10
मुन्नी भूख से रोने लगी। कविमोहन झटके से वर्तमान में लौटा। इन्दु ने
दूध की खाली बोतल उठाकर थोड़े-से पानी से खँगाली और ग्लास में रखा
दूध भरने लगी।
‘‘ठंडा ही पिला दोगी?’’ कवि ने पूछा।
‘‘तुम सोये नहीं अभी तक,’’ इन्दु बोली, ‘‘गरमी के दिन हैं, नुकसान
नहीं करेगा। और फिर दो ज़ीने उतरने की मेरी तो हिम्मत नहीं है।’’
सवेरे कवि के चिल्लाने से उसका कमरा तो नीचे कर दिया गया पर माँ ने
इन्दु से बातचीत बन्द कर दी। वे घंटों मुँह फुलाये रहीं। कनक और उड़द
की बोरियाँ आधी उनके कमरे में और आधी परचून की दुकान में चिनी गयीं।
बाबा ने भडक़कर कहा, ‘‘पल्लेदारों की मजूरी हम नहीं देबेंगे। तुमने
उठवाई, तुम्हीं दो।’’
कवि के पास वजीफे और ट्यूशनों के रुपये थे। उसने भुगतान कर दिया।
शाम तक माँ ने परिवर्तन से समझौता कर लिया। उन्हें भी आराम था कि वे
कभी भी इन्दु को काम में लगा सकती थीं।
भग्गो ने भइया के बटुए में करारे नोट देखे तो बोली, ‘‘भइयाजी, हमें
हरे रंग की धोती दिला दो।’’
‘‘क्यों तेरे पास क्या धोती नहीं है?’’
‘‘है पर हरे रंग की कहाँ है। हरियाली तीज पर सब हरा रंग पहनती हैं।’’
कवि को जिज्ञासा हुई क्या इन्दु के पास हरे रंग की धोती है। पर संकोच
में वह माँ से मुख़ातिब हुआ, ‘‘जीजी तुम्हें भी धोती लेनी है?’’
माँ बेटे की बात से निहाल हो गयीं। बोली, ‘‘कबी, मोय ले जाके असकुंडा
घाट पे द्वारकाधीशजी के दरशन कराय दे और चाट खवाय दे।’’
दोपहर में एकान्त पाकर कवि ने पत्नी से कहा, ‘‘शाम को तुम भी चलना
घूमने।’’
‘‘बेबी की टाँग टूटी है, मुन्नी को दस्त आ रहे हैं, मुझे नहीं
जाना।’’
‘‘फिर मत कहना कि पूछा नहीं। हमारा प्रोग्राम तो तय है।’’
‘‘मेरे लिए एक दोना मटर बनवा लाना, मिर्च-मसाला चटक।’’
जाना पाँच बजे था पर भग्गो ने साढ़े तीन बजे से सजना शुरू कर दिया।
उसने अपना ट्रंक खखोर डाला। उसे कोई धोती पसन्द नहीं आयी। बगल के
कमरे में आकर उसने होठ बिसूरे, ‘‘भैयाजी दरशनों पर जाने के लिए एक भी
नई धोती नायँ। भाभी से कहो न अपनी रेशमी साड़ी दे दें।’’
‘‘तू खुद च्यौं नहीं कहती,’’ कवि बीच से हट गया।
इन्दु को ननद पर लाड़ आ गया। भगवती की दिनचर्या तो उसकी अपनी
प्रतिदिनता से भी ज्या दा नीरस थी। ऊपर से बात-बात में पिता की
झिडक़ी।
इन्दु ने कहा, ‘‘वही नीले बक्से में से ले-ले जो तुझे भाये।’’
भग्गो ऐसी खुश हो गयी जैसे उसे ख़ज़ाना मिल गया हो। उसने बक्से का
पल्ला खोलकर, चमकती आँखों से उसमें रखे नीले, पीले, गुलाबी और लाल
कपड़े देखे। फिर उसने कहा, ‘‘भाभी गुलाबीवाली ले लूँ!’’
इन्दु ने अपने हाथ से उसे साड़ी के साथ गुलाबी जम्पर भी दे दिया,
‘‘भग्गो बीबी, मेरे लिए एक पत्ता मटर लेती आना। मसाला चटक हो।’’
‘‘ज़रूर भाभी यह भी कोई कहने की बात है।’’
बाबा का भी मूड अच्छा था। उन्होंने दादी को चवन्नी दी, ‘‘मेरे लिए
चवन्नी का दही ले आना। छप्परवाले हलवाई से ही लेना। ऊपर से नेक मलाई
डलवा लेना।’’
कवि ने कहा, ‘‘दादाजी दही मैं ले लूँगा। चवन्नी तुम रखो।’’
बाबा ने तर्जनी दिखाई, ‘‘हिसाब तो हिसाब है, फिर अभी मेरे हाथ-पैर
चलते हैं।’’
उस दिन घर पर किसी के भी भाग्य में न चाट लिखी थी न दही। घटिया पर
ताँगे के घोड़े की टाँग फिसल गयी। ताँगा डगमग होकर गड़बड़ाया। पीछे
की तरफ़ भग्गो और दादी गिरीं सडक़ पर। भग्गो जल्दी से सँभलकर उठी पर
उसके दोनों हाथों का सामान ज़मीन पर गिर गया। उसने एक हाथ में मटर का
दोना और दूसरे में दही का कुल्हड़ पकड़ रखा था। दादी अपने आप नहीं उठ
पायीं। कविमोहन और भग्गो ने तुरन्त उन्हें घपची में ले लिया, ‘‘रोओ
मत जीजी, कुछ नहीं हुआ। समझो बड़ी खैर हुई।’’
दादी अपना दुखता पैर उघाडक़र उसकी ख़ैरियत देख रही थीं। उन्होंने सडक़
पर दही बिछा देखकर कातर स्वर में कहा, ‘‘कबी तेरे दादाजी
किल्लावेंगे। दही तो गया फैल।’’
कवि ने कहा, ‘‘दूसरा ताँगा कर पहले तुम्हें घर छोड़ आऊँ। फिर मैं दही
ला दूँगा।’’
भग्गो के चोट नहीं लगी थी पर ताँगे की चिमटी में फँसकर साड़ी में
खोंप लग गयी। वह डर रही थी कि भाभी क्या कहेंगी। उसने कहा, ‘‘भैया,
भाभी के लिए मटर भी बनवा लेना।’’
‘‘चुप कम्बखत,’’ दादी ने झिडक़ा, ‘‘तुझे मटर की पड़ी है, यहाँ टाँग का
भुरकस निकल गया।’’
घर पहुँचकर दादी तख्त‘ पर बैठकर हाय-हाय करने लगीं। इन्दु अपने कमरे
में पति के कुरते की उधड़ी जेब सिल रही थी।
‘‘आ गयीं जीजी।’’ उसने चाव से कहा।
दादी ने कहा, ‘‘हाय मैं मर गयी री। इन्दु मेरा छुनछुना तो गरम करके
लगा।’’
इन्दु तुरन्त रसोई में गयी। चूल्हे के पीछे से सिलवर का वह बड़ा
कटोरा उठाया जो हल्दी के कारण हमेशा पीला रहता था। उसमें एक कलछी घी
डालकर चढ़ाया। फिर उसने गरम घी में पिसी हुई हल्दी और सोंठ डाली। जब
सब मिलकर छुनछुनाने लगा और हल्दी नारंगी रंग की हो गयी, सँड़सी से
कटोरा पकड़ उसने सास के आगे रखा।
दादी ने इशारे से रुई माँगी।
रजाई-गद्दों का पुराना रुअड़ उनके कमरे में ही एक किनारे रखा रहता
था।
दादी ने अपनी सूखी, पतली, लौकी जैसी टाँग के पंजे में बँधे रुअड़ के
पुलिन्दे पर से पट्टी उतारी और रुअड़ हटाकर देखा। इस पैर का पंजा
छोटा-सा था और उसकी छोटी-छोटी जुड़ी उँगलियों के नाखून नहीं थे। दादी
ने दोनों हाथ से पैर थामकर कहा, ‘‘अरे राम रे, बड़ी टीस हो रही है।’’
इन्दु ने ताज़ी गर्म हल्दी सोंठ का छुनछुना लगाकर पट्टी बाँध दी।
तभी कविमोहन दही का कुल्हड़ लिये बाज़ार से लौटा। उसे देखते ही इन्दु
के मुँह से निकल गया, ‘‘हमारी मटर लाये हो?’’
अब तक दादी एकदम अनुकूल और आत्मीय थी, यकायक वे प्रतिकूल और अनात्मीय
बनकर भभकीं, ‘‘बहू तुझे चाट की पड़ी है, यहाँ तो मरते-करते बचे हम
सब।’’ दुर्घटना की सुनकर इन्दु के मन में यही आया कि दादाजी के लिए
फिर से दही आ सकता है तो मेरे लिए चाट क्यों नहीं!
इस बीच भगवती कपड़े बदल चुकी थी। भाभी की साड़ी जम्पर की तह लगाकर वह
रखने जा ही रही थी कि मुँह फुलाये इन्दु कमरे में आयी, ‘‘तुम ताँगे
पर से गिरीं, कहीं साड़ी में खोंप तो नहीं लग गयी।’’
‘‘नहीं भाभी, पूछ लो भैयाजी से। मैं तो गिरी ही नहीं। झट से खड़ी हो
गयी।’’ भग्गो भाभी का जी नहीं दुखाना चाहती थी।
थोड़ी देर में दादी तो कूलती-कराहती अपने तख्ती पर करवट बदलती सो
गयीं। कविमोहन भी लालटेन और किताब लेकर छत पर चला गया।
रह गयी भग्गो और इन्दु। दोनों की आँखों में नींद भरी थी। जब तक
दादाजी दुकान का गल्ला मिलाकर, शौच से आकर हाथ-पैर धोकर ब्यालू पर
बैठे, बेटी और बहू जँभाइयाँ लेने लगीं।
दादाजी ने पराँठे का कौर तोडक़र दही और कौले की तरकारी लगाकर मुँह में
रखा।
उन्होंने फौरन कहा, ‘‘च्यौं इन्दु जे दई क्या घर में जमायौ है।’’
‘‘नहीं तो।’’ इन्दु बोली।
भग्गो ने कहा, ‘‘हम बताएँ दादाजी, दही तो गया गिर, हमारा ताँगा रपट
गया था। यह तो भैयाजी फिर से जाकर लाये हैं।’’
दादाजी का खाना ख़राब हो गया। थाली सरकाकर गरजे, ‘‘रहने दो मोय नायँ
खानी रोटी। एक चवन्नी का छप्परवाले से दई मँगाया वह भी सुसरा नायँ
लायौ। जे दई से तो हम कुल्लौ भी नायँ करैं। मार सपरेटा है।’’
अब तक दादाजी की किल्लाहट ऊपर पहुँच गयी थी। कवि ऊपर से उतरकर आया,
‘‘क्या आधी रात में खोइया मचा रखा है, आप खा-पीकर सो जाएँ और दूसरों
को भी सोने दें।’’
दादाजी आपे से बाहर हो गये, ‘‘मेरे पैसे लुट गये, मैं बोलूँ भी न,
डोलूँ भी न। तुझे सोने की पड़ी है तो तू सो। मैंने कपूत पैदा किया,
मैं कैसे सोऊँगा।’’
कविमोहन पैर पटकता हुआ ऊपर चला गया और भड़ाम से छत के किवाड़ लगा
लिये।
भग्गो चुपके से अपने बिस्तर पर चली गयी।
इन्दु ने कुछ देर दादाजी का इन्तज़ार किया। जब आँगन से हाथ धोने और
कुल्ला करने की आवाज़ आयी तो उसने भी चौका बढ़ा दिया।
11
कुछ लड़ाइयों का भी एक क्रमश: होता है। ज़रूरी नहीं कि वे अगले ही दिन
गतांक से आगे चल दें। कभी-कभी बीच में कई दिन युद्ध विराम रहता।
यकायक किसी और प्रसंग से सन्दर्भ को चिनगारी लग जाती और गोलाबारी
शुरू।
आज की उनकी किचकिचाहट की असली वजह कुछ और थी। बड़ी बेटी लीला का पति
मन्नालाल आज सवेरे दुकान खुलते ही आ धमका था। उसके साथ कनखल के
महामंडलेश्वर स्वामी बिरजानन्द थे। दामाद ने बताया महाराजजी के
भंडारे में लाला नत्थीमल के नाम एक सौ एक रुपये लिखे गये हैं, सो वे
अदा करें। दादाजी बिलबिला पड़े। एक तो इतनी बड़ी रकम निकालकर देनी,
दूसरे अभी दुकान खोली भर थी, बोहनी भी नहीं हुई थी। स्वामी बिरजानन्द
के सामने अपनी इज्ज़त रखने का भी ख़याल था उन्हें।
यों लाला नत्थीमल मालदार आदमी थे। उनके गल्ले और बक्से में कलदार
रुपयों की कमी न थी पर अभी जब उनका स्वास्थ्य टनाटन था, दानपुण्य पर
पैसे लुटाना उन्हें ज़हर लगता। फिर उन्हें यह भी अखरता कि बड़ा दामाद
मन्नालाल अपनी आटा चक्की की ओर ध्यान न देकर साधु-संन्यासियों के बीच
जमना की रेती पर चिमटा बजाता डोलता है।
मन्नालाल के रंग-ढंग एक उभरते हुए भगत के थे। इसका पता शादी के बाद
ही लगा जब लीला ने अपनी माँ से कहा, ‘‘जीजी जे बताओ आदमी औरत बन जाय
तो औरत आदमी च्यों न हो जाय?’’
माँ का माथा ठनका। वैसे भी माँ देख रही थी कि शादी का एक महीना बीतने
पर भी लीला पर सुहाग की लाली अभी चढ़ी नहीं थी। घर आ जाती तो उसे
वापस जाने की कोई हड़बड़ी न होती। मन्नालाल भी कई-कई दिन लिवाने न
आते। जब आते तो छोटी बहन भग्गो, जीजा को खूब छकाती।
‘‘दीदी तो अब दिवाली बाद जाएगी। जाके वहीं धूनी रमाओ जहाँ चले गये थे
जीजा।’’
मन्नालाल गुस्से से सिर झटकते और आँखें दिखाते, ‘‘हम सच में चले
जामेंगे, बैठ के रोना।’’
‘‘कहाँ जाओगे?’’
‘‘बिन्दावन।’’
लीला कोठरी से बोल पड़ती, ‘‘यह बिन्दावन तो मेरी ससुराल भई है। न काम
देखना न काज बस बिन्दावन में रास रचाना।’’
मन्नालाल लाल-लाल आँखें दिखाते, ‘‘चलना है तो सीधी तरह चलो। नहीं,
पड़ी रहना बाप के द्वारे।’’
अब दादाजी दुकान से उठकर आते। वे अन्दर जाते और जाने कोन जादू से
थोड़ी देर में जीजी चमड़े के थैले में विदाई का सामान भरकर लीला को
उनके हवाले कर देतीं।
लीला की शादी सोलहवें साल में छयालीस वर्षीय मन्नालाल से जब हुई तो
सतघड़े के निवासियों ने छाती पीट ली, ‘‘हाय ऐसा कठकरेज बाप हमने नायँ
देखौ जो कच्ची कली को सिल पे दे मारे।’’
कच्ची सडक़, गली रावलिया पर मन्नालाल की तीन तिखने की पक्की लाल कोठी
इस बात का सबूत थी कि आटा चक्की का काम भले ही छोटा हो, उसमें मुनाफ़ा
बड़ा है।
ब्याह के बिचौलिये मुरली मास्टर ने बताया था कि मन्नालाल बड़ा सूधा
है। इसकी सिधाई की वजह से ही इसे पता न चला और इसकी पहली पत्नी सरग
सिधार गयी। इसकी जान को दो लडक़े छोड़ गयी जो अब पल-पुसकर पाँच और छह
साल के हैं। बच्चे इतने सयाने हैं कि अभी से चक्की सँभालते हैं। लाला
नत्थीमल ने मात्र इतना जाँचा कि ब्याह में कितना खर्च आएगा। मुरली
मास्टर के यह कहने पर कि भगत का कहना है आप तीन कपड़ों में कन्या
विदा कर दो, वे उफ़ न करेंगे, नत्थीमल ख़ुशी-ख़ुशी तैयार हो गये। खड़ी
चोट पाँच हज़ार की रकम बच रही थी, यह उनका सौभाग्य ही था। यह तो शादी
के बाद ही उन पर ज़ाहिर हुआ कि जिसे वे अपना दुहाजू दामाद समझे थे,
दरअसल वह तिहाजू था। उसके दोनों बेटे अलग माँओं की सन्तान थे। बिल्लू
पहली माँ से था तो गिल्लू दूसरी माँ से। लाला नत्थीमल ने इस बात की
तह में जाने की कोई कोशिश नहीं की कि मन्नालाल की दो-दो स्त्रियाँ
कैसे दुर्घटनावश दिवंगत हो गयीं।
लाला नत्थीमल के अन्दर एक अदद दुर्वासा भी बैठा हुआ था जो लीला को
उसकी नादानी की उचित सज़ा देना चाहता था। एक दिन जब वे दुकान से,
लघुशंका के लिए, मोरी पर आये उन्होंने देखा छत पर खड़ी लीला दो छत
दूर वकील द्वारकाप्रसाद के बेटे से देखादेखी कर रही है। बीस साल की
लीला बड़ी सुन्दर और चंचल थी। उन्हें बहुधा अपनी पत्नी से कहना पड़ता
था कि लीला को सँभालकर रखो, उसे ज़माने की हवा न लगे। उन्हें लगा उनकी
बड़ी बेटी ज़माने की हवाओं के बीचोंबीच खड़ी है। उन्होंने तभी तय कर
लिया कि जो पहला वर मिलेगा वे उससे लीला के हाथ पीले कर देंगे।
उनकी निगाह में मन्नालाल दुहाजू होते हुए भी सुपात्र था क्योंकि उसने
जीवन की आर्थिक चिन्ताओं पर विजय प्राप्त कर ली थी। दो पत्नियों की
मौत के बारे में पता चलने पर जीजी ज़रूर थरथरायी थीं पर दादाजी ने
उन्हें तसल्ली दी थी, ‘‘वे दोनों होंगी कलमुँही। हमारी बेटी तो
राजरानी रहेगी। दो-दो का गहना-कपड़ा भी सब उसी को मिलेगा।’’
वाकई लीला को रुपये-पैसे, कपड़े-ज़ेवर की कोई कमी नहीं थी। बक्से भरे
रखे थे। इस पर भी मन्नालाल जब लौटते उसके लिए नयी काट के लहँगे,
ओढऩी, जम्पर ज़रूर लाते। दो-चार कलदार भी थमा देते। खाने-पीने की कोई
दिक्कत नहीं थी। चक्की से आटे के कनस्तर आ जाते। चावल-दाल के
कुठियार भरे रखे थे। कुंजडिऩ रोज़ ताज़ी सब्ज़ी दे जाती। चक्की का काम,
बिल्लू, गिल्लू, मुनीम जियालाल की मदद से सँभाल लेते। थे तो वे सिर्फ
पाँच व सात साल के पर वे गम्भीर वयस्क जैसा बर्ताव करते। अक्सर शाम
को जब वे दोनों चक्की से लौटते, उनके कपड़ों और बालों पर आटे की महीन
परत जमी होती। लीला को वे दो छोटे मन्नालाल नज़र आते। वह सबसे पहले,
अँगोछे से उनके सिर पोंछती फिर उन्हें पैर-हाथ धोने को कहती और तब
रसोई में ले जाकर खाना देती।
तीसरे साल लीला का मन खट्टी अमिया खाने का होने लगा। उसने अपनी आँखों
के गुलाबी डोरे पति की आँखों में डालकर जब यह समाचार उसे दिया,
मन्नालाल ने कहा, ‘‘चलो यह भी पल जाएगा।’’ लीला को अच्छा नहीं लगा।
उसने तुनककर कहा, ‘‘तुम्हारा तीसरा होगा, मेरा तो पहला है!’’
मन्नालाल मुस्कुराये। दोपहर बाद उन्होंने कच्चे आम का एक टोकरा घर
भिजवा दिया।
उस आयु में लीला यह तो नहीं समझती थी कि दाम्पत्य किसे कहते हैं पर
सान्निध्य की प्यास उसे थी। वह चाहती कि पाँचवें महीने में पति उसके
पेट पर हाथ रखकर बच्चे की हरकत महसूस करे पर पति अक्सर ‘भागवत’
ग्रन्थ में डूबे रहते। वे रात-रात इस एक पुस्तक के सहारे बिताते।
जितनी लीला डर रही थी उतनी तकलीफ़ उसे प्रसव में नहीं हुई। घर में ही
दाई ने आकर अन्दरवाले कमरे में उसका जापा करवा दिया। लडक़े को चिलमची
में नहलाकर लीला के बगल में लिटा दिया और कमरे की सफाई के बाद
बिल्लू-गिल्लू को आवाज़ लगायी, ‘‘ऐ छोरो देख लो कैसा केसरिया भैया
पैदा भया है।’’
शाम को मन्नालाल ने पुत्र के दर्शन किये। उसकी मुट्ठी अपने हाथ में
लेकर बोले, ‘‘मेरा लड्डूगोपाल है यह!’’ उन्होंने पत्नी को गिन्नी की
अँगूठी देकर कहा, ‘‘सुस्थ हो जाओ तो सुनार से अपनी सीतारामी भी बनवा
लेना।’’
मथुरा के अन्य बनियों-व्यापारियों की तरह मन्नालाल अग्रवाल ज़रा भी
कृपण नहीं थे। चक्की से इतनी नगद आमदनी नहीं थी कि वे भर-भरकर
रासमंडलियों पर लुटाते पर उनके पास पुश्तैनी रकम की बहुतायत थी। उनके
दादा के इकलौते थे उनके पिता और पिता के इकलौते थे मन्नालाल। दो
पीढिय़ों का धन उनके हाथ में था। लेकिन मन्नालाल में तुनकमिज़ाजी थी।
कभी छोटी-सी बात पर भन्ना पड़ते। लीला से कहते, ‘‘देख भागवान किच-किच
तो मोसे किया न कर। जिस दिन मैं तंग आ गया तो उठा अपनी भागवत, बस चला
जाऊँगा, पीछे मुडक़र भी नहीं देखूँगा।’’
लीला सहम जाती। वह सारे घर का काम सँभालती। उसकी सहनशक्ति केवल एक
बात से चरमराती। उनके घर आये दिन कोई-न-कोई रासमंडली, कीर्तनमंडली
डेरा जमाये रहती। मन्नालाल उनकी ख़ातिर में जी-जान से जुट जाते। लीला
को ये रासधारी और कीर्तनिये बहुत बुरे लगते। वे डटकर खाते, शोर मचाते
और उनके बर्ताव से ऐसा लगता जैसे कृष्णभक्ति से उनका कोई सम्बन्ध
नहीं। उनके लिए, चारों पहर, चूल्हे में आग बली रहती। कई बार बच्चे
बिना खाये सो जाते पर मेहमानों के चोचले खतम न होते। ऐसा कोई ऐब न था
जो उनमें न हो फिर भी मन्नालाल उनकी सेवा में तन-मन-धन लुटाये रहते।
12
इस बार होली पर कविमोहन घर नहीं गया। यह एम.ए. का आखिरी साल था और
होली के तुरन्त बाद परीक्षा होनी थी। फिर यह भी सच था कि छुट्टियों
में होस्टल में पढ़ाई ज्यादा अच्छी तरह होती। होस्टल तकरीबन खाली हो
जाता। डेढ़ सौ विद्यार्थियों की जगह मुश्किल से चालीस-पचास बचते। मेस
के सेवक भी छुट्टी पर चले जाते। ले-देकर बड़े महाराज और दुखीराम रह
जाते। थोड़े-से लडक़ों का खाना वे बड़े ध्यान से बनाते। पूरे फागुन
बड़े महाराज शाम के समय भाँग मिली ठंडाई घोटते और लोटे से सेवन करते।
शाम की ब्यालू वे बड़ी तरंग में तैयार करते; कभी आलू की तरकारी में
नमक की जगह सूजी डाल देते। जब विद्यार्थी शोर मचाते तो कहते, ‘‘जे
अँगरेज सरकार ऐसी जालिम आयी कि नमक की लुनाई, गुड़ की मिठाई सब सूई
से खींचकर निकार लेवे है।’’ दुखीराम खी-खी हँस पड़ता और सबकी थाली
में थोड़ा-थोड़ा नमक परोस देता।
होली में दो दिन दावत बनती। बड़े महाराज क्या बनाएँगे, यह उनके स्नान
के समय पता चल जाता। वे नल के नीचे नहाते जाते और जनेऊ के धागे से
अपनी पीठ काँछते हुए गाते—
‘‘सेम भिंडी मटर सौं बोले कौला
कचनारिन को जल्दी बुलायलेऊ जी
नेक धनिये की चटनी घोटायलेऊ जी।’’
होली पर लडक़े शर्त बदकर दावत जीमते। बीस, पच्चीस यहाँ तक कि तीस-तीस
पूडिय़ाँ खानेवाले वीर भी दिखाई दे जाते। पत्तल में उस दिन भाँग की
बरफ़ी भी परोसी जाती। कविमोहन ने अपनी बरफ़ी गिरधारी को दी तो गिरधारी
बोला, ‘‘यार आज तो तुझे चखनी पड़ेगी।’’
कवि ने कहा, ‘‘मुझे तो देखकर ही चढ़ गयी, तुम खाओ।’’
बरफ़ी में बुडक़ा मारकर गिरधारी तरंग में झूमने का नाटक करने लगा।
‘‘अभी तो तुम्हारे पेट तक पहुँची भी नहीं है!’’ कवि ने कहा।
बड़े महाराज बोले, ‘‘आप महात्मा गाँधी के चेले क्या जानो होली का
हुड़दंगा, कहने को आप मथुरा के हो।’’
गिरधारी सिर हिलाते हुए गाने लगा—
‘‘मोरी भीजी रे सारी सारी रे
कैसौ चटक रंग डारौ।’’
खाना खत्म कर, मुँह में पान का बीड़ा दबा सभी लडक़े नाचने-गाने लगे।
बड़े महाराज, दुखीराम भी भाँग की तरंग में खूब मटके। एक से एक तानें
उठायी गयीं—
‘‘हरी मिर्चें ततैया जालिम ना डारौ रे।’’
‘‘होरी पे नायँ आयौ बड़ौ बेईमान
फागुन में नायँ आयौ कैसो नादान।’’
तभी डॉ. राजेन्द्र, लडक़ों को होली की बधाई देने पहुँच गये। सभी छात्र
उनसे गले मिले, उन्हें अबीर लगाया और सबने उनके चरण-स्पर्श किये। कवि
उनके निकट खड़ा हो गया।
विद्यार्थियों का आमोद-प्रमोद देखकर डॉ. राजेन्द्र ने कहा, ‘‘लाख तुम
अँग्रेज़ी साहित्य पढ़ो, तुम्हें राग-रंग का इससे अच्छा उदाहरण
विश्व-संस्कृति में नहीं मिल सकता।’’
कवि ने याद दिलाया, ‘‘मिड समर नाइट्स ड्रीम?’’
‘‘उसमें भी यह तरंग नहीं है।’’
थोड़ी देर होस्टल में रुककर डॉ.राजेन्द्र चले गये।
विद्यार्थियों की मौज-मस्ती अभी थमी नहीं थी।
कवि ने गिरधारी से पूछा, ‘‘मस्ती तो चढ़ गयी। अब यह पतंग उतरेगी
कैसे?’’
‘‘पतंग तो अब दालमंडी जाकर ही उतरेगी।’’ गिरधारी ने मटकते हुए कहा।
कवि पीछा छुड़ाकर अपने कमरे की ओर चल दिया। उसे तनावमुक्त होने के
ऐसे अस्थायी अड्डे बनावटी लगते थे। दरअसल जब भी वह स्त्री की
उपस्थिति की अभिलाषा करता, उसके सामने इन्दु के सिवा दूसरी कोई छवि
ही न आती। इसमें शक़ नहीं कि वह पूरी तरह अपनी पत्नी के प्रेम में
पड़ा हुआ पुरुष था। उसने सोचा था आज एरिस्टोटिल की ‘पोयटिक्स’ अच्छी
तरह पढ़-गुन लेगा पर इन्दु की याद ने इतना उद्विग्न कर दिया कि पढ़ाई
में मन ही नहीं लगा। लैम्प बुझाकर वह लेट गया। करवट-करवट उसे प्रिया
नज़र आयी। उसे यह भी याद आया कि विवाह की रात उसका हाथ अपने हाथ में
लेते हुए वह इन्दु से ज्यादा काँप रहा था। इन्दु के गोरे गुलाबी हाथ
में उसका हाथ कितना रूखा, काला और कठोर लगा था। उसे यह भी भय हुआ कि
कहीं इन्दु उसे नापास तो नहीं कर देगी। विवाह की रस्म से लेकर अब तक
का समय अजब तरीक़े से कटा था। जैसे ही वे घर पहुँचे थे पिता ने कहा
था, ‘‘कवि, ये जामा जूते पाग जल्दी उतारकर दे दे तो वापस करवा दें,
फिजूल किराया चढ़ेगा।’’
जीजी उसके लिए धोती-कमीज़ ले आयी थीं। इन्दु को अन्दर के कमरे में
लड़कियों के बीच भेज दिया गया था। वैसे तो कवि उन सजावटी कपड़ों में
अटपटा महसूस कर रहा था लेकिन उसे लगा माता-पिता कुछ ज्याेदा ही
कौवापन दिखा रहे हैं। मुँह दिखायी में जितना शगुन आया था, जीजी ने
अपनी धोती की खूँट में बाँध लिया। कुछ रिश्तेदार कपड़े और अँगूठी,
लौंग जैसे हल्के गहने लाये थे। उन सब पर बहनों ने क़ब्ज़ा कर लिया।
उसके बाद जीजी ने कहा, ‘‘हमारी बहू बेचारी बड़ी सीधी है, मुँह में
बोल तो याके हैई नायँ।’’ अकेलापन पाकर कवि ने पूछा था, ‘‘तुम्हें
जीजी और बहनों की बातों का बुरा तो नहीं लगा।’’
इन्दु ने मुस्कराते हुए गर्दन हिला दी।
‘‘तुम्हारी सब चीज़ें बँट गयीं?’’
‘‘उनका हक़ था लेने का। मेरे पास बहुत है।’’
ऐसा नहीं कि ये शुरू की सलज्जता थी जो बाद में बदली। इन्दु का भोलापन
निरीहता की सीमा तक जाता था। उसने ससुराल के समस्त अनुशासन,
मितव्ययिता और प्रतिदिनता को बिना किसी प्रतिवाद, कुछ इस तरह स्वीकार
कर लिया कि कवि अपने अध्ययन-चिन्तन की दुनिया में जीने के लिए
स्वतन्त्र हो गया। इन पाँच वर्षों में बस इतना अवश्य हुआ कि इन्दु ने
घर की जटिलता पर तो उफ़ न की, किन्तु कुटिलता पर उसे क्रोध आया।
गुस्से में कभी वह खाना छोड़ देती, कभी बोलना।
इस रात भी कवि को वही लग रहा था जो अक्सर लगा करता था कि
जल्द-से-जल्द एम.ए. उत्तीर्ण कर वह किसी कॉलेज में नौकरी पा ले। उसने
कल्पना की उसे दिल्ली में नौकरी मिल गयी है। वह पत्नी और बच्चों के
साथ शहर में मकान लेकर रह रहा है। कैसा होगा, अलग शहर में अपना एकल
परिवार लेकर रहना! उसे मैथिलीशरण गुप्त की पंक्ति याद आ गयी :
‘निन्दित कदाचित् है प्रथा अब सम्मिलित परिवार की।’ उसे लगा मथुरा
में उसका अपना घर एक ऐसा वास है जिसमें न सुख है न चैन, न शान्ति न
सामंजस्य। वहाँ सब एक-दूसरे से गुँथे हुए चींटों की तरह चिपके रहते
हैं और चोट करते रहते हैं।
यादों के क्रम में यकायक कवि को याद आ गयी लडक़पन की एक घटना।
भरतियाजी के यहाँ पुत्र-जन्म की ज्यौनार का न्यौता था। दादाजी को दो
दिन से पेचिश हो रही थी। जीजी अलग अपनी टाँग के दर्द से तड़प रही
थीं। भरतियाजी एक तो मथुरा के बड़े आदमी थे, दूसरे उनसे दादाजी के
परिवार की दो पुश्तों की नज़दीकी थी। यह तय किया गया कि कवि के साथ
भग्गो कुन्ती चली जाएँगी। लीला को तेरहवाँ साल लग गया था अत: उसका घर
से बाहर निकलना ठीक नहीं समझा गया।
कवि को याद है तीनों बच्चे हँसी-ख़ुशी दावत खाकर लौटे थे। दादाजी ने
दो दिन बाद थोड़ी-सी खिचड़ी खायी थी और लेटे हुए थे। उन्होंने कवि को
बुलाकर पूछा था, ‘‘क्या-क्या खायबे को मिला?’’
कुन्ती उछलकर बोली, ‘‘पूड़ी, कचौड़ी, बूँदी का रायता, मुरायता...’’
‘‘जे तो साईसों के यहाँ भी होता है। मिठाई बता।’’
भग्गो ने कहा, ‘‘पँचमेल मिठाई ही।’’
कुन्ती बोली, ‘‘हट सात मेल की तो मैंने गिनी थी, ऊपर से तले हुए काजू
और गिरी।’’
कवि ने कहा, ‘‘बताएँ लड़ुआ था, बालूशाही थी, जिमीकन्द था—’’
कुन्ती हँस पड़ी, ‘‘जिमीकन्द नहीं दादाजी कलाकन्द था। भैयाजी कलाकन्द
को जिमीकन्द च्यौं बोलते हो?’’
दादाजी का धैर्य चुक गया। वे भडक़े, ‘‘ससुरे सात मेल की मिठाई भकोस
आये, नाम गिनाने में मैया मर रही है।’’
बच्चों ने बहुत याद करने की कोशिश की, उन्हें बाकी चार मिठाइयों का
नाम ही नहीं याद आया।
दादाजी ने उठकर एक-एक थप्पड़ तीनों को मारा। गाली दी और कहा, ‘‘आज
गये सो गये, अब कभी ससुरों को भेजूँ नायँ।’’
दावत की मस्ती काफ़ूर हो गयी। तीनों सिसकियाँ लेते हुए सो गये।
जीजी ने कवि को थपकते हुए धीरे-से कहा था, ‘‘बाप नहीं जे कंस है कंस।
रोते नहीं हैं बेटे, तोय मेरी सौंह।’’
खट्टी-मीठी और तीती यादों के बीच कब कवि की आँख लग गयी, उसे पता नहीं
चला।
कविमोहन के सभी पर्चे बढिय़ा हुए। उसका मन प्रफुल्लित हो गया।
डॉ. राजेन्द्र ने कहा, ‘‘तुम्हारी प्रथम श्रेणी आ जाए तो मैं तुम्हें
इसी कॉलेज में रखवा दूँ। प्रिंसिपल मेरी बात बड़ी मानते हैं।’’
कवि ने उनके पैर छू लिये।
उमंग और उम्मीद से भरा वह मथुरा के लिए रवाना हुआ। एक महीने बाद
एम.ए. का नतीजा घोषित होने की सम्भावना थी। ट्यूशनें छोडऩे का थोड़ा
अफ़सोस था लेकिन उसे पता था कि उसे बड़े आकाश में उडऩा है। ट्यूशन से
ज्यादा तकलीफ़ हॉस्टल छोडऩे में हो रही थी। न जाने कितने मित्र बन गये
थे। कवि के कारण ही हॉस्टल में आये दिन कवि-गोष्ठियाँ होती रहती थीं
जिनमें कभी वह अपनी तो कभी प्रसिद्ध कवियों की कविताओं का सस्वर वाचन
करता। कई बार पैरोडी भी बनाता जिससे दोस्तों का ख़ूब मनोरंजन होता।
उसकी बनाई बच्चनजी की ‘मधुशाला’ की पैरोडी बहुत पसन्द की गयी थी।
कविमोहन ने लिखा था—
‘‘टीचर बोला कूड़मगज़ है, पड़ा मूर्ख से है पाला
पीयेगा क्या खाक कि उसने तोड़ दिया अपना प्याला
मधु भी विष होता है साक़ी, अगर बलात् पिलाएगा
नाज़ करे अन्दाज़ करे पर विवश न करती मधुशाला।’’
अन्तिम दिन हॉस्टल में विदाई की शाम रखी गयी। तब कवि ने अपनी गहन,
उदास आवाज़ में अपनी आशु कविता सुनाई थी—
‘‘मेरे आश्रय देनेवाले जाता हूँ गृह ओर
तुझे छोड़ते हो जाता हूँ मैं कारुण्य विभोर
ओ मेरे विश्वास विदा
मेरे छात्रावास विदा।’’
13
बीसवीं शताब्दी की मथुरा अगर बदल रही थी तो इसलिए क्योंकि परिवर्तन
की लहर समूचे भारत में उठी हुई थी। कांग्रेस जन-मन की चेतना पर गहरा
असर डाल रही थी। आज़ादी की अभिलाषा ने बच्चे-बड़े सबको आन्दोलित कर
डाला था। एक तरफ़ लोगों में स्वदेशी पहनने की होड़ लग गयी थी दूसरी
तरफ़ स्वदेशी वस्तुएँ इस्तेमाल करने की। लाला नत्थीमल के कुनबे में
मिल का कपड़ा छोड़ खादी अपनायी गयी तो इसलिए भी क्योंकि खादी सस्ती
पड़ती थी। जनाना धोती, मिल की बनी, चार रुपये जोड़ा थी तो खादी की
तीन रुपये जोड़ा। लेकिन खादी की धोती धोने में मेहनत ज्या,दा पड़ती।
जीजी कहती, ‘‘खादी की धोती जम्पर में सबसे अच्छा यह है कि सिर से पैर
तक कहीं बदन नहीं दिखता। ठंड लगे तो ओढ़ के सो लो, गर्मी लगे तो पंखे
की तरह डुलाकर हवा कर लो।’’
जीजी चरखा समिति में जाने लगी थीं। समिति की तरफ़ से उन्हें एक चरखा
भेंट में मिला। घर में पुराने रुअड़ की कमी नहीं थी। पहले उससे मोटा
सूत काता गया। बड़ी शर्म आयी कि इतना मोटा सूत भाईजी को कैसे दिखाएँ।
पर भाईजी ने जीजी का बड़ा हौसला बढ़ाया, ‘‘अच्छा है बहनजी, इसके बड़े
अच्छे खेस तैयार होंगे। लागत मूल्य पर आप ही को दे देंगे।’’
इन्दु कभी-कभी भुनभुनाती, ‘‘जीजी तो सबेरे से चरखा लेकर बैठ जाती
हैं, हमें चक्की थमा देती हैं।’’ चक्की पर रोज़ दाल दली जाती। एक न एक
बोरी चक्की के पास रखी ही रहती, कभी उड़द तो कभी मूँग। चक्की के
हत्थे से इन्दु की हथेलियों में ठेकें पड़ गयी थीं। यही हाल भग्गो का
था। जीजी रोज़ नयी जानकारियों से भरी रहतीं। दिल्ली कांग्रेस सभा से
कमला बहन ने मथुरा की महिलाओं को एकजुट करने के लिए यहीं डेरा डाल
लिया। जीजी ने रसोई में एक कनस्तर रखा और बहू-बेटी से बोलीं, ‘‘अब से
रोटी बनाने के बाद बचा हुआ पलोथन इसमें डारा करो, अच्छा।’’ मुहल्ले
की सभी औरतों ने ऐसा इन्तज़ाम किया।
जब गाँधीजी की विशाल सभा हुई तो यही आटा स्वयंसेवकों के काम आया।
जाने कितने नौजवान नौकरी की परवाह न कर स्वाधीनता आन्दोलन में कूद
पड़े थे। महात्मा गाँधी एक सन्देश देते और सब मन्त्रमुग्ध हो उसका
पालन करने दौड़ पड़ते। सुबह-सुबह सडक़ों पर प्रभात फेरियाँ निकाली
जातीं। बड़े सुर में गाते हुए सुराजियों का जत्था निकल पड़ता, ‘‘नईं
रखनी सरकार ज़ालिम नईं रखनी।’’ कभी जनता के ऊपर नमक बनाने का जुनून
सवार हो जाता। सत्याग्रही नौजवान जत्थे बना लेते। हलवाई ख़ुशी-ख़ुशी
अपनी कड़ाही और कौंचा दे देते। पुलिस की मौजूदगी में ही नमक बनाने की
तैयारी होती और स्वयंसेवक नमक कानून तोडक़र कड़ाही में कौंचा चलाते।
पुलिस लाठीचार्ज करती। लडक़े घायल हो जाते पर टेक न छोड़ते।
छठीं-सातवीं कक्षा तक पढऩेवाले बच्चों ने वानर-सेना बनायी हुई थी।
विदेशी कपड़ा बेचनेवाली दुकानों के सामने जाकर शोर मचाकर दुकान बन्द
करवाना इनका प्रिय काम था। वानर-सेना महात्मा गाँधी के नौजवान-दल की
पिछलग्गू दल थी। विदेशी कपड़ों की होली जलाते समय ये बच्चे इतने जोश
में आ जाते कि अपनी सूती कमीज़ भी उतारकर आग में झोंक देते। जब ये घर
पहुँचते इन्हें मार पड़ती लेकिन इनके जोश में कमी न आती। होली दरवाज़े
और छत्ता बाज़ार में लाइन की लाइन दुकानें लूट के डर से बन्द हो
जातीं। कभी हड़ताल का आह्वन न होता तब भी दुकानों के ताले नहीं
खुलते।
लाला नत्थीमल को ऐसे दिनों बड़ा रंज होता। वे कहते, ‘‘ये तुम्हारौ
गाँधीबाबा कायका बनिया है। रोज दुकान बन्द करवावै। इसे जे नईं पतौ कि
रोज-रोज दुकान बन्द रहे से कुत्ते भी बा जगह सूँघना छोड़ देवें। मोय
एक बार मिले गाँधीबाबा तो मैं बासे जे पूछूँ, ‘च्यों महातमाजी, अपनी
दुकान जमाने के लिए हमारी दुकान का बंटाधार करोगे’।’’
दरअसल लाला नत्थीमल को इस बात पर रत्ती भर भी विश्वास नहीं था कि
चरखा चलाने, नमक बनाने और खादी पहनने से देश को आज़ादी मिल जाएगी। देश
भर में क्रान्ति मची थी पर नत्थीमल सोचते अभी कम-से-कम सौ साल तो
अँग्रेज़ों को कोई हिला नहीं सकता। अँग्रेज़ों के कडक़ मिज़ाज के वे
मन-ही-मन प्रशंसक थे। जब वे घर में पत्नी या बच्चों को कडक़कर डाँटते,
मन-ही-मन अपने को अँग्रेज़ से कम नहीं गिनते थे।
चरखा चलाना वे निठल्लों का काम मानते। उनकी पत्नी जब पूरी तल्लीनता
से चरखे में लगी होती वे कहते, ‘‘मोय तो लगै तुम जुलाहिन की जाई हो।
बनिया तो तराजू छोड़ और कछू चलाना नायँ जानै।’’
पत्नी को गुस्सा आ जाता, ‘‘मैं जुलाहिन की हूँ तो तुम भी कोई
लाट-कलट्टर के जाये नायँ हो। बूरेवाले के छोरे मैदावाले बन गये
बस्स।’’
नत्थीमल दाँत पीसते, ‘‘ज़बान लड़ाना सुराजिनों से सीखकर आती है, आये
तो कोई सुराजिन घर में, ससुरी का टेंटुआ दबा दूँगौ।’’
‘‘बनिये के दरवज्जे कोई मूतने भी ना आवै,’’ पत्नी भुनभुनाती।
विद्यावती ने अपनी नयी साथिनों को समझा रखा था कि आना हो तो दुपहर
में आओ। विद्यावती अब तक गृहस्थी में से दो कनस्तर चून निकालकर दे
चुकी थी। साथिनों की सलाह थी कि अबकी बार कम-से-कम एक कूँड चून
इकट्ठा करके वे दें। उन्होंने कहा, ‘‘कमला बहनजी ने बताया है कि अगले
महीने बापूजी की बहुत बड़ी सभा होगी। सारे शहरों से लोग पधारेंगे।’’
विद्यावती ने डींग हाँक दी, ‘‘चून की कोई कमी नायँ। बोरियाँ चिनी रखी
हैं घर में।’’
साथिनों को खुशी हुई। वे बोलीं, ‘‘विद्या बहन अपने मालिक से भी पूछ
लेना। कहीं तुम पर चिल्लावें ना।’’
विद्यावती फिर भी नहीं डरी, ‘‘एकाध बोरी तो गिनती में भी नायँ आएगी।
पूछबे की कौन बात है जामे।’’
एक दिन लाला नत्थीमल की नज़र चौके के कोने में रखे कनस्तर पर पड़ गयी।
उन्हें हैरानी हुई, चौके में दो ईंटों पर यह कनस्तर क्यों रखा हुआ
है। रसोई की कच्ची रसद हमेशा कोठे में रखी जाती थी। उन्होंने कनस्तर
खोलकर देखा। उसमें मुश्किल से सेर भर आटा था।
उनके पूछने के पहले भग्गो ने कहा, ‘‘जीजी इकट्ठा कर रही हैं। जे
सुराजियों का आटा है।’’
पिता आगबबूला हो गये, ‘‘अब का गली-गली जाकर चून माँगती है तेरी
मैया।’’
इतनी देर में विद्यावती आ गयी। उसने दूर से ही कहा, ‘‘इसे हाथ न
लगाना। जे आजादी की लड़ाई में काम आएगा।’’
‘‘हुँह, आटे से लेगी आजादी। महात्मा गाँधी खुद तो जो है सो है,
लुगाइयों को भी पागल बना रहा है। कान खोलकर सुन लो, अब से घर से कोई
चून-चना सुराजियों के यहाँ नहीं जाएगा।’’
‘‘इसका मतलब या घर में मेरा कोई हक ही नहीं है,’’ विद्यावती ने पूछा,
‘‘मैं अपनी मर्जी से पलोथन का चून भी नहीं दे सकती।’’
‘‘ज्या।दा बर्राओ ना। दुकान पर दुई बोरी घुना हुआ कनक पड़ा है, उसमें
से एक बोरी, कहो, भिजवा दूँ पर हाँ बोरी वापस मिलनी चाहिए।’’
‘‘गाँधीबाबा के भौलंटियरों को घुना गेहूँ खिलाओगे तो तुम्हें पाप
पड़ेगा, समझे।’’
नत्थीमल वहाँ से हट गये। आज़ादी की हलचल और लोगों की इसमें हिस्सेदारी
से वे नाराज़ थे। उनके विचार में ये आन्दोलन-फान्दोलन सिर्फ दुकानदारी
खराब करने के फन्दे थे। इनसे किसी का भला नहीं होना था। वे कहते,
‘‘इन ससुरों को गाँधीबाबा की रट लगी है। जब ये सब जेल में ठूँसे
जाएँगे और वहाँ पर डंडे पड़ेंगे, सब सूधे हौं जाएँगे।’’ उन्हें लगता
कि आज़ादी, आवारा निकम्मे और नाकारा लोगों की माँग है। वे शाम की बैठक
में लाला लल्लूमल से बात करते। लाल केशवदेव, हुकुमचन्द और मुरलीमनोहर
भी वहाँ मौजूद होते। नत्थीमल कहते, ‘‘ये गाँधीबाबा भी अजब सिरफिरा
है। निकालना है अँगरेजों को और कहता है चरखा चलाओ, नमक बनाओ। अरे आँख
के अन्धो तुम चरखा चलाते रह जाओगे और अँगरेज मनचेस्टर से मक्खन जैसा
कपास लाकर धर देंगे। का खाकर मुकाबला करोगे।’’
केशवदेव कहते, ‘‘हमने तो सुनी है, जाने सच जाने झूठ, कि कल के दिना
फिर हड़ताल होने वारी है।’’
नत्थीमल का मुँह खुला-का-खुला रह जाता, ‘‘अब का हुआ।’’
‘‘हुआ जे, गाँधीबाबा दिल्ली में गिरफ्तार होय गये। सारे सुराजियों को
मिर्चें छिड़ गयीं।’’
मुरली मनोहर बोलते, ‘‘अब ये सुराजिये पहले दुकानें बन्द करवाएँगे फिर
जेहल जाएँगे, और का।’’
नत्थीमल दुखी हो जाते, ‘‘अब दुकनदारी का जमाना नहीं रहा।’’ उनके
हिस्से का दुख औरों से ज्या’दा था क्योंकि उनकी पत्नी और बेटा दोनों
गाँधीबाबा के भक्त थे।
दोपहर में ठाकुरजी के दर्शनों के बहाने विद्यावती घर से खिसक लेती और
कमला बहन की सभा में शामिल हो जाती। ऐसे अभियान में भग्गो उनकी साथिन
होती।
अब तो भगवती को भी इन सभाओं में आनन्द आने लगा था। सभा के अन्त में
जब नारे लगते उनमें भगवती की आवाज़ सबसे तेज़ होती।
कमला बहन ने शुक्रवार की सभा में तय किया कि देशप्रेम का सबूत देने
के लिए मथुरा की सभी महिलाएँ शनिवार की सुबह टाउनहॉल पर तिरंगा
फहरायेंगी। उसके बाद सब मिलकर गाएँगी, ‘विजयी विश्व तिरंगा प्यारा,
झंडा ऊँचा रहे हमारा।’
महिलाओं में जोश फैल गया। हम चलेंगी, हम भी चलेंगी, हम भी, हमऊ की
पुकारों से सभा गूँज उठी।
कमला बहन के नेतृत्व में शनिवार को भीड़ जुटी। चार-चार की पंक्ति
बनाकर महिलाएँ टाउनहॉल के रास्ते पर बढ़ीं। महिला-जुलूस देखने के लिए
सडक़ के दोनों ओर जनसमूह इकट्ठा हो गया। पुलिस को न जाने कैसे खबर लग
गयी। वह भी तगड़ी संख्या में मौजूद थी। टाउनहॉल के चारों तरफ़ मूँज की
मोटी रस्सी का घेरा पड़ा था। टाउनहॉल परिसर में घुसना मना था। कमला
बहन लम्बी-चौड़ी, हृष्ट-पुष्ट महिला थीं।
उन्होंने टाउनहॉल की सीध में सडक़ पर खड़े होकर ललकारा, ‘‘प्यारी
बहनो! हमारे पूजनीय बापू इस वक्त जेल में हैं। हम सबको बापूजी की कसम
है, हम यहाँ तिरंगा फहराकर जाएँगी। यह देश हमारा है, इसकी सब इमारतें
हमारी हैं। आप सब तैयार हैं?’’
सबने ज़ोर का हुँकारा भरा।
टाउनहॉल की चारदीवारी एक तरफ़ से थोड़ी टूटी हुई थी। उसी पर से
कूद-कूदकर महिलाएँ परिसर में पहुँच गयीं। विद्यावती एक टाँग से लाचार
थीं। उनके लिए छोटी-सी मेंड़ उलाँकनी भी विषम थी। अत: वे परिसर के
बाहर ही रह गयीं। उन्होंने भग्गो को रोका पर वह तो बकरी की तरह कूदकर
अन्दर पहुँच गयी।
सिपाहियों ने पहले हाथ जोडक़र कहा, ‘‘भैनजी हमें मजबूर न कीजिए। यहाँ
झंडा लगाने का ऑर्डर नहीं है।’’
कमला बहन अनसुनी कर सीढिय़ों से ऊपर चली गयीं। इन्द्रावती के हाथ में
लिपटा हुआ तिरंगा था। दयावती ने वह पहला बाँस पकड़ा हुआ था जिसमें पो
कर तिरंगा लगाना था।
भीड़ के मारे भगवती ऊपर तो नहीं पहुँच पायी, नीचे ज़ीने से ही बोलती
रही, ‘‘गाँधीबाबा की जय।’’
तभी दो सिपाहियों ने आकर डपटा, ‘‘चोप! अभी थाने ले जाकर बन्द कर
देंगे, चली है नेता बनने।’’
सडक़ से विद्यावती, पत्थर पर बैठी, भगवती पर नज़र रखे थीं। वे
चिल्लाईं, ‘‘री भग्गो भजी चली आ, मेरे पैर में बाँयटा आ गया री।’’
भग्गो माँ की तरफ़ भागी। इस तरह माँ-बेटी दोनों उस दिन गिरफ्तारी से
बच गयीं वरना गिरफ्तारियाँ तो बहुत हुईं। लालाजी को ख़बर लगनी ही थी।
रात को वे बहुत चिल्लाये। पत्नी से कहा, ‘‘इस छोरी का कहीं ब्याह न
होगा, कहे देता हूँ। तुम दिन भर इसे लेकर सुराजियों में घूमो, ये का
अच्छे लच्छन हैं?’’
‘‘एम्मे कौन बुराई है, मैं साथ में ही। मेरे संग वापस आ गयी।’’
‘‘आगे से सुन लो। चरखा-वरखा चलाना है तो घर में बैठकर चलाओ पर बाहर
निकरीं तो देख लेना। एक टाँग तो भगवान ने तोड़ दई, दूसरी मैं तोड़
दूँगा।’’
विद्यावती चुप लगा गयीं। झगड़ालू आदमी के कौन मुँह लगे।
14
दोपहर भर इन्दु घर में दोनों बच्चियों के साथ अकेली छूट जाती थी।
थोड़ी देर वह ब्लैकी एंड संज़ की गोल्डन रीडर पढऩे की कोशिश करती जो
पति ने उसे अँग्रेज़ी के अक्षर-ज्ञान के लिए दी थी। जल्द ही उसके हाथ
से किताब लुढक़ जाती। उसकी आँख लग जाती। बेबी तो शुरू की शैतान थी,
मुन्नी की भी चंचलता बढऩे लगी थी। दोनों की चिल्ल-पौं में इन्दु चैन
से सो न पाती। शाम को वह झुँझलायी रहती।
लोहेवालों की बहू उमा और इन्दु में अच्छी दोस्ती थी। उमा के बच्चे
थोड़े बड़े हो चुके थे और उनका दाखिला स्कूल में हो चुका था। कभी-कभी
वह दोपहर को आ जाती और दोनों सहेलियाँ स्वेटर बुनते हुए अपना सुख-दुख
भी उधेड़बुन लेतीं।
एक दिन उमा आयी तो देखा इन्दु और मुन्नी सोयी पड़ी हैं और बेबी बाहर
गली में दौड़ रही है। उमा उँगली पकड़ उसे अन्दर लायी।
स्वेटर की सलाई से इन्दु का कान गुदगुदाकर उसने उसे उठाया।
इन्दु उठने लगी तो देखा साथ सोई मुन्नी ने दस्त कर, न सिर्फ खुद को
बल्कि उसे भी लिबेड़ दिया है। मुन्नी को बाँहों से पकड़ इन्दु आँगन
के नल पर लपकी जिसके नीचे पानी का टब भरा रखा रहता। वह टब से पानी
लेकर मुन्नी को साफ़ करने लगी। तभी मुन्नी उसके हाथ से छूटकर पानी में
गिर गयी।
उमा दौड़ी आयी। उसने बच्ची को टब से निकाला लेकिन तब तक वह कुछ पानी
गटक चुकी थी। यकायक वह चुप हो गयी।
इन्दु घबराहट में रोने लगी।
उमा ने बच्ची को उलटकर उसकी पीठ दबा-दबाकर उसका पानी निकाला। उसकी
छाती पर मालिश की और कान मसल-मसलकर उसे सचेत किया।
कुछ मिनटों बाद जब वह बुक्का फाडक़र रोयी, इन्दु और उमा की जान में
जान आयी। वे आपस में लिपट गयीं।
‘‘तुम तो बच्चे पालने में एक्सपर्ट हो गयी हो।’’ इन्दु ने कहा।
‘‘सिर पर पड़ती है तो सब सीखना पड़ता है।’’ उमा ने कहा।
‘‘मेरे से ये चिबिल्लियाँ सँभलती ही नहीं हैं, ऊपर से घर का कुल
काम।’’
‘‘अभी क्या है, अभी तो तुम निठल्ली हो। जब वो घर आ जाएँगे तब देखना
कैसी मुश्किल होगी।’’
जानकर भी अनजान बनकर इन्दु ने कहा, ‘‘और क्या मुश्किल?’’
‘‘अरे वो बुलाएँगे सेज पर और ये दोनों राजकुमारियाँ दीदे फाडक़र बैठी
रहेंगी। सो के न दें ये।’’
‘‘तो तुम क्या करती हो?’’
‘‘और क्या करें। थोड़ी-सी अफीम दूध में चटा देती हूँ। मजे से धूप
चढ़े तक सोते हैं दोनों बच्चे।’’
इन्दु डर से सन्न हो गयी, ‘‘हाय राम अफीम में तो नशा होता है।’’
‘‘राई बराबर देती हूँ। ये ही कहते हैं उमा दे दे नहीं तो सोना मुहाल
हो जाएगा।’’
‘‘मैं तो कभी न दूँ।’’
‘‘आने दे भाईसाब को, तब देखूँगी।’’
उमा ने तय किया कि अबकी होली पर इन्दु बच्चों के साथ उसके घर आये।
इन्दु के दब्बू स्वभाव ने कई बहाने ढूँढ़े पर उमा के आगे उसकी एक न
चली।
बाद में इन्दु को लगा उसे भी घर से निकलना चाहिए। दादाजी पूरा दिन
दुकान पर मन लगा लेते हैं। जीजी, भग्गो चरखा-तकली के नाम पर निकल
लेती हैं, एक वही रह जाती है घरघुसरी। फिर कविमोहन को भी होली पर
नहीं आना था।
होली के रोज़ इन्दु ने सुबह-सुबह ही गुझिया, दही-बड़े बना डाले और
जीजी से कहा, ‘‘हमें उमा के यहाँ जाना है।’’
जीजी बोलीं, ‘‘तीज-त्योहार पर अपने घर बैठना चाहिए। कोई आये-जाये तो
कैसा लगेगा।’’
इन्दु बोली, ‘‘मैं तो रोज घर में बैठी रहती हूँ। आज तो मैं जरूर
जाऊँगी।’’
सास ने समझाया कि छोटी ननद को साथ लिये जा पर इन्दु, अपनी सहेली से
मिलने के चाव में दोनों बेटियों को लेकर अकेली चल पड़ी। होली दरवाज़े
से बायें हाथ की गली में पाँचवाँ मकान था उमा का।
उमा और उसके परिवारवालों ने इन्दु का बड़ा स्वागत किया। उसके पति
दीपक बाबू ने बेबी को गोद में ले लिया और बोले, ‘‘तेरे दोस्त ऊपर हैं
चल तुझे ले चलूँ।’’
बेबी अनजान हाथों में ठुनकने लगी। उमा बोली, ‘‘चलो सब ऊपर चलते
हैं।’’
ऊपर के कमरे में होली के व्यंजन सजे हुए थे। बीचवाली मेज़ पर हरे रंग
की बर्फी, गुझिया, दही-बड़े, काँजी के बड़े और ठंडाई भरा जग रखा था।
पहले रंग लगाने का कार्यक्रम चला। इन्दु ने पहले ही कह दिया, ‘‘देखो
सूखा रंग खेलो। नहीं तो जीजी, दादाजी चिल्लाएँगे।’’
दीपक बाबू बोले, ‘‘धुलैंडी तो कल है। आज सूखा ही चलेगा।’’
उमा और दीपक ने खूब इसरार कर-करके इन्दु को काफी खिला डाला। इन्दु ने
हरे रंग की बर्फी देखकर गर्दन हिलायी, ‘‘भाईसाब यह मैं नहीं खाऊँगी।
इसमें भाँग पड़ी लगे।’’
‘‘अरे नहीं यह तो पिस्ते की बरफ़ी है।’’ दीपक और उमा ने एक साथ कहा।
ठंडाई वाकई में ठंडी और मीठी थी। एक घूँट भरकर इन्दु ने कहा, ‘‘इसमें
भाँग तो नहीं घोटी है?’’
‘‘बिल्कुल नहीं,’’ उमा ने सिर हिला दिया।
इन्दु को घर से निकलकर अच्छा लग रहा था। बच्चे भी आपस में मगन थे।
मुन्नी पास के तख्त पर सो रही थी। वह ठंडाई का ग्लास गटागट पी गयी।
उमा ने बड़े प्यार से उसका ग्लास फिर भर दिया।
बेसिर-पैर की गप्पों में कब सूरज छिप गया, किसी को पता ही नहीं चला।
अब इन्दु को घर की सुध आयी। उमा बोली, ‘‘ये जाकर कह देंगे तुम्हारे
घर। आज यहीं रह जाओ।’’
इन्दु घबरा गयी, ‘‘नहीं, जीजी तो मेरी जान निकाल देंगी। मैं तो अभाल
जाऊँगी।’’
उमा दम्पति रोकते रह गये पर इन्दु मुन्नी को गोद में ले और बेबी को
उँगली से थाम तेज़ कदमों से चल पड़ी।
थोड़ी देर में इन्दु को लगने लगा जैसे वह हवा पर पाँव रखती हुई चल
रही है। वह और भी तेज़ चलने लगी। बेबी बार-बार पिछड़ रही थी। गली में
एक दुकान के थड़े पर इन्दु रुकी। फिर वह लगभग भागती हुई गली पार कर
घर पहुँच गयी।
सास उसकी हालत देखकर समझ गयी कि कहीं से इन्दु भाँग का लोटा चढ़ाकर
आयी है। जीजी ने बहू को नींबू चटाया और पूछा, ‘‘बेबी-मुन्नी कहाँ
हैं?’’
इन्दु ने ताली बजाकर कहा, ‘‘बेबी-मुन्नी’’ और उस पर हँसी का दौरा पड़
गया। वह हँसती जाए और कहे ‘‘बेबी-मुन्नी।’’
जीजी बोली, ‘‘उमा के घर सुला आयी क्या?’’
‘‘उमा...नईं, नईं...’’ इन्दु कहे और हँसना शुरू कर दे।
विद्यावती ने पड़ोसी के छोरे को उमा के घर दौड़ाया कि जाकर देख,
बच्चे कहाँ हैं।’’
थोड़ी देर में छोरा लौटकर बोला, ‘‘बहनजी कह रही हैं, बच्चे तो भाभी
के साथ ही गये थे।’’
जीजी घबराकर रोने लगी।
इन्दु तन्द्रा में थी। सास ने उसकी कोठरी का दरवाज़ा उढक़ दिया।
बड़ी दौड़-धूप मची। सारे बाज़ार में शोर हो गया लाला नत्थीमल की
पोतियाँ हेराय गयी हैं।
होली दरवाज़े के बाहर का बाज़ार उस दिन खुला हुआ था। लोग अभी भी अबीर
गुलाल और टेसू के फूल खरीद रहे थे। हलवाइयों की दुकानें आगे तक सजी
हुई थीं। बहुत-से मनचले रंगदार टोपी पहने, हाथ में पिचकारी लिये
गलियों में आ जा रहे थे। उन तक भी शोर पहुँचा, ‘‘लाला नत्थीमल की
दो-दो पोतियाँ हेराय गयी हैं।’’
ये मनचले भी भाँग चढ़ाये हुए थे लेकिन सुरूर अभी नहीं हुआ था। उनमें
से एक ने कहा, ‘‘करीब दो घंटे पहले मैंने देखी ही छोरियाँ।’’
लालाजी का मुनीम छिद्दू वहीं हर दुकानवाले से पूछताछ कर रहा था। उसने
लपककर लडक़े की बाँह पकड़ी, ‘‘कहाँ देखी थीं?’’
लडक़े ने एक दुकान के चौंतरे पर इशारा किया। प्रमाण स्वरूप उसने कहा,
‘‘बड़ीवाली लाल फराक पहने थी जाने।’’
‘‘हाँ, हाँ,’’ छिद्दू ने कहा और लडक़े समेत उस दुकान पर पहुँच गया।
दुकानदार पप्पू बोला, ‘‘हम तो अभाल आये हैं, दुकान पे, सुबह से
मुन्ना था।’’
मुन्ना की ढूँढ़ मची।
दुकान से छूटकर मुन्ना तो होली की मस्ती में संगी-साथियों के साथ
कहीं निकल गया था। एक और लडक़े ने कहा, ‘‘एक आदमी दोनों छोरियों को
गोदी उठाकर ले गया था कि इनकी मैया बुला रही है।’’
लाला नत्थीमल ने ख़बर सुनी तो सन्न रह गये। मन-ही-मन पत्नी को गाली
देते हुए, अपनी कमीज़ झाडक़र उठे। सवेरे से बैठे-बैठे उनके घुटने अकड़
गये थे। छिद्दू तो खुद बेबी-मुन्नी को ढूँढऩे में लगा हुआ था।
उन्होंने बेमन से अपने मज़दूर सियाराम से दुकान बढ़ाने और चाभी घर पर
लाने को कहा।
जब तक लाला नत्थीमल बाज़ार की तरफ़ पहुँचे बाज़ार में शोर था, ‘‘कंसटीला
होकर आये छोरे बता रहे हैं, वहाँ से रोवे की आवाज़ आ रही है।’’
होली दरवाज़े के बाहर कंसटीले पर लोग लपके। सबसे आगे रंगी और उसके
साथी थे। उन्होंने देखा ज़मीन पर दोनों बच्चियाँ लोट-लोटकर रो रही
हैं। उनके पास एक दोने में थोड़ी-सी जलेबी रखी हुई है।
‘‘बंसीवारे की जै, होलिका माई की जै’’ बोलते हुए लडक़े लपककर
बेबी-मुन्नी को उठा लाये। पीछे-पीछे लाला नत्थीमल और छिद्दू भी आ
गये। दादाजी ने बेबी को घपची में भरकर ख़ूब प्यार किया, ‘‘कहाँ चली
गयी थी तू बता?’’ छिद्दू ने मुन्नी को गोद में उठा लिया।
दिन के इस बखत छोरियाँ कंसटीला पहुँचीं कैसे। ये न रास्ता जानें न चल
पायें। बाज़ार में इसी पर विचार-विमर्श होने लगा।
लाला नत्थीमल ने सेर भर कलाकन्द बँधवाया और घर की तरफ़ चल दिये।
छिद्दू की गोदी से उतरते ही बेबी ‘दादी’, ‘दादी’ कहती विद्यावती से
चिपक गयी।
घर में शाम का चूल्हा नहीं जला था। इन्दु सोयी पड़ी थी। भग्गो जीजी
से डाँट खाकर एक तरफ़ पड़ी थी। जीजी का अपना मन तडफ़ड़ में पड़ा था।
पंजे का घाव चस-चस करने लगा था। उसी पर झुकी हुई वह प्रार्थना के
शिल्प में बुदबुदा रही थी ‘‘बंसीवारे रखियो लाज, बंसीवारे रखियो
लाज।’’
बेबी का गुलगुला बोझ बदन पर पड़ा तो जीजी विह्वलता में रो पड़ीं,
‘‘अरे मेरी लाड़ो-कोड़ो कहाँ थी तू इत्ती अबेर। ऐ छिद्दू इधर आ। कहाँ
मिली छोरी मोय बता।’’
तब तक नत्थीमल मुन्नी को लेकर अन्दर आये। उन्होंने विद्यावती की गोद
में बच्ची को डालकर प्रेम से कहा, ‘‘लो सँभालो अपनी नतनियाँ।
नगर-ढिंढौरा पीट के पायी हैं।’’
भगवती बेबी को उठाकर नाचने लगी, ‘‘बेबी मिल गयी आहा, आहा, मुन्नी मिल
गयी आहा, आहा।’’
ख़ुशी के मारे सबकी आँखों से आँसू बह रहे थे, गला भर्रा रहा था।
नत्थीमल बोले, ‘‘मैंने तो बाज़ार में सुनी और कलेजा धक्क से रह गया।
हे भगवान कबी को कौन मुँह दिखाऊँगौ, मैंने कही चल भई छिद्दू छोड़
दुकान को।’’ जिसने जो बताया सोई किया, जहाँ कहा वहाँ हेरा। अरे बहू
कहाँ है बुलाओ वाय।’’
नत्थीमल हाथ-पैर धोकर कपड़े बदलने लगे।
उधर बेबी और भगवती ने झँझोडक़र, शोर मचाकर इन्दु को जगा दिया।
भग्गो बोली, ‘‘भाभी दादाजी बड़ी मुश्किल से पाये हैं बेबी-मुन्नी को।
इन्हें छाती से चिपकाकर प्यार तो कर लो।’’
इन्दु पर अब रोने का दौरा पड़ा। वह ज़ोर-ज़ोर से हाय-हाय करती रोने
लगी।
विद्यावती ने अन्दर आकर घुडक़ा, ‘‘चुप, नौटंकी करबे की ज़रूरत नायँ।
आवाज़ न निकले अब।’’
मुन्नी दूध के लिए मचल रही थी। उसे इन्दु की गोदी में दिया गया।
बहू की हालत से बेख़बर नत्थीमल यही बतलाने लगे कि बाज़ार में वो छोरे
ना मिले होते तो बेबी-मुन्नी मिलती थोड़े ही।
विद्यावती ने पूछा, ‘‘कौन थे वो छोरे?’’
‘‘होंगे कोई, होली के हुरियार रहे,’’ नत्थीमल ने लापरवाही से कहा। वे
कलाकन्द के ऊपर का कागज़ और सूत निकाल रहे थे।
उन्होंने सबके हाथ में कलाकन्द की कतली रखी, ‘‘प्रभु की लीला गाओ। जो
कुछ ऊँच-नीच हो जाता तो अपने कबी को मैं कौन जवाब देता।’’
भग्गो ने कहा, ‘‘दादाजी लौंगलता लाते। हर बार कलाकन्द ही लाते हो।’’
‘‘सच्ची भग्गो, मोय कलाकन्द इत्तो भायै, मैं सोचूँ अपने पलंग पे
कलाकन्द की बिछात करवा लूँ। इधर करवट लूँ तो इधर बुडक़ा मारूँ, उधर
करवट लूँ तो उधर बुडक़ा मारूँ।’’
पोतियों के मिल जाने की ख़ुशी में अपना विजयोल्लास भी शामिल कर लाला
नत्थीमल इस समय शत-प्रतिशत प्रसन्न आदमी थे।
लेकिन विद्यावती के दिमाग पर उनका आलोचक सवार था। उन्होंने फिर पति
से सवाल किया, ‘‘धुलैंडी तो कल है, हुरियार कहाँ से आय गये।’’
अब लाला नत्थीमल को याद आया, ‘‘नईं, मैं भूल गयौ। पप्पू की दुकान पर
एक और छोरे ने बतायौ। तभी लोग कंसटीले की तरफ भजे। मैं कहूँ जो एक
होती तो वा आदमी लेकर भज गयौ हौंतो। दो छोरियाँ, दोनों मरखनी। उससे
सँभरी नायँ।’’
विद्यावती के दिमाग में गाँठ पड़ गयी। कई छोरों ने देखी हैं छोरियाँ।
इसका मतलब बहू सीधी घर आने की बजाय गली-मुहल्ले में हँसती-बोलती आयी
है। हे बंसीवारे इस घर की पत तुम्हारे ही हाथ है।
इतनी देर में भग्गो ने ब्यालू बना ली थी। पिता ने खाने से मना कर
दिया। वे कलाकन्द खाकर तृप्त हो गये थे।
15
बीसवीं सदी के प्रथमाद्र्ध में हर मनुष्य के अन्दर जड़ता और जागरूकता
का घमासान मचा रहता था। स्त्रियों के अन्दर और भी ज्याददा क्योंकि उस
वक्त उन्हें शिक्षित करनेवाली संस्थाएँ कम और बन्धित करनेवाली अधिक
थीं।
दोनों नतनी सही-सलामत घर आ गयीं, लालाजी उस तरह नहीं किल्लाये जिस
तरह वह घर-गृहस्थी की छोटी-मोटी गड़बडिय़ों को देखकर किल्लाते थे, बहू
अगले दिन पुरानी चाल से चौका सँभालने में लग गयी, फिर भी विद्यावती
के दिमाग में बड़ी खलबली मची थी। इन्दु अकेली यहाँ से निकली, अकेली
वहाँ से पलटी, बीच में का भवा का नहीं इसकी कौन सुनवाई है। आखिर
छोरियाँ छोड़ीं तो कहाँ और मिली कहाँ जाकर। कोई को ख़बर नहीं। सिवाय
दो एक शोहदों और हुरियारों के। उन्हें लगा बहू के पाँव भटक रहे हैं।
लडक़ा पास नहीं, करें तो क्या करें।
ये ऐसी आशंकाएँ थीं जो न तो वे कमला बहन से कह सकती थीं न रामो से।
विद्यावती इन्दु की रस-रूप से भरी टल्ल-मल्ल देही देखतीं और हैरान
होतीं कि बहू अपनी भूख-प्यास कैसे सँभाल रही है। उन्हें अपने बेटे पर
खीझ उठती जो सुख-चैन की जिन्दगी को लात मार बी.ए., एम.ए. की चक्करदार
सीढिय़ों में अपनी नींद फ़ना कर रहा था। अपने सिर पर पड़ी इस
जिम्मेदारी के लिए उन्हें बड़ा अस्वीकार बोध होता। जिसकी चीज़ वह
जाने, हम कहाँ तक चौकीदारी करें, उन्हें लगता। दो बेटियाँ तो पार लग
गयीं तीसरी भगवती की फिक्र भी उन्हें रहती।
उन्होंने खोद-खोदकर बहू से पूछा, ‘‘इन्दु बेटी ज़रा याद कर तू किसे दे
आयी थी बच्चे?’’
इन्दु अब पूरे होश में थी। वह कहती, ‘‘किसी को नहीं। अपनी जान मैं
दोनों को आपके धौरे लायी थी।’’
वे फिर कहतीं, ‘‘पप्पू हलवाई का चौंतरा पड़ा था बीच में?’’
इन्दु कहती, ‘‘हम कोई पप्पू-अप्पू को नायँ जानै। हम घर से निकरीं और
घर में आय गयीं, बस्स।’’
ऐसी सुच्ची अनसूया बहू पर सास गरजैं तो कैसे, बरसैं तो कैसे।
विद्यावती ने अब दोपहर को निकलना कम कर दिया। वे भग्गो और बेबी की
मदद से कभी आमपापड़ सुखातीं, कभी अदरक पाचक चूर्ण बनातीं। ऊपर-ऊपर से
विद्यावती अपने को घर में व्यस्त रखती लेकिन समय उनके अन्दर करवट
लेने लगा था। सुबह के वक्त वे आँगन में तख्त पर फैलाकर अख़बार बड़े
ध्यान से पढ़तीं। खासकर महात्मा गाँधी और कांग्रेस की ख़बरें। अगर
अख़बार में महात्माजी के गिरफ्तार होने की ख़बर होती, विद्यावती दुखी
हो जातीं। सारे दिन रह-रहकर दुख उनकी बातों से व्यक्त होता, ‘‘बताओ
इत्ती जालिम है सरकार, डेढ़ पसली का गाँधीबाबा इनका क्या बिगाड़ै है
जो मार उसे जेल में ठूँस दें।’’
ऐसे दिन उनकी भूख मर जाती। नाम को मुँह जूठा कर उठ जातीं। हाँ पान की
नागा न कर पातीं। कोठे में रखे पानी के तमेड़े में उनके पान के पत्ते
पड़े रहते। सुबह छिद्दू पान दे जाता। विद्यावती कैंची से कतरकर एक
पान की चार कतरन बना लेती। वे आले से पानदान लातीं और उलटे हाथ पर
पत्ता रख, सीधे हाथ की पहली उँगली से उस पर चूना-कत्था लगाती,
सुपाड़ी का चूरा रखतीं और पीले तमाखू की पाँच पत्तियाँ। उनके सीधे
हाथ की पहली उँगली कत्थे से ऐसी रँग गयी थी कि नहाने के बाद भी वह
उजली न होती।
अख़बार की तह खुली देखकर नत्थीमल का पारा सुबह ही चढ़ जाता। वे
चिल्लाते, ‘‘कित्ती बार कही है मैंने, मोय ताजा अख़बार दिया कर, जे
कुँजडिऩ कछु समझै नायँ।’’
विद्यावती पिनक जातीं, ‘‘सँभलकर बोला करो। अख़बार पढऩे की चीज़ है
खायबे की नईं। तुम्हें दाल दलहन का बाज़ार-भाव पढऩा रहता है सो पढ़ लो
न। इम्मै गाली देने की कौन बात आ गयी।’’
बात सही थी लेकिन लालाजी को गलत लगती कि उनसे पहले घर में अख़बार की
तह खोल ली जाए। उन्हें विद्यावती में आ रहे बदलाव अजीब लग रहे थे। वह
उनकी बातों का तार्किक जवाब देने लगी थी। उनके तेज़ दिमाग ने यह ताड़
तो लिया था कि अब यह पहले वाली पत्नी नहीं है जिसे वे फैल मचाकर बस
में कर लें। लेकिन वे गाँधीबाबा को इसका श्रेय देने के लिए तैयार
नहीं थे। उन्हें लगता यह भी कोई बात हुई, बैयर हमारी और काबू उस जेल
में बैठे गाँधीबाबा का। सबसे पहले तो इसका चरखा-समिति में जाना छूटना
चाहिए वे सोचते। उन्हें तसल्ली थी कि विद्यावती का पैर इस हाल में
नहीं था कि वह ज्या-दा दूर चल-फिर ले। लेकिन उन्हें कुछ एहसास था कि
चरखा मथुरा के घर-घर में पहुँच चुका है। चरखे का चक्कर ख़त्म करना
आसान काम नहीं था। उनके घर में पत्नी के हाथ के कते सूत के तीन-चार
खेस आ गये थे।
इधर कविमोहन की वजह से घर में सबको चाय पीने की आदत पड़ गयी थी।
इन्दु उठकर सबसे पहले चाय बनाती। अख़बार के साथ चाय मिल जाने से
लालाजी का दिमाग शान्त होने लगता। वे पाँचवें पृष्ठ की ख़बरों में डूब
जाते। वाणिज्य-ख़बरें, बहुत ज्यादा नहीं छपती थीं। लेकिन इनसे बाज़ार
की स्थिति का परिचय मिल जाता। गल्ला बाज़ार में एक-दो रुपये की घट-बढ़
तो सामान्यत: होती ही, कभी अँग्रेज़ सरकार की आयात-निर्यात नीति में
फेर-बदल के कारण बाज़ार औंधे मुँह गिरा की ख़बरें होतीं। कभी सराफ़ा
बाज़ार की ऊँचनीच से समस्त बाज़ार और मंडी के भाव प्रभावित हो जाते।
‘सोना चटका, चाँदी लुढक़ी’ या ‘ हापुड़ मंडी की ज्या दा बिकवाली से
दलहन वायदा औंधे मुँह गिरा’ जैसी ख़बरों को वे बड़े ध्यान से पढ़ते।
लालाजी को अफ़सोस होता कि अख़बार में बनिज समाचार और ज्यायदा क्यों
नहीं छपते। पाँचवाँ पन्ना पढऩे के बाद वे पहले पृष्ठ पर आते। उसमें
बड़े-बड़े अक्षरों में कांग्रेसी नेताओं के समाचार छपते। देश के
किसी-न-किसी नगर में आज़ादी के मतवालों पर पुलिस के लाठीचार्ज और जनती
की गिरफ्तारी की ख़बरें आतीं। लालाजी चिन्तित हो जाते, ‘‘गाँधीबाबा के
चेलों की चले तो ये सारा बजार ही फूँक दें, ऐसे सिरफिरे हैं।’’
कभी-कभी वकील शरमनलाल, लाला केशवदेव, खेमचन्द और ओमप्रकाश तिवारी के
साथ लाला नत्थीमल मिल बैठते। ये सब उनके साथ आर्यसमाज पाठशाला की
प्रबन्ध समिति के सदस्य थे। इनमें शरमनलाल सबसे शिक्षित और सचेत
व्यक्ति थे।
लाला केशवदेव कहते, ‘‘सुराजियों ने आजकल बड़ी अराजकता फैला रखी है।’’
खेमचन्द और नत्थीमल उनके समर्थन में सिर हिलाते। ओमप्रकाश का छोटा
भाई खुद कांग्रेस में था। उन्हें सुराजियों की आलोचना हज़म न होती। वे
कहते, ‘‘अराजकता अँग्रेज़ों ने फैलायी है, आप उलटी बात क्यों करते हो।
कांग्रेस सुराजी सर पर कफ़न बाँधकर लड़ रहे हैं। आप चुपचाप बैठे आढ़त
पर नोट गिनते रहोगे और हमारे कांग्रेसी वीर पटापट अँग्रेज़ी गोलियों
से गिरेंगे।’’
नत्थीमल कहते, ‘‘उन्हें हम कुछ नहीं कहते पर यह आये दिन बाजार बन्द
करवाना तो शरीफों का काम नहीं है।’’
ओमप्रकाश कहते, ‘‘अग्रवालजी कभी बाज़ार से ऊपर उठकर भी सोचो। इन
नौजवानों की कुर्बानी देखो, लाठी-गोली के आगे निहत्थे खड़े हो जाते
हैं। दिन सडक़ पर तो रात जेल में बिताते हैं।’’
नत्थीमल पछताते कि वे इन लोगों के बीच आ गये हैं। यहाँ न नफे-नुक़सान
की चर्चा होती है न महँगाई की।