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ये आज़ादी के बाद के दिनों की दिल्ली थी। इसका प्रधान रंग तिरंगा था।
लालकिले पर आज़ाद भारत का परचम शान से लहरा रहा था। लेकिन ठीक उसके
नीचे लालकिले की बाहरी दीवार से सटे न जाने कितने शरणार्थी अपने
टीन-कनस्तर, गठरी-मोटरी लेकर खुले में बैठे हुए थे। सबके चेहरों पर
परेशानी और उलझन थी। स्त्रियों ने अपने सिर दुपट्टों से ढँके हुए थे
लेकिन तेज़ हवा चलने पर दुपट्टे फिसल जाते। कभी अगस्त का बादल बरस
जाता तो खुले आसमान के नीचे पड़े सामान को समेटने की नाकाम कोशिश में
कई जोड़ी बाँहें उघड़ जातीं। दरियागंज, तुर्कमान गेट, लालकिला, जैन
मन्दिर और गुरुद्वारा सीसगंज की तरफ़ से ऐलानियाँ ताँगा कई बार मुनादी
करता निकलता ‘‘भाइयो और बहनो, सरकार की तरफ़ से जगह-जगह कैम्प लगाये
गये हैं, आपसे गुज़ारिश है वहाँ जाकर अपना नाम दर्ज करवाएँ और अपनी
बारी का इन्तज़ार करें। खुले में रात न बितायें।’’
मुनादी सुननेवाले बेघर-बार लोग और सिकुडक़र बैठ जाते। कई कैम्पों की
बुरी हालत देखने के बाद ही वे खुले आसमान के तले आकर बैठे थे।
कैम्पों में इन्सान जानवरों से भी बदतर हाल में रह रहे थे। इनकी तरफ़
देखने पर आज़ादी की सारी उमंग झूठी लगती।
कविमोहन कॉलेज जाते और आते वक्त ये दृश्य देखकर उदास हो जाता। कॉलेज
में उसे संस्थापक दिवस समारोह की कार्यक्रम-समिति में रखा गया।
प्रिंसिपल चाहते थे कि वह कुछ फडक़ते हुए देशगान तैयार करवाये। लेकिन
कवि का मन आज़ादी की विसंगतियों से डाँवाडोल रहता। वह विद्यार्थियों
को ‘मेरे नगपति मेरे विशाल’ और ‘बढ़े चलो, बढ़े चलो’ जैसे गाने
कंठस्थ नहीं करवा पाया। इनकी बजाय उसने दिनकर की पुस्तक ‘हुंकार’ से
कविता ली—
‘श्वानों को मिलता दूध-वस्त्र, भूखे बालक अकुलाते हैं
माँ की हड्डी से चिपक ठिठुर जाड़ों की रात बिताते हैं।
युवती के लज्जा वसन बेच जब ब्याज चुकाए जाते हैं
मालिक जब तेल-फुलेलों पर पानी-सा द्रव्य बहाते हैं
पापी महलों का अहंकार देता तब मुझको आमन्त्रण।’
एक और समूहगान उसने प्रतीक से लिया—
‘बोल अरी हो धरती बोल
राजसिंहासन डाँवाडोल।’
छात्र और छात्राओं को इन कविताओं की शब्द योजना और स्वर समझ आ गया और
उन्होंने अभ्यास कर इन्हें कंठस्थ कर लिया। कुहू अलग अपनी
नृत्यनाटिका का पूर्वाभ्यास करवा रही थी। समारोह से एक दिन पूर्व
प्रिंसिपल ने बताया कि वे ड्रेस रिहर्सल देखना चाहते हैं।
विद्यार्थियों का उत्साह चरम पर था। उन्होंने फाइनल समारोह की तरह ही
ड्रेस रिहर्सल का आयोजन किया।
बाकी सब आइटम तो ठीक रहे पर समूहगान पर प्रिंसिपल अटक गये। उन्होंने
कहा, ‘‘जलसे में हमने रक्षामन्त्री को बतौर मुख्य अतिथि बुलवाया है।
अगर वे पूछेंगे ‘राजसिंहासन डाँवाडोल’ से आपका क्या तात्पर्य है तो
हम क्या जवाब देंगे’।’’
कवि ने कहा, ‘‘सर यह स्वाधीनता से पहले की कविता है, तभी के ज़ज्बात
इसमें आये हैं।’’
‘‘यह बात कविता से कहाँ ज़ाहिर हुई है?’’ प्रिंसिपल ने एतराज़ किया।
इसी प्रकार दिनकर की कविता पर आक्षेप लगा। प्रिंसिपल को ख़तरा था कि
इसे व्यंग्य-आरोप न समझ लिया जाए।
ड्रेस रिहर्सल के दिन ये दोनों समूहगान आयोजन में से निकाल दिये गये।
कुहू से कहा गया कि वह अपनी नृत्य नाटिका में उर्वशी का एक और नृत्य
जोडक़र आइटम को लम्बा बना दे।
समूहगान के छात्रों में मायूसी छा गयी। दो-तीन छात्र आक्रोश में आ
गये। कवि के दोनों आइटम आयोजन से बाहर हो गये। यकायक वह
संस्थापक-समारोह में आउटसाइडर बन गया।
अगले दिन उत्सव था। कविमोहन कॉलेज गया ही नहीं। वह अपने कमरे में
लेटे-लेटे बाँसवेल की ‘लाइफ़ ऑफ़ जॉन्सन’ पढ़ता रहा। कवि की अनुपस्थिति
को तीखेपन से कुहू ने महसूस किया। उसे लगा वह अकारण ही कारण बन गयी।
वैसे भी उसे कवि का रवैया समझ नहीं आता। कभी वह पीछे हटे समुद्र-सा
पराजित, परास्त और प्रत्यावर्तित दिखता। कुहू को लगता उनकी मित्रता
का आधार अजनबीयत पर टिका है। वह उसके बारे में कुछ भी तो नहीं जानती।
कवि के जीवन में कुहू वहीं तक थी जहाँ इन्दु उसे अकेला छोड़ती। उसके
मन में एक बुद्धिजीवी साथी की ललक बनी हुई थी। उसे लगता उसके पहलू
में कोई हो जो उसके सपने और सरोकार समझे, जिसे वह अपने मन का साथी
बना सके और जिसके लिए उसकी ख़ुशी अहम हो।
कॉलेज में फ्री पीरियड के दौरान उन दोनों में वार्तालाप तो अक्सर
होता पर वह संवाद से ज्याकदा विवाद की शक्ल ले लेता। बल्कि अब तो
बाकी अध्यापक बाकायदा इन्तज़ार करते कि इनकी बहस छिड़े तो उनका भी
वक्त कटे।
सबसे पहला विवाद का विषय तो यही हो जाता आज चाय मँगाई जाए या कॉफी।
कुहू को कॉफी पसन्द थी। कवि चाय-प्रेमी था। वह कहता, ‘‘कैंटीनवाले को
कॉफी बनानी नहीं आती, इंडियन कॉफी हाउस जैसी कॉफी यहाँ कभी नहीं मिल
सकती।’’
कुहू कहती, ‘‘यहाँ की चाय तो और भी रद्दी है, उसमें फ्लेवर है ही
नहीं।’’
स्टाफ़-रूम में मौजूद मेहरोत्रा कहता, ‘‘फिज़ूल झगड़ रहे हो तुम लोग,
जिसे चाय पीनी है चाय मँगाये, जिसे कॉफी पीनी है, कॉफी।’’
कोहली फुटनोट जड़ता, ‘‘कुहेलीजी की रुचियाँ हाइक्लास हैं, कविमोहन
की, मिडिल क्लास। जोड़ी नहीं बैठती।’’
कुहू मन मारकर चाय पी लेती।
कभी साहित्य के प्रश्नों पर बहस छिड़ जाती जो कई दिन चलती। कुहू की
आदत थी वह जिस भी कवि की कविता क्लास को पढ़ाती, उसी का राग अलापना
शुरू कर देती। इन दिनों वह शैले पढ़ा रही थी। उसने लायब्रेरी से लेकर
शैले की जीवनी ‘एरियल’ से लगाकर समस्त किताबें पढ़ डालीं। वह शैले की
जीवन-शैली, क्रान्तिकारिता और काव्य-प्रतिभा के गुणगान से भरी हुई
थी। कवि को शैले बुरा नहीं लगता था लेकिन वह उसका दीवाना भी नहीं था।
‘‘मैं यह मानता हूँ शैले ने अपना जीवन गलत ढंग से जिया। इसकी वजह से
उसने तो दुख पाया ही, उससे जुड़े सभी लोगों ने बेवजह दुख उठाया।’’
कवि ने स्टाफ़-रूम में कुहू से कहा।
‘‘तुम पूर्वाग्रह से ग्रस्त हो। वह इतना संवेदनशील था कि और किसी तरह
जीना उसके बस में नहीं था। कच्ची उम्र में अपनी सौतेली बहन के प्रेम
में पड़ गया, ज़रा बड़ा हुआ तो हैरियट की ख़ूबसूरती उसे ले डूबी।’’
बोलते-बोलते कुहू भावुक हो उठी।
‘‘उसने हैरियट को सिर्फ सताया, उसे आत्महत्या के लिए मजबूर किया, वह
क्रिमिनल था।’’ कवि ने कहा।
‘‘तुम उसके प्रति ज़ालिम हो रहे हो। उसकी कविताओं के बरक्स उसका जीवन
रखकर देखो। ऐसा कवि ही हताशा के हक़ में लिख सकता है।’’
‘‘क्या यह अच्छा है, अपनी पीड़ा में छपक-छपक नहाना? उससे कहीं सशक्त
कवि वर्ड्ज़वर्थ और कोलरिज हैं।’’ कवि ने प्रतिवाद किया।
‘‘तुमने भी किन मीडियॉकर के नाम ले लिये,’’ कुहू ने कहा,
‘‘वर्ड्ज़वर्थ में कहीं उत्तेजना का चरमबिन्दु नहीं है, वह ताउम्र
सत्तानवे डिग्री पर लिखता रहा।’’
‘‘तुम यह उम्मीद क्यों करती हो कि लेखक अपना कुल जीवन दाँव पर लगाकर
लिखता रहे? लेखक को इसी जीवन में बहुत से काम करने रहते हैं, लिखना
उनमें से एक काम है।’’
‘‘नहीं इस तरह कोई जीनियस नहीं लिख सकता।’’
तभी घंटी बजने से उनकी बहस स्थगित हो गयी लेकिन शेष दिन के लिए दोनों
को विचारमग्न छोड़ गयी।
कवि सोचने लगा कि उसकी नज़र में शैले पलायनवादी, सुखवादी और
अव्यावहारिक इन्सान था लेकिन एक लेखक के तौर पर वह स्वयं क्या है? एक
तरफ़ वह अपने को जिम्मेदार नागरिक मानता है दूसरी तरफ़ वह अपने घर का
बोझ माता-पिता के ऊपर डालकर अविवाहित जीवन जैसी स्वाधीनता कमाने की
कोशिश करता है। उसके जीवन में क्या कम विसंगतियाँ हैं। जैसे शैले ने
हैरियट को मौत की कगार पर पहुँचाया वह भी अपनी पत्नी को तिल-तिल मार
रहा है। महज़ कुछ रुपये घर भेज देने को वह अपने कर्तव्य की पूर्ति
समझता है।
उसे यह भी समझ आने लगा था कि कुहू शायद उसे अविवाहित मानकर ही चल रही
है। वैसे कॉलेज में अब्दुल, अपूर्व और कई साथियों को पता था कि वह
विवाहित है पर उन सबसे कुहू की कोई अनौपचारिक मित्रता नहीं थी। यह
कुहू का भोलापन था अथवा कवि का काइयाँपन कि अब तक वह अपने विवाहित
होने की जानकारी उसे नहीं दे सका। वह अपने को रोज़ यही भुलावा देता
रहा कि बिना किसी सन्दर्भ और प्रसंग के वह कैसे कुहू से कह सकता था,
सुनो मैं बाल-बच्चेदार आदमी हूँ, तुम मुझे अपना सम्भावित साथी मत
समझो।
कवि ने तय किया कल वह किसी भी तरह कुहू को जता देगा कि उसके परिवार
में कौन-कौन है। काश उसके पास इन्दु और बच्चों की कोई तस्वीर होती।
तब उसका काम बड़ा आसान हो जाता। वह किताब में से तस्वीर गिरा देता और
उठाते हुए कहता, ‘देखो कुहू, मेरा प्यारा परिवार। मेरी पत्नी इतनी
सुन्दर है कि नरगिस, निम्मी उसके आगे पानी भरें। और ये हैं मेरी
बच्चियाँ।’ लेकिन तस्वीर के बिना कवि उन्हें तस्वीर से भी कहीं ज्या
दा सप्राण, सुन्दर और आत्मीय बना देगा, यह वह जानता था।
32
अगले दिन कॉलेज में कुहू का सामना करने के लिए कवि ने पिछली रात
आँखों में काटी। दिमाग में तरह-तरह के जाले थे जो तर्क-वितर्क से हट
नहीं रहे थे। कवि सोच रहा था उन दोनों के बीच घोषित सम्बन्ध तो महज़
इतना था कि वे एक ही कॉलेज के एक विभाग में सहकर्मी थे। दोनों को ही
कविता पढ़ाने में विशेष रुचि थी हालाँकि उनके प्रिय कवि अलग थे।
दोनेां को साहित्यिक बहस का शौक था। यह अलग बात है कि कई बार उनकी
बहस एकाधिक दिन तक चला करती और स्टाफ़-रूम में मौजूद बाकी लोग
दिलचस्पी से यह नज़ारा देखते। इसके साथ-साथ सतह के नीचे पनपने वाली वह
मित्रता थी जिसकी पृष्ठभूमि दोनों की असावधानी से निर्मित हुई थी।
कुहू के बार-बार ज़ोर देने पर कविमोहन के उसके घर जाने के छ:-सात
प्रसंग, देवाशीष के कविता या अध्ययन-सुधार के चार-पाँच सत्र और कुल
जमा एक बार कवि का उनके घर पर रात्रिकालीन भोजन। उस दिन की बात से
कवि को आज भी हँसी आ जाती है। कैसे कुहू की माँ ने ताज्जुब से कहा
था, ‘ओ माँ यह बोका माछेर झोल खाता नहीं, इसको हम क्या खिलाएँ?’ उस
रात कवि ने उनके यहाँ सिर्फ चने की दाल से लूची खायी थी। कवि को उस
परिवार का उत्फुल्ल भाव पसन्द था। वहाँ सब सदस्यों का आपस में सहज
संवाद था। लडक़े-लडक़ी की मित्रता के प्रति न कोई सन्देह न संकोच।
बल्कि उसके पिता स्वयं कहते, ‘‘कोबी इस पूजो पर तुम हमारे साथ
कोलकाता चलो, बहुत अच्छा लगेगा।’’ घर की हदों में कुहू भी एकदम अलग
किस्म की लडक़ी बन जाती, शैले और वर्ड्सवर्थ पर झगडऩेवाली युवती की
जगह ताश के पत्ते बाँटती, फेंकती, एक अल्हड़ लडक़ी।
उस परिवार के ताने-बाने में कवि एक सदस्य की तरह स्वीकार कर लिया गया
था, यहाँ तक कि कवि को बोलचाल की बांग्ला समझ आने लगी थी। वह
रवीन्द्रनाथ ठाकुर और ईश्वरचन्द्र विद्यासागर द्वारा लिखित दोनों
बांग्ला प्राइमर भी खरीद लाया था। रात जब वह आखिरी बस से दस बजे जाने
को कहता, कुहू उसे छोडऩे घर के फाटक तक आती और व्यग्रता से पूछती,
‘‘फिर कब आओगे?’’ थोड़ी देर दोनों ठिठके खड़े रहते। पूरे चाँद की
चाँदनी में न सिर्फ बेगमबेलिया के पत्ते वरन् कुहू के बाल भी चमकते,
उसका दुपट्टा एक क्षण कवि के ऊपर लहरा जाता और वह कहती, ‘‘एदियू टिल
वी मीट अगेन।’’ कवि बस की जगह बादलों पर सवार होकर वापस लौटता।
कवि को याद आया एक दिन कुहू की माँ ने कहा, ‘‘ये लडक़ी, कोबी, एकदम
पागल है। इधर बंगाली मार्केट में नहीं उधर करोलबाग जाकर शॉपिंग करना
बोलती। तुम इसको ले जाओ, हम तो कभी करोलबाग गया नहीं।’’
एक इतवार वे दोनों करोलबाग गये थे। कुहू चिडिय़ा की तरह चहक रही थी।
उसने सलवार-सूट का कपड़ा, पाउडर, शमीज, छोटे टॉवेल और मेवे खरीदे।
फिर बोली, ‘‘अरे मुझे बॉबपिन्ज़ और क्लिप खरीदने थे, वह तो मैं भूल ही
गयी।’’ वह कवि की बाँह पकडक़र एक तरह से घसीटती हुई ही वापस चल पड़ी
थी मार्केट की ओर जहाँ नुक्कड़ पर ही क्लिपवाला और चाट-पकौड़ी वाला
बैठा था। जब कुहू ने बालों के लिए तरह-तरह के ढेर सारे क्लिप्स और
पिन खरीदे, कवि ने भी तीन जोड़ी सुन्दर से क्लिप्स खरीद लिये थे।
कुहू ने शरारत से कहा था, ‘‘अपनी तीन गर्ल फ्रेंड्स के लिए?’’
कवि ने सकपकाकर कहा था, ‘‘मेरी तीन बहनें हैं।’’
उस क्षण कवि बता सकता था कि वह यह सौगात अपनी पत्नी के लिए खरीद रहा
है लेकिन उसमें नैतिक साहस ही न हुआ। उसे बहनों का नाम लेना सर्वथा
सुरक्षित लगा।
रात में इन बातों की निष्प्रयोजनता कवि के सामने खुलती जा रही थी। वह
तय कर रहा था कि उसे यह ख़बर पहले कुहू-परिवार को देनी चाहिए अथवा
कुहू को! कभी वह सोचता उसे पहले कुहू को बताना चाहिए क्योंकि परिवार
को तो वह कुहू के माध्यम से जान पाया है। कभी उसे लगता एक बार परिवार
उसके सत्य को स्वीकार कर ले फिर तो कुहू का व्यवहार समयानुसार सहज हो
जाएगा।
इन्हीं द्वन्द्वों में फँसा जब कवि कॉलेज पहुँचा उसने पाया आज कुहू
कॉलेज आयी ही नहीं है।
कवि कुछ प्रकृतिस्थ होकर स्टॉफ़-रूम में अपनी कुर्सी पर बैठ गया। कुछ
देर बाद उसके हैड ने ही बताया, ‘‘कुहेली भट्टाचार्य के फादर को हार्ट
अटैक हो गया है। उसका फोन आया था।’’
कवि को हैरानी हुई, ‘‘कब की बात है।’’
‘‘लास्ट नाइट बताया था उसने।’’
कविमोहन ने किसी तरह एक पीरियड लिया, फिर वह बंगाली मार्केट की तरफ़
चल पड़ा।
घर पर ताला लगा था। पड़ोसी ने बताया शायद जीवन हॉस्पिटल गये हैं सब
लोग।
सघन चिकित्सा कक्ष के बाहर गलियारे में बेंच पर चिन्तामग्न बैठे तीन
चेहरे माँ, देवाशीष और कुहू के थे। उन्हीं से कवि को पता चला कि रात
खाने के बाद पिताजी को यकायक बेचैनी हुई, बाँह में तेज़ दर्द हुआ और
वे बेहोश हो गये। डॉ. आहूजा को बुलाकर दिखाया तो उन्होंने इन्हें
हॉस्पिटल लाने की सलाह दी। गम्भीर हार्ट अटैक था। इस वक्त दवाओं के
असर से बेसुध हैं।
मौजूदा हालात में पिताजी की देखभाल के अलावा और किसी विषय पर बातचीत
का सवाल ही नहीं था। कॉलेज के कुछ और लोग भी उन्हें देखने आये लेकिन
कवि पर उनके पास बैठने की बाक़ायदा ड्यूटी लगी थी। कुहू के चाचा का
परिवार कलकत्ते से दो दिनों के लिए आकर बीमार का हाल देख गया।
सेवासुश्रूषा का असली वज़न घर के लोगों पर ही था और कवि भी घर का
हिस्सा समझा जाने लगा।
एक शाम वह भट्टाचार्यजी के पास बैठा किताब पढ़ रहा था। तभी स्टॉफ
नर्स ने आकर उनका रक्तचाप जाँचा। वह कवि से मुस्कराकर बोली, ‘‘आपके
फ़ादर हैं ये?’’
‘‘नहीं, फ़ादर जैसे हैं।’’
‘‘फ़ादर इन लॉ?’’
‘‘नहीं, माय फ्रेंड्स फ़ादर।’’
नर्स के जाने के बहुत देर बाद जब कवि भट्टाचार्यजी को फलों का रस
पिला रहा था, उन्होंने अचानक कहा, ‘‘कोबी, हमंऔ लगता हम अब लडक़ी का
बिये कर दें।’’
कवि एकबारगी समझा नहीं कि वे क्या कह रहे हैं। उसे प्राइमर से यह तो
पता था कि बोई का मतलब किताब होता है। बिये का मतलब वह नहीं जानता
था।
भट्टाचार्यजी कहने लगे, ‘‘रिटायर होकर हम सोचता था, सब काम धीरे-धीरे
करेगा। अब तबियत बोलता, तड़पड़ काम करने का जैसे हज़ारे रन बनाता।
ताड़ाताड़ी।’’
‘‘सब हो जाएगा, पहले आप स्वस्थ होकर घर तो पहुँचें।’’
कवि ने उनको शान्त किया। उसे आभास हुआ कि उनका मतलब कुहू की शादी से
है। यह वह मौका नहीं था जब कवि इस सत्य का उद्घाटन करता कि वह
विवाहित है, दो बच्चों का पिता। एक इनसान की जान पर बनी थी और अगले
चार घंटे, उनकी सुश्रूषा का भार कवि पर था।
जब कुहू रात के लिए थर्मस में दूध लेकर हॉस्पिटल आयी तब भी कवि यह न
पूछ सका कि सुनो कुहू, बिये का मतलब क्या होता है?
अपने कमरे के एकान्त में, बिस्तर पर, थके-हारे, लेटे हुए कवि को बड़े
तीखेपन से लग रहा था भारतीय समाज पुरुषों के प्रति कम क्रूर नहीं रहा
है। क्यों नहीं समाज ने कुछ ऐसे प्रतीक चिह्न स्थापित किये जिनको
धारण करने से पुरुषों का विवाहित होना ज़ाहिर हो सके। स्त्रियों को
कम-से-कम यह छूट है कि वे मंगलसूत्र, सिन्दूर, आलता और बिन्दी के
सहारे अपने विवाहित होने का सबूत पेश कर सकती है। पुरुष के सर्वांग
पर कहीं नहीं लिखा होता कि वह विवाहित है अथवा अविवाहित। पुरुष
शिथिल, थुलथुल, अधेड़ दिखने लगे तब तो लोग समझ लें कि हाँ यह
बाल-बच्चेदार आदमी है, अन्यथा अगर वह कवि की तरह लम्बा, दुबला, लडक़े
जैसे युवा और आकर्षक व्यक्तित्व का हो तो यह समस्या हर सम्पर्क में
उपस्थित हो सकती है। पश्चिम में मर्द के बायें हाथ की अनामिका में
अँगूठी का होना उसका शादीशुदा होना बताता है पर भारतीय समाज में मर्द
की उँगली में अँगूठी कोई स्पष्ट घोषणा-पत्र नहीं है। शादी पर कविमोहन
को ससुराल से अँगूठी दी गयी थी जिस पर ú खुदा हुआ था। कवि ने उसे एक
भी बार पहनकर नहीं देखा। उसे हमेशा लगता था अँगूठी पहननेवाले हाथ
व्यापारियों के हाथ होते हैं। कलम-पेन्सिल पकडऩेवाले हाथों में
अँगूठी शोभा नहीं बाधा लगती है। उसकी अँगूठी घर की तिजोरी में कहीं
पड़ी होगी। कवि को बच्चनजी की पंक्तियाँ याद आने लगीं—
‘हम कब अपनी बात छिपाते।
हम अपना जीवन अंकित कर
फेंक चुके हैं राज-मार्ग पर
जिसके जी में आये पढ़ ले, थमकर पल भर आते-जाते
हम कब अपनी बात छिपाते।’
यही ठीक रहेगा, कवि ने सोचा। वह कुहू को पत्र लिखकर अपनी स्थिति
स्पष्ट कर देगा।
कवि का मन कुछ हल्का हो आया। शब्द की दुनिया पर उसे सबसे ज्या्दा
भरोसा था।
करवट-करवट सोकर देखा लेकिन उसको नींद न आयी। कवि कागज़-कलम लेकर बैठ
गया।
उसने लिखना शुरू किया—मेरी दोस्त कुहू। फिर कुछ सोचकर उसने मेरी शब्द
काट दिया। —मेरी दोस्त कुहू। उसे क्या हक है कुहू को मेरी कहने का।
आगे उसने लिखा—‘तुम सोचोगी जब मैं रोज़ इतने घंटे तुम्हारे पास,
तुम्हारे साथ होता हूँ, चिट्ठी लिखने की आखिर क्या ज़रूरत पड़ गयी। आज
अस्पताल में पिताजी को यकायक तुम्हारी फिक्र होने लगी। उन्होंने कहा
वे चाहते हैं तुम्हारी बिये कर दें। बांग्ला सहज ज्ञान पोथी में बिये
शब्द का अर्थ तो नहीं दिया पर मैं समझ रहा हूँ कि उनका तात्पर्य
तुम्हारे विवाह से है।
इसके लिए पहल तो तुम्हें करनी होगी। जैसी सहज, सजग और प्रखर तुम हो
अपने अनुरूप साथी ढूँढऩे का काम सबसे सही तरीके से तुम ही कर सकती
हो। अपने आसपास साथियों पर नज़र दौड़ाता हूँ तो मुझे कोई भी तुम्हारे
योग्य नहीं लगता, मैं भी नहीं। काश तुम मुझे पाँच साल पहले मिली
होतीं। तब मैं अपना नया उज्ज्वल प्रथमोल्लास तुम्हें अर्पित करता। अब
तो मेरी दशा कुछ-कुछ एलियट की कविता की शुरुआत जैसी है—
‘लेट अस गो देन यू एंड आय
वैन द ईवनिंग इज़ स्प्रेड अगेंस्ट द स्काय
लाइक ए पेशेंट ईथराइज़्ड अपॉन द टेबिल।’
मेरी पत्नी इन्दु सुन्दर और अच्छी है लेकिन मेरे विचारलोक में
प्रविष्ट नहीं है। उसे अधिक शिक्षित करने का मुझे समय और अवसर भी
नहीं मिला। तुममें मैंने अपनी सोलमेट की झलक देखी जिसका स्विचबोर्ड
हमेशा सक्रिय और संवेदनयुक्त रहता है।
इस पत्र को लिखते हुए मैं एक साथ चिन्तातुर और चिन्तामुक्त, दोनों हो
रहा हूँ। तुम समझ सकती हो।
तुम्हारा
कविमोहन
पत्र पूरा कर कवि उसे एक बार पढ़ गया। अब उसने सम्बोधन में से दोस्त
शब्द भी काट दिया—मेरी दोस्त कुहू—सिर्फ कुहू बच रहा। अन्त में भी एक
शब्द काटना पड़ा—तुम्हारा। उसने दूसरी बार पत्र पढ़ा। कटे हुए शब्द
लाशों की तरह पृष्ठ पर पड़े थे। कवि चाहता तो चिट्ठी दुबारा नये कागज़
पर लिख सकता था। पर उसकी आदत थी वह कोई भी चीज़ बस एक बार लिखता।
कविता से लेकर लेख तक उसका यही अभ्यास था। हाँ, कागज़ पर उतरने से
पहले पंक्तियाँ उसके मन-मस्तिष्क में उमड़ती रहतीं।
पत्र को मोडक़र उसने लिफ़ाफे में डाला। लिफ़ाफे के ऊपर कुहू का नाम
लिखते हुए हाथ कुछ काँप गया। दूसरा लिफ़ाफ़ा लम्बा था, रचनाएँ
भेजनेवाला। उसमें निजी ख़त डालना अच्छा नहीं लगता। कवि ने मेज़ पर
चिट्ठी रख छोड़ी। उसके ऊपर पेन रख दिया। सोचा सुबह दूसरा लिफ़ाफ़ा लाकर
नाम नये सिरे से लिख देगा।
आमतौर से कवि देर में सोकर उठता था और हड़बड़ी में तैयार होकर कॉलेज
चल देता। आज सुबह-सुबह हल्की फडफ़ड़ाहट से उसकी नींद खुल गयी। उसने
पाया खिडक़ी से आ रही हवा से कलम के नीचे दबा कागज़ रह-रहकर फडफ़ड़ा रहा
है जैसे कह रहा हो, मुझे सँभाल लो, मैं किसी भी पल उड़ जाऊँगा।
कवि ने बाँह बढ़ाकर चिट्ठी उठा ली। चिट्ठी पर नज़र डाली। थोड़ा
असन्तोष हुआ। उसे लगा चिट्ठी अधूरी है। उसने पुनश्च लिखकर उसमें
जोड़ा, ‘आज मुझे तुम्हारे प्रिय कवि शैले की पंक्तियाँ याद आ रही
हैं—
जब तक चिट्ठी कमरे में रखी रही कविमोहन को चुनौती देती रही। उसे लग
रहा था यह चिट्ठी उसे अँगूठा दिखा रही है, ‘तुम मुझे डाक में डालोगे
ही नहीं। तुम्हें बंगाली मार्केट का पता भूल जाएगा। तुम्हारे पास न
लिफ़ाफ़ा है, न डाकटिकट। तुम इस शहर में अपनी एकमात्र दोस्त को अपनी
बेवकूफ़ी से खो दोगे। तुम्हारा नाम कविमोहन नहीं मूर्खमोहन है।’
कवि से न नाश्ता खाया गया न खाना। वह कॉलेज भी नहीं गया। उसने अख़बार
भी नहीं पढ़ा। उसके दिमाग में आँधी चलती रही। किस मुँह से वह कॉलेज
जाता रहेगा। कुहू उसे क्यों क्षमा करेगी! और उसका परिवार!
आखिरकार सत्य का बोझ और अधिक सहना कवि के लिए असह्य हो गया और शाम
पाँच बजे वह चिट्ठी डाकपेटी में छोड़ आया।
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मथुरा में इन दिनों बड़े परिवर्तन हो गये थे। आज़ादी के साथ ही वहाँ
नये निर्माण का दौर आया और देखते-ही-देखते वहाँ के बाज़ार रौनक़दार हो
गये। बहुत से शरणार्थियों ने छत्ता बाज़ार, चौक, होली दरवाज़े, नानकनगर
और डैम्पियर पार्क में तरह-तरह के स्टोर खोले। इनमें पीले टिमटिमाते
बल्बों की जगह उन्होंने लम्बी ट्यूबलाइटें लगवायीं जो दिन में भी
दुकानों को जगमग रखतीं। दुकानदारी का शास्त्र और अर्थशास्त्र दोनों
बदल गया। पुराने व्यापारी इन नये दबावों को महसूस कर थोड़ा
तिलमिलाते, फिर पंखे की डंडी से पीठ खुजाते हुए बोलते, ‘‘दुकानें लाख
नयी हो जाएँ ग्राहक तो वही पुराने हैं, वे तो हमारे ही पास आएँगे।’’
इस बात में केवल एक-तिहाई सच था। ग्राहक की जेब में पैसे हों न हों
वह एक नज़र इन नये स्टोरों पर ज़रूर मारता।
उसके व्यवहार की जड़ में घर की स्त्रियों की ललकार रहती जो
सुबह-सवेरे मुनादी कर देतीं, ‘‘तुम यह बट्टीवाला साबुन कहाँ से ले
आये? बगलवाली के यहाँ तो ‘काके दी हट्टी’ का साबुन आया है। यासे आठ
आना सस्ता और झाग दोगुना।
पति गाँठ बाँध लेते अब से ‘काके दी हट्टी’ से ही साबुन लाना है।
नव-स्वाधीन भारत देश का न केवल भूगोल वरन इतिहास भी बदला था। उसका
बाज़ार और भाव भी बदल रहा था। जिसने यह सत्य जितनी जल्द पहचान लिया
उतनी जल्द वह तरक्की की दौड़ में शामिल हो गया। पीछे छूटे लोग रोते
रह गये अपनी पुरानी दुकान और दुकनदारी को।
लाला नत्थीमल समय की चाप पहचान रहे थे। उन्होंने इसकी शुरुआत पत्नी
विद्यावती और बेटी भगवती के आचरण में देखी थी। उन्हें पता था कि अब
बाज़ार विक्रेता का नहीं ख़रीदार का हो रहा है।
लाला नत्थीमल के अन्दर समय की नब्ज़ टटोलने की अद्भुत मशीन लगी हुई
थी। वे यह भी मानते थे कि ग्राहक के अनुकूल बात कहते हुए भी अपने मन
की करना, एक अच्छे व्यापारी की निशानी है। अत: वे भी अब आसामी से इसी
तर्ज में बात करते।
भगवती ने दसवीं की परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण कर स्कूल का
कीर्तिमान तोड़ा और उसी साल उसे कस्तूरबा विद्यालय में अध्यापिका की
नौकरी मिल गयी। लाला नत्थीमल ख़बर से हक्का-बक्का रह गये क्योंकि
उन्होंने कभी कल्पना ही नहीं थी थी कि ऐसा ज़माना आएगा जब लडक़ी भी
कमाई करने लगेगी। आदत के मुताबिक पहले उन्होंने विरोध किया, ‘‘भग्गो
काम पर नहीं जाएगी। लोग क्या कहेंगे! बनिया बिरादरी में तो नाक कट
जाएगी!’’
विद्यावती बोली, ‘‘छोरी ने पढ़ाई कर सिर ऊँचा किया है तुम्हारा। लडक़ी
है तो क्या हुआ!’’
‘‘पहले घर का काम तो सीख ले। कल को ब्याह होगा तो किताब-कापी काम
नायँ आयगी।’’
‘‘घर के काम वह पहले से जानै। अभी तो ब्याह तय नहीं हुऔ है तब तक तो
पढ़ाने दो बाय।’’
‘‘छोरी की कमाई खाओगी?’’
‘‘अलग धरती जाऊँगी। डाकखाने में उसके नाम जमा करवा देना।’’
‘‘तुम इत्ती हिमायत च्यों कर रही हो?’’
‘‘मैंने देख लिया ना। पढ़ाई के बिना औरत की जिन्दगी नरक है। येई लीली
को बीच में स्कूल से उठा लिया। कुन्ती भी छठी के आगे नायँ पढ़ी। कवि
देखो पढ़ गया तो कित्ता आगे बढ़ गया।’’
‘‘हाँ वह तो दिल्लीवाला बन के बैठ गया। अपनी छोरियों की भी फिकर
नायँ।’’
‘‘इनके नाम भी लिखवाओ। बेबी बड़ी हो रही है, कब स्कूल जायगी?’’
बड़े बेमन से पिता भगवती को काम पर भेजने को राजी हुए। उन्होंने उसे
डपटकर समझाया, ‘‘टीचर बन गयी है इसका मतलब यह नहीं कि सडक़ों पर फक्का
मारती घूम। घर से स्कूल, स्कूल से घर सूधे से आना-जाना है। सडक़ पर
कभी किसी से बोलना नहीं। और कान खोलकर सुन ले, फैसन करबे की कोई
जरूरत नहीं।’’
भगवती ने दबी ज़ुबान से कहा, ‘‘दादाजी स्कूल में टीचरों की भी ड्रेस
है, नीली किनारी की सफेद धोती।’’
गाँधीजी के सिद्धान्तों पर कस्तूरबा विद्यालय स्थापित हुआ था। अभी
वहाँ सिर्फ कक्षा एक से पाँच तक की पढ़ाई होती। महात्मा गाँधी का
नारा ‘सादा जीवन उच्च विचार’ स्कूल के फाटक पर भी अंकित था।
बनिया बिरादरी को महात्मा गाँधी की ‘सादा जीवन’ वाली उक्ति बहुत
पसन्द थी। खर्च से चिढऩेवाली कौम को लगता गाँधीजी के आदर्शों से और
कुछ हो न हो घर में बचत तो हो ही सकती है। उच्च विचारवाली बात पर वे
थोड़े हक्के-बक्के हो जाते। फिर मन में तसल्ली करते कि नौजवान पीढ़ी
जब किफ़ायत से जीना सीखेगी तो विचार अपने आप उच्च हो जाएँगे। अपने
विचारों को लेकर वे कभी चिन्ताग्रस्त नहीं रहे क्योंकि उन्हें लगा कि
उनसे ज्याचदा आदर्शवादी जाति न कभी कोई थी न होगी। महात्मा गाँधी के
राष्ट्रीय आन्दोलन को भी उन्होंने एक बिरादरी-नज़र से देखा। वे
महात्मा गाँधी को राष्ट्रीय नेता से अधिक एक बनिया नेता में तब्दील
करना चाहते थे। जब-तब आज़ादी मिलने के बाद भी वे अपनी सायंकालीन
बैठकों में उनके दर्जन भर नुक्स निकालते। लाला शरमनलाल कहते,
‘‘गाँधीबाबा के साथ मुश्किल यह है कि वे न समाजवाद के बारे में
स्पष्ट हैं न लोकतन्त्र के। पढ़ा तो उन्होंने खूब है पर बीच में जो
ये दक्खिन अफ्रीका चले गये ना, बस हमारे यहाँ की राजनीति उनके हाथ से
छूट गयी। अब वे लाख कहते रहें चरखा चलाओ, खादी पहनो, इससे तो देश का
काम चलेगा नहीं।’’
छेदीलाल कहते, ‘‘गाँधीबाबा कहते हैं अपनी जरूरतें कम करो। खुद नंगे
उघाड़े रहते हैं कि उनकी देखादेखी हम लोग भी नंगधड़ंग रहें।’’
अच्छत चौबे कहते, ‘‘अरे हम तो तऊ नंगे उघाड़े रह लें पर लुगाइयों का
क्या होगा। वे तो कुछ पहिरेंगी।’’
लाला नत्थीमल बोलते नहीं पर उन्हें बड़े ज़ोर से कौंध जाता वह दिन जब
उनकी पत्नी अपनी बेटी के साथ स्वदेशी आन्दोलन की सभा मे होली दरवाज़े
गयी और भाईजी की वक्तृता सुनकर ऐसे जोश में आयी कि उसने अपने बदन पर
लपेटी चीनी सिल्क की चादर उतारकर विदेशी वस्त्रों की होली में झोंक
दी। उसी समय कांग्रेसी वालंटियरों ने उसके ऊपर खद्दर की चादर डाल दी।
लालाजी को बेचैनी इस बात की थी कि कुछ पल को ही सही तमाम भीड़ ने
उनकी स्त्री को नंगा उघाड़ा तो देख लिया।
वे नहीं चाहते थे कि एक अधनंगा, मझोले कद का दुबला-पतला आदमी आज़ादी
के नाम पर उनकी स्त्री और बच्चों को अनुशासित करे।
प्रकट उन्होंने कहा, ‘‘चलो आजादी आ भी गयी और अँग्रेज चले भी गये तो
अब क्या करोगे। का आजादी लेकर चूरन की तरह चाटोगे।’’
छेदीलाल बोले, ‘‘अरे आजादी भी यह क्या आयी है कि लफंगों, गुंडों,
हरामखोरों को आजादी मिल गयी है, शरीफ लोग वैसे के वैसे। जरा भंगी का
हौसला देखो, झाड़ू नहीं लगाएगा, धीमर पानी नहीं भरेगा, मोची पनही
नहीं बनायेगा। हम लोगों का तो मरण हो गया। ये काम कौन करेगा?’’
भरतियाजी ने कहा, ‘‘चलो मान लो यह जागरण की आँधी है। अब जिसे तनखाह
दोगे वही झाड़ू लगाएगा और वही पानी भरेगा। असली बात पर आओ। औरतें घर
में हमारा कहा मानेंगी या उस गाँधीबाबा का जो बहत्तर मील दूर बैठा
है।’’
लाला नत्थीमल को भी यही प्रश्न सबसे ज्यादा प्रासंगिक लगा। उन्होंने
कहा, ‘‘दसियों साल से मैं देख रहा हूँ, औरतों को आजादी का चस्का जरा
ज्यादा ही लगा है। पहले ससुरा चरखा चलाने के नाम पे घर से बाहर पैर
निकला, फिर तो लुगाइयाँ कई-कई सभाओं में जाने लगीं। सत्याग्रह का शोर
तो उन्होंने सुराजी भौलंटियरों से भी ज्यातदा मचाया। जरा-जरा बात में
चूल्हे की लपट जैसी भभकें, ये कोई अच्छौ गुन-ढंग नायँ।’’
भरतियाजी अपने मित्र का दर्द समझ रहे थे। उनकी पत्नी और बहन भी चरखा
चलाने का संकल्प लिये हुए थीं। उन्होंने कहा, ‘‘पर अब तो सुराज आ
गया, अब चरखा चलाने की कौन ज़रूरत है। जहाँ कताई केन्द्र था वहाँ तो
खद्दर भंडार खुल गया है। खुद इन लोगों के नेता भाईजी वहाँ बैठते हैं।
कल तक नुक्कड़ पर नेतागिरी करते थे, आज हाथ में गज पकडक़र खादी नाप
रहे हैं।
लालाजी बोले, ‘‘लो बोलो, इन्हें भला आजादी से क्या मिला?’’
भरतियाजी ने कहा, ‘‘ऐसा नहीं है। ये खुद गाँधीजी के कहने से ही इस
काम में लगे हैं। तुम्हें पता है बड़े-बड़े लोग आजकल संकल्प लेकर
खद्दर भंडार में बैठते हैं और खादी बेचते हैं। देखा है न भंडार के
बाहर लिखा रखा है—‘खादी वस्त्र नहीं विचार है।’ यह भी गाँधीजी का ही
वाक्य है।’’
वास्तव में खादी, विचार से ज्याीदा एक अस्त्र था जिससे गाँधीजी
भारतवर्ष की अर्थव्यवस्था ठीक करना चाहते थे। उनका नारा हो सकता था
‘खादी वस्त्र नहीं अस्त्र है’। लेकिन तब उनका अहिंसावाला आदर्श चोट
खा जाता। इसलिए उन्होंने कहा ‘खादी वस्त्र नहीं विचार है’।
छेदीलाल ने कहा, ‘‘खादी महँगी होवै है। बड़े आदमी ही पहर सकें
खादी।’’
‘‘नहीं, ऐसी बात नहीं। फिर हमने तो सुनी है कि खद्दर भंडार में हरेक
ग्राहक को एक जोड़ी कपड़ा मुफ्त दे रहे हैं।’’
‘‘पहले शपथ लेनी पड़ती है कि सारी उम्र खद्दर ही पहनोगे तब मिलता है
धोती-कुर्ता-गंजी और गाँधी टोपी।’’ भरतियाजी ने बताया।
मथुरा के जमुनाजल में जैसे सौ भँवर की हिलोर पड़ गयी। शाम का वक्त
था। दुकानदार अपनी दुकानदारी में उलझे थे, गृहस्थ अपना सरंजाम सँभाल
रहे थे कि दनादन, दनादन, दनादन, तीन गोलियों ने नवजात हिन्द स्वराज्य
का नक्शा बदल दिया। ज़रा देर में छिद्दू रोता हुआ दुकान पर लौटा, ‘‘आज
मैं खायबे को नईं खाऊँगौ, आप अन्दर बतला दें। आज गाँधीबाबा को
दईमारों ने गोली मार दई।’’
‘‘तुझे कैसे पता?’’
‘‘मैं पानवाले के ढिंग रेडियो सुन रह्यै थौ। वहीं पे रोआराट मच गयी।
आप भी लालाजी जल्दी से दुकान बढ़ालो, हल्लागाड़ी ऐलानिया बोल रई
है।’’
लाला नत्थीमल के हाथ-पैर फूल गये। अगल-बगल झाँककर देखा। सभी अपने
बोरे और कट्टे समेट रहे थे। जिनके पास रेडियो था वे बटन घुमाकर
दिल्ली स्टेशन पकडऩे की कोशिश कर रहे थे। लडक़ों की एक टोली हाय-हाय
करती मंडी के बीच से निकली। सबके चेहरों पर बदहवासी थी।
लालाजी को पत्नी का ध्यान आया। विद्यावती का जाने कौन हाल होगा खबर
सुनकर। उस पगली ने कैसा तार जोड़ रखा था गाँधीबाबा से।
दुकान बढ़ाकर वे परेशान से घर में घुसे। अँगोछा अलगनी पर लटकाकर टोपी
उतारी और बिना पैर धोये तखत पर बैठ गये।
तभी उन्हें भगवती दिखी। ‘‘भग्गो तेरी मैया कहाँ गयी?’’
‘‘दादाजी जीजी को खबर सुनकर दौरा पड़ गया। दाँती भिंच गयी है। अन्दर
पड़ी हैं।’’
घर में रेडियो नहीं था पर ख़बर हवा में उडक़र आनन-फानन फैल गयी थी।
इन्दु सास के तलवों में काँसे की कटोरी रगड़ रही थी। भग्गो ने दो
बूँद पानी उनकी पलकों पर डाला और थोड़ा-सा होंठों पर। चौंककर
उन्होंने आँखें खोल दीं। फटी-फटी और खाली आँखों से सबको देखकर बोलीं,
‘‘गाँधीबाबा से तो भेंट ही नायँ भयी, नईं मैं बिनसे पूछती लुगाइयों
की आजादी के लिए च्यों नईं लड़े तुम। अभी तो आजादी ठीक से मिली भी
नायँ।’’
‘‘सिर्री है का, 15 अगस्त 1947 को मिल तो गयी आजादी।’’ लालाजी ने
कहा।
‘‘अब का मिलैगी। आजादी दिलाबै बारौ भी चलौ गयौ।’’ विद्यावती ने अपनी
रौ में कहा।
बाज़ार तीन दिनों के लिए बन्द हो गया।
सभी स्कूल-कॉलेजों में शोक-सभाओं का आयोजन हुआ। महात्मा गाँधी के लिए
जनता में भावनाओं का ज्वार इतना प्रबल था कि चौराहों पर आम-सभाएँ रखी
गयीं। महात्मा गाँधी की तस्वीर के ऊपर इतनी फूल-मालाएँ चढ़ाई गयीं कि
तस्वीर के साथ-साथ चौराहा भी पूरा भर गया। लोगों ने महात्मा गाँधी की
तस्वीर देवी-देवताओं की मूर्ति और तस्वीरों के साथ अपने घरों में लगा
ली।
विद्यावती का जैसे स्वप्न ही टूट गया। उसने सोचा था आज़ादी आएगी तो
रामराज्य आ जायगा बल्कि सीताराज्य आ जायगा। औरत को आदमी की धौंस नहीं
सहनी पड़ेगी। वह अपनी मर्जी की मालकिन होगी। कोई उसके हाथों किये
खर्च पर नाक-भौं नहीं सिकोड़ेगा, कोई उसे बात-बात पर झिडक़ी नहीं
लगायेगा, घर-बाहर हर जगह उसके साथ बराबरी का बर्ताव होगा। यह क्या कि
आज़ादी के छह महीने बीत गये और औरत की जिन्दगी, वही ढाक के तीन पात।
गाँधी बाबा को कम-से-कम औरतों का तो ध्यान रखना चाहिए था, मर्द तो
पहले भी कौन कम आज़ाद थे। चलो समाज को तराजू मान लो और आदमी-औरत को
बटखरा। ऐसा कैसे हो रहा है कि आदमी तो तीन छँटाक का भी सवा सेर और
औरत सवाया होकर भी पौनी। बच्चों का पासंग बनाओ तब भी तराजू सतर नहीं
होती। औरत की तमाम उम्र ऐसे ही कट जाती है—कभी दुक्खम, कभी सुक्खम।
कहने की बात है कि मायके में सुख मिले, सासरे में दुख। माँ भी कम
बैरी नहीं होती। बच्चों में दुभाँत करना बाप का नहीं, माँ का काम
दिखता है। बेटों को प्यार, बेटियों को दुतकार। बेटे सारी जमा पूँजी,
जमीन-जायदाद ले जाएँ तब भी प्यारे। बेटियाँ अचार की फाँक पर पलें, तब
भी भारी।
विद्यावती के माँ-बाप ने उसका ब्याह कर जैसे जीते-जी उसका किरियाकरम
कर दिया। वापस घूमकर कभी पूछा ही नहीं कि छोरी किस हाल में है। कुछ
साल लग गये इस सचाई को हज़म करने में कि उसके जीवन में अब मायका ख़तम
है। वही बावली कभी जमनाजी जाते-आते किसी से पूछ लेती लाल हवेली वाले
लोग कैसे हैं, कभी अम्माजी को देखा, तबियत ठीक तो है न उनकी।
बनिया-समाज शायद यह सोचता था कि बेटी से ज्यामदा मुहब्बत दिखाई तो
कहीं वह ससुराल छोड़ पीहर में ही न आ बसे। उसका तो चलो दूसरा ब्याह
था, जिनके पहले ब्याह थे उनकी भी कहानी यही थी। भाई-भाभी भी सुध नहीं
लेते कि कहीं बहन आकर घर में डेरा न जमा ले।
इस हत्याकांड ने शहर को झकझोर दिया। बहुत-से लोग तो उसी दिन दिल्ली
के लिए रवाना हो गये कि महात्माजी की अन्त्येष्टि में अपने दो बूँद
आँसू की श्रद्धांजलि देंगे। बाकी लोग रेडियो से कान सटाकर दिल्ली का
आँखों देखा हाल सुनने लगे। हर किसी के घर रेडियो था भी नहीं। जिनके
घर में रडियो सैट था उन्होंने उसके आगे बड़ी-सी दरी बिछा दी। रईसों
ने रेडियो वाले कमरे में कच्चे कोयलों की दहकी हुई अँगीठी रखवा दी कि
खबर सुननेवालों को ठंड न लगे।
लाला नत्थीमल के यहाँ रेडियो नहीं था। उनके पड़ोसी लाला शरमनलाल के
यहाँ था। इकतीस जनवरी को वहीं औरतों का जमघट जुटा। शरमनलाल बड़े आदमी
थे। उन्होंने घर का बड़ा वाला रेडियो सैट जनानखाने में रखवा दिया और
खुद अपने कमरे में जेबी रेडियो से राजघाट का आँखों देखा हाल सुनते
रहे।
घरों के बच्चे भी जैसे सहम गये थे। न किसी ने भूख की शिकायत की, न
नींद की। चूल्हा तो कहीं जला नहीं था। जिसको जो मिला वही खाकर बिस्तर
में दुबक गया।
छेदीलाल की बेटी उषा के ब्याह की साइत तीस जनवरी की थी। सुबह से
बारात के स्वागत की तैयारी हो रही थी। जनवासे की एक-एक सहूलियत जाँची
जा रही थी। शाम साढ़े पाँच बजे जैसे ही रेडियो पर यह दुखद समाचार
सुनाया गया, छेदीलाल हलवाइयों के चूल्हे के पास जाकर बोले, ‘‘भैया
रोक दो सारे सरंजाम, उतार दो कढ़ैया, आज न बारात आएगी, न डोली
जाएगी।’’ सब हैरान कि छेदीलाल को हो क्या गया है। जब उन्होंने भरतपुर
खबर पहुँचाई, लडक़ेवालों ने कहा, ‘‘हम तो खुद पसोपेश में थे आपसे कैसे
कहें, हम आज नायँ आएँगे। हमने सोची, आप बुरा न मान जायँ कि ये तो
हीला-हवाला कर रहे हैं।’’
30 जनवरी को ही महापंडित राहुल सांकृत्यायन के सम्मान में मथुरा में
एक विशेष सभा आयोजित की गयी थी। राहुलजी के आने पर, सब साहित्यकारों
ने एकत्र होकर शोक-प्रस्ताव पारित किया और सभा स्थगित कर दी गयी।
टाउनहॉल के रेडियो सैट पर अपार जनसमूह इकट्ठा हो गया। लोगों ने घंटों
खड़े होकर मिनट-मिनट का समाचार सुना। मथुरा की जनता की भूख-प्यास
ग़ायब हो गयी।
व्यापारी वर्ग ने तीन दिनों तक अपनी दुकानें बन्द रखीं। किसी को इस
हड़ताल के लिए कहना-समझाना नहीं पड़ा। गाँधीजी सभी के पूज्य थे। जो
उनसे असहमत थे वे भी कहने लगे, ‘‘इस आदमी ने देश के लिए अपनी जान
गँवा दी। हम क्या तीन दिन की दुकनदारी नहीं गँवा सकते।’’
9 फरवरी को महात्मा गाँधी की पवित्र भस्मी वृन्दावन धाम लायी गयी।
लानेवाले थे वहाँ के अग्रगण्य शिक्षाविद् प्रोफेसर कृष्णचन्द्र। वहाँ
से एक मौन जुलूस में, सुसज्जित गाड़ी में भस्मी का ताम्रपात्र
डाकबँगले ले जाया गया। मथुरा नगर के कोटि-कोटि जन वृन्दावन पहुँच
गये। 12 फरवरी को भस्मी का विसर्जन यमुनातट पर बीचधार किया गया।
विद्यावती जिद करके वृन्दावन चली गयी। पति ने लाख समझाया, ‘‘तू पैर
से लाचार, का करेगी वहाँ जाय के, जाने वारा तो चलौ गयौ।’’
विद्यावती ने टेक पकड़ ली, ‘‘आज मुझे रोको मत, नहीं तो मैं बावली हो
जाऊँगी।’’
हार झकमार कर, भगवती के संरक्षण में विद्यावती को वृन्दावन भेजा गया।
खुली हवा में खड़े-खड़े और निरन्न रहकर विद्यावती की तबियत बिगड़
गयी। उसे चक्कर आ गया। भगवती के हाथ-पैर फूल गये। बीमार माँ को लेकर
कहाँ जाय। वह तो भला हुआ कि वहाँ वृषभान सर अचानक दिख गये। वे उन्हें
अपनी धर्मशाला में ले आये। उन्होंने अपने झोले से निकाल अमृतधारा की
दो बूँद विद्यावती को पिलाईं तब उन्हें कुछ सुध आयी। उन्होंने भगवती
को डाँटा, ‘‘अपनी सूरत देखो, सूखकर छुआरा हो रही है। कुछ दाना-पानी
मुँह में डारी हो या मैया समेत निन्नी घूम रही हो।’’
भगवती ने बताया जीजी ने तो 30 जनवरी की शाम से अब तक कभी ठीक से खाना
खाया ही नहीं है।
वृषभान सर लपककर बाज़ार गये और जो भी मिल सका, ले आये। वे बोले,
‘‘खाया तो मैंने भी कल से नहीं है पर माँ को समझाओ, महात्माजी के
आदर्शों को चलाने के लिए हम सभी को जिन्दा रहना होगा। हमसे ही
गाँधीवाद जीवन पाएगा।’’
मथुरा लौटकर भी विद्यावती वृषभान के गुण गाती रहीं। उन्होंने कहा,
‘‘वह आदमी नहीं देवता है। दो बूँद दवा मेरे मुँह में क्या टपकाई, जनै
संजीवनी पिला दी।’’
कभी-कभी वृषभान विद्यावती का हालचाल लेने घर आ जाते। वे समझाते,
‘‘माँजी आपको मीठा नुकसान करता है तो उसकी तरफ पीठ कर लो। गुड़,
बूरा, चीनी, आँख से देखो ही मत। भगवती यह तुम्हारा जि़म्मा है कि
माँजी के मुँह में मीठी कोई चीज़ न जाय।’’
विद्यावती को रंज होता, ‘हाय बिना चाय के मैं कैसे जिऊँगी!’
‘‘माँजी फीकी चाय पियो। हफ्ता भर मीठा छोडक़र अपनी जाँच करवाओ, देखो
मधुमेह ठीक होता है कि नहीं।’’ वृषभान समझाते।
यह समस्त उपदेश एक-दो दिन अपना प्रभाव दिखाते। फिर जैसे ही कोई
त्योहार आता, बच्चों के लिए पकवान बनाने के निमित्त विद्यावती
घी-बूरे की कनस्तरी खोलती कि परहेज़ का बाँध टूट जाता। बच्चों से
ज्यामदा मात्रा में वे ही हलुआ या पुए खा बैठतीं।
जैसे लाला नत्थीमल रात्रिकालीन बैठकों में नयी जानकारियों से लैस
होते वैसे विद्यावती और इन्दु दोपहरकालीन बातचीत से सुविज्ञ बनतीं।
बेबी का दाखिला डेज़ी कॉन्वेंट में करवा दिया गया था। उसे स्कूल भेजकर
कुछ देर को इन्दु भी चैन से बैठ लेती। विद्यावती के पैर के कारण बैठक
उन्हीं के घर में रखी जाती जहाँ नानकनगर से लेकर डैम्पियर पार्क तक
की चरखा-बहनें इकट्ठी होतीं। इनमें कुछ तो बाक़ायदा एफ.ए., बी.ए. तक
पढ़ी हुई थीं। बाकियों की पढ़ाई जिन्दगी के विद्यालय में हो चुकी थी।
इन साथिनों के बीच बैठकर विद्यावती एक बदली हुई स्त्री होती, सलाह
देती, सहमत और असहमत होती एक साथिन। निकल जाता उनके अन्दर का
नीला-पीला ज़हर। वो इन्दु से मीठे स्वर में कहती, ‘‘बहू ज़रा चाय तो
बना के ला। हमारी बहू चाय बहौत बढिय़ा बनावै है। और किसी को ना आवै
ऐसी चाय। मठरी भी ले आना इन्दु।’’
बाकी औरतें कौतुक से देखतीं कि विद्यावती में पिछले दो साल में कितना
परिवर्तन आया है। पहले वह बहू के जिक्र से ही अंगार उगलती। बहू के
प्रति शिक़वा-शिक़ायत उनके संवाद का मुख्य अंग होते।
एक दिन ऐसी ही एक गप्प-गोष्ठी में निर्जला बहन ने कहा, ‘‘हमने तो
सुनी है, जनै सच जनै झूठ, कि गाँधीबाबा ने अपने आश्रम की प्रार्थना
सभा में सबसे कहा था, ‘औरत-मर्द दोनों बराबर हैं, कोई किसी से कम
नहीं है।’ जो लोग कहवें कि औरत जात की अकल उसके पैर की एड़ी में
होवै, वे झूठ बौलें।’’
नौमी ने कहा, ‘‘गाँधीबाबा अब सरग में बैठे-बैठे कछू कहैं, आदमियन तक
तो बात पहुँचैई नईं, कर लो क्या कर लोगी! वे तो बस लाटसाब बने हुकुम
चलायैं।’’
‘‘सच्ची कहती हो, हमारे ये भी आर्डर देने में गोरे साहबों से कम नहीं
है। बात मुँह से निकली नहीं कि तुरन्त पूरी करो।’’ सगुना ने कहा।
विद्यावती बोली, ‘‘मर्द की आवाज भी कर्री होवै, जो भी वह कहै, हुकुम
जैसौ ही लगै। कट गयी अपनी तो ऐसेई।’’
निर्जला ने कहा, ‘‘शायद नये जमाने में मरद औरत को दबाना छोड़ दैं।’’
मोहिनी की शादी को अभी सात-आठ साल हुए थे। वह तपाक से बोल पड़ी,
‘‘नये जमाने में दबाने के नये ढंग हो जाएँगे। अच्छा यही हो कि
पढ़-लिखकर हम लोग भी काम पर निकलें।’’
नौमी ने कहा, ‘‘हाय राम, मर्दों की तरह पैंट-कमीज पहनकर दफ्तर में
बैठोगी।’’
मोहिनी हँसी, ‘‘पैंट-कमीज की जरूरत नायँ, साड़ी पहनकर भी नौकरी हो
सकती है।’’
‘‘हमारी छोरी कर ही रही है। टीचर बन गयी है भग्गो।’’ विद्यावती ने
सगर्व कहा, ‘‘वह तो कहो, मैंने साथ दिया नहीं उसके दादाजी ने तो
भतेरी चिल्लपौं मचायी।’’
नौमी ने स्वर दबाकर पूछा, ‘‘फैसन तो नहीं करने लगी?’’
‘‘नायँ, वह तो म्हौड़े पर कभी क्रीम भी ना लगाय। सिंगार पट्टार का
घना सरंजाम धरा है बहू के पास पर हमारी भग्गो कभी शीशा भी नायँ
देखे।’’
निर्जला ने कहा, ‘‘मैं जानूँ, कस्तूरबा स्कूल में बड़ी कड़ाई है।’’
‘‘उससे ज्यादा कड़ाई तो उसके दादाजी करैं। वो तो कहैं छोरी सयान हो
गयी, उसे घर बैठाओ या ब्याह कर दो।’’
‘‘कित्ते साल की है?’’
विद्यावती ने झट दो साल उम्र छुपाकर कहा, ‘‘अभी सोलह की भी ना भई।’’
नौमी ने कहा, ‘‘छोटी तो नायँ। ब्याह लायक उमर तो है।’’
विद्यावती ने उसकी बात काटी, ‘‘हरेक का अपना उठान होवै है। देखने में
भग्गो अभी बारी लगै। मैं सोलह साल की ब्याही आयी थी। कुछ भी पता नई
था कैसे घर चलानौ है। येईमारे इनका कहना मानती गयी। हमेशा के लिए मैं
दबैल बन गयी।’’
मोहिनी ने कहा, ‘‘आपकी लडक़ी नौकरी कर रही हे। ऐसे ही पकडक़र किसी के
साथ मत बाँध देना। उसकी मर्जी पूछकर ही ब्याह करना।’’
‘‘चलो-चलो माथापच्ची बहौत हो गयी। आज भजन गाने की सुध नहीं आयी अभी
तक। हाँ भई मोहिनी शुरू कर।’’
तुरन्त दरी पर से चाय के कुल्हड़, मठरी की तश्तरी सरकाकर जगह बनायी
गयी। विद्यावती ने आवाज़ लगायी, ‘‘इन्दु तू भी आ जा।’’
मुन्नी की उँगली पकड़ इन्दु अन्दर आयी। सुन्दर इन्दु के साथ ग्रहण की
तरह मुन्नी को लगे देख एक बार को सब सकपका गयीं।
बच्ची की चेचक ठीक हो गयी थी पर अपने निशान मुँह पर छोड़ गयी थी।
भजन-वजन तो सब गयीं भूल। इन्दु के ऊपर लानत और सलाह की बौछार शुरू हो
गयी।
‘‘यह क्या दुर्गत बनायी है छोरी की, टीका नहीं लगवाया था? आजकल
बेपढ़ी भी जानै बच्चों को चेचक का बीसीजी लगता है।’’
‘‘आप तो बड़ी चिकनी-चुपड़ी रहती हो, बच्चे की कोई फिकर नहीं, पैदा
च्यौं किये जो ऐसे ही पटकने थे।’’
निर्जला ने कहा, ‘‘बहू जो हो गयी सो हो गयी, अब या छोरी का कच्चे दूध
से म्हौड़ो धोया कर, छह महीनों में उजली हो जाएगी।’’
नौमी बोली, ‘‘इत्ता दूध कहाँ से आयगौ जी। मेरी बात सुनौ, गोले की
कच्ची गिरी रगड़ो, दाग आपैई मिट जावैंगे।’’
इन्दु की शकल रुआँसी हो आयी। मुन्नी कमज़ोरी के बावजूद पैदल चलने लगी
थी। जितनी देर जागती, इस कमरे से उस कमरे चक्कर लगाती। वह सोकर उठी
तभी सास की पुकार पड़ी तो वह उसे लिये चली आयी। अब उसे पछतावा हो रहा
था।
विद्यावती ने कमान सँभाली, ‘‘सुन लो सब जनीं। हमारी ये नतनी दुनिया
से निराली है। रंगरूप कै दिना का। इसके सारे लच्छन झाँसी की रानी के
हैं। हथेली से चींटे जे मार दे, पानी माँगो तो छोटी-सी लुटिया में
डगमग-डगमग दादी के पास ले आय और बेबी को देखते ही रोवै हम भी स्कूल
जाएँगे दादी। यह तो मेरी लटूरबाबा है।’’
दरअसल दादी का यह एक तरह से प्रायश्चित था क्योंकि चूक उनसे यह हुई
कि जब कमिटी का नश्तर लगानेवाला कम्पाउंडर साइकिल पर आया और घर-घर
उसने कुंडी खटखटाकर पूछा, ‘यहाँ कोई छोटा बच्चा बिना टीका लगे तो
नहीं है?’ दादी ने उसे दरवाज़े से ही भगा दिया। बेबी को सारे टीके
अस्पताल में ही लग गये थे। मुन्नी क्योंकि बहुत कमज़ोर थी, डॉक्टरनी
ने उसके जन्म पर इन्दु को समझाया कि दो महीने बाद आना, बच्चा कुछ पनप
जाय तो टीका लगा दें। एक बार घर आकर इन्दु गृहस्थी में ऐसी फँसी कि
दुबारा अस्पताल की कौन कहे, डॉक्टर के भी नहीं जा पायी। कवि अव्वल तो
घर में रहता ही नहीं था। फिर जितने भी दिन मथुरा में रहकर उसने नौकरी
की, अपनी ही धुन में जीता रहा। बच्चों के प्रति कोई दायित्व-चेतना
उसमें नहीं थी।
म्युनिसपैलटी की तरफ़ से मुहल्लों में नश्तरवाला भेजा जाता था कि जो
भी नवजात शिशु हों उन्हें टीका लगाया जाए। उसके पास एक मोटी-सी सलाई
होती जिसमें एक सिरे पर क्रॉस जैसा चिह्न बना होता। वह बच्चे की बाँह
पर उस सलाई को कसकर घुमा देता। बच्चा मर्मान्तक दर्द से चीत्कार कर
उठता। माँ जल्दी से बच्चे को अन्दर ले जाकर उसके मुँह में अपना दूध
लगा देती।
मुन्नी शुरू से ठुनठुन शिशु थी। कुछ-न-कुछ उसे हुआ रहता। कभी
फोड़े-फुन्सी निकलते, कभी कुकुर खाँसी हो जाती, कभी बुख़ार आ जाता तो
कभी नाक चल निकलती। विद्यावती ने नश्तरवाले की आवाज़ सुन हर बार यही
कहा, ‘‘रहने दे बहू, छोरी का दम तो पहलेई निकरा पड़ा है, तू और दो
घाव मत करवाना।’’
इन्दु ने भी नादानी में यही सोचा कि टीके के बाद जो चार दिन बुखार
चढ़ेगा, उसे कौन सँभालेगा।
उसकी चेचक को लेकर दादी और माँ दोनों को मलाल था।
तभी बेबी स्कूल से आ गयी।
जैसे कमरे में पूनो का चाँद निकल आया।
छोटी-सी बेबी का सौन्दर्य इन्दु से भी पाँच कदम आगे था। गोरा-उजला
रंग, तीखे नाक-नक्श, अभी से लम्बे बाल, ठुमक भरी चाल और शोख़ बातें
उसे हर किसी का लाड़ला बना देतीं।
काली मखमल की फ्रॉक में वह अद्भुत लग रही थी।
‘‘इधर आ तो मेरी बिबिया। आज का सीख के आयी है, सुनें तो।’’ दादी ने
उसे अपने से चिपटाकर पूछा।
बेबी ने बस्ता उतार, फौरन सुनाना शुरू किया—
‘‘सडक़ बनी है लम्बी-चौड़ी
उस पर जाये मोटर दौड़ी
सब बच्चे पटरी से जाओ
बीच सडक़ पर कभी न आओ
आओगे तो दब जाओगे
चोट लगेगी पछताओगे।’’
कविता के साथ बेबी के नन्हें हाथों का अभिनय बहुत सजीव था। उसकी
याददाश्त इतनी तेज़ थी कि एक बार में उसे पूरी कविता या कहानी याद हो
जाती। स्कूल जाने पर उसका तुतलाना कम हो गया था, बस किसी-किसी शब्द
पर ज़ुबान अभी भी फिसल जाती। वह सहेलियों के साथ नाचना भी सीख गयी थी।
वह अपनी दोनों हथेलियाँ जोडक़र तकिया बनाकर उन पर अपना सिर तिरछा कर
टिकाती और गाती—
‘‘मैं तो सो रही थी मुल्ली किसने बजायी।’’ सिखाने पर भी वह मुरली
शब्द नहीं बोल पाती थी।
स्कूल से लौटकर वह देर तक दादी को बताती स्कूल में क्या हुआ।
समय के जैसे पंख लग गये थे। इधर बेबी ने कच्ची-पक्की पास की उधर
मुन्नी का दाखिला हो गया। दाखिले के वक्त पूछा गया, लडक़ी का नाम क्या
है? अब तक घर-परिवार में मुन्नी के सिवा और कोई नाम सोचा ही नहीं गया
था। जब इन्दु के आगे दाखिले का फार्म आया उसने यों ही लिख दिया
‘मनीषा।’ इस प्रकार मुन्नी का नाम मनीषा दर्ज हो गया।
घर में दादी ने बहुतेरी फैल मचायी।
‘‘जे तोय का सूझी, मुन्नी का नामकरण कर डाला। न नौबत बजी, न पंडित
आया और सीधे नाम रख दिया।’’
अब इन्दु भी तेज़ हो गयी थी। उसने कहा, ‘‘जब सिस्टर ने मुझसे पूछी मैं
उठकर घर थोड़ी दौड़ी आती, जो मेरे मन में आया मैंने रख दिया।
‘‘मैं तो इसे मुन्नी ही बुलाऊँगी।’’ दादी ने मुनादी की।
मुन्नी के चेहरे के दाग काफ़ी हद तक हल्के पड़ गये थे लेकिन उसके
स्वास्थ्य की निर्बलता ज़ाहिर होती रहती। वह बहुत धीरे-धीरे शिक्षित
हो रही थी।
डेज़ी कॉन्वेंट का अनुशासन कठोर था। एक दिन मुन्नी ने घर से लाया
सन्तरा चार बच्चों के बीच बाँट दिया।
सबने सन्तरा खाकर छिलके इधर-उधर फेंक दिये।
तभी सिस्टर ने देख लिया और डाँट लगायी, ‘‘छिलके कहाँ डालना माँगता,
डस्टबिन में। कम ऑन, पिक दीज़ अप।’’
बच्चे इतनी अँग्रेज़ी समझते नहीं थे। उन्होंने अन्दाज़ लगाया और छिलके
उठाकर कूड़े के डिब्बे में डाले।
मनीषा के बालमन पर शब्द ने अपनी अमिट छाप बना ली : डस्टबिन माने
कूड़ेदान।
स्कूल में रोज़ कुछ-न-कुछ नया सीखने को मिलता इसीलिए मनीषा को स्कूल
घर से ज्याडदा अच्छा लगने लगा। सुबह सोकर उठते ही वह स्कूल के लिए
तैयार होकर बैठ जाती।
डेज़ी कॉन्वेंट में एक पंजाबी स्त्री बालो, बच्चों को घर-घर से ले
जाती और छुट्टी होने पर पहुँचा जाती। वह पंजाबी मिश्रित हिन्दी
बोलती। उसकी बोली बच्चों को बड़ी अनोखी लगती। वह बच्चों के नाम अपनी
तरह से बोलती।
मनीषा को वह मिंशा कहतीं और प्रतिभा को तीभा। बच्चे कहते, ‘‘बालो
आंटी मेरा नाम ऐसे नहीं, ऐसे बोलो।’’
बालो कहती, ‘‘बेबीजी तेरा नाम ओखा, मैनूँ होवे धोखा।’’
प्रतिभा और मनीषा हिन्दी, इंग्लिश, पंजाबी के तरह-तरह के शब्द सीख
लेतीं।
दादाजी कहते, ‘‘मैंने लाख कही कि बच्चों को पास के वैदिक विद्यालय
में भेजो पर तुम लोगों ने मेरी एक ना मानी। एक तो फीस दुगनी लगै
दूसरे छोरियाँ जाने कौन-सी भाखा बोलैं हैं।’’
विद्यावती कहती, ‘‘कवि हर महीना भेजता तो है रुपया। येईमारे अपनी
गिरस्ती ले नायँ गयौ कि मेरे माँ-बाप अकेले हो जाएँगे।’’
‘‘जे बात नई है, उसे आजादी का चस्का पड़ गयौ है, तुम्हारे गाँधीबाबा
ने सबको अराजक बना डारौ।’’
‘‘मोय नाय मिलौ गाँधीबाबा नहीं मैं बासै पूछती च्यों जी तुमने सिर्फ
आदमियों को आजादी दिला दी, लुगाइयों को कब आजाद करोगे, वो तो आज भी
गुलाम हैं।’’ विद्यावती कहती।
‘‘क्या गुलामी कर रही हो ज़रा मैं भी सुनूँ। घर का काम बहू करै, दुकान
मैं सँभारूँ, तोपे कौन-सी जिम्मेदारी है?’’
‘‘अभाल की नहीं, मैं तो पिछले सालों की बात करूँ। इत्ती जिन्दगानी
दुक्खम-सुक्खम कट गयी, अपनी राजी से कछू नायँ कियौ।’’
‘‘क्या करना चाहती रही तू। कुनबे की चौधराहट तूने सँभारी, देसी घी के
चुचैमा परामठे खाये, देखबे बारी न कोई सास न ननद, और का कसर रह
गयी?’’
‘‘तुमने बस इत्ता ही जाना। अरे औरत रोटी और पाटी के ऊपर भी कछू चाहै
कि नायँ। मर्द की गुलामी से अच्छी तो मौत होवै।’’
लाला नत्थीमल वहाँ से उठकर दुकान चले जाते। उन्हें पता था यह पराधीन
कौम का स्वाधीन कौम के विरुद्ध आत्र्तनाद था। वे पत्नी का मन शान्त
करने के लिए स्वामी दयानन्द की पुस्तक ‘सत्यार्थप्रकाश’ गाँधीजी की
‘आश्रम भजनावली’ और रामकृष्ण परमहंस की जीवनी घर में लाते लेकिन
विद्यावती इन किताबों को हाथ न लगाती। वह बेबी-मुन्नी की किताबें
पढक़र तृप्त हो जाती।
एक दिन जयपुर से लालाजी के कोई मित्र मिलने आये। चलते वक्त वे बेबी
और मुन्नी को एक-एक रुपया और सेलखड़ी पत्थर की बनी एक चिडिय़ा और एक
मछली दे गये। दोनों बहनें बड़ी खुश हुईं। वे देर तक इन चीज़ों से
खेलती रहीं। दादी ने कहा, ‘‘ला रुपया खो जाएगा, मोय दे ये, गुल्लक
में डार दूँ।’’
इन्दु बोली, ‘‘ये चिडिय़ा और मछली जरा हाथ से सरकने पर गिरकर टूट
जाएँगी, लाओ इन्हें दीवार पर लगा दूँ।’’
इन्दु ने दीवार पर कील ठोककर दोनों खिलौने लटका दिये।
बेबी और मुन्नी ने तय किया कि अपने खिलौनों के नीचे उनका नाम लिखा
जाए—चिडिय़ा और मछली।
तुरन्त कोयला ढूँढ़ा गया। लोहे की कुर्सी घसीटकर दीवार पर चिडिय़ा तक
बेबी पहुँची और उसने लिखा, ‘चिडिय़ा।’
‘मछली भी लिख दूँ,’’ उसने मुन्नी से कहा।
‘‘नहीं हम लिखेंगे।’’
बेबी कुर्सी पर से कूदकर नीचे आ गयी। अब मुन्नी कुर्सी पर चढ़ी।
उसने टेढ़े-मेढ़े अक्षर बनाये मछल। बेबी ने सुधारा, ‘‘ल में ‘आ’ का
डंडा लगा। अब ‘ई’ की मात्रा लगा।’’
मुन्नी थोड़ी गड़बड़ा गयी। उसने किसी तरह ल में डंडा लगाकर ला के ऊपर
ली बनायी कि उसका हाथ हिल गया और मछली फटाक से नीचे गिर गयी।
बेबी बोली, ‘‘ओह मछली तो टूट गयी।’’
शोर सुनकर इन्दु आयी। उसने देखा मछली टूटी, ज़मीन पर पड़ी है। उसने
एक-एक तमाचा दोनों को मारा, ‘‘जब देखो तब उत्पात मचाए रहती हैं।
देखना दादाजी कितना पीटेंगे।’’
दोनों सहम गयीं।
शाम को दुकान से लौटकर दादाजी की नज़र दीवार पर गयी, ‘‘हैं मछली कहाँ
गयी?’’ उन्होंने पूछा।
मुन्नी ने डरते-डरते कहा, ‘‘दादाजी हम मछली का नाम लिख रहे थे। जैसे
ही हमने ‘ला’ पर टोपी पहनाई, मछली नीचे गिर गयी।’’
ताज्जुब दादाजी ने उसे डाँटा नहीं। सिर्फ कहा, ‘‘चलो स्लेट पर बीस
बार ली लिखकर दिखाओ।
भगवती के स्कूल में पुस्तकालय शुरू करने के उद्देश्य से नयी किताबें
मँगाई गयी थीं। उनमें वीर बालक, पन्ना धाय, सत्य हरिश्चन्द्र जैसी
शिक्षाप्रद, मोटे टाइपवाली पतली पुस्तिकाएँ ज्यायदा थीं फिर भी अन्य
पुस्तकों में प्रेमचन्द की कहानियाँ और उपन्यास थे, प्रसाद और
माखनलाल चतुर्वेदी के काव्य-संकलन थे। वक्त निकालकर भगवती स्कूल में
ही किताबें पढ़ती। कभी किताब ख़त्म न होती और कहानी रोचक लगती तो वह
किताब घर ले आती। कोई कहानी अच्छी लगती तो वह माँ और भाभी को सुनाती।
वे आँखें फाड़े सुनतीं। उन्हें विस्मय होता कि प्रेमचन्द को लोगों के
घरों का अन्दरूनी हाल कैसे पता चल गया है। ‘बड़े घर की बेटी’ कहानी
विद्यावती को बहुत पसन्द आयी जबकि इन्दु को ‘नमक का दारोगा’ और
‘घासवाली’ अच्छी लगीं। अक्सर किताबों को लेकर घर में खींचातानी मचती
कौन पहले पढ़े। भगवती कहती, ‘‘नयी किताब है, कल ही लौटानी है,
प्रिंसिपल से माँगकर लायी हूँ।’’
विद्यावती उसाँस भरती, ‘‘किस्से-कहानी में भी औरतों की दुर्दशा ही
बताई जावै। कोई जे नही बताता कि सुधरेगी कैसे।’’
दादाजी बेटी से कहते, ‘‘ये तूने अच्छा चस्का लगा दिया सबको। आधी रात
तक बिजली फुँकै हैं।’’
नानकनगर में बिजली की लाइन आ जाने से घर में बिजली का उजाला हो गया
था। सभी को आराम हो गया था हालाँकि लालाजी की मितव्ययिता के चलते सभी
जगह पन्द्रह और पच्चीस पावर के बल्ब लगाये गये थे। सिर्फ बाहरी बैठक
में चालीस पावर का बल्ब लगा था।
अब दादाजी को चिल्लाने का मौका तब मिलता जब घर के किसी कमरे में
बिजली खुली दिख जाती, ‘‘दिन-रात लट्टू फुँक रहे हैं, मेरे रुपये का
चूरन बना जा रहा है, बहू भागकर बत्ती बन्द कर।’’
अगर रात में वे चौके में बिजली जली देखते तो कहते, ‘‘इत्ती अबेर
ब्यालू बनाने की क्या ज़रूरत है? पहले सई साँझ ब्यालू बना के रखती थी
कि नहीं। रुपये का तो भुस्स उड़ गया।’’
विद्यावती समझाती, ‘‘घर में तीन-तीन कमानेवाले हैं, एक तुम्हारा ही
तो खर्च नहीं हो रहा।’’
लाला नत्थीमल कहते, ‘‘बेटे-बेटी की कमाई मेरे जीते-जी तो खर्चियो
मति। ये का कमायेंगे जो मैंने कमाये हैं। फिर भी रुपया देख के
बरतो।’’
एक शाम लाला नत्थीमल घर में थे कि पुलिस विभाग का एक आदमी आया। उसने
बैठते ही लालाजी से सवाल किया—
‘‘आपका नाम?’’
‘‘आपकी पत्नी का नाम?’’
‘‘मकान का नम्बर?’’
‘‘कितने बच्चे हैं?’’
लालाजी ने अपनी तेज़ नज़र से उसे देखा, ‘‘क्यों जी ये सब पूछबे का कौन
मतलब है? हम तुम्हें क्यों बताएँ हम कौन हैं?’’ उस आदमी ने अपना
पहचान-पत्र दिखाया। उस पर पुलिस विभाग का ठप्पा लगा था और उस आदमी का
नाम और फोटो था। उसने कविमोहन के बारे में पूछताछ करनी शुरू की। उसे
सबूत की तलाश थी।
लालाजी आशंकित हो गये। कहीं किसी गलत काम में कवि पकड़ा तो नहीं गया।
उन्होंने अन्दर जाकर कागज़ टटोले। विद्यावती ने पूछा, ‘‘कौन आया है?’’
‘‘विपदा आयी है और का?’’ उन्होंने कहा और आलमारी की दराज़ में खखोरते
रहे। आखिर उनके हाथ पुराना राशनकार्ड लगा जिसमें बच्चों के नाम लिखे
थे।
हिम्मत कर उन्होंने सबइंस्पेक्टर से पूछा, ‘‘हमारे लडक़ा पे कोई
मुसीबत तो नहीं आयी है?’’
‘‘नहीं जी, ये तो सरकारी नौकरी का मामला दीखे है।’’
अब जाकर लाला नत्थीमल सहज हुए। उन्होंने कहा, ‘‘बैठो, पानी-वानी
पिओ।’’
‘‘लडक़े की पोस्टिंग हो जाने दीजिए, मिठाई खाने आऊँगा।’’ उसने कहा और
चला गया।
उस दिन लालाजी रह-रहकर कवि को याद करते रहे, ‘‘ऐसा दिल्लीवारा बनौ है
कि हमें तो कछू समझै ही नायँ। सरकारी नौकरी के लिए अर्जी लगायी है,
हमें कछू खबर नईं। पुलिस पूछताछ करेगी हमें पता ही नहीं। न चिट्ठी न
पतरी, बस मुँह उठाकर दिल्ली चल दिये।’’
ख़ुशी की एक क्षीण लहर इन्दु के मुँह पर आयी और ग़ायब हो गयी। उसने
सोचा, ‘भले ही यह लाट कलट्टर हो जायँ हमें तो याही नरक में सडऩा है।’
पिछले काफी समय से इन्दु का जी उखड़ा-उखड़ा रहता था। उसे लगता जैसे
वह जमुना की मझधार में फँसी है उसके लिए न कूल है न किनारा। पति-रूपी
पतवार उसके हाथ से छूटी जा रही है। अल्लीपार ससुराल का जाल-जंजाल है
तो पल्लीपार मायके का मृगजल। माँ-बाप के मर जाने के बाद मायके में
भाइयों की जगह भाभियों का राज था। वहाँ उसकी रसाई मुश्किल थी। ससुराल
में जान-खपाई के सिवा कुछ नहीं था। वह सोचती क्या स्त्री के लिए
तीसरी कोई जगह नहीं होती जहाँ वह जाकर अपना मन हलका कर ले। उसकी
सहेलियों की संख्या भी नगण्य थी। ले-देकर उमा थी। वह कभी आ जाती तो
दोनों सखियाँ ऊपर कवि के कमरे में जा बैठतीं। दोनों की समस्या विलोम
थी। उमा अपने पति दीपक बाबू के प्रेमातिरेक से घबराई रहती तो इन्दु
विरहातिरेक से। जब बच्चे आसपास नहीं होते उमा बताती, ‘‘मैं तो रतजगों
से तंग आ गयी हूँ। दिन में बच्चे नहीं सोने देते, रात को ये। ऐसा
लगता है जब से मेरा ब्याह हुआ है मैं सोई ही नहीं हूँ।’’
इन्दु कहती, ‘‘सोने का मसाला तुम्हारे पास रहता है, सेवन करके सो
जाया करो।’’
‘‘इनकी धींगामुश्ती बन्द हो तो सोऊँ। सारे चौरासी आसन करने होते हैं
इन्हें। किसी दिन बिरजो या माधो मेरे से चिपट जाते हैं कि मम्मा आज
तुम्हारे पास सोएँगे तो ये बच्चों को ऐसी डाँट लगाते हैं कि बेचारे
रुआँसे हो जाते हैं।’’
इन्दु गहरी साँस भरती, ‘‘लगता है मेरा ब्याह तो बच्चों के साथ सोने
को ही हुआ था।’’
कभी इन्दु चाय बनाने नीचे आती तो विद्यावती उसे घूरकर देखती, फिर
घुडक़ी देती, ‘‘ऊपर बैठी क्या कर रही हो दोनों जनी। इन्दु उमा को अब
घर जाय लेन दे, बाकी अम्माजी परेशान हो रही होंगी।’’
इन्दु का मुँह बन जाता। वह मन-ही-मन बड़बड़ाती, ‘‘उसकी अम्माजी तो
नहीं पर आप जरूर परेशान हो रही हैं।’’
विद्यावती को शक़ रहता कि ज़रूर दोनों बहुएँ मिलकर अपनी-अपनी सास की
निन्दा कर रही होंगी। एक बात और यह कि उमा की ससुराल बहुत मालदार थी।
वह हमेशा कोई-न-कोई नया गहना पहनकर आती जबकि इन्दु के समस्त गहने
पुराने और पारम्परिक थे, वे भी ससुर की तिजोरी में रखे हुए थे। वह
केवल गले में पतली-सी लड़ और कानों में हल्के टॉप्स पहने रहती। उसके
ब्याह में बड़े सुन्दर मीनाकारी छन आये थे जो सास ने पहले ही हफ्ते
उतरवाकर रखवा लिये कि कहीं इनका पेच खुल गया तो कलाई से गिर जाएँगे।
सास को लगता उमा उनकी बहू को बिगाड़ न दे।
उमा थोड़ी दबंग थी। वह किसी की ज्यायदा परवाह नहीं करती। जाते समय
इन्दु से कहती, ‘‘मैं दो बार आ चुकी अब तुम्हारी बारी है चक्कर लगाने
की।’’
इन्दु डरकर अपनी सास का मुँह ताकती।
उमा कहती, ‘‘जीजी दो घंटे बच्चे सँभाल लेंगी और क्या!’’
उसके जाने के बाद विद्यावती कहती, ‘‘ये लोहेवाली की बहू बड़ी जबर है।
सयाने आदमी का कोई लिहाज नहीं याकी आँख में।’’
‘‘तभी तो जरा-सी आजादी मिली हुई है।’’ इन्दु मुँह-ही-मुँह में
बड़बड़ाती। लिहाज करके उसने अपनी जिन्दगी सी क्लास क़ैदी की बना रखी
थी।