।'

    देखिए, 'गोरा' नाम का कैसा अर्थगर्भित प्रयोग इस सुन्दर दोहे में जायसी ने किया है-

रतनसेन जो बाँधा , मसि गोरा के गात।

जौ लगि रुहिर न धवौं, तौ लगि होइ न रात॥

    'गोरा' नाम भी है और शुभ्रश्वेत अर्थ का द्योतक भी है। जो वस्तु श्वेत और निर्मल है उस पर मसि या स्याही का धब्बा पड़ना कितना बुरा है! यह धब्बा मिटेगा कैसे? जब (अपने या शत्रु के) रुधिर से धोया जाएगा। इस दोहे में यदि 'गात' के स्थान पर 'वदन' या 'मुख' शब्द आया होता तो इसका मोल अधिक बढ़ जाता क्योंकि उस अवस्था में 'सुर्खरू' होने का मुहाविरा भी सटीक बैठ जाता।

    एक स्थान पर तो जायसी ने ऐसी ढकी हुई या गूढ़ रमणीय रूपयोजना (अप्रस्तुत) रखी है जिसका आभास मिलने पर कवि के कौशल पर चित्त चमत्कृत हो जाता है। जब पद्मिनी हँसती है तब उसके लाल होठों और सफेद दाँतों की द्युति का प्रसार किस प्रकार होता है, देखिए-

हीरा लेइ सो विद्रुमधा । बिहँसत जगत होइ उजियारा॥

    हीरे की ज्योति लिए हुए जब वह विद्रुम वर्ण की (अरुण) द्युतिधारा फैलती है तब सारा जगत् प्रकाशित हो जाता है। इस उक्ति में उषा की मधुर श्वेत अरुण ज्योति के उदय का दृश्य किस प्रकार छिपा है! जब पद्मिनी हँसती है तब संसार उसी प्रकार खिल उठता है, जगमगा उठता है, जिस प्रकार उषा का मधुर प्रकाश फैलने पर। उक्ति के भीतर अप्रस्तुत रूप में इस प्रकार का दबा हुआ रूपविधान (सप्रैस्ड इमैजरी) आधुनिक काव्याभिव्यंजन की दृष्टि से भी परम रमणीय माना जाता है।

    'सन्देहालंकार' का उदाहरण जायसी में नहीं मिलता। एक स्थान पर (नखशिख में) रोमावली के वर्णन में वह खंडित रूप में मिलता है-

मनहुँ चढ़ी भौंरन्ह कै पाँती। चंदन खाँभ बास कै माती॥

की कालिंदी बिरह सताई। चलि पयाग अरइल बिच आई॥

    सन्देह में दो कोटियाँ होनी चाहिए और दोनों कोटियों में समान रूप से ज्ञान होना चाहिए। यहाँ एक ही कोटि है, चौपाई के पिछले दो चरणों में। चौपाई के प्रथम दो चरणों में तो उत्प्रेक्षा है। अत: सन्देह अलंकार सिद्ध नहीं है, खण्डित है।

    कुछ और अलंकारों के उदाहरण लीजिए-

   (1) कहाँ छपाए चाँद हमारा। जेहि बिनु रैनि जगत अँधियारा॥ (विनोक्ति)

   (2) बसा लंक बरनै जग झीनी। तेहि ते अधिक लंक वह खीनी॥

      परिहस पियर भए तेहि बसा। लये डंक लोगन्ह कहँ डसा॥ (प्रत्यनीक)

      सिंह न जीता लंक सरि, हारि लीन्ह बनबासु॥

      तेहि रिस मानुस रकत पिय, खाइ मारि कै माँसु॥ (प्रत्यनीक)

   (3) निति गढ़ बाँचि चलै ससि सूरू। नाहि त होइ बाजि रथ चूरू॥         (सम्‍बन्‍धातिशयोक्ति)

   (4) मिलिहहिं बिछुरे साजन अकम भेंटि गहंत।

      तपनि मृगसिरा जे सहहिं ते अद्रा पलुहंत॥ (अर्थातरन्यास)

   (5) का भा जोग कथनि के कथे। निकसै घिउ न बिना दधि मथे॥ (दृष्टान्त)

   (6) घट महँ निकट, बिकट होइ मेरू। मिलहिं न मिले परा तस फेरू॥ (विशेषोक्ति)

   (7) ना जिउ जिए, न दसवँ अवस्था। कठिन मरन तें प्रेम बेवस्था॥ (विरोध)

   (8) भूलि चकोर दीठि मुख लावा। (भ्रम)

   (9) नैन नीर सौं पोता किया। तस मद चुवा बरा जस दिया॥ (परिणाम)

  (10) जीभ नाहिं पै सब किछु बोला। तन नाहीं सब ठाहर डोला॥ (विभावना)

  (11) पदमिनि ठगिनी भइ कित साथा। जेहिं तें रतन परा पर हाथा॥ (परिकरांकुर)

  (12) रतन चला भा घर अँधियारा॥ (परिकरांकुर)

    नीचे पहली पंक्ति में तो विषादन अलंकार की पुरानी उक्ति है जिसका व्यवहार सूरदास ने भी किया है, पर आगे उसमें जायसी ने 'द्वितीय पर्यायोक्ति' का मेल बड़ी सफाई से किया है-

गहै बीन मकु रैनि बिहाई। ससि बाहन तहँ रहै ओनाई॥ (विषादन)

पुनि धनि सिंघ उरेहे लागै। ऐसिहि बिथा रैनि सब जागै॥

(द्वितीय पर्यायोक्ति)

    इतने उदाहरणों से यह स्पष्ट हो गया होगा कि जायसी ने बहुत से अलंकारों का विधान किया है और यह विधान अधिकतर भाव या विषय के अनुरूप तथा अर्थविस्तार में सहायता की दृष्टि से किया है। पर यह कहा जा चुका है कि उन्होंने परम्परापालन का ध्‍यान भी बहुत रखा है। इससे कहीं कहीं भद्दी परम्परा के भी उदाहरण मिलते हैं। इस प्रकार का एक सांग-रूपक और एक परिणाम नीचे दिया जाता है। एक में तो वीररस की सामग्री में श्रृंगार की सामग्री का आरोप है और दूसरे में श्रृंगार की सामग्री में वीररस की सामग्री का। पहले स्‍त्री के रूपक में तोप का यह वर्णन लीजिए-

कहौं सिंगार जैसि वै नारी        दारू पियहिं जैसि मतवारी॥

सेंदुर  आगि  सीस उपराहीं       पहिया तरिवन चमकत जाहीं॥

कुच गोला दुइ हिरदय लाई       चंचल धुजा रहै छिटकाई॥

रसना लूक रहहिं मुख खोले       लंका जरै सो उनके बोले॥

अलक जंजीर बहुत गिउ बाँध      खींचहिं हस्ती, टूटहिं काँध

बीर सिंगार दोउ एक ठाऊँ        सत्रुसाल गढ़भंजन नाऊँ॥

    इसी प्रकार का उदाहरण नीचे 'परिणाम' अलंकार का भी है जो बादल की नवागत वधू के मुँह से कहलाया गया है-

जौ तुम चहहु जुझि, पिय बाजा       कीन्ह सिंगार जूझ मैं साजा॥

जोबन आइ सौंह होइ रोपा                बिखरा बिरह कामदल कोपा॥

भौंहैं धनुक, नयन सर साध              काजर पनच, बरुनि विष बाँध

अलक फाँस गिउ मेलि असूझा        अधर अधर सौं चाहहिं जूझा॥

कुम्भस्थल कुच दोउ मैमंता               पेलौं सौंह, सँभारहु कंता॥

    इन दोनों उदाहरणों में प्रस्तुत रस के विरुद्ध सामग्री का आरोप है। यद्यपि साहित्य के आचार्यों ने साम्य से कहे हुए विरोधी रस या भाव को (विभाव आदि को भी) दोषाधायक नहीं माना है, पर इस प्रकार के आरोपों से रस की प्रतीति में व्याघात अवश्य पड़ता है, वाग्वैदग्ध्‍य द्वारा मनोरंजन चाहे कुछ हो जाय। काव्य में बिम्बस्थापना (इमैजरी) प्रधान वस्तु है। वाल्मीकि, कालिदास आदि प्राचीन कवियों में यह पूर्णता को प्राप्त है। अँगरेजी कवि शेली इसके लिए प्रसिद्ध है। भाषा के दो पक्ष होते हैं -एक सांकेतिक (सिंबोलिक) और दूसरा बिम्बाधायक (प्रजेंटेटिव)। एक में तो नियत संकेत द्वारा अर्थबोध मात्र हो जाता है, दूसरे में वस्तु का बिम्ब या चित्र अन्त:करण में उपस्थित होता है। वर्णनों में सच्चे कवि द्वितीय पक्ष का आलंबन करते हैं। ये वर्णन इस ढंग पर करते हैं कि बिम्बग्रहण हो। अत: रसात्मक वर्णनों में यह आवश्यक है कि ऐसी वस्तुओं का बिम्बग्रहण कराया जाय, ऐसी वस्तुएँ सामने लाई जायँ, जो प्रस्तुत रस के अनुकूल हों, उसकी प्रतीति में बाधक न हों। सादृश्य और साधर्म्य के आधार पर आरोप द्वारा भी जो वस्तुएँ लाई जायँ, वे भी ऐसी ही होनी चाहिए। वीररस की अनुभूति के समय कुच, तरिवन, सिंदूर आदि सामने लाना या श्रृंगार रस की अनुभूति के अवसर पर मस्त हाथी, भाले, बरछे सामने रखना रसानुभूति में सहायक कदापि नहीं।

    बात की काटछाँटवाले अलंकार-जैसे, परिसंख्या-यद्यपि जायसी में कम हैं पर कई प्रसंगों में जहाँ किसी पात्र का वाक्चातुर्य दिखाना कवि को इष्ट है वहाँ श्लेष और मुद्रा अलंकार का आश्रय बहुत लिया गया है-यहाँ तक कि जी ऊबने लगता है। रत्नसेन पद्मावती के प्रथम समागम के अवसर पर जब सखियाँ पद्मावती को छिपा देती हैं तब राजा के रसायनी प्रलाप में धातुओं आदि के बहुत से नाम निकलते हैं जैसे-

सो न रूप जासौं दुख खोलौं       गएउ भरोस तहाँ का बोलौं॥

जहँ लोना बिरवा कै जाती         कहि कै सँदेस आन को पाती

जो एहि घरी मिलावै मोहीं         सीस देउँ बलिहारी ओहीं॥

    राजा कहता है 'वह रूप (पद्मावती) सामने नहीं है जिसके आगे मैं अपना दु:ख खोलूँ। ......जहाँ वह सलोनी लता (पद्मावती) है वहाँ सँदेसा कहकर उसका पत्र कौन लावे?' इत्यादि। इसमें श्लेष और मुद्रा दोनों अलंकार हैं। इसी प्रकार की एक उक्ति वियोगदशा में नागमती की है-

री  पंडुक  कह  पिउ  नाऊँ         जौं चित रोख न दूसर ठाऊँ॥

जाहि बया होहि पिउ कंठ लवा।    करै मेराव सोइ गौरवा

        अर्थात्-सफेद और पीली (पाण्डुवर्ण) पड़कर भी मैं उस प्रिय का नाम लेती हूँ। (क्योंकि) यदि मैं चित्त में रोष करूँ तो मेरे लिए और दूसरा ठिकाना नहीं है। जा और (सँदेसा कहकर) 1, जिसमें प्रिय कण्ठ से लगे। जो मिलाप करावे वही गौरवान्वित है। (चौपाई के बड़े टाइपों के शब्द चिड़ियों के नाम भी हैं।)

1. बया (फारसी)-आ।

    इसी प्रकार रत्नसेन के सिंहलद्वीप से चलने की तैयारी करने पर पद्मावती कहती है-

मोहि असि कहाँ सो मालति बेली। कदम सेवतीं चंप चमेली॥

    (कदम सेवती। -(1) चरणों की सेवा करती हैं, (2) कदम्ब और सेवती फूल)

    यहाँ तक अर्थालंकारों के नमूने हुए। शब्दालंकारों में जायसी ने वृत्यानुप्रास, यमक और श्लेष का प्रयोग किया है, पर संयम के साथ। अनुप्रास आदि पर ही लक्ष्य रखकर खेलवाड़ इन्होंने कहीं नहीं किया है। नीचे कुछ उदाहरण दिए जाते है। -

   (1) रसनहिं रस नहिं एकौ भावा। (यमक)

   (2) गइ सो पूजि, मन पूजि न आसा। (यमक)

   (3) भूमि जो भीजि भएउ सब गेरू। (अनुप्रास)

   (4) पपिहा पीउ पुकारता पावा। (अनुप्रास)

   (5) रंग रकत रह हिरदय राता। (अनुप्रास)

   (6) भइ बगमेल सेन घनघोरा। औ गजपेल अकेल सो गोरा। (अनुप्रास)

    श्लेष के बहुत से उदाहरण पहले आ चुके हैं।

    अलंकार हैं क्या? वर्णन करने की अनेक प्रकार की चमत्कारपूर्ण शैलियाँ, जिन्हें काव्यों से चुनकर प्राचीन आचार्यों ने नाम रखे और लक्षण बनाए। ये शैलियाँ न जाने कितनी हो सकती हैं। अत: यह नहीं कहा जा सकता कि जितने अलंकारों के नाम ग्रन्थों में मिलते हैं उतने ही अलंकार हो सकते हैं। बीच बीच में नए आचार्य नए अलंकार बढ़ाते आए हैं; जैसे, 'विकल्प' अलंकार को अलंकारसर्वस्वकार राजानक रुय्यक ने ही निकाला था। इसलिए यह न समझना चाहिए कि किसी कवि की रचना में उतनी ही चमत्कारपूर्ण शैलियों का समावेश होगा जितनी नाम रखकर गिना दी गई हैं। बहुत से स्थलों पर कवि ऐसी शैली का अवलम्बन कर जाएगा जिसके प्रभाव या चमत्कार की ओर लोगों का ध्‍यान न गया होगा और जिसका कोई नाम न रखा गया होगा; यदि रखा भी गया होगा तो किसी दूसरे देश के रीतिग्रन्थ में। उदाहरण के लिए यह पद्य लीजिए-

कँवलहि बिरह बिथा जस बाढ़ी। केसर बरन पीर हिय गाढ़ी॥

    'केसर बरन पीर हिय गाढ़ी', इस पंक्ति का अर्थ अन्वयभेद से तीन ढंग से हो सकता है-(1) कमल केसरवर्ण (पीला) हो रहा है, हृदय में गाढ़ी पीर है।
(2)
गाढ़ी पीर से हृदय केसरवर्ण हो रहा है। (3) हृदय में केसर वर्ण गाढ़ी पीर है। इनमें से पहला अर्थ तो ठीक नहीं होगा, क्योंकि कवि की उक्ति का आधार केवल कमल के हृदय का पीला होना है, सारे कमल का पीला होना नहीं। दूसरा अर्थ अलबत्ते सीधा और ठीक जँचता है, पर अन्वय इस प्रकार खींचतान कर करना पड़ता है-'गाढ़ी पीर हिय केसर बरन।' तीसरा अर्थ यदि लेते हैं तो 'पीर' का एक असाधारण विशेषण 'केसर बरन' रखना पड़ता है। इस दशा में 'केसरवर्ण' का लक्षणा से अर्थ करना होगा 'केसरवर्ण करनेवाली, पीला करने वाली' और पीड़ा का आतिशय्य लक्षणा का प्रयोजन होगा। पर योरोपीय साहित्य में इस प्रकार की शैली अलंकार रूप से स्वीकृत है और हाईपैलेज कहलाती है। इसमें कोई गुण प्रकृत गुणी से हटाकर दूसरी वस्तु में आरोपित कर दिया जाता है; जैसे यहाँ पीलेपन का गुण 'हृदय' से हटाकर 'पीड़ा' पर आरोपित किया गया है।

     एक उदाहरण और लीजिए-'जस भुइँ दहि असाढ़ पलुहाई।' इस वाक्य में 'पलुहाई' की संगति के लिए 'भुइँ' शब्द का अर्थ उस पर के घास पौधों अर्थात् आधार के स्थान पर आधेय लक्षणा से लेना पड़ता है। बोलचाल में भी इस प्रकार के रूढ़ प्रयोग आते हैं, जैसे 'इन दोनों घरों में झगड़ा है।' योरोपीय अलंकार शास्‍त्र में आधेय के स्थान पर आधार के कथन की प्रणाली को मेटानमी अलंकार कहेंगे। इसी प्रकार अंगी के स्थान पर अंग, व्यक्ति के स्थान पर जाति आदि का लाक्षणिक प्रयोग सिनेकडोकी अलंकार कहा जाता है। सारांश यह कि चमत्कार प्रणालियाँ बहुत सी हो सकती हैं।

मलिक मुहम्मद जायसी

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