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हरिऔध समग्र खंड-2

पारिजात
कविता
अयोध्या सिंह उपाध्याय
'हरिऔध'
 

अष्टम सर्ग

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अन्तर्जगत्
हृदय
(1)


मुग्धकर सुन्दर भावों का।
विधाता है उसमें बसता।
देखकर जिसकी लीलाएँ।
जगत है मंद-मंद हँसता॥1॥
रमा मन है उसमें रमता।
वह बहुत मुग्ध दिखाती है।
कलाएँ करके कलित ललित।
वह विलसती मुसकाती है॥2॥
साधना के बल से उसमें।
अलौकिक रूप विलोके हैं।
देखनेवाली ऑंखों ने।
दृश्य अद्भुत अवलोके हैं॥3॥
कभी उसमें दिखलाती है।
श्यामली मूर्ति मनोरम-तम।
किरीटी कल-कुण्डल-शोभी।
विभामय विपुल विभाकर सम॥4॥
बहु सरस नवल नीरधार-सी।
जगत-जन-जीवन-अवलम्बन।
योगियों की समाधिक की निधिक।
सिध्दजन-सकल-सिध्दि-साधन॥5॥
श्वास-प्रश्वासों में जिसकी।
अनाहत नाद सुनाता है।
अलौकिक भावों का अनुभव।
विश्व में जो भर पाता है॥6॥
अलौकिक जिसके स्वर-द्वारा।
सर्वदा हो-हो मंजु स्वरित।
ज्ञान-विज्ञानों के धाता।
वेद के मंत्र हुए उच्चरित॥7॥
कभी उसमें छवि पाती है।
मूर्ति केकी-कलकंठोपम।
मनोहर कोटि-काम-सुन्दर।
शरद के नील सरोरुह सम॥8॥
लाभ कर दिव्य ज्योति जिसकी।
जगमगाता है उर सारा।
चरित-बल से जो बन पाया।
जगत-जन-लोचन का तारा॥9॥
कभी उसमें नवघन-रुचि-तन।
मधुमयी मुरली-वादन-रत।
विलसता है बन बहु मोहक।
सुधा-रस बरसाकर अविरत॥10॥
गीत गाता है वह ऐसे।
द्रवित जिससे पवि होता है।
जो सरसता अन्तस्तल में।
बहाता दिवरस सोता है॥11॥
कभी उसमें शोभित देखी।
मूर्ति सित भानु सदृश सुन्दर।
सुरसरी-लसिता, दिग्वसना।
त्रिकलोचन, चन्द्रभाल, मणिधार॥12॥
अमंगल वेश भले ही हो।
किन्तु है मंगल-मूर्ति-जनक।
भूति-बल से वह करता है।
अयस को पल में कान्त कनक॥13॥
ज्योति उसमें वह जगती है।
न जैसी जग में जग पाई।
दिव्यता मूर्तिमती वैसी।
नहीं दिव में भी दिखलाई॥14॥
साधना-दृग-द्वारा जिनको।
साधाकों ने ही अवलोकी।
दमकती रहती हैं उसमें।
मूर्तियाँ दिव्य देवियों की॥15॥
मंजु मुखरित सुरभित मुकलित।
प्रफुल्लित वदन मंद विहँसित।
दिखाता है वसंत उसमें।
सुविकसितसुमनावलि-विलसित॥16॥
बिहरते बहुरंजन करते।
घहरते घिरते आते हैं।
सरसतम बन-बनकर उसमें।
वारिधार रस बरसाते हैं॥17॥
स्वर्ग-सुख-विलसित नरक-निलय।
दिव्यतम कलित ललित कल है।
सरस-से-सरस गरल-पूरित।
सुधा से भरित हृदय-तल है॥18॥
जनक है दिव-विभूतियों का।
सुअन उसका जग-अनुभव है।
अलौकिकता का है आलय।
हृदय में भरित भव-विभव है॥19॥
न कामद कामधेनु इतनी।
न सुफलद सुरतरु है वैसा।
नहीं चिन्तामणि है चित-सा।
स्वयं है हृदय हृदय-जैसा॥20॥
 

(2)
 

कभी वह छिलता रहता है।
कभी बेतरह मसलता है।
कभी उसको खिलता पाया।
कभी बल्लियों उछलता है॥1॥
खीजता है इतना, जितना।
खीज भी कभी न खीजेगी।
कभी इतना पसीजता है।
ओस जितना न पसीजेगी॥2॥
कभी इतना घबराता है।
भूल जाता है अपने को।
कभी वह खेल समझता है।
किसी के गरदन नपने को॥3॥
कभी वह आग-बबूला बन।
बहुत ही जलता-भुनता है।
कभी फूला न समाता है।
फूल काँटों में चुनता है॥4॥
नहीं परदा रहने देता।
बहुत परदों से छनता है।
कभी पानी-पानी होकर।
ऑंख का ऑंसू बनता है॥5॥
फिर नहीं उसे देख पाता।
जिस-किसी से वह फिरता है।
कभी पड़ गये प्यारे-जल में।
मछलियों-जैसा तिरता है॥6॥
लाग से लगती बातें कह।
आग वह कभी लगाता है।
कभी उसके हँस देने से।
फूल मुँह से झड़ पाता है॥7॥
कभी दिखलाता है नीरस।
कभी वह रस बरसाता है।
फूल-सा कभी मिला कोमल।
उर कभी पवि बन पाता है॥8॥
 

(3)
 

हो गया क्या, क्यों बतलाऊँ।
धाड़कती रहती है छाती।
बहुत बेचैनी रहती है।
रात-भर नींद नहीं आती॥1॥
लगाये कहीं नहीं लगता।
बहुत ही जी घबराता है।
किसी की पेशानी का बल।
बला क्यों मुझपर लाता है॥2॥
आप ही फँस जाऊँ जिसमें।
जाल क्यों ऐसा बुनता हूँ।
उन्हें लग गयी बुरी धुन तो।
किसलिए मैं सिर धुनता हूँ॥3॥
किसी का मन मे मन से।
मिलाये अगर नहीं मिलता।
मत मिले, पर तेवर बदले।
बेतरह दिल क्यों है हिलता॥4॥
कौन सुनता है कब किसकी।
कौन कब ढंग बदलता है।
मैल उसके जी में हो, हो।
हमारा दिल क्यों मलता है॥5॥
किसी की ओर किसी ने कब।
प्यारे की ऑंखों को फेरा।
किसी के तड़पाने से क्यों।
तड़प जाता है दिल मेरा॥6॥
कौन बतलायेगा मुझको।
सितम क्यों कोई सहता है।
आस पर ओस पड़ गयी क्यों।
दिल मसलता क्यों रहता है॥7॥
कहाँ उसकी ऑंखें भींगी।
कब बला उसकी सोती है।
टपक पड़ते हैं क्यों ऑंसू।
टपक क्यों दिल में होती है॥8॥
 

(4)
 

दुखों के लम्बे हाथों से।
सुखों की लुटती हैं मोटें।
चैन को चौपट करती हैं।
कलेजे पर चलती चोटें॥1॥
खिले कोमल कमलों का है।
सब सितम भौरों का सहना।
मसल जाना है फूलों का।
कलेजे का मलते रहना॥2॥
बड़ी ही कोमल कलियों का।
है कुचल जाना या सिलना।
छेद छाती में हो जाना।
या किसी के दिल का छिलना॥3॥
तड़पते कलपा करते हैं।
नहीं पल-भर कल पाते हैं।
न जाने कैसे तेवर से।
कलेजे कत जाते हैं॥4॥
टूट पड़ना है बिजली का।
हाथ जीने से है धाोना।
किसी पत्थर से टकराकर।
कलेजे के टुकड़े होना॥5॥
जायँ पड़ काँटे सीने में।
लहू का घूँट पड़े पीना।
नहीं जुड़ पाता है टूटे।
कलेजा है वह आईना॥6॥
भूल हमने की तो की ही।
न जाने ये क्यों हैं भूले।
मँह फुलाये जो वे हैं तो।
क्यों फफोले दिल के फूले॥7॥
बहुत ही छोटे हों, पर हैं।
छलकते हुए व्यथा-प्यारेले।
किसी के छिले कलेजे के।
छरछराने वाले छाले॥8॥
 

(5)
 

दूसरों के दुख का मुखड़ा।
नहीं उसको है दिखलाता।
किसी की ऑंखों का ऑंसू।
वह कभी देख नहीं पाता॥1॥
कौर जिन लोगों के मुँह का।
सदा ही छीना जाता है।
बहुत कुम्हलाया मुँह उनका।
कब उसे व्यथित बनाता है॥2॥
बनाकर बहु चंचल विचलित।
चैन चित का हर लेती है।
किसी पीड़ित की मुखमुद्रा।
कब उसे पीड़ा देती है॥3॥
साँसतें कर कितनी जिनको।
सबल जन सदा सताते हैं।
विकलता-भ नयन उनके।
कब उसे विकल बनाते हैं॥4॥
पिसे पर भी जो पिसता है।
सदा जो नोचा जाता है।
बहुत उतरा उसका चेहरा।
उसे कब दुख पहुँचाता है॥5॥
छली लोगों के छल में पड़।
कसकती जिनकी छाती है।
खिन्नता उनके आनन की।
उसे कब खिन्न बनाती है॥6॥
जातियाँ जो चहले में फँस।
ठोकरें अब भी खाती हैं।
जल बरसती उनकी ऑंखें।
कहाँ उसको कलपाती हैं॥7॥
डाल देता है ऑंखों पर।
अज्ञता का परदा काला।
बनाता है नर को अंधा।
हृदय में छाया ऍंधिकयाला॥8॥
 

(6)
 

चाल वे टेढ़ी चलते हैं।
लिपट जाते कब डरते हैं।
नहीं है उनका मुँह मुड़ता।
मारते हैं या मरते हैं॥1॥
भरा विष उसमें पाते हैं।
बात जो कोई कहते हैं।
पास होती हैं दो जीभें।
सदा डँसते ही रहते हैं॥2॥
जब कभी लड़ने लगते हैं।
खडे हो जान लड़ाते हैं।
जान मुशकिल से बचती है।
अगर वे दाँत गड़ाते हैं॥3॥
बहुत फुफकारा करते हैं।
नहीं टल पाते हैं टाले।
बु हैं काले साँपों से।
काल हैं काले दिलवाले॥4॥
 

(7)
 

अनिर्मल छिछली नदियों का।
सलिल क्यों लगता है प्यारा।
सरस ही नहीं, सरसतम है।
सुरसरी की पावन धारा॥1॥
चमकते रहते हैं ता।
ज्योतियों से जाते हैं भर।
सुधा बरसाता रहता है।
सुधाकर ही वसुधा-तल पर॥2॥
पास तालों तालाबों के।
वकों का दल ही जाता है।
हंस क्यों तजे मानसर को।
कहाँ वह मोती पाता है॥3॥
सफल कब हुए सुफल पाये।
न सेमल हैं उतने सुन्दर।
किसलिये मुग्ध नहीं होते।
रसालों की रसालता पर॥4॥
सुरा का सर में सौदा भर।
पी उसे बनकर मतवाला।
किसलिये ढलका दे कोई।
सुधा से भरा हुआ प्यारेला॥5॥
बड़े सुन्दर कमलों के ही।
क्यों नहीं बनते अलिमाला।
क्यों बना वे बुलबुल हमको।
रंगतें दिखा गुलेलाला॥6॥
उतारा गया किसलिये वह।
पहनकर कनइल की माला।
गले में सुन्दर फूलों का।
गया था जो गजरा डाला॥7॥
सुरुचि-कुंजी से खुलता है।
पूततम भावों का ताला।
मनुज है दिवि-विभूति पाता।
बन गये दिव्य हृदयवाला॥8॥
 

(8)
 

मैं फूल के लिए आयी।
पर फूल कहाँ चुन पाई॥1॥
सखि! था हो गया सवेरा।
लाली नभ में थी छाती।
ऊषा लग अरुणा-गले से।
थी अपना रंग दिखाती।
तरु पर थी बजी बधाई॥2॥
था खुला झरोखा रवि का।
थी किरण मंद मुसकाती।
इठलाती धीरे-धीरे।
थी वसुंधरा पर आती।
सब ओर छटा थी छायी॥3॥
मुँह खोल फूल थे हँसते।
कलियाँ थीं खिलती जाती।
उन पर के जल-बूँदों को।
थी मोती प्रकृति बनाती।
दिव ने थी ज्योति जगाई॥4॥
मतवाले भौं आ-आ।
फूलों को चूम रहे थे।
रस झूम-झूम थे पीते।
कुंजों में घूम रहे थे।
वंशी थी गई बजाई॥5॥
तितलियाँ निछावर हो-हो।
थीं उनको नृत्य दिखाती।
उनके रंगों में रँगकर।
थीं अपना रंग जमाती।
वे करती थीं मनभाई॥6॥
आ मृदुल समीरण उनसे।
था कलित केलियाँ करता।
अति मंजुल गति से चलकर।
फिरता था सुरभि वितरता।
थीं रंग लताएँ लाई॥7॥
सब ओर समा था छाया।
थीं ललकें देख ललकती।
भर-भर प्रभात-प्यारेले में।
थी छवि-पुंजता छलकती।
थी प्रफुल्लता उफनाई॥8॥
यह अनुपम दृश्य विलोके।
जब हुआ मुग्ध मन मेरा।
कोमल भावों ने उसको।
तब प्रेम-पूर्वक घेरा।
औ' यह प्रिय बात सुनाई॥9॥
ऐसे कमनीय समय में।
जब फूल विलस हैं हँसते।
कितनों को बहु सुख देते।
कितने हृदयों में बसते।
रुचि है जब बहुत लुभाई॥10॥
तब उनको चुन ले जाना।
कैसे सहृदयता होगी।
क्या सितम न होगा उन पर।
क्या यह न निठुरता होगी।
यह होगी क्या न बुराई॥11॥
छिन जाय किसी का सब सुख।
वह छिदे बिधो बँधा जाये।
मिल जाय धूल में नुचकर।
दलमल जाये कुम्हलाये।
गत उसकी जाय बनाई॥12॥
पर कोई इसे न समझे।
रच गहने अंग सजाये।
मालाएँ गज गूँथे।
पहने बाँटे पहनाये।
तो होगी यह न भलाई॥13॥
जब सुनीं दयामय बातें।
तब मेरा जी भर आया।
डालों पर ही फूलों का।
कुछ अजब समाँ दिखलाया।
मैं फूली नहीं समाई।
पर फूल कहाँ चुन पाई॥14॥
 

(9)
 

पहने मुक्तावलि-माला।
कोई अलबेली बाला॥1॥
है विहर रही उपवन में।
कोमलतम भावों में भर।
अनुराग रँगे नयनों से।
कर लाभ ललक लोकोत्तर।
पी-पी प्रमोद का प्यारेला॥2॥
थीं कान्त क्यारियाँ फैली।
थे उनमें सुमन विलसते।
पहने परिधन मनोहर।
वे मंद-मंद थे हँसते।
था उनका रंग निराला॥3॥
उनके समीप जा-जाकर।
थी कभी मुग्ध हो जाती।
अवलोक कभी मुसकाना।
थी फूली नहीं समाती।
मन बनता था मतवाला॥4॥
थी कभी चूमती उनको।
थी कभी बलाएँ लेती।
थी कभी उमगकर उनपर।
निज रीझ वार थी देती।
बन-बन सुरपुर-तरु-थाला॥5॥
पूछती कभी वह उनसे।
तुम क्यों हो हँसनेवाले।
जन-जन के मन नयनों में।
तुम क्यों हो बसनेवाले।
क्यों मुझपर जादू डाला॥6॥
फिर कहती, समझ गयी मैं।
तुम हो ढंगों में ढाले।
हो मस्त रंग में अपने।
हो सुन्दर भोले-भाले।
है भाव तुम्हारा आला॥7॥
फिर क्यों न सिरों पर चढ़ते।
औ' हार गले का बनते।
तो प्यारे न होता इतना।
जो नहीं महँक में सनते।
गुण ही है गौरववाला॥8॥
फल कैसे तरुवर पाते।
छवि क्यों मिलती औरों को।
तुम अगर नहीं होते तो।
तितलियों चपल भौंरों को।
पड़ जाता रस का लाला॥9॥
क्यों दिशा महँकती मिलती।
क्यों वायु सुरभि पा जाती।
क्यों कंठ विहग का खुलता।
क्यों लता कान्त हो पाती।
क्यों महि बनती रस-शाला॥10॥
हैं मुझे लुभाते खगरव।
हैं मत्त मयूर नचाते।
मधु-ऋतु के ह-भ तरु।
हैं मुझे विमुग्ध बनाते।
है मन हरती घन-माला॥11॥
हैं ललचाती लतिकाएँ।
लहरें उठ सरस सरों में।
हैं ता बहुत रिझाते।
है जिनके कान्त करों में।
नभतल का कुंजी-ताला॥12॥
पर तुम्हें देखकर जितना।
है चित्त प्रफुल्लित होता।
जो प्रेम-बीज मानस से।
है भाव तुम्हारा बोता।
वह है निजता में ढाला॥13॥
इसलिए कौन है तुम-सा।
जिसको जी सदा सराहे।
सब काल निछावर हो-हो।
चौगुनी चाह से चाहे।
कम गया न देखा-भाला॥14॥


(10)
 

भर धूल सब दिशाओं में।
उसमें ऑंधी आती है।
छा जाता है ऍंधिकयाला।
थरथर कँपती छाती है॥1॥
ऑंखें रजमय होती हैं।
हा-हा-ध्वनि सुन पड़ती है।
धुन उठते हैं कोमल दल।
तरु-सुमनावलि झड़ती है॥2॥
वह कभी मरुस्थल-जैसा।
है रस-विहीन बन जाता।
बालुका-पुंज रूखापन।
है नीरस उसे बताता॥3॥
उसको तमारि की आभा।
यद्यपि है कान्त बनाती।
पर बिना सरसता वह भी।
है अधिक तप्त कर पाती॥4॥
वह कभी वारिनिधिक-जैसा।
है गर्जन करता रहता।
उत्ताकल तरंगाकुल हो।
फेनिल बन-बन है बहता॥5॥
हो तरल सरल कोमलतम।
है पवि पविता का पाता।
वह सुधा-विधायक होते।
है बहुविध गरल-विधाता॥6॥
है दुरारोह गिरिवर-सा।
अति दुर्गम गह्नर-पूरित।
नाना विभीषिका-आकर।
विधिक सरल विधन विदूरित॥7॥
है तदपि उच्च वैसा ही।
वैसा ही बहु छविशाली।
वैसा ही गुरुता-गर्वित।
वैसा ही मणिगण-माली॥8॥
है शरद-व्योम-सा सुन्दर।
गुणगण तारकचय-मंडित।
कल कीत्तिक-कौमुदी-विलसित।
राकापति-कान्ति-अलंकृत॥9॥
उसके समान ही निर्मल।
अनुरंजनता से रंजित।
उसके समान ही उज्ज्वल।
नाना भावों से व्यंजित॥10॥
है प्रकृति-तुल्य ही वह भी।
नाना रहस्य अवलम्बन।
बहु भेद-भरा अति अद्भुत।
भव अविज्ञेय अन्तर्धान॥11॥
जग जान न पाया जिनको।
हैं उसमें ऐसे जल-थल।
जिसका न अन्त मिल पाया।
है अन्तस्तल वह नभ-तल॥12॥
 

कमलिनी
(11)
 

 

वही तुझे भा जाय भाँवरें जो भर जावे।
वही गले लग जाय जो मधुर गान सुनावे।
क्या है यह कमनीय काम तू सोच कमलिनी।
जो अलि चाहे वही रसिक बन रस ले जावे॥1॥

तन कितना है मंजु, रंग कितना है न्यारा।
बन जाता है खिले बहु मनोहर सर सारा।
कमल समान नितान्त कान्त पति तूने पाया।
क्यों कुरूप अलि बना कमलिनी! तेरा प्यारा॥2॥

कर लंपटता तनिक नहीं लज्जित दिखलाता।
काला कुटिल अकान्त चपल है पाया जाता।
अरी कमलिनी! कौन कलंकी है अलि-जैसा।
फिर वह कैसे वास हृदय-तल में है पाता॥3॥

खिली कली जो मिली उसी पर है मँड़लाता।
थम जाता है वहीं, जहाँ पर रस पा जाता।
कैसे जी से तुझे कमलिनी! वह चाहेगा
जिस अलि का रह सका नहीं अलिनी से नाता॥4॥

वह अवलोक न सका, नहीं अनुभव कर पाया।
इसीलिए क्या पति ने तुझसे धोखा खाया।
अलि को कर रस-दान और आलिंगन दे-दे।
क्यों कलंक का टीका सिर पर गया लगाया॥5॥

क्यों मर्यादा-पूत लोचनों में खलती है।
क्यों रस-लोलुप भ्रमर रंगतों में ढलती है।
विकसित तुझे विलोक प्रफुल्लित जो होता है।
क्यों तू ऐसे कमल को कमलिनी! छलती है॥6॥

रज के द्वारा उसे नहीं अंधा कर पाती।
चम्पक-कुसुम समान धाता है नहीं बताती।
जो न कमलिनी वेध सकी काँटों से अलि को।
कैसे तो है वदन कमल-कुल को दिखलाती॥7॥

रस-लोलुप है एक अपर रखती रस-प्यारेला।
दोनों ही का रंग-ढंग है बड़ा निराला।
मधुकर से क्यों नहीं कमलिनी की पट पाती।
है यह मधु-आगार और वह मधु-मतवाला॥8॥
 

मनोवेदना
(12)
चौपदे
 

थे ऐसे दिवस मनोहर।
जब सुख-वसंत को पाकर।
वह बहुत विलसती रहती।
लीलाएँ ललित दिखाकर॥1॥
आमोद कलानिधि सर से।
था तृप्ति-सुधा बरसाता।
आकर विलास-मलयानिल।
उसको बहु कान्त बनाता॥2॥
पा सुकृति सितासित रातें।
वह थी अति दिव्य दिखाती।
रस-सिक्त ओस की बूँदें।
उसपर मोती बरसाती॥3॥
अब ऐसे बिगड़ गये दिन।
जब है वह सूखी जाती।
रस की थोड़ी बूँदें भी।
हैं सरस नहीं कर पातीं॥4॥
बहु चिन्ताओं के कीड़े।
हैं नोच-नोचकर खाते।
घिरकर विपत्तिक के बादल।
हैं दुख-ओले बरसाते॥5॥
ऑंधियाँ वेदनाओं की।
उठ-उठ हैं बहुत कँपाती।
यह आशा-लता हमारी।
अब नहीं फूल-फल पाती॥6॥
 

अन्तर्नाद
(13)
चौपदे
 

करुणा का घन जब उठकर।
है बरस हृदय में जाता।
तब कौन पाप-रत मन में।
है सुरसरि-सलिल बहाता॥1॥
जब दया-भाव से भर-भर।
है चित्त पिघलता जाता।
तब कौन मुझे दुख-मरु का।
है सुधा-स्रोत कर पाता॥2॥
जब मेरा हृदय पसीजे।
ऑंखों में ऑंसू आता।
तब कौन पिपासित जन की।
मुझको है याद दिलाता॥3॥
जब मे अन्तस्तल में।
बहती है हित की धारा।
तब कौन बना देता है।
मुझको वसुधा का प्यारा॥4॥
पर-दुख-कातरता मेरी।
जब है बहु द्रवित दिखाती।
तब क्यों विभूतियाँ सारी।
सुरपुर की हैं पा जाती॥5॥
ताँबा सोना बन जाये।
जब जी में है यह आता।
तब कौन परसकर कर से।
है पारस मुझे बनाता॥6॥
जब सहज सदाशयता की।
वीणा उर में है बजती।
तब क्यों सुरपुर-बालाएँ।
हैं दिव्य आरती सजती॥7॥
जब मानवता की लहरें।
मानस में हैं उठ पाती।
तब दिव्य ज्योतियाँ कैसे।
जगती में हैं जग जाती॥8॥
 

पतिप्राण
(14)
चौपदे
 

क्या समझ नहीं सकती हूँ।
प्रियतम! मैं मर्म तुम्हारा।
पर व्यथित हृदय में बहती।
क्यों रुके प्रेम की धारा॥1॥
अवलोक दिव्य मुख-मण्डल।
थे ज्योति युगल दृग पाते।
अब वे अमंजु रजनी के।
वारिज बनते हैं जाते॥2॥
जब मंद-मंद तुम हँसते।
या मधुमय बन मुसकाते।
तब मम ललकित नयनों में।
थे सरस सुधा बरसाते॥3॥
जब कलित कंठ के द्वारा।
गंभीर गीत सुन पाती।
तब अनुपम रस की बूँदें।
कानों में थीं पड़ जाती॥4॥
जब वचन मनोहर प्यारे।
कमनीय अधर पर आते।
तब मे मोहित मन को।
थे परम विमुग्ध बनाते॥5॥
जब अमल कमल दल ऑंखें।
थीं पुलकित विपुल दिखाती।
तब इस वसुधा-तल को ही।
थीं सुरपुर सदृश बनाती॥6॥
क्यों है अमनोरम बनता।
अब सुख-नन्दन-वन मेरा।
कैसे विनोद-सितकर को।
दुख-दल-बादल ने घेरा॥7॥
उर में करुणा-घन उमड़े।
तुम बरस दयारस-धारा।
कितने संतप्त जनों के।
बनते थे परम सहारा॥8॥
कुछ भाव तुम्हा मन के।
जब कोमलतम बन पाते।
तब बहु कंटकित पथों में।
थे कुसुम-समूह बिछाते॥9॥
ऑंखों में आया पानी।
था कितनी प्यासे बुझाता।
उसकी बूँदों से जीवन।
था परम पिपासित पाता॥10॥
उस काल नहीं किस जन के।
मन के मल को था धोता।
जिस काल तुम्हारा मानस।
पावन तरंगमय होता॥11॥
वह अहित क्यों बने जिसने।
सीखा है परहित करना।
क्यों द्रवित नहीं हो पाता।
अनुराग-सलिल का झरना॥12॥
उपकार नहीं क्यों करता।
अवनीतल का उपकारी।
बन रवि-वियोगिनी कबतक।
कलपे नलिनी बेचारी॥13॥
मैं जीती हूँ प्रति दिन कर।
सा प्रिय कर्म तुम्हा।
तुम भूल गये क्यों मुझको।
मे नयनों के ता॥14॥
है यही कामना मेरी।
सेवा हो सफल तुम्हारी।
ललकित ऑंखें अवलोकें।
वह मूर्ति लोक-हितकारी॥15॥
 

.पतिपरायणा
(15)
 

प्यारे मैं बहुत दुखी हूँ।
ऑंखें हैं आकुल रहती।
कैसे कह दूँ चिन्ताएँ।
कितनी ऑंचें हैं सहती॥1॥
मन बहलाने को प्राय:।
विधु को हूँ देखा करती।
पररूप-पिपासा मेरी।
है उसकी कान्ति न हरती॥2॥
शशि की कमनीय कलाएँ।
किसको हैं नहीं लुभाती।
किसके मानस में रस की।
लहरें हैं नहीं उठाती॥3॥
पर कान्त तुम्हारा आनन।
जब है आलोकित होता।
जिस काल कान्ति से अपनी।
मानस का तम है खोता॥4॥
उस काल मुग्ध कर मन को।
जो छवि उस पर छा जाती।
रजनी-रंजन में कब है।
वैसी रंजनता आती॥5॥
विधु है स-कलंक दिखाता।
मुख है अकलंक तुम्हारा।
फिर कैसे वह बन पाता।
मे प्राणों का प्यारा॥6॥
कितने कमलों को देखा।
नभ के ता अवलोके।
दिनमणि पर ऑंखें डालीं।
मैंने परमाकुल हो के॥7॥
पर नहीं किसी में मुख-सी।
महनीय कान्ति दिखलाई।
कमनीयतमों में भी तो।
मैंने कम कमी न पाई॥8॥
कैसे जुग फूटा मेरा।
प्रतिकूल पड़े क्यों पासे।
प्रियतम क्यों वदन विलोकें।
दृग रूप-सुधा के प्यासे॥9॥
 

रूप और गुण
(16)
 

अरविन्द-विनिन्दक मुखड़ा।
मन को है मधुप बनाता।
वह बन मयंक-सा मोहक।
है मोहन मंत्र जगाता॥1॥
लोकोपकार कर मुख पर।
जो ललित कान्ति है लसती।
उसमें भव-शान्ति-विधायक।
सुरपुर-विभूति है बसती॥2॥
अति सुन्दर सहज रसीले।
बहु लोच-भ जन-लोचन।
मधु हैं मानस में भरते।
कर कुसुमायुधा-मद-मोचन॥3॥
जो पर-दुख-कातरता-जल।
है जन-नयनों में आता।
वह व्यथा-भरित वसुधा को।
है सुधा-सिक्त कर पाता॥4॥
मद किसको नहीं पिलाता।
मादक ऑंखों का कोना।
है किसको नहीं नचाता।
तिरछी चितवन का टोना॥5॥
उससे भरती रहती है।
पावन रुचि की शुचि प्यारेली।
जिस दृग में है दिखलाती।
लोकानुराग की लाली॥6॥
जब आरंजित होठों पर।
है सरस हँसी छवि पाती।
तब नीरस मानस में भी।
है रस की सोत बहाती॥7॥
रहती है सुजन-अधर पर।
जो वर विनोद की धारा।
वह सिता-सदृश हरती है।
अपचिति रजनी-तम सारा॥8॥
है रूप विलास सदन धन।
बहुविध विनोद अवलम्बन।
जल-लोचन रुचिर रसायन।
संसार स्वर्ग नन्दन वन॥9॥
गुण है उदार संयत तम।
उत्सर्ग सलिल सुन्दर घन।
अन्तस्तल पूत उपायन।
सद्भाव सुमन चय उपवन॥10॥
है रूप मोहमय मोहक।
महि मादकता का प्यारेला।
लीनता ललाम-निकेतन।
कमनीय काम-तरु-थाला॥11॥
गुण है गौरव गरिमा-रत।
हित-निरत नीति का नागर।
मानवता उर अभिनन्दन।
सुख-निलय सुधा का सागर॥12॥
वह है भव-भाल कलाधर।
जो है कल कान्ति विधाता।
यह है शिव-शिर-सरि का जल।
जो है जग-जीवन-दाता॥13॥
पुलकित विलसित आलोकित।
है लोक-रूप से लालित।
गौरवित प्रभावित उपकृत।
भव है गुण से परिपालित॥14॥
ले रूप मुग्धता सम्बल।
करता है जन-अनुरंजन।
गुण है विवेक से बनता।
अज्ञान - अंधा - दृग - अंजन॥15॥
 

कान्त कल्पना
(17)
 

रंग गोरा हो या काला।
मुख बने, मन से मन भाये।
असुन्दर बनता है सुन्दर।
हृदय की सुन्दरता पाये॥1॥

असित अकलित लोहे जैसे।
वदन थे बने प्रकृति-कर से।
दमकते वे कुन्दन-से मिले।
मंजु-उर पारस के परसे॥2॥
जब रुचिरता अपनी रीझे।
रुचिर रुचि है उसमें भरती।
तब अमंजुलता आनन की।
लाभ मंजुलता है करती॥3॥
जब सदाशयता-सी उज्ज्वल।
विधु-विभा बनती है सजनी।
नयन-रंजन तब करती है।
कलित हो कुरूपता-रजनी॥4॥
जब अशोभनता तप-ऋतु पा।
रस-रहित बनता है आनन।
तब सरस उसको करता है।
बरस रस सदाचार-सा घन॥5॥
सजाता है उस मुख तरु को।
छिनी जिसकी छवि-हरियाली।
मंजुतम मानस-कुसुमाकर।
ले अमायिकता कुसुमाली॥6॥
उस कुमुख को कल करता है।
नहीं जिस पर सुषमा होती।
निकल करुणामय मानस से।
ऑंसुओं का मंजुल मोती॥7॥
कालिमा मुख की हरती है।
लालिमा लोहित चावों की।
कान्त कुवदन को करती है।
कान्ति कोमलतम भावों की॥8॥
 

निरीक्षण
(18)
 

दिव्यता पा जाती है कान्ति।
मिले विधुवदनी का मृदु हास।
बनाता है तन को कनकाभ।
कामिनी का कमनीय विलास॥1॥
गात-छवि-सरि का सरस प्रवाह।
रूप-सर का कर-विलसित आप।
मुख-कमल का है कान्तविकास।
कामिनीकुल का केलि-कलाप॥2॥
कामिनी-भौंहों को कर बंक।
तानता है कमनीय कमान।
बनाकर लोचन को बहु लोल।
मारता है कुसुमायुधा बान॥3॥
सुछवि-सरसी का है कलकंज।
किसी मोहक मुखड़े का भाव।
रूप-तरु का है सरस-वसंत।
अंगना का बहु रसमय हाव॥4॥
रसिकता में भर-भर-कर रीझ।
डालता है किस पर न प्रभाव।
मुग्धता को करता है मत्त।
भामिनी-मुखभंगी का भाव॥5॥
कला से हो जाता है मंजु।
लोक - रंजनता - रजनी - अंक।
बनाता है मुख-नभ को कान्त।
कामिनी-विभ्रम मंजु मयंक॥6॥
भाव में भर सुरलोक-विभूति।
बढ़ा मुख-मंजुलता का मोल।
दृगों में भरता है पीयूष।
किसी ललना का कान्त कलोल॥7॥
लोचनों में भर-भरकर लोच।
मुग्ध मन को मोती से तोल।
बहाती है रस सरस प्रवाह।
मृगदृगी लीलाओं से लोल॥8॥
 

मर्मवेधा
(19)
 

त्याग कैसे उससे होगा।
न जिसने रुचि-रस्सी तोड़ी।
खोजकर जोड़ी मनमानी।
गाँठ सुख से जिसने जोड़ी॥1॥
एकता-मंदिर में वह क्यों।
जलायेगी दीपक घी का।
कलंकित हुआ भाल जिसका।
लगा करके कलंक-टीका॥2॥
मोह-मदिरा पीकर जिसने।
लोक की मर्यादा टाली।
संगठन नाम न वह लेवे।
गठन की जो है मतवाली॥3॥
नहीं वसुधा का हित करती।
लालसा-लालित भावुकता।
लोक-हित ललक नहीं बनती।
किसी की इन्द्रिय-लोलुपता॥4॥
गले लग विजातीय जन के।
जाति-ममता है जो खोती।
कमर कस वह समाज-हित की।
राह में काँटे है बोती॥5॥
नाम ले विश्वबंधुता का।
विलासों को जिसने चाहा।
आप जल किसी अनल में वह।
सगों को करती है स्वाहा॥6॥
गीत समता के गा-गाकर।
विषमता जो है दिखलाती।
बहक यौवन-प्रमाद से वह।
जाति-कंटक है बन जाती॥7॥
बहाना कर सुधार का जो।
बीज मौजों के है बोती।
क्यों नहीं उसने यह समझा।
सुधा है सीधु नहीं होती॥8॥
किसी का हँसता मुखड़ा क्यों।
किस जी पर जादू डाले।
किसी का जीवन क्यों बिगड़े।
पड़े पापी मन के पाले॥9॥
लाज रख सकीं न यदि ऑंखें।
किसलिए उठ पाईं पलकें।
गँवा दें क्यों मुँह की लाली।
किसी कुल-ललना की ललकें॥10॥
 

मधुप
(20)
 

कर सका कामुक को न अकाम।
कमलिनी का कमनीय विकास।
कर सका नहीं वासना-हीन।
वासनामय को सुमन-सुवास॥1॥
विहँसता आता है ऋतुराज।
साथ में लिये प्रसून अनन्त।
हुआ अवनीतल में किस काल।
चटुल उपचित चाहों का अन्त॥2॥
फूल फल दल के प्यारेले मंजु।
दिखाते हैं रसमय सब ओर।
हुई कब तजकर लाभ अलोभ।
तृप्ति की ललक-भरी दृग-कोर॥3॥
कामनाओं की बढ़े विभूति।
चपलतर होता है चित-चाव।
प्रलोभन अवलम्बन अनुकूल।
ललाता है लालायित भाव॥4॥
मत्तता आकुलता का रूप।
लालसाओं का अललित ओक।
उदित होता है मानस मध्य।
मधुप की लोलुपता अवलोक॥5॥
 

समता-ममता
(21)
 

कालिमा मानस की छूटी।
हुआ परदा का मुँह काला।
टल गया घूँघट का बादल।
विधु-वदन ने जादू डाला॥1॥
पड़ा सब पचड़ों पर पाला।
बेबसी पर बिजली टूटी।
बेड़ियाँ कटीं बंधानों की।
गाँस की बँधी गाँठ छूटी॥2॥
बजी वीणा स्वतंत्रता की।
गुँधी हित-सुमनों की माला।
सुखों की बही सरस धारा।
छलकता है रस का प्यारेला॥3॥
रंगतें नई रंग लाईं।
हो गया सारा मन भाया।
धूप ने जैसा ही भूना।
मिल गयी वैसी ही छाया॥4॥
प्यारे से गले लगा करके।
चूमती है उसको क्षमता।
स्वर्ग-जैसा कर सुमनों को।
विहँसती है समता-ममता॥5॥
 

कौन
(22)
 

चाल चलते रहते हैं लोग।
चाह मैली धुलती ही नहीं।
खुटाई रग-रग में है भरी।
गाँठ दिल की खुलती ही नहीं॥1॥
न जाने क्या इसको हो गया।
फूल-जैसा खिलता ही नहीं।
खटकता रहता है दिन-रात।
दिल किसी से मिलता ही नहीं॥2॥
कम नहीं ठहराया यह गया।
पर ठहर पाया भूल न कहीं।
लाग किससे इसको हो गयी।
लगाये दिल लगता ही नहीं॥3॥
है सदा जहर उगलना काम।
कसर किसकी रहती है मौन।
गले मिलने की क्यों हो चाह।
खोलकर दिल मिलता है कौन॥4॥


स्वार्थी संसार
(23)


सुन लें बातें जिस-तिसकी।
कब किसने मानी किसकी॥1॥
है यही चाहती जगती।
वह हो जिसको माने मन।
औरों की इसके बदले।
नप जाय भले ही गरदन।
है उसे न परवा इसकी॥2॥
है चाह स्वार्थ में डूबी।
है उसे स्वार्थ ही प्यारा।
वह तो मतलब गाँठेगी।
कोई मिल गये सहारा।
अमृत हो चाहे ह्निसकी॥3॥
फूलों से कोमल दिल पर।
लगती सदमों की छड़ियाँ।
कब भला देख पाती हैं।
औरों के दुख की घड़ियाँ।
पथराई ऑंखें रिस की॥4॥
तब उतर गये लाखों सिर।
जब चलीं सितम-तलवारें।
बह गईं लहू की नदियाँ।
जब हुईं करारी वारें।
पर सुनी गयी कब सिसकी॥5॥
हैं मार डालती उनको।
हैं जिन्हें नेकियाँ कहते।
लेती हैं जानें उनकी।
जो नहीं साँसतें सहते।
ऐंठे हैं गाँठें बिस की॥6॥
कुल मेल जोल पर इसका।
है रंग चढ़ा दिखलाता।
मतलब को धीरे-धीरे।
सामने देखकर आता।
कब नहीं मुरौअत खिसकी॥7॥
कैसे वह यह सोचेगा।
है अपना या बे-गाना।
काँटा निकाल देना है।
ढूँढ़ेगा क्यों न बहाना।
चढ़ गईं भवें हैं जिसकी॥8॥


दिल के फफोले
(24)


क्यों टूट नहीं पाती हैं।
क्यों कड़ी पड़ गईं कड़ियाँ।
क्यों नहीं कट सकी बेड़ी।
क्यों खुलीं नहीं हथकड़ियाँ॥1॥
क्यों गड़-गड़ हैं दुख देती।
सुख-पाँवों में कंकड़ियाँ।
क्यों हैं बेतरह जलाती।
नभ-मंडल की फुलझड़ियाँ॥2॥
क्यों बिगड़ी ही रहती हैं।
मे घर की सब घड़ियाँ।
क्यों काट-काट हित-राहें।
ए बनती हैं लोमड़ियाँ॥3॥
क्यों बहुत तंग करती हैं।
मुझको कितनी खोपड़ियाँ।
क्या नहीं देख पाती है।
मेरी टूटी झोंपड़ियाँ॥4॥
हैं ओस-बिन्दु टपकाती।
क्या कमलों की पंखड़ियाँ।
ये हैं ऑंसू की बूँदें।
या हैं मोती की लड़ियाँ॥5॥
किसलिए छिला दिल मेरा।
क्यों लग जाती हैं छड़ियाँ।
क्यों बीत नहीं पाती हैं।
रोती रातों की घड़ियाँ॥6॥


मनो मोह
(25)


अब उर में किसलिए वह घटा नहीं उमड़ती आती।
सरस-सरस करके जो बहुधा मोती बरसा पाती।
वे मोती जिनसे बनती थी गिरा-कंठ की माला।
जिन्हें उक्ति मंजुल सीपी ने कांत अंक में पाला॥1॥

अब मानस में नहीं विलसते भाव-कंज वे फूले।
जिन पर रहते थे मिलिन्द-सम मधुलोलुप जन भूले।
बार-बार लीलाएँ दिखला नहीं विलस बल खाती।
अब भावुकता कल्पलता-सी कभी नहीं लहराती॥2॥

मन-नन्दन-वन अहह अब कहाँ वह प्रसून है पाता।
जिसका सौरभ सुरतरु सुमनों-सा था मुग्ध बनाता।
उदधिक-तरंगों-जैसी अब तो उठतीं नहीं तरंगें।
वैसी ही उल्लासमयी अब बनतीं नहीं उमंगें॥3॥

हो पुरहूत-चाप आरंजित जैसा रंजन करता।
जैसे उसमें रंग कान्त कर से है दिनकर भरता।
वैसी ही रंजिनी किसलिए नहीं कल्पना होती।
क्यों अनुरंजन-बीज अब नहीं कृति अवनी में बोती॥4॥

सरस विचार-वसंत क्यों नहीं बहु कमनीय बनाता।
हृदय-विपिन किसलिए नहीं अब वैसा वैभव पाता।
कैसे इस थोड़े जीवन में पडे सुखों के लाले।
रस-विहीन किसलिए बन गये मे रस के प्यारेले॥5॥


दुखिया के दुखड़े
(26)


बुलाये नींद नहीं आती।
रात-भर रहती हूँ जगती।
किसी से ऑंख लगाये क्यों।
लगाये ऑंख नहीं लगती॥1॥
रंग अपना बिगाड़कर क्यों।
रंग में उसके रँगती है।
लग नहीं जो लग पाता है।
लगन क्यों उससे लगती है॥2॥
निछावर क्यों होवें उसपर।
प्यारे करना उससे कैसा?
दूस के जी को जिसने।
नहीं समझा निज जी-जैसा॥3॥
किसलिए उसके लिए अबस।
कलपता दुख सहता है जी।
चुरा करके मे जी को।
जो चुराता रहता है जी॥4॥
राह पर कभी न जो आया।
निहारें क्यों उसकी राहें।
हमें जो नहीं चाहता है।
चाहतें क्यों उसको चाहें॥5॥
भला उससे कैसे बनती।
बहुत जो बात बनाता है।
बसे वह कभी न ऑंखों में।
सदा जो ऑंख बचाता है॥6॥
याद कर किसी मनचले को।
न ऑंखों से ऑंसू बरसें।
तरस जो कभी नहीं खाता।
न उसके तरसाये तरसें॥7॥
मतलबी दुनिया होती है।
कराहें क्यों भर-भर ऑंखें।
प्यारे से प्यारे नहीं होता।
न दिल को दिल से हैं राहें॥8॥


पते की बात
(27)


मसलते हुए कलेजे से।
मसलते नहीं कलेजे जब।
तब किसी के दिखलाने को।
निकाले गये कलेजे कब॥1॥
राह दिल से ही है दिल को।
प्यारे ही प्यारे कराता है।
लगन ही लगन लगाती है।
जोड़ता नाता नाता है॥2॥

ऊबते की आहें
(28)


जो जी की कली खिला दे।
हैं भाव न उठते वैसे।
जब हँसी नहीं आती है।
तब हँसें तो हँसें कैसे॥1॥
ऑंखों में जो बस पाती।
सूखे न कभी वह क्यारी।
जिसमें थे फूल फबीले।
क्यों उजड़े वह फुलवारी॥2॥
क्यों उनको हवा उड़ाये।
फूटे न कभी उनका दल।
थे सरस बनाते सबको।
रस बरस-बरस जो बादल॥3॥
थे जिसे देख रीझे ही।
रहते थे जिनके ता।
उन प्यारे-भरी ऑंखों को।
किसलिए चाँदनी मा॥4॥
क्यों रहा नहीं वह अपना।
जो ऑंखों में बस पाता।
किसलिए आग वह बोवे।
जो चाँद सुधा बरसाता॥5॥
वे बनें पराये क्यों जो।
सब दिन अपने कहलाये।
कैसे तो हवा न बिगड़े।
जो हवा हवा बतलाये॥6॥
जिसको मैंने सींचा था।
जो था मीठे फल लाया।
अब वही आम का पौधा।
कैसे बबूल बन पाया॥7॥
जिसमें पड़ता रहता था।
सब स्वर्ग-सुखों का डेरा।
कैसे है उजड़ा जाता।
अब वन नन्दन-वन मेरा॥8॥
किसलिए धारा सुध-बुध खो।
है रत्न हाथ के खोती।
क्यों नहीं समुद्र-तरंगें।
अब हैं बिखेरती मोती॥9॥
क्या डूब जाएगा सचमुच।
निज तेज गँवाकर सारा।
नीचे गिरता जाता है।
क्यों मेरा भाग्य-सितारा॥10॥


मोह
(29)


किसने कैसा जादू डाला।
लोचन-हीन बन गया कैसे युगल विलोचनवाला।
किस प्रकार लग गया वचन-रचना-पटु मुख पर ताला।
क्यों कल कथन कान करते कानों को हुआ कसाला।
कैसे हरित-भूत खेती पर पड़ा अचानक पाला।
छिन्न हुई क्यों सुमति-कंठ-गत सुरुचि-सुमन की माला॥1॥

बना क्यों मन इतना मतवाला।
टपक रहा है बार-बार क्यों छिले हृदय का छाला।
पीते रहे कभी पुलकित बन सरस सुधा का प्यारेला।
आज कंठ हैं सींच न पाते पड़ा सलिल का लाला।
क्यों ऍंधिकयाला बढ़ा, छिना क्यों छिति-तल का उँजियाला।
किसने पेय मधुरतर पय में गरल तरलतम डाला॥2॥


शार्दूल-विक्रीडित
(30)


होता कम्पित था सुश जिनसे जो विश्व-आतंक थे।
थे वृन्दारक-वृन्द-वंद्य भव में जो भूति-सर्वस्व थे।
वे हैं आज कहाँ कृतान्त-मुख ही में हैं समाये सभी।
संसारी समझे, कहे, फिर क्यों संसार निस्सार है॥1॥

ता हैं पद चूमते, तरणि में है तेज मेरा भरा।
मैं हूँ विश्व-विभूति भूतपति भी है भीति से काँपता।
क्या हैं ए दिवि देव दिव्य मुझसे? मैं दिव्यता-नाथ हूँ।
मैं हूँ अन्तक का कृतान्त, मैं ही श्रीकान्त-सा कान्त हूँ॥2॥

खोले भी खुलते नहीं नयन हैं, क्यों बन्द ऐसे हुए।
हा लोग जगा-जगा न, तब भी क्यों नींद है टूटती।
क्यों हैं आलस से भरे, न सुनते हैं दूसरों की कही।
खोके भी सुधिक देह गेह जन की हैं लोग क्यों सो रहे॥3॥

क्यों सोचूँ जब सोच हूँ न सकता, जाऊँ कहाँ, क्या करूँ।
काटे है कटता न बार बहुधा मैं हूँ महा ऊबता।
होती है गत रात तारक गिने, है नींद आती नहीं।
होते चेत, अचेत है चित हुआ, चिन्ता चिता है बनी॥4॥

धू-धू है जलती विपन्न करती है धूम की राशि से।
ऑंचें दे लपटें उठा हृदय में है आग बोती सदा।
देती है कर भस्म गात-सुख को, मज्जा लहू मांस को।
चेते, है जन-चेत में धधकती, है चित्त चिन्ता चिता॥5॥

पाती जो न प्रतीति प्राणपति में तो प्रीति होती नहीं।
जो होते रस-हीन तो सरसता क्यों साथ देती सदा।
जो होती उनमें नहीं सदयता होते द्रवीभूत क्यों।
जो होता उर ही न सिक्त, दृग में ऑंसू दिखाते नहीं॥6॥

लेती है वह लुभा लोभ-मन को, है मोह को मोहती।
जाती है बन कोप की सहचरी, है काम के काम की।
है पूरी करती अपूर्व कृति से वांछा अहंकार की।
कैसे तो न क प्रपंच जब है धीरे पंच-भूतात्मिका॥7॥

वे हैं भीत बलावलोक पर का, जो थे बडे ही बली।
देखे दर्पित सैन्य-व्यूह जिनका दिग्पाल थे काँपते।
वे हैं आज बचे हुए दशन के नीचे दबा दूब को।
जो तोड़ा करते दिगन्त दमके दिग्दन्ति के दंत को॥8॥

ऊँचे भाल विशाल दिव्य दृग में भ्रू-भंगिमा भूति में।
नासा-कुंचन में कपोल युग में लाली-भ होठ में।
नाना हास-विलास कंठ-रव में अन्यान्य शेषांग में।
बाला बालक चित्त की चपलता है चारुता अर्चिता॥9॥

बातें हैं उसको पसंद अपनी, क्यों दूस की सुने।
जो मैं हूँ कहता उसे न करके है भागती जी बचा।
है रूठा करती कभी झगड़ती है तान देती कभी।
थी मेरी मति तो नितान्त अचला यों चंचला क्यों हुई॥10॥

होता है पल में विकास, पल में है दृष्टि आती नहीं।
छू के है बहु जीव प्राण हरती, है नाचती नग्न हो।
कोई बात सुने सहस्र श्रवणों में है उसे डालती।
देखी है चपला समान चपला भू-दृष्टि ने क्या कहीं॥11॥

नेता हैं, पर नीति स्वार्थ-रत हैं, है कीत्तिक की कामना।
प्यारा है उनको स्वदेश, पर है बाना विदेशी बना।
वांछा है रँग जाय भारत-धारा योरोप के रंग में।
है सच्चा यदि देश-प्रेम यह तो है देश का द्रोह क्या॥12॥

है सत्कर्म-निकेत धर्म-रत है, है सत्यवक्ता सुधी।
है उच्चाशय कर्मवीर सुकृती सत्याग्रही संयमी।
है विद्या वर विज्ञता सदन, है धाता सदाचारिता।
तो होता दिवि देव जो मनुज में होती न मोहांधाता॥13॥
'मेरा' का महि में महान् पद है, 'मेरा' महामंत्र है।
देखे हैं सब राव-रंक किसका प्यारा 'हमारा' नहीं।
जादू है उनका सभी पर चला, हैं त्याग बातें सुनीं।
ऐसा मानव ही मिला न ममता-माया न मोहे जिसे॥14॥

व्यापी है विभु की विभूति भव में भू-भूति में भूत में।
तारों में, तृणपुंज में, तरणि में, राकेश में, णु में।
पाई व्यापक दिव्य दृष्टि जिसने धाता-कृपा-वृष्टि से।
पाता है वह पत्रा-पुष्प तक में सत्ता-महत्ता पता॥15॥

बातें क्यों करते कदापि मुँह भी तो खोल पाते नहीं।
कोई काम करें, परन्तु उनको है काम से काम क्या।
खायेंगे भर-पेट नींद-भर तो सोते रहेंगे न क्यों।
लेते हैं ऍंगड़ाइयाँ सुख मिले वे खाट हैं तोड़ते॥16॥

तो कैसे चल हाथ-पाँव सकते, चालें नहीं भूलते।
तो कैसे अंगड़ाइयाँ न अड़तीं, आती जम्हाई न क्यों।
तो वे टालमटोल क्यों न करते, हीले न क्यों ढूँढ़ते।
जो है आलस-चोर संग, श्रम से तो जी चुराते न क्यों॥17॥

थू-थू है करते विलोक रुचि को वे जो बड़े दान्त हैं।
छी-छी की ध्वनि है अजस्र पड़ती आ-आ उठे कान में।
देखे आनन को अभिज्ञ जनता है नेत्र को मूँदती।
रोती है मति, पाप-पंथ-रत को है ग्लानि होती नहीं॥18॥

पाते हैं तम में अड़ी दनुज की वक्रानना मूर्तियाँ।
होती हैं तरु के समीप निशि में नाना चुड़ैलें खड़ी।
बागों में विकटस्थलों विपिन में हैं भूत होते भरे।
है शंकामय सर्व सृष्टि बनती शंकालु शंका किये॥19॥

क्यों होवे तरु कम्पमान, लतिका म्लाना कभी क्यों बने।
क्यों वृन्दारक हो विपन्न, मलिना क्यों देवबाला लगे।
क्यों होवे अप्रफुल्ल कंज दलिता क्यों पुष्पमाला मिले।
आशंका मन को न हो, न मति को शंका क शंकिता॥20॥
है वैकुंठ-विलासिनी प्रियकरी, है कीत्तिक कान्ता समा।
हैं सारी जन-शक्तियाँ सहचरी, हैं भूतियाँ तद्गता।
है वांछा अनुगामिनी, सफलता है बुध्दिमत्तकश्रिता।
दासी है भव-ऋध्दि सत्य श्रम की, हैं सेविका सिध्दियाँ॥21॥

हैं साँसें यदि फूलती विकल हो, क्यों साँस लेने लगे।
क्यों हो आकुल हाथ-पाँव अपने ढीले क क्यों थके।
आयेगा जब कार्य, सिध्दि-पथ में पीछे हटेगा नहीं।
क्यों देखे श्रमबिन्दुपात, श्रम को क्यों त्याग देवे श्रमी॥22॥

लेते हैं यदि दून की, मत हँसो दूना कलेजा हुआ।
पृथ्वी थी वश में, परन्तु अब तो है हाथ में व्योम भी।
थे भूपाल तृणातितुच्छ अब हैं धाता विधाता स्वयं।
होंगे दो मद साथ तो न दुगुना होगा मदोन्माद क्यों॥23॥

भागेगा तम-तोम त्याग पद को, लेगी तमिस्रा बिदा।
होगी दूर कराल काल कर से दिग्व्यापिनी कालिमा।
आयेगी फिर मंद-मंद हँसती ऊषा-समा सुन्दरी।
होयेगा फिर सुप्रभात, वसुधा होगी प्रभा-मंडिता॥24॥

हो उत्पात, प्रवंचना प्रबल हो, होवें प्रपंची अड़े।
होवे आपद सामने, सफलता हो संकटों में पड़ी।
होता हो पविपात, तोप गरजें, गोले गिराती रहें।
क्यों तो धीर बने अधीर, उसकी धी क्यों तजे धीरता॥25॥

बाँधा था जिसने पयोधिक, जिसने अंभोधिक को था मथा।
पृथ्वी थी जिसने दुही, गगन में जो पक्षियों-सा उड़ी।
पाई थी जिसने अगम्य गिरि में रत्नावली-मालिका।
हा! धाता! वह आर्यजाति अब क्यों आपत्तिकयों में पड़ी॥26॥

है छाया वह जो सदैव तम में है रंग जाती दिखा।
होवे दिव्य अपूर्व, किन्तु वह तो है कल्पना मात्रा ही।
हों लालायित क्यों विलोक उसको जो हाथ आती नहीं।
है आपत्तिक यही किसे वह मिली जो स्वप्न-सम्पत्तिक है॥27॥
क्या सोचें, जब सोच हैं न सकते, है बात ही भेद की।
ऐसी है यह ग्रंथि-युक्ति, नख के खोले नहीं जो खुली।
है संसार विचित्र, चित्रा उसके वैचित्रय से हैं भ।
रोते हैं दुख को विलोक, सुख के या स्वप्न हैं देखते॥28॥

ऐसे हैं भव से अचेत, चित को है चेत होता नहीं।
होती है कम आयु नित्य, फिर भी तो हैं नहीं चौंकते।
देखा हैं करते विनाश, खुलती है ऑंख तो भी नहीं।
क्या जानें जग लोग हैं जग रहे या हैं पड़े सो रहे॥29॥

क्यों अज्ञान-महांधाकार टलता, क्यों बीत पाती तमा।
नाना पाप-प्रवृत्तिक-जात पशुता होती धारा-व्यापिनी।
द्रष्टा वैदिक मंत्र के, रचयिता भू के सदाचार के।
जो होते न जगे, न ज्योति जग में तो ज्ञान की जागती॥30॥

हैं उद्वेलित अब्धिक पैर सकती, हैं विश्व को जीतती।
लेती हैं गिरि को उठा, कुलिश को हैं पुष्प देती बना।
हैं लोकोत्तर कला-कीत्तिक-कलिता, हैं केशरी-वाहना।
हैं ता नभ से उतार सकती उत्साहिता शक्तियाँ॥31॥

रोकेगी तुझको स्वधर्म-दृढ़ता, धीरे पीट देगी तुझे।
तेरी सत्य प्रवृत्तिक पूत कर से होगी महा यातना।
होगा गर्व सदैव खर्व शुचिता की सात्तिवकी वृत्तिक से।
पावेगा फल महादर्प-तरु का ऐ पातकी पाप! तू॥32॥

होती है गतशक्ति प्राप्त प्रभुता आक्रान्त हो क्रान्ति से।
जाती है लुट दिव्य भूति, छिनता साम्राज्य है सर्वथा।
अत्याचार प्रकोप-वज्र बनता है वज्रियों के लिए।
होता है स्वयमेव खर्व पल में गर्वान्धा का गर्व भी॥33॥

तानें लें, पर ऐंठ-ऐंठ करके ताने न मारा करें।
गायें गीत, परंतु गीत अपने जी के न गाने लगें।
देते हैं यदि ताल तो मचल के देवें न ताली बजा।
वे हैं जो बनते, बनें, बिगड़ के बातें बनायें नहीं॥34॥
वे ही है हँसते न रीझ हँसना आता किसे है नहीं।
होता है कमनीय रंग उनका तो रंग हैं अन्य भी।
वे हैं कोमल, किन्तु कोमल वही माने गये हैं नहीं।
तो है भूल विलोक रूप अपना जो फूल हैं फूलते॥35॥

होता जो चित में न चोर, रहती तो ऑंख नीची नहीं।
होता जो मन में न मैल, दृग क्यों होते नहीं सामने।
जो टेढ़ापन चित्त में न बसता, सीधो न क्यों देखते।
जो आ के पति बीच में न पड़ती, ऑंसू न पीते कभी॥36॥

देता तो जल मैं निकाल दुखते होते नहीं हाथ जो।
तो धोता पग पूत क्यों न, लखते होते न जो दूर से।
कैसे आदर तो भला न करता है भाग्य ऐसा कहाँ।
मैं हूँ सेवक, किन्तु आज प्रभु की सेवा नहीं हो सकी॥37॥

क्यों हैं लोचन लाल रात-भर क्या मैं जागता था नहीं।
होते कम्पित क्यों न हस्त पग जो है आज जाड़ा बड़ा।
मैं हूँ हाँफ रहा, परंतु घर से हूँ दौड़ता आ रहा।
है इच्छा प्रतिशोधा की न मुझमें, मैं क्रोधा में हूँ नहीं॥38॥

काटे है कटती न रात, बकती हूँ, वेदना है बड़ी।
आशा से पथ-ओर हैं दृग लगे, क्यों देर है हो रही।
जाते हैं युग बने याम, व्यथिता हो हूँ व्यथा भोगती।
दौड़ो नाथ! बनो दयालु, दुखिता की दुर्दशा देख लो॥39॥

जी है ऊब रहा, उबार न हुआ, बाधा हुई बाधिकका।
मैं दौड़ी शत बार द्वार पर जा वांछा-विहीना बनी।
है मे मुँह से न बात कढ़ती, कैसे बताऊँ व्यथा।
ऑंखें भी पथरा गईं प्रिय पथी के पंथ को देखते॥40॥

थी जिनके बल से विशाल-विभवा संसार-सम्मानिता।
दिव्यांगा दिव-देव-भाव-भरिता लोकोत्तारा पूत-धी।
उत्कण्ठावश, हो विनम्र प्रभु से है प्रश्न मेरा यही।
पावेंगे फिर भारतीय जन क्या वे भारती भूतियाँ॥41॥
जो थोड़े उसके हितू मिल सके, वे नाम के हैं हितू।
या वे हैं अपवाद या कि उनमें है पालिसी पालिसी।
पाते हैं उसको नितान्त दलिता या दु:खिता पीड़िता।
कोई बन्धु बना न दीन जन का है दीनता दीनता॥42॥

खोया जो निज स्वर्गराज्य, दुख क्या, पाया मनोराज्य है।
कोई हो परतन्त्रा क्यों न, उनकी धी है स्वतन्त्राक बनी।
होवे संस्कृति धूल में मिल रही, वे संस्कृताधार हैं।
देखे भारत के सलज्ज सुत को निर्लज्ज लज्जा हुई॥43॥

जाती है बन सुधासिक्त वसुधा, है व्योम पाता प्रभा।
आती है अति दिव्यता प्रकृति में, है मोहती दिग्वधू।
होता है रस का प्रवाह छवि में संसार-सौन्दर्य में।
हो-हो मंजुल मन्द-मन्द उर में आनन्द-धारा बहे॥44॥

वे भू में नभ में अगम्य वन में निश्शंक हैं घूमते।
वे उत्ताकलतरंग वारिनिधिक में हैं पोत-सा पैरते।
वे हैं दुर्गम मार्ग में विहरते, हैं अग्नि में कूदते।
होते हैं अभिभूत वे न भय से, जो निर्भयों में पले॥45॥

जाते हैं बन भूत पेड़ तम में, है प्रेतगर्भा तमा।
होती है बहु भीति वक्र गति से या सर्प-फूत्कार से।
है हृत्कम्पकरी मसान अवनी है मृत्यु त्राकसात्मिका।
शंका है भय भाव भूति बनती है भीरुता भूतनी॥46॥

खोले भी खुलते नहीं नयन हैं, है चेत आता नहीं।
जो कोई हित-बात है न सुनती, है चौंकती भी नहीं।
सा यत्न हुए निरर्थ, जिसकी दुर्बोधा हैं व्याधिकयाँ।
ऐसी जाति अवश्य मृत्यु-मुख में हो मूर्छिता है पड़ी॥47॥

खोजेगी वह कौन मार्ग, उसको त्राता मिलेगा कहाँ।
रोयेगी सिर पीट-पीट उसका उध्दार होगा नहीं।
जीयेगी वह कौन यत्न करके पीके सुधा कौन-सी।
जीने दे न कृतान्त-मूर्ति बनके जो जाति ही जाति को॥48॥
ऑंखें हैं, पर देख हैं न सकती, पा कान बे-कान है।
होते आनन बात है न कढ़ती है साँस लेती नहीं।
क्यों पाते चल हाथ-पाँव जब वे निर्जीव हैं हो गये।
फूँका जीवन-मन्त्रा, किन्तु जड़ता जाती नहीं जाति की॥49॥

हो उत्तोजित भाव मध्य पथ का होता पथी ही नहीं।
जाती है बन उक्ति ओज-भरिता तेजस्विता-पूरिता।
होता स्पंदन है विशेष उर तो क्यों स्फीत होगा नहीं।
है उद्वेग हुआ सदैव करता आवेग के वेग से॥50॥

होती है व्यथिता कभी विचलिता अत्यन्त भीता कभी।
रोती है वह कभी याद करके लोकोत्तारा कीत्तिकयाँ।
पुत्रों को अवलोक है विहँसती या दग्धा होती कभी।
हो कर्तव्यविमूढ़ जाति अब तो उन्मादिनी है बनी॥51॥

होता है मन, देख जीभ चलती, जो हो, उसे खींच लूँ।
पीटूँ क्यों न उसे तुरन्त कहता है बात जो बेतुकी।
जाता है चिढ़ चित्त चाल चलते चालाक को देख के।
जो ऑंखें निकलें निकाल उनको लूँ क्यों न तत्काल मैं॥52॥

हैं संतप्त अनेक चित्त बहुश: काया महारुग्न है।
भू सा उपसर्ग व्योम तक में हैं भूरिता से भ।
पीड़ा से सुर भी बचे न भव में है द्रास भी मृत्यु भी।
सारी संसृति आधिक से मथित है, है व्याधिक-बाधावृता॥53॥

देती हैं तन को कँपा अति व्यथा, होती अनाहूत हैं।
हैं हा-हा ध्वनि का प्रसार करती, हो भूरि उत्ताकपिता।
देता है बहु कष्ट वेग उनका उत्पात-मात्राक बढ़ा।
अंधाधुंधा मचा सदैव बनती हैं व्याधिकयाँ ऑंधिकयाँ॥54॥

है काँपा करती कभी तड़पती है चोट खाती कभी।
प्राय: है वह वज्रपात सहती हो-हो महा दग्धिकता।
हो उद्वेजित अब्धिक से, बदन से है फेंकती फेन भी।
हा धाता! किस पाप से वसुमती है भूरि उत्पीड़िता॥55॥


 

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