रचयिता :
‘कुट्टिचातन्’
1.
राष्ट्र के प्रतीक
उस दिन हम लोगों में गेंदे के फूल को लेकर बड़ी चर्चा हो गयी। बात
यों हुई कि उत्तर भारत के एक समाचारपत्र में कुछ दिनों से ‘संपादक के
नाम चिठ्ठी-पत्री’ वाले स्तम्भ में इस बात को लेकर काफ़ी चखचख होती
रही है कि लौकिक गणतन्त्र भारत का प्रतीक अशोक की सिंहत्रयी हो या कि
ओडिसा-अमरावती के मदमाते गयन्द। इस ‘गज-शार्दूलीय’ में रामपुरवा के
वृष का भी आ भिडऩा भारतीय पुरातत्त्व से यत्किंचित् परिचय रखने वाले
साधारण तर्कजीवी की भी समझ में आ जाएगा। उससे गेंदे के फूल तक की
परम्परा निरे तार्किक के लिए उतनी प्रत्यक्ष नहीं भी हो सकती है,
लेकिन जो लोग सामाजिक वात्र्तालाप की आभ्यन्तर तर्क-संगति को समझते
हैं, उन्हें इस पूर्वापरता की सहज अनिवार्यता देखने में कठिनाई न
होनी चाहिए-भले ही फ्रायड के ‘स्वच्छन्द विचार-संगति’ के सिद्धान्त
को वे न मानते हों।
कहीं आपको सारी बात हँसी की न मालूम हो, इसलिए प्रश्न को गम्भीरता के
साथ आपके सम्मुख रख देना उचित होगा। इस नवीन, जीवित, विकासशील लौकिक
गणतन्त्र का प्रतीक एक जड़, एक परिवर्तनहीन पुराखंड क्यों हो-वह भी
एक ऐसे स्तम्भ का खंड, जो अपने समय में एकच्छत्र राजत्व का प्रतीक
रहा और फिर ये सारी चीज़ें हैं भी तो निरी कलावस्तु और कला की
परिभाषा में ही यह बात निहित है कि वह लोकोत्तर आनन्द देती है; एक
लौकिक सत्य का प्रतिनिधित्व करे ऐसी चीज़ जिसकी पहली शर्त है उसकी
लोकोत्तरता, इस इतने बड़े विरोधाभास को विरोधाभासों का प्रेमी भारत
भी कैसे सह सकता है!
इस विरोधाभास वाली बात को आप भारत का अपमान न समझें : यह वास्तव में
संसार के सात अचरजों में आठवाँ है। नहीं तो यह कैसे होता कि जिस देश
ने ‘वसुधैवकुटुम्बकम्’ का आदर्श संसार के सामने रखा, उसी ने जात-पाँत
की व्यवस्था भी दी-और ऐसे विकट रूप में कि वह इस्लाम और ईसाइयत पर भी
हावी हो जाए? नये ईसाइयों को छूआछूत बरतते देखकर हमने एक बार आश्चर्य
प्रकट किया था तो उन्होंने कहा था, ‘‘इसाई हो गये तो क्या हुआ, धर्म
थोड़े ही छोड़ दिया है?’’ जिसने कहा ‘तत्त्वमसि’, ‘शिवोहम्’, ‘अहं
ब्रह्मास्मि’, उसी ने तैंतीस कोटि देवता भी गिना दिये?
लेकिन हम धर्म-निरपेक्षता की बात कह रहे थे, उसमें धर्म-सिद्धान्तों
की चर्चा कदाचित् युक्ति-संगत न हो। इसलिए एक-दूसरे स्तर पर आएँ।
हमारा देश सारी दुनिया में अध्यात्मवादी प्रसिद्ध है : आपने नीं देख
कि टूरिस्ट अमरीकी नारियाँ जो होती हैं तो बस होती हैं-उनकी मांसलता
ऐसी मुखर होती है-कैसे भारतीय चित्र कला में नारी रूप को देखकर आँखें
गोल-गोल करके कहती हैं : ‘‘ओरिएंटल ब्यूटी सो स्पिरिचुअल’’, मानो
‘स्पिरिचुअल’ और ‘ओरिएंटल’, प्राच्य और आध्यात्मिक, सम्पूर्ण पर्याय
हों? और आध्यात्मिक सौन्दर्य के उपासक इस देश में भी बंगदेश के लोग
विशेष रूप से सूक्ष्मतर पैलव सौन्दर्य के पुजारी होते हैं, हम
दक्षिणात्यों का सौन्दर्य-बोध तो तर्क-सौन्दर्य तक ही रह जाता है।
लेकिन हमारे एक मित्र ने हमें बताया था कि एक बार कमल और कुमुद के
सौन्दर्य की तुलना के बारे में विवाद छिडऩे पर उन्होंने कहा था कि वह
कुमुद को अधिक सुन्दर मानते हैं (कदाचित् इसलिए कि निशापद्म का
सौन्दर्य अधिक आध्यात्मिक होता है?) तो एक बंगाली महाशय ने उसका
समर्थन करते हुए कहा था, ‘‘हाँ, हाँ, उसकी चच्चड़ी बहुत अच्छी होती
है, की शुन्दोर!’’ इस आध्यात्मिक देश में इस चरम कोटि का उपयोगितावाद
कहाँ से आया? इस प्रश्न का और क्या उत्तर हो सकता है सिवा इसके कि
‘वहीं से तो-आध्यात्मिकता से ही तो’?
और भी देखिए : सारा संसार फूल के सौन्दर्य की पूजा करता है-फूल
सुन्दर है, इससे आगे वह कुछ नहीं माँगता : ‘ब्यूटी इज, ट्रूथ, ट्रूथ
ब्यूटी, दैट इज ऑल यी नीड टु नो।’ लेकिन एक भारतीय है कि पूछता है,
निरे रूप से क्या? इस फूल की उपयोगिता क्या है? क्या वह गन्ध देता
है? पलाश मधु ऋतु में वनाग्नि की तरह दहक उठता है, और उसी से लोग
वसन्तागम पहचानते हैं, लेकिन उससे क्या-वह फूल काम कौन से आता है?
‘निर्गन्धा इव किंशुका:’-अरे म्याँ, तुम भी हो निरे टेसू!
और चम्पक बेचारा तो टेसू से भी अभागा है। उसके पास न केवल इतना रूप
है कि प्रिया की कोमल अँगुलियों की उपमा उसकी कली से दी जाए, वरन्
इतनी गन्ध भी है कि हाथी का हाथी उससे मतियाया डोलता फिरे-लेकिन रूप
और गन्ध से भी क्या? उससे किसी मधुप का पेट तो नहीं भरता-’’रूप
सौरभ-समृद्धि समेत चम्पक प्रति ययुर्न मिलिन्दा:’’-थुड़ी है उस
सौन्दर्य और गन्ध-मादकता पर, जो एक भौंरे के काम भी न आये!
एक अकेले कालिदास ने कहीं कह दिया था, ‘सरसिजमनुविद्धं शैवलेनापि
रम्यं’-सिवार से घिरा हुआ भी कमल रम्य है, जो मधुर है, उसे मंडन की
क्या आवश्यकता? लेकिन एक तो कालिदास की निरंकुशता प्रसिद्ध है, दूसरे
उसने भी ‘जो सुन्दर है’ नहीं, ‘जो मधुर है’ कहा-’किमिव हि
मधुराणाम्’। तो कदाचित् कमल-मधु की भोक्तव्यता की ओर ध्यान था ही-मधु
कुस्थान में होकर भी भोग्य है, कदाचित् यही वह कहना चाहता
था-(क्योंकि माक्षिक मधु भी आखिर क्या है? मक्खी का थूक!) और हमें यह
भी तो स्मरण रखना चाहिए कि कालिदास का दुष्यन्त, ‘मंडनंनाकृता’ और
अपने को पुरुष-दृष्टि से सम्पृक्त न जानकर सहज क्रीड़ा करती हुई
शकुन्तला की निर्बन्ध रूपराशि को देखकर भी धन्य अपने को नहीं मानता;
मानता है किसे? उस भौंरे को, जो शकुन्तला को सता रहा है : ‘वयं
तत्त्वान्वेषान्मधुकर हतास्त्वं खलु कृती’ -कृती वह, जो उस मांसल
सौन्दर्य का उपभोक्ता है, हम तो मुँह देखते ही रह गये!
किस्सा कोताह : बात गेंदे के फूल की हो रही थी। राष्ट्र के प्रतीक
पुराणों-काव्यों में से भी नहीं मिलते, और पुराखंडों से तो भला मिल
ही क्या सकते हैं। सारनाथ के सिंह या रामपुरवा के वृष की बात न होकर
अगर मैसूर के हाथी या बनारस के बिजार की बात होती, तब तो उनकी बात
सोची भी जा सकती : हमें तो जमनापारी बकरी या पछाँही भैंस पर भी कोई
आपत्ति नहीं। अगर सम्राज्ञी ‘राजमहिषी’ हो सकती थी, तो जिस अनुपम
भैंस ने इस तुलना को जन्म दिया वह स्वयं क्यों नहीं लोकतन्त्र की
प्रतीक हो सकती? संस्कृत में कहा है, ‘त्वमक्षरं परमं वेदितव्यम्’,
और हिन्दी में कहावत है, ‘काला अक्षर भैंस बराबर’-तो क्या भैंस ही
हमारी परम वेदितव्य नहीं सिद्ध हो जाती? लेकिन बात फूलों की हो रही
थी, फूलों में भी गेंदे के फूल की। न मालूम क्या सोचकर कुछ लोगों ने
कमल को राष्ट्र-प्रतीक बनाने का प्रस्ताव किया था-उसका तो नाम ही उसे
अयोग्य ठहरा देता है, यह निर्णय पाने के लिए किसी चुनाव अदालत के पास
जाने की आवश्यकता नहीं है। क-मल, पानी का मैल। पंक-ज-कीचड़ से
उत्पन्न। दिन में आठ बार नहाने वालों के देश के प्रतीक का ऐसा भरष्ठ
नाम! और गेंदा तो लोक-प्रमाण है। लोक-साहित्य में एक शायद गुड़हल को
छोडक़र और कौन फूल गेंदेके आस-पास भी आता है? कालिदास को ताक पर रख
दीजिए। यह बताइए कि ग्रामवासी भारत के किस नायक ने प्रिया की कबरी का
कमल, किस ग्रामीण ने सैंया के सिर का सिरिस होना चाहा? आत्म-निवेदन
की पराकाष्ठा में वह कबरी बन्ध का गुड़हल का फूल होना चाहता है, तो
वह सैया की गोदी का गेंदा बनना चाहती है : चम्पक और पाटल, पद्म और
पारिजात झख मारते रह जाते हैं।
और लोक-साहित्य परम प्रमाण है। लौकिक आदर्शों के इस युग में इससे
बढक़र क्या प्रमाण हो सकता है? जो रुढि़वादी लोग अभी भी आर्ष प्रमाणों
के सहारे चलना चाहते हैं, उन्हें भी यह याद करके सन्तोष करना चाहिए
कि परम वेदज्ञ यास्क भी इसी मत के थे-वह भी कह गये हैं ‘लोक
पृच्छ’-प्रमाण के लिए लोक-साधारण के पास जाओ!
इसलिए हमें तो यह बात विवाद से परे जान पड़ती है कि हमारे राष्ट्र का
प्रतीक गेंदे का फूल ही हो सकता है। यों कभी पंजाबिनों को फूली हुई
गोभी की तरह गदराये हुए घूमते देखकर यह प्रश्न भी मन में उठा है कि
गोभी का-या फिर उतना ही ठोस और उससे भी अधिक मोतबिर केले का फूल
क्यों नहीं राष्ट्र-प्रतीक हो सकता? पर गेंदे की सार्वदेशिकता
असन्दिग्ध है। और फिर गोभी-केले के फूल तो खाये ही अधिक जाते हैं,
उन्हें तरकारियों में गिनना ही समीचीन होगा-और तरकारियों में आलू से
अधिक राष्ट्रव्यापी कौन होगा, भले ही उसे इस देश में आये अभी चार सौ
वर्ष न हुए हों? तरकारियों में आलू या आलू को विदेशी मान लिया जाए तो
बैंगन, फलों में अमरूद-ये भारतीयता के प्रतीक हैं। और फूलों में
गेंदा। यह बात फिर से कहने में आवृत्ति दोष नहीं है, आवृत्ति अलंकार
है-राष्ट्र-प्रतीकों का बारम्बार स्मरण ही नहीं, जयजयकार होना चाहिए
गेंदे की जय! झंडू की जय! जवन्दी पू की जय!
(शीर्ष
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2.
मार्ग-दर्शन
उस दिन लखनऊ जाना हुआ था। एक तो यों ही अजनबी आदमी, दूसरे घूमने का
शौक, बार-बार भटक जाता और तब यों ही किसी राह चलते से पूछ बैठता :
‘‘क्यों साहब, अमुक स्थान का रास्ता कौन-सा है?’’ फिर वह ‘अमुक’
स्थान अमीनाबाद हो, या चौक, या हजरतगंज, इमामबाड़े या केसर बाग,
पुरानी रेजिडेंसी या गोमती का पुल या छतरमंजिल... मतलब यह कि अगर
मैंने अमीनाबाद का नाम ले ही लिया तो यह नहीं कि मुझे वहीं जाना था,
केवल यही कि जो दस-पाँच नाम सुन रखे थे उनमें से एक का होना चाहिए,
और हो सके तो ऐसा भी कि जिधर मैं जा रहा हूँ उससे ठीक उलटी दिशा में
तो न पड़े।
लेकिन जो बात मुझे कहनी है उसका सम्बन्ध मेरे पूछने से नहीं, बताने
वाले के बताने से है। क्योंकि यह जानते हुए भी कि लोगों के मार्ग
बताने के तरीके अलग-अलग होते हैं, ‘नखलऊ’ का तरीका कुछ निराला ही
मालूम हुआ। यह तो सुन रखा था कि किसी बंगाली से मार्ग पूछो तो वह
प्रश्न सुनने से पहले ही खीझे से स्वर में कह देगा ‘‘जानि ना!’’ और
किसी बनारसी (या कि बनरसिये) ये पूछो तो वह ठोड़ी किसी तरफ़ को उठाकर
सुरती की पीक सँभालते हुए कह देगा- ‘‘इ का है सामने!’’-फिर आप
‘सामने’ का चाहे जो अर्थ लगाते रहिए, और ठोड़ी किधर को उठी थी यह
निश्चय करने के लिए चाहे जितने पैंतरे कर लीजिए! पंजाबियों
का-विशेषकर लोमश-गोत्रीय पंजाबियों का-बना-बनाया उत्तर प्रसिद्ध ही
है कि ‘‘जी, मैं तो इस शहर का नहीं हूँ’’-फिर चाहे प्रश्न आपने यही
पूछा हो कि सूरज किधर निकलता है! एक बार पटने में एक सज्जन से गोलघर
का रास्ता पूछा था तो उन्होंने जिस वात्सल्यभरी टान के साथ कहा था,
‘‘गोलघर जाबै क बाटे नू!’’ उसे लक्ष्य करके मैं मुग्ध होकर रह गया
था-यह सोचकर कि पाटलिपुत्र में सवाल भी ऐसे पूछा जाता है मानो
आशीर्वाद दिया जा रहा हो-पर फिर उन सज्जन ने मुझसे अधिक मुग्ध मुद्रा
बनाकर बड़ी-बड़ी चकित आँखें मुझपर जमाकर कहा था, ‘‘वह तो हम नहिएँ
बता सकते हैं’’, मानो सारा दोष कम्बख्त गोलघर का ही हो जो रोज न जाने
किधर मटरगश्ती करने निकल जाता है!
लेकिन लखनऊ में नफासत नहीं तो कुछ नहीं। जो बताने लगता, बड़े इतमीनान
से और आवाज में माधुर्य भरकर। लेकिन यहाँ से आगे उसे उसी के शब्दों
में देना उचित होगा।
वह : ‘‘तो आप-जाएँगे? हाँ साहब, तो आप इधर सीधे तशरीफ ले जाइए, वह जो
दूसरा चौराहा दीखता है न-’’
मैं : ‘‘हाँ-’’
वह : ‘‘वही जहाँ वह लाल साइनबोर्ड है, जिस पर लिखा है पं. रोशनलाल
दिव्यचक्षु राजज्योतिषी-’’
मैं : (कुछ अनिश्चित-सा क्यों कि इतनी दूर से बोर्ड पढऩा मेरे लिए
असम्भव है) ‘‘हाँ-’’
वह : (मेरे अनिश्चय को लक्ष्य करके) ‘‘वहीं एक पानी का कल भी है
जिसमें पाँच टोंटियाँ हैं, उसके पास से एक गली दाहिने को मुड़ती है
जिसमें थोड़ी दूर पर पीतल के बरतनों की एक दुकान दीखती है-’’
मैं : (इस सब ब्यौरे को स्मृति-पटल पर बैठाने की कोशिश करता हुआ)
‘‘अच्छा-’’
वह : ‘‘उधर मत जाइएगा। सीधे आगे चलकर थोड़ी देर बाद एक ढलान शुरू हो
जाएगा, जो आगे रेल की पटरी के नीचे से गुजरता है-दो मेहराबों वाला एक
पुल है, जिसके नीचे से आने और जाने वाला ट्राफिक अलग-अलग जाता है-पुल
से गुजरकर सडक़ धीरे-धीर मोड़ लेती है और सिनेमाघर के पास-’’
मैं : ‘‘कौन-सा सिनेमा घर?’’
वह : ‘‘अजी वही-निशात (या जो भी नाम रहा हो), लेकिन उधर मत जाइएगा।
बल्कि पुल तक भी आपको जाना नहीं होगा, उससे पहले ही एक सडक़ बायें को
मुड़ जाती है, जिस पर थोड़ी दूर जाकर ताँगों का एक अड्डा मिलता है।
वहाँ से तीन रास्ते निकलते हैं। सबसे परला जरा सुनसान-सा दीखता है-’’
मैं : (कुछ अधीर, और यह सोचता हुआ कि इतना सब तो मुझे याद नहीं
रहेगा, आगे फिर पूछ लूँगा) ‘‘अच्छा, मैं समझ गया-’’
वह : ‘‘उधर मत जाइएगा। जो दूसरा रास्ता-’’
लेकिन इतने से आप लखनऊ की विशेषता अवश्य पहचान गये होंगे। अगर मैंने
झल्लाकर यह नहीं कह दिया कि : ‘‘हाँ साहब, सब समझ गया; जो-जो रास्ता
आप बताते जाएँगे वह-वह छोड़ता हुआ मैं चला चलूँगा और इस प्रकार ठीक
वहाँ पहुँच जाऊँगा जहाँ कि मुझे पहुँचना नहीं है,’’ तो इसीलिए कि भला
किसी लखनऊ वाले को ऐसी रूखी बात कैसे कह दी जा सकती है? जो सुना है
गुलाब-जामुन भी छीलकर तश्तरी में पेश करते हैं...
ऐसी स्थिति में लखनऊ में देखा क्या होगा यह तो आप सोच ही सकते हैं,
हाँ जिन-जिन सडक़ों पर नहीं गया, जिन-जिन मोड़ों पर नहीं मुड़ा,
जिन-जिन गलियों में नहीं घुसा, उनका ब्यौरा आपको काफ़ी विस्तार के साथ
सुना सकता हूँ-इतने विस्तार से कि आप जरूर मुझे लखनऊ वाला मान लें
(यदि आप स्वयं ही लखनऊ वाले न हों)।
यों लखनऊ के मार्ग बता सकना पर्याप्त नहीं है। बल्कि लखनवी संस्कार
का उससे पुष्टतर प्रमाण यह होगा कि दूसरे शहरों के मार्ग भी लखनवी
पद्धति से बता सकें। कहावत है कि किसी के मित्र कौन हैं यह पता लगते
ही बताया जा सकता है कि वह स्वयं कैसा है : हम तो समझते हैं कि
मित्रों से परिचय की भी कोई जरूरत नहीं है। आप एक बार उससे उसके घर
का रास्ता पूछ लीजिए : इस प्रश्न के उत्तर में ही उसके सारे संस्कार
मुखर हो उठेंगे। और उसके संस्कारों से आप उस सामाजिक परिवृत्त को भी
पहचान सकेंगे जिससे वह आया है-यानी उसकी संस्कृति से आपका परिचय हो
जाएगा। आप चाहें तो इसे एक नया सिद्धान्त समझ सकते हैं। इस प्रबन्ध
को मार्ग-निर्देशन या मार्ग-निदर्शन न कहकर : ‘मार्ग-दर्शन’ कहने का
कारण इसी नये सिद्धान्त का आग्रह है। यों जो लोग शीर्षक में पूरी की
पूरी बात कह देने के समर्थक हैं वे इसे ‘मार्ग-निदर्शन-दर्शन’ भी कह
सकते हैं; और जो उसे साथ-साथ चमत्कारी रूप भी देना चाहते हैं वे उसे
‘दिग्दर्शन-दर्शन’ भी कह सकते हैं।
संस्कृति देश-काल-मर्यादित होती है, यह तो सभी जानते हैं-यहाँ तक कि
विश्वविद्यालयों के प्रोफेसर भी। यद्यपि कहीं आप उनकी बात समझ न लें
इसलिए वे इसे कहेंगे कि ‘संस्कृति का एक आयाम दैशिक होता है, दूसरा
कालिक।’ जिस प्रकार हम देश-काल-ज्ञान से किसी व्यक्ति के संस्कारों
का अनुमान कर लेते हैं, उसी प्रकार व्यक्ति के संस्कारों से हम उसके
देश-काल को भी पहचान सकते हैं। लखनवी-बनारसी, बिहारी-बंगाली-पंजाबी
की पहचान के सूक्ष्म संकेत तो हमने ऊपर दे ही दिये; अपने
अनुमान-संधान को काल के आयाम में बढ़ाएँ तो इस दर्शन की उपयोगिता और
मौलिकता और भी स्पष्ट हो जाएगी। कोई स्थान संकेत देते हुए कहता है :
पेड़ों के नीचे शुक-शावकों के मुँह से गिरे हुए तृण-धान्य है,
पत्थर इंगुदी फलों के तोड़े जाने से तैलाक्य हो रहे हैं, आश्वस्त भाव
से
घूमते हुए मृग शब्द सुनकर भी नहीं चौंकते, जलाशय के पथ पर वल्कल
शिखा से झरी हुई बूँदों से रेखाएँ खिच गयी हैं-
इन संकेतों से यह समझ लेना कठिन नहीं है कि यह ऋषि-उपवन का मार्ग है,
और इससे यह निष्कर्ष निकालने के लिए कोई असाधारण बुद्धि नहीं चाहिए
कि ऐसे मार्ग-संकेत का काल आश्रम-सभ्यता का काल है।
कुल्याम्भोभि: पवनचपलै: शाखिनो धौतमूला:
भिन्नो राग: किसलयरुचामाज्य धूमोद्गमेन-
पवनालोड़ित कुल्या के जल से वृक्षों के मूल धुले हुए हैं, और
यज्ञ-घूम से उनके किसलयों का रंग बदल गया है : इन लक्षणों से हम केवल
एक आश्रम की समीपता ही नहीं पहचानते, एक समूचे सांस्कृतिक वायुमंडल
का स्पर्श हम पा लेते हैं। और इसीलिए अनन्तर जब हम पाते हैं कि आश्रम
छोडक़र जाती हुई शकुन्तला अपनी सखियों को तो कण्व ऋषि को सौंप देती
है, किन्तु ‘अपसृत-पांडुपत्र-रूपी आँसू बहाने वाली लता से गले मिलती
है, क्योंकि वह माधवी लता तो ‘लताभगिनी’ है, तो हमें आश्चर्य नहीं
होता- उस वातावरण में जीव और जीवेतर सभी का संवेदनशील होना ही
सम्भाव्य है।’
किन्तु साहित्यिक मार्ग-संकेतों के उदाहरण के बिना भी
काल-सापेक्ष्यता का सिद्धान्त प्रतिपादित हो सकता है। मार्ग-दर्शन के
तरीकों में पीढ़ी दर पीढ़ी कैसे परिवर्तन हुए होंगे, यह खोज और
कल्पना का बहुत अच्छा विषय हो सकता है। आपका गन्तव्य जो ग्राम है,
उसका नाम ‘जोगीमारा’ न भी हो तो भी अगर आपको ‘सीतला की मढिय़ा के आगे
जो अमराई पड़ती है, उसके किनारे के भुतहे पीपल के आगे से मुडक़र, डायन
के टीले की ओट में बसे हुए पुरवे’ तक पहुँचने का मार्ग बताया जा रहा
है, तो आप सहज ही मान ले सकते हैं कि यह आप आज के किसी
अन्धविश्वास-विजडि़त समाज के प्रदेश में नहीं आ गये हैं तो निश्चय ही
किसी ऐसे युग में जा पहुँचे हैं जिसमें विज्ञान का स्थान अन्धश्रद्धा
और धर्म का स्थान भय अर्थात् अन्धविश्वास को प्राप्त है... और ‘राजा
का साहसपुर’ के पास ‘ठाकुर फतेहसिंह की गढ़ी’, ‘सिंह पीर’ और ‘हाथी
पोल’-ये क्या आपको वीर-सामन्त-काल में नहीं ले जाते?
क्रमश:और इधर आइए। मदरास में आप शहर के एक भाग से दूसरे भाग में जाते
हैं तो जिस राजमार्ग से होते हुए जाते हैं उसका नाम है ‘गाँधी-अरविन
रोड।’ गाँधी मार्ग तो देश में अनेक हो गये, दिल्ली में ‘अरविन
स्टेडियम’, ‘अरविन कॉलेज’ आदि का नाम सुना है पर, ‘गाँधी-अरविन रोड’
एक साथ केवल दो नामों को नहीं, हमारे देश की राजनैतिक प्रगति के
इतिहास की एक महत्त्वपूर्ण घटना को हमारे सामने ले आती है। दिल्ली का
‘कारोनेशन स्क्वेयर’ तो बस्ती से दूर पड़ गया और कारोनेशनों की
स्मृति भी देश के स्मृतिपटल पर फीकी पड़ गयी, पर ‘म्यूटिनी मेमोरियल
रोड’ अभी तक पुराने दर्द को जगाती हुई बनी है। और ‘क्रान्ति मार्ग’,
‘रिपब्लिक एवेन्यू’ आदि नाम भी न केवल एक ऐतिहासिक युग की, वरन एक
ऐसे संक्रान्ति काल को हमारे सामने लाते हैं जिसमें राजनैतिक संघर्ष
ही संस्कृति का मुख्य प्रश्न था।
कभी-कभी तो इन नामों से ऐसा जान पड़ता है कि नगर-निर्माण की एक नयी
पारिभाषिक शब्दावली बन गयी है। पारिभाषिक कोशों का तो युग ही है,
इसलिए इस विषय का भी एक कोश बन जाए तो अचम्भा क्या; किन्तु जिस
परिभाषा की बात हम कह रहे हैं वह सोद्देश्य नहीं बनी वह ‘अन्यथा
सिद्ध’ की श्रेणी में ही आ सकती है। उदाहरण, हर नगर या कस्बे की बीच
की सडक़ ‘गाँधी मार्ग’ होती है। इस सडक़ के बायीं ओर वाले पथ को
‘कस्तूरबा पथ’ कहा जाता है, और दाहिनी ओर के पथ को ‘जवाहर रोड’।
‘गाँधी मार्ग’ पर कोई बड़ा चौक पड़े तो वह ‘आज़ाद मैदान’ कहलाता है।
‘जवाहर रोड’ को कोई सडक़ तिरछी काटती हो तो वह ‘पटेल पथ’ कहलाती है,
और अगर सडक़ के पद के योग्य न हो तो उसे ‘पटेल गली’ भी कह सकते हैं;
अगर एकाधिक गली तिरछी पड़ती हो तो उन्हें क्रमश : ‘पटेल गली नम्बर
1’, ‘नम्बर 2’, ‘नम्बर 3’, कहा जा सकता है। जो गली आगे जाकर बन्द हो
जाती हो, जिससे निकलकर जाने का एकमात्र मार्ग उलटे पाँव लौटने का हो,
तो उसे ‘टंडन गली’ कहते हैं; दिल्ली या इलाहाबाद या ऐसे प्रदेशों
में, जहाँ जीर्ण भारतीय संस्कृति का स्थान नवोत्थित हिन्दुस्तानी
कल्चर ले रही है, टंडन गलियों को ‘कूचा टंडन’ भी कहा जाता है।
विशेष उल्लेखनीय बात यह है कि ऐसी परिभाषा केवल भारतवर्ष में ही बनी
है : इस दृष्टि से यह भी देश अद्वितीय ही है। महापुरुषों की स्मृति
बनाये रखने के लिए और देशों में प्रयत्न न हुआ हो, ऐसा नहीं है, पर
वहाँ ऐसे प्रयत्नों का समुचित साधारणीकरण नहीं हो पाया है। उदाहरण के
लिए इंग्लिस्तान में केवल एक वाटरलू है, वह भी रेल का स्टेशन; केवल
एक ट्राफलगार स्क्वेयर; अमरीका में केवल एक वाशिंगटन, रूस में एक
लेनिनग्राड, एक स्तालिनग्राड। किन्तु आप कल्पना भी कर सकते हैं कि
भारत में केवल नयी दिल्ली को या वर्धा को गाँधी नगर कहकर समझ लिया
जाए कि उस नाम को और भौगोलिक बन्धनों में डालने की आवश्यकता नहीं है?
या राष्ट्रपति भवन से इंडिया गेट (अथवा राजघाट) तक के मार्ग को (जो
आज किंग्सवे यानी राजपथ कहलाता है यद्यपि राजाओं के दिन अब-आशा करनी
चाहिए-सदा के लिए लद गये) गाँधी मार्ग कह दिया जाए और समझ लिया जाए
कि भारत के सबसे अधिक अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति वाले मार्ग को यह नाम
दे देने के बाद एक महान नाम का उचित सम्मान इसी में है कि उसे हर नगर
की हर सडक़ पर चिपकाने का प्रयास छोड़ दिया जाए? न-गाँधी हमारे थे,
सबके थे, इसे साग्रह प्रमाणित करने के लिए आवश्यक है कि हमारी गली,
हमारे कूचे, हमारी पटरी के साथ उनका नाम बँधा हो! आप कहेंगे कि भारत
भी तो हमारा भारत है; तो साहब, ऐसे तो फिर दुनिया ही हमारी है, क्या
इस मत्र्यलोक को ही गाँधी लोक कहने लग जाएँ? तो इसलिए शहर-शहर,
गाँव-गाँव में गाँधी मार्ग होंगे, प्रान्त-प्रान्त में गाँधी ग्राम
और गाँधी नगर, हर कस्बे के मुहल्ले के नाम जवाहर नगर और कमला नगर हुआ
करेंगे और हर एक में एक नेताजी पार्क या आज़ाद पार्क हुआ करेगा। हर
शहर की हर म्युनिसिपैलिटी एक ही बात सोचे, अनेकता में एकता के
प्राचीन भारतीय आदर्श का कितना सुन्दर निर्वाह है! और यह भी कौन कह
सकता है कि ‘सेठ रामकिशोर लक्ष्मीनारायण लाला हरगुलालका गली’ जैसे
गली से भी लम्बे नाम भी पारिभाषित नामों से अच्छे थे, या कि ‘गली
कायस्थाँ’ और ‘मुहल्ला बिरहमनाँ’ नयी पद्धति के ‘वाल्मीकि नगर’ या
‘रविदास स्क्वेयर’ के सामने टिक सकते हैं? और हम काशी के धुरन्धर
पंडितप्रवर से अनुरोध करेंगे कि ‘अभिनव नाट्य-शास्त्र’ के बाद ‘अभिनव
मानसार’ लिखकर वह अपने नाम के आगे ‘अभिनव भरत’ के साथ-साथ ‘अभिनव
विश्वकर्मा’ का विरुद भी जोड़ लें। भरतत्त्व को प्रमाणित करने के लिए
यदि बम्बई के सिनेमा का अनुभव पर्याप्त है, तो अभिनव विश्वकर्मात्त्व
के पीछे तो भारतवर्ष के समूचे स्वाधीनता-आन्दोलन का प्रमाण होगा।
किन्तु हम दिग्दर्शन-दर्शन की बात कर रहे थे, नामकरण की नहीं। कुछ
बहक गये। लेकिन कोई बात नहीं, उलटे पाँव लौट आते हैं। समझ लेंगे कि
कूचा टंडन में घुस गये थे और वहाँ से बिना बेआबरू हुए ही फिर निकल
आये। तो हम कह रहे थे कि हर पीढ़ी और युग में मार्ग-दर्शन की अपनी
परिपाटी रही होगी, और उदाहरण देते हुए क्रमश: समकालीन जीवन की ओर
बढ़े जा रहे थे। संघर्ष काल के मार्ग-निर्देशों का तो हम मार्गों के
नाम से अनुमान लगा ही सकते हैं। और उसके अनन्तर आज?
एक पीढ़ी भर में कितना बड़ा परिवर्तन हो गया है, इसका प्रमाण देने के
लिए कुछ कल्पना-विहीन लोग कदाचित् आँकड़ों की ओर दौड़ें, कोई
बुनियादी तालीम से लेकर भाखड़ा-नंगल तक के क्रिया-कलाप की दुहाई दें,
किसी को कदाचित् यह भी ध्यान आ जाए कि पिछले सात वर्षों से वनमहोत्सव
करते हुए जो गण्य-मान्य लोग शहरों में सब्ज बाग लगाने और दिखाने का
भगीरथ प्रयास करते रहे, उनमें से वन में बसकर सरल जीवन बिताने की एक
को भी नहीं सूझी यद्यपि वन-सभ्यता और ऋषियों के जीवन की चर्चा सभी ने
की होगी? पर इस सबकी कोई आवश्यकता नहीं है, आप एक चौराहे पर खड़े
होकर किसी से मार्ग पूछिए और उसी के उत्तर में युगान्तर बिजली-सा
कौंध जाएगा। ...’’वह जो बहुत बड़े-बड़े दो लाल बोर्ड हैं न, जिस पर
छ:-छ: फुट के अक्षरों में लिखा है ‘खाज’, ‘खुजली’-वहाँ से बायें को
मुड़ जाइए। आगे एक गोल चक्कर आएगा, फिर एक मोड़ फिर एक तिरस्ता-वहाँ
एक रास्ते के सिरे पर बहुत बड़े बोर्ड पर लिखा है, ‘डोंट वाक टु योर
डेथ’ और मोटर के नीचे गिरते एक आदमी का चित्र है। उसी सडक़ पर हो
लीजिए : कोई पचास कदम आगे जाकर एक पक्की दीवार दीखेगी जिस पर चूने से
लिखा है ‘नामर्दी-नामर्दी-नामर्दी’ दीवार आगे चलकर बड़े अस्पताल की
दीवार से मिल जाती है-आप तुरन्त पहचान लेंगे क्योंकि वहाँ बिगुल पर 3
का बना हुआ है और लिखा हुआ है ‘सायलेंस जोन’। बस वहीं तक आपको जाना
है : उस निशान के सामने ही ‘सिंहनाद’ नाम की रेडियो की दुकान है
(बोर्ड आप न भी देखें तो उसके लाउड स्पीकरों का स्वर आप तीन फलाँग से
सुन सकते हैं रात बारह बजे तक), और सिंहनाद के साथ वाली दुकान में
आपके मित्र रहते हैं। उनका बोर्ड तो लगा है, पर दिन में दीखता नहीं,
रात को उसके पीछे बत्ती जलती है तो पढ़ा जा सकता है। हाँ, उन्हीं की
छत के ऊपर एक बोर्ड है जिसमें बिजली की बत्तियों से लिखा हुआ है
‘न्यूरोसिस’। बस आप सीधे न्यूरोसिस के बोर्ड के नीचे चले जाइए।’’
मेरे मार्ग-दर्शन से नि:सन्देह आप ऊब गये होंगे। पर ऊबकर मुझे दोष न
दीजिए। कसूर मेरा नहीं, जमाने का है। आप जमाने पर हँस लीजिए और इस
प्रकार परोक्ष मुझ पर भी-आप को हँसा सकूँ तो मेरे धन्य भाग।
और आप ऊबे न हों, या हँसना न चाहें-तब? तब भी कोई चिन्ता नहीं, तब तो
मेरे मार्ग-निर्देशन की उपयोगिता स्वत: सिद्ध है-आप मेरे बताये हुए
मार्ग पर ही चल रहे हैं : ‘बस, सीधे न्यूरोसिस के बोर्ड के नीचे चले
जाइए-वह आधुनिकता का दूसरा नाम है, और समकालीन जीवों के लिए उपयुक्त
बिल्ला! संसार के न्यूरोटिको, एक हो जाओ-तुम्हारे न्यूरोसिस के सिवा
और तुम्हारा क्या कोई छीन लेगा?’
(शीर्ष
पर वापस)
3.
दिल्ली देखा कि आगरा?
नयी दिल्ली में जब किसी संसद-सदस्य से दोस्ती न होने के कारण उनके
आवास-भवनों में रियायती कमरा न मिल सका, और होटलों के किराये देखकर
यह समझ में आ गया कि दूर-दूर के लोग क्यों सैलानी होकर (या ऑल इंडिया
रेडियो के अन्तरभाषिक कवि-सम्मेलन के कवि नहीं तो अनुवादक होकर)
दिल्ली आने की अपेक्षा सरकारी कमेटी के सदस्य होकर आना ही अधिक पसन्द
करते हैं, तब किसी दयालु दक्षिणी ने सुझाया कि दिल्ली में काम हो तो
मेरठ या फरीदाबाद रहकर आते-जाते रहना किफायत का रास्ता हो सकता है।
अपने राम न रेडियो सम्मेलन में आये थे न समिति के सदस्य थे, दिल्ली
में थोड़ा काम था पर उसके साथ समय की कड़ी पाबन्दी न थी, इसलिए मेरठ
से दूसरे-तीसरे मेरठ की यात्रा कुछ भयावह नहीं लगी। लोकल गाडिय़ाँ तो
कई हैं, देर से चलती-पहुँचती हैं तो क्या हुआ? कभी चेन-वेन खिंच जाती
है और राह में घंटोंं लग जाते हैं, तो दूसरी तरफ़ यह भी तो है कि भीड़
में अधिकतर लोग टिकट नहीं लेते या ले पाते और बेजगह गाड़ी रुक जाने
से यह आराम भी हो जाता है कि उतरकर अपने रास्ते चल दिये-न किसी ने
टिकट पूछा, न किसी ने दिखाया! आख़िर ‘जियो और जीने दो’ का आकर्षण
जितना ऐसे दमघोंठु सफर के मुसाफिर को होता है, उतना ही तो सबकी घृणा
और अवहेलना की बर्छियों से छिदते हुए बेचारे रेलवाई टीटियों को होता
होगा! हमने कहा ‘टीटियों को’-बिहार का प्रतिष्ठित ‘टिकट चेकर बाबू’
दिल्ली पहुँचते-न-पहुँचते टी-टी हो जाता है; क्या नाम की यह घिसाई
काम की पिसाई की नाप नहीं है?
मेरठ-दिल्ली-मेरठ की रेल-यात्रा हमने किफायत की लाचारी से चुनी थी,
तफरीह के शौक से नहीं, पर दो-एक बार की कन्ध-घिसाई के बाद ही समझ में
आ गया कि क्यों लोगों को इसकी लत लग जाती हैं : किरानी बाबू इसके लिए
घर से दो घंटे पहले चल देने को तैयार हो जाते है, और कालेज के
विद्यार्थी टिटकारियाँ लगाते हुए बाहर लटकते रहने के लिए बार-बार फेल
होते जाना भी मंजूर कर लेते हैं-क्योंकि ये सुख केवल विद्यार्थी-गिरी
के सुख हैं! दक्षिण की बसों की ठेलमठेल में खड़े-खड़े उचके खाने का
मजा भी हमारा अपरिचित नहीं है; पर सच कहें, इस दिल्ली-गाजियाबाद-मेरठ
की लोकल-यात्रा पर सौ-सौ जम्बो जेट निछावर हैं-दिल्ली से मेरठ तक
पूरी यात्रा न भी हो, चाहे केवल मोतीबाग से मिंटो ब्रिज या साहिबाबाद
से सेवानगर तक ही आना मिल जाए। ‘राज तिहूँ पुर को तज डारौ!’
आप नहीं मानते? ऐसी यात्रा की एक ही घटना सुन लीजिए : बुजुर्गों के
लिए बानगी ही काफ़ी है।
शाहदरा-साहिबाबाद के बीच कहीं तक पहुँचे थे; भीड़ जैसे-तैसे अंग
मोड़-तोडक़र डिब्बे में अँट गयी थी और सफ़र की मुसीबत के बारे में
मानों एक सर्वसम्मत धारणा बना लेने के बाद लोग आपस का बैर-भाव भुलाकर
लाचारियों का मजा लेने के मूड में आ चुके थे। बातचीत चल निकली थी,
हँसी-मजाक भी हो रहा था, जो बोल नहीं रहे थे वह सुनने का ही रस ले
रहे थे। हम भी सुनने वालों में थे : अगर श्रव्य के कच्चे धागों के
सहारे भी हम मन ही मन नाटक रचते चल रहे थे तो इसलिए नहीं कि हम
भरत-मुनि को झूठा ठहरा रहे हैं, सिर्फ इसलिए कि जो सुन रहे थे वह
इतना मजेदार था कि कहानी अपने-आप बनाता चल रहा था। पर हम अपना
पूर्वाग्रह आप पर क्यों लादें : आप स्वयं सुन लीजिए।
बात ज्योतिष से शुरू हुई थी। कुंडली देखकर भूत-भविष्य बता देते हैं,
वह क्या सच होता है? अब साहब सच-झूठ का क्या पता लगे है। और फिर चार
बातों में एक सच निकले आवे तो साब रौब में आ जावें और तीन जो झूठ हों
उन्हें याद कौन रखे... इससे हाथ देखने की बात निकली : एक मुसाफ़िर
अपने को माहिर बता चुके थे और तुरन्त परीक्षा की बात बड़ी सफाई से
इसलिए टाल चुके थे कि इतनी भीड़ में हाथ कोई कैसे देखे उसके लिए तो
पूरी शान्ति चाहिए और विलायत में तो बारीक रेखा देखने के लिए बिजली
के कैसे-कैसे लैम्प लगे रहते हैं-असल में कारी लकीरें तो बारीक ही
होती हैं, मोटी रेखा से थोड़े ही असल महत्त्व की बात पता लगती है!
‘‘अब आयु-रेखा देखकर किसी को बता दो कि वह बीस बरस जीवेगा या कि अगले
बरस मर जाएगा तो इसके सच-झूठ का क्या पता लगे -वह तो एक बरस या बीस
बरस बाद ही जाना जाएगा न! अब कोई यह बतावे कि तुम्हारी बीवी झगड़ालू
होगी या तुम्हारे बाप ने मूँगफली की चोरबाजारी से पाँच हजार रुपया
बनाया होगा, तो इसकी तो पड़ताल भी हो सके-और यह तो बारीक रेखाओं से
ही पता चलता है जिन्हें पहचानने में घंटों लग जाएँ-’’
किसी ने कहा : ‘‘पर यह कोई मान लेगा तब न!’’
‘‘हाँ, भला अपनी भद्द कौन करवाये-’’
‘‘लेकिन रेखा से क्या ऐसी बात का भी पता लग जाता है? तब तो यह बड़ी
विद्या है साहब!’’
‘‘अरे हाथ की रेखा तो क्या-क्या बताओ- पढऩेवाला चाहिए! उससे तो यह भी
पता लग जावे कि कोई औरत छिनाल होगी तो उसका जार बनिये का होगा कि जाट
का’’
‘‘नहीं जी, ऐसा कौन हो सकता है। जात-पाँत से रेखाओं को क्या मतलब,
जात-पाँत क्या भगवान ने थोड़े ही बनाए, वह तो हमारे समाज की ईजाद
है।’’
‘‘वाह साहब वाह! और छिनाली और जार-गीरी जैसे भगवान ने बनाये हैं! या
तो यह मानिए कि हर रेखा में हर इनसान की हर बात का ब्यौरा लिखकर रख
दिया गया है या फिर कुछ न मानिए। यह तो बात नहीं बनती कि आधी बात तो
पहले से तय कर दी गयी हो और बाकी के लिए खुली छूट हो उससे तो अँधेर
हो जाएगा।’’
हाथ देखने वाले साहब ने समर्थन पाकर कहा, ‘‘यह तो है। जब अणिमा-महिमा
सब एक है तो छोटी-से-छोटी लकीर में भी हर प्राणी की पूरी पत्र लिखी
रहनी चाहिए-अब पढऩेवाला जितना पढ़ पाए! अब हस्त-रेखा।’’
एक भारी-सी आवाज़ सुनाई दी : ‘‘पामिस्ट साब ठीक कहते हैं-मैं तो पूरा
कायल हूँ। मेरी तो आजमायी हुई है-’’
सबकी आँखें वक्त की ओर मुड़ीं। उसकी वर्दी और भुजा का बिल्ला देखकर
किसी ने कहा, ‘‘सुनो भई सुनो, हवालदार साहब की बात सुनो। हाँ तो
हवालदार साहब, आप अपने ....की बात सुनाइए-आपने जंग के दौरान कई
मुल्कों की सैर की होगी।’’
हवालदार ने कुछ सकुचाने का अभिनय करते हुए कहा, ‘‘नहीं, कई तो
क्या’’, ‘‘हाँ, बर्ता फ्रँट पै था... पर मैं कह यह रहा था कि मुझे एक
पामिस्ट ने जो बताया वह सारे गैर-माकूल हालत के बावजूद ऐसा सच हुआ कि
हैरत होती है। भरती होने के पहले मैं पेशौर की तरफ़ एक छावनी में
सिविलियन क्लर्क था, तब की बात है, ‘‘
मजेदार कहानी की सम्भावना से सभी उत्सुक होकर चुप हो गये थे। श्रोता
मंडली काबू में है, यह देखकर हवालदार साहब आश्वस्त होकर आपबीती
सुनाने लगे। कहानी का सार यों था :
सिविलियन ज़िन्दगी में वह एक छावनी के स्टोर क्लर्क थे। तनखाह तो
क्लर्क की जो होती है सो होती है, पर छावनी का स्टोर क्लर्क होने के
नाते ऊपर की अच्छी आमदनी हो जाती थी। शादी भी हो गयी थी। भगवान की
दया से सब कुछ था। एक पामिस्ट ने बताया था कि चार बच्चे होंगे-लडक़े,
सो बीवी भी खुश थी। पर बरस गुजरने लगे और कुछ भी नहीं हुआ, फिर तीन
बार औलाद हुई भी तो लड़कियाँ जो कोई भी चार दिन से ज्यादा जिन्दा
नहीं रही-एक तो पैदा होने के दो घंटे बाद मर गयी। एक और पामिस्ट को
दिखाया-उसने कहा कि लडक़े होंगे, तीन तो जरूर, शायद चौथा भी लडक़ा
होगा, और चारों जिएँगे... बीवी को बताया पर उसे तसल्ली नहीं हुई। फिर
एक दिन उसने कहा, ‘‘तुम जो रिश्वत लेते हो न, तभी औलाद नहीं होती या
बचती नहीं। मेरी बात मानो तो रिश्वत लेना बन्द कर दो, हो न हो। इसी
पाप के कारण यह सब होता है।’’ बीवी ने कसम उठवाकर छोड़ी। पर जब तौबा
कर ली तो फिर उसे निबाहा भी, रिश्वत लेना उसी दिन से बन्द कर दिया।
पर फायदा कुछ नहीं हुआ। इसी बीच जंग छिड़ गयी तो भरती हो जाने में
तरक्की दीखी-बावर्दी हवालदार क्लर्क होकर तबादले पर गये और फिर वहाँ
से फ्रंट भेज दिए गये।
हवालदार ने रुककर चारों ओर देखा। सबकी दिलचस्पी कायम थी-बल्कि बढ़
गयी थी। एक कुछ पूछने ही जा रहा था कि हवालदार बोले : ‘‘आप सोचते
होंगे कि पामिस्टों की बात का क्या हुआ। वही तो बताने जा रहा हूँ। जब
मेरी पोस्टिंग फ्रंट पर हो गयी तो बीवी को बड़ा सदमा पहुँचा-आप सोच
ही सकते हैं। जंग कितने दिन चले इसका कोई ठिकाना तो नहीं था; साल-दो
साल में छुट्टी पर घर तो आ सकता पर तब तक के लिए तो बात टली ही! और
फिर सात बरस में जो नहीं हुआ पर चार हफ्ते की छुट्टी में हो जाएगा इस
पर किसी की दिलजमई कैसे हो! खैर साहब, जैसे-तैसे उसे समझा कर चले
गये।’’
कोई पूछ ही तो बैठा : ‘‘हवालदार साहब, वहाँ तो ऊपर की आमदनी का खूब
मौका रहा होगा?’’
हवालदार ने नजर से ही उसे चुप कराते हुए बताया, मौके तो बहुत थे, पर
उन्होंने कसम उठा ली सो उठा ली थी। पर बात रिश्वत की नहीं पामिस्ट्री
की है न! ‘‘तो साहब, वहाँ डीपो के लिए रोज रसद की डिलीवरी लेनी पड़ती
थी। तरह-तरह के लोग आते थे। और वह तो सब ट्राइबल इलाका है न, वहाँ
मर्द कम औरतें ही ज्यादा आती थीं माल पहुँचाने-साग सब्ज़ी हो तो,
दूध-फल हो तो, अंडा-मुर्गी हो तो; अक्सर तो चावल भी वही लाती थीं।
ऐसे ही क्या बताएँ, साहब, अब ऐसी ज़िन्दगी में यह कोई अनहोनी बात तो
है नहीं-वहीं एक औरत से आशनाई हो गयी...पहले तो कभी-कभी आना-जाना
होता था, फिर कुछ ऐसा मौका बन गया कि ज्यादातर उसी के घर रहना होता
था-अपने क्वार्टर में रात कभी-कभी ही गुजारनी पड़ती थी। यों
देखते-देखते दो बरस कट गये-फिर छुट्टी पर तीन हफ्ते घर जाना हुआ पर
उससे नतीजा कुछ नहीं निकला। लौटकर फिर वही रवैया चालू हो गया-’’
गाड़ी की चाल एकाएक धीमी हुई थी, पर थोड़ी-सी हलचल के बाद ही पता लग
गया कि कोई स्टेशन आने वाला नहीं है, इसलिए सब फिर एकाग्र हो गये।
हवालदार के चेहरे पर एक शरमायी-सी मुस्कराहट दौड़ गयी। फिर उसने कहा,
‘‘साहब दो बरस और वहीं गुजर गये। और आपको क्या बताऊँ, मेरी जि़न्दगी
के शायद सबसे सुख के दिन रहे वो... जिस औरत से मेरी आशनाई थी, वह
शादीशुदा थी, पर उसका खाविन्द कलकत्ते रहता था-मेरे रहते तो
लौटकरनहीं आया, और मैं भला क्यों उसकी खबर पूछता! पर, साहब-और इसी को
कहते हैं तकदीर का जोर मारना।’’ एक बार फिर हवालदार ने चारों ओर नजर
दौड़ायी : ‘‘और औरत से मुझे औलाद नसीब हुई, चार बरस में तीन बच्चे-
तीनों लडक़े...’’
हवालदार रुक गये। डिब्बे भर में थोड़ी देर चुप्पी छायी रही; फिर
एकाएक तीन-चार कहकहे एक साथ सुन पड़े, और दो-तीन आवाजें भी : ‘‘वाह
हवालदार साहब! आपको तो बीवी की बात खूब फली!’’ और पामिस्टों की भी!
‘‘वही तो खुदा जब देता है, ऐसे देता है!’’ ‘‘है साब, तकदीर भी कोई
चीज़! होनी कभी नहीं टलती!’’
हाथ के इशारे से सबको रोकते हुए हवालदार बोले, ‘‘आप सबकी दुआ से अब
मेरी चार औलाद हैं, चारों जिन्दा हैं। तीन का हवाला तो मैंने बता ही
दिया वार के बाद घर लौटकर अपनी बीवी से चौथी पैदा की-वह भी लडक़ा,
भगवान की दया से वह भी जिन्दा है। रिश्वत मैंने फिर कभी नहीं ली।’’
बधाइयों की बौछार फिर होने लगी। किसी ने बीवी की बात की दाद दी; किसी
ने पामिस्ट की भविष्यवाणी की, किसी ने भाग्य के बल की, सभी ने
हवालदार की खुशनसीबी की...
अब पामिस्ट ने कहा, ‘‘देखिए न, पामिस्ट्री का $जोर! हो नहीं सकता कि
उसकी बात गलत हो जाए-बशर्ते कि पढऩेवाला ठीक पढ़े! था कोई इमकान कि
बात सच हो-मगर होकर रही-’’
किसी ने बड़ी बुज़ुर्गाना अदा से, दूध-पानी अलग करते हुए कहा, ‘‘और
पाप-पुण्य का फल भी होता ही है-पामिस्ट्री की बात भी ठीक है, पर
रिश्वत लेना बन्द न करते तो क्या पता...’’
अब की बार स्टेशन ही था : गाड़ी बड़े निश्चयात्मक ढंग से धीरे हो रही
थी कि रुककर ही रहेगी। पर लोगों का ध्यान उखडऩे से पहले हवालदार ने
स्वर और ऊँचा करके कहा : ‘‘पामिस्ट्री तो मैं मानता हूँ, पर एक बात
मुझे आप साहबान में कोई बता दे।’’
लोग उठने-उठने को होते हुए भी रुक गये और एकटक हवालदार की ओर देखने
लगे।
‘‘मेरा सवाल यह है कि क्या रिश्वत लेते रहना अच्छा था, या कि दूसरे
की बीवी से बच्चे पैदा करके औलाद को बचाना? क्यों पामिस्ट साहब, आप
बताएँ, या-’’ यहाँ हवालदार उन बु$जुर्ग की तरफ़ मुखातिब हुए जिन्होंने
पाप-पुण्य की बात कही थी, ‘‘या बुजुर्गवार, आप फरमा दें।’’
पर बुजुर्गवार को उसी स्टेशन पर उतरना था-गाजियाबाद में उन्हें गाड़ी
बदलनी थी और कुछ दूसरे लोग भी तफरीहन प्लेटफार्म का एक चक्कर लगा
लेना चाहते थे; इसलिए हवालदार साहब के सवाल का जवाब देना किसी ने
ज़रूरी नहीं समझा। कहानी भी पूरी हो ही गयी थी : वक्त अच्छा कट गया
था, भले ही गाड़ी लेट हो गयी थी। बल्कि इस लोकल गाड़ी को लेट क्या और
टाइम क्या-लोकल का मतलब ही है स्थानीय, सो जहाँ की हुई वहीं की हो
गयी!
अब बताइए, होगा जम्बो जेट में सफर का ऐसा मज़ा? रही संसद सदस्य की
मेहमानदारी की, सो हम अभी वह दिन नहीं भूले जब एक जानकार दिल्लीवाले
के साथ किसी सदस्य के ठाठदार फ्लैट में गये थे तो देखा था कि भीतर के
बरामदे में एक भैंस पसरी हुई पगरा रही है; एम.पी. साहब स्वयं आँगन
में खाट पर बैठे धूप सेंक रहे हैं! बीन बजाना हमने सीखा नहीं था,
इसलिए उल्टे पाँव लौट आये; दिल्लीवाले दोस्त कहते ही रह गये कि ‘‘अरे
म्याँ, इसी चटखारे के लिए तो लोग दिल्ली आते हैं!’’
(शीर्ष
पर वापस)
4.
पहला रिपोर्टर
सृष्टि-क्रम में पुरुष पहले था कि नारी, इस पर जब-तब बहस हुआ करती
है, और इसी प्रश्न का एक रूपान्तर-कि बीज पहले हुआ या
पौधा-शताब्दियों से दार्शनिक वाद-विवाद का आधार बना आया है। अन्य
दार्शनिक मसलों की तरह यह मसला भी असल में कोरा सैद्धान्तिक है और
जीवन पर इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ता। दोनों में से कौन पहले बना,
इसका क्या महत्त्व है जबकि हर युग में, हर काल में, हर देश में, एक
पर दूसरा हावी होता आया है? क्षमा करें, मैं व्याकरण में जरा कच्चा
हूँ, इसीलिए यह लिख गया; नहीं तो शायद ‘होती आयी है’ लिखना चाहिए, और
शायद ‘दूसरा’ नहीं ‘दूसरी’, क्योंकि हावी होने वाला, वाली ही हो सकता
(यानी सकती) है। जो हो, इस प्रश्न को मैं तो कोरी हवाई बहस ही मानता
हूँ। हाँ, कोई यह पूछे कि पहला पत्रकार या संवाददाता कौन था, तो जरूर
सोचने की बात है, क्योंकि मेरी धारणा तो यही है कि पहला संवाददाता ही
बाद की समूची ऐतिहासिक उलझनों का मूल रहा। यों तो इतने से ही कुछ
अनुमान हो जाना चाहिए कि पहला संवाददाता कौन रहा होगा- और वह व्याकरण
वाली समस्या यहाँ पर फिर उठती है, पहला संवाददाता कि पहली संवाददाता?
क्योंकि इसमें कौन सन्देह कर सकता है कि जब ईडन के उद्यान में हौवा
ने साँप के पास वह सेब देखा, और दौडक़र इसकी सूचना आदम को देने चली,
तभी पहले संवाद का जन्म हुआ; और पत्रकारिता के इस पहले उद्योग का ही
परिणाम देखिए कि बेचारा भोला आदम ईडन से बहिष्कृत हो गया!
‘‘आज प्रात:काल उद्यान के एक सुन्दर हरे-भरे कोने में एक महाकाय साँप
देखा गया। कहा जाता है कि वह साँप अन्य साँपों से भिन्न है-क्योंकि
यह भूमि पर रेंगने के बजाय एक पेड़ से लिपटा रहता है। हमारा विशेष
प्रतिनिधि मौके पर जाकर पड़ताल कर रहा है।’’
‘‘हमारे विशेष संवाददाता द्वारा विश्वस्त रूप से पता चला है कि जिस
पेड़ पर साँप गुंजलक डाले पड़ा रहता है, उसकी डाल में एक सुन्दर फल
लगा हुआ है। साँप के कारण उस तक पहुँचना खतरे से खाली नहीं है।
समाचार से उद्यान में बड़ी सनसनी है।’’
‘‘शैतान के परराष्ट्र सचिवालय में जाँच करने से मालूम हुआ कि साँप
द्वारा रक्षित फल ज्ञान का फल है। गुप्त सूत्र से यह भी सूचना मिली
है कि इस फल पर समूचे उद्यान के निवासियों का भविष्य निर्भर है।
विशेष संवाददाता द्वारा प्रश्न पूछे जाने पर विभाग के एक उच्च
अधिकारी ने बड़े रहस्यपूर्ण ढंग से प्रश्न को टाल दिया।’’
‘‘साँप ने एक विज्ञप्ति निकाली है जिसके अनुसार...इस कथन की सत्यता
की पड़ताल अभी नहीं हो सकी।’’
यों तो कल्पना-चक्षु से स्पष्ट देख सकता हूँ कि किस प्रकार सनसनीदार
खबरों से पहले आदमी का कौतूहल और उत्कंठा जगायी गयी होगी, और फिर
उसके भाग्य का निर्णय हो गया होगा।
यह जरूर कहा जाएगा कि केवल आदम ही निर्वासित नहीं हुआ, हौआ भी तो साथ
गयी। लेकिन जरा यह तो सोचिए, अगर अकेला आदम ही निर्वासित किया गया
होता, तो क्या हौआ स्वयं न पीछे दौड़ जाती?
‘‘शरणार्थी काफिले के साथ जाते हुए हमारे विशेष संवाददाता ने सूचना
दी है।’’
‘‘शरणार्थी कैम्प से। ईडन उद्यान से कुछ दूर पर आदम ने डेरा डाला है।
उसकी मनोदशा अत्यन्त चिन्ताजनक बतायी जाती है। पेड़ की छाल और
पत्तियाँ बाँधकर उसने अपने शरीर के कुछ भाग को ढक लिया है, और उसकी
खोई हुई दशा से-’’ (ह.वि.सं.दा. द्वारा) एक बार जब व्यक्ति पर
ह.वि.सं.दा. की छाप लग गयी, तब फिर वह रुक नहीं सकता; जैसे किसी
विशेष व्यक्तित्व पर ‘छाया’ पड़ जाने से वह बाध्य होकर ‘खेलता’ ही
रहता है, उसी तरह संवाददाता की छाप लग जाने पर हौवा भी ईडन में रुक न
सकती, उसके बाहर की मरुभूमि में तो क्या, सीधे शैतान की नगरी भी जाना
पड़ता तो भी जाती बिना बुलाये जाती, बिना खदेड़े जाती। बल्कि वहाँ तो
और भी उत्साह से, क्योंकि जरा सोचिए तो, वहाँ की रंगीनियों और
सरगर्मियों का, और वहाँ के ‘नृशंस’, ‘हौलनाक’, ‘बर्बरतापूर्ण’
व्यापारों के आँखों देखे ‘ताजा हालात’ से कितनी सनसनी फैलती, और
संवाददाता के लिए कितना बड़ा ‘स्कूप’ होता वह कि और संवाददाता
ईष्र्या से ऐंठकर रह जाते, जैसे जेठ की गर्मी में पल्लीदार काठ
(प्लाईवुड) की परतें ऐंठ जाती हैं। एक वह गया था न कौन, ऋषिकुल का
रिपोर्टर-हाँ, नचिकेता, कैसे कौशल से साक्षात् यमराज से मिल आया
था-सो उसका बखान अभी तक होता है, वैसा भाग्यवान दूसरा रिपोर्टर नहीं
हुआ।
असल में संवाददाता का ‘लक’ भी बड़ी चीज़ है। अब देखिए न, माना कि
प्रियंवदा की सूझ भी थी कि उसने कौशल से शकुन्तला को ख़बर दे दी कि
दुष्यन्त को विदा करे- ‘‘चक्रवाकबधुके, आमन्त्रयस्व सहचरं, उपस्थिता
रजनी।’’ लेकिन सूझ की ऐसी बड़ी बात तो नहीं थी कि जिसके लिए यह वाक्य
इतिहास में अमर हो जाए? यह ‘लक’ ही तो है कि कालिदास की मेधा यहाँ
आकर अटक गयी, और उसने प्रियंवदा के संवाद को ज्यों का त्यों अपनी
पुस्तक में स्थान दे दिया!
महाभारत में कौरवों का सैनिक संवाददाता संजय भी अपने ढंग का एक ही
है। इतना जरूर है कि उसके कई बयान सन्दिग्ध जान पड़ते हैं-यानी आँखों
देखे तो नहीं ही हैं, वैसे भी उनका कोई पुष्ट आधार नहीं है और मानो
अटकल से ही भिड़ा दिये गये हैं। अपने वर्णन की खामियाँ भरने के लिए
सैनिक संवाददाता ऐसे कल्पना से काम ले तो उसे दंड मिलना चाहिए, पर
व्यासजी आखिर ऋषि थे-’साईं लोग’-उन्होंने संजय के बयानों को
ज्यों-का-त्यों अपना लिया। और उनके स्टेनोग्राफर तो थे ही गोबर-गणेश,
उन्होंने टोका; यह भी ‘लक’ ही की बात है-अब उनका लिखा आर्षवाक्य
प्रमाण हो गया है।
चर्चिल ने अपने संस्मरणों में लिखा है कि एक सैनिक अफसर उनके पास कुछ
संवाद लेकर आया था; चर्चिल के पास उन दिनों एक पालतू शेर था;
उन्होंने अपने संवाददाता से कहा, ‘‘अगर तुम्हारी बतायी हुई बातें सब
सच न होंगी तो जानते हो क्या-क्या होगा? मैं तुम्हें इस शेर को डलवा
दूँगा। आजकल मांस की कमी है यह तो तुम जानते ही हो।’’ उस अफसर ने
जाकर लोगों से कहा था कि प्रधानमन्त्री को सन्निपात हो गया है। पर
असल बात तो यह है कि चर्चिल तो ऋषि नहीं है अत: उन्हें यह सब
जाँच-पड़ताल के ढकोसले सूझ रहे थे। क्योंकि आख़िर वह भी महायुद्ध पर
एक रिपोर्ट लिख रहे थे; व्यास की भाँति महाभारत थोड़े ही रच रहे थे
जो न केवल इतिहास हो वरन उस काल की समूची संस्कृति का प्रतिबिम्ब हो
जाए समाज-जीवन का, कला और विज्ञाान का, धर्मविश्वासों और मान्यताओं
का एक सर्वांगीण प्रतिचित्र?
यूनानियों में भी महाभारत जैसा युद्ध हुआ था, पर उनके पास व्यास ऋषि
कहाँ थे? और न संजय-उनका दुर्भाग्य था कि उन्होंने भी एक स्त्री
संवाददाता नियुक्त की थी जिसके संवादों पर व्यास के समस्थानीय बुढ़ऊ
होमर तो क्या, स्वयं उसी समय के यूनानी भी विश्वास न करते थे।
नॉसिकेया (भाषा-शास्त्री जरा विचार करें, यह नाम नचिकेता से कितना
मिलता है) नचिकेता, नासकेता तो प्रचलित रूप ही हैं, ‘त’ का ‘य’ हो
जाना स्वाभाविक है जैसे ‘सीता’ से ‘सिया’ में हुआ है; ‘अब नासकेता,
नासकेया और नॉसिकेया में क्या अन्तर है? हाँ, नॉसिकेया स्त्री थी, यह
ज़रूर है यह भी कहा जा सकता है कि इसीलिए उसका विश्वास नहीं किया गया
जब कि नचिकेता ऋषि हो गये-उस समय कोई अखिल यूनानी नारी सम्मेलन नहीं
था जो इस पक्षपात का विरोध करके घोषित कर देता कि वह भी किसी पुरुष
संवाददाता का विश्वास नहीं करेगा। उस काल के पक्षपात का इलाज तो अब
नहीं हो सकता, पर अगर अखिल भारतीय महिला सम्मेलन में यह प्रस्ताव रखा
जाए कि आज की प्रत्येक भारतीय नारी को यमपुरी भेजकर यमराज से साक्षात
करके नचिकेता का समपदत्व प्राप्त करने का अवसर दिया जाए, तो कदाचित्
वह इसके लिए सरकार से सिफारिश भी करने को राजी हो जाए। और इस
प्रस्ताव में, खूबी यह कि नयी रोशनी की महिलाएँ तो इसका अनुमोदन
करेंगी ही, क्योंकि यह तो समानाधिकार की माँग है, पुराने विचार वालों
को भी आपत्ति न होनी चाहिए, क्योंकि सावित्री भी तो यमलोक जाकर यम को
परास्त कर आयी थी, और सावित्री आदर्श भारतीय नारी है। जो हो, हम तो
इस प्रस्ताव का पूरा अनुमोदन करने के लिए तैयार हैं।’
स्त्री संवाददाता-हमें तो इस नाम से ही आवृत्ति दोष जान पड़ता है
क्योंकि स्त्री कहने ही से केवल संवाददाता नहीं बल्कि एक उद्भट
संवाद-प्रचारक समाचार-वितरक का बोध होता है। गाँव के किसी कुएँ पर,
शहर-मुहल्ले के किसी जल-कल पर, गलियों में छज्जों पर, देख-सुन लीजिए
संवाद का प्रचार (और सर्जन भी!) स्त्री जाति का एक प्रमुख उद्योग है!
बल्कि इस उद्योग पर मानव-समाज के अन्य इतने उद्योग निर्भर करते हैं
कि इसे भी लोहे-इस्पात और खनन उद्योगों के समकक्ष वृहद् उद्योग-हेवी
इंडस्ट्री-का गौरव मिलना चाहिए और आधुनिकता का तकाजा मानते हुए इस
उद्योग के उद्योगियों में ट्रेड यूनियन की भावना विकट रूप से सजग
रहती है। एक स्त्री ने दूसरी स्त्री से जो संवाद सुना हो उसे आप
स्कैंडल कहकर उड़ा दें, यह समूचे उद्योग का अपनाम है जिसे कदापि नहीं
सहा जा सकता। स्त्री द्वारा प्रचारित संवाद- वह प्रामाणिक है। उस
ट्रेड यूनियन की मुहर है, आप जो चाहें समझते रहिए, आप बुद्धू हैं; जो
चाहें कहते रहिए आप न्यस्त-स्वार्थों के गुर्गे हैं, आपका तर्क दूषित
है!
यद्यपि यह संघ-भावना स्त्रियों तक ही सीमित है यह कहना अन्याय होगा।
आजकल तो सब ओर इसका बोलबाला है। आप कुछ ही समझिए, बुद्धू है; कुछ ही
कहिए, पूर्वाग्रह हैं। ऐसा केवल उस सूरत में नहीं है जब आपकी राय
मेरी राय से मिलती हो, या अगर न मिलती हो तो मेरे कहने पर आप तत्काल
बदल लें! मुझ जैसा नारीद्वेषी यह भी कह सकता है कि यह परिस्थिति तो
केवल इस बात की सूचक है कि नारी आज मुक्त है, बल्कि समाज का संचालन
भी कर रही है, और स्त्री-बुद्धि ही सामाजिक बुद्धि हुई जा रही है।
मेरा कहा आप न मानें, मैं बुद्धू हूँ लेकिन आज नारीमात्र यह कहती है,
यह संवाद यूनियन की ओर से प्रामाणिक रूप से प्रचारित है इसलिए आपको
मानना पड़ेगा। यही सत्य है और जो ऐसा कहता है वह द्रष्टा है,
क्रान्तिदर्शी है, स्रष्टा है। यानी मैं भी द्रष्टा-स्रष्टा हूँ,
क्योंकि मैं बुद्धू हूँ।
मैंने आरम्भ में ही कहा कि पहला संवाददाता ही बाद की समूची ऐतिहासिक
उलझनों का मूल रहा। वह पहला संवाददाता कौन था-माफ कीजिए, कौन थी? आदम
और हौवा की परम्परा तो काफ़ी नहीं है क्योंकि बाइबल के वंशनुक्रम से
हिसाब लगाएँ तो पहला संवाद कुल चार-छ: हजार बरस पुराना कूता जाता है।
मनु की परम्परा कुछ ज्यादा ठीक मालूम होती है और नहीं तो इसलिए कि
उसका काल-निर्धारण जरा मुश्किल है। यानी संवाद की पड़ताल के लिए आपके
पास संवाददाता से आगे कुछ नहीं है, अर्थात् संवाददाता स्वत: प्रमाण
है। मनु तो मनु थे, लिखते-लिखाते तो क्या होंगे पहले संवाद का प्रचार
इडा ने ही किया होगा। यह भी सम्भव है कि उसे इडा नाम ही इसीलिए दिया
गया हो। इडा, इरा, सरस्वती के नाम हैं। यानी वाणी के या बात के। और
संवाद क्या है-बात की बात में सौ बातें उठ खड़ी होती हैं! उस इरा को
बार-बार प्रणाम। यों इरा की वन्दना आरम्भ में होनी चाहिए; लेकिन मैं
अन्त में इसलिए कर रहा हूँ कि मेरी बात रह जाए!
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