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              रंग रोगन होना भूतों के डेरे का 
                
               
              सम्पूरन जब कमरे में दाखिल हुआ तो एकाएक उसे विश्वास नहीं हुआ कि यह 
              वही भुतहा कमरा है, जो उसने कुछ दिन पहले देखा था। उसे लग रहा था कि 
              कमरे की पेंटिंग के होते ही कमरे की मनहूसियत ने जैसे समुद्र में 
              छलाँग लगा दी है। दीवारों का रोम-रोम सजीव और पुलकित हो उठा था और एक 
              मुकद्दस उजाला जैसे उसकी बाट जोह रहा था। उस समय सूरज गुरुब हो रहा 
              था, जब सम्पूरन कमरे में पहुँचा। अस्त होते सूरज की किरणें जैसे कमरे 
              की चिकनी दीवारों के दर्पण में अपनी अन्तिम छवि देख रही थीं। यह धवल 
              रंग के महँगे प्लास्टिक पेंट का कमाल था। दीवारों पर सिन्दूरी छाँह 
              को देखकर सम्पूरन की ठस बुद्धि में आया कि यह एक उत्तम लैंडस्केप है। 
              इस आलीशान परिवेश में भूत परेशान हो उठेंगे और सीढिय़ों में शिफ्ट हो 
              जाएँगे जहाँ चमगादड़ों ने अपना डेरा डाल रखा था। 
              ‘‘सीढिय़ों से ऊपर तक सारा फ्लैट पेंट करवा दूँगा।’’ सम्पूरन ने कहा। 
              मिस्त्री ने कोई जवाब नहीं दिया। वह ताजा धुले फर्श पर, बाँहों के 
              तकिये पर, सिर रखे बेसुध सो रहा था। उसका कुर्ता दोपहर की तरह खूँटी 
              पर लटका था। दोपहर में भी वह इसी आलम में था और उसका सहायक पूरी 
              मुस्तैदी से ब्रश चला रहा था। 
              ‘‘मिस्त्री ने और चढ़ा ली है क्या?’’ 
              सहायक ने अपने दाँत निपोर दिये। वह अपने मिस्त्री के बारे में शब्दों 
              में कुछ भी नहीं कहना चाहता था। 
              ‘‘तुम्हारा नाम क्या है?’’ सम्पूरन ने सहायक से पूछा। 
              ‘‘मंगर।’’ उसने कहा। 
              सम्पूरन ने देखा, मंगर ने सुबह से मुँह भी न धोया था। कमरे की मँजाई 
              करते-करते चूने की राख ने उसके बाल ही नहीं, पलकों और भवों तक के ऊपर 
              एक सफेद परत बना ली थी और वह किसी नाटक में भूत का किरदार लग रहा था। 
              मिस्त्री के बाल तेल की चिकनाई से चमक रहे थे। कमरे की मँजाई के समय 
              वह जरूर गायब रहा होगा। इस समय भी उसका मुँह खुला था और उसकी नशीली 
              साँसें पूरे वातावरण को सुवासित कर रही थीं। 
              ‘‘विनायक कहाँ है?’’ सम्पूरन ने मिस्त्री की धजा देखकर मंगर से पूछा। 
              ‘‘अभी आएगा। कल तक आपको कमरा दे दूँगा।’’ मंगर बोला। 
              ‘‘हाथ मुँह धो लो और मेरे साथ नीचे चलो।’’ सम्पूरन बोला। वह मंगर के 
              काम से बहुत सन्तुष्ट था, वह अब इस नौजवान को खोना नहीं चाहता था। 
              नीचे आकर वह उसे पारसी रेस्तराँ में ले गया और उसके लिए भी कोक 
              मँगवाया। मंगर कुर्सी पर बैठने में संकोच कर रहा था। सम्पूरन ने उसकी 
              बाँह थामकर उसे बैठा लिया। 
              ‘‘कितना पैसा देता है विनायक?’’ सम्पूरन ने विनायक का नाम ऐसे लिया 
              जैसे उसका लंगोटिया यार हो। 
              ‘‘बीस रुपये।’’ 
              ‘‘मेरे साथ काम करोगे?’’ सम्पूरन ने पूछा। 
              ‘‘साब से कोई शिक़ायत नहीं है। वक्त पर पैसा मिल जाता है और डाँटता 
              नहीं है।’’ 
              ‘‘हम तुमको पचीस रुपये देगा, बस थोड़ा-सा डाँटेगा।’’ 
              मंगर हँसा। ‘‘साब मज़ाक कर रहे हैं।’’ वह बोला। 
              सम्पूरन ने जेब से पचीस रुपये निकालकर उसकी जेब में ठूँस दिये, ‘‘आज 
              से तू हमारा आदमी। विनायक को मत बताना, मगर उसका काम आज ही छोड़ 
              दो।’’ 
              मंगर हक्का-बक्का उसकी तरफ देखने लगा। मंगर कोक पीने लगा। उसने एक ही 
              घूँट में बोतल समाप्त करके मेज के नीचे रख दी। 
              ‘‘अब फूटो यहाँ से। कल सुबह दस बजे दफ्तर पहुँच जाना। विनायक आता 
              होगा, उसका आज पूरा हिसाब कर दूँगा। मुझसे मिलकर जाना, दफ्तर का पता 
              समझा दूँगा।’’ 
              मंगर ने जेब से नोट निकाले और हैरानी से देखने लगा। उसे लग रहा था 
              जैसे किसी ने उसका मजाक उड़ाने के लिए झूठे नोट उसे थमा दिये हों। वह 
              मुस्कराते हुए विदा हो गया। 
              सम्पूरन कैडिल रोड चौराहे की तरफ देखने लगा। उसकी निगाहें सडक़ पर 
              टिकी थीं कि विनायक को देखते ही बुलवा लेगा। उसे ज्यादा देर इन्तजार 
              न करना पड़ा, थोड़ी देर बाद उसे विनायक दिखाई दिया, वह लगभग भागते 
              हुए फ्लैट की तरफ जा रहा था। सम्पूरन लपककर उसके बाजू में आ गया, 
              ‘‘बहुत ज़ोर-शोर से काम में लगे हो।’’ 
              ‘‘मंगर लोग हैं अभी?’’ 
              ‘‘हाँ हैं। आप ही की राह देख रहे हैं।’’ 
              ‘‘आपने कमरा देखा?’’ 
              ‘‘हाँ अच्छा पेंट हुआ है। अपना हिसाब बना दें।’’ 
              ‘‘अभी तो मुझे माहिम जाना है।’’ 
              सम्पूरन को लगा, वह अगले रोज दफ्तर में टपक सकता है। वह नहीं चाहता 
              था विनायक उसके दफ्तर में मंगर को देखे। उसने कहा, ‘‘हिसाब आज ही कर 
              लें। बाद में मुझे पकड़ पाना मुश्किल होगा।’’ 
              ‘‘अगर सभी क्लायंट आप जैसे हों तो इस धन्धे में बहुत बरकत है। पेमेंट 
              उगाहने में ज्यादा समय जाता है। आपका तो छोटा-सा बिल है।’’ विनायक ने 
              जेब से सम्पूरन का बिल निकाला और उसे सौंप दिया। 
              सम्पूरन ने सडक़ पर चलते-चलते भुगतान कर दिया। विनायक के पहुँचने पर 
              मिस्त्री उठकर ऐसी मुद्रा में बैठ गया जैसे सारा काम उसी ने किया हो 
              और अब इतना थक चुका है कि उठने की कुव्वत भी नहीं बची। चलते-चलते 
              उसने कल के लिए मंगर को बाँद्रा पहुँचने की ताकीद की और विनायक के 
              साथ ही सीढिय़ाँ उतर गया। जब तक वह दुबारा आया मिस्त्री जा चुका था। 
              मंगर ने कहा, ‘‘साब यह बहुत चालू आदमी है। इसने टिटेनियम, कुछ ऐसा ही 
              नाम था साब, की मद में विनायक से पैसे ऐंठ लिये उसे दिखाने के लिये 
              ले भी आया था, मगर विनायक के जाते ही लौटा आया, लगाता तो दीवारों में 
              और चिकनाई आ जाती।’’ 
              ‘‘तुम तो ऐसा नहीं करते?’’ 
              ‘‘नहीं साब।’’ 
              ‘‘तुम भी करने लगोगे।’’ सम्पूरन जोर से हँसा। 
              ‘‘नहीं सॉब हम ऐसा नहीं करेगा। जरूरत होगी तो आप से माँग कर ले 
              लेगा।’’ 
              ‘‘मैं तुम्हारी मेहनत से बहुत प्रभावित हुआ हूँ। मेरे साथ रहोगे तो 
              बहुत ऊपर जाओगे।’’ 
              सम्पूरन ने एक कपबर्ड खोली और एक बढिय़ा पतलून और शर्ट उसे भेंट की, 
              ‘‘कल से तुम मेरे मिस्त्री। मिस्त्री की तरह व्यवहार करना तो तुम 
              जानते ही हो। कल बरामदे में लग्गा लगा देना और यह लो सामान के लिए 
              अलग से रुपये।’’ 
              ‘‘साब आपने मेरा पता भी नहीं पूछा और इतना पैसा दे दिया। हम पैसा 
              लेकर अगर चम्पत हो गये?’’ 
              ‘‘तुम ऐसा नहीं करोगे। कल काम पर आने से पहले शेव भी बनवा लेना। अब 
              मैं तुम्हें बगैर शेव के नहीं देखना चाहता।’’ 
              मंगर हँसने लगा। 
              ‘‘पैर दिखाओ अपने।’’ 
              मंगर ने अपने पैर आगे कर दिये। 
              ‘‘घर जाकर अच्छी तरह से गर्म पानी में पैर धोना। इसी पैसे में से, 
              अभी जाते हुए, साबुन खरीद लो और एक तौलिया। रोज नहाते हो?’’ 
              मंगर हो-हो कर हँसने लगा। 
              ‘‘तुम्हारी शादी हो चुकी है?’’ 
              ‘‘हाँ साब। आप सुनेंगे तो हँसेंगे।’’ 
              ‘‘दिलचस्प आदमी मालूम पड़ते हो। कब हुई शादी?’’ 
              ‘‘हमने नर्स से शादी बनायी है।’’ 
              ‘‘नर्स से?’’ 
              ‘‘हाँ साब। दो साल पहले डॉक्टर बापट के यहाँ काम लगा था। वह उन्हीं 
              के यहाँ काम करती थी। हमसे देखा-देखी हो गयी और जिस दिन बापट डॉक्टर 
              के बँगले का काम पूरा हुआ, हमने शादी बना ली।’’ 
              सम्पूरन ने इस बार गौर से मंगर के चेहरे की तरफ देखा। देखने में इतना 
              बुरा नहीं था, शर्ट-पतलून पहन लेगा तो और भी आकर्षक लग सकता है। 
              सम्पूरन की उसमें दिलचस्पी और बढ़ गयी। वह कुरेद-कुरेद कर उसकी प्रेम 
              कहानी की तफसील सुनने लगा। 
              सम्पूरन ने मन ही मन योजना बना डाली कि क्यों न ‘क्लिफ्टन पार्क एंड 
              ली’ की तरफ से अन्त:सज्जा का काम भी शुरू कर दिया जाए। वह तफसील से 
              विनायक के बिल का अध्ययन करने लगा। उसने गौर किया, विनायक ने वर्ग 
              फीट के हिसाब से बिल बनाया था। सम्पूरन को वर्ग फीट और फीट के अन्तर 
              का ज्ञान न था। उसने तय किया, किसी से भी पूछ कर वह वर्ग फीट का 
              ब्योरा निकालना सीख लेगा। उसे विश्वास हो गया था कि मंगर सारा काम 
              समझता है। ‘क्लिफ्टन पार्क एंड ली’ एक ऐसा सम्भावनापूर्ण नाम था कि 
              उसके बैनर तले कोई भी काम किया जा सकता था। बहुत दिनों से उसकी एक ऐड 
              ऐजेंसी खोलने की इच्छा थी, उस दिशा में भी वह हाथ-पाँव मारना चाहता 
              था। ट्रेवल एजेंसी शुरू कर सकता था, फ़िल्म बना सकता था, इस शहर में 
              सम्भावनाएँ ही सम्भावनाएँ थीं। 
              सम्पूरन अगले रोज दफ्तर पहुँचा तो सीढिय़ों पर ही उसकी मंगर से भेंट 
              हो गयी। वह सीढिय़ों पर बैठा बीड़ी फूँक रहा था। 
              सम्पूरन ने उसे चाबियों का गुच्छा दिया और दफ्तर खोलने के लिए कहा। 
              दफ्तर में टेलीफोन की घंटी बज रही थी। जब तक वह भीतर पहुँचता घंटी 
              बन्द हो गयी। 
              ‘‘तुम कितने बजे आ गये थे?’’ 
              ‘‘साब हम तो आठ बजे से आपका इन्तजार कर रहा था।’’ 
              सम्पूरन ने घड़ी देखी, साढ़े दस बजे थे। उसने मंगर की बात का कोई 
              उत्तर न दिया और मंगर के हाथ में झाड़ू पकड़ा दिया, ‘‘अच्छी तरह 
              झाड़-पोंछ कर लो। सब चीजें तरीके से रख दो। रद्दी कागज नीचे डस्टबिन 
              में फेंक आओ। तुम्हें मैंने कल कुछ कपड़े दिये थे, तुम पहनकर क्यों 
              नहीं आये?’’ 
              मंगर ने दाँत निपोर दिये, ‘‘सर, नर्स कह रही थी वे कपड़े अस्पैशल 
              मौके पर पहनना।’’ 
              ‘‘नहीं, वे रोजमर्रा की पोशाक है। नर्स से कहना स्पेशल मौके के लिए 
              दूसरे कपड़े दूँगा।’’ 
              ‘‘अच्छा साब।’’ 
              ‘‘तुम अपनी बीवी को नर्स ही कहते हो?’’ 
              ‘‘जी सर।’’ मंगर बोला, ‘‘उसका नाम बहुत मुश्किल है।’’ 
              ‘‘क्या नाम है?’’ 
              ‘‘उसका नाम बहुत मुश्किल है साब, हमें याद नहीं होता। गलत बोलने पर 
              वह बिगड़ती है।’’ 
              ‘‘कल उससे लिखवा कर लाना, मैं तुम्हें बोलना सिखा दूँगा।’’ 
              ‘‘अच्छा साब।’’ 
              ‘‘वह कहीं काम करती है?’’ 
              ‘‘नहीं साहब, अभी बच्चा छोटा है। अगले महीने उसकी माँ आ जाएगी तो वह 
              नौकरी ढूँढ लेगी। उसे कहीं भी किसी भी नर्सिंग होम में काम मिल 
              जाएगा।’’ 
              ‘‘कुछ पढ़ी-लिखी है?’’ 
              ‘‘हाई स्कूल पास है और नर्सिंग का डिप्लोमा किये हुए है। चार साल का 
              अनुभव है।’’ 
              ‘‘ठीक है, उसे भी काम दिलवा दूँगा। कहाँ रहते हो?’’ 
              ‘‘चाल में रहता हूँ साब।’’ 
              ‘‘किस इलाके में?’’ 
              ‘‘वर्ली में।’’ 
              ‘‘नर्स कहाँ रहती थी?’’ 
              ‘‘वर्ली में रहती थी और मैं मलाड में एक रिश्तेदार के यहाँ बरामदे 
              में पड़ा रहता था। उनकी कपड़े की दुकान थी, वह काम दे रहे थे मगर 
              मामा के यहाँ नौकरी करना मुझे ही मंजूर न हुआ।’’ 
              ‘‘तो तुम घर-आजाद हो।’’ 
              वह फिर हो-हो कर हँसा और बीड़ी सुलगा ली। 
              ‘‘बीड़ी दफ्तर के बाहर पिआ करो।’’ सम्पूरन ने कहा। 
              मंगर ने बीड़ी बुझा दी और उसका गुल फर्श पर झाडऩे लगा। 
              सम्पूरन की समझ में नहीं आ रहा था, मंगर से क्या काम ले। वह कुछ देर 
              अपने मित्रों से फोनबाजी करता रहा, फिर उसने अपना ब्रीफकेस उठाया और 
              बाहर निकलते हुए बोला, ‘‘फोन की घंटी बजे तो फोन उठाकर नाम और फोन 
              नं. लिख लेना।’’ 
              ‘‘हम लिखना नहीं जानते साब।’’ 
              ‘‘नर्स लिखना जानती है?’’ 
              ‘‘हाँ साब, वह घर पर बोलती भी है। नो... येस... थेंक्यू, कहती रहती 
              है। डॉ. बापट का फोन वही सुनती थी। साब एक बात बताएँ, डॉ. बापट उसे 
              लाईन भी मारता था।’’ 
              सम्पूरन को इस शख्स पर गुस्सा भी आ रहा था। उसे लग रहा था, इस शख़्स 
              को चपरासी बनाने के लिए भी बहुत माँजना पड़ेगा, मगर वह जिस खुलेपन से 
              नर्स का परिचय दे रहा था, वह उससे आकर्षित भी हो रहा था। 
              ‘‘कल से घर की पेंटिंग के काम की गति बढ़ाओ। दीवारों की मँजाई के लिए 
              दो मजदूर लगा दो। इस इम्तिहान में पास हो गये तो तुम्हें मिस्त्री 
              बना दूँगा।’’ 
              ‘‘आज से ही क्यों न काम शुरू करवा दूँ। इस वक्त आधी दिहाड़ी पर मजदूर 
              मिल जाएँगे।’’ 
              ‘‘कहाँ?’’ 
              ‘‘मैं सब जानता हूँ साब। दिहाड़ी न मिलने पर पैंची वहीं गम-गलत किया 
              करता था।’’ 
              ‘‘ठीक है, तुम आओ और शाम को मैं वहीं मिलूँगा। पहले सीढिय़ों को 
              चमकाओ, सीढिय़ाँ चढ़ते हुए लगता है किसी अँधेरे कुएँ में जा रहा 
              हूँ।’’ 
              ‘‘एकदम फ़िल्म की माफिक कर दूँगा सीढिय़ाँ। मैंने फिलमिस्तान में भी 
              काम किया है साब।’’ मंगर ने दुबारा बीड़ी सुलगा ली थी। 
              ‘‘तुम्हारी सास आ जाए तो नर्स से मिलवा देना। फोन पर उसे ही बैठाऊँगा 
              और बापट की तरह लाइन भी नहीं मारूँगा।’’ 
              सम्पूरन ने उसे फ्लैट की चाबी सौंपी और दफ्तर बन्द करने को कहा, 
              ‘‘दफ्तर की चाबी दे दो, मुझे जरूरी काम से कहीं जाना है।’’ 
              मंगर ने दफ्तर में ताला लगाकर चाबी सम्पूरन को सौंप दी और उसके साथ 
              सडक़ पर आ गया। सम्पूरन ने टैक्सी ली और चर्चगेट की तरफ चल दिया। 
              शिवेन्द्र से मिले बहुत दिन हो गये थे। मंगर ने सम्पूरन को टैक्सी 
              में बैठते देखा तो पटरी पार करते हुए बस की कतार में लग गया। वह दादर 
              की बस का इन्तजार करने लगा। 
               
               
               
               
               
               
                
              गुलशन का कारोबार 
                
               
              शिवेन्द्र के यहाँ पता चला कि साहब अभी सो रहे हैं। बरामदे में 
              दो-तीन लोग और बैठे थे। सम्पूरन ने सोचा जरूर बक़ायेदार होंगे, जो 
              बिना फोन किए चले आये। वे लोग आपस में भी बातचीत नहीं कर रहे थे। 
              शक्ल-सूरत से दो गुजराती और एक पंजाबी लग रहा था। पंजाबी परेशान नजर 
              आ रहा था और बार-बार अपनी घड़ी की तरफ देख रहा था, बीच में वह उठकर 
              टहलने लगता और सिगरेट के लम्बे-लम्बे कश खींच कर धीरे-धीरे धुआँ 
              खारिज करता। गुजराती बन्धु कुर्सी पर किसी मूर्ति की तरह स्थापित थे, 
              निर्विकार और निर्वाक। वे जैसे ध्यान में लीन थे। मेज पर कई 
              पत्र-पत्रिकाएँ पड़ी थीं, वे उनके लिए अर्थहीन थीं। सम्पूरन एक 
              कुर्सी पर धँस गया और एक फ़िल्मी पत्रिका के पन्ने पलटने लगा। पत्रिका 
              पढऩे में मन न लगा तो वह जेब से कलम निकालकर अभिनेत्री की मूँछें 
              बनाने लगा। उसे ज्यादा देर प्रतीक्षा न करनी पड़ी, नौकर आकर चाय के 
              तीन-चार प्याले रख गया और केतली से गर्म-गर्म चाय उड़ेलने लगा। 
              गुजरातियों ने हाथ के इशारे से चाय के लिए मना कर दिया। सम्पूरन ने 
              पत्रिका बन्द की और अपना प्याला उठा लिया। पंजाबी ने भी अपना प्याला 
              उठा लिया। खड़े-खड़े चाय की चुस्कियाँ लेने लगा। नौकर ने भीतर से एक 
              और कुर्सी लाकर वहाँ रख दी। 
              नीचे सडक़ पर ट्रेफिक की आवाज क़ायम थी। बीच-बीच में चर्चगेट से 
              गाडिय़ों के आवागमन का भी शोर सुनायी पड़ता। इससे पूर्व कि उठकर 
              सम्पूरन वहाँ से भाग निकलता, अचानक शिवेन्द्र नमूदार हुआ। उसके दोनों 
              हाथों में प्लास्टिक की दो पन्नियाँ थीं, सफेद रंग की। पन्नियों के 
              भीतर से रुपयों की गड्डियाँ झाँक रही थीं। उसने नि:शब्द दोनों 
              गड्डियाँ दोनों गुजरातियों को सौंपकर नमस्कार की मुद्रा में हाथ जोड़ 
              दिये। दोनों ने गड्डियाँ लीं और बगैर पन्नियों की जाँच-पड़ताल किये 
              दरवाजा खोलकर फ्लैट से बाहर हो गये। शिवेन्द्र को यों रुपये बाँटते 
              देख तीसरे सज्जन के चेहरे पर जैसे कालिख पुत गयी। 
              ‘‘मेरे लिये क्या कहते हो?’’ उसने शिवेन्द्र की बगल में कुर्सी पर 
              धँसते हुए पूछा। 
              ‘‘वही, जो हर बार कहता हूँ।’’ शिवेन्द्र ने अपने हाउसकोट से कुछ 
              रुपये निकालकर उसकी मुट्ठी बन्द कर दी, ‘‘बेस्ट ऑव लक।’’ 
              ‘‘कहो बरखुरद्दार, कहाँ तक पहुँची तुम्हारी गाड़ी?’’ उसने सम्पूरन की 
              तरफ मुड़ते हुए पूछा। 
              ‘‘मेरी गाड़ी पैसेंजर जरूर है, मगर टाइमटेबल के मुताबिक चल रही है।’’ 
              सम्पूरन ने बताया, ‘‘फ्लैट की पुताई चल रही है।’’ 
              ‘‘अरे वाह! कोई बाधा तो नहीं आयी।’’ 
              ‘‘मेरे साथ उल्टा हो रहा है। कई प्रेत बाधाएँ कट गयीं।’’ सम्पूरन ने 
              जेब से पर्स निकालकर दिखाया, ‘‘यह सारी दौलत उसी फ्लैट में मिली 
              है।’’ 
              ‘‘तुम भी किसी प्रेत से कम नहीं हो। लगता है प्रेतों पर भारी ही 
              पड़ोगे।’’ शिवेन्द्र ने कहा, ‘‘तुम्हारा पर्स देखकर तो शक हो रहा 
              है।’’ 
              ‘‘पर्स भी फ्लैट से ही बरामद हुआ है।’’ सम्पूरन ने ठहाका लगाया, 
              ‘‘मेरी तो लाटरी लग गयी।’’ 
              ‘‘शनिवार को मेरी लाटरी लगी थी, सवा लाख लाया था रेसकोर्स से। मेरी 
              जान को भी एक प्रेत लगा है, यह जिन्दगी कितनी हसीन है। सुबह से आधी 
              रकम बाँट चुका हूँ। पैसा होता है तो मैं खुद ही लेनदारों को फोन करके 
              बुलवा लेता हूँ।’’ 
              ‘‘यह आखिरी शख्स कौन था?’’ 
              ‘‘यह भी मेरे साथ हसीन जिन्दगी के ख्वाब देख रहा था। इसी चक्कर में 
              तीन लड़कियाँ पैदा हो गयीं। आज चौथी लडक़ी पैदा होने जा रही है। मैं 
              जानता हूँ, इस बार भी लडक़ी ही पैदा होगी।’’ 
              ‘‘आप कैसे जानते हैं?’’ 
              ‘‘मुझे इलहाम हो जाता है।’’ शिवेन्द्र ने कहा और चुरुट जला लिया। 
              ‘‘कब तक तैयार हो जाएगा तुम्हारा फ्लैट?’’ उसने पूछा। 
              ‘‘दो-एक दिन में।’’ सम्पूरन ने गाय हाँकी, मगर जल्द ही अपने को 
              दुरुस्त किया, ‘‘ज्यादा से ज्यादा एक सप्ताह में।’’ 
              ‘‘हाउस वार्मिंग पार्टी थ्रो करो।’’ शिवेन्द्र ने सुझाव दिया। 
              ‘‘जरूर।’’ सम्पूरन ने कहा। उसे ‘हाउस वार्मिंग पार्टी’ का मतलब भी 
              नहीं मालूम था। उसने सोचा, किसी से पूछ लेगा। हाउस वार्मिंग के साथ 
              ‘पार्टी’ शब्द से वह आश्वस्त हो गया कि जरूर कोई पार्टी-वार्टी किस्म 
              की चीज़ होगी। अचानक उसे शुक्लाजी की याद आयी, जो मध्य रेलवे में 
              हिन्दी अधिकारी थे। वहीं बैठे-बैठे उसने तय कर लिया कि शिवेन्द्र के 
              यहाँ से उठकर वी.टी. स्टेशन पर जाएगा। वी.टी. स्टेशन की बगल में ही 
              शुक्लाजी का दफ्तर था। दो-एक बार उसने मिसेज शुक्ला के हाथ के भरवा 
              पराँठे खाये थे और उनके यहाँ स्वर्ण ही उसे ले गया था। उसने तय किया 
              कि वह पार्टी में शुक्ला लोगों को भी बुलवाएगा। उस पार्टी में उसके 
              भी कुछ मित्र रहने चाहिए और काफी क्लायंट भी। 
              ‘‘ठीक है बरखुदार। फ्लैट तैयार हो जाए तो मुझे फोन करना।’’ शिवेन्द्र 
              ने सम्पूरन को खयालों में से जगाया। वह तुरन्त ही नमस्कार करके वहाँ 
              से विदा लेकर विक्टोरिया टर्मिनस की तरफ चल पड़ा। अचानक सम्पूरन को 
              अपने सामने पाकर बलदेव कृष्ण शुक्ला का चेहरा खिल गया। दफ्तर में 
              बैठने के लिए दूसरी कुर्सी नहीं थी, शुक्ला सम्पूरन के साथ नीचे उतर 
              आये, सडक़ पार कर एक ईरानी के यहाँ दोनों आमने-सामने की कुर्सियों पर 
              आसीन हो गये। 
              ‘‘आज हमारी याद कैसे आ गयी!’’ 
              ‘‘याद तो कई बार आयी, मगर आज कुछ इतनी शिद्दत से आई कि अपने को रोक न 
              पाया। शिवाजी पार्क में फ्लैट लिया है, जल्द ही ‘हाउस वॉर्मिंग 
              पार्टी’ देने जा रहा हूँ, सोचा आपको पूर्व सूचना देता चलूँ।’’ 
              ‘‘अमाँ क्या कह रहे हो? फ्लैट, वह भी बम्बई में? शिवाजी पार्क में? 
              क्या लाटरी लग गयी?’’ 
              ‘‘यही समझिये।’’ 
              ‘‘शिवाजी पार्क में कहाँ?’’ 
              ‘‘सी फेस।’’ 
              ‘‘मजाक मत करो सम्पूरन। मैं बीस बरस से भारत सरकार की सेवा कर रहा 
              हूँ और मियाँ-बीवी मिलकर मुश्किल से गोरेगाँव में जगह ढूँढ पाये हैं 
              और तुम तो आज कुछ ज्यादा ही लम्बी हाँक रहे हो।’’ शुक्लाजी सम्पूरन 
              को ऊपर से नीचे कुछ इस अदा से देख रहे थे जैसे पहचान न रहे हों। 
              ‘‘दीपाजी का क्या हाल है?’’ 
              ‘‘मजे में हैं।’’ 
              ‘‘तो इस रविवार को आ रहा हूँ, पराँठे खाने।’’ सम्पूरन ने कहा, 
              ‘‘स्वर्ण मिला तो उसे भी लेता आऊँगा।’’ 
              ‘‘स्वर्ण से वह नाराज है। आओगे तो बताएगी।’’ शुक्लाजी बोले, ‘‘यह 
              सरकारी नौकरी अब मुझसे नहीं होती। न कोई काम न काज, ऊपर से आठ घंटे 
              की लम्बी कवायद। सोचता हूँ, लम्बी छुट्टी लेकर घर पर कोई धन्धा शुरू 
              कर दूँ।’’ 
              ‘‘इतवार को बात करेंगे।’’ सम्पूरन बोला। उसके दिमाग में कौंधा कि 
              शुक्लाजी के साथ मिलकर पेंटिंग का धन्धा क्यों न शुरू किया जाए! इस 
              शख्स को काम की तलाश है और मुझे एक क्लर्क सहयोगी की। 
              दोनों ने कॉफी पी और उठते हुए सम्पूरन ने उनसे पूछ ही लिया, 
              ‘‘शुक्लाजी यह ‘हाउस वॉर्मिंग पार्टी’ क्या होती है?’’ 
              ‘‘तो तुम अब तक मुझे बेवकूफ बना रहे थे?’’ 
              ‘‘ऐसा कैसे सोच रहे हैं आप! आपसे झूठ बोलूँगा तो सच किससे बोलूँगा! 
              यह फ्लैट ही कुछ ऐसा है जो सुनता है आपकी तरह ही सोचता है। एक मित्र 
              ने सुझाव दिया कि ‘हाउस वार्मिंग पार्टी’ होनी चाहिए, वहाँ तो मैं 
              मान गया मगर सौं रब्ब दी, मुझे इसका मतलब ही नहीं मालूम।’’ 
              ‘‘हिन्दी में इसका अनुवाद होगा, गृहप्रवेश।’’ शुक्लाजी ने एक पेशेवर 
              अनुवादक की तरह कहा, ‘‘गृहप्रवेश पर लोग मौज-मस्ती करते हैं, इसी को 
              कहते हैं हाउस वॉर्मिंग पार्टी।’’ 
              सम्पूरन ने तुरन्त अपना निमन्त्रण पेश किया, ‘‘आप लोग तो पार्टी में 
              आएँगे ही, मगर इससे पहले आप लोगों को आना होगा। जब तक मिसेज शुक्ला 
              के कदम न पड़ेंगे, चाय का जुगाड़ भी न होगा। इस शनिवार को आप दोनों 
              आएँ। इतवार शाम तक मेरे साथ ही रहें। पिंकी को भी अच्छा लगेगा।’’ 
              शुक्लाजी ने यह निमन्त्रण स्वीकार कर लिया। यह कम्बख्त शहर ही ऐसा था 
              कि बहुत कम लोगों से आत्मीय घरेलू सम्बन्ध स्थापित हो पाते थे। 
              छुट्टी का दिन जाएँ तो जाएँ कहाँ के अन्दाज में शुरू होता था और इसी 
              उधेड़बुन में खत्म। पवईलेक वे लोग दसियों बार हो आये थे, हैंगिंग 
              गार्डेन के तो नाम से ही अब मिसेज शुक्ला नाराज़ हो जाती थीं। 
              शुक्लाजी इस निमन्त्रण को पाकर सचमुच तरोताज़ा महसूस करने लगे। 
              सम्पूरन ने फ्लैट का ऐसा सुहाना वर्णन किया कि शुक्लाजी की इच्छा 
              होने लगी कि अभी जाकर देख आएँ। 
              ‘‘फ्लैट समुद्र के इतना नजदीक है कि समुद्र जब हाई टाइड में होता है 
              तो उसके छींटे कमरे में पडऩे लगते हैं।’’ सम्पूरन उत्साह में बता रहा 
              था, ‘‘दादर स्टेशन इतना पास है कि आपको जल्दी न हो तो खरामा-खरामा 
              पैदल जा सकते हैं। अगर टैक्सी लेने की जरूरत पड़ भी जाए तो खर्चा एक 
              रुपये से भी कम यानी सिर्फ साठ पैसे।’’ 
              ‘‘यह तय रहा, हम लोग दादर से टैक्सी से ही आएँगे।’’ शुक्लाजी ने उठते 
              हुए कहा। 
              ‘‘शुक्लाजी आपसे एक और जरूरी काम है। कल मैंने इंटरव्यू के लिए कुछ 
              लोगों को बुला रखा है। मगर मुझे इंटरव्यू लेना नहीं आता। क्या मेरे 
              लिए आप एक दिन की छुट्टी ले सकते हैं?’’ 
              ‘‘कितने बजे इंटरव्यू है?’’ 
              ‘‘ग्यारह बजे।’’ 
              ‘‘छुट्टी लेने की जरूरत नहीं है। मैं दस्तखत करके आ जाऊँगा। मगर मुझे 
              क्या मिलेगा?’’ 
              सम्पूरन ने कहा, ‘‘टैक्सी का आने-जाने का भाड़ा क्लिफ्टन पार्क एंड 
              ली की तरफ से। साथ में चाइनीज लंच। आप इंटरव्यू लेते रहना, मैं देखता 
              रहूँगा।’’ 
              ‘‘मंजूर है।’’ शुक्लाजी ने कहा, ‘‘किस पद के लिए इंटरव्यू है?’’ 
               
              ‘‘एक तो पर्सनल असिस्टेंट चाहिये। स्मार्ट, सुन्दर और अँग्रेजी में 
              बातचीत करने वाली लडक़ी और एक टेलीफोन ऑपरेटर।’’ 
              ‘‘यह बताओ, तुम्हारी फर्म काम क्या करती है?’’ 
              ‘‘काम मैं पैदा कर लूँगा। मेरी तो इच्छा है, छह महीने की छुट्टी लेकर 
              आप मेरे पार्टनर बन जाइए। मैं अपनी कम्पनी में एक पेंटिंग डिवीजन भी 
              खोलना चाहता हूँ, उसमें आप मेरे पार्टनर हो जाइए। बहुत मार्जिन है। 
              क्या दिन भर दफ्तर में बैठकर कुर्सी तोड़ते रहते हैं!’’ 
              शुक्लाजी दोबारा कुर्सी पर बैठ गये, उन्होंने दो कोक मँगवाये और 
              बोले, ‘‘फॉर ए चेंज, आइडिया बुरा नहीं है।’’ 
              ‘‘मैंने एक पेन्टर को पटाया है। कल मिलवाऊँगा। उसकी बीवी पेशे से 
              नर्स है, मगर मैं उसे टेलीफोन ऑपरेटर के पद पर रखना चाहता हूँ, वैसे 
              मैंने अभी उसे देखा नहीं।’’ 
              ‘‘सम्पूरन, तुम कब तक खयाली पुलाव पकाते रहोगे। ऐसे कहीं दफ्तर 
              एस्टेब्लिश होता है! लोग पहले धन्धा जमाते हैं, फिर दफ्तर खोलते हैं, 
              तुम्हारे तो रंग-ढंग ही निराले हैं। पहले दफ्तर खोल रहे हो और काम का 
              दूर-दूर तक पता ठिकाना नहीं है।’’ 
              ‘‘मुआफ कीजिये शुक्लाजी, आपकी मानसिकता एक बाबू की होती जा रही है। 
              यह इतना बड़ा शहर है, यहाँ दौलत का समुद्र बहता है। यहाँ मैंने लोगों 
              को खकपति से लखपति बनते देखा है। फुटपाथ से उठकर आसमाँ तक पहुँचते 
              देखा है। बस जरा सूझबूझ होनी चाहिए।’’ 
              ‘‘वही तो तुम ‘लैक’ कर रहे हो।’’ 
              सम्पूरन ने ठहाका लगाया, ‘‘आप मुझे सिर्फ छह महीने का समय दीजिये फिर 
              देखिये, मैं क्या से क्या कर दिखाता हूँ।’’ 
              ‘‘दिया।’’ शुक्लाजी ने अपना वरदहस्त उठाते हुए कहा। शुक्लाजी सिगरेट 
              नहीं पीते थे, सम्पूरन की देखा-देखी उन्होंने एक सिगरेट सुलगा ली और 
              हाथ हिलाते हुए अपने दफ्तर की तरफ चल दिये। 
               
               
              सम्पूरन ने टैक्सी पकड़ी और दादर की तरफ चल दिया। वह वीटी से ट्रेन 
              भी पकड़ सकता था और ट्रेन में टैक्सी से पहले पहुँच सकता था, मगर 
              उसने अपनी जीवन शैली में यक़ायक कोई तब्दीली लाना मुनासिब न समझा। 
              फ्लैट पर पहुँचकर उसने देखा, मंगर सर पर कफन की तरह साफा बाँधे सबसे 
              पहली सीढ़ी पर बैठा समुद्र की तरफ धुआँ छोड़ते हुए बीड़ी फूँक रहा 
              था। सम्पूरन को देखकर वह खड़ा नहीं हुआ और उसकी तरफ ऐसे देखा जैसे 
              उसने आने में बहुत देर कर दी हो। 
              ‘‘इस तरह गुमसुम क्यों बैठे हो?’’ सम्पूरन ने पूछा। 
              ‘‘काम नहीं होता तो हमारा मन नहीं लगता।’’ 
              ‘‘तो काम करो।’’ 
              ‘‘मेटीरियल ही नहीं है।’’ उसने कहा। 
              सम्पूरन ने उससे सामान का दाम पूछा और उसे पाँच रुपये ज्यादा दे 
              दिये, ‘‘ये लो पैसे। कब तक काम पूरा कर लोगे?’’ 
              ‘‘दालान भी होगा?’’ 
              ‘‘दालान भी, किचेन भी, बाथरूम भी।’’ सम्पूरन ने जेब से सौ का नोट 
              निकालकर उसे दिया और बोला, ‘‘तुम काम खत्म करो तो पार्टी की जाए।’’ 
              मंगर पार्टी का एक ही मतलब समझता था, उसने हाथ की उँगुलियाँ मोड़ते 
              हुए अँगूठे से बोतल का आकार बनाया और होठों तक ले गया, ‘‘बस एक हफ्ते 
              में लीजिये।’’ 
              ‘‘मंगर कल सुबह नर्स को दफ्तर लेकर आना।’’ 
              मंगर ने काम नहीं पूछा, बोला, ‘‘बच्चे का क्या होगा?’’ 
              ‘‘बच्चे को भी ले आना।’’ 
              जान क्यों सम्पूरन के मन में नर्स को लेकर बहुत जिज्ञासा हो रही थी। 
              वह जानना चाहता था कि मंगर में ऐसी कौन-सी विशेषता है कि एक नर्स ने 
              एक मजदूर से शादी करना मुनासिब समझा। 
               
               
              अगले रोज इंटरव्यू से आधा घंटा पहले सम्पूरन दफ्तर पहुँच पाया। मंगर 
              ने एक छोटा-सा बच्चा गोद में उठा रखा था और उसकी बीवी नर्सोचित गरिमा 
              के साथ हाथ में पर्स लिये यों खड़ी थी जैसे मंगर उसका पति न होकर 
              घरेलू कर्मचारी हो। नर्स तीखे नयन नक्श वाली एक कोंकणी महिला लगती 
              थी। उसके बाल घुँघराले और लम्बे थे, बालों में सिन्दूर नहीं था और 
              उसे देखकर लग ही नहीं रहा था कि वह विवाहिता है और एक बच्चे की माँ 
              भी। सम्पूरन को देखकर मंगर ने बच्चा अपनी पत्नी के हवाले कर दिया और 
              चाबी लेकर दफ्तर का ताला खोलने लगा। भीतर जाकर उसने चाबुकदस्ती से 
              सम्पूरन की कुर्सी को झाड़-पोंछकर बैठने का इशारा किया। उसकी पत्नी 
              बाहर ही खड़ी रह गयी। 
              सम्पूरन ने एक बेंच की तरफ इशारा करते हुए कहा, ‘‘इसे बाहर बरामदे 
              में रख दो। मिलने वालों को भी बैठाना।’’ उसके बाद अपनी व्यस्तता 
              दिखाने के लिए सम्पूरन फोन पर जुट गया और अपनी डायरी देखकर गड़े 
              मुर्दे उखाडऩे लगा। प्रकाश का फोन नम्बर देखकर उसने बरट्रोली फोन 
              मिलाया। प्रकाश और वह एक ही ट्रेन से बोरीबन्दर पर उतरे थे। कुछ दिन 
              वे साथ-साथ रहे थे, प्रकाश के एक परिचित के यहाँ वर्सोवा में। प्रकाश 
              को अपने मित्र के हवाले से बरट्रोली में मैनेजरी मिल गयी थी। 
              बरट्रोली में रिंग जा रही थी, मगर किसी ने फोन ही न उठाया। वह अपनी 
              डायरी में कोई और नाम टटोलता, इससे पहले ही शुक्लाजी दफ्तर में दाखिल 
              हुए। सम्पूरन को कुर्सी पर विराजमान देखकर उन्होंने एक जोरदार ठहाका 
              बुलन्द किया। 
              शुक्लाजी सूट और टाई में लैस थे। सम्पूरन ने उन्हें पहली बार इस 
              औपचारिक पोशाक में देखा था। उनके ताज़ा पालिश किये जूते भी चमचमा रहे 
              थे। सम्पूरन के मन में पहला ख्याल यह आया कि किसी खास मौके के लिये 
              शुक्लाजी से सूट माँगा जा सकता है। 
              ‘‘आज तो आप मध्य रेलवे के जी.एम. से कम नहीं लग रहे।’’ 
              ‘‘आखिर तुम्हारी क्लिफ्टन पार्क एंड ली के लिए इंटरव्यू लेने आया 
              हूँ!’’ 
              सम्पूरन ने भी अपनी टाई का नॉट ठीक किया। 
              ‘‘उम्मीदवार कहाँ हैं?’’ शुक्लाजी ने पूछा। 
              ‘‘आते ही होंगे। दो दिन से टाइम्स में विज्ञापन छप रहा है। देखिये आज 
              भी छपा है।’’ सम्पूरन ने रेखांकित किया विज्ञापन शुक्लाजी को दिखाया। 
              ‘‘बाहर एक औरत खड़ी है। वह पेशे से नर्स है और हमारे हाउस पेंटिंग 
              डिपार्टमेंट के एकमात्र कर्मचारी मंगर की बीवी।’’ 
              ‘‘मंगर कौन है?’’ 
              ‘‘वही, जो अभी-अभी बेंच उठाकर बाहर गया है। बहुत काम का आदमी है। 
              मेरा घर यही पेंट कर रहा है। नर्स गुजारे लायक अँग्रेजी जानती है। 
              उसी के इंटरव्यू से काम शुरू किया जाए।’’ 
              ‘‘ठीक है बुलाओ।’’ 
              सम्पूरन ने घंटी बजायी। मंगर कमरे में दाखिल हुआ। 
              ‘‘कोई आया?’’ 
              ‘‘दो लड़कियाँ और एक लडक़ा आया है।’’ 
              ‘‘सबसे पहले नर्स को भेजो।’’ 
              मंगर बाहर चला गया। नर्स दाखिल हुई। 
              ‘‘बैठिये।’’ शुक्लाजी ने कहा। 
              वह सामने पड़ी कुर्सी पर आसीन हो गयी। 
              ‘‘कहाँ तक पढ़ी हैं?’’ 
              ‘‘इंटर तक। नर्सिंग का डिप्लोमा भी किया है।’’ 
              ‘‘किसी नर्सिंग होम में ट्राई क्यों नहीं करतीं?’’ 
              जवाब में वह मुस्करायी। शुक्लाजी ने सम्पूरन की तरफ देखा। 
              ‘‘हो सकता है, हम भविष्य में नर्सिंग होम भी खोलें। वह भी अच्छा 
              व्यवसाय है।’’ सम्पूरन ने कहा। 
              ‘‘टेलीफोन पर बैठना पसन्द करेंगी?’’ 
               
              ‘‘अभी मेरा मुन्ना बहुत छोटा है।’’ 
              सम्पूरन अभी उससे और बातचीत करना चाहता था, शुक्लाजी ने उसे खारिज 
              करते हुए कहा, ‘‘छह महीने बाद सम्पर्क करें।’’ और कागज पलटने लगे। 
              सम्पूरन ने देखा, दरवाजे के पास मंगर खड़ा था, बच्चे को गोद में 
              लिये। बच्चा भी इतना समझदार था कि जब से आया था एक बार भी नहीं रोया। 
              वह टुकुर-टुकुर सम्पूरन की तरफ देखता रहा। 
              ‘‘मंगर अपनी फैमिली को घर छोडक़र मोर्चे पर तैनात हो जाओ। एक हफ्ते 
              में काम पूरा करना है। पैसे की जरूरत पड़े तो आकर ले जाना।’’ 
              दोनों मियाँ-बीवी कमरे से रुखसत हो गये। 
              ‘‘जाते हुए अगले आदमी को भेजते जाना।’’ 
              मुटिठयों में एक छोटा-सा पर्स थामे एक लडक़ी दाखिल हुई। 
              ‘‘नाम?’’ लडक़ी बैठ गयी तो शुक्लाजी ने पूछा। 
              ‘‘मारिया।’’ उसने कहा। 
              ‘‘एक्सपीरिएन्स?’’ 
              ‘‘पाल एंड पाल में दो बरस तक रिसेप्शनिस्ट का काम किया है।’’ 
              ‘‘वहाँ से क्यों छोड़ दिया?’’ 
              ‘‘माहौल लड़कियों के माफिक नहीं था।’’ 
              ‘‘गुड।’’ शुक्लाजी ने पूछा, ‘‘क्या मिलता था?’’ 
              ‘‘सवा सौ रुपये।’’ 
              ‘‘कितने एक्सटेंशन थे?’’ 
              ‘‘सात।’’ मारिया बोली, ‘‘मगर लाइनें बहुत कम व्यस्त रहती थीं।’’ 
              ‘‘शार्ट हैंड जानती हैं।’’ 
              ‘‘जानती हूँ।’’ 
              ‘‘टाइपिंग?’’ 
              ‘‘वह भी।’’ 
              ‘‘कहाँ रहती हैं?’’ 
              ‘‘सान्ताक्रूज, इरला में।’’ 
              ‘‘कितना एक्सपेक्ट करती हैं?’’ 
              मारिया ने चारों तरफ देखा, दफ्तर की हालत देखकर उसने कहा, ‘‘जो 
              मुनासिब समझें।’’ 
              ‘‘ठीक है, आप अभी बाहर बैठें। अगले उम्मीदवार को भिजवा दें।’’ 
              एक लडक़ा दाखिल हुआ। शक्ल से ही परेशान लग रहा था— उसने फ़िल्मी 
              अन्दाज़ में अभिवादन किया। 
              ‘‘किस पद के लिये आए हैं?’’ शुक्लाजी ने पूछा। 
              ‘‘ग्रेजुएट हूँ, मगर किसी भी पद पर काम कर लूँगा।’’ 
              लडक़ा शक्ल-सूरत से अच्छा लग रहा था, वह कुछ-कुछ इस अन्दाज़ में दाखिल 
              हुआ था, जैसे स्टूडियो में कोई शॉट देने आया हो। 
              सम्पूरन पूछ ही बैठा, ‘‘क्या हीरो बनने आये थे बम्बई?’’ अपनी बात से 
              व्यंग्य का दंश हटाने की गर्ज से सम्पूरन ने कहा, ‘‘मैं भी इसी गजऱ् 
              से आया था।’’ 
              ‘‘एक लाख रुपये लेकर घर से भागा था। दोस्त और दलाल लोग सब हजम कर 
              गये। कुछ पैसा तो नामी-गिरामी हस्तियों ने भी फूँक डाला। मगर अब 
              दुनिया को समझने लगा हूँ। माँ-बाप ने अलग से बेदखल कर दिया। इस वक्त 
              मेरे पास एक लाख और होता तो कामयाब हो जाता।’’ लडक़े ने कहा, ‘‘मगर 
              मैं छोड़ूँगा नहीं। इसी बम्बई से सब वसूल करूँगा।’’ 
               
              ‘‘मेरे लिए क्या हुक्म है?’’ 
              ‘‘तुम पहले मिले होते तो तुम्हें पार्टनर बना लेता।’’ सम्पूरन ने 
              कहा, ‘‘मेरी हैसियत नहीं है तुम्हें काम पर रख सकूँ। तुम्हारे घर 
              वालों को तो बहुत सदमा लगा होगा आपके भागने से।’’ 
              ‘‘सदमा तो लगा होगा। जाऊँगा तो स्वीकार भी कर लेंगे। बाप की इकलौती 
              सन्तान हूँ।’’ 
              ‘‘क्या करते हैं आपके पिता?’’ शुक्लाजी ने पूछा। 
              ‘‘साहूकार हैं। सोने-चाँदी का छोटा-मोटा करोबार है। गरीब गुरबा जेवर 
              रेहन रखकर कर्ज ले जाते हैं और जिन्दगी भर छुड़ा नहीं पाते। यही सब 
              करते हैं मेरे पिता।’’ 
              ‘‘तुम लौट क्यों नहीं जाते?’’ 
              ‘‘एक न एक दिन लौटना पड़ेगा।’’ 
              ‘‘वैसे क्या एक लाख में सबक महँगा नहीं पड़ा?’’ 
              ‘‘नहीं। अब तक मैं अनाड़ी था, मगर अगली बार मुझे कोई बेवकूफ न बना 
              पाएगा।’’ 
              ‘‘एक बार फिर आओगे?’’ सम्पूरन ने पूछा। 
              ‘‘जरूर आऊँगा, चाहे पाँच साल लग जाएँ। एक ही खतरा है। इलाहाबाद लौटते 
              ही घर वाले कहीं पकडक़र शादी न कर दें।’’ 
              ‘‘यह विकल्प भी बुरा नहीं है।’’ शुक्लाजी ने कहा। 
              ‘‘मैं सफलता से ही शादी करूँगा। यह मेरा आखिरी फैसला है।’’ 
              ‘‘तुम्हारा स्थानीय पता क्या है? तुम्हारे कुछ काम आ सकूँ, पता तो 
              मालूम रहना चाहिए।’’ 
              ‘‘फिलहाल कोई पता नहीं। हाँ एक पता है, चन्दन कुमार, चौपाटी बम्बई।’’ 
              उसकी बात पर तीनों ने ठहाका लगाया। 
              ‘‘आपके लिये एक काम अभी कर सकता हूँ।’’ शुक्लाजी ने कहा। 
              ‘‘कौन-सा काम?’’ 
              ‘‘यही कि इलाहाबाद की गाड़ी का टिकट दिलवा सकता हूँ।’’ 
              ‘‘आप मुझ पर दया कर रहे हैं?’’ 
              ‘‘नहीं, तुम अपनी अँगूठी रेहन रख जाओ।’’ 
              लडक़े ने अपनी चमचमाती अँगूठी निकालकर शुक्लाजी को सौंप दी। शुक्लाजी 
              ने अँगूठी पहनते हुए कहा, ‘‘मुझे उम्मीद है तुम अपनी अँगूठी जरूर 
              छुड़वा लोगे।’’ 
              तय पाया गया कि लडक़ा सुबह शुक्लाजी के दफ्तर से अपना टिकट कलेक्ट कर 
              लेगा। उसने गले में पहनी चेन दिखाते हुए बोला, ‘‘वैसे अभी यह भी 
              है।’’ 
              ‘‘कोई उम्मीदवार हो तो जाते हुए अन्दर भिजवा देना।’’ 
              लडक़ा सम्पूरन और शुक्लाजी से हाथ मिलाकर बड़ी शाइस्तगी से बाहर चला 
              गया। 
              ‘‘अँगूठी खूबसूरत है।’’ शुक्लाजी ने अपनी अँगुली पर अँगूठी घुमाते 
              हुए कहा। 
              ‘‘वह कुछ देर और रुकता तो अपना गले का हार भी उतार जाता।’’ सम्पूरन 
              ने कहा, ‘‘शुक्लाजी आप भी किसी साहूकार से कम नहीं हैं। बैठे-बैठे एक 
              तोले सोने की अँगूठी झटक ली।’’ 
              ‘‘वैसे हार ज्यादा खूबसूरत था। मेरी निगाह नहीं पड़ी वरना वही उतरवा 
              लेता।’’ 
              वे लोग हँसी-मजाक कर रहे थे कि एक छरहरी-सी लडक़ी कमरे में आकर न जाने 
              कब खड़ी हो गयी। 
              ‘‘आइए, आइए बैठें।’’ शुक्लाजी ने उसे देखते ही कहा। 
              लडक़ी आकर्षक थी, स्लिम, गम्भीर और मासूम। उसे देखकर पहली नजर में ही 
              लगता था कि उसने जीवन में पहली बार साड़ी पहनी है। वह दोनों हाथों से 
              कन्धे से झूल रहा पल्लू थामकर खड़ी थी। 
              ‘‘आप किस पद के लिए आयी हैं?’’ 
              ‘‘मुझे काम चाहिए। मैं कुछ भी कर लूँगी। मेहनत और निष्ठा से काम 
              करूँगी।’’ 
              सम्पूरन को निष्ठा का अर्थ नहीं मालूम था, उसने अनुमान लगाया कि जरूर 
              कोई अच्छी क्वालिफिकेशन होगी। 
              ‘‘कहाँ तक पढ़ी हैं?’’ 
              ‘‘बी.ए. का इम्तिहान दिया है।’’ 
              ‘‘रिज़ल्ट कैसा रहा?’’ 
              ‘‘सो सो।’’ उसने कहा। 
              ‘‘लगता है, आपने मेहनत और निष्ठा से पढ़ाई नहीं की।’’ 
              वह मुस्करा दी। सम्पूरन ने देखा, उसके दाँत होंठों को छू रहे थे। 
              उसके मसूढ़ों की भी एक झलक मिल गयी। 
              ‘‘आपके घर में कौन-कौन हैं?’’ सम्पूरन ने पूछा। 
              ‘‘माता-पिता तथा हम चार भाई-बहन।’’ 
              ‘‘तब तो बड़ा घर होगा?’’ 
              वह इस प्रश्न के लिए तैयार नहीं थी, उसने कहा, ‘‘काम चल जाता है।’’ 
              सम्पूरन ज्यादा जानकारी लेना चाहता था, मगर उसने मुनासिब न समझा। 
              लेकिन लडक़ी उसे भा गयी। 
              ‘‘हमारे पास दो जगहें हैं। एक रिसेप्शनिस्ट की और दूसरी सेके्रटरी 
              की।’’ 
              ‘‘क्या करना होगा?’’ 
              ‘‘टेलीफोन पर बैठना होगा और आने वालों का स्वागत करना होगा।’’ 
              ‘‘सीख लूँगी।’’ 
              ‘‘यह कोई कोचिंग इंस्टीट्यूट नहीं है।’’ शुक्लाजी ने पूछा, ‘‘कोई 
              अनुभव?’’ 
              उसने सिर हिलाते हुए मुँह बिचकाया। 
              ‘‘कोई फोन नम्बर है?’’ 
              ‘‘नहीं, पड़ोस में है। मगर वे लोग बुलाते नहीं।’’ 
              ‘‘ठीक है, हम डाक द्वारा सूचित कर देंगे।’’ 
              ‘‘बाहर कोई और कैंडीडेट है?’’ 
              ‘‘नहीं।’’ लडक़ी ने अपने को संशोधित किया, ‘‘इस बीच कोई आया हो तो कह 
              नहीं सकती।’’ 
              ‘‘अपना बायोडाटा लायी हैं?’’ 
              ‘‘एप्लीकेशन लायी हूँ।’’ 
              सम्पूरन ने एप्लीकेशन का कागज ले लिया। दस्तखत देखकर उसे अच्छा लगा, 
              जैसे मोती पिरोये हों। उसने लडक़ी को अपना विजिटिंग कार्ड दिया और 
              बोला, ‘‘आप कल इसी समय फोन कर लें। अब आप जा सकती हैं, कोई बाहर खड़ा 
              हो तो भीतर भेज दें।’’ 
              वह सिर झुका कर नमस्कार करते हुए बाहर निकल गयी। वह अपने पीछे कोई 
              गन्ध नहीं छोड़ गयी थी। 
              ‘‘लडक़ी ठीक है। जरूरतमन्द है। मेरी मानो तो अभी सिर्फ इसी को रख लो। 
              चपरासी, रिसेप्शनिस्ट और सेके्रटरी का काम बखूबी कर लेगी।’’ 
              ‘‘महाराष्ट्रियन है।’’ सम्पूरन ने कहा, ‘‘कुछ ही दिनों में पंजाबी भी 
              सिखा दूँगा।’’ 
              दोनों हँसने लगे। 
               
               
               
               
               
                
              नया जन्म 
                
               
              दफ्तर में सुप्रिया का पहला दिन बहुत रोमांचक रहा। रोमांचक इस मायने 
              में कि उसे दिन का पहला तोहफा ऐसा मिला, जिसकी उसे बरसों से आकांक्षा 
              थी यानी प्रथम श्रेणी का रेलपास, दादर से चर्चगेट तक। अब तक उसने 
              ट्रेन के द्वितीय श्रेणी के डिब्बे में ही यात्रा की थी। उसके पिता 
              और भाइयों के पास भी द्वितीय श्रेणी के पास थे। सम्पूरन ने सुबह जब 
              पूछा कि उसे आने में देर क्यों हुई तो सुप्रिया ने बताया था कि बस की 
              प्रतीक्षा में समय नष्ट हुआ और सुबह रेल की धक्का-मुक्की उसे पसन्द 
              नहीं है। सम्पूरन ने उसे तभी पैसे देकर पास बनवाने रवाना कर दिया। 
              सम्पूरन ने उसे दूसरा पाठ टेलीफोन शिष्टाचार का पढ़ाया और बताया कि 
              कैसे कौन-सा बटन दबाकर वह उससे कैबिन में बात करवा सकती है। दफ्तर 
              में इंटरकॉम की एक ही लाइन थी और उसे ऑपरेट करना बहुत आसान था। 
              सुप्रिया ने गौर किया, दिनभर सम्पूरन ही नम्बर देकर फोन मिलाता रहा। 
              फोन मिलते ही वह ‘गुडमार्निंग सर’ के बाद कहती कि क्लिफ्टन पार्क एंड 
              ली से मिस्टर सम्पूरन बात करेंगे और वह सम्पूरन से बात करवा देती। 
              वास्तव में सम्पूरन के लिए सुप्रिया को व्यस्त रखना ही प्रतिष्ठा का 
              प्रश्न बन गया था। उसे लग रहा था, अगर उसने सुप्रिया को व्यस्त न रखा 
              तो वह समझ लेगी कि यह दफ्तर तो फ्राड है, कोई कामकाज ही नहीं। उसने 
              अपने तमाम परिचितों को फोन मिलवाया और उनकी खैरियत दरियाफ्त की। 
              दोपहर तक दोस्तों से सम्पर्क स्थापित करने का काम खत्म हो गया तो 
              सम्पूरन ने उन तमाम बक़ायेदारों की सूची निकाली और सुप्रिया को समझाया 
              कि उनका जवाब उसी कागज पर नोट करती चले। उसने बक़ाया रसीद की फाइल भी 
              आवश्यक सन्दर्भ के लिए सुप्रिया को सौंप दी। यह एक ऐसा काम था, जो 
              देर तक चल सकता था। 
              सम्पूरन मिसेज क्लिफ्टन को एक लम्बा पत्र लिखने में जुट गया। उसने 
              टूटी-फूटी अँग्रेजी में एक पत्र ड्राफ्ट किया जिसका आशय था कि वह 
              मिसेज क्लिफ्टन को बहुत याद करता है और उनका आजीवन आभारी रहेगा। उसने 
              मिसेज क्लिफ्टन को प्रसन्न करने के इरादे से यह भी लिखा कि वह 
              सिमेट्री गया था और श्रद्धांजलि अर्पित करने मिस्टर क्लिफ्टन की कब्र 
              पर भी गया था। उसने यह भी बताया कि क्लिफ्टन पार्क एंड ली का बहुत-सा 
              रुपया बक़ायेदारों के पास बाकी है, क्यों न उसे वसूल कर लिया जाए ताकि 
              जब उनकी बिटिया भारत आये तो उन्हें किसी प्रकार का कष्ट न हो। वह 
              उनकी यात्रा को अविस्मरणीय बना देगा। इसके लिए मिसेज क्लिफ्टन को 
              केवल एक पॉवर ऑव एटॉर्नी भेजनी होगी ताकि वह बैंक एकाउंट ऑपरेट कर 
              सके। उसने तुक्के से यह भी लिखा कि जल्दबाजी में वह अपना बैंक खाता 
              बन्द करना भूल गयी थीं और उनकी अनुपस्थिति में दो-एक चैक भी आये थे, 
              जिन्हें वह खाते में डाल देगा। 
              दरअसल, मिसेज क्लिफ्टन अन्तिम दिनों में बैंक का सारा कामकाज सम्पूरन 
              के माध्यम से ही करती थीं और सम्पूरन को याद था कि भारत से विदा होने 
              से पहले उन्होंने सम्पूरन के माध्यम से ही अपना बेलेन्स पुछवाया था 
              और मामूली-सी राशि छोडक़र सारा धन निकाल लिया था। पत्र समाप्त कर वह 
              टैक्सी लेकर टाइम्स ऑफ इंडिया बिल्डिंग की तरफ रवाना हो गया। वहाँ के 
              एक वरिष्ठ उपसम्पादक शिरोडक़र से स्वर्ण के साथ प्रेस क्लब में उसका 
              परिचय हुआ था। उसने सोचा कि शिरोडक़र और कुछ नहीं, कम-से-कम उसके पत्र 
              का एक अच्छा-सा ड्राफ्ट तो तैयार करके दे ही सकता है। शिरोडक़र ने 
              उससे स्वर्ण का हालचाल लिया और सम्पूरन के पत्र के ऊपर ही आवश्यक 
              संशोधन कर दिये। उसने कई वाक्य पूरे के पूरे बदल दिये और उसे संशोधित 
              पत्र पढक़र सुना भी दिया ताकि टाइप करवाते समय किसी प्रकार की दिक्कत 
              पेश न आये। शिरोडक़र ने उसे चाय भी पिलायी और जल्द ही स्वर्ण से मिलने 
              की इच्छा प्रकट की। सम्पूरन ने तय किया, वह शिरोडक़र को भी हाउस 
              वार्मिंग पार्टी में अवश्य आमन्त्रित करेगा। 
              सम्पूरन ने फोर्ट से ही एक राइटिंग पैड खरीदा, पत्र टाइप करवाया और 
              जी.पी.ओ. पर पोस्ट करके कोई साढ़े तीन बजे दफ्तर पहुँचा तो उसने पाया 
              सुप्रिया अभी तक बक़ायेदारों के साथ सिर खपा रही थी। वह बगैर उसकी तरफ 
              देखे सीधा अपने कैबिन में घुस गया। 
              ठीक पाँच बजे फाइलें लेकर जब सुप्रिया दिनभर के काम का ब्यौरा देने 
              सम्पूरन के कैबिन में आयी तो वह सुप्रिया के बारे में ही सोच रहा था। 
              वह सोच रहा था कि क्यों न रानडे रोड जाते समय सुप्रिया को साथ ले 
              लिया जाए। वह कैडिल रोड पर उतर कर घर जा सकती है। सुप्रिया को प्रथम 
              श्रेणी के डिब्बे में यात्रा करने का ज्यादा उत्साह था, जब सम्पूरन 
              ने कैडिल रोड तक टैक्सी में जाने का प्रस्ताव रखा तो वह ज्यादा 
              उत्साहित नजर न आयी। 
              ‘‘मैं निहायत शरीफ आदमी हूँ, मेरे साथ जाने में आपको आपत्ति न होनी 
              चाहिए।’’ सम्पूरन ने कहा। 
              ‘‘नहीं सर, यह बात नहीं है। मैं अपनी सीमाओं में जीना चाहती हूँ।’’ 
              ‘‘सीमाओं में बँधकर नहीं जीना चाहिए। मेरा तो मोटो ही यही है। जितना 
              आप सीमाओं में बँधते जाएँगे, सीमाएँ आपको और अधिक जकड़ती जाएँगी।’’ 
              सम्पूरन ने उठते हुए कहा और बाहर आकर दफ्तर पर ताला ठोंकने लगा। 
              ‘‘लाइए सर, मैं ताला लगाती हूँ।’’ सुप्रिया ने कहा और ताला लगाने के 
              बाद खींच कर देख लिया। सम्पूरन यही चाहता था, चाबी लेकर वह सीढिय़ाँ 
              उतर गया। 
              मुख्य सडक़ पर टैक्सी रोककर उसने पीछे देखा, सुप्रिया नपे-तुले कदम 
              रखती हुई उसके पीछे-पीछे चली आ रही थी। 
              ‘‘आपको स्टेशन पर छोड़ दूँ?’’ 
              ‘‘कैडिल रोड ही छोड़ दीजिये।’’ सुप्रिया ने कहा और उसके साथ टैक्सी 
              में बैठ गयी। 
              कैडिल रोड पर से गुजरते हुए सम्पूरन ने यह बात सोचकर खारिज कर दी कि 
              सुप्रिया को अपना नया घर भी दिखा देना चाहिए। टैक्सी ने रानडे रोड पर 
              समुद्र की तरफ रुख किया तो सम्पूरन ने टैक्सी रुकवाकर सुप्रिया को 
              उतार दिया। 
              फ्लैट पर पहुँचकर उसने देखा, फ्लैट का नक्शा तेजी से बदल रहा था। 
              काफी हद तक दीवारों की मनहूसियत मिट चुकी थी। मंगर के पूरे बदन पर 
              पेंट की चेचक के निशान थे। बाल और बरौनियों पर चूने की चादर बिछी थी। 
              वह फर्श पर बैठा एक चिलमची में कैरोसिन से ब्रश धो रहा था। पास ही 
              सोफे पर नर्स बैठी थी। बच्चा मुँह में चुसनी लिये पलंग पर पसरकर सो 
              रहा था। सम्पूरन को देखते ही नर्स खड़ी हो गयी। मंगर ने उसकी तरफ 
              देखकर दाँत निपोर दिये। 
              ‘‘खाना लेकर आयी थी दोपहर में। इन्होंने जाने ही न दिया।’’ 
               
              अपनी आदत के मुताबिक सम्पूरन ने वार्डरोब का ताला खोला। भीतर रंगारंग 
              साडिय़ों का बाजार सजा था। उसने सिल्क की एक खूबसूरत साड़ी नर्स को 
              भेंट करते हुए कहा, ‘‘मेरी तरफ से यह गिफ्ट।’’ 
              नर्स ने हैंगर सहित साड़ी पकड़ ली और हैंगर को चारों तरफ घुमाकर 
              साड़ी देखने लगी। 
              ‘‘बहुत सुन्दर है, मगर मैं इसका क्या करूँगी?’’ 
              ‘‘तुम इसे पहनना और क्या करोगी!’’ 
              सम्पूरन ने साड़ी हैंगर समेत लपेटकर उसे हाथ में थमा दी और मंगर से 
              बोला, ‘‘पुताई के बाद एक बार जमकर फर्श की सफाई भी कर दो। लगता है, 
              दो-चार दिन में फ्लैट रहने लायक हो जाएगा। गृहप्रवेश कब रखा जाए?’’ 
              ‘‘इस हफ्ते के बाद कभी भी। कल नर्स रसोई के बर्तन वगैरह भी साफ कर 
              देगी। गैस भी खत्म है। आपको मँगवानी होगी।’’ 
              सम्पूरन ने किसी ड्रॉअर में गैस के कागजात भी देखे थे। उसने ड्रॉअर 
              खोलकर कागजों को उलट-पलट कर देखा और गैस का कनेक्शन नम्बर नोट कर 
              लिया। रसोई को फंक्शनल बनाने के लिए उसने शुक्लाजी को आज बुलवा रखा 
              था। मिसेज शुक्ला बहुत सुघड़ गृहिणी थीं, सम्पूरन ने देखा था, उनके 
              रसोईघर में हर चीज सलीके से पड़ी रहती थी जैसे उसका स्थान तय 
              हो—पारदर्शी डिब्बों में दालों, मसालों, चायपत्ती, चीनी को आसानी से 
              पहचाना जा सकता था। सम्पूरन अकसर मिसेज शुक्ला से कहा करता कि 
              शुक्लाजी की कोई प्रेमिका भी रसोईघर में आकर बगैर किसी परेशानी के 
              आसानी से खाना पका सकती है, उसे बार-बार यह पूछने की जरूरत न पड़ेगी 
              कि नमक कहाँ रखा है और जीरा कहाँ। 
              ‘‘मगर शुक्लाजी की प्रेमिकाएँ पढ़ी-लिखी कहाँ होती हैं।’’ मिसेज 
              शुक्ला ने कटाक्ष किया था। वह एक से अधिक बार ऐसा कटाक्ष कर चुकी 
              थीं, मगर शुक्लाजी उत्तेजित होने की बजाय मन्द-मन्द मुस्कराते रहते 
              थे। 
              ‘‘मेरी कोई बहन भी नहीं है।’’ मिसेज शुक्ला बोलीं। 
              ‘‘इनकी सिर्फ सौतें हैं।’’ शुक्लाजी ने धीरे-से कहा। इतना धीरे-से कि 
              मिसेज शुक्ला को सुनाई ही न पड़ा कि शुक्लाजी ने क्या कहा है। 
               
               
              सम्पूरन को भूख लग रही थी। उसने मंगर को पाँच रुपये दिये कि जाकर 
              नीचेे बेकरी से ‘पेटीज’ ले आये। 
              ‘‘वो क्या होता है?’’ 
              ‘‘बेकरी वाला बता देगा। सम्पूरन ने एक कागज पर ‘पेटीज’ लिखकर स्लिप 
              उसे थमा दी। मंगर अभी पूरी सीढिय़ाँ भी न उतरा होगा कि लौट आया, उसके 
              पीछे-पीछे शुक्ला दम्पती थे।’’ 
              ‘‘वाऊ!’’ मिसेज शुक्ला बोली, ‘‘सम्पूरन, यह मैं क्या देख रही हूँ!’’ 
              ‘‘अरे वाह!’’ शुक्लाजी खिडक़ी के पास खड़े होकर समुद्र को अठखेलियाँ 
              करते देखने लगे। 
              सम्पूरन मुस्कराता रहा। वह फ्लैट का इतिहास बताकर सारा मज़ा किरकिरा 
              नहीं करना चाहता था, उसने कहा, ‘‘बस यही समझ लीजिये, मेरी जिन्दगी भर 
              की कमाई है!’’ 
              ‘‘हम दोनों अपनी सारी कमाई लगा दें तो भी ऐसा फ्लैट न मिले। शहर के 
              बीचोंबीच और वह भी समुद्र किनारे।’’ 
              ‘‘कितनी पगड़ी दी है?’’ मिसेज शुक्ला ने पूछा। 
              ‘‘ऐसे समझ लें कि अपने को गिरवी रख दिया है।’’ सम्पूरन ने कहा और 
              वार्डरोब खोलकर खड़ा हो गया, ‘‘यह वार्डरोब भी दहेज में मिली है। 
              आपको जो साड़ी पसन्द आये, ले लें।’’ मिसेज शुक्ला एक-एक साड़ी को 
              छूकर देखने लगीं। एक से एक बढिय़ाँ साडिय़ाँ थीं। ज्यादातर साडिय़ाँ 
              सिल्क और काटन की थीं, वह जैसे साडिय़ों का शोरूम था। 
              ‘‘पहलियाँ न बुझाओ, सच-सच बताओ यह सब क्या है!’’ 
              ‘‘यह सब वही है जो आप देख रही हैं।’’ सम्पूरन ने बोला, ‘‘यह बनारसी 
              सिल्क की फिरोजी साड़ी आप पर बहुत जमेगी।’’ उसने साड़ी निकाल ली और 
              उसकी परतें खोलते हुए उसका बहुत भारी पल्लू मिसेज शुक्ला के कन्धे पर 
              डाल कर अलग हट कर जरा दूर से देखने लगा। 
              ‘‘वाह भाई वाह, क्या खूब प्रिंट है। इसे पहन लोगी तो मास्टरनी नहीं, 
              सेठानी लगोगी।’’ शुक्लाजी ने कहा। 
              मिसेज शुक्ला साड़ी सूँघने लगी, बोली, ‘‘अभी बिल्कुल कोरी है। 
              सम्पूरन ने साड़ी लपेटकर मिसेज शुक्ला के पर्स के ऊपर रख दी। 
               
               
              मंगर गर्म-गर्म पेटीज ले आया। सम्पूरन ने बड़े से कागज में लिपटी हुई 
              पेटीज का पुड़ा सबसे पहले नर्स की तरफ बढ़ा दिया, ‘‘बिस्मिल्ला तुम 
              करो।’’ 
               
              सम्पूरन ने शुक्लाजी को बताया, ‘‘आप तो जानते ही हैं यह मंगर की बीवी 
              है, पेशे से नर्स। इनका प्रेम विवाह हुआ था। किसी दिन इन लोगों की 
              प्रेम कहानी सुनेंगे। फिलहाल इतना ही कि यह सारा फ्लैट मंगर ने ही 
              पेंट किया है। इस नादान आदमी को यह भी नहीं मालूम कि इसके पास कितना 
              बड़ा हुनर है! इससे वे लोग एक मजदूर का काम ले रहे थे और मिस्त्री 
              नौटांक पीकर दिन भर सोता था। मैंने पहले रोज ही उसे भगा दिया। मंगर 
              अब अपनी कम्पनी के पेंटिंग के लिए काम करेगा। मैंने हिसाब लगाया इस 
              धन्धे में पचास फीसदी मार्जिन है।’’ 
              शुक्लाजी पेंट देखकर विश्वास न कर पाये कि यह काम इसी शख्स ने किया 
              है। वह गम्भीरता पूर्वक दफ्तर से छुट्टी लेकर किस्मत आजमाने की सोचने 
              लगे। 
              ‘‘पेटीज तो बहुत गर्म और लज़ीज़ है, इनके साथ-साथ एक प्याला चाय मिल 
              जाता तो मजा आ जाता।’’ मिसेज शुक्ला ने कहा, ‘‘देवरजी कब तक बाजार की 
              चाय पिलवाते रहोगे, अब तो तुम्हारे पास फ्लैट भी है। जल्दी से कोई 
              सुन्दर लडक़ी देखकर शादी कर लो।’’ 
              ‘‘आपकी नजर में मेरे लायक कोई लडक़ी हो तो बताइए।’’ 
              ‘‘एक मैट्रिमोनियल छपवाओ। देखो, बीसियों रिश्ते चले आएँगे।’’ 
              ‘‘फकत चाय के लिए शादी करना तो नामुनासिब होगा। चाय का इन्तजाम तो 
              बगैर लडक़ी के भी हो सकता है।’’ 
              ‘‘वह कैसे?’’ 
              ‘‘अभी आप दादर चलिये और गुज़ारे लायक कुछ बर्तन खरीद दीजिये। वैसे 
              रसोई में चाय के अलावा तमाम बर्तन मौजूद हैं।’’ 
              मिसेज शुक्ला उठकर रसोईघर का मुआइना कर आयी, ‘‘तुम्हें तो जमी जमायी 
              गिरस्ती मिल गयी है। तुम चाहो तो कल से खाना बनवा सकते हो। चाय के 
              बर्तन मैं अभी ला देती हूँ।’’ 
              सम्पूरन ने पचास रुपये दीपाजी को थमा दिये, ‘‘कम्पनी के लिये नर्स को 
              लेती जाइए।’’ 
              मिसेज शुक्ला सचमुच जाने को तैयार हो गयीं। शुक्लाजी ने कहा, ‘‘जल्दी 
              आना, पिंकी के लौटने का समय हो रहा है।’’ 
              मिसेज शुक्ला नर्स के साथ सीढिय़ाँ उतर गयीं। मंगर ने बच्चे का मोर्चा 
              सँभाल लिया। सम्पूरन शुक्लाजी के साथ नीचे समुद्र पर टहलने निकल गया। 
              समुद्र उस समय हाई टाईड में था। वे उसके किनारे-किनारे चलने लगे। 
              बीच-बीच में समुद्र की तेज वेगवान लहरें उनके पाँव गीले कर जातीं। 
              समुद्र पर अभी भीड़ नहीं थी, कुछ खोमचे वाले इधर-उधर मँडरा रहे थे। 
              सम्पूरन शुक्लाजी को बम्बई में बिजनेस की सम्भावनाओं के बारे में 
              बताता रहा। 
              ‘‘यहाँ कुछ भी हो सकता है...।’’ सम्पूरन की बात को बीच में काटकर 
              शुक्लाजी ने कहा, ‘‘आदमी अँधेरी के अन्धेरे गेस्ट हाउस से उठकर सी 
              फेस पर शिफ्ट कर सकता है।’’ 
              ‘‘एक जिन्दगी मैंने बोरीबन्दर के प्लेटफार्म पर शुरू की थी, दूसरी 
              जिन्दगी भायखला, माहिम, अँधेरी के गेस्ट हाउस की खटिया भर स्पेस से 
              और अब मैं एक जन्म और लूँगा, सी फेस के इस फ्लैट में।’’ सम्पूरन जैसे 
              अपने आप से बात करने लगा, ‘‘मुझे खुद नहीं मालूम कि मैं क्या करने जा 
              रहा हूँ। मैं बस इतना जानता हूँ, मुझे अपनी वर्थ साबित करनी है। मेरी 
              जेबें खाली हैं, बैंक एकाउंट तक नहीं है, मेरा अस्तित्व ही मेरा 
              सरमाया है। मेरे लिए फ्लैट की अहमियत किसी स्टेशन के वेटिंग रूम या 
              फुटपाथ से ज्यादा नहीं है। मैं कतार में नहीं लग सकता, मैं कतार में 
              लगने के लिए पैदा ही नहीं हुआ।’’ 
              शुक्लाजी को उसकी बातों में मजा आ रहा था। यह सम्पूरन का स्वभाव था। 
              वह सपने देखना ही नहीं जानता था, उनकी रनिंग कमेंटरी भी प्रसारित 
              करता जाता था। उन्हें मालूम था, वह कोई भी नया जोखिम उठा सकता था। 
              ‘‘बम्बई में मैं पहले सप्ताह में ही दो बार थाने पहुँच गया था। पहली 
              बार खार में बस की कतार भंग करने के आरोप में और दूसरी बार आजाद 
              मैदान में पेशाब करने के जुर्म में। इसका नतीजा अच्छा ही निकला। 
              मैंने बस में सफर करना ही छोड़ दिया। पेशाब जरूर करता हूँ, किसी 
              पाँचसितारा होटल में बेझिझक पेशाब कर आता हूँ। मैंने अपने को समझाया 
              कि सम्पूरन तुमने आजाद मैदान में पेशाब करने के लिए जन्म नहीं लिया 
              है।’’ 
              मिसेज शुक्ला और नर्स सामान से लदी-फदी कमरे में दाखिल हुईं तो 
              सम्पूरन ने उछलकर उनके हाथ से सामान ले लिया। मिसेज शुक्ला के कन्धे 
              पर एक बड़ा-सा झोला भी लटक रहा था। सम्पूरन ने झोला उतार कर मेज पर 
              रखा और उनके कन्धे दबाने लगा। 
              ‘‘अब तुम चाय भी पी सकते हो और रोटियाँ भी सेक सकते हो। तुम्हारी 
              मरम्मत करने के लिए बेलन भी लायी हूँ। तुम्हारी रसोई में चकला भी 
              नहीं था, वह भी ले आयी हूँ। ये पतीले सब्जी बैठाने के लिए और यह बड़ा 
              पतीला गोश्त भूनने के लिए। ये दो दर्जन काँच के गिलास, मैं जानती हूँ 
              तुम गिलासों में ही चाय पीते हो।’’ 
              ‘‘और दारू पीने के लिए गिलास?’’ 
              ‘‘वे रखे हैं।’’ मिसेज शुक्ला ने कहा, ‘‘अब चलना चाहिए, पिंकी परेशान 
              हो रही होगी।’’ 
              ‘‘मैं आपको दादर छोड़ दूँगा।’’ सम्पूरन ने कहा, ‘‘मुझे भी चर्चगेट 
              तक जाना है। मैं इसी सप्ताह आपको गृहप्रवेश का निमन्त्रण दूँगा।’’ 
              शुक्ला दम्पती खिडक़ी पर खड़े होकर समुद्र का नजारा देखने लगे। 
              शुक्लाजी ने मिसेज शुक्ला के कन्धों पर अपनी बाँह टेकी। दोनों 
              क्षितिज में खो गये थे। 
               
               
               
               
               
                
              मत्स्यगन्धा 
                
               
              सम्पूरन को ज्यादा देर बालकनी में बैठकर शिवेन्द्र का इन्तजार नहीं 
              करना पड़ा। शिवेन्द्र नहाकर बाथरूम से निकला तो एकदम तरोताज़ा लग रहा 
              था। सम्पूरन उसकी तरफ देखता रह गया। सम्पूरन को लगा जैसे वह आज उसको 
              पहली बार देख रहा है। एकदम शहतीर की तरह सीधा बुलन्द व्यक्तित्व, 
              कुर्ते के बटन खुले थे और सीने पर पाउडर की हल्की-सी परत। उसे जानते 
              देर न लगी कि ‘मस्क’ शिवेन्द्र की पहली पसन्द है। उसको छूकर आ रही 
              हवाएँ बता रही थीं कि वह मस्क से नहाता है और मस्क पाउडर इस्तेमाल 
              करता है। उसने सम्पूरन के कन्धे पर हाथ रखा और बैठने का इशारा किया। 
              ‘‘कहो, सही-सलामत हो?’’ 
              ‘‘आपकी इनायत है।’’ 
              ‘‘रेनोवेशन का काम कहाँ तक पहुँचा?’’ 
              ‘‘अंजाम तक।’’ सम्पूरन ने कहा, ‘‘आपको बुलाने आया हूँ। एक बार आपके 
              कदम पड़ जाएँ।’’ 
              ‘‘अभी तो सूरज गुरूब हो चुका है। सूरज गुरूब हो जाता है तो मैं बाहर 
              नहीं जाता, कोई पार्टी-वार्टी हो तो दीगर बात है।’’ 
              ‘‘आप जब कहें मैं आकर ले जाऊँगा।’’ 
              ‘‘तुम्हारे आने की जरूरत नहीं। नौ बजे तक ट्रैफिक बहुत बढ़ जाता है। 
              मैं तब तक लौट आना चाहता हूँ। कल सुबह आठ बजे मिलो।’’ 
              ‘‘मैं आपका इन्तजार करूँगा।’’ 
              ‘‘गृहप्रवेश पर एक शानदार पार्टी हो जाए।’’ 
              ‘‘जरूर।’’ 
              ‘‘मेरी पार्टी जरा खर्चीली होती है। यह तो गृहप्रवेश की पार्टी होगी। 
              कुछ ऐसा होना चाहिए कि जिन्दगी भर याद रहे।’’ 
              ‘‘ऐसा ही होगा।’’ 
              ‘‘कितना खर्च कर सकते हो?’’ 
              सम्पूरन ने जेब से पर्स निकालकर शिवेन्द्र के सामने खोल दिया, ‘‘मेरी 
              कुल जमा पूँजी यही है।’’ 
              ‘‘उसकी तुम चिन्ता न करो। मेरे पास फाइनेंसर है।’’ 
              ‘‘पार्टी के भी फाइनेंसर होते हैं?’’ 
              ‘‘इस दुनिया में बहुत कुछ होता है। धीरे-धीरे सब समझ जाओगे।’’ 
              इस बीच नौकर ने बार सजा दिया था। उसी ने दो पैग तैयार किये। 
              शिवेन्द्र ने एक गिलास सम्पूरन की तरफ बढ़ा दिया, ‘‘चियर्स।’’ 
              सम्पूरन ने बगैर किसी हीलहुज्जत के गिलास ले लिया और बोला, 
              ‘‘चियर्स।’’ 
              तभी नौकर टेलीफोन उठा लाया, ‘‘टेकचन्द का फोन है।’’ 
              शिवेन्द्र देर तक कान पर रिसीवर रखे फोन सुनता रहा। बीच-बीच में वह 
              दो चार शब्द ही बोलता था। सम्पूरन को लगा कि घोड़ों पर विस्तार से 
              चर्चा हो रही है। वह रेस की इस शब्दावली से भी परिचित न था। घोड़ों 
              की चर्चा कुछ इतने विस्तार में चली गयी कि सम्पूरन को लगा, अब जल्दी 
              यह बातचीत खत्म न होगी। शिवेन्द्र ने जब पार्टी का उल्लेख किया तो 
              सम्पूरन को बातचीत में रस आने लगा। शिवेन्द्र ने टेकचन्द से इस 
              सिलसिले में मिलने के लिए कहा और रिसीवर रख दिया। 
              ‘‘मैं रेस जरूर खेलता हूँ, मगर जुए की तरह नहीं, एक प्रोफेशन की तरह। 
              इस संडे को चले आओ, तो तुम्हें भी ले चलें। इस हफ्ते वारे-न्यारे 
              होने ही चाहिए। मेरे दो-दो घोड़े दौड़ रहे हैं।’’ 
              ‘‘मैं आ जाऊँगा।’’ सम्पूरन ने कहा। 
              ‘‘पार्टी का भी एक कल्चर होता है। दस पन्द्रह लोगों से ज्यादा लोग 
              नहीं होने चाहिए। लोगों का चुनाव भी बहुत होशियारी से करना चाहिए।’’ 
              सम्पूरन मूड़ी हिलाते हुए शिवेन्द्र की बात बड़े गौर से सुन रहा था, 
              ‘‘बम्बई ग्लैमर और दौलत की नगरी है। जिसके पास पैसा है वह ग्लैमर के 
              पीछे दौड़ रहा है और जिसके पास ग्लैमर है वह दौलत के पीछे। इसलिए 
              पार्टी में ग्लैमरस और दौलतमन्द चेहरे दिखाई देने चाहिए। अपने यहाँ 
              पार्टी का स्ट्रक्चर मैं कुछ इस प्रकार रखता हूँ।’’ 
              सम्पूरन ने जेब से डायरी निकाली और शिवेन्द्र के प्रवचन नोट करने 
              लगा, ‘‘पार्टी में दो उद्योगपति रहने चाहिएँ, एकाध पोलिटिशियन, एक 
              फैशन डिजाइनर या ज्युअलरी डिजाइनर, एक फुलटाइम सोशलाइट, जिससे आप सब 
              पार्टियों में मिल सकते हैं और एक ऐसी ग्लैमरस सोशलाइट जिसकी उपस्थित 
              मात्र से लोग रोमांचित हो उठें। बम्बई में पब्लिसिस्टों की भी कमी 
              नहीं, ये लोग आपकी दारू जरूर पिएँगे मगर आपकी एक मनोहर छवि बनाने में 
              भी सहायक होंगे। इन सबके बीच एक दढिय़ल किस्म का दिलफेंक नया कलाकार 
              भी होना चाहिए। टेलीविजन का ज़माना आ रहा है, टेलीविजन की दो-एक 
              हस्तियों से पार्टियों में जान आ जाती है। गुज्जू भाई और रईस लोग 
              विदेशियों से भी बहुत प्रभावित होते हैं।’’ 
              शिवेन्द्र ने सम्पूरन के लिये एक और पैग बनाया और जोरदार ठहाका 
              बुलन्द किया, ‘‘तुम किसको जानते हो?’’ 
              ‘‘इस पार्टी के लायक तो किसी को भी नहीं।’’ 
              ‘‘जैसे?’’ 
              ‘‘मर्चेन्ट नेवी के एक कैप्टन से दोस्ती थी, उसकी बीवी शहर की उभरती 
              हुई सोशलाइट है, मगर उसे कैप्टन से मेरी दोस्ती फूटी आँख न सुहाती 
              थी। दसअसल, मैं उसे कभी सन एंड सैंड में देखता था तो कभी ताज में, 
              कैप्टन तो ज्यादातर शिप पर रहता था।’’ 
              ‘‘उससे मिलवाओ।’’ 
              ‘‘उन दोनों के बीच तलाक की नौबत आ गयी थी।’’ 
              ‘‘वह होशियार होगी तो तलाक न लेगी। तुम्हें दोस्तों के निजी जीवन में 
              दखलन्दाजी भी न करनी चाहिए। वह कैप्टन की करतूतों से भी वाकिफ होगी। 
              कैप्टन क्या शहर में है?’’ 
              ‘‘मालूम नहीं।’’ 
              ‘‘लो, मालूम करो।’’ शिवेन्द्र ने उसके सामने टेलीफोन का आला रख दिया, 
              ‘‘उसकी बीवी लाइन पर आये तो प्यार से बात करना, औरतों से रंजिश की 
              बातें नहीं करते।’’ 
              सम्पूरन ने फोन मिलाया, लाइन व्यस्त थी। 
              ‘‘इसका मतलब है कैप्टन लाइन पर नहीं है।’’ शिवेन्द्र ने एक अनुभवी 
              व्यक्ति की तरह बताया, ‘‘कैप्टन लोग फोन पर ज्यादा बात नहीं करते। घर 
              में भी उन्हें समुद्र की तरह विशाल हृदय होना चाहिए।’’ 
              सम्पूरन ने दोबारा फोन मिलाया, लाइन अभी तक खाली न हुई थी। 
              ‘‘और किसको आमन्त्रित करोगे?’’ 
              ‘‘स्वर्ण तो रहेगा ही, आजकल घर गया हुआ है। मैं उसी के लॉज पर रह रहा 
              हूँ।’’ 
              ‘‘अपने फ्लैट में रहने से डर लगता है?’’ 
              सम्पूरन इस प्रश्न के लिए तैयार नहीं था, वह बोला, ‘‘सच्ची बात तो यह 
              है कि डर तो नहीं लगता, पर ऐसी आशंका मन में जरूर है कि कुछ होगा 
              जरूर।’’ 
              ‘‘इसी आशंका का दूसरा नाम भूत है।’’ शिवेन्द्र ने कहा, ‘‘इस आशंका को 
              भी निकाल फेंको।’’ 
              ‘‘सोचता हूँ, पहला काम यही करूँगा। अपनी सारी आशंकाएँ और भय समुद्र 
              में फेंक कर रहने जाऊँगा।’’ 
              ‘‘शादी क्यों नहीं कर लेते?’’ 
              ‘‘शादी का तो इरादा नहीं। सच तो यह है कि ऐसी लडक़ी नहीं मिली, जिसे 
              देखकर लगे कि शादी करनी चाहिए।’’ 
              ‘‘अभी इस बवाल से दूर ही रहो। किसी से दोस्ती कर लो।’’ 
              ‘‘दोस्ती लायक भी कोई लडक़ी नहीं मिली।’’ 
              ‘‘धैर्य रखो, मिल जाएगी। शहर में ऐसी कन्याओं की कोई कमी नहीं। 
              महत्त्वाकांक्षी लड़कियाँ दोस्ती को भी कैरियर समझती हैं, मगर पहले 
              आपको इस लायक बनना पड़ेगा। फिर देखो अपने जलवे।’’ 
              सम्पूरन को हल्का-सा असर हो गया था, वह शिवेन्द्र के पाँव दबाने लगा। 
              ‘‘यह छोड़ो, अपने दोस्त को फिर फोन मिलाओ।’’ 
              सम्पूरन ने फोन मिलाया। इस बार देर तक घंटी जाती रही। आखिर किसी ने 
              बहुत थकी आवाज में ‘हैलो’ कहा। यह रेखा की आवाज थी। सम्पूरन ने 
              तुरन्त रिसीवर रख दिया। 
              ‘‘क्या हुआ?’’ 
              ‘‘कैप्टन की बीवी थी रेखा।’’ 
              ‘‘तो बात क्यों नहीं की?’’ 
              ‘‘वह मुझसे बेहद खफा है।’’ 
              ‘‘इससे क्या होता है? दोस्तों के बीच ऊँच-नीच तो होती रहती है।’’ 
              ‘‘यहाँ नीच ही नीच होती रही है।’’ 
              ‘‘दो, मुझे दो फोन मिलाकर।’’ शिवेन्द्र ने कहा। 
              सम्पूरन ने डरते-डरते फोन मिलाया। घंटी जाने लगी तो उसने रिसीवर 
              शिवेन्द्र को पकड़ा दिया और अपने लिये पैग बनाने लगा। 
              ‘‘हैलो रेखा, कैसी हो?’’ वह शिवेन्द्र की बातें सुनने लगा। शिवेन्द्र 
              कह रहा था, ‘‘अब मुझे क्यों पहचानोगी! मेरी आवाज भी भूल गयीं? ऑय हेट 
              यू रेखा। अच्छा छोड़ो ये सब बातें। यह बताओ तुम्हारा मियाँ कब लौट 
              रहा है शिप से? बाई गॉड, उसे सँभालो। दरअसल शिप पर रहते-रहते ये लोग 
              नीमपागल हो जाते हैं। अब शादी की है तो झेलो। अब भी मेरी आवाज नहीं 
              पहचान रहीं? तब तो खुदा ही तुम्हारी मदद कर सकता है। हाँ हाँ वही 
              गोवद्र्धन। तुम उसकी पार्टी में भी दिखाई नहीं दी तो समझते देर न लगी 
              कि तुम्हारा मियाँ आया होगा। गोवद्र्धन से कह दूँगा। और कुछ? मेरा 
              नाम? इसे अभी रहस्य ही रहने दो। मिलोगी तो बताऊँगा। पार्टी की ही 
              तैयारी चल रही है। ठीक है चन्नी से भी बात कर लूँगा। ओ.के. बाय।’’ 
              शिवेन्द्र ने फोन रख दिया और बोला, ‘‘चन्नी दम्पती का भी नाम दर्ज कर 
              लो।’’ सम्पूरन दोबारा शिवेन्द्र के पाँव दबाने लगा, ‘‘जवाब नहीं 
              आपका। मैं तो आपका खादिम हो गया।’’ 
              ‘‘और किसे बुलाने का इरादा है?’’ 
              ‘‘शुक्लाजी को, रेलवे में हिन्दी अधिकारी हैं। पत्नी मीठीबाई कॉलेज 
              में पढ़ाती हैं।’’ 
              ‘‘रेलवे में हैं तो रिजर्वेशन करा सकते हैं।’’ शिवेन्द्र ने कहा, 
              ‘‘कल्याणी को कलकत्ता जाना है मगर लम्बी वेटिंग लिस्ट है। शायद 
              वेटिंग लिस्ट में बत्तीसवाँ नम्बर है। कल उसकी रिजर्वेशन करवा दो, 
              बला टले।’’ 
              ‘‘करवा दूँगा।’’ 
              शिवेन्द्र ने कल्याणी का नम्बर घुमाया, ‘‘हाय कल्याणी तुम्हारा काम 
              हो जाएगा। आज ही रेलवे के जी एम से बात हो गयी है। हाँ हाँ उसी गाड़ी 
              से। क्या कर रही हो? कब तक जिन पीती रहोगी, थोड़ा आगे बढ़ो। हाँ हाँ 
              रजि़या की तरह। अभी आ जाओ, ठीक है स्कॉच पिलाऊँगा। मैं इन्तजार कर 
              रहा हूँ। खाना भी खिला दूँगा। बेचारी झींगा मछली, तुम्हारे पसीने से 
              भी झींगा की ही गन्ध आती है, हाँ हाँ मत्स्यगन्धा। मुझे पसन्द है 
              मछली की गन्ध। ओ.के. अब तुरन्त चली आओ।’’ 
              सम्पूरन हतप्रभ टेलीफोन वार्ता सुन रहा था। शिवेन्द्र ने फोन रखा और 
              सम्पूरन से बोला, ‘‘इन्कम टैक्स में मेरी कलीग थी। दस बरस बाद बम्बई 
              में पोस्टिंग मिली है। दस बरसों में बहुत कुछ खोया है बेचारी ने। 
              सबसे पहले तो पति को ही। एक दुष्ट आई.पी.एस. अधिकारी था, एकदम लम्पट। 
              शादी के बाद भी लड़कियों को घर ले आता था। कल्याणी ने बहुत ‘सफर’ 
              किया, अन्तत: तलाक ले लिया। अब बौराई घूमती है। शटल कॉक की तरह, 
              बम्बई और कलकत्ता के बीच। आजकल राजस्व विभाग के एक अधिकारी पर फिदा 
              है। वह भी शादी-शुदा है, तलाक लेकर कल्याणी से शादी करना चाहता था। 
              बहुत से लोग बीवी को प्रेम की सीढ़ी बना लेते हैं। उसकी बुराई करेंगे 
              हर मिलने वाली से और रात को राजा बेटे की तरह बीवी की आगोश में सो 
              जाएँगे। कल्याणी की भी यही ट्रेजडी है, जो भी आशिक मिलता है, 
              शादी-शुदा निकलता है। बहुत अच्छी लडक़ी है कल्याणी, प्यार से लबालब 
              भरी हुई। रोती है और प्रेम करती है। धोखा खाती है, फिर दूसरे 
              दुश्चक्र में पड़ जाती है। उसे भी तुम्हारी पार्टी में बुलाऊँगा। एक 
              पैग पीने के बाद रोने लगती है। उसे एक ही शर्त पर पार्टी में बुलाता 
              हूँ कि रोना आये तो बाथरूम में कुर्सी डलवा दूँगा। जी भरकर रोना, मगर 
              बाथरूम में ही। मगर रो धोकर जब बाहर निकलती है तो गजब की लगती है। 
              आँखें पहले ही बड़ी-बड़ी हैं, रोने के बाद एकदम सुर्ख हो जाती हैं, 
              आलू बुखारे की गुठली की तरह। पार्टी के बाद मैं उससे रवीन्द्र संगीत 
              सुना करता हूँ।’’ 
              शिवेन्द्र धाराप्रवाह बोले जा रहा था। सम्पूरन को लगा वह उन लोगों 
              में से है, जो सिर्फ शराब पीकर बोलते हैं। अब तक सम्पूरन ने 
              शिवेन्द्र को बहुत कम बोलते देखा था, मगर आज तो हर पैग के बाद वह 
              धाराप्रवाह बोल रहा था। 
              ‘‘अब तुम जाओ। कल्याणी के आने से पहले चले ही जाओ। वह तुम्हें देखेगी 
              तो भडक़ जाएगी। उससे बर्दाश्त ही नहीं होता, उसकी उपस्थिति में मैं 
              किसी और से बात करूँ। मेरी बीवी से नहीं भडक़ती। मेरी बीवी भी उसी की 
              नस्ल की है। कल्याणी रोने लगेगी तो वह भी साथ-साथ रोने लगेगी। उसे 
              बिना वजह रोना आता रहता है। हमारी बिटिया कैलिफोर्निया में है, खुश 
              है। घंटों माँ बिटिया फोन पर बतियाती हैं, मगर मेरी बीवी को बिटिया 
              की याद आएगी तो रोने लगेगी। मैंने देखा है औरतों को रोना कुछ ज्यादा 
              ही आता है। मुझे कई बार लगता है, रोना उनके लिए ऐय्याशी है।’’ 
              सम्पूरन खड़ा हो गया, ‘‘मैं चलता हूँ। सुबह आपके स्वागत के लिए खड़ा 
              मिलूँगा।’’ 
                
              
              ...आगे  
              
              
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