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इस बार कविमोहन अपना कुल सामान लेकर घर लौटा। लोहे का ट्रंक आधा
कपड़ों से भरा था और आधा किताबों से। अलग से एक गत्ते की पेटी में भी
किताबें थीं। बहुत-सी पत्रिकाएँ भी थीं और कुछ अख़बार। बहुत-सा सामान
तो वही था जो वह घर से ले गया था। एक नयी चीज़ थी अलमूनियम की बालटी
जिसमें रखकर कवि अपने चार-छ: बर्तन लौटा लाया था, तश्तरी, भगौना, दो
चम्मच, चाय की चलनी और दो कटोरियाँ।
विद्यावती ने कहा, ‘‘जे बालटी तो बहुत हल्की है, कै दिना चलेगी?’’
‘‘दो साल से तो मैं चला रहा हूँ, अभी साबुत है।’’ कवि हँसा।
घर में लोहे की भारी बाल्टियाँ थीं जिन्हें उठाकर पानी भरने में हाथ
थक जाते; चोट लगने का अलग ख़तरा रहता। जीजी तो अपने पैर के कारण बोझ
उठा नहीं सकती थीं। भग्गो और इन्दु ही पानी भरतीं। गुसलखाने के
दरवाज़े पर एक ईंट की दहलीज़ थी जिससे पानी कमरे में न आये। एक बार
भग्गो दहलीज से ठोकर खाकर गुसलखाने में गिरी। ज़मीन पर रखी टीन की
साबुनदानी से उसके माथे पर चोट लग गयी जिसका निशान चौथ के चाँद-सा
अभी भी दिखता था।
भग्गो ने कहा, ‘‘अब इसी बालटी से पानी भरा करेंगे, है न भाभी?’’
हालाँकि यह तय माना जा चुका था कि कविमोहन दुकान पर नहीं बैठेगा,
नत्थीमल बेटे के लौटने से प्रसन्न थे। उन्हें लगा जैसे घर का भार उन
पर आधा रह गया। उन्हें भरोसा था कवि का एम.ए. का नतीजा अच्छा आएगा।
अपनी तरफ़ से उन्होंने दो विद्यालयों में बात कर रखी थी साथ ही यह भी
कहा था कि ‘वह तो कॉलेज में पढ़ाना चाहे है, स्कूल की नौकरी जने
करैगो कि नायँ।’
कवि की वापसी से इन्दु तो साक्षात कविता बन गयी। उसके चेहरे पर रंग
लौट आया, चाल में लचक। उसने आँगन से तुलसीदल लेकर अदरक-तुलसी की चाय
बनायी। सबने साथ बैठकर चाय पी, मठरी खायी। आगरे का पेठा और दालमोठ भी
खायी गयी। जीजी की आदत थी चाय पीने के बाद प्याले की तली में चिपकी
चीनी उँगली से निकालकर चाटतीं। आज उन्होंने ऐसा किया तो नत्थीमल
बोले, ‘‘भागमान इत्तौ मीठौ न खाया कर, डॉक्टर ने मना की थी कि
नायँ।’’
‘‘डागडर का बस चले तो न मीठा खाऊँ न नोनो। वा डागडर तो ऊत है। वैदजी
ने तो मना नायँ कियौ।’’
‘‘पेशाब की जाँच डॉक्टर ने की थी, उसी में खराबी निकली है, वैदजी को
का मालूम।’’
कवि चिन्तित हो गया, ‘‘जीजी को डायबिटीज़ हो गयी क्या? अब क्या
होगा?’’
जीजी बोली, ‘‘तू फिकर न कर। ये तो मेरा मीठा बन्द कराने के लिए बोला
करें हैं। बाकी इन्हें कोई फिकर नायँ। जे पीठ पर इत्तौ बड़ौ फोड़ो हो
रह्यै है। उसका इलाज नायँ करैं बस मीठे के पीछे पड़ जायँ।’’
‘‘डॉक्टर ने कहा था फोड़े-फुन्सी भी डायबिटीज़ से हो रहे हैं।’’
जीजी उखड़ गयीं, ‘‘जे कहो इलाज तो तुम्हें करवानो नायँ। सारे दोष
मेरे मूड़ पे डाले जाओ।’’
कवि ने बात बदलने की गरज़ से कहा, ‘‘हमारे प्रोफेसर साब के यहाँ चाय
ऐसे नहीं बनती। ट्रे में बाक़ायदा चाय का पानी, दूध, चीनी अलग-अलग आती
है। जिसे जितनी चाहिए उतनी बनाए।’’
‘‘पत्ती रंग कैसे छोड़ेगी?’’ इन्दु ने पूछा।
‘‘बिल्कुल छोड़ेगी। केतली में चाय की पत्ती डालो, ऊपर से खौलता पानी।
फौरन उसे रुई की टोपी से ढक दो। दूधदानी में गरम दूध डालो और
चीनीदानी में चीनी।’’
बेबी और भग्गो अभी तक बैठी रिबन से खेल रही थीं। अचानक भग्गो ताली
बजाने लगी, ‘‘लो बोलो चाय को भैयाजी टोपी पहनाएँगे।’’
‘‘टोपी नहीं उसे टी-कोज़ी कहते हैं। कागज़ ला तो काटकर दिखा दूँ।’’
‘‘हमें नहीं देखनी। आजा बेबी छत पर चलें।’’
जीजी ने घुडक़ा, ‘‘टाँग तोड़ दूँगी जो छत पर गयी। बैठ यहीं पर।’’
भग्गो का मूड ख़राब हो गया।
सभी को कुछ अरसे पहले हुई दुर्घटना कसक गयी। सिवाय कवि के। कवि को
पता ही नहीं था। इन्दु ने डर के मारे बताया नहीं कि पति एक-दो दिन को
आते हैं। घर के बखेड़े सुनकर उनका ध्यान ही बँटेगा।
मुन्नी कुछ हफ्तों की थी, शायद छह। इन्दु ने सुबह के काम से खाली
होकर मुन्नी के बदन पर तेल मला और दूध पिलाकर छत पर खटोले पर लिटा
दिया कि थोड़ी देर में नहला देगी। अभी उसे दोपहर की कच्ची रसोई बनानी
थी जिसका ज्यालदा ही झंझट होता था।
उसने सोचा वह जल्दी से अँगीठी जलाकर दाल का अदहन चढ़ा दे। उसने पास
खेलती भग्गो से कहा, ‘‘भग्गो बीबी तुम ज़रा मुन्नी का ध्यान रखना, मैं
अभी दो मिनट में आयी।’’
चौके में इन्दु को पाँच मिनट से ज्या,दा लग गये। जब वह दुबारा पहुँची
तो क्या देखा खटोले पर बिटिया तो है ही नहीं। इन्दु के मन में आया
भग्गो कितनी बेअकल है, नंग-धड़ंग मुन्नी को गोदी लेकर बाहर निकल गयी
है। उसने नीचे मुँह कर आवाज़ लगायी, ‘‘भग्गो बीबी।’’
भग्गो अन्दर के कमरे से आयी, ‘‘भाभी जीजी ने मुझे चने पीसने को बुला
लिया।
‘‘मुन्नी कहाँ है?’’ इन्दु ने पूछा। उसका मुँह कुछ उतर गया।
‘‘वहीं तो रही,’’ भग्गो बोली, ‘‘हे राम मुन्नी तो यहाँ है ही नहीं।’’
थोड़ी देर में घर भर छत पर इकट्ठा हो गया।
‘मुन्नी कहाँ गयी?’ ‘मुन्नी कहाँ गयी?’ सब एक-दूसरे से कहें और हैरान
हों। सैंतालीस दिन की छोरी न बोले न चाले, गयी तो कहाँ गयी।
इन्दु पगलायी-सी घर भर में डोल रही थी। हाय उसके तन पर न कपड़ा न
गहना, किसके मन में क्या आयी, कौन उठा ले गयौ।
जीजी ने तभी इधर-उधर नज़र दौड़ाई। सामने के तिमंजिले मकान की पतली
मुँडेर पर एक बन्दर धीरे-धीरे चला जा रहा था। उसने मुन्नी को पेट से
चिपका रखा था।
इन्दु बुक्का फाडक़र रो पड़ी, ‘‘हे हनुमानजी यह कौन परीक्षा ले रहे
हो। जो ज़रा छूटी तो खम्म से गिरेगी तिखने से। हाय कोई मुन्नी को
बचाओ।’’
पड़ौस की रामो मौसी ने कहा, ‘‘जे तो भौत बुरी भई। पर येई सोचो
साच्छात भगवान आकर ले गये बिटिया को। याही जनम में तुझे मोच्छ मिल
गयौ और का चाही।’’
इन्दु रोते-रोते बोली, ‘‘मोच्छ का मैं का करूँगी, मोय मेरी मुन्नी
दिलाय दो। कौन जोन कब बन्दर वाय बुडक़ा मार दें, पटक दें या ओझल हो
जायँ। हाय मुन्नी अब गिरी तब गिरी।’’
तब तक आस-पड़ोस की कई औरतें इकट्ठी हो गयीं। लाल मुँहवाले बन्दर के
लिए तरह-तरह के लालच सुझाये गये।
‘‘कलाकन्द मँगाय के दोना खटोलिया पे रख दो। हनुमानजी मुन्नी दे
जाएँगे, दोना ले जाएँगे।’’ एक ने कहा।
जीजी बोली, ‘‘जे मुन्नीए पटककर भाजै तो?’’
‘‘हाँ यह भी होय सकता है।’’
‘‘का पता कौन दशा करें।’’
एक औरत ने कहा, ‘‘ऐसा करो अपनी मटरमाला उतारकर हनुमानजी को दिखाओ।
बन्दरों को माला पहरिबे का बड़ा सौख (शौक) होता है। का पता मुन्नी को
कलेजे से चिपकाकर आ जायँ और मटरमाला ले जायँ।’’
इन्दु कोठरी में मटरमाला निकालने को भागी।
तब तक नत्थीमल भी ख़बर पाकर आ गये।
मुहल्ले में शोर हो गया लाला नत्थीमल की धेवती को बन्दर ले भगा और
तीन तिखने की मुँडेरिया पर बैठा है।’’
लोग गली में इकट्ठे होने लगे।
बन्दर अब कूदकर दो मंजिलों के बीच की पतली-सी पटिया पर चलने लगा। फिर
वह कोने तक जाकर नुकीले कोने के मोड़ पर बैठ गया। बच्ची को उसने पेट
से हटाकर वहीं लिटा दिया।
‘‘मुन्नी मर गयी! हे भगवान!’’ इन्दु चीत्कार कर उठी।
तकरीबन सात-आठ छत-पार दो लडक़े सवेरे से पतंग उड़ाने में मशगूल थे।
सयाने थे पर काम से लगे बंधे नहीं थे। इन्दु की चीत्कार से उनका
ध्यान बँटा। छत से नीचे गली में नज़र डाली तो काफी लोगों का मजमा
दिखाई दिया। बन्दर, बच्चा और हाय-तोबा देख-सुनकर वे समझ गये क्या हुआ
है। बस वे डोर-लटाई फेंककर उधर चल दिये। उनमें से एक लपककर घर से
केला ले आया।
बन्दर दाँत निपोरता हुआ आगे आया।
लडक़ा केला दिखाते हुए उसे दूसरे कोने तक ले गया, फिर उसके आगे मुँडेर
पर केला रखा।
बन्दर उचककर मुँडेर पर आया और इनसानों की तरह छीलकर केला खाने लगा।
मुन्नी वहीं निचली मुँडेर के कोने पर पड़ी हुई थी।
दूसरा लडक़ा बाँस का आसरा लेकर छत पर से मुँडेर के नीचे उतर गया। वहाँ
इतनी भी जगह नहीं थी कि एक पैर टिका ले। पर जान पर खेल गया छोरा।
उसने मुँडेर की पतली जगह के दो कोनों पर बाँस टिकाया। टिकने के बाद
भी बाँस थर-थर काँप रहा था। बिल्कुल नट की तरह वह छोरा बाँस पर पैर
धरकर आगे बढ़ा और एक हाथ से बच्ची को उठा लाया। दूसरे हाथ से मुँडेर
साधे वह ऊपर चढऩे का जतन करने लगा। तब तक लोगों ने ऊपर आकर उसके हाथ
से बच्ची को लपक लिया और बगलई देकर छोरे को ऊपर उठा लिया। उसका साथी
तब तक बन्दर को खदेड़ चुका था। लोगों ने छोरों की खूब पीठ थपथपायी।
इन्दु को कोई होश नहीं था वह क्या कर रही है। ‘मुन्नी’, ‘मुन्नी’
पुकारती वह सारी भीड़ को चीरती हुई गयी और बच्ची को झपटकर कलेजे से
लगा लिया। उस पर चुम्मियों की बरसात करते हुए वह कभी रोये, कभी हँसे।
बेबी भी माँ के पास जाने को मचलने लगी।
जीजी ने तेज़ आवाज़ में कहा, ‘‘बहू अपनी छत पर आओ।’’
‘‘बड़ी खैर हुई जी। बंसीवाले ने बिटिया लौटा दी।’’ कहते हुए भीड़
तितर-बितर हो गयी।
इन्दु ने कई बार इधर-उधर ताका। वह एक नज़र उन लडक़ों को देखना, सिहाना
चाहती थी जो उसकी बच्ची के रक्षक बनकर आये थे। पर लडक़े वहाँ दिखाई
नहीं दिये।
इन्दु बच्ची को छाती से चिपकाये-चिपकाये नीचे उतर गयी। छाती में दूध
घुमड़ रहा था। कमरे में दीवार की तरफ़ मुँह कर उसने स्तन मुन्नी के
मुँह लगा दिया।
कुछ देर बाद उसकी एकाग्रता, सास-सुसर के बीच बहस के तेज़ स्वर से भंग
हुई। बीच में सिटपिटाई हुई भग्गो खड़ी थी। जीजी ने छत से नीचे आते
हुए कहा, ‘‘जाने कौन के छोरे रहे, बड़े हिम्मती जवान निकले।’’
भग्गो बोली, ‘‘जीजी जो आचार्यजी खादी बेचते हैं, उन्हीं का छोटा भाई
रहा वह केलेवाला छोरा। दूसरे की मैं न जानूँ कौन था।’’
पीछे से नत्थीमल ने बेटी के सिर पर एक चपेड़ मारी, ‘‘तू क्या नगर
नाईन है?’’
जीजी ने कहा, ‘‘कान खोलकर सुन ले भग्गो, कल से तेरा छत पर जाना बन्द।
आज बहू जैसी भागती डोली, हमें पसन्द नायँ। नंगे सिर, उघाड़े बदन सारी
खलकत के सामने बावली-सी रोये-हँसे। भले घर की औरतों के लच्छन नहीं
हैं ये।’’
मुन्नी दहशत के मारे सो गयी थी।
इन्दु दूसरे कमरे में आयी। जीजी उसे देखकर चंडी बन गयीं। बोलीं,
‘‘बहुत हो चुकी आज की नौटंकी। तुझे लपककर छत फलाँदने की कौन ज़रूरत
थी? आने दे बब्बू को आगरे से, उसे बताऊँगी। मुन्नी को कमरे में तेल
मलने में कौन हरज होता। पर नहीं ऊपर छत पर जाना है। जब तेरा कमरा
तिखने पर किया तब तूने भतेरी फैल मचायी कि वहाँ नहीं रहना।’’
नत्थीमल ने कहा, ‘‘सारी गलती तुम्हारी है। तुम जो ये औरतों की
मीटिंगों में बेटी को लेकर जाती हो उससे सबकी शर्म खुल रही है। तुम
सूधे से घर बैठो तो बहू-बेटी भी बैठें।’’
‘‘तुम्हें बस मैं ही बुरी लगूँ। मेरा निकलना तुम्हें बुरौ लगै। मेरी
इत्ती उमर हो गयी। न कहीं गयी न आयी। मैं तो या घर की चूल्हे की
लकडिय़ों में ही होम हो जाती, वह तो कहो, गाँधीबाबा की सीख कानों में
पड़ गयी।’’
नत्थीमल ने फैसला सुनाया, ‘‘बड़ी आयी गाँधीबाबा की मनैती। जहाँ जाना
है, इकल्ली जा, इकल्ली आ। भगवती सयानी हो रही है। वह तेरे साथ फक्का
मारती नहीं डोलेगी।’’ लालाजी को पता था, पैरों से लाचार, विद्यावती
अकेली कहीं जाएगी ही नहीं।
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‘चम्पा अग्रवाल कॉलेज’ मथुरा का नामी शिक्षण संस्थान था। नगर के
तीन-चौथाई बच्चे यहाँ से पढक़र उच्चतर शिक्षा के लिए बाहर जाते थे।
कविमोहन को जब यहाँ पढ़ाने के लिए कच्ची नौकरी मिली, घर भर में ख़ुशी
की लहर फैल गयी। बहुत दिनों के बाद लाला नत्थीमल के चेहरे पर भी हँसी
आयी। उनकी छाती चौड़ी हो गयी। गली-मुहल्ले में उनकी इज्ज़त बढ़ी। लडक़ा
माट्टरसाब बन गया। यहीं, इसी गली में सुथन्ना पहने दौड़ता फिरता था,
यही बल्ला-गेंद खेलता था और यहीं उसका ब्याह हुआ था।
इन्दु के तो पैर ज़मीन पर नहीं पड़ रहे थे। उसे लग रहा था जैसे उसे
ख़ज़ाने की चाभी मिल गयी। एक तो अब कन्ता घर में आँखों के सामने
रहेंगे, दूसरे कमाई भी करेंगे। अब उसे छोटी-छोटी ज़रूरतों के लिए सास
के आगे हाथ नहीं फैलाना पड़ेगा।
कॉलेज लेक्चरर की सिर्फ एक सौ बीस रुपये महीने तनख़ा थी लेकिन उसका
ओहदा समाज में बहुत ऊँचा था। विद्यार्थी अपने अध्यापक की इज्ज़त करने
के लिए लेक्चरर को भी प्रोफेसर साब कहते। वे कॉलेज में तो पढ़ते ही,
घर आकर भी मार्गदर्शन लेना चाहते। कुछ एंग्लोइंडियन शिक्षक भी वहाँ
थे जिनके कारण सभी में अँग्रेज़ी के सही उच्चारण की होड़ लगी रहती।
पहली तनख़ावाले दिन घर में जश्न मना। दोपहर में विद्यावती ने
खोमचेवाला बुलाकर आँगन में बिठा दिया। सबने जी भरकर चाट खायी। उसके
बाद मलाई-बरफ़ की बारी आयी। लकड़ी की सन्दूकड़ी में मलाई-बरफ़ लेकर
फेरीवाला आया तो इकन्नी की जगह चवन्नी-चवन्नी की बरफ़ मोल ली गयी। उस
दिन लीला भी बच्चों समेत आयी हुई थी। सबने छककर चाट और मलाई की बरफ़
खायी। विद्यावती ने तृप्त होकर कहा, ‘‘छोरे ने सबके मुँह हरे कर
दिये।’’
लाला नत्थीमल ने कहा, ‘‘मेरी पूछो तो अभी एक कसर रह गयी।’’
‘‘क्या दादाजी?’’ कवि ने पूछा।
‘‘कलाकन्द नायँ खवायौ।’’
फौरन छह रुपये देकर छिद्दू को बृजवासी हलवाई के यहाँ दौड़ाया गया।
सबको पता था कि लाला नत्थीमल को कलाकन्द बहुत पसन्द था। एक ही बात
बताते वे कभी थकते नहीं, ‘‘मेरौ मन करै कलाकन्द की बिछात अपने पलंग
पे करवा लूँ।’’
भग्गो ताली बजाकर हँसी, ‘‘दादाजी जो बिस्तर में चींटे लग गये तो?’’
लालाजी बोले, ‘‘मैं बोई गाना सुना दूँगा जो रंगी धोबी ने जैकसन साहब
को सुनाया था—
एक आँख बाकी कूआ कानी
एक में घुस गयौ चैंटो।
अरी मेरौ ससुर कनैटो।’’
इस सुनी-सुनाई कहानी में सबकी दिलचस्पी थी। इसका आगे का हिस्सा इस
प्रकार था कि रंगी धोबी डिपटी जैकसन साब के अर्दल में रहता था।
जैक्सन साब रोज़ रात उसे बुलाकर गाना गाने के लिए हुक्म करते। रंगी
तरह-तरह के गाने सुनाता। डिप्टी साहब को भाषा समझ न आती लेकिन उन्हें
रंगी का अन्दाज़ अच्छा लगता। कभी वे अपने सहयोगी से अर्थ पूछ लेते कभी
बिना अर्थ जाने झूमने लगते। एक रात रंगी गाना सुनाने के मूड में नहीं
था। डिप्टी साब का चपरासी आकर हुक्म सुना गया, ‘‘रंगी धोबी शाम सात
बजे साहब-कोठी के सामने हाजिर हो।’’
रंगी ने कई बहाने सोचे। उसने चपरासी से कहा, ‘‘जाकर कह दो रंगी धोबी
के पास गाने खत्म हो गये।’’
चपरासी ने कानों पर हाथ लगाकर तौबा की, ‘‘तू हमें बेफजूल मरवाएगा।
अरे कुछ भी सुना दीजियो। गाने कभी खतम नहीं होते।’’
रंगी की घरवाली मुन्नी ने कहा, ‘‘उनको कौन समझ आने हैं। पहले वाला
गाना फिर से सुना देना।’’
‘‘तू साथ चलना। जहाँ मैं भूल जाऊँ तू सँभालना।’’ रंगी ने कहा।
शाम को धोबी-धोबिन साहब-कोठी पहुँचे। बड़ी देर बरामदे में बैठे राह
देखते रहे। जैक्सन साब क्लब से न लौटे थे। रंगी ने दो एक बार भगेलू
चपरासी से घर जाने की बात की। भगेलू ने उसे डरा दिया, ‘‘बच्चू,
डिप्टी साब का किल्लाना सुना है। तेरी कुठरिया ही गिरवाय देंगे।’’
जब जैक्सन साहब वापस लौटे रात घिर आयी थी। रंगी और मुन्नी ने खड़े
होकर, बरामदे की ज़मीन छूकर उनका अभिवादन किया। साहब अन्दर चले गये।
काफी देर बाद वे कपड़े बदलकर, ड्रेसिंग गाउन में बाहर बरामदे में आये
और मूढ़े पर बैठ गये। उन्होंने गाने की फ़रमाइश की। उनके साथ मिस्टर
हैरिसन भी थे जो थोड़ी हिन्दी समझते।
रंगी ने गले पर हाथ रखकर गला ख़राब होने की मजबूरी बतायी। जैक्सन साहब
ने गर्दन हिलाई। हैरिसन इशारा समझकर बोले, ‘‘जैसा भी गाने सकता,
गा।’’
रंगी ने खरखरे गले से आवाज़ उठाई—
सहर के सोय रहे हलवाई
घर में सोय रही है लुगाई
कलाकन्द लायौ हूँ प्यारी
नैक कुंडी खोले री नारी।’’
साहब लोग गर्दन हिला रहे थे। कुछ पता नहीं चल रहा था कि उन्हें गाना
भा रहा है या नहीं। लेकिन आलम यह था कि रंगी के रुकते ही वे उसे और
गाने के लिए कहने लगते।
रंगी ने एक-दो आधे-अधूरे भजन गाये, आरती गायी और जाने को उद्यत हुआ।
साहब लोग उसे रोकने लगे। मुन्नी बोली, ‘‘चलो जाते-जाते एकाध बोल सुना
दो, उनकी भी बात रह जाएगी।’’
अब तक रंगी खीझ चुका था। उसने खड़े-खड़े गाया—
‘‘मोहे मार-मार ससुरा गवावत है,
मोहे मार-मार ससुरा गवावत है।’’
मुन्नी ने डरकर उसे बरजा। कहीं हैरिसन साहब की समझ में आ गया गाना तो
गज़ब हो जाएगा। साहब लोग शायद नशे में थे। वे खुश होकर गर्दन हिलाते
हुए रंगी को बढ़ावा दे रहे थे, ‘‘और गाओ, और गाओ।’’
रंगी ने फिर गाया—
‘‘मोहे मार-मार ससुरा गवावत है।’’
मुन्नी ने फिर टोका।
रंगी चिढ़ गया। वह बोला—
‘‘ऊ ससुरा तो समझत नाहीं,
ई ससुरी समुझावत है।’’
कविमोहन इस नौकरी से पूरी तरह सन्तुष्ट नहीं था। उसे लग रहा था मथुरा
में उसकी प्रतिभा का उचित मूल्यांकन नहीं हो सकेगा। उसका पढ़ाई का
रिकार्ड बढिय़ा था। उसकी तमन्ना थी कि उसे दिल्ली के किसी कॉलेज में
नौकरी मिल जाए, वह भी पक्की।
जहाँ की भी नौकरी का विज्ञापन निकलता, कवि वहाँ अपना आवेदन-पत्र ज़रूर
भेजता। इसके साथ ही उसकी कल्पना को पंख लग जाते। दिन और रात के
स्वप्नों में कभी वह दिल्ली घूम लेता तो कभी बम्बई। ये शहर उसने देखे
नहीं थे किन्तु अख़बारों, रेडियो और किताबों के ज़रिए इनकी तस्वीर उसकी
कल्पना में खिंच चुकी थी। मथुरा उसे छोटी लगने लगी थी। उसे लगता छोटे
शहर हमारे सपने भी छोटे कर देते हैं। किताबों की सीमाहीन दुनिया से
यथार्थ की सँकरी धरती पर लौटना उसे हताशा से भर देता।
अगर कभी इन्दु घर में हुई किसी नोंक-झोंक का हवाला देते हुए शिक़वा
करती, कवि एकदम भडक़ जाता, ‘‘जैसे ही मैं घर आऊँ तुम बर्र की तरह
काटने दौड़ती हो, इससे तो मैं हॉस्टल में सुखी था।’’
इन्दु सहमकर चुप हो जाती और घंटों न बोलती। बेबी चार साल की हो गयी
थी और मुन्नी डेढ़ साल की। दोनों को सँभालना अकेली इन्दु के बस का
नहीं था। जिस दिन विद्यावती चरखा-समिति नहीं जातीं, दोनों बच्चियाँ
उनके गले का हार बनी रहतीं। वे बिस्तर पर बैठतीं तो उनकी गोद में
बैठने की बेबी-मुन्नी में होड़ लग जाती। तब विद्यावती अपने एक-एक
घुटने पर उन्हें बैठा लेती और बारी-बारी से उनकी नन्ही हथेली पर
आटे-बाटे करती। दादी-पोतियाँ खूब खिलखिलातीं, घर में उजीता हो जाता।
कवि के समझाने पर भग्गो ने इधर फिर से पढ़ाई शुरू कर दी। पड़ोस की
सहेली मीनू के साथ वह वृषभान सर की कक्षाओं में पढऩे जाती। साल के
अन्त में वह मिडिल की परीक्षा देनेवाली थी। उसका दिमाग तेज़ था। थोड़े
ही दिन ट्यूशन पढक़र उसे पिछला पढ़ा-सीखा याद आता गया और वह पोथियाँ
रटने में जुट गयी।
लाला नत्थीमल परिवार में हो रहे बदलावों से पहले सशंकित होते, फिर
विस्मित। अन्त में वे कहते, ‘‘कबी के रहने से सब होश में आय गये हैं।
घर में दो मर्द हों तो औरतें कायदे से रहें।’’
वे कवि से कहते, ‘‘बेटा इन माँ-बेटी के सिर पर से नैक गाँधीबाबा का
भूत और उतार दे तो घर में सुखसम्पत आय। मेरे रोके से ये रुकैं
नायँ।’’
‘‘कोशिश करूँगा,’’ कवि ने अनमने भाव से कहा और पिता के सामने से हट
गया।
शनिवार की दुपहर चरखा-समिति से भाईजी का चपरासी आकर सन्देशा दे गया
कि इतवार नौ बजे ज़रूरी बैठक है, भाईजी ने सब चरखा-बहनों को बुलवाया
है। इधर कई दिनों से विद्यावती का चरखा कातना कम हो रहा था। कवि के
सामने चरखा लेकर बैठने में उन्हें झिझक लगती। बच्चों के उठ जाने के
बाद विद्यावती का दिन उनकी कारगुज़ारियों के साथ बँध जाता। उधर भग्गो
ने भी तकली चलाना कुछ कम कर दिया। उसका मन पढ़ाई में लगा हुआ था।
लेकिन भाईजी ने बुलाया है तो जाना तो ज़रूर पड़ेगा। माँ-बेटी ने आपस
में तय कर लिया। जाना है। अगले दिन सुबह-सुबह गुसलखाने में
खुटुर-पुटुर की आहट से कवि उठ बैठा।
तभी आँगन के नल का बैरी, हैंडपम्प बजने लगा, ‘‘नल बन्द करके नहीं
सोतीं,’’ कवि ने गुस्से से पत्नी से कहा।
इन्दु ने समझाया, ‘‘माताजी और बीबीजी नहा रही हैं।’’
दोनों ने खादी की धोती पहनी और ताँगे का इन्तज़ार करने लगीं।
इस बीच बाबा जाग गये।
इतनी सुबह पत्नी और बेटी को नहा-धोकर तैयार देखकर उनका मूड उखड़ गया,
‘‘कौन कमाई करने जा रही हैं माँ-बेटी?’’ उन्होंने ताना कसा।
विद्यावती ने तुनककर जवाब दिया, ‘‘कमाई और दुकान से अलग भी कछू होय
सकत है। हम जाय रही हैं चरखा-समिति। भाईजी ने सबको बुलवाया है।’’
‘‘कोई ज़रूरत नहीं। चुप्पे से घर में बैठो। सयानी लडक़ी को लेकर कहाँ
भचकती फिरोगी?’’
‘‘धीरे बोलो, छोरियाँ जग जाएँगी। घंटे-दो घंटे में अभाल आ जाएँगे। एक
बार जाकर देख लें। क्या पता बापू का कोई नया सन्देसा आया हो?’’
‘‘बलिहारी है तुम्हारी अकल की। सारी कांग्रेस को छोडक़र गाँधीबाबा
तुम्हीं को सन्देसा भेजेंगे।’’ कहते हुए लालाजी निबटने के लिए जाजरू
में घुस गये।
इन्दु ने सुबह का काम धीमी रफ्तार से किया। सास की निगाहों की
पहरेदारी आज मौजूद नहीं थी इसलिए आज काम तो था, तनाव नहीं था। बल्कि
चाय बनाते हुए इन्दु गुनगुना भी रही थी : ‘ए री मैं तो प्रेम दिवानी
मेरा दरद न जाने कोय।’
आठ बजे तक बेबी-मुन्नी भी उठ गयीं। बेबी ने फौरन कहा, ‘‘दादी पास
जाना,’’ और सारे घर का चक्कर लगाया। यहाँ तक कि उसने तख्त के नीचे भी
दादी को ढूँढ़ा। इन्दु उसे लाख समझाये कि दादी और बुआ बाहर गयी हुई
हैं, बेबी को विश्वास ही न हो। मुन्नी भी उसके पीछे-पीछे ‘आदी, आदी’
करती डोलती रही।
इन्दु परेशान हो गयी। उसने कविमोहन की तरफ़ इसरार से देखा। आज इतवार
था और कवि कुछ देर बच्चियों को पकड़ ही सकता था।
कवि ने कभी ठुनकता हुआ बच्चा नहीं सँभाला था!
इस वक्त वह लेटकर तॉलस्ताय का उपन्यास ‘अन्ना कैरिनिना’ पढऩा चाहता
था। वैसे भी जब से वह हॉस्टल से लौटा था उसे बच्चों के हर वक्त
हंगामे से चिढ़ हो रही थी।
‘‘मेरी चाय ऊपर दे जाना,’’ कहते हुए वह दूसरी मंजिल पर चला गया।
ससुर ने बहू की मुश्किल पहचानकर कहा, ‘‘लाओ बहू बच्चों को मुझे दे
दो, तुम नाश्ते में बेड़मी और आलू की तरकारी बनाओ।’’
यह उनके यहाँ हर इतवार का नाश्ता था। इन्दु ने रात को ही दाल भिगो दी
थी। उसने एक कटोरी में दालसेव डालकर बेबी-मुन्नी को दादाजी के तख्तत
पर पहुँचाया। फिर वह आँगन में रखे सिल-बट्टे पर पिट्ठी पीसने में लग
गयी।
तभी दो लड़कियाँ भागी-भागी आयीं और घर का दरवाज़ा जोर से खटखटाने
लगीं।
इन्दु धोती से हाथ पोंछती हुई उठी और दरवाज़ा खोला। लड़कियों की साँस
फूल रही थी। एक ने कहा, ‘‘यह लाला नत्थीमल की कोठी है न।’’
‘‘हाँ, कहो कौन काम है? माताजी और बीबीजी तो सबेरे ही चली गयीं
चरखा-समिति।’’ लड़कियों की खद्दर की पोशाक देखकर इन्दु ने कहा।
‘‘सो तो पता है। बात यह है कि माताजी बीच बाज़ार में बेहोश हो गयी
हैं। डॉक्टर बुलाया गया है पर आपमें से कोई साथ चले तो अच्छा होगा।’’
तभी नत्थीमल कमरे से बाहर आकर दहाड़े, ‘‘बहू, पूछो इन छोरियों से
यहाँ का करबे को आयी हैं।’’ वे लड़कियों की बात सुन चुके थे।
इन्दु लपककर दूसरी मंजिल से कवि को बुला लायी। माँ की बेहोशी की बात
सुनकर वह एकदम घबरा गया। पता चला आज होली दरवाज़े पर विदेशी वस्त्रों
की होली जलनी थी। सब जनी वहीं इकट्ठी हुई थीं। अचानक विद्यावती को
दौरा पड़ गया। दाँत भिंच गये और हाथ-पैर ऐंठ गये।
‘‘हम तो भागी-भागी आयी हैं। आप जल्दी से चलें।’’
‘‘कौन घर से पूछकर निकरी हैं जो हम जायँ,’’ लाला नत्थीमल बमके, ‘‘कबी
तू जा तेरी मइया है। और उस आफत की पुडिय़ा भग्गो को भी गरदनिया देकर
लेकर आ।’’
कविमोहन ने अपनी साइकिल दौड़ा दी।
वह पिता के दुर्वासा पक्ष से परिचित था। उनसे बहस में उलझना बेकार
था।
जब तक वह होली दरवाज़े पहुँचा, विद्यावती होश में आ चुकी थी। राधे
बहनजी की गोद में सिर रखे वह खुली आँखों से चारों तरफ़ अनबूझ ताक रही
थी। भगवती पास बैठी पंखा झल रही थी।
कवि को देखते ही भीड़ छँट गयी। भाईजी ने कवि के अभिवादन का उत्तर
देते हुए कहा, ‘‘लगता है माँजी पर धूप का असर हो गया। राधे बहनजी,
रामो मौसी और लोहेवाली ने कहा, ‘‘जनै सुबह कुछ खायौ भी था कि निन्ने
मुँह चली आयीं?’’
‘‘हमने तो चा भी नायँ पी कि देर न हो जाय’’ भग्गो बोली।
‘‘गोपालजी बैद को दिखा दिये हैं। बाने अमरतधारा दी और कहा, ‘आज
ठंडी-ठंडी चीज़ें देना इन्हें’।’’
कवि को देख विद्यावती का कलेजा भर आया। सब कहने लगे, ‘‘देख लो छोरा
महतारी की ख़बर पर भजा चला आया; विद्यावती के पुन्न हैं और का।’’
ताँगेवाले को समझाया गया, ‘‘भइया धीमे चलाना, मरीज को ले जाना है।’’
भगवती ने माँ को सँभाला। कवि साइकिल पर साथ-साथ चला।
घर का दरवाज़ा उढक़ा हुआ था। धक्का देने पर खुल गया। माँ को तख्त पर
लिटा दिया गया। इन्दु तो नहीं दिखी, बेबी-मुन्नी ‘दादी आ गयी, दादी आ
गयी’ करती उनके पास चक्कर लगाने लगीं।
भगवती चौके में पानी लेने गयी तो देखा इन्दु अँगीठी पर बेड़मी छान
रही है और दादाजी सामने पट्टे पर बैठे खा रहे हैं।
‘‘आय गयीं, जीजी ठीक हैं अब?’’ इन्दु ने पूछा।
भग्गो ने लोटे में पानी भरा और बिना जवाब दिये चल दी। उसका जी भन्ना
उठा।
उसने माँ के कान में बताया, ‘‘चौके में खवाई चल रही है। गरम-गरम
बेड़मी खाई जा रई है।’’
माँ-बेटी को कसकर भूख लगी थी लेकिन विद्यावती को बुरा लगा कि उसकी
तबीयत पूछे बिना लालाजी खायबे को बैठ गये।
कवि ने आँगन में खड़े होकर ज़ोर से कहा, ‘‘दादाजी थोड़ी देर बाद खा
लेते तो का हो जातौ। जीजी आय गयी हैं।’’
‘‘आय गयीं तो का करैं, ढोल बजवायँ?’’ पिता ने कहा। उनकी आवाज़ में गहन
उपेक्षा थी। पिता शायद खा चुके थे। थाली में हाथ धोकर धोती की खूँट
से पोंछते हुए बाहर आये। वे तृप्त और प्रसन्न लग रहे थे। सीधे कमरे
में जाकर देखा विद्यावती के तख्तू पर बाल-बच्चों की महफिल लगी है।
‘‘आ गयीं नौटंकी दिखाय के।’’ उन्होंने कहा।
विद्यावती कुछ नहीं बोली। भग्गो ने कहा, ‘‘दादाजी जीजी को दौरा पड़
गया, मैं तो इत्ती डर गयी कि पूछो मति।’’
‘‘अपनी मैया से पूछो कौन ज़रूरत रही जाने की। वो तो कबी चलौ गयौ मैं
तो कब्बी न जातौ। मर जाती तो वहीं फूँक-पजार आतौ।’’
‘‘तुम तो येई चाहो मैं मर जाऊँ,’’ विद्यावती ने कहा। ‘‘तब भी तुम
चौका में बैठ खायबे को खाते रहते।’’
अब तक कढ़ाही उतारकर इन्दु भी आ गयी थी। कवि ने उसे झिडक़ा, ‘‘जीजी
वहाँ मरासु पड़ी थी और तुम्हें पकवान बनाने की जल्दी थी।’’
इन्दु ने मुँह फुला लिया, ‘‘हमें बता दो हम कौन का कहा माने, कौन का
नहीं। दादाजी ने कही तो हमने कढ़ाही चढ़ा दी।’’
लालाजी ने फ़ैसला सुनाया, ‘‘आज गयी सो गयी, अब मैं कभी तुम दोनों को
गाँधीबाबा के नाम पर नंगनाच करते ना देखूँ नहीं वहीं खोदकर गाड़
दूँगा।’’
मुँह फुलाये-फुलाये ही इन्दु ने सबकी थाली लगायी। बच्चों को खिलाया।
जूठे बरतन नल के नीचे खिसकाकर वह अपनी कोठरी में जाकर पड़ रही।
सास की बड़बड़ चालू हो गयी।
‘‘ये महारानीजी खटपाटी लेकर पड़ गयीं। दोनों छोरियाँ मेरे मूड़ पर।
जूठे बरतन भग्गो के मत्थे। भरतार कमाने लगा तो नखरा देखो सातवें
आसमान पर। भग्गो तू भी भिनकने दे आज चौका, इसको चंडी चढ़ी है तो आपैई
उतरेगी।’’
कवि को माँ की बड़बड़ सुनाई पड़ी तो वह भडक़ गया, ‘‘जीजी उस बेचारी के
पीछे क्यों पड़ी हो। इनसान ही तो है। लेटने का जी कर गया होगा।’’
विद्यावती भूल गयी कि सुबह उन्हें दौरा पड़ा था। वह हाथ नचाकर बोली,
‘‘लुगाई के लिए तू मो पै किल्लावे गौ। मैंने क्या कही जो तेरे मिरचें
लग गयी।’’
भग्गा बोली, ‘‘भैयाजी आप ऊपर जाओ, आपका दिमाग ठिकाने नायँ।’’
कविमोहन को गुस्सा आया। माँ-बहन पर तो वह हाथ उठा नहीं सकता था, उसने
अपना कुर्ता आगे से चीर डाला, ‘‘का करूँ, कलेजा चीरकर दिखाऊँ मैं
तुम्हारा छोरा हूँ। मैंने लाख मनै करी, मेरे पाँव में बेड़ी बाँध दी।
कहो तो उसे जिन्दी जला दूँ, तुम्हें चैन आये।’’
विद्यावती लडक़े के गुस्से से सहम गयी। उसने कहा, ‘‘तू हमपे क्यों
गुस्से कर रह्यै है।’’
कवि ने हताश स्वर में कहा, ‘‘यह मेरा गुस्सा नहीं, मेरा वैराग्य
है।’’
वास्तव में कवि का मन विरक्त होता जा रहा था। कॉलेज में आठवीं से
दसवीं के छात्र एकदम मूढ़ थे। उन्हें पढ़ाने के लिए एम.ए. डिग्री की
नहीं, सिर्फ एक शब्दकोश की ज़रूरत थी। घर रणक्षेत्र बना हुआ था जहाँ
हर व्यक्ति अपने को योद्धा और दूसरों को दुश्मन समझता था। इसलिए जब
उसे दिल्ली के कॉमर्स कॉलेज से लेक्चररशिप की इंटरव्यू का बुलावा
आया, उसने खैर मनाई। टिन के छोटे बक्से में उसने अपने प्रमाण-पत्र,
अंकपत्र और दो जोड़ी कपड़े सँभाले और दिल्ली के लिए रवाना हो गया।
परिवार का ताना-बाना उसे जंजाल दिखाई दे रहा था। हॉस्टल से आये अभी
कुछ ही दिन हुए थे, उसे लग रहा था कि इस माहौल में उसका दम घुट
जाएगा। माता-पिता की जकड़बन्दी से घबराकर जब भी वह पत्नी की ओर
उन्मुख होता वह पाता इन्दु तो स्वयं शिकायतों का पुलिन्दा बनी बैठी
है। कवि का मन होता वह धुएँ की तरह इन सबसे ऊपर उठ जाए और तभी वापस
आये जब वे उसके लिए तरस जाएँ।
18
लीला की तबियत इन दिनों भन्नायी हुई थी।
पति के घर आने न आने से तो उसने बहुत पहले समझौता कर लिया था। वह
चक्की का हिसाब जियालाल से ले लेती और तीनों बच्चों का ध्यान रखती।
बिल्लू-गिल्लू को उसने आदर्श पाठशाला में भरती करवा दिया था। दिन के
एक घंटे वह उन दोनों को अपनी देख-रेख में पढऩे बिठाती। छोटा दीपक भी
अब साल भर का होने जा रहा था।
पिछले दिनों घर में बक्सों की साज-सँभाल में लीला को लगा जैसे बक्सों
में कपड़े कुछ कम हो गये हैं। उसने बड़े बक्से का सामान निकाला। उसका
शक़ सही था। उसके भारी लहँगे, ओढऩी, जम्पर उसमें थे ही नहीं। बीचवाले
बक्से में से भी उसकी टिशू और रेशम जरी की साडिय़ाँ ग़ायब थीं।
लीला ने बहुत याद करने की कोशिश की। ऐसा कोई मौका ही नहीं आया जब
उसने अपने कपड़े किसी को दिये हों।
मन्नालाल आठ दिन बाद वृन्दावन से लौटे। उनकी आँखों में काजल की कलौंस
नज़र आ रही थी और बाल लम्बे व बेतरतीब लग रहे थे।
क़ायदे से लीला को पहले उनकी राजी-खुशी लेनी चाहिए थी।
इतना सन्तुलन उसके स्वभाव में नहीं था।
उसने सीधे कहा, ‘‘सुनो जी हमारे लहँगे, जम्पर, ओढऩी बक्से में से
ग़ायब हो रहे हैं। तुमने तो नहीं देखे।’’
मन्नालाल दीपक को गोदी में कुदा रहे थे। खेलते-खेलते उन्होंने जवाब
दिया, ‘‘नहीं तो।’’
‘‘फिर कहाँ गये?’’ लीला की आवाज़ में खीझ और शक था।
मन्नालाल उखड़ गये, ‘‘इसका क्या मतलब है। मैं आकर खड़ा हुआ नहीं कि
तू खिबर गयी।’’
‘‘अरे हमारे कपड़े धरती निगल गयी कि बक्सा लील गयौ, हम का बताएँ। ऐसे
भारी लहँगे, ओढऩे जाने कहाँ चले गये।’’
‘‘अच्छा मान लो हम ले गये तो क्या कर लेगी तू। हमने दिये थे, पीहर से
तो लायी नायँ थी।’’
‘‘इससे क्या अब तो वो मेरे थे। सुहागिनों के कपड़े खोना बड़ा अशुभ
होता है।’’
‘‘देख कन्हाई रास मंडली के तम्बुअन में बड़ी जोर की आग लग गयी थी।
बेचारन का सब सामान फुँक गयौ। बड़े गोसाईं तो छाती पीट के रोबै लगे।
पाँच-पाँच जगह का न्योता था। मैंने कही तम्बू-कनात तुम सँभारो, बाकी
कपड़े-गहने हम इकट्ठा करें।’’
लीला चीखने लगी, ‘‘मेरे गहने-कपड़े सब गोसाईं को दे आये तुम?’’
‘‘किल्लाओ मति। हमने बनवाये, हमने लुटा दिये। हम फिर बनवा देंगे।’’
‘‘व्यापार पर कोई दिना ध्यान देते नहीं हो, कहाँ से बनवाओगे?’’ लीला
का मुँह फूल गया।
‘‘इत्ते दिना बाद आया हूँ, कोई खातिर-बातिर नहीं बस तू विलाप करने
बैठ गयी।’’ मन्नालाल बोले।
लीला ने मुँह फुलाये-फुलाये चाय बनायी। खाना बनाने तक भी उसका मुँह
सीधा नहीं हुआ था।
गिल्लू उसके पास आकर बोला, ‘‘अम्मा हमारी गुल्लक में 110 रुपय्या है,
वो तुम लेके कपड़े ले आओ। मैं अभाल गुल्लक तोड़ रहा हूँ।’’
लीला ने उसे कलेजे से सटा लिया, ‘‘मैं तेरे से नहीं रूसी हूँ गोलू।’’
शाम तक, घर का तनाव झेलना मन्नालाल के लिए दूभर हो गया। चक्की पर
जाकर उन्होंने जियालाल से अब तक हुए पिसान, पोंछन का हिसाब समझा और
घर आ गये। उन्होंने पिछले कोठे में रखी काठ की आलमारी में से लोहे की
एक सन्दूकची निकाली। लीला के पास ले जाकर बोले, ‘‘भागमान ये सँभारो
अपने कुनबे की जमा पूँजी। कायदे से बरतोगी तो सौ साल चलेगी।’’
लीला का गुस्सा अभी उतरा नहीं था। उसने हाथ से बरजा, ‘‘मेरे मूड़ पर
क्यों धर रहे हो, जाके दे दो गोसाईंजी को।’’
मन्नालाल की बरदाश्त जवाब दे गयी। उन्होंने दीवार पर हाथ मारकर कहा,
‘‘बेवकूफ कहीं की, गोसाईं का मेरौ यार लगे है। एक आदमी लुट-पिट गयौ,
मैंने बाकी मदद कर दी तो तुम्हारौ म्हौंड़ो सूज गयौ। गोसाईं नौटंकी
करवानेवाला आदमी, वह भला इन अशरफियों का क्या करेगा।’’
अशरफी शब्द सुनकर लीला का सख्तक चेहरा नरम पड़ा। उसने कहा, ‘‘देखें
कहाँ हैं अशरफी?’’
मन्नालाल ने सन्दूकची का पल्ला उठाया तो जैसे कमरे में झाड़-फानूस जल
उठे। सन्दूकची अशरफी, हीरे, मोती और सोने की ईंटों से ठसाठस भरी थी।
लीला मगन मन अशरफियाँ हाथ में लेकर देख रही थी।
मन्नालाल बोले, ‘‘जाऊँ नेक राधेश्याम कथावाचक की कथा सुन आऊँ। तुम
साँकल लगा लेना। मैं खडक़ा करके खुलवा लूँगा।’’
लीला को उनकी बात अजीब नहीं लगी। इस तरह सात-आठ बजे शाम वे अक्सर कथा
सुनने चल देते थे।
ख़ज़ाने से जी-भर खेलने-गिनने के बाद लीला ने सन्दूकची वापस पति की
आलमारी में बन्द कर दी। अब कपड़ों के चले जाने की चिलक कुछ कम हो गयी
थी।
‘‘चलो, वो सब पुराने लत्ते थे। मैं अब कौन लहँगा पहनती हूँ। रही
रेशम-जरी की साडिय़ाँ तो सब पुरानी चाल की थीं। एक दिन इनके साथ जाकर
नये कपड़े लाऊँगी।’’ लीला ने मन-ही-मन कहा।
यह नौबत ही कहाँ आयी। मन्नालाल, उस दिन के निकले लौटे ही नहीं। रात
भर लीला पति का इन्तज़ार करती रह गयी, पति का कहीं अता-पता ही नहीं
मिला।
सवेरे उसने सबको दौड़ाया, बच्चे, मुनीमजी। जिससे पूछा उसने यही कहा,
‘‘वे यहाँ नहीं दिखे शाम को।’’
छोटे दीपक को गोद में दबाकर लीला धूप में हर जगह घूम आयी। बुज़ुर्गों
ने कहा, ‘‘लली घबरा मत, जो रिसाने हैं तो गुस्सा उतरने पर लौट आएँगे।
तू घर-दुआर लेकर बैठ।’’
बिल्लू ने घर के मन्दिर में किशन कन्हाई की मूरत के पीछे हाथ डालकर
देखा। वह पहली बार रो पड़ा, ‘‘अम्मा दाऊ अब नहीं आने के। उनकी गुटका
रामायण, भागवत दोनों नहीं हैं।’’
लीला भी चीत्कार कर उठी, ‘‘हे भगवान मेरे बच्चन को यह कौन-सी सजा
दीनी। मैं तो लड़ी भी नहीं थी। मैंने तो बस येई पूछी थी घर की
चीज-बस्त कहाँ गयी।’’
उसे याद आया कई बार मन्नालाल कहते थे, ‘‘ज्यादा गुस्सा तो मोय दिला
मति, सुन लई न। जो मोय गुस्सा आ गयौ तो उठा अपनी गुटका रामायण,
भागवत, कहीं जाकै बाबाजी हो जाऊँगौ।’’
पर कल शाम तो ऐसा कुछ हुआ ही नहीं था।
क्या बुरा किया जो अपने कपड़ों के बारे में पूछ लिया।
दिन कल-परसों होते गये। मन्नालाल की कहीं से न चिट्ठी-पत्री आयी न
ख़बर।
हारकर लीला ने बच्चों के हाथ माँ को सन्देशा भेजा।
सब घबरा गये। शहर की हर दिशा में लोग दौड़ाये गये। मन्नालाल कहीं हों
तो मिलें।
छिद्दू को वृन्दावन भेजा गया। वह पूरी परकम्मा कर आया, मन्नालाल कहीं
नहीं मिले।
कविमोहन अभी दिल्ली से लौटा न था।
19
कवि ने अब तक किताबों में जिस दिल्ली के विषय में पढ़ा था वह पुरानी
दिल्ली थी। पुरानी से भी ज्याबदा प्राचीन, मुगलकालीन। नये समय में
दिल्ली में इतने मौलिक स्थापत्य, भवन और मार्ग बन गये थे कि अपनी दो
आँखों में उसे सँभाल पाना उसे मुश्किल लग रहा था। उसे इतना पता था कि
उसके नरोत्तम फूफाजी फतहपुरी में अख़बारों का स्टॉल लगाते थे। स्टेशन
पर उतर वह फतहपुरी चल दिया। काफ़ी माथापच्ची के बाद पता चला कि
नरोत्तम फूफाजी ने तो कब का यह धन्धा बन्द कर दिया, अब तो उनका लडक़ा
लड्डू चौराहे पर मजमा जुटाकर बालजीवन घुट्टी की दवा बेचता है। किसी
तरह कविमोहन बुआ के घर तक पहुँचा। बुआ की आँखें मोतियाबिन्द से
प्रभावित थीं। वे कवि को पहचान नहीं पायीं। कवि ने आखिरी उपाय
आज़माया। उसने बुआ के पास जाकर कान में कहा, ‘‘काना बाती कुर्र।’’
बुआ कवि के बचपन में लौट गयीं जब इन्हीं तरीकों से नन्हे कवि को
हँसाया करती थीं। बुआ पहले हँसीं फिर रोयीं और अन्त में कवि को गले
लगा लिया।
फूफाजी ने नीचे से लाकर खस्ता कचौड़ी और आलू की रसेदार तरकारी का
नाश्ता करवाया और घर के एक-एक सदस्य की कुशल मंगल पूछी।
कवि ने बताया उसे मंगलवार को आर्टस एंड कॉमर्स कॉलेज में इंटरव्यू
देना है।
‘‘तू इत्तो बड़ौ हौं गयौ कि दूसरों को पढ़ावैगौ,’’ बुआ खुश होकर
बोलीं।
दिन भर में कवि ने पाया कि बुआ एक भी मिनट आराम नहीं करतीं। चौके से
फ़ारिग होते ही वे खरबूजे के बीज छीलने बैठ जातीं। एक सीले अँगोछे में
मोया लगे बीजों को बाँस की छोटी नहन्नी से दबाकर वे गिरी अलग करतीं
और एक ही थाली में गिरी और छिलका डालती जातीं। शाम छ: बजे तक यह काम
करने के बाद वे उठतीं। फूफाजी थाली फटककर छिलके और गिरी अलग कर लेते
और दोनों को अलग पोटली में बाँध देते। कवि का अन्दाज़ा सही था कि यह
काम दिहाड़ी का था। फूफाजी देर रात तक प्रूफ़ देखने का काम करते। कवि
को लगा इस परिवार में कुल तीन सदस्य हैं, तीनों ने मिलकर घर की
अर्थव्यवस्था को साधा हुआ है। सब एक-दूसरे के प्रति कितने संवेदनशील
हैं।
लड्डू देर शाम लौटकर आया। कन्धे पर काले रंग का बड़ा-सा झोला था।
उसने झोले में से कत्थई रंग की एक थैली निकाली। सारी रेजगारी गिनने
पर
35/- रुपये निकली।
कवि ने कहा, ‘‘कमाई तो अच्छी हुई है पर मेहनत बहुत ज्यासदा है।’’
लड्डू हँसा, ‘‘भैया जोर-जोर से बोलने से गला बैठ गया है।’’
बुआ ने अदरक-तुलसी की चाय बनायी। कवि ने कहा, ‘‘अच्छा-ख़ासा नाम है
तुम्हारा विजेन्द्र। यह लड्डू नाम कैसे पड़ गया। क्यों बुआ क्या इसे
लड्डू बहुत पसन्द है?’’
बुआ बोलीं, ‘‘अरे नहीं, जब ये पैदा भया घर में यही बात हुई लड्डू
बँटने चाहिए छोरा भयौ है। पर इसकी रही तबियत खराब।’’
‘‘पीलिया हो गया था इसे।’’ फूफाजी ने याद किया।
बस इसी परेशानी में आजकल-आजकल होती रही और लड्डू बँटे ही नहीं। घर
में सबने कहा, ‘‘यह लड्डू गोपाल सुस्थ हो तो लड्डू बँटें। बस तभी से
इसे लड्डू कहने लगे।’’
‘‘पढ़ाई बीच में छोड़ दी क्या?’’ कवि ने लड्डू से पूछा।
लड्डू ने सिर झुका लिया।
फूफाजी बोले, ‘‘पढ़ाई से इसका जी उचाट हो गया। एक बार सातवीं में फेल
हो गया था। तभी से इसने ठान ली अब स्कूल नहीं जाना। पूछो इससे कित्ता
समझाया।’’
बुआ उसे बचाने लगीं, ‘‘ठीक है वोही किस्सा लेकर न बैठ जाया करो।’’
‘‘ऐसे ही भग्गो की पढ़ाई छूट गयी थी। मैंने फिर से शुरू करवाई है। तू
भी लड्डू मिडिल का इम्तहान प्राइवेट दे ले। मैं तैयारी करवा दूँगा।’’
कवि ने कहा।
रात में बारजे पर खड़े होकर देखने पर फतहपुरी की सडक़ चौड़ी लग रही थी
जबकि दिन में सँकरी। दिन भर यहाँ से इतने रिक्शे, ताँगे और ठेले,
साइकिल गुज़रते। एकदम पास में खारी बावली बाज़ार था, मेवे मसाले का
बड़ा व्यापार अड्डा। इसीलिए फतहपुरी के इस मकान में हर समय मसालों की
गन्ध आती रहती थी, जैसे मिर्चों की धाँस हवा में समायी हो। लड्डू ने
दिखाया, ‘‘यह देखिए सीधी सडक़ यहाँ से लाल किला जाती है। लाल किले से
आपको दरियागंज की बस मिल जाएगी।’’
दस बजे तक सब नींद में लुढक़ गये। कवि को देर तक नींद नहीं आयी। मन
उद्विग्न था। यह महज़ एक नौकरी का इंटरव्यू नहीं था जिसका सामना उसे
करना था। यह एक नयी जीवन-पद्धति का भी घोषणा-पत्र था। उसे लग रहा था,
संयुक्त परिवार में यदि सामंजस्य न हो तो वह पागलख़ाना साबित होता है।
एकल परिवार की कल्पना से उसे रोमांच हो आया। वह ऐसा घर बनाएगा जहाँ
पिता की दाँताकिलकिल का दख़ल न होगा। माँ के लिए उसे लगाव महसूस हो
रहा था, उन्हें पास रखकर वह उनका इलाज करवाए, उन्हें आराम दे पर
इसमें अभी बहुत वक्त था। पहले नौकरी तो मिले।
कवि को यह सोचकर ग्लानि हो रही थी कि बुआ ने कितने चाव से उसके सारे
घरबार की बात की जबकि उसने अपने घर में बुआ का जिक्र आते ही
कलह-कोहराम देख रखा था। दादाजी ख़ुद अपनी बहन को पसन्द नहीं करते थे,
जिसकी वजह आज तक उसे पता नहीं चली। अब उसे ऐसा लग रहा था कि उनकी
शादी के बाद यह नापसन्दगी और बढ़ गयी थी। दरअसल फूफाजी अपने घर के
विद्रोही लडक़े थे जिन्होंने हिंडौन में पत्थर के पुश्तैनी व्यापार से
इनकार कर अपने लिए नया रास्ता चुना। वे बनना चाहते थे पत्रकार लेकिन
समुचित डिग्री और सम्पर्क न होने की वजह से अख़बारों के हॉकर बनकर रह
गये। सुबह चार बजे रोज़ उठकर उस क़ारोबार को भी सँभाल न पाये और अब
इधर-उधर के छुट्टा कामों से गुज़ारा चला रहे थे।
यही सब याद करते, न जाने कब कवि की आँख लग गयी।
20
सवेरे नौ बजे जब बुआ के हाथों, कविमोहन, दही-बूरा खाकर इंटरव्यू के
लिए निकला उसका मन उत्साह और ऊर्जा से भरा हुआ था। दरियागंज में
आर्टस एंड कॉमर्स कॉलेज ढूँढऩे में ज़रा भी दिक्कत नहीं हुई।
इंटरव्यू शुरू होने में अभी दस मिनट शेष थे।
हॉल में ग्यारह उम्मीदवार उपस्थित थे। इनमें कवि के अलावा और दो लडक़े
सेंट जॉन्स आगरा के थे। इनमें से नदीम ख़ान से उसका परिचय मात्र था
जबकि कुबेरनाथ कुलश्रेष्ठ की गिनती तेजस्वी छात्रों में रही थी।
लेकिन चपरासी ने सबसे पहले पुकारा, ‘‘अपूर्व मेहरोत्रा।’’
बेहद स्मार्ट और खूबसूरत यह अभ्यर्थी दिल्ली विश्वविद्यालय का ही था
और बाकी लडक़ों से पता चला कि इसकी नियुक्ति की काफ़ी सम्भावना थी।
दिल्ली में स्थित कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय के पढ़े हुए
अभ्यर्थियों को ज्यामदा तरजीह देते थे। ऐसे में आगरा विश्वविद्यालय
का नम्बर डाँवाडोल ही लग रहा था।
अपूर्व मेहरोत्रा का साक्षात्कार आधा घंटे चला। जब वह बाहर आया, काफ़ी
प्रसन्न लग रहा था। बाकी अभ्यर्थी उसे घेरकर खड़े हो गये, ‘‘क्या
पूछा उन्होंने?’’, ‘‘सेलेक्शन बोर्ड में कितने सदस्य हैं?’’, ‘‘कोई
खूसट और ख़ब्ती तो नहीं है?’’ जैसे सवाल लडक़े दाग रहे थे और अपूर्व
मेहरोत्रा बड़ी खुशमिज़ाजी से जवाब दे रहा था।
अँग्रेज़ी वर्णानुक्रम में कवि का नम्बर जब तक आया, दोपहर के एक बज
चुके थे।
क्लर्क ने आकर सूचना दी, ‘‘साहब लोग लंच करनेवाले हैं, दो बजे से
इंटरव्यू फिर चलेगा। जाइए, आप सब भी कैंटीन में चाय पी लीजिए।’’
चाय के बहाने चहलक़दमी हो गयी। कॉलेज की बड़ी-सी इमारत, चौड़े गलियारे
और लम्बे व्याख्यान-कक्ष देखकर रोमांच हो आया कि अगर हमारा चयन हो
गया तो इन्हीं गलियारों से होकर हम व्याख्यान-कक्ष में पहुँचा
करेंगे। कवि मन-ही-मन पिछले दिनों का पढ़ा-लिखा घोख रहा था। प्रकट वह
नदीम और कुबेर के साथ बैठा हुआ था। नदीम कुबेर से कह रहा था, ‘‘मेरे
अब्बा तो दयालबाग में जमे हुए हैं, इसलिए मैं आगरे में पढ़ा, तुम
दिल्लीवाले होकर आगरे क्या करने गये थे? यहाँ कहीं दाखिला नहीं मिला
क्या?’’
कुबेर ने आँख दबाकर कहा, ‘‘मत पूछो दोस्त। इस बात का एक रोमांटिक
इतिहास है।’’
कवि को इस बात से झेंप आ रही थी कि उसके हमउम्र ये सहपाठी अभी
अविवाहित थे जबकि वह दो बच्चों का बाप बन बैठा था। परिवार की कचर-पचर
में पडक़र वह वक्त से पहले बड़ा हो गया और वक्त से पहले ही बूढ़ा हो
जाएगा।
‘‘आगरे के पानी का असर है या ताज के साये का, वहाँ जो भी आता है
मजनूँ बनकर आता है।’’
‘‘मेरा मामला ताज के साये का नहीं, मुमताज़ की मुहब्बत का था। उसी के
पीछे-पीछे पहुँच गया।’’
एक गहरी नि:श्वास लेकर कविमोहन ने घड़ी देखी। दो बजने ही वाले थे।
‘एक्सक्यूज़ मी’ कहकर वह उठ खड़ा हुआ। उसे पता था इन दोनों का बुलावा
उसके बाद आनेवाला था।
सब कुछ प्रत्याशित कहाँ हो पाता है। हम लाख योजना बनाएँ एक
एक्स-फैक्टर होता है जो हमारे गणित को ध्वस्त करता चलता है।
जैसे ही कविमोहन ने इंटरव्यू-कक्ष में प्रवेश किया, पैनल के एक सदस्य
ने तड़ से उस पर सवाल फेंका, ‘‘मिस्टर कविमोहन वॉट डू यू थिंक इज़ मोर
क्रूशल टु इंडिया एज़ ए नेशन, वल्र्ड वॉर टू ऑर फ्रीडम स्ट्रगल?
(कविमोहन तुम्हारे विचार से भारतवर्ष के लिए कौन-सा मसला ज्या,दा अहम
है, द्वितीय विश्वयुद्ध अथवा स्वाधीनता का संघर्ष।)
ऐसे सवालों का सामना रणनीति से नहीं नीति से करना होता है। उसी के
अधीन कवि के मुँह से निकला, ‘‘सर, फ्रीडम स्ट्रगल।’’ (सर, स्वाधीनता
संघर्ष)।
‘‘क्यों?’’
‘‘क्योंकि द्वितीय विश्वयुद्ध एक नकारात्मक आन्दोलन है जिससे हमारी
गुलामी की जड़ें और मज़बूत होंगी जबकि आज़ादी एक सकारात्मक संघर्ष
है।’’
‘‘अगर जनता में संघर्ष चेतना न हो तो आज़ादी का संघर्ष क्या कर
लेगा।’’
‘‘अस्तित्व और संघर्ष-चेतना समानान्तर विकास पाते आये हैं।’’
एक सदस्य ने वार्तालाप अँग्रेज़ी साहित्य की तरफ़ मोडऩे का प्रयत्न
किया, ‘‘ई. एम. फॉस्र्टर के इस बयान से आप कहाँ तक सहमत हैं कि
उपन्यास में पात्र टाइप होते हैं अथवा विशिष्ट।’’
कविमोहन को ई. एम. फॉस्र्टर की पुस्तक ‘एसपेक्ट्स ऑफ़ द नॉवल’ पूरी
कंठस्थ थी। उसने चाल्र्स डिकेन्स का हवाला देकर इस टिप्पणी की
व्याख्या कर दी।
कवि के उच्चारण, ज्ञान और शब्द भंडार से सभी सदस्य प्रभावित हुए।
एक बुज़ुर्ग सदस्य ने पूछा, ‘‘आप साहित्य के सवालों से ओत-प्रोत हैं।
किन्तु आपको यहाँ बी.ए., बी.कॉम. के विद्यार्थियों को अँग्रेज़ी का
सामान्य पाठ्यक्रम पढ़ाना होगा। आपके अन्दर बहुत जल्द हताशा पैदा हो
जाएगी, तब आप क्या करेंगे।’’
‘‘मैंने सोच-समझकर यहाँ के लिए आवेदन किया है। अँग्रेज़ी भाषा का
ज्ञान प्रसारित करना भी ज़रूरी काम है।’’
एक सदस्य ने डब्ल्यू. बी. येट्स पर प्रश्न पूछे।
कवि के जवाबों से सभी सदस्य प्रभावित हुए।
बाहर आने पर कवि को बताया गया कि उसका इंटरव्यू पूरे चालीस मिनट चला।
नदीम ख़ान ने कहा, ‘‘हमने सोचा तुम अन्दर जाकर सो गये हो।’’
सभी अभ्यर्थियों के इंटरव्यू होने के बाद भी परिणाम घोषित होने में
देर थी।
पाँच बजनेवाले थे। उकताकर लडक़ों ने ऑफिस में जाकर पूछा, ‘‘हम रुकें
या जाएँ?’’
क्लर्क ने बताया, ‘‘कल फिर आप सबको ग्यारह बजे आना होगा?’’
‘‘क्यों?’’
‘‘इस कॉलेज की यही परम्परा है। यहाँ दो बार इंटरव्यू देना होता है।
एक्सपर्टस ने आपको जाँच लिया। अब मैनेजमेंट के लोगों से मिलिएगा।’’
सबका मूड उखड़ गया। इसका मतलब था कॉलेज में मैनेजमेंट का हस्तक्षेप
बहुत ज्यारदा है। दो-एक अभ्यर्थी तो एकदम बिदककर बोले, ‘‘रखना है तो
घर पर ख़बर कर दें। हम तो दो-दो बार इंटरव्यू देने से रहे।’’
कवि के पास नखरा दिखाने की गुंजाइश नहीं थी। हाँ, उसे यह ज़रूर लगा कि
उसे बुआ की मुश्किल एक दिन के लिए और बढ़ानी पड़ेगी।
दो-दो बार इंटरव्यू का सरंजाम सुनकर फूफाजी को ज़रा भी ताज्जुब नहीं
हुआ। उन्होंने कहा, ‘‘भई यह भी लालाओं का कॉलेज है। यहाँ तो चपरासी
भी रक्खा जाता है तो उसे लालाजी के सामने पेश होना पड़ता है। शिक्षक
रखने से पहले तो वे दो बार ठोक-बजाकर ज़रूर देखेंगे।’’
कवि ने चिन्तित होकर कहा, ‘‘अब इस दूसरी इंटरव्यू की क्या तैयारी
करनी होगी?’’
‘‘कुछ नहीं, तुम चुप ही रहना। यह जो तुम्हारी जाति है न वही फ़ैसला
करवाएगी। आर्टस एंड कॉमर्स कॉलेज में वैश्य भाइयों का बोलबाला है।’’
कवि को बड़ा अजीब लगा। मथुरा के चम्पा अग्रवाल कॉलेज में भी उसे यही
पता चला था कि उसे नियुक्ति महज़ इसलिए मिली क्योंकि वह अग्रवाल जाति
का था। अर्थात वह नियुक्ति उसके अब तक के पढ़े-गुने पर ज़ोरदार तमाचा
थी। दिल्ली जैसे बड़े नगर में भी यही तर्क कारगर होगा, इसकी उसने
कल्पना भी नहीं की थी।
कविमोहन विस्तृत आकाश की तलाश में दिल्ली आया था। उसने चाहा था अपनी
योग्यता के बल पर वह एक झटके में न सिर्फ नौकरी वरन् जीवन-शैली बदल
डाले। उसे याद आया चम्पा अग्रवाल कॉलेज के इंटरव्यू के वक्त प्रबन्धक
भरतियाजी ने कहा था, ‘‘अपने लाला नत्थीमल का छोरा है क्या नाम
कविमोहन। भई इससे तो पढ़वाना ही पड़ेगा।’’
चम्पा अग्रवाल कॉलेज के अनेक आन्तरिक पचड़ों के बीच, पुराने
अध्यापकों के विवाद और संवाद में कभी उस जैसे रंगरूट की बात शान्ति
से सुन ली जाती तो सिर्फ इसलिए कि वह प्रबन्धकजी की नवीनतम पसन्द था।
किन्तु इस तथ्य पर इतराने से ज्यालदा वह घबराने लगा था। उसे लगता
ज़रूर शहर का पिछड़ापन इस मानसिकता के लिए जिम्मेदार है। कवि के सपनों
का भारत जातिवर्ग रहित समतामूलक समाज देखने का आकांक्षी था।
21
एक-से-एक शानदार अभ्यर्थियों के बरक्स जब कविमोहन का चयन आर्टस एंड
कॉमर्स कॉलेज में प्राध्यापक पद के लिए हो गया, कुछ देर तो ख़ुद कवि
को भी विश्वास नहीं हुआ। कुल तीन पंक्तियों का नियुक्ति-पत्र था,
‘‘आप कॉलेज में इंग्लिश लेक्चरर की नियुक्ति के योग्य पाये गये हैं।
आपका वर्तमान वेतनमान 120-20-240 तथा अनुमन्य भत्ता होगा। आप सोलह
जुलाई की पूर्वाह्न आकर कार्यभार ग्रहण करें।’’
कवि ने इन्दु को पुकारा, ‘‘इनी सुनो ज़रा।’’
इन्दु रसोई में थी जहाँ आवाज़ नहीं पहुँची। अलबत्ता बेबी ने आकर कहा,
‘‘पापा ता बात है?’’
उमंग से कवि ने कहा, ‘‘हमारी बिबिया दिल्ली के स्कूल में पढ़ेगी,
क्यों बिबिया।’’
बेबी ने मुँह बनाया, ‘‘नईं, दिल्ली गन्दी, बेबी यहाँ पढ़ेगी, यहीं।’’
तभी उसने माँ को दूध का गिलास हाथ में लिये आते देखा और वह बाहर की
तरफ़ भागी।
कवि ने इन्दु से नयी नौकरी के बारे में बताया। उसकी निस्तेज आँखें
चमकने लगीं, ‘‘हमें भी दिल्ली ले चलोगे न?’’
कवि ने कहा, ‘‘तुम्हारे बिना तो मैं एक दिन भी नहीं रह सकता।’’
तभी जीजी कमरे में आयीं, ‘‘बहू तुझे ज़रा फिकर नहीं है। वो खाने के
लिए चौके में कब से आये बैठे हैं और तू यहाँ बातें बना रही है।’’
‘‘आयी’’ कहकर इन्दु बेमन से उठी।
कवि चारपाई पर अधलेटा सोचता रहा, माता-पिता को यह ख़बर कैसे दी जाए।
ख़बर का धमाका बेबी ने ही कर डाला जब शाम चार बजे मलाई बरफ़ बेचनेवाले
की आवाज़ पर वह दादी के कन्धे पर झूल गयी, ‘‘दादी बलप थायेंगे, दादी
बलप।’’
दादी धोती की खूँट से खोलकर अधन्ना निकालने ही जा रही थी कि लालाजी
ने कहा, ‘‘छोरी की नाक बह रही है, बरफ़ खिलाकर इसे बीमार करनौ है
का।’’
दादी वहीं रुक गयी। उन्होंने बेबी को फुसलाया, ‘‘बरफ़ गन्दी, बेबी
दालसेव खाएगी।’’
बेबी ज़मीन पर बैठकर पैर रगडऩे लगी, ‘‘बरफ़ अच्छी, दादी गन्दी।
दादी ने झूठे गुस्से में उसे थप्पड़ दिखाया, ‘‘जिद्द करेगी तो बायें
हाथ का खेंच के दूँगी।’’
बेबी ऊँचे सुर में रोने लगी, ‘‘दादी गन्दी। जाओ तुम्हें हम दिल्ली
नईं ले जाएँगे।’’ रोती-रोती वह माँ के पास चली गयी।
विद्यावती के कान खड़े हो गये। दोपहर में बेटे-बहू के बीच खुसपुस हुई
बात का ध्यान आया। उसने पति से कहा, ‘‘सुन रहे हो, बेबी का कह रही
है। जनै दिल्ली जाय रहे हैं कबी लोग।’’
लालाजी भी धक् से रह गये। हालाँकि उन्हें इतनी ख़बर थी कि कवि ने कई
जगह अपनी अर्जी भेज रखी है, इकलौते बेटे के पिता की तरह उन्हें
विश्वास था कि खूँटे से बँधे-बँधे बछड़ा थोड़ी उछल-कूद भले कर ले पर
खूँटा तुड़ाकर भागने की नौबत नहीं आने की। वे अपना विशाल तिमंजिला
मकान देखते, तिज़ोरी में रखे चौड़े-चौड़े नोटों की गड्डियों का ध्यान
करते, गृहस्थी में रची-बसी अपनी बहू के हाथ का बना भोजन करते, उन्हें
लगता सुखी जीवन की यही तस्वीर है। नौकरी को वे हीनतर काम समझते। उनका
ख़याल था दो-चार साल में ही कवि नौकरी से इतना अघा जाएगा कि सूधे
रस्ते दुकान सँभालनी शुरू कर देगा।
विद्यावती का उतरा हुआ मुँह देखकर उन्हें अपने अन्दर कुछ पिघलता-सा
लगा। उन दोनों के जीवन में कवि और उसका गृहस्थ चौमुख दीये की तरह
आलोक भर रहा था, उन्हें इस वक्त एक साथ इसका अहसास हुआ। इसमें अगर
बच्चों की पें-पें, मैं-मैं थी तो उनकी किलकारियाँ भी थीं। इनके बिना
घर का कोई स्वरूप उनके ज़ेहन में दूर-दूर तक नहीं था।
उन्होंने विद्यावती से कहा, ‘‘तू बैठ चुप्पे से। मैं कबी से बात
करूँगौ। बहू पे किल्लाने की ज़रूरत नहीं है समझी।’’
‘‘तुम सोचो, मैं बहू पे किल्लाती रहूँ हूँ।’’ विद्यावती ने दुखी होकर
कहा।
‘‘मोय कबी से बात कर लेने दे, मेरे सामने बोले तो जानूँ।’’
‘‘कहीं रात-बिरात बोरिया-बिस्तर बाँध के न चल दें।’’ विद्यावती ने
अपना खटका ज़ाहिर किया।
‘‘बावली है का,’’ लालाजी प्रेम से बोले, ‘‘इत्तौ सहज नायँ बाप-महतारी
के कलेजे पे, पाँव धर के निकर जाना। मैं सबेरे बात करूँगौ छोरे से।’’
सारी रात माँ-बाप करवटें बदलते रहे। विद्यावती को बड़े अपराध-बोध से
वे समस्त घटनाएँ याद आती गयीं जब वे नगण्य बातों पर इन्दु से कलह में
पड़ी थीं। लालाजी को भी ग्लानि होती रही कि उन्होंने कभी अपने इकलौते
का वैसा लाड़-प्यार नहीं किया जैसा करना चाहिए था; पता नहीं क्यों वे
सींग लड़ाने में ज्यावदा भिड़े रहे। फिर भी कवि ने कभी उनसे मुँहजोरी
नहीं की। उनकी पसन्द की लडक़ी से ब्याह करवाया, जितनी किफ़ायत या
कंजूसी से उसे रखा वैसे रह लिया। उनके साथ के लालाओं के छोरे कैसे
छैलचिकनियाँ बनकर घूमने निकलते हैं, चुन्नटदार तनजेब के कुरते पहरते
हैं, उन्होंने अपने बेटे को मोटा झोटा जो पहराया, उसने पहरा। बहू भी
देखो कैसी आज्ञाकारी है। कभी मुँह खोलकर एक छल्ला तक नहीं माँगा।
ये समस्त स्वप्न केवल रात्रिकालीन चित्रपट थे जो सुबह सवेरे की
महाभारत में न सिर्फ विलीन हो गये वरन् क्षत-विक्षत भी हुए जब लालाजी
ने चाय के समय कवि से पूछा, ‘‘क्यों लाला, हमने बेबी से सुनी तू
दिल्ली-बिल्ली जाये वारा है का।’’
तनावग्रस्त तो कवि था ही। नयी नौकरी जॉयन करने में मात्र तीन दिन बचे
थे और यहाँ जाने की सूरत और साइत ही समझ में नहीं आ रही थी।
चाय का प्याला एक तरफ़ सरकाकर वह बोला, ‘‘आपको पता ही है मैं इंटरव्यू
देने दिल्ली गया था। वहीं से बुलावा आया है।’’
‘‘हमें तो तूने बतायौ ही नायँ।’’
‘‘अभी कल तो चिट्ठी आयी है। और क्या डुग्गी पिटवाकर बताऊँ।’’
‘‘तू बहू और बच्चन को भी ले जायगौ?’’
कवि चुप रहा। मन में उसने कहा, ‘नहीं उन्हें तुम्हारी चाकरी के लिए
छोड़ जाऊँगा, यही न।’
‘‘कित्तौ मिलेगौ?’’
कवि ने बताया।
‘‘जे बता, यहाँ चम्पा अग्रवाल कॉलेज के सवा सौ रुपये तोय काट रहे हैं
जो परदेस जाकर टक्कर मारेगौ।’’
‘‘यहाँ के दूने मिलेंगे, फिर ओहदे की भी बात है। वह पक्की नौकरी
है।’’
‘‘जे तो सोची तूने जे नहीं सोची, यहाँ मकान, खाना, कपड़ा सब घर की घर
में है। दिल्ली में खर्चा सँभलैगा!’’
कवि ने बिना माता-पिता की तरफ़ देखे कहा, ‘‘जहाँ नौकरी हो वहाँ सौ
रास्ते निकलते हैं।’’
लाला नत्थीमल को बड़ा तेज़ गुस्सा आया। वे चिल्लाये, ‘‘ससुरा हमारा
जाया हमीं से बर्राय रहा है, हमने कह दी हमारी मर्जी के बगैर कहीं
जाने की जरूरत नायँ।’’
‘‘मैं तो हामी भर चुका हूँ, तुम्हें जो करना है कर लो,’’ कवि ने
अन्तिम फ़ैसला सुना दिया।
अब विद्यावती से नहीं रहा गया। उसने कहा, ‘‘तू बहू और बेबी-मुन्नी को
भी लिवा ले जायगौ?’’
‘‘और क्या?’’
दादाजी ने माथे पर हाथ मारकर कहा, ‘‘जन्मी थी औलाद। अबे घनचक्कर। अभी
न वहाँ तेरा घर न दुआर, बीवी-बच्चे क्या धरमशाला में रहेंगे?’’
यह तो कवि को सूझा ही न था। अब तक हमेशा अपने घर में रहा या हॉस्टल
में। मकान ढूँढऩा उसकी कल्पना में था ही नहीं।
माँ ने कहा, ‘‘मैं तो कहूँ यहीं करता रह नौकरी।’’
‘‘तुम समझती नहीं हो जीजी। ये कच्ची नौकरी है। किसी भी दिन मुझे
निकाल बाहर करेंगे ये लोग।’’
‘‘कैसे निकालेंगे, मैं भरतियाजी से बात करूँगा।’’ पिता ने कहा।
‘‘मुझे किसी भरतियाजी और पिताजी की मेहरबानी नहीं चाहिए। मैं वहीं
काम करूँगा जहाँ मेरी पढ़ाई-लिखाई की क़द्र हो।’’
‘‘तो कान खोलकर सुन ले। जाना है तो अकेला जा। बहू और बच्चन को हम
नायँ भेजने के। महीना-दो महीना रहकर तेल देख, तेल की धार देख। फिर
मकान ढूँढ़। इसके बाद भैया ले जा जिसे ले जाना हो।’’
माँ ने धोती की खूँट मुँह में दबाकर बिसूरा, ‘‘पहले मेरा किरियाकरम
कर जा लाला बाके बाद जहाँ जाना है जा। छोरियाँ तो सुखी नहीं, छोरा
दिल्ली में ठोकरें खायगौ, बंसीवारे हमें उठायलो।’’
‘‘जीजी मेरा कलेजा दरकाओ ना। एक बार घर मिल जाए तो मैं तुम्हें भी ले
जाऊँगौ।’’
‘‘यों कह तू अलग संसार बसा रह्यै है। इत्ती बड़ी कोठी में मैं मसान
का भूत बन के डोलूँगौ।’’
‘‘भगवती आपके धौरे है।’’
‘‘वह कै दिना की।’’ सहसा नत्थीमल को ध्यान आया। वे बोले, ‘‘च्यों रे
कविमोहना तूने एक बार नई पूछी तेरी लीला जीजी का क्या हाल है। मैंने
तुझे चिट्ठी लिखी ही, मन्नालालजी घर नायँ लौटे।’’
‘‘मैं तो हरिद्वार, ऋषिकेश, कनखल सारी जगह फिर आया। उनका कोई अता-पता
नायँ लगौ। महामंडलेश्वरन से भी पूछी। सबने कही या नाम का कोई जातक
आया ही नहीं।’’
‘‘अरे तो बाय धरती लील गयी या आसमान निगल गयौ, पता तो चलै। तेरी बहन
दिन-रात कलप रही है।’’
‘‘जब उसका ब्याह आपने जीजा से किया तब आपने किसी से पूछा था। अपनी
मर्जी से सब सरंजाम किया। नतीजा सामने देख लिया न।’’
‘‘तेरा मतलब हमीं गधे हैं।’’
‘‘मेरी सारी बहनों के बेमेल ब्याह किये आपने। अपने आगे किसी की चलने
ना दी।’’ असह्य आक्रोश से कवि का बदन थरथरा रहा था। विद्यावती सन्न्
भाव से पिता-पुत्र का वार्तालाप सुन रही थी। कवि ने गुस्से से कहा,
‘‘ओर सुन लो दादाजी, जैसे ही मुझे घर मिलेगा मैं जीजी के साथ-साथ
भग्गो को भी ले जाऊँगौ। पड़े रहना अकेले अपनी तिमंजिली कोठी में।’’
पिता ने लडक़े की तरफ़ से मुँह मोडक़र विद्यावती की तरफ़ कर लिया, ‘‘देख
लिया तूने क्या औलाद जनी है। अभी कोई कमाई नहीं है तब तो ये ऐसी पत
उतार रहा है। जब इसके पास चार पैसे हो जाएँगे तब देखना। तुझे तो बहू
की कहारिन बनाएगा। जाई मारे ले जाने की कह रहा है। इस बत्तमीज पे
गुस्सा तो मुझे ऐसी आ रई है कि ससुरे के हाथ में एक दरी-तकिया देकर
बाहर कर दूँ, नईं चइये हमें ऐसी औलाद। पर बहू और बच्चों को तो मैं
सडक़ पर नहीं खड़ा करूँगौ नहीं तो लोग जगहँसाई करेंगे कि लाला नत्थीमल
से अपना कुनबा सँभारा नहीं जा रहौ। जा भइया जहाँ तेरे सींग समाएँ।
समझ ले तेरा-मेरा तिनका टूट गयौ।’’
‘‘जीजी सुन लो, बाप होकर ये कैसी-कैसी बोल रहे हैं।’’
विद्यावती हताश स्वर में बोली, ‘‘मोय तो तूने बोलबे काबिल छोड़ाई
नायँ कबी।’’
कवि धम्-धम् पैर पटकता ऊपर चला गया।