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आगरे के गोकुलपुरा में रहते हुए, कुछ दिन तो इन्दु और बेबी-मुन्नी का
बहुत मन लगा। अगल-बगल होते हुए भी आगरे और मथुरा की सभ्यता, संस्कृति
बिल्कुल अलग थी। घर की दिनचर्या भी भिन्न थी। फिर यहाँ इन्दु के ऊपर
काम की अनिवार्यता और जिम्मेदारी नहीं थी। मन हुआ तो भाभी के साथ
कपड़े धुलवा लिये, तरकारी कटवा दी, नहीं हुआ तो बच्चों को लेकर छत पर
चली गयी।
इन्दु के चार भाई थे जिनमें से दो अभी पढ़ रहे थे। बड़े दो भाइयों ने
यहाँ बीच बाज़ार में दवाओं की दुकान खोली थी ‘फ्रंटियर गुप्ता स्टोर’।
बड़े भाई इंटर पास थे और छोटे भाई ने फ़ार्मेसी में डिप्लोमा किया था।
पश्चिम पंजाब में अपना समृद्ध सराफ़ा व्यापार छोडक़र दवाओं की शीशी और
गोलियों में मन लगाना आसान तो नहीं था पर उन्होंने अपनी सूझबूझ से
बहुत जल्द व्यापार जमा लिया। कालीचरण और लालचरण को दवाओं की अच्छी
जानकारी हो गयी। वे दवाओं के साथ आया साहित्य और निर्देश पुस्तिका
ख़ूब ध्यान से पढ़ते। रोगी को दवा देते समय वे सलाह भी देते, ‘‘यह
ख़ाली पेट खाना, यह दवा नाश्ते के बाद की है। इस दवा से ख़ुश्की हो
जाती है, दूध ज़रूर पीना।’’
रोगी अभिभूत हो जाता। उसे लगता बिना फीस दिये यहाँ सेंत में डॉक्टर
मिल जाता है। उन दोनों बड़े भाइयों को लोग डॉक्टर साहेब कहते। सुबह
दुकान खुलने से पहले लालचरण पिछले कमरे में अक्सर खरल में अनेसिन और
एस्प्रो की गोलियाँ पीसते और उनकी छोटी पुडिय़ा बना लेते। यह सिरदर्द,
बदनदर्द की पुडिय़ा थी। इसका कागज़ सफेद रहता और हर पुडिय़ा पर नम्बर एक
लिखा रहता। इसी तरह बैरालगन और बैलेडिनॉल की गोलियाँ पीसकर वे पीले
कागज़ में पुडिय़ा बनाते जिन पर नम्बर दो लिखा रहता। यह पेटदर्द की
पुडिय़ा थी। इन दो पुडिय़ों के चलते लालचरण ने बहुत यश और धन अर्जित
किया। सीधे-सादे अनपढ़ ग्राहक उन्हें दो पुडिय़ा का जादूगर मानते।
कालीचरण ने मिक्सचर बनाना सीख लिया था। उनके मिक्सचरों से खाँसी,
जुकाम, बुख़ार और बदहज़मी ठीक हो जाती।
‘फ्रंटियर गुप्ता स्टोर’ की कमाई अच्छी थी। रात नौ बजे दोनों भाई जब
दुकान बढ़ाकर लौटते उनकी जेबें नोटों और फुटकर पैसों से फूली रहतीं।
सारा पैसा वे एक रूमाल पर उँड़ेलकर गिनते और कुछ रेजगारी रोककर बाकी
पैसे रुपये तिजोरी में रखते जाते। यह रेजगारी वे बीवी-बच्चों में
बाँट देते। उनके घर लौटने की बच्चे-बच्चे को प्रतीक्षा रहती। अक्सर
माँ-बच्चों में बहस हो जाती। माएँ चाहतीं कि बच्चे अपनी रेज़गारी उनके
पास जमा करें। बच्चे कहते, ‘पापा ने हमें दिये हैं, हम अपनी गुल्लक
में डालेंगे।’
इन्दु के आने पर रेज़गारी में तीन हिस्से और बनने लगे। बड़े भाई
कालीचरण इन्दु, बेबी, मुन्नी को भी पैसे देते। इन्दु निहाल हो जाती।
भाई का प्यार और अपनापन वह अपनी आत्मा तक महसूस करती। लेकिन भाभियों
के चेहरे कठिन हो जाते। प्रकट में कुछ न कहतीं लेकिन चौके में बैठ
खुसर-पुसर करतीं कि बीबीजी जाने कब विदा होंगी!
कालीचरण, लालचरण की एक और आदत थी। रोज़ रात को वे मौसम की कोई-न-कोई
खाने की चीज़ घर ज़रूर लाते। कभी लीची तो कभी खुबानी, कभी चैरी। इस तरह
वे एबटाबाद के उन दिनों को वापस लौटाने की चेष्टा करते जब उन्होंने
ये सब फल इफ़रात में देखे और खाये थे। दालमोठ और तले हुए काजू तथा सेम
के बीज भी उन्हें पसन्द थे। फुर्सत के किसी छोटे-से हिस्से में
लालचरण, पंछी या अग्रवाल हलवाई के यहाँ से ये नमकीन ख़रीदकर रख लेते।
उन सबकी थाली जब परोसी जाती उसमें भोजन के साथ थोड़े-से काजू,
सेमबिज्जी और दालमोठ ज़रूर रखी जाती। इन्दु के आने पर भाइयों को न
जाने कब के भूले-बिसरे स्वाद याद आने लगे। कालीचरण कहते, ‘‘इन्दो
तुझे पता है अम्माजी काँजी के बड़े कैसे बनाती थीं?’’
इन्दु इन दिनों बच्ची की तरह चहक रही थी, ‘‘हाँ भैया, मैं ही तो दाल
पीसती थी। इमामदस्ते में राई कूटना, मर्तबान में तले हुए बड़े और
पानी डालना सब मेरे काम थे। अम्माजी से उठा-बैठा कहाँ जाता था।’’
‘‘ये भाभी और रुक्मिणी बनाती हैं पर वह स्वाद नहीं आता।’’ लालचरण
कहते।
भाभियाँ तन जातीं। रुक्मिणी अपनी बैठी आवाज़ में प्रतिवाद करती,
‘‘चाहे कित्ता भी अच्छा बना दो, ये तो यही कहेंगे कि अम्माजी जैसा
नहीं बना।’’
‘‘कोई तो कसर रह जावे है।’’ लालचरण कहते।
‘‘भाभी आप मर्तबान में हींग का धुआँ देती हैं कि नहीं।’’ इन्दु
पूछती।
‘‘हम तो हींग, पिट्ठी में डालते हैं।’’
‘‘वह तो सभी डालते हैं। मर्तबान में हींग की ख़ुशबू ज़रूर होनी चाहिए।
उसी से बड़ों में स्वाद आता है।’’
‘‘हमें तो पता ही नायँ मर्तबान में हींग कैसे मली जाय!’’
‘‘वह लो। सीधी-सी बात है। बलता हुआ अंगारा चिमटे से उठाकर साफ जमीन
पर रखो। उसके ऊपर हींग की छोटी डली डालो। इसके ऊपर मर्तबान मूँदा मार
दो। पाँच मिनट वैसे ही पड़ा रहने दो। अब मर्तबान उठाकर जल्दी से उसके
मुँह पर ढक्कन बन्द करो। पाँच मिनट बाद ढक्कन खोलकर मनमर्जी अचार डाल
लो।’’
‘‘बीबीजी आपैई डाल के जाना काँजी के बड़े। हमपे तो होवे ना इत्ती
पंचायत।’’
कालीचरण ने अनुज पत्नी को डाँट दिया, ‘‘इन्दु के मत्थे मढ़ दिया काम,
तुम कुछ सीखोगी कि गँवार ही बनी रहोगी।’’
‘‘देखेंगे कै रोज बहन खिलाएगी!’’ कहकर दोनों भाभियाँ सामने से हट
गयीं।
इन्दु को एहसास हुआ कि भाभियाँ बुरा मान गयीं। उसने अस्फुट स्वर में
कहा, ‘‘भैया आप भी क्या ले बैठते हो। अम्माजी गयीं, उनके साथ ही
कितनी सारी चीज़ें चली गयीं, किस-किसको याद करोगे!’’
देखा जाए तो वे सब लडक़पन के स्वाद थे जिनमें उत्तर-पश्चिम पंजाब
सीमान्त का हवा-पानी और माँ का हाथ शामिल था। गहनों के क़ारोबार की
समृद्धि जीवन के हर पहलू में झलकती। एबटाबाद में माँ के हाथ की बनी
गुच्छी की रसेदार तरकारी इतनी लज़ीज़ होती कि चाहे कितनी भी बने थोड़ी
पड़ जाती। तीनों भाई-बहन उसे बोटी की सब्ज़ी कहते। रसे में डूबकर
गुच्छियाँ फूल जातीं। उन्हें चूस-चूसकर स्वाद लेने में सामिष भोजन का
आनन्द आता।
इसी तरह से मेथी-दाने की खटमिट्ठी चटनी, खरबूज़े के बीज और काली मिर्च
की तिनगिनी केवल यादें बनकर रह गयी थीं।
इन्दु ने देखा आजकल दोनों भाभियाँ उससे कम बोलतीं। आपस में उनकी
बातचीत पूर्ववत् चलती। उसके आने पर वे चुपचाप चौके के काम में लग
जातीं।
बच्चों में कोई दूरी नहीं थी। बड़े भाई के तीनों बेटे श्याम, रवि और
विनय और छोटे भाई का बेटा सुशील, बेबी-मुन्नी के साथ मिलकर
धमा-चौकड़ी मचाते। चोर-सिपाही खेलते हुए श्याम, बेबी के बालों का
रिबन खींचकर खोल देता। उसके बाल बिखर जाते। तब वह उसे चिढ़ाता ‘भूतनी
आ गयी, भूतनी देखो।’ बेबी पैर पटकने लगती। मुन्नी उसके पास जाकर उसे
पुच-पुच करती। विनय बेबी की उमर का था। बेबी उसकी किताब फाड़ देती।
वह मारने लपकता। दोनों गुत्थमगुत्था हो जाते। बड़ी मुश्किल से उन्हें
छुड़ाया जाता। कभी-कभी विनय और बेबी के बीच ज्ञान-प्रतियोगिता होती।
श्याम टीचर बन जाता। हाथ में फुटरूलर लेकर वह पूछता—
‘‘वॉट इज़ यौर नेम?
‘‘वॉट इज़ यौर फादर्स नेम?’’
‘‘वॉट इज़ यौर मदर्ज नेम?’’
‘‘वेयर डू यू लिव?’’
‘‘वेयर इज़ यौर नोज़?’’
‘‘वेयर आर यौर आईज़?’’
‘‘वेयर आर यौर टीथ?’’
‘‘वेयर आर यौर इयर्ज?’’
इस प्रतियोगिता में बेबी थोड़ा चकरा जाती। उसे अँग्रेज़ी का ज्या दा
ज्ञान नहीं था। वह विनय को देखकर अपनी नाक, कान, आँख को हाथ लगाती
जाती।
श्याम पास-फेल घोषित करता, ‘‘विनय फस्र्ट, बेबी फेल।’’
‘‘ऊँ ऊँ ऊँ’’ बेबी रोती और पैर पटकती। सब बच्चे उसे चिढ़ाते, ‘‘तेरा
नाम प्रतिभा नहीं पपीता है। ए पपीता इधर आ?’’
बेबी दौडक़र इन्दु की गोद में लिपट जाती, ‘‘मम्मी अपने घर चलो, भइया
गन्दा।’’
इस बार सुरेश घर आया तो इन्दु ने कहा, ‘‘सुरेश मुझे यहाँ छोडक़र तू तो
भूल ही गया कि बहन को वापस भी ले जाना है।’’
सुरेश हँसा, ‘‘नहीं, भूला नहीं। मैंने तो सोचा वहाँ काम में खटती हो,
ज़रा आराम कर लो।’’
‘‘नहीं भैया, वहाँ जीजी को परेशानी हो रही होगी।’’
‘‘इन्दु जीजी मेरी मुसीबत यह है कि अगले हफ्ते मेरे इम्तहान शुरू हो
रहे हैं। मैं एक भी दिन बरबाद नहीं कर सकता। कहो तो तुम्हें रेल में
बैठा दूँ, वहाँ दादाजी उतार लेंगे।’’
‘‘क्या बताऊँ भैया, ससुराल में ऊँट कौन करवट बैठे किसे क्या पता, इसी
बात में किल्ल-पौं न शुरू कर दें। ये भी दिल्ली में हैं, सो और
मुश्किल।’’
एक-दो दिन दिमाग दौड़ाने में लग गये कि इन्दु वापस कैसे जाए। भाभियाँ
ननद के जाने के प्रस्ताव से इतनी उत्साहित हो गयीं कि उन्होंने सेरों
पकवान बना डाले। बच्चियों के लिए रेडीमेड फ्रॉकें आ गयीं ओर इन्दु के
लिए ऑरगैंडी की साड़ी। इन्दु ने दबी जुबान से कहा, ‘‘दादाजी, जीजी और
भग्गो के लिए कछू हो तो मैं सिर ऊँचा करके जाऊँ।’’ भाभियों ने
दरियादिली दिखायी। सबके लिए धोती जोड़ा और कमीज़-जम्पर का इन्तज़ाम
किया गया।
भाइयों के लिए दुकान छोडक़र जाना मुमकिन नहीं था। उन्होंने इन्दु को
इंटर क्लास की टिकटें थमाकर कहा, ‘‘हमारी पहचान के श्यामसुन्दर मोदी
इसी गाड़ी से मथुरा जा रहे हैं, वह तुम्हारी देखभाल कर लेंगे।’’
इन्दु ने एक नज़र उन्हें देखकर हाथ जोड़ दिये। वे ठिगने और अधेड़, सेठ
किस्म के आदमी थे जो गाड़ी चलने के पहले ही अपनी बर्थ पर लेटकर
‘फिल्मी दुनिया’ पढ़ रहे थे।
इन्दु किसी भी तरह मथुरा पहुँचना चाहती थी। उसने भाइयों को
चिन्तामुक्त किया, ‘‘आप फिकर न करें, खाना-पानी सब मेरे पास है। आप
चलें, नमस्ते।’’
इंटर के डिब्बे में बहुत-थोड़े यात्री थे। एक पूरी बर्थ पर
बेबी-मुन्नी और इन्दु बैठ गये। शाम चार बजे गाड़ी चली। इसका मथुरा
पहुँचने का निर्धारित समय साढ़े छ: था। अक्सर यह लेट हो जाती थी।
आखिर कितना लेट होगी, यही सोचकर इस गाड़ी को चुना गया था। फिर स्टेशन
के इतनी पास घर होने से इसका भी डर नहीं था कि इन्दु घर कैसे
पहुँचेगी? कोई-न-कोई घर से आ ही जाएगा। कितनी भी लद्धड़ हो, गाड़ी
आखिर बढ़ तो मंजिल की ओर रही थी।
खिडक़ी से रह-रहकर कोयला आ रहा था।
मोदीजी लद्द से ऊपर से उतरे और उन्होंने एक झटके में खिडक़ी बन्द कर
दी।
बेबी-मुन्नी चिल्लाने लगीं, ‘‘खिडक़ी खोलो, मम्मी खिडक़ी।’’
बौखलाकर मोदीजी ने खिडक़ी आधी खोल दी। बच्चों को सरकाकर वे इन्दु के
पास बैठ गये।
इन्दु को यह बड़ी अभद्रता लगी। उसने अपना आप कुछ अधिक समेट लिया और
आत्मस्थ होकर बैठ गयी। मोदीजी ने बातचीत की पहल की, ‘‘आपके घर में
कौन-कौन हैं?’’
‘‘पूरा परिवार है।’’ इन्दु ने कहा।
‘‘लालचरण बता रहा था इन बच्चियों के बाप तो दिल्ली में रहते हैं।’’
‘‘इससे क्या, घर तो उन्हीं का है।’’
‘‘आपको तो बड़ी परेशानी होती होगी। यहाँ सास का चंगुल, वहाँ उनके ऊपर
अनजान औरतों का।’’
‘‘सास तो मेरी माँ जैसी है।’’ इन्दु ने कहा और अपनी जगह से उठकर
बच्चों के पास खिडक़ी से लगकर बैठ गयी। बेबी रोने लगी, ‘‘हम खिडक़ी पर
बैठेंगे।’’
इन्दु ने बेबी को गोद ले लिया।
मोदीजी ने मुन्नी को पुचकारा, ‘‘आजा बेटा चाचा की गोदी।’’
मुन्नी घबराकर माँ से चिपक गयी।
ऊपर से इन्दु शान्त मुद्रा में, खिडक़ी से बाहर नज़र टिकाये थी। अन्दर
उसका दिल धड़धड़ा रहा था। डिब्बे में चढ़ते हुए उसने देखा था उसमें
मुश्किल से सात-आठ मुसाफिर थे। उसे लग रहा था कहीं ये सब बीच के
स्टेशन भरतपुर पर उतर गये तो वह क्या करेगी। उसने सोचा अगर अब यह
आदमी कोई हरकत करेगा तो वह चलती गाड़ी से कूद पड़ेगी। उसका रुख देखकर
मोदीजी सामने की बर्थ पर चले गये। लेकिन इन्दु को लग रहा था कि वे
‘फिल्मी कलियाँ’ पढऩे के बहाने उसी के चेहरे पर नज़र गड़ाये हुए हैं।
इन्दु को सुरेश पर गुस्सा आया। साथ आ जाता तो कोई फेल नहीं हो जाता।
कुछ ही घंटों की बात थी। उसी दिन लौट जाता।
बेबी इन्दु को हिला-हिलाकर पूछ रही थी, ‘‘मम्मी, मम्मी, भैया मुझे
भूतनी क्यों कहता है?’’
इन्दु ने बेबी को चूम लिया, ‘‘हम भैया को मारेंगे। हमारी बेबी तो
रानी बेटी है, भूतनी नहीं है।’’
कालीचरण ने विदा के समय इन्दु को काफी रुपये शगुन के तौर पर दिये थे।
इन्दु ने बहुत मना किया, ‘‘रहने दो भैया, पहले ही तुम्हारा बहुत ख़र्च
हो गया।’’
कालीचरण की आँखें पनिया गयीं। उन्हें लगा अपनी इस छोटी बहन को
उन्होंने कुछ भी तो नहीं दिया। माँ की मौत पर इन्दु आयी नहीं थी सो
दोनों बहुओं ने सास का सारा गहना कपड़ा आपस में बन्दरबाँट कर लिया।
क़ायदे से उसमें इन्दु का हक़ बनता था। लालचरण ने बहुत-सी दवाओं की
पुडिय़ाँ दीं। कहने लगा, ‘‘रख लो, बच्चोंवाला घर है, हारी-बीमारी में
काम आएँगी। हरेक पुडिय़ा पर बीमारी का नाम लिखा है।’’
अब इन्दु ने रूमाल खोलकर देखा, दवाओं के अलावा सौ के तीन नोट और
दस-दस के दो-तीन नोट थे। तीन सिक्के एक रुपये के थे। इनके अलावा
सलूनो के दिन भी चारों भाइयों ने सौ-सौ का पत्ता उसे दिया था।
बेबी-मुन्नी को अलग मिले थे।
दवाइयाँ थैले में डालकर इन्दु ने रुपयों को रूमाल में लपेटकर ब्लाउज़
के अदर रख लिया।
मुन्नी निंदासी हो रही थी। इन्दु ने बेबी को गोद से उतारकर मुन्नी को
थाम लिया।
बच्चे इस समय इन्दु के लिए झंझट भी बने थे और कवच भी। उसने सोचा
बच्चे साथ न होते, तब यह आदमी लम्पटपना दिखाता तो वह खींचकर एक रैपटा
लगाती। ज्याउदा कुछ करता तो वह चलती गाड़ी से कूद जाती पर इन अबोध
बच्चों का वह क्या करे जो उसके बिना एक पल भी नहीं रह सकते। पति की
अनुपस्थिति में इन्हीं में उसका दिल लगा रहता। उसे लगता ये उसके सजीव
खिलौने हैं।
गाड़ी बिना अटके मथुरा पहुँच गयी। इन्दु को इतनी उतावली थी कि वह
पहले से ही मुन्नी को गोद में सँभाले खड़ी हो गयी।
बेबी ने उसकी साड़ी पकड़ते हुए कहा, ‘‘मम्मी सामान!’’
धीमी होती गाड़ी से इन्दु ने प्लेटफॉर्म पर नज़र दौड़ाई। लाला
नत्थीमल, बिल्लू-गिल्लू का हाथ थामे खड़े हुए थे। उसने हाथ हिलाया।
उसे इतनी सुरक्षा की भावना कभी नहीं मिली थी जितनी इस समय मिली। उसके
उतरते ही, पास खड़ा छिद्दू लपककर डिब्बे से उसका सामान उतार लाया।
बेबी-मुन्नी को बिल्लू-गिल्लू ने कसकर पकड़ लिया। वे भी भैया-भैया
कहने लगीं। लाला नत्थीमल बहू-बच्चों को देखकर खिल गये। छिद्दू से
बोले, ‘‘सामान भारी हो तो कुली कर लो।’’
छिद्दू ने बक्सा ख़ुद पकड़ा, डोलची बिल्लू को पकड़ाई और थैला कन्धे पर
टाँगने की कोशिश करने लगा।
इन्दु पलटकर देखने लगी कि उसका रक्षक-भक्षक कहाँ पर है। मोदीजी का
कहीं नामनिशान भी नहीं था। गाड़ी रुकते ही वे उलटी दिशा में चल पड़े
थे।
लाला नत्थीमल ने ख़ुशी में एक कुली रोका और सारा सामान उसके सिर पर
लदवा दिया। छिद्दू ने बेबी को गोदी उठा लिया। मुन्नी माँ के पास जाने
को मचल रही थी। उसे दादाजी ने घपची में भरकर उठा लिया, ‘‘इधर आ मेरा
लटूरबाबा, मैं तोय गोदी लूँ।’’
बिल्लू ने कहा, ‘‘मामी हमारे लिए का लाई हो?’’
इन्दु बड़ी असमंजस में पड़ी। उसे ख़बर ही नहीं थी कि लीला बीबी जी
यहीं पर हैं।
इन्दु ने उसका हाथ थामकर कहा, ‘‘तूने तो बताया ही नहीं, क्या लाती।
मैं तो तेरे लिए खूब-सी दालमोठ, पेठा और मठरी लायी हूँ।’’
बिल्लू मामी का हाथ डुलाता हुआ बोला, ‘‘जे तो मोय बहुत भाये है।’’
सबके पहुँचने पर सारा परिवार बैठक में आ गया। विद्यावती की आँखें चमक
उठीं, ‘‘आ गयी इन्दु, सँभारौ अपनी गिरस्ती। इत्ते दिना को चली गयी।
जे नईं सोची कि जीजी का का होगा।’’
इन्दु ने उनके पाँव पड़ते हुए कहा, ‘‘मुझे तो जीजी, आपका ध्यान रोज
आता रहा।’’
इन्दु ने डोलची खोलकर सब पकवान निकालकर रख दिये।
फैनी, घेवर, पेठा, दालमोठ, मठरी के साथ-साथ शक्करपारे, पुए और बेसन
के सेव भी थे।
अब उसने बक्सा खोलकर सास-ससुर और भगवती के कपड़े निकाले।
लीला ने कहा, ‘‘मेरे लिए कछू नायँ आयौ।’’
इन्दु बोली, ‘‘बीबीजी उन्हें खबर होती आप यहाँ पर हैं तो जरूर
भेजते।’’
‘‘हम कहीं रहैं, हैं तो हम याई घर के।’’
‘‘बीबीजी, आप मेरी धोती ले लो।’’ इन्दु ने अपनी साड़ी निकालकर लीला
को दी।
‘‘देखा कैसी सुलच्छनी है मेरी बहू, अपनी तीयल नन्द को थमा रही है।’’
लीला ने साड़ी वापस करते हुए कहा, ‘‘रख ले इन्दु, मैं तो हँसी कर रही
थी। मैं अब पहर-ओढक़र कहाँ जाऊँगी?’’
लीला के चेहरे पर दुख की छाया आकर चली गयी।
इन्दु ने कहा, ‘‘बीबीजी ऐसे क्यों सोचती हैं, अभी आपकी उमर ही क्या
है! कल को ननदेऊजी आ जाएँगे, सब ठीक हो जाएगा।’’
थोड़ी देर सब पर चुप्पी छा गयी।
तभी बेबी और गिल्लू एक-दूसरे के पीछे दौड़ते आये। बेबी के हाथ में
सेलखड़ी का छोटा-सा ताजमहल था। गिल्लू ताजमहल हाथ में लेकर देखना
चाहता था। ‘मेरा है, मेरा है’ कहकर बेबी उसे छीन रही थी। पता चला
श्याम भैया ने बेबी को यह खिलौना दिया था।
बिल्लू बोला, ‘‘मुझे दिखाओ का है।’’
बेबी ने हाथ पीछे हटाया। गिल्लू ने पीछे हाथ बढ़ाया। बेबी के हाथ से
ताजमहल छूट गया। ज़मीन पर गिरकर सेलखड़ी का ताजमहल चकनाचूर हो गया।
लाला नत्थीमल को गुस्सा आ गया। उन्होंने लपककर गिल्लू का कान पकड़
लिया, ‘‘तोड़ डारा न खिलौना, चैन पड़ गया तोय।’’
लीला का मुँह बन गया, ‘‘बासे नईं न टूटो, बेबी ने गिरायौ।’’
‘‘तू चुप रह लीली। बालक इसी तरह बिगड़ते हैं। बड़ी देर से ये पीछे
पिलच रहा था।’’
‘‘बिना बाप का बालक है, जो मर्जी कर लो। याकी जान निकार लो।’’ लीला
बोली।
विद्यावती ने पति को झिडक़ा, ‘‘बच्चों की बात में ना बोला करो।’’
‘‘क्यों न बोलें, छोरी अभी आयी अभी बाको खिलौना टूट गयौ।’’
लीला को यकायक चंडी चढ़ गयी। उसने गिल्लू को बाँह से पकड़ा और अपने
कमरे की तरफ़ धमाधम मारते हुए कहती गयी, ‘‘मरते भी नहीं ससुरे, मेरी
जान को छोड़ गये हैं मुसीबतें। कौन कुआँ में कूद जाऊँ मैं!’’
बिल्लू दीपक को लेकर कमरे में चला गया। घर में सन्नाटा खिंच गया।
इन्दु का जी अकुला गया। कितने चाव में वह घर लौटी थी।
ऐसा नहीं कि घर भर को लीला की व्यथा का अन्दाज़ा नहीं था। महीनों से
मन्नालाल का कोई अता-पता नहीं था। अपनी तीन बच्चों से भरी गृहस्थी को
वे कच्ची डोर से लटकता छोड़ जाने कहाँ धूनी रमा रहे थे। गुस्सा होता
तो उतरता भी। यह तो सीधे-सीधे वैराग्य दिखाई दे रहा था,
परिवार-विमुखता जिसमें दायित्वबोध का नकार था। उनके न होने से चक्की
का काम भी ठप्प पड़ा था। जियालाल मनमर्जी करने लगा था। सुबह के घंटों
में जब बिल्लू-गिल्लू स्कूल में होते, चक्की पर कोई काम ही न होता।
लीला पूछताछ करती तो कहता, ‘‘सुबह-सुबह कनक के कनस्तर लेकर कौन
निकरता है। चक्की का काम दुपहर-शाम की चीज है।’’
सरो के पेड़ जैसी अपनी लम्बी, सुन्दर बेटी लीला को देखकर विद्यावती
के कलेजे से आह निकल जाती। वह सोचती लीला का कितना गलत विवाह हुआ है।
बनिया जाति अपने बेमेल विवाहों के लिए ख़ासी मशहूर थी। यह बेमेल केवल
आयु का नहीं गुणों का भी था। स्वजातीय विवाह करने के फेर में माँ-बाप
अपनी भोली लडक़ी का रिश्ता किसी काइयाँ लडक़े से कर देते तो कोमल हृदया
का कठोर वर से। कहीं लडक़ी दरियादिल होती तो लडक़ा कंजूस मक्खीचूस। कई
बार ऐसा सम्बन्ध हो जाता कि लडक़ी अनपढ़ और लडक़ा उच्च शिक्षित। ऐसे
दम्पति मन मारकर लोकलाज निभाने की खातिर एक छत के नीचे रहते पर उनके
दाम्पत्य में दरार-ही-दरार होती। माता-पिता लड़कियों से सलाह लेना,
उनकी मर्जी पूछना और मन टटोलना एकदम ग़ैरज़रूरी समझते। वे अपनी
सुविधानुसार सम्बन्ध तय करते भले उसके बाद ब्याही हुई बेटी की उन्हें
सारी जिन्दगी जिम्मेदारी उठानी पड़ती।
बहू-बेटियों के बारे में सोच-सोचकर विद्यावती का मन आँधी का पात बन
जाता। कवि इतने महीनों से बाहर था। इन्दु कब तक सास-ससुर और
बाल-बच्चों में मन लगाएगी, कहना मुश्किल था। उम्र का तकाज़ा था कि
दोनों इकट्ठे रहते। कवि कॉलेज में पढ़ाता है। कहीं किसी से मन न मिला
बैठे। तुकबन्दी करनेवाले आधे बावले होते हैं। कुन्ती ज़रूर अपने
गिरस्त में रमी हुई लगती। कभी-कभार वह पोस्टकार्ड पर अपना समाचार भेज
देती कि वह राज़ी-ख़ुशी है और भगवान से उनकी राज़ी-ख़ुशी मनाती है। भगवती
पर पढऩे का शौक ऐसा चर्राया था कि कोई काम कहो, वह मुँह के आगे पोथी
पसारकर बैठ जाती।
लीला के दस गुणों के बीच एक भारी दोष उसकी बेलगाम ज़ुबान थी। गुस्सा आ
जाने पर वह न छोटा-बड़ा देखती न रिश्ता-नाता। बस, मुँह से लाल मिर्च
उगलने लगती। उसकी इसी आदत के मारे उसकी ससुराल के लोगों ने उससे
किनारा कर रखा था। कई पड़ोसिनें कहतीं, लाला नत्थीमल का स्वभाव इस
लीला में ही उतर आया है, राजी रहे तो मक्खन मुलायम, नाराजी हो तो
दुर्वासा दुबक जाएँ। बच्चों को कभी-कभी बेहद मार पड़ जाती पर वे भी न
जाने कौन-सी मिट्टी के गढ़े थे कि चुपचाप पिट लेते, गालों पर आँसुओं
के छापे लेकर सो जाते लेकिन जागने पर अपनी मैया की गोद में ही
दुबकते।
इस वक्त भी बच्चे पिटने के बाद भूखे सो गये थे। दीपक को मार नहीं
पड़ी पर वह सहमकर सो गया। लीला ने लालटेन की बत्ती बढ़ा दी और बच्चों
के पास दुहरी होकर पड़ गयी। गुस्सा शान्त हो गया था लेकिन मन अशान्त
था। अँधेरे मे उसे अपना पिछला-अगला समय जैसे साफ़-साफ़ दिखाई दे रहा
था। उसे पछतावा हो रहा था कि माँ-बाप और भाभी के सामने उसने इतनी
तीती बानी बोली। यही एक घर था जहाँ वह कभी भी बच्चों को लेकर आ जाती।
इस वक्त उसका मन हो रहा था बच्चों को छूकर वह क़सम ले-ले कि कभी बिना
सोचे-समझे मुँह नहीं खोलेगी। लेकिन उन बातों का क्या हो जो पहले ही
उसकी ज़ुबान से निकल चुकी हैं। उसे बड़े तीखेपन से याद आया एक बार
पहले भी पति से उसकी कहा-सुनी हुई थी। हुआ यह था कि लीला ने मन्नालाल
और बच्चों के स्वेटर लक्स साबुन के चिप्स से धोकर सूखने के लिए आँगन
की बड़ी चटाई पर फैलाये। सामने के घर का कुत्ता मोती पता नहीं कब
स्वेटरों के ऊपर अपने गन्दे पैरों से गुज़र गया। जब लीला सूखते कपड़ों
का मुआयना करने निकली उसने कुत्ते के पंजों के निशान देखे। वह समझ
गयी यह काम मोती के सिवा और किसी का नहीं है। वह सोटी लेकर गली में
निकली। मोती अपने घर के आसपास मँडरा रहा था। उसने इतनी कसकर सोटी
मारी कि कुत्ता वहीं ढेर हो गया। गुस्से से फनफनाती लीला ने अपने घर
आकर किवाड़ भड़ से बन्द कर लिये।
थोड़ी देर में गली में शोर मच गया—मोती को किसी जालिम ने मार डाला।
बताओ सीधा-साधा जीव। जिसने मारा वह नरक जाएगा। और क्या!
मन्नालाल अन्दर बैठे सब सुन-देख रहे थे। उन्होंने लीला से कहा,
‘‘जीव-हत्या करके आयी हो। सिर से नहाओ तब कुछ छूना।’’
‘‘हम क्या जानबूझकर मारे हैं। उसने सारे स्वेटर बरबाद कर दिये वाई
मारे हमें गुस्सा आ गयौ।’’
‘‘तुझे तो मेरे पे भी गुस्सा आतौ है। किसी दिन मोय भी मार डालेगी।’’
‘‘तुम्हारी जुबान भी क्या चीज है! तुम और मोती एक हो का?’’
‘‘दोनों जीव हैं। जो कोई ने तुझे देखा होगा तो अभाल पुलिस तुझे आय के
पकड़ लेगी।’’
‘‘तुम तो हमेशा मेरा बुरा ही चाहो, मोय फाँसी चढ़ा दो, जाओ ढिंढोरा
पीट दो।’’ कहते हुए लीला ने अपना सिर कूट डाला।
मन्नालाल बौखला गये, ‘‘हें हें लीली का कर रही हो, मैं तो यों ही कह
रहा था।’’
पर लीला को होश कहाँ था। वह तो अपने आपको कूटे गयी जब तक घबराकर
मन्नालाल घर से बाहर नहीं निकल गये।
मोती की मौत की बात तो किसी तरह दब गयी। थाना-कचहरी की नौबत नहीं
आयी। पर मन्नालाल के निकल जाने की बात सुबह तक आग पकड़ गयी।
किसी ने कहा—उसने मन्नालाल को गली में भागते हुए देखा।
किसी ने कहा—जब मन्नालाल घर से निकले उनके पूरे बदन पर राख पुती हुई
थी।
जितने मुँह उतनी बातें।
सबसे ज्यातदा परेशानी बच्चों को हुई। वे जब बाहर निकलते लोग उनसे
च्-च् हमदर्दी जताते, ‘‘क्यों बेटा, तुम्हारे बाबू का कोई समाचार
मिला। कब आय रहे हैं।’’
बच्चों के चुप रहने पर लोग कहते, ‘‘ये बच्चे अनाथ हो गये। बेचारे बाप
का दिल टूट गया, अब क्या लौटेगा।’’
तब तो मन्नालाल तीसरे दिन पूर्णानन्द गिरिजी महाराज की पार्टी के संग
नाचते-गाते, मजीरा बजाते लौट आये थे।
लौटते ही उन्होंने लीला से इक्कीस लोगों की रासमंडली का खाना बनवाया,
पूड़ी, कचौड़ी, आलू की तरकारी, मुरायता और काशीफल का साग। रात तक
लीला को इतनी साँस नहीं मिली कि पति से पूछ सके ‘तुम कहाँ चले गये
थे? ऐसे भी कोई घरबार छोडक़र जाता है?’
अगले दिन मंडली को विदा देकर मन्नालाल ने अकेले पड़ते ही अपनी तर्जनी
दिखाकर लीला को बरजा, ‘‘ख़बरदार जो कचर-कचर जबान चलायी। इस बार तो मैं
बच्चन का खयाल करके आ गया, अबकी गया तो कभी इधर पलटूँगा भी नहीं।’’
लीला ख़ून और खलबलाहट का घूँट पीकर रह गयी।
एक और बार की बात है। लीला पेट से थी। अहोई अष्टमी का त्योहार आया।
लीला ने कच्ची रसोई तो खुद राँध ली, मिठाई बाज़ार से मँगायी। जब वह
आँगन की दीवार पर अहोई माता की तस्वीर बनाकर परिवार के सदस्यों के
नाम लिख रही थी, मन्नालाल बोले, ‘‘ये देवी-देवता प्रेत बने बैठे हैं।
इनके नाम पर बायना निकालती हो, कंजकें जिमाती हो, का फायदा। जाने
कितने साधु-सन्त भूखे, निराहार घूमते हैं। अरे देना है तो उन्हें दो।
तुम्हें पुन्न भी लगे।’’
ये बातें लीला कुछ-कुछ पहचानती थी पर मन्नालाल से सुनने में उसे अपनी
आलोचना लगी।
उसने तुनककर कहा, ‘‘सभी मनाते हैं, बाल-बच्चोंवाले घरों में तो अहोई
जरूर पूजी जाय है।’’
मन्नालाल बोले, ‘‘ये देवियाँ मरे हुए को जिलाती हैं, ऐसी कभी होय
नहीं सकतौ। बच्चों को ठीक से पालो तो वो मरें ही क्यों?’’
लीला ने कहा, ‘‘दिन-त्यौहार क्या बहस लेकर बैठ गये, हटो पूजा करके
मुँह जूठा करूँ। आज सवेरे से बरती हूँ।’’
मन्नालाल हँसने लगे। बिल्लू से बोले, ‘‘तेरी माँ को तर माल खाबे की
बान पड़ गयी है, तभी न रोज ब्रत करै है।’’
लीला को गुस्सा आ गया। यह आदमी जितनी बार मुँह खोले, कुबोल ही बोले
है। अच्छी बात इसे आवै ही नायँ।
‘‘क्या भकोस लिया मैंने जो सुना रहे हो, अब कभी कहना मोसे, कछू न बना
के दूँ।’’ कहते हुए लीला ने भर कढ़ाही खीर मोरी पे पटक दी।
‘‘अरे भागमान ये का कर रई है, बच्चों को तो खाने दे।’’ मन्नालाल जब
तक रोकें, लीला ने कढ़ाही में एक लोटा पानी डाल दिया। मन्नालाल दुखी
हो गये, ‘‘तेरे लच्छन ऐसे हैं कि तू बड़ा दुख पाएगी, जरा-सी भी समवाई
नहीं है तोमें।’’
त्यौहार का दिन उपवास का दिन बन गया। पति-पत्नी में अनबोला हो गया।
कई दिनों तक बच्चों के ज़रिए वार्तालाप चला फिर यकायक एक दिन मन्नालाल
चक्की से ही कहीं चले गये। बिल्लू-गिल्लू से कहा, ‘‘रोना मत, मैं ढेर
दिना में आऊँगा।’’
उस वक्त वे दो महीनों में लौटे थे। कोई कुछ पूछे कहाँ रमे रहे तो बस
इतना कहें, ‘गुपालजी के चरणों में लोटता रहा।’
लीला ने कई दिन गुमान रखा। बोली नहीं। उसकी मुखमुद्रा से ज़ाहिर था कि
जहाँ रहे थे वहीं रहो, हमारे ढिंग क्यों आये हो।
एक दिन घर में रात के वक्त काला नाग निकल आया, विषकोबरा। इसके माथे
पर तिलक और मुँह लम्बोतरा—बिल्कुल विषकोबरा की पहचान। आकर सर्र-सर्र
बच्चों के तख़त के नीचे सर्राया। लीला की घिग्घी बँध गयी। जाकर पति के
सीने से चिपट गयी, ‘‘मेरे बच्चन को बचा लो, तुम्हारे पाँव धो-धोकर
पिऊँगी।’’
मन्नालाल थे पराक्रमी। उन्होंने तीनों बच्चों को एक-एक कर उठाया और
अपने कमरे के पलंग पर डाल दिया। फिर उन्होंने बीच का दरवाज़ा बन्द कर
उसकी चौखट पर चादर और तौलिये की बाड़ लगा दी।
काँपती हुई लीला से बोले, ‘‘तू सो जा बच्चों के पास मैं मन्दिर में
गुपालजी के चरणों में पड़ौ रहूँगौ।’’
लीला ने उनके पाँव पकड़ लिये, ‘‘तुम्हें मेरी सौंह जो कहीं गये। हम
सब इसी पलंग पर सो जाएँगे।’’
सुबह उठकर नागदेवता की बड़ी ढुँढ़ाई की गयी। सँपेरा भी बुलाया। पर
विषकोबरा ऐसे अन्तर्धान हो गया जैसे आया ही नहीं था।
इस बार मन्नालाल को गये दो महीने से ऊपर का वक्त हो चला था, कहीं कोई
सूत्र नहीं मिल रहा था कि वे कहाँ गये। पड़ोसियों ने लीला को सुझाया
कि उनकी फोटो के साथ गुमशुदगी की सूचना पेपर में छपवा दो, भागे-भागे
आएँगे।
‘‘जहाँ वे हैं, वहाँ, पता नहीं अखबार जाते हैं या नहीं।’’
बच्चों को स्कूल भेजकर लीला खिडक़ी पर खड़ी हो जाती। उसे लगता गली में
आनेवाला अगला चेहरा उसके पति का होगा, या अगला या अगला।
अपने घर में समय बड़ी मुश्किल से सरक रहा था इसलिए लीला मायके आ गयी
थी।
29
लाला नत्थीमल का कुनबा जब से इस नये मकान में आया था, उसका दिनमान
कुछ बदल गया था। अब घर के लोग बार-बार बैठक की दीवाल-घड़ी देखने नहीं
दौड़ते। यह मकान नानकनगर में स्टेशन के करीब बना था। यहाँ गाडिय़ों के
आने-जाने से समय की सूचना मिलती रहती। विद्यावती गर्मी भर छत पर
छिडक़ाव कर सबके बिस्तर लगवाती। वहीं एक तरफ़ खाना बना हुआ रखा रहता।
शाम सात बजे की डाकगाड़ी धड़धड़ निकल जाती तब वे सब ब्यालू कर लेते।
रात ठीक नौ बजे फ्रंटियरमेल का काला इंजन अपनी भट्टा जैसी आँख
लपलपाते और चिंघाड़ते हुए गुज़रता। तब विद्यावती कहती, ‘‘कवि लगता है
आज भी नायँ आयौ, चलो छोरियो सो जाओ।’’
बेबी-मुन्नी सबको अपने पास समेटकर वे लेट जातीं।
बेबी कहती, ‘‘दादी चतुर कौवे की कहानी सुनाओ।’’
दादी कहती, ‘‘मोय तो नींद आ रही है।’’
मुन्नी दादी की टाँग पर अपनी नन्ही टाँग चढ़ाकर कहती, ‘‘नईं दादी
कहानी।’’
विद्यावती निहाल हो जाती। कहती, ‘‘हुँकारा भरती रहना नहीं तो मैं
सुनाऊँगी नहीं।’’
लाला नत्थीमल छत पर सोना पसन्द नहीं करते। उनका ख़याल था कि छत पर
सुबह मक्खियाँ परेशान करती हैं। फिर जो हवा छत पर मिले वही आँगन में
मिल जाती है। वे खाना खाकर नीचे चले जाते। उनकी चिन्ता यह भी रहती कि
घर का कुल सामान नीचे खुला पड़ा है, ऐसे में छत पर चढक़र सोना मूर्खता
के सिवा कुछ नहीं है।
लेकिन आँगन में लेटे हुए भी, जब तक उन्हें नींद न आ जाती, वे एक कान
से छत की बातचीत सुनते रहते। कभी नीचे से ही बमक पड़ते, ‘‘विद्यावती
तूने वा बात तो बताई ही नायँ।’’
इसलिए विद्यावती अपनी आवाज़ दबाकर कहानी सुनाती। कभी वह बच्चों की
फ़रमाइश के अनुसार कहानी बनाकर सुनाती, कभी बच्चे सुनी हुई कहानी फिर
से सुनना चाहते, कभी वह नयी-नकोर कहानी सुनाने की कोशिश करती।
बेबी-मुन्नी आधी कहानी सुनते तक नींद में गुम हो जातीं। तब इन्दु
मुन्नी को अपनी खाट पर ले आती।
जब लीला आ जाती तब बिल्लू, गिल्लू, दीपक और बेबी मिलकर खेलते। कभी
एक-दूसरे की फ्रॉक और कमीज़ पीछे से पकडक़र वे रेलगाड़ी बन जाते,
‘‘छक्कम, छकपक्कम, छक्कम, पकछक्कम’’ कहते हुए वे दौड़ते। उनके सुर
में सुर मिलाकर विद्यावती गा उठती, ‘‘कटी जिन्दगानी कभी दुक्खम, कभी
सुक्खम, कभी दुक्खम कभी सुक्खम।’’ लीला और इन्दु भी साथ देने लगतीं,
‘‘कटी जिन्दगानी कभी दुक्खम कभी सुक्खम।’’ बच्चों की कतार एक-दूसरे
के कपड़ों का सिरा पकड़े छत पर गोल घूमती, ‘‘छकपक्कम, पकछक्कम,
छकपक्कम, पकछक्कम।’’ बिल्लू सबसे आगे इंजन बना अपनी हथेली मुँह के
आगे रखकर आवाज़ निकालता, ‘‘कू ऽ ऽ ऽ।’’
इन्दु को याद आता आगरे में जब उन्हें सुशील मुनि के प्रवचनों में ले
जाया जाता था तब वहाँ यही सुनने को मिलता था, ‘‘कालचक्र के छह कालखंड
होते हैं— 1. सुखमा- सुखमा, 2. सुखमा, 3. सुखमा-दुखमा, 4.
दुखमा-सुखमा,
5. दुखमा और 6. दुखमा-दुखमा। इन्हीं को पहला, दूसरा, तीसरा, चौथा,
पाँचवाँ और छठा काल भी कहा जाता है। इन कालखंडों के प्रवर्तनों से
मनुष्य के शरीर की अवगाहना, आयु, बल, वैभव, सुख, शान्ति की क्रमश:
गति-अवगति पता चलती है। आकुलताएँ, क्लेश, बैर, विरोध, मान और दु:ख
बढ़ते जाते हैं। छठे काल के व्यतीत होने पर महाप्रलय में इस सृष्टि
का लगभग नाश हो जाता है। कभी जल तो कभी पवन, कभी अग्नि तो कभी धूल से
महानाश का वातावरण हो जाता है। इसके काफ़ी दिन बाद शान्ति और समृद्धि
स्थापित होती है। नव-सृजन का प्रारम्भ छठे आनेवाले काल का उद्घोष है।
फिर धीरे-धीरे उत्कर्ष-काल आता है। प्रथम से छठे तक अवनति वाले समय
को अवसर्पिणी काल कहते हैं। छठे से पहले तक के उत्कर्षगामी काल को
उत्सर्पिणी काल कहा जाता है।
कभी भग्गो अपनी पढ़ाई जल्दी समाप्त कर छत पर आ जाती। वह आग्रह करती,
‘‘जीजी वह वाली कहानी सुनाओ, सौंताल वाली।’’
‘‘कौन-सी?’’ विद्यावती याद करतीं।
‘‘अरे वोही रानी फूलमती की।’’
‘‘अच्छा वो, बड़े दिना हो गये, जने भूल गयी कि याद है।’’
लीला कहती, ‘‘जीजी शुरू तो करो, याद आती जाएगी।’’
विद्यावती सुनाने लगतीं—
‘‘एक थी फूलमती। बाकी ये बड़ी-बड़ी आँखें, कोई कहे मिरगनैनी, कोई कहै
डाबरनैनी। एक बाकी ननद लब्बावती। जेई सौंताल से लगी हवेली राजा
सूरसेन की। जब हवेली बन रही ही, राजाजी के सन्तरी-मन्तरी ने भतेरा
समझायौ ‘या बावड़ी ठीक नईं, नेक परे नींव धरो’ पर राजाजी अड़े सो
अड़े रहे ‘मैं तो यईं बनवाऊँगौ महल। एम्मे का बुरौ है।’
‘राजाजी पीपल के पेड़ पर भूत-पिसाच और परेत तीनों का बसेरौ है। जैसे
भी भीत उठवाओगे, पीपल की छैयाँ जरूर छू जाएगी, जनै उगती, जनै डूबती।’
सन्तरी बोले।
बस इत्ती-सी बात।
ये लो। राजाजी ने पीपल समूल उखड़वा दियौ।
राजा सूरसेन का अपनी रानी से बड़ा परेम हौ। रानी फूलमती बोली,
‘राजाजी ऐसौ बाग बनाओ कि मैं पूरब करवट लूँ तो मौलसिरी महके, पच्छिम
घूम जाऊँ तो बेला चमेली।’ राजा ने ऐसा ही कर्यौ। हैरानी देखो पेड़ों
की जड़ सौंताल की मिट्टी में और फूल खिलें राजाजी के चौबारे।
राजा-रानी मगन मन अपने बाग में घूमें। सौंताल के किनारे शाम को ऐसे
कुमकुमे जलें जिनकी परछाईं पानी में काँपती नजर आय। महल ऐसा कि उसमें
सात दरवाजे और उनचास पवन के आने के लिए उनचास खिड़कियाँ।
राजकुमारी लब्बावती का विवाह हाथरस के कुँअर वृषभानलला के पोते से हो
गया। अभी गौना नहीं हुआ था। नन्द-भाभी घर में जोड़े से बोलें, जोड़े
से डोलें, सास बलैयाँ लेती, ‘मेरी बहू-बेटी दोनों सुमतिया।’
पर तुम जानो जहाँ सौ सुख हों, वहाँ एक दुख आके कोने में दुबककर बैठ
जाय तो सारे सुख नास हो जायँ। सोई हुआ राजा की हवेली में।’’
‘‘कैसे?’’ भग्गो ने पूछा।
‘‘अरे बियाह को एक साल बीता, दो साल बीते, साल पे साल बीते, फूलमती
की कोख हरी न भई।’’
‘‘सास लाख झाड़-फूँक करावै, राजाजी ओझा-बैद बुलावें, नन्द किशन
कन्हाई की बाललीला सुनावै पर कोई उपाय नायँ फलै।’
एक दिन लब्बावती को सुपनौ आयौ कि तेरे भैया ने पीपर समूल उपारौ, येई
मारे महल अटारी निचाट परै हैं। एकास्सी के दिन सौंताल के किनारे फिर
से तेरी भाभी पीपर लगायँ, रोज ताल में नहायँ, पीपर पूजै तब अनजल लें
तब जाके जे कलंक मिटै। फिर तू नौ महीनन में जौले-जौले दो भतीजे
खिलइयौ।’
लब्बावती ने सुबह सबको सपना बखानौ। अगले ही दिन एकास्सी ही। सो सात
सुहागनें पूजा की थाली सजाए, सोलहों सिंगार किये, सोने का कूजा
फूलमती के सिर पर धरा कर पीपल रोपने चलीं। महल की मालिन का इकलौता
बेटा कन्हाई सबके आगे-आगे रास्ता सुझाये। बाके हाथ में फड़वा खुरपी।
राजा महलन में से देखते रहे। रानी फूलमती ने लोट-लोटकर पूजा की। आपै
आप बावड़ी में उतर सोने का कूजा भर्यौ और पीपर-मूर पे जल चढ़ायौ। फिर
सातों सुहागनों ने असीसें उचारीं। सब-की-सब राजी-खुशी घर लौटीं।
रोज सबेरे पंछी-पखेरू के जगते-मुसकते फूलमती, लब्बावती, दोनों जाग
जातीं और सौंताल नहाने, पीपर पूजने निकल पड़तीं। कभी राजाजी जाग
जाते, कभी करवट बदलकर सो जाते।
फूलमती भायली ननद से कहती, ‘तेरे भइया तो पलिका से लगते ही सोय जायँ।
इनकी ऐसी नींद तो न कभी देखी न सुनीं।’
लब्बावती कहती, ‘मेरे भइया की नींद को नजर न लगा भाभी! जे भी तो सोचो
जित्ती देर जागेंगे तुम्हें भी जगाएँगे कि नायँ।’
फूलमती उलटी साँस भरती, ‘हम तो सारी रात जगें, भला हमें जगाये बारो
कौन?’
लब्बावती को काटो तो खून नहीं। बोली, ‘क्या बात है?’
फूलमती बोली, ‘अभी तुम गौनियाई नायँ, तुम्हें का बतायँ का सुनायँ।
तोरे भैया तो जाने कौन-सी पाटी पढ़े हैं कि मन लेहु पे देहु छटाँक
नहीं।’ फिर फूलमती ने बात पलटी, ‘तुम्हारी ससुराल से सन्देसो आयौ है
अबकी पूरनमासी को लिवाने आएँगे।’
लब्बावती ने भाभी को गटई से झूलकर लाड़ लड़ाया, ‘कह दो बिन से, पहले
हम अपने भतीजे की काजल लगाई का नेग तो ले लें तब गौने जायँ।’
माँ ने सुना तो बरज दिया, ‘समधी जमाई राजी रहें। इस बार गौना कर दें,
फिर तू सौ बार अइयौ, सौ बार जइयो, घर दुआर तेरौ।’ बड़े सरंजाम से
लब्बावती की बिदाई भई। गौने में माँ और भैया ने इत्तौ दियौ कि समधी
की दस गाड़ी और राजाजी की दस गाड़ी ठसाठस भर गयीं। डोली में बैठते
लब्बावती ने भाभी को घपची में भर लीनो—‘भाभी मेरी, मेरे भैया की पत
रखना। पीपल पूजा, बावड़ी नहान का नेम निभाना। मोय जल्दी बुलौआ
भेजना।’
फूलमती ननद के जाने से उदास भई। राजाजी ने कठपुतली का तमाशा करायौ,
नन्दगाँव का मेला दिखायौ पर रानी का जी भारी सो भारी।
सुबह-सबेरे अभी भी वह रोज सौंताल नहाये, पीपल पूजे तब जाकर अनजल छुए।
अब इस काम में संगी-साथी कोई न रह्यै। एक दिना रानी भोर होते उठी। एक
हाथ पे धोती-जम्पर धर्यो, दूसरे पे पूजा की थाली और चल दी नहाने।
उस दिन गर्मी कछू ज्यानदा रही कि फूलमती की अगिन। गले-गले पानी में
फूलमती खूब नहाई। अबेरी होते देख फूलमती पानी से निकरी। अभी वह कपड़े
बदल ही रही थी कि बाकी नजर झरबेरी पे परी। गर्मी में झरबेरी लाल-लाल
बेरों से बौरानी रही।
हाँ तो फिर क्या था। फूलमती ने आगा सोचा न पीछा, बस बेर तोडऩे ठाड़ी
हौं गयी। उचक-उचककर बेर तोड़े और पल्ले में डारै। वहीं थोड़ी दूर पर
मालिन का लडक़ा पूजा के लिए फूल तोड़ रहौ थौ। तभी रानी की उँगरी मा
बेरी का काँटा चुभ गयौ। फूलमती तो फूलमती ही, बाने काँटा कब देखौ।
उँगरी में ऐसी पीर भई कि आहें भरती वह दोहरी हो गयी। मालिन के छोरे
कन्हाई ने रानीजी की आह सुनी तो दौड़ा आयौ।
काँटा झाड़ी से टूटकर उँगरी की पोर में धँस गयौ। मालिन का छोरा काँटे
से काँटा निकारना जानतौ रहौ। सो बाने झरबेरी से एक और काँटा तोड़
रानी की उँगरी कुरेद काँटा काढ़ दियौ। काँटे के कढ़ते ही लौहू की एक
बूँद पोर पे छलछलाई। कन्हाई ने झट से झुककर रानी की उँगरी अपने मुँह
में दाब ली और चूस-चूसकर उनकी सारी पीर पी गयौ। छोरे की जीभ का
भभकारा ऐसौ कि रानी पसीने-पसीने हो गयी।
उधर राजा सूरसेन की आँख वा दिना जल्दी खुल गयी। सेज पे हाथ बढ़ाया तो
सेज खाली। थोड़ी देर राजाजी अलसाते, अँगड़ाई लेते लेटे रहे। उन्हें
लगा आज रानी को नहाने-पूजने में बड़ी अबेर हौं रही है। राजाजी ने
वातायन खोला। सौंताल में न रानी न बाकी छाया। पीपल पे पूजा-अर्चन का
कोई निशान नहीं। रानी गयीं तो कहाँ गयीं। सूरसेन अल्ली पार देखें,
पल्ली पार देखें। तभी उन्हें सौंताल के पल्ली पार झरबेरी के नीचे
रानी फूलमती और मालिन का छोरा कन्हाई दिखे- फूलमती की उँगरी कन्हाई
के मुँह में परी ही और रानी फूलों की डाली-सी लचकती वाके ऊपर झुकी
खड़ी।
राजा सूरसेन को काटो तो खून नहीं। थोड़ी देर में सुध-बुध लौटी तो मार
गुस्से के अपनी तलवार उठायी। पर जे का! तलवार मियान में परे-परे
इत्ती जंग खा गयी कि बामें ते निकरेई नायँ। राजा ने भतेरा जोर लगायौ,
तलवार ज्यों की त्यों। उधर डाबरनैनी फूलमती की उँगरी की पोर मालिन के
छोरे के मुँह में परी सो परी।
राजा, परजा की तरह अपनी रानी को घसीटकर महलन में लावै तो कैसे लावै,
बस खड़ा-खड़ा किल्लावै। उसने अपने सारे ताबेदारों को फरमान सुनायौ कि
महल के सारे दुआर मूँद लो, रानी घुसने न पाय। कोई उदूली करै तो सिर
कटाय।
रानी फूलमती नित्त की भाँत खम्म-खम्म जीना चढ़ के रनिवास तक आयी। जे
का। बारह हाथ ऊँचा किवार अन्दर से बन्द। अर्गला चढ़ी भई। रानी दूसरे
किवार पे गयी। वह भी बन्द। इस तरह डाबरनैनी ने एक-एक कर सातों किवार
खडक़ाये पर वहाँ कोई हो तो बोले।
सूरसेन की माता ने पूछा, ‘क्यों लला आज बहू पे रिसाने च्यों हो?’
सुरसेन मुँह फेरकर बोले, ‘माँ तुम्हारी बहू कुलच्छनी निकरी। अब या
अटा पे मैं रहूँगो या वो।’
माँ ने माली से पूछा, मालिन से पूछा, महाराज से पूछा, महाराजिन से
पूछा, चौकीदार से पूछा, चोबदार से पूछा। सबका बस एकैई जवाब राजाजी का
हुकुम मिला है जो दरवाजा खोले सो सिर कटाय।
सात दिना रानी फूलमती अपना सिर सातों दरवाजों पे पटकती रही। माथा
फूटकर खून-खच्चर हो गयौ। सूरसेन नायँ पसीजौ...’
लीला कहती, ‘‘आगे की कहानी मैं सुनाऊँ जीजी!’’
विद्यावती कहती, ‘‘सीधे-सीधे सुनाना, घुमाना-फिराना ना।’’
‘‘तो सुनो,’’ लीला कहती। बच्चे उसके पास खिसक आते।
फिर यह हुआ कि जैसे ही फूलमती को घर-दुआर पे दुतकार पड़ी, वह
खम्म-खम्म जीना उतर गयी। सौंताल पर कन्हाई उसकी राह देख रहा था। उसने
रानी का हाथ पकड़ा और अपनी कुटिया में ले गया। सात दिन में रानी
अच्छी-बिच्छी हो गयी। मालिन ने दोनों की पिरितिया देखी तो बोली, ‘रे
कन्हाई, राधा भी किशन से बड़ी ही, जे तेरी राधारानी ही दीखै।’
डाबरनैनी वहीं रहने लगी। रोज़ सुबह मालिन और कन्हाई फूल तोडक़र लाते,
फूलमती उनकी मालाएँ बनाती।
इधर राजा सूरसेन उदास रहने लगे। माँ ने लब्बावती को बुला भेजा।
लब्बावती ने भाई से पूछा, ‘प्यारे भैया, मेरी राजरानी भाभी में कौन
खोट देखा जो उसे वनवास भेज दिया।’
सूरसेन ने कहा, ‘तेरी भौजाई हरजाई निकली। वह मालिन के बेटे के साथ
खड़ी थी। दोनों हँस रहे थे।’
बहन बोली, ‘ये तो अनर्थ हुआ। अरे हँसना तो उसका स्वभाव था। भैया सूरज
का उगना, नदिया का बहना और चिडिय़ा का चूँ-चूँ करना कभी किसी ने रोका
है?’
राजा सूरसेन को लगा उन्होंने अपनी पत्नी को ज्यादा ही सजा दे दी।
सात दिन राजा ने उधेड़बुन में बिता दिये। आठवें दिन लब्बावती की विदा
थी। लब्बावती जाते-जाते बोली, ‘भैया, अगली बार मैं हँसते-बोलते घर
में आऊँ, भाभी को लेकर आओ।’
कई साल बीत गये। राजा रोज़ सोचते आज जाऊँ, कल जाऊँ। इसी सोच में कई
बरस खिसक गये। आखिर एक दिन वे घोड़े पे सवार होकर निकले। साथ में
कारिन्दे, मन्तरी और सन्तरी। जंगम जंगल में चलते-चलते राजाजी का गला
चटक गया। घोड़ा अलग पियासा। एक जगह पेड़ों की छैयाँ और बावड़ी दिखी।
राजा ने वहीं विश्राम की सोची। बावड़ी से ओक में लेके ज्योंही राजा
पानी पीने झुके, किसी ने ऐसा तीर चलाया कि राजा के कान के पास से
सन्नाता हुआ निकल गया। मन्तरी-सन्तरी चौकन्ने हो गये। तभी सबने देखा,
थोड़ी दूर पर एक छोटा-सा लडक़ा, साच्छात कन्हैया बना, पीताम्बर पहने
खड़ा है और दनादन तीर चला रहा है। राजा कच्ची डोर में खिंचे उसके पास
पहुँचे। छोरा क्या बूझे राजा-वजीर। वह चुपचाप अपने काम में लगा रहा।
राजा ने बेबस मोह से पूछा, ‘तुम्हारा गाम क्या है, तुम्हारा नाम क्या
है?’ नन्हें बनवारी ने आधी नजर राजा के लाव-लश्कर पे डाली और कुटिया
की तरफ जाते-जाते पुकारा, ‘मैया मोरी जे लोगन से बचइयो री।’ लरिका की
मैया दौड़ी-दौड़ी आयी। बिना किनारे की रंगीन मोटी धोती, मोटा ढीला
जम्पर, नंगे पाँव, पर लगती थी एकदम राजरानी। उसके मुख पर सात रंग
झिलमिल-झिलमिल नाचें।
राजा ने ध्यान से देखा। अरे ये तो उसकी डाबरनैनी फूलमती थी।
सूरसेन को अपनी सारी मान-मरयादा बिसर गयी। सबके सामने बोला,
‘परानपियारी तुम यहाँ कैसे?’
फूलमती ने एक हाथ लम्बा घूँघट काढ़ा और पीठ फेरकर खड़ी हो गयी।
तब तक बनवारी का बाप कन्हाई आ गया। राजा ने कारिन्दों से कहा, ‘पकड़
लो इसे, जाने न पाये।’
कन्हाई बोले, ‘जाओ राजाजी तुम क्या प्रीत निभाओगे। महलन में बैठ के
राज करो।’
मन्तरी बोले, ‘बावला है, राजा की रानी को कौन सुख देगा। क्या
खिलाएगा, क्या पिलाएगा?’
कन्हाई ने छाती ठोंककर कहा, ‘पिरितिया खवाऊँगौ, पिरितिया पिलाऊँगौ।
तुमने तो जाके पिरान निकारै, मैंने जामें वापस जान डारी। तो जे हुई
मेरी परानपियारी।’
‘और जे चिरौंटा?’ मन्तरी ने पूछा।
‘जे हमारी डाली का फूल।’
राजा के कलेजे में आग लगी। मालिन के बेटे की यह मजाल कि उसी की रानी
को अपनी पत्नी बनाया वह भी डंके की चोट पर। उसने घुड़सवार सिपहिये
दौड़ा दिये।
दादी बोली, ‘हाँ तो कन्हाई और फूलमती बिसात भर लड़े। नन्हा बनवारी भी
तान-तानकर तीर चलायौ। पर तलवारों के आगे तीर और डंडा का चीज। सौंताल
के पल्ली पार की धरती लाल चक्क हो गयी। थोड़ी देर में राजा के
सिपहिया तलवारों की नोक पे तीन मूड़ उठाये लौट आये।’
इन्दु ने कहा, ‘‘जीजी तीनों मर गये?’’
दादी ने उसाँस भरी, ‘‘हम्बै लाली। तीनोंई ने वीरगति पायी। येईमारे आज
तक सौंताल की धरती लाल दीखै। वहाँ पे सेम उगाओ तो हरी नहीं लाल ऊगे।
अनार उगाओ तो कन्धारी को मात देवै। और तो और वहाँ के पंछी पखेरू के
गेटुए पे भी लाल धारी ज़रूर होवै। ना रानी घर-दुआर छोड़ती ना बाकी ऐसी
गत्त होती।’’
भग्गो और लीला एक साथ बोलीं, ‘‘गलत, एकदम गलत। निर्मोही के साथ उमर
काटने से अच्छा था घर छोडऩा। रानी ने बिल्कुल ठीक किया।’’
विद्यावती में भी साहस का संचार होता। वह पूछती, ‘‘जनै का वजह है,
घर-दुआर और संसार से जितनी प्रीत औरतों को होय उतनी आदमी को नहीं
होय।’’
लीला बोली, ‘‘आदमी जनम का निर्मोही होता है तभी न मरे पे शमशान में
फूँक-पजार करने आदमी जावे हैं, औरत कब्भौ ना जाय।’’
‘‘चलो वह तो शास्त्रों में लिखा कर्तव्य समझो। पर घर में भी बच्चों
से जालिमपना मर्द ज्या दा दिखावै है।’’
इन्दु की तलखी सामने आ जाती, ‘‘औरतें भी कोई कम जालिम नहीं होयँ
हैं।’’
‘‘जे तूने कैसे कही?’’ विद्यावती तन जाती।
‘‘जिस लडक़ी के माँ-बाप खतम हो जायँ उसका पीहर भाभियाँ छुड़ायें हैं,
भाई नहीं।’’ इन्दु कहती।
यह ऐसा समय होता जब भग्गो के सिवा सब अपना-अपना निर्मोही याद करतीं।
पति के जीवन से बाहर खड़ीं ये तीन उपेक्षिताएँ अपनी सीमाओं पर भी
सोच-विचार नहीं करतीं। उन्हें लगता उनके जीवन का समस्त दुख बेमेल
जीवन-साथी के कारण है।
तभी किसी बच्चे को शू-शू आ जाती और समस्त महिला-मंडली झटके से
वर्तमान में लौटती। वैसे खुले आकाश के नीचे लेटकर साँस लेने मात्र से
इतनी ताज़गी फेफड़ों में भर जाती कि अगले बारह घंटों तक काम आती। लीला
को छत पर सोना बहुत पसन्द था। वही शाम छ: बजे से दौड़-दौडक़र छत पर
सामान चढ़ाती, बिल्लू को नहला-धुलाकर पूजा के पाट पर बैठाती और
विश्वकर्मा पर ध्यान लगाने लगतीं। इतनी मुश्किलों के बीच उसे यह
तसल्ली होती कि उसके तीन बेटे हैं, बेटी कोई नहीं। ये पल-पुस जाएँ तो
अपने आप घर सँभाल लेंगे, वह सोचती।
मन्नालाल के बारबार घर से चले जाने का संकेतार्थ उसकी समझ आने लगा
था। मन्नालाल घर से नहीं अपने से भागे फिरते थे। जब उन्हें लगता कि
घर उनहें अपनी सर्वग्रासी गुंजलक से लील रहा है, वे भाग खड़े होते।
अथवा यह एक तिहाजू पति का अपनी नई-नकोर पत्नी से परिताप-पलायन था।
इन्दु की समस्या लीला से बिल्कुल अलग थी। उसके पति के अनुराग, उत्ताप
और उत्तेजना में कहीं कोई कमी नहीं थी, फिर भी वह यहाँ ससुराल में
उपेक्षिता का जीवन जी रही थी। कभी-कभी उसका जी एकदम विरक्त हो जाता।
सास-ससुर आवाज़ लगाते रहते, ननदें टहोके मारतीं, वह एकदम जड़,
निस्पन्द, चौके के पटरे पर बैठी चूल्हे की लपट देखती रहती। वह न
बोलती, न डोलती। केवल जब मुन्नी घुटनों के बल घिसटती आकर कहती,
‘‘मम्मी टुक्की।’’ वह एकदम से जाग जाती और लपककर बच्ची को गोद में ले
लेती।
मुन्नी ने अभी तक पैदल चलना शुरू नहीं किया था। उसकी टाँगों में ताक़त
नहीं थी। घर के सब बड़े बच्चे उसे मालगाड़ी कहते और उसके सामने
एक-दूसरे की कमीज़ पकडक़र धीमे-धीमे कहते, छुकऽऽ छुकऽऽ छुकछुक। तब बेबी
उसके पास जाकर अपनी नन्हीं बाँहों से छाँह बना लेती और कहती, ‘‘मेली
मुन्नी को चिढ़ाओ मत, मैं मालूँगी।’’
30
नानकनगर वाले मकान की दाहिनी ओर के दो कमरों का हिस्सा, लाला नत्थीमल
ने, एक वैद्यजी को किराये पर दे दिया था। वैद्यजी ने एक कमरे में
‘पुनर्नवा’ साइनबोर्ड से अपनी पुरानी प्रेक्टिस की नयी शुरुआत की।
उनके आने से एक आराम यह हो गया कि परिवार में छोटी-मोटी तकलीफों के
लिए तुरन्त दवाई वैद्यजी से मिल जाती। विद्यावती की पीठ का फोड़ा
जब-तब पनप जाता। वैद्यजी ने नासूर देखकर एक भूरे रंग के पाउडर की
ख़ुराक खाने को दी और मलहम की डिब्बी लगाने को। जब विद्यावती नियम से
दवा खा और लगा लेतीं उन्हें फोड़े में कुछ आराम आ जाता लेकिन दवा
लेने में वे बेहद अनियमित थीं। अगर भगवती याद न रखे तो वे दवा लेना
भूल जातीं और फोड़े में फिर चीस उठ जाती। वैद्यजी के बच्चे अभी छोटे
थे, उनमें से कोई भी स्कूल नहीं जाता था। उनकी पत्नी विशाखा अच्छे
स्वभाव की थी लेकिन वह तीन बच्चों से इतनी अकबकाई रहती कि उसे कभी
पड़ोस में बैठने बतियाने की फुर्सत न मिलती। विद्यावती को यह शिकायत
रहती कि घर की घर में उन्हें मुँह बाँधकर बैठना पड़ता है,
किरायेदारिन कभी बात नहीं करती। लाला नत्थीमल मगन थे कि वैद्यजी ठीक
पहली को उनके हाथ में किराये के बीस रुपये रख देते हैं।
सबसे पहले बच्चों ने आपस की दूरियाँ ख़त्म की। वैद्यजी की बिटिया पूजा
बेबी की उम्र की थी। उसकी गेंद लुढक़ती हुई आँगन की नाली में पहुँच
गयी। बेबी ने नाली से गेंद निकालकर पूजा को दी। दोनों ने एक-दूसरे को
नाम बताया। बेबी अपना नाम प्रतिभा बोल नहीं पाती थी। कोई उससे नाम
पूछे तो वह कहती पपीता। सुननेवाला अगर हँस पड़ता तो वह रोने लगती।
पूजा का उच्चारण साफ़ था लेकिन वह उसे बेबी कहने लगी। पूजा के दोनों
भाई हेमन्त और वसन्त उससे छोटे थे।
मुन्नी दो साल की होकर भी अभी पैदल नहीं चल पाती थी। वह घिसट-घिसटकर
बड़ी बहन के पीछे चल पड़ती। जब उसे आँगन में बैठाया जाता वह घुटनों
के बल वैद्यजी के घर चली जाती।
एक शाम मुन्नी इसी तरह वैद्यजी के कमरे में पहुँच गयी जहाँ उनके
तीनों बच्चे चेचक के प्रकोप से पीडि़त एक ही बिस्तर पर पड़े थे।
विशाखा ने बच्ची को कमरे मे आने से रोकने की कोशिश की पर ज़मीन पर लगे
बिस्तर पर मुन्नी झट से सरक आयी। वह बच्चों को छूकर जगाने लगी,
‘‘भइया उठो, भइया उठो।’’ विशाखा ने उसे गोद में भरकर इन्दु के पास
पहुँचाया।
‘‘दीदी इसे सँभाल लो। हमारे बच्चे बुखार में तप रहे हैं।’’ उसने कहा।
इन्दु ने पूछा, ‘‘कैसा बुख़ार है?’’
‘‘क्या पता मियादी लगे जनै।’’ विशाखा चेचकवाली बात छुपा गयी।
तीसरे दिन मुन्नी के पेट पर लाल रंग की मरोरियाँ उभर आयीं।
देखते-देखते बदन तपने लगा और शाम तक बच्ची निढाल हो गयी।
विद्यावती बोलीं, ‘‘इन्दु, लाली को तो शीतला माता आय वाली लगैं।’’
इन्दु का जी धक् से रह गया। उसे लगा हो न हो यह वैद्यजी के घर से ही
छूत आयी है।
उसने अपना खटका सास को बताया। विद्यावती दनदनाती वैद्यजी के घर में
घुस गयी। विशाखा बच्चों के खुरंडों पर चन्दन का तेल रुई के फाहे से
लगा रही थी। विद्यावती ने कहा, ‘‘च्यों वैदजी, आपको येई घर मिला था
बीमारी फैलाने को। बता नहीं सकते थे। हमारी लाली को माता निकर आयी,
इसका हरजाना कौन भरैगो।’’
वैद्यजी बोले, ‘‘हम तो पहले सेई परेशान हैं। तीनों बच्चे बीमार पड़े
हैं। आप अपने बच्चन सँभालकर रखें।’’
इन्दु के पास भाई की दी हुई दवाओं की पुडिय़ा थीं। उसकी समझ नहीं आया
इतने छोटे बच्चे को कितनी खुराक दवा दी जाए।
उन लोगों ने घर में नीम का धुँआ किया, लाल दवाई से बच्ची के हाथ-पैर
और पेट पौंछे पर बदन पर दाने फैलते चले गये। बच्ची के मुँह, कान,
जीभ, आँख से लेकर पैरों के तलुवों तक में दाने फबद आये। लालाजी भी
मुन्नी की बीमारी से घबरा गये। डॉ. टोपा को फीस देकर घर बुलाया गया।
उसने कहा, ‘‘अब तो रोग ने पकड़ लिया है। बच्चे के आसपास सफाई रखें,
बाकी बच्चों को दूर सुलायें। बड़े जोर की चेचक निकली है। इसमें यह
बच्ची अन्धी, बहरी, गूँगी कुछ भी हो सकती है। बुखार कम करने की दवा
मैं भिजवा देता हूँ, तब तक सिर पर गीली पट्टी रखें।’’
अब असली दिक्कत थी बेबी को अलग रखने की। वह बार-बार मुन्नी के पास
जाने की जिद करती। तंग आकर यह तय किया गया कि बेबी को लीला बुआ के
पास भेज दिया जाए। वह लीला से हिली हुई थी। फिर बिल्लू-गिल्लू और
दीपक के साथ उसका मन भी लग जाएगा।
दादाजी ने एक पोस्टकार्ड कवि को डालकर जता दिया कि बच्ची बीमार है।
इन्दु को जैसे कारावास हो गया। उसके कपड़े, बर्तन सब अलग कर दिये
गये। लालाजी ने वैद्यजी से हाथ जोड़ दिये, ‘‘वैद्यजी आप मकान खाली कर
दें, हमारा छोरा बहुत नाराज हो रहा है।’’
वैद्यजी ने कहा, ‘‘लालाजी अब तो बच्चे ठीक हो रहे हैं।’’
‘‘अब बच्चे हैं, हारी-बीमारी लगी ही रहेगी। वैसे भी हमें जगह छोटी
पड़ रही है।’’ लालाजी बोले।
‘‘देखिए दवाखाने की जगह रोज नहीं बदली जाती। आप कहें तो मैं किराया
बढ़ा दूँ।’’
लालाजी ने जी कड़ा कर कहा, ‘‘नहीं वैद्यजी, आप हमें माफ करें,
जयरामजी की।’’
वैद्यजी के मकान खाली करने पर इन कमरों में नीला थोथा डालकर पुताई
करायी गयी, वहाँ हवन हुआ, उसके बाद ही वहाँ घर का सामान रखा गया।
जब कविमोहन घर आया, मुन्नी का बुख़ार कम हो गया था लेकिन चेचक के दाने
फुंसी-फोड़े में बदल गये थे। एक बार को कवि अपनी बच्ची को पहचान ही
नहीं पाया। पहले से दुबली मुन्नी अब सूखकर कंकाल मात्र रह गयी थी।
उसकी बोलने, सुनने की सामथ्र्य जैसे लुप्त हो गयी थी। उसके साथ-साथ
इन्दु भी सूखकर काँटा बन गयी थी।
पहले कविमोहन खिन्न हुआ। फिर अवसन्न हुआ। उसके बाद वह यकायक फट
पड़ा,‘‘जीजी मैं इन लोगों को कौन के भरोसे छोड़ गया था। आपके भरोसे।
इनकी जे का गत बनायी तुमने! मैं आधी तनखा दादाजी को भेजता रहा। जाई
मारे कि इन्हें रोटी मिलती रहे। वोहू ना दे पाईं तुम। इससे तो अच्छा
होतौ इन्हें फूँक-पजारकर मोय बुलातीं।’’
अब पिता सामने आये, ‘‘तोय अपनी धी-लुगाई दीखीं, तूने मैया का जीव
नायँ देखौ, छोरी के लिए बरत-उपास कर-करके, कै छटाँक की रह गयी है।’’
‘‘हमने तौ भैया छोरी-छोरा में कछू फरक नायँ कियौ। पूछ लो बाकी मैया
से। माता आय गयी तो हम का करें। हमसे पूछकर तो आयी नायँ।’’
विद्यावती को थोड़ा ढाँढ़स बँधा। बोली, ‘‘डागदर हम बुलाये, बसौढ़ा हम
पूजे, नजर हम उतरवाये, पूछ लो या बहू से, कौन जतन नहीं किये।’’
वाकई पिछले चार दिनों से दादी रोज़ सुबह मुन्नी के कान के पास ले जाकर
थाली बजातीं और कहतीं, ‘‘मुन्नी उठ लाली, देख भगवान भास्कर कह गये
हैं जो जागत है सो पावत है, जो सोवत है सो खोवत है।’’
असहाय आक्रोश से खलबलाते कविमोहन ने अपना कुरता कन्धे पर से चीरकर
तार-तार कर डाला, ‘‘तुम्हीं बताओ जीजी, दादाजी, मैं नौकरी करूँ या
बच्चे पालूँ?’’
कई दिनों बाद रात में नहाकर इन्दु पति के कमरे में आयी। हथेलियों की
कैंची बना, सिर के नीचे रखकर कवि छत की कडिय़ाँ ताक रहा था।
चिन्तामग्न कवि की इस मुद्रा से पत्नी अच्छी तरह परिचित थी।
गिले-शिकवों से गले-गले भरी इन्दु के पास धीरज की जमापूँजी नि:शेष हो
चुकी थी। इस वक्त उसे यही लग रहा था पति ने उसे गुलामी के गहरे गड्ढे
में धँसाकर अपनी आज़ादी कमाई है। छठे-छमासे आकर डाँट-डपट करने के सिवा
और कौन-सी जिम्मेदारी निभाते हैं ये।
क्रोध के अतिरेक के बाद कवि का मन वैरागी होने लगा। यहाँ वह
भाग-भागकर क्यों आता है जहाँ एक पल का चैन नहीं है। यह घर उसकी उड़ान
को अवरुद्ध करता है। इस विशालकाय मकान से ज्यायदा गुँजाइश उस आधे
कमरे में है जो उसने कूचापातीराम में ले रखा है। वहाँ वह जब चाहे
अपनी डायरी उठाकर कविता लिख सकता है। जब चाहे बिजली का खटका दबाकर
पुस्तक पढ़ सकता है। किताबों से भरी एक आलमारी उसके पास है। यह
स्त्री जिसका नाम इन्दु है, अगर उसे नहीं समझेगी, ज़रूर पीछे छूट
जाएगी। उसके सामने प्रगति का अनन्त आकाश है। यहाँ घर के लोग उसे पीछे
धकेलते हैं, ये उसे कुएँ का मेंढक बनाना चाहते हैं।
इन्दु पति का मनोविज्ञान पहचानकर बोली, ‘‘मुन्नी रात में रोती है,
मैं उसके पास जाती हूँ।’’
बगल में पड़ी चारपाई पर मुन्नी सो रही थी। वहीं इन्दु जाकर लेट गयी।
शरीर को अनिवार्यता रात के एक लमहे में उन्हें पास लायी लेकिन उसके
बाद वे अपने-अपने बिस्तर पर कैद हो गये।
सुबह उठते ही कवि को दिल्ली के दस काम याद आ गये। माँ-बाप ने बार-बार
कहा कि एक दिन रुक जा, कवि नहीं माना। उसकी दलील थी जो होना था हो
गया, मेरे किये अब कुछ न होगा।
स्टेशन जाते समय, उसने ताँगा गली रावलिया की तरफ़ मोड़ लिया। बेबी घर
के सामने इक्कड़-दुक्कड़ खेल रही थी। उसे प्यार से घपची में ले कवि
ने उसके हाथ पर पाँच का नोट रखा और बिल्लू-गिल्लू व दीपक को प्यार कर
चला गया। ताज्जुब कि परिवार से अलग होकर उसे तसल्ली का अहसास हुआ।