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उपन्यास |
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देस बिराना
तो ... अब ... हो गया घर भी..। जितना रीता गया था, उससे कहीं ज्यादा खालीपन लिये लौटा हूं। तौबा करता हूं ऐसे रिश्तों पर। कितना अच्छा हुआ, होश संभालने से
पहले ही घर से बेघर हो गया था। अगर तब घर न छूटा होता तो शायद कभी न छूटता.. उम्र के इस दौर में आ कर तो कभी भी नहीं। बस, यही तसल्ली है कि सबसे मिल लिया,
बचपन की खट्टी-मीठी यादें ताज़ा कर लीं और घर के मोह से मुक्त भी हो गया। जिसके लिए जितना बन पड़ा, थोड़ा-बहुत कर भी लिया। बेबे और गुड्डी के ज़रूर अफ़सोस
हो रहा है कि उन्हें इन तकलीफ़ों से निकालने का मेरे पास कोई उपाय नहीं है।
गुड्डी बेचारी पढ़ना चाहती है लेकिन लगता नहीं, उसे दारजी पढ़ने देंगे। चाहे एमबीए करे या कोई और कोर्स, उसे देहरादून तो छोड़ना ही पड़ेगा। उसके लिए दारजी
परमिशन देने से रहे। बस, किसी तरह वह बीए पूरा कर ले तो उसके लिए यहीं कुछ करने की सोचूंगा। एक बार मेरे पास आ जाये तो बाकी सब संभाला जा सकता है। फिलहाल तो
सबसे बड़ा काम यही होगा कि उसे दारजी किसी तरह बीए करने तक डिस्टर्ब न करें और वह ठीक - ठाक नम्बर ला सके।
आते ही फिर से उन्हीं चक्करों में खुद को उलझा लिया है। पता नहीं अब कब तक इसी तरह की ज़िंदगी को ठेलते जाना होगा। बिना किसी ख़ास मकसद के....।
आज गुड्डी का पार्सल मिला है। उसने बहुत ही खूबसूरत स्वेटर बुन कर भेजा है। सफेद रंग का। एकदम नन्हें-से खरगोश की तरह नरम। इसमें गुड्डी की मेहनत और स्नेह
की असीम गरमाहट फंदे-फंदे में बुनी हुई है। साथ में उसका लम्बा खत है।
लिखा है उसने
- वीरजी,
सत श्री अकाल
उस दिन आपके अचानक चले जाने के बाद घर में बहुत हंगामा मचा। वैसे मैं जानती थी कि मेरे वापिस आने तक आप जा चुके होंगे। और कुछ हो भी नहीं सकता था। आप बाज़ार
से शाम तक भी वापिस नहीं आये तो चारों तरफ आपकी खोज-बीन शुरू हुई। वहां जाने वाले सभी लोग आ चुके थे। ले जाने के लिए मिठाई वगैरह खरीदी जा चुकी थी। लेकिन आप
जब कहीं नज़र नहीं आये तो बेबे को लगा - एक बार फिर वही इतिहास दोहराया जा चुका है। मैं चार बजे कॉलेज से आ गयी थी तब तक दारजी का गुस्सा सातवें आसमान पर
पहुंच चुका था। उन्हें मुझ पर शक हुआ कि जरूर मुझे तो पता ही होगा कि वीरजी बिना बताये कहां चले गये हैं। तब गुस्से में आ कर दारजी ने मुझे बालों से पकड़ कर
खींचा और गालियां दीं। मैं जानती थी, ऐसा ही होगा। सबकी निगाहों में मैं ही आपकी सबसे सगी बनी फिर रही थी। लेकिन मार खा कर भी मैं यही कहती रही कि मुझे नहीं
मालूम। बेबे ने भी बहुत हाय-तौबा मचाई और बिल्लू और गोलू ने भी। आखिर परेशान हो कर वहां झूठा संदेसा भिजवा दिया गया कि आपको अचानक ऑफिस से तुरंत बंबई
पहुंचने के लिए बुलावा आ गया था, इसलिए हम लोग नहीं आ पा रहे हैं। बाद की कोई तारीख देख कर फिर बतायेंगे।
बाद में दारजी तो कई दिन तक बिफरे शेर की तरह आंगन खूंदते रहे और बात बे बात पर आपको गालियां बकते रहे।
करतार सिंह वाला मामला फिलहाल ठप्प पड़ गया है लेकिन जिस को भी पता चलता है कि इस बार भी आप दारजी की जिद के कारण घर छोड़ कर गये हैं, वही दारजी को लानतें
भेज रहा है कि अपनी लालच के कारण तूने हीरे जैसा बेटा दूसरी बार गंवा दिया है।
बाकी आप मुझमें आत्म-विश्वास का जो बीज बो गये हैं, उससे मैं, जहां तक हो सका, अपनी लड़ाई अपने अकेले के बलबूते पर लड़ती रहूंगी। आप ही मेरे आदर्श हैं। काश,
मैं भी आपकी तरह अपने फ़ैसले खुद ले सकती। अपनी खास सहेली निशा का पता दे रही हूं। पत्र उसी के पते पर भेजें। मेरी जरा भी चिंता न करें और अपना ख्याल रखें।
सादर,
आपकी बहन,
गुड्डी।
पगली है गुड्डी भी!! ऐसे कमज़ोर भाई को अपना आदर्श बना रही है जो किसी भी मुश्किल स्थिति का सामना नहीं कर सकता और दो बार पलायन करके घर से भाग चुका है।
उसे लम्बा खत लिखता हूं।
- गुड्डी,
प्यार,
तेरा पत्र मिला। समाचार भी। अब तू भी मानेगी कि इस तरह से चले आने का मेरा फैसला गलत नहीं रहा। सच बताऊं गुड्डी, मुझे भी दोबारा चोरों की तरह घर से भागते
वक्त बहुत खराब लग रहा था, लेकिन मैं क्या करता। जब मैंने पहली बार छोड़ा था तो चौदह साल का था। समझ भी नहीं थी कि क्यों भाग रहा हूं और भाग कर कहां
जाउं€गा, लेकिन जब दारजी ने घर से धक्के दे कर बाहर कर ही दिया तो मेरे सामने कोई उपाय नहीं था। अगर दारजी या बेबे ने उस वक्त मेरे कान पकड़ कर घर के अंदर
वापिस बुला लिया होता, जबरदस्ती एक-आध रोटी खिला दी होती तो शायद मैं भागा ही न होता, बल्कि वहीं बना रहता, बेशक मेरी ज़िंदगी ने जो भी रुख लिया होता, बल्कि
इस बार भी उन्होंने मुझसे कहा होता कि देख दीपे, हम हो गये हैं अब बुड्ढे और हमें चाहिये घर के लिए एक देखी-भाली शरीफ बहू तो, सच मान गुड्डी, मैं वहीं
खड़े-खड़े उनकी पसंद की लड़की से शादी भी कर लेता और अपनी बीवी को उनकी सेवा के लिए भी छोड़ आता, लेकिन दोनों बार सारी चीजें शुरू से ही मेरे खिलाफ कर दी
गयी थीं। इस बार भी मुझे बिलकुल सोचने का मौका ही नहीं मिला और एक बार फिर मैं घर के बाहर था। एक तरह से पहली बार का भागना भी मेरे लिए अच्छा ही रहा कि
दूसरी बार भी मैं उनके अन्याय को मानने के बजाये चुपचाप चला आया। तुम इसे मेरा पलायन भी कह सकती हो, लेकिन तुम्हीं बताओ, अगर मैं न भागता तो क्या करता। वहां
तो मुझे और मेरे साथ तुम्हें भी फंदे में कसने की पूरी तैयारी हो चुकी थी। मेरे भाग आने से कम से कम तुम्हारे सिर पर से तो फिलहाल मुसीबत टल ही गयी है। अब
बाकी लड़ाई तुम्हें अकेले ही लड़नी होगी। लड़ सकोगी क्या?
यहां आने के बाद एक बार फिर वही ज़िंदगी है मेरे सामने। बस एक ही फ़र्क है कि यहां से जिस ऊब से भाग कर गया था, घर के जिस मोह से बंधा भागा था, उससे पूरी
तरह मुक्त हो गया हूं। बेशक मेरी ऊब और बढ़ गयी है। पहले तो घर को लेकर सिर्फ उलझे हुए ख्याल थे, बिम्ब थे और रिश्तों को लेकर भी कोई मुकम्मल तस्वीर नहीं
बनती थी, लेकिन घर से आने के बाद घर के बारे में मेरी सारी इमेज बुरी तरह से तहस-नहस हो गयी हैं। बार-बार अफ़सोस हो रहा है कि मैं वहां गया ही क्यों था। न
गया होता तो बेहतर था, लेकिन फिर ख्याल आता है कि इस पूरी यात्रा की एक मात्र यही उपलब्धि यही है कि सबसे मिल लिया, तुझे देख लिया और तुझे एक दिशा दे सका,
तेरे लिए कुछ कर पाया और घर के मोह से हमेशा के लिए मुक्त हो गया। अब कम से कम रोज़ रोज़ घर के लिए तड़पा नहीं करूंगा। बेशक तेरी और बेबे की चिंता लगी ही
रहेगी।
यहां आने के बाद दिनचर्या में कोई ख़ास फ़र्क नहीं पड़ा है। सिर्फ यही हुआ है कि अंधेरी में जिस गेस्ट हाउस में रह रहा था, वह छोड़ दिया है और इस बार
बांद्रा वेस्ट में एक नये घर में पेइंग गेस्ट बन गया हूं। पता दे रहा हूं। ऑफिस से आते समय कोशिश यही रहती है कि खाना खा कर एक ही बार कमरे में आऊं। तुझे
हैरानी होगी जान कर कि बंबई में पेइंग गेस्ट को सुबह सिर्फ एक कप चाय ही दी जाती है। बाकी इंतज़ाम बाहर ही करना पड़ता है। वैसे कई जगह खाने के साथ भी रहने
की जगह मिल जाती है।
अगर छुट्टी का दिन हो या कमरे पर ही होऊं तो मैं सिर्फ खाना खाने ही बाहर निकलता हूं। अपने कमरे में बंद पड़ा रहता हूं। शायद यही वजह है कि मैं कभी भी बोर
नहीं होता।
कल एक अच्छी बात हुई कि सामने वाले घर में रहने वाले मिस्टर और मिसेज भसीन से हैलो हुई। सीढ़ियां चढ़ते समय वे मेरे साथ-साथ ही आ रहे थे। उन्होंने ही पहले
हैलो की और पूछा - क्या नया आया हूं सामने वाले घर में। उन्होंने मेरा नाम वगैरह पूछा और कभी भी घर आने का न्यौता दिया।
कभी जाऊंगा। आम तौर पर मैं किसी के घर में भी जाने में बहुत संकोच महसूस करता हूं।
दारजी, बेबे और गोलू, बिल्लू ठीक होंगे। तेरी सहेली निशा ठीक होगी और तेरे साथ खूब गोलगप्पे उड़ा रही होगी। दोबारा जा भी नहीं पाये तेरे कैलाश गोलगप्पा
पर्वत में। तेरे लिए हज़ार रुपये का ड्राफ्ट भेज रहा हूं। खूब शॉपिंग करना।
जवाब देना।
तेरा ही
वीर...
आज दीपावली का त्योहार है। चारों तरफ त्योहार की गहमा-गहमी है। लेकिन मेरे पारसी मकान मालिक इस हंगामे से पूरी तरह बाहर हैं। हर छुट्टी के दिन की तरह सारा
दिन कमरे में ही रहा। दोपहर को खाना खा कर कमरे में वापिस आ रहा था कि नीचे ही मिस्टर और मिसेज भसीन मिल गये हैं। दीपावली की शुभकामनाओं का आदान-प्रदान हुआ
तो वे पूछने लगे - क्या बात है घर नहीं गये? क्या छुट्टी नहीं मिली या घर बहुत दूर है?
- दोनों ही बातें नहीं हैं, दरअसल एक प्रोजेक्ट में बिजी हूं, इसलिए जाना नहीं हो पाया। वैसे अभी हाल ही में घर हो कर आया था। मैं किसी तरह बात संभालता हूं।
यह सुनते ही कहने लगे - तो आप शाम हमारे साथ ही गुज़ारिये। खाना भी आप हमारे साथ ही खायेंगे। मैंने बहुत टालना चाहा तो वे बहुत जिद करने लगे। मिसेज भसीन
बोलने में इतनी अच्छी हैं कि मुझसे मना ही नहीं किया जा सका। इनकार करने की गुंजाइश ही नहीं छोड़ी है उन्होंने।
हां कर दी है - आऊंगा।
आम तौर पर किसी के घर आता जाता नहीं, इसलिए कोई खास ज़ोर दे कर बुलाता भी नहीं है। लेकिन दिवाली के दिन वैसे भी अकेले बैठे बोर होने के बजाये सोचा, चलो किसी
भरे पूरे परिवार में ही बैठ लिया जाये।
दरवाजा मिसेज भसीन ने खोला है। मैं उन्हें दिवाली की बधाई देता हूं - हैप्पी दिवाली मिसेज भसीन। मैं बहुत ज्यादा संकोच महसूस कर रहा हूं। वैसे भी युवा
महिलाओं की उपस्थिति में मैं जल्दी ही असहज हो जाता हूं।
वे हँसते हुए जवाब देती हैं - मेरा नाम अलका है और मुझे जानने वाले मुझे इसी नाम से पुकारते हैं।
वे मुझे भीतर लिवा ले गयी हैं और बहुत ही आदर से बिठाया है।
मैं बहुत ही संकोच के साथ कहता हूं - दरअसल मुझे समझ में नहीं आ रहा कि मैं ... दिवाली के दिन किसी के घर जाना.. ..।
वे मुझे आश्वस्त करती हैं - आप बिलकुल भी औपचारिकता महसूस न करें और बिलकुल सहज हो कर इसे अपना ही घर समझें।
यह सुन कर कुछ हद तक मेरा संकोच दूर हुआ है।
कहता हूं मैं - मैं भी आपके दरवाजे पर नेम प्लेट देखता था तो रोज़ ही सोचता था, कभी बात करूंगा। भसीन सरनेम तो पंजाबियों का ही होता है। मैं दरअसल मोना सिख
हूं। कई बार अपनी ज़ुबान बोलने के लिए भी आदमी.. ..। मैं झेंपी सी हँसी हँसता हूं।
बात अलका ने ही आगे बढ़ाई है।
पूछ रही हैं - कहां है आपका घर-बार और कौन-कौन है घर में आपके।
इतना सुनते ही मैं फिर से संकोच में पड़ गया हूं।
अभी मैं अपना परिचय दे ही रहा हूं कि मिस्टर भसीन आ गये हैं । उठ कर उन्हें नमस्कार करता हूं। वे बहुत ही स्नेह से मेरे हाथ दबा कर मुझे दिवाली की शुभ कामना
देते हैं।
घर से आने के बाद इतने दिनों में यह पहली बार हो रहा है कि घर के माहौल में बैठ कर बातें कर रहा हूं और मन पर कोई दबाव नहीं है। बहुत अच्छा लगा है उनके घर
पर बैठना, उनसे बात करना।
मैं देर तक उनके घर बैठा रहा और हम तीनों इधर-उधर की बातें करते रहे। इस बीच मैं काफी सहज हो गया हूं और उनसे किसी पुराने परिचित की तरह बातें करने लगा हूं।
अलका ने मुझे खाना खाने के लिए जबरदस्ती रोक लिया है। मैं भी उनके साथ पूजा में बैठा हूं। पूरी शाम उनके घर गुज़ार कर जब मैं वापिस लौटने लगा तो अलका और
मिस्टर भसीन दोनों ने एक साथ ही आग्रह किया है कि मैं उनके घर को अपना ही घर समझूं और जब भी मुझे उसे घर की याद आये या पारिवारिक माहौल में कुछ वक्त
गुज़ारने की इच्छा हो, निसंकोच चला आया करूं।
मैं अचानक उदास हो गया हूं। भर्राई हुई आवाज में कहता हूं - आप लोग बहुत अच्छे हैं। मुझे नहीं पता था लोग अनजान आदमी से भी इतनी अच्छी तरह से पेश आते हैं।
मैं फिर आऊंगा। थैंक्स। कह कर मैं तेजी से निकल कर चला आया हूं।
बाद में भाई दूज वाले दिन अलका ने फिर बुलवा लिया था। तब मैं उनके घर ढेर सारी मिठाई वगैरह ले आया था। चाय पीते समय अलका ने बहुत संकोच के साथ मुझे बताया था
- मेरा कोई भाई नहीं है, क्या तुम्हें मुझे भइया कह कर बुला सकती हूं।
यह कहते समय अलका की आंखों में आंसू भर आये थे और वह रोने-रोने को थी।
उसका मूड हलका करने के लिए मैं हंसा था - मेरी भी कोई बड़ी बहन नहीं है। क्या मैं आपको दीदी कह कर पुकार सकता हूं। तब हम तीनों खूब हंसे थे। अलका ने न केवल
मुझे भाई बना लिया है बल्कि भाई दूज का टीका भी किया। और इस तरह मैं उनके भी परिवार का एक सदस्य बन गया हूं। मैं अब कभी भी उनके घर चला जाता हूं और काफी देर
तक बैठा रहता हूं।
हालांकि उनके घर आते जाते मुझे एक डेढ़ महीना हो गया है और मैं अलका और देवेद्र भसीन के बहुत करीब आ गया हूं और उनसे मेरे बहुत ही सहज संबंध हो गये हैं
लेकिन फिर भी उन्होंने मुझसे कोई व्यक्तिगत प्रश्न नहीं ही पूछे हैं।
आज इतवार है। दापहर की झपकी ले कर उठा ही हूं कि देवेद्र जी का बुलावा आया है। अलका मायके गयी हुई है। तय है, वे खाना या तो खुद बनाएंगे या होटल से
मंगवायेंगे तो मैं ही प्रस्ताव रखता हूं - आज का डिनर मेरी तरफ से। शाम की चाय पी कर हम दोनों टहलते हुए लिंकिंग रोड की तरफ निकल गये हैं।
खाना खाने कि लिए हम मिर्च मसाला होटल में गये हैं। वेटर पहले ड्रिंक्स के मीनू रख गया है। मीनू देखते ही देवेद्र हॅंसे हैं - क्यों भई, पीते-वीते हो या
सूफी सम्प्रदाय से ताल्लुक रखते हो। देखो अगर जो पीते हो तो हम इतनी बुरी कम्पनी नहीं हैं और अगर अभी तक पीनी शुरू नहीं की है तो उससे अच्छी कोई बात ही नहीं
है।
- आपको क्या लगता है?
- कहना मुश्किल है। वैसे तो तुम तीन साल अमेरिका गुज़ार कर आये हो, और यहां भी अरसे से अकेले ही रह रहे हो, इसलिए कहना मुश्किल है कि तुम्हारे हाथों अब तक
कितनी और कितनी तरह की बोतलों का सीलभंग हो चुका होगा। वे हँसे हैं।
- आपको जान कर हैरानी होगी कि मैंने अभी तक कभी बीयर भी नहीं पी है। कभी ज़रूरत ही महसूस नहीं हुई। वहां अमेरिका के ठंडे मौसम में भी, जहां खाने का एक एक
कौर नीचे उतारने के लिए लोग गिलास पर गिलास खाली करते हैं, मैं वहां भी इससे दूर ही रहा। वैसे न पीने के कई कारण रहे। आर्थिक भी रहे। फिर उस किस्म की कम्पनी
भी नहीं रही। यह भी रहा कि कभी इन चीज़ों के लिए मुझे फुर्सत ही नहीं मिली। अब जब फ़ुर्सत है, पैसे भी हैं औरे अकेलापन भी है तो अब ज़रूरत ही नहीं महसूस
होती। वैसे आप तो पीते ही होंगे, आप ज़रूर मंगायें। मैं तो आपसे बहुत छोटा हूं, पता नहीं मेरी कम्पनी में आपको पीना अच्छा लगे या नहीं.... वैसे मुझे अच्छा
लगेगा। मैं कोल्ड ड्रिंक ले लूंगा।
वे मुझे आश्वस्त करते हैं - यह बहुत अच्छी बात है कि तुम अब तक इन खराबियों से बचे हुए हो। मैं भी कोई रेगुलर ड्रिंकर नहीं हूं। बस, कभी-कभार ही वाला मामला
है,
- आप अगर मेरी सूफी कम्पनी का बुरा न मानें तो आपके लिए कुछ मंगवाया जाये। बेचारा वेटर कब से हमारे आर्डर का इंतज़ार कर रहा है। मैं कहता हूं।
- तुम्हारी कम्पनी का मान रखने के लिए मैं आज बीयर ही लूंगा।
मैंने उनके लिए बीयर का ही आर्डर दिया है।
हमने पूरी शाम कई घंटे एक साथ गुज़ारे हैं और ढेर सारी बातें की हैं। बातचीत के दौरान जब मैं उन्हें वीरजी कह कर बुला रहा हूं तो उन्होंने टोका है - तुम किस
औपचारिकता में पड़े हो, चाहो तो मुझे नाम से भी बुला सकते हो।
- दरअसल मैं कभी परिवार में नहीं रहा हूं। रिश्ते-नाते कैसे निभाये जाते हैं, नहीं जानता। तेरह -चौदह साल की उम्र थी जब घर छूट गया। तब से एक शहर से दूसरे
शहर भटक रहा हूं।
- क्या मतलब ? घर छूट गया था का मतलब? तो ये सब पढ़ाई और एमटैक और पीएचडी तक की डिग्री?
- दरअसल एक लम्बी कहानी है। मैंने आज तक कभी भी किसी के भी सामने अपने बारे में बातें नहीं की हैं। आपको मैं एक रहस्य की बात यह बताऊं कि दुनिया में मेरे
परिचितों में कोई भी मेरे बारे में पूरे सच नहीं जानता। यहां तक कि, मेरे मां-बाप भी मेरे बारे में कुछ खास नहीं जानते। मैंने कभी किसी को राज़दार बनाया ही
नहीं है। यहां तक कि मैं अभी चौदह साल के बाद घर गया था तो वहां भी किसी को अपने सच का एक टुकड़ा दिखाया तो किसी को दूसरा। अपनी छोटी बहन जिसे मिल कर मैं
बेहद खुश हुआ हूं, उसे भी मैंने अपनी सारी तकलीफों का राज़दार नहीं बनाया है। उसे भी मैंने सारे सच नहीं बताये क्योंकि मैंने कभी नहीं चाहा कि कोई मुझ पर
तरस खाये। मेरे लिए अफ़सोस करे। मुझे अगर किसी शब्द से चिढ़ है तो वह शब्द है - बेचारा।
- यह तो बहुत ही अच्छी बात है कि हम क्यों किसी के सामने अपने जख्म दिखाते फिरें। मैं तुम्हें बिलकुल भी मजबूर नहीं करूंगा कि अपने मन पर बोझ डालते हुए कोई
भी काम करो। मैं तुम्हारी भावनाएं समझ सकता हूं। सैल्फ मेड आदमी की यही खासियत होती है कि वह अपने ही बारे में बात करने से बचना चाहता है।
- नहीं, वह बात नहीं है। दरअसल मेरे पास बताने के लिए ऐसा कुछ भी नहीं है जिसे शेयर करने में मैं गर्व का अनुभव करूं। अपनी तकलीफ़ों की बात करके मैं आपकी
शाम खराब नहीं करना चाहता।
- जैसी तुम्हारी मर्जी। विश्वास रखो, मैं तुमसे कभी भी कोई भी पर्सनल सवाल नहीं पूछूंगा। इसके लिए तुम्हें कभी विवश नहीं करूंगा।
पहले घर छोड़ने से लेकर दोबारा घर छोड़ने तक के अपने थोड़े-बहुत सच बयान कर दिये हैं उनकी मोटी-मोटी जानकारी के लिए।
बताता हूं उन्हें - अब पिछले तीन-चार साल से यहां जॉब कर रहा हूं तो आस-पास दुनिया को देखने की कोशिश कर रहा हूं। मैं कई बार ये देख कर हैरान हो जाता हूं कि
मैं कितने बरसों से बिना खिड़कियों वाले किसी कमरे में बंद था और दुनिया कहां की कहां पहुंच गयी है। जैसे मै कहीं ठहरा हुआ था या किसी और ही रफ्तार से चल
रहा था। खैर, पता नहीं आज अचानक आपके सामने मैं इतनी सारी बातें कैसे कर गया हूं।
- सच मानो, मैं सोच भी नहीं सकता था कि तुम, जो हमेशा इतने सहज और चुप्पे बने रहते हो, कभी बात करते हो और कभी बंद किताब की तरह हो जाते हो, अपनी इस छोटी-सी
ज़िंदगी में कितने कितने तूफान झेल चुके हो।
खाना खा कर लौटते हुए बारह बज गये हैं। मुझे लग रहा है कि मैं एक परिचित के साथ खाना खाने गया था और बड़े भाई के साथ वापिस लौट रहा हूं।
देवेद्र जी के साथ दस दिन की बातचीत के कुछ दिन बाद ही अलका दीदी ने घेर लिया है। उनके साथ बैठा चाय पी रहा हूं तो पूछा है उन्होंने - ऑफिस से आते ही अपने
कमरे में बंद हो जाते हो। खराब नहीं लगता?
- लगता तो है, लेकिन आदत पड़ गयी है।
- कोई दोस्त नहीं है क्या?
- नहीं। कभी मेरे दोस्त रहे ही नहीं। आप लोग अगर मुझसे बात करने की शुरूआत न करते तो मैं अपनी तरफ से कभी बात ही न कर पाता।
- कोई गर्ल फ्रैंड भी नहीं है क्या? अलका ने छेड़ा है - तेरे जैसे स्मार्ट लड़के को लड़कियों की क्या कमी!
क्या जवाब दूं। मैं चुप ही रह गया हूं लेकिन अलका ने मेरी उदासी ताड़ ली है। मेरे कंधे पर हाथ रख कर पूछती है - ऐसी भी क्या बेरूखी ज़िंदगी से कि न कोई
पुरुष दोस्त हो और न ही कोई लड़की मित्र ही। सच बताओ क्या बात है। वह मेरी अंाखों में आंखें डाल कर पूछती है।
- सच मानो दीदी, कोई ख़ास बात नहीं है। कभी दोस्ती हुई ही नहीं किसी से, वैसे भी मुझे लड़कियों से बात नहीं करनी ही नहीं आती।
- क्यों, क्या वहां आइआइटी में या अमेरिका में लड़कियां नहीं थीं ?
- होंगी, उनके बारे में मुझे ज्यादा नहीं पता, क्योंकि तब मैं उनकी तरफ़ देखता ही नहीं था कि कहीं मेरी तपस्या न भंग हो जाये। जिस वक्त सारे लड़के हॉस्टल के
आसपास देर रात तक हा हा हू हू करते रहते, मैं किताबों मे सिर खपाता रहता। आप ही बताओ दीदी, प्यार-व्यार के लिए वक्त ही कहां था मेरे पास?
- तो अब तो है वक्त और जॉब भी है और पैसे भी हैं। वैसे तो उस वक्त भी एक-आध लड़की तो तुम्हारी निगाह में रही ही होगी।
- वैसे तो थी एक।
- लड़की का नाम क्या था?
- लड़की जितनी सुंदर थी, उसका नाम भी उतना ही सुंदर था - ऋतुपर्णा। घर का उसका नाम निक्की था।
- उस तक अपनी बात नहीं पहुंचायी थी? उसके नाम की ही तारीफ कर देते, बात बन जाती।
- कहने की हिम्मत ही कहां थी। आज भी नहीं है।
- किसी और से कहलवा दिया होता।
- कहलवाया था।
- तो क्या जवाब मिला था?
- लेकिन ज़िंदगी के इसी इम्तिहान में मैं फेल हो गया था।
- क्या बात हो गयी थी ?
- वह उस समय एमबीबीएस कर रही थी। हमारे ही एक प्रोफेसर की छोटी बहन थी। कैम्पस में ही रहते थे वे लोग। कभी उनके घर जाता तो थ़ेड़ी बहुत बात हो पाती थी। एकाध
बार लाइब्रेरी वगैरह में भी बात हुई थी। वैसे वह बहुत कम बातें करती थी लेकिन अपने प्रति उसकी भावनाओं को मैं उसके बिना बोले भी समझ सकता था। मैं तो खैर,
अपनी बात कहने की हिम्मत ही नहीं जुटा सकता था। मेरा फाइनल ईयर था। जो कुछ कहना करना था, उसका आखिरी मौका था। मैं न लड़की से कह पा रहा था और उसके भाई के
पास जाने की हिम्मत ही थी। उन्हीं दिनों हमारे सीनियर बैच की एक लड़की हमारे डिपार्टमेंट में लेक्चरर बन कर आयी थी। उसी को विश्वास में लिया था और उसके
ज़रिये लड़की के भाई से कहलवाया था।
- क्या जवाब मिला था?
- लड़की तक तो बात ही नहीं पहुंची थी लेकिन उसके भाई ने ही टका-सा जवाब दे दिया था कि हम खानदानी लोग हैं। किसी खानदान में ही रिश्ता करेंगे। मैं ठहरा
मेहनत-मज़दूरी करके पढ़ने वाला। उनकी निगाह में कैसे टिकता।
- बहुत बदतमीज था वो प्रोफेसर, सैल्फ - मेड आदमी का भी भला कोई विकल्प होता है। हम तुम्हारी तकलीफ़ समझ सकते हैं। अकेलापन आदमी को कितना तोड़ देता है।
देवेद्र बता रहे थे कि तुमने तो अपनी तरफ से घर वालों से पैच-अप करने की भी कोशिश की लेकिन इतना पैसा खर्च करने के बाद भी तुम्हें खाली हाथ लौटना पड़ा है।
- छोड़ो दीदी, मेरे हाथ में घर की लकीरें ही नहीं हैं। मुझे भी अच्छा लगता अगर मेरा घर होता, आप दोनों के घर की तरह।
- क्यों, क्या ख़ास बात है हमारे घर में? देवेद्र जी ने आते-आते आधी बात सुनी है।
- जब भी आप दोनों को इतने प्यार से रहते देखता हूं तो मुझे बहुत अच्छा लगता है। काश, मैं भी ऐसा ही घर बसा पाता।
- अच्छा एक बात बताओ, अलका दीदी ने छेड़ा है - घर कैसा होना चाहिये?
- क्यों, साफ सुथरे, करीने से लगे घर ही तो सबको अच्छे लगते हैं । वैसे मैं कहीं आता-जाता नहीं लेकिन इस तरह के घरों में जाना मुझे बहुत अच्छा लगता है।
- लेकिन अपने घर को लेकर तुम्हारे मन में क्या इमेज है?
मैं सकपका गया हूं। सूझा ही नहीं कि क्या जवाब दूं। बहुत उधेड़बुन के बाद कहा है - मेरे मन में बचपन के अपने घर और बाद में बाबा जी के घर को लेकर जो आतंक
बैठा हुआ है, उससे मैं आज तक मुक्त नहीं हो पाया हूं। मैं अपने बचपन में या तो पिटते हुए बड़ा हुआ या फिर लगातार सिरदर्द की वजह से छटपटाता रहा। घर से भाग
कर जो घर मिला, वहां बाबाजी ने घर की मेरी इमेज को और दूषित किया। बाद में बेशक अलग-अलग घरों में रहा लेकिन वहां मैं न कभी खुल कर हँस ही पाता था और न कभी
पैर फैला कर बैठ ही सकता था। कारण मैं नहीं जानता। फिर ज्यादातर वक्त हॉस्टलों में कटा, जहां घर के प्रति मेरा मोह तो हमेशा बना रहा लेकिन कोई मुकम्मल
तस्वीर नहीं बनती थी कि घर कैसा होना चाहिये, बस, जहां भी बच्चों की किलकारियां सुनता या हसबैंड वाइफ को प्यार से बात करते देखता, एक दूसरे की केयर करते
देखता, लगता शायद घर यही होता है।
- घर को लेकर तुम्हारी जो इमेज है, दरअसल तुम्हारे अनुभवों की विविधता की वजह से और घर को दूर से देखने के कारण बनी है, देवेद्र जी बता रहे हैं - तुम हमेशा
या तो ऐसे घरों में रहे जहां माहौल सही नहीं था या ऐसे घरों में रहे जो तुम्हारे अपने घर नहीं थे। वैसे देखा जाये तो हर आदमी के लिए घर के मायने अलग होते
हैं। माना जाये तो किसी के लिए फुटपाथ या उस पर बना टीन टप्पर का मामूली सा झोपड़ा भी घर की महक से भरा हुआ हो सकता है और ऐसा भी हो सकता है कि किसी के लिए
महल भी घर की परिभाषा में न आता हो और वहां रहने वाला घर की चाहत में इधर-उधर भटक रहा हो। बेशक तुम्हें अपने पिता का घर छोड़ कर भागना पड़ा था क्योंकि वह घर
अब तुम्हारे लिए घर ही नहीं रहा था लेकिन तुम्हारी मां या भाइयों के लिए तब भी वह घर बना ही रहा था क्योंकि उनके लिए न तो वहां से मुक्ति थी और न मुक्ति की
चाह ही। हो सकता है तुम्हारे सामने घर छोड़ने का सवाल न आता तो अब भी वह घर तुम्हारा बना ही रहता। उस पिटाई के बावजूद उस घर में भी कुछ तो ऐसा रहा ही होगा
जो तुम्हें आज तक हाँट करता है। पिता की पिटाई के पीछे भी तुम्हारी बेहतरी की नीयत छुपी रही होगी जिसे बेशक तुम्हारे पिता अपने गुस्से की वजह से कभी व्यक्त
नहीं कर पाये होंगे। इसमें कोई शक नहीं कि आपसी प्रेम और सेंस ऑफ केयर से घर की नींवें मज़बूत होती हैं, लेकिन हम दोनों भी आपस में छोटी-छोटी चीज़ों को ले
कर लड़ते-झगड़ते हैं। एक दूसरे से रूठते हैं और एक-दूसरे को कोसते भी हैं। इसके बावज़ूद हम दोनों एक ही बने रहते हैं क्योंकि हमें एक दूसरे पर विश्वास है और
हम एक दूसरे की भावना की कद्र भी करते हैं। हम आपस में कितना भी लड़ लें, कभी बाहर वालों को हवा भी नहीं लगने देते और न एक दूसरे की बुराई ही करते हैं। शायद
इसी भावना से घर बनता है। हां, जहां तक साफ-सुथरे घर को लेकर तुम्हारी जो इमेज है, अगर तुम बच्चों की किलकारियां भी चाहो और होटल के कमरे की तरह सफाई भी, तो
शायइ यह विरोधाभास होगा। घर घर जैसा ही होना और लगना चाहिये। घर वो होता है जहां शाम को लौटना अच्छा लगे न कि मजबूरी। जहां आपसी रिश्तों की महक हमेशा माहौल
को जीवंत बनाये रखे, वही घर होता है। तुम्हें शायद देखने का मौका न मिला हो, यहां बंबई में जितने भी बीयर बार हैं या शराब के अड्डे हैं वहां तुम्हें हज़ारों
आदमी ऐसे मिल जायेंगे जिन्हें घर काटने को दौड़ता है। वज़ह कोई भी हो सकती है लेकिन ऐसे लोग होशो-हवास में घर जाने से बचना चाहते हैं। वे चाहें तो अपने घर
को बेहतर भी बना सकते हैं जहां लौटने का उनका दिल करे लेकिन हो नहीं पाता। आदमी जब घर से दूर होता है तभी उसे घर की महत्ता पता चलती है। वह किसी भी तरीके से
घर नाम की जगह से जुड़ना चाहता है। घर चाहे अपना हो या किसी और का, घर का ही अहसास देता है। तो बंधुवर, हम तो यही दुआ करते हैं कि तुम्हें मनचाहा घर जल्दी
मिले।
- बिलीव मी, वीर जी, आपने तो घर की इतनी बारीक व्याख्या कर दी।
- चिंता मत करो, तुम्हें भी अपना घर जरूर मिलेगा और तुम्हारी ही शर्तों पर मिलेगा।
- मैं घर को लेकर बहुत सेंसिटिव रहा हूं लेकिन अब घर से लौटने के बाद से तो मैं बुरी तरह डर गया हूं कि क्या कोई ऐसी जगह कभी होगी भी जिसे मैं घर कह सकूं।
मैं अपनी तरह के घर को पाने के लिए कुछ भी कर सकता था लेकिन.. अब तो....।
- घबराओ नहीं, ऊपर वाले ने तृम्हारे नाम भी एक खूबसूरत बीवी और निहायत ही सुकून भरा घर लिखा होगा। घर और बीबी दोनों ही तुम तक चल कर आयेंगे।
- पता नहीं घर की यह तलाश कब खत्म होगी।
- जल्दी ही खतम होगी भाई, अलका ने मेरे बाल बिखेरते हुए कहा है - अगर हमारी पसंद पर भरोसा हो तो हम दोनों आज ही से इस मुहिम पर जुट जाते हैं।
मैं झेंपी हँसी हँसता हूं - क्यों किसी मासूम की जिंदगी ख़राब करती हैं इस फालतू आदमी के चक्कर में।
- यह हम तय करेंगे कि हीरा आदमी कौन है और फालतू आदमी कौन?
गुड्डी की चिट्ठी आयी है। समाचार सुखद नहीं हैं ।
- वीरजी,
आपकी चिट्ठी मिल गयी थी। बेबे बीमार है। आजकल घर का सारा काम मेरे जिम्मे आ गया है। बेबे के इलाज के लिए मुझे अपनी बचत के काफी पैसे खर्च करने पड़े जिससे
दारजी और बेबे को बताना पड़ा कि मुझे आपसे काफी पैसे मिले हैं।
वीरजी, यह गलत हो गया है कि सबको पता चल गया है कि आप मुझे पैसे भेजते रहते हैं। अब बीमार बेबे के एक्सरे और दूसरे टैस्ट कराने थे और घर में उतने पैसे नहीं
थे, मैं कैसे चुप रहती। अपनी सारी बचत निकाल कर दारजी के हाथ पर रख दी थी। वैसे भी ये पैसे मेरे पास फालतू ही तो रखे हुए थे।
आप यहां की चिंता न करें। मैं सब संभाले हुए हूं। अपने समाचार दें। अपना कॉटैक्ट नंबर लिख दीजियेगा।
आपकी
गुड्डी
मैं तुरंत ही पांच हजार रुपये का ड्राफ्ट गुड्डी के नाम कूरियर से भेजता हूं और लिखता हूं कि मुझे फोन करके तुरंत बताये कि अब बेबे की तबीयत कैसी है। एक
पत्र मैं नंदू को लिखता हूं। उसे बताता हूं कि किन हालात के चलते मुझे दूसरी बार मुझे बेघर होना पड़ा और मैं आते समय किसी से भी मिल कर नहीं आ सका। एक तरह
से खाली हाथ और भरे मन से ही घर से चला था। बेबे बीमार है। ज़रा घर जा कर देख आये कि उसकी तबीयत अब कैसी है। गुड्डी को पैसे भेजे हैं। और पैसों की जरूरत हो
तो तुरंत बताये।
pसोचता हूं, जाऊं क्या बेबे को देखने? लेकिन कहीं फिर घेर लिया मुझे किसी करतारे या ओमकारे की लड़की के चक्कर में तो मुसीबत हो जायेगी। फिर इस बार तो बेबे
की बीमारी का भी वास्ता दिया जायेगा और मैं किसी भी तरह से बच नहीं पाऊंगा। गुड्डी की चिट्ठी आ जाये फिर देखता हूं।
नंदू का फोन आ गया है।
बता रहा है - आप किसी किस्म की फिकर मत करो। बेबे अब ठीक है। घर पर ही है और डॉक्टरों ने कुछ दिन का आराम बताया है। वैसे चिंता की कोई बात नहीं है।
पूछता हूं मैं - लेकिन उसे हुआ क्या था ?
- कुछ खास नहीं, बस, ब्लड प्रेशर डाउन हो गया था। दवाइयां चलती रहेंगी। बाकी मुझे गुड्डी से सारी बात का पता चल गया है। आप मन पर कोई बोझ न रखें। मैं गुड्डी
का भी ख्याल रख्गां और बेबे का भी। ओके, और कुछ !!
- जरा अपने फोन नम्बर दे दे।
- लो नोट करो जी। घर का भी और रेस्तरां का भी। और कुछ?
- मैं अपने पड़ोसी मिस्टर भसीन का नम्बर दे रहा हूं। एमर्जेंसी के लिए। नोट कर लो और गुड्डी को भी दे देना।
फोन नम्बर नोट करता हूं और उसे थैंक्स कर फोन रखता हूं..।
तसल्ली हो गयी है कि बेबे अब ठीक है और यह भी अच्छी बात हो गयी कि अब नंदू के जरिये कम से कम तुरंत समाचार तो मिल जाया करेंगे।
इस बीच दारजी चिट्ठी आयी है। गुरमुखी में है। हालांकि उनकी हैण्ड राइटिंग बहुत ही खराब है लेकिन मतलब निकाल पा रहा हूं ।
यह एक पिता का पुत्र के नाम पहला पत्र है।
लिखा है
- बरखुरदार,
नंदू से तेरा पता लेकर खत लिख रहा हूं। एक बाप के लिए इससे और ज्यादा शरम का बात क्या होगी कि उसे अपने बेटे के पते के वास्ते उसके दोस्तों के घरों के चक्कर
काटने पड़ें। बाकी तूने जो कुछ हमारे साथ किया और दूसरी बार बीच चौराहे उत्ते मेरी पगड़ी उछाली, उससे मैं बिरादरी में कहीं मुंह दिखाने केध काबिल नहीं रहा
हूं..। सब लोग मुझ पर ही थू थू कर रहे हैं। कोई यह नहीं देखता कि तू किस तरह इस बार भी बिना बताये चोरों की तरह निकल गया। तेरी बेबे तेरा इंतजार करती रही और
जनाब ट्रेन में बैठ कर निकल गये। बाकी आदमी में इतनी गैरत और लियाकत तो होनी ही चाहिये कि वह आमने-सामने बैठ कर बात कर सके। तेरी बेबे इस बात का सदमा
बरदाश्त नहीं कर पायी और तब से बीमार पड़ी है। तुझसे तो इतना भी न हुआ कि उसे देखने आ सके। बाकी तूने अपनी बेबे को हमेशा ही दुख दिया है और कभी भी इस घर के
सुख-दुख में शामिल नहीं हुआ है। छोटी-मोटी बातों पर घर छोड़ देना शरीफ घरों के लड़कों को शोभा नहीं देता। तुम्हारी इतनी पढ़ाई-लिखाई का क्या फायदा जिससे
मां-बाप को दुख के अलावा कुछ भी न मिले।
बाकी मेरे समझाने-बुझाने के बाद करतार सिंह तेरी यह ज्यादती भुलाने के लिए अभी भी तैयार है। तू जल्द से जल्द आ जा ताकि घर में सुख शांति आ सके। इस बहाने
अपनी बीमार बेबे को भी देख लेगा। वो तेरे लिए बहुत कलपती है। वैसे भी उसकी आधी बीमारी तुझे देखते ही ठीक हो जायेगी। तू जितनी भी ज्यादती करे हमारे साथ, उसके
प्राण तो तुझमें ही बसते हैं।
तुम्हारा,
दारजी
ज़िंदगी में एक बाप पहली बार अपने बेटे को चिट्टी लिख रहा है और उसमें सौदेबाजी वाली यह भाषा!! दारजी जो भाषा बोलते हैं वही भाषा लिखी है। न बोलने में लिहाज
करते हैं न लिखने में किया है।
अब ऐसे ख़त का क्या जवाब दिया जा सकता है। वे यह नहीं समझते कि इस तरह से वे मेरी परेशानियां ही बढ़ा रहे हैं।
अगले ही दिन की डाक में गुड्डी का एक और खत आया है।
लिखा है उसने
- वीरजी, पत्र लिखने में देर हो गयी है। जब नंदू वीरजी ने बताया कि उन्होंने आपको बेबे की तबीयत के बारे में फोन पर बता दिया है इसलिए भी लिखना टल गया। बेबे
अब ठीक हैं लेकिन कमज़ोरी है और ज्यादा देर तक काम नहीं कर पाती। वैसे कुछ सदमा तो उन्हें आपके जाने का ही लगा है और आजकल उनमें और दारजी में इसी बात को
लेकर अक्सर कहा-सुनी हो जाती है।
बेबे की बीमारी के कारण कई दिन तक कॉलेज न जा सकी और घर पर ही पढ़ती रही। वैसे निशा आ कर नोट्स दे गयी थी।
दारजी ने मुझसे आपका पता मांगा था। मैंने मना कर दिया कि जिस लिफाफे में ड्राफ्ट आया था उस पर पता था ही नहीं। पता न देने की वज़ह यही है कि पिछले दिनों
करतार सिंह ने संदेसा भिजवाया था कि अब हम और इंतजार नहीं कर सकते। अगर दीपू यह रिश्ता नहीं चाहता या जवाब नहीं देता तो वे और कोई घर देखेंगे। उन पर भी
बिरादरी की तरफ से दबाव है।
पता है वीरजी, दारजी ने करतार सिंह के पास इस संदेस के जवाब में क्या संदेसा भिजवाया था - तू संतोष का ब्याह बिल्लू या गोलू से कर दे., दहेज बेशक आधा कर दे।
करतार सिंह ने दारजी को जवाब दिया कि बोलने से पहले कुछ तो सोच भी लिया कर। तू बेशक व्यापारी न सही, मैं व्यापारी आदमी हूं और कुछ सोच कर ही तेरे दीपू का
हाथ मांग रहा था। दारजी का मुंह इतना सा रह गया।
दारजी नंदू से आपका पता लेने गये थे। वे शायद आपको लिखें, या लिख भी दिया हो .. आप उनके फंदे में मत फंसना वीरजी।
आपके भेजे पांच हज़ार के ड्राफ्ट के लिए दारजी ने मेरा खाता खुलवा दिया है, लेकिन यह खाता उन्होंने अपने साथ ज्वाइंट खुलवाया है।
नंदू वीरजी अकसर बेबे का हालचाल पूछने आ जाते है। आपकी चिट्ठी का पूछ रहे थे। वे आपकी बहुत इज्जत करते हैं।
पत्र देंगे।
आपकी बहना,
गुड्डी
समझ में नहीं आ रहा, किन झमेलों में फंस गया हूं। जब तक घर नहीं गया था, वे सब मेरी दुनिया में कहीं थे ही नहीं, लेकिन एक बार सामने आ जाने के बाद मेरे लिए
यह बहुत ही मुश्किल हो गया है कि उन्हें अपनी स्मृतियों से पूरी तरह से निकाल फेंकूं। हो ही नहीं पाता ये सब। वहां मुझे हफ्ता भर भी चैन से नहीं रहने दिया
और जब वहां से भाग कर यहां आ गया हूं तो भी मुक्ति नहीं है मेरी।
अलका दीदी मेरी परेशानियां समझती हैं लेकिन जब मेरे ही पास इनका कोई हल नहीं है तो उस बेचारी के पास कहां से होगा। मुझे उदास और डिस्टर्ब देख कर वह भी मायूस
हो जाती है, इसलिए कई बार उनके घर जाना भी टालता हूं। लेकिन दो दिन हुए नहीं होते कि खुद बुलाने आ जाती हैं। मजबूरन मुझे उनके घर जाना ही पड़ता है।
डिप्रैशन के भीषण दौर से गुज़र रहा हूं। जी चाहता है कहीं दूर भाग जाऊं। बाहर कहीं नौकरी कर लूं जहां किसी को मेरी खबर ही न हो कि मैं कहां चला गया हूं। एक
तो ज़िंदगी में पसरा दसियों बरसों का यह अकेलापन और उस पर से घर से आने वाली इस तरह की चिट्ठियां। खुद की नादानी पर अफ़सोस हो रहा है कि बेशक गुड्डी को ही
सही, पता दे कर ही क्यों आया..। मैं अपने हाल बना रहता और उन्हें उनके ही हाल पर छोड़ आता। लेकिन बेबे और गुड्डी .. यहीं आ कर मैं पस्त हो जाता हूं।
अब मैं इस दिशा में ज्यादा सोचने लगा हूं कि यहां से कहीं बाहर ही निकल जाऊं। बेशक कहीं भी खुद को एडजस्ट करने में, जमाने में वक्त लगेगा लेकिन यहां ही कौन
सी जमी-जमायी गृहस्थी है जो उखाड़नी पड़ेगी। सब जगह हमेशा खाली हाथ ही रहा हूं। जितनी बार भी शहर छोड़े हैं या जगहें बदली हैं, खाली हाथ ही रहा हूं, यहां से
भी कभी भी वैसे ही चल दूंगा। किसी भी कीमत पर इंगलैण्ड या अमेरिका की तरफ निकल जाना है।
ऑफिस से लौटा ही हूं कि अलका दीदी का बुलावा आ गया है। पिछले कितने दिनों से उनके घर गया ही नहीं हूं।
फ्रेश हो कर उनके घर पहुंचा तो दीदी ने मुस्कुराते हुए दरवाजा खोला है। भीतर आता हूं। सामने ही एक लम्बी-सी लड़की बैठी है। दीदी परिचय कराती हैं - ये गोल्डी
है। सीएमसी में सर्विस इंजीनियर है। उसे मेरे बारे में बताती है। मैं हैलो करता हूं। हम बैठते हैं। दीदी चाय बनाने चली गयी है।
किसी भी अकेली लड़की की मौजूदगी में मैं असहज महसूस करने लगता हूं। समझ ही नहीं आता, क्या बात करूं और कैसे शुरूआत करूं। वह भी थोड़ी देर तक चुप बैठी रहती
है फिर उठ कर दीदी के पीछे रसोई में ही चली गयी है। चलो, अच्छा है। उसकी मौजूदगी से जो तनाव महसूस हो रहा था, कम से कम वो तो नहीं होगा। लेकिन दीदी भी अजीब
हैं। उसे फिर से पकड़ कर ड्राइंग रूम में ले आयी है - बहुत अजीब हो तुम दोनों? क्या मैं इसीलिए तुम दोनों का परिचय करा के गयी थी कि एक दूसरे का मुंह देखते
रहो और जब दोनों थक जाओ तो एक उठ कर रसोई में चला आये।
मैं झेंप कर कहता हूं - नहीं दीदी, ऐसी बात नहीं है दरअसल .. मैं ..
- हां, मुझे सब पता है कि तुम लड़कियों से बात करने में बहुत शरमाते हो और कि तुम्हारा मूड आजकल बहुत खराब चल रहा है और मुझे यह भी पता है कि ये लड़की तुझे
खा नहीं जायेगी। बेशक कायस्थ है लेकिन वैजिटेरियन है। दीदी ने मुझे कठघरे में खड़ा कर दिया है। कहने को कुछ बचा ही नहीं है।
मैं बात शुरू करने से हिसाब से पूछता हूं उससे - कहां से ली थी कम्प्यूटर्स में डिग्री?
- इंदौर से। वह भी संकोच महसूस कर रही है कि उठ, कर रसोई में क्यों चली गयी थी।
- बंबई पहली बार आयी हैं?
- जॉब के हिसाब तो पहली ही बार ही आयी हूं, लेकिन पहले भी कॉलेज ग्रुप के साथ बंबई घूम चुकी हूं।
- चलो, गगनदीप के लिए अच्छा हुआ कि उसे गोल्डी को बंबई नहीं घुमाना पड़ेगा।
- आप तो मेरे पीछे ही पड़ गयी हैं दीदी, मैंने ऐसा कब कहा...
- हां, अब हुई न बात। तो अब पूरी बात सुन। गोल्डी एक हफ्ता पहले ही बंबई आयी है। बिचारी को आते ही रहने की समस्या से जूझना पड़ा। कल ही विनायक क्रॉस रोड पर
रहने वाली हमारी विधवा चाची की पेइंग गेस्ट बन कर आयी है। इसे कुछ शॉपिंग करनी है। तू ज़रा इसके साथ जा कर इसे शॉपिंग करा दे।
- ठीक है दीदी, करा देता हूं। दीदी की बात टालने की मेरी हिम्मत नहीं है।
- जा गोल्डी। वैसे तुझे बता दूं कि ये बहुत ही शरीफ लड़का है। पता नहीं रास्ते में तुझसे बात करे या नहीं या तुझे चाट वगैरह भी खिलाये या नहीं, तू ही इसे
कुछ खिला देना।
- दीदी, इतनी तो खिंचाई मत करो। अब मैं इतना भी गया गुजरा नहीं हूं कि ....।
- मैं यही सुनना चाहती थी। दीदी ने हँसते हुए हमें विदा किया है।
हम दोनों एक साथ नीचे उतरते हैं।
सीढ़ियों में ही उससे पूछता हूं - आपको किस किस्म की शॉपिंग करनी है? मेरा मतलब उसी तरह के बाज़ार की तरफ जायें।
- अब अगर यहीं रहना है तो सुई से लेकर आइरन, बाल्टी, इलैक्ट्रिक कैटल सब कुछ ही तो लेना पड़ेगा। पहले यही चीजें ले लें - ऑटो ले लें? बांद्रा स्टेशन तक तो
जाना पड़ेगा।
दो तीन घंटे में ही उसने काफी शॉपिंग कर ली है। बहुत अच्छी तरह से शॉपिंग की है उसने। उसने सामान भी बहुत बढ़िया क्वालिटी का खरीदा है। ज्यादातर सामान पहली
नज़र में ही पसंद किया गया है। दीदी की बात भूला नहीं हूं। गोल्डी को आग्रह पूर्वक शेरे पंजाब रेस्तरां में खाना खिलाया है। इस बीच उससे काफी बात हुई है।
गोल्डी कराटे में ब्लू बैल्ट है। पुराने संगीत की रसिया है और अच्छे खाने की शौकीन है। उसे फिल्में बिलकुल अच्छी नहीं लगती।
उसने मेरे बारे में भी बहुत कुछ जानना चाहा है। संकट में डाल दिया है उसने मुझे मेरी डेट ऑफ बर्थ पूछ कर। कभी सोचा भी नहीं था, इधर-उधर के फार्मों में लिखने
के अलावा जन्म की तारीख का इस तरह भी कोई महत्व होता है। एक तरह से अच्छा भी लगा है। आज तक यह तारीख महज एक संख्या थी। आज एक सुखद अहसास में बदल गयी है।
मैं भी उससे उसकी डेट ऑफ बर्थ पूछता हूं। बताती है - बीस जुलाई सिक्सटी नाइन।
मैं हँसता हूं - मुझसे छः साल छोटी हैं।
वह जवाब देती है - दुनिया में हर कोई किसी न किसी से छोटा होता है तो किसी दूसरे से बड़ा। अगर सब बराबर होने लगे तो चल चुकी दुनिया की साइकिल....।
काफी इंटेलिजेंट है और सेंस ऑफ ह्यूमर भी खूब है। आज से ठीक बीस दिन जनम दिन है गोल्डी का। देखें, तब यहां होती भी है या नहीं....!
- आपका ऑफिस तो बांद्रा कुर्ला कॉम्पलैक्स में है। सुना है बहुत ही शानदार बिल्डिंग है।
- हां बिल्डिंग तो अच्छी है। कभी ले जाऊंगी आपको। अभी तो नयी हूं इसलिए हैड क्वार्टर्स दिया है। मैं तो फील्ड स्टाफ हूं। अपने काम के सिलसिले में सारा दिन
एक जगह से दूसरी जगह जाना पड़ेगा।
- बंबई से बाहर भी?
- हां, बाहर भी जाना पड़ सकता है।
हम लदे फदे वापिस पहुंचे हैं। गोल्डी का काफी सारा सामान मेरे दोनों हाथों में है। उसे चाची के घर के नीचे विदा करता हूं तो पूछती है - ये सारा सामान लेकर
मैं अकेली ऊपर जाऊंगी तो आपको खराब नहीं लगेगा!
- ओह, सॉरी, मैं तो ये समझ रहा था मेरा ऊपर जाना ही आपको खराब लगेगा, इसलिए चुप रह गया। लाइये, मैं पहुंचा देता हूं सामान।
चाची को नमस्ते करता हूं। उनसे अक्सर दीदी के घर मुलाकात हो जाती है। हालचाल पूछती हैं। गोल्डी का सामान रखवा कर लौटने को हूं कि वह कहती है - थैंक्स नहीं
कहूंगी तो आपको खराब लगेगा और थैंक्स कहना मुझे फॉर्मल लग रहा है।
- इसमें थैंक्स जैसी कोई बात नहीं है। इस बहाने मेरा भी घूमना हो गया। वैसे भी कमरे में बैठा बोर ही तो होता।
हँसती है - वैसे तो दीदी ने मुझे डरा ही दिया था कि आप बिलकुल बात ही नहीं करते। एनी वे थैक्स फॉर द नाइस डिनर। गुड नाइट।
किसी लड़की के साथ इतना वक्त गुज़ारने का यह पहला ही मौका है। वह भी अनजान लड़की के साथ पहली ही मुलाकात में। ऋतुपर्णा के साथ भी कभी इतना समय नहीं गुज़ारा
था। गोल्डी के व्यक्तित्व के खुलेपन के बारे में सोचना अच्छा लग रहा है। कोई दुराव छुपाव नहीं। साफगोई से अपनी बात कह देना।
चलो, अलका दीदी ने जो ड्यूटी सौंपी थी, उसे ठीक-ठाक निभा दिया।
सुबह सुबह ही मकान मालिक ने बताया है कि दरवाजे पर कोई सिख लड़का खड़ा है जो तुम्हें पूछ रहा है। मैं लपक कर बाहर आता हूं।
सामने बिल्लू खड़ा है। पास ही बैग रखा है। मुझे देखते ही आगे बढ़ा है और हौले से झुका है।
मैं हैरान - न चिट्ठी न पत्री, हज़ारों मील दूर से चला आ रहा है, कम से कम खबर तो कर देता। उसे भीतर लिवा लाता हूं। मकान मालिक उसे हैरानी से देख रहा है।
उन्हें बताता हूं - मेरा छोटा भाई है। यहां एक इन्टरव्यू देने आया है। मकान मालिक की तसल्ली हो गयी है कि रहने नहीं आया है।
उसे भीतर लाता हूं। पूछता हूं - .. इस तरह .. अचानक ही.. कम से कम खबर तो कर ही देता.. मैं स्टेशन तो लेने आ ही जाता..।
हंसता है बिल्लू - बस, बंबई घूमने का दिल किया तो बैग उठाया और चला आया।
मैं चौंका हूं - घर पर तो बता कर आया है या नहीं ?
- उसकी चिंता मत करो वीर, उन्हें पता है, मैं यहां आ रहा हूं।
मुझे अभी भी विश्वास नहीं हो रहा है कि घर वह कह कर आया है। सोच लिया है मैंने, रात को नंदू को फोन करके बता दूंगा - घर बता दे, बिल्लू यहां ठीक ठाक पहुंच
गया है। फिकर न करें।
- बेबे कैसी है? दारजी, गुड्डी और गोलू?
- बेबे अभी भी ढीली ही है। ज्यादा काम नहीं कर पाती। बाकी सब ठीक हैं।
मकान मालिक ने इतनी मेहरबानी कर दी है कि दो कप चाय भिजवा दी है।
बिल्लू नहा धो कर आया है तो मैं देखता हूं कि उसके कपड़े, जूते वगैरह बहुत ही मामूली हैं। घर पर रहते हुए मैंने इस तरफ़ ध्यान ही नहीं दिया था। आज-कल में ही
दिलवाने पड़ेंगे। घुमाना-फिराना भी होगा। यही काम मेरे लिए सबसे मुश्किल होता है। मैंने खुद बंबई ढंग से नहीं देखी है, उसे कैसे घुमाऊंगा। पता नहीं कितने
दिन का प्रोग्राम बना कर आया है।
पूछ रहा है बिल्लू - क्या सोचा है वीर शादी के बारे में। उसने अपने बैग में से संतोष की तस्वीर निकाल कर मेरे आगे रख दी है। लगता है मुझे शादी के लिए तैयार
करने और लिवा लेने के लिए आया है। उसे लिखा-पढ़ा कर भेजा गया है। वह जिस तरह से मेरी चीजों को उलट-पुलट कर देख रहा है और सारी चीजों के बारे में पूछ रहा है
उससे तो यही लगता है कि वह मेरा जीवन स्तर, रहने का रंग ढंग और मेरी माली हालत का जायजा लेने आया है। कहा उसने बेशक नहीं है लेकिन उसके हाव-भाव यही बता रहे
हैं।
परसों अलका दीदी ने दोनों को खाने पर बुला लिया था। गोल्डी भी थी। वहां पर भी वह सबके सामने मेरे घर छोड़ कर आने के बारे में उलटी-सीघी बातें करने लगा। जब
मैं चुप ही रहा तो अलका को मेरे बचाव में उसे चुप करना पड़ा तो जनाब नाराज़ हो गये - आपको नहीं पता है भैनजी, ये किस तरह बिना बताये घर छोड़ कर आ गये थे कि
सारी बिरादरी इनके नाम पर आज भी थू थू कर रही है। सगाई की सारी तैयारियां हो चुकी थीं। वो तो लोग-बाग दारजी का लिहाज कर गये वरना..इन्होंने कोई कसर थोड़े ही
छोड़ रखी थी।
वह ताव में आ गया था। बड़ी मुश्किल से हम उसे चुप करा पाये थे। हमारी सारी शाम खराब हो गयी थी। गोल्डी क्या सोचेगी मेरे बारे में कि इतना ग़ैर-जिम्मेवार
आदमी हूं। उससे बात ही नहीं हो पायी थी। मैं देख सकता था कि वह भी बहुत आक्वर्ड महसूस कर रही थी।
इस बीच देवेन्द्र और अलका जी ने दोबारा बुलाया है लेकिन मेरी हिम्मत ही नहीं हो रही कि उसे वहां ले जाऊं। ले ही नहीं गया। अब तो बिल्लू से बात करने की ही
इच्छा नहीं हो रही है। इसके बावजूद बिल्लू को ढेर सारी शापिंग करा दी है। घुमाया-फिराया है और हजारों रुपयों की चीज़ें दिलवायीं हैं। वह बीच-बीच में संतोष
कौर का जिक्र छेड़ देता है कि बहुत अच्छी लड़की है, मैं एक बार उसे देख तो लेता। आखिर मुझे दुखी हो कर साफ-साफ कह ही देना पड़ा कि अगली बार जो तूने उस या
किसी भी लड़की का नाम लिया तो तुझे अगली ट्रेन में बिठा दूंगा। तब कहीं जा कर वह शांत हुआ है।
अब उसकी मौजूदगी मुझमें खीज पैदा करने लगी है।
उसकी वज़ह से मैं हफ्ते भर से बेकार बना बैठा हूं। जनाब ग्यारह बजे तो सो कर उठते हैं। नहाने का कोई ठिकाना नहीं। खाने-पीने का कोई वक्त नहीं। यहां संकट यह
है कि पूरी ज़िंदगी मैं हमेशा सारे काम अनुशासन से बंध कर करता रहा। जरा-सी भी अव्यवस्था मुझे बुरी तरह से बेचैन कर देती है। घूमने-फिरने के लिए
निकलते-निकलते डेढ दो बजा देना उसके लिए मामूली बात है। तीन-चार घंटे घूमने के बाद ही जनाब थक जाते हैं और फिर बेताल डाल पर वापिस।
पूरे हफ्ते से उसका यही शेड्यूल चल रहा है। उसकी शॉपिंग भी माशा अल्लाह अपने आप में अजूबा है। पता नहीं किस-किस की लिस्टें लाया हुआ है। यह भी चाहिये और वह
भी चाहिये। अब अगर किसी और ने सामान मंगाया है तो उसके लिए पैसे भी तो निकाल भाई। लेकिन लगता है उसके हाथों ने उसकी जेबों का रास्ता ही नहीं देखा। उसकी खुद
की हजारों रुपये की शॉपिंग करा ही चुका हूं। उसमें मुझे कोई एतराज़ नहीं है। लेकिन किसी ने अगर कैमरा मंगवाया है या कुछ और मंगवाया है तो उसके लिए भी मेरी
ही जेब ढीली करा रहा है। उसके खाने-पीने में मैंने कोई कमी नहीं छोड़ी है। मैं खुद रोज़ाना ढाबे में या किसी भी उडिपी होटल मे खा लेता हूं लेकिन उसे रोज ही
किसी न किसी अच्छे होटल में ले जा रहा हूं। इसलिए जब उसने कहा कि मैं गोवा घूमना चाहता हूं तो मुझे एक तरह से अच्छा ही लगा। उसे गोवा की बस में बिठा दिया है
और हाथ में पांच सौ रुपये भी रख दिये हैं। तभी पूछ भी लिया है - आजकल रश चल रहा है। ऐन वक्त पर टिकट नहीं मिलेगी। तेरा कब का टिकट बुक करा दूं?
उसे अच्छा तो नहीं लगा है लेकिन बता दिया है उसने
- गोवा से शुक्रवार तक लौटूंगा। शनिवार की रात का करा दें।
और इस तरह से बिल्लू महाराज जी मेरे पूरे ग्यारह दिन और लगभग आठ हजार रुपये स्वाहा करने के बाद आज वापिस लौट गये हैं। लेकिन जाते-जाते वह मुझे जो कुछ सुना
गया है, उससे एक बार फिर सारे रिश्तों से मेरा मोह भंग हो गया है। उसकी बातें याद कर करके दिमाग की सारी नसें झनझना रही हैं। कितना अजीब रहा यह अनुभव अपने
ही सगे भाई के साथ रहने का। क्या वाकई हम एक दूसरे से इतने दूर हो गये हैं कि एक हफ्ता भी साथ-साथ नहीं रह सकते। उसके लिए इतना कुछ करने के बाद भी उसने मुझे
यही सिला दिया है....।
गोल्डी से इस बीच एक दो बार ही हैलो हो पायी है। वह भी राह चलते। एक बार बाज़ार में मिल गयी थी। मैं खाना खा कर आ रहा था और वह कूरियर में चिट्ठी डालने जा
रही थी। तब थोड़ी देर बात हो पायी थी।
उसने अचानक ही पूछ लिया था - आप आइसक्रीम तो खा लेते होंगे?
- हां खा तो लेता हूं लेकिन बात क्या है?
- दरअसल आइसक्रीम खाने की बहुत इच्छा हो रही है। मुझे कम्पनी देंगे ?
- ज़रूर देंगे। चलिये।
- लेकिन खिलाऊंगी मैं।
- ठीक है आप ही खिला देना। तब आइसक्रीम के बहाने ही उससे थोड़ी बहुत बात हो पायी थी।
- बहुत थक जाती हूं। सारा दिन शहर भर के चक्कर काटती हूं। न खाने का समय न वापिस आने का।
- मैं समझ सकता हूं लेकिन आपके सामने कम से कम सुबह के नाश्ते से लेकर रात के खाने तक की समस्या तो नहीं है।
- वो तो खैर नहीं है। फिर भी लगता नहीं इस चाची नाम की लैंड लेडी से मेरी ज्यादा निभ पायेगी। किराया जितना ज्यादा, उतनी ज्यादा बंदिशें। शाम को मैं बहुत थकी
हुई आती हूं। तब सहज-सी एक इच्छा होती है कि काश, कोई एक कप चाय पिला देता। लेकिन चाची तो बस, खाने की थाली ले कर हाज़िर हो जाती है। अब सुबह का दूध शाम तक
चलता नहीं और पाउडर की चाय में मज़ा नहीं आता।
- मैं आपकी तकलीफ़ समझ सकता हूं।
- और भी दस तरह की बंदिशें हैं। ये मत करो और वो मत करो। रात दस बजे तक घर आ जाओ। अब मैं जिस तरह के जॉब में हूं, वहां देर हो जाना मामूली बात है। कभी कोई
कॉल दस मिनट में भी ठीक हो जाती है तो कई बार बिगड़े सिस्टम को लाइन पर लाने में दसियों घंटे लग जाना मामूली बात है। तब वहां हम सामने खुला पड़ा सिस्टम
देखें या चाची का टाइम टेबल याद करें।
- किसी गर्ल्स हॉस्टल में क्यों नहीं ट्राई करतीं।
- सुना है वहां का माहौल ठीक नहीं होता और बंदिशें वहां भी होंगी ही। खैर, आप भी क्या सोचेंगे, आइसक्रीम तो दस रुपये की खिलायी लेकिन बोर सौ रुपये का कर
गयी। चलिये।
हम टहलते हुए एक साथ लौटे थे।
कहा था उसने - कभी आपके साथ बैठ कर ढेर सारी बातें करेंगे।
उसके बाद एक बार और मिली थी वह। अलका दीदी के घर से वापिस जा रही थी और मैं घर आ रहा था।
पूछा था तब उसने - कुछ फिक्शन वगैरह पढ़ते हैं क्या?
- ज़िंदगी भर तो भारी-भारी टैक्निकल पोथे पढ़ता रहा, फिक्शन के लिए पहले तो फुर्सत नहीं थी, बाद में पढ़ने का संस्कार ही नहीं बन पाया। वैसे तो ढेरों
किताबें हैं। शायद कोई पसंद आ जाये। देखना चाहेंगी ?
- चलिये। और वह मेरे साथ ही मेरे कमरे में वापिस आ गयी है।
यहां भी पहली ही बार वाला मामला है। मेरे किसी भी कमरे में आने वाली वह पहली ही लड़की है।
- कमरा तो बहुत साफ सुथरा रखा है। वह तारीफ करती है।
- दरअसल यह पारसी मकान मालिक का घर है। और कुछ हो न हो, सफाई जो ज़रूर ही होगी। वैसे भी अपने सारे काम खुद ही करने की आदत है इसलिए एक सिस्टम सा बन जाता है
कि अपना काम खुद नहीं करेंगे तो सब कुछ वैसे ही पड़ा रहेगा। बाद में भी खुद ही करना है तो अभी क्यों न कर लें।
- दीदी आपकी बहुत तारीफ कर रही थीं कि आपने अपने कैरियर की सारी सीढ़ियां खुद ही तय की हैं। ए कम्पलीट सैल्फ मेड मैन। वह किताबों के ढेर में से अपनी पसंद की
किताबें चुन रही है।
हँसता हूं मैं - आप सीढ़ियां चढ़ने की बात कर रही हैं, यहां तो बुनियाद खोदने से लेकर गिट्टी और मिट्टी भी खुद ही ढोने वाला मामला है। देखिये, आप पहली बार
मेरे कमरे में आयी हैं, अब तक मैंने आपको पानी भी नहीं पूछा है। कायदे से तो चाय भी पिलानी चाहिये।
- इन फार्मेलिटीज़ में मत पड़िये। चाय की इच्छा होगी तो खुद बना लूंगी।
- लगता है आपको संगीत सुनने का कोई शौक नहीं है। न रेडियो, न टीवी, न वॉकमैन या स्टीरियो ही। मैं तो जब तब दो-चार घंटे अपना मन पसंद संगीत न सुन लूं, दिन ही
नहीं गुज़रता।
- बताया न, इन किताबों के अलावा भी दुनिया में कुछ और है कभी जाना ही नहीं। अभी कहें आप कि फलां थ्योरी के बारे में बता दीजिये तो मैं आपको बिना कोई भी
किताब देखे पूरी की पूरी थ्योरी पढ़ा सकता हूं।
- वाकई ग्रेट हैं आप। चलती हूं अब। ये पांच-सात किताबें ले जा रही हूं। पढ़ कर लौटा दूंगी।
- कोई जल्दी नहीं है। आपको जब भी कोई किताब चाहिये हो, आराम से ले जायें। देखा, चाय तो फिर भी रह ही गयी।
- चाय ड्यू रही अगली बार के लिए। ओके।
- चलिये, नीचे तक आपको छोड़ देता हूं।
जब उसे उसके दरवाजे तक छोड़ा तो हँसी थी गोल्डी - इतने सीधे लगते तो नहीं। लड़कियों को उनके दरवाजे तक छोड़ कर आने का तो खूब अनुभव लगता है। और वह तेजी से
सीढ़ियां चढ़ गयी थी।
घर लौटा तो देर तक उसके ख्याल दिल में गुदगुदी मचाये रहे। दूसरी-तीसरी मुलाकात में ही इतनी फ्रैंकनेस। उसका साथ सुखद लगने लगा है। देखें, ये मुलाकातें क्या
रुख लेती हैं। बेशक उसके बारे में सोचना अच्छा लग रहा है लेकिन उसे ले कर कोई भी सपना नहीं पालना चाहता।
अब तक तो सब ने मुझे छला ही है। कहीं यहां भी...!
बिल्लू को गये अभी आठ दिन भी नहीं बीते कि दारजी की चिट्ठी आ पहुंची है।
समझ में नहीं आ रहा, यहां से भाग कर अब कहां जाऊं। वे लोग मुझे मेरे हाल पर छोड़ क्यों नहीं देते। क्या यह काफी नहीं है उनके लिए कि मैं उन पर किसी भी किस्म
का बोझ नहीं बना हुआ हूं। मैंने आज तक न उनसे कुछ मांगा है न मांगूंगा। फिर उन्हें क्या हक बनता है कि इतनी दूर मुझे ऐसे पत्र लिख कर परेशान करें।
लिखा है दारजी ने
- बरखुरदार
बिल्लू के मार्फत तेरे समाचार मिले और हम लोगों के लिए भेजा सामान भी। बाकी ऐसे सामान का कोई क्या करे जिसे देने वाले के मन में बड़ों के प्रति न तो मान हो
और न उनके कहे के प्रति कोई आदर की भावना। हम तो तब भी चाहते थे और अब भी चाहते हैं कि तू घर लौट आ। पुराने गिले शिकवे भुला दे और अपणे घर-बार की सोच। आखर
उमर हमेशा साथ नहीं देती। तू अट्ठाइस-उनतीस का होने को आया। हुण ते करतारे वाला मामला भी खतम हुआ। वे भी कब तक तेरे वास्ते बैठे रहते और लड़की की उमर ढलती
देखते रहते। हर कोई वक्त के साथ चला करता है सरदारा.. और कोई किसी का इंतजार नहीं करता। हमने बिल्लू को तेरे पास इसी लिए भेजा था कि टूटे-बिखरे परिवार में
सुलह सफाई हो जाये, रौनक आ जाये, लेकिन तूने उसे भी उलटा सीधा कहा और हमें भी। पता नहीं तुझे किस गल्ल का घमंड है कि हर बार हमें ही नीचा दिखाने की फिराक
में रहता है। बाकी हमारी दिली इच्छा थी और अभी भी है कि तेरा घर बस जाये लेकिन तू ही नहीं चाहता तो कोई कहां तक तेरे पैर पकड़े। आखर मेरी भी कोई इज्जत है कि
नहीं। अब हमारे सामने एक ही रास्ता बचता है कि अब तेरे बारे में सोचना छोड़ कर बिल्लू और गोलू के बारे में सोचना शुरू कर दें। कोई मुझसे यह नहीं पूछने आयेगा
कि दीपे का क्या हुआ। सबकी निगाह तो अब घर में बैठे दो जवान जहान लड़कों की तरफ ही उठेगी।
एक बार फिर सोच ले। करतारा न सही, और भी कई अच्छे रिश्तेवाले हमारे आगे पीछे चक्कर काट रहे हैं। अगर बंबई में ही कोई लड़की देख रखी हो तो भी बता, हम तेरी
पसंद वाली भी देख लेंगे।
तुम्हारा,
दारजी...।
अब ऐसे खत का क्या जवाब दिया जाये!
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