37
मथुरा का स्टेशन ज़रा भी नहीं बदला था। रेल रुकने के साथ प्लेटफार्म
पर दो-तीन व्हीलर अख़बार के ठेले और मथुरा के पेड़े बेचते खोमचेवालों
के अतिरिक्त गतिशीलता का कोई चिह्न वहाँ नहीं था। छह-सात कुली भी
सुस्त खड़े थे। वे जानते थे कि इस स्टेशन पर ऐसे यात्री उतरते हैं जो
अपना बुकचा ख़ुद उठाकर बाहर चल देते हैं।
इसी तर्ज में कवि ने सूटकेस उठाया और मनीषा ने बैग। दायें हाथ की सीध
में नानकनगर दिख रहा था पर कविमोहन को उतावली थी। उसने रिक्शा किया
और बैठते ही कहा, ‘‘चल भैया नेक जल्दी है, 5 नानकनगर पहुँचा दे।’’
रिक्शे की सीट से वह पीठ टिकाकर नहीं बैठा। उसके चेहरे की बेचैनी
देखकर मनीषा मन-ही-मन मना रही थी, हे भगवान, दादी कुशल से हों।
अप्रैल की धूप सुबह नौ बजे भी दनदना रही थी जब कवि और मनीषा रिक्शे
से उतरे। घर के खुले दरवाज़े में चौदह-पन्द्रह साल की एक लडक़ी आकर
ठिठकी और उन्हें देखकर फौरन अन्दर भागी ‘‘मामाजी आ गये, मामाजी आ
गये।’’
दादी तख़त पर पस्त पड़ी थीं। दादाजी दुकान पर जाने के लिए धोती के ऊपर
कमीज़ पहन रहे थे।
कवि को देखते ही उनकी बौखलाहट फूट निकली, ‘‘तू अब आया है कबी, तेरी
मैया तेरा नाम रट-रटकर बावली हो गयी रे। बहू कहाँ है और हमारी
बिबिया। बड़ी देर लगाई बेटा, अब तू इसे सँभार। मेरे से ये नैया अब
खेयी न जाय। देख, जामें नेक-सी जान बची भई है, जनै तेरे लिए या बच्चन
के लिए।’’
कवि ने पिता को शान्त किया। वह माँ पर झुक गया, ‘‘जीजी, जीजी आँखें
खोलो, मैं कवि, तुम्हारा कपूत आ गया हूँ। जीजी तुम मेरा इलाज करो। दस
दिनों में ठीक हो जाओगी। जे देखो, मुन्नी। तुम्हारी बीमारी की सुन
भजी चली आयी। आँखें खोलो जीजी।’’
विद्यावती ने बड़ा ज़ोर लगाकर आँखें खोलीं, आँख की पुतली में हल्की-सी
पहचान टिमकी, फिर धूमिल हो गयी। वे फिर बेसुध हो गयीं।
कवि को रुलाई आ गयी, ‘‘मोय पहले च्यों नायँ बतायौ! मेरी जीजी का यह
हाल हो गयौ!’’
दादाजी बोले, ‘‘रोज़ थोड़ी-थोड़ी तबियत गिरती गयी। वह तो कहो कुन्ती
ने अपनी छोरी ये बिरजो भेज दी नहीं तो मरण ही था।’’
‘‘यह बिरजो है?’’ कवि ने अचरज से देखा। मनीषा से आठ महीने छोटी
ब्रजबाला, चार भाई-बहनों में आखिरी नम्बर पर थी। स्वस्थ ठिगनी काया
में वह मनीषा से बड़ी लग रही थी।
‘‘मामाजी चाय बनाऊँ?’’ बिरजो ने पूछा। वह जानती थी उसके मामा को चाय
का शौक था।
‘‘मुन्नी बनाएगी।’’ कवि ने कहा।
मनीषा, बिरजो के पीछे रसोई में चली गयी।
‘‘कौन डॉक्टर को दिखाया?’’
‘‘बारी-बारी कई जने आकर देख गये। अब तू आयौ है तो तू सँभार। कित्ते
दिनों से कारोबार मुनीम पे छोड़ा हुआ है। मैं जाता हूँ।’’
तभी हाथ में थाली लेकर लपकती हुई बिरजो पहुँची, ‘‘नानाजी पहले खायबे
को खा लो।’’
नत्थीमल ने स्नेह से नतिनी को देखा, ‘‘देख रहौ है कबी, कित्ती सेवा
नानी की, कित्ती मेरी इस छोरी ने की। बड़ा पुण्य मिलेगा इसे।’’
पिता के जाने पर कवि ने माँ की दवाओं के पर्चे देखे। बिरजो से पूछा,
‘‘कौन-सी दवाइयाँ खा रही हैं जीजी?’’
‘‘चार दिना से तो सुध ही नायँ नानी को। नानाजी ने कहा, जब होश आयगा
तब दवा मँगाएँगे।’’
कवि का गुस्सा एक लपट की तरह लहरा उठा, ‘‘क्यों, मैं पूछता हूँ
क्यों? एक भी गोली बिरान ना जाय इसलिए। जीजी मरासु पड़ी है और दादाजी
रुपये आने पाई गिन रहे हैं। ला मुझे पर्चा दे मैं लाऊँ दवाइयाँ।’’
कवि पास के केमिस्ट से दवाइयाँ लेकर आया। सडक़ के मोड़ पर छेदीलाल
मिले। कवि ने उन्हें प्रणाम किया। वे बड़े ख़ुश हुए, ‘‘अब तेरी मैया
जी जाएगी। हफ्ता भर पहले रात में बाथरूम जाते समय आलमारी से टकरा जो
गयी ही। कनपट्टी में चोट लगी, तभी से बेसुध है। हमने तो नत्थीमल से
कही, बड़े अस्पताल ले जाकर दिमाग का एक्सरे करवाओ, पर नहीं, वह तो
यहीं के डॉ. चतुर्वेदी का इलाज करते रहे।’’
कवि को घर में और भी बातें पता चलीं। माँ का मधुमेह बहुत बढ़ गया था।
चाय में उन्होंने चीनी पीना छोड़ा नहीं था। बिरजो ने बताया, ‘‘मामाजी
कभी मैं चाय में नेक कम चीनी डारूँ तो नानी चाय का गिलास सरका दें—ले
जा मोय नायँ पीनी तेरी अलोनी फीकी चा। नानाजी लाख समझायँ, नानी मीठा
खाना छोड़ें ही नायँ।’’
दवा, सेवा और परहेज के पालन से विद्यावती की तबीयत कुछ सँभली। बिरजो
और मुन्नी ने कोई कसर नहीं छोड़ी। दोनों उनकी एक-एक बाँह पकडक़र
उन्हें बाथरूम तक ले जातीं। मनीषा कहती, ‘‘जैसे गाँधीजी के अगल-बगल
आभा और मनु रहती थीं दादी, वैसे ही मैं और बिरजो तुम्हारी आभा-मनु
हैं।’’
दादी कुछ देर को प्रसन्न हो जातीं पर यह बात उनके मन पर बोझ बनी हुई
थी कि बहू क्यों नहीं आयी। कवि और मनीषा के उत्तर एक से थे पर
विद्यावती के सवाल विभिन्न। किसी भी वक्त वे स्वगत कथन करने
लगतीं—‘बताओ, मैंने इन्दु के साथ क्या बुरा किया जो वह नहीं आयी।
बेबी को भी रोक लिया। अरे इन्हीं गोदियों में ये छोरियाँ बड़ी हुई
हैं। सच्ची पूछो तो कवि ने बहू को सिर चढ़ा रखा है।’
मनीषा दादी को समझाती, ‘‘नहीं दादी मम्मी तो आ जातीं पर दीदी का नाटक
था न।’’
‘‘जे कौन-सी नौटंकी कम्पनी में छोरी को डाला है? बीच बाज़ार ढोल बजाती
अच्छी लगेगी वह।’’
कवि ने बताया, ‘‘यह नौटंकी नहीं, बड़े ऊँचे दर्जे के साहित्यिक
ड्रामे होते हैं। तुम्हारी बिबिया अब बहुत अच्छा नाचने भी लगी है।
पक्का गाना भी सीख रही है।’’
दादाजी कहते, ‘‘हमसे तो तूने पूछी नायँ कि छोरियों को नाच-गाना
सिखाऊँ। मुन्नी भी नौटंकी करै है का?’’
कवि बोला, ‘‘नहीं मुन्नी की दिलचस्पी नहीं है इस तरफ़।’’
‘‘तेरे रेडियो में भी यही सब होता होगा, नाच-गाना नाटक?’’
‘‘नहीं दादाजी रेडियो में बड़े काम की बातें आती हैं। सुबह, दुपहर,
शाम देश भर की ख़बरें आती हैं, हिन्दी, अँग्रेज़ी और मराठी में। कभी
खेती पर प्रोग्राम आता है कभी सेहत पर। समझो चलता-फिरता स्कूल है
रेडियो।’’
‘‘तेरे दफ्तर में रेडियो मिले तो एक यहाँ भी लेते आना।’’
कवि ने कहा, ‘‘मेरे दफ्तर का नाम रेडियोस्टेशन है पर वहाँ रेडियो
बनता नहीं है। उसके प्रोग्राम बनते हैं।’’
इसी मौके पर कवि ने छुट्टी ख़त्म होने की बात शुरू की। उसे आये छ: दिन
हो रहे थे।
उसने दादाजी को पाँच सौ रुपये दिये, ‘‘दादाजी ये जीजी के इलाज के लिए
हैं। और बिरजो तू यहीं रहेगी या वापस हिंडौन चली जाएगी।’’
‘‘बिरजो का नाम हमने किशोरी रमण में लिखवा दिया है, यहीं रहकर
पढ़ेगी।’’
कवि निश्चिन्त हुआ, नहीं तो भग्गो की शादी के बाद उसे यही लग रहा था
कि माता-पिता अकेले रह गये।
दादी ने कहा, ‘‘जाने को तू जा पर मुन्नीऐ यहीं छोड़ जा। बिरजो और
मुन्नी का मन लगा रहेगा।
उस समय तो मनीषा चुप रही ऊपर जाकर उसने कवि से कहा, ‘‘पापा हम साथ
चलेंगे। आप चले गये तो हम वापस कैसे आयेंगे!’’
‘‘दादाजी कोई इन्तज़ाम करेंगे। तू दो हफ्ता रुक जा तो जीजी खड़ी हो
जाएँ।’’
पापा वह तो ठीक पर हमें यहाँ का टॉयलेट गन्दा लगता है, बाथरूम भी
बेकार है।’’
‘‘परेशानी तो मुझे भी हुई पर क्या करें, यही अपना घर है।’’
कवि ने जितनी बार मनीषा को साथ ले चलने की बात की, जीजी ने उसे घुडक़
दिया, ‘‘दस साल मेरे पास रही है छोरी अब दस दिना नहीं रह सकती!’’
‘‘इसके स्कूल की पढ़ाई का हर्ज होगा।’’
‘‘अब तो गर्मी की छुट्टियाँ होबे वाली होंगी। वापस जाकर पढ़ लेगी जो
पढऩा है।’’
‘‘पर वापस कैसे जाएगी?’’
‘‘हम किसी के हाथ भिजवा देंगे।’’ दादाजी ने कहा।
कवि रात की गाड़ी से चला गया।
मनीषा उदास हो गयी। दादी नींद की गोली खाकर लेट चुकी थीं। दादाजी ने
हरी किरमिच के रजिस्टर में दिन का खर्च लिखकर काम समेट लिया था।
बिरजो ने कहा, ‘‘चल मुन्नी खाना खाएँ।’’
‘‘मुझे भूख नहीं है।’’ मनीषा ने कहा।
बिरजो ने पास आकर उसके गाल सहलाये, ‘‘बावली है, मामाजी खाना खाकर सो
भी गये होंगे। अच्छा एक पराँठा खा ले।’’
दोनों ने इकट्ठे खाना खाया।
मनीषा ऊपर पापा के पुराने कमरे में सोती थी। वहाँ ज्या,दा सामान नहीं
था। पत्रिकाओं और पुस्तकों से ठसाठस भरा एक रैक था, एक मूढ़ा और एक
चारपाई। अपनी आदत के मुताबिक मनीषा रैक खखोरने लगी। धूल से अटी पड़ी
थीं किताबें। पास पड़े गमछे से उसने किताबें झाड़ीं और सोचा सुबह ठीक
से सफ़ाई करेगी। उसने पाया किताबों के बीच में दो-तीन डायरियाँ भी लगी
हैं। एक डायरी उसने निकाली।
‘‘अरे इसमें तो पापा की कविताएँ हैं।’’ मनीषा के मुँह से निकला।
वह डायरी लेकर बैठ गयी। बाप रे! पापा ने इतना लिखा है। सब कविताएँ
पूरी नहीं थीं। कोई चार पंक्तियाँ लिखकर बीच में छोड़ दी थी, कोई
अगले पृष्ठ पर फिर से शुरू की गयी थी। मोतियों की लड़ी-सी पापा की
लिखावट स्पष्ट भी थी।
कविताएँ काफी कठिन हिन्दी में थीं। मनीषा ने दो-चार पढ़ डालीं लेकिन
कम समझ आयीं। एक कविता पढऩे में मज़ा आया :
खाना खाकर कमरे में बिस्तर पर लेटा
सोच रहा था मैं मन ही मन, हिटलर बेटा
बड़ा मूर्ख है जो लड़ता है तुच्छ-क्षुद्र मिट्टी के कारण
क्षणभंगुर ही तो है रे। यह सब वैभव धन।
अन्त लगेगा हाथ न कुछ, दो दिन का मेला
लिखूँ एक ख़त हो जा गाँधीजी का चेला।
कुछ भी तो है नहीं धरा दुनिया के अन्दर
छत पर से पत्नी चिल्लायी ‘दौड़ो बन्दर।’
मनीषा को माँ का ध्यान आ गया। इस वक्त क्या कर रही होंगी। उसके यहाँ
रहने से माँ का तो हाथ टूट जाएगा। कौन सारे दिन बाज़ार के चक्कर
लगाएगा। मनीषा को हल्की खुशी भी हुई। अब मम्मी क्या, दीदी को भी पता
चलेगा मनीषा के बिना घर क्या चीज़ है।
कहीं-कहीं डायरी में गद्य लिखा था। मनीषा ने पहला पन्ना उलटकर देखा।
पापा के हस्ताक्षर थे और सन् लिखा था 1945, यानी वह साल भर की रही
होगी जब पापा इतनी भारी-भरकम बातें सोचने लगे थे। हिन्दी में यही
मुश्किल है। क्लास में भी हिन्दी की मिस अपनी भाषा से अलग पहचानी
जाती है। सब लड़कियाँ कहती हैँ मिस बड़ी tongue twisting हिन्दी
बोलती हैं। वे तो मिस शब्द पर भी एतराज़ करती हैं। उनका कहना है
हिन्दी कक्षा में उन्हें बच्चे अध्यापिकाजी कहा करें। मनीषा की
हिन्दी ठीक-ठाक है लेकिन आनन्द उसे इंग्लिश पढऩे में आता है। हिन्दी
मिस चंडोक का उच्चारण उसे अशुद्ध लगता है। वे संयुक्त अक्षरों को अलग
करके बोलती हैं तो शब्द अजनबी हो जाते हैं। उनकी पुस्तक में ‘सत्य
हरिश्चन्द्र’ पाठ को वे कहती हैं सत्य हरीशचन्दर। इसी तरह कृष्ण को
किरशन कहती हैं। पता नहीं किसने उन्हें अध्यापिका बना दिया। इस
पब्लिक स्कूल में बाकी लोगों की हिन्दी उनसे भी खराब है, इसलिए उनका
काम चल रहा है। कविमोहन ने घर में नियम बना रखा है जो भी भाषा बोलो,
सही, शुद्ध और त्रुटिहीन बोलो। पापा कहते हैं— Your language should
be impeccable. वे इस फ़ैशन की हँसी उड़ाते हैं जिसमें बच्चे आधा
वाक्य हिन्दी में और आधा इंग्लिश में बोलते हैं। एक बार मनीषा ने
कहा, ‘‘आज मैं पहले स्कूल गयी, वहाँ से ‘बन्द’ तक वॉक किया, फिर घर
तक वॉक किया, बहुत थक गयी।’’
पापा ने कहा, ‘‘तुम पैदल चलीं या तुमने वॉक किया?’’
‘‘एक ही बात है पापा।’’ मनीषा ने कहा।
‘‘नहीं, एक बात नहीं है। क्रियापद वाक्य का प्राणतत्त्व होता है। अगर
वही आपने दूसरी भाषा में कहा तो वह हिन्दी वाक्य कहाँ रहा?’’
‘‘पापा सब ऐसे ही बोलते हैं!’’
‘‘तो हर बात में इंग्लिश क्रियापद का इस्तेमाल क्यों नहीं करतीं। कभी
तुमने सुना है किसी को कहते कि मैंने आज देर तक स्लीप किया या देर तक
ईट किया। फिर यह रियायत ‘वॉक’ को क्यों दी जाती है।’’
मनीषा इस दलील की कायल हो गयी। पापा के सामने बोलने के मामले में
अटैंशन।
डायरी में एक जगह लिखा था, ‘‘दादाजी ने मुझे मसूरी जाने से रोक दिया।
मैं तो पैर पटककर जीजी को मना लेता पर क्या करूँ, रात में दादाजी की
तबीयत ख़राब हो गयी। दमे का तेज़ दौरा पड़ गया। कक्षा के सारे बच्चे
गये, बस मैं रह गया।’’
एक और पन्ने पर लिखा हुआ था, ‘‘दादाजी मेरे प्रति बड़ी निष्ठुरता
करते हैं। मेरी जिद पूरी करने की कौन सोचे, वे तो ज़रूरतों पर भी ख़र्च
नहीं करना चाहते। मन करता है घर से भाग जाऊँ।’’
मनीषा ने घबराकर डायरी बन्द कर दी। उसे लगा उससे अपराध हुआ है। डायरी
तो किसी की एकदम निजी किताब होती है, उसे पढऩा क्या, देखना भी नहीं
चाहिए।
नींद की गोली का असर हल्का पडऩे पर दादी की नींद आधी रात के बाद टूटी
तो उन्होंने देखा ऊपर के कमरे में बिजली जली हुई है। उनका मन तो हुआ
मुन्नी को आवाज़ लगाएँ पर यह सोचकर कि पास सोये दादाजी की नींद में
ख़लल पड़ेगा, वे चुप लगा गयीं।
सुबह उठकर उन्होंने सबसे पहले मनीषा से जवाबतलब किया, ‘‘आधी रात तक
बत्ती जलाकर का कर रई थी तू?’’
उसके बोलने के पहले ही दादाजी बमक पड़े, ‘‘रात-रात भर बिजली जलै समझो
रुपिया में आग लगै। जो काम रात में करो वह दिन में च्यों न कर लो,
हैं?’’
मनीषा ने धीरे से कहा,‘‘मैं किताब पढ़ रही थी।’’
‘‘अरे दिन में पढ़। मेरे पास बैठकर पढ़ा कर। बिरजो को भी बिठा ले। ये
भी पढ़ाई का गुन-ढब सीखे।’’
बिरजो का मन पढऩे में ज़रा भी नहीं लगता था। आठवीं कक्षा में जब दूसरी
बार फेल हो गयी तो राधेश्याम ने इसे हिंडौन से मथुरा भेजना सही समझा।
उन्होंने कहा, ‘‘जब नानाजी की कड़ी निगाह में रहेगी, तभी इसकी आठवीं
पार लगेगी। इसकी उमर की लड़कियाँ मैट्रिक कर लेती हैं।’’
कुन्ती लडक़ी को मथुरा भेजने के पक्ष में नहीं थी पर पति के फ़रमान के
आगे उसकी एक न चली। उसने अपने मन को समझा लिया, ‘‘चलो जीजी की सेवा
हो जाएगी। क्या पता घर से दूर रहकर इसे अक्ल आ जाए।’’
बिरजो का मन घर के काम में लगता या फिर गिट्टे खेलने में। पढऩे के
नाम पर उसके हाथ में ‘चन्दामामा’ पत्रिका होती जिसकी एक-एक कहानी वह
कई-कई बार पढ़ती।
मनीषा ने भी उससे लेकर चन्दामामा उलटी-पलटी। आधे घंटे में वह सारी
कहानियाँ पढ़ गयी।
उसने ब्रजबाला से कहा, ‘‘अपना बस्ता ला, तेरी किताब-कॉपी देखूँ!’’
‘‘बाद में लाऊँगी, अभी दाल चढ़ा दूँ।’’
‘‘दाल बाद में हो जाएगी, पहले बस्ता ला।’’
दो दिन के टालमटोल के बाद ब्रजबाला हाथ आयी। उसका बस्ता पुराना था पर
किताब-कॉपी एकदम नयी थीं। सब पर करीने से बाँस के कागज़ की जिल्द चढ़ी
हुई। सफेद चिप्पी पर नाम कक्षा आदि लिखा हुआ। लेकिन किताबों को देखकर
ही पता चल रहा था कि ये बहुत कम खोली गयी हैं। कई किताबों के पन्ने
चिपके हुए थे। कॉपियों में प्रश्न लिखे थे, उनके उत्तर नदारद। मनीषा
ने अचरज से पूछा, ‘‘बिरजो तेरा इम्तहान हो गया?’’
‘‘हम्बै, तू आयी उसी दिन ख़त्म हुआ।’’
‘‘रिज़ल्ट कब आएगा?’’
‘‘का पता!’’
मनीषा ने कहा, ‘‘तेरी किताब-कॉपी तो कोरी की कोरी पड़ी हैं, कुछ लिखा
भी कि ऐसे ही कागज़ धर आयी।’’
‘‘मैंने तो खर्रे पे खर्रे लिख डारे, सच्ची।’’
‘‘ये कापियाँ कोरी क्यों पड़ी हैं?’’
‘‘टीचर ने पूछा ही नहीं। क्लास में बैठी स्वेटर बुनती रहती है वह।’’
लाला नत्थीमल गरम होकर बोले, ‘‘चल, मैं चलकर पूछूँ तेरे स्कूल में।
पाँच का पत्ता फीस जावे है तेरी और पढ़ाई का जे हाल।’’
बिरजो रणक्षेत्र से पलायन कर गयी, ‘‘खाना बनाने को अबेर हो रही है।’’
कई बार, कई तरह से फुसलाने के बाद ब्रजबाला किताबों के साथ हाथ आयी।
वैसे ब्रजबाला इतनी प्यारी, गुदकारी और हँसमुख थी कि उस पर गुस्सा
करने का मन ही नहीं होता। मिनटों में वह चाय बना लाती। जीजी का
पानदान नमक-नींबू से रगडक़र ऐसा चमचमा देती कि लगता वह सोने का बना
है। सुबह आँगन, पौली धोकर घर को स्वच्छ बना देती। उसके हाथ में इतना
स्वाद था कि मामूली दाल-चावल भी राजसी भोज का आनन्द देता।
मनीषा ने इतिहास की पुस्तक के पन्ने पलटे। बुद्ध और जैन धर्म वाले
अध्याय में उसने गौतम बुद्ध का चित्र देखकर पहचान लिया, ‘‘बिरजो ये
वही तस्वीर नहीं है क्या जो म्यूजियम में रखी है।’’
‘‘कहाँ?’’
‘‘मथुरा संग्रहालय में। मैंने दो साल पहले देखी ही।’’
‘‘गये तो हम भी हैं एक दफे। इत्ता ध्यान नहीं आ रहा। मुन्नी जीजी
हमें एक बार ले जाकर दिखा दो न।’’ बिरजो ने जिद की।
दादी ने इजाज़त दे दी। मथुरा का म्यूजियम कौन दूर है। मुश्किल से आठ
आने की दूरी है रिक्शे में।
एक दिन दुपहर में मनीषा और ब्रजबाला म्यूजियम जाने के लिए निकलीं।
दोनों ने तय किया, रिक्शे के पैसे बचाकर पैदल चला जाए। उन पैसों की
चाट-पकौड़ी खा लेंगी, और क्या! बातों में रास्ते का पता ही नहीं चला।
यह दोपहर का समय था। धूप तेज़ थी। संग्रहालय के बाहर उतनी चहल-पहल
नहीं थी जितनी शाम को होती थी। यही गनीमत थी कि संग्रहालय के ठीक
सामने, ज़रा दाहिने, बाबाजी की प्याऊ थी। इस प्याऊ का पानी बड़ा ठंडा
और सुगन्धित था क्योंकि बाबाजी हर मटके के अन्दर पुदीने की पत्तियाँ
डालकर रखते थे। सब मटकों के ऊपर लाल कपड़ा पड़ा रहता जिसे वे पानी से
तर करते रहते। दोनों लड़कियों ने जी भरकर पानी पिया।
संग्रहालय के मुख्य सभागार में पन्द्रह-बीस दर्शक थे और अगल-बगल के
कक्षों में कुछ छात्र सिक्कों और धातु के अवशेषों का अध्ययन कर रहे
थे।
मनीषा को संग्रहालय के केवल मुख्य सभागार में रुचि थी। पुरानी
पांडुलिपियों, सिक्कों, आभूषण और बर्तनों को देखकर उसे ऊब लगती। हर
पाषाण-प्रतिमा के नीचे उसका परिचय और सन् लिखा हुआ था। वैसे मनीषा को
इन पाषाण-खंडों से अधिक उनके आधारपीठ अच्छे लगते। काठ के विशाल खंड
पर रखा पत्थर का अनगढ़ टुकड़ा अपने आप विशिष्ट लगने लगता।
गौतम बुद्ध की खंडित प्रतिमा संग्रहालय के मुख्य-पीठ पर स्थापित देख
ब्रजबाला को कौतूहल हुआ, ‘‘मुन्नी मेरी किताब में से चलकर यह मूर्ति
यहाँ कैसे आ गयी?’’
मनीषा ने कहा, ‘‘बुद्धू बिरजो, यह मूर्ति वहाँ से नहीं, यहाँ से चलकर
तेरी किताब तक पहुँची है, तेरी क्या इतिहास की हर किताब तक पहुँची
है। इसी की फोटो बनाकर छापी गयी है।’’
‘‘अच्छा चल अब यहाँ से। बाहर चलकर पानी के बताशे खायें।’’
‘‘बताशे तो मीठे होते हैं। हम तो पानीपूरी खाएँगे।’’
‘‘अब तू हो गयी है बम्बई पूना वाली। कल तक तू भी तो इन्हें बताशे
कहती थी।’’
‘‘दिल्ली में इन्हें गोलगप्पे कहते हैं।’’
‘‘एक ही चीज़ है कुछ भी कह।’’
पूरा हॉल क्रॉस कर वे दोनों प्रवेश-द्वार के बरामदे तक आयीं। वहाँ
यक्षिणी की विशालकाय प्रतिमा के पास एक गंजा ठिगना-सा आदमी कुछ झुककर
खड़ा हुआ था। जैसे ही इन लड़कियों पर उसकी नज़र गयी, वह सकपकाकर वहाँ
से हटा। ब्रजबाला को शायद इस स्थिति का पहले से अनुमान था, वह आदमी
लडख़ड़ाता हुआ बाहर जाने लगा। उसका चेहरा विचित्र और विकृत लग रहा था।
ब्रजबाला ने मनीषा को दिखाया, ‘‘यह देख, क्या करके गया है यह!’’
मनीषा कुछ नहीं समझी।
ब्रजबाला ने फिर बताया, एकदम उसके कान में ‘‘इस मूर्ति की वह जगह
एकदम गीली और चिकनी हो रही है। मैंने पहले भी सुनी थी यह बात। दोपहर
में लोग यही करने यहाँ आते हैं।’’
‘‘कहाँ, क्या?’’ मनीषा हवन्नक-सी उस प्रतिमा को देखने लगी पर उसे कुछ
नज़र नहीं आया।
सामने के हॉल से कुछ लोग आते देख, ब्रजबाला उसका हाथ खींचकर बाहर के
फाटक की तरफ़ बढ़ गयी, ‘‘तेरा सिर और क्या?’’
फाटक के बाहर सिर पर अँगोछा लपेटे दुकान का मुनीम जियालाल खड़ा था।
‘‘तुम यहाँ धूप में क्या कर रहे हो?’’ ब्रजबाला तुनककर बोली।
‘‘हमें लालाजी ने भेजा कि तुम छोरियों को लिवा लाओ।’’
‘‘हम का कोई दूधपीती बच्ची हैं जो तुम लिवा लाओगे।’’ ब्रजबाला
बिगड़ी।
‘‘उस पर क्यों किल्ला रही है, वह तेरा कहा माने या बाबा का?’’ मनीषा
ने कहा।
दोनों का मूड उखड़ गया। गोलगप्पे खाने का ध्यान भी नहीं आया। वे एक
गुज़रते रिक्शे को रोककर बैठ गयीं। रास्ते में मनीषा ने कहा, ‘‘हमें
दादी को आज की यह बात बतानी चाहिए।’’
‘‘घनचक्कर है क्या। नानी वह चाँटा लगाएगी कि याद रखेगी।’’
‘‘मुझे तो ठीक से समझ भी ना आयी पर अगर तूने कोई ख़राबी देखी है तो घर
पर बताना ज़रूर चाहिए।’’
ब्रजबाला ने मुँह फुलाकर कहा, ‘‘तू तो चार दिना को आयी है, वापस भज
लेगी। मेरे ऊपर ऐसी तालाबन्दी बैठ जाएगी कि पूछो मत। फिर बताने से
क्या होगा। नानी क्या कोतवाल है जो अजायबघर बन्द करवा दे।’’
इस दलील में दम था। मनीषा चुप लगा गयी लेकिन उस रात उसे नींद नहीं
आयी। वह देर तक सोचती रही कि ऐसी क्या ख़राबी थी जो बिरजो को दिख गयी
पर उसे पता नहीं चली।
आखिरकार उसे लगा चलो हमें क्या। अगले दिन से ही उसने ग़ौर किया कि
बिरजो उससे छोटी होने पर भी ज्या दा सयानी थी। घर के छोटे-बड़े कामों
में वह पुरखिन की तरह युक्ति लगाती। कभी नाना कहते, ‘‘यह रोटी ठंडी
आँच की है, दूसरी ला।’’ वह उसी रोटी को फिर से सेककर दे आती। एक दिन
चने की दाल बटलोई में गल ही नहीं रही थी, बिरजो ने सिलबट्टे पर दाल
पीसकर तुरन्त दाल तैयार कर दी। नानी रोज़ दोनों वक्त अपने छोटे-से
खल्लड़ में भुने चने कुटवाया करतीं ओर उसकी रोटी खातीं। यह मधुमेह पर
क़ाबू रखने का उनका नुस्खा था। बिरजो आटे में कच्चा बेसन मिलाकर रोटी
सेक देती। अगर नानी कहतीं, ‘‘मोय तो रोटी में कचाँध आ रही है।’’
बिरजो कहती, ‘‘इस बार चने ठीक से भुने नहीं हैं नानी।’’
मनीषा को लगता अगर बिरजो का झूठ पकड़ा गया तो क्या होगा लेकिन बिरजो
पूरे धड़ल्ले से अपना काम किए जाती।
कई वर्ष पहले दादी ने बेबी-मुन्नी को गली की पीली कोठी के छज्जे पर
बैठा एक आदमी दिखाकर बताया था, ‘‘यह देखो छोरियो छदम्मीमल। मंडी के
बहुत बड़े ब्यौपारी हैं।
प्रतिभा ने फौरन पूछा, ‘‘दादी इनका मुँह टेढ़ा क्यों है?’’
दादी ने कहा, ‘‘जेई तो मैं बता रही हूँ। छदम्मीमल बहुत झूठ बोलते थे।
बात-बात में झूठ। देखो भगवानजी ने कौन दशा कर दी इनकी। झूठ बोलने से
मुँह टेढ़ा हो जावै है।’’
बेबी-मुन्नी दोनों डर गयी। उन्होंने अपने मुँह पर हाथ रखकर कहा,
‘‘बाप रे! हम तो कभी झूठ नहीं बोलेंगे, नहीं तो हमारा मुँह भी ऐसा ही
हो जाएगा।’’
लाला नत्थीमल का स्वभाव पहले से नरम पड़ चुका था। अब घर में उनके
क्रोध को झेलने वाले भी नहीं बचे थे। लेकिन उनकी शक़ करने की आदत वैसी
की वैसी थी। वे अपना सारा रुपया घर की तिजोरी में रखते और समय-समय पर
कमरे के किवाड़ लगाकर पूरी रोकड़ गिनते। घर में दो तिजोरियाँ थीं। एक
दिन उन्होंने मनीषा से कई गड्डियाँ गिनवायीं। चौड़े-चौड़े सौ के नोट,
मोटे डोरे से बँधे हुए थे। जब मनीषा ने बिना किसी गलती के कई
गड्डियाँ एकदम ठीक गिन दीं, लालाजी प्रसन्न हो गये, ‘‘है तू पक्की
लाला नत्थीमल की नतनी, मान गये उस्ताद!’’
मनीषा ने कहा, ‘‘बाबा आप ये सारे रुपये बैंक में क्यों नहीं रखते हो।
घर में चोरी होने का ख़तरा है।’’
दादाजी बोले, ‘‘बैंक में तो और ज्यांदा ख़तरा जानो। कभी बैंक का
दिवाला पिट जाय तो समझो सारी रकम डूब जाय।’’
कुछ साल पहले मथुरा में लक्ष्मी कमर्शियल बैंक का दिवाला पिट गया था
और बहुत-से उसके खाताधारी कंगाल होकर सडक़ पर आ गये थे।
‘‘सरकारी बैंक में रखें तो फेल नहीं होता वह।’’
‘‘तू बावली है, देख तुझे रुपये का कायदा समझाऊँ। यह देख यह दस का नोट
है। इसे मैं नेक देर बाहर की हवा लगाऊँ तो यह भुस्स हो जायगौ।’’
मनीषा हँसने लगी, ‘‘बाबा जब तक इसे बाज़ार की हवा नहीं लगाओगे यह कैसे
भुस्स होगा।’’
‘‘वो ही तू नहीं जानै। रुपये का स्वभाव चलायमान होवे। बाज़ार न भी
जाओ, कोई तुम्हारे हाथ में देख ले तो उधार माँग लेगा, और कुछ नहीं तो
घरवाली को कोई चीज़-बस्त लेनी याद आ जायगी या कहीं रख के भूल जाओगे।’’
मनीषा कौतुक से अपने बाबा को देख रही थी जो जितनी बार ‘रुपया’ शब्द
बोलते, अपना मुँह थोड़ी देर खुला रखते।
एक शाम मनीषा और ब्रजबाला आँगन में बैठकर गिट्टे खेल रही थीं कि
मनीषा को बड़ी ज़ोर से पेट दर्द हुआ। ‘ओह माँ’ करती हुई वह वहीं लेट
गयी। उसे लगा उसके अन्दर से कोई पिघलता हुआ लावा बाहर बहा जा रहा है।
ब्रजबाला अन्दर से दादी को बुला लायी। दादी ने फौरन ब्रजबाला से कहा,
‘‘इसे बाथरूम लेकर चल।’’
दादी के निर्देशन में बिरजो ने मनीषा को साफ़-सुथरा कर दिया।
दादी बोलीं, ‘‘मुन्नी अब तेरे दूध के दाँत टूट गये, आगे से लड़कियों
की तरह चलना सीख, पहरना सीख। अब तू बड़ी हो रही है।’’
बिरजो ने कहा, ‘‘अम्मा ने तो मोसे कहा था अब तू लुगाई बन गयी छोरी।’’
मनीषा बहुत डर गयी। यह क्या मुसीबत लग गयी उसके पीछे कि न अब दौडऩा,
न उछलना, न कूद-कूदकर चलना। उसने कहा, ‘‘दादी चलकर डॉक्टर से हमारी
मलहम-पट्टी करवा दो, हम ऐसे नहीं रहेंगे।’’
दादी ने कहा, ‘‘पगली इसकी मलहम-पट्टी घर में ही होती है। और अब चौके
में मत जाना।’’
लो बोलो। बन्दिश तो मनीषा को तनिक बरदाश्त नहीं। उसे बड़ी ज़ोर से
अपना घर याद आया।
‘‘तू तो सुच्ची है न बिरजो!’’ दादी ने पूछा।
बिरजो ने गर्दन हिलाकर हामी भरी।
दादी ने मनीषा को पुचकारा, ‘‘चल तू मेरे कमरे में बैठकर मोय गाँधीजी
की किताब सुनाया कर।’’
मनीषा ने एक रात किताबों का अनुसन्धान करते हुए उन्नाबी किरमिच में
बँधी महात्मा गाँधी की ‘सत्य के प्रयोग’ पुस्तक ढूँढ़ निकाली थी
जिसके पहले पृष्ठ पर पापा की लेखनी में लिखा हुआ था—‘जीवनसंगिनी
प्रिया इन्दुमती को उपहारस्वरूप भेंट।’ वह उसके कई अध्याय पढ़ गयी।
उसे ताज्जुब यह हुआ कि जहाँ कई अन्य महापुरुषों की आत्मकथाएँ एकदम
नीरस और निगूढ़ थीं, महात्मा गाँधी की आत्मकथा सरल और सुबोध थी।
छोटे-छोटे अध्याय थे जो हर बार नयी कहानी का आनन्द देते।
मनीषा बोली, ‘‘दादी आधी किताब तो मुझे याद हो गयी, तुम मुँहज़ुबानी
सुन लो।’’
महात्मा गाँधी के लडक़पन के प्रसंग सुन दादी विभोर हो गयीं। बोलीं,
‘‘हे भगवान कित्ते सच्चे थे गाँधी बाबा! अरे अपनी गलतियाँ भी लिखकर
चले गये। बताओ वे चाहते तो का झूठ नहीं लिख सकते थे?’’
मनीषा ने कहा, ‘‘दादी, पापा कहते हैं झूठ लिखा तो कहानी होती है, सच
लिखो तो आत्मकथा।’’
बाबा की आदत थी वे अपने तख्त पर बैठकर कामकाज में लगे रहते मगर एक
कान से हर बात सुनते रहते। वे फ़ौरन बोले, ‘‘तभी तेरा बाप झूठी कहानी
बना-बनाकर रेडियो पर सुनावै है।’’
‘‘पापा तो कभी झूठ नहीं बोलते।’’ मनीषा ने तुरन्त प्रतिवाद किया।
‘‘बोलने की नहीं, मैं लिखने की कह रहा हूँ। शरमनलाल बता रहे थे, जेई
घर के बारे में जाने कौन-कौन-सी बातों के जोड़-मेल से ड्रामा बनाया
वा ने। उसका नाम भी बताया गया रेडियो में, कविमोहन अग्रवाल।’’
‘‘कौन-सी तुमने अपने कानों से सुनी जो पूछ रहे हो?’’ दादी ने बेटे का
बचाव किया।
‘‘असल बात यह नहीं है। सच्ची बात यह है कि छोरे को अपने घर से, अपने
माँ-बाप से राई-रत्ती भी मोह नायँ। उसने कभी सोची बहनों के ब्याह हो
गये, मेरे माँ-बाप कैसे रहेंगे अकेले। नहीं वह तो सरकारी अफ़सर बनेगा,
कुर्सी तोड़ेगा।’’
दादी को गुस्सा आने लगा, ‘‘तुमने कभी छोरे से मोह दिखाया। हमेशा
दुर-दुर करते रहे। प्यार वह चीज़ है जो बाँट-तराजू से नहीं तोली जावै।
तुमने बाँट-तराजू के सिवा कुछ जाना ही नायँ।’’
लाला नत्थीमल की आँखें लाल होने लगीं, ‘‘जे लड़कियाँ घर से जायँ तो
तुझे मैं ठीक करूँ, बक-बक करना बहुत आ गया है तुझे!’’
मनीषा को बाबा के गुस्से से डर लगता था। उनका चेहरा खिंच जाता, माथे
की एक नस उभरकर फडक़ने लगती और उनके हाथ-पैर काँपते। ऐसा लगता जैसे वे
अभी किसी को मार देंगे या शाप दे देंगे। बिल्कुल इसी तरह की मुद्रा
उसने पापा की भी देखी थी। पापा कभी-कभी गुस्सा करते लेकिन जब करते तब
पूरा घर थर्रा जाता।
मनीषा कमरे से बाहर आ गयी। बिरजो चौके में खटर-पटर कर रही थी। मनीषा
ने उसकी तरफ़ क़दम बढ़ाये तभी उसे दादी की वर्जना याद आयी। बिरजो ने
उसे रसोई में आने का इशारा किया, साथ ही मुँह पर उँगली रखकर चुप रहने
का। मनीषा को यह छल क़बूल नहीं था। वह छत पर चली गयी।
उसका मन उचाट हो रहा था। पापा पर गुस्सा आया, हमें यहाँ फँसाकर चले
गये और वहाँ से चिट्ठी तक नहीं लिखी। लिखना तो माँ को भी आता है पर
किसी को मुन्नी की याद आये तब न। फाइनल यर की पढ़ाई सिर पर है और वह
यहाँ टाइम ख़राब कर रही है।
जैसे आकाश के तारों और नीम की पत्तियों ने उसकी पुकार पापा तक पहुँचा
दी, सोमवार को ही पूना से पापा की लम्बी-सी चिट्ठी आयी जिसके अन्त
में मम्मी ने भी चार लाइनें लिखी थीं ‘री मुन्नी तू वहाँ जाकर बैठ
गयी। तुझे पता है तेरे बिना मेरा एक भी दिन नहीं कटता। बेबी चार रोज़
से दिल्ली गयी हुई है। जीजी की तबीयत सँभल गयी होगी। तू जल्दी से आ
जा। एक दिन कान्ता भी घर आयी थी, तुझे न देखकर बड़ी झींकी।’’
मनीषा का मन मम्मी-पापा के प्यार में सराबोर हो गया। मेरे
मम्मी-पापा। देखा मुझे कित्ता चाहते हैं। कवि शैले की तरह उसका मन
हुआ कोई उसे पेड़ का पत्ता बना दे, चिडिय़ा बना दे, कागज़ का टुकड़ा
बना दे और वह उड़ती-उड़ती अभी पहुँच जाय पूना। वह स्टेशन रोड पर
कान्ता के घर जाकर उसे चौंका दे। वह मम्मी को बन्द गार्डन पर भेलपुरी
खिला लाये। रात को पापा के पैरों में दर्द होता है। मनीषा नहीं है तो
कौन उनके पैरों पर खड़ा होता होगा। यकायक मनीषा वर्तमान में लौटी।
उडऩा तो दूर इस वक्त तो वह ठीक से चल भी नहीं पा रही। ऐसा लग रहा है
जैसे टाँगों के बीच में बिस्तरबन्द बँधा है।
विद्यावती ने कहा, ‘‘इत्ती दूर छोरी अकेली कैसे जायगी?’’
लालाजी ने कहा, ‘‘दो एक जने से बात कर के देखूँ, ऐसे परदेस में बैठा
है छोरा कि जल्दी कोई वहाँ जाने को तैयार भी नहीं होगा।’’
‘‘बलराम से पूछो, उसे घूमबे-फिरबे का शौक है।’’ विद्यावती ने सुझाव
दिया।
लीला बुआ का बड़ा लडक़ा बिल्लू ही अब अपने पूरे नाम बलराम से पुकारा
जाता था। उसने चक्की का काम छोटे भाई गिल्लू उर्फ गिरीश को थमा दिया
था और खुद खादी भंडार में सेल्समैन हो गया था। उसकी शादी इटावा के एक
व्यापारी परिवार की लडक़ी कालिन्दी से हो गयी थी। कभी-कभी वह आकर
नाना-नानी का हाल देख जाता।
बलराम के हामी भरने पर बाबा ने पूना के दो टिकट कटाये। बिरजो मचलने
लगी, ‘‘हम भी जाएँगे मुन्नी के संग। हमने तो हिंडौन और मथुरा छोड़ और
कुछ देखा ही नायँ।’’
लालाजी ने डाँट लगायी, ‘‘ चुप्पे से यहाँ बैठकर पढ़ाई कर। फेल हो गयी
तो हमारी नाक कटाएगी।’’
मनीषा का थोड़ा-सा सामान था, एक थैले में समा गया। लेकिन दादी को चैन
कहाँ। उन्होंने कहा, ‘‘मथुरा से कोई पेड़े लिये बिना भी जाता है। और
मुन्नी चूसमा आम कवि को बड़े भायें, एक डोली ले जा।’’ लीला बुआ ने
घीया के लच्छे और खुरचन भिजवा दी। बाबा ने बड़े सुन्दर कपड़े का एक
थान बाज़ार से ला दिया, ‘‘दोनों बहनें अपने सलवार-कमीज़ बनवा लेना,
बड़ी हो गयी हो, फ्रॉक मत पहरा करो।’’
मनीषा को थोड़ी झेंप लगी। कहीं बाबा को उसके पेट दर्द का पता तो नहीं
चल गया। उसका बस चलता तो अपने दादी-बाबा के आगे अनन्त काल तक बच्ची
ही बनी रही आती। चलते वक्त दादी ने मनीषा को घपची में भरकर ख़ूब दुलार
किया, ‘‘अब तू हर छुट्टी में अइयो अच्छा।’’ बाबा ने उसे दस रुपये का
नोट देकर आशीर्वाद दिया।
वापसी का सफ़र आगमन के सफ़र जैसा नहीं था। इस बार आरक्षण तो करवाया
नहीं गया था। सामान्य डिब्बे में ठूँसमठूँस मुसाफिर भरे हुए थे। जिस
भी डिब्बे के दरवाज़े पर वे जाते लोग कहते, आगे जाओ यहाँ जगह नहीं है।
बलराम ने एक डिब्बे में लोगों को धक्का-मुक्का देकर किसी तरह चढऩे
लायक गुंजाइश निकाली। गरमी से सबका बुरा हाल था। कानपुर पहुँचने पर
उन्हें बैठने की जगह मिली। खिडक़ी वाली सीट बलराम ने ले ली, ‘‘यहाँ
कोयला उड़ेगा, तू सामने वाली सीट पर बैठ।’’
रात सोने से पहले मनीषा को टॉयलेट जाने की ज़रूरत पड़ी। वह यात्रियों
के बीच जगह बनाती किसी तरह गयी लेकिन वहाँ का दृश्य देखकर उलटे पैरों
लौट आयी। टॉयलेट के दरवाज़े तक लोग अपने असबाब समेत ज़मीन पर बैठे हुए
थे। कई मुसाफिर तो बैठे-बैठे सो रहे थे।
बलराम ने पूछा, ‘‘क्या हुआ, मुँह क्यों बना लिया?’’
‘‘कुछ नहीं।’’ मनीषा बोली।
‘‘बाथरूम जाना है तुझे, चल मैं रास्ता बनाऊँ।’’ बलराम आगे-आगे चला।
बलराम पहलवान की तरह लम्बा और बलिष्ठ था। सिर पर चोटी, बदन पर खादी
का कुर्ता-पाजामा, लोग दूर से उसे नेता या लठैत समझते। उसके जाते ही
ज़मीन पर बैठे लोगों ने सिकुडक़र इतनी जगह निकाल दी कि मनीषा एक पाँव
टिकाती टॉयलेट में घुस पायी।
टॉयलेट का अन्दर का नज़ारा और भी भयानक था। नल में से टोंटी ग़ायब थी
और ज़ंजीर से मग। इससे पहले मनीषा ने हमेशा आरक्षित डब्बों में सफ़र
किया था। सरकारी तबादलों में वे सब प्रथम श्रेणी में यात्रा किया
करते थे। वहाँ टायलेट साफ़ हुआ करते। एक ही राहत थी। मनीषा का
रक्तस्राव रुक गया था। उसने अपने को बन्धनमुक्त किया, बहते नल से हाथ
स्वच्छ किये और मन-ही-मन भगवान को याद किया, हे भगवान यह तबालत अब
फिर कभी न हो।’
बिरजो ने रास्ते के लिए पूरियाँ, आलू की सूखी सब्ज़ी और भरवाँ करेले
रख दिये थे। ठीक यही खाना बुआ ने बलराम के साथ रखा। देखकर मनीषा को
हँसी आ गयी। उसे लगा इस डिब्बे में हर मुसाफिर के पास यही खाना
निकलेगा। जब चखकर देखा तो अन्तर समझ में आ गया। दोनों खानों के स्वाद
में फ़र्क था, मिर्च-मसाले में, यहाँ तक कि शक्ल-सूरत में भी। मम्मी
की बात याद आयी कि चीज़ वही होती है पर हर हाथ के साथ खाने का स्वाद
बदलता है।
तीस घंटे के लम्बे सफ़र में न नींद मिली न आराम, केवल घर पहुँचने की
ललक ने मनीषा को सजग रखा। पूना स्टेशन पर उतरकर उसे लगा जैसे वह
बरसों बाद अपने शहर लौटी है। उसकी फ्रॉक काफ़ी मैली हो गयी थी और बाल
बिखर गये थे। बलराम का भी हुलिया ख़राब था। सफेद कुर्ता-पाजामा इस
वक्त तक चितकबरा लग रहा था, उसमें रास्ते की इतनी धूल और इंजन की
कालिख समा गयी थी।
जब वे घर पहुँचे माँ उन्हें देखकर खुश बाद में हुई, हक्की-बक्की
पहले। पापा ऑफिस जा चुके थे। बलराम ने रिक्शे से उतारकर सामान अन्दर
रखा।
‘‘यह क्या धजा बना रखी है अपनी?’’
‘‘जनरल डब्बे में आये हैं, बैठे-बैठे।’’ मनीषा ने बताया।
‘‘मामीजी प्रणाम!’’ बलराम ने इन्दु के पैर छुए।
‘‘मैं तो पहचानी ही नहीं बिल्लू तू इतना बड़ा हो गया।’’ इन्दु ने
जल्दी-जल्दी लीला बीबीजी का समाचार लिया और कहा, ‘‘तुम लोग एक-एक कर
नहाते जाओ।’’
खाने के बाद मनीषा अपने बिस्तर पर ऐसी सोयी कि शाम सात बजे उसकी नींद
खुली।
कविमोहन दफ्तर से आकर चाय पी चुका था और अब बलराम के साथ मथुरा की
बातें कर रहा था।
मनीषा रसोई में जाकर माँ के गले से झूल गयी, ‘‘मम्मी दीदी कब आएगी?’’
‘‘अभी छह दिन और लगेंगे। यूथ फेस्टिवल दस दिन का होता है, बाकी
आने-जाने के तीन दिन और जोड़ लो।’’
‘‘किस आइटम में गयी है।’’
‘‘उसके कॉलेज से ग्रुप डांस का ट्रुप गया है। बैजू, सुनयना, द्राक्षा
सब गयी हैं।’’ माँ ने आवाज़ थोड़ी दबाकर कहा, ‘‘ये कित्ते दिन
रहेगा?’’
‘‘कौन?’’ मनीषा नहीं समझी।
‘‘बिल्लू और कौन। इत्ती भारी ख़ुराक है इसकी बाप रे! कौन इसकी रोटियाँ
बनाएगा!’’
कवि को सबसे सुखद ख़बर यह लगी कि मन्नालाल आठ साल बाद घर वापस आ गये
हैं। कहाँ रहे, कैसे रहे, कुछ नहीं बताते पर अब साधु-सन्तों का साथ
एकदम छोड़ दिया है। चक्की पर भी नहीं जाते। बरामदे में बैठकर अख़बार
पढ़ते रहते हैं। घर की अच्छी चौकीदारी हो गयी है। कोई धनिया-पुदीना
भी लेने निकले तो उनसे पूछकर जाय।
‘‘अब तो लीली दीदी खुश होंगी।’’ कवि ने कहा।
‘‘अम्मा को दूसरे दुख हो गये हैं। अब वे बहुओं से परेशान रहती हैं और
बहुएँ उनसे।’’
‘‘अब जीजाजी से लड़ती तो नहीं?’’ कवि ने शरारत से पूछा।
‘‘अम्मा ज़रा नहीं बदलीं। बाबूजी से कहती हैं सुखवास की उमर में बनवास
दे दिया, बनवास की उमर में कौन सुख देने आये हो?’’
‘‘पगली है, जीजाजी को गुस्सा आ गया तो फिर भाग खड़े होंगे।’’
‘‘पहले से काफ़ी झम गये हैं बाबूजी। कहते हैं मैं सगुन-निरगुन सब देख
आया।’’
‘‘चलो बीबीजी के माथे से कलंक उतरा।’’ इन्दु ने कहा।
‘‘ऐसा नहीं है। जैसी अकडफ़ूँ वे पहले थीं वैसी ही अब हैं। मजाल है
पड़ोस में उनके गये बिना कोई करवाचौथ या सकट मना ले। अभी भी अपने को
अमर सुहागिनों में गिनती हैं। उनका कहना है सुहागिनों में सबसे ऊँचा
दर्जा उनका है।’’
‘‘पर अब तो ननदोईजी लौट आये।’’
‘‘इससे क्या। अम्मा अपने ऊपर तो मक्खी भी नहीं बैठने देतीं। कहती
हैं, मोय का मिलौ। पहले इनके गये की बेडिय़ाँ पाँव में पड़ी रहीं, अब
इनके आये की पड़ी हैं।’’
इन्दु की मुख-मुद्रा भी सोचग्रस्त हो गयी। उसने कहा, ‘‘कहती तो जीजी
सही हैं। पति घर में न हो तो लाख तोहमतें ऐसे ही लग जाती हैं। औरत का
तो वह हाल है न मायके सुख न ससुराल सुख।’’
‘‘अम्मा की तो कोई ससुराल भी नहीं है। फिर भी वे दुखी दिखाई देती
हैं।’’
इन्दु बलराम से बात तो अच्छे से करती रहीं। उसे अपनी क्यारियाँ भी
दिखलायीं। बस खाना खिलाते समय वह विचित्र व्यवहार करती। रात में ढेर
से चावल बना दिये। बलराम ने धीमी आवाज़ में कहा, ‘‘मुझे बादी की
शिक़ायत है, चावल तो मैं दिन में भी नहीं खाता।’’
इन्दु ने भवें सिकोडक़र कहा, ‘‘इत्ती गरमी में मेरे से रोटी नहीं सेकी
जाती, ब्रेड खा लो।’’
कवि ने बात सँभालने की कोशिश की, ‘‘चलो आज हम सब बाहर चलकर खायँ,
घूमना भी हो जाएगा।’’
बलराम बोला, ‘‘मेरे लिए परेशान मत हो मामाजी, मुझे भूख ही नायँ।’’
‘‘हमें तो लगी है भूख।’’ कहकर कवि ने उसे मनाया।
इन्दु जल्दी से बन-ठनकर तैयार हो गयी।
मनीषा ने भी फ्रॉक बदली और बालों में नये रिबन लगाये।
बलराम ने मामी की तरफ सराहना से देखकर कवि से कहा, ‘‘हमारी मामीजी तो
फिल्मस्टार लग रही हैं, एकदम नूतन जैसी।’’
इन्दु ने अकड़ से कहा, ‘‘नूतन तो, लोग कहते हैं, काली है।’’
पग-पग पर इन्दु का फूहड़पन झेलना कवि के लिए आसान न था, वह बलराम के
सामने बहस कर तमाशा नहीं खड़ा करना चाहता था। उसने बरामदे में निकलकर
सिगरेट सुलगा ली।
वे सब कैम्प स्ट्रीट में ‘इंडस’ में जाकर बैठे। यहाँ का टोमाटो सूप
और तन्दूरी पराँठा मनीषा को बहुत पसन्द था। उसने पापा को बता दिया।
कवि हँसने लगा, ‘‘दोनो का क्या मेल है। पराँठे के लिए सब्ज़ी नहीं
लेगी।’’
इन्दु ने अपना पुराना सिक्का चलाया, ‘‘यह मेरे में से खा लेगी।’’
कवि ने बिना उसकी तरफ़ देखे अपना ध्यान बच्चों पर फोकस रखा, ‘‘यहाँ
थाली सिस्टम नहीं है। अपनी मर्जी का खाना मँगाने को इंग्लिश में a la
carte कहते हैं।’’
‘‘पापा गलत! इंग्लिश में नहीं फ्रेंच में।’’ मनीषा चहकी।
पापा की गलती निकालने का मौक़ा भी कब-कब मिलता है उसे!
‘‘इंग्लिश ने यह शब्द अपना लिया है तो इंग्लिश का ही माना जाएगा न।
अच्छा इसका मतलब समझा दे। तू तो फ्रेंच पढ़ती है।’’
दस्तूर स्कूल में मनीषा द्वितीय भाषा के रूप में फ्रेंच पढ़ रही थी।
उच्चारण के सिवा उसे फ्रेंच भाषा की हर अदा पसन्द थी। उसने कहा,
‘‘इसका मतलब है, सूची में दिये गये हर व्यंजन की कीमत अलग-अलग है।’’
बलराम को हैरानी हुई, ‘‘इत्ती लम्बी बात के लिए बस दो-ढाई शब्द।’’
‘‘और क्या। फ्रेंच तो इंग्लिश से भी ज्यासदा समृद्ध है। आपने शादी के
कार्डों के नीचे लिखा देखा होगा RSVP। यह भी फ्रेंच शब्द है
respondez si'l vous plait मतलब ‘कृपया उत्तर दें’।’’
‘‘अच्छा अब तू अपना ज्ञान मत बघार।’’ इन्दु ने कहा।
खाने के बाद जब वे बाहर निकले, बाज़ार अभी खुला हुआ था। ‘दोराबजी’ और
‘स्पेन्सर्स’ के बड़े स्टोर देखकर बलराम को बड़ा अचम्भा हुआ, हाँ
खादी भवन यहाँ भी वैसा ही था जैसा मथुरा में। बलराम ने पूछा,
‘‘मामाजी क्या वजह है कि कुछ चीज़ें तो बहुत बदल जाती हैं पर कुछ वैसी
ही पुरानी रही आती हैं।’’
‘‘बहुत अच्छा सवाल पूछा है तुमने बिल्लू। देखो समाज दो तरह से बदलता
है, एक प्रकृति के नियम से, दूसरा सभ्यता के दबाव से। खान-पान,
पहनावा और निवास पर प्रकृति का नियम लागू होता है। बाकी सब चीज़ों पर
समय और सभ्यता का असर पड़ता है।’’
‘‘इतनी दुकानें बदलीं, इतना बाज़ार बदला पर खादी भंडार क्यों नहीं
बदला?’’
‘‘तुम्हें पता है खादी भंडार गाँधीजी के सिद्धान्तों पर चलाए जाते
हैं—सादा जीवन, उच्च विचार। बाकी दुकानों में जो भी तडक़-भडक़ डाली
जाती है उसका ख़र्च तो ग्राहक की जेब से ही जाता है न।’’
‘‘मामाजी अगर आपको अबेर न हो तो मैं नैक यहाँ का खादी भंडार देख
आऊँ।’’ बलराम कहने के साथ ही अन्दर चला गया।
वे तीनों बाहर शो विंडो के पास खड़े थे। कवि ने कहा, ‘‘मेरा मन है
लीली दीदी को खादी सिल्क की एक बढिय़ा साड़ी भेजूँ। बलराम ले जाएगा।’’
‘‘बीबीजी ने तुम्हारे लिए कछु भेजा जो तुम भेजने की सोच रहे हो।’’
‘‘लीली दीदी हमेशा मुझे देती रही हैं। तुम हर चीज़ में अड़ैंच क्यों
डालती हो।’’
‘‘अड़ैंच कहाँ, मैं तो कह रही थी बलराम खादी भंडार में काम करता है,
जितनी मर्जी साड़ी खरीदे और माँ को पहराये।’’
बात आयी-गयी हो गयी। लेकिन कवि के कलेजे में उसकी फाँस चुभी रह गयी।
ऐसे ही लमहों में उसका मन अपने घर से उचाट हो जाता। उसे लगता जैसे वह
अपने नहीं किसी और के घर में रह रहा है। सबके निमित्त वह कमाता रहे,
अपने निमित्त कुछ भी करने की आज़ादी उसे नहीं है। उसे यह भी लगता कि
घर-परिवार में अगर इतनी जकड़बन्दी रही तो वह दिन दूर नहीं जब
घर-परिवार समाप्त हो जाएँगे। अपने प्रिय कवि की पंक्तियाँ उसे कई बार
याद आतीं—‘घर रहेंगे हमीं उनमें रह न पाएँगे’ या ‘जब-जब सिर उठाया,
अपनी चौखट से टकराया’।
अगले दिन बलराम की वापसी थी। वह बड़े सवेरे उठकर नहाकर तैयार हो गया।
इन्दु ने कहा, ‘‘तुम्हारी गाड़ी तो ग्यारह बजे है, तुमने अभी से
सामान बाँध लिया।’’
‘‘बस मामीजी, घर में सब रास्ता देख रहे होंगे। और खादी भंडार पर तो
उससे भी ज्या़दा। सबसे पुराना वर्कर तो मैं हूँ, बाकी तो आते-जाते
रहते हैं।’’
‘‘यहाँ मन नहीं लगा तुम्हारा?’’ इन्दु ने पूछा।
‘‘ऐसी बात नहीं है मामीजी। आपने वह मिसल सुनी होगी न,
मथुरा की छोरी और बिन्दावन की गाय
जो और कहीं ब्याहो, तो भूखी रह जाय।’’
इन्दु कुछ शर्मिन्दा-सी वहाँ से हट गयी। उसे लगा वह बलराम के साथ कुछ
ज्याोदा बेदिली दिखा गयी। पर अब क्या हो सकता था।
वह कवि के पास गयी और दबे स्वर में बोली, ‘‘क्यों जी तुम्हारे
कुरते-पाजामे का कोरा कपड़ा जो रखा है, बलराम को दे दें।’’
कवि बोला, ‘‘रहने दो, वह तो कपड़ों के बीचोंबीच बैठा है, जो मर्जी
बनवा ले।’’
इन्दु भुनभुनाती वहाँसे चली गयी, ‘‘मेरी तो कोई बात इन्हें अच्छी ही
नायं लगे।’’
38
तालकटोरा बाग में हुए दस दिवसीय यूथ फेस्टिवल में समूह नृत्य
प्रतियोगिता में पूना विश्वविद्यालय ने प्रथम स्थान पाया। सभी
अख़बारों में इस आइटम की तस्वीर छपी। कवि-परिवार ने आँखें गड़ाकर
प्रतिभा को पहचानने की कोशिश की। समूह नृत्य में कुल छह लड़कियों का
झुंड था। सज-धजकर सब एक समान सुन्दर लग रही थीं। बड़ी मुश्किल से
प्रतिभा की पहचान हो पायी। अख़बारों की प्रतियाँ सँभालकर रख ली गयीं।
वाडिया कॉलेज का नाम सुर्खियों में आ गया। फर्गुसन कॉलेज से परिचर्चा
और वाद-विवाद प्रतियोगिता के लिए विद्यार्थी गये थे। डेक्कन कॉलेज की
संगीता कुलकर्णी शास्त्रीय गायन में प्रतियोगी थी। केवल समूह-नृत्य
में पूना विश्वविद्यालय विजयी हुआ था। बड़ी-सी शील्ड मिली थी जो
कॉलेज में प्रिंसिपल के कार्यालय में सजा दी गयी। प्रतिमा को
प्रमाण-पत्र और चाँदी का एक कप मिला।
प्रतिभा के लौटते ही घर में रौनक आ गयी।
इन्दु ने अलमारी से किताबें खिसकाकर उसके प्रमाण-पत्र और इनाम के लिए
जगह बनायी।
‘‘अरे अरे, किताबें क्यों हटा रही हो?’’ कवि ने टोका।
‘‘और कहाँ रखूँ। रेडियो और ताक, दोनों जगह तो इनामों से ठसाठस भरी
हुई हैं।’’
‘‘पुराने वाले इनाम एक पेटी में रख दो, जब बेबी का ब्याह होगा, अपने
साथ ले जाएगी।’’ कवि ने कहा।
प्रतिभा बीच में बोली, ‘‘नो चांस। फिर तो पेटी पड़ी रहेगी सारी उम्र।
मुझे शादी करनी ही नहीं।’’
‘‘हर लडक़ी यही कहती है, फिर भी हर लडक़ी की शादी होती है। जैसे ही
मिस्टर राइट मिला, लड़कियों का इरादा बदल जाता है।’’
‘‘पापा, मुझे चिढ़ाओ मत नहीं तो मैं सच में चिढ़ जाऊँगी।’’
‘‘अब तो तेरा बी.ए. हो गया, आई,ए.एस. की तैयारी शुरू कर दे।’’
प्रतिभा उलझी हुई सी पापा को देखने लगी। उसे लगा यही मौक़ा है अपनी
बात बोलने का।
‘‘पापा, हमें आई.ए.एस. नहीं देना।’’
‘‘फिर क्या करेगी। एम.ए. करके लेक्चरर बनेगी?’’
‘‘नहीं पापा, मैं बम्बई जाऊँगी। वहाँ बड़ा स्कोप है। फेस्टिवल में
हमें कई ऑफ़र मिले।’’
‘‘यही कसर बची थी। अब फिल्मों में नाच दिखाएगी।’’ इन्दु बिगडऩे लगी।
‘‘नहीं माँ, फिल्मों में नहीं, हमें मॉडलिंग के लिए एक बड़ी एजेंसी
ने कहा है। तुम मैगज़ीन पढ़ती हो, उसमें आधे से ज्यािदा पन्नों पर
विज्ञापन छपते हैं। बस यही करना होता है। कोई साबुन या टूथपेस्ट हाथ
में लेकर फोटो खिंचाओ, और लखपति हो जाओ।’’ प्रतिभा ने समझाया।
‘‘कितनी घटिया ऐम्बिशन लेकर आयी हो तुम दिल्ली से। क्या इसी के लिए
तुम्हें इतना पढ़ाया-लिखाया और कलाएँ सिखायीं?’’ कवि को गुस्सा आ
गया।
‘‘पापा अगर नाटक में काम करना, नृत्य करना ठीक है तो मॉडलिंग में
क्या बुराई है यह बताइए। इस शहर में कितने ही शो कर चुकी हूँ मैं,
नाम के सिवाय कुछ नहीं कमाया मैंने।’’
‘‘और क्या कमाना है तुझे बोल। क्या शकल दिखाकर पैसे कमाएगी। हमारे
मुल्क में मॉडल को किस नज़र से देखा जाता है, तू नहीं जानती। कान
खोलकर सुन ले। कोई मॉडलिंग-वॉडलिंग नहीं करनी है। चुपचाप आगे पढ़ो,
पढ़ाई में नाम कमा, कला में नाम कमा। पैसा कमाने को मैं बैठा हूँ।’’
‘‘पापा मेरे साथ की वैजू, सुनयना सब बम्बई जाने वाली हैं, बस एक बार
मैं उनके साथ हो आऊँ, प्लीज़।’’
‘‘तेरी यही बात हमें बुरी लगे। पूना में तुझे डांस, म्यूजिक और स्टेज़
के मौक़े मिल तो रहे हैं।’’
‘‘पर पापा यहाँ मुख्य रूप से मराठी रंगमंच का बोलबाला है, हिन्दी
रंगमंच की कोई पहचान नहीं है।’’
‘‘अभी तू छोटी है। जब मेरा तबादला बम्बई होगा तब देखी जायगी।’’
‘‘आपकी भारत सरकार को सपने नहीं आ रहे हैं। पूना के बाद वह आपको
विजयवाड़ा भी भेज सकती है। हो सकता है बम्बई पहुँचने में आपको दस साल
लग जायँ। मैं तो तब तक बुड्ढी हो जाऊँगी।’’
‘‘तुझे क्या जल्दी है। पढ़-लिखकर नाम कमा। क्या-क्या मैंने सपने देख
रखे हैं तेरे लिए। तुझे तो मैं विजयलक्ष्मी पंडित बनाऊँगा।’’
‘‘पापा वह मैं कभी नहीं बन सकती क्योंकि उसके लिए पहले आपको मोतीलाल
नेहरू बनना होगा।’’ प्रतिभा ने कहा।
जैसे कमरे में सनाका खिंच गया। पिता के रूप में कवि की समस्त
उपलब्धियों को ध्वस्त करता, प्रतिभा का आक्षेप उसकी असहमति, असन्तोष
और अस्वीकार का घोषणा-पत्र बन गया। कवि अब तक यही सोचता रहा कि बेटी
का विकास वहीं तक है जहाँ तक वह उसके जीवन में रोशनी डालता चलता है।
उसे नहीं पता चला कि अपने समवयस्क साथियों, पुस्तकों, अख़बारों और
पत्र-पत्रिकाओं के जरिये बेटी ने अपने सपनों की नयी दुनिया देख ली
है। दुख यही था कि इतनी आज़ादी और अग्रगामिता के बावजूद वह न लेखक
बनना चाहती थी न कलाकार, न वह अफ़सर बनना चाहती थी न लेक्चरर, वह मॉडल
बनना चाहती थी। उसे बाहरी तडक़-भडक़, सौन्दर्य की सराहना, समृद्धि के
सरल उपाय अपनी ओर खींच रहे थे।
पिता-पुत्री के बीच विवाद अनिर्णीत रह गया। प्रतिभा तमककर अपने कमरे
में चली गयी। कवि घायल सिंह सा अँधेरे बरामदे में इधर से उधर, तेज़
क़दमों से घूमता रहा। उसकी उँगलियों से सिगरेट एक मिनट को भी न छूटी,
न बुझी।
इन्दु रसोई में भुनभुनाती रही, ‘‘जब अच्छी-भली कॉलेज की नौकरी छोडक़र
रेडियो थियेटर में आने का कौल भरा था, तभी सोचना था लड़कियाँ कौन चाल
की बनेंगी। बड़ी विज्ञापनबाज़ी करेगी, कित्ती जगहँसाई होगी, आस-पड़ौस
के लोग क्या कहेंगे। इसी पर सारी उम्मीदें टिकी थीं, यही ऐसी निकल
गयी। छोटी तो अलग ऊदबिलाव है, उससे तो पहले ही कोई आशा नहीं है।’’
सरोजिनी, आशा, उषा, सब दूसरे स्कूल में पढ़ती थीं, तुकाराव माध्यमिक
विद्यालय। नौशेरवान दस्तूर स्कूल में साथ पढ़ती थी कान्ता चोपड़ा,
जिसके साथ सुबह स्कूल जाना और दोपहर को घर लौटना रोज़ का नियम था।
कान्ता उसकी हमउम्र थी, उससे ज्याेदा सेहतमन्द और सक्रिय। उसके पिता
रेलवे में चीफ़ गुड्स इंस्पेक्टर थे और उन्हें स्टेशन के पास ही बँगला
मिला हुआ था।
महीने भर बाद जब छुट्टियों का होमवर्क उतारने मनीषा उसके घर पहुँची
वह रूसी हुई थी, ‘‘जा मैं नहीं बोलती, बिना मुझे बताये इतनी दूर जाकर
बैठ गयी।’’
मनीषा ने मनाया, ‘‘मेरी प्यारी कन्तू, तू बता मैं कब बताती तुझे।
दादी माँ बीमार थीं, पापा ने दफ्तर से आकर ख़बर दी। सवेरे तो हम चले
गये।’’
‘‘मरी चिट्ठी नहीं लिख सकती थी, कैसे मैंने एक-एक दिन काटा है।’’
थोड़ी देर की रूसा-रूसी के बाद कान्ता अपना बस्ता लेकर आयी। उसने सभी
कापियाँ दिखायीं और कहा, ‘‘एक ख़बर मुँहज़ुबानी सुन लो। प्रिंसिपल ने
कहा है, एस.एल.सी. क्लास में पहले दिन वे सब लड़कियों का यूनिफॉर्म
चेक करेंगी। सब चीज़ क़ायदे की होनी चाहिए, ट्यूनिक, जूते, बैग, यहाँ
तक कि अन्तर्वस्त्र भी।’’
मनीषा बात में उलझ गयी, ‘‘यूनिफॉर्म तो हम पूरा पहनते हैं।
अन्तर्वस्त्र का क्या मतलब है। हम घर में सिली शमीज़ पहनते तो हैं।’’
‘‘यह नहीं, उनका मतलब है बाज़ार में सिले अन्तर्वस्त्र जैसे निम्मी,
बारबरा और गर्टरूड पहनती हैं।’’
‘‘यह तो मुश्किल पड़ गयी।’’
स्कूल खुलने में दस दिन बचे थे। उनमें होमवर्क पूरा करना था। मम्मी
से यह कहने की हिम्मत नहीं थी कि मम्मी मैं बड़ी हो रही हूँ।
तुम्हारी तरह मेरे लिए भी अन्तर्वस्त्र पहनना ज़रूरी है।
मम्मी कतरब्योंत की विशेषज्ञ थीं। जब भी कभी मनीषा के लिए कपड़े
सिलवाने की बात चलती, मम्मी अपनी पुरानी साड़ी या प्रतिभा का पुराना
सलवार-सूट और कैंची लेकर बैठ जातीं, ‘‘अभी घंटे भर में मुन्नी की
ड्रैस बन जाएगी। छोटे बच्चों का क्या है, वे तो कुछ भी पहन लें।’’
पौ फटने की बेला में कलियों का चटखकर खिलना किसने देखा है, होशियार
से होशियार माली ने भी नहीं। इसी तरह लड़कियों का बड़ा होना होता है।
उन्हें नहीं पता कब उन्हें फ्रॉक पहनते-पहनते, सलवार-कुरते की ज़रूरत
महसूस होने लगती है; कूद-कूदकर चलने की बजाय, धीमे-धीमे, छोटे पग
उठाने को कुदरत मज़बूर कर देती है। अपने को लडक़ा मानने की हेकड़ क़ायम
रखना मनीषा और कान्ता के लिए दुश्वार हो रहा था। देह के अलावा मनोजगत
में भी कई परिवर्तन हो रहे थे।
मनीषा ने कान्ता को बताया कि मथुरा में उसकी जान को क्या बला लग गयी
थी।
‘‘थैंक गॉड, वह गंगा-यमुना चार दिनों में खत्म हो गयी। मैं तो बड़ी
डर गयी थी।’’ मनीषा ने कहा।
‘‘ले, मैं तो दो साल से भुगत रही हूँ,’’ कान्ता बोली, ‘‘मम्मी मुझे
रसोई में जाने से रोक देती हैं, बस सिलाई मशीन के सामने बैठा देती
हैं, कि सियो घर भर के डस्टर और पाजामे।’’
‘‘तूने मुझे नहीं बताया?’’
‘‘क्या बताती, तू तो पहाड़ी घोड़े की तरह कूद-कूदकर चलती थी। तेरी
समझ में क्या आता।’’
‘‘अब बता इस नयी तबालत का क्या करना है। अन्तर्वस्त्र कहाँ से
लायें।’’
‘‘एक मिनट। मैंने मम्मी को खरीदते देखा है, डेढ़ रुपये की आती है।
अपन दोनों डेढ़-डेढ़ रुपया जुटा लें तो बाज़ार चलें।’’
डेढ़ रुपया जुटाना कोई मुश्किल काम नहीं था। मुश्किल थी गोपनीयता। इस
खरीदारी के लिए उन दोनों ने दोपहर का एक ऐसा वक्त चुना जब सडक़ पर
ज्यािदा भीड़ न हो और उन्हें कोई दुकान की सीढिय़ाँ चढ़ते न देखे।
आपस में दोनों ने तय किया था कि ऐसी दुकान पर चलें जहाँ सेल्सगर्ल
हो। बाज़ार में ऐसी कोई दुकान थी ही नहीं। फिर लड़कियों ने कहा, ‘‘चलो
ऐसी जगह चलें जहाँ बुज़ुर्ग सेल्समैन हो।’’ ऐसी भी कोई दुकान नहीं
मिली। अन्त में वे एक ऐसी दुकान की सीढिय़ाँ चढ़ गयीं जहाँ कोई ग्राहक
नहीं था और सेल्समैन बूढ़ा तो नहीं पर अधेड़ ज़रूर था। अन्दर पहुँचकर
कान्ता ने मनीषा को कोहनी मारी, ‘‘तू बोल।’’ मनीषा क्या बोलती। पता
ही नहीं था अन्तर्वस्त्र की खरीदारी कैसे करते हैं, क्या बोलना पड़ता
है।
सेल्समैन ने कुछ भाँपकर कहा, ‘‘कहिए, क्या दिखाएँ ब्रा, पैंटी या
रूमाल?’’
मनीषा ने तुरन्त अनजान बनते हुए कहा, ‘‘हाँ, वह क्या कहते हैं, रूमाल
दिखाइए।’’
कान्ता आँखों ही आँखों में मनीषा को घुडक़ रही थी पर मनीषा पूरी
एकाग्रता से रूमाल देखने लगी। चार-चार आने में कैमरिक के सुन्दर
रूमाल मिल रहे थे।
मनीषा ने चार खरीद लिये। एक रुपया चुकता कर दुकान से चल दी।
पीछे-पीछे गुस्से से लाल-पीली कान्ता पैर पटकती, सीढिय़ाँ उतरी।
कान्ता ने बिगडक़र कहा, ‘‘अब स्कूल इंसपेक्शन पर तेरे रूमाल पहनकर
जाएँगे क्या?’’
‘‘तो क्या करती! सेल्समैन के बोलते ही मैं इतनी घबरा गयी। कैसे आँखें
फाड़-फाडक़र हमें देख रहा था!’’
कान्ता के पास उसका डेढ़ रुपया सुरक्षित था।
मनीषा बोली, ‘‘अगली दुकान चलकर तेरे लिए तो ब्रा ले लें। मेरी देखी
जाएगी।’’
‘‘क्या देखी जाएगी?’’ कान्ता भडक़ी।
‘‘मैं मम्मी या दीदी की पहन लूँगी।’’
‘‘हाफक्रैक है तू। कोई किसी की ब्रा नहीं पहन सकता। सबकी अपनी अलग
होती है।’’
तभी दिमाग में बल्ब जला।
कान्ता का।
उसे याद आया रोज़ शाम पाँच बजे उसकी कॉलोनी में एक ठेलेवाला आता था।
उसके ठेले पर रोज़मर्रा की ज़रूरत की हर चीज़ उपलब्ध रहती—किताब, कॉपी,
पेन्सिल, पेन से लेकर कद्दूकस और नींबू निचोडऩी तक। एक कोने में वह
फ्रॉक के कपड़े, सलवार-सूट और होजियरी का सामान भी रखता। वहीं कुछ
पतले गत्ते के डब्बे भी लगे रहते। कान्ता को लगा ज़रूर ये डब्बे
अन्तर्वस्त्रों के होंगे तभी उसके ठेले पर लड़कियों और स्त्रियों की
इतनी भीड़ जमी रहती। रामलाल का ठेला पूरी कॉलोनी में मशहूर था। होता
यह था कि वह एक के अहाते में ठेला खड़ा करता। कुछ देर में आस-पास के
घरों के बच्चे-बच्चियाँ, लड़कियाँ, स्त्रियाँ सब वहीं इकट्ठी हो
जातीं। एक उत्सव-सा होता उसका आना। वहाँ सब जनी एक-दूसरे का हाल
पूछतीं और सौदा देखतीं। रामलाल मुस्कराकर अपना टेढ़ा दाँत दिखाते हुए
कहता, ‘‘देख लो, देख लो, देखने का कोई दाम नहीं लगता।’’
छोटे बच्चे एक रबर या एक पैकेट च्यूइंगम खरीदकर खुश हो जाते।
लड़कियाँ नेल पॉलिश, लिपस्टिक के डब्बों की तरफ़ हसरत से देखतीं।
सौदेबाज़ी में गृहणियाँ हावी रहतीं क्योंकि उन्हीं की अंटी में पैसे
होते।
वैसे कान्ता को ठेलेवाले से सामान लेना पसन्द नहीं था। ठेले की सीमित
सामग्री में बाज़ार घूमने की उत्तेजना कहाँ! पर अन्तर्वस्त्र खरीदने
के लिए गोपनीयता और विश्वसनीयता भी चाहिए थी।
साढ़े चार बजे शाम, हाथ-मुँह धोकर मनीषा ने अपनी साइकिल अभी बाहर रखी
ही थी कि माँ की घुडक़ी सुनाई दी, ‘‘इत्ती धूप में कहाँ जाना है। यह
नहीं कि घर में बैठकर पढ़े-लिखे। तू जा रही है तो बाहर से कपड़े कौन
उठाएगा?’’
रोज़ साढ़े चार बजे, पिछवाड़े की रस्सी से, सूख रहे कपड़े उठाना मनीषा
का काम था।
मनीषा ने खुशामदी आवाज़ में कहा, ‘‘नाराज़ क्यों होती हो मम्मी। मैं
अभी उठा देती हूँ।’’
उसका रोज़ का एक खेल यह था कि वह बाकी सारे कपड़े कन्धे पर डालकर लाती
पर मम्मी और दीदी के अन्तर्वस्त्र फुटरूलर या किसी डंडी पर लटकाकर
लाती और अन्दर आकर चिढ़ाती, ‘‘यह किसकी ऐ ऐ है?’’ मम्मी और दीदी
लपककर अपने कपड़े पकड़तीं और कहतीं, ‘‘जब तू पहनेगी न, तब हम
बताएँगे।’’ आज यह खेल नहीं हुआ तो माँ ने अचरज से मनीषा की तरफ़ देखा,
‘‘आज तो बड़ी सिधाई से कपड़े उठाये हैं।’’
‘‘साइन्स कॉपी लेनी है, दो रुपये दो।’’ मनीषा ने कहा।
‘‘अभी कल तो तूने डेढ़ रुपया लिया था।’’ माँ ने त्योरी चढ़ाई।
‘‘उसके मैंने रूमाल ले लिये। मेरे रूमाल फट गये थे।’’ मनीषा ने कहा।
मम्मी ने मुँह-ही-मुँह में बड़बड़ाते हुए पर्स से दो का नोट निकाला।
जब मनीषा रेलवे कॉलोनी पहुँची, पाँच बजने ही वाले थे। कान्ता ने
मनीषा के लिए दूध में बर्फ और रूहअफ़ज़ा शर्बत डालकर अपनी तरह का
मिल्कशेक बनाया। उसने एक प्लेट में बेसन के मोटे सेव रखकर कहा, ‘‘ले
पकौड़े खा।’’
मनीषा हँसने लगी, ‘‘हर बात उलटी बोलती है, ये पकौड़े कहाँ हैं, ये तो
सेव हैं।’’
‘‘हमारे पंजाब में इन्हें पकौड़े ही बोलते हैं।’’
सेव बहुत स्वादिष्ट थे, उनमें साबुत काली मिर्च और धनिये के दाने
पड़े हुए थे।
कान्ता ने खिडक़ी से बाहर झाँका।
रामलाल का ठेला, बगल के अहाते में चार नम्बर की मिसेज़ खान के घर के
सामने खड़ा था।
‘‘चलो वहीं चलते हैं।’’ कान्ता ने मनीषा को साथ लिया।
ठेले पर जैसे ही जरा उछीड़ हुई कान्ता ने रामलाल से धीरे से कहा,
‘‘लेडीज़ वाली बनियान दिखाना।’’
‘‘कौन से नम्बर की?’’ रामलाल ने पूछा।
वे क्या बतातीं। कभी नापा ही नहीं था। यह पहली बार का अनुभव था।
मनीषा ने अक्ल से काम लिया, ‘‘सबसे छोटी।’’
रामलाल ने दो पतले, चपटे डब्बे उन दोनों की तरफ़ बढ़ा दिये, ‘‘ट्राइ
कर लो बेबी लोग।’’
समस्या यह थी कि इन्हें कहाँ, कैसे ट्राइ करके देखा जाए।
मिसेज़ ख़ान उनकी मुश्किल ताड़ गयीं। उन्होंने कहा, ‘‘मेरे बाथरूम में
ट्राइ कर लो न।’’
उनके घर के दो बेडरूमों में दो बाथरूम थे।
किसी तरह तनियों, हुकों और इलास्टिक के पेचीदा व्याकरण को समझकर जब
मनीषा ने ब्रा पहनी तो पता चला कि यह सबसे छोटा नम्बर यानी 26 भी
बहुत बड़ा है। उसे उतारकर उसने अपने कपड़े वापस पहने। मनीषा बाहर
निकली, यह सोचती कि कान्ता भी अन्तर्वस्त्र नापास कर चुकी होगी। पर
वह तो प्रसन्न खड़ी थी।
‘‘एकदम ठीक है।’’ उसने घोषणा की।
मनीषा ने ठेलेवाले से कहा, ‘‘और छोटी वाली नहीं है।’’
‘‘जीरो साइज़ नहीं आती।’’ रामलाल ने कहा और पैकेट वापस रख लिया।
कान्ता ने उसे डेढ़ रुपया दे दिया।
मनीषा ने तय किया वह वही अपनी रोज़ वाली शमीज़ पहनकर जाएगी, प्रिंसिपल
को जो सज़ा देनी है, दे। कह देगी उसका साइज़ बनता ही नहीं है।
अगले दिन स्कूल का पहला दिन था। पहनना तो सबको यूनिफॉर्म ही था पर हर
लडक़ी की सजधज निराली थी। किसी ने यूनिफॉर्म के साथ कैमरिक का ब्लाउज़
पहना हुआ था तो किसी ने लिनिन का। हर लडक़ी का सीने का उभार, नये
अन्तर्वस्त्रों में विशाल लग रहा था, उनमें गर्व का अहंकार था। मनीषा
जैसी दो-चार मरियल-करियल लड़कियाँ थीं जो अपने पिछले साल के
यूनिफॉर्म और अन्तर्वस्त्रों में नज़र आ रही थीं।
लेकिन प्रिंसिपल तो उस दिन आयी ही नहीं। उन्हें आई.सी.एस.ई. बोर्ड की
मीटिंग में भाग लेने मुम्बई जाना पड़ा। कई लड़कियों की जान में जान
आयी। कुछ लड़कियों के अन्तर्वस्त्र पुराने, मटमैले या बेढंगे थे,
उन्हें डर था कि प्रिंसिपल उन्हें कसाई की तरह भँभोड़ेंगी और
किचकिचाएँगी। कुछ लड़कियों की समस्या यह थी कि उन्होंने छुट्टियों
में अपने कान छिदवा लिये थे। स्कूल का नियम था कि कोई छात्रा या
शिक्षक नाक या कान में कोई आभूषण पहनकर न आये। अगर लड़कियों की हथेली
पर मेंहदी दिख जाए तो उन्हें सज़ा मिलती थी। स्कूल को उत्सव और शृंगार
से बेहद चिढ़ थी। मिसेज़ भरूचा, मिस पावरी, मिस दस्तूर और मिसेज़
कोठावाला इतनी गोरी थीं कि उनका रंग ही उनका आभूषण था लेकिन छात्राओं
में तो केवल दस प्रतिशत पारसी थीं, बाकी उत्तर या मध्य भारत की थी
जिनके परिवारों में पर्व-त्यौहार, मेले-उत्सव के अनुष्ठान पारम्परिक
तरीके से मनाये जाते। ऐसे परिवारों की लड़कियों को स्कूल जेलख़ाना
लगता। वे सोचतीं कब हम सीनियर सेकेंडरी लेवल इम्तहान ख़त्म करें, कब
हमें यहाँ से छुटकारा मिले।
...आगे
|