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17 रानडे रोड
(उपन्यास)
रवीन्द्र कालिया

VIII

Index I II III IV V VI VII IX X

भरी जेब ठंडा हाथ

 

लडक़ा भीतर दाखिल हुआ। ओबी ने ऊपर से नीचे तक उसकी ओर देखा, यह चन्दन था। लग रहा था पिता को चकमा देकर इलाहाबाद से दोबारा बम्बई लौट आया है। कलाई पर उसने अष्टधातु का खूबसूरत कड़ा पहन रखा था। रंग गोरा, बड़ी-बड़ी आँखें, चेहरे पर कुछ-कुछ देवानन्द की झलक, आयातित जीन्स के ऊपर सलेटी रंग की कीमती टी-शर्ट। पैरों में पिशौरी चप्पल। घने बाल, सेलून से सैट कराये गये। गले में सोने की मोटी चेन। हाथ में गोल्ड फ्लेक सिगरेट का डिब्बा। उसने ओबी के पास पहुँच कर अपना हाथ बढ़ाया। हाथ मिलाने पर ओबी को महसूस हुआ कि उसका हाथ काफी ठंडा है।

‘‘खाकसार का नाम चन्दन कुमार है।’’

‘‘मुझे मालूम है। लगता है इस बीच तुम्हें सिगरेट की लत लग गयी है।’’

‘‘जी नहीं, मैं सिगरेट नहीं पीता।’’

‘‘मगर यह डिब्बा?’’

‘‘मुझे खाली हाथ रहना अच्छा नहीं लगता। मैं वर्षों से सिगरेट का डिब्बा कैरी करता हूँ।’’

‘‘क्या बात है! डिब्बा खाली है या भरा हुआ?’’

‘‘न खाली न भरा हुआ। हर पीने वाले को दरियादिली से ऑफर करता हूँ। खाली हो जाता है तो नया ले लेता हूँ।’’

‘‘इस बार बम्बई में दौलतखाना कहाँ है? पिछली बार तो तुमने चौपाटी का पता दिया था।’’

‘‘आपकी याददाश्त की तारीफ करनी होगी। फिलहाल जुहू में एक फ्लैट है।’’

‘‘समुद्र से आपको प्यार होगा।’’

‘‘जब हाई टाइड में होता है तो उसे देखना और सुनना अच्छा लगता है। समुद्र लो टाइड में होता है तो बहुत निढाल और बूढ़ा लगता है। चाँदनी रात में समुद्र तट पर टहलना मुझे प्रिय है।’’

‘‘अब तक किसी फ़िल्म में अभिनय का चांस मिला?’’

‘‘अभी तक तकदीर ने साथ नहीं दिया। वैसे अभिनय को लेकर ज्यादा उत्साहित नहीं हूँ। फ़िल्म प्रोड्यूस करने का भी इरादा है।’’

‘‘कब तक कामयाबी मिलने की उम्मीद है?’’

‘‘शनि को राशि के तीसरे स्थान पर आने दीजिये। मुझमें पराक्रम की कमी है। समुद्र की ही तरह अचानक लो टाइड में चला जाता हूँ। इस समय वृहस्पति में बुध चल रहा है, चन्द्र के आते ही तकदीर पलटेगी।’’

‘‘आपको ज्योतिष का भी ज्ञान है?’’

‘‘गुजारे लायक जानता हूँ। मेरे गुरु गजब के ज्योतिषी हैं। उनकी बात पत्थर की लकीर साबित होती है।’’

‘‘कहाँ रहते हैं?’’

‘‘कान्दिवली में काले हनुमान जी का मन्दिर है। उसी में रहते हैं।’’

‘‘कभी मुझे भी मिलवाइए।’’

‘‘आप जब कहेंगे ले चलूँगा।’’

‘‘अगले मंगल को चलिये।’’

‘‘मैं आपको ले जाऊँगा।’’

‘‘मैं भी अपनी तकदीर जान लूँ।’’

‘‘जरूर।’’ उसने कन्धे उचकाते हुए पूछा, ‘‘आज शाम को क्या कर रहे हैं?’’

ओबी ने देखा उसने मोटी, सोने की नयी अँगूठी पहन रखी थी, बीच में कोई चमकदार नगीना था।

‘‘आज शाम छोटी-सी रिहर्सल है। अभी भी चल रही होगी, शायद शाम तक मेरी मॉडल भी फ्री हो जाएगी।’’

‘‘तो आज का डिनर मेरी तरफ से। सन एंड सैंड में। आठ बजे मैं आपको लॉबी में मिलूँगा।’’

‘‘मेरे साथ मेरी गर्लफ्रेंड और मॉडल भी होंगी।’’

‘‘वेलकम सर।’’ वह उठ खड़ा हुआ, ‘‘आपका ज्यादा समय नहीं लूँगा।’’

‘‘ओ.के.। शाम को आठ बजे मुलाक़ात होती है।’’

वह उठा और अभिवादन करके चला गया। कमरे में हल्की-सी मादक मर्दाना गन्ध तैर गयी।

ओबी ने राहत की साँस ली। शाम का आला इन्तजाम हो गया था। उसे सुषमा को प्रभावित करना था, दूसरे उसे स्वयं भी बहुत दिन हो गये थे सन एंड सैंड गये। शुरू-शुरू में जब सुप्रिया के प्रति वह आकर्षित हुआ था, मित्रों से कर्ज लेकर उसे सन एंड सैंड में बूफे पर ले जाता था। उसका भाग्य ही कुछ ऐसा था, कभी एकदम फाइव स्टार जीवन और कभी फुटपाथी। कभी अर्श पर कभी फर्श पर। कभी तेरा दर कभी दर बदर। कभी घर पर बैठे-बिठाये चीजें मिल जाती हैं और कभी चप्पलें घिसने पर भी नहीं। वह सुषमा के बारे में सोचने लगा। उसे ऐसी पब्लिसिटी दूँगा कि वह बम्बई सिने जगत के सीने पर मूँग दलेगी। वह उसे लेकर एक फ़िल्म प्रोड्यूस करेगा। हीरोइन मिल गयी है, किसी दिन भटकते हुए कोई हीरो भी चला आएगा। नामी कहानीकार से पटकथा लिखवाऊँगा। अचानक उसे बेदी साहब का ध्यान हो आया। उनकी लिखी हर फ़िल्म हिट हो जाती है। आजकल जेब में पैसा है, क्यों न आज ही कहानी के लिए उन्हें पेशगी दे आऊँ। वह उसी के शहर के हैं, जब भी मिलते हैं, बहुत तपाक से मिलते हैं। एक न एक ऐसा लतीफा छोड़ते हैं कि जो हफ्तों गुदगुदाता रहता है। शाम को पहला पेग उन्हीं के साथ पिऊँगा, फिर सन एंड सैंड की राह लूँगा। उसने मारिया से कहा कि बेदी साहब से बात कराये। वह अपने आफ़िस में ही थे।

‘‘दारजी मैं ओबी। सत सिरी अकाल। जो बोले सो निहाल। शामी साढ़े सत्त बजे तुहाडा पंज मिनट दा टाइम लूँगा। क्या तुसीं शाम नूँ पंज मिनट दा टाइम कढ सकदे हो?’’

‘‘ओ मुंड्या तेरे लई टाइम ही टाइम है। सुन्या जी अजकल इश्क में गर्क हो।’’

‘‘तुहाडा अशीर्वाद है। तुहाडे कदमाँ ते ही चल रेया हैं। मद्दी इक दिन कह रेया सी आजकल पापाजी ने कोई कुड़ी फँसा ली है।’’

‘‘भूतनी का, मेरा बेटा होते हुए मेरी ही बदनामी कर रेया है। जे मैं तैनूँ ओदीयाँ करतूताँ दस्साँ। चल छड्ड। शामी मिलांगे।’’

‘‘अगर टाइम होवे तो सन एंड सैंड में मेरे साथ डिनर लीजिये।’’

‘‘की कोई लाटरी खुल गयी है?’’

‘‘छोटी जई (सी) खुल्ली है। इक एड फ़िल्म बना रहा हूँ। इसी हफ्ते तुहाडे कदमा च रख दऊँगा।’’

‘‘ठीक है तो शाम नूँ मिलदे हैं।’’

 

आप मुँह में ज़ुबान रखती होंगी

 

इस हफ्ते ओबी ने कई काम निपटा दिये। बेदी साहब को फीचर फ़िल्म के लिए पाँच हजार अग्रिम दे दिये। चन्दन बाबू के सौजन्य से दो बार सुप्रिया और सुषमा को सन एंड सैंड में डिनर करवा दिया। फ़िल्म की शूटिंग खत्म कर दी। डायरेक्टर कैमरामैन आदि को विदा कर दिया।

सब लोग दफ्तर चले जाते तो सुषमा का दिन शुरू होता। वह खूब रगड़-रगड़ कर नहाती। महँगे से महँगे इम्पोर्टिड शैम्पू से बाल धोती और खिडक़ी के पास खड़ी होकर सुखाती। उसे लगता उसे देखकर ही समुद्र इतरा रहा है। उसके पिता सुप्रिया और ओबी के व्यवहार से आश्वस्त होकर एक हफ्ते के लिए शोलापुर चले गये। सुषमा को पहली बार आजादी का एहसास हुआ। खाली समय में वह पुरुषार्थी साहब की गजलें पढ़ती। नृत्य का अभ्यास करती। मीना कुमारी उसकी प्रिय अभिनेत्री थी। वह उसके संवादों को दोहराती और महसूस करती कि वही है मीना कुमारी। इधर चन्दन भी लगभग रोज आने लगा था। वह नित्य नये से नये उपहार लेकर आता। आते ही उपहार मेज पर रख देता, उसका जिक्र कभी न करता। चुपचाप सोफे पर बैठा रहता। कभी समुद्र की ओर टकटकी लगाकर देखता, कभी सुषमा की ओर। सुषमा उसकी चुप्पी से ऊबने लगती। एक दिन पूछ ही बैठी, ‘‘आपके मुँह में जरूर जुबान होगी।’’ चन्दन ने मुँह खोलकर जुबान दिखा दी। एकदम लाल। फिर बड़े संकोच से बोला, ‘‘आपकी खूबसूरती के सामने मेरी बोलती बन्द हो जाती है। बहुत दिनों से कहना चाहता हूँ कि आप लंच मेरे साथ कीजिये। समुद्र किनारे किसी रेस्तराँ के नीमअँधेरे शीशे में एक-एक ग्लास बीयर पिएँगे और फिर प्रॉन मसाला खाएँगे। आपको प्रॉन बहुत प्रिय है। मुझे भी। दरअसल जो आपको प्रिय है, वही मुझे प्रिय है।’’

‘‘आज मंगल है, मंगल को मैं मछली भी नहीं खाती।’’ सुषमा ने कहा। वह दरअसल जल्द से जल्द देख लेना चाहती थी कि चन्दन क्या उपहार लेकर आया है। वह सचमुच खड़ा हो गया और हाथ जोडक़र बोला, ‘‘कल इसी समय हाजिर हो जाऊँगा। आप तैयार रहिएगा।’’

‘‘शुक्रिया!’’ सुषमा ने कहा और उसे सीढिय़ों तक विदा कर आयी। लौटकर पैकेट खोला। सिल्क की बेशकीमती साड़ी थी अंडे की ज़र्दी के रंग की। हैंडलूम हाउस का टैग लगा था। तह के बीचोंबीच ग्रीटिंग कार्ड था, जिस पर हिन्दी में चन्दन ने लिखा था, इस सन्देश के साथ कि प्राइस टैग इसलिए नहीं हटाया कि आपको साड़ी पसन्द न आये तो बदली जा सके। सुषमा ने देखा ढाई हजार की साड़ी थी। उसने जिन्दगी में आज तक इतनी महँगी साड़ी न पहनी थी, न देखी थी। उसने उठाकर अपने बक्से में रख ली। वह तय नहीं कर पा रही थी कि ओबी सुप्रिया को दिखाये या नहीं। सोच सकते हैं कि इसका एक आशिक पैदा हो गया है।

दूसरे दिन वह लंच के बाद जब चन्दन के साथ घर लौटी तो उसकी बाँहों में हाइड साइन का खूबसूरत पर्स लटक रहा था। होंठों पर गहरे किरमिजी रंग की लिपस्टिक थी, कानों में सोने के पतले गोलाकार बड़े-बड़े कुंडल झूल रहे थे। उसके पीछे-पीछे सिगरेट का डिब्बा लिये चन्दन आ रहा था। सोफे पर उसके पिता, माँ और भाई ऐसे बैठे थे जैसे रेलवे के प्लेटफॉर्म पर बैठे हों। उसकी माँ ने गुर्राते हुए मराठी में पूछा, ‘‘असल्या बदमाश माणसा बरोबर कुठं गेली होलीस?’’

सुषमा सकपका कर रह गयी। वह बहुत प्रसन्न मुद्रा में लौटी थी, इस बेतुके सवाल ने उसका सारा उत्साह भंग कर दिया। उसने अपनी आजीबा से कहा, ‘‘यह मिस्टर चन्दन हैं। जल्द ही एक फ़िल्म प्रोड्यूस करना चाहते हैं।’’

चन्दन ने हाथ जोड़ कर उनका अभिवादन किया और दृश्य से हट जाना ही उचित समझा। वह उलटे पाँव लौट गया।

‘‘आई, तुला अइया प्रकारे बोलणं शोभलं नाही।’’ चन्दन के जाने के बाद सुषमा ने कहा।

‘‘चुप रह कलमुँही। मैंने तुम्हें रंग-रलियाँ मनाने मुम्बई नहीं भेजा था। तुम्हारे लक्षण मुझे ठीक नहीं लग रहे। यह होंठों पर क्या पोत रखा है? सोने के कुंडल किसी ने फोकट में न दिये होंगे। अभी अपना बिस्तर बाँधो और चलो शोलापुर। इतनी ही जवानी चढ़ी है तो हफ्ते भर में ब्याह कर दूँगी।’’

सुषमा हैरत में थी कि उसके पिता और भाई माँ के फूहड़ व्यवहार पर आपत्ति क्यों नहीं कर रहे! सुषमा जानती थी कि वह हमेशा से ही माँ से दबते रहे हैं। भाई अभी बी.ए. में पढ़ता है, वह भी माँ के व्यवहार से आहत रहता है मगर जुबान नहीं खोलता। सुषमा ने अपने को सचेत करते हुए काकाजी को आवाज दी और मेहमानों को चाय पानी पिलाने को कहा। काका काँच के गिलासों में पानी की ट्रे रख गये। सबने पानी पिया, मगर माँ गुस्से से थर्राती रही। इस समय समुद्र भी हाई टाइड में था। सुषमा जाकर खिडक़ी के पास खड़ी हो गयी और चुपचाप समुद्र की तरफ निहारने लगी।

‘‘तवायफों की तरह खुशबुएँ भी लगाने लगी हो। चलो उठकर सामान बाँधो, हम अगली बस से लौट जाएँगे। अपना पुराना सामान उठाओ, टूटी हुई चप्पल पहनो और चल दो। मेरा तो यहाँ दम घुट रहा है।’’

सुषमा चुपचाप खिडक़ी के पास खड़ी रही। उसके पिता उठे और छाता उठाकर नीचे चल दिये। भाई ने भी मैदान से भाग जाने में भलाई समझी।

जिस फराखदिली से ओबी ने पिछले दिनों खर्च किया, उसका असर अब दिखने लगा था। रुके हुए बिल नमूदार होने लगे। दिन भर में पाँच-दस हजार के बिल टपकने लगे। अब तक कुल मिलाकर तीस-पैंतीस हजार रुपये भुगतान की राह देख रहे थे। फ़िल्म के सम्पादन का काम चल रहा था। क्लाइंट को फ़िल्म दिखाने और उस अवसर पर कॉकटेल्ज़ का खर्च सिर पर तलवार की तरह लटक रहा था।

‘‘तुम्हारे और पैसे के बीच मैं न होती तो यह सब कब का उड़ गया होता। तुम्हारी इस आदत से मैं परेशान हो उठती हूँ कि तुम सबकुछ काईंड में करना चाहते हो, जबकि कैश खर्च करना कहीं सस्ता पड़ता है।’’ सुप्रिया ने कहा।

‘‘पैसा आने-जाने वाली शै है। काहे का गम करती हो?’’

‘‘मॉडल भी एकदम नयी थी। दस-बीस हजार देकर छुट्टी पायी जा सकती थी। तुम इतने की तो उसे साडिय़ाँ वगैरह दिला चुके हो। पन्द्रह-बीस दिन से मुफ्त का लंगर चल रहा है। वह सोच रही होगी अभी मेहनताना भी मिलना है। ऊपर से उसका सनकी बाप, मैं तो उसे और नहीं झेल सकती।’’

‘‘चिन्ता मत करो। कुछ न देना होगा। दत्त साहब अपने भाई को लेकर फ़िल्म लांच करना चाहते हैं। उन्हें नयी लडक़ी की तलाश है। एक-दो दिन में वह और मिसेज दत्त लडक़ी देखने आएँगे। पसन्द आ गयी तो अपने साथ ले जाएँगे।’’

‘‘अब दत्त साहब के लिए पार्टी कौन करेगा? मेरे पास गिनती के पैसे बचे हैं।’’

‘‘फिक्र मत करो। मैंने दत्त साहब से कह दिया है कि आने से पहले दारू की पेटी भिजवा दें। मेरा स्टॉक खलास हो चुका है।’’

हस्बेमामूल शाम को ओबी और सुप्रिया घर पहुँचे तो घर में अजीब-सा तनाव था। सोफे पर लांगदार साधारण-सी साड़ी पहने और माथे पर बड़ी-सी बिन्दी लगाये चालीस एक वर्ष की महिला बहुत अप्रसन्न मुद्रा में बैठी थी। एक कोने में रूआँसी सी सुषमा बैठी थी। देखकर लग रहा था कि छुएँगे तो झर-झर आँसू बहने लगेंगे।

‘‘काकाजी, कहाँ हो भाई! क्या दोपहर से खाना नहीं बना है?’’

‘‘खाना तो बना था, मगर किसी ने खाया नहीं। बीबी के पीछे अम्मा-बाबू आये हैं, बिटिया को लिवाने।’’

‘‘अच्छा, तो यह माताजी हैं। माताजी प्रणाम! आप बहुत खुशिकस्मत हैं जो इतनी योग्य बिटिया को जन्म दिया। आप देखती रहिये, कुछ ही दिनों में आपकी बिटिया अक्खी बम्बई पर छा जाएगी। हर अखबार में इसके रंगीन चित्र छपेंगे। जहाँ खड़ी होगी, पैसों की बरसात होने लगेगी। इस खुशी के मौके पर आपने कैसी सूरत बना रखी है!’’

सुप्रिया सोफे की बाँह पर बैठ गयी। उसने अपनी बाँहें आई के गले में फैला दीं, ‘‘आप ऐसे क्यों बैठी हैं? आपको तो खुश होना चाहिए, आपकी बिटिया को साइन करने के लिए बॉलीवुड की एक नामी हस्ती एक-दो रोज में आने वाली है। आपने भी उनका नाम सुना होगा। श्री और श्रीमती दत्त। दत्त खानदान का संरक्षण मिल गया तो आपकी जिन्दगी बदल जाएगी।’’

ओबी फ्रिज से रसगुल्ले निकाल लाया। वह ताई के सामने उकड़ूँ बैठ गया और झट से रसगुल्ला काट कर उसके होंठों पर लगा दिया। वह उसी प्रकार जड़ बैठी रही।

‘‘जल्दी से खा जाइए।’’ ओबी बोला, ‘‘आपने न खाया तो मैं खा जाऊँगा।’’ ओबी की बात सुनकर वह मुस्करायी और मुँह खोल दिया।

‘‘अब आप अपने हाथ से खाइए। कलकत्ते के रसगुल्ले हैं। मिस्टर दास की दुकान के। काकाजी, सबको रसगुल्ले खिलाइए और खुद भी खाइए।’’

सुप्रिया ने एक प्लेट में दो रसगुल्ले और नमकीन परोस कर आई को थमा दिया। सुषमा ने माहौल को सामान्य होते देखा तो वह भी चली आयी। वह भीतर से चाय के कप उठा लायी थी। तीनों मराठी में बातें करने लगीं। सुप्रिया को पता चला कि आई जिन्दगी में पहली बार बम्बई आयी हैं। इससे पहले उन्होंने शोलापुर के अलावा कोई भी शहर नहीं देखा था। समुद्र भी पहली बार देखा और पहली बार रेल में यात्रा की। धीरे-धीरे उनका संकोच खुल रहा था। समुद्र हाई टाइड में था। कमरे में समुद्र का गर्जन सुनाई पड़ रहा था।

‘‘चलो आई को समुद्र किनारे घुमाकर लाएँ। कितनी अच्छी हवा चल रही है!’’

वह झट तैयार हो गयीं। तीनों समुद्र की सैर को निकल गयीं। ओबी नहा- धोकर तजादम हो गया। सूरज डूबते ही उसका बार सज जाता था। वह सोचने लगा, कहीं दारू देखकर सुषमा की अम्मा भडक़ न जाए। मगर उसे विश्वास था, वह अपनी बातों से उसे पटा लेगा। सुषमा के पिता को खैर मालूम ही था कि इस घर की शाम कैसी होती है।

ओबी ने काका से कहकर बरामदे में उनके लिए दो फोल्डिंग पलँग लगवा दिये। सामने लॉज से किराये पर बिस्तर मँगवा लिये। जब तक ये लोग लौटते, उनके बिस्तर लग चुके थे। उसे पता चला कि भाई भी आया है तो उसने उसके लिए भी एक गद्दा सुषमा के बिस्तर की बगल में जमीन पर ही लगवा दिया।

ओबी देख रहा था, काकाजी का मूड कुछ उखड़ा हुआ था। गनीमत यही थी कि जुबानदराज नहीं थे, मगर अकेले में खूब बड़बड़ाते थे। उन्होंने दाल का कुकर चढ़ा दिया था।

‘‘घर में अक्खी बारात को न्योता दे डाला है। काका अकेले दम पर कितने लोगों को खाना खिलाएगा? मालिक को खुद सोचना चाहिए। न वह सोचते हैं और न वह घाटिन।’’ काका बड़बड़ाये जा रहे थे, ‘‘सिर्फ दाल से रोटी खिलाऊँगा, तब पता चलेगा। फिर काका की खुशामद करेगा। तीन दिन से मेरा घी खत्म है, कब तक वनस्पति घी खाऊँगा। दो बार बता चुका हूँ।’’

सम्पूरन काकाजी की कमजोरी समझता था, उसने पहले से ही एक किलो देशी घी का डिब्बा अलमारी में रखा हुआ था। इतने मेहमानों को देखकर वह देशी घी का डिब्बा लेकर हाजिर हो गया, ‘‘काकाजी, कब से आपका घी लाकर रखा हुआ था। मुझे ताज्जुब है, आप देशी घी के बिना खाना नहीं बना सकते। आज आपको रूठे-रूठे देखा तो सोचा, जरूर आपका घी खलास हो गया होगा।’’

‘‘कल पाँच सौ रुपये चाहिए। घर भेजने हैं। बेटा भी बम्बई आ रहा है।’’

‘‘यह तो बहुत अच्छी खबर है। आपको अब एक सहायक की जरूरत है। इस बीच लडक़े को ट्रेंड कर दीजिये। और यह लीजिये पाँच सौ रुपये।’’

सम्पूरन ने पैसे सौंपे और इत्मीनान से कमरे में लौट आया।

‘‘आप लोगों का खाना तैयार हो रहा है। बिस्तर लग चुका है। खाना खाइए और सो जाइए।’’

‘‘खाना तो आज सुषमा की मौसी के यहाँ है। वहीं रात बिताएँगे। सुबह आपसे भेंट होगी। आप कितने बजे तक दफ्तर पहुँच जाते हैं?’’ सुषमा के पिता ने कहा।

‘‘यही कोई ग्यारह बारह बजे।’’ सम्पूरन ने जेब से अपना विजिटिंग कार्ड निकाल कर उन्हें थमाया और राहत की साँस ली। उन लोगों के कठोर चेहरे देखकर लग रहा था कि उनकी उपस्थिति में शराब छूना भी पाप है, जबकि उनकी बिटिया धीरे-धीरे जिन का एक पैग लेने लगी थी। माता-पिता को जाते देख उसने भी राहत की साँस ली। जबसे वे लोग आये थे, ताने दे रहे थे। भाई भी ठीक से बात नहीं कर रहा था।

वे लोग विदा हो गये तो सुषमा ने बताया, ‘‘वे लोग मुझे वापस ले जाना चाहते हैं।’’

‘‘ईश्वर उन्हें सद्बुद्धि दे। एक दो दिन में दत्त साहब तुम्हारा स्क्रीन टेस्ट करवाने वाले हैं। पास हो गयी तो तुम्हारी दुनिया बदल जाएगी। ये लोग तुम्हारी तकदीर से क्यों खेलना चाहते हैं?’’

‘‘मैं वापस लौटना नहीं चाहती, पर मजबूर हूँ। लगता है इन लोगों ने मेरे लिए कोई लडक़ा भी पसन्द कर लिया है। मौसी का कोई रिश्तेदार है। इसी सिलसिले में माहिम गये हैं।’’

‘‘सुप्रिया, जल्दी से मेरा पैग बनाओ और अपना भी। काकाजी से कहो कि दाल-वाल कोई नहीं खाएगा। शेरे पंजाब से काली मिर्च का मुर्गा और अपने लिए फिश मँगवा लो। सुषमा मच्छी-वच्छी खाने लगी है या अभी घास-फूस पर ही चल रही है?’’

‘‘झींगा मछली इसे पसन्द है। वही मँगवा दूँ?’’

सुप्रिया ने तीनों के पैग तैयार किए और शेरे पंजाब को डायल करने लगी।

अगले रोज दफ्तर पहुँचने में ओबी और सुप्रिया को थोड़ी देर हो गयी। मारिया ने बताया कि सुबह ग्यारह बजे से कोई बुर्जुग उन लोगों का इन्तजार कर रहा है। वह स्वागत कक्ष में बैठा है। ओबी ने भीतर जाकर देखा, सुषमा के पिता थे, जो छाते पर सिर टिका कर सो रहे थे। उसने दफ्तर में पहुँचकर इंटरकॉम पर मारिया से कहा कि मेहमान को भीतर भेज दो।

‘‘कौन है?’’ सुप्रिया ने पूछा।

‘‘सुषमा के पिता हैं?’’

‘‘वह क्यों आये होंगे?’’

सम्पूरन का माथा ठनका, बोला, ‘‘लगता है बेटी के नाम पर पैसा वसूलने आये होंगे?’’

‘‘इतना तो उस पर खर्च हो चुका है। हजारों की साडिय़ाँ और सैकड़ों के जूते दिला दिये। इतने दिनों से दामाद जैसी खुशामद कर रहे हैं, अभी भी पैसे बाकी हैं?’’

‘‘आइए आइए गुरुजी। कैसे आना हुआ?’’ ओबी ने बड़े अदब से पूछा।

वह खँखारे, फिर बोले, ‘‘हमें बम्बई रास नहीं आ रही, हम अब वापस जाएँगे। हमारे भाई बन्धु नहीं चाहते कि सुषमा इस लाइन में जाए। उसकी मौसी ने एक लडक़ा देख रखा है। सरकारी नौकरी में है, अपना घर है, माता-पिता की इकलौती सन्तान है। हमें ऐसा लडक़ा फिर नहीं मिलेगा।’’ बूढ़े ने एक ही साँस में अपनी बात कह दी, ‘‘आप सुषमा को काम की जो रकम तै करेंगे, हमें मंजूर है।’’

‘‘छोटी-सी एड फ़िल्म है। सुषमा का तीस सैकेंड का भी रोल नहीं है। आपने देखा होगा, पिछले दस दिनों में हम उस पर हजारों रुपये खर्च कर चुके हैं। मैली- कुचैली धोती पहने आयी थी, आज उसके पास दर्जन भर कीमती साडिय़ाँ हैं।’’ सुप्रिया बोली।

‘‘यह तो सब ठीक है। उसके लिए आपने बजट में कुछ पैसा तो रखा होगा?’’

‘‘उससे कहीं ज्यादा हम उस पर खर्च कर चुके हैं।’’ सुप्रिया ने कहा।

‘‘आपको किसी ने बहका दिया है। आप उसके कैरियर के साथ मत खेलिये। मैं उसे बॉलीवुड का सितारा बनाने का ख्वाब देख रहा था, आप उसे कुएँ में धकेलना चाहते हैं।’’ सम्पूरन बोला।

‘‘बाबू हम बहुत गरीब लोग हैं। यह खेल हमारे बस का नहीं। उसकी माँ तो उसे साथ ले जाने की जिद कर रही है।’’

‘‘आप खुद देख रहे होंगे कि वह आयी थी तो एक देहातिन लगती थी, आज उसकी पर्सनैलिटी में कितना गलैमर और ग्रेस जुड़ गया है! वह चप्पल घसीटते हुए चलती थी, आज ऊँची एड़ी के जूतों में वह विश्वसुन्दरी की तरह चलती है।’’ सम्पूरन ने जेब से पर्स निकाला और एक हजार रुपये गिनकर उन्हें सौंप दिये, ‘‘एक सप्ताह रुक जाइए। दत्त साहब उसे लेकर फ़िल्म बनाना चाहते हैं, अगर स्क्रीन टेस्ट में पास हो गयी तो फ़िल्म जगत पर राज करेगी, वरना आप खुशी से उसे वापस ले जाएँ। आपकी बुद्धि में जो आये कीजिये। मुझे इसके बाद कुछ नहीं कहना।’’

बूढ़ा थूक लगा लगाकर नोट गिनने लगा। लग रहा था, एक हजार रुपये उसके लिए मोटी रकम है।

सुप्रिया से न रहा गया, बीच में बोल पड़ी, ‘‘जब से आयी है रानी की तरह रह रही है। एक दर्जन तो नयी साडिय़ाँ हैं उसके पास। आधा दर्जन जूतें होंगे। हफ्ते में दो बार ब्यूटी पार्लर जाती है। एक सुनहरा भविष्य उसके द्वार पर खड़ा है। आप लोग उसके सपने चूरचूर करने पर आमादा हैं। आपकी बेटी है, जो चाहे उसके साथ सुलूक करें। उसके भेजे में अकल होगी तो बागी हो जाएगी। जो उसकी समझ में आये करे, हमें उसकी कमाई नहीं खानी। अच्छा नमस्ते।’’ सुप्रिया ने व्यंग्य में हाथ जोड़ दिए।

‘‘बहनजी आप बुरा मान गयीं। मैं उसकी आई को समझाऊँगा और आज ही उसे शोलापुर ले जाने की कोशिश करूँगा।’’

उसने अपना छाता उठाया और अभिवादन करके चला गया।

 

सच्चा झूठ-झूठा सच

 

17, रानडे रोड के लिए वह एक यादगार दिन था। अब तक का इतिहास देखा जाए तो यहाँ समय-कुसमय एम्बुलेंस अथवा शववाहन ही रुका करते थे। पास-पड़ोस के लोग इसके अभ्यस्त हो चुके थे। कभी पागलखाने की गाड़ी रुकती और अचानक बौरा गये किसी पुरुष या स्त्री को बड़ी मुश्किल से क़ाबू में करते हुए ले जाती। शान्त करने का इंजेक्शन भी जल्द असर न दिखाता। कभी पुलिस की गाड़ी रुकती और पोस्ट मार्टम करने के लिए स्ट्रेचर पर लाद कर किसी का पार्थिव शरीर ले जाती। कोई आत्महत्या कर लेता, किसी की हत्या हो जाती। मगर आज 17, रानडे रोड के जीवन में एक नया अध्याय जुड़ रहा था। सिने जगत की मशहूर जोड़ी मिसेज दत्त और मिस्टर दत्त एक जहाज़ जैसी गाड़ी से उतरे। आसपास शोर मच गया— दत्त साहब आये हैं। मिसेज दत्त भी साथ में हैं। देखते-देखते नीचे भीड़ जुट गयी। पूरी बिल्डिंग में जैसे जलजला उठ गया। जो लोग भूले भटके भी इस फ्लैट को नहीं देखते थे, आज खिड़कियों से ताकझाँक करने लगे। सागर तट पर टहलने वालों ने भी इधर का रुख कर लिया। किसी ने कभी कल्पना भी नहीं की थी कि इस फ्लैट के दिन भी बहुरेंगे।

सुषमा ने दिन ब्यूटी पार्लर में बिताया था। वह बनी-ठनी बैठी थी। सुप्रिया के साथ सम्पूरन किचन में गोश्त भून रहा था। दत्त साहब ने इंडस्ट्री में सम्पूरन के रोगनजोश की बहुत तारीफ सुन रखी थी और इस समय वह पूरे मन से इसी काम में जुटा था। उसे जब पता चला कि दत्त साहब पधार चुके हैं, वह कुकर को धीमा कर हाल में घुसा। वह दत्त साहब से झप्पी भरकर मिला और मिसेज दत्त से पप्पी लेकर।

‘‘ओबी तुमने समुद्र से मोती ढूँढ निकाला है।’’ मिसेज दत्त ने कहा, ‘‘मुझे जैसी लडक़ी की तलाश थी, ठीक वैसी ही लडक़ी आज मेरे सामने बैठी है। लगता है आसमान से अभी-अभी कोई हूर उतरी है।’’

‘‘ओबी की पत्री में पारस योग है, जिसको भी छू देगा, सोना हो जाएगा।’’ सुप्रिया ने घिसा-पिटा वाक्य दुहराया।

‘‘मगर ओबी खुद पत्थर बना रहेगा।’’ ओबी बोला।

‘‘सुप्रिया तुम सावधान हो जाओ, अगर इंडस्ट्री में यह बात फैल गयी तो बड़ी-बड़ी हीरोइन ओबी का स्पर्श पाने को बेकरार रहने लगेंगी।’’ मिसेज दत्त बोलीं।

‘‘मिसेज दत्त आप ही कीजिये अपने इस देवर के लिए कुछ। मैं तो सुप्रिया का ही स्पर्श पाने को तरस जाता हूँ।’’

‘‘तुम्हारी पिट्टी करनी पड़ेगी।’’ सुप्रिया उसे मुक्का दिखाने लगी।

‘‘दत्त साहब आप क्या लेंगे? स्कॉच या व्हिस्की।’’

‘‘दत्त साहब स्कॉच के अलावा कुछ नहीं पीते और मैं एक पैग कम्पारी ले लूँगी।’’

‘‘मुझे भी कम्पारी प्रिय है।’’ सुप्रिया बोली।

‘‘सुषमा क्या लेगी?’’

‘‘सुषमा अभी दूध पर चल रही है।’’

‘‘इसे आज ब्लडी मेरी पिलाती हूँ। अपने हाथ से तैयार करूँगी।’’ सुप्रिया ने कहा, ‘‘आज इसकी जिन्दगी का यादगार दिन है।’’

‘‘आओ बेटा, मेरे पास आओ।’’ मिसेज दत्त ने अपने सोफे को थपथपाते हुए कहा, ‘‘मेरा आशीर्वाद ले लो। जुमे रात को तुम्हारा स्क्रीन टेस्ट होगा। सुबह ग्यारह बजे हमारा ड्राइवर तुम्हें ले जाएगा। स्क्रीन टेस्ट में पास हो गयी तो तुम्हारी जिन्दगी बदल जाएगी। दत्त साहब तुम्हें बहुत तामझाम से लांच करेंगे। हमारा पब्लिसिटी का बजट ही दो लाख से अधिक है; जबकि लोग आजकल दो लाख में फ़िल्म बना लेते हैं।’’

सुषमा ने अपना सिर मिसेज दत्त की गोद में रख दिया और सिसकने लगी। मिसेज दत्त प्यार से उसके बाल सहलाने लगीं, ‘‘आज किस्मत तुम्हारे दरवाजे पर दस्तक दे रही है। खुदा तुम्हें इतना बड़ा स्टार बना दे कि तुम्हारे पास हमसे मिलने की भी फुर्सत न हो।’’

मिसेज दत्त लगातार उसके रेशमी बाल सहला रही थीं, जो आज ही ‘ला ओरिएल’ से शैम्पू हुए थे। इससे पहले वह साबुन से ही अपने बाल धोया करती थी। उसकी माँ कभी-कभी रीठे और आँवले भिगो देती थी और सुबह-सुबह वह उस भूरे काले रंग के पानी से बाल धोया करती थी। इतने रेशमी बाल तो मिसेज दत्त के भी न थे जिन्होंने कभी देसी शैम्पू इस्तेमाल न किया था। उनकी त्वचा अत्यन्त तैलीय थी और जल्द ही बाल चिकने हो जाते थे। दूसरे दत्त साहब को जब उन पर प्यार आता था तो वह उनके सिर के बाल सूँघा करते थे। गेसुओं के अँधेरे में प्रेम करना उन्हें अच्छा लगता था। शायद यही वजह थी कि वह रोज अपने बाल शैम्पू किया करती थीं। वह बालों की देखभाल के लिए बहुत से आयातित कंडीशनर इस्तेमाल करती थीं। उन्होंने अचानक सुषमा के बालों पर हाथ फेरते हुए उसके बाल सूँघ लिए— उन्हें बहुत सुकून मिला। उन्हें लगा जैसे उन्होंने मोगरे की वेणी सूँघ ली है। वह उसके बालों में नाक घुसा कर दत्त साहब की तरह प्यार करना चाहती थीं, मगर उन्होंने वक्त की नजाकत को समझा। उन्होंने देखा दत्त साहब उसकी हरकत देख कर मन्द-मन्द मुस्करा रहे थे।

सुषमा स्क्रीन टेस्ट में अव्वल आयी। शक्ल, सूरत, उच्चारण में तो उसने कमाल दिखाया ही था, फोटोजेनिक भी गजब की थी। स्थिति के अनुकूल उसके चेहरे के भाव बदल जाते। देहाती लिबास में वह खाँटी देहाती लडक़ी लगती और जीन्स टॉप में एकदम आधुनिक। सिर ढँककर वह सती सावित्री लगती और घुँघरू पहनकर डेरे वाली तवायफ। वह मीरा का वेश धारण कर सकती थी और कुटनी का भी। दत्त और मिसेज दत्त को तय करने में एक क्षण न लगा कि उन्हें मनमाफ़िक हीरोइन मिल गयी। दत्त साहब को यही एक शक था कि कहीं वह अभिनय में उनके भाई पर हावी न हो जाए। उन्हें कहानी में कुछ परिवर्तन करने पड़ेंगे।

जिस रोज दत्त साहब की गाड़ी उसे लिवाने आयी, ओबी और सुप्रिया ने उसे बिटिया की तरह विदा किया। दत्त साहब ने सन्देश भेजा था कि वह अपने साथ कोई भी सामान लेकर न आये। उसके लिए हर शै नयी खरीदी जाएगी। उन्होंने अपने खार वाले फ्लैट में उसके रहने का इन्तजाम किया था। यहाँ उसके लिए अलग स्टॉफ था। एक ब्यूटीशियन थी और एक मराठी कुक। अपनी नयी वार्डरोब देखकर वह धक-से रह गयी। एक-एक ड्रेस को सीने से लगाकर आईने में अपनी छवि देखती रही। अपनी खुशी को वह किसी के साथ बाँटना चाहती थी, मगर अक्खी बम्बई में उसका कोई हमदम न था। माता-पिता बम्बई से नाखुश लौटे थे। उनसे संवाद स्थापित करना उसे कठिन लग रहा था। उसे एक तरकीब सूझी। उसके एक मामा भंडारा के एक डिग्री कॉलेज में हिन्दी के लेक्चरर थे। दामोदर मामा। वह काफी खुले दिमाग के व्यक्ति थे। वह उसके खानदान के पहले व्यक्ति थे, जिन्होंने गैर-मराठी लडक़ी से प्रेम विवाह किया था। उनकी पत्नी गुजराती थी और उनके कॉलेज में ही पढ़ाती थी। परिवार वालों ने इस रिश्ते को सिरे से खारिज कर दिया था। उन्होंने कोर्ट में शादी कर ली। मियाँ-बीवी दोनों ही नौकरीपेशा थे, जल्द ही उनकी आर्थिक स्थिति में सुधार दिखाई देने लगा। उन्होंने नागपुर में एक फ्लैट बुक करवा दिया, मियाँ-बीवी मिलकर उसकी किस्तें चुकाते रहे। बीच में खबर लगी थी कि उन्होंने एक कार भी खरीद ली है। पाठ्य पुस्तकों की कुंजियाँ लिखकर भी दोनों ने खूब धन कमाया था। सबसे दिलचस्प बात यह थी कि उसके नाना-नानी, जो उस समय मामा के विवाह का जमकर विरोध कर रहे थे और जिन्होंने उन्हें अपनी जायदाद से बेदखल कर दिया था, आज बुढ़ापे में उन्हीं के पास रहते थे। बाकी मामा लोगों ने इस जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ लिया था। तमाम रिश्तेदारों में वही एक व्यक्ति थे, जिनके घर में फोन था। सुषमा को आज भी उनका नम्बर याद था— 59681 उसने तुरन्त उनके नाम कॉल बुक करवा दी। दो-तीन घंटे में भी नम्बर न मिला तो उसने काल को अर्जेंट करवा दिया। आखिर रात के दस बजे कॉल मिल पायी और उसके दामोदर मामा लाइन पर थे।

सुषमा ने दामोदर मामा को शुरू से आखीर तक का किस्सा बयान कर दिया कि कैसे उसने ऐड फ़िल्म की और कैसे अब दत्त परिवार के संरक्षण में है जो जल्द ही अपने छोटे भाई को लांच कर रहे हैं। वह उनके भाई की हीरोइन होगी। उसने तफसील से बयान किया कि कैसे दत्त साहब ने खार में अपने गेस्ट हाउस में उसके ठहरने-खाने की व्यवस्था कर दी है। अभी से एक खानसामा और एक ड्राइवर उसकी सेवा में रहते हैं।

‘‘पम्मी, मुझे तुमसे ईष्र्या हो रही है। मैं जल्द ही आऊँगा, तुम्हारा वैभव देखने। ईश्वर तुम्हें सफलता प्रदान करे। मेरी दुआएँ तुम्हारे साथ हैं। मैं सरसती से बात करूँगा कि वह फिलहाल तुम्हारी शादी की रट छोड़ दे और अपनी बिटिया के पास रहे। मैं जल्दी ही उन लोगों से मिलूँगा। मैं तुम्हारा साथ दूँगा। तुम बिल्कुल चिन्ता न करो।’’

एक दिन दत्त साहब अपने डायरेक्टर के साथ उससे मिलने आये। डायरेक्टर देर तक उसे कहानी के दाँवपेंच समझाता रहा। जल्द ही फ़िल्म का मुहूर्त करने की योजना थी। मुहूर्त का समय निकालने के लिए एक कश्मीरी पंडित को जम्मू से बुलाया गया था। अगले सप्ताह तक उसके बम्बई पहुँचने की आशा थी। डायरेक्टर ने बताया कि दत्त साहब चाहते हैं कि पिक्चर बहुत जल्द तैयार हो जाए। इसके लिए सबको मिलकर कड़ी मेहनत करनी होगी। ओमजी सोमजी ने फ़िल्म के संगीत का प्रारूप तैयार कर लिया है। लता और मन्ना डे से इसी सप्ताह अनुबन्ध हो जाएगा। फ़िल्म के गाने कौशलेन्द्र और सागर सुल्तानपुरी लिख रहे हैं।

सुषमा ने लक्षित किया, दत्त साहब चुपचाप बैठे थे। वह बहुत गमगीन लग रहे थे। लग रहा था, पिक्चर को लेकर उनके मन में कोई उत्साह ही नहीं है। आखिर सुषमा से रहा न गया, उसने पूछ ही लिया, ‘‘दत्त साहब, आज आप बहुत उदास लग रहे हैं।’’

दत्त साहब की फीकी-सी हँसी सुनाई दी और वह लम्बी साँस लेकर बोले, ‘‘मैं बुनियादी तौर पर एक उदास शख्स हूँ।’’

डायरेक्टर शायद उनका दर्द समझता था, बोला, ‘‘इधर मिसेज दत्त की तबीयत ठीक नहीं चल रही। दत्त साहब उसी को लेकर परेशान हैं।’’

‘‘ईश्वर करे, वह जल्दी स्वस्थ हो जाएँ।’’ सुषमा बोली, ‘‘अभी पिछले दिनों तो वह एकदम स्वस्थ थीं।’’

‘‘वह बहादुर महिला हैं।’’ डायरेक्टर बोला, ‘‘दत्त साहब कुछ ज्यादा ही चिन्ता करते हैं।’’

दत्त साहब खड़े हो गये। उन्होंने हाथ जोडक़र विदा ली और जाते-जाते सिर्फ इतना पूछा कि उसे यहाँ किसी चीज की तकलीफ तो नहीं है?

दत्त साहब लौट गये और सुषमा बिस्तर पर जा गिरी। जाने क्यों उसे लग रहा था कि दत्त साहब के साथ कोई हादसा घट गया है। उसने बहुत दिमाग खपाया मगर वह किसी निर्णय पर न पहुँच पायी। अगले रोज खानसामा और ड्राइवर से भी बात की, मगर किसी को कुछ भी मालूम नहीं था। ड्राइवर बहुत वाचाल था। उससे बात करने का मतलब था, उसे सुनते जाना। वह हमेशा डींग हाँकता था कि वह दत्त साहब का सबसे अधिक विश्वसनीय ड्राइवर है। उसे सुनकर गहरा धक्का लगा कि बहूजी बीमार हैं और उसे इसकी भनक तक नहीं है। उसे अपना यह दावा बेअसर होता दिखाई दिया कि दत्त साहब उसे अपना तीसरा भाई मानते हैं।

‘‘यह फ़िल्म उद्योग है हीरोइन जी।’’ उसने सुषमा को खुश करने के लिए उसे अभी से हीरोइन बना दिया, ‘‘यहाँ दुश्मन लोग कुछ भी फैला सकते हैं। अभी हाल में किसी ने सुपर स्टार की बिटिया के बारे में खबर छपवा दी थी कि उसका अपने ड्राइवर से इश्क चल रहा है।’’

‘‘क्या यह सच नहीं हो सकता?’’ सुषमा ने अत्यन्त मासूमियत से पूछा।

‘‘यह फ़िल्म इंडस्ट्री है हीरोइन जी। यहाँ जो सच है, वास्तव में वह झूठ है और जो झूठ है, वही सच है।’’

‘‘वाह तुमने इंडस्ट्री की कितनी खूबसूरत व्याख्या कर दी!’’

‘‘हीरोइन जी, मैं इंडस्ट्री की नस-नस पहचानता हूँ। दत्त साहब से पहले मैं एक विश्वसुन्दरी का ड्राइवर था। मुझसे वह कुछ भी न छिपाती थी। उसके तमाम प्रेमी मुझे पहचानते थे। एक बार खंडाला में एक फ़िल्म जर्नलिस्ट मेरे पीछे पड़ गयी कि मैं विश्वसुन्दरी के बारे में बता दूँ कि वह कहाँ ठहरी है और उनके साथ कौन है। उसने मेरी जेब में सौ-सौ के अनेक नोट ठूँस दिये। मैंने नोट फेंक दिये और अपनी जुबान बन्द रखी। मैं लालची नहीं हूँ हीरोइन जी, एक भटका हुआ इनसान जरूर हूँ।

‘‘मैं उस दिन को कोसता रहता हूँ जब मैंने एक फ़िल्म देखी कि एक सेठानी अपने पति से ज्यादा अपने ड्राइवर पर भरोसा करती है। सेठ को वह सिर्फ पैसा कमाने की मशीन समझती है और अपने सब अरमान अपने ड्राइवर के साथ पूरे करती है। कभी उसे लेकर कश्मीर चली जाती है, कभी महाबलेश्वर। उसका पति भी राहत की साँस लेता है और पीछे से तिजोरी में और हीरे-जवाहरात भर देता है। धन ही उसका भगवान है, उसका सुख है, उसका चैन है। धन कमा कर ही उसकी सन्तुष्टि होती है, वरना बौराया रहता है। धन के अलावा उसे कुछ न चाहिए, न पत्नी न सन्तान। उसकी जो सन्तान है, वह वास्तव में ड्राइवर की ही सन्तान है, मगर उसे कोई बांदा नहीं।

‘‘हीरोइन जी, यह फ़िल्म देखकर मेरा कैरियर चौपट हो गया। मैंने पढ़ाई छोड़ दी और घरवालों के लाख मना करने पर भी ड्राइवरी सीखने लगा। ड्राइवरी का लाइसेंस ले मैं बम्बई चला आया। बम्बई में मुझे ज्यादा नहीं भटकना पड़ा। मेरे ही गाँव के तिवारीजी मिल गये जो सरदार नत्था सिंह के यहाँ ड्राइवरों का हिसाब किताब रखते थे। उन्होंने शादी नहीं की थी और ड्राइवरों के बीच ही खुश रहते थे। मुझे उन्होंने नत्था सिंह से मिलवा दिया और दो तीन महीनों तक मैं किसी न किसी ड्राइवर के साथ बम्बई की सडक़ों का भूगोल समझता रहा। यह उन्हीं की ट्रेनिंग है जो मैं आज भी बम्बई की हर सडक़ के नाम से वाकिफ हूँ। कुछ ही दिनों में मुझे भी गाड़ी मिल गयी। मेरी टैक्सी में सैकड़ों लड़कियाँ बैठी होंगी, लेकिन मेरी किस्मत के ताले को ऐसा जंग लगा था कि वह बन्द का बन्द रहा। जब भी कोई लडक़ी मेरी गाड़ी में बैठती, मेरे दिल की धडक़नें तेज हो जातीं, लेकिन किसी लडक़ी ने मेरे दिल की धडक़न नहीं सुनी।

‘‘हीरोइन जी, अब और बर्दाश्त नहीं होता। कई बार तो लगता है मैं पागल हो जाऊँगा। बम्बई से मुझे कोई गिला नहीं है, पर अकेलापन मुझे भीतर ही भीतर खाये जा रहा है। गाँव से चिट्ठी आती है, पिताजी बहुत बीमार हैं, मैं चुपचाप मनीऑर्डर करवा देता हूँ, उन्हें यहाँ नहीं ला सकता। ले आया तो उन्हें कहाँ रखूँगा, कहाँ इलाज करवाऊँगा?’’

‘‘तुम बहुत दिलचस्प आदमी हो, और बहुत सच्चे हो। तुम्हारा हृदय कितना निर्मल है!’’ सुषमा बोली। उसे ड्राइवर की बात से बहुत मजा आ रहा था। उसने कहा, वह भी बहुत जल्द उदास हो जाती है, उसे कभी-कभी घुमा लाया करे।

‘‘आप मुझे अपना गुलाम समझें। मैं हमेशा आपकी खिदमत में रहूँगा।’’

सुषमा को जब कुछ न सूझता, वह स्नान करने के लिए बाथरूम में घुस जाती। उसे शावर कैप पहन कर शावर के नीचे नहाने में बहुत आनन्द आता था। वह कुनकुने पानी से नहाती थी। पूरे बदन पर फ्रूट सोप का झाग कर लेती और टब में लेट जाती। पूरे जिस्म पर वह शावर फेंकती, टार्च की तरह। शावर की धार इतनी तेज होती कि उसे लगता उसके शरीर का पोर-पोर स्वच्छ हो गया है। वह देर तक अपने शरीर के साथ खेलती और मुस्कराती। सामने आईने में अपनी छवि देखती तो उसे लगता वह बहुत शोख होती जा रही है। स्नान के बाद वह बड़े से तौलिये को बदन में लपेट लेती।

हर स्नान के बाद पुराने कपड़े उतार कर नये पहन लेती। तौलिये में ही वह बेडरूम में चली जाती। वार्डरोब खोलकर देर तक कपड़ों का चुनाव करती। उसके लिए फ्रांस से आयातित लिंगरीज के डिब्बे पड़े थे। डिब्बों पर अत्यन्त बिन्दास युवतियों को अन्त:वस्त्रों में दिखाया गया था। उसने अंडरवियर पहना तो अजब अनुभव हुआ। फैबरिक इतना महीन और पारदर्शी और मादक था कि वह लजा गयी। इलास्टिक ऐसा कि कमर को महसूस ही न हो कि कुछ पहना है। यही हाल ब्रा का था। अब तक वह जो ब्रा पहनती थी, उसे पहनकर लगता था कि कपड़ा लगातार अपना दबाव बना रहा है और उतारने पर राहत महसूस होती थी और एक यह ब्रा थी कि एहसास ही नहीं होता था कि शरीर पर कुछ धारण किया है, बल्कि लगता था, कोई दबाव बनाये तो अच्छा लगे। सुषमा ब्रा पहनकर बेड पर उल्टी लेट जाती थी, उसे बहुत सुकून मिलता।

फ़िल्म इंडस्ट्री ने अपने लिए कुछ मिनी थियेटर बना रखे थे, जहाँ प्रोड्यूसर डायरेक्टर और कलाकार अपनी फ़िल्मों के रशेज़ देखते, अपनी मनपसन्द देशी-विदेशी फ़िल्में भी। कई बार अन्तरंग मित्रों के बीच ब्ल्यू फ़िल्में भी स्क्रीन की जातीं। किसी अच्छी फ़िल्म का शो होता तो दत्त साहब उसका पास भिजवा देते। सुषमा इस बीच कई जग प्रसिद्ध फ़िल्में देख चुकी थी। खार में एक नामी सितारे ने अभिनय सिखाने का एक इंस्टीट्यूट खोल रखा था। दत्त साहब ने उसमें भी उसे दाखिला दिलवा दिया। अगले महीने उनकी फ़िल्म ‘तन मन और धन’ का मुहूर्त होना था। जब-जब कहानी पर लेखक और पटकथा लेखक से लम्बी बैठकें होतीं, दत्त साहब उसे भी बुलवा लेते।

 

वह तो इश्कमिज़ाज निकला

 

उस दिन इतवार था, उसने तय किया कि वह लम्बी ड्राइव पर निकल जाए। ड्राइवर ने उसे बम्बई पूना रोड पर चलने को कहा। उसने बताया कि दत्त साहब भी जब परेशान होते थे या उन्हें कोई निर्णय लेना होता है तो वे इसी सडक़ पर गाड़ी दौड़ाते हैं।

‘‘रास्ते के लिए कुछ पराँठे बनवा लो। कहीं किसी निर्झर के पास बैठकर खाना खाएँगे। पिकनिक हो जाएगी।’’

‘‘जी हीरोइन जी।’’

‘‘तुम मुझे हीरोइन जी मत कहा करो। अभी तो मैंने इंडस्ट्री में कदम भी नहीं रखा। मुझे मेरे नाम से पुकारा करो।’’

‘‘सुषमाजी नाम है न आपका?’’

‘‘सबकुछ तो जानते हो।’’

रास्ते भर ड्राइवर बातें हाँकता रहा। पता चला उसने हमेशा इकतरफा प्रेम ही किया है, जबकि ताली दोनों हाथों से बजती है।

‘‘मुझे लगता है, मुझे सफलता इसलिए नहीं मिलती कि मैं अपने से कहीं अधिक हैसियत की लडक़ी के प्रेम में पड़ जाता हूँ। अपनी हैसियत की लडक़ी को तो मैं चुटकियों में फँसा लूँ, मगर मुझे हमेशा ऊँचा ख्वाब देखना अच्छा लगता है। सजनी अमीर साजन गरीब।’’

‘‘एक बार तो सफलता मिलते मिलते रह गयी। कुछ दिन मैंने वर्ली में भी नौकरी की थी, प्याज के थोक व्यापारी के यहाँ। उसका लाखों का कारोबार था। नासिक में अपने फार्म थे। अक्खी बम्बई को वही प्याज सप्लाई करता था। उसने अपने सर्वेंट क्वार्टर में मुझे रहने को एक कोठरी भी दे दी थी। दोनों वक्त का खाना भी फ्री था। मेरा काम था बिटिया को एस.एन.डी.टी. युनिवर्सिटी तक पहुँचाना और वापस लाना। मुझे आदेश था कि जब तक क्लासें चलें, मैं वहीं रहूँ। मैं गाड़ी खड़ी करके चर्चगेट से मैरिन ड्राइव तक घूम आता। मुझे समुद्र अपनी तरफ खींचता है। मैं घंटों समुद्र का संगीत सुनता और थके कदमों से लौट आता। दो बजे मीनाक्षी की छुट्टी होती थी। वह बहुत अल्हड़ लडक़ी थी। कभी कहती मुझे चौपाटी ले चलो, वहाँ चाट खाएँगे। कभी उसका मन पावभाजी के लिए मचलता। एक दिन गाड़ी में बैठते ही बोली, आज कॉलेज नहीं जाएँगे, मुझे जुहू ले चलो। जुहू पहुँचकर वह रेत के घरौंदे बनाती रही। एक बड़ा-सा घर बनाया। उसमें दो ही कमरे थे। बोली, देखो कितना प्यारा बंगला बना है। एक कमरा मेरा है, बताओ दूसरा किसका है? मैंने कहा, तुम्हारे पापा का होगा। बोली, धत्त! तुम तो निपट अनाड़ी हो। अब बताओ, दूसरा कमरा किसका है? मैंने कहा, किसी किस्मत वाले का होगा। बोली, किस्मत का क्या पता, कब खुल जाए। तुम तो निरे बुद्धू हो। उसने कहा और बहुत शोख नजरों से मेरी तरफ देखा। सुषमाजी, उस क्षण लगा, मेरा सपना पूरा हो गया है। अब आपसे क्या छिपाना! मैंने गाड़ी के शीशे चढ़ाकर उसे जोर से भींच लिया। वह भी पागलों की तरह मुझे चूमने लगी। अपने होंठों से मेरे होंठ चूसने लगी। उसका आक्रमण इतना तेज था कि मेरे होंठ जैसे निचुड़ गये। देर तक उनमें सनसनाहट होती रही। बोली, अब पता चला, दूसरा कमरा किसका है?’’

मगर मेरी किस्मत खोटी थी। सान्ताक्रूज में न जाने कहाँ से उसके बाप ने हमें देख लिया। मैंने घर की तरफ गाड़ी दौड़ायी, मगर उस जालिम ने बान्द्रा पर मुझे दबोच लिया। उसके पिता और ड्राइवर दोनों ने मिलकर मेरी खूब धुनायी की। मेरा होंठ कट गया।

‘‘उन लोगों ने मुझे गाड़ी से बाहर धकेला और उसका बाप गाड़ी चलाकर ले गया। मैं घंटों सडक़ पर बेसुध-सा पड़ा रहा। समझ नहीं आ रहा था, कहाँ जाऊँ, क्या करूँ? महीने भर की पगार भी जब्त हो गयी। मेरी हिम्मत ही नहीं हुई, दोबारा वर्ली जाने की। मैं लंगड़ाते हुए तिवारीजी के पास पहुँचा और दोबारा टैक्सी पकड़ ली। मैं आज तक नहीं समझ पाया कि ईश्वर मुझे किस बात की सजा दे रहा है। मैंने मीनाक्षी से कोई बदतमीजी नहीं की थी, मगर सजा मुझे ही मिली। जाने उसका क्या हुआ होगा?’’ उसने एक लम्बी साँस ली और एक वीरान जगह गाड़ी रोक दी।

‘‘आप यहीं बैठ कर पिकनिक कर लीजिये। देखिये पेड़ों की कितनी घनी छाया है!’’ वहाँ बीसियों पेड़ थे, उन पर गजब का बौर आया था। पूरा वातावरण महक रहा था।

‘‘यह तो बहुत अच्छी जगह है। यहीं बैठते हैं, आओ तुम भी खाओ। बेफ़िक्र रहो, मैं घरौंदा नहीं बनाऊँगी।’’

वह बड़े संकोच से थोड़ी दूर बैठ गया। दोनों ने नाश्ता किया। सैंडविच, बटाटा वड़ा और आरेंज जूस।

‘‘सुषमाजी, आप बियर नहीं पीतीं?’’ पहली बार उसने सुषमा को नाम से पुकारा था। सुषमा को थोड़ा अटपटा तो लगा, मगर यह उसी की इच्छा के मुताबिक था।

‘‘अभी जूस पर ही चल रही हूँ। इंडस्ट्री में तो स्त्रियाँ धड़ल्ले से पीती हैं।’’

‘‘मिसेज कुमार तो दिन में ही शुरू हो जाती थीं। जाने क्या-क्या पीती थीं! दोपहर में जिन, शाम को वाइन और रात को जो मिल जाए।’’

‘‘इसी से बीमार पड़ी होंगी। सुनते हैं बहुत कष्ट सहकर मरीं।’’

‘‘बहुत नेक महिला थीं।’’

सुषमा की मिसेज कुमार के बारे में और अधिक बातचीत करने में कोई दिलचस्पी न थी। उसने ट्रांजिस्टर खोल लिया और एक बहुत बोर किस्म की बातचीत सुनने लगी। वह ड्राइवर के सामने संगीत नहीं सुनना चाहती थी। जाने इसका क्या अर्थ लगा ले।

लौटते-लौटते साँझ घिर आयी थी। बम्बई पहुँचने में इतना समय नहीं लगा था, जितना बम्बई पहुँचने के बाद लग रहा था। जगह-जगह जाम था। टैक्सियों की पीली छतें दूर-दूर तक रास्ता रोके थीं, जैसे उन्होंने चक्का जाम कर रखा हो।

घर पहुँच कर सुषमा बाथरूम में घुस गयी। आधे घंटे तक टब में लेटी रही। रास्ते की सारी थकान टब में विलीन हो गयी।

बाथरूम से निकली तो एकदम ताजादम थी। अन्त:वस्त्र बाथरूम की खूँटी पर टाँग दिये और बाकी कपड़े वाशिंग मशीन में फेंक दिये। अन्त:वस्त्र प्राय: वह आयातित वॉशिंग सोप से खुद ही धोती थी। उनका फैब्रिक इतना नाजुक था, कि वॉशिंग मशीन उसका एक स्ट्रोक न सह पाता। उसने रात का लिबास पहना और जाकर टीवी के सामने बैठ गयी।

भोजन के बाद वह टॉयलेट में गयी तो उसने देखा उसके दोनों अन्त:वस्त्र यानी ब्रा और चड्डी खूँटी पर नहीं थे। उसे लगा उसने अनजाने में वॉशिंग मशीन में न डाल दिये हों। वाशिंग मशीन का एक-एक कपड़ा देख लिया। मगर उसके अन्त:वस्त्र नहीं मिले। वह एकदम व्याकुल हो गयी। उसे लग रहा था कि वह एकदम असुरक्षित है। जैसे उसका कुछ भी अपना नहीं है। एक तरह से यह उसके एकान्त पर आक्रमण था। यह एक ऐसा रहस्य था, जिसके बारे में किसी से जिक्र भी नहीं कर सकती थी। मिसेज दत्त की तबीयत ठीक नहीं थी, वरना वह अभी अपनी शिक़ायत दर्ज करा सकती थी। उसका मन किसी भी धारावाहिक या फ़िल्म में नहीं लग रहा था। उसे लग रहा था जैसे यहाँ एक हॉरर फ़िल्म चल रही हो। कोई शख्स उसकी खुलेआम तौहीन कर गया।

उसे अचानक बहुत अकेलापन महसूस हुआ। घर की बहुत याद आयी। उसने अपने मामा का फोन मिलाया और इधर-उधर की बातें करती रही। मामा से यह खबर जरूर लगी कि उसकी माँ के रुख में थोड़ा परिवर्तन आया है। वह रोते हुए उसे याद कर रही थी और भाई से कहा था कि वह उसकी खोज-खबर लेता रहे। यह सुनकर सुषमा को कुछ भावनात्मक सम्बल मिला। वह अपने बचपन में खो गयी। माँ उसे कितना चाहती थी, उससे छिपा न था। कैसे पिता उसका एक-एक नखरा उठाया करते थे। एक बार उसने चाँदी की पाजेब के लिए ऐसी जिद पकड़ी कि तंग आकर उसके पिता दफ्तर से लौटते ही दुबारा उसके साथ बाजार चल दिये थे। उसकी आँखें नम होने लगीं तो वह बिस्तर में दुबक गयी।

सुबह उठकर उसने सबसे पहले दत्त साहब के पी.ए. कुमार स्वामी को फोन मिलाया और कहा कि उसे कोई दूसरा ड्राइवर दिलवा दो।

‘‘उसने वहाँ भी कोई गुल खिला दिया? मैम, वह बेहतरीन ड्राइवर है, मगर इतना बक-बक करता है कि कहीं टिक कर काम नहीं कर पाता। ठीक है, आज एक आपके मुलुक का ही ड्राइवर भेजता हूँ। नाम है गनपत। यह उसका विलोम है। बड़ी मुश्किल से जुबान खोलता है। पिछले दो बरसों में दो बच्चे पैदा कर चुका है; जबकि आप उसे देखेंगी तो लगेगा, यह तो खुद अबोध बालक है।’’

‘‘शुक्रिया।’’ सुषमा ने कहा और रिसीवर रख दिया। वह टॉयलेट में गयी तो देखा उसके अन्त:वस्त्र पूर्ववत खूँटी पर लटक रहे थे। लग रहा था कि अभी पूरी तरह सूखे नहीं हैं। किसी ने धोकर सुखाये थे। उनमें पहले जैसा रेशमी-स्पर्श न था, कुछ ऐंठे-ऐंठे थे, जैसे माड़ लगाया हो। छूकर उसे घिन-सी आयी। उसने दोनों कपड़े डस्टबिन में फेंक दिये और डिटॉल से हाथ धोने लगी।

 

अर्श से फर्श पर

 

ओबी के यहाँ जश्न का माहौल था। उसकी तीस सैकेंड से भी कम समय की फ़िल्म एड लैब से प्रोसेसिंग होकर आ गयी थी। फ़िल्म के पटकथा लेखक, डायरेक्टर, प्रोड्यूसर, जिंगल लेखक, गायक सब लोग मिनी थियेटर से फ़िल्म देखकर लौटे थे। फ़िल्म की नायिका सुषमा को भी बुलाया गया था, मगर उसने अपनी व्यस्तता दिखाते हुए आने में असमर्थता प्रकट की थी। अब इस समय घर पर पार्टी चल रही थी। ओबी किसी न किसी बहाने पार्टी थ्रो करता रहता था। यूनिट के किसी मेम्बर के यहाँ पुत्री ने जन्म लिया, ओबी ने पार्टी की घोषणा कर दी। वास्तव में ओबी पार्टी पर कितना भी खर्च कर सकता था, मगर उससे कहो कि कैमरामैन को पाँच सौ रुपये दे दो तो टाल जाता था। कैमरामैन थॉमस को अपने पैसे पत्नी के इलाज के नाम से निकलवाने पड़े, फोटोग्राफी की मद में उसे शायद ही कुछ मिला हो। यही हाल डायरेक्टर का था। डायरेक्टर ने जीवन में एक ही फ़िल्म डायरेक्ट की थी, शिवेन्द्र की ‘यह जिन्दगी कितनी हसीन है’ जो कुछ इस कदर बॉक्स आफ़िस पर पिटी थी कि मैटिनी शो के बाद दूसरा शो चलना थियेटर वालों को भारी पड़ रहा था। उस दिन से खन्ना साहब का संघर्ष शुरू हो गया। वह डायरेक्टर से सहायक बन गया। चूँकि वह एक फ़िल्म स्वतन्त्र रूप से डायरेक्ट कर चुका था, उसे किसी भी दूसरे डायरेक्टर के अधीन काम करने में बहुत बुरा लगता। मगर पापी पेट के लिए सबकुछ करना पड़ता है। उसकी फ़िल्म जरूर पिट गयी थी, मगर वह मानने को तैयार नहीं था कि उसके निर्देशन में कोई खोट था। उसका मानना था कि फ़िल्म के औंधे मुँह गिरने की सबसे बड़ी वजह उसकी कहानी और नायिका थी। इससे पूर्व इसी नायिका की कई फ़िल्में सफल हो चुकी थीं, मगर इस फ़िल्म में उसने बहुत बेमन से काम किया था। डायरेक्टर का आरोप था कि शिवेन्द्र ने इन्कमटैक्स के मामले में अभिनेत्री की मदद की थी। इसे देखते हुए उसे बहुत कम रकम पर साइन किया गया था। इस मामले में शिवेन्द्र ओबी का बड़ा भाई था। उसकी भी कैश में नहीं काइंड में आस्था थी। वह हीरोइन को हीरे की अँगूठी भेंट कर सकता था, मगर नकद भुगतान करने में उसे बहुत कष्ट होता था।

अगले रोज क्लायंट को फ़िल्म दिखायी जानी थी। फ़िल्म के ओ.के. होते ही ओबी को बाकी के पचास हजार रुपये मिलने थे। उसका बजट तो इस बीच ही एक लाख से ऊपर जा चुका था। दो तीन जगह उसकी और बातचीत चल रही थी। एक डिटर्जेंट बनाने वाली कम्पनी का जिंगल तैयार हो चुका था। वह इतना आकर्षक था कि ओबी को विश्वास था रेडियो पर सुबह शाम गूँजा करेगा। कफ सिरप बनाने वाली कम्पनी से ओबी ने वादा कर लिया था कि वह एक शॉट में स्वर कोकिला की छोटी-सी झलक दिखाने की अनुमति ले लेगा जबकि उस गायिका तक उसकी कोई पहुँच नहीं थी, मगर उसे भरोसा था कि वह अपनी टूटी-फूटी मराठी में इस लेजेंड को राजी कर लेगा। उसने अभी से रणनीति बनानी शुरू कर दी थी।

मिनी थियेटर में पाँच बजे ओबी की चंडाल चौकड़ी मौजूद थी। ज़रीवाला साहब आने वाले थे। ऐन मौके पर खबर आयी, उनकी जगह उनका जी.एम. उनका प्रतिनिधित्व करेगा। जी.एम. भी गुजराती था— सी.एम. देसाई। वह अत्यन्त औपचारिक पोशाक में था। राज कपूर की तरह मूँछें रखता था। उसकी हमेशा कोशिश रहती कि चेहरे पर कहीं मुस्कराहट न आ जाए। वह हर वक्त जैसे एक तनाव में रहता था। सुप्रिया, ओबी ने उसका बुके से स्वागत किया। उसने बड़ी बेरुखी से पुष्पगुच्छ अपने सहायक की तरफ बढ़ा दिया। वह बार-बार घड़ी की तरफ देख रहा था। तीस सैकेंड की फ़िल्म उसने आँखें फाड़-फाड़ कर देखी। फ़िल्म खत्म होते ही उसकी पहली प्रतिक्रिया थी कि मॉडल के लिए जो पाँच हजार का लिबास बनवाया गया था, वह पूरा नहीं दिखाई देता। सिर्फ डेढ़ हजार का ही दिखाई देता है। इसे ठीक करायें और अगले सप्ताह तक दिखा दें। उसने किसी को कुछ कहने का मौक़ा ही न दिया और खट-खट करता हुआ अपनी लम्बी-सी कार में जा बैठा। ओबी, सुप्रिया और उनका यूनिट उसे वेव करते रह गये। कुछ देर तक सब लोगों में चुप्पी छायी रही। ओबी बोला, ‘‘मेरा तो इस तरफ ध्यान ही नहीं गया कि पोशाक पूरी नहीं आयी।’’

‘‘अजीब शख्स था। इतनी खूबसूरत मॉडल है। उसकी तारीफ तक न की। कोई दूसरा होता तो इस ताजा चेहरे पर ही फ़िदा हो जाता।’’

‘‘वह तय करके आया था कि कोई नुक्स निकालना है।’’

‘‘अब सोचता हूँ ड्रेस पूरा आया होता तो मॉडल कितनी भव्य लगती!’’

‘‘यह शॉट दोबारा लेना पड़ेगा। मगर इस कैमरे से काम न चलेगा। इसमें ज़ूम नहीं किया जा सकता।’’

‘‘मैंने तो पहले ही बड़े कैमरे की फरमाइश की थी।’’ कैमरामैन बोला, ‘‘मगर उसका किराया बजट के बाहर था।’’

‘‘यह सब छोड़ो, आगे की सोचो, समय कम है।’’ ओबी बोला।

‘‘मॉडल से भी बात करनी होगी।’’

‘‘एक शॉट के लिए मना थोड़ा करेगी।’’

‘‘पहले तैयारी तो हो जाए।’’

शाम को शिवेन्द्र को बुलाया गया। उसनेपहला पैग पीकर ही कैमरामैन को गालियाँ देना शुरू कर दिया, ‘‘उसने मेरी फ़िल्म की भी रेड़ मारी थी, साला आधे मिनट की फ़िल्म भी नहीं बना पाया।’’

‘‘कह रहा था कैमरा छोटा था।’’

‘‘कैमरा छोटा था तो मुझसे कहता।’’

‘‘आपने ही तो उसका नाम सुझाया था।’’ डायरेक्टर बोला।

‘‘तुम क्या अन्धे थे? तुम्हें जाने किस गधे ने डायरेक्टर बना दिया।’’ शिवेन्द्र का मूड ठीक नहीं था। हर पैग के बाद वह उग्र हो जाता।

ओबी चिन्तित हो गया। उसने कई लोगों से इस सप्ताह भुगतान करने का वादा किया हुआ था। अब इस सप्ताह तो चैक मिलने की सम्भावना ही नहीं रह गयी थी।

शिवेन्द्र ने एक-एक कर सबको जलील किया और आखिर गुस्से में अपना गिलास फोड़ कर चला गया।

अगले रोज सुबह ओबी ने मारिया से कहा कि वह सुषमा से बात कराये। बहुत देर तक बात न हुई तो ओबी झुँझला गया, उसने मारिया को डाँट दिया, ‘‘सुबह से एक फोन मिलवाने को कहा, तुमसे वह भी नहीं हो रहा।’’

‘‘सर, कोई किशोरी लाल फोन उठाता है और कह रहा है कि सुषमाजी व्यस्त हैं।’’

‘‘मुझसे बात करवाओ।’’

थोड़ी देर में किशोरी लाल लाइन पर था, ‘‘मैं ओबेराय बोल रहा हूँ। सुषमा से बात कराइए।’’

‘‘सुषमाजी अभी टॉयलेट में हैं।’’

‘‘निकले तो उससे कहना मुझसे बात करे।’’

दोपहर तक सुषमा का फोन न आया। ओबी का पारा चढ़ता चला गया, कल तक पूरे खानदान को लेकर मेरे यहाँ पड़ी थी, आज नखरे दिखा रही है। उसने मारिया से दुबारा फोन मिलाने को कहा तो पता चला सुषमाजी की पिक्चर फ्लोर पर आ चुकी है और वह अत्यन्त व्यस्त हैं।

‘‘सुप्रिया अब तुम्हीं इस समस्या को सुलझाओ। सुबह से सुषमा को फोन कर रहा हूँ, वह लाइन पर ही नहीं आ रही।’’

अब सुप्रिया भी सुषमा को फोन मिलाने में जुट गयी। उसके पास सुषमा के कई नम्बर थे। कोई व्यस्त आ रहा था, किसी की लगातार घंटी बज रही थी।

‘‘लगता है अपने को बड़ा स्टार समझ रही है।’’ सुप्रिया बोली।

यह क्रम दो-तीन दिन तक चला। आखिर तय पाया गया कि सुप्रिया सुबह सुबह सुषमा के यहाँ जाकर उससे सम्पर्क करे। जाने पर पता चला सुषमा एक सप्ताह के लिए खंडाला गयी हुई है। वहाँ उस पर कोई गाना फ़िल्माया जा रहा है।

अगला सप्ताह ओबी के लिए अत्यन्त मुश्किलों से भरा था। उसने इतनी शाहदिली से पैसा फूँक दिया था कि अब हाथ में पैसा नहीं था, ऊपर से देनदारियाँ चुकाने को। उसने मारिया से कहा कि सबको यही जवाब दे कि साहब डल्हौजी गये हैं। दस दिन बाद लौटेंगे।

इस बीच डायरेक्टर और कैमरामैन के साथ उसकी कई बैठकें हुईं। ओबी चाहता था कि किसी दूसरी लडक़ी से शॉट करवा लिया जाए और किसी तरह उस पर सुषमा का चेहरा फिट कर दिया जाए। डायरेक्टर और फोटोग्राफर दोनों इसमें असमर्थता दिखा रहे थे।

अगले सप्ताह किसी तरह मारिया सुप्रिया की सुषमा से मुलाक़ात तय करने में कामयाब हो गयी। उसके सेक्रेट्री ने बताया कि इस रविवार को मैम की कोई शूटिंग नहीं है। मैम ने कहलाया है कि सुप्रिया दीदी उसके साथ दोपहर का भोजन करें। दीदी के लिए वह अपने हाथ से प्रॉन करी बनाएगी। सुप्रिया का सारा गुस्सा शान्त हो गया। अभी तक वह सोच रही थी कि उसने महीना भर उसके कुनबे की देखभाल की थी और उसे दत्त साहब तक पहुँचाने का काम ओबी ने ही किया था। उसे लग रहा था कि सुषमा जानबूझ कर दूरी बना रही है।

सुप्रिया निश्चित समय पर पहुँची तो सुषमा ने उसके पैर छुए और उसके सीने से लग गयी, ‘‘दीदी, मैं आज जो कुछ भी हूँ आप दोनों की कृपा के कारण हूँ।’’ सुप्रिया ने तफसील से उसकी प्रगति रिपोर्ट सुनी। वह विस्तार से अपने अनुभव बताती रही। उसने यह भी बताया कि मिसेज दत्त की वजह से दत्त साहब बहुत परेशान हैं।

खाने की मेज पर सुप्रिया ने अपनी समस्या उसके सामने रखी कि कैसे उसे एक शॉट फिर से देना होगा। सुषमा ने सेक्रेटरी से बुला कर पूछा। उसने बताया कि दत्त साहब से मैम का तीन बरस का एग्रीमेंट हुआ है कि वह दत्त फ़िल्म्स के अलावा किसी भी शार्ट अथवा फुल लैंथ फीचर फ़िल्म में कोई काम नहीं कर सकती। उसने सुषमा की तरफ से मुआफी माँग ली। वह इतने पेशेवर तरीके से बातचीत कर रहा था कि सुप्रिया खून का घूँट पीकर रह गयी। इस सम्बन्ध में सुषमा एक शब्द न बोली, वह गुडिय़ा की तरह सारी बात सुनती रही। प्रॉन सुप्रिया की प्रिय डिश थी, मगर इस माहौल में सारा मजा किरकिरा हो गया और वह किसी तरह दो-एक कौर निगल कर उठ खड़ी हुई।

‘‘दीदी आपने तो कुछ खाया नहीं।’’

‘‘नहीं बेटा, मैंने ठीक से खाया। तुम खुश रहो और खूब तरक्की करो।’’ कहते हुए वह उठी और वॉशबेसिन पर कुल्ला करने लगी। वह अब एक क्षण भी इस माहौल में रुकना नहीं चाहती थी। उसका दम घुट रहा था। वह विदा लेकर तेज कदमों से लिफ्ट की ओर चल दी। सुषमा ने एक बार पुन: चरण स्पर्श किया, मगर सुप्रिया के मुँह से आशीर्वाद बड़ी मुश्किल से निकला। लिफ्ट का दरवाजा खुलते ही वह उसमें घुस गयी और हाथ हिलाते हुए नीचे उतर गयी।

ओबी को पूरी उम्मीद थी कि सुप्रिया मामला सुलझा कर ही आएगी और वह सुषमा से डेट तय कर लेगी। सुप्रिया की प्रतीक्षा में ही था कि अचानक तेजी से सुप्रिया ने कमरे में प्रवेश किया— ‘‘और करो उसके माँ-बाप और चाचा भतीजे की सेवा। क्या जरूरत थी दत्त साहब से मिलवाने की? उसका तो तेवर ही बदला हुआ है। खुद कम बोलती है उसका सेक्रेटरी ही अब उसकी हर बात का जवाब देता है। कह रहा था कि वह अनुबन्ध से बँधी है और तीन बरस तक किसी भी फ़िल्म, शार्ट फ़िल्म और डाक्यूमेंट्री में काम नहीं कर सकती। दत्त साहब ने मोटी रकम देकर उसे अनुबन्धित किया है। तुम अगले पेमेंट की बात कर रहे हो, मुझे तो लगता है, पूरा पैसा लौटाना पड़ेगा।’’

ओबी ने सारी बात धुएँ में उड़ा दी। बोला, ‘‘हर समस्या का हल होता है, इसका भी होगा। फिलहाल यह बताओ कि तुम्हारे पास कितने पैसे बचे हैं?’’

‘‘तुम्हें जैसे पता नहीं। आजकल कौड़ी-कौड़ी के लिए परेशान हूँ। लैब वाले सुबह शाम प्रोसेसिंग का पैसा माँग रहे हैं। उन्होंने शिवेन्द्र से भी शिक़ायत की है। दस हजार की छोटी-सी रकम का भुगतान नहीं हो पा रहा।’’

ओबी ने अपना पैग बनाया और फोन पर जुट गया। सबसे पहले उसने चन्नी को फोन मिलाया। पता चला वह शिप पर है। डैंगसन ट्रेनिंग के लिए बैंगलोर गया हुआ है। अचानक ओबी उठा और सीढिय़ाँ उतर गया। उसके यहाँ आज दारू का भी प्रबन्ध नहीं था, जबकि उसका मन भुना गोश्त खाने को मचल रहा था। उसने टैक्सी ली और खार की तरफ रवाना हो गया। उसकी किस्मत अच्छी थी कि बेदी साहब घर पर ही थे और रसोई में गोश्त भून रहे थे। उनका बावर्ची बाजू में खड़ा मसाले कूट रहा था। बेदी साहब का मानना था कि किसी भी व्यंजन में ताजा कुटे मसाले डालने से मसालों का सही जायका मिलता है।

‘‘बेदी साहब सत सिरी अकाल। आज आप आराम कीजिये, आपका खादिम आपको अपनी रेसिपी से गोश्त खिलाता है। मेरी शर्त सिर्फ इतनी है कि मेरे पास कोई नहीं रहेगा, आपका बावर्ची भी नहीं। शर्त यह भी है कि तब तक मुझे मेरा ड्रिंक मिलता रहे।’’

बेदी साहब को उसका प्रस्ताव जँच गया। वह उसकी पाक कला से वाकिफ थे। कई बार उनके यहाँ गोश्त चख चुके थे। आज उनका रसोई में जाने का इरादा नहीं था, मगर उन्हें अपने नये बावर्ची पर भरोसा न था। मिसेज बेदी अलग किचन में अपना खाना बनाती थीं और पहले माले पर रहती थीं। वह नीचे तभी आतीं जब बेदी साहब को घर में लडख़ड़ाते हुए पातीं। बेदी साहब वक्त जरूरत सीढिय़ाँ चढ़ जाते थे। वह ऊपर जाते तो उनकी जी भर कर तारीफ करते। उनके बालों को जुल्फें कह, उनकी आँखों को सीप, कमर को डमरू के आकार का बताते। तारीफ सुनना मिसेज बेदी की कमजोरी थी। वह उनसे बेल की तरह लिपट जातीं, चाहे दो दिन पहले उनके कोप का शिकार हो चुकी हों। बेदी साहब का हाथ बहुत बार उठ जाता था, मगर बाद में वह प्रायश्चित करने लगते।

ओबी के लिए स्कॉच का पैग आ गया। उसने बावर्ची से कहा कि एक पैग और लाए, क्योंकि पहला पैग वह दो घूँट में ही समाप्त कर देता था। जब तक तीसरा पैग आता पूरा घर छौंके मसालों से महक उठा। बेदी साहब भी जान गये कि डिश तैयार है।

ओबी पसीना पोंछते हुए और गिलास थामे उनकी बगल में बैठ गया।

‘‘बरखुरदार, मैं जानता हूँ कि आज तुम्हें मेरी याद कैसे आ गयी! तुम खुश-किस्मत हो कि मैंने आज ही एक बड़े बैनर की फ़िल्म साइन की है और आज आसानी से तुम्हारा कर्ज चुका सकता हूँ।’’

‘‘कैसा कर्ज? मेरी क्या हैसियत जो आपको कर्ज दूँ।’’

वह उनकी टाँगे दबाने लगा।

‘‘तुमने जो बीस हजार रुपये मुझे कहानी लिखने के लिए दिये थे, मैंने कर्ज समझ कर ही स्वीकार किए थे। लौटाकर तुम्हारा दिल नहीं दुखाना चाहता था।’’ बेदी साहब ने कहा और सेफ से सौ-सौ की दो गडिडयाँ निकाल कर उसे सौंप दीं।

‘‘आज सचमुच मेरा हाथ तंग था।’’ ओबी ने कहा, ‘‘आपका शुक्रिया अदा करने के लिए मेरे पास शब्द नहीं हैं। यू आर ग्रेट बेदी साहब! मगर मेरी एक गुजारिश है।’’

‘‘अपनी गुजारिश बाद में बताना, मगर नोट कर लो, जब तुम फ़िल्म प्रोड्यूस करोगे तो मैं तुम्हारी कहानी ड्राफ्ट करूँगा। फ़िल्म हिट हो जाए तो तुम्हारे जी में आये तो एकाध रुपया दे देना। जाने क्यों तुम मुझे अपने बेटे की तरह प्रिय हो। उसकी असमय मृत्यु हो गयी, मेरी नादानियों से। मैंने उसकी परवरिश की तरफ ध्यान नहीं दिया। वह जो कुछ था, अपनी योग्यता से था। उसने मुझसे ज्यादा पैसा कमाया, मगर उसे कोई गाइड करने वाला नहीं था। वह ड्रग एडिक्ट हो गया।’’

बेदी साहब आँखों के पोर पोंछने लगे। ओबी ने उनके लिए एक पैग तैयार किया। दो-तीन घूँट के बाद ही वह सँभल गये। गडिडयाँ मेज पर पड़ी थीं। ‘‘इन्हें अपनी जेब में रख लो।’’ बेदी साहब ने कहा।

‘‘मेरी आपसे एक और गुजारिश है, आप पाँच हजार और दे दें और भूल जाएँ। कभी न कभी जरूर लौटा दूँगा।’’

‘‘मुझे यकीन है, तुम अपने मिशन में क़ामयाब होगे।’’ बेदी साहब उठे और उन्होंने उसे पाँच हज़ार और सौप दिये, बोले, ‘‘बाकी पाँच हजार सुप्रिया को मेरी तरफ से दे देना।’’

‘‘तुसीं ग्रेट हो दारजी। मैं जिन्दगी भर आपके एहसान को न भूलँूगा।’’

बेदी साहब भावुक हो गये, ‘‘मैं मर जाऊँ तो कोशिश करना मेरा जनाजा धूम से निकले...’’

‘‘आज जज्बाती हो रहे हैं बेदी साहब। अभी आपको बहुत काम करने हैं।’’

खाना लग गया था। खाना सचमुच बहुत लज़ीज बना था। मुहावरे में कहा जाए तो सबने अँगुलियाँ चाट कर खाया।

‘‘तुम अब जाओ। मैं एक घंटा काम करूँगा, फिर सो जाऊँगा।’’

ओबी ने उनके पैर छुए और बाहर निकल आया। टैक्सी वाला उसके इन्तजार में ही खड़ा था, जबकि ओबी ने कहा था, दो-चार मिनट इन्तजार करना, मैं न आया तो लौट जाना। ओबी टैक्सी में सवार हुआ। रास्ते में उसने सुप्रिया और अपने लिए ड्रिंक्स खरीदे। दिन भर की मनहूसियत एकदम उतर गयी। बेदी साहब के यहाँ जाने से पहले वह बहुत तनाव में था। एक तो एडवांस की राशि वापस माँगने की ग्लानि थी तथा यह भी अन्देशा था कि हो सकता है, बेदी साहब घर पर न हों या शहर के बाहर हों। वह अच्छी साइत से निकला था कि काम बनता ही चला गया।

वह कमरे में दाखिल हुआ तो पाया सुप्रिया बहुत खिन्न मुद्रा में बैठी है। उसे देखते ही बोली, ‘‘इस भूतबँगले ने मेरा सुख-चैन छीन लिया है। बनते-बनते काम बिगड़ जाते हैं। आज बिजली वाले बिजली काटने की धमकी दे गये हैं। एक हजार का बकाया है! कहाँ से आएँगे इतने पैसे? उधर लैब वालों का बार-बार फोन आ रहा है कि उनकी मामूली-सी पेमेंट क्यों रोकी हुई है।’’

‘‘औरों के लिए होगा भूत बंगला, मगर मेरे लिए तो खुल जा सिम सिम है।’’ ओबी ने जेबों से दस हजार रुपये निकालकर सुप्रिया की झोली में भर दिये।

‘‘बेदी से उधार माँग कर लाए हो यह रकम?’’

‘‘इसे अपनी ही रकम समझो। समझो क्या, ये हमारे ही पैसे हैं।’’

‘‘कहाँ छिपाकर रखे थे?’’

‘‘बेदी साहब से एडवांस वापस ले आया हूँ। सूद सहित।’’

ड्राइवर दारू की पेटी रख गया। ओबी ने सुप्रिया से कहा, ‘‘टैक्सी का भाड़ा तो चुका दो।’’

 

...आगे

 

 

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