39
प्रतिभा अग्रवाल न जाने कब टीनएजर से सीधी वयस्क हो गयी। यह परिवर्तन नृत्य-भारती
संस्थान आते-जाते हुआ या वाडिया कॉलेज आते-जाते अथवा यह युवा-समारोह में जाकर हुआ,
इसकी पड़ताल करना बेहद मुश्किल था लेकिन यह एक बेहद जटिल स्विचओवर, बहरहाल, हो गया।
अभी तक जो लडक़ी अपने पापा की हर बात को एक भक्त की दृष्टि से देखा करती अब नास्तिक
की दृष्टि से देखने लगी। कवि दफ्तर से आकर दफ्तर के कारनामे सुनाता, प्रतिभा कन्नी
काटकर अपने कमरे में चली जाती। रातों में वह फुस-फुस मनीषा को बताती, ‘‘पता है
मुन्नी, पापा को दफ्तर के लोग ज़रा भी पसन्द नहीं करते। उन्होंने प्रोड्यूसरों का
जीना हराम कर रखा है। मुझे निसार सर ने बताया, जितना मैं रेडियो स्टेशन पर तबला
बजाकर कमा रहा हूँ इससे तिगुना मैं घर बैठे कमा लूँगा।’’
‘‘वह कैसे?’’
‘‘बड़ी-बड़ी नृत्यांगनाओं के शो होते रहते हैं। वे मुँहमाँगे दामों पर तबला संगतकार
बुलवाती हैं। अपने साजिन्दों को विदेश तक ले जाती हैं। नाच की जान तबले में बसी
होती है।’’
‘‘बोल और गाने में नहीं होती।’’ मनीषा पूछती।
‘‘थोड़ी-थोड़ी सबमें होती है पर सबसे ज्याछदा तबले में।’’
‘‘निसार सर पापा की बुराई क्यों करते हैं?’’
प्रतिभा बुरा मान जाती, ‘‘वे बुराई थोड़े ही करते हैं। वे सचाई बताते हैं। आकाशवाणी
में प्रोग्राम का जिम्मा प्रोड्यूसरों का है। संगीत के प्रोड्यूसर नगेन्द्र गौतम
अच्छे आदमी हैं पर पापा उनके ऊपर अफ़सरी झाड़ते हैं, कहते हैं तीन महीने का प्लान
बनाकर मीटिंग में पेश करो, फिर लाल पेन से उनके कागज़ों पर निशान लगा देते हैं कि इस
कलाकार को हर बार क्यों ले रहे हो, उस कलाकार को क्यों नहीं लिया? अगर कोई बड़ी
कलाकार स्टूडियो में आ जाय तो खुद जाकर कंट्रोलरूम में बैठ जाते हैं।’’
मनीषा समझ न पाती कि इन बातों में बुराई क्या थी। बहन से झगड़ा न हो जाय इसलिए वह
उसके कमरे से हट जाती। मनीषा जानती थी कि पापा रेडियो में प्रोग्राम प्रसारण की
गुणवत्ता से कोई समझौता नहीं कर सकते। वे कहते, ‘‘मेरे पद का नाम है प्रोग्राम
एक्ज़ीक्यूटिव यानी कार्यक्रम को कार्यान्वित करनेवाला। रेडियो में कोई भी
प्रोग्राम मुझसे ओके करवाये बग़ैर नहीं जाएगा।’’ केन्द्रनिदेशक चावला कविमोहन को
बोलने देते क्योंकि वे उनकी योग्यता से प्रभावित थे। वे कहते, ऐसा आदमी रेडियो को
बड़ी मुश्किल से मिलता है जिसे प्रशासन और प्रोग्राम दोनों की समझ हो।
ऑल इंडिया रेडियो का नाम आकाशवाणी अब ज़ोर पकड़ गया था लेकिन जनता के बीच में अभी भी
रेडियो स्टेशन नाम ही चलता। धीरे-धीरे सूचना और प्रसारण मन्त्रालय ने रेडियो में
प्रोड्यूसर-स्कीम लागू कर दी। उच्चस्तरीय बैठक में यह तय किया गया कि प्रोग्राम की
देखभाल और प्लानिंग का काम विषयगत विद्वानों को सौंपा जाए। यह किसी ने नहीं सोचा कि
क्या विद्वानों को रेडियो जैसे तन्त्र की अभियान्त्रिकी का ज्ञान है। वरिष्ठ
साहित्यकारों, संगीतकारों और कलाकारों की प्रोड्यूसर पद पर नियुक्तियाँ की गयीं।
बुद्धिजीवियों के बीच इस सरकारी क़दम का व्यापक स्वागत हुआ। लेकिन रेडियो के वरिष्ठ
अधिकारियों को काफ़ी तकलीफ़ हुई।
प्रोग्रामों का रचनात्मक पक्ष अब पूरी तरह से प्रोड्यूसरों के हाथ में चला गया।
अफ़सरों के जिम्मे महज़ दफ्तर का अनुशासन रह गया।
अनुशासन कवि की जीवन-शैली बन गया था। पर वह अनुशासन के बटन कई बार ज़रूरत से ज्यासदा
कस देता।
काम करनेवाला बिलबिला उठता।
ननकू ऐसे ही एक दिन चला गया। पचास साल का अधेड़ नौकर। रात में बिस्तर पर उसने चादर
बिछायी। कवि वहीं खड़ा था। उसने कहा, ‘‘चादर टेढ़ी बिछी है।’’ ननकू ने दायें-बायें
खींचकर चादर सीधी की। कवि ने कुछ ज़ोर से कहा, ‘‘अभी भी टेढ़ी है।’’
‘‘हमसे नहीं होता,’’ कहकर ननकू अन्दर जाने लगा। कवि ने उसे कन्धे से पकडक़र धमकाया,
‘‘कान पकडक़र उठक-बैठक लगा और बोल अब से चादर टेढ़ी नहीं बिछाऊँगा।’’
ननकू ने कान तो पकड़े पर कुछ बोला नहीं। रोनी सूरत लिये वह आँगन में आ गया। सुबह जब
घर के लोग उठे, देखा पीछे का दरवाज़ा उढक़ा हुआ है और ननकू ग़ायब है।
इन्दु को बहुत तकलीफ़ हुई। डेढ़ साल पुराना, घर का काम सीखा हुआ नौकर एक रात में काम
छोड़ गया। पर कवि को कोई अफ़सोस नहीं हुआ। बोले, ‘‘गलती उसकी थी, मेरी नहीं।’’
बेटियों पर भी उनका अनुशासन बहुत कठोर था। दरअसल कवि को हर समय एक ही धुन सवार
रहती, दूसरों के निर्माण और सुधार की। गर्मी की लम्बी छुट्टियों में वे बच्चों को
कभी दोपहर में सोने की छूट नहीं देते। वे सुबह ही उन्हें कोई मोटी-सी किताब पकड़ा
देते, डॉ. राजेन्द्र प्रसाद या पंडित नेहरू की आत्मकथा और कहते, ‘‘इसका एक चैप्टर
पढक़र याद करना, मैं ऑफिस से आकर पूछूँगा।’’ मनीषा को महापुरुषों की आत्मकथाओं या
जीवनियों से वितृष्णा उसी उमर से शुरू हुई थी। कभी इन महापुरुषों के संघर्ष-काल में
वह कोई तारीख़ भूल जाती तो पापा तुरन्त होमवर्क दे देते, ‘‘चलो, यह चैप्टर तीन बार
लिखकर दिखाओ।’’
सख्ती का आलम ऐसा था कि रोज़ बेबी जो पूना में रोहिणी भाटे के स्कूल में कत्थक सीख
रही थी, उससे कहा जाता, ‘‘दिखाओ, आज कौन-से स्टेप्स सीखे तुमने।’’
घर का सामान बाज़ार से ख़रीदकर लाना मुन्नी के हिस्से का काम था। कॉलेज से लौटने के
बाद उसका काफ़ी समय बस दौड़ते बीतता। कभी घर में बेसन ख़त्म तो कभी बिस्किट-ब्रेड।
फिर बिजली का बिल, गैस सिलिंडर का इन्तज़ाम सब मुन्नी के जिम्मे। जैसे ही वह सामान
लेने बाहर निकलती, कवि फुटनोट लगा देते, ‘‘देख पैसे ठीक से सँभाल और सुन रसीद ज़रूर
लेकर आना।’’
मनीषा का दिमाग भन्ना जाता। यह एक हिदायत सुन-सुनकर उसके कान पक गये। सब्ज़ी ख़रीदते
हुए वह सोचती, ‘पाव भर भिंडी और आध किलो बैंगन की रसीद कैसे मिले। रास्ता चलते,
सौदा ख़रीदते, वापस आते वह सोचती, पापा का नाम कविमोहन नहीं रसीदमोहन होना चाहिए था।
रसीद कच्ची हो या पक्की, होनी ज़रूर होती।
घर में हर रोज़ ख़र्च लिखा जाता। एक भूरे रंग का किरमिच का रजिस्टर था। उस पर खड़े
हाशिये डालकर रोज़ का ख़र्च दर्ज होता। पहले कवि लिखा करते पर जब से दफ्तर का काम
बढ़ता गया कवि ने यह महकमा इन्दु को सौंप दिया। इन्दु ऐसे लिखतीं : –) मिरची, =)
अदरक, º) धनिया। तब रुपये-आने चलते थे। अक्सर घर में एक रुपये की सब्ज़ी आती, एक
रुपये का फल। एक रुपया लेकर कवि दफ्तर जाता। एक रुपये रोज़ का दूध आता।
लेकिन रोज़ रात माँ बिस्तर पर बैठ हिसाब मिलाकर कहतीं, ‘‘बाप रे! आज तो बड़ा ख़र्च हो
गया।’’
मनीषा हँसती, ‘‘माँ ज्यारदा कहाँ एक-एक रुपया ही तो ख़र्च हुआ है।’’
‘‘एक-एक कर ही तो सारे रुपये निकल जाते हैं। तेरे पापा इत्ती मेहनत करते हैं, कभी
इन्हें चवन्नी का दही न खिला सकी।’’
दोनों के बीच में ऐसा प्रेमतन्तु था कि उनमें कभी विवाद या संघर्ष भी न होता।
कवि रोज़ डायरी लिखते। पहले बेटियाँ सोचती थीं कि पापा भी ख़र्च का हिसाब लिखते हैं।
वे आपस में चुहल करतीं कि कैसे दो आदमी मिलकर सारा दिन ख़र्च का हिसाब लिखते हैं पर
हिसाब है कि निपटने में ही नहीं आता।
बहुत बाद में पापा की एक पुरानी डायरी मनीषा के हाथ पड़ गयी। उसने जल्दी-जल्दी उसके
पृष्ठ पलटे। उसमें कहीं कोई ख़र्च का हिसाब नहीं लिखा था। उसमें पापा के विचारों का
गंगासागर था। उन सुभाषितों से उनके सौन्दर्यबोध, विचार-सम्पदा, बौद्धिक ऐश्वर्य और
मौलिक चिन्तन का परिचय मिलता था। वे कभी आधी रात में उठकर टेबिल लैम्प जलाकर लिखते,
कभी भोर में जाग जाते। वे पढ़ते, प्रतिक्रियायित होते और स्फुट विचार लिखते। उन पर
किसी वाद, प्रतिवाद का प्रभाव या बन्धन नहीं था। कई बार प्रगतिवादी मित्रों ने
इन्हें प्रगतिशील साहित्य गोष्ठियों में प्रतिबद्ध साथी की तरह दर्ज करना चाहा पर
वहाँ जाकर वे सृष्टि के रहस्य और अलौकिक शक्तियों की मीमांसा पर भाषण झाड़ आये।
जहाँ किसी तात्त्विक विषय पर शाश्वत चिन्तन होता वहाँ वे समाज की समकालीन समस्याओं
पर बोलने लगते। उन्हें अपने बारे में विभ्रम बनाये रखना अच्छा लगता।
अकेले में वे इन्दु से कहते, ‘‘सरकारी आदमी को केवल अपने कर्तव्य से बँधा होना
चाहिए। विचारधारा से बँधना अपने गले में चौखटा बाँधना है।’’
इसमें कहीं उनका असुरक्षा-बोध भी शामिल रहता। उन दिनों प्रतिबद्ध होने का अर्थ
कम्युनिस्ट होना होता था और कम्युनिस्ट का ठप्पा लगते ही नौकरी से हाथ धोना पड़ता।
तब भी देश में लोकतन्त्र था लेकिन लोकतन्त्र के एक हिस्से को हमेशा शक की निगाह से
देखा जाता था। हालाँकि माक्र्सवादी और कांग्रेसी दोनों अपनी-अपनी तरह के
क्रान्तिकारी रहे थे, एक के हिस्से सत्ता आयी थी तो दूसरे के हिस्से संघर्ष। कवि से
जब कोई उसकी राजनीतिक विचारधारा जानना चाहता वह टाल जाता। वह कहता यह न सतयुग है, न
कलियुग, यह तो छद्मयुग है। इसमें सावधान रहना ही सबसे अच्छा है। जो हो उससे उलट
प्रचारित करो तभी सुरक्षा है। वह रैक में सबसे सामने किताब रखता ‘द गॉड दैट फेल्ड’।
फिर भी दफ्तर में छोटी-बड़ी बातों पर लडऩा उसके स्वभाव का अंग था। एक बार एक
संगीत-सभा में रसूलनबाई पधारीं। ऐन उस समय जब संगीत-सभा शुरू होनी थी, उनका पनडब्बा
खो गया। बिना पान मुँह में दबाये, वे गाती नहीं थीं। ऐसा लगा जैसे उनका कार्यक्रम
नहीं हो पाएगा। रेडियो स्टेशन में उनके पनडब्बे की ढूँढ़ मची। अन्त में दफ्तर के
चपरासी, ढोंढू बुवा ने मंच के तख्तम के नीचे से उनका पनडब्बा ढूँढ़ निकाला।
संगीत-सभा न होने का संकट टल गया। बनारसी पान की गिलौरी मुँह में दबा रसूलनबाई ने
ठुमरी के बोल उठाये ‘बैरन भई रतियाँ’। अगले रोज़ एक पैक्स अजय श्रीवास्वत ने दावा
किया कि पनडब्बा उसने ढूँढ़ा था। उसे इसका क्रेडिट मिलना चाहिए। कवि भिड़ गया। उसने
कहा, ढोंढू बुवा ने जब पनडब्बा ढूँढ़ा वह वहीं था। अजय श्रीवास्तव फिज़ूल में तिल का
ताड़ बना रहे हैं।
रेडियो में अजय श्रीवास्तव जैसी मानसिकता के लोगों की बहुतायत होती जा रही थी। वे
काम कम और काम का शोर ज्यायदा करते। और भी दस किस्म की कमज़ोरियाँ उनमें थीं। ड्रामा
विभाग में कैज़ुअल कलाकारों का शोषण शुरू से होता आया था। बेचारे कैज़ुअल कलाकार
चुपचाप अफ़सरों और प्रोड्यूसरों की ज्याअदती सहते पर कहते कुछ नहीं। उन्हीं दिनों यह
भी उजागर हुआ कि ड्रामा प्रोड्यूसर हर कैज़ुअल आर्टिस्ट को अपनी रंग मंडली का सदस्य
बनाते हैं। इसके लिए बाकायदा गंडा-बँधवाई का अनुष्ठान होता है। कलाकार अपना एक माह
का मानदेय गुरुदक्षिणा के रूप में प्रोड्यूसर को सौंपता है। महिला कलाकारों का
शारीरिक-शोषण होता है। यहाँ तक कि शहर के लोग धीरे-धीरे रेडियो स्टेशन को रंडियो
स्टेशन कहने लगे।
कवि शिकायत करने में ज़रा भी देर न लगाता। एक बार ड्रामा प्रोड्यूसर गिरधर पांडे कमल
देसाई नाम की कैज़ुअल आर्टिस्ट का चुम्बन लेते हुए स्टूडियो में पकड़े गये। केन्द्र
निदेशक मामले को दबा देना चाहते थे पर कवि ने पत्रकारों को असलियत बताकर तूफ़ान बरपा
कर दिया। स्थानीय अख़बारों में कई दिन तक रेडियो स्टेशन के खिलाफ़ छपता रहा। बात
मन्त्रालय तक पहुँची। केन्द्र निदेशक ने जवाबतलबी में अपनी रिपोर्ट में लिखा कि ये
अफ़वाहें निराधार हैं। प्रोड्यूसर महोदय स्टूडियो में अपनी पत्नी के साथ थे, उस समय
किसी नाटक की कोई रिहर्सल नहीं थी। पति अपनी पत्नी से कहीं भी प्रेम प्रदर्शित कर
सकता है।
प्रोड्यूसर की निरीह पत्नी ने सारी घटना की ताईद कर दी और प्रोड्यूसर की कुर्सी बची
रह गयी लेकिन शहर में मज़ाक बन गया, ‘अपनी बीवी से मुहब्बत करनी है तो रेडियो स्टेशन
आइए।’
40
जिन दिनों कवि रेडियो स्टेशन की गतिविधियों से अघा जाता, वह अपना पूरा ध्यान
किताबों में लगा देता। वह अपनी बेटियों को भी सलाह देता, ‘‘तुम लोग अपना लक्ष्य तय
कर लो, साल भर में कम-से-कम सौ किताबें तुम्हें पढऩी हैं। कोर्स की नहीं, कोर्स की
किताबें तो तोते पढ़ते हैं, साहित्य पढ़ो, दर्शन पढ़ो।’’
बेबी की रुचि नृत्य और संगीत की पुस्तकों में थी। मुन्नी, मनीषा, किताबों से
ज्याकदा घूमने-फिरने, भाषण झाडऩे और वाद-विवाद में हिस्सा लेने में लगी रहती। कवि
कहता, ‘‘देखो, किताब अँधेरे में एक लालटेन की तरह होती है, वह तुम्हारी राह आलोकित
करती चलती है।’’
‘सुनीता’, ‘त्यागपत्र’, ‘परख’, ‘गबन’, ‘गोदान’ और ‘शेखर एक जीवनी’, कवि बच्चों के
कमरे के रैक में रख देता और इन्तज़ार करता कि वे आकर बताएँ, ‘पापा हमने ये सब पढ़
लीं, अब और किताबें दीजिए।’
वह अख़बारों को बड़े सुथरे ढंग से जमा करता जाता। उसकी बैठक के एक कोने में अख़बार और
पत्र-पत्रिकाओं के ढेर लगे रहते। वह एक पुर्जा भी किसी को छूने न देता। उसका विचार
था कि इन सबका इस्तेमाल वह लेखन में उस दिन करेगा जब रिटायर हो जाएगा।
‘‘कब लिखेंगे, वक्त निकलता जा रहा है अग्रवाल साहब।’’ पाठक जी कहते।
‘‘रचना करना और कीर्तन करना एक बात नहीं है। यह नित्य कर्म नहीं, विशिष्ट कर्म
है।’’ कवि कहता।
पाठक जी बुरा मान जाते। उनके यहाँ हर शुक्रवार को ज़ोर-शोर से कीर्तन होता था। उनका
नन्हा पोता शिखर, कीर्तन में ठुमक-ठुमक नाचता। इस आयोजन से पाठक जी सप्ताह भर के
लिए जैसे परिमार्जित हो जाते।
किताबों में लोगों की दिलचस्पी कम होती जा रही थी, यह देखकर कवि क्षुब्ध होता। वह
कहता, ‘‘आनेवाले वर्षों के लिए हम मूर्खों की पीढ़ी तैयार कर रहे हैं, दस-बीस
किताबों पढक़र डिग्री पानेवाले ये मूर्ख, देश को कहीं का नहीं छोड़ेंगे, ये भविष्य
की पीढिय़ों को न विचार दे पाएँगे न दर्शन। किताबों के बिना लोगों के घर कितने नंगे
लगते हैं। ऐसे भी घर होते हैं जहाँ टेलीफोन डायरेक्टरी के सिवा और कोई किताब नहीं
होती, हॉरिड।’’
मनीषा कहती, ‘‘इस मामले में हमारा घर तो बहुत पहना-ओढ़ा लगता है पापा।’’
‘‘बिल्कुल,’’ पापा गर्व से तन जाते, ‘‘यू नेम एन ऑथर, वी हैव हिम ऑन द रैक।’’ वाकई
उनकी ऊँची-ऊँची आलमारियों में शेक्सपियर से लेकर एडवर्ड एल्बी, जॉन ऑसबॉर्न और विजय
तेन्दुलकर सब मिल जाते। उन्हें पता रहता, कौन किताब कहाँ रखी है। घर में अन्दर का
एक कमरा ऐसा था जिसमें सिर्फ एक छोटीसी खिडक़ी थी। उसमें एक लद्धड़ पंखा लटका था जो
आवाज़ ज्याकदा करता, हवा कम देता। वहीं किताबों के ऊँचे-ऊँचे रैक लगे थे। एक रैक के
कोने पर झाडऩ टँगा था। कवि अपना बहुत-सा वक्त इसी कमरे में बिताते। मनीषा भी
कभी-कभी इस कमरे में वक्त बिताती। उसे डिबेट के चक्कर में विवेकानन्द और राममनोहर
लोहिया की पुस्तकें खखोरनी पड़तीं। वह कमरे से पसीना-पसीना जब बाहर निकलती तो
झींकती हुई, ‘‘इस कमरे में एक टेबिलफैन क्यों नहीं लगा सकते हम!’’ पर पापा कहते,
‘‘अलभ है इष्ट अत: अनमोल,
साधना ही जीवन का मोल।’’
किसी छुट्टी के दिन कवि को गोष्ठी या सभा में जाना पड़ जाता। वह कहता, ‘‘बेबी, आज
किताबें तू झाड़ देना।’’
प्रतिभा बिगड़ जाती, ‘‘ना बाबा, मैं उस कमरे में नहीं जाऊँगी। धूलल से मुझे अलर्जी
हो जाती है। पसीने से मेरी स्किन ख़राब हो जाएगी।’’
कवि आहत हो जाता, ‘‘अच्छा मुन्नी, तू झाड़ देना किताबें।’’
फुरसत में कवि परिवार को समझाता, ‘‘यह देखो निराला की ‘अपरा’। इसमें से कोई कविता
लेकर बैठो, कितने अच्छे सान्निध्य में तुम्हारा एक घंटा बीतेगा। और किताब पढऩे में
कुछ ख़र्च भी नहीं होता। जितनी बार पढ़ो, कविता का नया अर्थ सामने आता है।’’
इस पुस्तक-प्रेम ने उसे समृद्ध तो किया था, उसके अन्दर तरह-तरह की काल्पनिक शंकाओं
को भी जन्म दिया था। लोग जीवन से किताबों की समझ विकसित करते हैं, कवि किताबों से
जीवन को तौलता-परखता। लड़कियों का रवैया देखकर कहता, ‘‘मुझे लगता है तुम लोग मुझे
रीगन ओर गॉनरिल की तरह यातना दोगी। मैं ऐसा किंग लियर हूँ जिसके जीवन में
कॉर्डिलिया है ही नहीं।’’
उनकी बात समझने के लिए लड़कियाँ समूचा नाटक ‘किंग लियर’ तो न पढ़तीं पर रात में
चाल्र्स लैम्ब की लिखी ‘टेल्स फ्रॉम शेक्सपियर’ उठाकर ‘किंग लियर’ का सार-संक्षेप
पढ़ जातीं। सुबह मनीषा पापा से उलझ पड़ती ‘‘आपने क्या समझकर मुझे गॉनरिल बनाया। आप
मुझे कॉर्डिलिया नहीं कह सकते थे!’’
बिजली जाने पर इन्दु अगर मोमबत्ती हाथ में लिये दरवाज़े बन्द करती नज़र आती कवि कहता,
‘‘तुम लेडी मैकबेथ की तरह हाथ में मोमबत्ती पकड़े मत घूमा करो, मुझे इसमें
षड्यन्त्र की बू आती है।’’
माँ समझती नहीं थीं इसलिए बुरा भी नहीं मानतीं। उन्होंने पति को भगवान की तरह अपने
जीवन में प्रतिष्ठित कर रखा था। वे पूरे मनोयोग से उनकी सेवा में लगी रहतीं। इन्दु
बड़ी अच्छी श्रोता थीं। दफ्तर से आकर कवि रेडियो की तरह चालू हो जाता, ‘‘चावला ने
आज यह कहा, मैंने उस पर यह कहा। हिन्दी वार्ता के प्रोड्यूसर ने आज लिखा कि
जन्माष्टमी पर ‘श्रीकृष्णजन्म’ शीर्षक वार्ता का प्रसारण हो। मैंने टिप्पणी लिखी कि
द्वारिकाधीश मन्दिर की ओ.बी. के बिना जन्माष्टमी पर किसी भी वार्ता का कोई औचित्य
नहीं है।’’
पापा के दफ्तर-पुराण से बेटियाँ बोर होने लगतीं। यहाँ तक कि दिन भर बजते रेडियो के
प्रति भी वे उदासीन हो जातीं। कभी कोई अच्छी गज़ल या गीत सुन पड़ता तो ज़रूर कान लगा
देतीं पर उनके ज़ेहन में रेडियो सिलोन एक सपने की तरह गूँजता।
प्रतिभा तो धड़ल्ले से पद्मनाभन के घर जाकर बिनाका गीतमाला कार्यक्रम सुनकर आती,
मनीषा घर बैठे ही अन्दाज़ लगाती आज कौन-सा गाना किस पायदान पर होगा। प्रतिभा के पास
गानों की एक मोटी कॉपी थी जिसमें फिल्मी, ग़ैर-फिल्मी गीत लिखे हुए थे।
पड़ोस के पाठक जी आयकर अधिकारी थे। वे कवि के महकमे को ज्याकदा अहमियत नहीं देते।
उन्हें लगता था कि आयकर-विभाग देश की नब्ज़ है। वे छुट्टी की सुबह बरामदे में दिख
जाते। हलो, कैसे हैं की औपचारिकता के बाद वे कहते, ‘‘अब तो इंडिया में टेलीविज़न भी
आ रहा है। अग्रवाल साहब आप रेडियो वाले अब क्या करोगे। कोई नहीं सुनेगा रेडियो।
अपने लिए प्रसारण करते रहो आप!’’
कवि कहते, ‘‘पाँच साल और बूढ़े हो जाओ, तब पूछूँगा, भई रेडियो अच्छा है या टी.वी.।
कुर्सी पर उठंग बैठकर देखना पड़ता है टी.वी.। आँखें अलग चौपट। रेडियो का क्या है,
बैठकर सुन लो, लेटकर सुन लो। घूमते हुए सुन लो; काम करते हुए सुन लो। तुम बाथरूम
जाओ तो यह बाथरूम चला जाएगा, तुम पाखाने जाओ तो पाखाने। रेडियो के समाचार-वाचकों का
उच्चारण देखो, विश्वस्तर का होता है। आपके दूरदर्शन की क्या नाम है आसमां सुलतान एक
ल$फ्ज़ भी सही नहीं बोल पाती, प्रधानमन्त्री को पदानमन्त्री कहती है।’’
पाठक जी निरुत्तर हो जाते। वे अपने घर प्रस्थान कर जाते।
मनीषा कहती, ‘‘पापा आप तो घर आये के एकदम पीछे पड़ जाते हैं। आखिर हर एक को अपना मत
रखने का हक़ होता है।’’
‘‘यह मत नहीं मतिभ्रम है, मेरी बातों में दख़ल मत दिया कर।’’
मनीषा अब तक चश्मा लगाने लगी थी और अपने चश्मे से चीज़ों को देखना भी सीख रही थी।
यह वह समय था जब वह अपने माता-पिता और बहन की खूबियों-खामियों से परिचित हो रही थी।
इसीलिए उस दिन उसे कोई ज्याथदा ताज्जुब नहीं हुआ जब बी.ए. उत्तीर्ण करने के तुरन्त
बाद प्रतिभा ने एक रात घर में घोषणा की, ‘‘मैं बहुत जल्द निसार सर के साथ बम्बई जा
रही हूँ।’’
कवि एकदम से बौखला गया, उसने कहा, ‘‘क्या कहा, ज़रा फिर से तो कहना।’’
प्रतिभा ने दूनी हिमाकत से दुहराया, ‘‘विश मी लक पा, मैं अपने पहले मॉडलिंग
असाइनमेंट पर निकल रही हूँ।’’
माँ ने उबलकर पूछा, ‘‘वह मियाँ भी साथ जा रहा है?’’
‘‘ऐसे मत बोला करो माँ, निसार सर बहुत बड़े कलाकार हैं। विज्ञापन-जगत् में उनकी
बड़ी पहुँच है।’’
‘‘उस बदमाश को मैं कल ही ठिकाने लगाता हूँ। एक मेरा ही घर मिला है उसे बिगाडऩे
को।’’ कवि चिल्लाया।
‘‘उन्होंने कुछ नहीं किया। वे तो मेरी मदद कर रहे हैं। आपने मुझे पहले जाने नहीं
दिया। देखिए उनके मार्गदर्शन में वैजू और सुनयना कितनी तरक्की कर गयीं।’’
‘‘क्या तरक्की कर गयीं। बी.ए. हुआ उनका।’’ कवि ने पूछा।
‘‘दोनों ने अपनी डांस अकादमी खोल ली। बी.ए. की डिग्री का वे क्या करतीं।’’
‘‘तेरा कहने का मतलब पढ़ाई-लिखाई का कोई मतलब नहीं है?’’
‘‘कर तो लिया मैंने बी.ए. इससे क्या होता है। इन्सान के पास हुनर होना चाहिए।’’
‘‘तुझे दुनिया में यही हुनर दिख रहा है कि तू मॉडल बन जाय। यह अकल का नहीं शकल का
धन्धा है।’’ माँ ने कहा।
‘‘इतनी फूहड़ सोच है आपकी माँ। किसी भी कला को इतना मत गिराइए।’’
कवि ने डाँटकर सबको चुप किया। गम्भीर स्वर में उसने कहा, ‘‘देख बेबी, उस आदमी के
साथ तो मैं तुझे हरगिज़ नहीं जाने दूँगा। लोग कहेंगे अग्रवाल साहब की लडक़ी एक तबलची
के साथ भाग गयी। हाँ, अगर वह विज्ञापन कम्पनी, यहीं, पूना आकर तेरा फोटो सेशन करे
तो मैं विचार करूँ।’’
‘‘पापा आप निसार सर को तबलची कहकर उनकी बेइज्ज़ती कर रहे हैं। वे इतने नामी
तबला-कलाकार हैं। जो आप समझ रहे हैं, वह सब गलत है। सर बाल-बच्चेवाली जिम्मेदार
आदमी हैं। वह सिर्फ मेरे कैरियर की फिक्र में जा रहे हैं।
‘‘फिर भी लोगों को यह सब क्या पता? तू खुद सोच, इस बात का आशय क्या निकलता है?’’
‘‘मैं लोगों की परवाह नहीं करती। लोग हमारे किस काम आते हैं!’’
‘‘बेवकूफ़ है तू। समाज के बिना व्यक्ति की कोई जगह नहीं होती। समाज में आज भी विवाह
से पहले लडक़ी का घर से बाहर चला जाना अपचर्चा का कारण बनता है।’’
‘‘पापा आपकी बातें असंगत हैं। वैसे तो आप बड़े मॉडर्न, क्रान्तिकारी बनते हैं। क्या
मैं मानूँ आपकी समस्त शिक्षा-दीक्षा गलत निकली।’’
‘‘बेबी,’’ पापा ने धमकाया, ‘‘तू बड़-बड़ किए जा रही है। जिसे तू बड़ा भारी कैरियर
मान रही है वह कुछ नहीं सिर्फ ऐय्याश लोगों का, लड़कियों को बहकाने का बहाना है।’’
‘‘एक ग़ैर जाति के लफंगे के साथ तुझे कैसे जाने देंगे हम, चुपचाप घर बैठ, टांग तोड़
दूँगी तेरी।’’ माँ ने आखिरी चेतावनी दी।
‘‘दरअसल रोहिणी भाटे, नगेन्द्र गौतम, कुमार साहब जैसे मठाधीशों ने निसार अहमद को
सिर चढ़ा रखा है। मैं अबकी इसका कॉन्ट्रेक्स कैंसिल करवाकर छोड़ूँगा।’’
‘‘आपसे ऐसी ही घटिया बात का खटका था। मुझे सर ने पहले ही कहा था ऐसा आप करेंगे। ठीक
है वे मेरे संग नहीं जाएँगे। यहीं बैठे फोन से सारा इन्तज़ाम कर देंगे पर पापा मैं
अब यहाँ नहीं रहूँगी। आपका यह एम.ए. डी.फिल. वाला रास्ता मैं नहीं चलूँगी।’’
‘‘तो तू रोहिणी भाटे का नृत्य-भारती जॉयन कर ले। नाच सिखाने की तेरी इच्छा पूरी हो
जायगी।’’
‘‘यह आप तय नहीं करेंगे पापा, मैं क्या करूँगी।’’
‘‘तेरे अच्छे के लिए ही कह रहे हैं पापा।’’ माँ ने कहा।
‘‘पापा आप हमें कठपुलती समझते हैं, जैसे मर्जी घुमा दिया, जैसे मर्जी नचा दिया।
बनाओ आप मुन्नी को, जो बनाना है। मुझे मेरे हाल पर छोड़ दो।’’ प्रतिभा सारे घर को
आक्रोश और असन्तोष में फनफनाता छोड़ अपने कमरे में चली गयी।
क्रान्ति का बिगुल बज चुका था। अपनी-अपनी जगह मोर्चे तन गये। मनीषा को मध्यस्थ की
भूमिका निभानी थी। उसके या कोलीन के हाथ प्रतिभा के कमरे में नाश्ता, खाना भिजवाया
जाता। एक-दो बार मनीषा ने दबे स्वर में दीदी को समझाया, ‘‘दीदी तुम एक बार जाकर
पापा को सॉरी बोल दो। इतने दिनों से पापा न सोये हैं, न खाना खा रहे हैं, बस सिगरेट
पिये जा रहे हैं। तुम्हें उनका कोई ख़याल नहीं!’’
प्रतिभा ने भभककर कहा, ‘‘उन्हें मेरा ख़याल है? उन्हें जो प्रयोग करना है अपनी
जिन्दगी से करें।’’
मनीषा पापा को समझातीं, ‘‘पापा आप इतना सोचना छोड़ दीजिए। आप कोई नयी किताब प्लान
कीजिए, आप कोई नयी किताब पढ़िए।’’
जवाब माँ देतीं, ‘‘तुम बेटियों ने बड़ा इन्हें पढऩे-लिखने लायक छोड़ा है न।’’
माँ से बात करना मनीषा को गवारा नहीं। उनमें तर्क नहीं है, बस तेवर और ताने हैं।
एक दिन सवेरे कोलीन प्रतिभा बेबी के कमरे में नाश्ता लेकर गयी तो हड़बड़ाई हुई वापस
प्लेट लेकर आयी, ‘‘बेबीसाब अपने कमरे में नहीं हैं।’’
सब उस कमरे में लपके। वहाँ मेज़ पर किताब से दबाया हुआ छोटा-सा ख़त था जिसमें प्रतिभा
ने लिखा था :
‘‘पापा मेरा इस घर में वक्त ख़त्म हो गया है। बम्बई से मुझे बार-बार बुलावा आ रहा
है। मैं वहाँ, फिलहाल वैजू और सुनयना के साथ गोरेगाँव वाले घर में रहूँगी। दुखी न
हों, आपका शुक्रिया।’’
घर के तीनों सदस्य चीत्कार कर उठे। कोलीन घबरा गयी। वह बोली, ‘‘क्या हुआ बेबी
मेमसाब को? स्यूसाइड करने को गयी क्या?’’
इन्दु ने उसे डपटा, ‘‘बकवास मत कर। बेबी बम्बई गयी है, चिट्ठी में यह लिखा है।’’
‘‘अपना बॉयफ्रेंड के साथ?’’ कोलीन का सवाल था।
मनीषा ने होठों पर उँगली रखकर उसे चुप कराया। कमरे से कोलीन के जाते ही इन्दु
भरभराकर बिस्तर पर गिर गयीं, ‘‘मेरी पली-पलाई लडक़ी चली गयी, बेबी तो मेरी जान थी।’’
कवि ने थरथराते हाथों से प्रतिभा की चिट्ठी आगे करते हुए कहा, ‘‘बीस बरस हमने इसे
बताशे की तरह रखा, जवाब में यह सूखा-सा शुक्रिया थमाकर चली गयी।’’
मनीषा के अलग आँसू बह रहे थे। कवि ने उसे पुचकारकर चुप किया, ‘‘रोते नहीं हैं बेटे।
बेबी अपना पता-ठिकाना बताकर गयी है। कोई पूछे, सुन लो इनी, मुन्नी, यही कहना है,
बेबी भागी नहीं है, काम पर गयी है, उसे जाना ही था, वह पहले ही कह रही थी।’’
मनीषा को घपची में भरकर पापा बोले, ‘‘बेबी हैज़ चीटेड मी। बी फेथफुल टु मी मुन्नी।’’
सन्ताप के उन क्षणों में मनीषा के मन में वचनधर्मिता की उत्ताल तरंगें उठीं। पापा
के सीने से सट उसने अपना सुबकता हुआ सिर हिलाया, ‘‘हाँ पापा, हाँ।’’
दुख में रात जितनी लम्बी और यातनादायक होती है उतनी ही रक्षात्मक भी। रात में समाज
और परिवेश की ताकी-झाँकी से निजात मिलती है। कवि अपने अन्तर्बाह्य के अँधेरों में
उतरकर सोचता रहा बेबी की परवरिश में उन लोगों से कहाँ गलती हुई। बगल के बिस्तर में
जब तब करवट लेती इन्दु की हाय, आह सुनाई पड़ रही थी। धीरे-धीरे ये कराहें बन्द हो
गयीं। कवि को लगा पत्नी की आँख लग गयी है। काफ़ी देर बाद ही उसे लगा जैसे इन्दु की
निश्चलता स्वाभाविक नहीं है। उसने उसे हिलाया, ‘‘इनी, इनी।’’
इन्दु पर बेहोशी छायी थी। कवि ने मुन्नी को आवाज़ दी।
सोयी वह भी नहीं थी। फ़ौरन आ गयी।
इन्दु पर जब-तब बेहोशी के दौरे पड़ते थे। उसका रक्तचाप मन्द हो जाता और हाथ-पैर
ठंडे पड़ जाते। मनीषा ने माँ के मुँह में कॉरामीन की बूँदें ज़बरदस्ती टपकाईं, पानी
के छींटे डाले और उनके पैरों के तलवे मले। थोड़ी देर में इन्दु ने आँखें खोल दीं और
बेबी-बेबी पुकारने लगीं। एक बार फिर तीनों पर रुलाई का दौरा पड़ा।
संयत होने पर कवि ने पूछा, ‘‘इन्दु, बेबी के पास रुपया-धेला कुछ है या बस यों ही
चप्पल पहनकर निकल गयी!’’
इन्दु ने याद किया, ‘‘मेरे पास उसने अपने पाँच सौ रुपये जमा कर रखे थे। अभी परसों
ही मुझसे माँग लिये कि मम्मी मेरे रुपये दे दो?’’
‘‘और तुमने दे दिये?’’
‘‘उसने कहा किताबें खरीदनी हैं उसे। फिर ये उसी के इनामों के पैसे थे।’’
‘‘न तुम देतीं, न वह जाती।’’ कवि पछताने लगा।
‘‘इत्ती बड़ी बम्बई में पाँच सौ रुपये पाँच घंटे भी न चलें। अकड़ू वह इतनी है कि मर
जायगी, उधार नहीं माँगेगी।’’
मनीषा बोली, ‘‘जिन्होंने उसे बुलाया है, वे देखभाल भी करेंगे।’’
दफ्तर में निसार अहमद ने पहले की तरह ही कविमोहन का आदाब किया। कवि का मन हुआ एक
चपत उसके चेहरे पर लगाकर पूछे, ‘‘कहाँ भगाया तूने मेरी बेटी को, बोल।’’ बड़ी
मुश्किल से उसने अपना गुस्सा पिया, सिगरेट के लम्बे कश के साथ।
दफ्तर में सारा दिन कवि का मूड उखड़ा रहा। वह बार-बार घड़ी देखता, पाँच बज ही नहीं
रहे थे। प्रोड्यूसरों को थोड़ा ताज्जुब हुआ कि आज अग्रवाल साहब स्टूडियो और कंट्रोल
रूम में एक भी बार नहीं झाँके। उन्होंने आपस में कहा, ‘‘लगता है अग्रवाल साहब की
तबीयत नासाज़ है या ऊपर से झाड़ पड़ी है कि हमारे काम में दख़लन्दाज़ी छोड़ो।’’
रेडियो स्टेशन का रिवाज़ था कि यहाँ हर नयी बात को सीधे मन्त्रालय से मिली
डाँट-फटकार का असर समझा जाता। सूचना प्रसारण मन्त्री शास्त्रीय संगीत के ज्ञाता भी
थे इसलिए कलाकारों के मन में विश्वास बना रहता कि वे जो भी करेंगे कलाकारों के हित
में करेंगे।
कई महीनों के बाद डाक से प्रतिभा की चिट्ठी आयी। सबसे पहले पत्र-पेटी में पड़ी
चिट्ठी पर मनीषा की नज़र पड़ी। चिट्ठी लेकर वह पत्ता-तोड़ अन्दर भागी।
‘‘दीदी की चिट्ठी, मम्मी पापा देखो।’’
सब बैठक में इकट्ठे हो गये।
कवि ने ख़त खोला। पूरे दो पन्नों का था। प्रतिभा ने पूरी तफ़सील से अपने फोटो सेशन और
इंटरव्यू के बारे में बताया था। वह उम्मीद से भरी हुई थी कि बहुत जल्द किसी अच्छी
विज्ञापन एजेंसी का उसे कॉन्ट्रेक्ट मिल जायगा। अन्तिम पंक्तियों में उसने लिखा था
मम्मी आप फिक्र मत करना। यहाँ वैजू, सुनयना ने पूरी गृहस्थी जमा रखी है, बिल्कुल घर
जैसा खाना मिल रहा है। मनीषा के लिए लिखा था, ‘‘मुन्नी मेरे पैर जम जाएँ तो तुझे
बम्बई बुलाऊँगी। अभी चौपाटी, कमला नेहरू पार्क, मछली-घर कुछ नहीं देखा, तेरे साथ
घूमूँगी।’’
कुछ देर को कवि-परिवार में आल्हाद छा गया। बहुत दिनों के बाद आज नाश्ता स्वादिष्ट
लगा। कवि ने कहा, ‘‘अकल तो प्रतिभा में बहुत है पर गलत दिशा में लगा रही है। उसे यह
नहीं पता मॉडलिंग में कैरियर मुश्किल से दस साल का होता है। तीस की होते ही मॉडल को
बाहर का दरवाज़ा दिखा दिया जाता है।’’
इन्दु बोलीं, ‘‘उसने घर छोड़ा नहीं है। विज्ञापन का काम बम्बई में होता है इसलिए
चली गयी। देखा, कैसे अच्छे से लिखी है चिट्ठी।’’
कवि एक बार और पढऩे के लिए चिट्ठी अपने कमरे में ले गया। उसके चेहरे पर अवसाद और
सन्तोष के धूप-छाँही बादल मँडरा रहे थे। मन में अभी नाराज़गी बनी थी कि घर की
लाड़ो-कोड़ो बच्ची, जिसे बेटे से भी ज्याददा प्यार-दुलार से पाला, सभी कलाओं में
प्रवीण बनाया, न जाने किन ताक़तों के परामर्श पर विश्वास कर, अपना घर छोडऩे को
प्रेरित हुई। कौन कमी थी यहाँ कि वह इतने उथले-छिछले कैरियर की तरफ़ लपकी। ये लाइन
से लाइन भरी किताबों की आलमारियाँ, ये इनाम से सजे ताक उसके जीवन में ज़रा-सी भी
रोशनी नहीं डाल सके।
सन्तोष था तो बस इस बात का कि शहर में किसी ने प्रतिभा की अनुपस्थिति को
चरित्रहीनता से जोडक़र अपवाद पैदा नहीं किया। कवि के दुश्मनों ने भी सिर्फ इतना कहा,
‘‘अग्रवाल साब ने नसीहतें दे-देकर बच्ची को इतना सताया होगा कि वह भाग खड़ी हुई।’’
अभी प्रतिभा के बारे में मथुरा कोई ख़बर नहीं की थी कवि ने। क्या फ़ायदा, जीजी और
दादाजी वैसे ही अकेले, अस्वस्थ और असहाय हैं, उन्हें एक धक्का और क्यों दिया जाय।
इन्दु ने बेबी की चिट्ठी बार-बार पढ़ी, पढ़ते हुए कभी हँसी, कभी रोयी, फिर उसने
चिट्ठी अपने तकिये के नीचे दबा ली। बिस्तर पर लेटे हुए उसे धुर बचपन की बेबी दिखती
रही, कैसा रूप था मेरी लाली का। कहीं बाहर उसे लेकर जाती तो लोग रास्ते पर रुककर
उसे देखा करते। वह उसे जो भी रंग पहनाती वही उस पर फूट-फूटकर खिलता। उसकी दादी हर
बार टोकती—‘इन्दु मैंने कित्ती बार कही छोरी को लाल रंग न पहराया कर, याय नज़र लग
जाय है।’ काला, नीला, हरा, गुलाबी हर रंग पर यही नसीहत मिलती क्योंकि बाहर से लौटकर
बेबी की तबीयत थोड़ी ख़राब हो जाती। कभी उसकी नाक बहने लगती, कभी आँखें आ जातीं तो
कभी पेट चल निकलता। अभी छह बरस की भी नहीं हुई थी तो कवि ने उसे दो हाथों में
तश्तरी थामकर नाचना सिखाया था—‘ऐ मालिक तेरे बन्दे हम, ऐसे हों हमारे करम, नेकी पर
चलें और बदी से डरें ताकि हँसते हुए निकले दम।’
दादी ने तभी टोक दिया था, ‘‘यह दम निकलने वाला कौन-सा गाना हुआ। हमें इसे नचनिया
नायँ बनानौ, रहने दे कवि।’’
मनीषा फूल की तरह हल्का महसूस कर रही थी क्योंकि उसके मम्मी-पापा खुश थे। वह सोच
रही थी चलो दीदी ने इतना तो सोचा कि चिट्ठी लिख दे। पता नहीं क्या कर रही होगी
दीदी। कौन उसके कपड़ों की तह लगाता होगा, कौन किताब पढक़र सुनाता होगा? याद तो आती
होगी मुन्नी की। इस वक्त मनीषा को बहन की सिर्फ अच्छी बातें याद आ रही थीं। एक बार
मनीषा के पैर में फोड़ा निकला था। पैर ज़मीन पर रखना दुश्वार था। इम्तहान के दिन थे।
वह सुबह से रो रही थी मेरा पेपर छूट जायगा, मैं फेल हो जाऊँगी। प्रतिभा ने उससे
कहा, ‘चल आटे की बोरी बन जा मेरी पद्दी पर, तुझे स्कूल ले चलूँ।’ मम्मी पापा
हैं-हैं करते रह गये दीदी ने उसे पद्दी चढ़ाकर स्कूल पहुँचाया।
एक बार थर्ड स्टैंडर्ड में मनीषा के नम्बर थोड़े पिछड़ गये और वह अव्वल की जगह
तीसरे नम्बर पर आयी। रिपोर्ट कार्ड लेकर घर जाने में उसे भय हो रहा था कि पापा
मारेंगे या सज़ा देंगे। प्रतिभा उस बार पाँचवीं में फस्र्ट आयी थी। उसने अपना
रिपोर्ट कार्ड मनीषा को देकर कहा, ‘‘डर मत, तू यह वाला दिखा देना, मैं तेरा वाला
दिखा दूँगी।’’
यादें ज्यापदा देर सुहानी नहीं रहीं। बीच के बरसों में प्रतिभा का उसे बार-बार
टोकना, रोकना और बेबात दौड़ाना भी मनीषा को भूला नहीं था। दिन में दो-चार बार उसे
क्रैक (पागल) और हाफ-क्रैक (आधी पागल) कहना बड़ी बहन का शगल था। घर में प्रतिभा ऐसे
रहती जैसे कमल के पत्ते पर ओस की बूँद। वह समस्त काम का बोझ मनीषा पर डाल देती कि
कहीं उसके हाथ मैले-गीले न हो जायँ। यहाँ तक कि मम्मी के बीमार पडऩे पर भी वह चौके
में हाथ न बँटाती। वह पापा से कहती, ‘‘पापा कोलीन को भेजकर खाना ढाबे से मँगाते
हैं, मुँह का स्वाद बदल जाएगा।’’ वह यह न सोचती कि मरीज क्या खाएगा। तब मनीषा ही
रसोई का रुख करती कि जैसी भी उसे आती है, मम्मी के लिए लौकी की सब्ज़ी और मूँग की
दाल उबाल दे।
और अब वह मनीषा को ऐसी परिस्थिति में फँसा गयी थी जिससे निकलने की राह आसान नहीं
थी। उसके ऊपर अपने आचरण की जिम्मेदारी तो अपनी जगह थी, अपनी बहन के आचरण का निराकरण
भी उसे ही करना था। गुड गर्ल का खिताब हासिल करने के लिए उसे दिन-रात घर की कसौटी
पर घर्र-घर्र करना था। वे जताते नहीं थे पर मनीषा को अन्दाज़ था कि उसके कॉलेज जाने
और आने के वक्त का हिसाब सिर्फ घड़ी नहीं वरन् घर के लोग भी रख रहे थे।
41
घर से निकलने के बाद हर दिन, जीवन की पाठशाला में एक नया अध्याय जोड़ता है, यह तथ्य
और सत्य पिछले एक वर्ष में जितना प्रतिभा ने जाना उतना कोई लडक़ी नहीं जान सकती। यह
ठीक है कि उसे सिर छुपाने की जगह के लिए संघर्ष नहीं करना पड़ा। वैजयन्ती और सुनयना
ने उसे स्टेशन पर ही रिसीव कर लिया।
उसने पाया उन दोनों लड़कियों के पास गोरेगाँव के यशवन्तनगर में तीन बैडरूम का कॉटेज
$फ्लैट है। उन्होंने खुले दिल से एक कमरा प्रतिभा को दे दिया। नाश्ते में साबूदाने
की खिचड़ी और कॉफी मिली जो घर के खाने-नाश्ते से एकदम हटके थी। दोनों समय शकुबाई
नाम की सेविका आकर खाना बना देती।
वैजू और सुनयना ने पहले दिन ही, भोजन के पश्चात् प्रतिभा पर स्पष्ट कर दिया,
‘‘हमारी अकादमी का सिद्धान्त है, ‘परिश्रम ही सफलता दिलाता है।’ सबसे बड़ी बात यह
कि डांस स्कूल ही हमारी इन्कम की नींव है। तुम जिस मॉडलिंग का सपना देखकर यहाँ आयी
हो, वह हमने भी करके देखी है। वहाँ बड़ी गला-काट दौड़ है, आज एक विज्ञापन मिला, फिर
कहो तो छह महीने तक कुछ नहीं। कहीं विज्ञापन बनने के बाद रिजेक्ट हो जाय तो मॉडल को
बेवजह मनहूस करार देते हैं। डांस स्कूल में पचास-साठ बच्चे हमेशा रहते हैं। हमारी
मानो तो तुम भी इसी को अपनी जीविका समझो। जो आमदनी होगी उसका बीस प्रतिशत
तुम्हारा।’’
प्रतिभा को ये शर्तें स्वीकार करनी ही थीं। उसके पास कोई और विकल्प नहीं था। मात्र
एक संकल्प था कि हारे हुए सिपाही की तरह घर नहीं लौटना है।
प्रतिभा के हिस्से सुबह की कक्षाएँ आयी थीं। पहला पीरियड सात बजे, जूनियर्स का
होता। छोटी, गुलगुली, गदबदी बच्चियाँ जिन्हें अभी ठीक से चलना भी नहीं आता था,
आँखें मलती डांस सीखने पहुँच जातीं। कुछ तो आसपास की थीं, दो-तीन दूर की थीं जिनके
पिता उन्हें छोड़ जाते। प्रतिभा को सुबह जल्द उठने का अभ्यास न था। अक्सर उसकी नींद
बच्चों की कॉलबेल पर ही टूटती। एक-दो दिन बच्चे बैठे इन्तज़ार करते रहे और प्रतिभा
को तैयार होकर आने में देर लगी।
वैजयन्ती ने अपने कमरे से अलार्म क्लॉक लाकर उसके कमरे में रख दी, ‘‘प्रीति डियर
साढ़े छ: बजे का अलार्म सैट कर लो। आध घंटा बहुत होता है तैयार होने के लिए।
तुम्हें तो निवृत्त होकर बस मुँह धोना होता है।’’
वैजू और सुनयना का रंग दबा हुआ था। वे स्नान के बाद जो मेकअप चेहरे पर चढ़ातीं, वह
फिर रात को ही धुलता। प्रतिभा का गोरा भभूका रंग और तीखे नाक-नक्श खुद अपना शृंगार
थे। वह नृत्य-भारती की परम्परा में सुबह सफेद सलवार-कमीज़ पहनकर तैयार होती। लेकिन
सुबह जागना उसे अखर जाता। बड़ी शिद्दत से अपना घर और कमरा याद आता जहाँ वह सुबह आठ
बजे तक सोती और तभी उठती जब मम्मी या कोलीन उसे चाय का प्याला थमातीं।
आखिरकार बारह तारीख़ के साथ-साथ निसार सर नमूदार हुए। अकेले नहीं। उनके साथ उल्का
एडवर्टाइजिंग की पूरी टीम थी। वे सब वैजू और सुनयना को पहले से जानते थे।
इमरान ख़ान के साथ कैमरामैन नरिन्दर बेदी और रोज़ी पिंटो भी थीं जिन्होंने तय किया कि
आज ही फोटो सैशन शूट कर लिया जाय। एक-दो शॉट्स उन्होंने नृत्य-मुद्रा में प्रतिभा
के वहीं ले लिये और बाकी के लिए वे सब उसे लेकर आरे मिल्क कॉलोनी के हरियाले परिसर
में चले गये। बेदी ने प्रतिभा को हर कोण से क्लिक किया और अन्त में कैमरा समेटते
हुए बोले, ‘‘शी इज़ फेंटैस्टिक।’’
खाली होते ही प्रतिभा ने निसार सर को घेरा, ‘‘मेरे पापा कैसे हैं, आपके साथ कोई
लड़ाई-झगड़ा?’’
‘‘दुखी इनसान सबसे पहले अपने आपसे लड़ता है।’’ निसार ने जवाब दिया, ‘‘जब से तुम गयी
हो, अग्रवाल साब का गुस्सा भी कहीं चला गया है, एकदम चुपचाप, तुम्हारा गम पी गये
लगते हैं।’’
प्रतिभा का मन भर आया, ‘‘यहाँ आकर तो मैं डांसटीचर बनकर रह गयी हूँ। यही बनना था तो
पूना क्या बुरा था।’’
‘‘एक बार ब्रेक मिलने की देर होती है, फिर तुम अलग कहीं रह लेना। तुम्हारी हिफ़ाज़त
करनी कौन आसान है।’’
फोटो सेशन के बाद इंटरव्यू में भी प्रतिभा ने सबको प्रभावित कर लिया। उल्का
एडवर्टाइजिंग ने एक साल का अनुबन्ध किया मगर सी.ई.ओ. इमरान ने कहा, ‘‘यह प्रतिभा
नाम बड़ा बेढब है, तुम्हारा नाम बदलना पड़ेगा। मॉडलिंग की दुनिया में छोटे नाम चलते
हैं। तुम्हारा नाम बहार या निखार जैसा कुछ कर दें?’’
प्रतिभा ने एतराज़ किया, ‘‘बहार, निखार तो बड़े ख़राब नाम हैं।’’
निसार ने कहा, ‘‘प्रतिभा का नाम बदलने पर छोटा हो सकता है जैसे प्रीति या प्रिया।
एकदम से बदल देना तो गलत है।’’
‘‘हाँ, प्रीति कुछ ठीक है, वैसे प्रीतिलता नाम की एक और मॉडल त्रिकाया में है।’’
‘‘मेरा ख़याल है कॉन्ट्रेक्ट में प्रीति अग्रवाल लिख दिया जाय। इसी नाम से इनका बैंक
खाता भी खुलवाना होगा।’’ निसार ने कहा।
मॉडलिंग के कैरियर का सूत्रपात प्रतिभा के लिए सौन्दर्य-साबुन के प्रचार के लिए बनी
विज्ञापन फिल्म से हुआ। वर्षों से इस्तेमाल में आ रहा था यह साबुन। हिन्दुस्तान
प्रॉडक्ट्स के इस सौन्दर्य-साबुन में अब कुछ परिवर्तन किए गये थे।
न सिर्फ इसका साइज़, वरन ख़ुशबू और रंग भी बदल दिये गये। इन्हीं विशेषताओं को दर्शाता
एक ज़ोरदार जिंगल था जो फिल्म की पृष्ठभूमि में बजना था।
प्रतिभा को यह करना था कि खंडाला के जल-प्रपात में इस साबुन से नहाना और हँसना था।
निर्देशक की हिदायत थी, ‘‘आँखें खुली रखनी हैं, साबुन की टिकिया हाथ से न छूटे यह
ध्यान रखना है और ज़रा भी झिझकना नहीं है।’’
सिर्फ एक मिनट की फिल्म थी लेकिन उसके लिए कितनी तैयारी, ताम-झाम और तकलीफ़ गवारा की
गयी, यह प्रतिभा ने पहली बार देखा। यहाँ तक कि उल्का की ओर से एक डॉक्टर का भी
इन्तज़ाम था कि ज्या-दा देर नहाकर यदि मॉडल को ज़ुकाम-खाँसी हो जाय तो उसका तुरन्त
उपचार हो। रोज़ी पिंटो ने हर एक्शन का लिखित ब्योरा अपनी फ़ाइल में रखा हुआ था।
प्रतिभा, पिछली रात, बहुत उत्तेजित और व्याकुल रही थी। वैजू उसका हौसला बँधा रही
थी, ‘‘तुम एकदम नैचुरल रहना। जैसे अपने बाथरूम में नहाती हो, वैसे ही नहाना।’’
सुनयना ने कहा, ‘‘पर टिकिया कसकर पकड़े रहना। खंडाला फॉल्ज़ का वेग इतना तेज़ होता है
कि एक बार तो इनसान हकबका जाता है।’’
प्रतिभा डर गयी, ‘‘क्या खंडाला जाकर नहाना ज़रूरी है। यहाँ बाथरूम में नहीं हो सकती
यह फिल्म?’’
‘‘लोकेशन का भी आकर्षण होता है। खंडाला फॉल्ज़ देखना किसे नहीं पसन्द! इस साबुन की
शूटिंग पहले भी हमेशा खंडाला-फॉल्ज़ में हुई है। लकी माना जाता है यह।’’
‘‘पर मुझे तो लग रहा है मैं फँस गयी। इतने लोगों के सामने नहाने का दृश्य?’’
वैजू हँसी, ‘‘मॉडलिंग-जगत में नहाने का दृश्य प्रवेश-द्वार होता है। इसे पार कर गयी
तो मॉडल बन गयी।’’
सुनयना ने कहा, ‘‘मज़ेदार बात यह कि तुम्हें तो घर में भी नहाने के लिए ठेलना पड़ता
है, और अब तुम वहाँ जाकर नहाओगी तो कमाओगी।’’
‘‘कपड़ों का क्या होगा?’’
‘‘साइट पर पता चल जायगा।’’
‘‘तुम दोनों भी चलो।’’
‘‘ना बाबा, स्कूल की नागा नहीं करनी।’’
यह तो अगले दिन लोकेशन पर पहुँचकर ही पता चला इस विज्ञापन फिल्म पर ‘जिस देश में
गंगा बहती है’ फिल्म का जबरदस्त प्रभाव था। प्रतिभा के जिस्म पर बिल्कुल पद्मिनी
शैली में सफेद साड़ी लपेटी गयी। आये लोगों के बीच वह मन-ही-मन संकोच से सिकुड़ती जा
रही थी। उसने रोज़ी पिंटो से कहा, ‘‘आप यहाँ से भीड़ को हटवा दें, हमें अच्छा नहीं
लग रहा।’’ रोज़ी ने कहा, ‘‘गेट यूज्ड टु दिस। विज्ञापन-फिल्म तो लाखों लोग
देखेंगे।’’
फिर भी इमरान ने ताली बजाकर भीड़ को रफ़ा-दफ़ा करने की कोशिश की।
जैसे ही प्रतिभा जल-प्रपात के नीचे पहुँची, बर्फीले ठंडे पानी के स्पर्श से उसका
सर्वांग काँप गया। वह तो हमेशा गर्म पानी से नहाने की अभ्यस्त रही थी। यहाँ तक कि
गर्मियों में भी वह गर्म पानी से नहाती।
एक बार को उसका मन हुआ कि इस विज्ञापन-जाल से मुक्त होकर वह वापस चली जाय पूना जहाँ
घर की सुरक्षा और सुविधा उसका इन्तज़ार कर रही है। लेकिन उसने पाया कैमरा, निर्देशक,
स्पॉटबॉय सब अपनी पोजीशन ले चुके हैं। वापस निकल भागने के सभी रास्ते बन्द थे।
तीन रिटेक में शॉट ओके हो गया। सितारा साबुन की टिकिया हाथ में लेकर प्रतिभा की
आह्लालादपूर्ण हँसी उसके रूप और यौवन के साथ और भी रसवन्ती हो गयी। शॉट ख़त्म होने
पर ही वह झरने से बाहर निकली, एक आदमी नया ड्रेसिंग गाउन लेकर खड़ा मिला। उसे
जल्दी-जल्दी दो कप कॉफी पिलाई गयी।
सभी ने उसे बधाई दी कि उसने बहुत अच्छा अभिनय किया। वह सोच रही थी अभिनय कहाँ किया
वह तो असल में नहा ली। संवाद तो कोई बोला ही नहीं। गूँगी गुडिय़ा की तरह बाँहों पर,
चेहरे पर साबुन मला और चट्टानों से सटकर झरने की धार बदन पर पडऩे दी।
इस मूक फिल्म में आवाज़ और जिंगिल डबिंग लैब में और धार सम्पादन-कक्ष में डाली गयी।
वहाँ रील तराश कर चुस्त बनाई गयी। सितारा साबुन के बारे में चार पंक्तियों की
कमेंट्री भी जोड़ी गयी। इस सबके बाद उल्का के कर्मियों के साथ बैठकर सम्पादन-कक्ष
में, प्रतिभा ने विज्ञापन फिल्म देखी तो औरों के साथ वह भी अपने पर फिदा हो गयी।
सबने उसे बधाई दी और इमरान ने घोषित किया, ‘‘ए न्यू स्टार इज़ बॉर्न टुडे—प्रीति।’’
जल्द दो और उत्पादों की विज्ञापन-फिल्में प्रतिभा ने कीं क्योंकि इनके अकाउंट उल्का
के ही पास थे। इनमें एक क्रीम विज्ञापन था तो दूसरा शैम्पू का। प्रतिभा को लगा
शैम्पू की विज्ञापन-फिल्म के लिए उसे फिर नहाने का दृश्य करने को कहा जायगा पर
गनीमत थी कि दोनों की शूटिंग स्टूडियो में हो गयी।
प्रतिभा अपने काम में रोज़ नये अनुभवों से गुज़र रही थी। घर में वह महसूस कर रही थी
कि वैजू और सुनयना उससे थोड़ा फ़ासला रखने लगी थीं। दरअसल अपनी नयी व्यस्तता में
प्रतिभा डांस क्लास को वक्त नहीं दे पा रही थी। प्रतिभा की आमदनी में यकायक इजाफा
हो रहा था। उसके अन्दर नया आत्मविश्वास पैदा हो रहा था। आत्ममुग्ध तो वह पहले भी
थी, जब से मॉडलिंग में उसके काम की तारीफ़ हुई वह और भी स्व-प्रेमी हो गयी। उसकी
विज्ञापन फिल्म में जिंगिल-गायिका का नाम गोपनीय रखा गया था। प्रतिभा को लगता जैसे
यह जिंगिल उसी ने गाया है। किशोर लडक़े-लड़कियाँ इस जिंगिल को फिल्मी गीत की तरह
गाते-गुनगुनाते। ज़ेहन पर प्रतिभा का ताज़ादम, चंचल चेहरा हावी रहता। उसके व्यक्तित्व
में अभी ऐसी कच्ची कमनीयता थी कि बाकी समस्त मॉडलों के चेहरे बासी और बुज़ुर्ग लगने
लगे। चार महीने के अन्दर ही उसे नयी चुनौतियों और चालबाजियों का सामना करना पड़ा।
रतन वाधवानी, परसिस कोठावाला, मेहर मिस्त्री, सपना सारंग विज्ञापन-जगत की जानी-मानी
ए-ग्रेड मॉडल थीं। सितारा साबुन, टाटा शैम्पू और पॉण्ड्ज़ क्रीम की एड-फिल्मों से वे
प्रीति नाम की इस नयी मॉडल के प्रति ख़बरदार हो उठीं। रतन ने कहा, ‘‘हू इज़ दिस चिट
ऑफ अ गर्ल? क्या जानती है यह मॉडलिंग के बारे में?’’ उसके फोटोग्राफर मित्र सचिन
पॉल ने बताया, ‘‘इसकी कैमरा-उपस्थिति बहुत प्रभावी है, तुम्हें दिखता नहीं है
क्या?’’
प्रीति की चपलता और सौन्दर्य पेशेवर मॉडलों के लिए खतरे की घंटी बनने लगा। सितम्बर
की एक शाम उल्का एडवर्टाइजिंग वालों ने ‘एम्बेसडर होटल’ में एक पार्टी रखी जिसका
परोक्ष उद्देश्य बिड़ला सीमेंट का अकाउंट प्राप्त करना था और प्रत्यक्ष उद्देश्य
प्रीति के प्रवेश की औपचारिक घोषणा। इस पार्टी में नगर की सभी प्रमुख मॉडल
आमन्त्रित थीं। प्रतिभा को साथ देने के लिए वैजयन्ती और सुनयना को भी बुलाया गया
था। कुछ पुरुष मॉडल भी आये थे जिनमें जयन्त कुकरेजा तो लगातार सितारा साबुन का
जिंगिल ही गाता रहा। विवेक पसरीचा बार-बार प्रतिभा के पास आकर कहता रहा, ‘‘मैं
तुम्हारे बारे में थोड़ा और जानना चाहता हूँ।’’
प्रतिभा सबसे खुलकर मिल रही थी, अपने प्रति व्याप्त सराहना पहचान रही थी लेकिन जब
किसी ने उसके हाथ में विस्की का ग्लास देने की कोशिश की वह एकदम कठिन और गम्भीर हो
आयी, ‘‘मैं बिल्कुल नहीं पीती, एक्सक्यूज़ मी।’’
रतन वाधवानी ने व्यंग्य से कहा, ‘‘यह तो अभी दूध पीती बच्ची है, इसे दूध पिलाओ।’’
प्रतिभा ने अपनी बड़ी-बड़ी आँखें हैरत से रतन पर टिकाते हुए कहा, ‘‘अरे आप तो
बिल्कुल मेरी दादी माँ की तरह बोल रही हैं।’’
हॉल में एक ज़बरदस्त ठहाका लगा और रतन वाधवानी एकदम अपदस्थ हो गयी। उस शाम सब लोग
उसे दादी माँ सम्बोधन देते रहे। वह कुढ़ती रही और प्रतिभा को खूनी नज़रों से घूरती
रही।
बाकी मॉडल भी प्रतिभा के सामने फ़ीकी पड़ रही थीं हालाँकि उन्होंने चटक कपड़े पहने
हुए थे। प्रतिभा ने काले रंग का साड़ी ब्लाउज़ पहना था जिस पर
सितारों का काम था। वह महफिल का चाँद नज़र आ रही थी। वैजू ने आज चुस्त सलवार-कमीज़
पहना था और सुनयना ने चनिया-चोली। सपना सारंग टॉप और स्ट्रेच पेंट्स में थी तो
परसिस मैक्सी में। कोई अपनी अदा से तो कोई अपने अवयवों से पार्टी में जमने की कोशिश
में थी पर पार्टी का फोकस प्रतिभा ही रही।
जैसा तय हुआ था, इस बार निसार सर जब पूना से आये उन्होंने महसूस किया कि गोरेगाँव
उपनगर से कफ परेड तक आने-जाने में प्रतिभा का बहुत वक्त और श्रम बरबाद होता है।
उल्का के मालिक पहले कई बार कह चुके थे कि प्रीति को कहीं आस-पास कमरा लेना चाहिए।
प्रतिभा निसार सर की सलाह के बिना कोई रद्दोबदल करना नहीं चाहती थी।
‘‘हर इतवार मुझे बम्बई की दौड़ लगानी पड़ती है,’’ निसार ने कहा, ‘‘इससे तो अच्छा है
मैं नौकरी दोडक़र तुम्हारा सेक्रेटरी बन जाऊँ।’’
प्रतिभा ने कहा, ‘‘सर आपके लिए तो मैनेजर की पोस्ट भी छोटी है, आप तो मेरे गॉडफादर
हुए।’’
‘‘वह तो ठीक है पर तुम्हें एक बार पूना जाकर शकल दिखानी चाहिए। कितने महीने हो गये
तुम्हें आये हुए।’’
‘‘डरती हूँ कहीं पापा ने गेटआउट कह दिया तो?’’
‘‘इसकी गारंटी मैं नहीं दे सकता, फिर भी घर घर ही होता है। ख़ैर, अभी तो तुम्हारा यह
फ़ैशन टूअर का प्रस्ताव आया है। लैक्मे फ़ैशन वीक दिल्ली, जयपुर और लखनऊ में लाइव शो
करा रहा है। पूरा प्री-पेड टूअर है। पचास हज़ार ऊपर से मिलेगा। मेरा दस परसेंट याद
रहेगा न तुम्हें।’’
‘‘अरे आप पूरा रख लीजिए सर, पर मैंने तो लाइव-शो कभी किया नहीं? क्या करना होगा?’’
‘‘वहाँ बताने वाले होंगे। बस यह समझ लो कि नामी-गरामी फ़ैशन-डिज़ाइनरों की बनायी गयी
पोशाकों में सजकर रैम्प पर चलना, मुडऩा और फिर चलना है; देखो ऐसे।’’ कहकर निसार ने
कमर पर हाथ रखकर चलने का अभिनय किया।
वैजू सुनयना भी प्रतिभा के साथ हँसने लगीं, ‘‘कित्ती लकी है तू प्रीति, तुझे निसार
सर जैसे सलाहकार मिले हैं, हमें तो अब मॉडलिंग के ऑफ़र भी मिलने बन्द हो गये।’’
निसार ने कहा, ‘‘माशाअल्ला अभी आप लोगों की उमर ही क्या है। तीस के पहले ही रिटायर
हो जाओगी तो खाओगी क्या?’’
‘‘दरअसल हम इस डांस के रूटीन से बँध गयी हैं, फील्ड से हमारा कॉन्टेक्ट छूट गया।
‘‘आपको काम दिला सकता हूँ पर बीस परसेंट मेरा हिस्सा।’’
‘‘पन्द्रह का रेट है।’’ वैजू बोली।
‘‘मुझे कुछ बचता नहीं है। पूना से बम्बई तक की भाग-दौड़ काफ़ी मँहगी पड़ती है। जमता
है तो बोलो मेरे पास एक टूथपेस्ट का और एक घी का प्रपोजल है। कल तक मॉडल बतानी
है।’’
वैजू ने कहा, ‘‘ठीक है निसार भाई आप हमारा नाम दे दीजिए थोड़ा चेंज हो जायगा।’’
अब निसार ने बताया कि प्रतिभा को यहाँ से किसी दूसरी जगह शिफ्ट करने की बात है,
गोरेगाँव ज़रा दूर पड़ता है।
‘‘काम चल निकला तो गोरेगाँव दूर लगने लगा,’’ सुनयना बोली, ‘‘प्रतिभा तुम शिकायत
करती रही हो?’’
‘‘नहीं तो, मुझे तो कुछ पता भी नहीं,’’ प्रतिभा ने गर्दन हिलायी।
तय यह हो रहा था कि रोज़ी पिंटो के घर पर प्रतिभा पेइंग गैस्ट की तरह रह ले। प्रतिभा
ने इस इन्तज़ाम पर थोड़ी ना-नुकुर की। रोज़ी पिंटो काफ़ी रौब वाली महिला दिखाई देती
थी। उसका दोस्त बनना या उसे अपना दोस्त मानना बेढब काम था। उम्र में भी वह प्रतिभा
की दोगुनी थी। उल्का के ऑफिस में लोगों ने उसे बहुत कम हँसते देखा था।
‘‘सर मैं यहीं से आती-जाती रहूँगी, रोज़ी मैम के साथ मुझे मत बाँधिए।’’ प्रतिभा ने
इसरार किया।
निसार ने कहा, ‘‘दरअसल ये बातें मैंने नहीं इमरान ने तय की हैं। इस तरह वह यह भी
पक्का करना चाहता है कि कोई दूसरी विज्ञापन एजेन्सी तुम्हें न ले उड़े।’’
‘‘पर मेरी मर्जी भी तो पूछनी चाहिए। मैं कॉन्ट्रेक्ट पर हूँ, कोई नौकरी पर नहीं कि
वे मेरी हर बात तय करें। वैसे ये रोज़ी मैम रहती कहाँ है?’’
‘‘बान्द्रा।’’
‘‘बान्द्रा कफ परेड से बहुत पास तो नहीं है, मुश्किल से चार-पाँच स्टेशन का फर्क
पड़ेगा।’’
‘‘प्रतिभा तुम समझा करो। जब रोज़ी को लेने स्टाफ कार आएगी, तुम्हें भी ले जाया
करेगी। कितनी सहूलियत हो जाएगी।’’
‘‘सिर्फ आने-जाने की सहूलियत के लिए उस बोर औरत के साथ कौन रहेगा। फिर उनकी तो
नौकरी है। मुझे तो कभी-कभी उल्का जाना रहता है।’’
वैजू ने कहा, ‘‘निसार भाई टाइम्स में शनिवार को ढेर विज्ञापन आते हैं पेइंग गेस्ट
जगहों के। हम देख लेंगे माकूल ठिकाना। ऐसी क्या जल्दी है।’’
जगह की ढुँढ़ाई शुरू की गयी। शनिवार को दो अख़बार वे लोग और लेने लगीं। जिन जगहों
में गुंजाइश नज़र आती उन पर बैजू Ö का निशान लगा देती। फोन से बात की जाती।
सोचा यह था कि किसी महिला द्वारा दिये गये पेइंग गेस्ट के विज्ञापन पर उँगली रखेंगे
लेकिन सर्वेक्षण से पता चला कि आधे से ज्या दा विज्ञापन ऐसे
पुरुषों ने दे रखे थे जो पेइंग गेस्ट को अपना लिव-इन पार्टनर बनाने के इच्छुक थे।
पैसे वाले, निठल्ले अमीरज़ादों का यह शगल था कि चन्द रुपयों में अख़बार में रहने की
जगह का विज्ञापन छपवा दो। अगले दस-पन्द्रह दिन उनका फोन बजता रहता। कभी-कभी कोई
पेइंग गेस्ट फँस भी जाता होगा। कुछ विज्ञापन पारसी और क्रिश्चियन प्रौढ़ाओं के थे
जिनके पास बड़ी-सी पुश्तैनी कॉटेज़ थी और जो अपने अकेलेपन का इन्तज़ाम भी किरायेदार
से करना चाहतीं। प्रतिभा ने नाक चढ़ाकर कहा, ‘‘अगर बूढ़ों के साथ ही रहना है तो
रोज़ी पिंटो क्या बुरी है।’’
वैजू ने कहा, ‘‘लगता है गोरेगाँव तुमसे छूटेगा नहीं। हम जैसी जवान मकान-मालकिन
तुम्हें ढूँढ़े न मिलेगी।’’
42
इस बार दादी के बीमार होने की ख़बर पर मनीषा मथुरा नहीं जा पायी। माँ ससून हॉस्पिटल
में भरती हैं। एक हफ्ते से कोमा में हैं। कभी-कभी कराहने के सिवा उनमें चेतना का
कोई चिह्न नहीं है। आठ दिन पहले रात में बाथरूम जाने के लिए इन्दु बिस्तर से उठीं
तो आलमारी का कोना उनकी कनपटी में चुभ गया। वह लद्द से गिरीं, आधी ज़मीन पर, आधी
बिस्तर पर। मुँह से चीख भी नहीं निकली। सुबह चार बजे कवि की आँख खुली। कुछ देर वह
यही सोचता रहा कि इन्दु बाथरूम में है। बायीं करवट पर ही उसे आभास हुआ कि कोई गिरा
हुआ है। उसने तुरन्त बिजली जलायी। बड़ी मुश्किल से पत्नी की शिथिल, अचेत देह बिस्तर
पर की और मनीषा को जगाया।
बहुत देर तक पिता-पुत्री इन्दु के उपचार में लगे रहे। जब भी इन्दु बेहोश होतीं
कोरामिन की बूँदें, गरम पानी की बोतल, ठंडे पानी के छींटे और तलवों की मालिश से
उन्हें कुछ देर में होश आ जाता। लेकिन इस बार ये सारे उपचार व्यर्थ सिद्ध हुए।
आखिर सुबह नौ बजे डॉ. मेढेकर को बुलाया गया। उनकी सलाह पर ही इन्दु को ससून में
दाखिल किया।
डॉक्टर का कहना है कि माँ के मस्तिष्क का स्कैन करना होगा। माँ का बार-बार बेहोश
होना मिरगी के कारण हो सकता है या रक्तप्रवाह में कहीं रुकावट हो सकती है। समस्त
परीक्षणों की रिपोर्ट आये बिना डॉक्टर कुछ कहने की स्थिति में नहीं हैं। घर में एक
तरह से ताला ही पड़ गया। मनीषा माँ की परिचर्या में दिन-रात हॉस्पिटल में उनके पास
है। हर तीन घंटे पर उनकी नाक में लगी नली के रास्ते पानी और फलों का रस देना उसी की
जिम्मेदारी है। डॉक्टरों की टीम दिन में दो बार आकर देख जाती है। दवाओं से बस इतना
फ़ायदा हुआ है कि कभी उनमें थोड़ी-सी चेतना लौटती है। इन्दु आँखें फाडक़र हॉस्पिटल के
कमरे की दीवारें देखती हैं। डॉक्टर का सफेद एप्रन देखते ही यन्त्र की तरह कह उठती
है ‘‘माय नेम इज़ इन्दु अग्रवाल।’’ डॉक्टरों को पूरी उम्मीद है कि वे उन्हें ठीक कर
लेंगे। कवि दफ्तर से सीधा हॉस्पिटल आ जाता है। रात नौ बजे मनीषा और वह कैंटीन से
मँगाकर खाना खाते हैं। दिन भर की बैठक और मानसिक तनाव से पस्त कवि तब सिर्फ सोने के
लिए घर का रुख़ करता है। हॉस्पिटल में मरीज़ के पास सिर्फ एक परिचारक को ठहरने की
इजाज़त है।
मथुरा से तार मिलने पर कवि बौखला गया। तार दादाजी ने दिया था—विद्यावती सीरियस, कम
इमीजियेटली।
पापा का हौसला पस्त होता देख मनीषा तुरन्त आगे आ गयी, ‘‘पापा आप जाकर दादी को
देखिए, मैं माँ के पास हूँ न।’’ शायद बोलते-बोलते आवाज़ में गीलापन आ गया।
कवि ने भर्राई आवाज़ में कहा, ‘‘मेरी चार पहियों की गाड़ी में दो पहिये टूट गये
मुन्नी।’’
‘‘नहीं पापा आपकी गाड़ी को कुछ नहीं होगा, आप जाएँ।’’
नितान्त स्वयं पर माँ का समूचा चिकित्सा-भार लेने की अगली सुबह मनीषा का मन बेचैन
हो उठा। माँ की आँखों के चारों ओर काले धब्बों का गोल घेरा बनता जा रहा था जैसे
किसी ने उनके चेहरे पर चितकबरा चश्मा लगा दिया हो। जब नर्स उनकी कलाई में लगी
इंजेक्शन की सुई में सिरिंज से नयी दवा उँडेलती, इन्दु अपना बायाँ पैर और हाथ बड़ी
तेज़ी से पटकती। मनीषा उनके कान के पास जाकर पुकारती, ‘‘मम्मी, मम्मी।’’
इन्दु फटी-फटी आँखों से उसे देखती पर उनमें कोई पहचान न उभरती।
मनीषा डॉक्टर बंडी और सिपाहा से कहती, ‘‘मम्मी क्यों नहीं जाग रही हैं आप बताते
क्यों नहीं।’’
डॉक्टर दिलासा देते, ‘‘हम पूरी कोशिश कर रहे हैं, हमें सत्तर परसेंट उम्मीद है।’’
उनके उत्तर से मनीषा तिलमिला जाती, ‘‘आपके सत्तर प्रतिशत का क्या फ़ायदा, मम्मी तो
अभी भी बेहोश हैं।’’
डॉक्टर ज्याीदा बात नहीं करते। आपस में सलाह-मशविरा करते निकल जाते।
सिस्टर जूलिया बताती, ‘‘तुम इस तरह पेशेंस खोएगा तो ठीक बात नहीं। कोमा पेशेंट तो
कभी-कभी एक साल, चार साल, कितने भी साल लगाता। हम देखेगा। तुम जाकर अपना काम करो
बेबी।’’
मनीषा क्या करे। उसका मन ही नहीं करता उठकर बाहर जाने का। आज इतने दिनों से कॉलेज
का रुख़ नहीं किया है उसने। फ्रेंच ऑनर्स की पढ़ाई इतनी आसान नहीं है कि वह क्लास से
ग़ैर-हाजिर रहकर काम चला ले।
उसे बारी-बारी से कई लोगों ने हॉस्पिटल में समझाया है, कोमा के मरीज के साथ सबसे
अच्छी बात यह है कि हर वक्त देखभाल नहीं करनी होती। बस हर तीन घंटे पर मुँह में
लिक्विड डायट डाल दो, छुट्टी। लेकिन मनीषा को हर पल इन्तज़ार रहता है शायद माँ अब
आँख खोले।
एक दिन उसकी क्लास के कुछ लडक़े-लड़कियाँ माँ को देखने हॉस्पिटल आये थे। उस कुर्गी
लडक़े ने मनीषा से कहा था, ‘‘बाय गॉड, अपनी मम्मी से ज्यासदा बीमार तो तुम लग रही
हो। तुम्हें क्या हो गया है। ऐसे तो एक दिन तुम डिजॉल्व हो जाओगी हवा और पानी
में।’’
जिमी का लम्बा कद, भूरे बाल और भूरी आँखें मनीषा को पसन्द थीं। पूरी क्लास में बस
जिमी ही उसे अच्छा लगा था। उसकी चिन्ता देख मनीषा का मन भर आया लेकिन टिप्पणी पर
सोचने पर उसे लगा वह ज़रूर बहुत ऊलजलूल लग रही होगी।
सभी दोस्त थोड़ी देर में चले गये थे।
शाम को बाथरूम के आईने में अपने आपको देखकर मनीषा एक बार पहचानी ही नहीं। चेहरे की
त्वचा सूखी, निस्तेज लग रही थी, बिना काजल आँखें एकदम खाली खोखल दिख रही थीं, होठों
पर पपड़ी जमी हुई, कौन कहेगा यह अठारह साल की लडक़ी का चेहरा है। उसने एक बार फिर
अपने को जिमी की नज़रों से देखा। उसे लगा वह लडक़ा अपनी सूची से मनीषा का नाम काट
चुका होगा। रात को सोने से पहले उसने मुँह धोकर कोल्ड क्रीम लगायी। सुबह चेहरे पर
कुछ चमक लौटी।
इन्दु का बार-बार चौंकना और हाथ-पाँव पटकना जारी था। इससे बिस्तर पर से उनके गिरने
का काफ़ी खतरा था। सिस्टर जूलिया ने कहा, ‘‘हम केज वाले बेड के लिए मेट्रन को बोलता
है, तुम कब तक चौकीदारी करेगा बेटी।’’
चारों तरफ़ लोहे के सींखचों वाला बेड लाया गया। उस पर माँ को लेटे देख पहले तो मनीषा
घबराई, फिर उसने पाया यह इन्तज़ाम मरीज़ की भलाई के लिए ही था। अब कम-से-कम उनके
गिरने का ख़तरा नहीं था।
कई दिनों के बाद मनीषा ने अपनी पाठ्य-पुस्तक को हाथ लगाया। पास की कुर्सी पर बैठ वह
देर तक पढ़ती रही। शब्दकोश की ज़रूरत महसूस हुई जो घर पर ही छूट गया था।
शाम को जिमी और विन्सेंट मिलने आये। जिमी ने कहा, ‘‘मनीषा टर्म पेपर के लिए एडिसन
का यह आलेख फ्रेंच में अनुवाद करना है। बाय गॉड, मेरे तो सिर से ऊपर की चीज़ है। तुम
यहाँ बैठे-बैठे कर दो, तुम्हारी प्रेक्टिस हो जायगी।’’
टर्म पेपर के लिए हर विद्यार्थी को अलग विद्वान का आलेख दिया जाता था ताकि कोई किसी
की नक़ल न करे।
थोड़ी खुशी हुई मनीषा को। उसने कहा, ‘‘शब्दकोश तुम लोग लाये हो नहीं, उसके बिना
अनुवाद कैसा?’’
‘‘अरे मैं तो बहुत दूर रहता हूँ,’’ विन्सेंट ने कहा, ‘‘मेरे से उम्मीद मत रखना।’’
जिमी ने कहा, वह दे जाएगा। फिर उसने कहा, ‘‘तुम्हारे पास नहीं है?’’
‘‘है, घर में पड़ा है।’’ मनीषा ने कहा।
‘‘यों कहो तुम्हारा इरादा यहीं घर बसाने का है? क्या घर बिल्कुल नहीं जातीं?’’
‘‘कैसे जाऊँ!’’ कहकर मनीषा ने माँ की तरफ़ देखा।
जिमी ने भी उधर ध्यान दिया और कहा, ‘‘उस दिन से आंटी की तबीयत कुछ बेहतर लग रही है।
उनके चेहरे पर रंगत उतर रही है।’’
मनीषा ने नज़रों से शुक्रिया अदा किया।
‘‘मैं ला दूँगा। पर आज तो नहीं, कल अगर याद रहा तो।’’
सहपाठियों को देख मनीषा की तबीयत उत्फुल्ल हो आयी। उसने बिना शब्दकोश के ही अनुवाद
शुरू कर दिया। यह देखकर उसे अच्छा लगा कि वह कई वाक्य अनुवाद कर गयी।
रात को इन्दु हल्की-सी जागीं। उन्होंने करवट लेने की कोशिश की। उनका हाथ केज के
सींखचे से टकराया। दो बार इसी अवरोध से जैसे इन्दु की जड़ता टूटी। उन्होंने कमज़ोर
आवाज़ में कहा, ‘‘यह क्या है, इसे हटाओ।’’
मनीषा कागज़-कलम छोडक़र माँ की ओर लपकी। उन्होंने पीछे का सींखचा पकड़ा हुआ था और उसे
हिलाने की निष्फल कोशिश कर रही थीं। मनीषा ने खुशी से कहा, ‘‘मम्मी, मम्मी?’’
इन्दु ने आँखें खोलीं, ‘‘यह सब किसने लगाया। मेरा बिस्तर कहाँ गया?’’
दस दिन बाद एक कायदे का जुमला माँ से सुन मनीषा इतनी खुश हुई कि रो पड़ी, ‘‘माँ
तुम्हारा बिस्तर घर पर है, यह ससून हॉस्पिटल है। तुम बेहोश हो गयी थीं।’’
इन्दु ने होंठों पर हाथ फिराया, ‘‘प्यास लग रही है।’’
मनीषा ने जल्दी से उन्हें पानी पिलाया।
उसने सिस्टर को ख़बर की। सिस्टर बहुत ख़ुश हुई, ‘‘अब पेशेंट को सोना नहीं माँगता।
इनसे बातें करती रहो।’’
मनीषा को लगा अगर मथुरा वाले घर में फोन होता तो वह पापा को बता देती। उसका ध्यान
दादी माँ की तरफ़ गया। पता नहीं कैसी होंगी वे।
आधी रात में इन्दु को तेज़ भूख लगी। मनीषा ने जैम और डबलरोटी दी। इन्दु ने कहा,
‘‘चाय नहीं है?’’
वाह माँ तो ठीक हो गयी लगती हैं, घर में वे कभी चाय के बिना डबलरोटी नहीं खाती थीं।
कमरे में चाय का इन्तज़ाम था। मनीषा ने दो प्याले चाय बनायी।
चाय पीते ही माँ ने बालों पर हाथ फेरा, ‘‘मेरे बाल उलझ रहे हैं तू कंघी नहीं करती
क्या?’’
मनीषा क्या बताती कि निश्चेष्ट पड़े व्यक्ति की कंघी वह कैसे करती।
कंघा लेकर वह माँ के बाल सँवारने लगी।
इतनी देर में इन्दु थक गयी। लेटकर उसने आँखें बन्द कर लीं। मनीषा उत्तेजित थी। उसे
देर तक नींद नहीं आयी। यह तो चमत्कार ही हो गया।
सुबह के राउंड पर इन्दु के डॉक्टर और मेडिकल छात्र भी उन्हें सचेत देखकर प्रसन्न
हुए। डॉक्टर बंडी ने कहा, ‘‘वी आर बैक टु स्क्वैयर वन।’’
‘‘डॉक्टर इन्हें घर कब ले जा सकते हैं?’’ मनीषा ने पूछा।
‘‘दो दिन और देख लें।’’ कहकर डॉक्टर निकल गये।
दोपहर में मोटरबाइक की परिचित गडग़ड़ सुन मनीषा ने खिडक़ी से देखा।
जिमी आ रहा था।
उसने अन्दर आकर शब्दकोश मनीषा को थमाया।
‘‘मैंने बिना इसके कर डाला।’’ मनीषा ने बताया।
‘‘अरे!’’ जिमी बोला, ‘‘यू आर अ जीनियस। आज तुम आँखों समेत हँस रही हो मनीषा।’’
मनीषा ने माँ की तबीयत बतायी।
‘‘मैंने तुम्हें पहले ही कहा था वे ठीक हो रही हैं। आंटी आपकी वैलनेस सेलिब्रट करते
हैं, क्या लेंगी, कोक या कॉफी।’’
इन्दु पहले भी जिमी से मिल चुकी थीं। उन्होंने कहा, ‘‘तुम बैठो, मनीषा कैंटीन से
लाएगी।’’
मनीषा उठी तो जिमी साथ हो लिया, ‘‘तीन बॉटिल कैसे पकड़ोगी?’’
कैंटीन के काउंटर पर टोकन देने के बाद वे इन्तज़ार में खड़े हो गये।
जिमी ने कहा, ‘‘मैंने सुबह इतनी गर्म कॉफी पी ली कि मेरा होंठ जल गया।’’ उसने अपना
ऊपर का होंठ दिखाया। वास्तव में वह बीच में झुलसा हुआ लग रहा था।
मनीषा को रोमांच हो आया। इतने करीब से किसी लडक़े के होंठ उसने पहली बार देखे।
जिमी बीस मिनट बैठकर वापस चला। मनीषा उसे छोडऩे बरामदे तक गयी।
‘‘दो दिन में हम घर चले जाएँगे।’’ उसने बताया।
‘‘फिर तुम कॉलेज आओगी। बाय गॉड तुम्हारे बिना क्लास बड़ी बेजान लगती है।’’
‘‘सच!’’ मनीषा ने पूछा।
‘‘और क्या झूठ! ओके बाय!’’ जिमी ने हाथ हिलाया।
बहुत दिनों के बाद आज मन में कविता ने करवट ली है। खिडक़ी से चाँदनी अन्दर घुसने का
जतन कर रही है। मनीषा को लगा, कल भी तो आयी थी चाँदनी, कल उसने क्यों ख़याल नहीं
किया, आज ही क्यों?
जब कमरे में अँधेरा हो तब मन लिखने लगता है। इस समय तो उसे पूरी कविता आँखों के
सामने लिखी दिख रही है :
कल रात चाँदनी चोरी से मसहरी में घुस आयी थी
रुपहली बाँह से अँकवार में लेकर वह थोड़ा मुस्कुराई थी
पहली बार तब मुझको लगा ऐसा
कि सोलह साल की इस उम्र के मन में
कहीं कोई बड़ी प्यारी बुराई थी।
अगर अभी उठकर नहीं लिखी तो सवेरे तक दिल-दिमाग से धुल-पुँछ जाएगी। ऐसा उसके साथ कई
बार होता है। शब्द मन में साँकल की तरह बज उठते हैं, जुगनू की तरह चमक पड़ते हैं।
ख़ुश होती है तो हवाओं में संगीत उतर आता है। जैसे इस वक्त ससून हॉस्पिटल के सन्नाटे
में दूर कहीं रजक-बस्ती में ढोलक खनक रही है। मन की कलम आज बौरा उठी है :
कल रात किसी अँगनाई में हौले से ढोलक खनकी थी
मेरी इन निंदियल पलकों में तब याद किसी की अटकी थी
फिर सारी रात मेरी निंदिया, करवट की गलियाँ भटकी थी
अगली तुक मिलाने की कोशिश में किसी वक्त उसे नींद ने घेर लिया।
स्टेशन पर कवि उलझन में पड़ा रहा कि वह पहले हॉस्पिटल जाय या घर। दोनों की विपरीत
दिशा थी।
पहले ससून हॉस्पिटल जाना ही ठीक होगा। उसने ऑटोड्राइवर को निर्देश दिया। वार्ड नं.
तीन की तरफ़, गलियारे में वह बढ़ ही रहा था कि सिस्टर जूलिया दिख गयीं।
‘‘आज ही सुब्बे में आपका पेशेंट घर को गया।’’ सिस्टर ने बताया।
हताश और उदास मन में सुकून की हल्की-सी रौशनी हुई। कवि ने वापस ऑटो में बैठकर कहा,
‘‘ताड़ीवाला रोड।’’
शाम के झुकपुके में मनीषा एक पल पापा को पहचान न पायी। पैंट और कुर्ते के साथ पापा
ने टोपी क्यों लगा रखी है।
बरामदे की बिजली जलाते ही उसने देखा पापा के सिर के घने काले बाल नदारद हैं।
जी धक् से रह गया।
‘‘पापा दादी माँ!’’
‘‘जीजी चली गयीं मुन्नी। तेरी माँ कैसी है?’’
‘‘ठीक हो रही हैं, कमज़ोरी बहुत है।’’
कवि के अन्दर आते ही इन्दु की झपकी टूटी।
‘‘जीजी नहीं रहीं इनी। जिस दिन मैं पहुँचा, उसके अगले रोज़, अठारह तारीख़ की रात दो
बजे चली गयीं। जाने से पहले ज़रा-सा सँभाला लिया, बोलीं, बहू को नायँ लायौ? मैंने
तुम्हारी तबीयत बतायी। पता नहीं वे समझीं कि नहीं। बस आँखें मूँद लीं।’’
‘‘हम उनके अन्तिम दर्शन भी नहीं कर सके।’’ इन्दु ने कहा।
कोलीन इस वक्त तक घर जा चुकी थी। इन्दु में उठने की ताक़त नहीं थी। मनीषा ने पापा का
सामान सँभाला, मैले कपड़े वॉशर में डाले और खाली अटैची आलमारी के ऊपर रखी।
पापा चाय पिएँगे। लौकी माँ के लिए बनी हुई है। पापा लौकी नहीं खाते। मनीषा को आलू
की सब्ज़ी बनानी आती है, वही बनाएगी।
कमरे में आते-जाते मनीषा ने देखा माँ बार-बार अपना सिर थाम रही है। इशारे से पापा
को मना किया। माँ ज्यावदा बातचीत झेल नहीं पातीं। डॉक्टर ने बताया है उनके दिमाग पर
बोझ न पड़े।
रात अपने कमरे में पहुँचकर ही मनीषा को फुरसत मिली कि दादी को याद करे। ताज्जुब कि
दादी उसके ज़ेहन में न बीमार थीं न लाचार। उसकी दादी अपनी तरह की अलबेली स्वाधीनता
सेनानी थीं, कभी देश की आज़ादी के लिए लड़ीं, कभी अपनी। अपनी शिक्षा आप ग्रहण की।
सारे बन्धनों के बीच रास्ता निकाला। जैसी जिन्दगी मिली, उससे बेहतर जिन्दगी का सपना
उन्होंने देखा। मनीषा जानती है दादी की याद में कहीं कोई स्मारक खड़ा नहीं किया
जायगा। न अचल न सचल। उसके हाथ में यह कलम है। वही लिखेगी अपनी दादी की कहानी।