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हरिऔध समग्र खंड-2

पारिजात
कविता
अयोध्या सिंह उपाध्याय
'हरिऔध'
 

तृतीय सर्ग

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 दृश्य जगत्

आकाश

(1)

शार्दूल-विक्रीडित

सातों ऊपर के बड़े भुवन हों या सप्त पाताल हों।

चाहे नीलम-से मनोज्ञ नभ के ता महामंजु हों।

हो बैकुंठ अकुंठ ओक अथवा सर्वोच्च कैलास हो।

हैं लीलामय के ललाम तन से लीला-भ लोक ए॥1॥

वंशस्थ

अनन्त में है उसको अनन्तता।

विभा-विभा में असुशक्ति वायु में।

विभूति भू में रस में रसालता।

चराचरात्मा विभु विश्वरूप है॥2॥

(2)

गीत

है रूप उसी विभु का ही।

यह जगत रूप है किसका।

है कौन दूसरा कारण।

यह विश्व कार्य्य है जिसका॥1॥

है प्रकृति-नटी लीला तो।

है कौन सूत्रधार उसका।

अति दिव्य दृष्टि से देखो।

भव-नाटक प्रकृति पुरुष का॥2॥

है दृष्टि जहाँ तक जाती।

नीलाभ गगन दिखलाता।

क्या है यह शीश उसी का।

जो व्योमकेश कहलाता॥3॥

वह प्रभु अनन्त-लोचन है।

जो हैं भव ज्योति सहा।

क्या हैं न विपुल तारक ये।

उन ऑंखों के ही ता॥4॥

जितने मयंक नभ में हैं।

वे उसके मंजुल मुख हैं।

जो सरस हैं सुधामय हैं।

जगती-जीवन के सुख हैं॥5॥

चाँदनी का निखर खिलना।

दामिनी का दमक जाना।

उस अखिल लोक-रंजन का।

है मंद-मंद मुसकाना॥6॥

उसके गभीरतम रव का।

सूचक है धन का निस्वन।

कोलाहल प्रबल पवन का।

अथवा समुद्र का गर्जन॥7॥

अपने कमनीय करों से।

बहु रवि शशि हैं तम खोते।

क्या हैं न हाथ ये विभु के।

जो ज्योति-बीज हैं बोते॥8॥

भव-केन्द्र हृदय है उसका।

नव - जीवन - रस - संचारी।

है उदर दिगन्त, समाईं।

जिसमें विभूतियाँ सारी॥9॥

हैं विपुल अस्थिचय उसके।

गौरवित विश्व के गिरिवर।

है नसें सरस सरिताएँ।

तन-लोम-सदृश हैं तरुवर॥10॥

जिसके अवलम्बन द्वारा।

है प्रगति विश्व में होती।

है वही अगति गति का पग।

जिसकी रति है अघ खोती॥11॥

है तेज-तेज उसका ही।

है श्वास समीर कहाता।

जीवन है जग का जीवन।

बहु सुधा-पयोधिक-विधाता॥12॥

रातें हैं हमें दिखातीं।

फिर रह वासर है आता।

यह है उसकी पलकों का।

उठना-गिरना कहलाता॥13॥

जिनसे बहु ललित कलित हो।

बनता है विश्व मनोहर।

उन सकल कलाओं का है।

विभु अति कमनीय कलाधर॥14॥

(3)

शार्दूल-विक्रीडित

कोई है कहता, अनन्त नभ में ये दिव्य ता नहीं।

नाना हस्त-पद-प्रदीप्त नख हैं व्यापी विराटांग के।

कोई लोचन वन्दनीय विभु का है तीन को मानता।

राका-नायक को, दिवाधिकपति को, विभ्रद्विभावद्रि को॥1॥

वंशस्थ

असंख्य हैं शीश, असंख्य नेत्र हैं।

असंख्य ही हैं उसके पदादि भी।

कहें न कैसे यह भूत मात्र में।

निवास क्या, है न, जगन्निवास का॥2॥

(4)

गीत

सब काल कौन श्यामल तन।

है बहुविध वाद्य बजाता।

किसलिए सरस स्वर भर-भर।

है मधुमय गीत सुनाता॥1॥

है कर-विहीन कहलाता।

है नहीं उँगलियोंवाला।

पर सुन उसकी वीणाएँ।

भव बनता है मतवाला॥2॥

है बदन नहीं जब उसके।

तब अधर कहाँ से लाता।

पर बजा मुरलिका अपनी।

मन को है मत्त बनाता॥3॥

यद्यपि अकंठ है तो भी।

वह कुंठित नहीं दिखाता।

अगणित रागों को गा-गा।

है रस का स्रोत बहाता॥4॥

ऐसी लाखों वीणाएँ।

पल-पल हैं बजती रहती।

या विपुल वेणु-स्वर-लहरी।

रसमय बन-बन है बहती॥5॥

क्या बात वेणु वीणा की।

ऐसे ही अगणित बाजे।

बजते रहते हैं प्रति पल।

ध्वनि वैभव मध्य विराजे॥6॥

अनवरत सुधा बरसा कर।

जो गीत गीत हैं होते।

वे निधिक उन ध्वनियों के हैं।

निकले जिनसे रस-स्रोते॥7॥

भव कंठ रसीले सुन्दर।

बहु तरुवर मेरु गुहाएँ।

सब यंत्र अनेकों बाजे।

सागर सरवर सरिताएँ॥8॥

कैसे उसके साधन हैं।

वह कैसे क्या करता है।

कामना-हीन हो कैसे

बहु स्वर इनमें भरता है॥9॥

बतला न सकें हम जिसको।

कैसे उसको बतलायें।

जो उलझन सुलझ न पाई।

किस तरह उसे सुलझायें॥10॥

(5)

शार्दूल-विक्रीडित

कंठों का बन कंठ मूल कहला तानों लयों आदि का।

नादों में भर के निनाद स्वर के स्वारस्य का सूत्र हो।

दे नाना ध्वनि-पुंज को सरसता, आलाप को मुग्धता।

गाता है नित कौन गीत किसका बाजे करोड़ों बजा।

प्रभाकर

(1)

गीत

विहँसी प्राची दिशा प्रफुल्ल प्रभात दिखाया।

नभतल नव अनुराग-राग-रंजित बन पाया।

उदयाचल का खुला द्वार ललिताभा छाई।

लाल रंग में रँगी रँगीली ऊषा आयी॥1॥

चल बहु मोहक चाल प्रकृति प्रिय-अंक-विकासी।

लोक-नयन-आलोक अलौकिक ओक-निवासी।

आया दिनमणि अरुण बिम्ब में भरे उजाला।

पहन कंठ में कनक-वर्ण किरणों की माला॥2॥

ज्योति-पुंज का जलधिक जगमगा के लहराया।

मंजुल हीरक-जटित मुकुट हिमगिरि ने पाया।

मुक्ताओं से भरित हो गया उसका अंचल।

कनक-पत्रा से लसित हुआ गिरि-प्रान्त धरातल॥3॥

हरे-भरे सब विपिन बन गये रविकर आकर।

पादप प्रभा-निकेत हुए कनकाभा पाकर।

स्वर्णतार के मिले सकल दल दिव्य दिखाये।

विलसित हुए प्रसून प्रभूत विकचता पाये॥4॥

पहन सुनहला वसन ललित लतिकाएँ विलसीं।

कुसुमावलि के व्याज बहु विनोदित हो विकसीं।

जरतारी साड़ियाँ पैन्ह तितली से खेली।

विहँस-विहँस कर बेलि बनी बाला अलबेली॥5॥

लगे छलकने ज्योति-पुंज के बहु विधि प्यारे।

मिले जलाशय-व्याज धरा को मुकुर निराले।

कर किरणों से केलि दिखा उनकी लीलाएँ।

लगीं नाचने लोल लहर मिष सित सरिताएँ॥6॥

ज्योति-जाल का स्तंभ विरच कल्लोलों द्वारा।

मिला-मिला नीलाभ सलिल में विलसित पारा।

बना-बना मणि-सौध मरीचि मनोहर कर से।

लगा थिरकने सिंधु गान कर मधुमय स्वर से॥7॥

नगर-नगर के कलस चारुतामय बन चमके।

दमक मिले वे स्वयं अन्य दिनमणि-से दमके।

आलोकित छत हुई विभा प्रांगण ने पाई।

सदन-सदन में ज्योति जगमगाती दिखलाई॥8॥

सकल दिव्यता-सदन दिवस का बदन दिखाया।

तम के कर से छिना विलोचन भव ने पाया।

दिशा समुज्ज्वल हुई मरीचिमयी बन पाई।

सकल कमल-कुल-कान्त वनों में कमला आयी॥9॥

कल कलरव से लोक-लोक में बजी बधाई।

कुसुमावलि ने विकस विजय-माला पहनाई।

विहग-वृन्द ने उमग दिवापति-स्वागत गाया।

सकल जीव जग गये, जगत उत्फुल्ल दिखाया॥10॥

(2)

शार्दूल-विक्रीडित

लेके मंजुल अंक में प्रथम दो धारें सदाभामयी।

पा के नूतन लालिमा फिर मिले प्यारी प्रभा भानु की।

ऐसा है वह कौन लोक जिसको है मोह लेती नहीं।

लीलाएँ कर मन्द-मन्द हँस के प्राची दिशा सुन्दरी॥1॥

है लालायित नेत्र प्रीति-जननी है लालिमा से लसी।

है लीला-सरि की ललाम लहरी प्रात:प्रभारंजिनी।

है प्राची-कर-पालिता प्रिय सुता है मूर्ति माधुर्य की।

ऊषा है अनुराग-राग-वलिता आलोक मालामयी॥2॥

(3)

गीत

विलसी हैं नभ-मंडल में।

आभामय दो धाराएँ।

गत होते तम में प्रकटीं।

या रवि-रथ-पथ-खाएँ॥1॥

अनुराग-रागमय प्राची।

कमनीय प्रकृति-कर पाली।

है राह देखती किसकी।

रख मंजुल मुख की लाली॥2॥

सिन्दूर माँग में भरकर।

पाकर लालिमा निराली।

क्यों लोहित-वसना आयी।

ले जन-रंजनता ताली॥3॥

क्यों हुईं दिशाएँ उज्ज्वल।

क्यों कान्ति मनोरम पाई।

उनकी मनमोहक आभा।

क्यों मंद-मंद मुसकाई॥4॥

अति रुचिकर चमर हिलाता।

बन सुरभित सरस सवाया।

क्यों मन्द-मन्द पद रखता।

शीतल समीर है आया॥5॥

क्यों गूँज रहा है नभतल।

क्यों उसमें स्वर भर पाया।

बहु उमग-उमग विहगों ने।

क्यों राग मनोहर गाया॥6॥

क्यों हैं फूली न समाती।

उनकी निखरी हरियाली।

क्यों खड़े हुए हैं तरुवर।

लेकर फूलों की डाली॥7॥

विकसित होती हैं पल-पल।

किसलिए कलित कलिकाएँ।

धारण कर मुक्ता-माला।

क्यों ललित बनीं लतिकाएँ॥8॥

अलि किसका गुण गाते हैं।

रच-रचकर निज कविताएँ।

क्यों हैं कल-कल रव करती।

सितभूत सकल सरिताएँ॥9॥

जगती - जीवन - अवलम्बन।

वसुधातल - ताप - विमोचन।

उदयाचल पर आता है।

क्या सकल लोक का लोचन॥10॥

(4)

शार्दूल-विक्रीडित

साधे से सब सौर-मंडल सधा, बाँधे बँधीर शृंखला।

पाले से उसके पली वसुमती, टाले टली आपदा।

पाता है तृण-राजिका विटप का, त्राता लता-बेलि का।

धाता है रवि सर्व-भूत-हित का, है अन्नदाता पिता॥1

रत्नों की कमनीय कान्ति दिव को, वारीश को रम्यता।

आभा-सी सुविभूति भूत-दृग को, तेजस्विता दृष्टि को।

भू को वैभव, पुष्प को विकचता, सदूर्णता वस्तु को।

देता है रवि ज्योति-पुंज विधु को, हेमाद्रि को हेमता॥2॥

विधु-विभव

(1)

गीत

जब मंद-मंद विधु हँसता।

नभ-मंडल में है आता।

तब कौन नयन है जिसमें।

वह सुधा नहीं बरसाता॥1॥

है वह वसुधा-अभिनंदन।

कुमुदों का परम सहारा।

सर्वस्व सरस भावों का।

रजनी-नयनों का तारा॥2॥

क्यों कला कला दिखलाकर।

बहु ज्योति तिमिर में भरती।

कमनीय कौमुदी कैसे।

रजनी का रंजन करती॥3॥

क्यों चारु चाँदनी भू पर।

सित चादर सदा बिछाती।

कैसे विलसित कुसमों पर।

छवि लोट-पोट हो जाती॥4॥

कैसे दिगन्त में बहता।

बहु दिव्य रसों का सोता।

क्यों निधिक उमंग में आता।

जो नहीं कलानिधि होता॥5॥

जो नहीं निकलती होती।

विधु-कर से प्रिय रस-धारा।

तो बड़े चाव से कैसे।

खाता चकोर अंगारा॥6॥

पाकर मयंक-सा मोहक।

जो नहीं मधुर मुसकाती।

जगती-जन का अनुरंजन।

कैसे रजनी कर पाती॥7॥

हिमकर है सुधा-निकेतन।

वसुधा-हित जलधिक-विलासी।

है इसीलिए विभु-मानस।

शिव - शंकर - शीश - निवासी॥8॥

दोनों के दोनों हित हैं।

है छिका अहित-पथ-नाका।

राकापति राका-पति है।

राकेश-रंजिनी राका॥9॥

विधु कान्त प्रकृति-कर-शोभी।

है रजत-रचित रस-प्यारेला।

जो छलक-छलक करता है।

क्षितितल को बहु छवि वाला॥10॥

वह है सुख सुन्दर मुखड़ा।

आनन्द - कल्पतरु - थाला।

है मुग्धकारिता-मंडन।

दिनकर कोमल कर पाला॥11॥

नवनी समान मृदु मंजुल।

अवनीतल - विरति - विभंजन!

है चन्द्र, लोक-पति-लोचन।

तम-मोचन रजनी-रंजन॥12॥

(2)
शार्दूल-विक्रीडित

है राकापति, मंजुता-सदन है, माधुर्य-अंभोधि है।

है लावण्य-सुमेरु-शृंग, जिसको आलोक-माला मिली।

पाती हैं उपमा सदैव जिसकी सत्कान्ति की कीत्तियाँ।

जो है शंकर-भाल-अंक उसको कैसे कलंकी कहें॥1॥

दे दे मंजु सुधा लता विटप को है सींचता सर्वदा।

नाना कंद समूह को सरस हो है सिक्त देता बना।

पुष्पों को खिलता विलोक हँसता स्नेहाम्बुधारा बहा।

न्यारा है वह चारु चन्द्र जिसकी है प्रेमिका चन्द्रिका॥2॥

पाता है सुकुमारता-सदन का, है स्निग्धता का पिता।

धाता है रस का, महा सरस का सौन्दर्य का है सखा।

दाता है कमनीय कान्ति-निधि का, माधुर्य का है धुरा।

छाता है विधु एक क्षत्रपति का संदीप्त-रत्नच्छटा॥3॥

है आभा कमनीय पुंज, महि का साथी, सिता का धनी।

नाना औषध-मूल-भूत, प्रतिभू पीयूष-पाथोधिका।

है धाता प्रतिभा प्रसूत, रवि का स्नेही, सुरों का सखा।

कान्तात्मा कवि के कला-निलय का आलोक राकेश है॥4॥

शृंगों के हिम-पुंज का सुछवि का प्रासाद की दीप्तिका।

पुष्पों पल्लव आदि के विभव का आभामयी वीचिका।

भू की अन्य विभूति का, प्रकृति के संसिक्त सौन्दर्य का।

है आधार मयंक वारिनिधि के उन्मुक्त उल्लास का॥5॥

तारकावली

(1)
गीत

हैं सौर-मंडलाधिकप के।

अधिकार में अमित ता।

जो हैं सुन्दर मन-मोहन।

बहु रंग रूप में न्यारे॥1॥

शिर के ऊपर रजनी में।

जो लाल रंग का तारा।

है जगमग-जगमग करता।

वह है मंगल महि-प्यारा॥2॥

भूतल की कुछ बातों से।

मिलती हैं उसकी बातें।

उसके दिन हैं चमकीले।

सुन्दर हैं उसकी रातें॥3॥

प्रात: या संध्या वेला।

यों ही या यंत्रों द्वारा।

है क्षितिज पर उगा मिलता।

छोटा-सा एक सितारा॥4॥

बुध उसको ही कहते हैं।

वह है हरिदाभ दिखाता।

क्षिति-तल पर अपनी किरणें।

है छटा साथ छिटकाता॥5॥

बहु काल मध्य नभतल में।

पीताभ एक उङु-पुंगव।

लोचन-गोचर होता है।

कर वहन बहु विभा-वैभव॥6॥

द्विजराज आठ अनुगत बन।

उसके वश में रहते हैं।

अतएव सकल विज्ञानी।

सुर-गुरु उसको कहते हैं॥7॥

प्राची अथवा पश्चिम में।

जो श्वेत समुज्ज्वल तारा।

देखा जाता है प्राय:।

है शुक्र वही दृग-प्यारा॥8॥

रवि-विधु तजकर, ऑंखों से।

जितने उङु हैं दिखलाते।

उन सब में बड़ा यही है।

बहु दिव्य इसी को पाते॥9॥

जो वलयवान तारक है।

जो मंद-मंद चलता है।

जो नील गगन-मंडल के।

नीलापन में ढलता है॥10॥

शनि वही कहा जाता है।

कुछ-कुछ है वह मटमैला।

वह नीलम-जैसा है तो।

है वलय-रजत का थैला॥11॥

इस मंडल में इन-से ही।

दो ग्रह हैं और दिखाते।

है एक और मिल पाया।

अब यह भी हैं सुन पाते॥12॥

मंगल एवं सुर-गुरु की।

कक्षाओं का मध्यस्थल।

यों उङु-पूरित है जैसे।

मालाओं में मुक्ता-फल॥13॥

इसमें हैं पुच्छल ता।

जिनकी गति नहीं जनाती।

झड़ बाँध-बाँध उल्काएँ।

हैं अद्भुत दृश्य दिखाती॥14॥

इस एक सौर-मंडल की।

इतनी विचित्र हैं बातें।

कर सकीं नहीं हल जिनको।

लाखों वर्षों की रातें॥15॥

तब अमित सौर-मंडल की।

गाथाएँ क्यों बतलायें।

बुध-जन हैं बूँदों-जैसे।

क्यों पता जलधि का पायें॥16॥

(2)

शार्दूल-विक्रीडित

होता ज्ञात नहीं रहस्य इनका, ये हैं अविज्ञात से।

कोई पा न सका पता प्रगति का विस्तार निस्तार का।

कैसे देख इन्हें न चित्त दहले, कैसे न उत्कंठ हो।

हैं ये केतु विचित्र, पुच्छ जिनके हैं कोटिश: कोस के॥1॥

क्रीड़ाएँ अवलोक लीं अनल की, देखी कला की कला।

ज्योतिर्भूति विलोक ली, पर कहाँ ऐसी छटाएँ मिलीं।

ऐसे लोचन कौन हैं वह जिन्हें देती नहीं मुग्धता।

उल्का की कलकेलि व्योम-तल की है दिव्य दृश्यावली॥2॥

प्रभात
(1)

गीत

प्रकृति-वधू ने असित वसन बदला सित पहना।

तन से दिया उतार तारकावलि का गहना।

उसका नव अनुराग नील नभतल पर छाया।

हुई रागमय दिशा, निशा ने वदन छिपाया॥1॥

आरंजित हो उषा-सुन्दरी ने सुख माना।

लोहित आभा-वलित वितान अधर में ताना।

नियति-करों से छिनी छपाकर की छवि सारी।

उठी धरा पर पड़ी सिता सित चादर न्यारी॥2॥

ओस-बिन्दु ने द्रवित हृदय को सरस बनाया।

अवनी-तल पर विलस-विलस मोती बरसाया।

खुले कंठ कमनीय गिरा ने बीन बजाई।

विहग-वृन्द ने उमग मधुर रागिनी सुनाई॥3॥

शीतल बहा समीर, हुईं विकसित कलिकाएँ।

तरुदल विलसें, बनीं ललिततम सब लतिकाएँ।

सर में खिले सरोज, हो गईं सित सरिताएँ।

सुरभित हुआ दिगन्त, चल पड़ीं अलि-मालाएँ॥4॥

हुआ बाल-रवि उदय, कनक-निभ किरणें फूटीं!

भरित तिमिर पर परम प्रभामय बनकर टूटीं।

जगत जगमगा उठा, विभा वसुधा में फैली।

खुली अलौकिक ज्योति-पुंज की मंजुल थैली॥5॥

बने दिव्य गिरि-शिखर मुकुट मणि-मंडित पाये।

कनकाभा पा गये कलित झरने दिखलाये।

मिले सुनहली कान्ति लसी सुमनावलि सारी।

दमक उठीं बेलियाँ लाभ कर द्युति अति प्यारी॥6॥

स्वर्णतार से रचे चारुतम चादर द्वारा।

सकल जलाशय लसे बनी उज्ज्वल जल-धारा।

दिखा-दिखाकर तरल उरों की दिव्य उमंगें।

ले-लेकर रवि-बिम्ब खेलने लगीं तरंगें॥7॥

हीरक-कण हरिदाभ तृणों पर गया उछाला।

बनी दूब रमणीय पहनकर मुक्ता-माला।

मिले कान्तिमय किरण लसे बालू के टीले।

सा रज-कण बने रजत-कण-से चमकीले॥8॥

जिस जगती को असित कर सकी थी तम-छाया।

रवि-विकास ने विलस उसे बहुरंग बनाया।

कहीं हुईं हरिदाभ, कहीं आरक्त दिर्खाईं।

कहीं पीत छवि कान्त श्वेत किरणें बन पाईं॥9॥

हुआ जागरित लोक, रात्रिकगत जड़ता भागी।

बहा कर्म्म का स्रोत, प्रकृति ने निद्रा त्यागी।

विजित तमोगुण हुआ, सतोगुण सितता छाई।

कला अलौकिक कला-निकेतन की दिखलाई॥10॥

पहने कंचन-कलित क्रीट मुक्तावलि-माला।

विकच कुसुम का हार विभाकर-कर का पाला।

प्राची के कमनीय अंक में लसित दिखाया।

लिये करों में कमल प्रभात विहँसता आया॥11॥

(2)
वंशस्थ

अनन्त में भूतल में दिगन्त में।

नितान्त थी कान्त वनान्त भाग में।

प्रभाकराभा-गरिमा-प्रभाव से।

प्रभावित दिव्य प्रभा प्रभात की।

(3)

शार्दूल-विक्रीडित

हैं मुक्तामय-कारिणी अवनि की, हैं स्वर्ण-आभामयी।

हैं कान्ता कुसुमालि की प्रिय सखी, है वीचियों की विभा।

शोभा है अनुरंजिनी प्रकृति की क्रीड़ामयी कान्ति की।

दूती हैं दिव की प्रभात-किरणें, हैं दिव्य देवांगना।

घन-पटल
( 1)
गीत

घिर-घिरकर नभ-मंडल में।

हैं घूम-घूम घन आते।

दिखता श्यामलता अपनी।

हैं विपुल विमुग्ध बनाते॥1॥

ये द्रवणशील बन-बनकर।

हैं दिव्य वारि बरसाते।

पाकर इनको सब प्यासे।

हैं अपनी प्यासे बुझाते॥2॥

इनमें जैसी करुणा है।

किसमें वैसी दिखलाई।

किसकी ऑंखों में ऐसी।

ऑंसू की झड़ी लगाई॥3॥

देखे पसीजनेवाली।

पर ऐसा कौन पसीजा।

है कौन धूल में मिलता।

औरों के लिए कहीं जा॥4॥

ऐसा सहृदय जगती में।

है अन्य नहीं दिखलाया।

घन ही पानी रखने को।

पानी-पानी हो पाया॥5॥

सब काल पिघलते रहना।

जो जलद को नहीं भाता।

तब कौन सुधा बरसाकर।

वसुधा को सरस बनाता ॥६॥

बहता न पयोद हृदय में।

जो दया-वारि का सोता।

तो कैसे मरु-महि सिंचती।

क्यों ऊसर रसमय होता॥7॥

जो नहीं नील नीरद में।

सच्ची शीतलता होती।

किस तरह ताप निज तन का।

तपती वसुंधरा खोती॥8॥

जो जीवन-दान न करता।

क्यों नाम सुधाधर पाता।

यदि परहित-निरत न होता।

कैसे परजन्य कहाता॥9॥

वह सरस है सरस से भी।

वह है रस का निर्माता।

वह है जीवन का जीवन।

घन है जग-जीवन-दाता॥10॥

(2)
शार्दूल-विक्रीडित

केले के दल को प्रदान करके बूँदें विभा-वाहिनी।

सीपी का कमनीय अंक भरके, दे सिंधु को सिंधुता।

शोभा-धाम बना लता-विटप को सद्वारि के बिन्दु से।

आते हैं बन मुक्त व्योम-पथ में मुक्ता-भरे मेघ ये॥1॥

शृंगों से मिल मेरु में विचरते प्राय: झड़ी बाँधते।

बागों में वन में विहार करते नाना दिखाते छटा।

मोरों का मन मोहते, विलसते शोभामयी कुंज में।

आते हैं घन घूमते घहरते पायोधि को घेरते॥2॥

कैसे तो सर अंक में विलसते, क्यों प्राप्त होती सरी।

कैसे पादप-पुंज लाभ करती हो शस्य से श्यामला।

कैसे तो मिलते प्रसून, लसती कैसे लता-बेलि से।

जो पाती न धारा अधीर भव में धाराधरी-धारता॥3॥

कैसे तो लसती प्रशान्त रहती, क्यों दूर होती तृषा।

कैसे पाकर जीव-जन्तु बनती श्यामायमाना मही।

होते जो न पयोद, जो न उनमें होती महाआर्द्रता।

रक्षा हो सकती न अन्य कर से तो चातकी वृत्ति की॥4॥

गाती है गुण, साथ सर्व सरि के सानंद सारी धरा।

प्रेमी हैं जग-जीवमात्रा उसके, हैं चातकों से व्रती।

क्यों पाता न पयोद मान भव में, होता यशस्वी न क्यों।

है स्नेही उसका समीर, उसकी है दामिनी कामिनी॥5॥

मीठा है करता पयोद विधिक से वारीश के वारि को।

देता है रस-सी सुवस्तु सबको, है सींचता सृष्टि को।

नेत्रों का, असिताम्बरा अवनि का, काली कुहू रात्रि का।

खोता है तम दामिनी-दमक की दे दिव्य दीपावली॥6॥

नीले, लाल, अश्वेत, पीत, उजले, ऊदे, हरे, बैंगनी।

रंगों से रँग, सांध्य भानु-कर की सत्कान्ति से कान्त हो।

नाना रूप धरे विहार करते हैं घूमते-झूमते।

होगा कौन न मुग्ध देख नभ में ऐसे घनों की छटा॥7॥

हैं ऊँचे उठते, सुधा बरसते, हैं घेरते घूमते।

बूँदों से भरते, फुहार बनते या हैं हवा बाँधते।

दौरा हैं करते घिरे घहरते हैं रंग लाते नये।

क्या-क्या हैं करते नहीं गगन में ये मेघ छाये हुए॥8॥

कैसे तो पुरहूत-चाप मिलता, क्यों दामिनी नाचती।

क्यों खद्योत-समूह-से विलसती काली बनी यामिनी।

होते जो न पयोद, गोद भरती कैसे हरी भूमि की।

आभा-मंडित साड़ियाँ सतरँगी क्यों पैन्हतीं दिग्वधू॥9॥

मेघों को करते प्रसन्न खग हैं मीठा स्वगाना सुना।

हैं नाना तरु-वृन्द प्रीति करते उत्फुल्लताएँ दिखा।

आशा है अनुरागिनी जलद की, है प्रेमिका शर्वरी।

सारी वीर-बहूटियाँ अवनि की रागात्मिका मूर्ति हैं॥10॥

गीत
(3)

जो तरस न आता कैसे।

ऑंखों में ऑंसू भरता।

वह क्यों बनता है नीरस।

जो बरस सरस है करता॥1॥

चातक ने आकुल हो-हो।

पी-पी कह बहुत पुकारा।

पर गरज-तड़पकर घन ने।

उसको पत्थर से मारा॥2॥

पौधा था एक फबीला।

सुन्दर फल-फूलोंवाला।

टूटी बिजली ने उसको।

टुकड़े-टुकड़े कर डाला॥3॥

सब खेत लहलहाते थे।

भू ने था समा दिखाया।

वारिद ने ओले बरसा।

मरु-भूतल उसे बनाया॥4॥

जब अधिक वृष्टि होती है।

पुर ग्राम नगर हैं बहते।

उस काल करोड़ों प्राणी।

हैं महा यातना सहते॥5॥

जब चपला-असि चमकाकर।

है महाघोर रव करता।

तब कौन हृदय है जिसमें।

घन नहीं भूरि भय भरता॥6॥

अवलोक क्रियाएँ उसकी।

क्यों कहें जलद है कैसा।

यदि माखन-सा कोमल है।

तो है कठोर पवि-जैसा॥7॥

है विषम गरल गुणवाला।

तो भी है सुधा पिलाता।

घन उपल सृजन करता है।

मुक्ता भी है बन जाता॥8॥

कोई न कहीं पर घन-सा।

है तरल-हृदय दिखलाता।

वह हो हिमपात-विधायक।

पर है जग-जीवन-दाता॥9॥

है थकित-भ्रमित चित होता।

कैसे रहस्य बतलायें।

हैं चकित बनाती भव की।

गुण-दोषमयी लीलाएँ॥10॥

(4)
शार्दूल-विक्रीडित

क्या सातों किरणें दिवाधिकपति की हैं दृश्यमाना हुईं।

किम्वा वन्दनवार द्वार पर है बाँधी गयी स्वर्ग के।

या हैं सुन्दर साड़ियाँ प्रकृति की आकाश में सूखती।

किम्वा वारिद-अंक में विलसता है चाप स्वर्गेश का।

सरस समीर
( 1)
गीत

विकसित करता अरविन्द-वृन्द।

बहता है ले मंजुल मरन्द।

मानस को करता मोद-धाम।

आता समीर है मन्द-मन्द॥1॥

है कभी बजाता मंजु वेणु।

कीचक-छिद्रों में कर प्रवेश।

है कभी सुनाता सरस गान।

दे खग-कुल-कंठों को निदेश॥2॥

है कभी कँपाता जा समीप।

विकसित लतिका का मृदुल गात।

ले कभी कुसुम-कुल की सुगंध।

वह बन जाता है मलय-वात॥3॥

ले-लेकर उज्ज्वल ओस-बिन्दु।

जब वह करता है वर विहार।

तब बरसाता है हो विमुग्ध।

तरुदल-गत मुक्ता-मणि अपार॥4॥

वह करता है कमनीय केलि।

आ-आकर सुमन-समूह पास।

बहु घूम-घूम मुख चूम-चूम।

कलियों को वितरण कर विकास॥5॥

बहु लोभनीय लीला-निकेत।

सरि-लहरों को कर अधिक लोल।

भरता है उनमें लय ललाम।

कर-कर कल कलरव से कलोल॥6॥

पाकर विस्तृत तृण-राजि ओक।

वह जब जाता है पंथ भूल।

तब उड़ता है बन परम कान्त।

वन-भूमि-बधूटी का दुकूल॥7॥

मिल अलिमाला से प्रेम-साथ।

तितली से करता है विनोद।

बनती है उससे सुमनवान।

छाया की बहु छबिमयी गोद॥8॥

करके कितने आवरण दूर।

निज मंजुल गति का बढ़ा मोल।

दिखलाता है बहु दिव्य दृश्य।

वह हटा प्रकृति-मुख का निचोल॥9॥

वह फिरता है बन सुधा-सिक्त।

सब ओर सरस सौरभ पसार।

वनदेवी को दे परम दिव्य।

विकसित कुसुमों का कण्ठहार॥10॥

(2)
वंशस्थ

विभूति-आवास अनन्त-अंक का।

विकास है व्यापक तेज-पुंज का।

विधान है जीवन-भूत वारि का।

समीर है प्राण धरा-शरीर का॥1॥

सदा रही चित्त विराम-दायिनी।

विनोदिनी सर्व वसुंधरांक की।

सुगंधिकता है करती दिगन्त को।

विमोहिनी धीरे समीर धीरता॥2॥

रजनी सुन्दरी
(1)

गीत

घूँघट से बदन छिपाये।

काले कपड़ों को पहने।

आती है रजनी तन पर।

धारण कर उडुगण गहने॥1॥

पाकर मयंक-सा प्रियतम।

सहचरी चाँदनी ऐसी।

वह कभी विलस पाती है।

सुरलोक सुन्दरी जैसी॥2॥

पर कभी पड़ा मिलता है।

उस पर वह परदा काला।

जिसको माना जाता है।

भव अंधा-भूत अंधियाला॥3॥

नव राग-रंजिता सन्धया।

तारक-चय-मण्डित नभ-तल।

बहु लोक विपुल आलोकित।

हैं रजनी-सुख के सम्बल॥4॥

कमनीय अंक में उसके।

जन-कोलाहल सोता है।

भव कार्य बहुलता का श्रम।

उसका विराम खोता है॥5॥

जो शान्ति-दायिनी निद्रा।

जन श्रान्ति क्लान्ति हरती है।

तो शिथिल रगों में बिजली।

रजनी-बल से भरती है॥6॥

पा अर्ध्दरात्रि-नीरवता।

जब त्याग सचलता सारी।

सब जगत पड़ा सोता है।

अवलोक प्रकृति-गति न्यारी॥7॥

चल दबे पाँव से मारुत।

जब है ऊँघता दिखाता।

जब पादप का पत्ता भी।

हिल-डोल नहीं है पाता॥8॥

उस काल निबिड़ता तम की।

वह चादर है बन जाती।

जिससे जगती तन ढँक कर।

सुख अनुभव है कर पाती॥9॥

रजनी-उर हित की लहरें।

जब हैं रस-वाष्प उठाती।

तब ओस-बूँद बन-बनकर।

मोती-सा हैं बरसाती॥10॥

यामिनी मिले सन्नाटा।

जब साँय-साँय करती है।

उस काल वसुमती सुख के।

साधन का दम भरती है॥11॥

वह प्रति दिन उन पापों पर।

परदे डाला करती है।

अवलोक विकटता जिनकी।

कम्पित होती धरती है॥12॥

खंबों पर विलसित बिजली।

क्यों तारक-चय मद खोती।

क्यों अगणित दीपक बलते।

जो नहीं यामिनी होती॥13॥

तम-भरित सकल ओकों में।

अनुभूत ज्योति भरती है।

श्रम-भंजन कर जन-जन का।

रजनी रंजन करती है॥14॥

(2)
शार्दूल-विक्रीडित

है लीला करती, ललाम बनती, है मुग्ध होती महा।

है उल्लास-विलास से विलसती, पीती सुधा सर्वदा।

होके हासमयी विकास भरती, है मोहती विश्व को।

पा राकेश-समान कान्त मुदिता राका निशा सुन्दरी।

वंशस्थ

असंख्य में से उडु एक भी जिसे।

कभी नहीं कान्तिमयी बना सका।

अभागिनी भीति-भरी तमोमयी।

कहाँ मिली अन्यतमा अमा समा।

(3)
गीत

हैं सरस ओस की बूँदें।

या हैं ये मंजुल मोती।

या ढाल-ढालकर ऑंसू।

प्रति दिन रजनी है रोती॥1॥

क्यों ओस कलेजा पिघला।

वह क्यों बूँदें बन पाई।

किसलिए दया-परवश हो।

वह द्रवीभूत दिखलाई॥2॥

अवलोक अंधेरा जग में।

क्या रवि-वियोगिनी-छाया।

है घूम-घूमकर रोती।

इतना जी है भर आया॥3॥

हो विकल कालिमाओं से।

रजनी है अश्रु बहाती।

या विविध तामसिक बातें।

उसको हैं अधिक रुलाती॥4॥

अथवा विधु-से वल्लभ को।

क्षय-रुज-कवलित अवलोके।

है रुदन-रता वह अबतक।

ऑंसू रुक सके न रोके॥5॥

अथवा अतीत गौरव की।

कर याद व्यथा रोती है।

अपनी अन्तर-ज्वालाएँ।

दृग-जल-बल से खोती है॥6॥

या प्रकृति-स्नेह की धारा।

जल की बूँदें बन-बनकर।

तरुदल को सींच रही हैं।

कर लता-बेलियों को तर॥7॥

या ता तरल-हृदय बन।

हो दया से द्रवित भू पर।

बरसाते हैं नित मोती।

कमनीय करों में भरकर॥8॥

अवलोक तपन को आते।

सहृदयता दिखलाती है।

या सरस ओस अवनी पर।

सित सुधा छिड़क जाती है॥9॥

या रवि कोमल किरणों को।

अवलोक धारा पर आती।

तरुदल-थालों में भर-भर।

मोती है ओस लुटाती॥10॥

(4)
शार्दूल-विक्रीडित

हो नाना खग-वृन्द-नाद-मुखरा प्रात:प्रभा-पूरिता।

हो के पुण्य विकास से विकसिता सद्गंधा से गंधिकता।

ऊषा से बन रंजिता विलसिता हो शोभिता अंशु से।

होती है महि कान्त ओस-कर से पा मंजु मुक्तावली॥1॥

है प्राची प्रिय लालिमा सहचरी सिन्दूर-आरंजिता।

सोने-सी कमनीय कान्ति-जननी है दिव्यता भानु की।

है आलोक-प्रसू प्रभात-सुषमा है मण्डिता दिग्वधू।

ऊषा है अनुराग-राग-निरता, है ओस मुक्तामयी॥2॥

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