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सौजन्य : भारतीय ज्ञानपीठ

अज्ञेय रचना संचयन
(मैं वह धनु हूँ...)
संकलन एवं संपादन- कन्हैयालाल नंदन
परिशिष्ट

1.अज्ञेय के पत्र

2.अज्ञेय का प्रकाशित कृतित्व 3.अज्ञेय का जीवन वृत्त


परिशिष्ट : एक

(अज्ञेय जी को लिखे गये कुछ पत्र)


***

सीता निवास,
बनारस-5
अप्रैल 5,1954

प्रिय अज्ञेय जी,

अत्यन्त आश्चर्य का विषय है कि मैंने इधर आपको कई कई पत्र दिये किन्तु एक भी उत्तर नहीं। ब्लाकों की बहुत आवश्यकता है, क्योंकि विश्वविद्यालय इस समय कला भवन का एक एलबम निकलवा देने को प्रस्तुत है। कृपया इस ओर दत्तचित हूजिए।

पत्र वाहक श्री वरुआ जी एक बड़े उत्साही नवयुवक हैं और दद्दा का समादर ग्रन्थ निकालने के लिए कृतसंकल्प हैं। मैं निम्नलिखित शर्तों पर उन्हें अपना सहयोग देने के लिये प्रस्तुत हूँ-


1.    इस कार्य के लिए एक प्रतिष्ठित प्रतिनिधि समिति संगठित की जाये जिसमें सीतारामजी सेक्सरिया और भागीरथजी कानोडिय़ा अवश्य रहें।
2.    संपादक मंडल में बरुआ जी का होना नितान्त आवश्यक है। साथ ही मेरे सन्तोष और सहयोग के लिए मोहन सिंह सेंगर, आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी, और सर्वोपरि अज्ञेय अवश्य रहें। बिना इन तीनों व्यक्तित्वों के मैं किसी प्रकार का सहयोग देने में असमर्थ रहूँगा।
3.    मैटर के अन्तिम एरेंजमेंट, चित्रों के चुनाव और ग्रन्थ की साज-सज्जा का भार एक-कलम अज्ञेय पर रहेगा और उनके सहायक रूप सर्वश्री अम्बिका प्रसाद दूबे, आनन्दकृष्ण, विजयकृष्ण और कृष्णदास काम करेंगे। किसी पाँचवें व्यक्ति का हस्तक्षेप इस विषय में मुझे स्वीकार वा सह्य न होगा।
4.    योजना बहुत भारी भरकम न बनाकर ऐसी सुबुक और सुन्दर बनायी जाए कि वह चल जाय। साथ ही वह दद्दा की पद-मर्यादा के अनुरूप गौरवशालिनी भी हो।

आशा है, आप मेरी बातों से सहमत होंगे और इसमें जो कुछ छूट वा कमी रह गयी होगी, उसकी पूर्ति कर देंगे। मैंने ऊपर जो नाम दिये हैं उनके अतिरिक्त संपादक मंडल और परामर्श मंडल में जो भी विशिष्ट नाम उचित हों, अवश्य रखे जाएँ। किन्तु कार्य का विकेन्द्रीकरण नहीं होना चाहिए।

श्रीबरुआ जी लगभग पन्द्रह दिन यहाँ रहे हैं। उनमें कार्यनिष्ठा और कार्यशक्ति दोनों हैं। इस समय में उन्होंने दद्दा के पूरे पौने दो सौ पत्र टाइप किये और उनके आरम्भिक अंश पर मेरा दीबाचा भी लिया। उन्हें दिल्ली जाना है अन्यथा मैं इन सभी पौने दो सौ पत्रों पर टिप्पण लगवा देता। मैंने उन्हें सलाह दी है कि दद्दा को यह सामग्री दिखा कर उनका आदेश प्राप्त करें, क्या इसमें से अभी प्रकाश में आवे, क्या नहीं। आप भी इस सम्बन्ध में उचित परामर्श दीजिएगा और स्वयं सब बातें दद्दा से डिस्कस कर लीजिएगा। मैं जानता हूँ कि वे उस स्तर पर पहुँच गये हैं जहाँ से ‘स्व’ के विषय में भी तटस्थ सम्मति दी जा सकती है। कृपया यह पत्र दद्दा को सुना दीजिएगा।

दिल्ली में बरुआजी दद्दाकी एक मूवी तैयार कराना चाहते हैं। इस कार्य में भी आपका पथ-प्रदर्शन आवश्यक होगा, उसे प्रदान कीजिएगा।

शेष प्रसन्नता।

स्नेही,
रायकृष्ण दास

श्री अज्ञेय
       नयी दिल्ली

***

श्री :
चिरगाँव
12.2.51

प्रियवर,

आपके अस्पताल में होने की बात जानकर चिन्ता में था कि दद्दा के नाम आपके पत्र को पढक़र कुछ चिन्ता मिटी। कुछ ही। क्योंकि श्रीनिवास से कही वह बात ध्यान में है कि अच्छा हूँगा तो फिर भेड़ाघाट का स्नानार्थी (भेड़ा?) बनूँगा। आप समझते हैं कि आप बौद्धिक हैं, इसलिए ‘भेड़ा’ नहीं बन सकते। पर ऐसी दु:साहसिकता, जिससे आप अपने बन्धुओं को चिन्तित ही करें क्या किसी ख्याति वाञ्च्छा का ‘भेड़ा’ बनना नहीं है? मैं तो समझता हूँ, है। पर यह अप्रिय प्रसंग जाने दूँ। पत्र लिखकर कुछ चिन्ता दूर कर दी, इस समय यही बहुत है।

भैया कल इलाहाबाद-काशी के लिए प्रस्थित हुए। मैं भी तैयार था, पर जी नहीं बोला। आपका पत्र उनके पास भेज रहा हूँ। सुमित्रा भी उनके साथ ही गये हैं।

मैं इधर दूसरे काम में लगा हूँ। इसलिए ‘प्रतीक’ के लिए कुछ दिन की और छुट्टी रहेगी।

‘जयदोल’ मिल गया। एक कहानी पढ़ी। नाम नहीं बताऊँगा। इसमें योग्यता का परदा खुल जाने से बच जाता हूँ। पर इधर बहुत समय से ऐसी सुन्दर कहानी नहीं पढ़ी थी। परसों पढ़ी थी। लगता है, कोई बढिय़ा आम खाने को मिला था। दो दिन होने को हैं, पर बीच-बीच में उसकी सुगन्धित डकार से जी प्रसन्न हो जाता है।

सस्नेह,
सियारामशरण
16.11.62

***


आदरणीय,

आपका 4 तारीख का कृपा पत्र मिला। आपके संकेत के अनुसार द्वारा श्री आर.एस.मलिक, 5/90, कनाट सर्कस, नयी दिल्ली के पते पर हमने सेम्पोजियम वाले अंक की चार प्रतियाँ भिजवा दी हैं। आप दिल्ली लिख दें जिससे कि फिलीपीन लेखक को वे प्रतियाँ वहाँ से भेज दी जाएँ।

पुस्तक योजना के लिए जो सूचनाएँ आपने दी थीं उन्हें यथाविधि तुरन्त पुस्तक योजना विभाग को दे दी है। इस सम्बन्ध में आपको अलग से पत्र मिलेगा। उस विभाग से भी पता चला कि ‘नदी के द्वीप’ के बारे में अनुबन्ध पत्र ता. 24.10.62 को रजिस्ट्री से यहाँ से भेजा गया था। आशा है आप को मिल चुका होगा।

भारती जी अभी छुट्टी पर हैं। आते ही वे आपको लिखेंगे। धर्मयुग के उपयुक्त वहाँ से कोई सामग्री भेजने की कृपा कीजिएगा।

आपका
नन्दन


श्री स. ही. वात्स्यायन,
एन.ई.लांग्वेजेस, युनिवर्सिटी केलिफोर्निया,
बर्कले-4

***

16 नवम्बर, 1962


श्री स.ही.वात्स्यायन,
कैलिफोर्निया, यू.एस.ए.

प्रिय महोदय,

आपका दिनांक 9-11-62 का पत्र मिला। धन्यवाद। शीघ्र ही आपका प्रस्ताव अधिकारियों के सम्मुख विचारार्थ रखा जाएगा और निर्णय की सूचना यथा समय दी जाएगी।

‘नदी के द्वीप’ के अनुवाद के सम्बन्ध में जो अनुबन्ध पत्र हमने आपके पास भेजा था उसके सम्बन्ध में आपने अपने पत्र में कुछ भी नहीं लिखा है। क्या वह रजिस्ट्री अब तक आपको नहीं मिली? इस सिलसिले में, नन्दन जी से सूचना मिलने पर, हमने 14 नवम्बर को एक और पत्र आपको भेजा है। आशा है अनुबन्ध पत्र पर हस्ताक्षर कर शीघ्र ही उसे लौटाने की कृपा करेंगे।

भवदीय

विश्वंभर श्रीवास्तव
कृते धर्मवीर भारती
संपादक, पुस्तक योजना

***
 

अज्ञेय का पत्र केदारनाथ अग्रवाल के लिए

मेरा पता : पोस्ट बॉक्स 864
नयी दिल्ली
25.3.53


प्रिय केदार जी,

आपका 10.2.53 का पत्र मिला था। उस समय कार्य व्यस्थ होने के कारण केवल आवश्यक कार्रवाई करके रह गया, पत्र की इतर बातों का उत्तर, सोचा, बाद में निजी तौर पर दूँगा।

आप, जान पड़ता है, हर बार अप्रासंगिक बातें करके ‘स्पष्टवादिता’ की दुहाई दे लेते हैं। अब स्पष्टवादिता के नाम पर दो एक बात मैं भी कहूँ तो क्षमा करें।

आपका पत्र उस कुंठित मनोवृत्ति का परिचायक है जो, खेद के साथ कहना पड़ता है, अधिकतर ‘प्रगतिवादी’ लेखकों की होती है। वे स्वत: अपने को सबकी ओर से बन्द करके, पूर्वाग्रहों और आधारहीन विश्वासों धारणाओं का पुंज बन कर, दूसरों को दोष देने चलते हैं और स्वयं नहीं देखते कि वे किस संकीर्णता के शिकार हैं।

रेडियो की बात नहीं कहता- उसके बारे में भी आपकी धारणाएँ भ्रान्त हैं ऐसा समझता हूँ, पर उसकी सफाई देने से मुझे क्या मतलब? वह स्वयं जाने। पर आप को सर्वत्र कुचक्र क्या इसीलिए नहीं दीखता कि आपने अपने को यह विश्वास दिला लिया है कि जिसे आपने ‘दुश्मन’ गिन लिया वह ज़रूर कुचक्री भी होगा ही?

मेरा पत्र पाकर आपकी ‘स्वाभाविक प्रक्रिया’ यह हुई कि आप ‘उपेक्षा कर जायें’ और ‘उन महामानी अज्ञेय’ को लिख दें कि उनका ‘आप पर कोई अधिकार नहीं है।’ धन्य है इस प्रक्रिया की ‘स्वाभाविकता’। मैं आपसे पूछ सकता हूँ, कब कोई ऐसी बात हुई जब आप ने सौजन्य प्रकट किया हो और ‘अज्ञेय’ ने उपेक्षा की हो? बल्कि इससे उलटे उदाहरण ही कदाचित् गिनाये जा सकते। एक पत्र का उत्तर देने के लिए आपको ‘महामानवतावाद’ की ज़रूरत पड़ी- साधु, साधु हे महामानव, जिसने उस आकाशभेदी पीठिका से उत्तर कर इस निरे मानव की ओर झाँका।

आपने मुझ से अपनी पुस्तकें न भेजने की शिकायत की है। स्वयं आपने कभी पुस्तक भेजी, यह नहीं पूछूँगा, क्योंकि मैं साहित्यिक मात्र से नहीं माँगता, केवल स्नेहियों से माँग सकता हूँ। मैं अपने स्नेही जनों को पुस्तकें स्वयं भेजता हूँ, वह स्नेह की अभिव्यक्ति होती है। साहित्यिकों में भी उन्हें भेजता हूँ जो पढ़ेंगे या पढऩा चाहेंगे। आप इस श्रेणी में हैं, इसका कभी कोई संकेत नहीं मिला। यह जानता हूँ कि आपकी बिरादरी के लोग गालियाँ देते हैं और मुझे निरन्तर isolate और lequidate करते रहते हैं क्योंकि मैं (आप ही के शब्दों में!) ‘दुश्मन’ जो ठहरा- पर चोरी छिपे मेरी पुस्तकें पढ़ते हैं, अधिकतर गालियाँ देकर अपना ‘धर्म’ निबाह चुकने के बाद। यह जानता तो हूँ, पर इसके लिये किताबें बाँटने का दम्भ क्यों करूँ? आपको मेरे संग्रह में अपनी कविताएँ देने या न देने के प्रश्न पर ‘अनुमति’ लेनी पड़ी थी। मेरा साहित्य पढऩे की अनुमति आपने ले ली? मुझे सूचित कीजिएगा, कौन-सी पुस्तक पढऩे की अनुमति मिली, कौन सी आप पढऩा चाहेंगे, मैं सहर्ष भेजूँगा। यह जानते हुए भी, कि उसके बाद आपको उसके सम्बन्ध में क्या राय प्रकट करनी होगी।

इस समूचे पत्र को धृष्टता न समझें स्पष्टवादिता है, पर विनीत। आपके मानसिक स्वास्थ्य की जिसका पहला लक्षण है स्वतन्त्र चिन्तन मुझे बहुत चिन्ता है, उसकी रक्षा और वृद्धि की कामना करता हूँ।

आशा है आप प्रसन्न हैं।

शुभैषी
(ह. वात्स्यायन)

अज्ञेय का पत्र राजेन्द्र मिश्र के लिए

1 दिसम्बर, 1986


प्रियवर,

आप का पत्र पाकर एक सुखद आश्चर्य हुआ। आप को और अर्चना जी को याद करता रहता हूँ और ध्यान आता रहता है कि वर्षों से भेंट नहीं हुई है। अब 1987 में भेंट होने की सम्भावना कर रहा हूँ लेकिन अभी कोई निश्चित कार्यक्रम नहीं बना है। इस बीच एक बार झाँसी चिरगाँव जाने की आशा करता हूँ पर उसका भी कोई पक्का कार्यक्रम अभी नहीं बना है। छतरपुर में दद्दा की प्रतिमा की प्रतिष्ठापना की बात हो रही है, उस अवसर पर जाना सम्भव हुआ तो वहाँ जाऊँगा।

आप की पुस्तक की योजना से थोड़ा कौतूहल हुआ। यों पुस्तकों में जो छपा हुआ है, विशेषकर उन पुस्तकों में जो अभी उपलब्ध हैं और जिनके लेखक अभी स्वयं अप्रासंगिक नहीं करार दे दिये गये हैं (जैसा कि मध्य प्रदेश में मैं) उसी को फिर से संग्रहीत कर देना विशेष उपयोगी तो नहीं जान पड़ता थोड़ी सी सुविधा उस शोधकर्ता को ज़रूर हो जाएगी जो अधिक पढऩा नहीं चाहता। शायद ज़्यादा अच्छा यही हो कि आपने जिन लेखकों के नाम लिये हैं उन से नये लेख माँगे जायें। चाहे फिर यही हो कि पुराने लेखों को आलोच्य लेखक की बाद की रचनाओं के आधार पर संशोधित संवर्धित कर दिया जाये।

पुस्तकाकार छप चुके लेखों की बात ही हो तो दो-एक नाम और जोड़े जा सकते हैं। और अगर पुस्तक का बन्धन न हो, पत्र-पत्रिकाओं की बात भी सोची जा सकती हो तो कुछ नाम और भी जोड़ सकते हैं। आप की सूची के अलावा जिन लेखकों की आलोचनाएँ मुझे सविवेकपूर्ण लगी हैं उन में पं. विष्णुकान्त शास्त्री, डॉ. नन्द किशोर आचार्य, डॉ. कृष्णदत्त पालीवाल, श्रीमती राजी सेठ, डॉ. महेन्द्र मधुकर, डॉ. निर्मला शर्मा, डॉ. महाराज कृष्ण वोहरा के नाम ले सकते हैं। यों तो हरिशंकर परसाई, नागार्जुन, नवल, कमलेश्वर आदि की भी आलोचनात्मक दृष्टियाँ हैं जिन की बानगी आलोचना ग्रन्थ के पाठकों को मिलनी चाहिए। लेकिन मैं शायद अधिक कुछ कह गया- आपने जितनी राय माँगी थी उससे आगे चला गया। ऐसा हुआ हो तो उतनी बात को भुला दें।

आशा है आप सपरिवार प्रसन्न हैं। अर्चना जी को मेरा सादर नमस्कार दें।

आपका
(सच्चिदानन्द वात्स्यायन)


डॉ. राजेन्द्र मिश्र,
रायपुर (म.प्र.)

(शीर्ष पर वापस)

परिशिष्ट : दो
 

अज्ञेय (स.ही. वात्स्यायन, 1911-1987) का प्रकाशित कृतित्व
 

काव्य

  1. भग्नदूत (1933)

  2. चिन्ता (1942)

  3. इत्यलम् (1946)

  4. प्रिज़न डेज़ एंड अदर पोएम्स (अँग्रेज़ी में, 1946)

  5. हरी घास पर क्षण भर (1949)

  6. बावरा अहेरी (1954)

  7. इन्द्रधनु रौंदे हुए ये (1957)

  8. अरी ओ करुणा प्रभामय (1959)

  9. आँगन के पार द्वार (1961)

  10. कितनी नावों में कितनी बार (1967)

  11. क्योंकि मैं उसे जानता हूँ (1968)

  12. सागर-मुद्रा (1969)

  13. पहले मैं सन्नाटा बुनता हूँ (1970)

  14. महावृक्ष के नीचे (1977)

  15. नदी की बाँक पर छाया (1981)

  16. ऐसा कोई घर पर आपने देखा है (1986)

  17. सदानीरा (दो जिल्दों में, 1929 से 1980 तक की सम्पूर्ण कविताएँ, 1986)

सर्जना के क्षण (संकलन, 1979)

उपन्यास

  1. शेखर : एक जीवनी, प्रथम भाग (1940-41)

  2. शेखर : एक जीवनी, दूसरा भाग (1944)

  3. नदी के द्वीप (1951)

  4. अपने-अपने अजनबी (1961)

कहानियाँ

  1. विपथगा (1937)

  2. परम्परा (1944)

  3. कोठरी की बात (1945)

  4. शरणार्थी (1948)

  5. जयदोल (1951)

  6. अमरवल्लरी (1954)

  7. ये तेरे प्रतिरूप (1961)

  8. कडिय़ाँ (1971)

  9. छोड़ा हुआ रास्ता (सम्पूर्ण कहानियाँ-1)

  10. लौटती पगडंडियाँ (सम्पूर्ण कहानियाँ-2)

  11. मेरी प्रिय कहानियाँ
     

यात्रावृत्त

  1. अरे यायावर रहेगा याद (1953)

  2. एक बूँद सहसा उछली (1960)
     

ललित-निबन्ध

  1. सबरंग (कुट्टिचातन् नाम से 1956)

  2. सबरंग और कुछ राग (1982)

  3. कहाँ है द्वारका (1982)

  4. छाया का जंगल (1984)

आलोचना और चिन्तन

  1. त्रिशंकु (1945)

  2. आत्मनेपद (1960)

  3. आत्मपरक (1983)

  4. कवि-दृष्टि (1983) (भूमिकाएँ)

  5. भवन्ती (1972)

  6. अन्तरा (1975)

  7. शाश्वती (1979)

  8. अद्यतन (1977)

  9. संवत्सर (1978)

  10. जोग लिखी (1977)

  11. स्रोत और सेतु (1978)

  12. युगसंधियों पर (1981)
     

अनुवाद

  1. श्रीकान्त (शरत् के उपन्यास का अँग्रेजी में, 1944)

  2. द रेज़िग्‌नेशन (जैनेन्द्रकुमार के ‘त्यागपत्र’ का अँग्रेजी अनुवाद, 1946)

  3. गोरा (रवीन्द्रनाथ ठाकुर के उपन्यास का हिन्दी में)

संपादित ग्रन्थ

  1. आधुनिक हिन्दी साहित्य (1949)

  2. तारसप्तक (1943)

  3. दूसरा सप्तक (1951)

  4. तीसरा सप्तक (1959)

  5. चौथा सप्तक (1978)

  6. पुष्करिणी (1959)

  7. नए एकांकी (1952)

  8. नेहरू अभिनन्दन ग्रन्थ (संयुक्त रूप से, 1949)

  9. रूपाम्बरा (हिन्दी प्रकृति काव्य-संकलन, 1960)

  10. सर्जन और सम्प्रेषण (वत्सल निधि लेखक शिविर, लखनऊ, नेशनल पब्लिशिंग हाउस, नयी दिल्ली 1984)

  11. साहित्य का परिवेश (वत्सल निधि लेखक शिविर, आबू, नेशनल पब्लिशिंग हाउस, नयी दिल्ली 1985)

  12. साहित्य और समाज परिवर्तन (वत्सल निधि लेखक शिविर, वृन्दावन, नेशनल पब्लिशिंगहाउस, नयी दिल्ली, 1986)

  13. सामाजिक यथार्थ और कथा-भाषा (वत्सल निधि लेखक शिविर, बरगी नगर, नेशनल पब्लिशिंग हाउस, नयी दिल्ली, 1986)

  14. समकालीन कविता में छन्द (वत्सल निधि लेखक शिविर, बोधगया, नेशनल पब्लिशिंग हाउस, नयी दिल्ली, 1987)

  15. स्मृति के परिदृश्य (संवत्सर व्याख्यानमाला, साहित्य अकादेमी, नयी दिल्ली, 1987)

  16. भविष्य और साहित्य (वत्सल निधि लेखक शिविर, वृन्दावन, नेशनल पब्लिशिंग हाउस, नयी दिल्ली, 1989)

(शीर्ष पर वापस)

परिशिष्ट : तीन

अज्ञेय का जीवन वृत्त

नाम :  सच्चिदानन्द वात्स्यायन
बचपन का नाम :  सच्चा
ललित निबन्धकार नाम- कुट्टिचातन
रचनाकार नाम- अज्ञेय
(जैनेन्द्र के अनुसार प्रेमचन्द का दिया नाम है अज्ञेय)
माता-पिताव्यन्ती देवी - पंडित हीरानन्द शास्त्री

  • 1911 (7 मार्च) जन्म कुशीनगर (कसया) जिला देवरिया (उ.प्र.) में एक पुरातत्व उत्खनन शिविर में।

  • 1915 बचपन लखनऊ में, संस्कृत मौखिक परम्परा से शिक्षा का आरम्भ।

  • 1919 श्रीनगर एवं जम्मू में, संस्कृत, फारसी और अँग्रेज़ी की प्रारम्भिक शिक्षा।

  • 1921 उडुपी (नीलगिरि) में मध्वाचार्य-संस्थान में यज्ञोपवीत संस्कार।

  • 1925 नालन्दा एवं पटना में स्वर्गीय काशीप्रसाद जायसवाल, राय बहादुर हीरालाल और स्व. राखालदास बन्द्योपाध्याय का सम्पर्क मिला।
    स्व. राखालदास बन्द्योपाध्याय से बाँगला सीखी।
    सन 1921 में माँ के साथ जलियाँवाला कांड की घटना को लेकर पंजाब यात्रा के फलस्वरूप देशभक्ति का संकल्प और अँग्रेजी साम्राज्यवाद के प्रति विद्रोह की भावना।
    पंजाब से 1925 में प्राइवेट हाई स्कूल की परीक्षा उत्तीर्ण की।

  • 1927 इंटर, साइन्स क्रिश्चियन कॉलेज, मद्रास।

  • 1929 बीएससी, फारमन कालेज, लाहौर से प्रथमश्रेणी में प्रथम।
    मद्रास में अँग्रेज़ी के प्रोफ़ेसर एण्डरसन के साथ टैगोर मंडल की स्थापना।
    लाहौर में अमरीकी प्रोफ़ेसर जे.बी.बनेड एवं प्रोफ़ेसर डेलियल से सम्पर्क।
    लाहौर में क्रान्तिकारी जीवन का श्रीगणेश हिन्दुस्तान रिपब्लिकन पार्टी से जुड़े चन्द्रशेखर आजाद, भगवतीचरण वोहरा, सुखदेव के सम्पर्क में आने पर हुआ।
    पहली, कहानी, 1924 में।
    1936 क्रान्तिकारी जीवन।
    हिन्दुस्तान रिपब्लिकन आर्मी में सक्रियता।
    कहीं पर देवराज, कमलकृष्ण एवं वेदप्रकाश नन्दा से परिचय।

  • 1930 में भगतसिंह को छुड़ाने का प्रयत्न। लेकिन भगवतीचरण वोहरा के एक घटना में शहीद हो जाने के कारण योजना का स्थगन।
    दिल्ली में हिमालियन ट्वायलेट्स फैक्ट्री में बम बनाने का कार्य क्रान्तिकारी मित्रों के साथ आरम्भ किया, जिसकी परिणति अमृतसर में ऐसी ही फैक्ट्री कायम करने के सिलसिले में 15 नवम्बर 1930 में देवराज एवं कमल कृष्ण के साथ गिरफ्तारी में हुई।
    एक महीने लाहौर जेल में। तत्पश्चात् अमृतसर की हवालात में बन्द रहे।

  • 1931 में अन्य मुकदमा जो 1933 तक चला। दिल्ली जेल में कालकोठरी में बन्दी रहे। इसी बीच ‘चिन्ता’ काव्य एवं ‘शेखर : एक जीवनी’ यहीं पर सृजित हुआ। साथ ही ‘भग्नदूत’ की कविताओं का प्रकाशन।
    सन् 1931 में अपने में घर में नज़रबन्द। घर लौटने पर माता की मृत्यु पर दुख तथा पिता की नौकरी से सेवा निवृत्ति।
    क्रान्तिकारी जीवन में ‘रावी’ के तट पर छलाँग लगाने से घुटने की टोपी उतर गयी जिसकी पीड़ा जीवन-भर झेलते रहे।

  • 1936 जीवन में आजीविका की तलाश। ‘सैनिक’ अख़बार आगरा में श्री कृष्णदत्त पालीवाल के साथ सालभर ‘सैनिक’ के संपादक मण्डल में रहे।
    इसी समय किसान आन्दोलन में सक्रिय रहे।
    इसी अवधि में रामविलास शर्मा, प्रकाशचन्द्रगुप्त, भारतभूषण अग्रवाल, प्रभाकर माचवे तथा नेमिचन्द्र जैन से परिचय हुआ।

  • 1937 पंडित बनारसीदास चतुर्वेदी के आग्रह पर ‘विशालभारत’ में गए। लगभग डेढ़ वर्ष वहाँ रहे। यहीं पर पुलिनसेन, बुद्धदेव वसु एवं आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी के साथ बलराज साहनी से परिचय में आए।
    व्यक्तिगत कारणों से ‘विशाल भारत’ छोडक़र पिता के पास बड़ौदा रहे।
    विदेश जाने का कार्यक्रम युद्ध छिड़ जाने के कारण स्थगित करना पड़ा और रेडियो में नौकरी कर ली। इस दौरान साहित्य के अनेक पक्षों से गहन सम्पर्क हुआ। सन् 1937 में ही ‘विपथगा’ का प्रकाशन।

  • 1940 जुलाई 1940 में सिविल-पद्धति से बंगाली युवती सन्तोष से विवाह। अनमन होने से अगस्त 1940 में ही सन्तोष से अलग हो गये। सन् 1946 में पूरी तरह विवाह-विच्छेद।

  • 1941 ‘शेखर:एक जीवनी’ का प्रकाशन। हर ओर विरोध और प्रशंसा का दौर।

  • 1942 दिल्ली में अखिल भारतीय फासिस्ट विरोधी सम्मेलन का आयोजन एवं प्रगतिशील लेखक संघ के सदस्यों सहित, कृश्नचन्दर एवं शिवदानसिंह के साथ। इसी सम्मेलन में प्रगतिशील गुट का अलगाव।
    इसी वर्ष ‘आधुनिक हिन्दी साहित्य’ का संपादन।

  • 1943 ‘तारसप्तक’ का संपादन। हिन्दी आलोचना में भूचाल।
    सेना में नौकरी-असम में बर्मा फ्रंट पर नियुक्ति।

  • 1944 ‘शेखर: एक जीवनी’ के दूसरे भाग का प्रकाशन।
    ‘परम्परा’ का प्रकाशन।

  • 1945 सेना की नौकरी से मुक्ति पाने का आवेदन जो 1946 में स्वीकृत। ‘कोठरी की बात’ प्रकाशन।

  • 1946 गुरुदासपुर पंजाब में पिता की मृत्यु से भारी धक्का।
    मेरठ साहित्य परिषद की स्थापना।
    इत्यलम् ‘प्रिज़न डेज़ एंड अदर पोयम्स’ एवं जैनेन्द्र के उपन्यास ‘त्यागपत्र’ का ‘दि रिजिग्नेशन’ नाम से अँग्रेज़ी अनुवाद का प्रकाशन।

  • 1947-55 इलाहाबाद और फिर दिल्ली से ‘प्रतीक’ पत्रिका का संपादन।
    दिल्ली आल इंडिया रेडियो में कार्य। इसी काल में ‘बावरा अहेरी’, ‘नदी के द्वीप’, अरे यायावर रहेगा याद’ तथा ‘जयदोल’ का प्रकाशन।
    सांस्कृतिक स्थलों का भ्रमण।
    ‘दूसरा सप्तक’ का 1951 में संपादन।
    मानवेन्द्र राय के साथ गहन सम्पर्क तथा प्रभाव।
    ‘थॉट’ अँग्रेज़ी पत्रिका संपादन।
    अँग्रेज़ी पत्रिका ‘वाक्’ का संपादन।

  • 1955-56 यूनेस्को की ओर से भारत-भ्रमण। कपिला मलिक से विवाह।

  • 1957-58 जापान-भ्रमण। जेन बुद्धिज्म का प्रभाव।
    ‘इन्द्रधनुष रौंदे हुए’ का प्रकाशन। कुछ समय तक इलाहाबाद में निवास।

  • 1958-60 ‘तीसरा सप्तक’ का 1959 में संपादन।
    यूरोप-भ्रमण एवं ‘पिएर-द क्विर’ में मठ में एकान्तवास।

  • 1961-64 ‘आँगन के पार-द्वार’ काव्य-संग्रह पर साहित्य अकादेमी, दिल्ली से पुरस्कार।
    कैलिफ़ोर्निया विश्वविद्यालय में भारतीय संस्कृति एवं साहित्य के प्रोफ़ेसर।
    ‘अपने अपने अजनबी’ उपन्यास का प्रकाशन।
    इस बीच अमेरिकी कवियों के सहयोग से हिन्दी कवियों और अपनी कविताओं के अनुवाद किए।

  • 1964-71 ‘दिनमान’ साप्ताहिक का संपादन।
    इसी बीच आस्ट्रेलिया, पूर्वी यूरोप के देशों, सोवियत यूनियन एवं मध्य यूरोप के देशों की यात्रा एवं व्याख्यान। 1969 में ‘दिनमान’ से अलग हो गए। तत्पश्चात् कुछ समय तक बर्कले विश्वविद्यालय में विजिटिंग प्रोफ़ेसर।

  • 1971-77 सन् 1971-72 में जोधपुर विश्वविद्यालय में ‘तुलनात्मक-साहित्य’ के प्रोफ़ेसर।
    1973-74 में जयप्रकाश नारायण के अनुरोध पर ‘एवरी मेन्स वीकली’ का संपादन।
    दिसम्बर 1973 में ‘नया प्रतीक’ का प्रकाशन-संपादन।
    अल्मोड़ा के पास उत्तर वृन्दावन में श्रीकृष्ण प्रेम आश्रम में कुछ समय निवास।
    1976 में छ: माह के लिए हाइडेलबर्ग जर्मनी विश्वविद्यालय में अतिथि प्रोफ़ेसर।
    आपातकाल का गहरा विरोध या उद्विग्नता।

  • 1977-80 प्रमुख हिन्दी दैनिक ‘नवभारत टाइम्स’ का संपादन।
    ‘कितनी नावों में कितनी बार’ कविता संग्रह पर ‘भारतीय ज्ञानपीठ’ पुरस्कार।
    1979 में पुरस्कार राशि के साथ अपनी राशि जोडक़र ‘वत्सल निधि’ की स्थापना- 1980 में।
    ‘चौथा सप्तक’ का संपादन।

  • 1980-87 ‘वत्सल निधि’ के तत्त्वावधान में प्रतिवर्ष लेखन शिविरों, हीरानन्द शास्त्री व्याख्यानों एवं रायकृष्णदास व्याख्यानों का आयोजन।
    ‘जय जानकी यात्रा’ एवं ‘भागवत भूमि यात्रा’ का आयोजन। जिसमें प्रमुख लेखक सम्मिलित होते रहे।
    1983 में स्त्रगा-यूगोस्लाविया के कविता सम्मान ‘गोल्डनरीथ’ से सम्मानित।
    1984 में हालैंड के पोयट्री इंटरनेशनल में भागीदारी।
    1985 में साहित्य अकादेमी के शिष्टमंडल में चीन यात्रा।
    1986 में फ्रेंकफर्ट पुस्तक मेले में शिरकत।
    1987 में ‘भारत-भारती’ सम्मान की घोषणा।
    भारत-भवन, भोपाल में आयोजित, ‘कवि भारती’ समारोह में भागीदारी।

  • 4 अप्रैल 1987 की सुबह, दिल्ली में देहावसान।

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