हिंदी का रचना संसार

मुखपृष्ठ | उपन्यास | कहानी | कविता | नाटक | आलोचना | विविध | भक्ति काल | हिंदुस्तानी की परंपरा | विभाजन की कहानियाँ | अनुवाद | ई-पुस्तकें | छवि संग्रह | हमारे रचनाकार | हिंदी अभिलेख | खोज | संपर्क

 

हरिऔध समग्र खंड-2

पारिजात
कविता
अयोध्या सिंह उपाध्याय
'हरिऔध'
 

द्वितीय सर्ग

हरिऔध समग्र-अनुक्रम | खंड-2 के बारे में | भूमिका | प्रथम सर्ग | द्वितीय सर्ग | तृतीय सर्ग | चतुर्थ सर्ग | पंचम सर्ग | षष्ठ सर्ग | सप्तम सर्ग | अष्टम सर्ग | नवम सर्ग | दशम सर्ग | एकादश सर्ग | द्वादश सर्ग | त्रयोदश सर्ग | चतुर्दश सर्ग | पंचदश सर्ग

 (1)

अकल्पनीय की कल्पना

शार्दूल-विक्रीडित

सोचे व्यापकता-विभूति प्रतिभा है पार पाती नहीं।

होती है चकिता विलोक विभुता विज्ञान की विज्ञता।

लोकातीत अचिन्तनीय पथ में है चूकती चेतना।

कोई व्यक्ति अकल्पनीय विभु की कैसे क कल्पना॥1॥

आती है सफरी समूह-उर में क्या सिंधु की सिंधुता?

क्या ज्ञाता खगवृन्द है गगन के विस्तार-व्यापार का?

पाती है न पिपीलका अवनि की सर्वाङग्ता का पता।

कैसे मानव तो महामहिम की सत्ता-महत्ता कहे॥2॥

ऐसा अंजन पा सका न जिससे होती तमो-हीनता।

कोई दे न सका उसे सदय हो स्वाभाविकी दिव्यता।

जाला दूर हुआ, न अंधा दृग का आलोक-माला मिली।

कैसे लोक विलोक लोकपति को लोकोपयोगी बने॥3॥

जो है अंत-विहीन अंत उसका कैसे किसी को मिले।

कैसे हो वह गीत गीत रच के जो देव गोतीत है।

कैसे चित्त सके विचार उसको जो चित्त का चित्त है।

कैसे लोचन लें विलोक, वह तो है लोचनों में छिपा॥4॥

वंशस्थ

कहे उसे तो मत मानवीय क्यों।

बने न क्यों मूक त्रिकलोक की गिरा।

न वेद द्वारा यदि वेदनीय है।

अभेद के भेद, विभेद की कथा॥5॥

गीत

मूल-भूत मन-वचन-अगोचर भव-नियमन-व्रतधारी।

चिन्तन मनन मंत्र अवलंबन विनयन-रत अविकारी॥1॥

विभु है विश्व-विभूति-विधायक।

अपनी सकल अलौकिकता में लौकिकता-परिचायक॥2॥

उसका है अकुंठ पद, इससे है वैकुंठ-निवासी।

है वह सत्य-स्वरूप, इसलिए सत्य-लोक का वासी॥3॥

क्षीर पिलाकर है अनन्त जीवों का जीवन-दाता।

इसीलिए वह क्षीर-सिंधु का स्वामी है कहलाता॥4॥

जैसे किसी बीज में विटपी का विकास है बसता।

जैसे रवि के विपुल करों में है आलोक विलसता॥5॥

वैसे ही विलास से उसके लोक-लोक हैं बनते।

पलक मारते नभ-तल-जैसे वर वितान हैं तनते॥6॥

बहु सित भानु भानु उस वारिधिक के हैं विविध बलूले।

उस महान उपवन में तारक हैं प्रसून सम फूले॥7

तेज उसी के तेज-पुंज से तेज-बीज है बोता।

बिरच विपुल आलोक-पिंड को लोक-तिमिर है खोता॥8॥

वह समीर जीवन-प्रवाह बन जो प्रतिदिन है बहता।

उस अनन्त-जीवन के जीवन से है जीवित रहता॥9॥

सलिल की सलिलता उससे ही सहज सरसता पाती।

रसा उसी के रस-सेचन से है रसवती कहाती॥10॥

द्रुत-विलम्बित

विधु-प्रदीप-सुमौक्तिक-तारका-

लसित ले नभ थाल स्व-हस्त में।

किस महाप्रभु की अति प्रीति से

प्रकृति है करती नित आरती॥7॥

शार्दूल-विक्रीडित

लोकों का लय हो गये प्रलय में भू लोप लीला हुए।

नाना भूत-प्रसूत वाष्प अणु के संसारव्यापी बने।

छाये कज्जल-से प्रगाढ़ तम के आये महाशर्वरी।

सोता है विभु शेप-भूत भव में, है शेषशायी अत:॥8॥

गीत

लोकपति का ललाम-तम लोक।

है अति लोकोत्तर लीलामय भरित ललित आलोक॥1॥

आलोकित उससे हैं नभ-तल के अगणित रवि-सोम।

विलसित हैं असंख्य तारक-चय, विदलित है तमतोम॥2॥

उसके उपवन हर लेते हैं नंदन-वन का गर्व।

कल्प-वेलि हैं सकल बेलियाँ, कल्पद्रुम दुरम सर्व॥3॥

विकच बने रहते जो सब दिन, जिनमें है रस-सार।

जिनके सौरभ से सुरभित होता सारा संसार॥4॥

उसमें सतत लसित मिलते हैं ऐसे सुमन अपार।

जिनपर विश्व वसंत-मधुप बन करता है गुंजार॥5॥

उसमें हैं अमोल फल ऐसे जो हैं सुधा-समान।

जिनसे मिली अमरता सुर को, रहा अमर-पद-मान॥6॥

होती सदा वहाँ ध्वनि ऐसी जो है सरस अपार।

जिससे ध्वनित हुआ करता है भव-उर-तंत्री-तार॥7॥

पारस-रचित वहाँ की भू है कामधेनु कमनीय।

है रज-राजि रुचिर चिन्तामणि रत्न-राशि रमणीय॥8॥

सुधा-भ हैं अमित सरोवर जो है सिंधु-समान।

परम सरसतामय सरिता बन करती है रस-दान॥9॥

वहाँ विलसते मूर्तिमन्त बन सब सुख हास-विलास।

सब चिन्मय हैं, सबमें करता है आनन्द निवास॥10॥

मूलभूत है पंचभूत का सब जग जीवन निजस्व।

वही सकल संसार-सार है सुरपुर का सर्वस्व॥11॥

शार्दूल-विक्रीडित

नाना लोक समस्त भूतचय में सत्तामयी सृष्टि में।

सारी मूर्त्त अमूर्त्त ज्ञात अथवा अज्ञात उत्पत्ति में।

जो है व्यापक, क्या वही न विभु है, क्या है न कर्त्ता वही।

है संचालक कौन दिव्य कर से संसार के सूत्र का॥10॥

गीत

विभु है भव-विभूति-अवलंबन।

सत-रज-तम कमनीय विकासक प्रकृति-हृदय-अभिनंदन।

उसके परिचालन-बल से ही जग परिचालित होता।

वही सकल संसृति-वसुधा में सृजन-बीज है बोता।

नील वितान तान उसमें है तेज-पुंज उपजाता।

नव-निर्मित तारक-चय से है त्रिभुवन-तिमिर भगाता।

पावन पवन विश्व-तन को है प्राण-दान कर पाता।

उसको आतप-तपे विश्व का है वर व्यंजन बनाता।

रस-संचय कर सकल लोक को परम सरस करता है।

उसमें जीव-निवास विधायक नव-जीवन भरता है।

हरी विविध बाधक बाधाएँ बनकर धरा-विधाता।

दे वह विभूतियाँ जिससे है भूत भव-विभव पाता।

उसके ही कर में है कृति-संचालन-सूत्र दिखाता।

नियति-नटी को दारु-योषिता सम है वही नचाता॥11॥

(7)

विभु-विभुता

शार्दूल-विक्रीडित

चाहे हों फल, फूल, मूल, दल या छोटी-बड़ी डालियाँ।

चाहे हो उसकी सुचारु रचना या मुग्धकारी छटा।

जैसे हैं परिणाम अंग-तरु के सर्वांश में बीज के।

वैसे ही उस मूलभूत विभु का विस्तार संसार है॥12॥

जैसे दीपक-ज्योति से तिमिर का है नाश होता स्वत:।

जैसे वायु-प्रवाह से चलित है होती पताका स्वयं।

जैसे वे यह कार्य हैं न करते इच्छा-वशीभूत हो।

वैसे ही भव है विभूति-पति की स्वाभाविकी प्रक्रिया॥13॥

जैसे है घटिका स्वतंत्र बजने या बोलने आदि में।

जैसे सूचक सूचिका समय को देती स्वयं सूचना।

निर्माता मति ज्यों निमित्त बन के है सिध्दिदात्री बनी।

सत्ता है उस भाँति ही विलसती सर्वेश की सृष्टि में॥14॥

जो सत्ता सब काल है विलसती सर्वत्र संसार में।

सा जीव-समूह-मध्य जगती जो जीवनी-ज्योति है।

व्यापी है वह व्योम से अधिक है तेजस्विनी तेज से।

पूता है पवमान से, सलिल से सिक्ता, रसा से रसा॥15॥

गीत

नभ-तल था कज्जल-पूरित

था परम निविड़ तम छाया।

जब था भविष्य-वैभव में

भव का आलोक समाया॥1॥

जब पता न था दिनमणि का

था नभ में एक न तारा।

जब विरचित हुआ न विधु था

कमनीय प्रकृति-कर द्वारा॥2॥

जब तिमिर तिमिरता-भय से

थी जग में ज्योति न आयी।

जब विश्व-व्यापिनी गति से।

थी वायु नहीं बह पाई॥3॥

अनुकूल काल जब पाकर।

था सलिल न सलिल कहाया।

परमाणु-पुंज-गत जब थी।

वसुधा-विभूतिमय काया॥4॥

नाना कल-केलि-कलामय।

जब लोक न थे बन पाये।

जब बहु विधिक प्रकृति-सृजन के।

वर वदन न थे दिखलाये॥5॥

जब स्तब्ध सुप्त अक्रिय हो।

था जड़ीभूत भव सारा।

तब किसके सत्ता-बल से।

सब जग का हुआ पसारा॥6॥

परमाणु- पुंज- मंदर से।

तम- तोम- महोदधिक मथकर।

तब किसने रत्न निकाले।

अभिव्यक्ति-मूठियों में भर॥7॥

क्यों जड़ को अजड़ बनाया।

क्यों तम में किया उजाला।

क्यों प्रकृति-कंठ में किसने।

डाली मणियों की माला॥8॥

उस बहु युग की रजनी ने।

जिसने विकास को रोका।

कैसे किसके बल-द्वारा।

उज्ज्वल दिन-मुख अवलोका॥9॥

क्यों कहें रहस्य-उदर की।

कितनी लम्बी हैं ऑंतें।

हैं किसका भेद बताती।

ये भेद-भरी सब बातें॥10॥16॥

शार्दूल-विक्रीडित

आती तो न सजीवता अवनि में जो वायु होती नहीं।

कैसे तो मिलती उसे सरसता जो वारि देता नहीं।

तो मीठे स्वर का अभाव खलता जो व्योम होता नहीं।

कैसे लोक विलोकनीय बनता आलोक पाता न जो॥17॥

वंशस्थ

सदन्न सद्रत्न सदौषधी तथा।

सुधातु सत्पुष्प सुपादपावली।

कभी न पाती जगती विभूतियाँ।

उसे न देती यदि मंजु मेदिनी॥18॥

गीत

संसार बन गया कैसे।

इसकी है अकथ कहानी।

थोड़ा बतला पाते हैं।

वसुधा-तल के विज्ञानी॥1॥

जो कहीं नहीं कुछ भी था।

तो कुछ कैसे बन पाया।

होते अभाव कारण का।

क्यों कार्य सामने आया॥2॥

परमाणु-पुंज तो जड़ थे।

कैसे उनमें गति आयी।

कैसे अजीव अणुओं में।

जीवन-धारा बह पाई॥3॥

हो पुंजीभूत विपुल अणु।

क्यों अंड बन गया ऐसा।

अबतक भव की ऑंखों ने।

अवलोक न पाया जैसा॥4॥

वह अपरिमेय ओकों में।

बन प्रगतिमान था फैला।

तारक-समूह मोहरों का।

वह था मंजुलतम थैला॥5॥

वह घूम रहा था बल से।

अतएव हुआ उद्भासित।

थी ज्योति फूटती जिसमें।

पल-पल नीली, पीली, सित॥6॥

आभा की अगणित लहरें।

नभ में थीं नर्तन करती।

लाखों कोसों में अपनी।

कमनीय कान्ति थीं भरती॥7॥

अगणित बरसों के दृग ने।

यह प्रभा-पुंज अवलोका।

फिर प्रकृति-यवनिका ने गिर।

इस दिव्य दृश्य को रोका॥8॥

संकेत काल का पाकर।

यह अंड अचानक टूटा।

तारक-चय मिष नभ-पट का।

बन गया दिव्यतम बूटा॥9॥

हैं किस विचित्र विभुवर के।

ये कौतुक परम निराले।

हैं जिसे विलोक न पाते।

विज्ञान-विलोचनवाले॥10॥19॥

शार्दूल-विक्रीडित

कान्ता कुण्डलिनी अनन्त सरि की धारा समा क्यों बनी।

पाया क्यों धन श्वेतखंड उसने जो हैं सदाभा-भरे।

कैसे तारक-पुंज साथ उसको ब्रह्मांड-माला मिली।

है वैचित्रयमयी विभूति किसकी नीहारिका व्योम की॥20॥

आभा से तन की विभामय बना ब्रह्मांड-व्यापार को।

नाना लोक लिये अचिन्त्य गति से लोकाभिरामा बनी।

तारों के मिष कंठ-मध्य पहने मुक्तावली-मालिका।

जाती है बन केलि-कामुक कहाँ आकाश-गंगांगना॥21॥

गीत

जब ज्ञान-नयन को खोला।

अगणित ब्रह्मांड दिखाये।

प्रति ब्रह्म-अण्ड में हमने।

बहु विलसित ता पाये॥1॥

ये अखिल अंड विभुवर के।

तन-तरु के कतिपय दल हैं।

उस वारिद-से वपुधर के।

वपु से प्रसूत कुछ जल हैं॥2॥

बहु अंश विश्व का अब भी।

है क्रिया-विहीन अनवगत।

विज्ञान-निरत विबुधो का।

है माननीय-तम यह मत॥3॥

ब्रह्मांड क्या? गगन-तल के।

ये नयन-विमोहन ता।

कितने विचित्र अद्भुत हैं।

कितने हैं छवि में न्या॥4॥

यदि महि मृत्कण रवि घट है।

तो हैं बहु तारक ऐसे।

जिनके सम्मुख बनते हैं।

रवि से भी रजकण जैसे॥5॥

है जगत-ज्योति अवलंबन।

अनुरंजनता- दृग- प्यारे।

हैं कौतुक के कल केतन।

ये कान्ति-निकेतन ता॥6॥

नभ-तल-वितान में कितने।

हैं लाखों लाल लगाते।

कितने असंख्य हीरक-से।

उज्ज्वल हैं उसे बनाते॥7॥

लाखों पन्नों को कितने।

पथ में उछालते चलते।

कितने नीलम-मन्दिर में।

हैं मणि-दीपक-से बलते॥8॥

पीताभ मंजुता महि में।

हैं बीज विभा का बोते।

अगणित पीली मणियों से।

कितने मंडित हैं होते॥9॥

लेकर फुलझड़ी करोड़ों।

कितने हैं क्रीड़ा करते।

कितने अनन्त में अनुपम।

अंगारक-चय हैं भरते॥10॥

बहुतों को हमने देखा।

नाना रंगों में ढलते।

ऐसे अनेक अवलोके।

जो थे मशाल-से जलते॥11॥

आलात-चक्र-से कितने।

पल-पल फिरते दिखलाये।

क्या चार चाँद कितनों में।

हैं आठ चाँद लग पाये॥12॥

पारद-प्रवाह सम कितने।

हैं द्रवित प्रभा से भरते।

कितने प्रकाश-झरने बन।

हैं प्रतिपल झर-झर झरते॥13॥

हैं बुध्दि बावली बनती।

बुध-जन कैसे बतलायें।

हैं ललित ललिततम से भी।

लीलामय की लीलायें॥14॥32॥

शार्दूल-विक्रीडित

व्यापी है जिसमें विभा वलय-सी नीलाभ श्वेतप्रभा।

होते हैं सित मेघ-खंड जिसमें कार्पास के पुंज-से।

सर्पाकार नितान्त दिव्य जिसमें नीहारिकाएँ मिलीं।

फैला है यह क्या पयोधिक-पय-सा सर्वत्र आकाश में॥33॥

क्या संसार-प्रसू विभूति यह है? क्षीराब्धिक क्या है यही?

क्या विस्तारित शेषनाग-तन है नीहारिका-रूप में?

क्या आभामय कान्ति श्याम वपु की है श्वेतता में लसी।

किम्बा है यह कौतुकी प्रकृति की कोई महा कल्पना॥34॥

गीत

सब विबुध अबुध हो बैठे।

बन विवश बुध्दि है हारी।

हैं अविदित अगम अगोचर।

विभु की विभूतियाँ सारी॥1॥

क्या नहीं ज्ञान है विभु का?

यह ज्ञान किन्तु है कितना।

उतना ही हो बूँदों को

वारिधिक-विभूति का जितना॥2॥

विभु क्या? अनन्त वैभव का ।

क्या अन्त कभी मिल पाया।

इन बहु विचित्र तारों का।

किसने विभेद बतलाया॥3॥

हैं अपरिमेय गतिवाले।

अनुपम आलोक सहा।

हैं केन्द्र अलौकिकता के।

ये ज्योति-बिन्दु-से ता॥4॥

है लाख-लाख कोसों का।

इनमें से कितनों का तन।

गति में है इन्हें न पाता।

बहु प्रगतिमान मानव-मन॥5॥

इनमें हैं कितने ऐसे।

जो हैं सुरपुर से सुन्दर।

जिनमें निवास करते हैं।

सुर-वृन्द-समेत पुरन्दर॥6॥

नाना तेजस तनवाले।

रज-गात गात अधिकारी।

इनमें ही हैं मिल पाते।

बहु वायवीय वपुधारी॥7॥

लाखों तज तेज बिखरकर।

हैं काल-गाल में जाते।

लाखों तम-तोम भगा के।

बहु ज्योति-पुंज हैं पाते॥8॥

भव में ऐसी लीलाएँ।

पल-पल होती रहती हैं।

जो ऑंख खोल कानों में।

यह कान्त बात कहती हैं॥9॥

क्यों बात अपरिमित विभु की।

कोई परिमित बतलाये।

जिसका है मनन न होता।

वह क्यों मन-मध्य समाये॥10॥

यह कोई नहीं बताता।

नभ-तल में क्यों हैं छाये।

ये व्योम-यान बहु-रंगी।

किसलिए कहाँ से आये॥11॥

नभ-तल क्या, भूतल ही की।

सब बातें किसने जानी।

सच यह है रज-कण की भी।

है विपुल विचित्र कहानी॥12॥

क्यों कहें दूसरी बातें।

जो है यह गात हमारा।

क्या जान सका है कोई।

उसका रहस्य ही सारा॥13॥

कुछ रत्न पा सके बुधजन।

बहुधा प्रयोग कर नाना॥

भव-ज्ञान-उदधिक तो अब भी।

है पड़ा हुआ बे-छाना॥14॥34॥

शार्दूल-विक्रीडित

ऑंखें हैं बुध की विचित्र कितनी हैं, दूरबीनें बनी।

तो भी दिव्य कला-निकेत कितने नक्षत्र अज्ञात हैं।

कैसे जान सके मनुष्य उसको जो विश्व-सर्वस्व है।

जाने जा न सके अनन्त पथ के सारे सिता अभी॥35॥

क्या जाना करके प्रयत्न कितने या दूरबीनें लगा।

है दूरी कितनी, प्रसार कितना, है कान्ति कैसी कहाँ।

ऐसे ही कुछ बाहरी विषय का है बोध विज्ञान को।

पूरा ज्ञान कहाँ हुआ मनुज को तारों-भ व्योम का॥36॥

तारे हैं कितने सजीव, कितने निर्जीव हैं हो गये।

कैसे हैं तन रंग-रूप उनके हैं जीव जैसे जहाँ।

भू-सी है सुविभूति भूति सबमें या भिन्नता है भरी।

ये बातें बतला सके अवनि के विज्ञान-वेत्ता कहाँ॥37॥

नाना ग्रंथ रचे गये अवनि में विज्ञान-धारा बही।

चिन्ताशील हुए अनेक कितने विज्ञानवादी बने।

तो भी भेद मिला न भूत-पति का, सर्वज्ञता है कहाँ।

ज्ञाता-हीन बनी रही जगत में सर्वेश-सत्ता सदा॥38॥

पाती है वर विज्ञता विफलता मर्म्मज्ञता मूकता।

सच्चिन्ता-लहरी महाविषमता दैवज्ञता अज्ञता।

सोचे सर्व विधान सर्व-गत का, ज्ञाता बने विश्व का।

होती है बहुकुंठिता विबुधता सर्वज्ञता वंचिता॥39॥

सीखा ज्ञान, पढ़े पुराण श्रम से, वेदज्ञता लाभ की।

ऑंखें मूँद, लगा समाधि, समझा, की साधनाएँ सभी।

ज्ञाता की अनुभूत बात सुन ली, विज्ञानियों में बसे।

सौ-सौ यत्न किये, रहस्य न खुला संसार-सर्वस्व का॥40॥

दिव्या भूति अचिन्तनीय कृति की ब्रह्माण्ड-मालामयी।

तन्मात्रा-जननी ममत्व-प्रतिमा माता महत्तात्व की।

सारी सिध्दिमयी विभूति-भरिता संसार-संचालिका।

सत्ता है विभु की नितान्त गहना नाना रहस्यात्मिका॥41॥

 

हरिऔध समग्र-अनुक्रम | खंड-2 के बारे में | भूमिका | प्रथम सर्ग | द्वितीय सर्ग | तृतीय सर्ग | चतुर्थ सर्ग | पंचम सर्ग | षष्ठ सर्ग | सप्तम सर्ग | अष्टम सर्ग | नवम सर्ग | दशम सर्ग | एकादश सर्ग | द्वादश सर्ग | त्रयोदश सर्ग | चतुर्दश सर्ग | पंचदश सर्ग
 

मुखपृष्ठ | उपन्यास | कहानी | कविता | नाटक | आलोचना | विविध | भक्ति काल | हिंदुस्तानी की परंपरा | विभाजन की कहानियाँ | अनुवाद | ई-पुस्तकें | छवि संग्रह | हमारे रचनाकार | हिंदी अभिलेख | खोज | संपर्क

Copyright 2009 Mahatma Gandhi Antarrashtriya Hindi Vishwavidyalaya, Wardha. All Rights Reserved.