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अज्ञेय रचना संचयन
(मैं वह धनु हूँ...)
संकलन एवं संपादन- कन्हैयालाल नंदन
वैचारिक निबंध : भाग-
1

Agyey अज्ञेय
अज्ञेय

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अज्ञेय रचना संचयन

कविता
सवेरे उठा तो धूप खिली थी
सत्य तो बहुत मिले
चाँदनी जी लो
मैंने आहुति बन कर देखा
यात्रावृत्तांत
एक बूंद सहसा उछली
कहानी
शरणदाता
बदला

मूल नाम

:

सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन

जन्म

:

7 मार्च 1911 कुशीनगर, देवरिया, उत्तर प्रदेश

भाषा : हिंदी, अंग्रेजी
विधाएँ : कहानी, कविता, उपन्यास, निबंध, नाटक, यात्रा वृत्तांत, संस्मरण
प्रमुख कृतियाँ : उपन्यास : शेखर: एक जीवनी, नदी के द्वीप, अपने अपने अजनबी
कहानी : विपथगा, परंपरा, कोठरी की बात, शरणार्थी, जयदोल, ये तेरे प्रतिरूप
कविता : भग्नदूत, चिंता, इत्यलम्, हरी घास पर क्षण भर, बावरा अहेरी, इंद्रधनु रौंदे हुए ये, अरी ओ करूणा प्रभामय, आँगन के पार द्वार, पूर्वा, सुनहले शैवाल, कितनी नावों में कितनी बार, क्योंकि मैं उसे जानता हूँ, सागर-मुद्रा, पहले मैं सन्नाटा बुनता हूँ, महावृक्ष के नीचे, नदी की बाँक पर छाया, ऐसा कोई घर आपने देखा है (हिंदी) प्रिज़न डेज़ एंड अदर पोयम्स (अंग्रेजी)
यात्रा वृत्तांत : अरे यायावर रहेगा याद, एक बूँद सहसा उछली।
निबंध : सबरंग, त्रिशंकु, आत्मनेपद, आधुनिक साहित्य : एक आधुनिक परिदृश्य, आलवार, संवत्‍सर
संस्मरण : स्मृति लेखा
डायरी : भवंती, अंतरा, शाश्वती।
नाटक : उत्तरप्रियदर्शी
अनुवाद : गोरा (रवींद्रनाथ टैगोर - बंगला से)
संपादन : तार सप्तक,दूसरा सप्तक,तीसरा सप्तक, पुष्करिणी, रूपांबरा( सभी कविता संकलन) सैनिक, विशाल भारत, प्रतीक, दिनमान, नवभारत टाइम्स(हिंदी) वाक, एवरीमैंस(अंग्रेजी)

सम्मान

:

साहित्य अकादमी पुरस्कार, ज्ञानपीठ पुरस्कार

निधन

: 4 अप्रैल 1987

वैचारिक निबंध भाग- 1
1. संस्कृति और परिस्थिति
2. कला का स्वभाव और उद्देश्य
3. रूढ़ि और मौलिकता
4. सौन्दर्य-बोध और शिवत्व-बोध
5. साहित्य-बोध: आधुनिकता के तत्व
 

वैचारिक निबंध भाग- 2
6. वैज्ञानिक सत्ता, मिथकीय सत्ता और कवि
7. कविता : श्रव्य से पाठ्य तक

8. काल का डमरू-नाद
9. स्मृति और काल

वैचारिक निबंध भाग- 3
10. स्मृति और देश
11. नई कविता : प्रयोग के आयाम
12. शब्द, मौन, अस्तित्व
13. साहित्य, संस्कृति और समाज परिवर्तन की प्रक्रिया


1. संस्कृति और परिस्थिति

यदि आप आधुनिक हिंदी साहित्य की प्रगति से तनिक-सा भी परिचय रखते हैं, तब आपने अनेकों बार पढ़ा या सुना होगा कि हिंदी आश्चर्यजनक उन्नति कर रही है, कि उसने भारत की अन्य सभी भाषाओं को पछाड़ दिया है, कि हिंदी साहित्य-कम से कम उसके कुछ अंग-संसार के साहित्य में अपना विशेष स्थान रखते हैं। जबसे साहित्य की समस्या भाषा-अर्थात ‘राष्ट्रभाषा’-के विवाद के साथ उलझ गयी है, तब से इस ढंग की गर्वोक्तियाँ विशेष रूप से सुनी जाने लगी हैं। नि:सन्देह ऐसे ‘रोने दार्शनिक’ भी हैं जो प्रत्येक नई बात में हिंदी का ह्रास ही देखते हैं-और राष्ट्रभाषा की चर्चा चलने के समय से तो ऐसे समय-असमय ख़तरे की घंटी बजाने वालों की संख्या अनगिनत हो गयी है-लेकिन इन गर्वोक्तियों से आप सभी परिचित होंगे, ऐसा मेरा विश्वास है।

क्या आपने कभी इनकी पड़ताल करने का यत्न या विचार किया है? क्या ये पूर्णतया सच्ची हैं? यदि इनमें आंशिक सत्य है तो कितना, और क्या? यदि हमारी प्रगति विशेष लीकों में पड़ रही है तो किनमें और कैसे?

इन प्रश्नों का उत्तर देने का प्रयत्न मैं नहीं करूँगा। मैं न तो सस्ते आशावाद से और न चोट पड़ते ही बें-बें करनेवाले निराशावाद से ही आपको सन्तोष दिलाना चाहता हूँ। इन प्रश्नों का उत्तर प्रत्येक को अपने ढंग से खोजना चाहिए, मैं केवल उस खोज के प्रति वैज्ञानिक उत्तरदायित्वपूर्ण ढंग रखने पर जोर देना चाहता हूँ। और इसीलिए साहित्य के प्रश्न को साहित्य के या साहित्यालोचन के संकुचित घेरे से निकालकर मैं उसे एक सांस्कृतिक विभूति के रूप में दिखाना चाहता हूँ। यह रूप उसे कैसे प्राप्त होता है, यह जानने के लिए आपको समाज के संगठन की ओर ध्यान देना होगा।

साहित्य-साहित्य की शिक्षा-अन्ततोगत्वा एक स्थानापन्न महत्त्व रखती है। पुराने सामाजिक संगठन के टूटने से उसकी सजीव संस्कृति और परंपरा मिट गयी है-हमारे जीवन में से लोकगीत, लोकनृत्य, फूस के छप्पर और दस्तकारियाँ क्रमश: निकल गयी हैं और निकलती जा रही हैं, और उनके साथ ही निकलती जा रही है वह चीज़ जिसके ये केवल एक चिह्न मात्र हैं-जीवन की कला, जीने का एक व्यवस्थित ढंग जिसके अपने रीति-व्यवहार और अपनी ऋतुचर्या थी-ऐसी ऋतुचर्या, जिसकी बुनियाद जाति के चिर-संचित अनुभव पर कायम हो। बात केवल इतनी नहीं है कि हमारा जीवन देहाती न रहकर शहरी हो गया है। जीवन का ढंग ही नहीं बदला, जीवन ही बदला है। अब समाज न देहाती रहा है न शहरी, अब उसका संगठन ही नष्ट हो गया है। उसे ऐक्य में बाँधनेवाला कोई सूत्र नहीं है; जो जहाँ सुविधा पाता है वहाँ रहता है, अपने पड़ोसियों से उसका कोई जीवित सम्बन्ध, धमनियों के प्रवाह का सम्बन्ध नहीं रहता; सम्बन्ध रहता है भौगोलिक समीपता का, बिजली, पानी, मोटर-ट्राम की मारफत।

नि:सन्देह पुराने संगठन के अवशेष भारत में अनेक स्थलों पर मिलेंगे, जहाँ अभी मोटरलारी, सिनेमा और रेडियो नहीं पहुँचे हैं। इन स्थलों में जीवन अब भी एक कला है। लेकिन ये बहुत देर तक नहीं रहेंगे। यन्त्रयुग की प्रगति का निर्मम हल पुरानी मिट्टी उपाटता हुआ चला जा रहा है।

यदि आपको इस बात में कुछ अत्युक्ति जान पड़ती हो, तो अपने देखे हुए किसी मिल इलाके को याद कीजिए। यदि आपने उसे बनते हुए देखा है-लापरवाही और अवज्ञा से खड़े किए गये उन कुरूप स्तूपों को, मानवजाति के और आसपास के प्रदेश के प्रति घोर उपेक्षा से मुँह बाये हुए; यदि आपने कलकत्ते के ‘गार्डन रीच’ या बम्बई के ‘वरली चाल्स’ जैसे दृश्य देखे हैं, तब आप समझ सकेंगे कि यह विनीशक-क्रिया, मानव जीवन की स्वाभाविकता का यह ध्वंस, समाज-संगठन के ह्रास का ही वाह्य लक्षण है। इसी क्रिया को इंग्लैंड में देखकर वहाँ का दिव्य कलाकार डी. एच. लारेंस फूट उठा था-

“The car ploughed uphill through the long squalid straggle of Tevershall, the blackened brick dwellings, the black slate roofs glistening their sharp edges, the mud black with coal-dust, the pavements wet and black. It was as if dismalness had soaked through and through everything. The utter negation of the gladness of life, the utter absence of the instinct for shapely beauty which every bird and beast has, the utter death of the human intuitive faculty was appalling. The stacks of soap in the grocer’s shops, the rhubarb and lemons in the green grocer’s! the awful hats in the milliner’s! all went by ugly, ugly, ugly, followed by the plaster and gilt horror of the cinema with its wet picture announcements. ‘A Woman’s Love’, and the new big Primitive chapel, primitive enough in its stark brick and big panes of greenish and raspberry glass in the windows...

‘England, my Englan!’ But which is my England! The stately homes of England make good photographs and create the illusion of a connection with the Elizabethans. The handsome old halls are there, from the days of good Queen Anne and Tom Jones. But smuts fall and blacken the drab stucco, that has long ceased to be golden. And one by one, like the stately homes, they are abandoned. Now they are being pulled down. As for the cottages of England-there they are-great plasterings of brick dwellings on the hopeless countryside...
This is history. One England blots out another. The mines had made the halls wealthy, now they were blotting them out, as they had already blotted out the cottages. The industrial England blots out the agricultural England. And the continuity is not organic but mechanical.”


इस स्थापना से कोई निस्तार नहीं है कि पुरानी संस्कृति मर रही है, और संस्कृति का प्रश्न हमारे जीवन-मरण का प्रश्न है। यह दुहराने की आवश्यकता नहीं कि पुरानी व्यवस्था के टूटने का कारण मशीन है। लेकिन मशीन-युग का जीवन ठीक क्या परिवर्तन लाता है यह समझकर ही संस्कृति पर उसका प्रभाव समझ में आएगा। इसके लिए क्षण-भर आधुनिक मिल मजदूर और पुराने दस्तकार की तुलना कीजिए। आज के मजदूर के लिए यह सम्भव है कि तीस या चालीस या पचास साल तक एक अकेली क्रिया को दुहराने मात्र के सहारे यह उतने समय तक अपने परिवार का पेट पाल सके! मसलन नित्यप्रति आठ घंटे तक सेफ्टी उस्तरे के ब्लेड को मोम में डुबोकर पैक करने के लिए रखते जाना-बिलकुल सम्भव है कि पाँच-छ: प्राणियों के कुनबे को पालनेवाला व्यक्ति आयु भर यही एक क्रिया करता रहा हो। इसका मिलान कीजिए पुराने लुहार से-अपने वर्ग का कितना अनुभव-संचित ज्ञान, कितनी लम्बी परंपरा उसकी मेहनत को अनुप्राणित करती थी! यह सब अब नहीं रहा, आज के श्रमिक के लिए जीवन का अर्थ है कि एक निरर्थक यान्त्रिक क्रिया की बुद्धिहीन अनवरत आवृत्ति। पुराना दस्ताकर निरक्षर होकर भी शिक्षित और संस्कृत भी होता था; आज का मजदूर जासूसी किस्से और सिनेमा पत्र पढक़र भी घोर अशिक्षित है। उसकी जीवन की शिक्षा एक अकेली अर्थहीन यान्त्रिक क्रिया तक सीमित है।

अब आप समझ सकते हैं कि कैसे यन्त्रयुग जीव में वह परिवर्तन लाता है जो वास्तव में जीव का प्रतिरोध है। हम लोगों में से जो यन्त्रयुग की बुराइयों पर ध्यान देते हैं वे प्राय: उसे एक आर्थिक संकट के रूप में देखते हैं-बेकारी की समस्या के रूप में। लेकिन प्रश्न आर्थिक से बढक़र सांस्कृतिक है। मशीन से केवल रोजगार नहीं मारा जाता, मशीन से मानव का एक अंग मर जाता है, उसकी संस्कृति नष्ट होती है और उसका स्थान लेनेवाली कोई चीज़ नहीं मिलती। मशीन-युग के मानव का जीवन दो अवस्थाओं में बँट जाता है एक जिसमें मेहनत है पर जीवन स्थगित है; दूसरा जिसमें जीवन को पाने की उत्कट प्यास है। वास्तविक अवकाश की शान्ति की अवस्थाएँ दोनों ही नहीं हैं; फिर भी ऐसे विभाजन से वह समस्या पैदा हो गयी है। जिसे the problem of leisure कहा जाता है। यह समस्या यन्त्रयुग की देन है।

यह नहीं है कि पुराने जमाने में अवकाश नहीं होता था। निस्सन्देह तब भी किसान लोग ‘सुस्ताने’ बैठते थे। दो एक हाथ चिलम या ताड़ी पीने में, और गपशप या गाली-गलौज करने में समय बिताते थे लेकिन यह सुस्ताना जैसे जीवन का एक उपांग, (by-product) था, उसका ध्येय और अन्त नहीं। उनके लिए ‘फ़ुरसत’ का वक्त केवल काम के लिए ताजा होने का साधन था क्योंकि उस समय उनका रोजगार ऐसा था कि यद्यपि उससे उनकी तर्क या कल्पना-शक्तिको प्रोत्साहन नहीं मिलता था, तथापि उसमें हाथ की सफाई और विशेष ज्ञान का प्रयोग करने के लिए काफ़ी गुंजाइश होती थी और उससे तोष प्राप्त होता था। उसके बाद फुर्सत नहीं, विश्राम चाहते थे। ‘फ़ुरसत’ का मूल्य कम था, इसका एक प्रमाण यह भी है कि वे प्राय: दिन छिपते ही सो जाते थे। विश्राम के बाद अपने काम के प्रति उनमें स्वागत भाव हो सकता था। किन्तु आप परिस्थिति इसके सर्वथा प्रतिकूल है। आज के श्रमिक के लिए रोज़गार एक पदार्थ है जिसके दाम लगते हैं, बस। उसमें उसकी किसी तरह की भी रुचि नहीं है, उसके लिए वही साधन है। (पैसा पाने का) और ध्येय है फ़ुरसत। इस प्रकार जीविका का फल, उसका अर्थ, उतनी देर के लिए स्थगित कर दिया जाता है जितनी देर वह जीविका कमाई जाती है-जीना और जीविका कमाना साथ-साथ नहीं चलते, परस्पर विरोधी होकर चलते हैं। काम का समय पूरा होने पर घंटा बजने पर ही उसे अपने को मानव समझने का अधिकार मिलता है और वह जीने का यत्न कर सकता है। उसे ‘फ़ुरसत’ मिलती है; वह अपने को खाली पाता है और एकाएक किसी वस्तु के लिए तड़प उठता है जिससे वह खलिश मिट जाए, वह अपने को ‘तृप्त’ मान सके, स्थगित जीवन से होने वाली क्षति पूर सके।

यह स्पष्ट है कि ऐसे समय का उपयोग ही किसी व्यक्ति की संस्कृति की कसौटी है। हमारा आजकल का श्रमजीवी इस फुर्सत के समय क्या करेगा? ऊपरी दृष्टि से देखा जाए, तो उसके पास अनेकों उपाय हैं। लेकिन जिस मशीन ने फ़ुरसत पैदा की है, उसी ने उसके उपयोग भी विशेष लीकों में डाल दिये हैं। इस क्रिया की भी हम कभी जाँच करेंगे।

ऊपर कहा गया कि आधुनिक जीवन दो क्रियाओं में बँट जाता है-श्रम, जो अन्तत: यान्त्रिक और तोष-शून्य है; तथा अवकाश जो मूलत: श्रम की अवस्था की क्षतिपूर्ति है, स्थगित जीवन की थकान से भागना, या कम से कम मनोरंजन है। अत: आधुनिक जीवन में संस्कृति के, और उसके प्रमुख अंग, बल्कि केन्द्र साहित्य के, लिए कोई स्थान है तो दूसरी अवस्था में ही है। आज साहित्य का यही मुख्य उपयोग है-और मेरी समझ में यही उसके लिए सबसे बड़ा खतरा।

फ़ुरसत का उपयोग साधारणतया मनोरंजन के लिए होता है-मनोरंजन भी एक विशेष प्रकार का-जो अपनी परिस्थिति को भूलने में सहायक हो-अर्थात् एक तरह का नशा हो। देखिए, इस बारे में आधुनिकता का एक पुजारी ‘मनोवैज्ञानिक विशेषज्ञ’ क्या कहता है-बिना अपने कथन का भीषण अभिप्राय समझे!-

‘‘लोग, विशेषतया स्त्रियाँ, गल्पसाहित्य में प्रकारान्तर से उन मानवीय अनुभूतियों की तृप्ति खोजती हैं, जो आज के उलझे हुए और संकीर्ण जीवन में पूरी नहीं हो पातीं। अपने तंग, भीड़-भरे और हड़बड़ाए जीवन में अधिक गहरी अनुभूति के स्पन्दन और खिंचाव को प्राप्त करने का समय और अवसर न पाकर वे अपनी स्वाभाविक वासना की तृप्ति के लिए गल्प साहित्य की ओर झुकते हैं... सभ्यता से बँधे हुए लोग वासनाओं की तृप्ति के लिए गल्प साहित्य की ओर झुकते हैं...इसीलिए लोग सुखान्त कहानी पसन्द करते हैं। जीवन में अपने परिश्रम में सफलता का सन्तोष न पाकर, हताश लोग गल्पसाहित्य में सान्त्वना खोजते हैं; उपन्यास के नायक-नायिका की परिस्थिति में अपने को डालकर वे एक अल्पकालिक और भ्रामक तृप्ति पाते हैं।’’

अर्थात् वे जीवन की कमी उसकी छाया से पूरी करते हैं। लेकिन जिन लोगों के जीवन में अनुभूति की गहराई और विशालता और सूक्ष्मता के लिए स्थान नहीं है, उनका यहाँ छाया-जीवन भी कच्चा और छिछला ही हो सकता है। जिस व्यक्ति का काम उसके व्यक्तित्व को पुष्ट नहीं करता, वह छाया-जीवन से जो तृप्ति प्राप्त करेगा, उसका उसके जीवन की यथार्थता से कोई सम्बन्ध नहीं होगा-क्योंकि यथार्थता से तृप्ति न मिल सकने के कारण ही तो वह उससे भागता है। और फिर, ऐसा व्यक्ति वह परिश्रम करने को भी तैयार नहीं होगा जो मनोरंजन के लिए ज़रूरी है-अत: उसकी क्षतिपूर्ति नशे का रूप ले सकती है।

एक तरह की ‘क्षतिपूर्ति’ मनोरंजन कदापि नहीं है, क्योंकि वह पुष्ट और संजीवित नहीं करती, बल्कि उसे यथार्थता से छूट भागने का आदी बनाकर और भी कमजोर और जीवन के लिए अयोग्य बनाती है। इस प्रकार व्यक्ति एक अँधेरे चक्कर में पड़ जाता है जिससे उसका निस्तान नहीं।

आधुनिक पत्र-पत्रिकाओं के, सिनेमा-थियेटरों के, अखबारों, रेडियो और ग्रामोफोन के बारे में भी यही बात सच है। अप्राकृतिक मनोरंजन-अर्थात जीवन से पलायन-के ये सब साधन मिलकर जीवन को सस्ता बना रहे हैं-उसका अर्थ और महत्त्व नष्ट कर रहे हैं। इनका प्रयत्न यही है कि ‘मनोरंजन’ के लिए जरा भी प्रयास-मन को एकाग्र करने का भी प्रयास-न करना पड़े। आधुनिकता की प्रगति यह है कि सस्ती, ऊपरी और तात्कालिक (‘सामयिक’) रुचि की बातों को छोडक़र अन्य सभी को निरुत्साहित किया जाए, सस्ती और ऊपरी मानसिक प्रवृत्तियों के लिए खाद्य दिया जाए। आपने लक्ष्य किया होगा कि इधर हिंदी के एकाधिक प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं ने जानते बूझते हुए अपना ‘स्टैंडर्ड’ नीचा किया है, ताकि उसका आकर्षण अधिक सार्वजनिक हो सके। यह परिवर्तन आकस्मिक भी हो सकता था, लेकिन मैं जानता हूँ कि ऐसा चेष्टापूर्वक किया गया है, क्योंकि ‘‘आधुनिक पत्र का क्षेत्र व्यापक होना चाहिए-आज का युग masses का युग है और उसमें mass appeal चाहिए।’’ ऐसी mass appeal के लिए पत्रों में जो सस्तापन लाया जाता है वह केवल शब्दों का होता है भाषा का नहीं। उसके लिए हमारी अनुभूति और मानसिक प्रगति के धातु में खोट मिलाया जाता है, हमारा जीवन सस्ता और हल्का किया जाता है!

शायद इसमें आपको अत्युक्ति जान पड़े-या यह स्पष्ट न हो। एक उदहारण ले लीजिए। एक जमाना था, जब हिंदी-भाषी लोगों के लिए ‘मुहब्बत’ शब्द का अर्थ कुछ ऊँचा नहीं था, उसमें किसी घटिया भाव की ध्वनि थी। लेकिन प्रेम शब्द में ऐसी कोई ध्वनि नहीं थी उसका धातु खरा था। पर जबसे सिनेमा की कृपा से ‘प्रेम नगर में प्रेम का घर, प्रेम ही का आँगन, प्रेम की छत और प्रेम के द्वार, प्रेम की नदी और प्रेम के कगार’ बन गये, तब से क्या अब किसी आत्मभिमानी व्यक्ति के लिए किसी दिव्य अभिप्राय से यह कहना सम्भव रहा है कि ‘मैं तुमसे प्रेम करता हूँ?’ मेरा अनुमान है कि आप किसी को सच्चे दिल से भी यह कहते सुनेंगे तो मुस्करा देंगे। क्योंकि यह सिक्का खोटा हो गया है, बाजार में दुकान-दुकान पर तिरस्कृत होता है, और उसका चल जाना एक झूठ का चल जाना है। जाली प्रामिसरी नोट की तरह उसके साथ एक प्रामिस तो है, पर उसकी पूर्ति नहीं, प्रामिस को सच्चा करनेवाला गोल्ड रिजर्व नहीं रहा है।

और केवल शब्द ही सस्ता नहीं हुआ है, उसका प्रायोग करनेवालों का मानसिक जीवन भी उतना ही सस्ता हुआ है; क्योंकि प्रेम का नगर और घर और मन्दिर और नदी तो है, लेकिन प्राण स्रोत सूख गया है, और यदि वह कहीं फूट निकलना भी चाहे, तो कम से कम इस मार्ग से नहीं बह सकता-वह गहरा अर्थ इस शब्द से सदा के लिए अलग हो गया है।
मैं प्राय: इस समस्या की परिभाषा तक पहुँच गया हूँ जो मैं आपके सामने उपस्थित करना चाहता हूँ, जो मेरी समझ में हमारे आधुनिक जीवन की मौलिक समस्या है और जिसका हल किये बिना हमारा भविष्य अँधेरा है।

किन्तु उस समस्या को उपस्थित करने से पहले मैं दो एक बातें और स्पष्ट कर देना चाहता हूँ।

मैंने ऊपर भाषा के सस्ते किये जाने और पत्रों का स्टैंडर्ड गिराये जाने का उल्लेख किया है। इससे एक गलतफहमी भी हो सकती है। मेरा यह अभिप्राय नहीं है कि यह उतार अकारण पैदा कर दिया जाता है। नि:सन्देह परिस्थिति की मजबूरी वहाँ भी है, और विकट रूप में है। इस मजबूरी की पड़ताल भी आरम्भ से की जाए, क्योंकि इससे भी संस्कृति की समस्या पर काफ़ी प्रकाश पड़ता है।

मशीन युग बेहद उत्पत्ति का युग है। और बेहद उत्पत्ति तभी लाभप्रद हो सकती है जब उसकी मशीनरी से पूरा काम लिया जाए और सारी उपज तत्काल बाजार में खप जाए। मुनाफे के सिद्धान्त पर आश्रित आधुनिक व्यवस्था में बेहद उत्पत्ति का अर्थ होता है कारखानों-बल्कि समूचे वर्गों और नगरों-को व्यक्तिगत लाभ के लिए संगठित करना और प्रतियोगिता में चलाना। उसका उद्देश्य माँग की पूर्ति करना नहीं, उपज के लिए माँग ढूँढऩा या पैदा करना हो जाता है। इसीलिए किसी ने कहा है :

“The material prosperity of modern civilization depends upon inducing people to buy what they do not want and to want what they should not buy.”

इस परिस्थिति का परिणाम यह है कि आधुनिक जीवन विज्ञापन की नींव पर खड़ा है-बिना विज्ञापन के आधुनिक सभ्यता चल नहीं सकती। आधुनिक विज्ञापनबाजी की उन्नति का यही कारण है। एक व्यक्ति ने तो कहा है कि आधुनिक युग में किसी कला ने उन्नति की है तो ‘विज्ञापन कला’ ने। पत्र-पत्रिकाएँ इस विज्ञापन का साधन हैं। शायद उनकी उन्नति का भी यही कारण है। क्योंकि आधुनिक पत्र साहित्य का मुख्यांश विज्ञापनोंपर जीता है। कई ऐसे भी पत्र हैं जिनकी लागत उनके चन्दे के मूल्य से कहीं अधिक-कभी-कभी दुगुनी तक-होती है। यह कमी विज्ञापन की आमदनी से पूरी होती है। अत: स्पष्ट है कि जहाँ एक और विज्ञापन प्राप्त करने के लिए बड़ी ग्राहक-संख्या की जरूरत होती है, वहाँ दूसरी ओर बड़ी ग्राहक-संख्या के साथ-साथ विज्ञापन का भी महत्त्व अधिक हो जाता है। कुछ लोग तो यहाँ तक कहते हैं कि पत्र के किसी अंश का कोई मोल है तो विज्ञापन के पन्नों का, क्योंकि प्रकाशन और वितरण का खर्च इतना बढ़ गया है कि चन्दे से कभी पूरा नहीं हो सकता। आपने नहीं सुना होगा, एक नए अमेरिकन पत्र को एक वर्ष में पाँच लाख डालर का घाटा इसलिए हुआ था कि उसने विज्ञापन दर निश्चित करते समय ग्राहक-संख्या का जो अन्दाज लगाया था, ग्राहक-संख्या उससे लगभग दुगुनी हो गयी और फलत: बिकनेवाली प्रत्येक प्रति पर उसे घाटा उठाना पड़ा।

इस परिस्थिति का संपादक के लिए क्या परिणाम होता है? अगर वह पत्र का मालिक भी है, तब तो स्पष्ट है कि उसे एक विराट व्यापारिक उद्योग के अंग के रूप में प्रतियोगिता में पडऩा पड़ेगा; लेकिन अगर वह केवल वैतानिक कर्मचारी है, तो भी क्या वह उस प्रतियोगिता से मुक्त है? जब तक प्रकाशन एक व्यवसाय है, तब तक उसे मुनाफा देना होगा; अत: संपादक को चाहे कितनी भी स्वतंत्रता दी जाए, एक बात की स्वतंत्रता उसे नहीं दी जाएगी। पत्र की ग्राहक-संख्या घटने देने की स्वतंत्रता। पत्र का मालिक सदिच्छा रहने पर भी यह स्वतंत्रता नहीं दे सकता, यह मैं अपने छोटे-से अनुभव से भी जानता हूँ। इस प्रकार संपादक का काम जनता को शिक्षित करना और प्रेरणा देना नहीं रह जाता, बल्कि उसे वह देना जो वह माँगती है, और वह भी अन्य प्रतियोगियों की अपेक्षा कुछ अधिक चटपटे और आकर्षक रूप में। और यह तो हम पहले ही देख चुके कि, जनता क्या माँगती है, यह निर्णय करने का संपादक तो क्या, वह स्वयं भी बेचारी स्वतन्त्र नहीं है, वह निर्णय मशीन युग द्वारा उत्पन्न हुई परिस्थिति ही उसके लिए कर देती है। तब इस विराट नियति-चक्र की भीषणता का कुछ अनुमान हम कर सकते हैं...

आधुनिक युग मशीन युग है। मशीन के विस्तार से प्राचीन समाज-व्यवस्था और संस्कृति नष्ट हो रही है, और फ़ुरसत नाम की एक नई वस्तु पैदा हो रही है। फ़ुरसत का समय बिताने के लिए सामग्री चाहिए, लेकिन वह सामग्री एक विशेष प्रकार की ही हो सकती है, क्योंकि उसी का रस लेने की सामथ्र्य आधुनिक मानव में बचती है। इसका परिणाम है कि पुरानी संस्कृति के मरने के साथ नई के मान नहीं बन रहे, हमारा मन और आत्मा संकुचित हो रहे हैं और हम यथार्थता का सामना करने के अयोग्य बनते हैं। दूसरी हो, मशीन युग के साथ जो mass production आया है, उसके लिए विज्ञापनबाजी आवश्यक है। विज्ञापनबाजी स्वयं मशीन युग की विशेषताओं को उग्रतर बनाती है, और साहित्य को सस्ता, घटिया, और एकरस बनाने का कारण बनती है।

संस्कृति का मूल आधार भाषा है, और भाषा का चरम उत्कर्ष साहित्य में प्रकट होता है। अत: साहित्य का पतन संस्कृति का और अन्तत: जीवन का पतन है-मशीन युग हमारे जीवन को सस्ता, घटिया और अर्थहीन बना रहा है।

क्या हमारे लिए कोई उपाय है, कोई आशा है? क्या साहित्य का नष्ट होता हुआ चमत्कार फिर से जाग्रत हो सकेगा? कोई महान प्रतिभाशाली व्यक्ति तो अपने लिए मार्ग निकाल ही सकेगा, और प्रतिभा में क्रान्ति करने की शक्ति होती है, लेकिन साहित्य केवल प्रतिभा के सहारे नहीं जी सकता, उसका स्टैंडर्ड ऊँचा बनाये रखने के लिए बहुत-से अच्छे साहित्य-सेवी भी चाहिए और विदग्ध रुचि के पाठकों का समुदाय भी चाहिए।

तो प्रश्न को इस रूप में देखना चाहिए-’क्या आज के बड़े और बिखरे हुए और यन्त्रबद्ध वर्गों में भी उसी ढंग की सजीव और dynamic संस्कृति कायम रखी जा सकती है जैसी पुराने वर्गों में, या वर्गों के छोटे-छोटे मंडलों में, बनी रहती थी? यदि इस प्रश्न का उत्तर नकारात्मक है, तब साहित्य का भविष्य अँधेरा है, क्योंकि जनता-जनार्दन को जो नहीं चाहिए वह नहीं रहेगा। यदि उत्तर अनुकूल है, तभी कुछ आशा हो सकती है, लेकिन तब प्रश्न उठता है, कैसे?

इस प्रश्न का कोई बना-बनाया उत्तर नहीं है, हल हमें तैयार करना होगा और उसका चित्र अभी बहुत धुँधला ही दीखता है। यह तो प्राय: सिद्ध हो गया है कि दैन्य और बेकारी और चिन्ता से मुक्ति मिलने से ही संस्कृति और सुरुचि अपने आप नहीं प्रकट हो जाते। अत: संसार की आर्थिक अवस्था सुधरने और जीविका का स्टैंडर्ड ऊँचा होने भर से एक विश्व-संस्कृति या एक राष्ट्रीय संस्कृति भी स्वयं पैदा नहीं हो जाएगी। यह झूठी आशा इसलिए और भी असार हो जाती है कि आज भी ऐसे अनेकों कर्कश किन्तु बलिष्ट स्वर हैं जो चिल्ला रहे हैं कि आर्थिक अवस्था का सुधार और सामाजिक वैषम्य का अन्त ही एक मात्र ध्येय है, साहित्य और कला भाड़ में जाएँ-या रहें भी तो राजनैतिक उद्देश्यों की अनुचर होकर!

कुछ लोगों का यह भी विचार है कि किसी तरह की क्रान्ति के पहले ह्रास का निकृष्टतम तक छूना होगा, कि साहित्य के महान आदर्श पीढिय़ों की उपेक्षा के नीचे दबकर ही पुन: अंकुरित होंगे और सौन्दर्य के दुर्भिक्ष से आक्रान्त जगत को नए प्राण देंगे। हो सकता है कि ऐसा समय आने तक, साहित्यकारों और साहित्य-शिक्षकों का एक संगठित समुदाय संसार को पुन: शिक्षित बना दे-इतिहास में ऐसे उदाहरण तो हैं कि एक भौगोलिक क्षेत्र एकाएक पुन: शिक्षित बन गया हो-सांस्कृतिक पुनर्जीवन असम्भव तो नहीं है। लेकिन क्या यह डर बना हुआ नहीं है कि संसार की वर्तमान प्रगति को देखते हुए ऐसा भी सम्भव है कि साहित्य को वह मौका न मिले-वह घुटकर मर जाए? संसार भर में जिन लोगों को स्वतन्त्र सौन्दर्य से प्रेम है, उनके हृदयों में यही डर बसा हुआ है-फिर उनके राजनैतिक विचार और दृष्टिकोण कितने ही भिन्न क्यों न हों। साहित्य की कला, जो गरीबी से कभी बहुत दूर नहीं रही थी, कभी गर्वीली और मुक्त थी; लेकिन आज हम देखते हैं कि वह बन्दिनी है और व्यभिचार के लिए मजबूर है, जबकि विज्ञापनबाजों की चुनी हुई एक नटनी, ‘मिस लिटरेचर’ उसका स्वाँग भर रही है।

तब त्राण कहाँ से होगा? हमें समझ लेना चाहिए कि हमारा उद्धार मशीन से नहीं होगा, प्रचार-विज्ञापन से नहीं होगा, लेक्चर और विवाद और कवि सम्मेलनों से नहीं होगा। अगर उद्धार का उपाय कोई है, तो वह संस्कृति की रक्षा और निर्माण की चिर जागरूक चेष्टा, और उस चेष्टा की आवश्यकता में अखंड विश्वास, का ही मार्ग है। साहित्य का, कला का, चमत्कार मर रहा है, मरा अभी नहीं है, अगर उस चमत्कार को पैदा करनेवाले पतन और निराशा से बच सकते हैं, और उससे मुकाबले की शक्ति उत्पन्न कर सकते हैं, तो अभी परित्राण सम्भव है। और इस शक्ति को उत्पन्न करने का एकमात्र मार्ग है शिक्षा-शिक्षा जो निरी साक्षरता नहीं, निरी जानकारी नहीं, जो व्यक्ति की प्रसुप्त मानसिक शक्तियों का स्फुरण है। यदि यह कथन बहुत अस्पष्ट जान पड़े, तो समझिए कि जरूरत है रुचि-संस्कार की, परख करने की, ट्रेनिंग की। बिना गहरी और विस्तृत अनुभूति के संस्कृति नहीं है। महान ट्रेजेडी के दिव्य और शोधक प्रभाव के आस्वादन के लिए, वीर-काव्य की गरुड़ उड़ान की चपेट सहने के लिए, लय और सौन्दर्य में डूबने के लिए, अपने भीतर नीर-क्षीर-विवेचन की प्रतिभा पैदा करने के लिए, मानसिक शिक्षण नितान्त आवश्यक बल्कि अनिवार्य है। इसके लिए अथक परिश्रम, विचार और एकाग्रता की जरूरत है।

यदि शिक्षण आधुनिक जगत् के प्रति अपना दायित्व पूरा करना चाहता है, तो उसे यह दुहरी जागरूकता पैदा करनी होगी-एक तो ऊपर वर्णित सांस्कृतिक विकास की क्रियाओं के प्रति, और दूसरे तात्कालिक भौगोलिक और मानसिक परिस्थिति के प्रति, और हमारी रुचियों, आदतों, विचारधाराओं और जीवन-प्रणालियों पर उस परिस्थिति के असर के प्रति। स्वस्थ संस्कृति में हम नागरिक को स्वतन्त्र छोडक़र आशा कर सकते हैं कि उसकी परिस्थिति से ही उसकी संस्कृति उत्पन्न और नियमित होगी; किन्तु आज यदि हम जीवन के गौरव की रक्षा करना चाहते हैं तो हमें परखने और मुकाबला करने की शक्ति को संगठित करना होगा, हमें एक आलोचक राष्ट्र का निर्माण करना होगा।

यह अतिरिक्त जागरूकता ही बचने का एकमात्र उपाय है। ऐसे ही जागरूक व्यक्तियों के द्वारा वह अलौकिक स्वास्थ्य-चेष्टा, वह प्रचेतनजीवनी-शक्ति Instinct of self preservstion, कार्य कर सकेगा जो हमारी resistance की बुनियाद है।

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2. कला का स्वभाव और उद्देश्य
 

एक बार एक मित्र ने अचानक मुझसे प्रश्न किया-’कला क्या है?’

मैं किसी बड़े प्रश्न के लिए तैयार न था। होता भी, तो भी इस प्रश्न को सुन कर कुछ देर सोचना स्वाभाविक होता। इसीलिए जब मैंने प्रश्न के समाप्त होते-न-होते अपने को उत्तर देते पाया, तब मैं स्वयं कुछ चौंक गया। मुझे अच्छा भी लगा कि मैं इतनी आसानी से इस युग-युगान्तर के मसले पर फतवा दे गया।

पीछे लाज आयी। तब बैठकर सोचने लगा, क्या मैंने ठीक कहा था?
क्रमश: सोचना आरम्भ किया; कला के विषय में जो कुछ एक अस्पष्ट और अर्धचेतन विचार अथवा धारणाएँ मेरे मन में थीं, जिनसे मैं अनजाने ही शासित होता रहा था और कला सम्बन्धी विवादों के वातावरण में रहकर भी आश्वस्त भाव से कार्य कर सका था, वे विचार और धारणाएँ चेतन मन के तल पर आयीं; एकाधिक कोणों से जाँची गयीं। आज मैं दुबारा उस दिन कही हुई बात को कह सकता हूँ-कुछ हिचक के साथ, लेकिन फिर भी अनाश्वस्त भाव से नहीं। कुछ इस भावना से कि यह एक प्रयोगात्मक स्थापना है-सम्पूर्ण सत्य इसमें नहीं होगा, लेकिन इसकी अवधारणा सत्य के अन्वेषण और पर्यवेक्षण पर हुई है, अत: उसकी अ-सम्पूर्णता भी वैज्ञानिक है।

पहले सूत्र, फिर व्याख्या यह भारत की शास्त्रीय प्रणाली है। इसी के अनुकूल चलते हुए पहले सूत्र रूप से अपनी स्थापना उपस्थित की जाए। परिभाषा वह नहीं है, लेकिन परिभाषा उसमें निहित है, और व्याख्या में लक्ष्य हो सकेगी।

कला सामाजिक अनुपयोगिता की अनुभूति के विरुद्ध अपने को प्रमाणित करने का प्रयत्न-अपर्याप्तता के विरुद्ध विद्रोह-है।

इस स्थापना की परीक्षा करने के पहले कल्पना के आकाश में एक उड़ान भरी जाए। आइए, हम उस अवस्था की परिकल्पना करने का यत्न करें जिसमें पहली-पहली कलात्मक चेष्टा हुई-जिसमें कला का जन्म हुआ।

काव्य-कला के बारे में आपने वाल्मीकि की कथा सुनी है-क्रौंच-वध से फूटे हुए कविता के अजस्र निर्झर की बात आप अवश्य जानते हैं। वह कहानी सुन्दर है, और उसके द्वारा कविता के स्वभाव की ओर जो संकेत होता है-कि कविता मानव की आत्मा के आत्र्त-चीत्कार का सार्थक रूप है-उसकी कई व्याख्याएँ की जा सकती और की गयी हैं। लेकिन हम इसे एक सुन्दर कल्पना से अधिक कुछ नहीं मानते। बल्कि हम कहेंगे कि हम इससेअधिक कुछ मानना चाहते ही नहीं। क्योंकि हम यह नहीं मानना चाहते कि कविता ने प्रकट होने के लिए इतनी देर तक प्रतीक्षा की! वाल्मीकि का रामचन्द्र का काल, और अयोध्या जैसी नगरी का काल, भारतीय संस्कृति के चरमोत्कर्ष का काल चाहे न भी रहा हो, यह स्पष्ट है कि संस्कृति की एक पर्याप्त विकसित अवस्था का काल था, और हम यह नहीं मान सकते-नहीं मानना चाहते-कि मौलिक ललित कलाओं में से कोई एक भी ऐसी थी जो इतने समय तक प्रकट हुए बिना ही रह गयी थी।

अतएव हम जिस अवस्था की कल्पना करना चाहते हैं, वह वाल्मीकि से बहुत पहले की अवस्था है। वैज्ञानिक मुहावरे की शरण लेकर कहें कि वह नागरिक सभ्यता से पहले की अवस्था होनी चाहिए, वह खेतिहर सभ्यता से और चरवाहा (nomadic) सभ्यता से भी पहले की अवस्था होनी चाहिए-वह अवस्था जब मानव करारों में कन्दराएँ खोदकर रहता था, और घास-पात या कभी पत्थर या ताँबे के फरसों से आखेट करके मांस खाता था।

उस समय के मानव-समाज-(उस प्रकार के यूथ को ‘समाज’ कहना हास्यास्पद लग सकता है, लेकिन ‘समाज’ का मूल-रूप यही विस्तारित कुटुम्ब रहा होगा) की कल्पना कीजिए और कल्पना कीजिए उस समाज के एक ऐसे प्राणी की, जो युवावस्था में ही किसी कारण-सर्दी खा जाने से, या पेड़ पर से गिर जाने से, या आखेटक में चोट लग जाने से-किसी तरह कमजोर हो गया है।

समाज के प्रत्येक व्यक्ति का समाज के प्रति कुछ दायित्व होता है। समाज जितना ही कम विकसित हो, उतना ही वह दायित्व अधिक स्पष्ट और अनिवार्य होता है-अविकसित समाज में विकल्प की गुंजाइश कम रहती है। इसी बात को यों भी कहा जा सकता है कि समाज में प्रत्येक व्यक्ति का एक निश्चित धर्म (function) होता है, और जितना ही समाज अविकसित होता है, उतना ही वह धर्म रूढ़ और अनिवार्य। इसलिए, जहाँ आज के समाज में व्यक्ति स्कूल भी जा सकता है और बाजार या नाचघर या खेत पर भी, वहाँ हमारी कल्पित अवस्था में नित्यप्रति समाज के सभी सदस्य सबसे पहले अपने-अपने अस्त्र लेकर खाद्य सामग्री की खोज में निकलते होंगे। फिर वे आवश्यकतानुसार खोह बनाते या साफ करते होंगे, इत्यादि। इस धर्म में रुचि-वैचित्र्य के कारण कोई अदल-बदल भी हो सकता है, यह उनकी कल्पना के बाहर की बात होगी।

स्पष्ट है कि हमने जिस ‘किसी कारण कमजोर’ व्यक्ति की कल्पना की है, वह अपने समाज का यह धर्म निभा न सकता होगा। अतएव सामाजिक दृष्टि से उसका अस्तित्व अर्थ-हीन होता होगा। कौटुम्बिक स्नेह, मोह या ऐक्य-भावना के कारण कोई उस व्यक्ति को कुछ कहता न भी हो, तो भी मूक करुणा का भाव, और उसके पीछे छिपा हुआ उस व्यक्ति के जीवन की व्यर्थता का ज्ञान, समाज के प्रत्येक सदस्य के मन में होता ही होगा।

और क्या स्वयं उस व्यक्ति को इसका तीखा अनुभव न होता होगा? क्या बिना बताये भी वह इस बोध से तड़पता न होगा कि वह अपात्र है, किसी तरह घटिया है, क्षुद्र है? क्या उसका मुँह इससे छोटा न होता होगा और इस अकिंचनता के प्रति विद्रोह न करता होगा?

यहाँ तक उसकी अनुभूति की बात है, और आशा की जा सकती है कि आपको वह कल्पना अग्राह्य नहीं होगी। अब तनिक सोचा जाए कि यह अनुभूति उसे प्रेरणा क्या देगी-किस कार्य की मूल प्रेरणा बनेगी।

यह कहना कठिन है कि इस अपर्याप्तता के ज्ञान से एक ही प्रकार की प्रेरणा मिल सकती है। यह वास्तव में व्यक्ति के आत्मबल पर निर्भर करता है कि उसमें क्या प्रतिक्रिया होती है। वह आत्महत्या भी कर सकता है और शत्रु से लडऩे जाने का विराट प्रयत्न भी कर सकता है। लेकिन सब सम्भाव्य प्रतिकियाओं की जाँच यहाँ अप्रासंगिक होगी। हम ऐसे ही व्यक्ति को सामने रखें, जिसमें इतना आत्मबल है कि इस ज्ञान की प्रतिक्रिया रचनात्मक (positive) हो, न कि आत्म-नाशक।
ऐसे व्यक्ति के अहं का विद्रोह अनिवार्य रूप से सिद्धि की सार्थकता के Justification की खोज करेगा। वह चाहेगा कि यदि वह समाज का साधारण धर्म निबाहने में असमर्थ है, तो वह विशेष धर्म की सृष्टि करे, यदि समाज के रूढिग़त जीवन के अनुरूप नहीं चल सकता है तो उस जीवन को ही एक नया अवयव दे जिसके ताल पर वह चले।

यह चाहना शायद चेतन नहीं होगी, तर्कना द्वारा सिद्ध करके नहीं पायी गयी होगी। सिद्धि की इच्छा अहं का तर्क द्वारा निर्धारित किया हुआ धर्म नहीं है, वह उसका मौलिक स्वभाव है। अतएव यह चाहना तर्कना के तल पर न आने से भी कमजोर नहीं हुई होगी, बल्कि अधिक दुर्निवार ही होगी-वैसे ही जैसे समुद्र की सतह की छालियों से कहीं अधिक दुर्निवार प्रवाह नीचे की धाराओं (Currents) में होता है।

तो इस चाहना द्वारा अज्ञात-रूप से प्रेरित होकर-वैसे ही, जैसे कस्तूरी-मृग अपने ही गन्ध द्वारा उन्मादित होता है-व्यक्ति क्या करेगा? अपना-अपना धर्म संपादित करते हुए व्यक्तियों से घिरे हुए अपर्याप्तता के बोध के उस निविड़ अकेलेपन में, वह किसी तरह अपने मर्म की रक्षा करता होगा?

हमारी कल्पना देखती है कि जब उस समाज के समर्थ और बलिष्ठ अहेरी अपने-अपने अस्त्र सँभालते हैं, तब वे पाते हैं, उनके अस्त्रों के हत्थों पर शिकार की मूर्तियाँ खुदी हुई हैं, जिनमें अपनी सामथ्र्य का प्रतिबिम्ब देखकर उनकी छाती फूल उठती है; कि जब वे दल बाँध कर खोहों से बाहर निकलते हैं, तब शिकार के रण नाद और घमासान के तुमुल स्वर न जाने कैसे एक ही कंठ के आलाप में रणरंगित हो उठते हैं, कि जब वे लदे हुए कन्धों पर थके और श्रमसिंचित मुँह लटकाए खोहों की ओर लौटते हैं तब पाते हैं कि खोहों का मार्ग पत्थर की बुकनी से आँकी गयी फूल-पत्तियों से सजा हुआ है; कि जब वे दाम्पत्य जीवन की द्विगुणित एकान्तता में प्रवेश करते हैं तब सहसा पाते हैं कि उस जीवन की चरमावस्था सहचरी के वक्ष पर किसी फल के रस से गोद दी गयी है!

तब वे विस्मय से भरकर कहते हैं, ‘अमुक है तो बिचारा, लेकिन उसके हाथ में हुनर है।’
हमारे कल्पित ‘कमजोर’ प्राणी ने हमारे कल्पित समाज के जीवन में भाग लेना कठिन पाकर, अपनी अनुपयोगिता की अनुभूति से आहत होकर, अपने विद्रोह द्वारा उस जीवन का क्षेत्र विकसित कर दिया है-उसे एक नई उपयोगिता सिखायी है-सौन्दर्य-बोध! पहला कलाकार ऐसा ही प्राणी रहा होगा, पहली कलाचेष्टा ऐसा ही विद्रोह रही होगी, फिर चाहे वह रेखाओं द्वारा प्रकट हुआ हो, चाहे वाणी द्वारा, चाहे ताल द्वारा चाहे मिट्टी के लोंदों द्वारा।
कला सामाजिक अनुपयोगिता की अनुभूति के विरुद्ध अपने को प्रमाणित करने का प्रयत्न-अपर्याप्त के विरुद्ध विद्रोह-है।

(2)

यहाँ पाठक कह सकता है, कल्पना तो अच्छी है, लेकिन जो स्थापना उसके सहारे की गयी है वह कोई निश्चित अर्थ नहीं रखती। क्योंकि ‘समाज’ से क्या मतलब? और अपर्याप्तता का क्या अभिप्राय? मान लीजिए कि व्यक्ति रहता ही है अकेला, उसके आस-पास कोई और व्यक्ति या व्यक्तियों का समुदाय है ही नहीं, तब क्या वह कलाकार हो ही नहीं सकता? और आधुनिक युग में, जब समाज का संगठन ऐसा है कि ‘कमजोर’ व्यक्ति भी पद या धन की सत्ता के कारण समर्थ हो सकता है, तब अपर्याप्तता का अनुभव कैसा?

‘समाज’ से अभिप्राय है वह परिवृत्ति जिसके साथ व्यक्ति किसी प्रकार अपनापन महसूस करे। वह मानव-समाज का एक अंश भी हो सकती है, और मानव-समाज की परिधि से बाहर बढक़र पशु-पक्षियों (जीव-मात्र) को भी घोर सकती है; बल्कि (चरमावस्था में) मानव-समाज को छोडक़र पशु-पक्षियों और पेड़-पत्तों तक ही रह जा सकती है। समाज की इयत्ता अन्ततोगत्वा समाजत्व की भावना पर ही आश्रित है। यदि किसी कारण हम अपनी परिवृत्ति से सामाजिक सम्बन्ध नहीं महसूस करते तो वह हमारा समाज नही हैं, यदि किसी दूसरी परिवृत्ति से वैसा सम्बन्ध मानते हैं, तो वह हमारा समाज है। इस सम्बन्ध की अनुभूति के कारणों का विश्लेषण यहाँ प्रासंगिक नहीं है।

‘अपर्याप्तता’ का आधुनिक अर्थ भी इसी प्रकार समझना चाहिए। यदि कोई व्यक्ति धन की, या पद की, या किसी दूसरी सत्ता के कारण अपने को अपने अहं के सामने प्रमाणित कर लेता है, तो अपर्याप्तता की भावना उसमें नहीं होगी, न उसके विरुद्ध विद्रोह करने की ललकार ही उसे मिलेगी। अन्तत: कन्दरावासी कलाकार और आधुनिक कलाकार में कोई विशेष भेद नहीं रहता; दोनों ही में एक अपर्याप्तता चीत्कार करती है। यह अनिवार्य नहीं है कि उसके ज्ञान से सदा कला-वस्तु ही उत्पन्न हो, वह परास्त भी कर सकती है परन्तु उससे हमारी यह स्थापना झूठी नहीं होती कि प्रत्येक कला-चेष्टा की जड़ में एक अपर्याप्तता की भावना काम कर रही होती है।

पाठक की इन प्रारम्भिक शंकाओं के शान्त हो जाने पर अन्य शंकाएँ खड़ी होंगी-पाठक के मन में नहीं तो स्वयं कलाकार के मन में। हमारा साहित्यकार शायद जोर-शोर से इस स्थापना का खंडन करेगा, क्योंकि इससे उसकी ‘कमजोर’, उसकी अपूर्णता अथवा हीनता ध्वनित होती समझी जा सकती है। लेकिन इसे इस दृष्टि से देखना उसकी भूल होगी। एक तो इसलिए, कि यह वास्तविक अपूर्णता नहीं, यह एक विश्ेाष दिशा में असमर्थता है। समाज का साधारण जीवन जिस दिशा में जाता है, जिन लीकों में चलता है, उन दिशाओं और उप लीकों में चलने की असमर्थता तो इससे ध्वनित होती ही है, लेकिन क्या यही वास्तव में अपूर्णता या हीनता (Inferiority) है? नहीं। समाज के साधारण जीवन में अपना स्थान न पाकर तो वह प्रेरित होता है कि वह स्थान बनाये; अतएव पुरानी लीकों पर चलने की असामथ्र्य ही नई लीकें बनाने की सामथ्र्य को प्रोत्साहन देती हैं। दूसरे यह भी ध्यान में रखना चाहिए कि लेखकों में-बल्कि साधारणतया कलाकार समुदाय में, जो एक विशेष प्रकार की असहिष्णुता, अहम्मन्यता, एक दुर्विनीत श्रेष्ठता की भावना दीखा करती है, वह भी एक आत्म-रक्षा का कवच है-किसी मौलिक अपूर्णता या अपर्याप्तता के ज्ञान को अपने अहं के आगे से हटा देने की चेष्टा है। जो पाठक या लेखक आधुनिक मनोविज्ञान की स्थापनाओं से परिचित हैं वे जानेंगे कि इस प्रकार की क्षतिपूरक क्रियाएँ मानव-जीवन में कितना महत्त्व रखती हैं।

(3)

उपर्युक्त अवधारणा एक प्रकार की कल्पना ही है। फिर भी वह उससे कुछ अधिक है। उससे हम एक स्थापना पर पहुँचते हैं और वह कला की परिभाषा न भी करे तो उसके स्वभाव की कुछ व्याख्या अवश्य करती है। लेकिन कोई भी व्याख्या सार्थक नहीं है; फलवती नहीं है यदि वह विषय को स्पष्ट करने के अतिरिक्त कुछ प्रदर्शन नहीं करती, निर्देश नहीं करती। क्या हमारी व्याख्या इस दृष्टि से कुछ अर्थ रखती है?

हमारा अनुमान है कि ‘यदि कला कैसे उत्पन्न होती है?’ इस प्रश्न का हमारा दिया हुआ उत्तर ठीक है, तब ‘कला किसलिए है?’ इस प्रश्न का उत्तर भी इसी में निहित होना चाहिए। क्षणभर जाँच करके देखें, तो हम पाएँगे कि यह अनुमान गलत नहीं है, अर्थात इस कसौटी पर हमारी परिभाषा खरी उतरती है। कस्मै देवाय हविषा विधेम, का समुचित उत्तर हमें इस परिभाषा से मिल जाता है।

हमने कहा कि कला एक अपर्याप्तता की भावना के प्रति व्यक्ति का विद्रोह है। इसका अभिप्राय क्या है? कला सम्पूर्णता की ओर जाने का प्रयास है, व्यक्ति की अपने को सिद्ध प्रमाणित करने की चेष्टा है। अर्थात वह अन्तत: एक प्रकार का आत्मदान है, जिसके द्वारा व्यक्ति का अहं अपने का अक्षुण्ण रखना चाहता है, सामाजिक उपादेयता यद्यपि भौतिक उपादेयता से श्रेष्ठ ढंग की उपादेयता का अनुभव करना चाहता है। अतएव अपनी सृष्टि के प्रति कलाकार में एक दायित्व भाव रहता है-अपनी चेतना के गूढ़तम स्वर में वह स्वयं अपना आलोचक बनकर जाँचता रहता है कि जो उसके विद्रोह का फल है, जो समाज को उसकी देन है, वह क्या सचमुच इतना अन्त्यन्तिक मूल्य रखती है कि उसे प्रमाणित कर सके, सिद्धि दे सके? इस प्रकार कलावस्तु-रचना का-एक नैतिक मूल्यांकन निरन्तर होता रहता है। इस क्रिया को हम यों भी कह सकते हैं कि ‘सच्ची कला कभी भी अनैतिक नहीं हो सकती’ और यों भी कह सकते हैं कि ‘प्रत्येक शुद्ध कला-चेष्टा में अनिवार्य रूप से एक नैतिक उद्देश्य निहित है’ अथवा ‘सच्चौ कलावस्तु अन्तत: एक नैतिक मान्यता (Ethical value) पर आश्रित है, एक नैतिक मूल्य रखती है।’ हाँ यह ध्यान दिला देना आवश्यक होगा कि हम एक श्रेष्ठतर नीति (Ethics) की बात कह रहे हैं, निरी नैतिकता (Morality) की नहीं।

यह एक पक्ष है कि कला समाज के द्वारा समाज के इस या उस अंग के लिए नहीं है, पर उद्देश्यहीन सौन्दर्यपासना, निरा उच्छ्वास भी नहीं है, एक नैतिक उद्देश्य से अन्त:सलित है।
किन्तु यह एक पक्ष ही है। दूसरा पक्ष भी एक है। ऊपर कहा गया है कि कला एक प्रकार का आत्मदान है, जिसके द्वारा व्यक्ति का अहं अपने को सिद्ध प्रमाणित करना चाहता है। अगर इस वाक्य के पूर्वार्ध पर आग्रह था, अब उसके उत्तरार्ध पर विचार किया जाए। ‘आत्मदान’ अहं को ही पुष्ट करने के लिए है, क्योंकि अहं को छोटा करके व्यक्ति सम्पूर्ण नहीं रह सकता, बल्कि शायद जी भी नहीं सकता। इस प्रकार कलाकार का आत्मदान केवल एक नैतिक मान्यता के लिए ही नहीं होता, सच्चे अर्थ में ‘स्वान्त:सुखाय’ भी होता है, और वह सुख अपनी सिद्धि पा लेने का, समाज को उसके बीच रहे होने का प्रतिदान दे देने का सुख है। ‘कला कला के लिए’ झूठ नहीं है, वह अत्यन्त सत्य है, लेकिन एक विशेष अर्थ में। यदि ‘कला कला के लिए’ का अर्थ है, निरे ‘सौन्दर्य’ की खोज-किन्हीं विशेष सिद्धान्तों के द्वारा एक रसायनिक सौन्दर्य की उपलब्धि, तब वह कला और कलाकार को कोई भी सुख नहीं दे सकती-न आत्मदान का न आत्मबोध का, वह कला वन्ध्या है।

कला के इस दुहरे उत्तरदायित्व को समझ कर ही अपने कलाकार अपने और अपने समाज और यदि उसकी आत्मा इतनी विशाल है कि ‘समाज’ के अन्तर्गत समूचे मौलिक जगत को खींच सकती है, तब वह अपने संसार के सम्बन्ध को फलप्रद बना सकता है, सिद्ध हो सकता है, अर्थात सच्चा कलाकार हो सकता है।

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3. रूढ़ि और मौलिकता

The more perfect the artist, the more completely separate in him will be the man who suffers and the mind which creates.*
[* कलाकार जितना ही संपूर्ण होगा उतना ही उसके भीतर भोगनेवाले प्राणी और रचनेवाली मनीषा का पृथक्त्व स्पष्ट होगा]

-टी.एस.इलियट

‘भारतवादी रूढ़िवादी हैं’, यह कथन हम सबने कभी-न-कभी सुना है। प्राय: वह स्वीकार भी होता रहा है। एक दिन इस कथन में सराहना का भाव था-यह भारतीयों का गुण समझा जाता था कि वे रूढिय़ों को मानते हैं; आज, जब चारों और ‘प्रगति’ की इतनी चर्चा है तब रूढिय़ाँ हमारे जीवन-नाटक के खल-नायक के पद पर शोभित होने लगी हैं। साहित्य में भी, विशेषतया आलोचना के प्रसंग में, यह फैशन-सा हो गया है कि रूढ़ि का तिरस्कार किया जाए। जब यह तिरस्कार इतना स्पष्ट नहीं भी होता, तब भी हम किसी आधुनिक लेखक की समकालीनता अथवा कि ‘आधुनिकता’ का मूल्यांकन इसी कसौटी पर करते हैं कि वह किस हद तक रूढिय़ों को मानता अथवा तोड़ता है। उदाहरणतया हम प्राय: कहते हैं कि ‘हरिऔध’ रूढ़िवादी हैं, तथा पन्त और ‘निराला’ आधुनिक हैं यानी रूढिय़ों के प्रति विद्रोही हैं।

आलोचना के वर्तमान फैशन की ओर तनिक ध्यान दें तो हम देखेंगे, आजकल हिंदी में (हिंदी में ही क्यों, प्राय: सर्वत्र ही,) लेखक अथवा कवि की रचनाओं के ‘मौलिक’, ‘व्यक्तिगत’ विशेष गुणों पर जोर देने की परिपाटी-सी चल पड़ी है। आजकल का साहित्यकार अपनी ‘भिन्नता’ के लिए ही प्रशंसा पाता है, ‘मौलिकता’ ‘भिन्नता’ का ही पर्यायवाची बन गया है। कवि को हम उसके पूर्ववत्र्तियों से, विशेषकर निकट पूर्ववत्तियों से, उच्छिन्न करके देख सकें तभी हमें सन्तोष होता है। आलोचकों के आगे यह कहना अपने को हास्यास्पद बना देना होगा कि कभी-कभी साहित्यकार का गौरव, उसकी रचना का महत्त्व, इस बात से भी हो सकता है कि उसमें साहित्यकार के पूर्ववत्तियों की लम्बी परंपरा, उसके साहित्य की रूढ़ि, पुन: जी रही और मुखर ही रही है।

लेकिन हास्यास्पद बनने का खतरा उठाकर भी यही कहना आवश्यक जान पड़ता है कि रूढ़ि-परंपरा-के विषय में अपनी धारणाओं की दुबारा जाँच करना अनिवार्य हो गया है। क्या हमारी धारणा ठीक है? क्या ‘रूढ़ि’ की परिभाषा ‘पुराने साहित्य की अग्राह्य और खंडनीय परिपाटियाँ’ ही है? क्या परंपरा को निबाहना, गयी हुई पीढिय़ों की रीतियों और सफलताओं के अन्धानुकरण का ही नाम है? रूढ़ि क्या है? परंपरा का साहित्य में क्या स्थान है, और साहित्यकार के लिए क्या मोल?

रूढ़ि की रूढिग़्रस्त परिभाषा हमें छोडऩी होगी, हमें उदार दृष्टिकोण से उसका नया, और विशालतर अर्थ लेना होगा। हमें सबसे पहले यह समझना होगा कि रूढ़ि अथवा परंपरा कोई बनी-बनायी चीज़ नहीं है जिसे साहित्यकार ज्यों-का-त्यों पा या छोड़ सकता है, मिट्टी के लोंदे की तरह अपना या फेंक सकता है। हमें यह किंचित् विस्मयकारी तथ्य स्वीकार करना होगा कि परंपरा स्वयं लेखक पर हावी नहीं होती, बल्कि लेखक चाहे तो परिश्रम से उसे प्राप्त कर सकता है, लेखक की साधना से ही रूढ़ि बनती और मिलती है। और हम यह भी सिद्ध करेंगे कि रूढ़ि की साधना साहित्यकार के लिए वांछनीय ही नहीं, साहित्यिक प्रौढ़ता प्राप्त करने के लिए अनिवार्य भी है।

रूढ़ि की साधना, परंपरा के प्रति जागरूकता, कैसे प्राप्त हो सकती है और किस प्रकार साहित्यकार के मानस को, उसके कार्य के मूल्य को, प्रभावित करती है? इस जागरूकता का मुख्य उपकरण है एक ऐतिहासिक चेतना-अर्थात जो कालानुक्रम में बीत गया है, अनीति है, उसके बीतेपन की ही नहीं, उसकी वर्तमानता की भी तीखी और चिर-जाग्रत अनुभूति। साहित्यकार के लिए आवश्यक है कि साहित्य में और जीवन में ‘आसीत्’ का और ‘अस्ति’ का, जो ‘अचिर’ हो गया है उसका और जो ‘चिर’ है उसका, और इन दोनों की परस्परता, अन्योन्याश्रयता का ज्ञान उसमें बना रहे। आधुनिक हिंदी लेखक में यदि यह ऐतिहासिक चेतना होगी, तो उसकी रचना में न केवल अपने युग, अपनी पीढ़ी से उसका सम्बन्ध बोल रहा होगा; बल्कि उससे पहले की अनगिनत पीढिय़ों की, और उनके साथ अपनी पीढ़ी की संलग्नता और एकसूत्रता की भी तीव्र अनुभूति स्पन्दित हो रही होगी। जो ‘है’, उसकी साधना में ऐसा साहित्यकार उसे एक ओर हटाकर नहीं फेंक सकेगा जो ‘था’; यह अनुभव करेगा कि ‘अतीत’ उसी का नाम है जो पहले से वर्तमान है, जबकि ‘आज’ वह है तो वर्तमान होना आरम्भ हुआ है। अतीत और वर्तमान के इस दुहरे अस्तित्व की, उनकी पृथक वर्तमानता और उनकी एकसूत्रता की, निरन्तर अनुभूति ही ऐतिहासिक चेतना है; और इस चेतना का अनवरत स्पन्दनशील विकास ही परंपरा का ज्ञान। काल की प्रवहमानता के ऐसे ज्ञान के बिना साहित्यकार उस प्रवाह में अपना स्थान भी नहीं जान सकता, आधुनिक क्या किसी भी युग में जम नहीं सकता। ऐसे ज्ञान से हीन साहित्यकार ऐसा अंकुर है जो कहीं से भी प्राण-रस खींचने का मार्ग नहीं स्थापित कर सका ‘काल के महाप्रांगण’ में कहीं भी अपनी जड़ें नहीं जमा सका, जो उच्छिन्न होकर ही फूटा है।

इस बात को उदाहरण द्वारा स्पष्ट करने का यत्न किया जाए। इसके लिए हम आज का कोई भी कवि ले लें- ‘नूतन’ अथवा ‘विद्रोही’ माना जानेवाला कवि ही-मान लीजिए सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’। क्या इन्हें समझना, इनकी समीक्षा करना साहित्य के विकास में इनका स्थान और महत्त्व निश्चित करना, इनकी रचना का मूल्य आँकना, केवल उन्हीं को अकेले-अकेले देखकर सम्भव है? क्या उनकी तत्कथित विशेषता, भिन्नता, को देखने के लिए भी हम उन्हें उनके पूर्ववर्तियों के बीच नहीं रखेंगे, उनसे तुलना नहीं करेंगे? क्या उन पर, किसी भी कवि पर, कोई भी मत स्थिर करने से पहले हम उसके पूर्ववर्ती साहित्यकारों और कवियों के साथ उसके सम्बन्ध की जाँच-पड़ताल नहीं करेंगे?

इस प्रकार का अन्वेषण केवल ‘ऐतिहासिक’ विवेचन के लिए नहीं, कलात्मक विवेचन के लिए भी नितान्त आवश्यक है। कोई भी कलावस्तु, चाहे कितनी भी नई क्यों न हो, ऐसी वस्तु नहीं है जो अकस्मात् अपने आप ‘घटित’ हो गयी है; वह ऐसी वस्तु है, जो अपने-आप में नहीं, अपने पूर्ववर्ती तमाम कलावस्तुओं की परंपरा के साथ घटित हुई है। जितनी ही वह नई है, उतनी ही महत्त्वपूर्ण घटना कलावस्तुओं की परंपरा के साथ घटित हुई है; उतना ही परंपरा के साथ उस सम्बध का अन्वेषण करना प्रासंगिक हो गया है! क्योंकि ‘जो पहले से वर्तमान है’ उसकी तो एक बनी-बनायी परंपरा थी, उसमें एक प्रवहमान स्थिरता, एक सामंजस्य था जो कि एक नई वस्तु के आविर्भाव से डाँवाडोल हो गया है। पुन: किसी प्रकार का सामंजस्य स्थापित होने के लिए, एक नया तारतम्य प्राप्त करने के लिए, समूची परंपरा को पुन: जमाना होगा, फिर इसके लिए आवश्यक परिवर्तन चाहे कितना ही अल्प अथवा सूक्ष्म क्यों न हो।

परिणाम यह निकला कि प्रत्येक नई रचना के आते ही, पूर्ववर्ती परंपरा के साथ उसके सम्बन्ध, उनके परंपरा अनुपात और सापेक्ष्य मूल्य अथवा महत्त्व का फिर से अंकन हो जाता है; तथा ‘पुरातन’ और ‘नूतन’, ‘रूढ़’ और ‘मौलिक’, परंपरा और प्रतिभा में एक नया तारतम्य स्थापित हो जाता है। इसका अभिप्राय यह नहीं है कि हम वर्तमान को अतीत के मानदंड पर नाप रहे हैं, अथवा कि अतीत को ही वर्तमान द्वारा आँक रहे हैं। वास्तव में इस क्रिया द्वारा दोनों विभूतियाँ परस्पर एक दूसरे के योग पर, घटित होती हैं। आधुनिक साहित्यकार को मानना पड़ता है कि, वह चाहे या न चाहे, उसे अतीत द्वारा, रूढ़ि द्वारा उतना ही नियमित होना पड़ता है जितना वह स्वयं उसे परिवर्तित अथवा परिवर्धित करता है।

नि:सन्देह ऐसा ज्ञान आधुनिक साहित्यकार के उत्तरदायित्व को बहुत बढ़ा देता है। बल्कि यह भी कहा जा सकता है कि इससे साहित्य-रचना में कठिनाइयाँ भी उत्पन्न होती हैं। क्योंकि इससे लेखक में यह चेतना उत्पन्न होती है कि एक विशेष अर्थ में वह अतीत द्वारा जोखा जा रहा है, उसके आगे परीक्षार्थी है। लेकिन उसे समझना चाहिए कि वह अतीत द्वारा जोखा ही जाता है, कुंठित नहीं होता। अतीत का निर्णय खंडित करनेवाला, बाँधनेवाला नहीं है-आधुनिक लेखन की आलोचना पूर्ववत्र्तियों जैसा या पूर्ववत्तियों से अच्छा या बुरा कहकर नहीं की जा सकती। न ही आधुनिक साहित्य का मोल पूर्ववर्ती आलोचकों की कसौटियों पर आँका जा सकता है। अतीत द्वारा जोखे जाने का अर्थ अतीत मानदंडों द्वारा जोखा जाना नहीं है। अतीत के कृतित्व का अन्धानुकरण विघातक होगा। निरी गतानुगतिकता से कला की परंपरा की रक्षा कदापि नहीं होती; क्योंकि जो केवल आवृत्ति है वह नूतन नहीं है और नूतनता के चमत्कार के बना वह कला ही नहीं है। अतीत के द्वारा जोखे जाने का अभिप्राय इतना ही है कि नूतन रचना उसके साथ एक तारतम्य स्थापित कर सके, एकसूत्र हो सके, उसमें परंपरा की प्रवहमानता स्पन्दित हो। यदि ऐसा नहीं होता, और जब तक ऐसा नहीं होता-यदि नई रचना के साथ कला की रूढ़ि का कोई सम्बन्ध नहीं बनता, वह एक विलग, असम्बद्ध, खंडित इकाई के रूप में रहती है-तब और तब तक, वह कला के क्षेत्र में महत्त्व नहीं रखती, प्राणवान नहीं होती है। बिना एक गतियुक्त और वर्धमान (Organic) परंपरा, एक जीवित रूढ़ि के, कला का अस्तित्व टिक नहीं सकता। इस चौंका देनेवाली और किंचित शंकनीय उक्ति को तनिक और स्पष्ट करके कहना होगा। इसका अभिप्राय यह नहीं है कि कोई रचना इसीलिए महत्त्व रखती है कि वह परंपरा के अनुकूल है; अभिप्राय केवल इतना ही है कि यह अनुकूलता अथवा तारतम्य उसके महत्त्व का सूचक हो सकता है! रूढ़ि के साथ सम्बन्ध अथवा तारतम्य स्वयं ही रचना का मूल्य अथवा महत्त्व नहीं है; मूल्य अथवा महत्त्व उस गतियुक्त और वर्धमान परंपरा में, रूढ़ि की सजीव प्रवहमानता में है जो इस तारतम्य से व्यंजित होती है।

यह परिभाषा, यह सूक्ष्म भेद, इतना महत्त्व रखता है कि पुनरावृत्ति दोष का सामना करके भी इसे और स्पष्ट करने का प्रयत्न करना होगा। यों कहें कि कोई भी लेखक अतीत को ज्यों-का-त्यों, सत्तू के गोले की तरह निगल नहीं सकता, लेकिन साथ ही वह अपनी रचना के लिए किसी एक-डेढ़ कलाकार को आदर्श बनाकर, अथवा किसी विशेष काल का अनुसरण करके भी नहीं चल सकता। एक कवि या कवि समुदाय को आदर्श मान कर उसके ढंग अथवा शैली की साधना करना वय:सन्धिप्राप्त लेखक के लिए रुचिकर या हितकर हो सकता है; एक युग की अनुगतिकता साहित्यिक व्यायाम अथवा रुचि-परिष्कार के लिए उपयोगी हो सकती है। लेकिन प्रौढ़ और बलिष्ट साहित्य इस तरह नहीं चल सकता। साहित्यकार को कला की, साहित्य-सृष्टि की मुख्य प्रवृत्ति से, साहित्यिक परंपरा की निरन्तर विकासशील प्रवहमानता से परिचित होना ही होगा; अतीत में से निकट अतीत और उसमें से वर्तमान के विकास को भी परंपरा के प्रति ऐतिहासिक जागरूकता उसे पानी ही होगी। उसे अपने निजी, व्यक्तिगत, भिन्न, अकेले मन के प्रति ही नहीं, अपने साहित्य के, अपने समाज के, अपनी सांस्कृतिक परविृत्ति के, अपने देश के समाष्टिगत मन के-यदि उसकी क्षमता उतनी है तो जन-मन विश्व-मन के -प्रति भी सचेतन होना होगा; क्योंकि उसे इसका भी अनुभव करना होगा कि वह विशालतर मन उसके निजी मन से कहीं अधिक गौरव रखता है, और जितने ही बड़े मन की जितनी ही गहरी चेतना उसमें है, उतना ही अपने युग के साथ उसका सम्बन्ध फलप्रद है। इतना ही नहीं, उसे यह भी जानना होगा कि यह सामूहिक मन परिवर्तन हो सकता और होता है, विकासशील है, पर इस विकास और परिवर्तन में वह अपने किसी अंग का परित्याग अथवा बहिष्कार नहीं करता, केवल उसके प्रति एक नई चेतना पैदा कर देता है। वाल्मीकि के लिए वेदों को, कालिदास के लिए वाल्मीकि को, तुलसीदास के लिए कालिदास को, या मैथिलीशरण गुप्त के लिए तुलसीदास को, वह छोड़े नहीं देता; वह इन सब को अपनी प्रवहमानता के लम्बे सूत्र में पिरोता चलता है। उस मन में अतीत कुछ भी नहीं होता, केवल ‘पहले से वर्तमान’ की वह परंपरा बढ़ती चलती है जिसमें ‘नया आया हुआ वर्तमान’ अपना स्थान बनाएगा। अचिर के साथ चिर के तारतम्य की यही बाध्यता, अचिर की माला में गुँथ जाने का चिर का अधिकार, साहित्यकार के लिए रूढ़ि अथवा परंपरा का यही ‘शापमय वरदान’ है।

शायद इतना भी पर्याप्त नहीं होगा, शायद साहित्यकार को इससे भी अधिक कुछ जानना होगा। एक तो उसे यह समझना होगा कि ‘कला की, साहित्य-रचना की मुख्य प्रवृत्ति, का युग के सबसे उल्लेखनीय कवियों की ही रचनाओं में प्रतिबिम्बत होना अनिवार्य नहीं है। बहुत सम्भव है कि एक युग की मुख्य चिन्ताधारा ऐसे कवियों में लक्ष्य हो जो अपने युग में या कभी भी प्रसिद्धि नहीं पा सके। इस कठिनाई का सामना करते हुए उसे युग की नब्ज पहचाननी होगी, युग की चेतना का विशालतर रूढ़ि की चेतना के साथ सम्बन्ध जोडऩा होगा।

दूसरी कठिनाई उसके आगे यह होगी कि यद्यपि सामूहिक मन निरन्तर बदल रहा है, तथापि यह प्रमाणित नहीं किया जा सकता कि यह परिवर्तन अनिवार्य रूप से ‘उन्नति’ का परिणाम है-कि इस परिवर्तन द्वारा हम कलात्मक दृष्टि से (अथवा मनोवैज्ञानिक दृष्टि से भी, कम से कम उस हद तक जितना की कल्पना की जा सकती है) पहले से अच्छे हो गये हैं। निश्चयपूर्वक केवल इतना ही कहा जा सकता है कि कला की सामग्री निरन्तर बदलती रहती है, कला शायद नहीं बदलती। सम्भव है, सामूहिक मन का परिवर्तन केवल जीवन के संगठन की क्रमश: बढ़ती हुई उलझन का ही परिणाम है, और स्वयं एक अधिक उलझी विचार-संघदृना का पर्यायवाची है। किन्तु वह चाहे जो हो, यह तो स्पष्ट ही है कि उस परिवर्तन द्वारा प्राचीन और नवीन में एक अन्तर आ जाता है। अतीत और वर्तमान के इस अन्तर को हम यों कह सकते हैं कि जागरूक वर्तमान, अतीत की एक नए ढंग की और नए परिणाम में अनुभूति का नाम है, जैसी और जितनी अनुभूति उस अतीत को स्वयं नहीं थी। वर्तमान में रहनेवाले साहित्यकार के लिए अतीत का, परंपरा का, यही महत्त्व है।

आधुनिक साहित्यकार के लिए रूढ़ि के ज्ञान को, ऐतिहासिक चेतना को इतना महत्त्व देना पाठक को अनुचित जान पड़ सकता है। वह कह सकता है कि ऐसी चेतना के लिए बहुत पढ़ाई की, प्रकांड पांडित्य की आवश्यकता होगी, और इतिहास की साक्षी दे सकता है कि कलाकार पंडित नहीं होते, न पंडित कलाकार। वह कह सकता है कि बहुत अधिक कोरे ‘ज्ञान’ से अनुभूति-क्षमता कम होती है। सरसरी दृष्टि से यह तर्क बहुत माकूल जान पड़ता है। लेकिन सूक्ष्म दृष्टि से देखा जाए, तो इसमें एक भ्रान्त धारणा निहित है। ज्ञान अथवा शिक्षण केवल किताबी जानकारी का, परीक्षाएँ पास करने के लिए या रौब डालने के लिए इकठ्ठे किए हुए इतिवृत्त का, काम नहीं है। नि:सन्देह साहित्यकार को अपनी ग्रहणशीलता अक्षुण्ण बनाये रखते हुए अधिक-से-अधिक जानकारी प्राप्त करनी चाहिए * [और हमारा अनुमान है कि आज के हिंदी साहित्यकारों में अधिकांश में इतनी जानकारी नहीं है। जितनी उनकी ग्रहणशीलता अथवा अनुभूति-क्षमता है, उसे कम किए बिना ही निरी जानकारी बढ़ाने की बहुत काफ़ी गुंजाइश है।] लेकिन रूढ़ि के ज्ञान के लिए, परंपरा के सजीव स्पन्दन की चेतना के लिए, निरी जानकारी और पांडित्य अनिवार्य नहीं है ऐतिहासिक चेतना प्राप्त करने के लिए- निजी मन के साथ-साथ और उसके ऊपर, सामूहिक मन का अनुभव करने के लिए-कुछ को बहुत परिश्रम करना पड़ सकता है; कुछ उसे अनायास ही प्राप्त कर सकते हैं। भारत के ग्राम्य-मन की जो जीवित अनुभूति गाँधी में है, या हिंदी साहित्य क्षेत्र में प्रेमचन्द में थी, वह पांडित्य के सहारे नहीं आयी। जो सांस्कृतिक चेतना ‘प्रसाद’ में गूढ़ अध्ययन के सहारे जागी जान पड़ती है** वह अधिक स्वाभाविक और स्वच्छ रूप से सियारामशरण गुप्त में लक्षित होती है। कोई लोग धोखकर ज्ञान प्राप्त करते हैं, कोई अशयास सोखकर। पांडित्य पर हमारा आग्रह नहीं, आग्रह इस बात पर है कि साहित्यकार में अतीत की चेतना होनी या आनी चाहिए, और उसे आजीवन इसको पुष्ट और विकसित करने का प्रयत्न करना चाहिए।
[** इस आयास-सिद्ध सांस्कृतिक चेतना के साथ ‘प्रसाद’ में एक प्रतिगामी चेष्टा भी है; अपने युग के साथ उनका तारतम्य नहीं स्थापित हुआ। देखिए ‘परिस्थिति और साहित्यकार’ ]

किसी ने कहा है, ‘The dead writers are removed from us because we know so much more than they did.’ अर्थात, ‘हम पूर्ववर्ती लेखकों से इसलिए अलग हैं कि हम उनसे कहीं अधिक जानते हैं।’ वह अधिक क्या है? स्वयं हमारे पूर्ववर्ती लेखक, जिन्हें हम जानते हैं। यही परंपरा के निर्माण की क्रिया का खुलासा है। इसी बात को दूसरी तरह कहें, तो कह सकते हैं कि रूढ़ि के, परंपरा के, विरुद्ध हमारा कोई विद्रोह हो सकता है तो यही कि हम अपने को परंपरा के आगे जोड़ दें।

और यह योग किस प्रकार होता है? साहित्यकार के आत्मदान द्वारा। कलाकार निरन्तर अपने व्यक्तिगत मन को, अपने तात्कालिक, अधिक क्षणिक अस्तित्व को, एक महानतर मन में और एक विशालतर अस्तित्व के ऊपर निछावर करता रहता है, अपने निजी व्यक्तित्व को एक वृहत्तर व्यक्तित्व के निर्माण के लिए मिटाता रहता है। यह आत्मनिवेदन मृत्यु नहीं है-ऐतिहासिक चेतना के सहारे कलाकार को जानना चाहिए कि व्यक्तित्व का उत्सर्ग उसका विनाश नहीं है, क्योंकि उसके द्वारा वह उस परंपरा को भी परिवर्धित कर रहा है जिस पर वह निछावर है* [इस संबंध में देखिए ‘परिस्थिति और साहित्यकार’ ]। छोटे व्यक्तित्व से, निरन्तर बड़े व्यक्तित्व की ओर बढ़ते जाना-यही कलाकार की प्रगति और उन्नति है। और ऐतिहासिक चेतना-परंपरा के स्पन्दन की अनुभूति-इस उन्नति का साधन और मार्ग है।

(2)

Poetry is not a turning loose of emotion, but an escape from emotion; it is not the expression of personality, but an escape from personality.**
 [**कविता भावों का उन्मोचन नहीं है बल्कि भावों से मुक्ति है; वह व्यक्तित्व की अभिव्यंजना नहीं बल्कि व्यक्तित्व से मोक्ष है]
- टी.एस. इलियट

साहित्य के निर्माण को समझने के लिए, रूढ़ि के आगे व्यक्ति के आत्मोत्सर्ग की इस क्रिया का, जिसे ऊपर भी और अन्यत्र भी स्पष्ट करने का यत्न किया गया है, विशेष महत्त्व है। अतएव इसे और निकट से देखने का प्रयास असंगत न होगा।

आलोचना का विषय साहित्य है, साहित्यकार नहीं, कविता है, कवि नहीं; यद्यपि जैसा कि अन्यत्र भी सूचित किया गया है, साहित्य और काव्य की जाँच के लिए भी हमें निरन्तर उस मन की धातु (quality) परखनी होगी जिससे साहित्य उद्भूत हुआ है। स्पष्ट रहे कि ‘मन की परख’ व्यक्तित्व की या व्यक्तिगत इतिहास की जाँच से बिलकुल भिन्न है क्योंकि ‘अनुभव करनेवाला प्राणी’ और ‘रचना करने वाले मन’ अलग-अलग हैं या होने चाहिए। इस प्रकार की किसी साहित्यिक कृति का मूल्यांकन करने के लिए हमें अन्य साहित्यिक कृतियों के साथ उसके सम्बन्ध की ओर तो ध्यान देना ही होगा, साथ ही साथ हमें यह भी जाँच करनी होगी की रचना का उसके निर्माता के साथ-रचना करनेवाले मन में साथ-क्या सम्बन्ध है। ‘प्रौढ़’ और कच्ची कवि-प्रतिभा का अन्तर कवियों के ‘व्यक्तित्व’ कितना बड़ा अथवा कितना आकर्षक है, कौन अधिक रोचक है, अथवा किसके पास अधिक ‘सन्देश’ है। वास्तविक अन्तर की पहचान यह है कि कौन-सा कवि-मानस किन्हीं विशेष अथवा परस्पर भिन्न, ‘उड़ती हुई’ अनुभूतियों के मिश्रण और संयोग और चिरनूनत संगम के लिए अधिक परिष्कृत और ग्रहणशील माध्यम है।

अँग्रेज़ी कवि-आलोचक टी.एस.इलियट ने इस क्रिया की तुलना एक रसायनिक क्रिया से की है। सल्फर डायक्साइड और आक्सीजन से भरे हुए पात्र में यदि प्लाटिनम का चूर्ण प्रविष्ट किया जाए तो वे दोनों गैसें मिलकर सल्फ्यूरस एसिड में परिवर्तित हो जाती हैं। यह क्रिया प्लाटिनम की उपस्थिति के बिना नहीं होती, तथापि बननेवाले अम्ल में प्लाटिनम का कोई अंश नहीं होता, न प्लाटिनम में किसी प्रकार का कोई परिवर्तन ही दीखता है-वह ज्यों का त्यों पड़ा रह जाता है। इलियट कवि-मानस की तुलना इस प्लाटिनम के चूर्ण से करता है। कवि-मानस भी किन्हीं विभिन्न अनुभूतियों पर असर डालकर उसे मिश्रण और संगम का माध्यम बनता है; उस संगम से एक कलावस्तु निर्मित होती है जो विभिन्न तत्त्वों का जोड़ भर नहीं, उससे कुछ अधिक है, एक आत्यन्तिक एकता रखती है; और जो बिना कवि-मानस के माध्यम के अस्तित्व नहीं प्राप्त कर सकती थी।

ध्यान रहे कि यद्यपि कवि-मानस ही इस संयोग से चमत्कार उत्पन्न करता है, और इस क्रिया में भाग लेनेवाले तत्त्व कुछ अनुभूतियाँ हैं जो कवि के अपने जीवन के घटित से भी उपजी हो सकती हैं (या उसके आत्म-घटित से बाहर की भी हो सकती हैं), तथापि कलावस्तु का निर्माण निरी निजी अनुभूतियों से नहीं होता-कलावस्तु बनती है उन अनुभूतियों से-उन अनुभूतियों और भावों के संगम से-जिनसे कवि स्वयं अलग, तटस्थ है, जिनपर उसका मन काम कर रहा है। एक दूसरी उपमा के शरण लें तो कवि का मन एक भठ्ठी है: जिसके ताप में विभिन्न धातुएँ पिघलकर एकरस हो जाती हैं। ढली हुई धातु विभिन्न तत्त्वों से बनी है, उनमें से कुछ धातुएँ स्वयं भठ्ठी के स्वामी की सम्पत्ति भी हो सकती हैं, तथापि भठ्ठी के स्वामी से भठ्ठी का, और भठ्ठी से धातु का अलगाव और स्वतन्त्र अस्तित्त्व अक्षुण्ण बना रहता है। कलाकार जितना बड़ा होगा, उतना ही व्यक्ति-जीवन और रचनाशील मन का यह अलगाव भी आत्यन्तिक होगा। उतना ही रचना करनेवाला कवि मानस अनुभव करनेवाले मानस से दूर और पृथक होगा; उतना ही चमत्कारपूर्ण उन अनुभूतियों और भावों का संगम होगा जो कवितारूपी प्रतिमा की मिट्टी है-फिर चाहे ये अनुभूतियाँ और भाव कवि के निजी अनुभव के, व्यक्तिगत जीवन के फल क्यों न हों। यों कहें कि जितना ही महान कलाकार होगा उतनी ही उसकी माध्यमिकता परिष्कृति होगी।

जिस मिट्टी से काव्यरूपी प्रतिमा बनती है, जिन तत्त्वों द्वारा कवि-मानस का असर एक चमत्कारिक योग उत्पन्न करता है, वे तत्त्व क्या हैं? उन्हें दो श्रेणियों में बाँटा जा सकता है। स्थायी भाव (emotions) और संचारी भाव। कवि इनसे जो चमत्कार उत्पन्न करता है, पाठक के मन पर जो प्रभाव डालता है, वह कला के क्षेत्र से बाहर कहीं किसी तरह प्राप्त नहीं हो सकता- कला का ‘रस’ कला ही में प्राप्तव्य है; उस अनुभूति की कला के बाहर की किसी अनुभूति से तुलना नहीं की जा सकती। यह अनुभूति एक ही भाव के द्वारा उत्पन्न हो सकती है, या अनेक भावों के सम्मिश्रण से, या भावों और अनुभूतियों के संयोग से; और यह अनुभूति उत्पन्न करने के लिए कवि कई प्रकार के साधन काम में ला सकता है, कई प्रकार के चित्र खड़े कर सकता है। इस सृष्टि के साधन अनेक और उलझे हुए होते हैं, पर उन साधनों द्वारा उत्पन्न होनेवाले चमत्कार में एक आत्यन्तिक एकता होती है। वास्तव में कलाकार का मन एक भंडार है जिसमें अनेक प्रकार की अनुभूतियाँ, शब्द, विचार, चित्र, इकठ्ठे होते रहते हैं उस क्षण की प्रतीक्षा में जबकि कवि-प्रतिभा के ताप से एक नया रसायन, एक चमत्कारिक योग नहीं उत्पन्न हो जाएगा।

कविता की, कलावस्तु की, श्रेष्ठता उसमें वर्णित विषय की या भाव की श्रेष्ठता या ‘भव्यता’ में नहीं है; और लेखक के लिए उन विषयों या भावों के महत्त्व में, या उसके जीवन में उनकी व्यक्तिगत अनुभूति में तो बिलकुल नहीं है। कविता का, कलावस्तु का गौरव, उसकी ‘भव्यता’ है उस रसायनिक क्रिया की तीव्रता में जिसके द्वारा ये विभिन्न भाव एक होते हैं और चमत्कार उत्पन्न करते हैं। कविता की-काव्यानुभूति की-तीव्रता और कविता में वर्णित अनुभूति की तीव्रता, परस्पर भिन्न न केवल हो सकती है बल्कि अनिवार्य रूप से होती है। कला के भावों और व्यक्तिगत भावों का पार्थक्य अनिवार्य है। पाठक के लिए कवि या साहित्यकार का महत्त्व उसकी निजी भावनाओं के कारण, उसके अपने जीवन के अनुभवों से पैदा हुए भावों के कारण नहीं है। यह दूसरी बात है कि काव्य-रचना की क्रिया में अन्य भावों और अनुभूतियों के साथ, उसके अपने भाव और अपनी अनुभूतियाँ भी एक इकाई में ढल जाएँ-या कि केवल अपने भाव और अनुभूतियाँ ही उस क्रिया का उपकरण बनें। रचयिता का महत्त्व रचना करने की क्रिया की तीव्रता में है। यही बात ऊपर दूसरे ढंग से कही गयी है-कि जितना ही कलाकार महान होगा उतनी ही उसकी माध्यमिकता परिष्कृत होगी। वास्तव में काव्य में कवि का व्यक्तित्व नहीं, वह माध्यम प्रकाशित होता है जिसमें विभिन्न अनुभूतियाँ और भावनाएँ चमत्कारिक योग में युक्त होती हैं। काव्य एक व्यक्तित्व की नहीं, एक माध्यम की अभिव्यक्ति है।

काव्य की निर्व्यक्तिक परिभाषा से एक परिणाम और भी निकलता है। काव्य में नूतना-और बिना नूतनता के कला कहाँ है?-लाने के लिए कवि को नूतन अनुभव खोजने की आवश्यकता नहीं है। ऐसी खोज-नूतन मानवीय अनुभूतियाँ प्राप्त करने की लहक-उसे मानवीय वासनाओं के विकृत रूपों की ओर ही ले जाएगी और उस पर पुष्ट होनेवाला साहित्य या काव्य मानवीय विकृति (perversity) का ही साहित्य होगा। कवि का कार्य नए अनुभवों की, नए भावों की खोज नहीं है, प्रत्युत पुराने और परिचित भावों के उपकरण से ही ऐसी नूतन अनुभूतियों की सृष्टि करना जो उन भावों से पहले प्राप्त नहीं की जा चुकी हैं। वह नई धातुओं का शोधक नहीं है; हमारी जानी हुई धातुओं से ही नया योग ढालने में और उससे नया चमत्कार उत्पन्न करने में उसकी सफलता और महानता है।

यह स्थापना शंकनीय जान पड़ सकती है। लेकिन विश्व का महान साहित्य उठाकर देख डालिए-हमारे परिचित भाव ही हमें मिलेंगे, किन्तु नूतन योगों में; और हम यह भी पाएँगे कि इस या उस महान कलाकार की रचना का वैशिष्टय उसकी व्यक्तिगत अनुभूतियों की ‘नूतनता’ में नहीं, उसके उपकरणों के परस्पर अनुपात और योग के प्रकार की विभिन्नता में और सृजन की क्रिया की तीव्रता की भिन्नता में है। और यह क्रिया, इस क्रिया की तीव्रता-विभिन्न परिचित उपकरणों से नूतन चमत्कारिक वस्तु का निर्माण-चेष्टित नहीं है, वह स्वयं चमत्कारिक है।

इसका यह अभिप्राय नहीं है कि कलावस्तु के निर्माण में चेष्टित अथवा आससिद्ध कुछ भी नहीं है। नि:सन्देह कविकर्म का बहुत बड़ा अंश चेष्टित है, आयासपूर्वक सिद्ध होने वाला है, किन्तु वह अंश उपर्युक्त क्रिया की तीव्रता से सम्बन्ध नहीं रखता। बल्कि छोटे कवि में दोष यही होता है कि जहाँ परिश्रम आवश्यक है वहाँ वह ‘प्रतिभा’ पर निर्भर करता है और जहाँ ‘प्रतिभा’ का क्षेत्र है वहाँ आयास-पूर्वक तीव्रता लाना चाहता है। ये दोनों बातें उसकी रचना को ‘व्यक्तिगत’ बनाती हैं और हमारी निर्व्यक्तिक परिभाषा के अनुसार दोष हैं।

व्यक्तिगत अनुभूति की दृष्टि से देखा जाए, तो लेख के इस खंड के ऊपर दी गयी टी.एस. इलियट की उक्ति से कोई छुटकारा नहीं है-कि कविता निजी अनुभूति की मुक्ति-अभिव्यक्ति-नहीं, वह अनुभूति से मुक्ति है; व्यक्तित्व का प्रकाशन नहीं, व्यक्तित्व से छुटकारा है। यद्यपि, जैसा कि इलियट ने कहा है, इनसे छुटकारा पाने का अर्थ वही समझ सकते हैं जिनके पास अनुभूतियाँ और व्यक्तित्व है।

(3)

काव्य के लिए महत्त्व रखनेवाले भावों का अस्तित्व कवि के जीवन या व्यक्तित्व में नहीं, स्वयं काव्य में होता है। व्यक्तिगत भावों की अभिव्यक्ति प्रत्येक पाठक समझ सकता है, ‘टेकनीक’ की खूबियाँ भी अनेक पहचान सकते हैं, जब कि काव्य के निर्व्यक्तिक भाव को परखनेवाले व्यक्ति थोड़े ही होंगे-यह कहने से उपर्युक्त स्थापना खंडित नहीं होती। कला के भाव व्यक्तित्व से परे होते हैं, निर्व्यक्तिक होते हैं और कवि इन निर्व्यक्तिक भावों का ग्रहण और आयास-हीन अभिव्यंजना तभी कर सकता है जब वह व्यक्तित्व की परिधि से बाहर निकलकर एक महानतर अस्तित्व के प्रति अपने को समर्पित कर सके, अर्थात जब उसका जीवन वर्तमान क्षण ही में परिमित न रहकर, अतीत की परंपरा के वर्तमान क्षण में भी स्पन्दित हो; जब उसकी अभिव्यक्ति केवल उसी की अभिव्यक्ति न हो जो जी रहा है, बल्कि उसकी भी जो पहले से जीवित है। कवि का जीवन आज में बद्ध नहीं है, वह त्रिकाल-जीवी है।

इन स्थापनाओं से कुछ लोग चौंक सकते हैं। उन्हें लग सकता है कि यह आलोचना का एक नया फैशन भर है, जिसमें सार कुछ नहीं, क्योंकि आधुकिनता केवल परंपरा पर मुँह बिचकाने का ही दूसरा नाम है। इन लोगों से हमारा निवेदन है कि हम परंपरा की अवज्ञा करना तो दूर, परंपरा के महत्त्व पर आग्रह कर रहे हैं। इस पर आपत्ति किसी को हो सकती है तो उनको जो परंपरा का अस्तित्व ही मिटा डालना चाहते हैं। यद्यपि होनी उन्हें भी नहीं चाहिए।

हम यह कहेंगे कि हमारी स्थापनाओं पर आपत्ति करनेवाले वे ही लोग होंगे जो स्वयं अपनी परंपरा से परिचित नहीं हैं- फिर आपत्ति चाहे परंपरा के नाम पर हो चाहे प्रगति के। क्योंकि ये स्थापनाएँ ऐसी नई नहीं हैं; हमारे ही शास्त्र का विकास हैं। कुप्पी नई है, लेकिन आसव पुराना है।

हमारे आचार्यों ने भी रूढिय़ों के अध्ययन पर जोर दिया है। यह भी उन्होंने माना है कि यद्यपि काव्य का सरोकार सभी मानवीय अनुभूतियों से है, साधारण भी और आसाधारण भी, तथापि कला की खोज नूतन, अवर्णित और अज्ञात भावों के लिए नहीं है, जैसा कि देश और विदेश के कई आधुनिक कवि समझते रहे हैं। यह भी उन्होंने प्रतिपादित किया है-प्रत्यक्ष सिद्धान्त रूप में नहीं तो अप्रत्यक्ष उपसिद्धान्त के रूप में-कि कला के भाव निरे मानवीय भाव नहीं हैं, वे उन भावों के चमत्कारिक योग से उत्पन्न होनेवाले और उनसे भिन्न तत्त्व हैं। काव्यानुभूति की नूतनता इस योग की नूतनता है। काव्य का ‘रस’ कवि में, या कवि के जीवन में, या वण्र्य विषय अथवा अनुभूति में, या किसी शब्द विशेष में नहीं है, वह काव्य-रचना की चमत्कारिक तीव्रता में है।

प्रगति-पक्ष से भी आपत्ति हो सकती है-कि इस स्थापना द्वारा प्रगति को धक्का पहुँचेगा। लेकिन इस आपत्ति का उत्तर लेख के पूर्वार्ध में है परंपरा का निकट परिचय उसका अन्धानुकरण नहीं है, बल्कि उसे विकसित करने की तत्परता है।

हम अतीत को मिटाना नहीं चाहते, उसे छोटा भी करना नहीं चाहते, लेकिन हम उसकी दुहाई भी नहीं देते, परास्त होकर उसके आगे झुकते भी नहीं। हम अतीत के प्रति एक नए दृष्टिकोण की माँग करते हैं, वर्तमान में उसके स्थान की एक नई परिकल्पना करते हैं, हमारे लिए वयस्कता, शैशवावस्था का खंडन नहीं है उससे सम्बद्ध और प्रस्फुटनशील विकास का बोध है। हम परंपरा की एक विकसित परिभाषा करते हैं-कि वह वर्तमान के साथ अतीत की सम्बद्धता और तारतम्य का नाम है।

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4. सौन्दर्य-बोध और शिवत्व-बोध


आलोचना कई प्रकार की होती है-क्योंकि वह कई उद्देश्यों से की जा सकती है। सब आलोचना मूल्यवान नहीं होती : उसका उद्देश्य प्रभाव उत्पन्न करना या व्याख्या करना भी हो सकता है। लेकिन अन्ततोगत्वा समालोचक को कहीं-न-कहीं मूल्यों का विचार भी करना ही पड़ता है-कृति का मूल्यांकन वह न भी करे तो भी स्वयं उसकी रसास्वादन की प्र्रकिया में उसके स्वीकृत मूल्यों या प्रतिमानों का महत्त्व होता है। समालोचक क्या पाता है, यह अनिवार्यतया इस पर निर्भर करता है कि वह क्या लेकर चलता है।

और मूल्यांकन प्रत्यक्ष या परोक्ष-बिना मूल्यों या प्रतिमानों के नहीं हो सकता; मानदंड के बिना माप कैसे हो सकती है? यहाँ पर हम समालोचना की मूल-समस्या के सामने आ खड़े होते हैं।

मूल्य किसे कहते हैं? यह प्रश्न नि:सन्देह बहुत व्यापक है, और यह भी कहा जा सकता है कि युग-युगान्तर से दार्शनिकों और साधकों दोनों की मूल जिज्ञासा यही रही है : वह अन्तिम कसौटी क्या है जिस पर कस कर हम किसी भी कृति के धातु को पहचान सकते हैं? किन्तु अपनी जिज्ञासा को सीमित रखना असम्भव नहीं है, और न ऐसी सीमित पड़ताल अनुपयोगी ही होगी।

समीक्षक को जैसा सुपठित, शास्त्र-निष्णात होना चाहिए वैसे हम नहीं हैं इसका हमें पूरा ज्ञान है। आचार्यत्व की न हममें पात्रता है, न आकांक्षा। किन्तु मूल्यों का प्रश्न केवल आचार्यों के लिए महत्त्व रखता हो, ऐसा नहीं है; साहित्य के प्रत्येक अध्येता के लिए वह एक गुरुतर प्रश्न है, और लेखक के लिए तो उसकी मौलिकता असन्दिग्ध है, क्योंकि कृतिकार अपनी कृति का सबसे पहला और कदाचित् सब से अधिक निर्मम-परीक्षक है। (लेखक को अपनी रचना का मोह भी होता है; पर मोह और निर्ममत्व के अलग-अलग स्तर हैं; और मूल्यों का विचार उसी स्तर पर होता है जिस पर लेखक ममता को एक ओर रख देता है।) निष्ठावान लेखक और अध्यवसायी पाठक के नाते हम आशा करते हैं कि मूल्यों या प्रतिमानों के सम्बन्ध में हमारे विचार अन्य पाठकों के लिए उपयोगी हों सकेंगे। यह भी सम्भव है कि वे अपने साधारणत्व के कारण ही उनके लिए अधिक ग्राह्य हों, पुरोहित की बात से पड़ोसी की बात अधिक ध्यान से सुनी जाती है और अधिक गहरे जा कर छूती है।

हम मानते हैं कि सब प्रतिमानों का, सब मूल्यों का स्रोत मानव का विवेक है। वही उसे सदसद् का ज्ञान देता है-फिर उस सत् और असत् का क्षेत्र चाहे जो हो। इस साधारण स्थापना पर कदाचित् अधिक लोगों को आपत्ति न होगी-कम-से-कम आज के मानववादी युग में, जिसमें यह नहीं समझा जाता कि मानव के विवेक की दुहाई देना प्रकारान्तर से शाश्वत अथवा ब्रह्मसम्भूत सनातन मूल्यों के अस्तित्व का खंडन करना मात्र है। किन्तु इससे हम सौन्दर्य के विषय में जिस उपपत्ति तक पहुँचते हैं, वह भी ऐसी सहज-ग्राह्य होगी, ऐसी आशा हमें नहीं होती। कदाचित् कुछ बुद्धिवादी भी उस पर आपत्ति करेंगे। यद्यपि हमें ऐसा जान पड़ता है कि जब हम सौन्दर्य-बोध की चर्चा करते हैं तब हम उसे स्वयंसिद्ध ही मान लेते हैं, क्योंकि बुद्धि को हेय मानकर बोध को महत्त्व नहीं दिया जा सकता।

यदि यह कहना उचित है कि मूल्यों का स्रोत मानव का विवेक है तो यह कहना भी ठीक है कि सौन्दर्य-बोध मूलत: बुद्धि व्यापार है। सौन्दर्य क्या है, हम नहीं जानते; सौन्दर्य की परिभाषा बड़े-बड़े मर्मज्ञ नहीं कर सके और हम ‘गहि-गहि गरब गरूर’ इस कंटकाकीर्ण पथ पर चलने वाले नहीं हैं। किन्तु सौन्दर्य क्या है, यह न बता पाकर भी सुन्दर क्या है यह हम जानते हैं, पहचानते हैं; बता सकते हैं कि क्या सुन्दर होता है। और सुन्दर क्या है, यह बता सकने का अर्थ यह है कि हम कुछ ऐसे गुणों को पृथक कर सकते हैं जिनके कारण सुन्दर सुन्दर है। ये तत्त्व क्या हैं? उनकी तालिका प्रस्तुत करना अनावश्यक है। यहाँ आग्रहपूर्वक यही दुहराना यथेष्ट है कि सौन्दर्य-बोध बुद्धि का व्यापार है : बुद्धि के द्वारा ही हम उन तत्त्वों को पहचानते हैं; मानव का अनुभव ही उन त्तत्वों की कसौटी है।

यह स्थापना विवादास्पद तो हो ही सकती है। यह आपत्ति भी की जा सकती है कि बुद्धि के साथ हठात् अनुभव का उल्लेख करना वास्तव में बुद्धि के नाम पर सौन्दर्य की भोगवादी व्याख्या करना है। वास्तव में ऐसा नहीं है, परन्तु यह स्पष्ट करने से पहले एकाध उदाहरण लेना उपयोगी होगा। हम कहते हैं लय अथवा ‘रिदम’। शैशवकाल से ही हम जानते हैं कि हृदय का लययुक्त सम स्पन्दन आरोग्य और सहजावस्था की निशानी है, स्वस्थ होने की निशानी है; और असम स्पन्दन या लय-भंग उद्वेग, परेशानी, असुख के चिह्न हैं। तब, यदि हम मानते हैं कि लयमयता कला का अथवा सुन्दर का एक मूल गुण है, तो क्या यह अपने अनुभूत सत्य का निरूपण ही नहीं है? इसी प्रकार हम मानते हैं कि सीधी रेखा सुन्दर नहीं होती, वक्र रेखाएँ सुन्दर होती हैं : यहाँ क्या फिर हम अपना अनुभव नहीं दुहरा रहे हैं? हमारे अंगों का कोई भी सहज निक्षेप वक्रता या गोलाई लिए होता है-अबोध शिशु भी जब हाथ-पैर पटकता है तो मंडलाकर गति से-सहज गति सीधी रेखा में होती ही नहीं, और सीधी रेखा में अंग-संचालन अत्यन्त क्लेश-साध्य होता है। अत: वक्रता को कला-गुण या सौन्दर्य-तत्त्व मानने में हम फिर अपना अनुभव दोहरा रहे हैं : गोचर अनुभव का कार्य-कारण ज्ञान के सहारे (बुद्धि द्वारा) प्राप्त किया हुआ निचोड़ ही हमारे सौन्दर्य-बोध का आधार है। और चित्र या मूर्ति में जो रेखा की वक्रता है, अर्थात् जो दृश्य, स्पृश्य अथवा स्थूल है, वही यदि काव्य में आकर उक्ति की वक्रता का परम सूक्ष्म रूप ले लती है, तो क्या हमारी बुद्धि उसे पकड़ नहीं सकती? गोचर अनुभव से पाया हुआ सूक्ष्म बोध क्या वहाँ हमारा सहायक नहीं होता?

ये सरलतम उदाहरण हैं-क्योंकि गति का बोध सबसे पहला बोध है। किन्तु हम क्रमश: जटिलतर प्रतिमानों की परीक्षा करते चलें तो भी इसी बात की पुष्टि होगी : स्थिरता, सन्तुलन; परिचित और नव्यता; गाम्भीर्य, सूचकता, सार्वभौमता-सर्वत्र हम पाएँगे कि जिस गुण को भी हम कला का प्रतिमान मानते हैं, वह हमारे अनुभव से उद्भुत है, और हमारे विवेक द्वारा प्राप्त किया गया है। प्रतिमान-रूपी कोई भी अमृत-घट हमारे अनुभव के महासागर को मथ कर ही निकल सकता है, और हमारी बुद्धि ही हमारी मन्थानी है।

भोगवाद सम्बन्धी आपत्ति का यहाँ निराकरण हो जाता है। कला-मूल्य हमें अनुभव के सागर से ही प्राप्त होते हैं-किन्तु अनुभव अपने आप में एक प्रतिमान नहीं है। अनुभव की भित्ति पर बुद्धि द्वारा प्रतिष्ठित तत्त्व ही प्रतिमान हो सकता है। प्रतिमान की उपलब्धि हमें बुद्धि द्वारा ही होती है, यद्यपि उसके लिए हम अनुभव के सागर की थाह लेते हैं। और क्योंकि ये प्रतिमान हमें बुद्धि के द्वारा उपलब्ध होते हैं, इसलिए सुन्दर से हमें जो उपलब्धि होती है उसे हम आनन्द कहते हैं और केवल गोचर अनुभव से मिलने वाले सुख से अधिक गौरव देते हैं।

तो सौन्दर्य के तत्त्व बुद्धि पर आधारित हैं, और सुन्दर का आस्वादन बुद्धि का व्यापार है। इससे और परिणाम निकलते हैं। बुद्धि अनुभव के सहारे चलती है-अनुभव व्यक्तिगत, समाजगत, जातिगत, युग-युगान्तर संचित। और अनुभव कोई स्थिर और जड़ पिंड नहीं है, वह निरन्तर विकासशील है। अत: बुद्धि भी विकासशील है-मानव का विवेक भी विकासशील है। इस अर्थ में शाश्वत मूल्यों की बात अनुचित अथवा अर्थहीन हो जाती है। किन्तु विकास का सही अर्थ समझना चाहिए। बुद्धि का नए अनुभवों के आधार पर क्रमश: नया स्फुरण और प्रस्फुटन होता है और नया अनुभव पुराने अनुभव को मिटा नहीं देता, उसमें जुड़ कर उसे नई परिपक्वता देता है। अनुभव के गणित में जोड़ ही जोड़ है, बाकी नहीं है। साहित्य के क्षेत्र में हम परंपरा की चर्चा इसी अर्थ में करते हैं-तरतमता उसमें अनिवार्य है। तो मूल्य या प्रतिमान, शब्दार्थ की दृष्टि से शाश्वत भले ही न हों, स्थायी अवश्य होते हैं, और उनमें जो परिष्कार या नया संस्कार (परिवर्तन उसे न कहना ही सीमचीन होगा) होता है, उसमें शतियाँ लग जा सकती हैं। नि:सन्देह दूसरे भी मूल्य हैं-सामाजिक मूल्य-जो सामाजिक परिवर्तनों के साथ अपेक्षया अधिक तेजी के साथ बदलते हैं; किन्तु यहाँ हम उनकी चर्चा नहीं कर रहे हैं, उन से अधिक गहरे मूल्यों की बात कर रहे हैं। इन अधिक गहरे मूल्यों में भी यदि हम देखते हैं कि कभी अपेक्षया अधिक द्रुत गति से संस्कार होता है, तो उसका कारण यही है कि जहाँ हमारी तर्कना या बुद्धि निरन्तर हमारे अनुभव को माँजती और सायास विश्लिष्ट-संश्लिष्ट करती चलती है, वहाँ कभी संचित अनुभव का दबाव सहसा हमें नई दृष्टि भी दे देता है-अर्थात् बुद्धि का यह व्यापार एक प्रखतर आलोक से दीप्त हो उठता है। यद्यपि ऐसा भी जब होता है तो अकारण नहीं होता; जो बुद्धि उस आलोक से लाभ उठा कर नई प्रतिपत्ति करती है, वह फिर उसके आविर्भाव का कारण भी खोजती और खोज लेती है।

मूल्यों की चर्चा में यहाँ तक हमने अपने को सौन्दर्य के प्रतिमानों तक सीमित रखा है। किन्तु जब हमने कहा कि सब प्रतिमानों का, सब मूल्यों का स्रोत मानव का विवेक है, तब स्पष्ट ही हमने ऐसी कोई मर्यादा नहीं निर्दिष्ट की। उस कथन से अवश्य ही यह परिणाम निकलता है कि शिवत्व के प्रतिमान-नैतिक प्रतिमान भी-मानव के विवेक से उद्भुत होते हैं। यहाँ एक साथ ही दो प्रश्न उठते हैं। क्या हम ऐसा मानते हैं, और क्या सौन्दर्य के और शिवत्व के प्रतिमानों में कोई अनिवार्य सम्बन्ध, या कोई भी सम्बन्ध है?

पहले प्रश्न का उत्तर आवश्यक नहीं है। स्पष्ट ही हमारी पहली स्थापना से वह परिणाम निकलता है और अगर हमें वह स्वीकार्य न होता तो हमारे लिए अपनी पहली बात को ही अधिक मर्यादित करके कहना अनिवार्य हो जाता। यदि हम मानते हैं कि सब प्रतिमानों का स्रोत मानव का विवेक है, तो हम सहज ही यह मानते हैं कि नैतिक प्रतिमानों का स्रोत मानव का विवेक है और कदाचित् इसे स्वीकार करना किसी के लिए भी कठिन न होना चाहिए, क्योंकि विवेक को नैतिक भावना का पर्याय ही मान लिया जाता है। सौन्दर्य और विवेक का सम्बन्ध ही अधिक कठिनाई उत्पन्न किया करता है।

किन्तु सुन्दर के प्रतिमान और नैतिक के प्रतिमान में क्या सम्बन्ध है? क्या दोनों एक हैं? क्या समालोचना में एक के विचार में ही दूसरे का विचार निहित होता है, और एक का स्वीकार स्वत: दूसरे का भी स्वीकार हो जाता है? या कि दोनों अलग-अलग हैं? और अलग-अलग हैं, तो समालोचना के मूल्यांकन में क्या दोनों का विचार होना चाहिए, या केवल एक का?

प्रश्न सरल नहीं है। और उत्तर असंदिग्ध या विवादातीत है, यह कहना धोखा होगा। किन्तु प्रश्न अनिवार्य है, और किसी भी गम्भीर पाठक के लिए और विशेषकर किसी भी लेखक के लिए, उसका कुछ-न-कुछ उत्तर-भले ही एक अस्थायी और कामचलाऊ उत्तर-

आवश्यन्दातव्य है। क्योंकि लेखक के सम्मुख यह प्रश्न यदि आता है, तो यह उसकी सृजन-प्रेरणा का ही प्रश्न बन कर आता है, और बिना इसका उत्तर दिये (या पाये) उसका रचना में प्रवृत्त होना असम्भव हो जाता है-बल्कि उसका प्रवृत्त होना स्वयंमेव प्रश्न का उत्तर बन जाता है। और यदि कृति के मूल में इस प्रश्न का उत्तर निहित है, तो पाठक अथवा अध्येता के लिए भी उस उत्तर को जानना आवश्यक है, क्योंकि उसे जान कर ही वह कृति के मूल्यांकन की ओर अग्रसर हो सकता है। लेखक के उत्तर को ज्यों का त्यों मान लेना उसके लिए अनिवार्य नहीं है, लेकिन उसे जानना आवश्यक है। किन्तु यहाँ भी केवल सिद्धान्त-चर्चा में न रहकर उदाहरण लेकर चलना सुविधाजनक होगा।

पुराना आख्यान-साहित्य ले लीजिए-प्रबन्ध-काव्य ले लीजिए, गाथाएँ ले लीजिए। कथाकार कथा कहता था, घटनाओं का परात्पर घटित होना ही वहाँ सबसे अधिक महत्त्व रखता था। यह नहीं कि कथाकार में नैतिक बोध नहीं होता था, या कि वह अपनी नैतिक मान्यताओं को प्रकट नहीं करता था, अपने स्वीकृत नैतिक मूल्यों का इंगित नहीं देता था। इसके विपरीत वह पहले से ही कुछ अच्छे और कुछ बुरे पात्र लेकर चलता था-नैतिक मान्यताएँ बिलकुल स्पष्ट करके; और कभी-कभी अन्त में निष्कर्ष के रूप में किसी नैतिक मूल्य को साग्रह दोहरा भी देता था। बल्कि कभी यह नैतिक स्थापना पहले कर दी जाती थी और कथा केवल इसके दृष्टान्त के रूप में प्रस्तुत की जाती थी। पंचतन्त्र आदि में पग-पग पर नैतिक मूल्यों का आग्रह है : कहानी मानो उन्हें वहन करने का माध्यम भर है।

अब जरा इधर के आख्यान-साहित्य पर विचार कीजिए। घटना उसमें बिलकुल न हो ऐसा तो नहीं है। पर उसका घटित कभी-कभी बिलकुल आभ्यन्तर भी रहता है-स्थूल जगत में कोई घटना घटे बिना भी उसमें संघर्षों के तूफान उठते और लय हो जाते हैं। आज का लेखक किसी भी घटना में कत्र्ताओं के उद्देश्यों को देखता है। ‘अमुक हुआ’ उसके लिए पर्याप्त नहीं है; ‘अमुक किया गया’ वह कहता है, और ‘क्यों किया गया’ पर ही उसकी समूची जिज्ञासा केन्द्रित हो जाती है। कभी वह ‘अमुक किया गया’ की अवस्था तक भी नहीं जाता; केवल सूचित कर देता है कि ‘अमुक-अमुक कारण क्रियाशील है’ और यह पाठक पर छोड़ देता है कि वह समझ ले कि परिणामत: ‘क्या किया जाएगा।’

यह परिवर्तन साधारण या ऊपरी नहीं है, घटना से घटना-हेतु की ओर जाना साहित्यकार की बौद्धिक प्रवृत्ति की एक बहुत बड़ी क्रान्ति का सूचक है।

कुछ लोगों की धारणा है कि बुद्धि के बढ़ते वैभव के साथ मानव का नैतिक ह्रास हुआ है। हम ऐसा नहीं मानते-नहीं मान सकते। हमारी पहली प्रतिज्ञा ही इस परिणाम को असम्भव बना देती है। क्योंकि हम मानते हैं कि नीति-ज्ञान, विवेक, स्वयं बुद्धि का वैभव है। निरी आस्था के सहारे भी अनीति से बचा जा सकता है, अनैतिक कर्म न करने की अवस्था प्राप्त की जा सकती है, किन्तु नैतिकता के प्रति ऐसा नकारात्मक, अकर्मण्य दृष्टिकोण आज नैतिक बन्ध्यत्व का ही सूचक माना जाएगा। साहित्य की उपर्युल्लिखित नई प्रवृत्ति नैतिक शिथिलता या नैतिक मूल्यों के ह्रास की नहीं, नैतिक बोध की परिपक्वता की सूचक है। ईसा ने जब कहा था, ‘जज नॉट, लेस्ट यी बी जज्ड’ तब इसलिए नहीं कि वह नैतिक प्रतिमानों को तिलांजलि दे रहे थे, वरन् इसलिए कि वह आभ्यन्तर के घटित को उचित महत्त्व दे रहे थे-कोई नैतिक निर्णय बाह्य कर्म के आधार पर नहीं हो सकता, आभ्यन्तर उद्देश्यों का विचार होना चाहिए, यही उनके उपदेश का हेतु था। या कम से कम एक हेतु, क्योंकि दूसरा तो यह था ही कि जो अपराधी है उसे दंड न दो, संवेदना दो-मानवी समवेदना तो सबसे बड़ा नैतिक मूल्य है ही।

आख्यान-साहित्य यहाँ केवल उदाहरण के लिए लिया गया है। क्योंकि दृष्टि का जो परिवर्तन (संस्कार) दिखाना हमें अभीष्ट था, वह इसमें सबसे अधिक आसानी से और स्पष्ट देखा जा सकता है। समूचे साहित्य की यह प्रवृत्ति रही है कि कर्म के हेतु को पहचानो, निर्णय देने या दंड-व्यवस्था करने मत दौड़ो। और हेतु को पहचान कर भी रुको मत, आगे बढक़र संवेदना भी दो। हाँ, संवेदना देने के लिए बहुत बड़ा हृदय चाहिए, वह सबके पास नहीं भी हो सकता है, इसलिए संवेदना न भी दे पाओ तो कम से कम निर्णय की उतावली तो न करो!

हमने कहा कि यह समूचे साहित्य की प्रवृत्ति रही है। इस कथन में अतिव्याप्ति दोष है। उसे मर्यादित करने के लिए कहना चाहिए कि समूचे नहीं, किन्तु सारे मानववादी साहित्य की यह प्रवृत्ति रही है। क्योंकि इधर एक ऐसी प्रवृत्ति भी है जो इस हेतु-परीक्षण को अस्वीकार करती है, मानवी समवेदना के इस व्यापक प्रदान को अपव्यय मानती है। नैतिक मानदंड उसके पास नहीं है अथवा उसे तर्क से पुष्ट नहीं किया जाता ऐसा तो नहीं कहा जा सकता; पर उसका नीति-निरूपण ही द्वन्द्वात्मक और अवसरसेवी है। कह सकते हैं कि वह विवेकाश्रित नहीं, तर्काश्रित है। यह प्रवृत्ति कर्म-प्रेरणाओं की पड़ताल को प्रवंचना कहती है, क्योंकि वह कर्ता के कर्तृत्व को, भावना और अनुभूति की प्राथमिकता को अस्वीकार करती है। जिसे हम आभ्यन्तर कारण कहते हैं उसे वह स्थितिजन्य परिणाम मानती है। एक प्रकार से वह साहित्य की अब तक की प्रवृत्ति को उलट रही है: जहाँ अब तक साहित्य मानव को बँधी-बँधाई नैतिक लीकें से उबार कर कत्र्ता का गौरवपूर्ण पद देने की ओर प्रवृत्त था, वहाँ यह नई प्रवृत्ति फिर से बँधी-बँधाई लीकों लेकर उसमें मानव को डालने का उपक्रम कर रही है। अब तक की प्रवृत्ति यह थी कि साहित्य का पात्र एक नैतिक मानचित्र पर दौडऩे वाला जीवन मात्र न रह कर खुली भूमि पर राह बनाने वाला मानव हो; नई प्रवृत्ति उसे शतरंज का प्यादा बनाये दे रही है। कदाचित् उतना भी नहीं; मानव मानो छोटे-बड़े कई आकारों के कंकड़ हैं जिन्हें अपनी मोटी और बारीक चलनियों में से छान कर वह या तो गिट्टी बनाकर अपनी किसी इमारत की नींव में दाब देगी, या रोड़ी बना कर अपनी सडक़ पर बिछा देगी-और कितनी कृतज्ञ होगी रोड़ी इस प्रकार पथ को प्रशस्त करने के काम में लायी जा कर! किन्तु इस नई नैतिक संकीर्णता की चर्चा का यह स्थान नहीं है; यहाँ उसकी और पड़ताल प्रासंगिक भी नहीं है।

प्रश्न अभी वहीं का वहीं है; एक उदाहरण से उसे स्पष्ट भले ही किया गया हो, उसका उत्तर नहीं दिया गया है। कलाकृतियों में, उनके द्वारा, नैतिक मूल्यों का विस्तार होता है ऐसा हम कह सकते हैं कि समालोचना के लिए भी नैतिक मूल्यों पर और उनके विकास अथवा विस्तार पर विचार करना आवश्यक है-अर्थात् उस समालोचना के लिए, जो मूल्यांकन में प्रवृत्त है। पर प्रश्न यह है कि क्या यह विचार सौन्दर्य-मूल्यों के विचार से अलग है, उसका समान्तर है, या उसी में निहित है?

कहते हैं कि जो सुन्दर है वह शिवेतर हो ही नहीं सकता। इसे हम मानते हैं, किन्तु यह ध्यान रखना होगा कि इससे यह ध्वनि होती है कि दोनों पर्यायवाची और परस्पराश्रित हैं। ऐसा दावा करना कठिन है। जो यह मानते हैं कि जो सुन्दर है वह शिव भी होता ही है, वे भी कदाचित् अलग से ऐसा दावा करने में संकोच करेंगे। ऐसा ही होता तो आचार्यों को एक अलग उद्देश्य के रूप में ‘शिवतेर-क्षय’ चर्चा करना क्यों आवश्यक जान पड़ता? जो सुन्दर है वह अनैतिक नहीं होगा यह एक बात है, पर उससे शिवेतर-क्षय की माँग करना एक अतिरिक्त शक्ति या प्रभाव की माँग करना है। एक प्रकार से यह साहित्य में लक्षित होने वाले संस्कार के समान्तर समालोचना का संस्कार करना है, क्योंकि जैसे साहित्य में घटित से आगे बढक़र हम आभ्यन्तर हेतु अथवा प्रेरणा की छान-बीन देखते हैं, वैसे ही हम समालोचना में भी रूप-विचार से आगे बढक़र कृतिकार के उद्देश्य और कृति के प्रभाव की भी कसौटी करना चाहते हैं। और जिस प्रकार आभ्यन्तर हेतु के ज्ञान को हम अपने-आप में एक लक्ष्य नहीं मानते, समझते हैं कि उसका महत्त्व इसमें है कि वह हमें जीवन के प्रति नई और गहरी दृष्टि देता है, उसी प्रकार कृति के उद्देश्य और प्रभाव को पहचानना भी हम अपने-आप में एक लक्ष्य नहीं मानते, समझते हैं कि वह हमें मानव जगत का एक सम्पन्नतर अंग बनाता है।

विश्लेषण को चरम अवस्था तक ले जाएँ तो मानना होगा कि नैतिक मूल्य यानी शिवत्व के मूल्य, और सौन्दर्य के मूल्य अलग-अलग हैं और अलग विचार माँगते हैं। विशुद्ध तर्क के क्षेत्र में यह भी मान लेना होगा कि ऐसा हो सकता है कि कोई कलाकृति सुन्दर हो और अशिव हो, या कम से कम शिव न हो। यह मान कर भी पहली बात कैसे मानी जा सकती है? स्पष्ट ही यहाँ विरोधाभास है। वास्तव में उच्च कोटि का नैतिक बोध और उच्च कोटि का सौन्दर्य-बोध, कम से कम कृतिकार में प्राय: साथ-साथ चलते हैं। क्यों? क्योंकि दोनों बोध मूलत: बुद्धि के व्यापार हैं, मानव का विवेक ही दोनों के मूल्यों का स्रोत है और दोनों के प्रतिमानों या मानदंडों का आधार। विवेकशील मानव की-विशेषकर उस विवेकशील मानव की, जिसमें सृजनात्मक शक्ति या प्रतिभा भी है-ग्राहकता दोनों को ही पहचानती है। बुद्धि, और जिस पर बुद्धि आधारित है वह अनुभव-निरन्तर विकासशील और संस्कारशील है। निरन्तर सूक्ष्मतर होती हुई संवेदना एकांगी भी हो सकती है, पर जहाँ सर्जनात्मक शक्ति है वहाँ एकांगिता की सम्भावना कम है और पुष्ट सौन्दर्य-बोध के साथ पुष्ट नैतिक बोध भी होता ही है। जिस प्रकार कृतिकार सुन्दर का स्रष्टा होकर असुन्दर के सायास परित्याग के द्वारा सुन्दर की उपलब्धि नहीं करता, उसी प्रकार वह नैतिक द्रष्टा होकर सायास अनैतिक के विरोध द्वारा नैतिक को नहीं पाता; उसकी परिपुष्ट संवेदना सहज भाव से दोनों को पाती है-और देती है। इसीलिए कला हमें आनन्द भी देती है, हमारा उन्नयन भी करती है। आज का समालोचक इस बात को नाना वादों के आवरण में छिपा चाहे सकता है, इसे अमान्य नहीं कर सकता।

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5. साहित्य-बोध : आधुनिकता के तत्त्व

शीर्षक में यह स्वीकार कर लिया गया है कि लेख का विषय 'साहित्य-बोध' है; पर वास्तव में इस अर्थ में इसका प्रयोग चिंत्य है। यह मान भी लें कि लोक-व्यवहार बहुत से शब्दों को ऐसा विशेष अर्थ दे देता है जो यों उनसे सिद्ध न होता, तो भी अभी तक ऐसा जान पड़ता है कि समकालीन संदर्भ में 'साहित्य-बोध' की अपेक्षा 'संवेदना-बोध' ही अधिक सारमय संज्ञा है। इसलिए शीर्षक में प्रचलन के नाम पर साहित्य-बोध का उल्लेख कर के लेख में वास्तव में आधुनिक संवेदना की ही चर्चा की जाएगी।

क्या संवेदना के साथ 'नई' या 'पुरानी' ऐसा कोई विशेषण लगाना उचित है? क्या संवेदना ऐसे बदलती है? क्या मानव मात्र एक नहीं है और इसलिए क्या उसकी संवेदना भी एक नहीं है? क्या यह एकता देश और काल दोनों के आयाम में एक-सी अखंडित नहीं रहती?

नि:संदेह मानव एक है। किंतु जब हम विकासशील जीव-तत्व की बात करते हैं तब परिवर्तन के सिद्धांत को भी मान लेते हैं। चेतना स्वयं विकासशील है। संवेदना वह यंत्र है जिसके सहारे जीव-व्यष्टि अपने से इतर सब कुछ से संबंध जोड़ती है - वह संबंध एक साथ ही एकता का भी है और भिन्नता का भी, क्योंकि उसके सहारे जहाँ जीव-व्यष्टि अपने से इतर जगत को पहचानती है वहाँ उससे अपने को अलग भी करती है।

मानव प्राणी की संवेदना केवल दूसरे जीवों से और जड़ परिस्थिति से प्रतिक्रिया करती है, बल्कि अपनी प्रतिक्रियाओं का मूल्यांकन भी करती है। जीव अपने को परिस्थिति के अनुकूल बनाता है, मनुष्य परिस्थिति को अपने अनुकूल बनाने का चेतन और अवचेतन प्रयत्न करता है। ज्यों-ज्यों उसकी संवेदना विस्तार करती है, अर्थात ज्यों-ज्यों जगत से उसके संबंध नए-नए क्षेत्रों में प्रवेश करते जाते हैं, त्यों-त्यों उसका विवेक विकसित होता जाता है और निरी संवेदना के साथ एक अनिवार्य नैतिक बोध भी जुड़ जाता है। अच्छा और बुरा, ऊँचा और नीचा, मंगलमय और अमंगल, समाज-हितकारी और असामाजिक, ऐसी अनेक कोटियों के विचार उसके कम्र को ही नहीं, उसकी संवेदना को भी नियंत्रित करने लगते हैं क्योंकि वह अपनी भावनाओं को भी बुद्धि और विवेक की कसौटी पर परखने लगता है।

मानव और मानवेतर के संबंध के विकास का अर्थ से आज तक अध्ययन करना यहाँ अनावश्यक है। यहाँ इतना ही कहना यथेष्ट होगा कि विज्ञान की उन्नति के साथ-साथ मानव का मूल्य बढ़ गया है और मानवेत्तर का मूल्य घटता गया है। विज्ञान ने नैतिकता को ईश्वरपरक न मानकर मानव-सापेक्ष मान लिया है, मानव की उसकी परिकल्पना चाहे कितनी भी विस्तीर्ण है। ईश्वर के दरबार में सब प्राणी समान हो सकते थे; मनुष्य के दरबार में स्वभावत: वैसा नहीं हो सकता क्योंकि वह मनुष्य का दरबार है। इस प्रकार संसार का मानदंड मनुष्य को मानते ही हमारी नैतिकता के आधार में बहुत से अवश्यंभावी परिवर्तन होने लगते हैं। दूसरे शब्दों में, हमारी संवेदना का रूप बदल जाता है।

यह नहीं कि संवेदना नैतिक बोध का पर्याय है। किंतु पाप-पुण्य की भावना बदलते ही हमें सुख या पीड़ा देने वाली परिस्थितियों का रूप भी बदल जाता है, हमें चिंतित करनेवाले या उत्साह देने वाले तत्व भी दूसरे हो जाते हैं। पुराने आदर्श हास्यास्पद या दुर्बोध हो जाते हैं; जो बातें एक समय नगण्य थीं वे जीवनादर्श की सामर्थ्य ग्रहण कर लेती हैं। एक समय था जब कि चींटी या खटमल के लिए अपने प्राणों को जोखिम में डालने वाला पुण्यात्मा होता था, एक समय है कि कौवों और बंदरों को रोटी खिलाने वाला समाजद्रोही गिना जाता है क्योंकि मानव के लिए रोटी की कमी है। एक समय था जब कि धर्म के लिए जान गँवाने वाला सर्वोच्च सम्मान पाता था, एक समय है कि थोड़े-थोड़े समय के लिए दो-तीन बार धर्म-परिवर्तन कर लेना भी अनुचित नहीं समझा जाता बल्कि कुछ परिस्थितियों में अनुमोदित भी होता है।

वास्तव में जहाँ तक साहित्य या किसी भी कला का प्रश्न है संवेदना से हमारा अभिप्राय निरी ऐंद्रिय चेतना बिलकुल भिन्न कुछ होता है। गर्म और ठंडा, उजाला और अँधेरा, सादा और रंगीन, खट्टा और मीठा, नर्म और कठोर, कर्कश और मधुर, यह सब भी इंद्रिय-संवेद्य है। और संवेदना का यह स्तर नैतिकता से परे है। यह कह लीजिए कि यह उस का जैविक स्तर है, मानवीय स्तर नहीं। इस कोटि की संवेदना जीव मात्र में होती है और मानव में भी उसके जीव होने के नाते ही। किंतु जो संवेदना उसके नैतिक बोध के साथ गुँथी हुई है वह दूसरे स्तर की है। वह अनन्य रूप से मानव की है और उसी के कारण जीवों में मानव अद्वितीय है। इसी बात को हम दूसरे शब्दों में कह सकते हैं : संवेदना का संबंध जैविक परिस्थिति से नहीं, सांस्कृतिक परिस्थिति से है। जिस संवेदना की बात हम कर रहे हैं, जिसे 'साहित्य-बोध' का या और व्यापक स्तर पर कला-बोध का नाम दिया गया है, वह वास्तव में सांस्कृतिक बोध ही है और इसलिए संस्कृति के साथ-साथ बदलता भी रहता है।

[दो]

प्रत्येक संस्कृति के मूल में एक जीवन-दर्शन होता है। इसीलिए प्रत्येक कला के मूल में भी एक जीवन-दर्शन होता है। आवश्यक नहीं कि उसके प्रति कला सचेत भी हो; वह अंशत: या संपूर्णतया अवचेतन भी हो सकता है। पर उसका होना अनिवार्य है। कलाकार का विवेक उसी पर आश्रित है, उसी से उसके मूल्य या प्रतिमान नि:सृत होते हैं। कलाकार या साहित्यकार की शिक्षा अथवा संस्कार के कारण यह जीवन-दर्शन कम या अधिक चेतन हो सकता है। उसी के साथ-साथ उस दर्शन की उस कलाकार द्वारा की गई व्याख्या भी उतनी ही कम या अधिक विश्वास्य होती है।

जैसे-जैसे जीवन-दर्शन बदलता है वैसे ही संवेदना भी बदलती जाती है।

ऊपर जीव के प्रति सम्मान के बदलते रूप का संकेत किया गया है। मानव का जीवन किसी आत्यंतिक स्तर पर पशु के जीवन से अधिक मूल्यवान है यह सिद्ध करना कठिन है। किंतु फिर भी मानव का वध हत्या है; इसके लिए प्राणदंड की व्यवस्था है। जीव के वध के लिए केवल कुछ परिस्थितियों में दंड की व्यवस्था है जब कि वह वध के लिए नहीं बल्कि उससे संबद्ध अनावश्यक क्रूरता के लिए दिया जाता है। और हम स्वीकार करते हैं कि यह व्यवस्था-भेद उचित और नैतिक और न्याय-संगत और धर्म-सम्मत है। एक दूसरे स्तर पर जीव-दया के आदर्श में हम एक नए प्रकार का अंतर-विरोध देखते हैं : एक ओर करुणा अर्थात पर दुख कातरता का आदर्श है तो दूसरी ओर दु:ख को माया मान कर एक सामाजिक दृष्टि से निष्करुण भाव का प्रदर्शन भी जिसके कारण सभी पश्चिमी लोग सभी पूर्वीय लोगों को हृदयहीन मानते हैं।

नैतिकता की भावना बदलने का पहला कारण हुआ है धर्म-भावना का अथवा ईश्वर की परिकल्पना का रूप-परिवर्तन। जिसके कारण सृष्टि का, या कम-से-कम मानव के उससे संबंध का, केंद्र ईश्वर न रह कर स्वयं मनुष्य हो गया है। इस परिवर्तन को धर्मवान मनुष्य ने भी स्वीकार कर लिया है, चंडीदास की प्रसिद्ध उक्ति इसका एक उदाहरण है।

परिवर्तन का दूसरा कारण है प्रकृति की नई परिकल्पना। विज्ञान की पहली प्रगति ने मनुष्य को यह विश्वास दिया कि बुद्धि सब प्रश्नों का उत्तर दे सकती है। नि:संदेह ऐसा अखंड विश्वास विज्ञान की भी आधुनिक परिस्थिति में नहीं पाया जाता, किंतु अनुसंधान और परीक्षण की परंपरा अब भी विज्ञान की मुख्य पद्धति है। फिर भौतिक और जैविक विज्ञान की प्रगति की जो दो उपलब्धियाँ थीं उन्होंने विकास की क्रिया को कुछ ऐसा यांत्रिक रूप दे दिया कि वैज्ञानिक चिंतन भी एक प्रकार का यांत्रिक चिंतन हो गया। जड़ से चेतन की उत्पत्ति, और प्राथमिक जीवकोष से क्रमश: जटिलतर भीतरी रचना वाले जीवों की रचना की लंबी श्रृंखला के अंत में मानव जीवन का विकास : ये विज्ञान की मुख्य उपलब्धियाँ रहीं जिन्होंने परवर्ती मनोविज्ञान को भी एक यांत्रिक ढाँचा दे दिया। अगर मन भी एक यंत्र है, और बाहरी प्रभावों को नियंत्रित करके उसकी सभी क्रियाओं को अनुशासित और निर्दिष्ट किया जा सकता है, तो नैतिक बोध भी केवल एक यंत्रशासित कल्पना है। कोई मूल्य आत्यंतिक अथवा स्वयंसिद्ध मूल्य नहीं है; जैसे किसी मशीन को संचालित करने वाले कंट्रोल की अलग-अलग सुइयाँ या बटन अमुक एक स्थिति में रख देने से उस यंत्र का काम अमुक स्तर पर संपूर्ण रूप से निर्दिष्ट हो जाता है, उसी तरह मन के भी अलग-अलग कंट्रोल निश्चित करके उसकी सभी क्रियाओं, उसके मूल्य-बोध और नैतिक-बोध आदि को नियंत्रित किया जा सकता है; और यह नियंत्रण गुण और मात्रा दोनों पर एक-सा लागू हो सकता है।

नैतिकता सापेक्ष है, इस परिणाम तक पहुँचने के दूसरे कारण भी हुए। सापेक्षवाद के सिद्धांत ने देश-काल के ही नहीं, पदार्थ मात्र को एक संशयास्पद रूप दे दिया। पदार्थ के छोटे-से-छोटे अविभाज्य अंश को अणु मान कर इस परिभाषा पर अपना सारा शोध-कार्य आधारित करने वाला भौतिक विज्ञान जब उस बिंदु पर पहुँचा जहाँ यह भी संदिग्ध हो गया कि अणु अनिवार्यतया पदार्थ ही है और यह संभावना सामने आयी कि पदार्थ और शक्ति दोनों अनवरत एक-दूसरे में परिवर्तित होते रहते हैं और एक ही तत्व कभी स्थूल रूप में अणु हो जाता है और कभी सूक्ष्म रूप लेकर विशुद्ध वैद्युतिक आवेश अथवा शक्ति हो जाता है, तब वैज्ञानिक का यांत्रिक चिंतन भी संदिग्ध हो गया और एक नए प्रकार के अनिश्चय ने जन्म लिया। स्फट (क्रिस्टल) की रचना के अनुसंधान ने पदार्थ की असारता को और भी स्पष्ट किया। स्फट की आंतरिक रचना की परीक्षा ने जहाँ इस बात को क्रमश: और स्पष्ट किया कि उसके भीतर अनेक स्तर और 'चेहरे' होते हैं, वहाँ इस प्रश्न का कोई उत्तर नहीं दिया कि वे चेहरे, स्तर, कटाव और कोण होते किस 'पदार्थ' के हैं। अर्थात स्फट के शोध ने रचना या गठन का और गति का प्रमाण तो दिया, किंतु इसका कोई संकेत नहीं दिया कि वह रचना या गति किस तत्व की है। बल्कि यह भी कहा जा सकता है कि उसे यह संकेत मिला कि तत्व कुछ है ही नहीं, रचना ही रचना है और गति ही गति है।

वास्तव के शोध ने इस प्रकार जिस नई अवास्तविकता को जन्म दिया, उसमें संवेदना के प्रकार का बदल जाना स्वाभाविक ही है।

[तीन]

पदार्थ मात्र की हमारी कल्पना में परिवर्तन तक जाना कदाचित अनावश्यक है, यद्यपि जीवन-दर्शन का यह एक आवश्यक तत्व है क्योंकि मम और ममेतर का परस्पर संबंध जीव और जीवेतर के संबंध के व्यापकतर क्षेत्र का एक छोटा-सा हिस्सा-भर है। फिर भी यदि हम उतनी गहराई तक न जाकर अपने को प्राणि-समाज तक ही नहीं बल्कि उसके एक अंग मानव-समाज तक ही सीमित रखें, तब भी हम देख सकते हैं कि समाज-विज्ञान और अर्थ-विज्ञान की प्रगति ने कैसे सृष्टि में मनुष्य के स्थान को क्रमश: बदल दिया है।

मनुष्य जाति का वैज्ञानिक नाम 'होमो सेपिएंस' (ज्ञान-संपन्न प्राणी) ही इस बात को स्पष्ट कर देता है कि विज्ञान ने मनुष्य को उसके विवेक के कारण दूसरे जीवों से विशिष्ट माना है। भारतीय परंपरा 'धर्मो हि तेषामधिको विशेष:' मानती आयी थी; किंतु विज्ञान ने जहाँ मनुष्य की बुद्धि को आत्यांतिक माना वहाँ धर्म को सापेक्ष मान लिया -क्योंकि विवेक या नैतिक भावना परिस्थिति-जन्य और प्रभावों के अनुशासन द्वारा परिवर्तनीय मान ली गई। इस प्रकार इतर जीवों से मनुष्य को विशिष्ट करने वाली बुद्धि ने मनुष्य की बुद्धि के लिए एक नया संकट उत्पन्न किया; विशिष्ट करने वाली बुद्धि ही यह बताने लगी कि मानव किसी तरह भी पशु से भिन्न नहीं है। कहा जा सकता है कि पशु से मनुष्य को पृथक करने वाला विज्ञान मनुष्य को पशु बनाने लगा - यंत्र से मनुष्य को अलग करने वाला विज्ञान मनुष्य को यंत्र बनाता गया; और नैतिक बोध को निरूपित करने वाला विज्ञान - नैतिकता को संदिग्ध करता गया।

यह इस प्रगति का परिणाम है कि आज मानव की स्थिति को इस प्रकार निरूपित किया जाता है कि वह 'एक नीतिविहीन अथवा अतिनैतिक (क्योंकि यांत्रिक) समाज में रहने वाला नैतिक जीव' है। वास्तव में आज के सामाजिक रोग इसी अंतर्विरोध के परिणाम हैं। यदि आधुनिक मानव व्यक्ति भी आधुनिक यंत्र भाँति नैतिकताविहीन या अतिनैतिक होता तो भी उसकी चेतन में गुत्थियाँ न पड़तीं, और यदि समाज नैतिक होता तो भी यह परिस्थिति न आती।

आधुनिक मनोवैज्ञानिक उपचारों का भी आधार यही है। वे नैतिकता के किसी प्रश्न का हल नहीं बताते; न समाज को परिवर्तित करने के संबंध में कोई संकेत देते हैं। वे केवल अनैतिक समाज में रहने के तनाव को दूर कर देते हैं - यह संभव बना देते हैं कि नैतिकता-संपन्न व्यक्ति बिना अनावश्यक क्लेश के उस अनैतिक समाज में रह सके। मनोविज्ञान की परिभाषाओं के अनुसार मानव समाज को बदलने या सुधारने की, समाज-कल्याण की कोई भी चेष्टा ऐसा मन या व्यक्तित्व नहीं कर सकता जिसे स्वस्थ या साधारण (नॉर्मल) कहा जा सके, समाज को आगे ले जाने वाले व्यक्ति का अस्वस्थ और असंतुलित होना उन परिभाषाओं के अनुसार अनिवार्य है - इससे मनौवैज्ञानिकों को कोई चिंता या उलझन नहीं होती। उन्हें यह नहीं दीखता कि यदि ऐसा है तो कहीं उनका मनोविज्ञान अधूरा है या उन का 'ऐप्रोच' गलत है।

साहित्यकार को, साहित्यिक कृतिकार को, शायद यह सब थोड़ा-थोड़ा दीखता है, भले ही धुँधला और स्पष्ट दीखता हो।

[चार]

जिसे यहाँ आधुनिक संवेदना कहा गया है, और जिसको ही लेख के शीर्षक में आधुनिक साहित्य-बोध की संज्ञा दी गई है, उसकी पृष्ठिका में कहीं यह सब कुछ है। ऐसा नहीं है कि ये सब विचार और तर्क-वितर्क सभी आधुनिक लेखकों के चेतन में हों, या कि सब में समान रूप से हों। बल्कि यह भी नहीं कहा जा सकता कि सब में ये विचार हैं ही। किंतु इतना अवश्य है कि आज का लेखक अपेक्षया अधिक चेतन है और इसलिए परिस्थिति के प्रभावों को अधिक तेजी से और अधिक मात्रा में ग्रहण करता है।

कहा जा सकता है कि इस ढंग की परिस्थिति-चेतना कृतिकार के लिए हितकर नहीं है। एक प्रकार से आत्मचेतन (सेल्फ-कान्शस) होना आधुनिक साहित्यकार का अभिशाप है। अभिशाप नहीं तो दंड तो है ही! उसकी लाचारी ही है कि वह अपनी संवेदना और प्रतिभा से होने वाली उपलब्धि-भर पाठक, श्रोता अथवा ग्राहक के सामने रख कर सन्तोष कर लेना चाहिये तो भी नहीं कर सकता; वह बाध्य होता है कि इससे आगे वह यह भी स्वयं समझाए कि आधुनिक संवेदना क्या है और क्यों है - वह आधुनिक क्यों है और संवेदना भी क्यों है!

[पाँच]

जीवन की प्रक्रिया का यह बढ़ता हुआ ज्ञान, जीवन-यंत्र की यांत्रिक गति का यह बढ़ता हुआ परिचय अपने-आप में एक समस्या है। जितना ही अधिक हमारा जीवन सतह पर आता जाता है उतना ही सतह बढ़ती जाती है; अर्थात उसके अनुपात में आभ्यंतर जीवन उतना ही छोटा होता जाता है। जितना ही अधिक इस सतह पर जीते हैं, उतना ही छोटा होता जाता है। जितना ही अधिक हम सतह पर जीते हैं, उतना ही सतह पर भीड़ भी होती जाती है, स्वयं सतहों की भीड़ होती जाती है। जीवन-स्फटिक रचना ही रचना है, गति ही गति है; तत्व कुछ है या नहीं, हम नहीं जानते!

हम बार-बार गहरे उतरे

कितना गहरे! पर

जब-जब जो कुछ भी लाए

उससे बस

और सतह-पर भीड़ बढ़ गई।

सतहें-सतहें-

सब फेंक रही हैं लौट-लौट

वह कौंध

जिसे हम भर न रख सके

प्याले में।

छिछली, उथली, घनी चौंध से अंध

घूमते हैं हम

अपने रचे हुए

मायावी उजियाले में।

आधुनिक साहित्यकार के लिए इस परिस्थिति को अनदेखा करना असंभव है लेकिन देख कर स्वीकार कर लेना भी असंभव है। जितना ही वह दीखती है उतना ही उसे भेद कर भीतर गहराई में पैठना और आवश्यक हो जाता है।

इस प्रकार संवेदना में द्विभाजन हो जाता है। एक तो संवेदना नई, उस पर इस प्रकार द्विभाजित, यह बात आधुनिक साहित्यकार की समस्या को और अपने पाठक से उसकी दूरी को एक नया आयाम दे देती है

द्विभाजन को दूर करना, सतह और गहराई के विरोध को हल करना यह साहित्यकार की भीतरी समस्या है - गहराई की समस्या है। अपने इस प्रयत्न को अपने सामने रखना, चेतन रखना, यह उसकी बाहरी समस्या है - सतह की समस्या है। किंतु भीतरी और बाहरी का यह भेद उसके लिए अत्यंत महत्त्वपूर्ण और उसकी दृष्टि से आत्यांतिक होकर भी पाठक के साथ उसके संबंध को अंतिम रूप से निरूपित नहीं करता है। क्योंकि प्रयत्न करने और प्रयत्न को सामने रखने के अलावा पाठक के संदर्भ में एक और उत्तरदायित्व भी उसका है - कि वह अपने प्रयत्न को ही अपने सामने रखे बल्कि उस खंडित यथार्थ को भी सामने रखे जिसके कारण वह प्रयत्न है और जो पाठक के और उस के बीच संबंध का आधार है।

[छ:]

इस संदर्भ में हिंदी के बारे में क्या कहा जा सकता है? हिंदी और हिंदी मात्र का लेखक होते हुए उसके बारे में कुछ कहने में संकोच करना स्वाभाविक है। एक तो कृतिकार का समकालीन साहित्य के बारे में कुछ भी कहना जोखिम का काम होता है जब तक कि पाठक इतना सतर्क और उदार न हो कि कृतिकार और समीक्षक की बातों का मूल्यांकन करने की अलग-अलग कसौटियाँ रख सके और यह समझ सके कि यह अलगाव पाखंड नहीं बल्कि दृष्टि है। दूसरे, यह व्यक्ति-विशेष न तो अपने को हिंदी की ओर से व्यापक रूप से कुछ कहने का अधिकारी मानता है, न साधारणतया दूसरों ने ही कभी उसमें इसकी पात्रता देखी है! अपने विचारों में वह अकेला तो कदाचित नहीं है, पर बहुत ही अल्प-मत का है; और उस अल्प-मत का भी अधिभाग कदाचित हिंदीतर भारतीय भाषाओं में पाया जाएगा यह संभावना उसके सम्मुख रहती है।

हिंदी के विषय में यहाँ जो कुछ कहा गया है वह इस मर्यादा के साथ ही ग्रहण किया जाना चाहिए और मान्य अथवा अमान्य ठहराया जाना चाहिए।

हिंदी की दृष्टि भारत की दूसरी भाषाओं की अपेक्षा अधिक व्यापक, अधिक 'भारतीय' दृष्टि रही है। इसके ऐतिहासिक कारण रहे हैं। किंतु आज वह दृष्टि अधिक वैज्ञानिक भी है ऐसा नहीं कहा जा सकता। यों कह लीजिए कि ऐसा नहीं जान पड़ता कि आधुनिक विज्ञान की प्रगति का प्रभाव उस पर अधिक पड़ा है या उसमें अधिक लक्षित होता है। हिंदी का पाठक अभी तक केवल हिंदी का या मुख्यतया हिंदी का है। हिंदी का आलोचक भी केवल हिंदी का, या अधिक-से-अधिक संस्कृत के परिवेश को लेकर हिंदी का आलोचक है। ऐसा मानने का कारण है कि हिंदी का लेखक इन दोनों की अपेक्षा कुछ अधिक खुला है। यह भी दीखता है कि कुछ दूसरी भारतीय भाषाओं के लेखक हिंदी लेखक की अपेक्षा अधिक खुले हैं। अपवाद प्रत्येक वर्ग में और प्रत्येक भाषा में होंगे; किंतु यहाँ न अपवादों की बात की जा रही है, न कोई निरपवाद स्थापना की जा रही है। गुण-दोष, अच्छाई-बुराई की बात भी यह नहीं है, केवल वैज्ञानिक प्रगति के प्रभावों के प्रति खुलेपन की बात है और विनयपूर्वक यह स्वीकार करना चाहिए कि विज्ञान की उपलब्धियों को ग्रहण करने, उनका चिंतन और मनन करने के प्रति हिंदी का लेखक उतना सजग नहीं है जितना वह हो सकता है; और हिंदी का पाठक या समीक्षक तो उतना भी सजग नहीं जितना कि लेखक है।

[सात]

आधुनिक साहित्यकार की संवेदना का कुछ-कुछ निरूपण इन बातों से हो गया होगा। आधुनिकता जो परिवर्तन लायी है, और उनके कारण संप्रेषण की जो समस्याएँ उत्पन्न हो गई हैं, उनका कुछ अनुमान भी इनसे हो गया होगा। आधुनिक लेखक का और आधुनिक पाठक के बीच जो समस्या है, या दूसरे शब्दों में साहित्यकार की समस्या लेखक और पाठक के संबंध के क्षेत्र में जो रूप लेती है, उसके बारे में कुछ शब्द और कहे जा सकते हैं।

मूल्यों की परिवर्तशीलता अथवा शाश्वत मूल्यों के मतवाद और विवाद यहाँ प्रासंगिक नहीं हैं। यह नहीं कहा जा रहा है कि शाश्वत मूल्य कुछ नहीं हैं, न ही यह कहा जा रहा है कि मूल्यों में कोई परिवर्तन नहीं आया है। प्रेषणीयता अब भी बुनियादी साहित्यिक मूल्य है और संप्रेषण साहित्यकार का बुनियादी काम, किंतु बदलती हुई परिस्थितियों में प्रेष्य वस्तु और प्रेषण के साधन दोनों बदल गए हैं। यह लेखक को जानना है, पाठक को समझना है और आलोचक को मानना है - और सभी को यह यत्न करना है कि जहाँ वे दूसरे पक्ष से यह माँग करें कि उनका काम कम कठिन बनाया जाए वहाँ स्वयं भी अपनी क्षमता बढ़ाने की ओर दत्त-चित्त हों।

संस्कृति के संबंध में जो भ्रांत धारणाएँ फैली हुई हैं वे समस्या को और उलझाती हैं। हमारे अनेक पूर्वग्रह कुछ बुनियादी असत्यों पर आधारित हैं। जब तक सत्य का शोध न किया जाए तब तक इन पूर्वाग्रहों से मुक्ति पाना कठिन है। जो लोग भारतीय संस्कृति की दुहाई देते हैं वे प्राय: भूल जाते हैं कि अन्य सभी संस्कृतियों की भाँति भारतीय संस्कृति भी एक मिश्र अथवा सामासिक संस्कृति है - कि संस्कृति मात्र समन्वित होती है क्योंकि एक समन्वित दृष्टि ही उसकी एकता का आधार होती है। दोनों में अभिन्न संबंध होने पर भी 'परंपरा' केवल इतिहास अथवा घटना-क्रम नहीं है; वह घटना-क्रम से मिलने वाला जातिगत अनुभव है - अनुभव ही नहीं बल्कि उस अनुभव का ऐसा जीवित स्पंदन जो जाति को अभिप्रेरित करता है। हम भारतीय साहित्य के संदर्भ में पश्चिम के प्रभाव की चर्चा करते हैं अथवा दूसरे एशियाई देशों पर भारत के प्रभाव की बात करते हैं; लेकिन यह भूल जाते हैं कि प्रभावित होने या प्रभाव ग्रहण करने की भी एक प्रतिभा होती है और कुछ अवदानों का श्रेय दाता को नहीं, प्राप्ता को मिलना चाहिए। जो सांस्कृतिक दाय दूसरों को हमसे मिला, किंतु उसके बाद दूसरों के जातिगत अनुभवों में जीवित रहा और हममें खो गया, उसका श्रेय लेने का हमें क्या अधिकार है? या उन्हें क्यों उसे परदेशीय मानना चाहिए? वह मूलत: भारतीय होकर भी जब उनकी परंपरा का अंग हो गया है तब उनका है, हमारे इतिहास का होकर भी जब हमारी परंपरा से च्युत हो गया है और हममें क्रियमाण नहीं है, तब हमारा नहीं है। पश्चिम के रोमांटिक आंदोलनों में हमारा बड़ा प्रभाव रहा, किंतु वह प्रभाव वहाँ क्यों और कैसे प्रकट हुआ इसका उत्तर वहीं के जातीय जीवन और अनुभव से मिलेगा। वह पूर्व से आया हो कर भी हमारा दान नहीं, उनका उपार्जन था। इसीलिए हमने जब फिर उस प्रभाव को ग्रहण किया तब यह भाव हममें नहीं था कि यह अपनी ही खोई या बहुत दिनों की भूली वस्तु हमें मिल गई। और आलोचक वर्ग तो आज भी आग्रहशील है कि हमने पश्चिम का अनुकरण किया! दूसरी ओर छायावाद में पश्चिम का प्रभाव जिस रूप में प्रकट हुआ उसका उत्स पश्चिम से हो कर भी पश्चिम को अधिकार नहीं है कि वह उस पर गर्व करे, वह हमारी उपलब्धि है।

संस्कृति की भाँति ही हमारी भाषा भी मिश्र भाषा है। इसका परिणाम यह हुआ कि अलग-अलग वर्गों में अलग-अलग प्रकार की भाषा बोली जाती है और साहित्य-समीक्षा के क्षेत्रों में भी कई परिभाषाएँ हो गई हैं जो अपने-अपने व्यवहार करने वालों में परस्पर संवेद्य नहीं होती हैं। आचार्य-वर्ग में ऐसा कहने वाले अनेक हैं कि 'आज की आलोचना दुर्बोध अथवा अबोध्य है।' किंतु क्या आज के पाठक के लिए शास्त्रीय आलोचना कम दुर्बोध अथवा अबोध्य है? इतना ही नहीं, क्या वह अपर्याप्त, और बहुत कुछ अप्रासंगिक अथवा अनुपयोगी भी नहीं हो गई है?

हमारा उद्देश्य किसी को ललकारने, चुनौती देने, या किसी पर आरोप करने या अभियोग लगाने का नहीं है। वादी या पक्षधर या किसी पक्षधर का पैरोकार होना हमें अभीष्ट नहीं-या अधिक-से-अधिक साहित्य-कर्मी मात्र का पैरोकार होना अभीष्ट है और इस संज्ञा की परिधि के भीतर लेखक, पाठक और आलोचक तीनों को ग्रहण कर लिया गया है। आधुनिक संवेदना का प्रश्न तीनों के लिए समान रूप से महत्त्व रखता है क्योंकि तीनों का अपना-अपना प्रश्न है। आधुनिकता की, आधुनिक जीवन की चुनौती सबके लिए एक-सी है और उसका सामना वे सहकर्मी होकर ही कर सकते हैं।

(शीर्ष पर वापस)

 

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