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हरिऔध समग्र खंड-2

पारिजात
कविता
अयोध्या सिंह उपाध्याय
'हरिऔध'
 

चतुर्थ सर्ग

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दृश्य जगत्

हिमाचल

(1)

गीत

अवलोकनीय अनुपम।

कमनीयता- निकेतन।

है भूमि में हिमाचल।

विभु-कीत्तिक कान्त केतन॥1॥

है हिम-समूह-मंडित।

हिमकर-समान शोभन।

सुन्दर किरीट-धारी।

ललितांग लोक-मोहन॥2॥

उसकी विशालता है।

वसुधा-विनोद- सम्बल।

उसको विलोकता है।

बन मुग्ध देव-मंडल॥3॥

सुन्दर सुडौल ऊँचे।

उसके समस्त तरुवर।

नन्दन-विपिन-विटप से।

शोभा-सदन मनोहर॥4॥

कर लाभ फूल, फल, दल।

जब हैं बहुत विलसते।

तब कौन-से नयन में।

वे रस नहीं बरसते॥5॥

पा स्वर्ग-छवि न कैसे।

सुर-सुन्दरी कहायें।

किसको नहीं लुभातीं।

उसकी ललित लताएँ॥6॥

उसकी जड़ी व बूटी।

बन कल्प-बेलि के सम।

बहुरूप दिव्य दलमय।

कामद फलद मनोरम॥7॥

करती विविध क्रिया हैं।

दिखला विचित्रताएँ।

हैं रात में दमकती।

बन दीप की शिखाएँ॥8॥

बन वाष्प घूमते हैं।

घन वारि हैं बरसते।

अन्तिम मिहिर-किरण ले।

या हैं बहुत विलसते॥9॥

हैं द्वार पर दरी के।

परदे रुचिर लगाते।

अथवा वहीं बिखर कर।

हैं जालियाँ बनाते॥10॥

घुसकर किसी सदन में।

हैं बहु वसन भिंगोते।

या हो तरल अधिकतर

हैं भित्तिक-चित्रा धोते ॥11॥

धार कर स्वरूप कितने।

हैं बहु विहार करते।

मुक्ता-समूह उसमें।

हैं वारिवाह भरते॥12॥

हिम से हिला-मिला-सा।

है सानु पर दिखाता।

या सिक्त घाटियों को।

है घन-पटल बनाता॥13॥

है नीर पान करता।

धुरवा धुरीण बनकर।

या डाल-डाल झूला।

है झूलता शिखर पर॥14॥

बूँदें बड़ी गिराकर।

जल-वाद्य है बजाता।

कर नाद वसु-पदों को।

पर्जन्य है खिजाता॥15॥

जब गैरिकादि को है।

निज वारि में मिलाता।

तब मेघ मेरु को है।

बहुरंग पट पिन्हाता॥16॥

मृगनाभि से सुगंधिकत।

वह है सदैव रहता।

उसमें सरस समीरण।

है मन्द-मन्द बहता॥17॥

कर रव, सुधा श्रवण में।

जल-स्रोत डालते हैं।

झरने उछल-उछलकर।

मोती उछालते हैं॥18॥

कल अंक मध्य उसके।

छवि रत्न-राजि की है।

खा बनी रजत की।

सरिता विराजती है॥19॥

ऐसा त्रिकलोक-सुन्दर।

किस ऑंख में समाया।

महि ने न दूसरा गिरि।

हिमगिरि-समान पाया॥20॥

(2)

शार्दूल-विक्रीडित

चोटी है लसती मिले कलस-सी ज्योतिर्मयी मंजुता।

होती है उसमें कला-प्रचुरता स्वाभाविकी स्वच्छता।

नाना साधन, हेतु-भूत बन के हैं सिध्दि देते उसे।

है देवालय के समान गिरि के सर्वांग में दिव्यता॥1॥

शिक्षा का शुचि केन्द्र, शान्त मठ है संसार की शान्ति का।

पूजा का प्रिय पीठ, कान्त थल है विज्ञप्ति के पाठ का।

है ज्ञानार्जन-धाम ओक भव के विज्ञान-विस्तार का।

पाता है गिरि भू-विभूति-चय का, धाता विभा-कीत्तिक का॥।2॥

होता है अभिषेक वारिधार के पीयूष से वारि से।

नाना पादप हैं प्रसून-चय से प्रात: उसे पूजते।

सारी ही नदियाँ सभक्ति बन के होती द्रवीभूत हैं।

गाते हैं गुण सर्व उत्स गिरि का स्नेहाम्बु से सिक्त हो॥3॥

ऐसा है हरिताभ वस्त्रा किसका पुष्पावली से सजा।

नाना कान्ति-निकेत रत्न किसके सर्वांग में हैं लसे।

आभावान असंख्य हीरक जड़ा आलोक के पुंज-सा।

पाया है हिम का किरीट किसने हेमाद्रि-जैसा कहाँ॥4॥

पक्षी रंग-विरंग के विहरते या मंजु हैं बोलते।

क्रीड़ा हैं करते कुरंग कितने, गोवत्स हैं कूदते।

नाना वानर हैं विनोद करते, हैं गर्जते केशरी।

मातंगी-दल के समेत गिरि में मातंग हैं घूमते॥5॥

ऊषा-रागमयी दिशा विहँसती लोकोत्तारा लालिमा।

कान्ता चन्द्रकला कलिन्द्र किरणें रम्यांक राका निशा।

नाना तारक-मालिका छविमयी कादम्बिनी दामिनी।

देती हैं दिवि की विभूति गिरि को दिव्यांग देवांगना॥6॥

गा-गा गीत विहंग-वृन्द दिखला केकी कला नृत्य की।

नाना कीट, पतंग, भृंग करके क्रीड़ा मनोहारिणी।

देते हैं अभिराम-भूत गिरि की सौन्दर्य-मात्राक बढ़ा।

सीधो सुन्दर मंजु पुच्छ मृग के सर्वांग शोभा-भ॥7॥

है कैलाश कहाँ, किसे मिल सका काश्मीर-भू-स्वर्ग-सा।

पाया है कब स्वर्ण-मेरु किसने, देवापगा-सी सरी।

मुक्ता-हंस-निकेत मानस किसे है कान्त देता बना।

कैसे हो न हिमाद्रि उच्च सबसे, क्यों देवतात्मा न हो॥8॥

दे पुष्पादि 'उदार वृत्तिक' तरु की शाखा बताती मिली।

सा निर्झर हैं अजस्र कहते स्नेहार्द्रता मेरु की।

ऊँचे शृंग उठा स्वशीश करते हैं कीत्तिक की घोषणा।

गाती है गुण सर्वदा गिरि-गुहा शब्दायमाना बनी॥9॥

गाते हैं गंधार्व किन्नर कहीं, हैं नाचती अप्सरा।

वीणा है बजती, मृदंग-रव है होता कहीं प्रायश:।

दे-दे दिव्य विभूति व्योम-पथ में हैं देवते घूमते।

ऐसा है गिरि कौन स्वर्ग-सुषमा है प्राप्त होती जिसे॥10॥

(3)

गीत

जो था मनु वंश-विटप का।

वसुधातल में आदिम फल।

उसके लालन-पालन का।

पलना है अचल हिमाचल॥1॥

हो सका बहु सरस जिससे।

भव अनुभव भूतल सारा।

बह सकी प्रथम हिमगिरि में।

वह मानवता-रस-धारा॥2॥

जिसके मधु पर हैं मोहित।

महि विबुध-वृन्द मंजुल अलि।

विकसी हिमाद्रि में ही वह।

वैदिक संस्कृति-कुसुमावलि॥3॥

जिसकी कामदता देखे।

सुर-वृन्द सदैव लुभाया।

मिल सकी हिमालय में ही।

वह सुख-सुरतरु की छाया॥4॥

है कहाँ कान्त कनकाचल।

बहु दिव विभूति विलसित घन।

मुक्तामय मान-सरोवर।

नन्दन-वन जैसा उपवन॥5॥

कमनीय कंठ में पहने।

मंदार मंजुतम माला।

हैं कहाँ विहरती फिरती।

अलका-विलासिनी बाला॥6॥

जिनकी अद्भुत तानों से।

रस की धारा-सी फूटी।

हैं कहाँ सुधा बरसाती।

गा-गाकर विबुध-बधूटी॥7॥

कैलास कहाँ है जिसपर।

है वह विभूति तनवाला।

बन गयी मौलि की जिसके।

सुरसरी मालती-माला॥8॥

है पली अंक में किसके।

वह सिंह-वाहना बाला।

जिसने दानवी दलों को।

मशकों समान मल डाला॥9॥

है कहाँ शान्ति का मन्दिर।

भव - जन - विश्राम - निकेतन।

उड़ सका शिखर पर किसके।

वसुधा-विमुक्ति का केतन॥10॥

जी सकीं देख मुख जिसका।

शुचिता की ऑंखें प्यारेसी।

वे सिध्द कहाँ थे जिनकी।

थीं सकल सिध्दियाँ दासी॥11॥

भर विभु-विभुता-वैभव से।

है कहाँ कुसुम-कुल हँसता।

बहु काल ललित-तम वन के।

है कहाँ वसन्त विलसता॥12॥

वे वन-विभूतियाँ जिनमें।

हैं कलित कलाएँ खिलतीं।

वे दृश्य अलौकिक जिनमें।

है प्रकृति-दिव्यता मिलती॥13॥

किसने है ऐसी पाई।

है कौन मंजुतम इतना।

अब तक भव समझ न पाया।

उसमें रहस्य है कितना॥14॥

विधिक लोकोत्तर कर-लालित।

लौकिक ललामता-सम्बल।

सिर-मौर मेरुओं का है।

अचला मणि-मुकुट हिमाचल॥15॥

विपिन

(1)

शार्दूल-विक्रीडित

शोभाधाम ललाम मंजुरुत की नाना विहंगावली।

लीला-लोल लता-समूह बहुश: सत्पुष्प सुश्री बड़े।

पाये हैं किसने असंख्य विटपी स्वर्लोक-संभूत-से।

रम्योपान्त नितान्त कान्त महि में है कौन कान्तार-सा॥1॥

नाना मंजुल कुंज से विलसिता भृंगावली-भूषिता।

छायावान लता-वितान-वलिता पाथोज-पुंजावृत्ताक।

गुंजा-माल-अलंकृता तृणगता मुक्तावली-मंडिता।

है दूर्वादल-संकुला विपिन की श्यामायमाना मही॥2॥

वंशस्थ

तृणावली तारक-राजि व्योम है।

पतंग है दीधिकत पुष्पराशि का।

प्रशस्त कान्तार विशाल सिंधु है।

तरंग-माला तरु-पुंज-पंक्ति का।

शार्दूल-विक्रीडित

पेड़ों में वन की बड़ी विविधता उत्फुल्लता उच्चता।

पत्तों में फल में महा सरसता आमोदिनी मंजुता।

नाना पुष्प-समूह में विकचता सच्ची मनोहारिता।

पाते हैं कमनीयता मृदुलता कान्ता लता-पुंज में॥1॥

व्यापी मंजु हरीतिमा विटप की कादम्बिनी-सी लसी।

शाखा पल्लव-पूरिता विकसिता पुष्पावली-सज्जिता।

लेती है कर मुग्ध वारि-निधिक-सी हो ऊर्मिमालामयी।

नाना गुल्म-लतावती विपिन को नीलाम्बरा मेदिनी॥2॥

की है कानन मध्य सिध्दि जन ने प्यारी तप:साधना।

पूता है वन की महा गहनता स्वर्गीय सम्पत्तिक से।

व्यापी निर्जनता विराग-निरता एकान्त आधारिता।

होती है महनीय शान्ति-भरिता कान्तार-गंभीरता॥3॥

उल्लू का विकराल नाद बहुधा, शार्दूल की गर्जना।

देता है न किसे प्रकंपित बना चीत्कार मातंग का।

देखे हिंसक भीमकाय पशु की आतंककारी क्रिया।

सन्नाटा वन का विलोक किसको हृत्कंप होता नहीं॥4॥

नाना व्याल-विभीषिका विकटता भू कंटकाकीर्ण की।

हिंसा पाशव वृत्तिक हिंस्र पशु की चीत्कारमग्ना दिशा।

ज्वाला-भाल-निपीड़ता तरु-लता धामांधाकारावृता।

होती है भयपूरिता विपिन की कृत्या समा प्रक्रिया॥5॥

पा के दानव के समान वपुता एवं कदाकारता।

हो के चालित चंड वायु-गति से आतंक-मात्राक बढ़ा।

नाना काक उलूक आदि रव से हो प्रायश: पूरिता।

देती है वन को भयावह बना दुर्वीक्ष्य वृक्षावली॥6॥

वंशस्थ

बनी हुई मूर्ति विभीषिका।

वृकोदरा श्वापद-वृन्द-शासिता।

किसे नहीं है करती प्रकंपिता।

करालकाया वन की वसुंधरा।

शार्दूल-विक्रीडित

जो है हिंसकता-निकेत जिसमें है भीति-सत्ता भरी।

जो है भूरि विभीषिका-विचलिता उत्पात-आलोड़िता।

जो है कंटकिता नितान्त गहना आतंक-आपूरिता।

तो कैसे वन-मेदिनी, विकटता-आक्रान्त होगी नहीं॥1॥

गीत

(2)

है कौन विलसता सब दिन।

परिधन हरित-तम पहने।

हैं सबसे सुन्दर किसके।

कमनीय कुसुम के गहने॥1॥

हरिताभ मंजुतम अनुपम।

है किसका अंक निराला।

है पड़ी कंठ में किसके।

मरकत-मणि-मंजुल माला॥2॥

इतना अनुरंजित ऊषा।

कब किसको है कर पाती।

इतनी मुक्ता-मालाएँ।

रजनी है किसे पिन्हाती॥3॥

बहु प्रभावान प्रति वासर।

है किसे प्रभात बनाता।

किसको दिन-मणि निज कर से।

है स्वर्ण-मुकुट पहनाता॥4॥

हैं किसे ललिततम करती।

हिल-हिल अनंत लतिकाएँ।

किसमें विलसित रहती हैं।

खिल-खिल अगणित कलिकाएँ॥5॥

लेकर विहंगमों का दल।

है गीत मनोहर गाता।

निज कोटि-कोटि कंठों से।

है कलरव कौन सुनाता॥6॥

वारिधिक-समान संचालित।

किसको समीर है करता।

किसके सौरभ को ले-ले।

वह है दिगन्त में भरता॥7॥

कर लाभ सुमनता किसकी।

हैं सरस सुमन से भरते।

लेकर असंख्य तरु-फल-दल।

किसका पूजन हैं करते॥8॥

नित प्रकृति की छटा किसमें।

नर्त्तन करती मिलती है।

मधु की मधुता किसको पा।

छगुनी छवि से खिलती है॥9॥

नयनाभिराम बहु मोहक।

आमोदक परम मनोरम।

वसुधा में कौन दिखाया।

बन के समान मंजुलतम॥10॥

गीत

(3)

कहाँ हरित पट प्रकृति-गात का है बहु कान्त दिखाता।

कहाँ थिरकती हरियाली का घूँघट है खुल पाता।

कहाँ उठा शिर विटपावलि हैं नभ से बातें करती।

कहाँ माँग अपनी लतिकाएँ मोती से हैं भरती॥1॥

कोटि-कोटि कीचक हैं अपनी मुरली कहाँ बजाते।

कहाँ विविध गायक तरु गा-गा हैं बहु गीत सुनाते।

ले बहु सूखे फल समीर है कहाँ सुवाद्य बजाता।

मोरों का दल कहाँ मंजुतम नर्त्तन है कर पाता॥2॥

ऐसी कुंजें कहाँ जहाँ दृग कुंठित हैं हो जाते।

जिसकी छाया को सहस्र-कर कभी नहीं छू पाते।

कहाँ विलसती हरियाली में कुसुमावलि है वैसी।

नभ-नीलिमा तारकावलि में छवि मिलती है जैसी॥3॥

कहाँ उठे हैं विपुल महातरु श्यामल महि में ऐसे।

उठती हैं उत्ताकल तरंगें तोयधिक-तन में जैसे।

धानी साड़ी धारा-सुन्दरी को है कौन पिन्हाती।

कोसों तक तृणराजि कहाँ पर है राजती दिखाती॥4॥

विपुल कुसुम-कुल के गुच्छों से जो मंजुल हैं बनते।

कहाँ बेलियों के विभवों से हैं वितान बहु तनते।

कहाँ वनश्री की लेती हैं पुलकित बनी बलाएँ।

नीली लाल हरित दलवाली लाखों ललित लताएँ॥5॥

रंजित बनती हैं रजनी की जिनसे तामस घड़ियाँ।

दीपक-जैसी कहाँ जगमगाती मिलती हैं जड़ियाँ।

लता-वेलि-तरु-चय पत्तों में हैं प्रसून-से खिलते।

पावस में अनंत जुगनू हैं कहाँ चमकते मिलते॥6॥

श्याम रंग में रँगे झूमते बहु क्रीड़ाएँ करते।

कहाँ करोड़ों भौं हैं सब ओर भाँवरें भरते।

रंग-बिरंगी बड़ी छबीली कुसुम-मंजुरस-माती।

कहाँ असंख्य तितलियाँ फिरती हैं रंगतें दिखाती॥7॥

चित्रा-विचित्र परों से अपने विचित्रता फैलाते।

कभी मेदिनी, कभी डालियों पर बैठे दिखलाते।

हो कलोल-रत कलित कंठ से गीत मनोहर गाते।

झुंड बाँधाकर कहाँ करोड़ों खग हैं आते-जाते॥8॥

कभी अति चपल मृदुल-काय शावक-समूह से घिरते।

कभी चौंकते, कभी उछलते, कभी कूदते फिरते।

भोले-भाले भाव दृगों में भर कोमल तृण चरते।

कहाँ यूथ-से-यूथ मृग मिले भूरि छलाँगें भरते॥9॥

उठती हैं मानव-मानस में विविध विनोद-तरंगें।

तृप्ति-लाभ करती हैं कितनी उर में उठी उमंगें।

दृष्टि मिले का फल पाते हैं बहु विमुग्ध दृग हो के।

बनती है अनुभूति सहचरी विपिन-विभूति विलोके॥10॥

उद्यान

(1)

गीत

हरित तृणराजि-विराजित भूमि।

बनी रहती है बहु छबि-धाम।

विहँस जिसपर प्रति दिवस प्रभात।

बरस जाता है मुक्ता-दाम॥1॥

पहन कमनीय कुसुम का हार।

पवन से करती है कल केलि।

उड़े मंजुल दल-पुंज-दुकूल।

विलसती है अलबेली बेलि॥2॥

क्यारियों का पाकर प्रिय अंक।

आप ही अपनी छवि पर भूल।

लुटाकर सौरभ का संभार।

खिले हैं सुन्दर-सुन्दर फूल॥3॥

छँटी मेहँदी के छोटे पेड़।

लगे रविशों के दोनों ओर।

मिले घन-जैसा श्याम शरीर।

नचाते हैं जन-मानस मोर॥4॥

खोल मुँह हँसता उनको देख।

विलोके उनका तन सुकुमार।

प्यारे करता है हो बहु मुग्ध।

दिवाकर कर कमनीय पसार॥5॥

खड़े हैं पंक्ति बाँधा तरु-वृन्द।

ललित दल से बन बहु अभिराम।

लोचनों को लेते हैं मोल।

डालियों के फल-फूल ललाम॥6॥

प्रकृति-कर से बन कोमल-कान्त।

लताओं का अति ललित वितान।

बुलाता है सब काल समीप।

कलित कुंजों का छाया-दान॥7॥

लाल दलवाले लघुतम पेड़।

लालिमा से बन मंजु महान।

दृगों को कर देते हैं मत्त।

छलकते छवि-प्यारेले कर पान॥8॥

बहुत बल खाती कर कल नाद।

नालियाँ बहती हैं जिस काल।

रसिक मानव-मानस के मध्य।

सरस बन रस देती हैं ढाल॥9॥

कहीं मधु पीकर हो मदमत्त।

अलि-अवलि करती है गुंजार।

कहीं पर दिखलाती है नृत्य।

रँगीली तितली कर शृंगार॥10॥

पढ़ाता है प्रिय रुचि का पाठ।

कहीं पर पारावत हो प्रीत।

कहीं पर गाता है कलकंठ।

प्रकृति-छवि का उन्मादक गीत॥11॥

सुने पुलकित बनता है चित्त।

पपीहा की उन्मत्ता पुकार।

कहीं पर स्वर भरता है मोर।

छेड़कर उर-तंत्री के तार॥12॥

कहीं क्षिति बनती है छविमान।

लाभ कर विलसे थल-अरविन्द।

कहीं दिखलाते हैं दे मोद।

तरु-निचय पर बैठे शुक-वृन्द॥13॥

मंजु गति से आ मंद समीर।

क्यारियों में कुंजों में घूम।

छबीली लतिकाओं को छेड़।

कुसुम-कुल को लेता है चूम॥14॥

कगा किसको नहीं विमुग्ध।

सरसता-वलित ललिततम ओक।

न होगा विकसित मानस कौन।

लसित कुसुमित उद्यान विलोक॥15॥

(2)

शार्दूल-विक्रीडित

माली के उर की अपार ममता उन्मत्ताता भृंग की।

पेड़ों की छवि-पुंजता रुचिरता छायामयी कुंज की।

पुष्पों की कमनीयता विकचता उत्फुल्लता बेलि की।

देती है खग-वृन्द की मुखरता उद्यान को मंजुता॥1॥

कान्ता कंज-दृगी सरोज-वदना भृंगावली-कुंतला।

सुश्री कोकिल-कंठिनी भुज-लता-लालित्य-आंदोलिता।

पुष्पाभूषण-भूषिता सुरभिता आरक्त बिम्बाधारा।

दूर्वा श्यामल साटिका विलसिता है वाटिका सुन्दरी॥2॥

द्रुतविलम्बित

सहज सुन्दर भूति-निकेत क्यों।

बन सके नर-निर्मित वाटिका।

विपिन में दृग हैं अवलोकते।

प्रकृति की कृति की कमनीयता॥3॥

शार्दूल-विक्रीडित

कोई पा बहुरंग की विविधता आधार पुष्पावली।

कोई है ले लाल फूल लसिता शृंगारिता रंजिता।

क्या हैं सुन्दर नारियाँ विलसती पैन्हे रँगी साड़ियाँ।

या हैं कान्त प्रसून-पुंज-कलिता उद्यान की क्यारियाँ॥4॥

पा आभा दिन में दिनेश-कर से हो-हो सिता से सिता।

ले-ले कान्ति सुधांशु-कान्त-कर से हो दिव्य आभामयी।

पा के वारिद-वृन्द से सरसता वृन्दारकों से छटा।

होती है रस-सिंचिता विलसिता उल्लसिता वाटिका॥5॥

हो आभामय मंद-मंद हँस के फूली लता-व्याज से।

मुक्ता से लसिता तृणावलि मिले हो दिव्य नीलाम्बरा।

ऑंखों को अनुराग-सिक्त, मन को है मुग्ध देती बना।

पैन्हे मंजुल मालिका सुमन की उद्यान की मेदिनी॥6॥

सरिता

(1)

गीत

ताटक

किसे खोजने निकल पड़ी हो।

जाती हो तुम कहाँ चली।

ढली रंगतों में हो किसकी।

तुम्हें छल गया कौन छली॥1॥

क्यों दिन-रात अधीर बनी-सी।

पड़ी धारा पर रहती हो।

दु:सह आपत शीत-वात सब

दिनों किसलिए सहती हो॥2॥

कभी फैलने लगती हो क्यों।

कृश तन कभी दिखाती हो।

अंग-भंग कर-कर क्यों आपे

से बाहर हो जाती हो॥3॥

कौन भीतरी पीड़ाएँ।

लहरें बन ऊपर आती हैं।

क्यों टकराती ही फिरती हैं।

क्यों काँपती दिखाती हैं॥4॥

बहुत दूर जाना है तुमको।

पड़े राह में रोड़े हैं।

हैं सामने खाइयाँ गहरी।

नहीं बखेड़े थोड़े हैं॥5॥

पर तुमको अपनी ही धुन है।

नहीं किसी की सुनती हो।

काँटों में भी सदा फूल तुम।

अपने मन के चुनती हो॥6॥

ऊषा का अवलोक वदन।

किसलिए लाल हो जाती हो।

क्यों टुकड़े-टुकड़े दिनकर की।

किरणों को कर पाती हो॥7॥

क्यों प्रभात की प्रभा देखकर।

उर में उठती है ज्वाला।

क्यों समीर के लगे तुम्हा।

तन पर पड़ता है छाला॥8॥

क्यों यह दिखलाती रहती हो।

भव के सुख-वैभव सा।

दुखिया को दुख ही देते हैं।

उसे नहीं लगते प्यारे॥9॥

सदा तुम्हारी धारा में क्यों।

पड़ती भँवर दिखाती है।

क्या वह जी में पड़ी गाँठ का।

भेद हमें बतलाती है॥10॥

क्यों नीचे-ऊपर होती हो।

गिरती-पड़ती आती हो।

पानी-पानी होकर भी क्यों।

पानी नहीं बचाती हो॥11॥

जीवनमय होने पर भी क्यों।

जीवन-हीन दिखाती हो।

कल-विरहित होकर के कैसे।

कल-कल नाद सुनाती हो॥12॥

उस नीरव निशीथिनी में जब।

सकल धारातल सोता है।

पवनसहित जब सारा नभ-तल।

शब्दहीन-सा होता है॥13॥

तब भी क्रन्दन की ध्वनि क्यों।

कानों में पड़ती रहती है।

कौन व्यथा की कथा तरल-हृदये।

वह किससे कहती है॥14॥

होती हैं साँसतें पंथ में।

जल बन जाता है खारा।

सरिते, इतना अधिक तुम्हें क्यों।

अंक उदधिक का है प्यारा॥15॥

किन्तु देखता हूँ भव में है।

प्रेम-पंथ ऐसा न्यारा।

जिसमें पवि प्रसून होता है।

विधिक बनती है असिधारा॥16॥

(2)

पाकर किस प्रिय तनया को।

गिरिवर गौरवित कहाया।

किसने पवि-गठित हृदय में।

रस अनुपम स्रोत बहाया॥1॥

हर अकलित सब करतूतें।

कर दूर अपर अपभय को।

बन सकी कौन रस-धारा।

कर द्रवीभूत हिम-चय को॥2॥

प्रस्तर-खंडों पेड़ों में।

सब काल कौन अलबेली।

कमनीय छलाँगें भर-भर।

कर-कर अठखेली खेली॥3॥

करके अपार कोलाहल।

है बड़े वेग से बहता।

किसका प्रवाह पत्थर से।

है टक्कर लेता रहता॥4॥

सह बड़ी-बड़ी बाधाएँ।

चट्टानों से टकराती।

अन्तर को कौन द्रवित कर।

प्रान्तर में है आ जाती॥5॥

लहराती हरित धारा में।

कानन की छटा बढ़ाती।

बन कौन मंदगति महिला।

रस से है भरी दिखाती॥6॥

उछली-कूदी बहु छलकी।

लीं शिर पर बड़ी बलाएँ।

गिरि-कान्त-अंक में किसने।

कीं कितनी कलित कलाएँ॥7॥

मोती उछालती फिरती।

दरियों में कौन दिखाई।

किसने रख हरित तृणों को।

पत्थर पर दूब जमाई॥8॥

कल-कल छल-छल पल-पलकर।

है कौन मचलती रहती।

जल बने कौन ढल-ढल के।

बल खा-खाकर है बहती॥9॥

चंचला बालिकाओं-सी।

है थिरक-थिरक छवि पाती।

करि केलि किलक उठती हैं।

किसकी लहरें लहराती॥10॥

हैं हवा बाँधते अपनी।

कैसे जाते हैं खिल-से।

किसके जल में दिखलाये।

बुल्ले प्रसून-से विलसे॥11॥

किसके बल से रहती है।

हरियाली-मुँह की लाली।

किसके जल ने अवनी की।

श्यामलता है प्रतिपाली॥12॥

रस किसमें मिला छलकता।

है कौन सदा रस-भरिता।

किसमें है रस की धारा।

सरिता-समान है सरिता॥13॥

(3)

दृग कौन विमुग्ध न होगा।

अवलोकनीय छवि-द्वारा।

है सदा लुभाती रहती।

सरिता की सुन्दर धारा॥1॥

ऊषा की जब आती है।

रंजित करने की बारी।

किसके तन पर लसती है।

तब लाल रंग की सारी॥2॥

है मिला किसे रवि-कर से।

सुरपुर का ओप निराला।

किरणें किसको देती हैं।

मंजुल रत्नों की माला॥3॥

संगी प्रभात के किसको।

हैं प्रभा-रंग में रँगते।

किसकी रंजित सारी में।

हैं तार सुनहले लगते॥4॥

भरकर प्रकाश किसको है।

दर्पण-सा दिव्य बनाता।

दिन किसकी लहर-लहर में।

दिनमणि को है दमकाता॥5॥

चाँदनी चाहकर किसको।

है रजत-मयी कर पाती।

किसपर मयंक की ममता।

है मंजु सुधा बरसाती॥6॥

जगमग-जगमग करती है।

किसमें ज्योतिर्मय काया।

है किसे बनाती छविमय।

तारक-समेत नभ-छाया॥7॥

जब जलद-विलम्बित नभ में।

पुरहूत-चाप छवि पाता।

तब रंग-बिरंगे कपड़े।

पावस है किसे पिन्हाता॥8॥

पावस में श्यामल बादल।

जब नभ में हैं घिर आते।

तब रुचिर अंक में किसके।

घन रुचितन हैं मिल जाते॥9॥

हैं किसे कान्त कर देते।

बन-बन अन्तस्तल-मंडन।

रवि अंतिम कर से शोभित।

सित पीत लाल श्यामल घन॥10॥

जब मंजुलतम किरणों से।

घन विलसित है बन जाता।

तब किसे वसन बहु सुन्दर।

है सांध्य गगन पहनाता॥11॥

जब रीझ-रीझ सितता की।

है सिता बलाएँ लेती।

तब किसे रंजिनी आभा।

राका रजनी है देती॥12॥

(4)

शार्दूल-विक्रीडित

पाता है रस जीव-मात्रा किससे सर्वत्र सद्भाव से।

धारा है रस की अबाधा किसके सर्वांग में व्यापिता।

हो-हो के सब काल सिक्त किससे होती रसा है रसा।

पृथ्वी में सरि-सी रसाल-हृदया है कौन-सी सुन्दरी॥1॥

पाता है कमनीय अंक उसका राकेन्दु-सी मंजुता।

देती है अति दिव्य कान्ति उसको दीपावली व्योम की।

हो कैसे न विभूतिमान सरिता, हो क्यों न आलोकिता।

होती हैं रवि-बिम्ब-कान्त उसकी क्रीड़ामयी वीचियाँ॥2॥

आभापूत प्रभूत मंजु रस से हो सर्वदा सिंचिता।

नाना कूल-द्रुमावली कुसुम से हो शोभिता सज्जिता।

लीला-आकलिता नितान्त कलिता उल्लासिता रंजिता।

भू में कौन सरी समान लसिता है दूसरी सुन्दरी॥3॥

कैसे तो कितनी अनुर्वर धारा होती महा उर्वरा।

पाती क्यों फल-फूल ऊसर मही हो शस्य से श्यामला।

क्यों हो प्रान्तर कान्त लाभ करते उद्यान-सी मंजुता।

होती जो सरला सरी न सिकता सिक्ता कहाती न तो॥4॥

है कान्ता रवि कान्त भूत कर से है ऊर्मि अंगच्छटा।

हैं शैवाल मनोज्ञ केश उसके जो पुष्प से हैं लसे।

पा के मंजु मयंक-बिम्ब बनती है चारु-चन्द्रानना।

तो हैं क्यों बहु-लोचना न सफरी से है भरी जो सरी॥5॥

वंशस्थ

उठा-उठा के लहरें विनोद की।

किसे नहीं है करती विनोदिता।

उमंगिता मंजुलता-विमोहिता।

तरंग-माला-लसिता तरंगिणी॥6॥

कभी नचा के रवि को मयंक को।

कभी खेला के उनको स्व-अंक में।

न मोह ले क्यों निज रंगतें दिखा।

तरंगिणी क्या बहुरंगिणी नहीं॥7॥

बना-बना स्पंदित मन्दिरादि की।

द्रुमावली की प्रतिबिम्ब-पंक्ति को।

समीर से खेल नचा मयंक को।

तरंगिणी है बनती तरंगिणी॥8॥

(5)

सरोवर

गीत

ऑंसू बहा-बहा यों छविमान कौन छीजा।

किसका करुण हृदय है इतना अधिक पसीजा।

हैं बार-बार करती किसको व्यथित व्यथाएँ।

बनती सलिलमयी हैं किसकी कसक-कथाएँ॥1॥

पावस मिले उमड़कर तन में न जो समाया।

क्यों क्षीण हो चली यों उसकी पुनीत काया।

प्रिय बंधु का विरह क्या अब है उसे सताता।

क्या प्रेम वारिधार का वह है न भूल पाता॥2॥

जो कर प्रभात-रवि का कमनीयता-निकेतन।

उसपर वितान देता दिव दिव्य कान्ति का तन।

जो मंजु वीचियों को मणि-माल था पिन्हाता।

सर ज्योति-जाल जिसका अवलोक जगमगाता॥3॥

पावक उपेत बन जब तप में वही तपाता।

तब था पयोद बनता उसका प्रमोद-दाता।

वह घेर रवि-करों का था पंथ रोक लेता।

बनकर फुहार उसको था बहु विनोद देता॥4॥

मंजुल मृदंग की-सी मृदु मंद ध्वनि सुनाता।

वह दामिनी-दमक-मिस हँस-हँस उसे रिझाता।

आतप हुए प्रखर जब उत्ताकप था बढ़ाता।

छाया-प्रदान कर तब उसको सुखित बनाता॥5॥

जब अंशु-जाल फैला तनता दिनेश ताना।

तब सांध्य व्योम-तल में धारकर स्वरूप नाना।

वह था तरंग-संकुल जलराशि को लसाता।

उसको सुलैस विलसित बहु वस्त्रा था पिन्हाता॥6॥

प्रतिदिन विलोक तन को जीवन-विहीन होते।

आश्रित उदक चरों को सुखमय विभूति खोते।

जिस काल सर बहुत ही कृशगात था दिखाता।

संजीवनी सुधा तब धन था उसे पिलाता॥7॥

जिसके समान जीवन-दाता न अन्य पाया।

हो-हो दयालु द्रवता जो सब दिनों दिखाया।

हो याद क्यों न उसकी जो रस-भरित कहाया।

जिसने बरस-बरस रस सर को सरस बनाया॥8॥

(6)

गीत

लोचनों को ललचाते हो।

बहुत हृदयों में बसते हो।

चुरा लेते हो जन-मानस।

खिले कमलों से लसते हो॥1॥

कमल-मिस खोल विपुल ऑंखें।

भव-विभव को विलोकते हो।

या कलित कोमल कर फैला।

ललित-तम भूति लोकते हो॥2॥

छटा-कामिनी कान्त-शिर के।

छलकते रस के कलसे हैं।

या कमल-पग कमलापति के।

सरस-तम उर में बिलसे हैं॥3॥

तुम्हा तरल अंक में लस।

केलिरत हो छवि पाती हैं।

लोकहित से लालायित हो।

ललित लहरें लहराती हैं॥4॥

क्यों न कर अंगा उगलें।

क्यों न जाये रवि आग बरस।

एकरस रह रस रखते हो।

कभी तुम बने नहीं असरस॥5॥

सुगंधिकत हो-हो धीरे चल।

समीरण तुम्हें परसता है।

चाँदनी रातों में तुम पर।

सुधाकर सुधा बरसता है॥6॥

तुम्हें क्या परवा, घन जल दे।

या गरज ओले बरसाये।

धूल डाले आकर ऑंधीरे

या पवन पंखा झल जाये॥7॥

बोलते नहीं किसी से तुम।

लोग खीजें या यश गावें।

ललक लड़के छिछली खेलें।

या तमक ढेले बरसावें॥8॥

बिके हो सबके हाथों तुम।

मोल कब किससे लेते हो।

प्यासे हरते हो प्यारेसों की।

सदा रस सबको देते हो॥9॥

बुरा तुमने किससे माना।

बला ले या कि बला ला दे।

तपाये चाहे आतप आ।

चाँदनी चाहे चमका दे॥10॥

बहुत ही प्यारे लगते हो।

दिखाते हो सुन्दर कितने।

बता दो हमें सरोवर यह।

किसलिए हो रसमय इतने॥11॥

(7)

वंशस्थ

न चित्त होगा सुप्रफुल्ल कौन-सा।

न प्राप्त होगी किसको मिलिन्दता।

वसुंधरा के सरसी-समूह में।

विलोक शोभा अरविन्द-वृन्द की॥1॥

लगे हुए दर्पण हैं जहाँ-तहाँ।

विलोकने को दिव-लोक-दिव्यता।

जमा हुआ सद्बिचत नेत्र-वारि या।

वसुंधरा में सर हैं विराजते॥2॥

द्रुतविलम्बित

भरत-भूमि-समान न भूमि है।

अचल हैं न हिमाचल-से बड़े।

सुरसरी-सम हैं न कहीं सरी।

सर न मान-सरोवर-सा मिला॥3॥

शार्दूल-विक्रीडित

मोती पा न सके मराल उसमें हैं कंज वैसे कहाँ।

है वैसी कमनीयता सरसता औ दिव्यता भी नहीं।

वैसा निर्मल काँच-तुल्य जल भी है प्राप्त होता नहीं।

कैसे तो सर अन्य, मानसर-सा, पाता महत्ता कभी॥4॥

है तेरा उर सिक्त, तू तरल है, क्यों मान लूँ मैं इसे।

तू है धीरेर, गँभीर है, सरस है, ऐसा तुझे क्यों कहूँ।

रोते या करते विलाप उनकी है यामिनी बीतती।

कोकी-कोक-मिलाप रोक सर तू क्यों शोक-धाता बना॥5॥

दूर्वा-श्यामल भूमि-मध्य सरसी है आरसी-सी लसी।

पाते हैं उसके सुसिक्त तन में एकान्तता वारि की।

शोभा है जलराशि में विलसते उत्फुल्ल अंभोज की।

होती है प्रिय सपरिचय में पर्तरिंसना की प्रभा॥6॥

वंशस्थ

मराल-माला यदि है सदाशया।

कुकर्म में तो रत है वकावली।

सपूत भी है कुल में कपूत भी।

सरोज भी है सर में सेवार भी॥7॥

शार्दूल-विक्रीडित

है प्राय: पर खोल-खोल उड़ती या तोय में तैरती।

या बैठी सर-कान्त-कूल पर है शृंगारती गात को।

है पीती जल या कलोल करती है लोल हो डोलती।

बोली बोल अमोल केलि-रत हो नाना विहंगावली॥8॥

वंशस्थ

विनोदिता है सरसी विभूति से।

अतीव उत्फुल्ल सरोज-पुंज है।

विकासिका है सरसी सरोज की।

सरोज से है सरसी सुशोभिता॥9॥

द्रुतविलम्बित

छलक हैं भरती छवि वारि में।

सर मनोहरता अलबेलियाँ।

उछलती छिछिली खुल खेलती।

मछलियाँ करती अठखेलियाँ॥10॥

जलद है, पर वारिद है नहीं।

सरस हो बनता रस-हीन है।

सर-प्रसंग विचित्र प्रसंग है।

रह सजीवन जीवन-शून्य है॥11॥

शार्दूल-विक्रीडित

पैन्हे वस्त्रा ह खड़े विटप हैं दृश्यावली देखते।

धीरे है घन का मृदंग बजता, है ताल देती दिशा।

यंत्रों -सा सर को निनादित बना हैं बूँदियाँ छूटती।

गाते भृंग विहंग है, कर उठा हैं नाचती वीचियाँ12॥

कान्ता-केश-कलाप-से विलसते शैवाल की मंजुता।

मीनों का बहु लोल भाव सर की लीलामयी व्यंजना।

होगा कौन नहीं विमुग्ध किसमें होगी न उत्फुल्लता।

देखे रंग-बिरंग कंज-कलिता न्यारी तरंगावली॥13॥

है आती तितली दिखाती छटा, गाती विहंगावली।

है माती फिरती मिलिंद-अवली पा कंज से मत्तता।

आ के है बहुधा हवा सुरभिता अंभोज से खेलती।

हैं न्हाती मिलती समोद सर में दिव्यांगनाएँ कहीं॥14॥

द्रुतविलम्बित

विकसिता लसिता अनुरंजिता।

रसमयी कब थी न सरोजिनी।

मधुरता रसिका कब थी नहीं।

मधु-रता, मधु की मधुपावली॥15॥

(8)

प्रपात

गीत

(1)

निम्न गति खलती रहती है।

या पतन बहु कलपाता है।

या किसी प्रियतम का चिंतन।

दृग-सलिल बन दिखलाता है॥1॥

बहु विपुल वाष्प गिरि-हृदय में।

सर्वदा भरता रहता है।

वही क्या तरल तोय हो-हो।

उत्स बन-बन कर बहता है॥२॥ गिरि-शिखर पर बहुधा वारिद।

विहरता पाया जाता है।

स्वेद क्या उसके अंगों का।

सिमिट प्रस्रवण कहाता है॥3॥

पर कटे कटे किन्तु अब भी।

पड़ा करता है पवि शिर पर।

इसी से सदा उत्स मिस क्या।

गिराता है ऑंसू गिरिवर॥4॥

उत्स है उत्स या तपन के।

तापमय कर अवलोकन कर।

कलेजा गिरि का द्रवता है।

पसीजा करता है पत्थर॥5॥

रुदन-रत किसी व्यथित चित्त का।

निज व्यथा जो यों हरता है।

गि हैं झर-झर ऑंसू या।

नीर निर्झर का झरता है॥6॥

दलित दूबों का मुक्ता-फल।

छीनते हैं सहस्रकर-कर।

देख यह दशा मेरु रो-रो।

क्या बनाते हैं बहु निर्झर॥7॥

परम शीतल शिर-मंडन हिम।

ताप से तप जाता है गल।

प्रकट करता है क्या यह दुख।

उत्स मिस मेरु बहा दृग-जल॥8॥

नित्य होती पशु-हिंसा से।

क्या मथित हृदय कलपता है।

देख बहु करुणा दृश्य क्या गिरि।

उत्स के व्याज बिलपता है॥9॥

कौन-सी पीड़ा होती है।

किन दुखों से वे भरते हैं।

सदा झरनों के नयनों से।

किसलिए ऑंसू झरते हैं॥10॥

(9)

(2)

किस वियोगिनी के ऑंसू हो।

किस दुखिया के हो दृग-जल।

किस वेदनामयी बाला की।

मर्म-वेदना के हो फल॥1॥

निकले हो किस व्यथित हृदय से।

हो किस द्रव मानस के रस।

क्या वियोग की घटा गयी है।

आकुलतामय वारि बरस॥2॥

किस धुन में यों निकल पड़े हो।

जाते हो तुम कहाँ चले।

गिरिवर है पवि-हृदय, किस तरह।

उसमें तुम, हो सरस, पले॥3॥

क्यों पछाड़ खाते रहते हो।

क्यों सिर पटका करते हो।

क्या इस भाँति किसी बहुदग्धाक।

व्यथिता का दम भरते हो॥4॥

या यह दिखलाते रहते हो।

पड़े प्रबल दुख से पाला।

बार-बार व्याकुल हो-हो क्या।

करती है व्यथिता बाला॥5॥

उठे हुए उद्गार-वाष्प जो।

अन्तस्तल में भरते हैं।

धू म-पुंज-सम हृदय-गगन में।

वे जिस भाँति विचरते है॥6॥

उड़ा-उड़ा छींटे बल खा-खा।

क्या वह दृश्य दिखाते हो।

मचल-मचल गिर-गिर उठ-उठ।

क्या उनकी गति बतलाते हो॥7॥

कल-विहीन हो कल-कल करते।

किन ढंगों में ढलते हो।

दृग-जल के समान छल-छलकर।

उछल-उछल क्यों चलते हो॥8॥

क्या वियोग के कितने भावों।

का यों अनुभव करते हो।

अथवा संगति के प्रभाव से।

भावुकता से भरते हो॥9॥

बहुत मचाते हो कोलाहल।

पर यह नहीं बताते हो।

किस वियोगिनी या व्यथिता।

बंधन में बँधो दिखाते हो॥10॥

ऐसी विश्व-व्यापिनी किसकी।

पीड़ा और व्यथाएँ हैं।

अकथनीय किस दृग ऑंसू की।

दुख से भरी कथाएँ हैं॥11॥

है वह कौन कामिनी जिसका।

गया सकल सुख यों कीला।

अथवा प्रकृति-वधाटी की है।

यह रहस्य-पूरित लीला॥12॥

(10)

(3)

शार्दूल-विक्रीडित

जो जाता पटका नहीं न पिटता, भाती न जो नीचता।

जो ऊँचे चढ़के न उत्स गिरता तो चोट खाता नहीं।

तो होगा उसका नहीं पतन क्यों जो निम्नगामी बना।

तो चाँटे लगते नहीं मरुत के, छींटे उड़ाता न जो॥1॥

क्यों धोते मल अंक का न मिलते सोते सहस्रों उन्हें।

क्यों बोते रस-बीज केलि-थल में, पाते निकुंजें कहाँ।

कैसे पादप-पुंज से विलसते हो के फलीभूत वे।

तो खोते गिरि-गात की सरसता, जो उत्स होते नहीं॥2॥

कैसे तो मिलते विचित्र विटपी लोकाभिरामा लता।

कैसे तो कुसुमालि लाभ करती हो शस्य से श्यामला।

क्यों पाती बहुरंजिता विलसिता आलोकिता बूटियाँ।

पाके उत्स-समूह जो न रहती उत्साहिता अद्रिभू॥3॥

आता है सुरलोक से सलिल या धारा सुधा की बही।

होता है रव वारि के पतन का या केलि-कल्लोल है।

है उद्वेलित उत्स या प्रकृति का आनन्द-उल्लास है।

छींटे हैं उड़ते कि हैं बिखरते मोती उछाले हुए॥4॥

हो-हो वारि वियोग से व्यथित क्या है सिक्त स्नेहाम्बु से।

या प्यारेसा अवलोक प्राणिचय को होता द्रवीभूत है।

या है भूरि पसीजता विकलता देखे दयापात्रा की।

रोता है जड़ता विलोक गिरि की या उत्स ऑंसू बहा॥5॥

होता है जल-पात-नाद अथवा है शब्द उन्माद का।

या हो आकुल है सदैव कहती कोई कथा दिग्वधू

या दैवी सरिता-प्रवाह-रव है आकाश से आ रहा।

या गाता गुण उत्स है प्रकृति का स्नेहाम्बु से सिक्त हो॥6॥

चिल्लाते रहते, नहीं सँभलते, बातें नहीं मानते।

हो सीधो चलते नहीं, बिचलते पाये गये प्रायश:।

क्या कोई तुमसे कहे, बहकना है उत्स होता बुरा।

पानी क्या रखते सदैव तुम तो पानी गँवाते मिले॥7॥

प्यासे की धन-प्यासे है न बुझती कोई पिसे तो पिसे।

लोभी-लोक विभूति-लाभ कर भी लोभी बना ही रहा।

बेचारा हिम बार-बार गल के पानी-प्रदाता रहा।

दे-दे वारि विलीन वारिद हुए, क्या उत्स तो भी भरा॥8॥

नाना कीट-पतंग पी जल जिये, पक्षी करोड़ों पले।

हो-हो सिक्त हुई प्रसन्न जनता तो क्या उसे दे सकी।

होती है उपकार-वृत्तिक सहजा लोभोपनीता नहीं।

लाखों पेड़ सिंचे, परन्तु किससे क्या उत्स पाता रहा॥9॥

सिक्ता शीतलतामयी तरलता आधारिता शब्दिता।

नाना केलि-निकेतना सरसता-सम्पत्तिक-उल्लासिता।

शोभा-आकलिता अतीव ललिता लीलांक में लालिता।

उत्कंठा वर व्यंजना विलसिता है उत्स की उत्सता॥10॥

है सींचा करता, असंख्य तरुओं नाना तृणों को सदा।

देता है जल बार-बार बहुश: भृंगों मृगों आदि को।

सोतों का सरितादि का जनक है भू-जीवनाधार है।

तो हो वर्ध्दित क्यों न उत्स वह तो उत्साह की मूर्ति है॥11॥

ऊषा क्यों न उसे प्रदान करती आभा मनोरंजिनी।

क्यों देता न दिनेश दिव्य कर से संदीपिनी दिव्यता।

कैसे तो उससे गले न मिलती राका-निशा-सुन्दरी।

होता है गतिशील उत्स फिर क्यों उत्कर्ष पाता नहीं॥12॥

क्यों लेते गिरि गोद में न उसको देते नहीं मान क्यों।

कैसे आकर वायु पास उसके पंखा हिलाती नहीं।

क्यों पाता न विकास भानु-कर से राकेन्दु से मंजुता।

जो है जीवनवान उत्स उसका उत्थान होता न क्यों॥13॥

जो हैं रोग वियोग सोग फल या संताप में हैं पगे।

यो हैं भावुकता-विभूति अथवा सद्भाव में हैं सने।

या हैं आकुलता-प्रसूत भय या उन्माद के हैं सगे।

या हैं नीर गि भ नयन से या निर्झरों से झ॥14॥

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