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उपन्यास |
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देस बिराना
अस्पताल में दस दिन काटने के बाद आज ही घर वापिस आया हूं। इनमें से तीन दिन तो आइसीयू में ही रहा। बाद में पचास तरह के टेस्ट चलते रहे और बीसियों तरह की
रिपोर्टें तैयार की गयीं, निष्कर्ष निकाले गये लेकिन नतीजा ज़ीरो रहा। डॉक्टर मेरे सिर दर्द का कारण तलाशने में असमर्थ रहे और मैं जिस दर्द के साथ आधी रात
को अस्पताल ले जाया गया था उसी दर्द के साथ दस दिन बाद लौट आया हूं। गौरी बता रही थी, एक रात मैं सिर दर्द से बुरी तरह से छटपटाने लगा था। वह मेरी हालत देख
कर एकदम घबरा गयी थी। उसने तुरंत डॉक्टर को फोन किया था। उसने मुझे कभी एक दिन के लिए भी बीमार पड़ते नहीं देखा था और उसे मेरी इस या किसी भी बीमारी के बारे
में कुछ भी पता नहीं था इसलिए वह डॉक्टर को इस बारे में कुछ भी नहीं बता पायी थी। डॉक्टर ने बेशक दर्द दूर करने का इंजेक्शन दे दिया था लेकिन जब वह कुछ भी
डायग्नोस नहीं कर पाया तो उसने अस्पताल ले जाने की सलाह दी थी। गौरी ने तब अपने घर पापा वगैरह को फोन किया और मेरी हालत के बारे में बताया था। सभी लपके हुए
आये थे और इस तरह मैं अस्पताल में पहुंचा दिया गया था।
अब बिस्तर पर लेटे हुए और इस समय भी दर्द से कराहते हुए मुझे हॅसी आ रही है - क्या पता चला होगा डॉक्टरों को मेरे दर्द के बारे में। कोई शारीरिक वज़ह हो भी
तो वे पता लगा सकते। रिपोर्टें इस बारे में बिलकुल मौन हैं।
इस बीच कई बार पूछ चुकी है गौरी - अचानक ये तुम्हें क्या हो गया था दीप ? क्या पहले भी कभी.. .. ..?
- नहीं गौरी, ऐसा तो कभी नहीं हुआ था। तुमने तो देखा ही है कि मुझे कभी जुकाम भी नहीं होता। मैं उसे आश्वस्त करता हूं। बचपन के बारे में मैं थोड़ा-सा झूठ
बोल गया हूं। वैसे भी वह मेरे केसों के मामले और दर्द के संबंध और अब गुड्डी की मौत के लिंक तो क्या ही जोड़ पायेगी। कुछ बताऊं भी तो पूरी बात बतानी पड़ेगी
और वह दस तरह के सवाल पूछेगी। यही सवाल उसके घर के सभी लोग अलग-अलग तरीके ये पूछ चुके हैं। मेरा जवाब सबके लिए वही रहा है।
शिशिर भी पूछ रहा था। मैं क्या जवाब देता। मुझे पता होता तो क्या ससुराल के इतने अहसान लेता कि इतना महंगा इलाज कराता!! वैसे दवाएं अभी भी खा रहा हूं और
डॉक्टर के बताये अनुसार कम्पलीट रेस्ट भी कर ही रहा हूं, लेकिन सारा दिन बिस्तर पर लेटे-लेटे रह-रह के गुड्डी की यादें परेशान करने लगती हैं। आखिर उस मासूम
का कुसूर क्या था। जो दहेज हमने गुड्डी को देना था या दिया था वो हमारी जिम्मेवारी थी। हम पूरी कर ही रहे थे। ज़िंदगी भर करते ही रहते।
सारा दिन बिस्तर पर लेटा रहता हूं और ऐसे ही उलटे-सीधे ख्याल आते रहते हैं। अपनी याद में यह पहली बार हो रहा है कि मैं बीमार होने की वज़ह से इतने दिनों से
बिस्तर पर लेटा हूं और कोई काम नहीं कर रहा हूं। बीच-बीच में सबके फोन भी आते रहते हैं। गौरी दिन में कई बार फोन कर लेती है।
लेटे लेटे संगीत सुनता रहता हूं। इधर शास्त्राúय संगीत की तरफ रुझान शुरू हुआ है। गौरी ने एक नया डिस्कमैन दिया है और शिशिर इंडियन क्लासिकल संगीत की कई
सीडी दे गया है। शिल्पा भी कुछ किताबें छोड़ गयी थी। और भी सब कुछ न कुछ दे गये हैं ताकि मैं लेटे लेटे बोर न होऊं।
लगभग छः महीने हो गये हैं सिरदर्द को झेलते हुए। इस बीच ज्यादातर अरसा आराम ही करता रहा या तरह तरह के टैस्ट ही कराता रहा। नतीजा तो क्या ही निकलना था। वैसे
सिरदर्द के साथ मैं अब स्टोर्स में पूरा पूरा दिन भी बिताने लगा हूं लेकिन मैं ही जानता हूं कि मैं कितनी तकलीफ से गुज़र रहा हूं। बचपन में भी तो ऐसे ही
दर्द होता था और मैं किसी से भी कुछ नहीं कह पाता था। सारा सारा दिन दर्द से छटपटाता रहता था जैसे कोई सिर में तेज छुरियां चला रहा हो। तब तो के स कटवा कर
दर्द से मुक्ति पा ली थी लेकिन अब तो केस भी नहीं हैं। समझ में नहीं आता, अब इससे कैसे मुक्ति मिलेगी। यहां के अंग्रेज़ डॉक्टरों को मैंने जानबूझ कर बचपन के
सिर दर्द और उसके दूर होने के उपाय के बारे में नहीं बताया है। मैं जानता हूं ये अंग्रेज तो मेरे इस अनोखे दर्द और उसके और भी अनोखे इलाज के बारे में सुन कर
तो मेरा मज़ाक उड़ायेंगे ही, गौरी और उसके घर वालों की निगाह में भी मैं दकियानूसी और अंधविश्वासी ही कहलाऊंगा। मैं ऐसे ही भला। बेचारी बेबे भी नहीं है जो
मेरे सिर में गर्म तेल चुपड़ दे और अपनी हथेलियों से मेरे सिर में थपकियां दे कर सुला ही दे।
अभी सो ही रहा हूं कि फोन की घंटी से नींद उचटी है। घड़ी देखता हूं, अभी सुबह के छः ही बजे हैं। गौरी बाथरूम में है। मुझे ही उठाना पड़ेगा।
- हैलो,
- नमस्ते दीप जी, सो रहे थे क्या?
एकदम परिचित सी आवाज, फिर भी लोकेट नहीं कर पा रहा हूं, कौन हैं जो इतनी बेतकल्लुफी से बात कर रही हैं।
- नमस्ते, मैं ठीक हूं लेकिन माफ कीजिये मैं पहचान नहीं पा रहा हूं आपकी आवाज....
- कोशिश कीजिये!
- पहले हमारी फोन पर बात हुई है क्या?
- हुई तो नहीं है।
- मुलाकात हुई है क्या?
- दो तीन बार तो हुई ही है।
- आप ही बता दीजिये, मैं पहचान नहीं पर रहा हूं।
- मैं मालविका हूं। मालविका ओबेराय।
- ओ हो मालविका जी। नमस्ते. आयम सौरी, मैं सचमुच ही पहचान नहीं पा रहा था, गौरी अकसर आपका ज़िक्र करती रहती है। कई बार सोचा भी कि आपकी तरफ आयें। इतने अरसे
बाद भी उसका दिपदिपाता सौन्दर्य मेरी आंंखों के आगे झिलमिलाने लगा है।
- लेकिन मैं शर्त लगा कर कह सकती हूं कि आपको हमारी कभी याद नहीं आयी होगी। शक्ल तो मेरी क्या ही याद होगी।
- नहीं, ऐसी बात तो नहीं है। दरअसल मुझे आपकी शक्ल बहुत अच्छी तरह से याद है, बस उस तरफ आना ही नहीं हो पाया। फिलहाल कहिये कैसे याद किया..कैसे कहूं कि जो
उन्हें एक बार देख ले, ज़िदंगी भर नहीं भूल सकता।
- आपका सिरदर्द कैसा है अब?
- अरे, आपको तो सारी खबरें मिलती रहती हैं।
- कम से कम आपकी खबर तो है मुझे, मैं आ नहीं पायी लेकिन मुझे पता चला, आप खासे परेशान हैं आजकल इस दर्द की वज़ह से।
- हां हूं तो सही, समझ में नहीं आ रहा, क्या हो गया है मुझे।
- गौरी से इतना भी न हुआ कि तुम्हें मेरे पास ही ले आती। अगर आपको योगाभ्यास में विश्वास हो तो आप हमारे यहां क्यों नहीं आते एक बार। वैसे तो आपको आराम आ
जाना चाहिये, अगर न भी आये तो भी कुछ ऐसी यौगिक क्रियाएं आपको बता दूंगी कि बेहतर महसूस करेंगे। योगाभ्यास के अलावा एक्यूप्रेशर है, नेचूरोपैथी है और दूसरी
भारतीय पद्धतियां हैं। जिसे भी आजमाना चाहें।
- ज़रूर आउंगा मैं। वैसे भी पचास तरह के टेस्ट कराके और ये दवाएं खा खा कर दुखी हो गया हूं।
- अच्छा एक काम कीजिये, मैं गौरी से खुद ही बात कर लेती हूं, आपको इस संडे लेती आयेगी। गौरी से बात करायेंगे क्या?
- गौरी अभी बाथरूम में है और अभी थोड़ी देर पहले ही गयी है। उसे कम से कम आधा घंटा और लगेगा।
- खैर उसे बता दीजिये कि मैंने फोन किया था। चलो इस बहाने आप से भी बात हो गयी। आपका इंतज़ार रहेगा।
- जरूर आयेंगे। गौरी के साथ ही आऊंगा।
- ओके , थैंक्स।
मालविका से मुलाकात अब याद आ रही है। गौरी के साथ ही गया था उनके सेन्टर में। नार्थ वेम्बले की तरफ़ था कहीं। गौरी के साथ एक - आध बार ही वहां जा पाया था।
जब हम वहां पहली बार गये थे तब मालविका एक लूज़ सा ट्रैक सूट पहने अपने स्टूडेंट्स को लैसन दे रही थी।
उन्हें देखते ही मेरी आंखें चुंधियां गयी थीं। मैं ज़िंदगी में पहली बार इतना सारा सौंदर्य एक साथ देख रहा था। भरी भरी आंखें, लम्बी लहराती केशराशि। मैं
संकोचवश उनकी तरफ देख भी नहीं पा रहा था। वे बेहद खूबसूरत थीं और उन्हें कहीं भी, कभी भी इग्नोर नहीं किया जा सकता था। मैं हैरान भी हुआ था कि रिसेप्शन में
मैं उनकी तरफ ध्यान कैसे नहीं दे पाया था।
गौरी ने उबारा था मुझे - कहां खो गये दीप, मालविका कब से आपको हैलो कर रही है। मैं झेंप गया था।
हमने मालविका से एपाइंटमेंट ले लिया है और आज उनसे मिलने जा रहे हैं। जब मैंने गौरी को मालविका का मैसेज दिया तो वह अफसोस करने लगी थी - मैं भी कैसी पागल
हूं। तुम इतने दिन से इस सिरदर्द से परेशान हो और हमने हर तरह का इलाज करके भी देख लिया लेकिन मुझे एक बार भी नहीं सूझा कि मालविका के पास ही चले चलते। आइ
कैन बैट, अब तक तुम ठीक भी हो चुके होते। ऐनी आउ, अभी भी देर नहीं हुई है।
मालविका जी हमारा ही इंतज़ार कर रही हैं। उन्होंने उठ कर हम दोनों का स्वागत किया है। दोनों से गर्मजोशी से हाथ मिलाया है और गौरी से नाराज़गी जतलायी है -
ये क्या है गौरी, आज कितने दिनों बाद दर्शन दे रही हो। तुमसे इतना भी न हुआ कि दीप जी को एक बार मेरे पास भी ला कर दिखला देती। ऐसा कौन-सा रोग है जिसका इलाज
योगाभ्यास न से किया जा सकता हो। अगर मुझे शिशिर जी ने न बताया होता तो मुझे तो कभी पता ही न चलता। वे मेरी तरफ देख कर मुस्कुरायी हैं।
गौरी ने हार मान ली है - क्या बताऊं मालविका, इनकी ये हालत देख-देख कर मैं परेशान थी कि हम ढंग से इनके मामूली सिरदर्द का इलाज भी नहीं करवा पा रहे हैं।
लेकिन बिलीव मी, मुझे एक बार भी नहीं सूझा कि इन्हें तुम्हारे पास ही ले आती।
- कैसे लाती, जब कि तुम खुद ही साल भर से इस तरफ नहीं आयी हो। अपनी चर्बी का हाल देख रही हो, कैसे लेयर पर लेयर चढ़ी जा रही है। खैर, आइये दीप जी, हमारी ये
नोक झोंक तो चलती ही रहेगी। पहले आप ही को एनरोल कर लिया जाये। वैसे तो आपको शादी के तुंरत बाद ये यहां आना शुरू करदेना चाहिये था।
मैं देख रहा हूं मालविका जी अभी भी उतनी ही स्मार्ट और सुंदर नज़र आ रही हैं। स्पॉटलैस ब्यूटी। मानना पड़ेगा कि योगाभ्यास का सबसे ज्यादा फायदा उन्हीं को
हुआ है।
उन्होंने मुझे एक फार्म दिया है भरने के लिए - जब तक कॉफी आये, आप यह फार्म भर दीजिये। हमारे सभी क्लायंट्स के लिए ज़रूरी होता है यह फार्म।
वे हँसी हैं - इससे हम कई उलटे-सीधे सवाल पूछने से बच जाते हैं। इस बीच मैं आपकी सारी मेडिकल रिपोर्ट्स देख लेती हूं। मैं फार्म भर रहा हूं। व्यक्तिगत
बायोडाटा के अलावा इसमें बीमारियों, एलर्जी, ईटिंग हैबिट्स वगैरह के बारे में ढेर सारे सवाल हैं। जिन सवालों के जवाब हां या ना में देने हैं, वे तो मैंने
आसानी से भर दिये हैं लेकिन बीमारी के कॉलम में मैं सिर दर्द लिख कर ठहर गया हूं। इसके अगले ही कालम में बीमारी की हिस्ट्री पूछी गयी है। समझ में नहीं आ
रहा, यहां पर क्या लिखूं मैं ? क्या बचपन वाले सिरदर्द का जिक्र करूं यहां पर।
मैंने इस कालम में लिख दिया है - बचपन में बहुत दर्द होता था लेकिन केस कटाने के बाद बिलकुल ठीक हो गया था। नीचे एक रिमार्क में यह भी लिख दिया है कि इस
बारे में बाकी डिटेल्स आमने सामने बात दूंगा। फार्म पूरा भर कर मैंने उसे मालविका जी को थमा दिया है। इस बीच कॉफी आ गयी है। कॉफी पीते-पीते वे मेरा भरा
फार्म सरसरी निगाह से देख रही हैं।
कॉफी खत्म करके उन्होंने गौरी से कहा है - अब तुम्हारी ड्यूटी खत्म गौरी। तुम जाओ। अब बाकी काम मेरा है। इन्हें यहां देर लगेगी। मैं बाद में तुमसे फोन पर
बात कर लूंगी। चाहो तो थोड़ी देर कुछ योगासन ही कर लो। गौरी ने इनकार कर दिया है और जाते-जाते हँसते हुए कह गयी है - अपना ख्याल रखना दीप, मालविका इज वेरी
स्ट्रिक्ट योगा टीचर। एक बार इनके हत्थे चढ़ गये तो ज़िंदगी भर के लिए किसी मुश्किल आसन में तुम्हारी गर्दन फंसा देगी।
मालविका जी ने नहले पर दहला मारा है - शायद इसीलिए तुम महीनों तक अपना चेहरा नहीं दिखातीं।
गौरी के जाने के बाद मालविका जी इत्मिनान के साथ मेरे सामने बैठ गयी हैं। मैं उनकी आंखों का तेज सहन करने में अपने आपको असमर्थ पा रहा हूं। मैं बहुत कम ऐसी
लड़कियों के सम्पर्क में आया हूं जो सीधे आंखें मिला कर बात करें।
वे मेरे सामने तन कर बैठी है।
पूछ रही हैं मुझसे - देखिये दीप जी, नैचुरोपैथी वगैरह में इलाज करने का हमारा तरीका थोड़ा अलग होता है। जब तक हमें रोग के कारण, उसकी मीयाद, उसके लक्षण
वगैरह के बारे में पूरी जानकारी न मिल जाये, हम इलाज नहीं कर सकते। इसके अलावा रोगी का टेम्परामेंट, उसकी मनस्थिति, रोग और उसके इलाज के प्रति उसके
दृष्टिकोण के बारे में भी जानना हमारे लिए और रोगी के लिए भी फायदेमंद होता है। तो जनाब, अब मामला यह बनता है कि आपने फार्म में बचपन में होने वाले दर्द का
जिक्र किया है और ये केस कटाने वाला मामला। आप उसके बारे में तो बतायेंगे ही, आप यह समझ लीजिये कि आप मालविका के सामने अपने-आपको पूरी तरह खोल कर रख देंगे।
यह आप ही के हित में होगा। आप निश्ंिचत रहें। आप का कहा गया एक-एक शब्द सिर्फ मुझ तक रहेगा और उसे मैं सिर्फ आपकी बेहतरी के लिए ही इस्तेमाल करूंगी।
मैं मंत्रमुग्ध सा उनके चेहरे पर आंखें गड़ाये उनका कहा गया एक एक शब्द सुन रहा हूं। वे धाराप्रवाह बोले जा रही हैं। उनके बोलने में भी सामने वाले को मंत्र
मुग्ध करने का ताकत है। मैं हैरान हूं, यहां लंदन में भी इतनी अच्छी हिन्दी बोलने वाले लोग रहते हैं।
वे कह रही हैं - दीप जी, अब आप बिलकुल नःसंकोच अपने बारे में जितना कुछ अभी बताना चाहें, बतायें। अगर अभी मन न हो, पहली ही मुलाकात में मेरे सामने इस तरह से
खुल कर बात करने का, तो कल, या किसी और दिन के लिए रख लेते है। यहां इस माहौल में बात न करना चाहें तो बाहर चलते हैं। लेकिन एक बात आप जान लें, आप के भले के
लिए ही कह रही हूं आप मुझ से कुछ भी छुपायेंगे नहीं । तो ठीक है ?
- ठीक है।
मैं समझ रहा हूं, इन अनुभवी और अपनत्व से भरी आंखों के आगे न तो कुछ छुपाया जा सकेगा और न ही झूठ ही बोला जा सकेगा।
- गुड। उन्होंने मेरी तरफ हाथ बढ़ाया है।
- समझ नहीं पा रहा हूं मालविका जी कि मैं अपनी बात किस तरह से शुरू करूं। दरअसल....
- ठहरिये, हम दूसरे कमरे में चलते हैं। वहीं आराम से बैठ कर बात करेंगे। ¸ú ›¸ ž¸ú ›¸ì ˆÅ
जूस, बीयर वगैरह हैं वहां फ्रिज में। किसी किस्म के तकल्लुफ की ज़रूरत नहीं है।
हम दूसरे कमरे में आ गये हैं और आरामदायक सोफों पर बैठ गये हैं। उन्होंने मुझे बोलने के लिए इशारा किया है।
मैं धीरे-धीरे बोलना शुरुकरता हूं - इस दर्द की भी बहुत लम्बी कहानी है मालविका जी। समझ में नहीं आ रहा, कहां से शुरू करूं। दरअसल आजतक मैंने किसी को भी
अपने बारे में सारे सच नहीं बताये हैं। किसी को एक सच बताया तो किसी दूसरे को उसी सच का दूसरा सिक्का दिखाया। मैं हमेशा दूसरों की नज़रों में बेचारा बनने से
बचता रहा। मुझे कोई तरस खाती निगाहों से देखे, मुझे बिलकुल भी पसंद नहीं है लेकिन आपने मुझे जिस संकट में डाल दिया है, पूरी बात बताये बिना नहीं चलेगा।
दरअसल मोना सिख हूं। सारी समस्या की जड़ ही मेरा सिख होना है। आपको यह जान कर ताज्जुब होगा कि मैंने सिर्फ चौदह साल की उम्र में घर छोड़ दिया था और आइआइटी,
कानपुर से एमटैक और फिर अमेरिका से पीएच डी तक पढ़ाई मैंने खुद के, अपने बलबूते पर की है। वैसे घर मैंने दो बार छोड़ा है। चौदह साल की उम्र में भी और
अट्ठाइस साल की उम्र में भी। पहली बार घर छोड़ने की कहानी भी बहुत अजीब है। विश्वास ही नहीं करेंगी आप कि इतनी-सी बात को लेकर भी घर छोड़ना पड़ सकता है।
हालांकि घर पर मेरे पिताजी, मां और दो छोटे भाई हैं और एक छोटी बहन थी। दुनिया की सबसे खूबसूरत और समझदार बहन गुड्डी जो कुछ अरसा पहले दहेज की बलि चढ़ गयी।
इस सदमे से मैं अब तक उबर नहीं सका हूं। मुझे लगता है, दोबारा सिरदर्द उखड़ने की वज़ह भी यही सदमा है। अपनी बहन के लिए सब कुछ करने के बाद भी मैं उसके लिए
खुशियां न खरीद सका। लाखों रुपये के दहेज के बाद भी उसकी ससुराल वालों की नीयत नहीं भरी थी और उन्होंने उस मासूम की जान ले ली। उस बेचारी की कोई तस्वीर भी
नहीं है मेरे पास। बहुत ब्राइट लड़की थी और बेहद खूबसूरत कविताएं लिखती थी। गुड्डी के जिक्र से मेरी आंखों में पानी आ गया है। गला रुंध गया है और मैं आगे
कुछ बोल ही नहीं पा रहा हूं। मालविका जी ने मेरे हाथ पर अपना हाथ रख दिया है।
मुझे थोड़ा वक्त लगता है अपने आपको संभालने में। मालविका जी की तरफ़ देखता हूं। वे आंखों ही आंखों में मेरा हौसला बढ़ाती हैं। मैं बात आगे बढ़ाता हूं -हां,
तो मैं अपने बचपन की बातें बता रहा था। मेरे पिता जी कारपेंटर थे और घर पर रह कर ही काम करते थे। हम लोगों का एक बहुत पुराना, बड़ा सा घर था। हमारे पिता जी
बहुत गुस्से वाले आदमी थे और गुस्सा आने पर किसी को भी नहीं बख्शते थे। आज भी अगर मैं गिनूं तो पहली बार घर छोड़ने तक, यानी तेरह-चौदह साल की उम्र तक मैं
जितनी मार उनसे खा चुका था उसके बीसियों निशान मैं आपको अभी भी गिन कर दिखा सकता हूं। तन पर भी और मन पर भी। गुस्से में वे अपनी जगह पर बैठे बैठे, जो भी
औजार हाथ में हो, वही दे मारते थे। उनके मारने की वजहें बहुत ही मामूली होती थीं। बेशक आखरी बार भी मैं घर से पिट कर ही रोता हुआ निकला था और उसके बाद पूरे
चौदह बरस बाद ही घर लौटा था। एक बार फिर घर छोड़ने के लिए। उसकी कहानी अलग है।
यह कहते हुए मेरा गला भर आया है और आंखें फिर डबडबा आयी हैं। कुछ रुक कर मैंने आगे कहना शुरुकिया है :
- बचपन में मेरे केश बहुत लम्बे, भारी और चमकीले थे। सबकी निगाह में ये केश जितने शानदार थे, मेरे लिए उतनी ही मुसीबत का कारण बने। बचपन में मेरा सिर बहुत
दुखता था। हर वक्त जैसे सिर में हथौड़े बजते रहते। एक पल के लिए भी चैन न मिलता। मैं सारा-सारा दिन इसी सिर दर्द की वजह से रोता। न पढ़ पाता, न खेल ही पाता।
दिल करता, सिर को दीवार से, फर्श से तब तक टकराता रहूं, जब तक इसके दो टुकड़े न हो जायें। मेरे दारजी मुझे डॉक्टर के पास ले जाते, बेबे सिर पर ढेर सारा गरम
तेल चुपड़ कर सिर की मालिश करती। थोड़ी देर के लिए आराम आ जाता लेकिन फिर वही सिर दर्द। स्कूल के सारे मास्टर वगैरह आस पास के मौहल्लों में ही रहते थे और
दारजी के पास कुछ न कुछ बनवाने के लिए आते रहते थे, इसलिए किसी तरह ठेलठाल कर पास तो कर दिया जाता, लेकिन पढ़ाई मेरे पल्ले खाक भी नहीं पड़ती थी। ध्यान ही
नहीं दे पाता था। डाक्टरों, वैद्यों, हकीमों के आधे अधूरे इलाज चलते, लेकिन आराम न आता। मुझे अपनी बाल बुद्धि से इसका एक ही इलाज समझ में आता कि ये केश ही
इस सारे सिरदर्द की वजह हैं। जाने क्यों यह बात मेरे मन में घर कर गयी थी कि जिस दिन मैं ये केश कटवा लूंगा, मेरा सिर दर्द अपने आप ठीक हो जायेगा। मैंने
एकाध बार दबी जबान में बेबे से इसका जिक्र किया भी था लेकिन बेबे ने दुत्कार दिया था - मरणे जोग्या, फिर यह बात मुंह से निकाली तो तेरी जुबान खींच लूंगी।
शायद रब्ब को कुछ और ही मंजूर था। एक दिन मैंने भी तय कर लिया, जुबान जाती है तो जाये, लेकिन ये सिरदर्द और बरदाश्त नहीं होता। ये केश ही सिरदर्द की जड़
हैं। इनसे छुटकारा पाना ही होगा। और मैं घर से बहुत दूर एक मेले में गया और वहां अपने केश कटवा आया। केश कटवाने के लिए भी मुझे खासा अच्छा खासा नाटक करना
पड़ा। पहले तो कोई नाई ही किसी सिख बच्चे के केश काटने को तैयार न हो। मैं अलग-अलग नाइयों के पास गया, लेकिन ये मेरी बात किसी ने न मानी। तब मैंने एक झूठ
बोला कि मैं मोना ही हूं और मेरे मां-बाप ने मानता मान रखी थी कि तेरह-चौदह साल तक तेरे बाल नहीं कटवायेंगे और तब तू बिना बताये ही बाल कटवा कर आना और मैंने
नाई के आगे इक्कीस रुपये रख दिये थे।
नाई बुदबुदाया था - बड़े अजीब हैं तेरी बिरादरी वाले। वह नाई बड़ी मुश्किल से तैयार हुआ था। उस दिन मैंने पहली बार घर में चोरी की थी। मैंने बेबे की गुल्लक
से बीस रुपये निकाले थे। एक रात पहले से ही मैं तय कर चुका था कि ये काम कर ही डालना है। चाहे जो हो जाये। एकाध बार दारजी के गुस्से का ख्याल आया था लेकिन
उनके गुस्से की तुलना में मेरी अपनी ज़िंदगी और पढ़ाई ज्यादा ज़रूरी थे।
वैसे हम लोग नियमित रूप से गुरूद्वारे जाते थे और वहां हमें पांच ककारों के महत्व के बारे में बताया ही जाता था। फिलहाल ये सारी चीजें दिमाग में बहुत पीछे
जा चुकी थीं।
जब मैं अपना गंजा सिर लेकर घर में घुसा था तो जैसे घर में तूफान आ गया था। मेरे घर वालों ने सपने में भी नहीं सोचा था कि यह घुन्ना-सा, हर बात पर मार खाने
वाला तेरह-चौदह साल का मरियल सा छोकरा सिक्खी धर्म के खिलाफ जा कर केश भी कटवा सकता है। मेरी बेबे को तो जैसे दौरा पड़ गया था और वह पछाड़ें खाने लगी थी।
सारा मौहल्ला हमारे अंागन में जमा हो गया था। मेरी जम कर कुटम्मस हुई थी। लानतें दी गयी थीं। मेरे दारजी ने उस दिन मुझे इतना पीटा था कि पिटते-पिटते मैं
फैसला कर चुका था कि अब इस घर में नहीं रहना है। वैसे अगर मैं यह फैसला न भी करता तो भी मुझसे घर छूटना ही था। दारजी ने उसी समय खड़े-खड़े मुझे घर से निकाल
दिया था। गुस्से में उन्होंने मेरे दो-चार जोड़ी फटे-पुराने कपड़े और मेरा स्कूल का बस्ता भी उठा कर बाहर फेंक दिये थे। मैं अपनी ये पूंजी उठाये दो-तीन घंटे
तक अपने मोहल्ले के बाहर तालाब के किनारे भूखा-प्यासा बैठा बिसूरता रहा था और मेरे सारे यार-दोस्त, मेरे दोनों छोटे भाई मेरे आस-पास घेरा बनाये खड़े थे।
उनकी निगाह में मैं अब एक अजूबा था जिसके सिर से सींग गायब हो गये थे।
उस दिन चौबीस सितम्बर थी। दिन था श्जाक्रवार। मेरी ज़िंदगी का सबसे काला और तकलीफ़देह दिन। इस चौबीस सितम्बर ने ज़िंदगी भर मेरा पीछा नहीं छोड़ा। हर साल यह
तारीख मुझे रुलाती रही, मुझे याद दिलाती रही कि पूरी दुनिया में मैं बिलकुल अकेला हूं। बेशक यतीम या बेचारा नहीं हूं लेकिन मेरी हालत उससे बेहतर भी नहीं है।
अपने मां-बाप के होते हुए दूसरों के रहमो-करम पर पलने वाले को आप और क्या कहेंगे? खैर, तो उस दिन दोपहर तक किसी ने भी मेरी खाने की सुध नहीं ली थी तो मैंने
भी तय कर लिया था, मैं इसी गंजे सिर से वह सब कर के दिखाऊंगा जो अब तक मेरे खानदान में किसी ने न किया हो। मेरे आंसू अचानक ही सूख गये थे और मैं फैसला कर
चुका था।
मैंने अपना सामान समेटा था और उठ कर चल दिया था। मेरे आस पास घेरा बना कर खड़े सभी लड़कों में हड़बड़ी मच गयी थी। इन लड़कों में मेरे अपने भाई भी थे। सब के
सब मेरे पीछे पीछे चल दिये थे कि मैं घर से भाग कर कहां जाता हूं। मैं काफी देर तक अलग अलग गलियों के चक्कर काटता रहा था ताकि वे सब थक हार कर वापिस लौट
जायें। इस चक्कर में शाम हो गयी थी तब जा कर लड़कों ने मुझे अकेला छोड़ा था। अकेले होते ही मैं सीधे अपने स्कूल के हैड मास्टरजी के घर गया था और रोते-रोते
उन्हें सारी बात बतायी थी। उनके पास जाने की वजह यह थी कि वे भी मोने सिख थे। हालांकि उनका पूरा खानदान सिखों का ही था और उनके घर वाले, ससुराल वाले कट्टर
सिख थे। वे मेरे दारजी के गुस्से से वाकिफ थे और मेरी सिरदर्द की तकलीफ से भी। मैंने उनके आगे सिर नवा दिया था कि मुझे दारजी ने घर से निकाल दिया है और मैं
अब आपके आसरे ही पढ़ना चाहता हूं। उन्होंने मेरे सिर पर हाथ फेरा था। वे भले आदमी थे। मेरा दृढ़ निश्चय देख कर दिलासा दी थी कि पुत्तर तूं चिंता न कर। मैं
तेरी पढ़ाई-लिखाई का पूरा इंतजाम कर दूंगा। अच्छा होता तेरे घर वाले तेरी तकलीफ को समझते और तेरा इलाज कराते। खैर जो ऊपर वाले को मंजूर। उन्होंने तब मेरे
नहाने-धोने का इंतज़ाम किया था और मुझे खाना खिलाया था। उस रात मैं उन्हीं के घर सोया था। शाम के वक्त वे हमारे मोहल्ले की तरफ एक चक्कर काटने गये थे कि पता
चले, कहीं मेरे दारजी वगैरह मुझे खोज तो नहीं रहे हैं। उन्होंने सोचा था कि अगर वे लोग वाकई मेरे लिए परेशान होंगे तो वे उन लोगों को समझायेंगे और मुझे घर
लौटने के लिए मनायेंगे। शायद तब मैं भी मान जाता, लेकिन लौट कर उन्होंने जो कुछ बताया था, उससे मेरा घर न लौटने का फैसला मज़बूत ही हुआ था। गली में सन्नाटा
था और किसी भी तरह की कोई भी सुगबुगाहट नहीं थी। हमारा दरवाजा बंद था। हो सकता है भीतर मेरी बेबे और छोटे भाई वगैरह रोना-धोना मचा रहे हों, लेकिन बाहर से
कुछ भी पता नहीं चल पाया था। रात के वक्त वे एक चक्कर कोतवाली की तरफ भी लगा आये थे - दारजी ने मेरे गुम होने की रिपोर्ट नहीं लिखवायी थी। अगले दिन सुबह -
सुबह ही वे एक बार फिर हमारे मोहल्ले की तरफ चक्कर लगा आये थे, लेकिन वहां कोई भी मेरी गैर-मौजूदगी को महसूस नहीं कर रहा था। वहां सब कुछ सामान्य चल रहा था।
तब वे एक बार फिर कोतवाली भी हो आये थे कि वहां कोई किसी बच्चे के गुम होने की रिपोर्ट तो नहीं लिखवा गया है। वहां ऐसी कोई रिपोर्ट दर्ज नहीं करायी गयी थी।
उन्होंने तब मेरे भविष्य का फैसला कर लिया था। पास ही के शहर सहारनपुर में रहने वाले अपने ससुर के नाम एक चिट्ठी दी थी और मुझे उसी दिन बस में बिठा दिया था।
इस तरह मैं उनसे दूर होते हुए भी उनकी निगरानी में रह सकता था और जरूरत पड़ने पर वापिस भी बुलवाया जा सकता था। उनके ससुर वहां सबसे बड़े गुरुद्वारे की
प्रबंधक कमेटी के कर्त्ताधर्ता थे और उनके तीन-चार स्कूल चलते थे। ससुर साहब ने अपने दामाद की चिट्ठी पढ़ते ही मेरे रहने खाने का इंतजाम कर दिया था। मेरी
किस्मत खराब थी कि उनके ससुर उतने ही काइयां आदमी थे। वे चाहते तो मेरी सारी समस्याएं हल कर सकते थे। वहीं गुरूद्वारे में मेरे रहने और खाने का इंतजाम कर
सकते थे, मेरी फीस माफ करवा सकते थे, लेकिन उन्होंने ऐसा कुछ भी नहीं किया था। उन्होंने मुझे अपने ही घर में रख लिया था। बेशक स्कूल में मेरा नाम लिखवा दिया
था लेकिन न तो मैं नियमित रूप से स्कूल जा पाता था और न ही पढ़ ही पाता था। हैड मास्टर साहब ने तो अपने ससुर के पास मुझे पढ़ाने के हिसाब से भेजा था लेकिन
यहां मेरी हैसियत घरेलू नौकर की हो गयी थी। मैं दिन भर खटता, घर भर के उलटे सीधे काम करता और रात को बाबाजी के पैर दबाता। खाने के नाम पर यही तसल्ली थी कि
दोनें वक्त खाना गुरूद्वारे के लंगर से आता था सो पेट किसी तरह भर ही जाता था। असली तकलीफ पढ़ाई की थी जिसका नाम सुनते ही बाबा जी दस तरह के बहाने बनाते।
मैं अब सचमुच पछताने लगा था कि मैं बेकार ही घर से भाग कर आया। वहीं दारजी की मार खाते पड़ा रहता, लेकिन फिर ख्याल आता, यहां कोई कम से कम मारता तो नहीं।
इसके अलावा मैंने यह भी देखा मैं इस तरह घर का नौकर ही बना रहा तो अब तक का पढ़ा-लिखा सब भूल जाऊंगा और यहां तो ज़िदगी भर मुफ्त का घरेलू नौकर ही बन कर रह
जाउं€गा तो मैंने तय किया, यहां भी नहीं रहना है। जब अपना घर छोड़ दिया, उस घर से मोह नहीं पाला तो बाबा जी के पराये घर से कैसा मोह। मैंने वहां से भी
चुपचाप भाग जाने का फैसला किया। मैंने सोचा कि अगर यहां सिंह सभा गुरूद्वारा और स्कूल एक साथ चलाती है तो दूसरे शहरों में भी चलाती ही होगी।
तो एक रात मैं वहां से भी भाग निकला। बाबाजी के यहां से भागा तो किसी तरह मेहनत-मजदूरी करते हुए, कुलीगिरी करते हुए, ट्रकों में लिफ्ट लेते हुए आखिर मणिकर्ण
जा पहुंचा। इस लम्बी, थकान भरी और तरह तरह के ट्टे मीठे अनुभवों से भरी मेरी ज़िंदगी की सबसे लम्बी अकेली यात्रा में मुझे सत्रह दिन लगे थे। वहां पहुंचते ही
पहला झूठ बोला कि हमारे गांव में आयी बाढ़ में परिवार के सब लोग बह गये हैं। अब दुनिया में बिलकुल अकेला हूं और आगे पढ़ना चाहता हूं। यह नाटक करते समय बहुत
रोया। यह जगह मुझे पसंद आयी थी और आगे कई साल तक साल की यानी जिस कक्षा तक का स्कूल हो, वहीं से पढ़ाई करने का फैसला मैं मन-ही-मन कर चुका था। इसलिए ये नाटक
करना पड़ा।
वहां मुझे अपना लिया गया था। मेरे रहने-खाने की स्थायी व्यवस्था कर दी गयी थी और एक मामूली-सा टेस्ट लेकर मुझे वहां के स्कूल में सातवीं में दाखिला दे दिया
गया था। मेरी ज़िंदगी की गाड़ी अब एक बार फिर से पटरी पर आ गयी थी। अब मैं सिर पर हर समय पटका बांधे रहता। एक बार फिर मैं अपनी छूटी हुई पढ़ाई में जुट गया
था। स्कूल से फुर्सत मिलते ही सारा वक्त गुरूद्वारे में ही बिताता। बहुत बड़ा गुरूद्वारा था। वहां रोजाना बसों और कारों में भर भर कर तीर्थ यात्री आते और
खूब चहल-पहल होती। वे एक आध दिन ठहरते और लौट जाते। मुझे अगली व्यवस्था तक यहीं रहना था और इसके लिए ज़रूरी था कि सब का दिल जीत कर रहूं। कई बार बसों या
कारों में आने वाले यात्रियों का सामान उठवा कर रखवा देता तो थोड़े बहुत पैसे मिल जाते। सब लोग मेरे व्यवहार से खुश रहते। वहां मेरी तरह और भी कई लड़के थे
लेकिन उनमें से कुछ वाकई गरीब घरों से आये थे या सचमुच यतीम थे। मैं अच्छे भले घर का, मां बाप के होते हुए यतीम था।
अब मेरी ज़िंदगी का एक ही मकसद रह गया था। पढ़ना, और सिर्फ पढ़ना। मुझे पता नहीं कि यह मेरा विश्वास था या कोई जादू, मुझे सिरदर्द से पूरी तरह मुक्ति मिल
चुकी थी। वहां का मौसम, ठंड, लगातार पड़ती बर्फ, पार्वती नदी का किनारा, गर्म पानी के सोते और साफ-सुथरी हवा जैसे इन्हीं अच्छी अच्छी चीजों से जीवन सार्थक
हो चला था। यहां किसी भी किस्म की कोई चिंता नहीं थी। स्कूल से लौटते ही मैं अपने हिस्से के काम करके पढ़ने बैठ जाता। मुझे अपनी बेबे, बहन और छोटे भाइयों की
बहुत याद आती थी। अके ले में मैं रोता था कि चाह कर भी उनसे मिलने नहीं जा सकता था, लेकिन मेरी भी जिद थी कि मुझे घर से निकाला गया है, मैंने खुद घर नहीं
छोड़ा है। मुझे वापिस बुलाया जायेगा तभी जाउं€गा।
मैं हर साल अपनी कक्षा में फर्स्ट आता। चौथे बरस मैं हाई स्कूल में अपने स्कू ल में अव्वल आया था। मुझे ढेरों ईनाम और वजीफा मिले थे।
हाई स्कूल कर लेने के बाद एक बार फिर मेरे सामने रहने-खाने और आगे पढ़ने की समस्या आ खड़ी हुई थी। यहां सिर्फ दसवीं तक का ही स्कूल था। बारहवीं के लिए नीचे
मैदानों में उतरना पड़ता। मणिकर्ण का शांत, भरपूर प्राकृतिक सौन्दर्य से भरा वातावरण और गुरुद्वारे का भत्तिरस से युक्त पारिवारिक वातावरण भी छोड़ने का संकट
था।
मैं अब तक के अनुभवों से बहुत कुछ सीख चुका था और आगे पढ़ने के एकमात्र उद्देश्य से इन सारी नयी समस्याओं के लिए तैयार था। छोटे मोटे काम करके मैंने अब तक
इतने पैसे जमा कर लिये थे कि दो-तीन महीने आराम से कहीं कमरा ले कर काट सकूं। अट्ठारह साल का होने को आया था। दुनिया भर के हर तरह के लोगों से मिलते-जुलते
मैं बहुत कुछ सीख चुका था। वजीफा था ही। सौ रुपये प्रबंधक कमेटी ने हर महीने भेजने का वायदा कर दिया था।
तभी संयोग से अमृतसर से एक इंटर कॉलेज का एक स्कूली ग्रुप वहां आया। मेरे अनुरोध पर हमारे प्रधान जी ने उनके इन्चार्ज के सामने मेरी समस्या रखी। यहां रहते
हुए साढ़े तीन-चार साल होने को आये थे। मेरी तरह के तीन-चार और भी लड़के थे जो आगे पढ़ना चाहते थे। हमारे प्रधान जी ने हमारी सिफारिश की थी कि हो सके तो इन
बच्चों का भला कर दो। हमारी किस्मत अच्छी थी कि हम चारों ही उस ग्रुप के साथ अमृतसर आ गये।
मणिकर्ण का वह गुरूद्वारा छोड़ते समय मैं एक बार फिर बहुत रोया था लेकिन इस बार मैं अके ला नहीं था रोने वाला और रोने की वज़ह भी अलग थी। मैं अपनी और सबकी
खुशी के लिए, एक बेहतर भविष्य के लिए आगे जा रहा था।
अब मेरे सामने एक और बड़ी दुनिया थी। यहां आकर हमारे रहने खाने की व्यवस्था अलग-अलग गुरसिक्खी घरों में कर दी गयी थी और हम अब उन घरों के सदस्य की तरह हो
गये थे। हमें अब वहीं रहते हुए पढ़ाई करनी थी।
जहां मैं रहता था, वे लोग बहुत अच्छे थे। बेशक यह किसी के रहमो-करम पर पलने जैसा था और मेरा बाल मन कई बार मुझे धिक्कारता कि मैं क्यों अपना घर-बार छोड़ कर
दूसरों के आसरे पड़ा हुआ हूं, लेकिन मेरे पास जो उपाय था, घर लौट जाने का, वह मुझे मंज़ूर नहीं था। और कोई विकल्प ही नहीं था। मैं उनके छोटे बच्चों को
पढ़ाता और जी-जान से उनकी सेवा करके अपनी आत्मा के बोझ को कम करता।
मैं एक बार फिर पढ़ाईद में जी-जान से जुट गया था। इंटर में मैं पूरे अमृतसर में फर्स्ट आया था। घर छोड़े मुझे छ: साल होने को आये थे, लेकिन सिर्फ कुछ सौ मील
के फासले पर मैं नहीं गया था। अखबारों में मेरी तस्वीर छपी थी। जिस घर में मैं रहता था, उन लोगों की खुशी का ठिकाना नहीं था। इसके बावज़ूद मैं उस रात खूब
रोया था।
मुझे मेरा चाहा सब कुछ मिल रहा था और ये सब घर परिवार त्यागने के बाद ही। मैं मन ही मन चाहने लगा था कि घर से कोई आये और मेरे कान पकड़ कर लिवा ले जाये जबकि
मुझे मालूम था कि उन्हें मेरी इस सफलता की खबर थी ही नहीं। मुझे तो यह भी पता नहीं था कि उन्होंने कभी मेरी खोज-खबर भी ली थी या नहीं। आइआइटी, कानपुर में
इंजीनियरिडग में एडमिशन मिल जाने के बाद मेरी बहुत इच्छा थी कि मैं अपने घर जाऊं लेकिन संकट वही था, मैं ही क्यों झुकूं। मैं बहुत रोया था लेकिन घर नहीं गया
था। घर की कोई खबर नहीं थी मेरे पास। मेरी बहुत इच्छा थी कि कम-से-कम अपने गॉडफादर हैड मास्टर साहब से ही मिलने चला जाऊं लेकिन हो नहीं पाया था। मैं जानता
था कि वे इतने बरसों से उनके मन पर भी इस बात का बोझ तो होगा ही कि उनके ससुर ने मेरे साथ इस तरह का व्यवहार करके मुझे घर छोड़ने पर मज़बूर कर दिया था तो
मैं कहां गया होऊंगा। मैंने अपने वचन का मान रखा था। उन्हीं के आशीर्वाद से इंजीनियर होने जा रहा था। तब मैंने बहुत सोच कर उन्हें एक ग्रीटिंग कार्ड भेज
दिया था। सिर्फ अपना नाम लिखा था, पता नहीं दिया था। बाद में घर जाने पर ही पता चला था कि वे मेरा कार्ड मिलने से पहले ही गुज़र चुके थे।
अगले चार छ: साल तक मैं खूद को जस्टीफाई करता रहा कि मुझे कुछ कर के दिखाना है। आप हैरान होंगी मालविका जी कि इन बरसों में मुझे शायद ही कभी फुर्सत मिली हो।
मैं हमेशा खटता रहा। कुछ न कुछ करता रहा। बच्चों को पढ़ाता रहा। आपको बताऊं कि मैंने बेशक बीटेक और एमटैक किया है, पीएच डी की है, लेकिन गुरूद्वारे में रहते
हुए, अमृतसर में भी और बाद में आइआइटी कानपुर में पढ़ते हुए भी मैं बराबर ऐसे काम धंधे भी सीखता रहा और करता भी रहा जो एक कम पढ़ा-लिखा आदमी जानता है या
रोज़ी-रोटी कमाने के लिए सीखता है। मैं ज़रा-सी भी फ़ुर्सत मिलने पर ऐसे काम सीखता था। मुझे चारपाई बुनना, चप्पलों की मरम्मत करना, जूते तैयार करना, कपड़े
रंगना, बच्चों के खिलौने बनाना या कारपेंटरी का मेरा खानदानी काम ये बीसियों धंधे आते हैं। मैं बिजली की सारी बिगड़ी चीजें दुरुस्त कर सकता हूं। बेशक मुझे
पतंग उड़ाना या क्रिकेट खेलना नहीं आता लेकिन मैं हर तरह का खाना बना सकता हूं और घर की रंगाई-पुताई बखूबी कर सकता हूं। इतने लम्बे अरसे में मैंने शायद ही
कोई फिल्म देखी हो, कोई आवारागर्दी की हो या पढ़ाई के अलावा और किसी बात के बारे में सोचा हो लेकिन ज़रूरत पड़ने पर मैं आज भी छोटे से छोटा काम करने में
हिचकता नहीं। साथ में पढ़ने वाले लड़के अक्सर छेड़ते - ओये, तू जितनी भी मेहनत करे, अपना माथा फोड़े या दुनिया भर के ध्ंाधे करे या सीखे, मज़े तेरे हिस्से
में न अब लिखे हैं और न बाद में ही तू मज़े ले पायेगा। तू तब भी बीवी बच्चों के लिए इसी तरह खटता रहेगा। तब तो मैं उनकी बात मज़ाक में उड़ा दिया करता था,
लेकिन अब कई बार लगता है, गलत वे भी नहीं थे। मेरे हिस्से में न तो मेरी पसंद का जीवन आया है और न घर ही। अपना कहने को कुछ भी तो नहीं है मेरे पास। एक दोस्त
तक नहीं है।
मैं रुका हूं। देख रहा हूं, मालविका जी बिना पलक झपकाये ध्यान से मेरी बात सुन रही हैं। शायद इतने अच्छे श्रोता के कारण ही मैं इतनी देर तक अपनी नितांत
व्यक्तिगत बातें उनसे शेयर कर पा रहा हूं।
- दोबारा घर जाने के बारे में कुछ बताइये, वे कहती हैं।
उन्हें संक्षेप में बताता हूं दोबारा घर जाने से पहले की बेचैनी की, अकु लाहट की बातें और घर से एक बार फिर से बेघर हो कर लौट कर आने की बात।
- और गुड्डी?
- मुझे लगता है मैंने ज़िंदगी में जितनी गलतियां की हैं, उनमें से जिस गलती के लिए मैं खुद को कभी भी माफ नहीं कर पाऊंगा, वह थी कि घर से दोबारा लौटने के
दिन अगर मैं गुड्डी को भी अपने साथ बंबई ले आता तो शायद ज़िंदगी के सारे हादसे खत्म हो जाते। मेरी ज़िंदगी ने भी बेहतर रुख लिया होता और मैं गुड्डी को बचा
पाता। उसकी पढ़ाई लिखाई पूरी हो पाती, लेकिन ....
- अपने प्रेम प्रसंगों के बारे में कुछ बताइये।
- मेरा विश्वास कीजिये, इस सिर दर्द का मेरे प्रेम प्रसंगों के होने या न होने से कोई संबंध नहीं है।
लगता है आपसे आपके प्रेम प्रसंग सुनने के लिए आपको कोई रिश्वत देनी पड़ेगी। चलिए एक काम करते हैं, कल हम लंच एक साथ ही लेंगे। वे हॅसी हैं - घबराइये नहीं,
लंच के पैसे भी मैं कन्सलटेंसी में जोड़ दूंगी। कहिये, ठीक रहेगा?
- अब आपकी बात मैं कैसे टाल सकता हूं।
- आप यहीं आयेंगे या आपको आपके घर से ही पिक-अप कर लूं?
- जैसा आप ठीक समझें।
- आप यहीं आ जायें। एक साथ चलेंगे।
- चलेगा, भला मुझे क्या एतराज हो सकता है।
मालविका जी लंच के लिए जिस जगह ले कर आयी हैं, वह शहरी माहौल से बहुत दूर वुडफोर्ड के इलाके में है। भारतीय रेस्तरां है यह। नाम है चोर बाज़ार। बेशक लंदन
में है लेकिन रेस्तरां के भीतर आ जाने के बाद पता ही नहीं चलता, हम लंदन में हैं या चंडीगढ़ के बाहर हाइवे के किसी अच्छे से रेस्तरां में बैठे हैं। जगह की
तारीफ करते हुए पूछता हूं मैं - ये इतनी शानदार जगह कैसे खोज ली आपने ? मुझे तो आज तक इसके बारे में पता नहीं चल पाया।
हंसती हैं मालविका जी - घर से बाहर निकलो तो कुछ मिले।
बहुत ही स्वादिष्ट और रुचिकर भोजन है। खाना खाते समय मुझे सहसा गोल्डी की याद आ गयी है। उसके साथ ही भटकते हुए मैंने बंबई के अलग-अलग होटलों में खाने का
असली स्वाद लिया था। पता नहीं क्यों गोल्डी के बारे में सोचना अच्छा लग रहा है। उसकी याद भी आयी तो कहां और कैसी जगह पर। कहां होगी वह इस समय?
इच्छा होती है मालविका जी को उसके बारे में बताऊं। मैं बताऊं उन्हें, इससे पहले ही उन्होंने पूछ लिया है -किसके बारे में सोच रहे हैं दीप जी? क्या कोई खास
थी?
बताता हूं उन्हें - मालविका जी, कल आप मेरे प्रेम प्रसंगों के बारे में पूछ रही थीं।
- मैं आपको यहां लायी ही इसलिए थी कि आप अपने प्रेम प्रसंगों के बारे में खुद ही बतायें। मेरा मिशन सफल रहा, आप बिलकुल सहज हो कर उस लड़की के बारे में
बतायें जिस की याद आपको यह स्वादिष्ट खाना खाते समय आ गयी है। ज़रूर आप लोग साथ-साथ खाना खाने नयी-नयी जगहों पर जाते रहे होंगे।
- अक्सर तो नहीं लेकिन हां, कई बार जाते थे।
- क्या नाम था उसका ?
- गोल्डी, वह हमारे घर के पास ही रहने आयी थी।
मैं मालविका जी को गेल्डी से पहली मुलाकात से आखिरी तय लेकिन न हो पायी मुलाकात की सारी बातें विस्तार से बताता हूं। इसी सिलसिले में अलका दीदी और देवेद्र
जी का भी ज़िक्र आ गया है। मैं उनके बारे में भी बताता हूं।
हम खाना खा कर बाहर आ गये हैं। वापिस आते समय भी वे कोई न कोई ऐसा सवाल पूछ लेती हैं जिससे मेरे अतीत का कोई नया ही पहलू खुल कर सामने आ जाता है। बातें घूम
फिर कर कभी गोलू पर आ जाती हैं तो कभी गुड्डी पर। मेरी एक बात खत्म नहीं हुई होती कि उसे दूसरी तरफ मोड़ देती हैं। मैं समझ नहीं पा रहा हूं, वे मुझमें और
मुझसे जुड़ी भूली बिसरी बातों में इतनी दिलचस्पी क्यों ले रही हैं। वैसे एक बात तो है कि उनसे बात करना अच्छा लग रहा है। कभी किसी से इतनी बातें करने का
मौका ही नहीं मिला। हर बार यही समझता रहा, सामने वाला कहीं मेरी व्यथा कथा सुन कर मुझ पर तरस न खाने लगे। इसी डर से किसी को अपने भीतर के अंधेरे कोनों में
मैंने झांकने ही नहीं दिया।
मालविका जी की बात ही अलग लगती है। वे बिलकुल भी ये नहीं जतलातीं कि वे आपको छोटा महसूस करा रही हैं या आप पर तरस खा रही हैं।
जब उन्होंने मुझे घर पर ड्रॉप करने के लिए गाड़ी रोकी है तो मुझे फिर से गोल्डी की बातें याद आ गयी हैं।
मैंने यूं ही मालविका जी से पूछ लिया है - भीतर आ कर इस बंदे के हाथ की कॉफी पी कर कुछ कमेंट नहीं करना चाहेंगी?
उन्होंने हँसते हुए गाड़ी का इंजन बंद कर दिया है और कह रही हैं - मैं इंतज़ार कर रही थी कि आप कहें और मैं आपके हाथ की कॉफी पीने के लिए भीतर आऊं। चलिये,
आज आपकी मेहमाननवाज़ी भी देख ली जाये।
वे भीतर आयी हैं।
बता रही हैं -गौरी के मम्मी पापा वाले घर में तो कई बार जाना हुआ लेकिन यहां आना नहीं हो पाया। आज आपके बहाने आ गयी।
- आपसे पहले परिचय हुआ होता तो पहले ही बुला लेते। खैर, खुश आमदीद।
जब तक मैं कॉफी बनाऊं, वे पूरे फ्लैट का एक चक्कर लगा आयी हैं।
पूछ रही हैं वे - मैं गौरी के एस्थेटिक सैंस से अच्छी तरह से परिचित हूं, घर की ये साज-सज्जा कम से कम उसकी की हुई तो नहीं है और न लंदन में इस तरह की
इंटीरियर करने वाली एजेंसियां ही हैं। आप तो छुपे रुस्तम निक ले। मुझे नहीं पता था, आप ये सब भी जानते हैं। बहुत खूब। ग्रेट।
मैं क्या जवाब दूं - बस, ये तो सब यूं ही चलता रहता है। जब भी मैं अपने घर की कल्पना करता था तो सोचता था, बैडरूम ऐसे होगा हमारा और ड्रंइगरूम और स्टडी ऐसे
होंगे। अब जो भी बन पड़ा...।
- क्यों, क्या इस घर से अपने घर वाली भावना नहीं जुड़ती क्या?
- अपना घर न समझता तो ये सब करता क्या? मैंने कह तो दिया है, लेकिन मैं जानता हूं कि उन्होंने मेरी बदली हुई टोन से ताड़ लिया है, मैं सच नहीं कह रहा हूं ।
- एक और व्यक्तिगत सवाल पूछ रही हूं, गौरी से आपके संबंध कैसे हैं?
मैं हँस कर उनकी बात टालने की कोशिश करता हूं - आज के इन्टरव्यू का समय समाप्त हो चुका है मैडम। हम प्रोग्राम के बाद की ही कॉफी ले रहे हैं।
- बहुत शातिर हैं आप, जब आपको जवाब नहीं होता तो कैसा बढ़िया कमर्शियल ब्रेक लगा देते हैं। खैर, बच के कहां जायेंगे। अभी तो हमने आधे सवाल भी नहीं पूछे।
मालविका जी के सवालों से मेरी मुक्ति नहीं है। पिछले महीने भर से उनसे बीच-बीच में मुलाकात होती ही रही है। हालांकि उन्होंने इलाज या योगाभ्यास के नाम पर
अभी तक मुझे दो-चार आसन ही कराये हैं लेकिन उन्होंने एक अलग ही तरह की राय देकर मुझे एक तरह से चौंका ही दिया है। उन्होंने मुझे डायरी लिखने के लिए कहा है।
डायरी भी आज की नहीं, बल्कि अपने अतीत की, भूले बिसरे दिनों की। जो कुछ मेरे साथ हुआ, उसे ज्यों का त्यों दर्ज करने के लिए कहा है। अलबत्ता, उन्होंने मुझसे
गौरी के साथ मेरे संबंधों में चल रही खटास के बारे में राई रत्ती उगलवा लिया है। बेशक उन सारी बातों पर अपनी तरफ से एक शब्द भी नहीं कहा है। इसके अलावा
ससुराल की तरफ से मेरे साथ जो कुछ भी किया गया या किस तरह से शिशिर ने मेरे कठिन वक्त में मेरा साथ दिया, ये सारी बातें मैंने डायरी में बाद में लिखी हैं,
उन्हें पहले बतायी हैं। डायरी लिखने का मैंने यही तरीका अपनाया है। उनसे दिन में आमने-सामने या फोन पर जो भी बात होती है, वही डायरी में लिख लेता हूं। मेरा
सिरदर्द अब पहले की तुलना में काफी कम हो चुका है। गौरी भी हैरान है कि मात्र दो-चार योग आसनों से भला इतना भयंकर सिरदर्द कैसे जा सकता है। लेकिन मैं ही
जानता हूं कि ये सिरदर्द योगासनों से तो नहीं ही गया है। अब मुझे मालविका जी का इलाज करने का तरीका भी समझ में आ गया है। मैंने उनसे इस बारे में जब पूछा कि
आप मेरा इलाज कब शुरू करेंगी तो वे हँसी थीं - आप भी अच्छे-खासे सरदार हैं। ये सब क्या है जो मैं इतने दिनों से कर रही हूं। ये इलाज ही तो चल रहा है आपका।
आप ही बताइये, आज तक आपका न केवल सिरदर्द गायब हो रहा है बल्कि आप ज्यादा उत्साहित और खुश-खुश नज़र आने लगे हैं। बेशक कुछ चीज़ों पर मेरा बस नहीं है लेकिन
जितना हो सका है, आप अब पहले वाली हालत में तो नहीं हैं। है ना यही बात?
- तो आपकी निगाह में मेरे सिरदर्द की वज़ह क्या थी?
- अब आप सुनना ही चाहते हैं तो सुनिये, आपको दरअसल कोई बीमारी ही नहीं थी। आपके साथ तीन-चार तकलीफ़ें एक साथ हो गयी थीं। पहली बात तो ये कि आप ज़िंदगी भर
अकेले रहे, अकेले जूझते भी रहे और कुढ़ते भी रहे। संयोग से आपने अपने आस-पास वालों से जब भी कुछ चाहा, या मांगा, चूंकि वो आपकी बंधी बंधायी जीवन शैली से मेल
नहीं खाता था, इसलिए आपको हमेशा लगता रहा, आप छले गये हैं। आप कभी भी व्यावहारिक नहीं रहे इसलिए आपको सामने वाले का पक्ष हमेशा ही गलत लगता रहा। ऐसा नहीं है
कि आपके साथ ज्यादतियां नहीं हुईं होंगी। वो तो हुई ही हैं लेकिन उन सबको देखने-समझने और उन्हें जीवन में ढालने के तरीके आपके अपने ही थे। दरअसल आप ज़िंदगी
से कुछ ज्यादा ही उम्मीदें लगा बैठे थे इसलिए सब कुछ आपके खिलाफ़ होता चला गया। जहां आपको मौका मिला, आप पलायन कर गये और जहां नहीं मिला, वहां आप सिरदर्द से
पीड़ित हो गये। आप कुछ हद तक वहम रोग जिसे अंग्रेजी में हाइपोकाँड्रियाक कहते हैं, के रोगी होते चले जा रहे थे। दूसरी दिक्कत आपके साथ यह रही कि आप कभी भी
किसी से भी अपनी तकलीफें शेयर नहीं कर पाये। करना चाहते थे और जब करने का वक्त आया तो या तो लोग आपको सुनने को तैयार नहीं थे और जहां तैयार थे, वहां आप तरस
खाने से बचना चाहते हुए उनसे झूठ-मूठ के किस्से सुना कर उन्हें भी और खुद को भी बहलाते रहे। क्या गलत कह रही हूं मैं?
- माई गॉड, आपने तो मेरी सारी पोल ही खोल कर रख दी। मैंने तो कभी इस निगाह से अपने आपको देखा ही नहीं।
- तभी तो आपका यह हाल है। कब से दर-बदर हो कर भटक रहे हैं और आपको कोई राह नहीं सूझती।
- आपने तो मेरी आंखें ही खोल दीं। मैं अब तक कितने बड़े भ्रम में जी रहा था कि हर बार मैं ही सही था।
- वैसे आप हर बात गलत भी नहीं थे लेकिन आपको ये बताता कौन। आपने किसी पर भी भरोसा ही नहीं किया कभी। आपको बेचारा बनने से एलर्जी जो थी। है ना..।
- आपको तो सारी बातें बतायी ही हैं ना..।
- तो राह भी तो हमने ही सुझायी है।
- उसके लिए तो मैं आपका अहसान ज़िंदगी भी नहीं भूलूंगा।
- अगर मैं कहूं कि मुझे भी सिर्फ इसी शब्द से चिढ़ है तो..?
- ठीक है नहीं कहेंगे।
मालविका जी से जब से मुलाकात हुई है, ज़िंदगी के प्रति मेरा नज़रिया ही बदल गया है। मैंने अब अपने बारे में भी सोचना शुरुकर दिया है और अपने आबजर्वेशन अपनी
डायरी में लिख रहा हूं। मैं एक और चार्ट बना रहा हूं कि मैंने ज़िंदगी में कब-कब गलत फैसले किये और बाद में धोखा खाया या कब कब कोई फैसला ही नहीं किया और अब
तक पछता रहा हूं। ये डायरी एक तरह से मेरा कन्फैशन है मेरे ही सामने और मैं इसके आधार पर अपनी ज़िंदगी को बेहतर तरीके से संवारना चाहता हूं।
बेशक मुझे अब तक सिरदर्द से काफी हद तक आराम मिल चुका है और मैं अपने आपको मानसिक और शारीरिक रूप से स्वस्थ भी महसूस कर रहा हूं फिर भी गौरी से मेरे संबंधों
की पटरी नहीं बैठ पा रही है। जब से उसने देखा है कि मुझे सिरदर्द से आराम आ गया है मेरे प्रति उसका लापरवाही वाला व्यवहार फिर श्जारू हो गया है। मैं एक बार
फिर अपने हाल पर अकेला छोड़ दिया गया हुं। स्टोर्स जाता हूं लेकिन उतना ही ध्यान देता हूं जितने से काम चल जाये। ज्यादा मारामारी नहीं करता। मैं अब अपनी तरफ
ज्यादा ध्यान देने लगा हूं। बेशक मेरे पास बहुत अधिक पाउंड नहीं बचे हैं फिर भी मैंने मालविका जी को बहुत आग्रह करके एक शानदार ओवरकोट दिलवाया है।
इसी हफ्ते गौरी की बुआ की लड़की पुष्पा की शादी है। मैनचेस्टर में। हांडा परिवार की सारी बहू बेटियां आज सवेरे-सवेरे ही निकल गयी हैं। हांडा परिवार में
हमेशा ऐसा ही होता हे। जब भी परिवार में शादी या और कोई भी आयोजन होता है, सारी महिलाएं एक साथ जाती हैं और दो-तीन दिन खूब जश्न मनाये जाते हैं। हम पुरुष
लोग परसों निकलेंगे। मैं शिशिर के साथ ही जाऊंगा।
अभी दिन भर के कार्यक्रम के बारे में सोच ही रहा हूं कि मालविका जी का फोन आया है। उन्होंने सिर्फ तीन ही वाक्य कहे हैं - मुझे पता है गौरी आज यहां नहीं है।
बल्कि पूरा हफ्ता ही नहीं है। आपका मेरे यहां आना कब से टल रहा है। आज आप इनकार नहीं करेंगे और शाम का खाना हम एक-साथ घर पर ही खायेंगे। बनाऊंगी मैं। पता
लिखवा रही हूं। सीधे पहुंच जाना। मैं राह देखूंगी। और उन्होंने फोन रख दिया है।
अब तय हो ही गया है कि मैं अब घर पर ही रहूं और कई दिन बाद एक बेहद खूबसूरत, सहज और सुकूनभरी शाम गुजारने की राह देखूं। कई दिन से उन्हीं का यह प्रस्ताव टल
रहा है कि मैं एक बार उनके गरीबखाने पर आऊं और उनकी मेहमाननवाजी स्वीकार करूं।
मौसम ने भी आख़िर अपना रोल अदा कर ही लिया। बरसात ने मेरे अच्छे-ख़ासे सूट की ऐसी-तैसी कर दी। बर्फ के कारण सारे रास्ते या तो बंद मिले या ट्रैफिक चींटियों
की तरह रेंग रहा था। बीस मिनट की दूरी तय करने में दो घंटे लगे। मालविका जी के घर तक आते-आते बुरा हाल हो गया है। सारे कपड़ों का सत्यानास हो गया। सिर से
पैरों तक गंदी बर्फ के पानी में लिथड़ गया हूं। जूतों में अंदर तक पानी भर गया है। सर्दी के मारे बुरा हाल है वो अलग। वे भी क्या सोचेंगी, पहली बार किस हाल
में उनके घर आ रहा हूं।
उनके दरवाजे की घंटी बजायी है। दरवाजा खुलते ही मेरा हुलिया देख कर वे पहले तो हँसी के मारे दोहरी हो गयी हैं लेकिन तुरंत ही मेरी बांह पकड़ कर मुझे भीतर
खींच लेती हैं - जल्दी से अंदर आ जाओ। तबीयत खराब हो जायेगी।
मैं भीगे कपड़ों और गीले जूतों के साथ ही भीतर आया हूं। उन्होंने मेरा रेनकोट और ओवरकोट वगैरह उतारने में मदद की है। हँसते हुए बता रही हैं - मौसम का मूड
देखते हुए मैं समझ गयी थी कि आप यहां किस हालत में पहुंचेंगे। बेहतर होगा, आप पहले चेंज ही कर लें। इन गीले कपड़ों में तो आपके बाजे बज जायेंगे। बाथरूम
तैयार है और पानी एकदम गर्म। वैसे आप बाथ लेंगे या हाथ मुंह धो कर फ्रेश होना चाहेंगे। वैसे इतनी सर्दी में किसी भले आदमी को नहाने के लिए कहना मेरा ख्याल
है, बहुत ज्यादती होगी।
- आप ठीक कह रही हैं लेकिन मेरी जो हालत है, उसे तो देख कर मेरा ख्याल है, नहा ही लूं। पूरी तरह फ्रेश हो जाउं€गा।
- तो ठीक है, मैं आपके नहाने की तैयारी कर देती हूं, कहती हुई वे भीतर के कमरे में चली गयी हैं। मैं अभी गीले जूते उतार ही रहा हूं कि उनकी आवाज आयी है
- बाथरूम तैयार है।
वे हंसते हुए वापिस आयी हैं - मेरे घर में आपकी कद काठी के लायक कोई भी ड्रैसिंग गाउन या कुर्ता पायजामा नहीं है। फिलहाल आपको ये शाम मेरे इस लुंगी-कुर्ते
में ही गुज़ारनी पड़ेगी। चलिये, बाथरूम तैयार है।
एकदम खौलते गरम पानी से नहा कर ताज़गी मिली है। फ्रेश हो कर फ्रंट रूम में आया तो मैं हैरान रह गया हूं। सामने खड़ी हैं मालविका जी। मुसकुराती हुई। एयर
होस्टेस की तरह हाथ जोड़े। अभिवादन की मुद्रा में। एक बहुत ही खूबसूरत बुके उनके हाथ में है - हैप्पी बर्थडे दीप जी। मैं ठिठक कर रह गया हूं। यह लड़की जो
मुझे ढंग से जानती तक नहीं और जिसका मुझसे दूर दूर तक कोई नाता नहीं है, कितने जतन से और प्यार से मेरा जनमदिन मनाने का उपक्रम कर रही हैं। और एक गौरी है
..क्या कहूं, समझ नहीं पाता।
- हैप्पी बर्थ डे डियर दीप। वे फिर कहती हैं और आगे बढ़ कर उन्होंने बुके मुझे थमाते-थमाते हौले से मेरी कनपटी को चूम लिया है। मेरा चेहरा एकदम लाल हो गया
है। गौरी के अलावा आज तक मैंने किसी औरत को छुआ तक नहीं है। मैं किसी तरह थैंक्स ही कह पाता हूं। आज मेरा जनमदिन है और गौरी को यह बात मालूम भी थी। वैसे
यहां मेरा यह चौथा साल है और आज तक न तो गौरी ने मुझसे कभी पूछने की ज़रूरत समझी है और न ही उसे कभी फुर्सत ही मिली है कि पूछे कि मेरा जनमदिन कब आता है, या
कभी जनमदिन आता भी है या नहीं, तो आज भी मैं इसकी उम्मीद कैसे कर सकता था, जबकि गौरी को हर बार मैं न केवल जनमदिन की विश करता हूं बल्कि उसे अपनी हैसियत भर
उपहार भी देने की कोशिश करता हूं। गोल्डी से मुलाकात होने से पहले तक तो मेरे लिए यह तारीख़ सिर्फ एक तारीख़ ही थी। उसी ने इस तारीख़ को एक नरम, गुदगुदे
अहसास में बदला था। गोल्डी के बाद से जब भी यह तारीख़ आती है, ख्याल तो आता ही है। बेशक सारा दिन मायूसी से ही गुज़ारना पड़ता है।
मैं हैरान हो रहा हूं, इन्हें कैसे पता चला कि आज मेरा जनमदिन है। मेरे लिए एक ऐसा दिन जिसे मैं कभी न तो याद करने की कोशिश करता हूं और न ही इसे आज तक
सेलेब्रेट ही किया है। मैं झ्टंापी सी हँसी हँसा हूं और पूछता हूं - आपको कैसे पता चला कि आज इस बदनसीब का जनमदिन है।
- आप भी कमाल करते हैं दीप जी, पहली बार आप जब आये थे तो मैंने आपका हैल्थ कार्ड बनवाया था। वह डेटा उसी दिन मेरे कम्प्यूटर में भी फीड हो गया और मेरे दिमाग
में भी। - कमाल है !! कितने तो लोग आते हेंगे जिनके हैल्थ कार्ड बनते होंगे हर रोज़। सबके बायोडाटा फीड कर लेती हैं आप अपने दिमाग में।
- सिर्फ बायोडाटा। बर्थ डेट तो किसी किसी की ही याद रखती हूं । समझे। और आप भी मुझसे ही पूछ रहे हैं कि मुझे आपके जनमदिन का कैसे पता चला!!
मैं उदास हो गया हूं। एक तरफ गौरी है जिसे मेरा जनमदिन तो क्या, हमारी शादी की तारीख तक याद नहीं है। और एक तरफ मालविका जी हैं जिनसे मेरी कुछेक ही
मुलाकातें हैं। बाकी तो हम फोन पर ही बातें करते रहे हैं और इन्हें ......।
मैं कुछ कहूं इससे पहले ही वे बोल पड़ी है - डोंट टेक इट अदरवाइज़। आज का दिन आपके लिए एक खास दिन है और आज आप मेरे ख़ास मेहमान हैं। आज आपके चेहरे पर चिंता
की एक भी लकीर नजर नहीं आनी चाहिये.. ओ के !! रिलैक्स नाउ और एंजाय यूअर सेल्फ। तब तक मैं भी ज़रा बाकी चीजें देख लूं।
मैं अब ध्यान से कमरा देखता हूं। एकदम भारतीय शैली में सज़ा हुआ। कहीं से भी यह आभास नहीं मिलता कि मैं इस वक्त यहां लंदन में हूं। पूरे कमरे में दसियों एक
से बढ़ कर एक लैम्प शेड्स कमरे को बहुत ही रूमानी बना रहे हैं। पूरा का पूरा कमरा एक उत्कृष्ट कलात्मक अभिरुचि का जीवंत साक्षात्कार करा रहा है। कोई सोफा
वगैरह नहीं है। बैठने का इंतजाम नीचे ही है। एक तरफ गद्दे की ही ऊंचाई पर रखा सीडी चेंजर और दूसरी तरफ हिन्दी और अंग्रेजी के कई परिचित और खूब पढ़े जाने
वाले ढेर सारे टाइटल्स। चेंजर के ही ऊपर एक छोटे से शेल्फ में कई इंडियन और वेस्टर्न क्लासिकल्स के सीडी। मैं मालविका जी की पसंद और रहन सहन के बारे में सोच
ही रहा हूं कि वे मेरे लिए एक गिलास लेकर आयी हैं - मैं जानती हूं, आप नहीं पीते। वैसे मैं कहती भी नहीं लेकिन जिस तरह से आप ठंड में भीगते हुए आये हैं,
मुझे डर है कहीं आपकी तबीयत न खराब हो जाये। मेरे कहने पर गरम पानी में थोड़ी-सी ब्रांडी ले लें। दवा का काम करेगी। मैं उनके हाथ से गिलास ले लेता हूं। मना
कर ही नहीं पाता। तभी मैं देखता हूं वे पूरे कमरे में ढेर सारी बड़ी-बड़ी रंगीन मोमबत्तियां सजा रही हैं। मैं कुछ समझ पाऊं इससे पहले ही वे इशारा करती हैं -
आओ ना, जलाओ इन्हें। मैं उनकी मदद से एक -एक करके सारी मोमबत्तियां जलाता हूं। कुल चौंतीस हैं। मेरी उम्र के बरसों के बराबर। सारी मोमबत्तियां झिलमिलाती जल
रही हैं और खूब रोमांटिक माहौल पैदा कर रही हैं । उन्होंने सारी लाइटें बुझा दी हैं। कहती हैं - हम इन्हें बुझायेंगे नहीं। आखिर तक जलने देंगे। ओ के !!
मैं भावुक होने लगा हूं..। कुछ नहीं सूझा तो सामने रखे गुलदस्ते में से एक गुलाब निकाल कर उन्हें थमा दिया है - थैंक यू वेरी मच मालविका जी, मैं इतनी खुशी
बरदाश्त नहीं कर पाऊंगा। सचमुच मैं .. ...। मेरा गला रुंध गया है।
- जनाब अपनी ही खुशियों के सागर मे गोते लगाते रहेंगे या इस नाचीज को भी जनमदिन के मौके पर शुभकामना के दो शब्द कहेंगे।
- क्या आपका भी आज ही जनमदिन है, मेरा मतलब .. आपने पहले क्यों नहीं बताया?
- तो अब बता देते हैं सर कि आज ही इस बंदी का भी जनमदिन है। मैं इस दिन को लेकर बहुत भावुक हूं और मैं आज के दिन अकेले नहीं रहना चाहती थी। हर साल का यही
रोना है। हर साल ही कम्बख्त यह दिन चला आता है और मुझे खूब रुलाता है। इस साल मैं रोना नहीं चाहती थी। कल देर रात तक सोचती रही कि मैं किसके साथ यह दिन
गुजारूं। अब इस पूरे देश में मुझे जो शख्स इस लायक नजर आया, खुशकिस्मती से वह भी आज ही के दिन अपना जनमदिन मनाने के लिए हमारे जैसे किसी पार्टनर की तलाश में
था। हमारा शुक्रिया अदा कीजिये जनाब कि ......और वे ज़ोर से खिलखिला दी हैं। मैंने संजीदा हो कर पूछा है - आपके लिए तो पांच-सात मोमबत्तियां कम करनी पड़ेंगी
ना !!
- नहीं डीयर, अब आपसे अपनी उम्र क्या छुपानी !! हमने भी आपके बराबर ही पापड़ बेले हैं जनाब। वैसे वो दिन अब कहां फुर हो गये हैं !! ये क्या कम है कि तुम
इनमें दो चार मोमबत्तियां और नहीं जोड़ रहे हो !!
- ऐसी कोई बात नहीं है। चाहो तो मैं ये सारी मोमबत्तियां बेशक अपने नाम से जला देता हूं लेकिन अपनी उम्र आपको दे देता हूं। वैसे भी मेरी जिंदगी बेकार जा रही
है। आपके ही किसी काम आ सके तो !! मैंने बात अधूरी छोड़ दी है।
- नो थैंक्स !! अच्छा तुम एक काम करो दीप, धीरे-धीरे अपनी ब्रांडी सिप करो। और लेनी हो तो गरम पानी यहां थर्मस में रखा है। बॉटल भी यहीं है। और उन्होंने
अपना छोटा-सा बार कैबिनेट खोल दिया है।
- तब तक मैं भी अपना बर्थडे बाथ ले कर आती हूं।
मैं उनका सीडी कलेक्शन देखता हूं - सिर्फ इंडियन क्लासिक्स हैं। मैं चेंजर पर भूपेन्दर की ग़ज़लों की सीडी लगाता हूं। कमरे में उसकी सोज़ भरी आवाज गूंज रही
है - यहां किसी को मुकम्मल जहां नहीं मिलता। कभी ज़मीं तो कभी आसमां नहीं मिलता। सच ही तो है। मेरे साथ भी तो ऐसा ही हो रहा है। कभी पैरों तले से ज़मीं गायब
होती है तो कभी सिर के ऊपर से आसमां ही कहीं गुम हो जाता है। कभी यह विश्वास ही नहीं होता कि हमारे पास दोनों जहां हैं। आज पता नहीं कौन से अच्छे करमों का
फल मिल रहा है कि बिन मांगे इतनी दौलत मिल रही है। ज़िंदगी भी कितने अजीब-अजीब खेल खेलती है हमारे साथ। हम ज़िंदगी भर गलत दरवाजे ही खटखटाते रह जाते हैं और
कोई कहीं और बंद दरवाजों के पीछे हमारे इंतज़ार में पूरी उम्र गुज़ार देता है। और हमें या तो खबर ही नहीं मिल पाती या इतनी देर से ख़बर मिलती है कि तब कोई
भी चीज़ मायने नहीं रखती। बहुत देर हो चुकी होती है।
बाहर अभी भी बर्फ पड़ रही है लेकिन भीतर गुनगुनी गरमी है। मैं गाव तकिये के सहारा लेकर अधलेटा हो गया हूं और संगीत की लहरियों के साथ डूबने उतराने लगा हूं।
ब्रांडी भी अपना रंग दिखा रही है। दिमाग में कई तरह के अच्छे बुरे ख्याल आ रहे हैं। खुद पर अफ़सोस भी हो रहा है, लेकिन मैं मालविका जी के शानदार मूड और हम
दोनों के जनमदिन के अद्भुत संयोग पर अपने भारी और मनहूस ख्यालों की काली छाया नहीं पड़ने देना चाहता। मुझे भी तो ये शाम अरसे बाद, कितनी तकलीफ़ों के सफ़र
अकेले तय करने के बाद मिली है। पता नहीं मालविका जी भी कब से इस तरह की शाम के लिए तरस रही हों। इन्हीं ख्यालों में और ब्रांडी के हलके-हलके नशे में पता
नहीं कब झपकी लग गयी होगी। अचानक झटका लगा है। महसूस हुआ कि मालविका जी मेरी पीठ के पीछे घुटनों के बल बैठी मेरे बालों में अपनी उंगलियां फिरा रही हैं। पता
चल जाने के बावजूद मैंने अपनी आंखें नहीं खोली हैं। कहीं यह मुलायम अहसास बिखर न जाये। तभी मैंने अपने माथे पर उनका चुंबन महसूस किया है। उनकी भरी-भरी
छातियों का दबाव मेरी पीठ पर महसूस हो रहा है। मैंने हौले से आंखें खोली हैं। मालविका जी मेरी आंखों के सामने हैं। मुझ पर झुकी हुई। वे अभी-अभी नहा कर निकली
हैं। गरम पानी, खुशबूदार साबुन और उनके खुद के बदन की मादक महक मेरे तन-मन को सराबोर कर रही है। ज़िंदगी में यह पहली बार हो रहा है कि गौरी के अलावा कोई और
स्त्राú मेरे इतने निकट है। मेरे संस्कारों ने ज़ोर मारा है - ये मैं क्या कर रहा हूं.. लेकिन इतने सुखद माहौल में मैं टाल गया हूं। .. जो कुछ हो रहा है और
जैसा हो रहा है होने दो। ज्यादा से ज्यादा क्या होगा .. । मैं कुछ पा ही तो रहा हूं। खोने के लिए मेरे पास है ही क्या।
तभी मालविका ने मेरी पीठ पर झुके झुके ही मेरे चेहरे को अपने कोमल हाथों में भरा है और मेरी दोनों आंखों को बारी-बारी से चूम लिया है। उनका कोमल स्पर्श और
सुकोमल चुंबन मेरे भीतर तक ऊष्मा की तरंगें छोड़ते चले गये। मैंने भी उसी तरह लेटे-लेटे उन्हें अपने ऊपर पूरी तरह झुकाया है, उनकी गरदन अपनी बांह के घेरे
में ली है और हौले से उन्हें अपने ऊपर खींच कर उनके होठों पर एक आत्मीयता भरी मुहर लगा दी है - हैप्पी बर्थडे डीयर।
हम दोनों काफी देर से इसी मुद्रा में एक दूसरे के ऊपर झुके हुए नन्हें-नन्हें चुम्बनों का आदान-प्रदान कर रहे हैं। मैं सुख के एक अनोखे सागर में गोते लगा
रहा हूं। यह एक बिलकुल ही नयी दुनिया है, नये तरह का अहसास है जिसे मैं शादी के इन चार बरसों में एक बार भी महसूस नहीं कर पाया था।
मालविका अभी भी मेरी पीठ की तरफ बैठी हैं और उनके घने और कुछ-कुछ गीले बाल मेरे पूरे चेहरे पर छितराये हुए हैं। उनमें से उठती भीनी भीनी खुशबू मुझे पागल बना
रही है। उन्होंने सिल्क का वनपीस गाउन पहना हुआ है जो उनके बदन पर फिसल-फिसल रहा है। हम दोनों ही बेकाबू हुए जा रहे हैं लेकिन इससे आगे बढ़ने की पहल हममें
से कोई भी नहीं कर कर रहा है। तभी मालविका ने खुद को मेरी गिरफ्त में से छुड़वाया है और उठ कर कमरे में जल रहे इकलौते टैबल लैम्प को भी बुझा दिया है। अब
कमरे में चौंतीस मोमबत्तियों की झिलमिलाती और कांपती रौशनी है जो कमरे के माहौल को नशीला, नरम और मादक बना रही है। मैं उनकी एक-एक अदा पर दीवाना होता चला जा
रहा हूं। जानता हूं ये मेरी नैतिकता के खिलाफ है लेकिन मैं ये भी जानता हूं आज मेरी नैतिकता के सारे के सारे बंधन टूट जायेंगे। मेरे सामने इस समय मालविका
हैं और वे इस समय दुनिया का सबसे बड़ा सच हैं। बाकी सब कुछ झूठ है। बेमानी है।
मैंने उनके दोनों कानों की लौ को बारी-बारी से चूमते हुए कहा है - मेरे जनमदिन पर ही मुझे इतना कुछ परोस देंगी तो मेरा हाजमा खराब नहीं हो जायेगा। कहीं मुझे
पहले मिल गयी होतीं तो !!
जवाब में उन्होंने अपनी हँसी के सारे मोती एक ही बार में बिखेर दिये हैं - देखना पड़ता है न कि सामने वाला कितना भूखा प्यासा है। वैसे मेरे पीछे पागल मत
बनो। मैं एक बहुत ही बुरी और बदनाम औरत हूं। कहीं मेरे चंगुल में पहले फंस गये होते तो अब तक कहीं मुंह दिखाने के काबिल भी न होते।
- आपके जैसी लड़की बदनाम हो ही नहीं सकती। मैंने उन्हें अब सामने की तरफ खींच लिया है और अपनी बाहों के घेरे मे ले लिया है। मेरे हाथ उनके गाउन के फीते से
खेलने लगे हैं।
उन्होंने गाउन के नीचे कुछ भी नहीं पहना हुआ है और हालांकि वे मेरे इतने निकट हैं और पूरी तरह प्रस्तुत भी, फिर भी मेरी हिम्मत नहीं हो रही, इससे आगे बढ़
सकूं । वे मेरा संकोच समझ रही हैं और शरारतन मेरी उंगलियों को बार-बार अपनी उंगलियों में फंसा लेती हैं। आखिर मैं अपना एक हाथ छुड़ाने में सफल हो गया हूं और
गाउन का फीता खुलता चला गया है। मालविका ने अपनी आंखें बंद कर ली हैं और झूठी सिसकारी भरी है
- मत करो दीप प्लीज।
मैंने इसरार किया है - जरा देख तो लेने दो।
- और अगर इन्हें देखने के बाद आपको कुछ हो गया तो !!
- शर्त बद लो, कुछ भी नहीं होगा। उनकी बहुत आनाकानी करने के बाद ही मैं उनका गाउन उनके कंधों के नीचे कर पाया हूं।
और मैं शर्त हार गया हूं। मैंने जो कुछ देखा है, मैं अपनी आंखों पर यकीन नहीं कर पा रहा हूं। मालविका का अनावृत सीना मेरे सामने है। मैंने बेशक गौरी के
अलावा किसी भी औरत को इस तरह से नहीं देखा है, लेकिन जो कुछ मेरे सामने है, मैं कभी उसकी कल्पना भी नहीं कर सकता था। मैंने न तो फिल्मों में, न तस्वीरों में
और न ही किसी और ही रूप में किसी भी स्त्राú के इतने विराट, उदार, संतुलित, सुदृढ़ और ख्बासूरत उरोज देखे हैं। मैं अविश्वास से उन गोरे-चिट्टे दाग रहित और
सुडौल गोलार्धो की तरफ देखता रह गया हूं और पागलों की तरह उन्हें अपने हाथों में भरने की नाकाम कोशिशें करने लगा हूं। उन्हें दीवानों की तरह चूमने लगा हूं।
मालविका ने अपनी अंाखें बंद कर ली हैं। वे मेरे सुख के इन खूबसूरत पलों में आड़े नहीं आना चाहतीं!! वे अपनी इस विशाल सम्पदा का मोल जानती रही होंगी तभी तो
वे मुझे उनका भरपूर सुख ले लेने दे रही हैं। मैं बार-बार उन्हें अपने हाथों में भर-भर कर देख रहा हूं। उन्हें देखते ही मुझ जैसे नीरस और शुष्क आदमी को कविता
सूझने लगी है। कहीं सचमुच कवि होता तो पता नहीं इन पर कितने महाकाव्य रच देता!
मैं एक बार फिर जी भर कर देखता हूं - वे इतने बड़े और सुडौल हैं कि दोनों हाथों में भी नहीं समा रहे।
मैं उन्हें देख कर, छू कर और अपने इतने पास पा कर निहाल हो गया हूं। अब तक मैं जब भी मालविका से मिला था, उन्हें ट्रैक सूट में, फार्मल सूट में या साड़ी के
धऊपर लाँग कोट पहने ही देखा था। शाम को भी उन्होंने हाउसकोट जैसा कुछ पहना हुआ था और उनके कपड़े कभी भी जरा-सा भी यह आभास नहीं देते थे कि उनके नीचे कितनी
वैभवशाली सम्पदा छुपी हुई है। वे इस समय मेरे सामने अनावृत्त बैठी हुई हैं। घुटने मोड़ कर। वज्रासन में। साधिका की-सी मुद्रा में। उनका पूरा अनावृत्त शरीर
मेरे एकदम निकट है। पूरी तरह तना हुआ। निरंतर और बरसों के योगाभ्यास से निखरा और संवारा हुआ। कहीं भी रत्ती भर भी अधिकता या कमी नहीं। एक मूर्ति की तरह
सांचे में ढला हुआ। ऐसी देह जिसे इतने निकट देख कर भी मैं अपनी आंखों पर विश्वास नहीं कर पा रहा हूं। ..वे आंखें बंद किये हुए ही मुझसे कहती हैं - अपने
कपड़े उतार दो और मेरी तरह वज्रासन लगा कर बैठ जाओ। कुर्ता उतारने में मुझे संकोच हो रहा है, लेकिन वे मुझे पुचकारती हैं - डरो नहीं, मेरी आंखें बंद हैं।
मैं वज्रासन में बैठने की कोशिश करता हूं लेकिन उन्हीं के ऊपर गिर गया हूं। वे खिलखिलाती हैं और मुझे अपने सीने से लगा लेती हैं। उनके जिस्म की आंच मेरे
जिस्म को जला रही है। कुछ ब्रांडी का नशा है और बाकी उनकी दिपदिपाती देह का। इतनी सारी मोमबत्तियों की झिलमिलाती रौशनी में उनकी देह की आभा देखते ही बनती
है। उन्होंने अभी भी अपनी आंखें शरारतन बंद कर रखी हैं और बंद आंखों से ही मुझे हैरान-परेशान देख कर मजे ले रही हैं। तभी मैं उठा हूं और बुके के सभी फूलों
को निकाल कर उन फूलों की सारी की सारी पंखुड़ियां उनके गोरे चिट्टे सुडौल बदन पर बिखेर दी हैं। उन्होंने अचानक आंखें खोली हैं और पखुंड़ियों की वर्षा में
भीग-सी गयी हैं। उनके बदन से टकराने के बाद पंखुड़ियों की खुशबू कई गुना बढ़ कर सारे कमरे में फैल गयी है।
वे खुशी से चीख उठी हैं। मैंने उन्हें गद्दे पर लिटाया है और हौले हौले उनके पूरे बदन को चूमते हुए एक-एक पंखुड़ी अपने होठों से हटा रहा हूं। मैं जहां से भी
पंखुड़ी हटाता हूं, वहीं एक ताजा गुलाब खिल जाता है। थोड़ी ही देर में उनकी पूरी काया दहकते हुए लाल सुर्ख गुलाबों में बदल गयी है।
मैं उनके पास लेट गया हूं और उन्हें अपने सीने से लगा लिया है। उन्होंने भी अपनी बाहों के घेरे में मुझे बांध लिया है।
समय थम गया है। अब इस पूरी दुनिया में सिर्फ हम दो ही बचे हैं। बाकी सब कुछ खत्म हो चुका है। हम एक दूसरे में घुलमिल गये हैं। एकाकार हो गये हैं।
बाहर अभी भी लगातार बर्फ पड़ रही है और खिड़कियों के बाहर का तापमान अभी भी शून्य से कई डिग्री नीचे है लेकिन कमरे के भीतर लाखों सूर्यों की गरमी माहौल को
उत्तेजित और तपाने वाला बनाये हुए है।
आज हम दोनों का जनम दिन है और हम दोनों की उम्र भी बराबर है। दो चार घंटों का ही फर्क होगा तो होगा हममें। हम अपनी अलग-अलग दुनिया मे अपने अपने तरीके से
सुख-दुख भोगते हुए और तरह-तरह के अनुभव बटोरते हुए यहां आ मिले हैं बेशक हम दोनों की राहें अलग रही हैं। हमने आज देश, काल और समय की सभी दूरियां पाट लीं हैं
और अनैतिक ही सही, एक ऐसे रिश्ते में बंध गये हैं जो अपने आप में अद्भुत और अकथनीय है। मुझे आज पहली बार अहसास हो रहा है कि सैक्स में कविता भी होती है।
उसमें संगीत भी होता है। उसमें लय, ताल, रंग, नृत्य की सारी मुद्राएं और इतना आनन्द, तृप्ति, सम्पूर्णता का अहसास और सुख भी हुआ करते हैं। मैं तो जैसे आज तक
गौरी के साथ सैक्स का सिर्फ रिचुअल निभाता रहा था।
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