हम दोनों एक साथ ही एक नयी दुनिया की सैर करके एक साथ ही इस खूबसूरत ख्वाबगाह में लौट आये हैं। पूरी तरह से तृप्त, फिर भी दोबारा वही सब कुछ एक बार फिर पा
लेने की, उसी उड़ान पर एक बार फिर सहयात्री बन कर उड़ जाने की उत्कट चाह लिये हुए।
हम अभी भी वैसे ही साथ साथ लेटे हुए हैं। एक दूसरे को महसूस करते हुए, छूते हुए और एक दूसरे की नजदीकी को, ऊष्मा को अपने भीतर तक उतारते हुए। यह पूरी रात ही
हम दोनों ने एक दूसरे की बाहों में इसी तरह गुजार दी है। हमने इस दौरान एक दूसरे के बहुत से राज़ जाने हैं, बेवकूफियां बांटी हैं, जख्म सहलाये हैं और
उपलब्धियों के लिए एक दूसरे को बधाई दी है।
हमने आधी रात को खाना खाया है। खाया नहीं, बल्कि मनुहार करते हुए, लाड़ लड़ाते हुए एक दूसरे को अपने हाथों से एक-एक कौर खिलाया है।
मालविका नशीली आवाज में पूछ रही है - यहां आकर अफसोस तो नहीं हुआ ना !!
- हां, मुझे अफसोस तो हो रहा है।
- किस बात का ?
- यहां पहले ही क्यों नही आ गया मैं।
- फिर आओगे!!
मैंने उसके दोनों उरोजों पर चुंबन अंकित करते हुए जवाब दिया है - आप हर बार इसी तरह स्वागत और सत्कार करेंगी तो जरूर आऊंगा।
- अगर तुम हर बार मेरे कपड़े उतारोगे तो बाबा, बाज आये हम ! हमें कपड़े उतारने वाले मेहमान नहीं चाहिये !!
- अच्छी बात है, नहीं उतारेंगे कपड़े, लेकिन आयेंगे जरूर हम। इस खज़ाने की देखभाल करने कि कोई इन्हें लूट तो नहीं ले गया है।
- जब इसका असली रखवाला ही भाग गया तो कोई कब तक लुटेरों और उच्चकों से रखवाली करता फिरे !!
- तुमने कभी बताया नहीं वो कौन बदनसीब था जो इतनी धन दौलत छोड़ कर चला गया। उस आदमी में जरा सा भी सौंदर्य बोध नहीं रहा होगा।
- तुम मेरी जिस दौलत को देख-देख कर इतने मोहित हुए जा रहे हो, मैं तुम्हें बता नहीं सकती कि इन्होंने मुझे कितनी कितनी तकलीफ दी है। इन्हीं की वजह से मैं
यहां परदेस में अकेली पड़ी हुई हूं।
- कभी तुमने बताया नहीं।
- तुमने पूछा ही कब।
- तो अब बता दो, तुम्हारे हिस्से में ऊपर वाले ने कौन कौन से हादसे लिखे थे।
- कोई एक हो तो बताऊं भी। यहां तो जब से होश संभाला है, रोजाना ही हादसों से दो चार होना पड़ता है।
- मुझे नहीं मालूम था तुम्हारा सफर भी इतना ही मुश्किल रहा है, अपने बारे में आज सब कुछ विस्तार से बताओ ना..
- रहने दो। क्या करोगे मेरी तकलीफों के बारे में जान कर। ये तो हर हिन्दुस्तानी औरत की तकलीफें हैं। सब के लिए एक जैसी।
- अच्छा तकलीफों के बारे में मत बताओ, अपने बचपन के बारे में ही कुछ बता दो।
- बहुत चालाक हो तुम। तुम्हें पता है, एक बार बात शुरू हो जाये तो सारी बाते खुलती चली जायेंगी।
- ऐसा ही समझ लो।
- तो ठीक है। मैं तुम्हें अपने बारे में बहुत कुछ बताऊंगी, लेकिन मेरी दो तीन शर्तें हैं।
- तुम्हारे बताये बिना ही सारी शर्तें मंजूर हैं।
- पहली शर्त कि ये सारी बत्तियां भी बंद कर दो। मुझे बिलकुल अंधेरा चाहिये।
- हो जायेगा अंंंधेरा। दूसरी शर्त।
- तुम मेरे एकदम पास आ जाओ, मेरे ही कम्बल में। जैसे मैं लेटी हूं वैसे ही तुम लेट जाओ।
- मतलब .. सारे कपड़े?
- कहा न जैसे मैं लेटी हूं वैसे ही.. और कोई हरकत नहीं चाहिये। चुपचाप, छत की तरफ देखते हुए लेटे रहना। और खबरदार। लेना-देना काफी हो चुका। अब कोई भी हरकत
नहीं होगी।
- नहीं होगी हरकत, लेकिन ये मेहमानों के कपड़े उतारने वाली बात कुछ हजम नहीं हुई। वैसे भी मांगे हुए कपड़े हैं ये।
- चुप रहो और तीसरी शर्त कि तुम मेरी पूरी बात खतम होने तक बिलकुल भी नहीं बोलोगे। हां हूं भी नहीं करोगे। सिर्फ सुनोगे और कभी भी न तो इसका किसी से जिक्र
करोगे और न ही अभी या कभी बाद में मुझसे इस बारे में और कोई सवाल करोगे, न मुझ पर तरस खाओगे। बोलो मंजूर हैं ये सारी शर्तें।
- ये तो बहुत ही आसान शर्तें हैं। और कुछ ?
- बस और कुछ नहीं। अब मैं जब तक न कहूं तुम एक भी शब्द नहीं बोलोगे।
मैंने मालविका की शर्तें भी पूरी कर दी हैं। सारी बत्तियां बुझा दी हैं लेकिन भारी परदों की झिर्रियों से बाहर की पीली बीमार रोशनी अंदर आ कर जैसे अंधेरे को
डिस्टर्ब कर रही है। मैं मालविका की बगल में आ कर लेट गया हूं। उन्होंने हाथ बढ़ा कर मेरा हाथ अपनी नाभि पर रख दिया है।
धीरे धीरे अंधेरे में उनकी आवाज उभरती है।
- मेरा घर का नाम निक्की है। तुम भी मुझे इस नाम से बुला सकते हो। जब से यहां आयी हूं, किसी ने भी मुझे इस नाम से नहीं पुकारा। एक बार मुझे निक्की कह कर
बुलाओ प्लीज़ ..
मैं बारी-बारी उनके दोनों कानों में हौले से निक्की कहता हूं और उनके दोनों कान चूम लेता हूं। निक्की खुश हो कर मेरे होंठ चूम लेती है।
- हां तो मैं अपने बचपन के बारे में बता रही थी।
- मेरे बचपन का ज्यादातर हिस्सा गुरदासपुर में बीता। पापा आर्मी में थे इसलिए कई शहरों में आना-जाना तो हुआ लेकिन हमारा हैडक्वार्टर गुरदासपुर ही रहा। मैं
मां-बाप की इकलौती संतान हूं। मेरा बचपन बहुत ही शानदार तरीके से बीता लेकिन अभी आठवीं स्कूल में ही थी कि पापा नहीं रहे। हम पर मुसीबतों का पहाड़ टूट पड़ा।
हम जिस लाइफ स्टाइल के आदी थे, रातों-रात हमसे छीन ली गयी। मज़बूरन मम्मी को जॉब की तलाश में घर से बाहर निकलना पड़ा। मम्मी ज्यादा पढ़ी-लिखी नहीं थीं इसलिए
भी परेशानियां ज्यादा हुईं। लेकिन वे बहुत हिम्मत वाली औरत थीं इसलिए सबकुछ संभाल ले गयीं। हालांकि मेरी पढ़ाई तो पूरी हुई लेकिन हम लगातार दबावों में रहने
को मजबूर थे। ये दबाव आर्थिक भी थे और मानसिक भी। ये मम्मी की हिम्मत थी कि हमारी हर मुश्किल का वे कोई न कोई हल ढूंढ ही लेती थी। उसने मुझे कभी महसूस ही न
होने दिया कि मेरे सिर पर पापा का साया नहीं है। वही मेरे लिए मम्मी और पापा दोनों की भूमिका बखूबी निभाती रही।
और उन्हीं दिनों मेरी ये समस्या शुरू हुई। वैसे तो मुझे पीरियड्स शुरू होने के समय से ही लगने लगा था कि मेरी ब्रेस्ट्स का आकार कुछ ज्यादा ही तेजी से बढ़
रहा है लेकिन एक तो वो खाने-पीने की उम्र थी और दूसरे शरीर हर तरह के चेंजेस से गुजर रहा था इसलिए ज्यादा परवाह नहीं की थी लेकिन सोलह-सत्रह तक पहुंचते
पहुंचते तो यह हालत हो गयी थी कि मैं देखने में एक भरपूर औरत की तरह लगने लगी थी। कद काठी तो तुम्हारे सामने ही है। समस्या यह थी कि ये आकार में बढ़ते ही
जाते। हर पद्रह दिन में ब्रेज़री छोटी पड़ जाती। मुझे बहुत शरम आती। सारा तामझाम खर्चीला तो था ही, मुझे आकवर्ड पोजीशन में भी डाल रहा था। मम्मी ने जब मेरी
यह हालत देखी तो डॉक्टर के पास ले गयी। मम्मी ने शक की निगाह से देखते हुए पूछा भी कि कहीं मैं गलत लड़कों की संगत में तो नहीं पड़ गयी हूं।
डाक्णटर ने अच्छी तरह से मेरा मुआइना किया था और हँसते हुए कहा था - दूसरी लड़कियां इन्हें बड़ा करने के तरीके पूछने आती हैं और तुम इन्हें बढ़ता देख परेशान
हो रही हो। गो, रिलैक्स एंड एंजाय। कुछ नहीं है, सिर्फ हार्मोन की साइकिल के डिस्टर्ब हो जाने के कारण ऐसा हो रहा है। तुम बिलकुल नार्मल हो।
लेकिन न मैं नार्मल हो पा रही थी, और न एंजाय ही कर पा रही थी। मेरी हालत खराब थी। सहेलियां तो मुझ पर हँसती ही थीं, कई बार टीचर्स भी हँसी मज्öााक करने से
बाज़ नहीं आती थीं। मोहल्ले की भाभी और दीदीनुमा शादीशुदा लड़कियां मज़ाक-मज़ाक में पूछतीं - ज़रा हमें भी बताओ, कौन से तेल से मालिश करती हो।
मेरी हालत खराब थी। मैं कितना भी सीना ढक कर चलती, मोटे, डार्क कपड़े के दुपट्टे सिलवाती और बहुत एहतियात से ओढ़ती लेकिन गली-मौहल्ले के दुष्ट लड़कों की
पैनी निगाह से भला कैसे बच पाती..। आते जाते उनके घटिया जुमले-सुनने पड़ते।
मुझे अपने आप पर रोना आता कि मैं सारी ज़िंदगी किस तरह इनका बोझ उठा पाउंगी!! वैसे देखने में इनकी शेप बहुत ही शानदार थी और नहाते समय मैं इन्हें देख-देख कर
खुद भी मुग्ध होती रहती, लेकिन घर से निकलते ही मेरी हालत खराब होने लगती। तन को छेदती लोगों की नंगी निगाहें, अश्लील जुमले और मेरी खुद की हालत। बीएससी
करते-करते तो मेरी यह हालत हो गयी थी कि मैं ब्रेजरी के किसी भी साइज की सीमा से बाहर जा चुकी थी। मम्मी बाजार से सबसे बड़ा साइज ला कर किसी तरह से जोड़
-तोड़ कर मेरे लिए गुज़ारे लायक ब्रेज़री बना कर देती। मम्मी भी मेरी वजह से अलग परेशान रहती कि मैं यह खज़ाना उठाये-उठाये कहां भटकूंगी!! पता नहीं, कैसी
ससुराल मिले और कैसा पति मिले।
बदकिस्मती से न तो ससुराल ही ऐसी मिली और न पति ही कद्रदान मिला।
जिन दिनों बलविन्दर से मेरी शादी की बात चली, तब वह यहीं लंदन से ख़ास तौर पर शादी करने के लिए इंडिया आया हुआ था। वे लोग मेरठ के रहने वाले थे। हमें बताया
गया था कि बलविन्दर का लंदन में इंडियन हैंडीक्राफ्ट्स का अपना कारोबार है। मिडलसैक्स में उसका अपना अपार्टमेंट है, कार है और ढेर सारा पैसा है। वे लोग किसी
छोटे परिवार में रिश्ता करना चाहते थे जहां लड़की पढ़ी-लिखी हो ताकि पति के कारोबार में हाथ बंटा सके और बाद में चाहे तो अपने परिवार को भी अपने पास लंदन
बुलवा सके। बलविन्दर देखने में अच्छा-ख़ासा स्मार्ट था और बातचीत में भी काफी तेज़ था। जिस वक्त हमारे रिश्ते की बातचीत चल रही थी तो हमें बलविन्दर के, उसके
गुणों के, कारोबार के और खानदान के बहुत ही शानदार सब्जबाग दिखाये गये थे। हमारे पास न तो ज्यादा पड़ताल करने का कोई ज़रिया था और न ही वे लोग इसका कोई मौका
ही दे रहे थे। वे तो सगाई के दिन ही शादी करने के मूड में थे कि वहां उसके कारोबार का हर्जा हो रहा है। मेरी मम्मी के हाथ-पांव फूल गये थे कि हम इतनी
जल्दीबाजी में सारी तैयारियां कैसे कर पायेंगे। इससे भी हमें बलविन्दर ने ही उबारा था।
एक दिन उसका फोन आया था। उसने मम्मी को अपनी चाशनीपगी भाषा में बताया था कि मालविका के लिए किसी भी तरह के दहेज की जरूरत नहीं है। लंदन में उसके पास सब कुछ
है। बहुत बड़ी पार्टी-वार्टी देने की भी जरूरत नहीं है। वे लोग पांच आदमी लेकर डोली लेने आ जायेंगे, किसी भी तरह की टीम- टाम की भी ज़रूरत नहीं हैं।
मम्मी ने अपनी मज़बूरी जतलायी थी - इतनी बड़ी बिरादरी है। लोग क्या कहेंगे बिन बाप की बेटी को पहने कपड़ों में विदा कर दिया। तब रास्ता भी बलविन्दर ने ही
सुझाया था - तब ऐसा कीजिये मम्मी जी, कि आप लोग शादी के बाद एक छोटी-सी पार्टी तो रख ही लीजिये, बाकी आप मालविका को उसका घर-संसार बसाने के लिए जो कुछ भी
देना चाहती हैं, उसका एक ड्राफ्ट बनवा कर उसे दे देना। वही उसका स्त्राúधन रहेगा और उसी के पास रहेगा। मेरे पास सब कुछ है। आपके आशीर्वाद के सिवाय कुछ भी
नहीं चाहिये।
मम्मी बेचारी अकेली और सीधी सादी औरत। उसकी झांसापट्टी में आ गयी। उसके बाद तो यह हालत हो गयी कि हर दूसरे दिन उसका फोन आ जाता और वह मम्मी को एक नयी पट्टी
पढ़ा देता। मम्मी खुश कि देखो कितना अच्छा दामाद मिला है कि जो इस घर की भी पूरी जिम्मेवारी संभाल रहा है। इन दिनों वही उनका सगा हो गया था। उसने अपने शालीन
व्यवहार से हमारा मन जीत लिया था।
मेरी ससुराल वाले बहुत खुश थे कि उनके घर में इतनी सुंदर और पढ़ी लिखी बहू आयी है। शादी से पहले ही यह खबर पूरे ससुराल में फैल चुकी थी कि आने वाली बहू के
एसेट्स कुछ ज्यादा ही वज़नदार हैं। औरतों और लड़कियों का मेरे पास किसी न किसी बहाने से आना तो फिर भी चल जाता था, लेकिन जब गली मुहल्ले के हर तरह के लड़के
और जवान रिश्तेदार बार-बार बलविन्दर के पास किसी न किसी बहाने से आकर मेरे एसेट्स की एक झलक तक पाने के लिए आसपास मंडराते रहते तो हम दोनों को बहुत खराब
लगता। वैसे बलविन्दर मन ही मन बहुत खुश था कि उसकी बीवी इतनी अच्छी है कि उसे किसी न किसी बहाने से देखने के लिए सारा दिन सारा दोस्तों का जमघट लगा ही रहता
है। शुरू के कई दिन तो गहमा गहमी में बीत गये। सारा दिन मेहमानों के आने जाने में दिन का पता ही नहीं चलता था। लेकिन तीन चार दिन बाद जब हम हनीमून पर गये तो
वहां बलविन्दर की खुशी देखते ही बनती थी। उसके हिसाब से उन दिनों उस हिल स्टेशन पर जितने भी हनीमून वाले जोड़े घूम रहे थे, उन सबसे खूबसूरत मैं ही थी। मुझे
देखने के लिए राह चलते लोग एक बार तो जरूर ही ठिठक कर खड़े हो जाते थे। मुझे भी तसल्ली हुई थी कि चलो, मेरी एक बहुत बड़ी समस्या सुलझ गयी। कम से कम इस फ्रंट
पर तो कॉम्पलैक्स पालने की जरूरत नहीं है।
रात को बलविन्दर मेरी फिगर की बहुत तारीफ करता। मेरे पूरे बदन को चूमता, मेरे उरोजों को चूमता, सहलाता और अपने हाथों में भरने की कोशिश करता। सारा दिन होटल
में हम दोनों प्रेम के गहरे सागर में गोते लगाते रहते।
हनीमून से लौट कर भी उसके स्नेह में कोई कमी नहीं आयी थी। अलबत्ता, बलविन्दर के घर आने वाले लोगों की संख्या बहुत बढ़ गयी थी। लोग किसी न किसी बहाने से मेरे
एसेट्स की एक झलक पाने के लिए मौके तलाशते, घूर घूर कर देखते। मेरी ननंदें, जिठानियां और आस पास की भाभियां वगैरह भी वही सवाल पूछतीं, जो पिछले आठ सालों से
मुझसे तरह तरह से पूछे जा रहे थे। कुल मिला कर अपने नये जीवन की इतनी शानदार शुरूआत से मैं बहुत खुश थी। मैं मम्मी को फोन पर अपने समाचार देती और उन्हें
बताती कि मेरी ससुराल कितनी अच्छी है।
लेकिन सच्चाई बहुत ही जल्दी अपने असली रंग दिखाने लगी थी। बलविन्दर ने घर पर यह नहीं बताया था कि उसने खुद ही दहेज के लिए मना किया है और उसके बजाये मां से
मेरे नाम पर पांच लाख का ड्राफ्ट हासिल कर रखा है। मां ने अपनी ज़िंदगी भर की बचत ही उसे सौंप दी थी। बाकी जो बचा था, वह मेरे कपड़े गहनों पर खर्च कर दिया
था। बेशक मेरे रूप और गुणों के, मेरे लाये कीमती कपड़ों और गहनों के गुणगान दो चार दिन तक ऊंचे स्वर में किये जाते रहे लेकिन जल्दी ही दहेज के नाम पर कुछ भी
न पाने का मलाल उनसे मेरी और मेरे परिवार की बुराइयां कराने लगा। मैं नयी थी और अकेली थी, सबके मुंह कैसे बंद करती। एक - आध बार मैंने बलविन्दर से कहा भी कि
तुम कम से कम अपने मां-बाप को तो बता सकते हो कि तुम खुद ही दहेज के लिए मना कर आये थे और उसके बदले नकद पैसे ले आये हो तो वह हंस कर टाल गया - ये मूरख लोग
ठहरे। इनकी बातें सुनती रहो और करो वही जो तुम्हें अच्छा लगता है। इन्हें और कोई तो काम है नहीं।
बलविन्दर ने शादी के एक हफ्ते के भीतर ही एक ज्वांइट खाता खुलवाया था और मुझे दहेज के नाम पर मिला पांच लाख का ड्राफ्ट जमा करा दिया गया था। बलविन्दर ने
मुझे उस खाते का नम्बर देने का ज़रूरत ही नहीं समझी थी और न चेक बुक वगैरह ही दी थी। मुझे खराब तो लगा था लेकिन मैं चुप रह गयी थी। शादी के एक हफ्ते केध
अंदर पति पर अविश्वास करने की यह कोई बहुत बड़ी वज़ह नहीं थी।
बलविन्दर शादी के एक महीने तक वहीं रहा था और लंदन की अपनी योजनाएं मुझे समझाता रहा था। उसने बताया था कि अपनी एक बुआ के ज़रिये पांच साल पहले लंदन पहुंचा
था और सिर्फ पांच बरसों में ही उसने अपना खुद का अच्छा-ख़ासा कारोबार खड़ा कर लिया है। मेरे पासपोर्ट के लिए एप्लाई करा दिया गया था और बलविन्दर वहां
पहुंचते ही मुझे वहीं बुलवा लेने की कोशिश करने वाला था।
लंदन के लिए विदा होने से पहले वाली रात वह बहुत ही भावुक हो गया था और कहने लगा था - तुम्हें यहां अकेले छोड़ कर जाने का जरा भी मन नहीं है, लेकिन क्या
किया जाये। ट्रेवल डौक्यूमेंट्स की फार्मैलिटी तो पूरी करनी ही पड़ेगी।
उसके जाते ही मेरे सामने कई तरह की परेशानियां आ खड़ी ह़ुई थीं। मुझे दहेज में कुछ भी न लाने के लिए ससुराल वालों ने सताना शुरू कर दिया कि मैं कैसी कंगली
आयी हूं कि सामान के नाम पर एक सुई तक नही लायी हूं। मुझे बहुत खराब लगा। बलविन्दर ने खुद ही तो कहा था कि उन्हें सामान नहीं चाहिये। आखिर जब पानी सिर के
ऊपर से जाने लगा तो मुझे भी अपना मुंह खोलना ही पड़ा - आप ही का संदेश ले कर तो बलविन्दर मम्मी के पास गया था कि हमें कुछ भी नहीं चाहिये और जो कुछ भी देना
है वह ड्राफ्ट के जरिये दे दिया जाये। लेकिन वहां तो मेरी बात सुनने के लिए कोई तैयार ही नहीं था। जब मैंने ज्वांइट खाते में जमा कराये गये पांच लाख के
ड्राफ्ट की बात की तो दूसरी ही सच्चाइयां मेरे सामने आने लगी थीं। हमारा खाता धो पोंछ कर साफ किया जा चुका था। उसने मेरी जानकारी के बिना मेरे ड्राफ्ट के
पूरे पैसे निकलवा लिये थे और मुझे हवा तक नहीं लगने दी थी कि वह खाता बिलकुल साफ करके जा रहा है। यह तो बाद में पता चला था कि उसने उन में से आधे पैसे तो
अपने घर वालों को दे दिये थे और बाकी अपने पास रख लिये थे। उसने अपने घर वालों के साथ यही झूठ बोला कि वह ये पैसे लंदन से कमा कर लाया था और शादी में खर्च
करने के बाद जो कुछ भी बचा है, वह दे कर जा रहा है। वह हमारे पैसों के बल पर अपने घर में अपनी शानदार इमेज बना कर मुझे न केवल कंगला बना गया था बल्कि हम
लोगों को सुनाने के लिए अपने घर वालो को एक स्थायी किस्सा भी दे गया था। मेरे तो जैसे पैरों के तले से जमीन ही खिसक गयी थी। मम्मी को यह बात नहीं बतायी जा
सकती थी। अब तो मेरे सामने यह संकट भी मंडराने लगा था कि पता नहीं बलविन्दर लंदन गया भी है या नहीं और मुझे कभी बुलवायेगा भी या नहीं। मैं अजीब दुविधा में
फंस गयी थी। कहती किसे कि मैं कैसी भ्ंावर में फंस गयी हूं। इतना बड़ा धोखा कर गया था बलविन्दर मेरे साथ। उसे अगर मेरे पैसों की ज़रूरत थी भी तो कम से कम
मुझे बता तो देता। मम्मी ने ये पैसे हमारे लिए ही तो दिये थे। वक्त पड़ने पर हमारे ही काम आने थे। बलविन्दर जाते समय न तो वहां का पता दे गया था और न ही कोई
फोन नम्बर ही। यही कह गया था कि पहुंचते ही अपना अपार्टमेंट बदलने वाला है। शिफ्ट करते ही अपना नया पता दे देगा। उसने अपनी पहुंच का पत्र भी पूरे एक महीने
बाद दिया था। मैं बता नहीं सकती कि यह वक्त मेरे लिए कितना मुश्किल गुजरा था। ससुराल में तो बलविन्दर के जाते ही सबकी आंखें पलट गयी थीं और सब की नजरों में
मैं ही दोषी थी, हालांकि घर पर आने वाले ऐसे मेहमानों की कोई कमी नहीं थी जो आ कर पूछते कि मुझे बलविन्दर के बिना कोई तकलीफ तो नहीं है। मैं सब समझती थी
लेकिन कर ही क्या सकती थी। बलविन्दर ने महीने भर बाद भेजे अपने पहले खत में लिखा था कि वह यहां आते ही अपने बिजिनेस की कुछ परेशानियों में फंस गया है और अभी
मुझे जल्दी नहीं बुलवा पायेगा।
उसने जो पता दिया था वह किसी के केयर ऑफ था। उसने जो पत्र मुझे लिखा था उसमें बहुत ही भावुक भाषा का प्रयोग करते हुए अफ़सोस जाहिर किया था कि वह मेरे बिना
बहुत अकेलापन महसूस करता है लेकिन चाह कर भी मुझे जल्दी बुलवाने के लिए कुछ भी नहीं कर पा रहा है।
इस पत्र में कुछ भी ऐसा नहीं था जिससे मुझे तसल्ली मिलती। पता मिल जाने के बाद सिर्फ एक ही रास्ता यह खुला था कि मैं उससे पूछ सकती थी कि आखिर उसने मेरे साथ
ऐसा धोखा क्यों किया कि मेरे पास मेरे पांच लाख रुपयों में से एक हजार रुपये भी नहीं छोड़े कि मैं अपनी दिन प्रतिदिन की शापिंग ही कर सकूं। मैंने उसे एक
कड़ा पत्र लिखा था कि उसके इस व्यवहार से मुझे कितनी तकलीफ पहुंची है।
मैंने उसे लिखा था कि मैं उसके सुख दुख में हमेशा उसके साथ रहूंगी लेकिन उसे ऐसा नहीं करना चाहिये था कि अपने परिवार की नज़रों में मेरी इमेज इतनी खराब हो।
एक महीने तक उसका कोई जवाब नहीं आया था। मेरे पास इस बात का कोई जरिया नहीं था कि मैं बलविन्दर से सम्पर्क कर पाती। मैं मम्मी के पास जाना चाहती थी ताकि कुछ
वक्त उनके साथ गुजार सकूं लेकिन रोज़ाना बलविन्दर के ख़त के इंतज़ार में मैं अटकी रह जाती थी।
उसके पत्र के इंतज़ार में मुझे बहुत लम्बा लम्बा अरसा गुज़ारना पड़ रहा था। इधर मेरी ससुराल वालों के ताने और जली कटी बातें। मैं अकेली पड़ जाती और. जवाब
नहीं दे पाती थी। एक तो वहां करने धरने के लिए कुछ नहीं होता था और दूसरे बलविन्दर की नीयत का कुछ पता नहीं चल पा रहा था। पूरे दो महीने के लम्बे इंतज़ार के
बाद उसका चार लाइनों का पत्र आया था। उसने इस बात पर गहरा अफ़सोस जाहिर किया था कि वह अपने बिजिनेस की परेशानियों के चक्कर में मुझे उन पैसों की बाबत नहीं
बता सका था। उसने लिखा था कि मुझे बिना बताये उसे ये पैसे निकलवाने पड़े। उसने लिखा था कि दिल्ली की ही एक पार्टी से पिछला कुछ लेन देन बकाया था। जब मैं
उसके पास अगला सामान बुक कराने गया तो उसने साफ मना कर दिया कि जब तक पिछले भुगतान नहीं हो जाते, आगे कुछ भी नहीं मिलेगा। मेरे सामने संकट था कि उसके सामान
के बिना दुकान चलानी मुश्किल हो जाती। मजबूरन तुम्हारे खाते में से उसे चैक दे देना पड़ा। मैने इस बारे में तुम्हें इसलिए नहीं लिखा कि यहां आते ही मैं
बिजिनेस संभलते ही इनका इंतज़ाम करके तुम्हारे खाते में वापिस जमा करा देने वाला था। तुम्हें पता ही न चलता और खाते में पैसे वापिस जमा हो जाते, लेकिन
स्थितियां हैं कि नियंत्रण में ही नहीं आ पा रही हैं।
इस बार भी उसने केयर ऑफ का ही पता दिया था।
बेशक यह चिट्ठी मेरी ससुराल वालों की निगाह में मुझे इस इल्ज़ाम से बरी करती थी कि मैं कंगली नहीं आयी थी और मेरे लाये पांच लाख रुपये आड़े वक्त में
बलविन्दर के ही काम आ रहे हैं। लेकिन पता नहीं मेरी ससुराल वाले किस मिट्टी के बने हुए थे कि मुझे इस इल्ज़ाम से बरी करने के बजाये दूसरे और ज्यादा गंभीर
इल्ज्öााम से घेर लिया - कैसी कुलच्छनी आयी है कि आते ही महीने भर के भीतर हमारे बलविन्दर का चला चलाया बिजिनेस चला गया। पता नहीं, परदेस में कैसे अकेले
संभाल रहा होगा। देखो बिचारे ने पता भी तो अपने किसी दोस्त का दिया है। पता नहीं बेचारे का अपना घर भी बचा है या नहीं।
अब मेरे लिए हालत यह हो गयी थी कि न कहते बनता था न रहते। मैं चारों तरफ से घिर गयी थी। मेरा सबसे बड़ा संकट यही था कि कहीं मम्मी को ये सारी बातें पता न चल
जायें। वे बिचारी तो कही की न रहेंगी। उन्हें ये सब बताने का मतलब होता, उन्हें अपनी ही निगाहों में छोटा बनाना, जो मैं किसी भी कीमत पर नहीं कर सकती थी।
अब मेरे पास एक ही उपाय बचता था कि मैं ससुराल की जली-कटी बातों से बचने के लिए कुछ दिनों के लिए मम्मी के पास लौट आऊं और लंदन में स्थितियों के सुधरने का
इंतज़ार करुं ।
मैंने बलविन्दर का हौसला बढ़ाते हुए उसे एक लम्बा पत्र लिखा। मैं उसे अपने प्रति उसके घर वालों के व्यवहार के बारे में लिख कर और परेशान नहीं करना चाहती थी।
मुझे यह भी पता नहीं था कि उसके घर वाले उसे मेरे बारे में क्या क्या लिखते रहे हैं। मैंने उसे लिखा कि वह अपना ख्याल रखे और मेरी बिलकुल भी चिंता न करे और
कि मैं लंदन में उसकी स्थिति सुधरने तक अपनी मम्मी के पास ही रहना चाहूंगी। वह अगला पत्र मुझे मम्मी के पते पर ही लिखे।
और तब मैं मम्मी के घर लौट आयी थी।
यह लौटना हमेशा के लिए लौटना था।
मम्मी को यह समझाना बहुत ही आसान था कि बलविन्दर जब तक मेरे ट्रेवल डॉक्यूमेंट्स तैयार करा के नहीं भेज देता, मैं उन्हीं के पास रहना चाहूंगी। मम्मी को इस
बात से खुशी ही होनी थी कि ससुराल में अकेले पड़े रहने के बजाये मैं इंडिया में अपना बाकी समय उनके साथ गुजार रही हूं। मम्मी को न तो मैंने पैसों की बाबत
कुछ बताया था और न ही ससुराल में अपने प्रति व्यवहार के बारे में ही। बेकार में ही उन्हें परेशान करने का कोई मतलब नहीं था। मैंने अपना वक्त गुज़ारने के लिए
योगा कलासेस ज्वाइन कर लीं। इससे वकत तो ठीक-ठाक गुज़र जाता था साथ ही अपनी सेहत को ठीक रखने का ज़रिया भी मिल गया था। जीवन के कुछ अर्थ भी मिलने लगे थे।
इस पूरे वक्त के दौरान मेरे पास बलविन्दर के गिने चुने पत्र ही आये थे। उनमें वही या उस से मिलती-जुलती दूसरी समस्याओं के बारे में लिखा होता। मैं उसके हर
अगले पत्र के साथ सोच में डूब जाती कि आखिर इन समस्याओं का कहीं अंत भी होगा या नहीं और मैं कब तक उसके महीने दो महीने के अंतराल पर आने वाले ख़तों के
इंतजार में अपनी ज़िंदगी का सबसे खूबसूरत दौर यूं ही गंवाती रहूंगी।
उसे गये छः महीने होने को आये थे और अभी तक उम्मीद की एक किरण भी कहीं नज़र नहीं आ रही थी। उधर मेरे ससुराल वाले मुझे पूरी तरफ भुला बैठे थे। मैं योगाभ्यास
का कोर्स पूरा कर चुकी थी। वक्त काटने की नीयत से मैंने तब योगा टीचर की ट्रेनिंग लेनी शुरू कर दी थी। साथ ही साथ नेचुरोपैथी का भी कोर्स ज्वाइन कर लिया।
वैसे योगाभ्यास से एक फ़ायदा ज्öारूर हुआ था कि अब मैं झल्लाती या भड़कती नहीं थी और धैर्य से इंतजार करती रहती थी कि जो भी होता है अगर मेरे बस में नहीं है
तो वैसा ही होने दो। मेरा शरीर भी योगाभ्यास से थोड़ा और निखर आया था। इस बीच मेरा पासपोर्ट बन कर आ गया था। मैंने इसकी इत्तला बलविन्दर को दे दी थी लेकिन
उसका कोई जवाब ही नहीं आ रहा था। मैं इधर परेशान होने के बावजूद कुछ भी नहीं कर पा रही थी। मेरे पास उससे सम्पर्क करने का कोई ज़रिया ही नहीं था।
उन्हीं दिनों हमारे ही पड़ोस के एक लड़के की पोस्टिंग उसके ऑफिस की लंदन शाखा में हुई। जाने से पहले वह मेरे पास आया था कि अगर मैं बलविन्दर को एक खत लिख
दूं और उसे एयरपोर्ट आने के लिए कह दूं तो उसे नये देश में शुरूआती दिक्कतों का सामना नहीं करना पड़ेगा। मेरे लिए इससे अच्छी बात क्या हो सकती थी कि इतने
अरसे बाद बलविन्दर के पास सीधे ही संदेश भेजने का मौका मिल रहा था। मैंने बलविन्दर को उसके बारे में विस्तार से खत लिख दिया था। तब मैंने बलविन्दर के लिए
ढेर सारी चीजें बनायी थीं ताकि उन्हें हरीश के हाथ भेज सकूं। मेरे पत्र के साथ मम्मी ने भी बलविन्दर को एक लम्बा पत्र लिख दिया था। हरीश के लंदन जाने की
तारीख से कोई दसेक दिन पहले बलविन्दर का पत्र आ गया था। वह कुछ अलग ही कहानी कह रहा था।
लिखा था बलविन्दर ने। कैसे लिखूं कि मेरे कितने दुर्दिन चल रहे हैं। एक मुसीबत से पीछा छुड़ाया नहीं होता कि दूसरी गले लग जाती है। मैंने तुम्हें पहले नहीं
लिखा था कि कहीं तुम परेशान न हो जाओ, लेकिन हुआ यह था कि इंडिया से जो कन्साइनमेंट आया था उसमें पार्टी ने मुझसे पूरे पैसे ले लेने के बावजूद बदमाशी से
अपने ही किसी क्लायेंट से लिए कुछ ऐसा सामान भी रख दिया था जिसे यहां लाने की परमिशन नहीं है। उसने सोचा था कि जब मैं कन्साइनमेंट छुड़वा लूंगा तो आराम से
अपनी पार्टी को कह कर मुझसे वो सामान मंगवा लेगा। कहीं कुछ गड़बड़ हो गयी तो साफ मुकर जायेगा। और बदकिस्मती से हुआ भी यही। वह माल पकड़ा गया है और इलज़ाम
मुझ पर है क्योंकि ये सामान मेरे ही गोडाउन में मिला है।
मेरी कोई सफाई नहीं मानी गयी है। यहां के कानून तुम्हें मालूम नहीं है कि कितनी सख्ती बरती जाती है। अब पता नहीं क्या होगा मेरा। इसी चिंता के चलते कई दिनों
से अंडरग्राउंड हो कर मारा-मारा फिर रहा हूं और घर भी नहीं गया हूं। अपने कान्टैक्ट्स की मदद से मामला रफ़ा दफ़ा कराने के चक्कर में हूं। अब संकट ये है कि
इम्पोरियम ख्ले तो कुछ कारोबार हो लेकिन मुझे डर है कि कहीं इम्पोरियम के खुलते ही पुलिस मुझे गिरफ्तार न कर ले। तुम भी सोचती होवोगी कि किस पागल से रिश्ता
बंधा है कि अभी तो हाथों की मेंहदी भी नहीं उतरी कि ये सब चक्कर शुरू हो गये। लेकिन चिंता मत करो डियर, सब ठीक हो जायेगा। एक अच्छा वकील मिल गया है। है तो
अपनी तरफ का लेकिन यहां के कानूनों का अच्छा जानकार है और कोई न कोई रास्ता निकाल ही लेगा। मैं मामले से तो बच ही जाऊंंगा। मेरा तो कई लाख का माल इस चक्कर
में फंसा हुआ है वो भी रिलीज हो जायेगा। बस एक ही दिक्कत है। उसकी फीस कुछ ज्यादा ही तगड़ी है। ये समझ लो कि अगर यहीं इंतज़ाम करना पड़ा तो कम से कम पचास
लोगों के आगे हाथ फैलाने पड़ें। मेरी स्थिति तुम समझ पा रही होगी। अंडरग्राउंड होने के कारण मैं सबके आगे हाथ जोड़ने भी नहीं जा सकता। पहले से ही तुम्हारा
देनदार हूं और ऊपर से ये मुसीबत। मैं तुम्हारी तरफ ही उम्मीद भरी निगाह से देख सकता हूं। क्या किसी तरह एक डेढ़ लाख का इंतज़ाम हो पायेगा। जानता हूं।
तुम्हारे या मम्मी जी के लिए लिए यह रकम बहुत बड़ी है। आप लोग अभी पहले ही इतना ज्यादा कर चुके हैं। लेकिन मैं सच कहता हूं, इस मामले से निकलते ही सब कुछ
ठीक हो जायेगा और मैं निश्ंिचत हो कर तुम्हें और मम्मी जी को यहां बुलवाने के लिए कोशिश कर सकूंगा। अब तक तुम्हारा पासपोर्ट भी आ गया होगा। एक ख़ास पता दे
रहा हूं। पैसे चाहे इंडियन करेंसी में हो या पाउंड्स में, इसी पते पर भिजवाना। ये पैसे रिज़र्व बैंक की परमिशन के बिना भिजवाये नहीं जा सकते इसलिए तुम्हें
कोई और ही जरिया ढूंढना होगा। मैं जानता हूं यह मामला मुझे खुद ही सुलटाना चाहिये था और तुम्हें इसकी तत्ती हवा भी नहीं लगने देनी चाहिये थी, लेकिन मुसीबतें
किसी का दरवाजा खटखटा कर तो नहीं ही आतीं। मम्मी जी को मेरी पैरी पौना कहना। जो भी डेवलपमेंट होगा तुम्हें तुरंत लिखूंगा।
पत्र पढ़ कर मैं बहुत परेशान हो गयी थी। समझ में नहीं आ रहा था कि ये क्या हो रहा है। सच में हो भी रहा है या कोई नाटक चल रहा है। कैसे पता चले कि सच क्या
है। एक बात तो थी कि अगर मामला झूठा भी हो तो पता नहीं चल सकता था और सच के बारे में पता करने का कोई ज़रिया ही नहीं था। इतने महीनों के बाद मैंने मम्मी को
पहली बार बलविन्दर के पहले के पत्रों के बारे में बताया था। मम्मी भी यह और पिछले पत्र पढ़ कर बहुत परेशान हो गयी थी। बिना पूरी बात जाने एक डेढ़ लाख रुपये
और भेजने की भी हम हिम्मत भी नहीं जुटा पा रहे थे। वैसे भी कहीं न कहीं से इंतज़ाम ही करना पड़ता। मेरी शादी में ही मम्मी अपनी सारी बचत खर्च कर चुकी थी।
हम दोनों सारी रात इसी मसले के अलग-अलग पहलुओं के बारे में सोचती रही थीं। हमारे सामने कभी इस तरह की स्थिति ही नहीं आयी थी कि इतनी माथा पच्ची करनी पड़ती।
आखिर हम इसी नतीजे पर पहुंचे थे कि मेरा पासपोर्ट आ ही चुका है। क्यों न मैं खुद ही लंदन जा कर सब कुछ अपनी आंखों से देख लूं। आगे-पीछे तो जाना ही है। पता
नहीं बलविन्दर कब बुलवाये या बुलवाये भी या नहीं। आखिर रिश्तेदारी के भी सवाल गाहे बगाहे उठ ही जाते थे कि सात-आठ महीने से लड़की घर बैठी हुई है। ले जाने
वाले तो महीने-पद्रह दिन में ही साथ ले जाते हैं। अभी इस तरह से जाने से सच का भी पता चल जायेगा। सोचा था हमने कि कोशिश की जाये तो हफ्ते भर में टूरिस्ट
वीसा तो बन ही सकता है। साथ देने के लिए हरीश है ही सही। बलविन्दर को एक और तार भेज दिया जायेगा कि वह रिसीव करने आ जाये।
मेरे सारे गहने या तो बेचे गये या गिरवी वगैरह रखे गये। जहां जहां से भी हो सकता था हमने पैसे जुटाये। टिकट और दूसरे इंतजाम करने के बाद मेरे पास लंदन लाने
के लिए लगभग एक लाख तीस हजार रुपये इकट्ठे हो गये थे। तय किया था कि तीस हज़ार मम्मी के पास रखवा दूंगी और एक लाख ही ले कर चलूंगी। मुझे बहुत खराब लग रहा था
कि मैं एक ही साल में दूसरी बार मम्मी की सारी पूंजी निकलवा कर ले जा रही थी। और कोई उपाय भी तो नहीं था। हमने जानबूझ कर बलविन्दर के घर वालों को इसकी खबर
नहीं दी थी। मेरी किस्मत अच्छी थी कि हरीश की कम्पनी की मदद से मुझे टूरिस्ट वीजा वक्त पर मिल गया था और मैं हरीश के साथ उसी फ्लाइट से लंदन आ सकी थी।
और इस तरह मैं हमेशा के लिए लंदन आ गयी थी। लंदन, जिसके बारे में मैं पिछले छः सात महीने से लगातार सपने देख रही थी। कभी सोचा भी नहीं था कि कभी देश की
सीमाएं भी पार करने का मौका मिलेगा। मन में तरह-तरह के ख्याल आ रहे थे। दुआ कर रही थी कि बलविन्दर के साथ सब ठीक-ठाक हो और वह हमें एयरपोर्ट लेने भी आया हो।
अगर कहीं न आया हो तो.. इस के बारे में मैं डर के मारे सोचना भी नहीं चाहती थी।
हम लंदन पहुंचे तो यहां एक और सदमा मेरा इंतज़ार कर रहा था।
हीथ्रो पर काफी देर तक हम दोनों बलविन्दर इंतजार करते खड़े रहे थे और जब उस जैसी शक्ल का कोई भी आदमी काफी देर तक नज़र नहीं आया तो हमने ग्राउंड स्टाफ की
मदद से एनाउंसमेंट भी करवाया लेकिन वह कहीं नहीं था। बलविन्दर के चक्कर में उस बेचारे ने अपने ऑफिस में किसी को खबर नहीं की थी। मैं तो एकदम घबरा गयी थी।
एकदम अनजाना देश और पति महाशय का ही कहीं ठिकाना नहीं। पता नहीं उसे पत्र और तार मिले भी हैं या नहीं, लेकिन उसने जो पता ड्राफ्ट भेजने के लिए दिया था, उसी
पर तो भेजे थे पत्र और तार। मन ही मन डर भी रही थी कि कहीं और कोई गड़बड़ न हो गयी हो। अब मेरे पास इस के अलावा और कोई उपाय नहीं था कि मैं वह रात हरीश के
साथ ही कहीं गुजारूं और अगले दिन तड़के ही बलविन्दर की खोज खबर लूं।
संयोग से हरीश के पास वाइएमसीए के हास्टल का पता था। हम वहीं गये थे। एडवांस बुकिंग न होने के कारण हमें तकलीफ तो हुई लेकिन दो दिन के लिए हमें दो कमरे मिल
गये थे। इतनी साध पालने के बाद आखिर मैं अपने होने वाले शहर लंदन आ पहुंची थी और अपनी पहली ही रात अपने पति के बिना एक गेस्ट हाउस में गुज़ार रही थी। संयोग
से हरीश के पास एक पूरा दिन खाली था और उसे ऑफिस अगले दिन ही ज्वाइन करना था। हम दोनों अगले दिन निकले थे। अपने पति को खोजने। एकदम नया और अनजाना देश, अलग
भाषा और संस्कृति और यहां के भ्झागोल से बिलकुल अनजाने हम दोनों। हमें वाइएमसीए से लंदन की गाइड बुक मिल गयी थी और रिसेप्शनिस्ट ने हमें विलेसडन ग्रीन
स्टेशन तक पहुंचने के रास्ते के बारे में, बस रूट और ट्रेन रूट के बारे में बता दिया था। रिसेप्शनिस्ट ने साथ ही आगाह भी कर दिया था कि आप लोग यहां बिलकुल
नये हैं और ये इलाका काले हब्शियों का है। ज़रा संभल कर जायें। हमें वह घर ढूंढने में बहुत ज्यादा तकलीफ़ हुई। हमें अभी इस देश में आये हुए पद्रह - सोलह
घंटे भी नहीं हुए थे और हम सात समन्दर पार के इतने बड़े और अनजान शहर में बलविन्दर के लिए मारे-मारे फिर रहे थे।
उस पर गुस्सा भी आ रहा था और रह रह कर मन आंशकाओं से भर भी जाता था कि बलविन्दर बिलकुल ठीक हो और हमें मिल जाये।
आखिर दो तीन घंटे की मशक्कत के बाद हम वहां पहुंचे थे और काफी देर तक भटकने के बाद हमें वह घर मिला था। रिसेप्शनिस्ट ने सही कहा था, चारो तरफ हब्शी ही हब्शी
नज़र आ रहे थे। गंदे, गलीज और शक्ल से ही डरावने। मैं अपनी ज़िदंगी में एक साथ इतने हब्शी देख रही थी। उन्हें देखते ही उबकाई आती थी।
ये घर मेन रोड से पिछवाड़े की तरफ की गंदी गलियों में डेढ कमरे का छोटा सा फलैट था। जब हरीश ने दरवाजे की घंटी बजायी तो काफी देर बाद एक लड़के ने दरवाजा
खोला। वह नशे में धुत्त था। उसी कमरे में चार पांच लोग अस्त व्यस्त हालत में पसरे हुए शराब पी रहे थे। चारों तरफ सिगरेट के टोटे, बिखरे हुए मैले कुचैले
कपड़े और शराब की खाली बोतलें। लगता था महीनों से कमरे की सफाई नहीं हुई थी। कमरा एकदम ठंडा था। हरीश ने ही बात संभाली - हमें बलविन्दर जी से मिलना है।
उन्होंने हमें यहीं का पता दे रखा है। हरीश ने एक अच्छी बात यह की कि वहां बलविन्दर को न पा कर और माहौल को गड़बड़ देखते ही उसने मेरा परिचय बलविन्दर की
पत्नी के रूप में न देकर अपनी मित्र के रूप में दिया।
सारे लड़के छोटा-मोटा धंधा करने वाले इंडियन ही लग रहे थे। हमें देखते ही वे लोग थोड़ा डिस्टर्ब हो गये थे। जिस लड़के ने दरवाजा खोला था, उसने हमें अंदर आने
के लिए तो कह दिया था लेकिन अंदर कहीं बैठने की जगह ही नहीं थी। हम वहीं दरवाजे के पास खड़े रह गये थे। काफी देर तक तो वे एक दूसरे के ही पूछते रहे कि ये
लोग कौन से बलविन्दर को पूछ रहे हैं। उसके काम ध्ंाधे के बारे में भी वे पक्के तौर पर कुछ नहीं बता पाये कि वह क्या करता है। जब मैंने उन्हें उसकी शक्ल सूरत
के बारे में और मिडलसैक्स में उसके इंडियन हैंडीक्राफट्स के इम्पोरियम के बारे में बताया तो वे सब के सब हँसने लगे - मैडम कहीं आप मेरठी वैल्डर बिल्ली को तो
नहीं पूछ रहे। जब मैंने हां कहा - येस येस हम उसी का पूछ रहे हैं, लेकिन उसने तो बताया था.. उसका वो इम्पोरियम ??
मैंने किसी तरह बात पूरी की थी। जवाब में वह फिर से हंसने लगा था - वो बिल्ली तो जी यहां नहीं रहता। कभी कभार आ जाता है। शायद इंडिया से किसी डौक्यूमेंट्स
का इंतजार था उसे। बता रहा था यहीं के पते पर आयेगा।
- लेकिन आपका वह बिल्ली. .. वह करता क्या है? मैंने दोबारा पूछा था। जवाब में एक दूसरा लड़का हंसने लगा था - बताया न वैल्डर है। पता नहीं आपका बिल्ली वही
है। दरअसल अपने घर वालों की नजर में हम सब के सब किसी न किसी शानदार काम से जुड़े हुए हैं। ये जो आप संजीव को देख रहे हैं, एम ए पास है और अपनी इंंडिया में
लोग यही जानते हैं कि ये यहां पर एक बहुत बड़ी कम्पनी में मार्केटिंग मैनेजर है जबकि असलियत में ये यहां पर सुबह और शाम के वक्त लोगों के घरों में सब्जी की
होम डिलीवरी करता है। अपने परिचय के जवाब में संजीव नाम के लड़के ने हमें तीन बार झुक कर सलाम बजाया। तभी दूसरा लड़का बीच में बोल पड़ा - जी मुझे इंडिया में
लोग हर्ष कुमार के नाम से जानते हैं। उनके लिए मैं यहां एक मेडिकल लैब एनालिस्ट हूं, लेकिन मैं लंदन का हैश एक बर्गर कार्नर में वेटर का काम करता हूं और दो
सौ बीस पाउंड हफ्ते के कमाता हूं। क्यों ठीक है ना और टिप ऊपर से। गुजारा हो जाता है। यह कहते हुए उसने अपने गिलास की बची-खुची शराब गले से नीचे उतारी और
जोर जोर से हंसने लगा।
पहले वाले लड़के ने तब अपनी बात पूरी की थी - और मैं प्रीतम सिंह इंडिया में घर वालों की नज़र में कम्प्यूटर प्रोग्रामर और यहां की सचाई में सबका प्यारा
प्रैटी द वाशरमैन। मैं बेसमेंट लांडरी चलाता हूं और गोरों के मैले जांगिये धोता हूं। यह कहते हुए उसके मुंह पर अजीब-सा कसैलापन उभर आया था और उसने अपना
गिलास एक ही घूंट में खाली कर दिया था।
काफी हील हुज्ज़त के बाद ही उन्होंने माना कि बलविन्दर वहीं रहता है लेकिन उसके आने-जाने का कोई ठिकाना नहीं है।
मेरी आंखों के आगे दिन में ही तारे नाचने लगे थे। इसका मतलब - हम ठगे गये हैं। जिस बलविन्दर को मैं जानती हूं और जिस बिल्ली का ये लोग जिक्र कर रहे हैं वो
दो अलग अलग आदमी हैं या एक ही हैं। दोनों ही मामलों में मुसीबत मेरी ही थी। तभी उनमें से एक लड़के की आवाज सुनायी दी थी - वैसे जब उसके पास इंडिया से लाये
पैसे थे तो अकेले ऐश करता रहा लेकिन जब खतम हो गये तो इधर उधर मारा मारा फिरता है। जब कहीं ठिकाना नहीं मिलता तो कभी कभार यहां चक्कर काट लेता है । वो भी
अपनी डाक के चक्कर में।
मेरा तन-मन सुलगने लगा था। अब वहां खड़े रहने का कोई मतलब नहीं था। मैंने हरीश को इशारा किया था चलने के लिए। जब हम वापिस चलने लगे थे तो उन्हीं में से एक
ने पूछा था - कोई मैसेज है बिल्ली के लिए तो मैंने पलट कर गुस्से में जवाब दिया था - हां है मैसेज। कहीं अगर मिले आपको आपका बिल्ली या हमारा बिल्ली कभी अपनी
डाक लेने आये तो उससे कह दीजिये कि इंडिया से उसकी बीवी मालविका उसके लिए उसके डौक्यूमेंट्स ले कर आ गयी है। उसे ज़रूरत होगी। मैं वाइएमसीए में ठहरी हुई
हूं। आ कर ले जाये।
वे सब के सब अचानक ठगे रहे गये थे। अब अचानक उन्हें लगा था कि नशे में वे क्या भेद खोल गये हैं। अब सबका नशा हिरण हो चुका था लेकिन किसी को नहीं सूझा था कि
सच्चाई सुन कर कुछ रिएक्ट ही कर पाता।
चलते समय मैं एकदम चुप थी। कुछ भी नहीं सूझ रहा था मुझे। मुझे बिलकुल पता नहीं चला था कि हम हॉस्टल कब और कैसे पहुंचे थे।
कमरे में पहुंचते ही मैं बिस्तर पर ढह गयी थी। अरसे से रुकी मेरी रुलाई फूट पड़ी थी।
तो यह था तस्वीर का असली रंग। मैं यहां न आयी होती तो उसकी कहानी पर रत्ती भर भी शक न करती क्योंकि वह मुझे हनीमून के दौरान ही अपने कारोबार के बारे में
इतने विस्तार से सारी बातें बता चुका था। अब मुझे समझ में आ रहा था कि उसने तब अपने इस सो कॉल्ड धंधे के बारे में इतनी लम्बी लम्बी और बारीक बातें क्यों
बतायीं थीं।
अब सब कुछ साफ हो चुका था कि हम छले जा चुके थे और मेरी शादी पूरे दहेज के साथ अब एक याद न किये जा सकने वाले भद्दे मज़ाक में बदल चुकी थी। मेरा कौमार्य,
मेरा सुहाग, मेरा हनीमून, मेरी हसरतें, मेरी खुशियां, मेरे छोटे छोटे सपने, बलविन्दर जैसे झूठे और मक्कार आदमी के साथ बांटे गये नितांत अंतरंग क्षण, मेरे
सारे अरमान सब कुछ एक भयानक धोखा सिद्ध हो चुके थे। मैं अपनी रुलाई रोक नहीं पा रही थी। मुझे अपने ही तन से घिन्न आने लगी थी। अपने आप पर बुरी तरह से गुस्सा
आने लगा था कि मैंने यह सोने जैसा तन उस धोखेबाज, झूठे और फरेबी आदमी को सौंपा था। मेरे शरीर पर उसने हाथ फिराये थे और मैंने उस आदमी को, जो मेरा पति कहलाने
लायक बिलकुल भी नहीं था, एक बार नहीं बल्कि कई कई बार अपना शरीर न केवल सौंपा था, बल्कि जिसकी भोली भाली बातों के जाल में फंसी मैं कई कई महीनों से उसके
प्रेम में पागल बनी हुई थी। अब उन पलों को याद करके भी मुझे घिन्न होने लगी थी। मेरा मन बुरी तरह छलनी हो चुका था। मैं दहाड़ें मार कर रोना चाहती थी, लेकिन
यहां इस नये और अपरिचित माहौल में मैं खुल कर रो भी नहीं पा रही थी। यहां कोई सीन क्रियेट नहीं करना चाहती थी। मैं गुस्से से लाल पीली हो रही थी। हरीश थोड़ी
देर मेरे कमरे में बैठ कर मुझे एकांत देने की नीयत से अपने कमरे में चला गया था। उस बेचारे को भी समझ में नहीं आ रहा था कि अचानक ये सब क्या हो गया था।
मुझे मम्मी के लिए भी अफ़सोस हो रहा था। उन्हें फोन करके इस स्टेज पर ये बातें बता कर परेशान नहीं करना चाहती थीं। अब इसमें उनका क्या कुसूर कि उनका
देखा-भाला जमाई खोटा निकल गया था। उन्होंने तो उससे सिर्फ दो-चार मुलाकातें ही की थीं और उसके शब्दजाल में ही फंसी थी। मैं मूरख तो न केवल उसकी बातों में
फंसी थी, उसे अपना सब कुछ न्यौछावर कर आयी थी। अपना सुहाग भी और पांच लाख रुपये भी। मम्मी से बड़ा कुसूर तो मेरा ही था। अब सज़ा भी मुझ अकेली को ही भोगनी
थी।
उस सारी रात मैं अकेली रोती छटपटाती करवटें बदलती रही। बार बार मुझे अपने इस शरीर से घृणा होने लगती कि मेरा इतना सहेज कर संभाल कर रखा गया शरीर दूषित किया
भी तो एक झूठे और मक्कार आदमी ने। पता नहीं मुझसे पहले कितनी लड़कियों के साथ खिलवाड़ कर चुका होगा। अब यह बात जिस किसी को भी बतायी जाये, हमारा ही मज़ाक
उड़ायेगा कि तुम्हीं लोग लंदन का छोकरा देख कर लार टपकाये उसके आगे पीछे हो रहे थे। हमने तो पहले ही कहा था, बाहर का मामला है, लड़के को अच्छी तरह ठोक बजा
कर देख लो, लेकिन हमारी सुनता ही कौन है। अब भुगतो।
अब मेरा सबसे बड़ा संकट यही था कि मैं इस परदेस में अकेली और बेसहारा किसके भरोसे रहूंगी। इतनी जल्दी वापिस जाने का भी तो नहीं सोचा जा सकता था। क्या जवाब
दूंगी सबको कि मैं लुटी पिटी न शादीशुदा रही, न कुंवारी। मैं सोच-सोच के मरी जा रही थी कि क्या होगा मेरा अब। पता नहीं बलविन्दर से मुलाकात भी हो पायेगी या
नहीं और मिलने पर भी कभी बलविन्दर जैसे बेईमान और झूठे आदमी से पैच अप हो पायेगा या नहीं या फिर मैं हमेशा हमेशा से आधी कुंवारी और आधी शादीशुदा वाली हालत
में उसका या उसके सुधरने का उसका इंतजार करते करते बूढ़ी हो जाऊंगी। मुझे ये सोच सोच कर रोना आ रहा था कि जिस आदमी के अपने पेपर्स का ठिकाना नहीं है, रहने
खाने और काम का ठौर नहीं है, अगर उससे कभी समझौता हो भी गया तो मुझे कहां रखेगा और कहां से खिलायेगा। वहां तो फिर भी मम्मी थी और सब लोग थे, लेकिन यहां सात
समंदर पार मेरा क्या होगा। मैं भी कैसी मूरख ठहरी, न आगा सोचा न पीछा, लपकी लपकी लंदन चली आयी।
वह पूरी रात मैंने आंखों ही आंखों में काट दी थी और एक पल के लिए भी पलकें नहीं झपकायीं थीं।
हॉस्टल में हमारा यह तीसरा दिन था। आखिरी दिन। बड़ी मुश्किल से हमें एक और दिन की मोहलत मिल पायी थी। इतना ज़रूर हो गया था कि अगर हम चाहते तो आगे की
तारीखों की एडवांस बुकिंग करवा सकते थे लेकिन अभी एक बार तो हॉस्टल खाली करना ही था। हमारा पहला दिन तो बलविन्दर को खोजने और उसे खोने में ही चला गया था।
वहां से वापिस आने के बाद मैं कमरे से निकली ही नहीं थी। हरीश बेचारा खाने के लिए कई बार पूछने आया था। उसके बहुत जिद करने पर मैंने सिर्फ सूप ही लिया था।
अगले दिन वह अपने ऑफिस चला गया था लेकिन दिन में तीन-चार बार वह फोन करके मेरे बारे में पूछता रहा था। मुझे उस पर तरस भी आ रहा था कि बेचारा कहां तो
बलविन्दर के भरोसे यहां आ रहा था और कहां मैं ही उसके गले पड़ गयी थी। जिस दिन हमें हॉस्टल खाली करना था, उसी शाम को वापिस आने पर उसने दो तीन अच्छी खबरें
सुनायी थीं। उसके लिए ग्रीनफोर्ड इलाके में एक गुजराती परिवार के साथ पेइंग गेस्ट के रूप में रहने का इत्ंाज़ाम हो गया था। लेकिन उसने एक झूठ बोल कर मेरा
काम भी बना दिया था। उसने वहां बताया था कि उसकी बड़ी बहन भी एक प्रोजैक्ट के सिलसिले में उसके साथ आयी हुई है पद्रह बीस दिन के लिए। फिलहाल उसी घर में उसके
लिए भी एक अलग कमरे का इंतज़ाम करना पड़ेगा ताकि वह अपना प्रोजेक्ट बिना किसी तकलीफ़ के पूरा कर सके। बीच-बीच में उसे काम के सिलसिले में बाहर भी जाना पड़
सकता है। हरीश की अक्लमंदी से ये इंतज्öााम हो गये थे और हमें अगले दिन ही वहां शिफ्ट कर जाना था।
मैं दोहरी दुविधा में फंस गयी थी। एक तरफ हरीश पर ढेर सारा प्यार आ रहा था जो मेरी इतनी मदद कर रहा था और दूसरी तरफ बलविन्दर पर बुरी तरह गुस्सा भी आ रहा था
कि देखो, हमें यहां आये तीसरा दिन है और अब तक जनाब का पता ही नहीं है।
दो तीन दिन के इस आत्म मंथन के बीच मैं भी तय कर चुकी थी कि मैं अब यहां से वापिस नहीं जाऊंगी। बलविन्दर या नो बलविन्दर, अब यही मेरा कार्य क्ष्टात्र रहेगा।
तय कर लिया था कि काम करने के बारे में यहां के कानूनों के बारे में पता करूंगी और सारे काम कानून के हिसाब से ही करूंगी।
अब संयोग से हरीश ने रहने का इंतजाम कर ही दिया था। अभी तो मेरे पास इतने पैसे थे कि ठीक-ठाक तरीके से रहते हुए बिना काम किये भी दो तीन महीने आराम से काटे
जा सकते थे।
हम अभी रिसेप्शन पर हिसाब कर ही रहे थे, तभी वह आया था। बुरी हालत थी उसकी। बिखरे हुए बाल। बढ़ी हुई दाढ़ी और मैले कपड़े। जैसे कई दिनों से नहाया ही न हो।
मैं उसे सात आठ महीने बाद देख रही थी। अपने पति को, बलविन्दर को। वह मेरी तरफ खाली खाली निगाहों से देख रहा था।
उसने मेरी तरफ देखा, हरीश की तरफ देखा और हमारे सामान की तरफ देखा जैसे तय कर रहा हो, इनमें से कौन-कौन से बैग मेरे हो सकते हैं। फिर उसने बिना कुछ पूछे ही
दो बैग उठाये और हौले से मुझसे कहा - चलो।
मैं हैरान - ये कै सा आदमी है, जिसमें शर्म हया नाम की कोई चीज ही नहीं है। जिस हालत में मुझसे सात महीने बाद मिल रहा है, चार दिन से मैं लंदन में पड़ी हुई
हूं, मेरी खबर तक लेने नहीं आया और अब सामान उठाये आदेश दे रहा है - चलो। कैसे व्यवहार कर रहा है। हरीश भी उसका व्यवहार देख कर हैरान था। हरीश की हैरानी का
कारण यह भी था कि बलविन्दर के दोनों हाथों में उसी के बैग थे। बलविन्दर पूरी निश्चिंतता से बैग उठाये बाहर की तरफ चला जा रहा था। मैं समझ नहीं पा रही थी कि
क्या कहूं और कैसे कहूं कि हे मेरे पति महाशय, क्या यही तरीका है एक सभ्य देश के सभ्य नागरिक का आपके देश में पहली बार पधारी पत्नी का स्वागत करने का।
मुझे गुस्सा भी बहुत आ रहा था और रुलाई भी फूटने को थी - क्या मैं इसी शख्स का इतने महीनों से गुरदासपुर में इंतज़ार कर रही थी कि मेरा पिया मुझे लेने आयेगा
और मैं उसके साथ लंदन जाऊंगी।
बलविन्दर ने जब देखा कि मैं उसके पीछे नहीं आ रही हूं बल्कि वहीं खड़ी उसका तमाशा देख रही हूं तो दोनों बैग वहीं पर रखे, वापिस पलटा और मेरे एकदम पास आ कर
बोला - घर चलो, वहीं आराम से सारी बातें करेंगे। और वह मेरे जवाब का इंतज़ार किये बिना फिर बैगों की तरफ चल दिया। मैं दुविधा में थी, ख्शा होऊं कि मेरा पति
मुझे लेने आ गया है या रोऊंं कि जिस हाल में आया है, न आया होता तो अच्छा होता। उधर हरीश हैरान परेशान मेरे इशारे का इंतज़ार कर रहा था।
मैंने यही बेहतर समझा कि आगे पीछे एक बार तो बलविन्दर के साथ जाना ही पड़ेगा। उसका पक्ष भी सुने बिना मुक्ति नहीं होगी तो इसे क्यों लटकाया जाये। जो कुछ
होना है आज निपट ही जाये। उसके साथ बाकी जीवन गुज़ारना है तो आज ही से क्यों नहीं और अगर नहीं गुज़ारना है तो उसका भी फैसला आज ही हो जाये।
मैंने हरीश से फुसफुसा कर कहा - सुनो हरीश
- जी दीदी
- आज तो मुझे इनके साथ जाने ही दो। जो भी फ़ैसला होगा मैं तुम्हें फोन पर बता दूंगी। अलबत्ता पेइंग गेस्ट वाली मेरी बुकिंग कैंसिल मत करवाना।
- ठीक है दीदी, मैं आपके फोन का इंतज़ार करूंगा। बेस्ट ऑफ लक, दीदी।
हम दोनों आगे बढ़े थे। हमें आते देख बलविन्दर की आंखों में किसी भी तरह की चमक नहीं आयी थी। उसने फिर से बैग उठा लिये थे। मुझे हंसी भी आ रही थी - देखो इस
शख्स को, चौथे दिन मेरी खबर लेने आया है। न हैलो न और कोई बात, बस बैग उठा कर खड़ा हो गया है।
मैंने हरीश का झूठा परिचय कराया था - ये हरीश है। मेरी बुआ का लड़का। हमारी शादी के वक्त बंबई में था। यहां नौकरी के लिए आया है।
बलविन्दर ने एक शब्द बोले बिना अपना हाथ आगे बढ़ा दिया था।
हरीश ने तब अपने बैग बलविन्दर के हाथ से लिये थे और अपना हाथ मेरी तरफ बढ़ा दिया था - चलता हूं दीदी। अपनी खबर देना। ओके जीजाजी, कहते हुए वह तेज़ी से बाहर
निकल गया था।
मिनी कैब में बैठा बलविन्दर लगातार बाहर की तरफ देखता रहा था। पूरे रास्ते न तो उसने मेरी तरफ देखा था और न ही उसने एक शब्द ही कहा था। मैं उम्मीद कर रही थी
और कुछ भी नहीं तो कम से कम मेरा हाथ ही दबा कर अपने आप को मुझसे जोड़ लेता। मैं तब भी उसके सारे सच-झूठ मान लेती। पता नहीं क्या हो गया है इसे। इतने
अजनबियों की तरह व्यवहार कर रहा है।
मिनी कैब विलेसडन ग्रीन जैसी ही किसी गंदी बस्ती में पहुंच गयी थी। वह ड्राइवर को गलियों में दायें बायें मुड़ने के लिए बता रहा था।
आखिर हम आ पहुंचे थे।
क्या कहती इसे - मेरा घर.. ..मेरी ससुराल .. ..या एक और पड़ाव....।. बलविन्दर ने दरवाजा खोला था। सामान अंदर रखा था। मैं उम्मीद कर रही थी अब तो वह आगे बढ़
कर मुझे अपने गले से लगा ही लेगा और मुझ पर चुंबनों की बौछार कर देगा। मेरे सारे शरीर को चूमते- चूमते खड़े-खड़े ही मेरे कपड़े उतारते हुए मुझे सोफे या पलंग
की तरफ ले जायेगा और उसके बाद.. मैं यही उम्मीद कर सकती थी.. चाह सकती थी और इस तरह के व्यवहार के लिए तैयार भी थी। आख़िर हम नव विवाहित पति पत्नी थे और
पूरे सात महीने बाद मिल रहे थे, लेकिन उसने ऐसा कुछ भी नहीं किया था और रसोई में चाय बनाने चला गया था।
मैंने देखा था, यह घर भी उन लड़कों वाले उस घर की तरह ही था लेकिन उसकी तुलना में साफ-सुथरा था और सामान भी बेहतर और ज्यादा था। मैं सोच ही रही थी कि अगर यह
घर बलविन्दर का है तो उसने उस गंदे से घर का पता क्यों दिया था। लेकिन दो मिनट में ही मेरी शंका का समाधान हो गया था। यह घर भी बलविन्दर का नहीं था। जरूर
उसके किसी दोस्त का रहा होगा और इसका इंतज़ाम करने में ही बलविन्दर को दो तीन दिन लग गये होंगे। जब मैं बाथरूम में गयी तो बाथरूम ने पूरी पोल खोल दी थी।
वहां एक नाइट गाउन टंगा हुआ था। बलविन्दर नाइट गाउन नहीं पहनता, यह बात उसने मुझे हनीमून के वक्त ही बता दी थी। वह रात को सोते समय किसी भी मौसम में बनियान
और पैंट पहन कर ही सोता था। बाथरूम में ही रखे शैम्पू और दूसरे परफयूम उसकी चुगली खा रहे थे। ये दोनों चीजें ही बलविन्दर इस्तेमाल नहीं करता था।
कमरे में लौट कर मैंने ग़ौर से देखा था, वहां भी कई चीजें ऐसी थीं जो बलविन्दर की नहीं हो सकती थीं। किताबों के रैक में मैंने जो पहली किताब निकाल कर देखी
उस पर किसी राजेन्दर सोनी का नाम लिखा हुआ था। दूसरी और तीसरी किताबें भी राजेन्दर सोनी की ही थीं।
बलविन्दर अभी भी रसोई में ही था। वहां से डिब्बे खोलने बंद करने की आवाजें आ रही थीं। मुझे इतने तनावपूर्ण माहौल में भी हँसी आ गयी। जरूर चाय पत्ती चीनी
ढूंढ रहा होगा।
आखिर वह चाय बनाने में सफल हो गया था। लेकिन शायद खाने के लिए कुछ नहीं खोज पाया होगा। वह अब मेरे सामने बैठा था। मैं इंतज़ार कर रही थी कि वह कुछ बोले तो
बात बने। लेकिन वह मुझसे लगातार नज़रें चुरा रहा था।
बात मैंने ही शुरू की थी- ये क्या हाल बना रखा है। तुम तो अपने बारे में ज़रा-सी भी लापरवाही पसंद नहीं करते थे।
- क्या बताउं€, कितने महीने हो गये, इन मुसीबतों की वजह से मारा-मारा फिर रहा हूं। अपने बारे में सोचने की भी फुर्सत नहीं मिल रही है। तुम.. तुम.. अचानक ..
इस तरह से .. बिना बताये..।
- तुम्हें अपनी परेशानियों से फुर्सत मिले तो दुनिया की कुछ खबर भी मिले .. मैंने तुम्हें दो तार डाले, दो खत डाले। वहां हम हीथ्रो पर एक घंटा तुम्हारा
इंतज़ार करते रहे। एनाउंसमेंट भी करवाया और तुम्हें खोजने वहां तुम्हारे उस पते पर भी गये। और तुम हो कि आज चौथे दिन मिलने आ रहे हो। इस पर भी तुमने एक बार
भी नहीं पूछा... कैसी हो.. मेरी तकलीफ़ का ज़रा भी ख्याल नहीं था तुम्हें।
- सच में मैं मुसीबत में हूं। मेरा विश्वास तो करो मालविका, मैं बता नहीं सकता, मुझे आज ही पता चला कि ....
- झूठ तो तुम बोलो मत.. तुम हमेशा से मुझसे झूठ बोलते रहे हो। एक के बाद दूसरा झूठ।
- मेरा यकीन करो, डीयर, मुझे सचमुच आज ही पता चला।
- सच बताओ तुम्हारा असली परिचय क्या है, और तुम्हारा घर कहां है। कोई घर है भी या नहीं,.. मुझे गुस्सा आ गया था।
इतनी देर में वह पहली बार हँसा था - तुम तो स्कॉटलैंड यार्ड की तरह ज़िरह करने लगी।
- तो तुम्हीं बता दो सच क्या है।
- सच वही है जो तुम जानती हो।
- तो जो कुछ तुम्हारे उन लफंगे दोस्तों ने बताया, वो किसका सच है।
- तुम भी उन शराबियों की बातों में आ गयीं। क्या है कि उन लोगों का खुद का कोई काम धंधा है नहीं, न कुछ करने की नीयत ही है। बस जो भी उनकी मदद न करे उसके
बारे में उलटी सीधी उड़ा देते हैं। अब पता नहीं मेरे बारे में उन्होंने तुम्हारे क्या कान भरे हैं।
- तो ये वैल्डर बिल्ली कौन है।
- बिल्ली ... अच्छा वो ...था एक। अब वापिस इंडिया चला गया है। लेकिन तुम उसके बारे में कैसे जानती हो।
- मुझे बताया गया है तुम्हीं बिल्ली वैल्डर हो।
- बकवास है।
- ये घर किसका है?
- क्यों .. अब घर को क्या हो गया...मेरा ही है। मैं तुम्हें किसी और के घर क्यों लाने लगा।
- तो बाथरूम में टंगा वो नाइट गाउन, शैम्पू, परफयूम्स और ये किताबें.. .. कौन है ये राजेन्दर सोनी?
हकलाने लगा बलविन्दर - वो क्या है कि जब से बिजिनेस के चक्करों में फंसा हूं, काम एकदम बंद पड़ा है। कई बार खाने तक के पैसे नहीं होते थे मेरे पास, इसीलिए
एक पेइंग गेस्ट रख लिया था।
- बलविन्दर, तुम एक के बाद एक झूठ बोले जा रहे हो। क्यों नहीं एक ही बार सारे झूठों से परदा हटा कर मुक्त हो जाते।
- यकीन करो डियर मेरा, मैं सच कर रहा हूं।
- तकलीफ तो यही है कि तुम मुझसे कभी सच बोले ही नहीं। यहीं तुम्हारे इस घर में आ कर मुझे पता चल रहा है कि मकान मालिक के कपड़े तो अटैची में रहते हैं और
पेइंग गेस्ट के कपड़े अलमारियों में रखे जाते हैं। मकान मालिक रसोई में चाय और चीनी के डिब्बे ढूंढने में दस मिनट लगा देता है और अपने ही घर में मेहमानों की
तरह जूते पहने बैठा रहता है।
- तुम्हें लिखा तो था मैंने कि कब से अंडरग्राउंड चल रहा हूं। कभी कहीं सोता हूं तो कभी कहीं।
- मैं तुम्हारी सारी बातों पर यकीन कर लूंगी। मुझे अपने शो रूम के पेपर्स दिखा दो।
- वो तो शायद विजय के यहां रखे हैं। वह फिर से हकला गया था।
- लेकिन शो रूम की चाबी तो तुम्हारे पास होगी।
- नहीं, वो वकील के पास है।
- तुम्हारे पास अपने शोरूम का पता तो होगा। मुझे गुस्सा आ गया था - कम से कम टैक्सी में बैठे बैठे दूर से तो दिखा सकते हो। मैं उसी में तसल्ली कर लूंगी।
- दिखा दूंगा,. तुम इतने महीने बाद मिली हो। इन बातों में समय बरबाद कर रही हो। मेरा यकीन करो। मैं तुम्हें सारी बातों का यकीन करा दूंगा। अब यही तुम्हारा
घर है और तुम्हें ही संभालना है। यह कहते हुए वह उठा था और इतनी देर में पहली बार मेरे पास आ कर बैठा था। उस समय मैं उस शख्स से प्यार करने और उसे खुद को
प्यार करने देने की बिलकुल मनस्थिति में नहीं थी। यहां तक कि उसका मुझे छूना भी नागवार गुज़र रहा था। मैंने उसका बढ़ता हुआ हाथ झटक दिया था और एक आसान सा
झूठ बोल दिया था - अभी मैं इस हालत में नहीं हूं। मेरे पीरियड्स चल रहे हैं।
वह चौंक कर एकदम पीछे हट गया था और फिर अपनी जगह जा कर बैठ गया था। उसे इतना भी नहीं सूझा था कि पीरियड्स में सैक्स की ही तो मनाई होती है, अरसे बाद मिली
बीवी का हाथ थामने, उसे अपने सीने से लगाने और चूमने से कुछ नहीं होता। मैंने भी तय कर लिया था, जब तक वह अपनी असली पहचान नहीं बता देता, मैं उसे अपने पास
भी नहीं फटकने दूंगी। बेशक उस वक्त मैं सैक्स के लिए बुरी तरह तड़प रही थी और मन ही मन चाह रही थी कि वह मुझसे जबरदस्ती भी करे तो मैं मना नहीं करूंगी।
लेकिन वह तो हाथ खींच कर एकदम पीछे ही हट गया था।
मेरा वहां यह तीसरा दिन था। ये तीनों दिन वहां मैंने एक मेहमान की तरह काटे थे। जब घर के मालिक की हालत ही मेहमान जैसी हो तो मैं भला कैसे सहज रह सकती थी।
हम आम तौर पर इस दौरान चुप ही रहे थे। इन तीन दिनों में मैंने उससे कई बार कहा था, चले शो रूम देखने, वकील से मिलने या विजय के यहां शो रूम के पेपर्स देखने
लेकिन वह लगातार एक या दूसरे बहाने से टालता रहा।
मैं तीन दिन से उसकी लंतरानियां सुनते सुनते तंग आ चुकी थी। हम इस दौरान दो एक बार ही बाज़ार की तरफ गये थे। सामान लेने और बाहर खाना खाने और दो एक बार फोन
करने। मम्मी को अपनी पहुंच की खबर भी देनी थी। कब से टाल रही थी। मैंने मम्मी को सिर्फ यही बताया कि यहां सब ठीक ठाक है और मैं बाकी बातें विस्तार से पत्र
में लिखूंगी। बलविन्दर की अब तक की सारी बातें उसके खिलाफ़ जा रही थीं लेकिन फिर भी वह बताने को तैयार नहीं था कि उसकी असलियत क्या है। वह हर बार एक नया
बहाना बना देता। एकाध बार फोन करने के बहाने बाहर भी गया लेकिन लौट कर यही बताया कि वो घर पर नहीं है, बाहर गया है, कल आयेगा या परसों आयेगा। आखिर तंग आ कर
मैंने उसे अल्टीमेटम दे दिया था - अगर कल तक तुमने मुझे अपनी असलियत का कोई सुबूत नहीं दिखाया तो मेरे पास यह मानने के अलावा और कोई चारा नहीं होगा कि तुम
और कोई नहीं, बिल्ली वैल्डर ही हो और तुम मुझसे लगातार झूठ बोलते रहे हो। तब मुझे यहां इस तरह रोकने का कोई हक नहीं रहेगा।
पूछा था उसने - कहां जाओगी मुझे छोड़ कर..।
जवाब दिया था मैंने - जब सात समंदर पार करके यहां तक आ सकती हूं तो यहां से कहीं और भी जा सकती हूं।
- इतना आसान नहीं है यहां अकेले रहना। मैं आदमी हो कर नहीं संभाल पा रहा हूं...।
- झूठे आदमी के लिए हर जगह तकलीफें ही होती हैं।
- तुम मुझे बार बार झूठा क्यों सिद्ध करने पर तुली हुई हो। मैं तुम्हें कैसे यकीन दिलाऊं,..
- दुकान के, घर के, काराबार के पेपर्स दिखा दो.. मैं यकीन कर लूंगी और न केवल अपने सारे आरोप वापिस लूंगी बल्कि तुम्हें मुसीबतों से बाहर निकालने के लिए
अपनी जान तक लड़ा दूंगी। पता नहीं तुम्हारा पासपोर्ट भी असली है या नहीं। कहीं चोरी छुपे तो नहीं आये हुए हो यहां ?
- वक्त आने दो। सारी चीजें दिखा दूंगा।
- मैं उसी वक्त का इंतजार कर रही हूं।
- यू आर टू डिफिकल्ट ।
लेकिन तीसरी रात वह टूट गया था। हम दोनों अलग अलग सो रहे थे। रोजाना इसी तरह सोते थे। मैं उसे अपने पास भी नहीं फटकने दे रही थी। वह अचानक ही आधी रात को
मेरे पास आया था और मेरे सीने से लग कर फूट-फूट कर रोने लगा था। उसका इस तरह रोना मुझे बहुत अखरा था लेकिन शायद वह भी थक चुका था और अपना खोल उतार कर मुक्त
हो जाना चाहता था। चलो, कहीं तो बर्फ पिघली थी। मैंने उसे पुचकारा था, चुप कराया था और उसके बालों में उंगलियां फिराने लगी थी।
उसने तब कहा था - हम सब कुछ भुला कर नये सिरे से ज़िंदगी नहीं शुरू कर सकते क्या। मैं मानता हूं, मैं तुमसे कुछ बातें छुपाता रहा हूं, लेकिन इस समय मैं
सचमुच मुसीबत में हूं और अगर तुम भी मेरा साथ नहीं दोगी तो मैं बिलकुल टूट जाउं€गा। और वह फफक फफक कर रोने लगा था।
उस रात मैंने उसे स्वीकार कर लिया था और कहा था - ठीक है। तुम अब चुप हो जाओ। इस बारे में हम बाद में बात करेंगे।
बेशक उसमें अब पहले वाला जोश खरोश नहीं रह गया था। शायद उसकी मानसिक हालत और कुछ हद तक आर्थिक हालत भी इसके लिए जिम्मेवार थी। शायद यह डर भी रहा हो कि कहीं
मैं सचमुच चली ही न जाऊं।
अगले दिन उसके व्यवहार में बहुत तब्दीली आ गयी थी और वह सहजता से पेश आ रहा था। कई दिन बाद उसने शेव की थी और ढंग से कपड़े पहने थे। मुझे घुमाने ले गया था
और बाहर खाना खिलाया था। एक ही बार के सैक्स से और अपने झूठ से मुक्ति पा कर वह नार्मल हो गया था। मैं इंतज़ार कर रही थी कि वह अपने बारे मे सब कुछ सच सच
बता देगा लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। वह ऐसे व्यवहार कर रहा था मानो कुछ हुआ ही न हो। इसके बजाये उसने रात को बिस्तर पर आने पर पहला सवाल यही पूछा - मैंने
तुम्हें कुछ पैसों के बारे में लिखा था, कुछ इंतज़ाम हो पाया था क्या....।
मैं हैरान हो गयी थी। कल रात तो नये सिरे से ज़िंदगी शुरुकरने की बात कही जा रही थी और अब..कहीं कल रात का नाटक मुझसे पैसे निकलवाने के लिए ही नाटक तो नहीं
था।
फिर भी कहा था मैंने - अपने वकील से मिलवा दो। मैं उसकी फीस का इंतजाम भी कर दूंगी।
- नहीं, दरअसल मैं कोई नया धंधा शुरू करना चाहता था।
- क्यों, मैंने छेड़ा था - वो इम्पोरियम यूं ही हाथ से जाने दोगे?
- अब छोड़ो भी उस बात को। कहा न... कुछ नया करना चाहता हूं। कुछ मदद कर पाओगी।
अब आया था ऊंट पहाड़ के नीचे। मैंने उस वक्त तो उसे साफ मना कर दिया था कि बड़ी मुश्किल से हम किराये के लायक ही पैसे जुटा पाये थे। बस, किसी तरह मैं आ पायी
हूं। वह निराश हो गया था। मैं जानती थी, अगर उसे मैं सारे पैसे सौंप भी दूं तो भी कोई क्रांति नहीं होने वाली है। बहुत मुश्किल था अब उस पर विश्वास कर पाना।
अब इस परदेस में कुल जमा यही पूंजी मेरे पास थी। अगर कहीं ये भी उसके हत्थे चढ़ गयी तो मैं तो कहीं की न रहूंगी। मन का एक कोना यह भी कह रहा था पैसा पति से
बढ़ कर तो नहीं है। अब जब उसने माफी मांग ही ली है तो क्यें नहीं उसकी मदद कर देती। आखिर रहना तो उसी के साथ ही है। जो कुछ कमायेगा, घर ही तो लायेगा। अब ये
तो कोई तुक नहीं है कि पैसे घर में बेकार पड़े रहें और घर का मरद काम करने के लिए पूंजी के लिए मारा मारा फिरे ....।
और इस तरह मैंने उस पर एक और बार विश्वास करके उसे पांच सौ पाउंड दिये थे। नोट देखते ही उसकी आंखें एकदम चमकने लगीं थीं।
कहा था मैंने उससे - बस, यही सब कुछ है मेरे पास। इसके अलावा मेरे पास एक धेला भी नहीं है। अगर कहीं कल के दिन तुम मुझे घर से निकाल दो तो मेरे पास पुलिस को
फोन करने के लिए एक सिक्का भी नहीं है।
- तुम बेकार में शक कर रही हो। मैं भला तुम्हें घर से क्यों निकालने लगा। तुमने तो आकर मेरी अंधेरी ज़िंदगी में नयी रौशनी भर दी है। अब देखना इन पांच सौ
पाउंडों के कितने हज़ार पाउंड बना कर दिखाता हूं।
लेकिन इस बार भी मैंने ही धोखा खाया था। वह पैसे लेने के बाद कई दिन तक सारा सारा दिन गायब रहता लेकिन ये सारे पैसे पांच- सात दिन में ही अपनी मंज़िल तलाश
करके बलविन्दर से विदा हो गये थे। कारण वही घिसे पिटे थे। जो काम हाथ में लिया था, उसका अनुभव न होने के कारण घाटा हो गया था। एक बार फिर वह नये सिरे से
बेकार था।
इधर वह अब मुझे पहले की तरह ही खूब प्यार करने लगा था, इधर मैंने एक बात पर गौर किया था कि वह रात के वक्त लाइटें जला कर मेरा पूरा शरीर बहुत देर तक निहारता
रहता और उसकी खूब तारीफ करता। मुझे बहुत शरम आती लेकिन अच्छा भी लगता कि मैं अभी उसकी नज़रों से उतरी नहीं हूं।
लेकिन इसकी सचाई भी जल्दी ही सामने आ गयी थी। एक दिन वह एक बढ़िया कैमरा ले कर आया था और अलग-अलग पोज में मेरी बहुत सारी तस्वीरें खींचीं थीं। जब तस्वीरें
डेवलप हो कर आयी थीं तो वह बहुत खुश था। तस्वीरें बहुत ही अच्छी आयी थीं। एक दिन वह ये सारी तस्वीरें लेकर कहीं गया था तो बहुत खुश खुश घर लौटा था।
बताया था उसने - एक ऐड एजेंसी को तुम्हारी तस्वीरें बहुत पसंद आयी हैं। वे तुम्हें मॉडलिंग का चांस देना चाहते हैं। अगर तुम्हारी तस्वीरें सेलेक्ट हो जायें
तो तुम्हें मॉडलिंग का एक बहुत बड़ा एसाइनमेंट मिल सकता है। लेकिन उसके लिए एक फोटो सैशन उन्हीं के स्टूडियो में कराना होगा। क्या कहती हो... हाथ से जाने
दें यह मौका क्या....।
यह मेरे लिए अनहोनी बात थी। अच्छा भी लगा था कि यहां भी खूबसूरती के कद्रदान बसते हैं। अपनी फिगर और चेहरे मोहरे की तारीफ बरसों से देखने वालों की निगाह में
देखती आ रही थी। एक से बढ़ कर एक कम्पलीमेंट पाये थे लेकिन मॉडलिंग जैसी चीज के लिए गुरदासपुर जैसी छोटी जगह में सोचा भी नहीं जा सकता था। अब यहां लंदन में
मॉडलिंग का प्रस्ताव.. वह भी आने के दस दिन के भीतर.. रोमांच भी हो रहा था और डर भी था कि इसमें भी कहीं धोखा न हो। वैसे भी बलविन्दर के बारे में इतनी आसानी
से विश्वास करने को जी नहीं चाह रहा था। बलविन्दर ने मेरी दुविधा देख कर तसल्ली दी थी - कोई जल्दीबाजी नहीं है.. आराम से सोच कर बताना.. ऐसे मामलों में
हड़बड़ी ठीक नहीं होती। मैं भी इस बीच सारी चीजें देख भाल लूं।
मैंने भी सोचा था - देख लिया जाये इसे भी.. बलविन्दर साथ होगा ही। कोई जबरदस्ती तो है नहीं। काम पसंद न आया तो घर वापिस आ जाऊंगी।
जर्मन फोटोग्राफर की आंखें मुझे देखते ही चमकने लगीं थीं। तारीफ भरी निगाहों से मुझे देखते हुए उसने कहा था - यू आर ग्रेट, सच ए प्रॅटी फेस एंड परफैक्ट
फिगर.. आइ बैट यू विल बी एन इंसटैंट हिट। वैलकम माय डियर.. मुझे रोमांच हो आया था। अपनी तारीफ में आज तक बीसियों कम्पलीमेंट सुने थे लेकिन कभी भी किसी अजनबी
ने पहली ही मुलाकात में इतने साफ शब्दों में कुछ नहीं कहा था।
मुझे अंदर स्टूडियो में ले जाया गया था। बलविन्दर देर तक उस अंग्रेज फोटोग्राफर से बात करता रहा था। जब मुझे मेकअप के लिए ले जाया जाने लगा तो बलविन्दर ने
मुझे गुडलक कहा था और बेशरमी से हँसा था - अब तो तुम टॉप क्लास मॉडल हो। हमें भूल मत जाना। मुझे उसका इस तरह हँसना बहुत खराब लगा था। लेकिन माहौल देख कर मैं
चुप रह गयी थी।
फोटाग्राफर की असिस्टेंट ने मेरा मेक अप किया था। उसके बाद एक और लड़की आयी थी जिसने मुझे एक पैकेट पकड़ाते हुए कहा - ये कॉस्ट्यूम है। चेंज रूम में जा कर
पहन लीजिये। मैं कुछ समझी थी और कुछ नहीं समझी थी। लेकिन जब भीतर जा कर पैकेट खोल देखा तो मेरे तो होश ही उड़ गये थे। दो इंंच की पट्टी की नीले रंग की ब्रा
थी और तीन इंच की पैंटी। अब सारी बातें मेरी समझ में आ गयी थीं - बलविन्दर का मेरे शरीर को कई कई दिन तक घूरते रहना, उसकी हँसी, मेरे फोटो खींचना और यहां तक
घेर-घार का लाना और उसकी कुटिल हँसी हँसते हुए कहना - अब तो तुम टॉप क्लास मॉडल हो। हमें भूल मत जाना।
मैं सपने में भी नहीं सोच सकती थी कि मेरा अपना पति इतना गिर भी सकता है कि अभी मुझे आये हुए चार दिन भी नहीं हुए और मेरी नंगी तस्वीरें खिंचवाने ले आया है।
पैसों की हेराफेरी फिर भी मैं बरदाश्त कर गयी और उसे माफ भी कर दिया था लेकिन उसकी ये हरकत..मैं गुस्से से लाल पीली होते हुए चेंज रूम से बाहर आयी थी और
बलविन्दर को पूछा था।
फोटोग्राफर ने बदले में मुझसे ही बहुत ही प्यार से पूछा था - कोई प्राब्लम है मैडम? लेकिन जब मैंने बलविन्दर को ही बुलाने के लिए कहा तो उसने बताया था -
आपके हसबैंड ने यहां से एक फोन किया था। उन्हें अचानक ही एक पार्टी से मिलने जाना पड़ा। उन्हें दो एक घंटे लग जायेंगे। वे कह गये थे कि अगर उन्हें देर हो
जाये तो आप घर चली जायें। डोंट वरी मैडम, वे घर की चाबी दे गये हैं। हमारी कार आपको घर छोड़ आयेगी।
यह सुनते ही मेरी रुलाई फूट पड़ी थी। यह क्या हो रहा था मेरे भगवान, मेरा अपना पति मुझसे ऐसे काम भी करवा सकता है। इससे तो अच्छा होता मैं यहां आती ही नहीं।
फोटोग्राफर यह सीन देख कर घबरा गया था। उसने तुरंत अपनी असिस्टैंट को बुलाया था। वह मुझे भीतर ले गयी थी। पूछा था - आपकी तबीयत तो ठीक है। मैं उसे कैसे
बताती कि अब तो कुछ भी ठीक नहीं रहा। वह देर तक मेरी पीठ पर हाथ फे रती रही थी। जब मैं कुछ संभली थी तो उसने फिर पूछा था - बात क्या है। मैं उसे अपनी दोस्त
ही समझूं और पूरी बात बताऊं। वह मेरी पूरी मदद करेगी।
तब मैंने बड़ी मुश्किल से उसे सारी बात बतायी थी। यह भी बताया था कि यहां आये हुए मुझे दस दिन भी नहीं हुए हैं और मेरा पति मुझसे झूठ बोल कर यहां ले आया है।
मुझे जरा सा भी अंंदाजा होता कि मुझे स्विमिंग कॉस्ट्यूम्स के लिए मॉडलिंग करनी है तो मैं आती ही नहीं। उसने पूरे धैर्य के साथ मेरी बात सुनी थी और जा कर
अपने बॉस को बताया था। उसका धैर्य देख कर लगता था उसे इस तरह की सिचुएशन से पहले भी निपटना पड़ा होगा। फोटोग्राफर ने तब मुझे अपने चैम्बर में बुलाया था और
उस लड़की की मौजूदगी में मुझसे कई कई बार माफी मांगी थी कि कम्यूनिकेशन गैप की वजह से मुझे इस तरह की अपमानजनक स्थिति से गुजरना पड़ा। तब उसी ने मुझे बताया
था कि बलविन्दर खुद ही उनके पास मेरी तस्वीरें ले कर आया था और इस तरह का प्रोपोजल रखा था कि मेरी वाइफ किसी भी तरह की मॉडलिंग के लिए तैयार है।
- अगर हमें पहले पता होता मि. बलविन्दर ने आपसे झूठ बोला है तो...खैर.. डोंट वरी, हम आपकी मर्जी के बिना कुछ भी नहीं करेंगे। बस, एक ही प्राब्लम है कि
मिस्टर बलविन्दर जाते समय हमसे इस एसाइनमेंट के लिए एडवांस पैसे ले गये हैं। वो तो खैर कोई बहुत बड़ी प्राब्लम नहीं है। फिर भी मेरा एक सजेशन है। अगर आपको
मंजूर हो। आप एक काम करें मैडम। जस्ट ए हम्बल रिक्वेस्ट। आप इसी साड़ी में ही, या इस एलबम में जो भी कपड़े आपको ग्रेसफुल लगें, उनमें कुछ फोटोग्राफ्स
ख्चांवा लें। जस्ट फ्यू ब्यूटीफुल फोटोग्राफ्स ऑफ ए ग्रेसफुल एंड फोटोजेनिक फेस। ओनली इफ यू लाइक। हमारा एसाइनमेंट भी हो जायेगा और आपकी मॉडलिंग भी। हम इस
बारे में मि. बलविन्दर को कुछ नहीं बतायेंगे। आइ थिंक इसमें आपको कोई एतराज नहीं होगा।
उसने तब मुझे कई एलबम दिखाये और बताया था कि `उस` तरह की फोटोग्राफी तो वे कम ही करते हैं, ज्यादातर फोटोग्राफी वे नार्मल ड्रेसेस में ही करते हैं। उस लड़की
ने भी मुझे समझाया था कि मेरे जैसी खूबसूरत लड़की को इस प्रोपोजल के लिए ना नहीं कहनी चाहिये।
और इस तरह मॉडलिंग का मेरा पहला एसाइनमेंट हुआ था। तकरीबन तीस चालीस फोटो खींचे गये थे। कहीं कोई जबरदस्ती नहीं, कोई भद्दापन नहीं था, बल्कि हर फोटो में
मेरे भीतरी सौन्दर्य को ही उभारने की कोशिश की गयी थी। फोटोग्राफर की असिस्टैंट हँस भी रही थी कि रोने के बाद मेरा चेहरा और भी उजला हो गया था। मुझे वहां
पूरा दिन लग गया था लेकिन बलविन्दर वापिस नहीं आया था।
चलते समय फोटोग्राफर ने मुझे डेढ़ सौ पाउंड दिये थे। एसाइनमेंट की बाकी रकम। उन्होंने तब बताया था कि कुल तीन सौ पाउंड बनते थे मेरे जिसमें से डेढ़ सौ पाउंड
बलविन्दर पहले ही ले चुका है। उन्होंने यह भी पूछा था कि वह इनकी कॉपी मुझे किस पते पर भिजवाये। मैंने उनसे अनुरोध किया था कि पहली बात तो वह इनकी एक भी
कॉपी बलविन्दर को न दें और न ही उसे इस फोटो सैशन के बारे में बतायें। दूसरे इनकी कॉपी मैं बाद में कभी भी मंगवा लूंगी। उन्होंने मेरी दोनों बातें मान ली
थीं और एक रसीद मुझे दे दी थी ताकि मैं किसी को भेज कर फोटो मंगवा सकूं। जब मैं चलने लगी थी तो उन्होंने एक बार फिर मुझसे माफी मांगी थी और कहा था कि मैं
उनके बारे में कोई भी बुरा ख्याल न रखूं और उन्हें फिर सेवा का मौका दूं। उन्होंने एक बार फिर अनुरोध किया था कि वे मुझे दोबारा अपने स्टूडियो में एक और
फोटो सैशन के लिए देख कर बहुत खुश होंगे।
चलते चलते उन्होंने झिझकते हुए मुझे एक बंद लिफाफा दिया था और कहा था - इसे मैं घर जा क र ही खोलूं। यही लिफाफा लेकर बलविन्दर आया था और वे पूरा का पूरा
पैकेट मुझे लौटा रहे हैं। उन्होंने हिन्दुस्तानी तरीके से हाथ जोड़ कर मुझे विदा किया था। मैं आते समय सोच रही थी कि एक तरफ यहां ऐसे भी लोग हैं जो सच्चाई
पता चलने पर पूरी इन्सानियत से पेश आते हैं और दूसरी तरफ मेरा अपना पति मुझे बाज़ार में बेचने के लिए छोड़ गया था.. मैंने सोच लिया था अब उसके घर में एक
मिनट भी नहीं रहना है।
मैंने घर पहुंचते ही लिफाफा खोल कर देखा था - लिफाफा खोलते ही मेरा सिर घूमने लगा था - बलविन्दर फोटोग्राफ्स के जो पैकेट वहां दे कर आया था उसमें मेरी सोते
समय और नहाते समय ली गयी कुछ न्यूड तस्वीरें थीं। मेरी जानकारी के बिना खींची गयी नंगी और अधनंगी तस्वीरें। मुझे पता ही नहीं चल पाया कि उसने ये तस्वीरें कब
खींची थीं। छी मैं सपने में भी नहीं सोच सकती थी कि मेरा अपना पति इतना नीच और घटिया इन्सान हो सकता है कि मेरी दलाली तक करने चला गया। मैं ज़ोर ज़ोर से
रोने लगी थी।
हम हनीमून में भी और यहां संबंध ठीक हो जाने के बाद हम ऐसे ही बिना कपड़े पहने सो जाते थे। नये शादीशुदा पति पत्नी में ये सब चलता ही रहता है। इसमें कुछ भी
अजीब नहीं होता। अपनी ये तस्वीरें देखते हुए मुझे यही लगा था कि उसने ये तस्वीरें मेरे सो जाने के बाद या नहाते समय चुपके से ले ली होंगी। सच, कितना घिनौना
हो जाता है कई बार मरद कि अपनी ही ब्याहता की नंगी तस्वीरें बाहर बेचने के लिए दिखाता फिरे।
मेरी किस्मत अच्छी थी कि वह उस भले फोटोग्राफर के पास ही गया था जिसने न केवल मेरा मान रखा बल्कि ईमानदारी से पूरा का पूरा कवर भी लौटा दिया है। मैंने
रोते-रोते सारे के सारे फोटो फाड़ कर उनकी चिंदियां बना दी थीं।
तभी मैंने घड़ी देखी थी। पांच बजने वाले थे। हरीश अभी ऑफिस में ही होगा। मैं तुरंत लपकी थी। मेरी किस्मत बहुत अच्छी थी कि हरीश फोन पर मिल गया था। वह बस,
निकलने ही वाला था। मैंने रुंधी आवाज में उससे कहा था - यहां सब कुछ खत्म हो चुका है। मुझे घर छोड़ना है। अभी और इसी वक्त। मुझे तुरंत मिलो।
उसने तब मुझे दिलासा दी थी - मैं ज़रा भी न घबराऊं। सिर्फ यह बता दूं कि मेरे घर के सबसे निकट कौन सा ट्यूब स्टेशन पड़ता है। मुझे इतना ही पता था कि हम जब
भी कहीं जाते थे से ही ट्रेन पकड़ते थे। मैंने होंस्लो वेस्ट स्टेशन का ही नाम बता दिया था। हरीश ने मुझे एक मिनट होल्ड करने के लिए कहा था। शायद अपने किसी
साथी से पूछ रहा था कि उसे मुझ तक पहुंचने में कितनी देर लगेगी। हरीश ने तब मुझे एक बार फिर आश्वस्त किया था कि मैं होंस्लो वेस्ट स्टेशन पहुंच कर साउथ
ग्रीनफोर्ड स्टेशन का टिकट ले लूं और प्लेटफार्म नम्बर एक पर एंट्री पांइट पर ही उसका इंतज़ार करूं। उसे वहां तक पहुंचने में पचास मिनट लगेंगे। वह किसी भी
हालत में छः बजे तक पहुंच ही जायेगा। ओके।
मैं लपक कर बलविन्दर के अपार्टमेंट में पहुंची थी। संयोग से वह अभी तक नहीं आया था। कितना शातिर आदमी है यह !! मैंने सोचा था, मुझे अंधी खाई में धकेलने के
बाद मुझसे आंखें मिलाने की हिम्मत भी नहीं हैं उसमें। मैंने अपने बैग उठाये थे। दरवाजा बंद किया था और एक टैक्सी ले कर स्टेशन पहुंच गयी थी। कितनी अभागी थी
मैं कि हफ्ते भर में ही मेरा घर मुझसे छूट रहा था। मैंने ऐसे घर का सपना तो नहीं देखा था। रास्ते में मैंने बलविन्दर के घर की चाबी टैक्सी में से बाहर फैंक
दी थी। होता रहे परेशान और खाजता रहे मुझे।
स्टेशन पहुंच कर भी मेरी धुकधुकी बंद नहीं हो रही थी। कहीं बलविन्दर ने मुझे देख लिया तो गजब हो जायेगा। घर तो खैर मैं तब भी छोड़ती लेकिन मैं अब उस आदमी की
शक्ल भी नहीं देखना चाहती थी और न ही उसे यह हवा लगने देना चाहती थी कि मैं कहां जा रही हूं। एक अच्छी बात यह हुई थी कि उसने न तो हरीश से मिलते वक्त और न
ही बाद में ही उसके बारे में ज्यादा पूछताछ की थी।
हरीश वक्त पर आ गया था। उसके साथ उसका वही कलीग था जिसने उसे पेइंग गेस्ट वाली जगह दिलवायी थी। हरीश ने मेरे बैग उठाये थे और हम बिना एक भी शब्द बोले ट्रेन
में बैठ गये थे।
और इस तरह मेरा घर मुझसे छूट गया था। मेरी शादी के सिर्फ सात महीने और ग्यारह दिन बाद। इस अरसे में से भी मैंने सिर्फ सैंतीस दिन अपने पति के साथ गुज़ारे
थे। इन सैंतीस दिनों में से भी तीन दिन तो हमने आपस में ढंग से बात भी नहीं की थी। सिर्फ चौंतीस दिन की सैक्सफुल और सक्सैसफुल लाइफ थी मेरी और मैं एक अनजान
देश की अनजान राजधानी में पहुंचने के एक हफ्ते में ही सड़क पर आ गयी थी।
इतना कहते ही मालविका मेरे गले से लिपट कर फूट फूट कर रोने लगी है। उसका यह रोना इतना अचानक और ज़ोर का है कि मैं हक्का बक्का रह गया हूं। मुझे पहले तो समझ
में ही नहीं आया कि अपनी कहानी सुनाते-सुनाते अचानक उसे क्या हो गया है। अभी तो भली चंगी अपनी दास्तान सुना रही थी।
मैं उसे अपने सीने से भींच लेता हूं और उसे चुप कराता हूं - रोओ नहीं निक्की। तुम तो इतनी बहादुर लड़की हो और अपने को इतने शानदार तरीके से संभाले हुए हो।
ज़रा सोचो, तुम्हें अगर उसी दलाल के घर रहना पड़ता तो..तो तुम्हारी ज़िंदगी ने क्या रुख लिया होता ..। कई बार आदमी के लिए गलत घर में रहने से बेघर होना ही
बेहतर होता है। चीयर अप मेरी बच्ची..। यह कर मैं उसका आसुंओं से तर चेहरा चुम्बनों से भर देता हूं।
वह अभी भी रोये जा रही है। मैं उसके बालों में उंगलियां फिराता हूं। गाल थपथपाता हूं।
अचानक वह अपना सिर ऊपर उठाती है और रोते-रोते पूछती है - तुम्हीं बताओ दीप, मेरी गलती क्या थी? मैं कहां गलत थी जो मुझे इतनी बड़ी सज़ा दी गयी। चौबीस-पचीस
साल की उम्र में, जब मेरे हाथों की मेंहदी भी ढंग से सूखी नहीं थी, शादी के सात महीने बाद ही न मैं शादीश्जादा रही न कुंवारी, न घर रहा मेरा और न परिवार।
मेरी प्यारी मम्मी और देश भी मुझसे छूट गये। मुझे ही इतना खराब पति क्यों मिला कि मैं ज़िंदगी भर के लिए अकेली हो गयी..। मैं इतने बड़े जहान में बिलकुल
अकेली हूं दीप.... बहुत अकेली हूं ... इतनी बड़ी दुनिया में मेरा अपना कोई भी नहीं है दीप.. ..। मैं तुम्हें बता नहीं सकती, अकेले होने का क्या मतलब होता
है। वह ज़ार ज़ार रोये जा रही है।
मैं उसे चुप कराने की कोशिश करता हूं - रोओ नहीं निक्की, मैं हूं न तुम्हारे पास.. इतने पास कि तुम मेरी सांसें भी महसूस कर सकती हो। तुम तो जानती ही हो,
हमारी हथेली कितनी भी बड़ी हो, देने वाला उतना ही देता है जितना उसे देना होता है। अब चाहे लंदन हो या तुम्हारा गुरदासपुर, तुम्हें इस आग से गुज़र कर कुंदन
बनना ही था।
- दीप मुझे छोड़ कर तो नहीं जाओगे? वह गुनगुने उजाले में मेरी तरफ देखती है।
- नहीं जाऊंगा बस, देखो मैं भी तो तुम्हारी तरह इतना अके ला हूं। मुझे भी तो कोई चाहिये जो .. जो मेरा अकेलापन बांट सके। हम दोनों एक दूसरे का अकेलापन
बांटेंगे और एक सुखी संसार बनायेंगे।
- प्रामिस ?
- हां गॉड प्रामिस। मैं उसके होठों पर एक मोहर लगा कर उसकी तसल्ली कर देता हूं - अब चुप हो जाओ, देखो हम कितने घंटों से इस तरह लेटे हुए हैं। बहुत रात हो
गयी है। अब सोयें क्या ?
वह अचानक उठ बैठी है - क्या मतलब? कितने बजे हैं?
- अरे ये तो सुबह के साढ़े आठ बज रहे हैं। इसका मतलब हम दोनों पिछले कई घंटों से इसी तरह लेटे हुए आपके साथ आपके बचपन की गलियों में घूम रहे थे।
- ओह गौड, मैं इतनी देर तक बोलती रही और तुमने मुझे टोका भी नहीं .. आखिर उसका मूड संभला है।
- टीचरजी ने बोलने से मना जो कर रखा था।
- बातें मत बनाओ ज्यादा। कॉफी पीओगे?
- न बाबा, मुझे तो नींद आ रही है।
- मैं अपने लिये बना रही हूं। पीनी हो तो बोल देना। और वह कॉफी बनाने चली गयी है। सुरमई अंंधेरे उजाले में सामने रखे शोकेस के शीशे में रसोई में से उसका
अक्स दिखायी दे रहा है।
कॉफी पीते हुए पूछता हूं मालविका से - कभी दोबारा मुलाकात हुई बलविन्दर से?
- नो क्वेश्चंस प्लीज़।
- लेकिन ये अधूरी कहानी सुना कर तरसाने की क्या तुक है। बेशक कहानी का वर्तमान मेरे सामने है, और मेरे सामने खुली किताब की तरह है लेकिन बीच में जो पन्ने
गायब हैं, उन पर क्या लिखा था, यह भी तो पता चले। मैं उसके नरम बाल सहलाते हुए आग्रह करता हूं ।
- मैंने कहा था ना कि अब और कोई सवाल नहीं पूछोगे।
- अच्छा एक काम करते हैं। तुम पूरी कहानी एक ही पैराग्राफ में, नट शैल में बता दो। फिर गॉड प्रॉमिस, हम ज़िंदगी भर इस बारे में बात नहीं करेंगे। अगर ये बीच
की खोई हुई कड़ियां नहीं मिलेंगी तो मैं हमेशा बेचैन होता रहूंगा।
- ओ. के.। मैं सिर्फ दस वाक्यों में कहानी पूरी कर दूंगी। टोकना नहीं।
- ठीक है। बताओ।
- तो सुनो। बलविन्दर और उसके कई साथी जाली पासपोर्ट और वीज़ा ले कर यहां रह रहे थे। वे लोग पता नहीं कितने देशों की अवैध तरीके से यात्रा करेन के बाद वे
इंगलैंड पहुंचते थे। शादी के एक महीने तक भी वह इसी चक्कर में वह वहां रुका था कि एंजेंट की तरफ से ग्रीन सिग्नल नहीं मिल रहा था। कुछ साल पहले सबको यहां से
वापिस भेज दिया गया था। उसे मेरे बारे में आखिर पता चल ही गया था। उसने दो-एक मैसेज भिजवाये, दोस्तों को भिजवाया, समझौता कर लेने के लिए, लेकिन खुद आ कर
मिलने की हिम्मत नहीं जुटा पाया था। जब वे लोग पकड़े गये तो उसने फिर संदेश भिजवाया था कि मैं उसे किसी तरह छ़ुड़वा लूं लेकिन मैं साफ मुकर गयी थी कि इस
आदमी से मेरा कोई परिचय भी है।
शुरू शुरू में बहुत मुश्किलें सामने आयीं। रहने, खाने, इज्ज़त से जीने और अपने आपको संभाले रहने में लेकिन हिम्मत नहीं हारी। पहले तो मैं हरीश वाली जगह ही
पेइंग गेस्ट बन कर रहती रही, फिर कई जगहें बदलीं। पापी पेट भरने के लिए कई उलटे सीधे काम किये। स्कूलों में पढ़ाया, दफ्तरों, फैक्टरियों, दुकानों में काम
किया, बेरोजगार भी रही, भूखी भी सोयी। एक दिन अचानक एक इंडियन स्कूल में योगा टीचर की वेकेंसी निकली तो एप्लाई किया। चुन ली गयी। इस तरह योगा टीचर बनी। धीरे
धीरे आत्म विश्वास बढ़ा। धीरे धीरे क्लांइट्स बढ़े तो कम्पनियें वगैरह में जा कर क्लासेस लेनी शुरू कीं। अलग से भी योगा क्लासेस चलानी शुरू कीं। घर खरीदा,
हैल्थ सेंटर खोला, बड़े बड़े ग्राहक मिलने शुरू हुए तो स्कूल की नौकरी छोड़ी। कई ग्रुप मिले तो हैल्थ सेंटर में स्टाफ रखा। काम बढ़ाया। रेट्स बढ़ाये और अपने
तरीके से घर बनाया, सजाया और ठाठ से रहने लगी। ज़िंदगी में कई दोस्त मिले लेकिन किसी ने भी दूर तक साथ नहीं दिया। अकेली चली थी, अकेली रहूंगी और ... अचानक
उसकी आवाज़ भर्रा गयी है।
- और क्या? मैं हौले से पूछता हूं ।
- इस परदेस में कभी अपने अपार्टमेंट में अकेली मर जाऊंगी और किसी को पता भी नहीं चलेगा।
- ऐसा नहीं कहते। अब मैं हूं न तुम्हारे पास।
- यह तो वक्त ही बतायेगा। कह कर मालविका ने करवट बदल ली है।
मैं समझ पा रहा हूं, अब वह बात करने के मूड में नहीं है। मैं उसके बालों में उंगलियां फिराते हुए उसे सुला देता हूं।
ज़िंदगी फिर से उसी ढर्रे पर चलने लगी है। बेशक मालविका के साथ गुज़ारे उन बेहतरीन और हसीन पलों ने मेरी वीरान ज़िंदगी को कुछ ही वक्त के लिए सही, खुशियों
के सातवें आसमान पर पहुंचा दिया था, लेकिन फिर भी हम दोनों तब से नहीं मिले हैं। हम दोनों को ही पता है, वे पल दोबारा नहीं जीये जा सकते। उन मधुर पलों की
याद के सहारे ही बाकी ज़िंदगी काटी जा सकती है। हमने फोन पर कई बार बात की है, लेकिन उस मुलाकात का ज़िक्र भी नहीं किया है।
सिरदर्द से लगभग मुक्ति मिल चुकी है और मैं फिर से स्टोर्स में पूरा ध्यान देने लगा हूं। मालविका ने प्रेम का जो अनूठा उपहार दिया है मुझे, उसकी स्मञित
मात्र से मेरे दिन बहुत ही अच्छी तरह से गुज़र जाते है। कहीं एक जाने या रहने या उन खूबसूरत पलों को दोहराने की बात न उसने की है और न मैंने ही इसका ज़िक्र
छेड़ा है।
गौरी के साथ संबंधों में जो उदासीनता एक बार आ कर पसर गयी है, उसे धो पोंछ कर बुहारना इतना आसान नहीं है। इस बात को भी अब कितना अरसा बीत चुका है जब उसके
पापा ने मुझसे कहा था कि वे पैसों के बारे में गौरी को बता देंगे और मेरे साथ बेहतर तरीके से पेश आने के लिए उसे समझा भी देंगे लेकिन दोनों ही बातें नहीं हो
पायी हैं। मैं अभी भी अक्सर ठन ठन गोपाल ही रहता हूं। हम दोनों ही अब बहुत कम बात करते हैं। सिर्फ काम की बातें। जब उसे ही मेरी परवाह नहीं है तो मैं ही
अपना दिमाग क्यों खराब करता रहूं। सिर्फ भरपूर सैक्स की चाह ही उसे मुझसे जोड़े हुए है। मालविका ने जब से मेरी परेशानियों के कारणों के बारे में मुझे बताया
है, मैंने अपने मन पर किसी भी तरह का बोझ रखना कम कर दिया है, जब चीजें मेरे बस में नहीं हैं तो मैं ही क्यों कुढ़ता रहूं। जब से संगीत और डायरी का साथ
शुरुहुआ है, ये ही मेरे दोस्त बन गये हैं। मालविका के साथ गुज़ारे उस खूबसूरत दिन की यादें तो हैं ही मेरे साथ।
इस महीने मुझे यहां पांच साल पूरे हो जायेंगे। इस पूरे समय का लेखा-जोखा देखता हूं कि क्या खोया और क्या पाया। बेशक देश छूटा, बंबई की आज़ाद ज़िंदगी छूटी,
प्रायवेसी छूटी, अलका और देवेद्र जी का साथ छूटा और अच्छे रुतबे वाली नौकरी छूटी, गुड्डी वाला हादसा हुआ, लेकिन बदले में बहुत कुछ देखने सीखने को मिला ही
है। बेशक शुरुशुरू के सालों में गलतफहमियों में जीता रहा, कुढ़ता रहा और अपनी सेहत खराब करता रहा। लेकिन अब सब कुछ निथर कर शांत हो गया है। मैं अब इन सारी
चीजों को लेकर अपना दिमाग खराब नहीं करता।
गौरी ने अपने पापा का संदेश दिया है - आपको यहां पांच साल पूरे होने को हैं और आपकी ब्रिटिश सिटीजनशिप के लिए एप्लाई किया जाना है। किसी दिन किसी के साथ जा
कर ये सारी फार्मेलिटीज पूरी कर लें।
पूछा है मैंने गोरी से - क्या क्या मांगते हैं वो, तो उसने बताया है - वो तो मुझे पता नहीं, आप कार्पोरेट ऑफिस में से किसी से पूछ लें या किसी को साथ ले
जायें। शिशिर के साथ ही क्यों नहीं चले जाते। उसको तो पता ही होगा। आपका पासपोर्ट और दूसरे पेपर्स वगैरह मैं लॉकर से निकलवा रखूंगी।
और इस तरह पांच साल बाद मेरे सारे सर्टिफिकेट्स, पासपोर्ट और दूसरे कागज़ात मेरे हाथ में वापिस आये हैं। अगर ये कागज पहले ही मेरे पास ही होते तो आज मेरी
ज़िंदगी कुछ और ही होती।
शिशिर ने रास्ते में पूछा है - तो जनाब, हम इस समय कहां जा रहे हैं ?
- तय तो यही हुआ था कि ब्रिटिश सिटिजनशिप के लिए जो भी फार्मेलिटिज हैं, उन्हें पूरा करने के लिए आप मुझे ले कर जायेंगे।
- ये आपके हाथ में क्या है? पता नहीं शिशिर आज इस तरह से बात क्यों कर रहा है।
- मेरे सर्टिफिकेट्स और पासपोर्ट वगैरह हैं। इनकी तो जरूरत पड़ेगी ना!!
- अच्छा, एक बात बताओ, ये कागज़ात और कहां कहां काम आ सकते हैं ?
- कई जगह काम आ सकते हैं। शिशिर तुम ये पहेलियां क्यों बुझा रहे हो। साफ साफ बताओ, क्या कहना चाह रहे हो।
- मैं अपने प्रिय मित्र को सिर्फ ये बताना चाह रहा हूं कि जब जा ही रहे हैं तो इमीग्रेशन ऑफिस के बजाये किसी भी ऐसी एअरलांइस के दफ्तर की तरफ जा सकते हैं
जिसके हवाई जहाज आपको आपके भारत की तरफ ले जाते हों। बोलो, क्या कहते हो? सारे पेपर्स आपके हाथ में हैं ही सही।
वह अचानक गम्भीर हो गया है - देखो दीप, मैं तुम्हें पिछले पांच साल से घुटते और अपने आपको मारते देख रहा हूं। तुम उस मिट्टी के नहीं बने हो जिससे मेरे जैसे
घर जवांई बने होते हैं। अपने आपको और मत मारो दीप, ये पहला और आखिरी मौका है तुम्हारे पास, वापिस लौट जाने के लिए। तुम पांच साल तक कोशिश करते रहे यहां के
हिसाब से खुद को ढालने के लिए लेकिन अफसोस, न हांडा परिवार तुम्हें समझ पाया और न तुम हांडा परिवार को समझ कर अपने लिए कोई बेहतर रास्ता बना पाये। और नुकसान
में तुम ही रहे। अभी तुम्हारी उम्र है। न तो कोई जिम्मेवारी है तुम्हारे पीछे और न ही तुम्हारे पास यहां साधन ही हैं उसे पूरा करने के लिए। आज पांच साल तक
इतनी मेहनत करने के बाद भी तुम्हारे पास पचास पाउंड भी नहीं होंगे। सोच लो, तुम्हारे सामने पहली आज़ादी तुम्हें पुकार रही है। उसने कार रोक दी है - बोलो,
कार किस तरफ मोड़ूं?
- लेकिन ये धोखा नहीं होगा? गौरी के साथ और ..
- हां बोलो, बोलो किसक साथ ..
- मेरा मतलब .. इस तरह से चोरी छुपे..
- देखो दीप, तुम्हारे साथ क्या कम धोखे हुए है जो तुम गौरी या हांडा एम्पायरके साथ धोखे की बात कर रहे हो। इन्हीं लोगों के धोखों के कारण ही तुम पिछले पांच
साल से ये दोयम दर्जें की ज़िंदगी जी रहे हो। न चैन है तुम्हारी ज़िंदगी में और न कोई कहने को अपना ही है। और तुम इन्हीं झूठे लोगों को धोखा देने से डर रहे
हो। जाओ, अपने घर लौट जाओ। न यह देश तुम्हारा है न घर। वहीं तुम्हारी मुक्ति है।
- तुम सही कह रहे हो शिशिर, ये पांच साल मैंने एक ऐसा घर बनाने की तलाश में गंवा दिये हैं जो मेरा था ही नहीं। मैं अब तक किसी और का घर ही संवारता रहा। वहां
मेरी हैसियत क्या थी, मुझे आज तक नहीं पता, यहां से लौट जाऊं तो कम से कम मेरी आज़ादी तो वापिस मिल जायेगी। मुझे भी लग रहा है, जो कुछ करना है, अभी किया जा
सकता है। सिटीजनशिप के नाटक से पहले ही मैं वापिस लौट सकता हूं। लेकिन मेरे पास तो किराये की बात दूर, एयरपोर्ट तक जाने के लिए कैब के पैसे भी नहीं होंगे।
- देखा, मैंने कहा था न कि हांडा परिवार ने तुम्हें पांच साल तक एक बंधुआ मजदूर बना कर ही तो रख छोड़ा था। किराये की चिंता मत करो। तुम हां या ना करो, बाकी
मुझ पर छोड़ दो।
- नहीं शिशिर, तुमने पहले ही मेरे लिए इतना किया, तुमने गुड्डी के लिए पचास हज़ार रुपये भेजे और मुझे बताया तक नहीं, मैं ज़रा नाराज़गी से कहता हूं।
- तो तुम्हें पता चल ही गया था। अब जब गुड्डी ही नहीं रही तो उन पैसों का जिक्र मत करो। यार, अगर मैं तुम्हें इस नरक से निकाल पाया तो वही मेरा ईनाम होगा।
दरअसल अगर तुमने भी मेरी तरह खाना कमाना और ऐश करना शुरुकर दिया होता तो मैं तुम्हें कभी भी यहां से इस तरह चोरी छुपे जाने के लिए न कहता। मैं भी तुम्हारी
तरह इस घर का दामाद ही हूं। सारी चीजें समझता हूं। इसी घर की वज़ह से मेरा यहां का और वहां इंडिया का घर चल रहे हैं। लेकिन तुम जैसे शरीफ और बहुत इंटैलिजेंट
आदमी को इस तरह घुटते हुए और नहीं देख सकता। तुम्हारे लिए चीजें यहां कभी भी नहीं बदलेंगी। और तुम दोबारा विद्रोह करोगे नहीं। मौका भी नहीं मिलेगा। तुम्हें
पता है कि तुम अगर उनसे कहो कि तुम एक बार घर जाना चाहते हो तो वे तुम्हें इज़ाजत भी नहीं देंगे।
- ठीक है, मैं वापिस लौटूंगा।
- गुड, तो हम फिलहाल वापिस चलते हैं। गौरी को बता देना, डाम्यूमेंट्स सबमिट कर दिये हैं। काम हो जायेगा। इस बीच तुम एक बार फिर सोच लो, कब जाना है। मैं एक
दो दिन में तुम्हारे लिए ओपन टिकट ले लूंगा। बाकी इंतज़ाम भी कर लेंगे इस बीच। लेकिन एक बात तय हो चुकी कि तुम यहां की सिटीजनशिप के लिए एप्लाई नहीं कर रहे
हो। चाहो तो इस बीच अपने पुराने ऑफिस को अपने पुराने जॉब पर वापिस लौटने के बारे में पूछ सकते हो। हालांकि उम्मीद कम है लेकिन चांस लिया जा सकता है। किस पते
पर वहां से जवाब मंगाना है, वो मैं बता दूंगा।
- लेकिन अगर तुम पर कोई बात आयी तो ? मैंने शंका जताई है।
- वो तुम मुझ पर छोड़ दो। वह हँसा है - मैं हांडा परिवार का खाता पीता दामाद हूं, उनका चौकीदार नहीं जो यह देखता फिरे कि उनका कौन सा घर जवाईं खूंटा तुड़ा
कर भाग रहा है और कौन नहीं। समझे। तुम जाओ तो सही। बाकी मुझ पर छोड़ दो।
और हम आधे रास्ते से ही लौट आये हैं।
मैं तय कर चुका हूं कि वापिस लौट ही जाऊं। बेशक खाली हाथ ही क्यों न लौटना पड़े। अब सवाल यही बचता है कि मैं मालविका से किया गया वायदा पूरा करते हुए उसे भी
साथ ले कर जाऊं या अकेले भागूं? हालांकि इस बारे में हमारी दोबारा कभी बात नहीं हुई है।
संयोग ही नहीं बना।
मालविका से इस बारे में बात करने का यही मतलब होगा कि तब उसे भी ले जाना होगा। मालविका जैसी शरीफ और संघर्षों से तपी खूबसूरत और देखी-भाली लड़की पा कर मुझे
ज़िंदगी में भला और किस चीज की चाह बाकी रह जायेगी। लेकिन फिर सोचता हूं, बहुत हो चुके घर बसाने के सपने। फिलहाल मुझे अपनी ज़िंदगी में कोई भी नहीं चाहिये।
अकेले ही जीना है मुझे। मालविका भी नहीं। कोई भी नहीं।
मैं इन सारी मानसिक उथल पुथल में ही उलझा हुआ हूं कि मालविका का फोन आया है -
- बहुत दिनों से तुमने याद भी नहीं किया।
- ऐसी कोई बात नहीं है मालविका, बस यूं ही उलझा रहा। तुम कैसी हो? तुम्हारी आवाज़ बहुत डूबी हुई सी लग रही है। सब ठीक तो है ना..।
- लेकिन ऐसी भी क्या बेरुखी कि अपनों को ही याद न करो।
- बिलीव मी, मैं सचमुच बात करना और मिलना चाह रहा था। बोलो, कब मिलना है?
- रहने दो दीप, जो चाहते तो आ भी तो सकते थे। कम से कम मुझसे मिलने के लिए तो तुम्हें अपाइंटमेंट की ज़रूरत नहीं पड़नी चाहिये।
- मानता हूं मुझसे चूक हुई है। चलो, ऐसा करते हैं , कल लंच एक साथ लेते हैं।
- ठीक है, तो कल मिलते हैं। कह कर उसने फोन रख दिया है।
लेकिन इस बार मैं जिस मालविका से मिला हूं वह बिलकुल ही दूसरी मालविका है। थकी हुई, कुछ हद तक टूटी और बिखरी हुई। मैं उसे देखते ही रह गया हूं। ये क्या हाल
बना लिया है मालविका ने अपना। लगता है महीनो बाद सीधे बिस्तर से ही उठ कर आ रही है। ख्दा पर गुस्सा भी आ रहा है कि इतने दिनों तक उसकी खोज खबर भी नहीं ले
पाया।
- ये क्या हाल बना रखा है। तुम्हारी सूरत को क्या हो गया है? मैं घबरा कर पूछता हूं।
- मैंने उस दिन कहा था न कि किसी दिन मैं अकेली अपने अपार्टमेंट में मर जाऊंगी और किसी को खबर तक नहीं मिलेगी। वह बड़ी मुश्किल से कह पाती है।
- लेकिन तुम्हें ये हो क्या गया है? मैं उसकी बांह पकड़ते हुए कहता हूं। उसका हाथ बुरी तरह थरथरा रहा है।
- अब क्या करोगे जान कर। इतने दिनों तक मैं ही तुम्हारी राह देखती रही कि कभी तो इस अभागिन ..
- ऐसा मत कहो डीयर, मैंने उसके मुंह पर हाथ रख कर उसे रोक दिया है - तुम्हीं ने तो मुझे यहां नयी ज़िदंगी दी थी और जीवन के नये अर्थ समझाये थे। मैं भला..
- इसीलिए मौत के मुंह तक जा पहुंची इस बदनसीब को कोई पूछने तक नहीं आया। मैं ही जानती हूं कि मैंने ये बीमारी के दिन अकेले कैसे गुज़ारे हैं।
- मुझे सचमुच नहीं पता था कि तुम बीमार हो वरना..
- मैं बहुत थक गयी हूं। वह मेरी बांह पकड़ कर कहती है - मुझे कहीं ले चलो दीप। यहां सब कुछ समेट कर वापिस लौटना चाहती हूं। बाकी ज़िंदगी अपने ही देश में
किसी पहाड़ पर गुजारना चाहती हूं। चलोगे?
मेरे पास हां या ना कहने की गुंजाइश नहीं है। मालविका ही तो है जिसने मुझे इतने दिनों से मजबूती से थामा हुआ है वरना मैं तो कब का टूट बिखर जाता।
मैं उसे आश्वस्त करता हूं - ज़रूर चलेंगे। कभी बैठ कर योजना बनाते हैं।
फिलहाल तो मैंने उससे थोड़ा समय मांग ही लिया है। देखूंगा, क्या किया जा सकता है। मालविका भी अगर मेरे साथ जाती है तो उसे अपना सारा ताम-झाम समेटने में समय
तो लगेगा ही, उसके साथ जाने में मेरा जाना तब गुप्त भी नहीं रह पायेगा। मेरा तो जो होगा सो होगा, उसने इतने बरसों में जो इमेज बनायी है.. वो भी टूटेगी। सारी
बातें सोचनी हैं। तब शिशिर को भी विश्वास में लेना पड़ेगा। उसके सामने मालविका से अपने रिश्ते को भी कुबूल करना पड़ेगा। मेरी भी बनी बनायी इमेज टूटेगी। बेशक
वह इन सब कामों के लिए प्रेरित करता रहा है।
शिशिर ने पूरी गोपनीयता से योजना बनायी है। देहरादून न जाने की भी उसी ने सलाह दी है। ओपन टिकट आ गया है। पेमेंट शिशिर ने ही किया है। शिशिर ही ने मेरे लिए
थोड़ी बहुत शॉपिंग की है। मैं वैसे भी गौरी के निकलने के बाद ही निकलता हूं। शाम तक उसे भी पता नहीं चलेगा। घर से खाली हाथ ही जाना है। मेरा यहां है ही क्या
जो लेकर जाऊं।
मैं मालविका के बारे में आखिर तक कुछ भी तय नहीं कर पाया हूं। खराब भी लग रहा कि कम से कम मालविका को तो अंधेरे में न रखूं लेकिन फिर सोचता हूं, मालविका को
साथ ले जाने का मतलब .. मेरे जाने का एक नया ही मतलब निकाला जायेगा और.. सब कुछ फिर से .. एक बार फिर.. सब कुछ..!
वापिस लौट रहा हूं। तो यह घर भी छूट गया। एक बार फिर बेघर- बार हो गया हूं।
देखें, इस बार की वापसी में मेरे हिस्से में क्या लिखा है .. .. ..।
इति
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