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17 रानडे रोड‌
(उपन्यास)

रवीन्द्र कालिया

VI

Index I II III IV V VII VIII IX X

जादू का पिटारा

 

सुबह जब शिवेन्द्र की गाड़ी कैडिल रोड से समुद्र की ओर रानडे रोड की तरफ घूमी तो सबसे पहले उसकी नजर सम्पूरन पर ही पड़ी। शिवेन्द्र ने ठीक सम्पूरन की बगल में गाड़ी रोक दी। पार्किंग के लिए यही जगह उपयुक्त भी थी। सम्पूरन ने आगे बढक़र दरवाजा खोला और शिवेन्द्र का हाथ अपने दोनों हाथों में भींच लिया, ‘‘आइए सर। दुरैस्वामी भी अचानक चला आया है।’’

‘‘मैंने ही उससे पहुँचने के लिए कहा था।’’

शिवेन्द्र सम्पूरन के आगे-आगे चलने लगा। वह लकड़ी की बूढ़ी मगर मजबूत सीढिय़ों पर ठक-ठक करते हुए चढ़ रहा था, ‘‘अरे वाह! सीढिय़ों पर रोशनी है। लग रहा है, दीवारें बिलकुल नयी हैं।’’

‘‘कोलम्बस ने अमरीका की खोज की थी, मैंने बम्बई में एक आला दर्जे का पेंटर खोज निकाला है। सारा घर उसी ने पेंट किया है।’’

‘‘भई वाह!’’ शिवेन्द्र बोला, ‘‘इस फ्लैट की धजा देखकर मुझे लग रहा है कि फौरन से पेश्तर मुझे भी घर पेंट करवा लेना चाहिए।’’

‘‘क्लिफ्टन पार्क एंड ली एक पेंटिंग विंग भी खोल रहा है।’’ सम्पूरन हँसते हुए बोला, ‘‘बिस्मिपल्लाभ आपके घर से ही होगा।’’

‘‘भई वाह!’’ शिवेन्द्र ने कहा, ‘‘इस उजाले में तो भूतों का भी दम घुट जाएगा।’’

‘‘मगर सर ये चमगादड़ बड़ी कुत्ती चीज हैं।’’ सम्पूरन ने बताया, ‘‘सीढिय़ों पर आज भी लटक रहे हैं। पेंटिंग के दौरान रिलकटेंटली शिफ्ट कर गये थे।’’

‘‘उनके दिन भी लद चुके हैं। सीढिय़ों में और अधिक रोशनी कर दो। इतना धुआँ कर दो कि उनका दम घुट जाए। जाडिय़ा तुम्हारा फ्लैट देखेगा तो खून के आँसू बहाएगा। यह मनहूस फर्नीचर भी बदल डालो।’’

‘‘फर्नीचर का भी काम कल करवा दूँगा। बस पैसा हाथ में आ जाए।’’

‘‘यह काम पार्टी से पहले हो जाना चाहिए। मैं अब्बास को फोन कर दूँगा। वह सोफों पर भी टेपेस्ट्री चढ़ा देगा। ये पलंग भी फेंक दो। न जाने किस किसने इन पर जुल्म ढाया है।’’

दुरैस्वामी इस सबसे बेखबर हवन करने में व्यस्त था। उसने श्लोक पढ़ते-पढ़ते दोनों को आसन ग्रहण करने, आहुति डालने का संकेत दिया। शिवेन्द्र अपने जूतों के फीते ढीले करने लगा। शिवेन्द्र की देखा-देखी सम्पूरन ने भी जूते उतार दिये। दोनों बारी-बारी से हवन सामग्री की आहुतियाँ देने लगे।

हवन समाप्त कर दुरैस्वामी ने कहा, ‘‘अब इस फ्लैट की प्रेत मुक्ति हुई।’’

‘‘हमारे नौजवान दोस्त का तो कोई अहित न होगा?’’

‘‘नहीं।’’ दुरैस्वामी ने दृढ़तापूर्वक कहा, ‘‘बहुत अच्छे मुर्हूत में आपके कदम इस फ्लैट पड़े हैं।’’

शिवेन्द्र ने प्रसाद की थाली में कुछ रुपये रख दिये तो सम्पूरन भी अपनी जेब टटोलने लगा।

‘‘आप चाय लेंगे या कुछ ठंडा मँगवाऊँ?’’

‘‘चाय तो मैं बहुत चुनिन्दा जगहों पर पीता हूँ। ठंडा पीने का मन नहीं है। मैं अब चलता हूँ। अब्बास आज ही तुमसे सम्पर्क करेगा। फ्लैट में जो सामान बदलना होगा, बदल देगा।’’

‘‘कितने पैसे खर्च होंगे?’’ सम्पूरन ने चिन्ता जताई।

‘‘तुम्हारे पास जब होंगे, दे देना। फिलहाल पार्टी की तैयारी करो। कुछ चूक न रहनी चाहिए। अब्बास आये तो किसी बात का संकोच न करना। यही सोचकर ऑर्डर देना, जैसे तुम्हारे बाप का माल है।’’ शिवेन्द्र ने अपना पाइप सुलगाया और समुद्र की तरफ देखते हुए कश खीचने लगा, ‘‘दुरैस्वामी लगता है मैं मीन लग्न में पैदा हुआ था, समुद्र से दूर जाने की कल्पना भी नहीं कर सकता।’’

समुद्र इस समय लो टाइड में था और एक थके सिपाही की तरह जैसे तट पर विश्राम कर रहा था। शिवेन्द्र सीढिय़ों की तरफ उन्मुख हुआ तो सब लोग उसके पीछे-पीछे चल दिये। मंगर भी चुपचाप पीछे-पीछे चल दिया। सब लोग सीढिय़ाँ उतर गये तो वह दरवाजे पर ताला ठोंकने लगा।

‘‘सर यही है मंगर, जिसने फ्लैट पेंट किया है। यह एक कुशल पेंटर ही नहीं, एक दिलफेंक आशिक भी है। अभी हाल में इसने एक नर्स से शादी की है।’’

शिवेन्द्र ने पीछे मुडक़र मंगर की तरफ देखा। वह सम्पूरन के दिये ढीले-ढाले कपड़े पहने हुए था।

‘‘जोकर भी लग रहा है।’’ शिवेन्द्र बोला, ‘‘फ़िल्मों में हल्का-फुल्का रोल कर सकता है।’’

शिवेन्द्र दुरैस्वामी को अपने साथ बैठाकर माहिम की तरफ निकल गया और सम्पूरन ने लेमिंग्टन रोड के लिये टैक्सी की। मंगर को ड्राइवर की बगल में बैठाकर वह टैक्सी की पिछली सीट पर पसर गया।

‘‘लेमिंग्टन रोड।’’ उसने कहा।

ऑफिस के सामने सुप्रिया खड़ी थी, बहुत सलज्ज मुद्रा में। दफ्तर पर ताला ठुका देखकर वह जैसे आशंकाओं से घिर गयी थी।

‘‘सॉरी सुप्रिया। आने में देर हो गयी, मंगर भी मेरे साथ था, कल से सुबह यही दफ्तर खोलेगा।’’

मंगर ने ताला खोला और जैसा कि सम्पूरन ने उसे रास्ते में समझाया था, झाडऩ लेकर सम्पूरन की कुर्सी झाडऩे लगा। उसने सुप्रिया की कुर्सी भी पोंछ दी और उसकी मेज पर नीचे जाकर कूलर से पानी का ठंडा गिलास भरकर रख दिया।

सम्पूरन ने थोड़ी देर बाद होंठ में सिगरेट खोंस ली और सुप्रिया को बुलवाया, ‘‘ट्रेन से आयी हो?’’

‘‘जी, मैं तो नौ तिरपन की ट्रेन से आ गयी थी।’’

‘‘दरअसल मैंने दादर में नया फ्लैट लिया है, गृहप्रवेश की तैयारी में देर हो गयी।’’

‘‘मुझे मालूम है।’’

सम्पूरन ने कहा, ‘‘पार्टी के रोज तुम्हारी मदद की जरूरत होगी।’’

‘‘कब है सर?’’

‘‘जल्द ही तय करूँगा।’’

‘‘घरी कोण कोण असतं? घर में और कौन है?’’ उसने उत्सुकतावश पूछा।

‘‘सच तो यही है कि मैं और मेरी तनहाई। फिलहाल अकेला ही रहूँगा।’’

‘‘परिवार कहाँ है सर?’’

‘‘मित्रों का भरा-पूरा परिवार है और क्या कहूँ!’’

सुप्रिया को और ज्यादा पूछताछ करना मुनासिब न लगा, ‘‘मेहमानों को कोई कष्ट न हो, मी असाच प्रयत्न करीन।’’

‘‘वैरी गुड।’’ फ्लैट का रेनोवेशन चल रहा है। पूरा होते ही पार्टी दूँगा। आज दफ्तर में कोई खास काम भी नहीं है, अच्छा हो तुम मंगर को साथ ले जाओ। जरा किचन वगैरह की व्यवस्था देख लो। आलमारियों वगैरह में चीजें यों ही बेतरतीब पड़ी हैं, कपड़ों को धूप दिखा दो और करीने से रख दो। अगर बुरा न समझो तो मेरा यह काम कर दो।’’

‘‘यात वाईट लागण्या सारखी कांही गोष्ट नाही सर। मैं चली जाऊँगी।’’

सम्पूरन ने पर्स से बीस रुपये निकालकर सुप्रिया को दिए और कहा, ‘‘पहले सब चीजें देख लो और किसी ज़रूरी चीज की जरूरत समझो तो मँगवा लेना। फ्रिज भी बन्द पड़ा है, दादर से किसी मकेनिक को बुलवा कर दिखा देना। तो जाओ अब, मेरे दो-तीन जरूरी एपॉयंटमेंट हैं, इस बीच में निपटा लूँगा। इसी सप्ताह पार्टी देने का इरादा है, इंटीरियर डेकोरेटर्स आयें, उससे पहले भीतर की चीजें व्यवस्थित कर दो। इसमें दो-चार रोज लग जाएँ तो कोई हर्ज नहीं।’’

सुप्रिया मंगर को लेकर रवाना हो गयी तो सम्पूरन ने राहत की साँस ली। वह कई रोज से सामान की छानबीन करना चाहता था, मगर उसकी हिम्मत न पड़ रही थी। अभी तक उसने पैसों के अलावा वहाँ की कोई भी चीजें न छुई थी। लग रहा था, जैसे ये किसी अभिशापग्रस्त व्यक्ति की चीज हैं, वह छुएगा तो उसे अभिशाप की छूत लग जाएगी। पैसा छूने में उसे किसी तरह की छूत का आभास न हुआ था। अगले दिन जब सम्पूरन की सुप्रिया से दफ्तर में भेंट हुई तो उसने छूटते ही कहा, ‘‘सर आपकी पत्नी की पसन्द बहुत सुरुचिपूर्ण है। मैंने इतनी खूबसूरत साडिय़ाँ इससे पहले कभी न देखी थीं और फिर उनके पास हर साड़ी से मैच करते कपड़े भी हैं, एक से एक सुन्दर। आपके पास भी कितने अच्छे-अच्छे सूट हैं।’’

सुप्रिया एक साँस में बोले जा रही थी और सम्पूरन मुस्कराते हुए उसकी बातें सुन रहा था। सुप्रिया क्षणभर के लिये रुकी तो उसने कहा, ‘‘मेरी कोई पत्नी नहीं है।’’

‘‘क्या मनमुटाव हो गया है?’’

‘‘नहीं, मेरी शादी ही नहीं हुई।’’

‘‘तो फिर ये साडिय़ाँ?’’

‘‘यह एक लम्बी कहानी है, कभी फुर्सत में सुनाऊँगा।’’

‘‘आणि हे दाग-दागिने?’’ सुप्रिया ने जेवरात की एक पोटली मेज पर फैला दी, उसमें पाजेब से लेकर मंगलसूत्र तक न जाने कितने जेवरात थे। कोई आधा दर्जन तो अँगूठियाँ थीं।

‘‘साडिय़ों के नीचे थी यह पोटली।’’

‘‘इसे क्यों उठा लायी?’’

‘‘वहाँ सुरक्षित नहीं थी।’’ सुप्रिया ने कहा, ‘‘इतना मामूली-सा ताला तो आप लगाते हैं दरवाजे पर!’’

‘‘तुम कहती हो तो लॉकर में रखवा देता हूँ।’’ सम्पूरन ने कहा, ‘‘जरा डैंगसन को फोन लगाओ।’’

सुप्रिया कैबिन से बाहर जाकर फोन मिलाने लगी। सम्पूरन के ज्यादातर दोस्त उसकी माली हालत से परिचित थे। दोस्तों में एक डेंगसन था, जो उसकी पृष्ठभूमि को तो जानता था, मगर बम्बई में उसकी हैसियत को नहीं। कोई एक माह पूर्व वह ट्रेन में मिला था, वह बी.ए. में उसका क्लासफेलो था और अब बम्बई में एक बड़ी इलेक्ट्रॉनिक कम्पनी का ब्रांच मैनेजर होकर आया था। वह बहुत तपाक से मिला था और उसे अपने घर पर भी आमन्त्रित किया था। उसकी पत्नी जालन्धर में किसी कॉलिज में अध्यापिका थी और वह किसी भी सूरत में नौकरी छोडऩे को राजी न हुई थी। कम्पनी ने दफ्तर की बिल्डिंग के ऊपर ही उसे दो बेडरूम का फ्लैट दे रखा था।

सुप्रिया ने फोन मिलाया तो डेंगसन ने उसी समय उसे बुला लिया कि लंच साथ ही करेंगे। सम्पूरन ने सुप्रिया से कहा, ‘‘वह यह पोटली सँभालकर उसके पोर्टफोलियो में रख दे और वह डैंगसन के यहाँ से लंच के बाद आएगा।’’

‘‘तुम्हारी टेलीफोन डायरी से जिन नामों को मैंने अंडरलाइन कर रखा है, उनमें से किसी का फोन हो तो डैंगसन का नम्बर दे देना।’’

‘‘जी सर।’’

सम्पूरन ने पोर्टफोलियो उठाया और सीढिय़ाँ उतर गया।

डैंगसन का दफ्तर बहुत क़ायदे का था। उससे मिलने के लिए सम्पूरन को चिट पर लिखकर अपना नाम भीतर भिजवाना पड़ा। वह शायद ऐसे काँच के कैबिन में बैठा था, कि भीतर बैठा आदमी तो बाहर देख सकता था, मगर बाहर का आदमी भीतर नहीं देख सकता था। सम्पूरन भीतर जाता इससे पहले ही वह उठकर आया और उसे गले लगाकर स्टाफ को यह सन्देश दे दिया कि भविष्य में इस शख्स को चिट भेजने की जरूरत नहीं है।

डैंगसन ने घंटी बजायी और चपरासी को आँख ही आँख से गिलास और बियर पेश करने का आदेश दिया। डैंगसन की बगल में ही रेफ्रिजरेटर रखा था, उसने बियर की बोतल और गिलास मेज पर रख दिये। डैंगसन गिलास टेढ़ा कर उसमें बियर डालने लगा।

‘‘हमारी कम्पनी इस मामले में बहुत उदार है। मेरा एंटरटेनमेंट एलाउंस इसी में जाता है।’’

‘‘बहुत बढिय़ा बियर है।’’ सम्पूरन ने बियर सिप करते हुए कहा।

‘‘यह हिन्दुस्तान की इकलौती बियर है, जिसमें ग्लिसरीन की मात्रा बहुत कम है। हमारी कम्पनी का यह फ्रिज भी गजब का है, बियर बहुत जल्द ठंडी करता है। एक भिजवा दूँ क्या?’’

‘‘बियर या फ्रिज?’’

‘‘दोनों भिजवा दूँगा।’’ डैंगसन ने पूछा, ‘‘क्या कर रहे हो?’’

‘‘बस झक मार रहा हूँ। शिवाजी पार्क में फ्लैट लिया है, उसी के रेनोवेशन में व्यस्त हूँ।’’

‘‘वाह! शिवाजी पार्क में कैसे पा गये?’’

‘‘जब ऊपर वाला देता है तो छप्पर फाड़ कर देता है। मेरे पास तो छप्पर भी न था।’’

‘‘काम-धाम कैसा चल रहा है?’’

‘‘बस गुजारा चल रहा है। अगले सप्ताह गृहप्रवेश करने जा रहा हूँ, तुम्हें आना है।’’

‘‘जरूर जाऊँगा। शादी बनाए कि नहीं?’’

‘‘अभी कुछ नहीं बनाया।’’ सम्पूरन बोला, ‘‘सिर्फ शेव बना लेता हूँ।’’

डैंगसन ने जोर से ठहाका लगाया, ‘‘घर कब से नहीं गये?’’

‘‘एक मुद्दत से।’’ सम्पूरन बोला, ‘‘अब बम्बई ही मेरा घर है और यही परदेस।’’

‘‘तुम्हें मालूम है आज लोहड़ी है।’’

‘‘न। लोहड़ी के नाम पर यही याद है— सुन्दरिये नीं मुन्दरिये, तेरा कौन ग्वाचा? याद है, लोहड़ी में हम लोग टोलियाँ बनाकर घर-घर चन्दा इकट्ठा करने जाया करते थे?’’

‘‘सब याद है यार, मगर सब दूर हो गया। आज शाम को चले आओ, कुछ बचपन को जिन्दा किया जाए।’’

‘‘आ जाऊँगा।’’

‘‘कहाँ रहते हो?’’

‘‘अँधेरी में एक गेस्ट हाउस में अपने एक दोस्त के साथ।’’

‘‘तुम मेरे यहाँ शिफ्ट कर लो, जब तक अपने फ्लैट में नहीं जाते।’’

‘‘ठीक है आ जाऊँगा।’’

‘‘चलो बरट्रोली में खाना खिलाता हूँ। खाना कैसा भी हो, मगर वेट्रेस तुम्हें पसन्द आएँगी।’’

दोनों को आश्चर्य हुआ बरट्रोली में सरसों का साग और मकई की रोटी मिल गयी। वेट्रेस उसे कोई भी पसन्द न आयी। सभी नकचढ़ी थीं और जरूरत से ज्यादा प्रोफेशनल। चेहरे पर जरा-सी भी मुस्कराहट नहीं।

डैंगसन अपनी बीवी की जिद का किस्सा ले बैठा। वह एक एक कर अपनी बीवी के जुल्म और सितम बयान करने लगा कि कैसे वह एक छोटी-सी नौकरी से चिपकी हुई है, बच्चों को भी उसके पास नहीं भेजती। गर्मी की छुटिटयों में जरूर आती है, मगर वह भी उससे लडऩे। उसे उसकी हर चीज नापसन्द है वगैरह-वगैरह। सम्पूरन ये तमाम बातें पहली मुलाक़ात में ही सुन चुका था, अब वह ऊब रहा था। शादी के सात साल बाद भी दोनों के बीच समझदारी पैदा नहीं हो सकी तो दोनों को अपने-अपने रास्ते अलग कर लेने चाहिएँ। वह कब तक इस तरह इस शहर में अकेला पड़ा रहेगा।

‘‘अपनी बीवी को अल्टीमेटम दे दो।’’ सम्पूरन बोला, ‘‘उससे कहो मेरे या नौकरी के बीच जिसे चुनना हो चुन ले।’’

‘‘वह नौकरी ही चुनेगी।’’

‘‘चुनने दो और आजाद हो जाओ।’’

‘‘मेरे संस्कार आड़े आ रहे हैं।’’

‘‘संस्कारों की खातिर जिन्दगी क्यों बर्बाद कर रहे हो! एक दिन पछताओगे, मगर तब बहुत देर हो चुकी होगी।’’

‘‘उसे अक्ल कब आएगी?’’

‘‘हो सकता है वह वहाँ किसी के प्रेम में पड़ी हो।’’

‘‘ऐसा नहीं हो सकता।’’

‘‘क्यों?’’

‘‘उसके संस्कार ऐसे नहीं हैं।’’

सम्पूरन ने ठहाका लगाया, ‘‘लगता है आपके संस्कार किसी दिन आपका प्राण ले लेंगे। आपको समय ही सिखाएगा।’’

‘‘समय बहुत बलवान है।’’ डेंगसन ने कहा और बिल अदा किया। सम्पूरन अब उसे और ज्यादा झेलने की स्थिति में नहीं था। उसने घड़ी की तरफ देखा, यह जताने के लिए कि वह जल्दी में है।

रेस्तराँ से निकलते ही उसने तेज-तेज कदमों से टैक्सी रोकी और सवार हो गया। उसे तुरन्त ध्यान आया कि वह अपना पोर्टफोलियो तो डैंगसन के दफ्तर में ही छोड़ आया है, उसने टैक्सी को डैंगसन के दफ्तर की तरफ मोडऩे के लिए कहा और टैक्सी छोड़ दी। डैंगसन खरामा-खरामा पैदल ही चला आ रहा था।

‘‘क्या हुआ?’’

‘‘अरे, मैं जिस काम से आया था, वह तो भूल ही गया। मेरे पास कुछ जरूरी चीजें हैं, जिन्हें बैंक के लॉकर में रखना चाहता हूँ।’’

‘‘मेरे दफ्तर के लॉकर में रख दो।’’ डैंगसन ने कहा।

‘‘उन्हें बैंक में ही रखना चाहता हूँ। तुम मुझे कहीं लॉकर दिलवा दो।’’

‘‘अभी दिलवा देता हूँ।’’ डैंगसन ने अपने दफ्तर में जाकर बैंक मैनेजर को फोन मिलाया और उसे अपने यहाँ बुलवा लिया।

‘‘हमारी फर्म का हर महीने लाखों का ट्रांजेक्शन होता है, पहले माले पर ही बैंक है। मेरी तरह मैनेजर भी इसी बिल्डिंग में रहता है, उसकी बीवी भी बैंक कर्मी है। रिजर्व बैंक में काम करती है।’’ सम्पूरन ने देखा, डैंगसन के मैनेजर से बेतकल्लुफी के ताल्लुकात थे। सम्पूरन को अपना खाता खोलने और बैंक लॉकर की औपचारिकताएँ पूरी करने में अधिक समय न लगा। फुर्सत मिलते ही उसने डायरी निकालकर पार्टी में आमन्त्रित किये जाने वाले लोगों में मैनेजर का भी नाम दर्ज कर लिया। संजय धारपोडकर। पोटली को लॉकर के हवाले कर उसने वाशबेसिन में जाकर हाथ धो लिये। लॉकर की चाबी अपने गुच्छे में सँभाल ली।

 

रिश्ता दुर्गन्ध और सुगन्ध का

 

इस घर में सबकुछ पूर्व निर्धारित है। सुबह सबके उठने का और रात को सोने का समय। नींद न आ रही हो तो सोने का स्वांग भरना या सोने की कोशिश करना। भाई-भाभी किचेन में सोते हैं। किचेन और कमरे के बीच दरवाजा नहीं है, एक मैला-सा साड़ी का पर्दा लटक रहा है। उस पर चिकनाई के इतने धब्बे हैं कि दिन में वह किसी पेंटिंग की तरह लगता है। उस पर हल्दी के दाग हैं, मिर्च मसाले के, दूध के, चाय के। भाभी ठीक दस बजे पर्दा गिरा देती है और फिर शुरू हो जाती है एक खुसुर-फुसुर। घर के तमाम लोगों के कान इसी खुसुर-फुसुर को समझने की कोशिश करते हैं। भाभी के कंगन की आवाज से ही अनुमान लगाया जा सकता है कि अब वह साड़ी उतार रही हैं, अब अन्त:वस्त्र। पास में लेटा छोटा भाई कुछ बुदबुदाता है, लगता है गाली दे रहा है। सुप्रिया की माँ उसके बाप के कान में कुछ फुसफुसाती है। खटिया चरमराती है और छोटा भाई और अधिक बेचैन हो उठता है। वह खाँसता है। उसे खाँसी नहीं आ रही, फिर भी खाँसता है। भाभी सिसकारियाँ भरती है, बेशर्म सिसकारियाँ। सुप्रिया छोटी बहन के बारे में सोचती है, मालूम नहीं वह भी उसकी तरह जग रही है या सो गयी है। जग रही है तो क्या सोच रही है? भाई के उच्छ्वासों से कमरे का माहौल जैसे घुटन से भर जाता है। सुप्रिया महसूस करती है उसका छोटा भाई जो उससे उम्र में दो बरस बड़ा है, वह भी अचानक धौंकनी की तरह हिलने लगता है। उसकी साँस फूल जाती है। जैसे मैराथन में भाग रहा हो। सुप्रिया ने महसूस किया एक चिरचिराती-सी गन्ध जैसे पूरे माहौल में भर गयी है, जैसे नरनारी की ताज़ा गन्ध का छौंक लग गया हो। वह तकिये में अपनी नाक छिपा लेती है और तय करती है, अपने पाँवों पर खड़ी होकर सबसे पहले अपने लिए अलग कमरा लेगी। माता-पिता को भी इस नरक से मुक्ति दिलाएगी।

एक दिन आधी रात उसकी नींद खुली तो बाप से भी उसका मोहभंग हो गया। सडक़ की तरफ खुलने वाली खिडक़ी से चाँद झाँक रहा था, इतना नजदीक कि लगता था, कमरे में घुस आएगा। उसने देखा उसने पिता के जिस्म पर कोई कपड़ा नहीं था, सिर्फ जनेऊ था, जो एक लय में लगातार हिल रहा था। नीचे माँ थी, एकदम नि:शब्द। वह उठकर बैठ गयी। उसकी इच्छा हुई जोर से चिल्लाये। चिल्लाने का साहस तो उसमें नहीं हुआ, वह तकिये पर मुँह रखकर सिसकियाँ भरने लगी। अचानक उसे अपनी दयनीय स्थिति पर क्षोभ होने लगा। वह ग्रेजुएट है, बालिग है, असुन्दर भी नहीं है, कौन कमी है उसमें जो इस कदर बिसूर रही है। वह उठी और उसने दृढ़तापूर्वक दरवाजा खोला और बाहर निकल आयी। चाँदनी रात थी। बॉल्कनी में भी बहुत से लोग सो रहे थे। चाँदनी की छोटी चादर उनके ऊपर बिछी थी। वह छज्जे से नीचे देखने लगी। सामने अहाते में सन्नाटा था। इक्के-दुक्के कुत्ते दुम दबाकर लेटे हुए थे। उसे बॉल्कनी में देखकर कुत्तों ने सर उठाकर उसे देखा और आँखें मूँद लीं। वे भी जैसे रात का सन्नाटा तोडऩा नहीं चाहते थे। सामने फुटपाथ पर कोई उकड़ूँ बैठा बीड़ी फूँक रहा था। सुप्रिया को जिज्ञासा हुई, वह अकेला बैठा क्यों जग रहा है और रात के तीसरे पहर बीड़ी फूँक रहा है। अचानक उसने अपने कन्धों पर किसी का नर्म स्पर्श महसूस किया। उसने अचकचा कर पीछे देखा। उसकी माँ थी। वह बहुत स्नेह से उसे सहला रही थी, ‘‘काय झाला बेटा, यहाँ क्यों खड़ी हो?’’

सुप्रिया माँ से सख्त नाराज थी, उसने यकायक हाथ झटक दिया।

‘‘तुम अभी नादान हो।’’ माँ ने धीरे-धीरे उसके बालों में हाथ फेरते हुए समझाया, ‘‘मैं भी तुम्हें कुछ नहीं समझा सकती। तुम तो पढ़ी-लिखी हो, मैं तो चाहती हूँ, तुम मेरी तरह मजबूर नहीं रहोगी। बहुत-सी किल्लतें जुड़ी रही हैं औरतों के साथ। मजबूरियाँ भी।’’

सुप्रिया माँ की बातों का अर्थ समझ रही थी। वह कुछ नहीं बोली और माँ के साथ-साथ भीतर चली आयी। माँ उसके पास ही फर्श पर बिछी चटाई पर लेट गयी।

सुप्रिया सुबह तक सामान्य हो गयी थी। उसने हस्बेमामूल भाइयों के लिए नाश्ता तैयार किया। बहन और भाई को चुपचाप नाश्ता दिया। भाभी सुबह का समय घर की झाड़-पोंछ में ही लगाती थी। वह रेडियो खोल देती और मटकते हुए झाड़ू चलाती। सुप्रिया अपना काम निपटा कर निकली तो उसका बड़ा भाई जल्दी-जल्दी दफ्तर के लिए तैयार हो रहा था। उसे देखकर बोला, ‘‘मैंने कहा था न कि तुम नौकरी-वौकरी नहीं करोगी।’’ उसने गले में टाई बाँधते हुए कहा, ‘‘सुन रही हो मेरी बात?’’

सुप्रिया ने उसकी बात का जवाब नहीं दिया और अपने लिए तैयार किया टिफिन उठाकर पर्स में रख लिया। भाई ने उसे बाहर जाने की तैयारी में देखा तो बोला, ‘‘घर से बाहर कदम रखा तो टाँगें तोड़ दूँगा।’’

सुप्रिया ने पीछे मुडक़र भी न देखा और सीढिय़ाँ उतर गयी। वह थोड़ी ही दूर पहुँची थी कि उसने पाया कोई उसका पीछा कर रहा है। उसे लगा कि उसका भाई आ रहा है और अब उसे सरेआम बेइज़्ज़त करेगा। उसने पीछे मुडक़र देखा, भाई नहीं, चाल का एक मवाली किस्म का नौजवान फ़िल्मी अन्दाज में उसके पीछे-पीछे चला आ रहा था। सुप्रिया ने स्टेशन का रास्ता पकड़ लिया। बीच बाजार में उसके बहुत से परिचित थे। उसके मामा की स्टेशनरी की छोटी-सी दुकान थी और उससे थोड़ा आगे एक वस्त्रालय में उसके चाचा काम करते थे।

वह लडक़ा ठीक उसकी बगल में आ गया और बोला, ‘‘हमसे ऐसी भी क्या नाराजगी?’’

सुप्रिया चुपचाप चलती रही।

‘‘क्यों इतना जुल्म ढा रही हो? कभी हमसे भी बात कर लिया करो...।’’

‘‘वरना...?’’

‘‘वरना क्या?’’

‘‘चप्पल उतार कर यहीं पीटूँगी।’’

बाजार में काफी लोगों की भीड़ थी। बहुतों ने उसकी बात सुनी भी होगी, मगर किसी के पास फुर्सत नहीं थी।

सामने से एक सिपाही डंडा घुमाते हुए चला आ रहा था। सुप्रिया ने उससे यों ही पूछ लिया, ‘‘माटुँगा के लिए बस कहाँ मिलेगी?’’

लडक़े ने सुप्रिया को सिपाही से बात करते देखा तो भीड़ में ही गायब हो गया। वह सीधे पुल पारकर प्लेटफार्म पर गाड़ी की प्रतीक्षा करने लगी।

वह दफ्तर पहुँची तो दफ्तर पर ताला लटक रहा था। कुछ देर वह दफ्तर के आसपास मँडराती रही और लेमिंग्टन रोड पर विंडो शापिंग करने लगी। एक घंटा बिताकर जब वह दुबारा लौटी तो दफ्तर तब भी बन्द था। उसे याद आया, आज गृहप्रवेश की पार्टी थी और सब लोग उसी में व्यस्त होंगे।

तभी उसे जया दिखाई दी। जया उसकी सहपाठी थी और हॉस्टल में रहती थी। उसके पिता का गुजरात में कपड़े का लम्बा-चौड़ा कारोबार था। कॉलेज के दिनों में वह अक्सर अध्यापिकाओं के बीच साडिय़ों के पैकेट बाँटा करती थी। आये दिन उसके कमरे में चोरी होती रहती थी। सुनने में आता, वह छात्राओं को ही नहीं, अपनी अध्यापिकाओं को भी सप्ताहान्त पर माथेरान पिकनिक के लिये ले जाती थी। माथेरान में उसके पिता का एक गेस्ट हाउस था। सुप्रिया ने उसे देखा तो आँख चुराने की कोशिश की मगर वह आँख चुराते पकड़ी गयी। सुप्रिया से आँखें चार होते ही जया ने उसे बाँहों में भर लिया और बोली, ‘‘तुम यहाँ लेमिंग्टन रोड पर क्या कर रही हो?’’

‘‘तुम बताओ, कपड़े के इतने बड़े व्यापारी की लडक़ी को आज कपड़े की दुकान पर क्या काम पड़ गया?’’

‘‘कम ऑन यार। मेरे पिता कपड़े का धन्धा करते हैं, चड्डियों का नहीं,’’ जया ने कहा, ‘‘लेमिंग्टन रोड पर किसको टाइम दे रखा है?’’

दोनों ने ठहाका लगाया। सुप्रिया बोली, ‘‘मैंने नौकरी कर ली है।’’

‘‘कहाँ?’’

‘‘क्लिफ्टन पार्क एंड ली में।’’

‘‘वाऊ! कोई मल्टीनेशनल कम्पनी है?’’

सुप्रिया मुस्करायी, ‘‘मल्टीनेशनल नहीं ग्लोबल। कुछ-कुछ ऐसी कि रहने को घर नहीं है सारा जहाँ हमारा।’’

‘‘अपना दफ्तर नहीं दिखाओगी?’’

‘‘वह देखने लायक नहीं है। बारह बजने को आये हैं, अभी दफ्तर का ताला ही नहीं खुला।’’

‘‘मारो गोली, तो चलो मेरे साथ। पास ही कैम्प्स कार्नर पर मेरा कमरा है। आजकल मैं पेइंग गेस्ट हूँ। एक बूढ़ी पारसी औरत के यहाँ। चलो मिलवाती हूँ। समुद्र से जरा ही दूर है।’’

सुप्रिया कुछ देर सोचती रही, फिर बोली, ‘‘चलो।’’

जया ने टैक्सी रोकी और दोनों कैम्प्स कार्नर की तरफ चल दीं। जया ने पर्स से चाबी निकाल कर दरवाजा खोला। मिसेज ज़रीवाला सोफे पर एक कुत्ते को गोद में लिये ऊँघ रही थीं। उनके साथ-साथ उनका कुत्ता भी ऊँघ रहा था। जया हल्के कदमों से सीढिय़ाँ चढ़ गयी और कमरे में पहुँचकर उसने पंखा ऑन कर एयरकंडीशनर चला दिया। वह कुर्सी पर बैठकर अपने जूते-मोज़े उतार कर इधर-उधर फेंकने लगी। सुप्रिया संकोच में खड़ी थी।

‘‘अब खड़ी क्यों हो, रिलैक्स। बोलो, चाय-कॉफी चलेगी या कुछ ठंडा।’’

‘‘बस पानी पिऊँगी।’’

‘‘फ्रिज से एक बोतल निकालो और मुझे भी पिलाओ।’’

सुप्रिया ने फ्रिज के ऊपर रखे गिलास से पानी पिया और एक गिलास पानी जया को दिया।

जया अपना सामान खोलने लगी।

‘‘देखो कितने बढिय़ा अंडरवियर लायी हूँ। प्योर कॉटन है, इससे झीनी कॉटन ढूँढने पर भी न मिलेगी। छूकर देखो, कितनी सिल्की हैं!’’

सुप्रिया ने अंडरवियर छूकर देखा, सचमुच रेशम की तरह मुलायम था। डिब्बे में अलग-अलग रंगों के एक दर्जन अंडरवियर थे।

‘‘अभी पहनकर दिखाती हूँ। तुमसे कैसी शर्म! सच-सच बताना कैसा लग रहा है।’’

जया ने कुर्सी पर बैठे-बैठे अपना स्कर्ट उतार दिया और मिल्की ह्वाईट अंडरवियर पहनने लगी। सुप्रिया ने उसकी पुष्ट और सुडौल टाँगों को देखा तो उसकी छूने की इच्छा हुई। जया की टाँगें किसी अभिनेत्री की टाँगों से कम सुन्दर न थीं। उसकी जंघाओं को देखकर उसे लगा कि यह नन्हा-सा अंडरवियर बीच में ही फँस कर रह जाएगा, मगर जया के हल्के से प्रयास से वह यथास्थान पहुँच गया।

‘‘इसकी मैचिंग ब्रा भी पहनती हूँ।’’ जया ने कहा और अपने बदन पर पहना हुआ ढीला-ढाला टॉप भी उतार दिया। उसने बगैर किसी झिझक के अपनी ब्रेसियर भी उतार दी।

‘‘तुम्हें शर्म भी नहीं आती?’’ सुप्रिया ने कहा, ‘‘मैं तो अपने सामने भी निर्वस्त्र नहीं होती।’’

‘‘एक न एक दिन तो होना ही पड़ेगा। अभ्यास करने के लिए यही ठीक उपाय है।’’ जया ने ब्रा पहनते हुए कहा, ‘‘सबसे छोटे साइज की भी ब्रा उपलब्ध थी।’’

सुप्रिया ने देखा, जया के बदन पर हल्की-सी गोलाइयाँ थीं। उसके कुचाग्र अधपके अनार के दानों की तरह गुलाबी थे। उसने खुद ही नजरें फेर लीं। ‘‘अब यह नाटक बन्द करो। जल्दी से कपड़े पहनो।’’

जया उसके सामने तन कर खड़ी हो गयी, ‘‘बताओ कैसी लगती हूँ?’’

‘‘एकदम बेशर्म, बेहया।’’ सुप्रिया ने कहा। उसने देखा, उसका अंडरवियर इतना झीना था कि भीतर से सुरमई रंग झलक रहा था। इसके विपरीत एक उसका बदन था कि अनचाहे बालों से अटा पड़ा था। उसे लगा कि बालों का भी सम्पन्नता से कोई गहरा ताल्लुक है। बाल जैसे विपन्नता के प्रतीक चिह्न हैं।

‘‘सुप्रिया, तुम भी एक अंडरवियर पहनकर देखो कितना आरामदायक है। ब्रा पहनोगी तो मालूम भी न होगा।’’

सुप्रिया ने दादर से एक सिली हुई ब्रा खरीदी थी, जो जगह-जगह से उधड़ गयी थी। इतवार के इतवार धोकर वह उसी से काम चला रही थी।

जया तो उसके पीछे ही पड़ गयी कि एक बार पहन कर तो देखो। सुप्रिया न-न करते हुए पीछे हटने लगी, ‘‘मैं तुम्हारी तरह बदन की नुमाइश नहीं लगा सकती।’’

‘‘चलो बाथरूम में जाकर बदल लो। मेरा यह छोटा-सा तोहफा भी स्वीकार न करोगी?’’

बाथरूम में जाकर ‘ट्राई’ देने का इरादा उसे बुरा न लगा।

‘‘चलो आज तुम्हें नहला दूँ।’’ जया बोली।

नहाने का विचार भी उसे बुरा नहीं लगा। बहुत दिनों से उसे जमकर नहाने का मौक़ा न मिला था। रसोई में जहाँ बर्तन माँजे जाते थे, वहीं माँ-भाभी और उसके नहाने की व्यवस्था थी, मगर रसोई बहुत कम समय के लिये खाली रहती थी। अक्सर तो घर में पानी का ही हाहाकार मचा रहता था।

‘‘देखो कितना चिपचिपा मौसम है! नहा-धोकर फ्रेश हो जाओ तो इत्मीनान से बैठकर कोक पीते हैं। बाद में हैंगिंग गार्डन चलेंगे। मैं तो रोज एक घंटा बाथरूम में बिताती हूँ। औरतों को इसकी सख्त जरूरत रहती है, मगर घरों में इतनी प्राइवेसी कहाँ मिलती है!’’

सुप्रिया ने अत्यन्त आत्मीयता से जया की तरफ देखा। आज तक किसी ने उसके प्रति, उसकी जरूरतों के प्रति कोई दिलचस्पी न ली थी। उसने कहा, ‘‘ठीक है, मैं नहा लेती हूँ, मगर पहले तुम कपड़े पहन लो।’’

‘‘चलो तुम्हें समझा दूँ कहाँ क्या रखा है। गर्म पानी चाहिए तो यह गीजर है। ये शीशियाँ तुम्हें अनचाहे बालों से छुटकारा दिला देंगी, यह शैम्पू है, सीधा फ्रान्स से आया है और यह बेबी आयल जिसकी तुम्हें सख्त जरूरत है।’’

‘‘तुम अब बाहर जाओ।’’

‘‘समय बिताने के लिये शेल्फ में किताबें भी हैं।’’

सुप्रिया ने पहली बार इस तरह का बाथरूम देखा था, उसका मन भी लग रहा था। स्त्रियों की हाइजीन पर बहुत-सा साहित्य भी था।

‘‘नाऊ गेट आउट। मुझे अकेला छोड़ दो।’’

नये खरीदे गये अन्त:वस्त्रों का एक सेट रखकर जया ने दरवाजा बन्द कर दिया और कमरे में लौट गयी। सुप्रिया एक-एक चीज का जायज़ा लेने लगी। वह प्रसाधन सामग्री की शीशियों पर निर्देश पढऩे लगी। उसे लगा कि उसे जया जैसी मित्र की सख्त जरूरत थी। सबसे ज्यादा वह अनचाहे बालों से परेशान थी। लड़कियों को स्लीवलेस लिबास में देखकर वह चमत्कृत होती थी कि वे कैसे इतनी साफ-सुथरी बनी रहती हैं। सबसे पहले वह यही काम करना चाहती थी। उसने यही किया और निर्देशानुसार समय बिताने लगी। इस बीच उसने नाखून भी काट लिये और पटरे पर बैठकर एडिय़ों की देखभाल करने लगी। तभी दरवाजे पर दस्तक सुनायी दी। सुप्रिया ने जल्दी से तौलिया लपेट कर थोड़ा-सा दरवाजा खोला, ‘‘क्या है?’’

‘‘तुम्हारे लिए कोल्ड ड्रिंक।’’ जया ने दरवाजे के भीतर हाथ बढ़ाकर कोक का गिलास थमा दिया, ‘‘बीच-बीच में सिप कर लेना।’’

सुप्रिया ने गिलास थाम लिया, उसे सचमुच बहुत तेज प्यास लग रही थी। उसने एक किताब खोल ली और पढऩे लगी। उसके दिमाग की कई खिड़कियाँ खुलने लगीं। उसे मालूम ही नहीं था, औरत के शरीर को उससे कहीं ज्यादा ये किताबें जानती हैं। वह उसमें ऐसा खो गयी कि वक्त का पता ही न चला।

‘‘भीतर सो गयी हो क्या?’’ जया ने आवाज दी तो वह जैसे तन्द्रा से उठी। उसने पानी की तेज धार के नीचे अपने को खुला छोड़ दिया। पानी के उद्दाम से स्पर्श के बाद उसके शरीर से जैसे सदियों की घास-फूस और काई उतर गयी। उसने बाँह उठाकर दर्पण में देखा तो अपने बदन पर फिदा हो गयी। सारे बदन में जैसे स्फूर्ति दौड़ गयी। उसने एक लम्बा घूँट भरा और गुनगुने पानी से अपने झागदार बाल धोने लगी। नाली की महीन जाली में बहुत-सा मटमैला झाग देखकर उसने महसूस किया जैसे उसके बालों में कितनी धूल थी। दोबारा शैम्पू करने पर बाल भारहीन हो गये, फूले-फूले। वह बाल धोकर तौलिया उठाने मुड़ी तो देखा उसके कपड़े खूँटी से गिरकर पानी में गिर गये थे। उन कपड़ों को देखकर कल्पना भी नहीं कि जा सकती थी कि वे पहनने लायक हैं! उसने झुककर ब्लाउज उठाया, उससे पानी चू रहा था। उसने कपड़ों को वाशिंग मशीन में डाल दिया और स्विच ऑन कर दिया। मशीन में कपड़े सुखाने की भी व्यवस्था थी। आगे क्या करना है, यह जया ही बता सकती थी। उसने गुलाबी रंग का तौलिया पेटीकोट की तरह बदन पर लपेट लिया और एक छोटे तौलिये की पगड़ी बाँधकर कमरे में नमूदार हो गयी।

‘‘अरे वाह, तुम तो मार्लिन मनरो लग रही हो!’’ जया ने उसे देखा तो बेड पर से उछलते हुए उसे बाँहों में भर लिया, ‘‘ड्रिंक कैसा था?’’

‘‘बहुत बढिय़ा।’’

‘‘और लोगी?’’

‘‘हाँ, थोड़ा-सा दो।’’

उसने जिन में कोक मिलाकर ड्रिंक उसे थमा दिया।

‘‘यह क्या मिला रही हो?’’

‘‘जिन।’’ जया ने कहा, ‘‘औरतों को हमेशा जिन मिलाकर ही कोक पीना चाहिए।’’

‘‘जिन क्या बला है?’’

‘‘आलू का रस है।’’ जया ने कहा, ‘‘टानिक समझो।’’

सुप्रिया ने गटागट गिलास खाली कर दिया। उसे हल्का-सा नशा महसूस हुआ, ‘‘क्या शराब मिली है इसमें?’’

‘‘नहीं शबाब।’’ जया ने कहा और उसे अपनी तरफ खींच लिया। सुप्रिया का तौलिया खुलकर गिर गया। जया ने उसे खाट पर खींच लिया और अपने होंठ उसके होंठों पर टिका दिये। सुप्रिया कुछ समझती उससे पहले ही उसने ऊपर चादर डाल ली। सुप्रिया उसके बाहुपाश में कसमसा रही थी। उसने महसूस किया जैसे उसकी जँघाओं में से लावा फूट रहा हो। इसी कैफियत में वह कब सो गयी, उसे पता ही न चला।

सुप्रिया का बड़ा भाई नथुने फैलाकर कुछ सूँघते हुए घर में घुसा। सीलनभरे उस घर में एक अनजानी गन्ध व्याप्त थी। घर में घुसते ही उसकी नजर अपनी पत्नी पर पड़ी जो सिलाई मशीन पर बैठी ब्लाउज की उघड़ी हुई सीवन सी रही थी। उसने गुस्से से लालपीले होते पूछा, ‘‘घर में यह कैसी दुर्गन्ध है?’’

जवाब उसकी पत्नी ने नहीं, सुप्रिया ने दिया, ‘‘जिसे तुम दुर्गन्ध कह रहे हो, वह जगप्रसिद्ध परफ्यूम इंटिमेसी की सुगन्ध है।’’

‘‘तो यह गुल तुमने खिलाया है?’’ उसका भाई गुर्राया, ‘‘तवायफों के कोठे से ऐसी ही बदबू आया करती है।’’

सुप्रिया कपड़े तब्दील कर कमरे में आ गयी। उसने आज भरपूर नींद और भरपेट मन पसन्द भोजन किया था, जया के कपड़े उतार कर वह अपने खानदानी वेश में प्रकट हुई, ‘‘इसमें कसूर तुम्हारा नहीं, हालात का है। तुम्हें इस सीलनभरे माहौल की दुर्गन्ध में रहने की आदत हो गयी है।’’

‘‘मेरे साथ ज़ुबान लड़ाती हो, ज़ुबान खींच लूँगा अगर आगे कुछ कहा।’’

‘‘ज़ुबान खींचनी है तो अपनी लुगाई की खींचो। मैं सब जानती हूँ, वही तुम्हें उल्टी-सीधी बातें सिखाती रहती है।’’

सुप्रिया की माँ रसोई से बाहर निकल आयी, बोली, ‘‘तुम्हारे पिता अभी थके-हारे लौटेंगे। कुछ तो उनकी उम्र का लिहाज करो।’’

‘‘आई, जब मैंने सुबह मना किया था तो वह घर से बाहर क्यों गयी?’’

‘‘जाऊँगी, सौ बार जाऊँगी।’’ सुप्रिया पैर पटकने लगी।

‘‘मैं तुम्हारा गला घोंट दूँगा।’’

‘‘मुझे हाथ लगाकर तो देखो।’’

‘‘आई, इसे समझा लो वरना बहुत बुरा होगा।’’

‘‘मैं समझा दूँगी। बहू जाओ, जाकर इसे पानी पिलाओ। रोज-रोज की कलह अच्छी नहीं होती।’’

बहू को भाई-बहन के बीच चल रहा संघर्ष बहुत अच्छा लग रहा था। वह जानती थी, अगर कुछ देर इसी तरह बातचीत चली तो सुप्रिया की कुटम्मस हो जाएगी। वह सास की बात अनसुनी करके बैठी रही। वह चाहती थी कि आज फैसला हो ही जाना चाहिए कि उसे इसी घर में रहना है अथवा उसके मामा द्वारा भांडुप में चौथे माले का फ्लैट बुक कराके वहाँ जा बसना है। उस इमारत में एक ही फ्लैट बचा था और उसके मामा मददस्वरूप दस हजार रुपये देने को तैयार थे। शेष दस हजार का प्रबन्ध करना भी ज्यादा मुश्किल नजर नहीं आ रहा था। पाँच हजार रुपये उसका पति भविष्यनिधि से लेने का प्रयत्न कर रहा था, शेष पाँच हजार की व्यवस्था ससुरजी कर देंगे तो उसका इस नर्क से मुक्ति पाने का सपना पूरा हो सकता था। वह जानती थी कि उसके सुसर निहायत कंजूस और मितव्ययी किस्म के शख्स थे। उनकी रिटायरमेंट में अभी नौ साल शेष थे। वे एक तरफ अपने बुढ़ापे की सुरक्षा को लेकर परेशान रहते थे और दूसरी तरफ दो-दो लड़कियों की शादी का बोझ सिर पर था। तमाम घरेलू किस्म की परेशानियों से मुक्ति पाने का यह एक सुनहरा अवसर था। एक बार इस माहौल से मुक्त होकर अपनी आजादी को वह अक्षुण्ण बनाए रख सकती थी। मकान की किस्तों का ही इतना अधिक दबाव रहेगा कि उसका पति इसकी किस्तों की आड़ में घर की जि़म्मेदारियों से बचा रह सकता था। उसने इशारे ही इशारे से पति को टॉयलेट में जाने का संकेत दिया। वहाँ सुप्रिया के वे कपड़े टँगे थे, जो वह पहनकर लौटी थी—गहरे शोख रंग का स्कर्ट और ब्लाउज। पूरा बाथरूम फ्रेंच डिओडोरेंट से सुवासित था। उसे मालूम था, उसके पति को किसी भी तरह की खुशबू से सख्त नफरत थी। शादी के बाद उसने कभी टेल्कम पाउडर तक इस्तेमाल न किया था। उसके पति ने जब उसे दो-एक बार बाथरूम की तरफ इशारा करते देखा तो भडक़ गया, ‘‘यह बार-बार आँखें क्यों मटका रही हो?’’

‘‘जाकर मुँह-हाथ धो लो, तब तक चाय बनाती हूँ।’’

उसका पति मोढ़े पर बैठकर जूते के फीते खोलने लगा। उसने मन ही मन तय कर रखा था, आज बाबूजी से फ्लैट बुक कराने के लिए अन्तिम रूप से बात कर लेगा। वह चाहता था, जब तक बाबूजी दफ्तर से लौटें, घर का वातावरण इसी तरह तनावपूर्ण रहे, ताकि वह वीरतापूर्वक बहिर्गमन करने का निर्णय सुना सके। सुप्रिया की हरकतें कुछ ऐसी हैं कि वह अब इस घर में नहीं रह सकता। वह बाथरूम में घुसा तो सुगन्ध से उसके नथुने काँपने लगे। वह भीतर से ही चिल्लाया, ‘‘बाथरूम में ये किसके कपड़े टँगे हैं?’’

‘‘मेरे कपड़े हैं।’’ सुप्रिया ने दृढ़तापूर्वक जवाब दिया, ‘‘मेरी सहेली के हैं।’’

‘‘सहेली के हैं या किसी यार ने दिये हैं?’’

‘‘आई इससे कहो, तमीज से बात करे।’’

‘‘उसे बोलने दो। थक-हारकर खुद ही चुप हो जाएगा।’’ माँ ने समझाया।

तभी सुप्रिया के पिता हमेशा की तरह थके हुए हाथ में छाता और बगल में फाइलें दबाये कमरे में दाखिल हुए। सुप्रिया की माँ ने उठकर उनकी फाइलें यथास्थान रख दीं और छाता खूँटी से टाँग दिया।

‘‘आज तो बहुत उमस है।’’ उन्होंने कहा, ‘‘जयन्त लौट आया?’’

‘‘हाँ, बाथरूम में है।’’ सुप्रिया की माँ ने कहा और गगरे से पानी का गिलास भरकर उन्हें दिया।

जयन्त बाथरूम से दोनों हाथों में स्कर्ट-ब्लाउज थामकर बाहर निकला और अपने पिता के सामने पटक कर बोला, ‘‘बाबूजी, यह सब क्या है?’’

‘‘क्या है?’’ सुप्रिया के पिता ने विचित्र किस्म का परिधान देखकर आश्चर्य प्रकट किया। खाट पर कपड़े पटकने से उसकी सफेद रंग की ब्रा नीचे फर्श पर गिर गयी। वह कपड़ों में ही कहीं अटकी हुई थी।

‘‘आपकी बिटिया के पर निकल रहे हैं, जल्दी से इसके हाथ पीले कर दीजिये वरना जल्द ही यह कोई गुल खिलाएगी।’’ जयन्त ने नीचे से मरी हुई चुहिये की तरह ब्रा उठाते हुए ऐसे कहा, जैसे सुप्रिया से उसका कोई रिश्ता न हो। ‘‘इससे पूछिये ये कीमती कपड़े इसे कौन दिला रहा है? मैं अब मूक दर्शक नहीं बना रह सकता। इससे कहिये कि घर की मर्यादा के भीतर रहे। नहीं रह सकती तो मैं ही अपना कोई दूसरा इन्तजाम कर लूँगा।’’

जयन्त की पत्नी इसी एक वाक्य की प्रतीक्षा में बैठी थी। उसने तीर को सही निशाने पर लगते देखा तो उठकर पति और ससुर के लिए चाय बनाने रसोई में घुस गयी। उसने जोर-शोर से स्टोव में हवा भरी और केतली स्टोव के ऊपर रख दी। वह चाय बनाकर जल्द से जल्द रणक्षेत्र में लौट जाना चाहती थी ताकि कोई भी बात सुनने से छूट न जाये। उसके कानों में केवल जयन्त की आवाज पड़ रही थी, कोई भी उसकी बात पर कोई प्रतिक्रिया न दे रहा था। उसने सुना जयन्त ने नया फ्लैट बुक कराने की बात उसी रौ में कह डाली। इस पर भी उसके ससुर ने कोई प्रतिक्रिया न दी। उसकी सास भी चुप थी। तभी सुप्रिया ने चिल्लाकर कहा, ‘‘बाबूजी, इससे पूछिये कोई करता है अपनी बहन के साथ ऐसा सुलूक? आप भी इसको डाँटने की बजाए चुपचाप इसकी बात सुन रहे हैं। कब तक कोई जिन्दा रह सकता है, इस जलालत भरे माहौल में? ये कपड़े मेरे नहीं, मेरी सहेली के हैं।’’

‘‘और घर में जो सेंट की बदबू फैल रही है, उस पर स्प्रे भी तुम्हारी सहेली कर गयी है?’’

‘‘हाँ वही कर गयी है। तुम्हें बदबू में रहने की आदत पड़ चुकी है, इसीलिए तुम भडक़ रहे हो।’’

सुप्रिया की भाभी ने सुसरजी और पति को चाय का प्याला सौंपा और पति से बोली, ‘‘मैं तो इस माहौल में अब एक पल नहीं रह सकती।’’

‘‘यह क्यों नहीं कहती हो कि मैके वाले तुम्हारे लिए भांडुप में महल बनवा रहे हैं।’’ सुप्रिया बोली।

‘‘ज़ुबान बन्द रखो, वरना मुझसे बुरा कोई न होगा।’’

‘‘बाबूजी इससे कहिये जहाँ रहना है रहे। हमारे घर के माहौल में ज़हर न घोले।’’

उसके पिता बगैर कुछ बोले छाता उठाकर सीढिय़ाँ उतर गये।

 

क्यों रोती हैं लड़कियाँ

 

सुप्रिया ने तमाम सामान की एक तालिका तैयार कर ली थी। सम्पूरन को जानकर आश्चर्य हुआ कि मधुमालती अपने पीछे लगभग एक सौ साडिय़ाँ, तीस जोड़े जूते, लगभग डेढ़ सौ ब्लाउज और पाँच-छह दर्जन अन्त:वस्त्र छोड़ गयी थी। दूसरी आलमारी में जेंट्स सूट भी थे, लगभग डेढ़ दर्जन, उतनी ही कमीजें। सम्पूरन ने कभी नहीं सुना था कि मधुमालती किसी के साथ रहती थी। ये सूट उसके किसी प्रेमी के थे अथवा विजय राघव के, जिसकी मधुमालती से पूर्व इसी फ्लैट में हत्या हो गयी थी। विजय राघव कमल दादा का असिस्टैंट था और उसकी पहली स्वतन्त्र फ़िल्म ‘बेवफाई’ बॉक्स ऑफ़िस पर बुरी तरह पिट गयी थी। सुनने में आया था कि किसी फाइनेंसर ने दूसरे निर्माताओं को चेतावनी देने के लिए उसकी हत्या करवा दी थी। विजय राघव की लाश तीन-चार दिन तक इसी फ्लैट में सड़ती रही थी और जब पड़ोसियों ने पुलिस से बदबू की शिक़ायत की थी तो पोस्टमार्टम के बाद एक लावारिस लाश की तरह उसका सरकारी तौर पर अन्तिम संस्कार कर दिया गया था। सम्पूरन इन तमाम बातों के बारे में सोचता तो उसके बदन में झुरझुरी-सी छूटती। वह इन तमाम चीजों के बारे में सोचना ही नहीं चाहता था। उसके जी में आता कि फ्लैट के तमाम सामान की चिता जला दी जाए, मगर कोई अज्ञात आशंका उसे ऐसा करने से रोक रही थी। अपने सामान के नाम पर तो उसके पास कुछ भी नहीं था। उसने एक नवजात शिशु की तरह खाली हाथ बम्बई में जन्म लिया था।

सुप्रिया से यह जानकर उसे बहुत सन्तोष हुआ कि उसने तमाम कपड़े पैराडाइज़ ड्राईक्लीनर्स के यहाँ पहुँचवा दिये थे और धुलाई का बिल दो सौ रुपये से ऊपर था। सुप्रिया ने उन कपड़ों की रसीद सौंपनी चाही तो उसने कहा, ‘‘अभी अपने पास ही रखो और वक्त पर मँगवा लेना।’’

‘‘सभी अच्छी-अच्छी साडिय़ाँ हैं।’’ सुप्रिया ने कहा।

‘‘जो तुम्हें पसन्द हों, तुम ले लो।’’ सम्पूरन बोला। सुप्रिया ने उसकी तरफ ऐसे देखा जैसे वह मजाक कर रहा हो।

‘‘सर आज नया फर्नीचर भी आ रहा है। दोनों पलंग रसोई और बाथरूम के ऊपर परछत्ती पर रख दिये गये हैं। आपण कुठं झोपणार। आप कहाँ सोएँगे सर?’’

‘‘गृहप्रवेश की पार्टी का प्रबन्ध हो रहा है। मेरा मतलब पार्टी के बाद यह सामान लौट जाएगा।’’ सम्पूरन ने यह कहना इसलिए भी जरूरी समझा कि बाद में अगर सुप्रिया आये तो उसे धक्का न लगे।

‘‘मंगर कहाँ है?’’

‘‘वह फ्लैट पर ही है।’’

‘‘ऐसा करो आज शाम को तुम दफ्तर बन्द कर के चाबी अपने साथ ले जाना। मैं कल सुबह देर से आऊँगा। पार्टी तक दफ्तर तुम्हीं सँभालो।’’

दरअसल दफ्तर में सँभालने लायक कुछ था ही नहीं। कई बार तो सुप्रिया के लिए समय बिताना मुश्किल हो जाता था। वह अपने पर्स में अगाथा क्रिस्टी का कोई उपन्यास उठा लाती थी। दफ्तर में इक्का-दुक्का फोन ही आते थे। अकसर तो सम्पूरन का ही यह जानने के लिए फोन होता कि किसी का फोन तो नहीं आया। इसी प्रकार एक दिन सम्पूरन का फोन आया तो सुप्रिया ने कहा, ‘‘सर, आपसे जरूरी बात करनी थी।’’

‘‘कहो।’’

‘‘मिलकर ही बताना चाहती थी।’’

‘‘कल सुबह दफ्तर आ जाऊँगा, हालाँकि कल मैं व्यस्त हूँ।’’

‘‘आज ही बात करनी जरूरी है।’’

‘‘रुपये चाहिए तो बताओ। मैं इन्तजाम कर दूँगा।’’

‘‘तसा कांहीही प्राब्लेम नाहीं सर।’’

‘‘साढ़े चार बजे मैं फ्लैट पर पहुँचूँगा, वहीं आ जाओ।’’

‘‘आहे सर, चालेल।’’

सुप्रिया ठीक साढ़े चार तक फ्लैट पर पहुँच गयी। सम्पूरन नहीं था, मंगर था। वह जमीन पर बैठा बीड़ी फूँक रहा था। फ्लैट एकदम लकदक था। पुराने फर्नीचर बरामदे में भर दिये गये थे। फर्श पर कीमती कालीन बिछा था और बीचोबीच काँच का एक सुन्दर टेबल था। कमरे की भव्यता ऐसी थी कि सुप्रिया चप्पल उतारने के ही भीतर जाने का साहस बटोर पायी।

‘‘हमने नौकरी तो जरूर कर ली है, मगर यह साहब हमारी समझ में नहीं आ रहा है।’’ मंगर ने हँसते हुए कहा।

सुप्रिया चुप रही। उसने कभी इतना खूबसूरत फ्लैट नहीं देखा था। खिड़कियों पर मोटे परदे लटक रहे थे। उसने समुद्र की तरफ खुलने वाली खिडक़ी का परदा हटाया और निर्निमेष समुद्र की तरफ देखने लगी। खिडक़ी से ही उसने देखा, ठीक फ्लैट के सामने एक टैक्सी रुकी। सम्पूरन टैक्सी से बाहर निकला और बगैर भाड़ा चुकाये सीढिय़ाँ चढ़ गया। टैक्सी थोड़ा-सा आगे बढक़र एक कोने में पार्क कर ली गयी।

‘‘हाय सुप्रिया।’’ सम्पूरन ने कमरे में घुसते ही पूछा, ‘‘कैसा लग रहा है हॉल?’’

‘‘बहुत खूबसूरत है।’’ सुप्रिया ने कहा।

सम्पूरन कमरे के बीचोंबीच पड़े सोफे पर एक बिजनेसमैन की तरह बैठा और कहा, ‘‘बैठो, खड़ी क्यों हो?’’

सुप्रिया ससंकोच सामने वाले सोफे पर बैठ गयी। बैठ क्या गयी जितना वजन था, उसी हिसाब से धँस गयी।

‘‘बोलो क्या समस्या है?’’

वह चुपचाप पर्स के बकल से खेलती रही।

‘‘चुप क्यों हो, बताओ जो तुम्हारी समस्या हो। तुम सोच रही होगी, यह कैसा दफ्तर है, जहाँ काम ही नहीं है। मुझे फुर्सत पाने दो, इतना काम होगा कि तुम भाग खड़ी होगी।’’

‘‘नहीं, यह बात नहीं है।’’

‘‘तो क्या बात है?’’

‘‘सर, मैं और काम न कर पाऊँगी।’’

‘‘क्यों?’’ सम्पूरन चौंका, ‘‘मुझसे कोई गलती हो गयी?’’

‘‘नहीं सर, ऐसा कोई बात नहीं है।’’

‘‘तो फिर क्या बात है?’’

वह दोबारा गर्दन झुकाये, पर्स के बकल के कान उमेठने लगी।

‘‘मुझे छह बजे चर्चगेट पहुँचना है। जल्दी बताओ क्या बात है?’’

वह उसी तरह सिर झुकाए बैठी रही।

सम्पूरन ने मंगर को नीचे से तीन कोक लाने को कहा।

‘‘सर, फ्रिज में बहुत से कोक और सोडे की बोतलें हैं।’’ मंगर ने बताया।

‘‘जाओ, रसोई में गिलास होंगे। भर कर लाओ।’’

मंगर ने दो बोतलें निकालीं और रसोई में घुस गया।

‘‘बताओ, ऐसा क्या हुआ जो तुम नौकरी छोड़ रही हो? कहीं शादी तय हो गयी है?’’

‘‘न।’’ उसने सर हिलाया। सम्पूरन ने कल्पना की, कान में कुंडल होते तो झूलने लगते।

‘‘मैं लाग-लपेट वाला आदमी नहीं हूँ। सीधी-सीधी बात ही मेरी समझ में आती है। जल्दी से बताओ, क्या बात है?’’

सुप्रिया की आँखें नम हो गयीं और वह रूमाल से आँखें पोंछने लगी।

‘‘लड़कियों के साथ यह बड़ी मुश्किल है। उनकी थाह पाना बहुत मुश्किल है। मुझसे कोई गलती हो गयी हो तो बड़ा समझकर मुझे माफ कर दो।’’

अभी तक सुप्रिया की आँखें नम हुई थीं, अब वह हिचकियों से रोने लगी। मंगर ने एक ट्रे में दो साफ्ट ड्रिंक मेज पर टिका दिये और रसोई में अपने हिस्से का कोक पीने चला गया।

‘‘ठीक-ठीक बताओ क्या बात है, मैं मदद ही करूँगा, यों रो क्यों रही हो?’’ सम्पूरन ने उसे पीठ पर दुलराते हुए कहा। वह एकदम झुकी हुई बैठी थी। उसकी ब्रा की तनियों पर सम्पूरन का हाथ पड़ गया था।

‘‘माझे भाउ बहुत खराब हैं। हर वक्त अनाप-शनाप बकते हैं।’’

‘‘बहनें कितनी हैं?’’

इस बार उसने दो अँगुलियाँ दिखायीं।

‘‘माता-पिता साथ रहते हैं?’’

उसने हामी भरी।

‘‘कितना बड़ा घर है?’’

‘‘चाल का एक कमरा है।’’ किसी तरह सुप्रिया के मुँह से आवाज निकली।

‘‘भाई शादीशुदा हैं?’’

उसने ‘हूँ’ में सर हिलाया।

‘‘बच्चे हैं?’’

उसने एक अँगुली दिखायी।

‘‘बहन कितनी बड़ी है?’’

‘‘इंटर में पढ़ती है।’’

‘‘पिता क्या करते हैं?’’

‘‘सचिवालय में बाबू हैं।’’

‘‘और भाई?’’

‘‘भाई एक प्राइवेट कम्पनी में हैं।’’

‘‘कितना पाते हैं?’’

वह हल्के से मुस्करायी।

‘‘दो सौ सत्तर।’’

‘‘आज से तुम्हारा वेतन दो सौ सत्तर। भाई को बता देना।’’

अब तक वह थोड़ा सँभल चुकी थी। सिर झुकाये हुए ही बोली, ‘‘बुरी-बुरी बातें करता है। कहता है आवारा हो जाती हैं कामकाजी औरतें।’’

‘‘तुम्हारे पिता कुछ नहीं बोलते?’’

‘‘न। चुप रहते हैं। आई जरूर मेरा पक्ष लेती है।’’

‘‘अपने पिता से कहना मुझसे बात करें, फोन नम्बर दे देना।’’

‘‘मेरे पिता कुछ न करेंगे।’’

‘‘तो मेरी मानो। मैं तुम्हें इस ज़लालत से छुटकारा दिला सकता हूँ।’’

‘‘वह कैसे?’’

‘‘अवज्ञा आन्दोलन से।’’

‘‘सर, आप मज़ाक कर रहे हैं।’’

‘‘मैं बहुत गम्भीरता से तुम्हारी समस्या पर विचार कर रहा हूँ। तुम्हारी जगह मैं होता तो अब तक विद्रोह कर देता।’’

वह चुपचाप सुनती रही।

‘‘तुम्हारे भाई को मालूम है तुम कहाँ नौकरी करती हो?’’

‘‘आई को मालूम है।’’

‘‘आई के पास मेरे घर का पता है?’’

‘‘मैंने बताया था।’’

‘‘ठीक है, आज से घर जाना बन्द कर दो।’’

‘‘कहाँ जाऊँ?’’

‘‘यहीं रहो। जब देर तक घर न जाओगी तो वे लोग तुम्हें खोजते हुए यहाँ ज़रूर आएँगे।’’

‘‘अगर न आये?’’

‘‘तो फिर मौजाँ ही मौजाँ। मुझ पर विश्वास है तुम्हें?’’

उसने गर्दन हिलाकर हाँ की।

‘‘मैं माँ की कसम खा कर कहता हूँ कि अगर वे लोग तुम्हें लेने न आये तो मैं तुमसे शादी कर लूँगा।’’

‘‘आपने मुझ पर तरस खाकर ऐसा सोचा होगा।’’

‘‘नहीं, मैं तुम्हें पसन्द करने लगा हूँ। मुझे तुम्हारी बैकग्राउड के बारे में कुछ नहीं मालूम और न तुम्हें मेरे बारे में। ऐसे में तुम्हारे लिए निर्णय लेना मुश्किल होगा।’’

‘‘मुझे सोचने का समय दीजिए।’’

‘‘कितने मिनट का समय चाहती हो?’’

‘‘एक-दो महीने का।’’

‘‘तब तुम कभी निर्णय न ले पाओगी।’’

‘‘मुझे डर लगता है।’’

‘‘घर में क्या लगता है?’’

‘‘वहाँ बहुत घुटन है।’’

‘‘और यहाँ?’’

‘‘और चाहे कुछ भी हो, घुटन नहीं है।’’

‘‘मैं नाऊ ऑर नेवर में विश्वास रखता हूँ। अवसर बार-बार नहीं आते। जाने से पहले तुम्हें फैसला सुनाना होगा। तुम हाँ कहो या न कहो, तुम्हारी जॉब पर आँच न आएगी। अभी तुम मेरी पी.ए. हो और कल से वुड बी वाईफ हो सकती हो।’’

वह वहाँ से उठी और खिडक़ी के पास खड़ी हो गयी। सामने विशाल समुद्र था। तट पर भीड़ थी। सींगदाना, भेलपुरी, गुब्बारे, नारियल, प्रेमी युगल— सब मिलकर एक छोटे-मोटे मेले का दृश्य उपस्थित कर रहे थे। उसने खुली हवा में एक लम्बी साँस भरी। सम्पूरन के बारे में वह कुछ नहीं जानती थी, मगर इस थोड़े से समय में ही वह जान गयी थी कि बहुत पारदर्शी आदमी है। अभी संघर्ष में है, मगर उसका दिल कह रहा था, एक दिन ज़रूर सफल होगा। वह देर तक शून्य में निहारती रही।

शाम ढलने लगी तो वह खिडक़ी से हट गयी। सम्पूरन सोफे पर नहीं था। किचेन से मसाला भूनने की गन्ध आ रही थी। मंगर ने ड्राअर खोल कर पैसे लिये और सीढिय़ाँ उतर गया। उसे विश्वास ही नहीं हुआ कि कोई अपने कर्मचारी पर इतना भरोसा कर सकता है कि वह खुद ही ड्राअर खोलकर पैसे ले ले।

तभी सम्पूरन मुस्कराते हुए किचेन से निकला। उसे सम्पूरन पर अचानक बहुत प्यार उमड़ा और वह अपने को रोक न पायी, उसकी छाती से लिपट कर हिचकियाँ भरने लगी।

सम्पूरन ने जेब से रूमाल निकाल कर उसके आँसू पोंछे और उसका माथा चूम लिया।

वह निर्णय ले चुकी थी कि अगर घर से कोई लेने न आया तो वह नहीं जाएगी।

घर से देर रात तक कोई नहीं आया।

‘‘सुनो, आई को पत्र लिखो कि घर में रहना उसके लिए असह्य हो रहा है, और उसने अपनी मजबूरी से 17, रानडे रोड पर रहने का फैसला कर लिया है।’’

सुप्रिया को बात पसन्द आयी। उसने आई के नाम पत्र लिखा और सम्पूरन को थमा दिया। सम्पूरन ने लिफाफे पर पता लिखवाया और मंगर को पत्र देने टैक्सी में रवाना कर दिया।

 

...आगे

 

 

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