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              क्या वह वास्तव में चुड़ैल थी? 
               
               
              दस हज़ार भी कितने दिन चलते। तवे पर एक बूँद पानी की तरह साबित हुए। 
              डायरेक्टर, कैमरामैन, कैमरे का भाड़ा, सुषमा की साडिय़ों का बकाया, 
              जाने उसकी जान को कितने बवाल थे! बहरहाल पैसे चुका कर वह तमाम तनावों 
              से मुक्त हो गया। दरअसल पचीस हज़ार रुपये की अग्रिम राशि ने ओबी की 
              जीवन शैली बदल दी थी। उधार चुका कर या पैसे बाँट कर वह परम सुख पा 
              रहा था। वह दिन आना ही था, जो मुँह बाये उसके सामने खड़ा था। लैब से 
              बार-बार फोन आ रहे थे कि वह जल्द से जल्द फ़िल्म उठा ले, जिसकी 
              प्रोसेसिंग हुए एक सप्ताह हो चुका था। सुबह वह अभी पहली चाय ही पी 
              रहा था कि दुरैस्वामी आ धमका। 
              ‘‘आज कुछ परेशान नज़र आ रहे हो?’’ 
              ओबी ने अपनी परेशानी बतायी और कहा कि अब उसके पास एक ही रास्ता बचा 
              है कि वह बैंक के लॉकर में रखी गहनों की पोटली बेच दे। 
              ‘‘गहनों की कोई पोटली नहीं हो सकती।’’ दुरैस्वामी बोला। 
              ‘‘मैं अपने हाथ से लॉकर में रखकर आया हूँ।’’ 
              ‘‘खैर! मुझे दिखायी नहीं देता। बैंक जाओ तो मुझे ज़रूर ले चलना।’’ 
              ‘‘मैं तो अभी नहा कर बैंक जाऊँगा।’’ 
              ‘‘ठीक है, मैं समुद्र किनारे एक अनुष्ठान कराने आया था। आध पौन घंटे 
              में आऊँगा।’’ 
              जब तक दुरैस्वामी लौटा ओबी बन-ठनकर तैयार था। गले में महँगी टाई थी, 
              आयातित शर्ट और कमीज़। जूते चमचमा रहे थे। कोई देखकर कह ही नहीं सकता 
              था कि उसकी जेब इस समय बिल्कुल खाली है। 
              ‘‘दुरैस्वामी, तुम्हारी जेब में कितने पैसे हैं?’’ 
              ‘‘डेढ़ सौ रुपये हैं, मगर मुझे इनकी ज़रूरत है।’’ 
              ‘‘कब ज़रूरत है?’’ 
              ‘‘आज ही।’’ 
              ‘‘आज ही लौटा दूँगा। निकालो पैसे।’’ 
              दुरैस्वामी ने चुपचाप डेढ़ सौ रुपये दे दिए। ओबी ने एक दस का नोट और 
              देखा तो वह भी छीन लिया। 
              ‘‘नहीं, यह नहीं दूँगा। यह हमेशा मेरे पास रहता है। इसे मैं खर्च 
              नहीं करता।’’ 
              ‘‘अजीब शख्स हो, रुपये तो होते ही खर्च करने के लिए हैं।’’ 
              ‘‘हम जैसे फकीरों के लिए नहीं।’’ दुरैस्वामी बोला, ‘‘अब चल दो।’’ 
              नीचे उतरते ही ओबी ने एक टैक्सी का दरवाज़ा खोला और बैठते हुए बोला, 
              ‘‘वर्ली सी फेस।’’ 
              दूसरे दरवाज़े से दुरै ने भी सीट ग्रहण कर ली। 
              बैंक पहुँचते ही ओबी मैनेजर के कमरे में घुस गया। दुरैस्वामी बाहर 
              बेंच पर बैठा रहा। ओबी कमरे से निकला तो उसके हाथ में लॉकर की चाबी 
              थी। एक चाबी मैनेजर के पास थी। मैनेजर ने अपनी चाबी घुमायी और ओबी ने 
              अपनी। भीतर लाल रंग की पोटली सही सलामत थी। उसने पोटली निकाल ली और 
              दुरैस्वामी को चिढ़ाने के लिए उसे छनकाने लगा। 
              दुरैस्वामी मुस्कराया। 
              ‘‘बड़े रहस्यमय तरीके से मुस्करा रहे हो?’’ 
              ‘‘बाबू साब। यह झनकार न सोने की है न चाँदी की। इस पोटली में, अगर 
              मैं गलत नहीं कह रहा तो ताँबे के खिलौने हो सकते हैं।’’ 
              ओबी ने पोटली उसे थमा दी। दो-चार चूडिय़ाँ, बिछिया, नथ, पाजेब, मौली, 
              सिन्दूर और एक छोटा-सा लाल रंग का दुपट्टा था। 
              ‘‘जब ये रखे थे तो सोने की तरह चमक रहे थे।’’ सम्पूरन बेतरह चौंका 
              हुआ था। 
              ‘‘यह अभिमन्त्रित धातु है। छिपकली की तरह रंग बदलती रहती है। किसी ने 
              जादू-टोना कर रखा है। इसे तुरन्त समुद्र में विसर्जित कर दो। बेहतरीन 
              जगह बाणगंगा है, ज़्यादा दूर भी नहीं। अभी चलते हैं। मुझे कोई 
              अनुष्ठान भी कराना होगा। कहीं से दो-एक नारियल और थोड़ा-सा मिष्टान्न 
              खरीद लो।’’ 
              दुरैस्वामी ने पोटली ओबी की तरफ बढ़ा दी, उसने छूने से भी इनकार कर 
              दिया, ‘‘न बाबा, मैं इस पचड़े में नहीं पड़ता। इसे तुम्हीं सँभालो।’’ 
              ओबी ने टैक्सी रोकी और बाणगंगा की तरफ चल दिया। उसके सामने भारी संकट 
              खड़ा हो गया था। उसकी उम्मीदों पर पानी फिर गया था। बीच में टैक्सी 
              रोककर उसने दुरैस्वामी से कहा कि वह जो चाहे खरीद ले और उसकी तरफ 
              पचास का नोट बढ़ा दिया। नोट देखकर दुरैस्वामी मुस्कराया और टैक्सी 
              रोककर सडक़ पार कर गया। वह बहुत-सा सामान खरीद लाया : नारियल, 
              धूपबत्ती, कलावा यानी लाल सूत, मोमबत्ती, कपूर आदि। ओबी चुपचाप देखता 
              रहा। दुरैस्वामी गाड़ी में बैठा तो टैक्सी बाणगंगा जाकर ही रुकी। वह 
              समुद्र तट के एक एकान्त स्थान पर पहुँच गया। जगह-जगह चिताएँ जल रही 
              थीं और शोकाकुल लोगों का हुजूम नज़र आ रहा था। ओबी को बहुत घुटन-सी 
              महसूस हुई। सारे वातावरण में चमड़ी जलने की दुर्गन्ध समायी हुई थी। 
              ‘‘यह कहाँ ले आये मुझे?’’ 
              ‘‘मेरे पीछे आओ। हम समुद्र तट पर एक नितान्त निर्जन जगह चुनेंगे।’’ 
              कोई आधा किलोमीटर चलने के बाद एक निर्जन स्थान दिखाई दिया। 
              दुरैस्वामी ने अपनी धूनी रमायी और ज़ोर-ज़ोर से मन्त्रोच्चार करने 
              लगा। बीच-बीच में वह ओबी से अस्थायी हवनकुंड में सामग्री डलवा रहा 
              था। वह कभी संस्कृत में पाठ करता, कभी किसी अनजान भाषा में कोई श्लोक 
              पढ़ता। उसने पोटली खोली और किसी को डाँटने लगा, ‘‘तुम दुबारा दिखाई 
              दिए तो तुम्हें ऐसा पाठ पढ़ाऊँगा कि तुम इस नरक से कभी निकल न पाओगे। 
              दुर दुर दुर! लौकर भाग जा। तुम्हारी मूड़ी समुद्र में डाल दूँगा। 
              बहुत हो गया। बहुत लोगों का खून पी चुके हो। आज तुम्हारा अन्तिम 
              संस्कार करके ही दम लूँगा।’’ 
              ओबी का मनोरंजन हो रहा था। आसपास चिरई का पूत भी नहीं था और 
              दुरैस्वामी ऐसे डाँट रहा था जैसे सामने कोई शैतान खड़ा हो। उसने 
              एक-एक कर सामान समुद्र में फेंकना शुरू किया। ओबी ने देखा सारी 
              चीज़ें समुद्र में डूबने की बजाय तैर रही थीं। दुरैस्वामी छोटे-छोटे 
              पत्थर उठाकर उन पर प्रहार करने लगा। पत्थर की चोट पड़ते ही कभी चूड़ी 
              डूब जाती, कभी बिछिया। 
              ‘‘आज तुम मेरे हाथ लगे हो, मैं तुम्हें नष्ट करके ही दम लूँगा।’’ 
              लम्बे समय तक उसका एकालाप चलता रहा। अन्त में उसने ओबी को आँखें बन्द 
              करने को कहा और श्लोक पढऩे लगा। 
              ‘‘जाओ ऐश करो। कम-से-कम अब यह भूत तुम्हारा कुछ न बिगाड़ पाएगा। एक 
              कमरा जो हमेशा बन्द रहता था और उस पर ताला लगा था...’’ दुरैस्वामी ने 
              कहा, ‘‘आज उसका भी ताला तोड़ डालूँगा। तुम्हें अच्छा स्टोर रूम मिल 
              जाएगा।’’ 
              ‘‘यानी कि एक और कमरा।’’ 
              ‘‘उस कमरे में गुरु ग्रन्थ साहिब स्थापित कर देना। वाहे गुरु 
              तुम्हारी रक्षा करेंगे।’’ 
              ‘‘तुम वाहे गुरु के बारे में क्या जानते हो?’’ 
              वह हँसा, ‘‘मैं रोज़ जपुजी का पाठ करता हूँ।’’ 
              ‘‘अब मुझे क्या करना होगा?’’ 
              ‘‘अब तुम एक लम्बी परिक्रमा करके आओ। मालाबार हिल की परिक्रमा। इधर 
              से निकल जाओ और सरकारी माउंटव्यू अतिथि गृह से होते हुए लौट आओ। मैं 
              तुम्हें बाहर मिलूँगा।’’ 
              ओबी को आलस आ रहा था। उसने कहा, ‘‘दुरैस्वामी मैं थक चुका हूँ। मुझे 
              क्यों सता रहे हो?’’ 
              ‘‘जैसे मैं कहता हूँ, वैसे ही करो। लौकर।’’ उसने चुटकी बजायी। 
              ओबी अनमना-सा उठा और सुस्त चाल से चल दिया। पहले तो उसके जी में आया 
              कि किसी रेस्तराँ में जाकर कॉफी पी कर लौट आये, मगर वह ऐसा कर नहीं 
              पाया। उसने पीछे मुड़ कर देखा दुरैस्वामी बाणगंगा के बाहर टहल रहा 
              था। 
              सम्पूरन ने गौर किया, एक अत्यन्त रूपसी हाथ में पूजा का थाल लिये 
              उसके पीछे चल रही थी। वह एक गली में घुस गया। रूपसी भी उसी राह पर चल 
              पड़ी। ओबी ने रुककर उसकी तरफ देखा। वह पचीसेक साल की लडक़ी थी, उसके 
              हाथ में एक थाली थी, माथे पर पूजा का तिलक था। वह सफेद साड़ी पहने 
              हुए थी। उसके चेहरे पर कोई भाव नहीं था। ओबी एक दूसरी सँकरी गली में 
              घुस गया और पीछे मुडक़र देखा वह अब भी उसका पीछा कर रही थी। वह मुख्य 
              सडक़ पर आ गया और तेज़ कदमों से चलने लगा। वह बीच-बीच में रुककर 
              देखता, उसे लगा उसके और युवती के बीच बराबर एक-सा फासला बना रहता है। 
              वह अतिथि गृह में घुस गया। वहाँ ऊँचे-ऊँचे पेड़ थे। एक पेड़ के रंगीन 
              पत्ते थे। वह देर तक उसे देखता रहा। उसने सोचा, अब तक चुड़ैल गायब हो 
              चुकी होगी। वह आराम से बँगलों के साथ-साथ चलता रहा। पाँच मिनट बाद 
              मुडक़र देखा, वह युवती उसी मुद्रा में उसके पीछे चली आ रही थी। उसकी 
              इच्छा हुई कि वह दौडक़र इस अप्रिय स्थिति से मुक्ति पा ले या किसी बस 
              में सवार हो जाए। वह ऊँची-नीची पहाडिय़ों के बीच बने टेढ़े-मेढ़े 
              रास्तों पर गायब होने की कोशिश करने लगा। उसने पीछे देखना बन्द कर 
              दिया और सिगरेट सुलगा कर खरामा-खरामा चलता रहा। मुख्य सडक़ पर पहुँचकर 
              उसने देखा, वह युवती यथावत उसका पीछा कर रही थी। कोई आधे घंटे बाद वह 
              बाणगंगा पहुँचा तो दुरैस्वामी को देखकर उसकी जान में जान आयी। 
              ‘‘वह देखो, कौन चुड़ैल मेरा पीछा कर रही है?’’ 
              ‘‘कहाँ?’’ 
              ओबी ने मुडक़र देखा पीछे कोई नहीं था। उसने विस्तार से सारा किस्सा 
              दुरैस्वामी को बताया। दुरैस्वामी हँसकर उसकी बात टाल गया। 
              ‘‘अब कहाँ जाओगे?’’ दुरैस्वामी ने पूछा। 
              ‘‘दफ्तर जाऊँगा। बहुत दिनों से काम पर नहीं निकला, आज कुछ काम करने 
              का इरादा है।’’ 
              ‘‘कैसा काम?’’ 
              ‘‘वही अपना पुराना काम। टाइम और लाइफ के ग्राहक बनाऊँगा। पाँच ग्राहक 
              भी बना लिए तो समझो शाम तक तुम्हारा उधार चुका दूँगा।’’ 
              ‘‘आज अच्छा दिन है। शाम को मिलूँगा। मुझे पैसों की सख्त ज़रूरत है। 
              खोली का किराया देना है और बिजली का बिल। घर में राशन भी नहीं है।’’ 
              ‘‘मैं छह बजे तक लौट आऊँगा।’’ 
              ओबी दफ्तर पहुँचा तो सुप्रिया बेसब्री से उसकी प्रतीक्षा कर रही थी। 
              ‘‘आज तो मैं मालामाल हो गया।’’ 
              ‘‘कैसे?’’ 
              ‘‘वह जो लाल पोटली तुमने दी थी, उसके तमाम गहने बेच डाले।’’ 
              ‘‘क्यों?’’ 
              ‘‘क्योंकि पैसे खत्म हो गये थे।’’ 
              ‘‘कितने में सौदा हुआ?’’ 
              ‘‘कुछ सोने से तो मैंने तुम्हारे लिए दो-दो चूडिय़ाँ बनवा दीं। बाकी 
              जो पचास हज़ार बचा उसे बिज़नेस में लगाऊँगा।’’ 
              ‘‘मेरे लिए चूडिय़ाँ क्यों बनवायीं?’’ 
              ‘‘ऐसे ही मन आ गया।’’ 
              ‘‘खुद ही रखना वे चूडिय़ाँ। मला नकोय।’’ 
              ‘‘तो मैं पहन लूँगा।’’ 
              सुप्रिया मुस्करायी। 
              ‘‘ज़रा मेरा ब्रीफकेस तैयार कर दो, मैं काम के लिए निकलूँगा।’’ 
              ‘‘ब्रीफकेस तैयार है। अगदी रेडी आई?’’ 
              ‘‘उसमें टाइम और लाइफ के नये अंक रखवा दो।’’ 
              ‘‘जी। ठेवलेले आहेत सर?’’ 
              दरअसल टाइम और लाइफ का भारत में जो अधिकृत एजेंट था, वह साल में 
              दो-तीन बार बचे हुए और वापस लौटे अंक रद्दी में बेच देता था। पहले वह 
              क्लिफ्टन पार्क एंड ली की भी रद्दी उठाता था। ओबी उससे दुगुने दाम पर 
              टाइम और लाइफ की सारी रद्दी खरीद लेता था। नयी रद्दी आते ही वह अपने 
              ब्रीफकेस में अपेक्षाकृत सारे अंक रखवा लेता था। 
              लेमिंग्टन रोड टैक्सी स्टैंड के अधिकतर ड्राइवर ओबी को पहचानते थे। 
              उसे देखते ही टैक्सी वाले सक्रिय हो जाते। ओबी बगैर भेदभाव के सबसे 
              पहले पडऩे वाली टैक्सी में बैठ जाता था। 
              ‘‘टाटा हाउस।’’ उसने टैक्सी में बैठते हुए कहा। 
              टाटा हाउस में चन्नी का एक दोस्त मार्केटिंग मैनेजर था— पसरीचा। उसने 
              सोचा आज यहीं से बिज़नेस शुरू किया जाए। 
              पसरीचा साहब के लिए कम्पनी के लिए ग्राहक बनना बहुत आसान था, 
              उन्होंने तुरत चैक बनवा दिया। पसरीचा साहब के पास एक और सज्जन बैठे 
              थे, पसरीचा ने ओबी से परिचय करवाया कि ये अरविन्द लाल शाह हैं और 
              टाटा की गाडिय़ों के लिए स्टियरिंग सप्लाई करते हैं। ओबी ने अरविन्द 
              लाल शाह से हाथ मिलाया और बोला, ‘‘आपको शायद मालूम नहीं कि जे आर डी 
              और कुछ पढ़ें या न पढ़ें, टाइम वीकली और लाइफ ज़रूर पढ़ते हैं। 
              उन्होंने एक इंटरव्यू में कहा है कि आज वे जिस स्थान पर पहुँचे हैं, 
              उसमें इन दोनों पत्रिकाओं की ज़बरदस्त भूमिका है।’’ 
              ‘‘तब तो भैया हमको भी ग्राहक बना लो।’’ 
              ओबी ने तुरत उनके नाम रसीद काटी, पता दर्ज किया और तीन सौ रुपये नकद 
              प्राप्त कर लिये। 
              ‘‘बग्गा साहब भी टाटा के लिए ऐन्सिलरी सप्लाई करते हैं। अगले मोड़ पर 
              इनका ऑफ़िस है। वह वर्षों से टाटा को हार्न सप्लाई कर रहे हैं। उन्हें 
              पढऩे का बहुत शौक है, वे ज़रूर आपकी प्रोडक्ट में दिलचस्पी दिखाएँगे। 
              नीचे उतरकर बायें मोड़ पर एक फर्लांग के फासले पर बग्गा हॉर्न्स का 
              आफ़िस है। आप उनसे मिलेंगे तो उन्हें खुशी होगी।’’ 
               
              ‘‘इधर आया हूँ तो उनसे भी मिलता जाऊँगा।’’ 
              ओबी ने अपना ब्रीफकेस उठाया और बगैर समय गँवाये बग्गा साहब के आफ़िस 
              में पहुँच गया। उसने अपना विज़िटिंग कार्ड दिया और बोला, ‘‘पसरीचा और 
              शाह आपकी बहुत तारीफ कर रहे थे कि ट्रेड में सबसे अधिक आप ही पढऩे के 
              शौकीन हैं। आपने टाइम और लाइफ का नाम सुना होगा। अभी हाल में जे आर 
              डी ने यह स्टेटमेंट क्या दे दिया कि वे अपने दिन की शुरुआत टाइम पढ़ 
              कर करते हैं, हमारे लिए पाठकों की माँग पूरी कर पाना कठिन हो रहा है। 
              फिर भी हमने तय किया है कि टाटा ग्रुप से सम्बन्धित प्रत्येक 
              एन्सिलरी सप्लायर को हम विशेष छूट पर टाइम और लाइफ मुहैया कराएँगे।’’ 
              बग्गा साहब ने पत्रिका के कवर पर एक अधनंगी अभिनेत्री का चित्र देखा 
              और तुरत तीन सौ रुपये ओबी को थमा दिए। ओबी ज़रा-सा भी समय गँवाये 
              बगैर दफ्तर जाकर टाटा के एन्सिलरी सप्लायरों के नाम जुटाने लगा। दिन 
              भर में उसने चार वार्षिक ग्राहक बना लिये थे। वह सुप्रिया के साथ 
              दफ्तर से निकला तो उसके पास कल के लिए दस फर्मों के नाम थे। उसने तय 
              किया जब तक फ़िल्म पास नहीं होती, वह अपना साइड बिज़नेस जारी रखेगा। 
              अभी तक उसने सुप्रिया को इस बिज़नेस की सफलता का राज़ नहीं बताया था 
              कि वार्षिक चन्दे से ऐश करो। बड़ी कम्पनियाँ इस बात पर गौर ही नहीं 
              करतीं कि कौन-सी पत्रिका प्राप्त हो रही है और कौन-सी नहीं। अगर 
              भूले-भटके कभी कोई शिक़ायत प्राप्त हो तो चुपचाप खेद प्रकट कर उनका 
              पैसा लौटा दो कि तकनीकी कारणों से विदेशी मुद्रा का प्रेषण फिलहाल 
              प्रतिबन्धित है। 
              ‘‘पैसा आने पर सबका पाई-पाई लौटा दूँगा, विश्वास रखो।’’ ओबी ने कहा। 
              ‘‘मैं जानती हूँ।’’ 
              नीचे उतर कर दोनों टैक्सी में सवार हुए। रास्ते में ओबी ने एक 
              ह्विस्की की बोतल, एक मुर्गा और सलाद वगैरह खरीदे। घर पहुँचा तो सबसे 
              पहले दुरैस्वामी के दर्शन हुए। ओबी ने तुरत जेब से दो सौ रुपये 
              निकाले और दुरैस्वामी का उधार ब्याज सहित चुका दिया। जब वह पचास 
              रुपये लौटाने लगा, ओबी ने वापस उसकी जेब में ठूँस दिये। 
              ‘‘कैसा दिन बीता?’’ दुरै ने पूछा। 
              ‘‘फस्र्ट क्लास।’’ 
              ‘‘अब तुम्हें पीछे मुडक़र नहीं देखना है। समझ लो आज तुम्हारी प्रेत 
              मुक्ति हो गयी है।’’ 
              ‘‘वह कैसे स्वामी?’’ सुप्रिया ने पूछा। 
              दुरैस्वामी विस्तार से आज का प्रकरण सुनाने लगा कि कैसे जादू-टोने से 
              मुक्ति हासिल की और कैसे लाल पोटली समुद्र को समर्पित कर दी। 
              ‘‘और वह सफेद कपड़ों वाली खूबसूरत चुड़ैल?’’ 
              ‘‘मुझे तो दिखाई नहीं दी।’’ दुरैस्वामी बोला। 
              ‘‘मैं ही जानता हूँ, मैं कितना उत्तेजित हो गया था। सफेद कपड़े पहने 
              एक युवती हाथ में थाल उठाये, दो-तीन किलोमीटर तक मेरा पीछा करती रही। 
              उसके थाल में एक दीपक जल रहा था।’’ 
              ‘‘सच?’’ 
              ‘‘बिल्कुल सच।’’ 
              ‘‘और मेरे लिए चूडिय़ाँ बनवाने वाली बात।’’ 
              ‘‘एकदम झूठ। उस वक्त मैं बहुत परेशान था। मगर तुम्हें चूडिय़ाँ ज़रूर 
              पहनाऊँगा।’’ 
              ‘‘कैसी थी वह युवती?’’ 
              ‘‘परी की माफ़िक थी।’’ अब ओबी इस घटना में आनन्द लेने लगा और उसने एक 
              फैंटेसी रच दी। सुप्रिया सहम गयी, ‘‘मैं साथ में होती तो चुड़ैल को 
              चप्पल उतार कर मारती।’’ 
              ‘‘कितना अच्छा है तुम साथ नहीं थी।’’ 
              बाकी शाम ओबी बढ़ा-चढ़ाकर सुप्रिया के सामने चुड़ैल के हुस्न का बयान 
              करता रहा। 
               
               
               
               
              
              
                
              लाजवाब तर्क 
                
               
              दो पैग पीते ही ओबी अपनी सामान्य अवस्था में आ गया, बोला, ‘‘मैं 
              रास्ते में सोचता आ रहा था कि तुम एक काम करो।’’ 
              ‘‘कसल काम?’’ 
              ‘‘जरीवाला को फोन मिलाओ। उससे कहो कि तुम उससे एकान्त में मिलना 
              चाहती हो।’’ 
              ‘‘पागल हो गये हो क्या? वह भरी महफ़िल में मुझसे थप्पड़ खा चुका है, 
              एकान्त में मिलने की बात करूँगी तो वह सोचेगा किसी साजिश में फँसा 
              रही हूँ।’’ 
              ‘‘उससे एपॉयंटमेंट लो।’’ 
              ‘‘उससे क्या होगा?’’ 
              ‘‘कहो, कर्टसी विजिट है।’’ 
              ‘‘फालतू कांहीतरी। दफ्तर में भला कोई कर्टसी कॉल करता है!’’ 
              ‘‘तो उससे कहो, तुम्हारी हार्दिक ख्वाहिश है कि वह खुद अपनी आँखों से 
              एक बार शॉर्ट फ़िल्म देख ले। कुछ चीजें हैं जिनकी सिर्फ वही कद्र कर 
              सकते हैं।’’ 
              ‘‘इस समय तो फोन करना मुनासिब न होगा। मला पटत नाही?’’ 
              ‘‘इस समय फोन करने के लिए कौन कह रहा है! सारी रात पड़ी है। होमवर्क 
              करेंगे। बहुत सोच समझकर, स्टोरी बनाकर बात करेंगे। मैं बात करता तो 
              कोई न कोई युक्ति निकाल लेता। तुम्हारा पुराना आशिक है, तुम्हारे लिए 
              कोई न कोई नर्म कोना होगा उसके दिल में।’’ 
              ‘‘मुझे अफसोस है मैंने बगैर सोचे-समझे उस पर हाथ उठा दिया।’’ 
              ‘‘मारो गोली पुरानी बातों को। नये सिरे से सोचो। तुम्हें याद हो न 
              याद हो, एक बार तुमने मेरे ऊपर भी हाथ उठाया था, यह दूसरी बात है 
              मैंने बीच में ही तुम्हारी कलाई थाम ली थी और कुछ इतने प्यार से 
              मरोड़ दी थी कि तुम रोने लगी थीं। तुम देर तक आँसू बहाती रहीं, मैं 
              तुम्हें मनाता रहा। मैंने तुम्हें बाँहों में भर कर चूम लिया, तुमने 
              अपने को बचाने की कोई कोशिश नहीं की।’’ 
              ‘‘बस यही गलती हो गयी।’’ सुप्रिया ने उसे बाँहों में भर लिया। 
              रात देर तक ओबी ने ड्रिंक्स लिये और उसे भी जिन पिलायी। एक एक संवाद 
              की रिहर्सल करायी। आइए देखें सुबह सवा ग्यारह बजे जब मारिया ने 
              जरीवाला को फोन मिलाया तो क्या हुआ। 
              रिसेप्शनिस्ट ने बगैर किसी हुज्जत के फोन मिला दिया। ओबी का अनुमान 
              ठीक था कि सुबह ग्यारह-बारह बजे तक वह हल्के खुमार में रहता है। 
              ‘‘सर मैं सुप्रिया बोल रही हूँ, क्लिफ्टन पार्क ऐंड ली से।’’ 
              ‘‘कैसी हैं सुप्रिया जी और ली कैसी है?’’ 
              ‘‘सर ली इंग्लैंड लौट गयी थीं। क्लिफ्टन और पार्क अब इस दुनिया में 
              नहीं हैं। मगर मिसेज क्लिफ्टन कभी-कभी भारत आती हैं।’’ 
              ‘‘आप बुरा न माने तो एक बात कहूँ?’’ 
              ‘‘कहिए न सर।’’ 
              ‘‘मैं बुनियादी तौर पर एक बहुत शरीफ और शर्मीला किस्म का आदमी हूँ। 
              आपसे मुलाक़ात के बाद मैंने एक सप्ताह ड्रिंक्स नहीं लिये। एक दिन 
              उपवास रखा। सारा किस्सा अपनी बीवी को बताया तो बोली वह तुमसे मिलना 
              चाहती है।’’ 
              ‘‘जहेनसीब सर, आप कितने अच्छे और नेकदिल इनसान हैं। मैं तहे दिल से 
              शर्मिन्दा हूँ। मुझे आवेश में नहीं आना चाहिए था।’’ 
              ‘‘होश तो मैं खो बैठा था। मैं नये सिरे से रिश्ता क़ायम करना चाहता 
              हूँ।’’ 
              ‘‘सर, मेरी ख्वाहिश है कि किसी भी निर्णय पर पहुँचने से पहले आप खुद 
              हमारी एड फ़िल्म देखें। ही माझी रिकवेस्ट आहे!’’ 
              ‘‘मैंने देसाई को मुआयने के लिए भेजा था, मगर वह थोड़ा सनकी किस्म का 
              आदमी है। मैंने उसे मीन-मेख निकालने के लिए रखा हुआ है।’’ 
              ‘‘सर उन्होंने ईमानदारी से यही किया, मगर एड फ़िल्म के कुछ अपने तकाजे 
              भी होते हैं। अगर आप अपनी मसरूफ जिन्दगी से पाँच मिनट निकाल लें तो 
              मुझे बहुत सुकून मिलेगा।’’ 
              ‘‘ऐसा करो मेरे साथ लंच करो, उसके बाद अपने ही मिनी थियेटर में देख 
              लेंगे। ठीक तीन बजे किसी को फ़िल्म के साथ रिसेप्शन पर भेज देना। मैं 
              ठीक तीन बजे ताज की लॉबी में तुम्हारा इन्तजार करूँगा, तुम जिस 
              रेस्तराँ में कहोगी, चलेंगे।’’ 
              ‘‘थैंक्यू सर, चालेल।’’ सुप्रिया ने कहा। 
              ओबी दूसरे फोन से सारी बातचीत सुन रहा था। उसने उसे बाँहों में भर 
              लिया, ‘‘चलो ताज के ही ब्यूटी पार्लर में चलते हैं। तुम्हें छोडक़र 
              मैं लौट आऊँगा। मुझे विश्वास हो गया है, हमारी नैया पार हो जाएगी।’’ 
              ओबी ने तुरन्त फोन करके टैक्सी मँगवायी। उसने सुप्रिया को पाँच सौ 
              रुपये थमाये और बोला, ‘‘पार्लर में फैशन डिजाइनर को बुलवाओ। जरीवाला 
              सादगीपसन्द और सुरुचिपूर्ण आदमी है। भव्य मगर सादा साड़ी, मैचिंग 
              ब्लाउज- पेटिकोट पार्लर में मँगवा लेना। नैंसी की मदद ले लेना। वे 
              लोग घंटे भर में ब्लाउज की स्टिचिंग कर देते हैं। जूते भी मैचिंग 
              पहनना। पुराने कपड़े एक कैरी बैग में वहीं छोड़ देना। बाद में मँगवा 
              लेंगे। आज तुम्हें क़ामयाब होकर ही लौटना है, हमलोग नाकामी एफोर्ड 
              नहीं कर सकते। गुडलक!’’ और ओबी ढेर सारी हिदायतें देकर उसी टैक्सी 
              में लौट गया। 
              दो घंटे तक सुप्रिया के चेहरे और बालों पर नैंसी ने जमकर काम किया। 
              ब्यूटिशियन ने सुझाव दिया कि वह बालों को खुला छोडऩे की बजाय कस कर 
              चोटी कर ले। ‘संस्कृति’ में बहुत कलात्मक पराँदे मिल रहे हैं। उसने 
              उसके होठों को ‘सैक्सीलुक’ देने के लिए न्यूड लिपग्लॉस का इस्तेमाल 
              किया। 
              ‘‘हमेशा लहरों के विरुद्ध तैरना सीखो। इस समय तुम मार्लिन मनरो की 
              माफ़िक ग्लैमरस लग रही हो। चोटी पराँदा कर लोगी तो पूरा हॉल पागल हो 
              जाएगा। कोई डायरेक्टर बैठा हुआ तो अपनी फ़िल्म में तुम्हारे ड्रेस की 
              नकल कर लेगा।’’ 
              नैंसी सोच रही थी, सुप्रिया किसी ऑडीशन के लिए तैयार हो रही है। 
              नैंसी ने उसकी बगलों में फ्रांसीसी नामालूम परफ्यूम का स्प्रे करते 
              हुए कहा, ‘‘तुम्हें मालूम है, फ्रांस में औरतें नहाती नहीं थीं। 
              तरह-तरह के स्प्रे से ही मर्दों को आकर्षित करती थीं। नहाने की 
              परम्परा तो अभी डेढ़ दो सौ साल से शुरू हुई है।’’ 
               
               
              ठीक तीन बजे सुप्रिया ब्यूटी पार्लर से निकली और खट-खट करती लॉबी की 
              तरफ चली आयी। नजरें घुमाकर उसने देखा, जरीवाला इकनॉमिक टाइम्स में 
              डूबा हुआ था। उसने नजरें उठा कर उसकी तरफ देखा, शायद पहचान नहीं 
              पाया। उसने दुबारा टाइम्स में नजरें गड़ा दीं। सुप्रिया मुस्कराते 
              हुए उसके पास पहुँची और बोली, ‘‘लगता है आपने मुझे पहचाना नहीं।’’ 
              ‘‘ओ, तुम सुप्रिया हो क्या? मैं तो सोच रहा था, आकाश से कोई परी उतर 
              आयी है। आओ बैठो, बताओ कैसा लंच लेना चाहोगी? थाई, चाइनीज, 
              कॉन्टिनेंटल या मुगलई?’’ 
              ‘‘सी फूड चलेगा।’’ उसने कहा और जरीवाला की बगल में बैठ गयी। 
              ‘‘भई वाह। आज पता चला तुम्हें देखकर उस दिन मैं क्यों बौरा गया था!’’ 
              ओबी के निर्देशानुसार वह जरा-सी मुस्करायी, उसने हिदायत दी थी कि 
              मुस्कराते हुए उसके मसूढ़े नहीं दिखने चाहिए। 
              ‘‘आज तो यहीं लॉबी में गुस्ताखी करने को मन हो रहा है।’’ 
              ‘‘सर आपका तारीफ करने का निराला अन्दाज है।’’ 
              ‘‘चलो बुखारा में चलते हैं। साढ़े तीन तक किसी हालत में दफ्तर पहुँच 
              जाना है।’’ 
              वे दोनों लिफ्ट में सवार हो गये। लिफ्ट ऊपर उठ रही थी। सुप्रिया का 
              दिल धक-धक कर रहा था। जरीवाला लिफ्ट के आईने में उसका पराँदा देख रहा 
              था। 
              वे लोग लंच के बाद दफ्तर पहुँचे तो देसाई साहब मिनी थियेटर को साफ 
              करवा चुके थे। फ़िल्म प्रोजेक्टर में लग चुकी थी। छोटा-सा थियेटर था, 
              पन्द्रह-बीस लोगों के बैठने की जगह थी, मगर हाल में सिर्फ तीन लोग 
              थे— जरीवाला, देसाई और सुप्रिया। जरीवाला बीच में विराजमान थे। 
              बिजली की तरह फ़िल्म स्क्रीन पर कौंध गयी। जरीवाला ने दोबारा देखने की 
              इच्छा प्रकट की। मॉडल उसे बेहद पसन्द आयी, सचमुच वह परी ही लग रही 
              थी। उसके हाथ में सॉफ्ट ड्रिंक की बोतल थी। अचानक परी बोतल में 
              तब्दील हो गयी— पाँच सैकेंड तक बोतल स्क्रीन पर कूदती रही और 
              धीरे-धीरे वह मॉडल में तब्दील हो गयी— मॉडल जिसके हाथ में कोला था। 
              ‘‘बहुत खूब।’’ जरीवाला ने कहा। 
              ‘‘मगर सर पाँच हजार वाले डे्रस से पूरा शॉट नहीं हुआ।’’ देसाई ने 
              कहा। 
              ‘‘सर अगर ड्रेस से न्याय किया जाता तो वह कोला का नहीं, ड्रेस का 
              विज्ञापन हो जाता।’’ सुप्रिया ने कहा, ‘‘ड्रेस केवल मॉडल के रूप को 
              एन्हांस करने के लिए था।’’ सुप्रिया ने ओबी का रटा-रटाया पाठ दोहरा 
              दिया। 
              ‘‘देसाई, इस पर कुछ कहना चाहोगे?’’ 
              ‘‘सर, मैंने इस नजरिये से नहीं सोचा था।’’ 
              ‘‘तो जाओ, मैम की बकाया राशि का चैक बनवा दो। हम लोग तब तक एक चाय 
              पिएँगे।’’ 
              सुप्रिया को अपनी इस सफलता का अन्दाजा नहीं था। जाने कैसे ओबी को 
              इतना अकाट्य तर्क सूझ जाता है! उसकी बात सुनकर देसाई दंग रह गया। 
              उसकी बोलती बन्द हो गयी। सुषमा के मना करने से वह अपमान का घूँट पीकर 
              रह गयी थी। उसे लग रहा था, उसका सपनों का महल ताश की तरह ढह चुका है, 
              जो अब कभी खड़ा नहीं होगा। इस वक्त उसका कलेजा बल्लियों उछल रहा था। 
              जरीवाला के प्रति वह बेहद विनयशील हो गयी, बोली, ‘‘आप तो देवता हैं 
              सर!’’ 
               
               
               
               
               
                
              भूत भगाने का अचूक गुर 
               
               
              चैक कैश होते ही ओबी ने एक ग्रैंड पार्टी थ्रो कर दी। पार्टी में कुछ 
              नये चेहरे भी दिखाई दे रहे थे। एक थे शेखर शरण और दूसरे थे अनुपम 
              राही। अनुपम राही स्क्रिप्ट राइटर था और सागर अदीब निर्देशक। दोनों 
              ने सागर अदीब की हिट फ़िल्म ‘रिश्ता’ में काम किया था। दोनों ने मिलकर 
              दूरदर्शन के लिए एक कॉमेडी धारावाहिक तैयार किया था, जिसके चार 
              एपिसोड शूट हो चुके थे और दूरदर्शन में विचाराधीन थे। इस धारावाहिक 
              का प्रोड्यूसर फ़िल्म लाइन में अनाड़ी था। चार एपिसोड बनाने में ही 
              उसका बजट से तिगुना पैसा खर्च हो गया। वह अब इसमें रुचि नहीं ले रहा 
              था। उसने निर्देशक और पटकथा लेखक से कहा कि वे उसे उसका पैसा दिलवा 
              दें तो वह धारावाहिक का कॉपीराइट बेच देगा। दोनों ग्राहक की तलाश में 
              थे और स्वर्ण के साथ पार्टी में शामिल होने आये थे। 
               
              स्वर्ण ने ओबी के सामने प्रस्ताव रखा कि वह इस अवसर को हाथ से न जाने 
              दे। प्रोड्यूसर नौसिखिया है, इस मरहले पर उसे यह निर्णय नहीं लेना 
              चाहिए, मगर वह खर्चों से इतना घबरा गया है कि तुरत इन्दौर लौट जाना 
              चाहता है, जहाँ उसका शराब और ट्रांसपोर्ट का व्यवसाय है। स्वर्ण ने 
              यह भी बताया कि दूरदर्शन में डी.डी.जी. सलूजा उसका लंगोटिया यार है 
              और वह कान पकडक़र उससे काम करवा लेगा। यह ज़रूर है कि बार-बार दिल्ली 
              जाना पड़ सकता है और भयंकर पियक्कड़ सलूजा को पटाने में भी कुछ खर्च 
              हो सकता है। कुल मिलाकर यही पचीस-तीस हज़ार का खर्चा है। ओबी ने इस 
              प्रस्ताव पर ज़्यादा ध्यान नहीं दिया तो वह सुप्रिया को विस्तार से 
              इसकी सम्भावनाएँ बताने लगा। सुप्रिया ने उसे कल ऑफ़िस में आने को कहा 
              और मेहमानों की देखभाल में मशगूल हो गयी। 
              आज की पार्टी का आकर्षण मनीषा सिन्हा थी, जिसकी पहली फ़िल्म फ्लोर पर 
              जा चुकी थी, जिसके इंटरव्यू इधर-उधर फ़िल्मी पत्र-पत्रिकाओं में 
              प्रकाशित हो रहे थे। वह बहुत बिन्दास और वाचाल किस्म की युवती थी। 
              सेक्स, न्यूडिटी और प्रेम उसके प्रिय विषय थे। पत्र-पत्रिकाओं के मुख 
              पृष्ठ पर उसके उत्तेजक चित्र छपा करते थे, मगर आज की पार्टी में वह 
              अपना बदन कुछ इस तरह ढँक कर आयी थी कि उसकी एड़ी तक देख पाना दुश्वार 
              था। वह शिवेन्द्र के साथ आयी थी। शिवेन्द्र अनेक अभिनेता 
              अभिनेत्रियों का इन्कम टेक्स एडवाइज़र था। जिस निर्देशक की फ़िल्म में 
              मनीषा को ब्रेक मिला था, वह भी शिवेन्द्र के मित्रों में से था। 
              निर्देशक ने ही मनीषा को परामर्श दिया था कि वह फ़िल्मी लोगों से 
              मेलजोल बढ़ाये। शिवेन्द्र अब तक उसे कई पार्टियों में ले जा चुका था। 
              उसे सख्त ताकीद थी कि दो पैग से ज़्यादा न ले और कम से कम ज़ुबान 
              खोले। जितना वह पाटियों में कैमरे से बचने की कोशिश करेगी, उतनी ही 
              ज़्यादा उसकी तस्वीरें उतारने की कोशिश होगी। 
              ‘‘आप जैसी भोली-भाली लडक़ी इतनी बदनाम इंडस्ट्री में क्योंकर आ गयी?’’ 
              एक पत्रकार ने उससे पूछा। 
              ‘‘आप शायद जानते नहीं, औरत हर इंडस्ट्री में असुरक्षित है। यहाँ तक 
              कि भरे बाज़ार में भी वह सुरक्षित नहीं है।’’ 
              ‘‘अपनी सुरक्षा के लिए आप क्या एहतियात बरतती हैं?’’ 
              मनीषा ने पर्स से एक नन्हा-सा पम्प निकाला और उसे ज़मीन की तरफ करके 
              हल्का-सा दबा दिया। उसमें लाल मिर्चों का पाउडर था। 
              ‘‘आप तो बहुत खतरनाक महिला हैं।’’ 
              मनीषा ने पर्स से एक नाइफ निकाला और उसका बटन दबा दिया। साँप के फन 
              की तरह कई ज़हरीली जीभें चमकने लगीं। 
              तभी किसी फोटोग्राफर ने उसका चित्र खींच लिया जो अगले रोज़ अखबारों 
              के पहले पृष्ठ पर छपा था। किसी समाचार-पत्र ने शीर्षक दिया था— फ़िल्म 
              उद्योग में विषकन्याओं का प्रवेश। किसी ने शीर्षक दिया— दुष्ट 
              अभिनेताओं की अब खैर नहीं। किसी ने चुटकी ली— अब हंटरवाली की जगह 
              चाकू वाली। एक फ़िल्मी वीकली ने बिकनी में उसकी ताज़ा तस्वीर छापी और 
              शीर्षक दिया— चोली में ज़हर। कई पत्र-पत्रिकाओं में ओबी का नाम भी 
              था। कुछ लोगों ने लिखा था राज कपूर के बाद सबसे ज़िन्दादिल मेज़बान। 
              वगैरह-वगैरह। 
              शिवेन्द्र एक बंगाली सुन्दरी शेफाली को लेकर खिडक़ी की पटिया पर बैठा 
              था। 
              ‘‘अगर मैं इस समय आपको हल्का-सा धक्का दे दूँ, आप समुद्र में जा 
              गिरेंगे।’’ 
              ‘‘शेफाली तुम नहीं जानती, मैं इस वक्त तुम्हारी आँखों के समुद्र में 
              डूब चुका हूँ। दूसरे तुम यह नहीं जानतीं, मैं कभी अकेले डूबना पसन्द 
              न करूँगा। डूबूँगा तो तुम्हें भी ले डूबूँगा। सच तो यह है शेफाली, 
              मैं डूब चुका हूँ।’’ 
              ओबी ने आज की पार्टी में एक युवा गज़ल गायक को भी बुलाया था, जिसे 
              स्वर्ण की सिफारिश पर उसने एक लॉज में जगह दिलायी थी। अचानक उसका फोन 
              आया तो ओबी ने उसे भी आमन्त्रित कर लिया— ‘‘अगर खूबसूरत चेहरे देखने 
              हों, अच्छा मुर्गा और विलायती शराब चखनी हो तो शाम को मेरे गरीबखाने 
              में चले आना।’’ 
              गगनजीत पार्टी में आने वाला पहला शख्स था। पार्टी शुरू होते ही वह 
              गटागट पीने लगा, जैसे युगों-युगों से प्यासा हो। ओबी की नज़र उस पर 
              गयी तो कहा, ‘‘सरदारजी अभी धैर्य रखो। अभी आपको कई फडक़ती हुई गज़लें 
              सुनानी हैं।’’ 
              ‘‘भराजी, जल्दी सुन लो अगर सुनना है, वरना मैं धुत हो जाऊँगा।’’ 
              ‘‘आज आप लोगों के बीच देश के उभरते हुए गज़ल गायक गगनजीत सिंह 
              उपस्थित हैं। मैं चाहता हूँ उनकी दो-एक गज़लें समात फरमाइए।’’ 
              ‘‘ज़रूर-ज़रूर। ह्विस्की के साथ गज़ल की जुगलबन्दी खूब जमेगी।’’ 
              शिवेन्द्र बोला, ‘‘आज शहरयार को सुनने का मन कर रहा है।’’ 
              ‘‘अक्सर मैं उस्तादों के कलाम ही सुनाता हूँ, मगर यह इत्तिफाक की बात 
              है कि आजकल मैं एक फ़िल्म के लिए शहरयार साहब की गज़लों का रियाज़ कर 
              रहा हूँ, आप भी गौर फरमाइए। गगनजीत ने थोड़ा-सा गला साफ किया और अपनी 
              गहरी बुलन्द आवाज़ में एक शेर पेश किया : 
              मैंने जिसको कभी भुलाया नहीं 
              याद करने पर याद आया नहीं 
              तेरा उजला बदन न मैला हो 
              हाथ तुझको कभी लगाया नहीं। 
              तालियों की ज़ोरदार गडग़ड़ाहट हुई और तमाम श्रोता अनुरोध करने लगे कि 
              एक बार फिर से हो जाए। गगनजीत ने इस बार और भी मिठास भर दी— 
              तेरा उजला बदन न मैला हो 
              हाथ तुझको कभी लगाया नहीं। 
              गज़ल ने समाँ बाँध लिया। लोग बार-बार यही दो शेर सुन रहे थे कि 
              गगनजीत ने कहा, शहरयार साहब की एक दूसरी गज़ल के दो शेर पेश करता 
              हूँ। 
              तेरे वादे को कभी झूठ नहीं समझूँगा 
              आज की रात भी दरवाज़ा खुला रखूँगा। 
              ‘मरहबा’, ‘मरहबा’ के बीच कैप्टन ने गगनजीत को आटे की बोरी की तरह 
              अपनी पीठ पर लाद लिया और झूमने लगा— 
              आज की रात से दरवाज़ा खुला रखूँगा। 
              ‘‘आज की रात से नहीं, कैप्टन साहब आज की रात भी।’’ 
              गगनजीत कैप्टन की पीठ से उतरा तो एक लम्बा-सा घूँट भर कर बोला— 
              देखने के लिए इक चेहरा बहुत होता है 
              आँख जब तक है, तुझे सिर्फ तुझे देखूँगा। 
              कैप्टन ने कभी शायरी नहीं सुनी थी। वह तो जैसे बावला हो गया। शेफाली 
              की आँखों में आँखें डाल कर देर तक गुनगुनाता रहा— 
              आँख जब तक है, तुझे सिर्फ तुझे देखूँगा। 
              गज़लों ने दारू की खपत बढ़ा दी। सुप्रिया ने फैसला किया कि खाना तुरत 
              लगा देना चाहिए वरना लोग या तो लुढक़ जाएँगे या कै करने लगेंगे। गनीमत 
              थी कि सब रिन्द थे, कोई भी टॉयलेट की तरफ नहीं भागा। सुप्रिया ने 
              तुरत-फुरत डाइनिंग टेबल पर खाना लगा दिया और लोगों से अनुरोध किया कि 
              डाइनिंग टेबल की तरफ बढ़ें। ओबी कभी डाइनिंग टेबल पर नहीं जाता था। 
              उसने ओबी के लिए एक प्लेट में खाना परोसा और सोफे पर ही दे दिया। लग 
              रहा था कि अगर पाँच मिनट की देर हो जाती तो वह सो जाता। अक्सर वह बीच 
              पार्टी में सो जाया करता था और मेहमानों को विदा करने का दायित्व 
              सुप्रिया और सुदर्शन को निभाना पड़ता। सबको भूख लगी थी, चारों ओर लोग 
              अपना भोजन परोस रहे थे। 
               
               
              अगले रोज़ सुबह-सुबह स्वर्ण का फोन आया— ‘‘बधाई गुरू, आज सलूजा ने 
              बताया कि वह कल सुबह की फ्लाइट से बम्बई आ रहा है।’’ 
              ‘‘कौन सलूजा?’’ ओबी ने पूछा। 
              ‘‘अब तुम्हें चढऩे लगी है। मैंने कल तुमसे दूरदर्शन वाले धारावाहिक 
              की बात की थी और स्क्रिप्ट राइटर और डायरेक्टर से भी मिलवाया था।’’ 
              ‘‘मैंने गौर नहीं किया। शायद तुमसे आज पता करने को कहा था। सुप्रिया, 
              तुम्हें कुछ याद है?’’ सुप्रिया ने ओबी के हाथ से रिसीवर ले लिया और 
              बोली, ‘‘हाई स्वर्ण।’’ 
              ‘‘यह ओबी को क्या होता जा रहा है?’’ 
              ‘‘कुछ नहीं, कल उसका मूड नहीं था। हाँ बोलो, क्या करना है?’’ 
              ‘‘मैंने बताया था न कि एक धारावाहिक के चार एपिसोड बनकर तैयार हैं और 
              दूरदर्शन में विचाराधीन हैं। प्रोड्यूसर को किसी ने बहका दिया है और 
              वह कॉपीराइट बेचकर इन्दौर लौट जाना चाहता है।’’ स्वर्ण ने अपनी बात 
              जारी रखी, ‘‘मैंने संकेत दिया था कि दूरदर्शन का जो डीडीजी सलूजा 
              धारावाहिक का काम देख रहा है, वह मेरा बचपन का यार है। ओबी को यही 
              बता रहा था कि उसका भाग्य अच्छा है कि सलूजा कल सुबह की फ्लाइट से 
              बम्बई आ रहा है।’’ 
              ‘‘प्रोड्यूसर क्या चाहता है?’’ 
              ‘‘सिर्फ आधा लाख। तीसेक हज़ार ऊपर का खर्च रख लो। इससे बेहतर मौक़ा 
              नहीं मिलेगा। तुम लोग विज्ञापन जुटा लोगे तो सोना बरसने लगेगा।’’ 
              ‘‘इतना पैसा आएगा कहाँ से?’’ 
              ‘‘ओबी से कहो किसी तरह यह डील पक्की कर ले। ज़िन्दगी भर के 
              वारे-न्यारे हो जाएँगे। एक एपिसोड के लिए लाख दो लाख के विज्ञापन 
              जुटाना मुश्किल न होगा। कोई स्पांसर मिल जाए तो सारी समस्याएँ हल।’’ 
              स्वर्ण इस प्रस्ताव को लेकर बहुत उत्तेजित था। बोला, ‘‘अनुपम राही 
              देश का जाना-माना व्यंग्य लेखक है और सागर अदीब बहुत टेलेंटेंड 
              निर्देशक। सलूजा साहब आ गये हैं। मैं चाहता हूँ कि हम सब मिलकर 
              एपिसोड देख लें। सलूजा से सीधी-साफ बात कर लें। वह हाँ करे और 
              धारावाहिक आपको रुचे तो बात आगे बढ़ाएँ।’’ 
              सुप्रिया ने गौर से उसकी बात सुनी। चार एपिसोड देखने में कोई हर्ज न 
              था और अगर सलूजा हाँ कर दे तो जोखिम उठाया जा सकता है। सुप्रिया ने 
              ओबी को विस्तार से सारी योजना बतायी कि अगर सलूजा धारावाहिक को 
              एप्रूव करने का आश्वासन देता है तो ठीक वरना केवल ओबराय या ताज में 
              लोगों के एंटरटेन करने की बात है। ताज और ओबराय के नाम से ओबी 
              उत्साहित हो गया, बोला ‘‘स्वर्ण ऐसा करो। आज दो एपिसोड देखते हैं और 
              उसके बाद फाइव स्टार में डिनर रख लेते हैं। कुछ समझ में आया तो बात 
              आगे बढ़ाएँगे।’’ 
              ‘‘तो मैं आज शाम सात बजे ताज के एक मिनी थियेटर में प्रबन्ध कराता 
              हूँ, उसके बाद डिनर पर खुलकर बात कर लेंगे।’’ 
               
               
              सलूजा साहब घूस की कमाई से अब तक दिल्ली में एक फ्लैट खरीद चुके थे, 
              जालन्धर में अपने पुश्तैनी मकान का जीर्णोद्धार करा चुके थे। 
              उन्होंने बहुत भव्य बाथरूम बनवाया था, क्योंकि उन्होंने अपने घर के 
              दुर्गन्धपूर्ण बाथरूम में ही यौवन बिताया था। नया बाथरूम ऐसा था कि 
              कोई भला मानुष घुस जाए तो निकलने का नाम न ले। वहीं छोटी-सी 
              लाइब्रेरी थी, सीडी प्लेयर था और जो बात वह सबको बहुत गर्व के साथ 
              बताते थे वह यह थी कि शौच के बाद प्रक्षालन का यन्त्र भी कमोड में 
              फिट था। गर्मी के दिनों में वह दिन में कई बार ‘हेलो टैस्टिंग’ कर 
              आते। मुम्बई के इस दौरे में भी वह एक फ्लैट खरीदने के लिए देखने आये 
              थे। उन्होंने कभी अच्छे रेस्तराँ में चाय भी न पी थी। तरक्की 
              करते-करते वह आज डीडीजी के पद पर पहुँच गये थे। इसका पूरा श्रेय वह 
              भगवान साईं को देते थे। दिन में एक बार नंगे पाँव वह साईं मन्दिर में 
              साईं बाबा के दर्शन करने भी जाते थे। इससे पहले इसी भक्तिभाव से वह 
              हनुमानजी की उपासना किया करते थे। 
               
              आज ओबी और सुप्रिया के साथ जब उन्होंने ताज की भव्य इमारत में प्रवेश 
              किया तो उनकी घिग्घी बँध गयी। उन्होंने इतने ऐश्वर्यपूर्ण दृश्य अब 
              तक केवल फ़िल्मों में देखे थे। आज उनकी तकदीर उन्हें ताज होटल ले आयी 
              थी। ओबी ने पहले से ही डाइनिंग हॉल में पाँच सीटें बुक करा रखी थीं। 
              ओबी और सुप्रिया के अलावा सलूजा साहब और स्वर्ण थे। 
              ‘‘बाश्शाओ की पिओगे?’’ ओबी ने पूछा। 
              सलूजा साहब वर्षों से सोलन नं. 1 ही पी रहे थे। उन्होंने कहीं पढ़ा 
              था कि वह भारत की स्कॉच है और बहुत सस्ती है। आजकल तो वह लगभग आधी 
              बोतल डकार जाते थे। स्वर्ण उनकी यह कमज़ोरी जानता था, बोला, ‘‘सलूजा 
              साहब को शिवाज़ रीगल पसन्द है।’’ 
              सलूजा साहब हो-हो कर हँसने लगे। उन्होंने कभी स्कॉच सूँघी भी न थी। 
              ‘‘आज हम भी सलूजा साहब की पसन्द की कद्र करेंगे।’’ ओबी बोला, 
              ‘‘सुप्रिया तो कम्पारी के अलावा कुछ पीती ही नहीं।’’ 
              ओबी ने बैरे को बुलाया। उसने आते ही सलाम ठोंका और बोला, ‘‘साहब आज 
              बहुत दिनों बाद दिखायी दे रहे हैं।’’ 
              ओबी खुद भी शायद ही कभी ताज आया हो। उसे ओबेराय पसन्द था। ओबी समझ 
              गया या तो बैरा बहुत चालू किस्म का बैरा है और ग्राहकों को प्रसन्न 
              करने के लिए सबसे ऐसा कहता हो या उसने उसे ठीक से पहचाना नहीं। 
              ‘‘बीच में बहुत मसरूफ रहा।’’ ओबी बोला और तभी आर्डर लिखने स्टुअर्ड आ 
              गया। ओबी ने आदेश दिया। कुछ ही देर में गिलास सज गये। सलूजा साहब ने 
              गिलास उठा कर ड्रिंक का फ्लेवर सूँघा। उनके लिए यह एक नयी सुगन्ध थी, 
              मादक और रेशमी। 
              ‘‘आप सोडा लेंगे या पानी?’’ 
              ‘‘सलूजा साहब स्कॉच में सिर्फ बर्फ डालते हैं। आप चाहें तो सोडे का 
              छौंक लगा सकते हैं।’’ स्वर्ण ने कहा। 
              ‘‘वाह क्या सलीका है!’’ ओबी बोला, ‘‘एक सीरियल बनाऊँगा, सलूजा का 
              सलीका।’’ 
              सब लोगों ने एक हल्का-सा ठहाका बुलन्द किया। 
              ड्रिंक तैयार होते ही सलूजा साहब एक ही घूँट में पूरा ड्रिंक पी गये। 
              ओबी ने चुटकी बजा कर एक पैग और मँगवाया। 
              ‘‘मैं पहले पटियाला पेग पीता हूँ। जब स्कूटर स्टार्ट हो जाता है, तब 
              आहिस्ता- आहिस्ता साहब लोगों की तरह सिप करता हूँ।’’ सलूजा साहब ने 
              अपनी हैसियत भी बता दी कि अभी तक स्कूटर की सवारी कर रहे हैं। 
              ‘‘मेरी आदत बहुत खराब है।’’ ओबी बोला, ‘‘मैं बहुत धीरे-धीरे पीता 
              हूँ। एक घंटे में एक पैग।’’ 
              ‘‘कितने पैग पीते हैं?’’ सलूजा ने पूछा। 
              ‘‘सात से बारह तक पाँच, ज़्यादा से ज़्यादा छह पैग। बीच में भोजन भी 
              कर लेता हूँ।’’ 
              ‘‘भई हम तो एक वक्त में एक ही काम करते हैं।’’ सलूजा बोला। 
              ‘‘मैं कभी लोगों से यह नहीं पूछता कि आप कितने पैग पीते हैं, मैं 
              पूछता हूँ, आप कितनी देर पीते हैं।’’ 
              सब लोग धीरे-धीरे सिप कर रहे थे। सलूजा के बाद स्वर्ण ने गिलास खाली 
              करते हुए कहा, ‘‘मैं तो सलूजा का हमवतनी हूँ।’’ 
              ‘‘धारावाहिक आपको कैसा लगा?’’ सुप्रिया ने पूछा। 
              ‘‘ए वन है। मगर हमारे यहाँ यह कोई बहुत बड़ी बात नहीं। और भी बहुत 
              कुछ देखा जाता है। लोगों में टीवी को लेकर क्रेज़ है। लोग कृषि दर्शन 
              और बच्चों के कार्यक्रम भी चाव से देखते हैं। मगर प्राइम टाइम पर तो 
              हर शख्स कुछ बेहतर देखना चाहता है। आपने देखा होगा, प्राइम टाइम पर 
              ही सबसे ज़्यादा विज्ञापन रहते हैं। विज्ञापनदाता आपके पीछे 
              दौड़ेंगे, निर्माता नहीं। इसीलिए इसका रेट ज़्यादा है।’’ 
              ‘‘किस चीज़ का रेट?’’ अनायास सुप्रिया के मुँह से निकल गया। 
              ‘‘स्वर्ण साहब, आप ही बताइए किस चीज़ का रेट?’’ सलूजा ने स्वर्ण को 
              कमान सौँप दी। 
              ‘‘धारावाहिक एप्रूव करवाने का रेट।’’ स्वर्ण सधी हुई ज़ुबान में 
              बोला, ‘‘मैं बीच में हूँ। सलूजा साहब मेरे बचपन के दोस्त हैं, मेरी 
              बात नहीं काटेंगे।’’ 
              ‘‘मगर इतना पैसा कहाँ से आएगा?’’ सुप्रिया ने पूछा। 
               
              ‘‘जब आप वर्ली में फ्लैट ले लेंगे तो मैं पूछूँगा, पैसा कहाँ से 
              आया?’’ 
              ‘‘तुम तो जानते हो हम लोग तो एक भुतहा मकान में रहते हैं।’’ ओबी ने 
              समय लेने के लिए भूतों की चर्चा शुरू कर दी, बोला, ‘‘सलूजा साहब, आप 
              यकीन नहीं करेंगे, उस इमारत में एक आयरिश युवती का भूत रहता है। उसके 
              प्रेमी का किसी दूसरी स्त्री से चक्कर चला तो उसने अपनी पत्नी की 
              हत्या करवा दी। वह युवती आज भी भूत बन कर वहीं रहती है।’’ ओबी 
              मनगढ़न्त कहानी सुनाने लगा, ‘‘पहले तो उसने दूसरी स्त्री का खून 
              किया, फिर अपने पति का। उसके बाद तो उसको जैसे हत्याओं का चस्का लग 
              गया। सुनते हैं इस इमारत में दजऱ्नों हत्याएँ, आत्महत्याएँ हो चुकी 
              हैं, कुछ लोग मारे डर के पागल हो चुके हैं। मगर एक मैं हूँ कि मैंने 
              उससे दोस्ती कर ली है। वह रोज़ रात को बारह बजकर एक मिनट पर आती है। 
              जब आती है तो परदे ज़ोर-ज़ोर से हिलने लगते हैं। समुद्र हाई टाइड में 
              आ जाता है। मेरे पास एक ऐसा गुर है कि वह मेरा कुछ नहीं बिगाड़ 
              पाती।’’ 
              ‘‘ओ ऐसा क्या है!’’ सलूजा साहब अपना खाली गिलास मेज़ पर ठकठकाने लगे। 
              तभी उनका पैग चला आया। 
              ‘‘आप विश्वास न करेंगे।’’ 
              ‘‘यार अगर सीरियल पास करवाना है तो मुझे बताना ही पड़ेगा।’’ 
              ‘‘बता दूँगा, मगर एक शर्त पर, आप मुझे पचास प्रतिशत डिस्काउंट 
              देंगे।’’ 
              सलूजा ने एक लम्बा घूँट लिया और बोला, ‘‘मंजूर है। वायदा रहा।’’ 
              ‘‘मेरी तरफ झुकिए, कान में ही बता सकता हूँ।’’ 
               
              सलूजा जितना ओबी की तरफ झुक सकता था, झुक गया। ओबी उस के कान में 
              बोला, ‘‘मैं लुंगी उतार देता हूँ। और वह भाग जाती है। भूत से यह 
              बर्दाश्त नहीं होता— भूत हो या भूतनी।’’ 
              सलूजा साहब हँसते-हँसते बेहाल हो गये। उनके पेट में बल पड़ गये। 
              स्वर्ण पूछता रह गया कि क्या बात हुई, वह हँसते-हँसते हाथ से मना 
              करते रहे। 
              अगले पैग में तय हो गया कि सलूजा साहब 25 हज़ार रुपये अग्रिम लेंगे 
              वह भी कल तक और शेष पचीस हज़ार पाँचवें एपिसोड के बाद। मुनाफे में दस 
              प्रतिशत उनका हिस्सा रहेगा। जितने विज्ञापन दिलाएँगे उसका पन्द्रह 
              प्रतिशत कमीशन लेंगे। 
              ‘‘हाँ तो कर रहे हो, पैसा कहाँ से लाओगे?’’ सुप्रिया ने ओबी से 
              फुसफुसाकर पूछा। 
              ‘‘कुछ दिन का काम चलाओ। मैं एक लाख जुटाऊँगा एक महीने के भीतर। चाहे 
              कहीं से भी लाऊँ।’’ 
              ‘‘क्यों नहीं भूतनी से माँग लेते?’’ 
              ‘‘आज उससे भी माँग कर देख लूँगा।’’ ओबी बोला। 
              ओबी और सुप्रिया को ग्रिल्डफिश पसन्द थी और किसी भी अन्य पंजाबी की 
              तरह सलूजा और स्वर्ण बटर चिकेन और नान के अलावा कुछ खाना ही नहीं 
              चाहते थे। 
               
               
               
               
               
                
              घर रहेंगे, हमीं उनमें रह न पाएँगे 
                
               
              ओबी-सुप्रिया की धारावाहिक के प्रोड्यूसर के साथ तीन बैठकें हो चुकी 
              थीं, मगर वह एक लाख से नीचे बात भी नहीं करना चाहता था। उसे इस बात 
              का भी बहुत कष्ट था कि वह एक लाख में ब्याज की राशि शामिल नहीं कर 
              रहा था। वह तो इतना जानता था कि वह एक लाख रुपये लेकर बम्बई आया था 
              और न सही ज्यादा अपनी मूल पूँजी एक लाख रुपये लेकर ही लौटेगा। 
              जायसवाल के परिवार का इन्दौर तथा म.प्र. के और भी कई शहरों में 
              ट्रांसपोर्ट का व्यवसाय और शराब के ठेके थे, यह राही उसे सब्ज बाग 
              दिखाकर बम्बई ले आया, जहाँ अब उसे खाने के लाले पड़े हुए हैं। ऊपर से 
              भाई लोग चिटिठयाँ लिख-लिखकर उसके जख्मों पर नमक छिडक़ रहे हैं। ओबी ने 
              पच्चीस हजार रुपये बतौर एडवांस उसके सामने रख दिये, लेकिन उसने उनका 
              स्पर्श तक नहीं किया। वह सारी राशि एकमुश्त चाहता था। 
              अब ओबी दिनभर रुपये जुटाने में लगा रहता, मगर कहीं सफलता मिलती नजर न 
              आ रही थी। ले-देकर दो-चार लोग थे जो उसकी मदद कर सकते थे, मगर उनसे 
              बात करने पर पता चला कि सबकी अपनी-अपनी सीमाएँ हैं। कैप्टन के पास 
              पैसा था, मगर वह नौकरी छोडक़र अपना छोटा-सा शिप खरीदने की कोशिश कर 
              रहा था। डैंगसन के पास भी अच्छी-खासी रकम थी, मगर उसका सारा पैसा 
              पत्नी के साथ संयुक्त एकाउंट में था। वह इतनी शक्की किस्म की महिला 
              थी कि प्रत्येक माह मैनेजर से फोन पर अपना बैलेंस पूछती थी। डैंगसन 
              के पास एक चैकबुक थी, जिस पर उसकी पत्नी के हस्ताक्षर थे, मगर उस 
              चैकबुक को लेकर वह इतना परेशान रहती थी कि उसकी पत्नी ने बैंक को 
              हिदायत दे रखी थी कि अगर एक हजार से अधिक राशि का चैक कैश हो तो उसे 
              तुरत उसकी सूचना दी जाए। डैंगसन की पत्नी टेलीफोन विभाग में काम करती 
              थी और जीभर कर टेलीफोन का दुरुपयोग करती थी। डैंगसन ने ओबी को अपनी 
              व्यथा बतायी तो ओबी बोला, ‘‘अँग्रेजी में एक मुहावरा है हेन पेक्ड 
              हसबैंड, तुम वही हो। हिन्दी में इसे जोरू का गुलाम कहा जा सकता है। 
              ऐसी शादी का क्या फायदा जहाँ बीवी साथ भी न रहे मगर उसका काला साया 
              हमेशा घर पर मँडराता रहे। उसे अल्टीमेटम दे दो कि नौकरी छोडक़र बम्बई 
              चली आये वरना तुम उसे तलाक दे दोगे।’’ 
              ‘‘वह यही चाहती है।’’ डैंगसन बोला, ‘‘वह मुझे छोड़ सकती है, अपनी 
              पेंशन वाली नौकरी नहीं।’’ 
              ‘‘उसका ट्रांसफर करवा दो।’’ 
              ‘‘बहुत कोशिश कर चुका हूँ, वह अमृतसर छोडऩा ही नहीं चाहती।’’ 
              ‘‘बच्चे कहाँ हैं?’’ 
              ‘‘दो बच्चे हैं, दोनों हॉस्टल में रहकर पढ़ रहे हैं। संडे के संडे घर 
              पर आते हैं।’’ 
              ‘‘मुझे तो दाल में कुछ काला नजर आता है।’’ ओबी बोला। 
              ‘‘दाल में काला नहीं, दाल ही काली है।’’ 
              ‘‘जरूर वह किसी के इश्क में गिरफ्तार है। वर्ना औरत इतने इतने दिन 
              बिना मर्द के कैसे रह सकती है?’’ 
              ‘‘जैसे मैं रहता हूँ।’’ डैंगसन हो होकर हँसा, ‘‘मेरी आधा दर्जन 
              प्रेमिकाओं से तुम भी वाकिफ हो।’’ 
              ‘‘वाह कितना बढिय़ा समझौता है!’’ 
              ‘‘मैं भी आजाद, वह भी खुश। पैसे पर कुंडली मारकर बैठी रहती है और 
              सोचती है, मैं बहुत सात्विक जीवन जीता हूँ। मेरी ऊपरी आमदनी न हो तो 
              मुझे एक बूँद शराब नसीब न हो, तुम तो मेरा बार देख चुके हो। बहरहाल 
              तुमसे बात करके जी हल्का हो गया।’’ 
              ‘‘तो तुम मेरी कोई मदद नहीं कर सकते?’’ 
              ‘‘कहीं से उधार दिलाने की कोशिश कर सकता हूँ। तुम्हें उधार देकर मैं 
              फकीराना जिन्दगी नहीं बिता सकता।’’ 
              ओबी ने एक बार शिवेन्द्र को भी आज़माना जरूरी समझा। वह चर्चगेट 
              पहुँचा तो शिवेन्द्र बाल्कनी में बैठा कोई पुस्तक पढ़ रहा था। 
              बीच-बीच में चुरुट का कश भरता। उसने ओबी को बैठने का इशारा किया और 
              पुस्तक उल्टी कर मेज पर रख दी। 
              ‘‘बोलो नौजवान, कैसे तशरीफ लाये?’’ 
              ओबी ने कम से कम शब्दों में अपनी समस्या उसके सामने रखी। शिवेन्द्र 
              ने चुरुट से दो एक लम्बे लम्बे कश खींचे और बोला, ‘‘तकदीर में 
              विश्वास रखते हो?’’ 
              ‘‘जिन्दगी ने कभी यह सोचने का मौक़ा ही न दिया। आप रखते हैं तकदीर में 
              विश्वास।’’ 
              शिवेन्द्र ने फलसफाना अन्दाज में दो-एक कश और खींचे और बोला, ‘‘रखता 
              हूँ, और नहीं भी रखता।’’ 
              ‘‘यानी?’’ 
              ‘‘सबकुछ अनिश्चित है। जिन्दगी एक घुड़दौड़ है, कोई नहीं जानता कौन-सा 
              घोड़ा आगे निकल जाएगा। एक जमाना था, मैं ज्योतिष में विश्वास रखता 
              था, यहाँ तक कि मैं घोड़ों की जन्मपत्रियाँ बना लेता था। जन्मपत्री 
              देखकर रेस में पैसा लगाता था। फ़िल्म उद्योग में सबकुछ गँवाकर मैंने 
              घोड़ों के बल पर अपने को फिर खड़ा किया। यह मकान भी गिरवी रखा था, 
              रेस के एक घोड़े ने ही छुड़वाया। एक रोज मैं अपनी जन्मपत्री देख रहा 
              था तो मुझे जानकर बहुत हैरत हुई, मैं अश्व योनि में ही पैदा हुआ हूँ। 
              हँसना मत, लेकिन अगर मेरे चेहरे को गौर से देखोगे तो घोड़े की झलक 
              दिखाई देगी।’’ 
              ओबी ने गौर से उसका चेहरा देखा, एक ओर से सचमुच उसके चेहरे में घोड़े 
              की छवि दिखाई दी। 
              ‘‘तुम्हारा चेहरा देखकर लगता है कि तुम्हारी सिंह राशि है। मगर तुम 
              एक ऐसे जंगल के राजा हो जहाँ प्रजा ही नहीं है।’’ शिवेन्द्र हँसा, 
              ‘‘मगर भूखों नहीं मरोगे, दुनिया का कोई सिंह भूख से नहीं मरता, वह 
              अपना शिकार ढूँढ़ ही लेता है। तुम भी शिकार पर निकले हो, किसी न किसी 
              को मार गिराओगे। मैं तो भई जुआरी हूँ, जुए की बदौलत जिन्दा हूँ। जुआ 
              भी बहुत सोच-समझकर खेलता हूँ। कल घुड़दौड़ है, हर घोड़े का इतिहास 
              पढ़ रहा हूँ, उसकी नस्ल पर विचार कर रहा हूँ। अखबारों में आज चेतक का 
              बहुत जोर है, मगर मैं जानता हूँ कल चेतक को सफलता नहीं मिलने वाली। 
              इसके बाप ने भी तब-तब लोगों को धोखा दिया था, जब उसके चर्चे जोरों पर 
              थे। कल मेरा प्रिय घोड़ा रुस्तम बाजी मार ले जाएगा। कल मेरी किस्मत 
              का फैसला होना है। तुम्हें मुझ पर भरोसा हो तो जी खोलकर दाँव लगा दो। 
              मैं जानता हूँ तुमने बहुत संघर्षों से कुछ धन कमाया है, तुम्हें यों 
              ही दाँव पर लगाने की राय नहीं दूँगा। मेरा क्या है, कल हारूँगा, तो 
              अगली बार जीत जाऊँगा। तुम्हें ताज्जुब होगा, मेरा तो बिजली का बिल तक 
              घोड़े ही चुकाते हैं। वही मुझे दारू पिलाते हैं।’’ 
              ‘‘रिस्क लेना तो कोई आपसे सीखे।’’ 
              ‘‘मैं भी बहुत केलकुलेटेड रिस्क लेता हूँ। मैं रेस एक्सपर्ट का धन्धा 
              भी करता हूँ। दिन भर जो दिमाग खपाता हूँ, उसकी कौड़ी-कौड़ी वसूल कर 
              लेता हूँ। अक्खी बम्बई में मेरे क्लायंट हैं, जो मुझसे टिप्स लेते 
              हैं और मुँहमाँगी फीस अदा करते हैं। पूना तक मेरा व्यापार फैला हुआ 
              है। मगर मैं किसी को कभी गलत राय नहीं देता। आगे उनकी किस्मत है।’’ 
              ‘‘तो मैं इजाजत लूँ?’’ ओबी ने कहा। 
              ‘‘मुझसे बातचीत करके तुम किस नतीजे पर पहुँचे?’’ 
              ‘‘यही कि फौरन से पेश्तर मुझे शिकार पर निकल जाना चाहिए। मगर जैसा कि 
              आपने कहा था मैं एक ऐसे जंगल का राजा हूँ, जहाँ प्रजा ही नहीं है।’’ 
              शिवेन्द्र ने ठहाका लगाया और बगैर एक भी मिनट खोये, पलटी हुई पुस्तक 
              उठा ली और उसमें डूब गया। 
               
               
              ओबी अब सडक़ पर था। उसे लग रहा था उसने अपनी हैसियत से कहीं बड़ी 
              परियोजना हाथ में ले ली है। अब उसे कोई रास्ता दिखायी न दे रहा था, 
              मगर वह अपने स्वभाव से परिचित था। जितनी बड़ी चुनौती उसके सामने आती 
              है, वह उससे किसी न किसी तरह निपट ही लेता है। 
              ओबी को शायद ही कभी अपने घर की याद आयी थी और न ही घर के किसी सदस्य 
              ने उससे कभी किसी तरह का सम्पर्क रखा था। कोई पन्द्रह बरस पूर्व जब 
              उसकी माँ का देहान्त हुआ था तो उसे इसकी सूचना एक छपे हुए पोस्ट 
              कार्ड से प्राप्त हुई थी कि उसकी माँ प्रीत कौर की अन्तिम अरदास अमुक 
              तारीख को थी। जब उसे पोस्टकार्ड मिला तब तक उस तारीख को बीते भी तीन 
              दिन हो चुके थे। उसे अचानक माँ की बहुत याद आयी, वह कुछ देर खामोश 
              रहा। 
              उसके पिता सेना से अवकाश ग्रहण करने के बाद पठानकोट में स्थापित हो 
              गये थे। वे कर्नल के पद से रिटायर हुए थे और उनकी सारी जमीन-जायदाद 
              और खानदानी घर डलहौजी में था। ओबी की माँ को डलहौजी का जीवन रास नहीं 
              आता था। वह पहाड़ में बसने को तैयार न थीं क्योंकि जाड़ा उनसे 
              बर्दाश्त ही न होता था और उनके जोड़ों का दर्द बढ़ जाता था। पठानकोट 
              उसकी माँ को इसलिए भी प्रिय था कि वहाँ उसके भाई रहते थे, जो सूखे 
              मेवों का व्यापार करते थे। वह अपने भाइयों की इकलौती बहन थी, वे सब 
              उस पर जान छिडक़ते थे। तब उनकी माँ भी जिन्दा थीं। पति लाम पर जाते तो 
              वह माँ के पास चली जातीं। उनके दो बेटे और एक बिटिया थी। बच्चों की 
              तालीम भी पठानकोट में ही हुई थी, बड़ा बेटा एम.ए. करते-करते अचानक 
              कैनेडा रवाना हो गया और वहीं जा बसा। वहाँ उसने आरे पर काम किया और 
              बाद में खुद का आरा लगा लिया। अब वह साल में एक बार माता-पिता से 
              मिलने पठानकोट आया करता था। ओबी की रुचि शुरू से ही नाटक वगैरह में 
              थी। शक्ल-सूरत भी माशाअल्लाह अदाकारों जैसी थी, वह सबके मना करने के 
              बावजूद बम्बई के लिए रवाना हो गया। मामा लोग चाहते थे, वह उनके 
              कारोबार में मदद करे। मेवे खरीदने के लिए उन्हें कश्मीर, पाकिस्तान 
              और अफगानिस्तान के चक्कर लगाने पड़ते थे, इस काम के लिए वह ओबी को 
              तैयार करना चाहते थे। मगर उसके मन में बस एक ही धुन सवार थी। उसकी 
              दिली ख्वाहिश थी कि वह घर वालों को हीरो बनकर दिखा दे। बम्बई में 
              उसने वह सब किया जो हीरो बनने के लिए पहुँचा कोई भी नौजवान करता है। 
              वह खुशी-खुशी फुटपाथ पर भी सोया। स्टूडियो के चक्कर लगाते-लगाते उसे 
              अपने जैसे कई साथी मिले। कुछ ने तो एक्स्ट्रा का रोल स्वीकार कर 
              लिया, कुछ दूसरी दिशाओं में निकल गये। एकाध को सफलता भी मिली, मगर वह 
              सफलता मिलते ही अपने तमाम साथियों को भूल गया। 
              ओबी जानता था उसके घर वालों के लिए लाख दो लाख की रकम बड़ी नहीं है। 
              मामा लोग तो और भी सक्षम थे। उसने तय किया, वह एक बार पुन: घर जाकर 
              हालात का जायजा लेगा। उसके अपने हिस्से में ही लाखों की जायदाद आती। 
              घर में केवल बूढ़ा पिता और एक विधवा बुआ थी, जो पिता की देखभाल करती 
              थी। भाई ने कैनेडा में एक गोरी से शादी कर ली थी और अब वहाँ पाँच 
              बच्चों का बाप था। 
              जिस रोज पुरुषार्थी को वेतन मिला, ओबी उससे पैसे लेकर पठानकोट के लिए 
              रवाना हो गया। उसके पिता नब्बे वर्ष के थे और अब भी शाम को भोजन से 
              पहले कोनियाक के दो पैग पीते थे। उन्हें न दिखाई पड़ता था, न कुछ 
              सुनाई देता था। डिनर से पहले वह दवा की तरह गर्म पानी में कोनियाक के 
              दो पैग पीते और सूप और खिचड़ी खाकर सो जाते। बुआ उनकी सब जरूरतों को 
              समझती थी और धूप में बच्चों की तरह गर्म पानी से उन्हें नहलाती थी। 
              उनके केश सँवारती थी, जो अब नाम मात्र को बचे थे। पगड़ी बँधी हुई रखी 
              रहती, वह उन्हें पहना देती और बाहर लॉन में एक कुर्सी पर उन्हें बैठा 
              देती। ओबी को यह वातावरण बहुत मनहूस लगा। मामा लोगों की हालत भी पिता 
              से बेहतर न थी। सिर्फ मझोले मामा नानक सिंह बचे थे, बाकी दो अल्लाह 
              को प्यारे हो चुके थे। तीनों मामियाँ जिन्दा थीं, किसी को फालिज मार 
              चुका था, कोई स्मृति खो बैठी थी। मझोली बहुत धर्मपरायण महिला थी और 
              सुबह शाम स्वर्ण मन्दिर के दर्शन करके आती थी। उसे गृहस्थी से कोई 
              मतलब नहीं था। उसकी सेवा के लिए एक सेविका थी और दर्शन पर ले जाने के 
              लिए ऐम्बसडर गाड़ी। वह दिनभर जपुजी का पाठ करती रहती। मामा लोगों का 
              कारोबार अब उनके बच्चों ने सँभाल लिया था और वे अनेक देशों में मेवे 
              एक्सपोर्ट करते थे। शोरूम अब वातानुकूलित था। पर उनमें से किसी ने 
              ओबी का नाम तक भी न सुना था। 
              ओबी ने बुआ से बहन का पता लिया और बहुत से उपहार लेकर बहन से मिलने 
              पहुँचा। बहन उसे देखते ही पहचान गयी और उसे इस बात का बहुत मलाल हुआ 
              कि उसने केश कटवा लिये थे। वह भीतर गयी तो एक नयी पगड़ी उठा लायी। 
              उसने ओबी को पगड़ी पहना दी, उसके बाद हालचाल पूछा। ओबी ने भी डींग 
              हाँकनी शुरू की कि वह समुद्र किनारे एक बड़े से फ्लैट में रहता है। 
              कई छोटी-छोटी विज्ञापन फ़िल्में बनाने के बाद अब दूरदर्शन के लिए एक 
              धारावाहिक बनाने की सोच रहा है। उसने बताया कि अगर उसे दो-तीन लाख 
              रुपये मिल जाएँ तो उसके रास्ते आसान हो जाएँ। 
              ‘‘तुम दो-तीन लाख की बात करते हो, तुम तो बीसियों लाख की जायदाद के 
              मालिक हो। बड़े वाला तो सुध लेता नहीं। मैं कहाँ-कहाँ दौड़ूँ! डलहौजी 
              वाली कोठी पर कुछ बाहुबलियों ने कब्जा कर रखा था। मैंने अकेले दम पर 
              उसे खाली करवाया। दारजी का एक दोस्त इत्तिफाक से उन दिनों गृहमन्त्री 
              हो गया था, उसने बहुत मदद की। वह प्रॉपर्टी ही बीस-तीस लाख की होगी, 
              मगर ताऊजी का वकील कहता है कि जब तक दारजी जिन्दा हैं, कोई बँटवारा 
              नहीं होगा। आज से दस बरस पहले दारजी ने विल की थी, वह भी रजिस्टर्ड 
              विल है और कोर्ट में जमा है। दारजी सौ साल जिएँ मगर उन्हें कौन 
              समझाये कि अपनी विल अभी खोल दें ताकि पता तो चले कि क्या कर गये 
              हैं!’’ 
              ओबी को स्पष्ट नजर आ रहा था कि भविष्य में उसे कोई कठिनाई न होगी, 
              मगर इस समय उसकी समस्याओं का निदान कैसे हो! 
              ‘‘मैं तुम्हारी मदद कर देती, मगर मेरी सास बहुत शक्की है। उसे हमेशा 
              यही शक बना रहता है कि मैं घर का पैसा मैके वालों को बाँटती रहती 
              हूँ। मेरी सास को पता चले कि तू आया हुआ है तो अभी से चौकस हो जाएगी। 
              तुम चुपचाप निकल जाओ, मैं कल घर आऊँगी और जो हो सकेगा, करूँगी। अब 
              तुम निकल जाओ। वह सत्संग को गयी हुई है, उसके आने का समय हो रहा 
              है।’’ 
              ओबी ने बड़ी बहन को सतसिरी अकाल कहा और पैर छूकर घर से निकल पड़ा। 
              उसने सोचा, लोग दूर-दूर से स्वर्ण मन्दिर साहब के दर्शन करने आते 
              हैं, आज वह भी कर ले। वह कुछ देर जलियाँवाला बाग में टहलता रहा। यह 
              ऐसा स्थान था, जहाँ जाकर कोई अँग्रेजों की गोलियों का शिकार बने 
              निहत्थे लोगों को श्रद्धांजलि दिये बगैर वापस नहीं जा सकता था। वह 
              जगह-जगह पत्थरों पर खुदी अँग्रेजों के नृशंस व्यवहार की कहानी पढ़ता 
              रहा। उसने कसम खायी अगर वह जिन्दगी में सफल हुआ तो जलियाँवाला बाग पर 
              जरूर फ़िल्म बनाएगा। मन ही मन फ़िल्म की कास्ट तय करता हुआ वह स्वर्ण 
              मन्दिर परिसर में पहुँच गया। सेवादार श्रद्धापूर्वक श्रद्धालुओं के 
              जूते जमाकर रहे थे। पूरा वातावरण उसे बहुत अलौकिक लगा। उसने गुरु 
              ग्रन्थ साहब के दर्शन किये। पवित्र सरोवर की परिक्रमा की और वहीं एक 
              जगह बैठकर गुरवाणी सुनने लगा। 
               
               
              अगले रोज वह धूप में बैठा अखबार पढ़ रहा था। उसके पिता आरामकुर्सी पर 
              अधलेटे हुए थे। बुआ उसके लिए सरसों का साग घोट रही थी कि उसकी बहन आ 
              गयी। ड्राइवर भीतर आकर कुछ सामान दे गया। ओबी के लिए ऊनी पुलोवर था, 
              पापड़, बडिय़ों का पैकेट था, एक पैकेट पीली शक्कर का था, जिसे बचपन 
              में ओबी बहुत चाव से खाया करता था। उसने आते ही अपने पिता का 
              चरणस्पर्श किया, मगर पिता गाफिल से पड़े थे। इसकी उन्हें चेतना भी 
              नहीं थी कि उनके बच्चे उनसे मिलने आये हैं। उन्होंने बिटिया को 
              पहचाना न बेटे को। वह आँखें खोलते और शून्य में तकते, चाहे कुछ दिखाई 
              दे या न दे। 
              ओबी ने अपनी बहन से परिवार के बारे में पूछा तो उसने बताया कि उसके 
              पति शहर में आँखों के सबसे बड़े डॉक्टर हैं। वह उस पर कम, अपनी बूढ़ी 
              माँ पर ज्यादा विश्वास करते हैं। शुरू से ही ममीज ब्वॉय हैं। उनके 
              पास लाखों रुपये होंगे, मगर तिजोरी की चाबी उनकी माँ के पास ही रहती 
              है। आज भी माँ के हाथ से बना खाना ही खाते हैं। बड़ी बिटिया का 
              फिरोजपुर में उसके पति के ही एक शिष्य से ब्याह हुआ है और वह खुश है। 
              बेटा नालायक निकल गया। डॉ. साहब ने उसकी तरफ ज्यादा तवज्जो नहीं दी, 
              वह थर्ड डिवीजन में बी.ए. पास करते ही गैर-कानूनी तरीके से किसी दलाल 
              को पाँच लाख रुपये देकर इंग्लैंड चला गया और वहाँ पर किसी पेट्रोल 
              पम्प पर काम करता है। कभी-कभी उसका फोन आता है और कहता है कि माँ 
              मेरी चिन्ता न करो, एक दिन आपको वैध तरीके से लन्दन ले आऊँगा और सारे 
              यूरोप की सैर करवाऊँगा। अभी हाल में ही किसी ने खबर दी कि आजकल उसका 
              वहीं की एक मुसलमान लडक़ी से अफेयर चल रहा है। उस लडक़ी की माँ मुसलमान 
              है और पिता जंडियाला गुरु के एक सिक्ख परिवार से ताल्लुक रखता है। 
              लडक़ी शादी के लिए तैयार हो रही है और ब्रिटेन की नागरिक है। वे लोग 
              भारत आकर शादी रचाएँगे और बाद में वह लडक़ी वैध वीजा पर सुखबीर को 
              लन्दन बुला लेगी। लडक़ी एक बैंक में नौकरी करती है और उसने किस्तों 
              में एक घर भी खरीद रखा है। 
              ‘‘मुझे तो शक है कि खसमखाना अभी से उसके साथ रहता होगा।’’ बहन ने 
              बहुत निराश होकर कहा। 
              ‘‘यह तो बहुत अच्छी बात है!’’ ओबी ने कहा, ‘‘मेरा भानजा है, कुछ तो 
              गुल खिलाएगा!’’ 
              ‘‘क्यों, तू भी किसी के साथ रहता है?’’ 
              ‘‘मैं नहीं, एक लडक़ी है, जो मेरे साथ रहती है।’’ 
              ‘‘तुम लोगों ने शादी नहीं की?’’ 
              ‘‘अभी तो नहीं की। करूँगा तो तुम्हें जरूर बुलाऊँगा।’’ 
              ‘‘क्या पंजाबन है?’’ 
              ‘‘नहीं महाराष्री?’’यन है।’’ 
              ‘‘क्या नाम है उसका?’’ 
              ‘‘सुप्रिया।’’ ओबी बोला, ‘‘मेरी बिजनेस पार्टनर है। धारावाहिक मंजूर 
              हो गया तो शादी कर लूँगा।’’ 
              ‘‘पहले पैसे का तो इन्तजाम करो।’’ बहन बोली और अपना पर्स खोलते हुए 
              बोली, ‘‘मेरे पास तीस हजार रुपये बचा कर रखे थे, वह ले आयी हूँ 
              तुम्हारे लिए।’’ 
              उसने पोटली ओबी के हवाले कर दी। ओबी ने झुककर बहन के पाँव छुए। उसने 
              देखा उसे देखकर बहन भावुक हो रही थी और लगातार उसके बालों पर स्नेह 
              से हाथ फेर रही थी। 
              ‘‘तुम्हारे लिए मैंने कल गोभी, गाजर और शलगम का अचार भी बनाना है। कल 
              भेजूँगी ड्राइवर के हाथ। तुम्हें नींबू और गलगल का अचार भी बहुत 
              पसन्द था। वह तो बाजार में मिल गया।’’ 
              ‘‘बम्बई पहुँच कर मैं तो सिर्फ अचार से खाना खाऊँगा।’’ 
              ‘‘बम्बई पहुँच कर भूल मत जाना। टेलीफोन हो तो अपना नम्बर भी दे दो।’’ 
              ओबी ने जेब से अपना विजिटिंग कार्ड निकाल कर बहन को दिया और उसके 
              नम्बर भी नोट कर लिये। 
              ‘‘सुखबीर शादी बनाने आये तो खबर करना। उसको मैं हनीमून की दावत 
              दूँगा। ऊटी में उसका पूरा इन्तजाम करवा दूँगा।’’ 
              ‘‘सपने लेते रहा करो। सपने देखने की तुम्हारी पुरानी आदत है। मेरे 
              वाहेगुरु ने चाहा तो एक दिन तुम्हारे सब सपने सच होंगे। मैं तो यही 
              दुआ कर सकती हूँ कि वाहेगुरु तुम्हें सफलता दें। सौ बरस जिओ। बम्बई 
              पहुँच कर राजी-खुशी का फोन जरूर करना।’’ 
              फिर वह पिता की हालत देखकर रोने लगी। 
              ‘‘जब भी आती हूँ, वह ऐसे ही पड़े रहते हैं। यह तो बुआ की मेहरबानी है 
              कि हमारे पिता की यों देखभाल करती हैं। मैं तो एक दिन भी इनकी सेवा न 
              कर पायी, न कर सकती हूँ। बुआ कैसे तो इन्हें खाना खिला देती हैं, 
              सारे नित्य कर्म करवाती है। हमलोग जिन्दगी भर बुआ के इस एहसान को न 
              भूल पाएँगे।’’ 
              बुआ पास में ही खड़ी थीं, बोलीं, ‘‘पगली ऐसा क्यों सोच रही है! यह 
              मेरा भी कुछ लगता है। यह न होता तो मैं एक बेसहारा औरत हो गयी होती। 
              जब से बेवा हुई, इसी ने अपनी बेटी की तरह मेरी देखभाल की। आज बेचारा 
              लाचार है तो हमारा भी उसके लिए कोई फर्ज बनता है।’’ 
              बुआ भीतर गयीं, शायद चाय का पानी चढ़ा आयी थीं। दो मिनट में 
              चाय-बिस्किट ले आयीं। दोनों महिलाएँ सुडक़-सुडक़कर चाय पीने लगीं। 
              ‘‘पंजाब में कितना संगीत है! लोग चाय पीते हुए भी म्युजिक को नहीं 
              भूलते। किसी फ़िल्म में मैं इस सुडक़-सुडक़ की आवाज दिखाऊँगा।’’ 
              ‘‘बस सपने लेते रहा करो।’’ बहन बोली, ‘‘मैं अब चलती हूँ। अपनी गरल 
              फ्रेंड को मेरा प्यार देना, अचार कल भेजूँगी। अब चलती हूँ। दारजी आ 
              ही रहे होंगे।’’ 
              ‘‘कल फ्रंटियर मेल का रिजर्वेशन है। पहुँचते ही खबर दूँगा। अपना 
              ध्यान रखना। अबकी बेटे का फोन आए तो मेरी याद दिलाना।’’ 
              बहन आँखें पोंछते हुए गेट की तरफ बढ़ गयी। ड्राइवर ने निकलकर दरवाजा 
              खोला और गाड़ी देखते ही देखते आँखों से ओझल हो गयी। बुआ और ओबी की 
              आँखें देर तक उसका पीछा करती रहीं। 
                
              
              
              ...आगे  
              
               
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