अमरवल्लरी
An aristocrat must do
without close personal love.
–H.G.Wells
मैं दीर्घायु हूँ, चिरजीवी हूँ, पर यह बेल, जिसके पाश में मेरा शरीर,
मेरा अंग-अंग बँधा हुआ है, यह वल्लरी क्षयहीन है, अमर है।
मैं न जाने कब से यहीं खड़ा
हूँ-अचल, निर्विकार, निरीह खड़ा हूँ। न-जाने कितनी बार शिशिर ऋतु में
मैंने अपनी पर्णहीन अनाच्छादित शाखाओं से कुहरे की कठोरता को फोडक़र
अपने नियन्ता से मूक प्रार्थना की है; न जाने कितनी बार ग्रीष्म में
मेरी जड़ों के सूख जाने से तृषित सहस्रों पत्र-रूप चक्षुओं से मैं
आकाश की ओर देखा किया हूँ; न-जाने कितनी बार हेमन्त के आने पर शिशिर
के भावी कष्टों की चिन्ता से मैं पीला पड़ गया हूँ; न जाने कितनी बार
वसन्त, उस आह्लादक, उन्मादक वसन्त में, नीबू के परिमल से सुरभित समीर
में मुझे रोमांच हुआ है और लोमवत् मेरे पत्तों ने कम्पित होकर स्फीत
सरसर ध्वनि करके अपना हर्ष प्रकट किया है! इधर कुछ दिनों से मेरा
शरीर क्षणी हो गया है, मेरी त्वचा में झुर्रियाँ पड़ गयी हैं, और
शारीरिक अनुभूतियों के प्रति मैं उदासीन हो गया हूँ। मेरे पत्ते झड़
गये हैं, ग्रीष्म और शिशिर दोनों ही को मैं उपेक्षा की दृष्टि से
देखता हूँ। किन्तु वसन्त? न-जाने उसके ध्यान में ही कौन-सा जादू है,
उसकी स्मृतिमात्र में कौन-सी शक्ति है, कि मेरी इन सिकुड़ी हुई
धमिनियों में भी नए संजीवन का संचार होने लगता है, और साथ ही एक
लालसामय अनुताप मेरी नस-नस में फैल जाता है...
वसन्त... उसकी स्मृतियों में
सुख है और कसक भी। जब मेरे चारों ओर क्षितिज तक विस्तृत उन अलसी और
पोस्त के फलों के खेत एक रात-भर ही में विकसित हो उठते थे जब मैं
अपने आपको सहसा एक सुमन-समुद्र के बीच में खड़ा हुआ पाता था, तब मुझे
ऐसा भास होता था, मानो एक हरित सागर की नीलिमामय लहरों को वसन्त के
अंशुमाली की रश्मियों ने आरक्त कर दिया हो। मेरा हृदय आनन्द और
कृतज्ञता से भर जाता था। पर उस कृतज्ञता में सन्तोष नहीं होता था उस
आनन्द से मेरे हृदय की व्यथा दबती नहीं थी। मुझे उस सौन्दर्यच्छटा
में पड़ कर एकाएक अपनी कुरूपता की याद आ जाती थी, एक जलन मेरी शान्ति
को उड़ा देती थी...
कल्पना की जड़ मन की व्यथा
में होती है। जब मुझे अपनी कुरूपता के प्रति ग्लानि होती, तब मैं एक
संसार की रचना करने लगता-ऐसे संसार की, जिसमें पीपल के वृक्षों में
भी फूल लगते हैं... और एक रंग के नहीं, अनेक रंगों के जिसमें शाखें
जगमगा उठें! एक शाखा में सहस्रदल शोण-कमल, दूसरी पर कुमुद, तीसरी पर
नील नलिन, चौथी पर चम्पक, पाँचवीं पर गुलाब, ओर सब ओर, फुनगियों तक
पर नाना रंगों के अन्य पुष्प-कैसी सुखद थी वह कल्पना! पर अब उस
कल्पना की स्मृति से क्या लाभ है? अब तो मैं बूढ़ा हो गया हूँ, और
रक्तबीज की तरह अक्षय यह बेल मुझ पर पूरा अधिकार जमा चुकी है। मैं
विराट् हूँ, अचल हूँ; किन्तु मेरी महत्ता और अचलता ने ही मुझे इस
अमरवल्ली के सूक्ष्म, चंचल तन्तुओं के आगे इतना नि:सहाय बना दिया!
किसी दिन वह कृशतनु, पददलिता थी, और आज यह मुझे बाँध कर, घोंट कर,
झुका कर, अपनी विजय-कामना पूरी करने की ओर प्रवृत्त हो रही है!
कैसे सुदृढ़ हैं इसके बन्धन!
कितने दारुण, कितने उग्र! लालसा की तरह अदम्य, पीड़ा की तरह असह्य,
दावानल की तरह उत्तप्त, ये बन्धन मेरे निर्बल शरीर को घोंट कर उसकी
स्फूर्ति और संजीवन को निकाल देना चाहते हैं। और मैं, निराश और
मुमूर्ष मैं, स्मृतियों के बोझ से दिक्पालों की तरह दबा हुआ मैं,
चुपचाप उसी कामना के आगे धीरे-धीरे अपना अस्तित्व मिटा रहा हूँ।
फिर भी कभी-कभी... ऐसा अनुभव
होता है कि इस वल्लरी के स्पर्श में कोई लोमहर्षक तत्त्व है जिस
प्रकार कोई पुरानी, विस्मृत तान संगीतकार के स्पर्शमात्र से सजग,
सजीव हो उठती है, जिस प्रकार बूढ़ा, शुभ्रकेश, म्रियमाण शिशिर, वसन्त
का सहारा पाकर क्षण भर के लिए दीप्त हो उठता है, जिस प्रकार तरुणी के
अन्ध-विश्वास पूर्ण, कोमल, स्निग्ध प्रेम में पडक़र बूढ़े के हृदय में
गुदगुदी होने लगती है, नई कामनाएँ उदित हो जाती हैं-उसी प्रकार मेरे
शरीर में, मेरी शाखाओं में, मेरे पत्तों में, मेरे रोम-रोम में इसका
विलुलित स्पर्श, एक स्नेहमय जलन का, एक दीप्तिमय लालसा का, एक
अननुभूत, अकथ, अविश्लिष्ट, उन्मत्त प्रेमोल्लास का संचार कर देता है!
मैं सोचने लगता हॅँू कि अगर मेरी शाखें भी उतनी ही लचकदार होतीं,
जितनी इस अमर बेल की हैं, तो मैं स्वयं उसके आश्लेषण को दृढ़तर कर
देता, उसके बन्धन को सव्य कस देता! पर विश्वकर्मा ने मुझे ऐसा
निकम्मा बना दिया-मैं प्रेम पा सकता हूँ, दे नहीं सकता; प्रेम-पाश
में बँध सकता हूँ, बाँध नहीं सकता; प्रेम की प्रस्फुटन-चेष्टा समझ
सकता हूँ व्यक्त नहीं कर सकता! जब प्रेम-रस में मैं विमुग्ध होकर
अपने हृदय के भाव व्यक्त करने की चेष्टा करता हूँ, तब सहसा मुझे अपनी
स्थूलता, अचलता का ज्ञान होता है, और मेरी वे चिर-विचारित,
चिर-निर्दिष्ट, अदमनीय चेष्टाएँ जड़ हो जाती हैं; मेरे सम्भ्रम का
एकमात्र चिह्न वह पत्तों का कम्पन, मेरी आकुलता की अभिव्यक्ति का
एकमात्र साधन उनका कोमल सरसर शब्द ही रह जाता है। इतना भीमकाय होकर
भी एक लतिका के आगे मैं कितना नि:सहाय हूँ!
वसन्त, सुमन, पराग, समीर,
रसोल्लास... कैसा संयोग होता है! पर अब, अपने जीवन के हेमन्त-काल
में, क्यों मैं वसन्त की कल्पना करता हूँ? अब वे सब मेरे जीवन में
नहीं आ सकते, अब मैं एक और ही संसार का वासी हो गया हूँ, जिसमें सुमन
नहीं प्रस्फुटित होते, स्मृतियाँ जागती हैं, जिसमें मदालस नहीं,
विरक्ति-शैथिल्य भरा हुआ है! मेरे चारों ओर अब भी वसन्त में अलसी और
पोस्त के फूल खिलते हैं, हँसते हैं, नाचते हैं, फिर चले जाते हैं।
मेरा हृदय उमड़ आता है; पर उसमें अनुरक्ति नहीं होती, उस रूप-सागर के
मध्य में खड़ा होकर भी मैं अपनी सुदूरता का ही अनुभव करता हूँ, मानो
आकाश-गंगा का ध्यान कर रहा होऊँ! जिस सृष्टि से मैं अलग हो गया हूँ,
उसकी कामना मैं नहीं करता, उसमें भाग लेने की लालसा हृदय में नहीं
होती। मेरा स्थान एक-दूसरे ही युग में है, और उसी का प्रत्यवलोकन
मेरा आधार है, उसी की स्मृतियाँ मेरा पोषण करती हैं।
यह वल्लरी अमर है, अनन्त है।
जब मैं गिर जाऊँगा, तब भी शायद यह मेरे शरीर पर लिपटी रहेगी और उसमें
बची हुई शक्ति को चूसती रहेगी।
पर जब इसका अंकुर प्रस्फुटित
हुआ था, तब मैं क्षीण नहीं था। मेरे सुगठित शरीर में ताजा रस नाचता
था; मेरा हृदय प्रकृति-संगीत में लवलीन होकर नाचता था; मैं स्वयं
यौवन रंग में प्रमत्त होकर नाच रहा था... जब मेरी विस्तृत जड़ों के
बीच में कहीं से इसका छोटा-सा अंकुर निकला, उसके पीले-पीले कोमल, तरल
तन्तु इधर-उधर सहारे की आशा में फैले और कुछ न पाकर मुरझाने लगे, तब
मैंने कितनी प्रसन्नता से इसे शरण दी थी, कितना आनन्द मुझे इसके
शिशुवत कोमल स्पर्श से हुआ था! उस समय शायद वात्सल्य-भाव ही मेरे
हृदय में सर्वोपरि था। जब वह बढऩे लगी, जब उसके शरीर में एक नई आभा
आ गयी, उसके स्पर्श में वह सरलता, वह स्नेह नहीं रहा; उसमें एक
नूतनता आविर्भूत हुई, एक विचित्र भाव आ गया, जिसमें मेरी स्वतन्त्रता
नहीं रही। जब भी मैं कुछ सोचना चाहता, उसी का ध्यान आ जाता। उस ध्यान
में लालसा थी, और साथ ही कुछ लज्जा-सी; स्वार्थ था और साथ ही उत्सर्ग
हो जाने की इच्छा; तृष्णा थी और साथ ही तृप्ति भी; ग्लानि थी और साथ
ही अनुरक्ति भी! जिस भाव को आज मैं पूरी तरह समझ गया हूँ, उसका मुझे
उन दिनों आभास भी नहीं हुआ था। उन दिनों इस परिवर्तन पर मुझे विस्मय
ही होता रहता था-और वह विस्मय भी आनन्द से, ग्लानि से, लालसा से,
तृप्ति से, परिपूरित रहता था!
मेरे चरणों के पास एक
छोटा-सा चिकना पत्थर पड़ा हुआ था, जिसमें गाँव की स्त्रियाँ आकर
सिन्दूर और तेल का लेप किया करती थीं। कभी-कभी वे अपने कोमल हाथों से
सिन्दूर का एक लम्बा-सा टीका मेरे ऊपर लगा देती थीं, कोई-कोई युवती
आकर सहज स्वभाव से मेरे दोनों और बाँहें फैला कर मेरे इस सुडौल शरीर
से अंक भर लेती थी, कोई-कोई मेरा गाढ़ालिंगन करके अपने कपोल मेरी
कठिन त्वचा से छूआ कर कुछ चुपचाप आँसू बहाकर चली जाती थी-मानो उसे
कुछ सान्त्वना मिल गयी हो। मानव संसार की उन सुकोमल लतिकाओं के
स्पर्श में, उनके परिष्वंग में, मुझे आसक्ति नहीं थी। कभी-कभी, जब
कोई सरला अभागिनि मुझे अपनी बाँहों से घेर कर दीन स्वर से कहती,
‘‘देवता, मेरी इच्छा कब पूरी होगी?’’ तब मैं दयाद्र्र हो जाता और
अपने पत्ते हिला कर कुछ कहना चाहता। न जाने वे मेरा इंगित समझतीं या
नहीं। न-जाने उन्हें कभी मेरी कृतज्ञता का ज्ञान होता या नहीं। मैं
यही सोचता रहता कि अगर मैं नीरस पीपल न होकर अशोक वृक्ष होता, तो
अपनी कृतज्ञता तो जता सकता; उन प्रेम-विह्वलताओं के स्पर्श से
पुष्पित हो, पुष्प-भार से झुक कर उन्हें नमस्कार तो कर सकता! पर मैं
यह सोचता हुआ मूक ही रह जाता, और वे चली जातीं?
पर उनके स्पर्श से मुझे
रोमांच नहीं होता था, मैं अपने शिखर से जड़ों तक काँपने नहीं लगता
था। कभी-कभी जब कोई स्त्री आकर मेरी आश्रिता इस अमरवल्लरी के पुष्प
तोडक़र मेरे पैरों में डाल देती, तब मेरे मर्म पर आघात पहुँचता था; पर
उससे मुझे जितनी व्यथा होती, जितना क्रोध आता, उसे भी मैं व्यक्त
नहीं कर पाता था। मैं विश्वकर्मा से मूक प्रार्थना करने लगता-
विश्वकर्मा मूक प्रार्थना भी सुन लेते हैं-कि उस स्त्री को कोई भी
वैसी ही दारुण वेदना हो! वह मुझे देवता मानकर पुष्पों से पूजा करती
थी, और मैं उसके प्रति इतनी नीच कामना करता था-किन्तु प्रेम के
प्रमाद में बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है!
कैसा विचित्र था वह प्रेम!
अगर मैं जानता होता! अगर मैं जानता होता।
किन्तु क्या जानकर इस जाल
में न फँसता? आज मैं जानता हूँ, फिर भी तो इस वल्लरी का मुझ पर इतना
अधिकार है, फिर भी तो मैं इसके स्पर्श से गद्गद हो उठता हूँ?
प्रेम आईने की तरह स्वच्छ
रहता है, प्रत्येक व्यक्ति उसमें अपना ही प्रतिबिम्ब पाता है, और एक
बार जब वह खंडित हो जाता है, तब जुड़ता नहीं। अगर किसी प्रकार
निरन्तर प्रयत्न से हम उसके भग्नावशिष्ट खंडों को जोडक़र रख भी लें तो
उसमें पुरानी क्रान्ति नहीं आती। वह सदा के लिए कलंकित हो जाता है।
स्नेह अनेकों चोटें सहता है, कुचला जाकर भी पुन: उठ खड़ा होता है;
किन्तु प्रेम में अभिमान बहुत अधिक होता है, वह एक बार तिरस्कृत होकर
सदा के लिए विमुख हो जाता है। आज इस वल्लरी के प्रति मेरा अनुराग
बहुत है, पर उसमें प्रेम का नाम भी नहीं है-वह स्नेह का ही प्रतिरूप
है। वह विह्वलता प्रेम नहीं है, वह प्रेम की स्मृति की कसक की है।
अपने इस प्रेम के अभिनय का
जब मैं प्रत्यावलोकन करता हूँ, तब मुझे एक जलन-सी होती है। प्रेम से
मुझे जो आशा थी, वह पूर्ण नहीं हुई, और उसकी आपूर्ति के लिए मैं किसी
प्रकार भी दोषी नहीं था। मुझे यहाँ प्रतीत होता है कि नियन्ता ने
मेरे प्रति, और इस लता के प्रति, और उन अबोध स्त्रियों के प्रति, जो
मुझे देवता कहकर सम्बोधित करती थीं, न्याय नहीं किया। निर्दोष होते
हुए भी हम अपने किसी अधिकार से, जिसका मैं वर्णन नहीं कर सकता, वंचित
रह गये। जब इस भाव से, इस प्रवंचना के ज्ञान से, मैं उद्विग्न हो
जाता हूँ, तब मुझे इच्छा होती है कि मैं वृक्ष न होकर मानव होता। इस
तरह एक ही स्थान में बद्ध होकर न रहता, इधर-उधर घूमकर अपने प्रेम को
व्यक्त कर सकता, और-और इस तरह भुजहीन असहाय न होता!
किन्तु क्या मानव-हृदय मेरी
संज्ञा से इतना भिन्न है? क्या मानवों के प्रेम में और मेरे में इतनी
असमानता है? क्या मानव में भी हमारी तरह मूकवेदनाएँ नहीं होती, क्या
उनमें भी प्रेम के अंकुर का अँधेरे में ही प्रस्फुटन और विकसन और
अवसान नहीं हो जाता? क्या वे प्रेम-विह्वल होकर अपने-आपको अभिव्यक्ति
के सर्वथा अयोग्य नहीं पाते, क्या उनमें लज्जा अनुरक्ति का और ग्लानि
लालसा का अनुगमन नहीं करती? ये मानव हैं, हम वनस्पति; ये चलायमान
हैं, हम स्थिर; पर साथ ही हम उनकी अपेक्षा बहुत दीर्घजीवी हैं, और
हमारी संयम-शक्ति भी उनसे बहुत अधिक बढ़ी-चढ़ी है। उनका प्रेम सफल
होकर भी शीघ्र समाप्त हो जाता है, और हममें प्रेम की जलन ही कितने
वर्षों तक कसकती रहती है।
बहुत दिनों की बात है। उन दिनों मुझे इस वल्लरी के स्पर्श में मादकता
का भास हुआ ही था, इसके आलिंगन से गुदगुदी होनी आरम्भ ही हुई थी! उन
दिनों मैं उस नए प्रेम का विकास देखने और समझने में ही इतना व्यस्त
था कि आसपास होनेवाली घटनाओं में मेरी आसक्ति बिलकुल नहीं थी,
कभी-कभी विमनस्क होकर मैं उन्हें एक आँख देखभर लेता था। वह जो बात
मैं कहने लगा हूँ, उसे मैं नित्यप्रति देखा करता था, किन्तु देखते
हुए भी नहीं देखना था। और जब वह बात खत्म हो गयी, तब उसकी ओर मेरा
उतना ध्यान भी नहीं रहा। पर मेरे जाने बिना ही मुझ पर अपनी छाप छोड़
गयी, और आज मुझे वह बात नहीं, उस बात की छाप ही दीख रही है। मैं मानो
प्रभात में बालुकामय भूमि पर अंकित पदचिह्नों को देखकर, निशीथ की
नीरवता में उधर से गयी हुई अभिसारिका की कल्पना कर रहा हूँ!
मेरे चरणों पर पड़े हुए उस
पत्थर की पूजा करने जो स्त्रियाँ आती थीं, उनमें कभी-कभी कोई नई
मूर्ति आ जाती थी, और कुछ दिन आती रहने के बाद लुप्त हो जाती थी। ये
नई मूर्तियाँ प्राय: बहुत ही लज्जाशील होतीं, प्राय: उनके मुख
फुलकारी के लाल और पीले अवगुंठन से ढके रहते, और वे धोती इतनी नीची
बाँधती कि उनके पैरों के नुपूर भी न दीख पाते! केवल मेरे समीप आकर जब
वे प्रणाम करने को झुकतीं, तब उनका गोधूम-वर्ण मुख क्षण-भर के लिए
अनाच्छादित हो जाता, क्षण-भर उनके मस्तक का सिन्दूर कृष्ण मेघों में
दामिनी की तरह चमक जाता, क्षण-भर के लिए उनके उर पर विलुलित हारावली
मुझे दीख जाती, क्षणभर के लिए पैरों की किंकिणियाँ उद्घाटित होकर चुप
हो जाती और मुग्ध होकर बाह्य संसार की छटा को और अपनी स्वामिनियों के
सौन्दर्य को निखरने लगतीं! फिर सब-कुछ पूर्ववत हो जाता, अवगुंठन उन
मुखों पर अपना प्रभुत्व दिखाने के लिए उन्हें छिपाकर रख लेते,
हारावलियाँ उन स्निग्ध उरों में छिपकर सो जातीं, और नूपुर भी मुँह
छिपाकर धीरे-धीरे हँसने लगते।
एक बार उन नई मूर्तियों में
एक ऐसी मूर्ति आयी,जो अन्य सभी से भिन्न थी। वह सबकी आँख बचाकर मेरे
पास आती और शीघ्रता से प्रणाम करके चली जाती, मानो डरती हो कि कोई
उसे देख न ले। उसके पैरों में नुपूर नहीं बजते थे, गले में हारावली
नहीं होती थी, मुख पर अवगुंठन नहीं होता था, ललाट पर सिन्दूर तिलक
नहीं था। अन्य स्त्रियाँ रंग-बिरंगे वस्त्राभूषण पहनकर आती थीं, वह
शुभ्र वसना थी। अन्य स्त्रियाँ प्रात:काल आती थीं; पर उसका कोई
निर्दिष्ट समय नहीं था। कभी प्रात: काल, कभी दिन में, कभी सन्ध्या को
वह आती थी... जिस दिन उसका आना संन्ध्या को होता था, उस दिन वह
प्रणाम और प्रदक्षिण कर लेने के बाद मेरे पास ही इस अमरवल्लरी का
सहारा लेकर भूमि पर बैठ जाती, और बहुत देर तक अपने सामने सूर्यास्त
के चित्र-विचित्र मेघ-समूहों को, अलसी और पोस्त के पुष्पमय खेतों को,
और गाँव से आनेवाले छोटे-से धूलभरे पथ को देखती रहती... उसके मुख पर
अतीत स्मृति जनित वेदना का भाव व्यक्त हो जाता, कभी-कभी वह एक दीर्घ
नि:श्वास छोड़ देती... उस समय सहानुभूति और संवेदना में पत्ते भी
सरसर ध्वनि कर उठते... वह कभी कुछ कहती नहीं थी, कभी कोई प्रार्थना
नहीं करती थी। मुझे चुपचाप प्रणाम करती और चली जाती-या वहीं बैठकर
किसी के ध्यान में लीन हो जाती थी। उस ध्यान में कभी-कभी वह कुछ
गुनगुनाती थी, पर उसका स्वर इतना अस्पष्ट होता था कि मैं पूरी तरह
समझ नहीं पाता।
पहले मेरा ध्यान उसकी ओर
नहीं जाता था; किन्तु जब वह नित्य ही गोधूलि वेला में वहाँ आकर बैठने
लगी, तब धीरे-धीरे मैं उसकी ओर आकृष्ट होने लगा। जब सूर्य की प्रखरता
कम होने लगती, तब मैं उसकी प्रतीक्षा करने लग जाता था-कभी अगर उसके
आने में विलम्ब हो जाता, तो मैं कुछ उद्विग्न-सा हो उठता...
एक दिन वह आयी नहीं। उस दिन
मैं बहुत देर तक उसकी प्रतीक्षा करता रहा। सूर्यास्त हुआ, अँधेरा
हुआ, तारे निकल आये, आकाश-गंगा ने गगन को विदीर्ण कर दिया, पर वह
नहीं आयी।
उसके दूसरे दिन भी नहीं,
तीसरे दिन भी नहीं-बहुत दिनों तक नहीं। जब मैंने उसकी प्रतीक्षा करनी
छोड़ दी, तब सन्ध्या के एकान्त में मैं अपनी उद्भ्रान्त मनोगति को इस
अमर वल्लरी की ओर ही प्रवृत्त करने लगा।
जब मैं उसे बिलकुल भूल गया,
तब एक दिन वह सहसा आ गयी। वह दिन मुझे भली प्रकार याद है। उस दिन
आँधी चल रही थी, काले-काले बादल घिर आये थे, ठंड खूब हो रही थी। मैं
सोच रहा था कि वर्षा आएगी, तो अमरवल्लरी की रक्षा कैसे करूँगा। एकाएक
मैंने देखा, उस धूलिधूसर पथ पर वह चली आ रही थी। वह अब भी पहले की
भाँति अलंकृत थी, उसका शरीर अब भी श्वेत वस्त्रों से आच्छादित था; पर
उसकी आकृति बदल गयी थी, उसका सौन्दर्य लुप्त हो गया था। उसके शरीर
में काठिन्य आ गया था, मुख पर झुर्रियाँ पड़ गयी थीं, आँखें घँस गयी
थीं, होंठ ढीले होकर नीचे लटक गये थे। जब उस पहली मूर्ति से मैंने
उसकी तुलना की, तो मेरा अन्तस्तल काँप गया। पर मैं चुपचाप प्रतीक्षा
में खड़ा रहा। उसने मेरे पास आकर मुझे प्रणाम नहीं किया, न इस वल्लरी
का सहारा लेकर बैठी ही। उसने एक बार चारों ओर देखा, फिर बाँहें
फैलाकर मुझसे लिपट गयी और फूट-फूटकर रोने लगी। उसके तप्त आँसू मेरी
त्वचा को सींचने लगे।
मैंने देखा, वह एकवसना थी,
और वह वस्त्र भी फटा हुआ था। उसके केश व्यस्त हो रहे थे, शरीर धूल से
भरा हुआ था, पैरों से रक्त बह रहा था।
वह रोते-रोते कुछ बोलने भी
लगी...
‘‘देवता, मैं पहले ही परित्यक्ता थी, पर मेरी बुद्धि खो गयी थी! पर
फिर भी तुम्हारी शरण छोड़ गयी! मैं कृतघ्न थी, चली गयी। किस आशा से?
प्रेम-धोखा-प्रवंचना! प्रतारणा! उस छली ने मुझे ठग लिया,
फिर-फिर-देवता, मैं पतिता, भ्रष्टा कलंकिनी हूँ। मुझे गाँव के लोगों
ने मारकर निकाल दिया, अब मैं-मैं निर्लज्जा हूँ! अब तुम्हारी शरण आयी
हूँ, अकेली नहीं, कलंक के भार से दबी हुई, अपनी कोख में कलंक धारण
किये हुए!’’
उसका वह रुदन असह्य था, पर
हमको विश्वकर्मा ने चुपचाप सभी कुछ सहने को बनाया है!
मुझ पर उसका पाश शिथिल हो
गया, उसके हाथ फिसलने लगे, पर उसकी मूर्छा दूर न हुई। रात बहुत बीत
गयी, उसका संज्ञा-शून्य शरीर काँपने लगा, फिर अकड़ गया... वह मूर्छा
में ही फिर बड़बड़ाने लगी :
‘‘देवता हो? छली! कितना
धोखा, कितनी नीचता! प्रेम की बातें करते तुम्हारी जीभ न जल गयी!
तुम्हारी शरण आऊँगी, तुम्हारी! वह कलंक का टीका नहीं है, मेरा पुत्र
है! तुम नीच थे, तुमने मुझे अलग कर दिया। वह मेरा है, तुम्हारे पाप
से क्यों कलंकित हो गया? तुम देवता हो देवता। मैं तुम्हारी शरण से
भाग गयी थी। पर वह पाप-उसमें तो मेरा भी हाथ था? तुम्हारी शरण में
मुझे शान्ति मिलेगी- मैं ही तो उसके पास गयी थी-कलंकिनी! पर वह अबोध
शिशु तो निर्दोष है, वह क्यों जलेगा? क्यों काला होगा? देवता, तुम
बड़े निर्दय हो। उसे छोड़ देना! मैं मरूँगी, जलूँगी, पर वह बचकर कहाँ
जाएगा! देवता, देवता, तुम उसका पोषण करना!’’
उसके शरीर का कम्पन बन्द हो
गया, प्रलाप भी शान्त हो गया-पर कुछ ही देर के लिए!
धीरे-धीरे तारागण का लोप हो गया, आकाश-गंगा भी छिप गयी। केवल पूर्व
में एक प्रोज्ज्वल तारा जगमगाता रह गया। पवन की शीतलता एकाएक बढ़
गयी, अन्धकार भी प्रगाढ़तर हो गया... उस महाशान्ति में एकाएक उसके
शरीर में संजीवन आ गया, वह एक हृदय-विदारक चीख मारकर उठी, उठते ही
उसने अपने एकमात्र वस्त्र को फाड़ डाला। फिर वह गिर गयी, उसके अंगों
के उत्क्षेप बन्द हो गये, उसका शरीर शिथिल, नि:स्पन्द हो गया...
जब सूर्य का प्रकाश हुआ, तब
मैंने देखा, वह मेरे चरणों में पड़ी है,
उसका विवस्त्र और संज्ञाहीन शरीर पीला पड़ गया था, और उकसे अंग नीले
पड़ गये थे... उसके पास ही उसका फटा हुआ एकमात्र वस्त्र रक्त से भीगा
हुआ पड़ा था-और उसके ऊपर एक मलिन, दुर्गन्धमय माँसपिंड... और वर्षा
के प्रवाह में वह रक्त धुलकर, बहकर, बहुत दूर तक फैल कर कीचड़ को लाल
कर रहा था...
कैसी भैरव थी वह आहुति!
क्या यही है मानवों का प्रेम!
शायद मेरी धारण गलत है। शायद
मेरे अपने प्रेम की उच्छृंखलता ने मेरी कल्पना को भी उद्भ्रान्त कर
दिया है। मानव अल्पायु होकर भी इतने नीच हो सकते हैं, इसका सहसा
विश्वास नहीं होता! पर जब मुझे ध्यान हो आता है कि मेरी जड़ें दो ऐसी
बलियों के रक्तसे सिक्त हैं, जिनके अन्त का एकमात्र कारण यही था,
जिसे वे मानव-प्रेम कहते हैं, तब मुझे मानवता के प्रति ग्लानि होने
लगती है। पर उन दोनों का बलिदान प्रेम की वेदी पर हुआ था, या इन
मानवों के समाज की, या वासना की? वह स्त्री तो वंचित थी, उसने तो
प्रेम के उत्तर में वासना ही पायी थी। पर उसका अपना प्रेम तो दूषित
नहीं था, वह तो वासना की दासी नहीं थी। और समाज-समाज ने तो पहले ही
उसे ठुकरा दिया था, समाज ने तो उससे कोई सम्बन्ध नहीं रखा था। और उस
अज्ञात शिशु ने समाज का क्या बिगाड़ा था, वह वासना में कब पड़ा था?
मेरे नीचे उस पत्थर की पूजा
करने कितनी ही स्त्रियाँ आती थीं, वे तो सभी प्रसन्नवदना होती थीं,
उनकी बात मैं क्यों सोचता? मानव-प्रेम की असफलता का एक यही उदाहरण
मैंने देखा था, उसी पर क्यों अपना चित्त स्थिर किये हूँ? वे जो इतनी
आच्छादित, अवगुंठित, अलंकृत चपलाएँ वहाँ आती थीं और सहज स्वभाव से या
कभी-कभी सम्भ्रम से मेरे सिन्दूर-तिलक लगाती और मेरा आलिंगन कर लेती
थीं, उनके प्रणय तो सभी सुखमय हो होंगे, उनका प्रेम तो इतना विमूढ़
और विवेकहीन नहीं होता होगा? और फिर मानवों का तो प्रेम के विषय में
आत्मनिर्णय करने का अधिकार होता है? उनके जीवन में तो ऐसा नहीं होता
कि विधाता-या मनुष्य ही- जिस वल्लरी को उनके निकट अंकुरित कर दें,
उसी से प्रणय करने को बाध्य हो जाना पड़े?
पर मैंने सुना है-गाँव से
पूजा के लिए आनेवाली उन स्त्रियों के मुख से ही सुना है-कि उनके समाज
में भी इस प्रकार के अनिच्छित बन्धन होते हैं। एक बार मैंने देखा भी
था-देखा तो नहीं था, किन्तु कुछ ऐसे दृश्य देखे थे जिससे मुझे इसकी
अनुभूति हुई थी...
कभी-कभी, सन्ध्या के
पक्षिरव-कूजित एकान्त में, मुझे एकाएक इस बात का उद्बोधन होता है कि
मेरा जीवन-इतना लम्बा जीवन!...व्यर्थ बीत गया... इस वल्लरी के
अनिश्चित बन्धन से-पर जो मुझे पागल कर देता है मेरे हृदय में
उथल-पुथल मचा देता है, मेरे शरीर को दर्द और व्यथा से विह्वल कर देता
है, जिससे छूट जाने की मैं कल्पना भी नहीं कर सकता, उस बन्धन को
अनिश्चित कैसे कहूँ? इस उद्बोधन की उग्रता को मिटाने के लिए मैं
कितना प्रयत्न करता हूँ, पर वह जाती नहीं... मेरे हृदय में यह
निरर्थकता का ज्ञान, यह जीने की इच्छा, यह संचित शक्ति का व्यय करने
की कामना, किसी और भाव के लिए स्थान ही नहीं छोड़ती! मैं चाहता हूँ,
अपने व्यक्तित्व को प्रकृति की विशालता में मिटा दूँ, इस निरर्थकता
के ज्ञान को दबा दूँ और जैसा कभी अपने यौवन-काल में था, वैसा ही फिर
से हो जाऊँ; पर कहाँ एक बूढ़े वृद्ध की चाह और कहाँ विधाता का अमिट
निर्देश! मैं बोलना चाहता हूँ-मेरे जिह्वा नहीं है; हिलना चाहता
हूँ-मेरे पैर नहीं हैं; रोना चाहता हूँ-पर उसके लिए आँखें ही नहीं
हैं तो आँसू कहाँ से आएँगे... मैं चाहता हूँ, किसी से प्रेम कर
पाऊँ-इतना विशाल, इतना अचल, इतना चिरस्थायी प्रेम कि संसार उससे भर
जाए; पर मेरी अपनी विशालता, मेरी अपनी अचलता, मेरा अपना स्थायित्व इस
कामना में बाधा डालता है! मैं प्रेम की अभिव्यक्तिकर नहीं सकता, और
जब करना चाहता हूँ, तब लज्जित हो जाता हूँ... जितना विशाल मैं हूँ,
इतनी विशाल धुरा अपने प्रेम के लिए कहाँ पाऊँ? और किसी अकिंचन वस्तु
से प्रेम करना प्रेम की अवहेलना है...
यह अमरवल्लरी-इसमें
स्थायित्व है, दृढ़ता है, पर यह चंचला भी है, और इसमें विशालता भी
नहीं है-यह तो मेरे ही शरीर के रस से पुष्ट होती है!
एक स्मृति-सी मेरे अन्तस्तल
में घूम रही है, पर सामने नहीं आती, मुझे उसकी उपस्थिति का आभास ही
होता है। जिस प्रकार कुहरे में जलता हुआ दीपक नहीं दीख पड़ता, पर
उससे आलोकित तुषारपुंज दीखता रहता, उसी तरह स्मृति स्वयं नहीं प्रकट
होती, परन्तु स्मृति मेरे अन्तस्तल में काँप रही है।
उस स्मृति का सम्बन्ध इसी
प्रेम की विशालता से था, इतना मैं जानता हूँ; पर क्या सम्बन्ध था,
नहीं याद आता...
एक और घटना याद आती है, जिसने किसी समय एकाएक विद्युत की तरह मेरे
हृदय को आलोकित कर दिया था-पर इतने प्रदीप्त आलोक से कि मैं बहुत देर
के लिए चकाचौंध हो गया था...
उन दिनों मेरी पूजा-या मेरे
चरणस्थित देवता की पूजा-नहीं होती थी। जब से वहाँ रक्त-प्रलिप्त देह
और माँस पिंड पाया गया, तब से लोग शायद मुझसे डरने लगे थे। कभी-कभी
सन्ध्या को जब कोई बटोही उधर से निकलता था, तब एक बार सम्भ्रम से
मेरी ओर देखकर जल्दी-जल्दी चलने लग जाता था। दिन में कभी-कभी लडक़े उस
धूल-भरे पथ में आकर खड़े हो जाते और वहीं से मेरी ओर इंगित करके
चिल्लाते, ‘‘भुतहा!’’ मैं उनका अभिप्राय नहीं समझा था, फिर भी उनके
शब्दों में उपेक्षा और तिरस्कार का स्पष्ट भाव मुझे बहुत दु:ख देता
था...
क्या मानवों की भक्ति उतनी
ही अस्थायिनी है, जितना उनका प्रेम। अभी उस दिन मैं गाँव के विधाता
की तरह पूजित था, इतनी स्त्रियाँ मेरे चरणों में सिर नवाती थीं और
प्रार्थना करती थीं, ‘‘देवता, मेरा दु:ख मिटा दो!’’ मुझमें दु:ख
मिटाने की शक्ति नहीं थी, पर एक मूक सहानुभूति तो थी। मेरी अचलता
उनकी मेरे प्रति श्रद्धा कम नहीं करती थी, बढ़ाती ही थी। पर जब उस
स्त्री ने आकर मेरे चरणों में अपना दु:ख स्वयं मिटा लिया, तब उनके
हृदय से आदर उठ गया! इतने दिन से मैं दु:ख की कथाएँ सुना करता था,
देखा कुछ नहीं था। उस दिन मैंने देख लिया कि मानवता का दु:ख कहाँ है,
पर उस ज्ञान से ही मैं कलुषित हो गया! जब मैं दु:ख जानता ही नहीं था,
तब इतने प्रार्थी आते थे। अब मैं जान गया हूँ, तब वे दु:ख-निवारण की
प्रार्थना करने नहीं आते, मेरा ही दु:ख बढ़ा रहे हैं।
भक्ति तो अस्थायिनी है
ही-भक्ति और प्रेम का कुछ सम्बन्ध है। मैं अभी तक प्रेम ही के नहीं
समझ पाया हूँ, यद्यपि इसकी मुझे स्वयं अनुभूति हुई है। भक्ति-भक्ति
मैंने देखी ही तो है!
जब मेरे वे उन्माद के दिन
बीत गये, जब मेरी त्वचा में कठोरता आने लगी, मेरी शाखाओं में गाँठें
पड़ गयीं, तब मुझे पे्रम का नया उद्बोधन हुआ। मेरे बिखरे हुए विचारों
में फिर एक नए आशा-भाव का संचार हुआ, संसार मानो फिर से संगीत से भर
गया...
कीर्ति-अच्छी या बुरी-कुछ भी
नहीं रहती। एक दिन मैंने अपनी सत्कीर्ति को धूल में मिलते देखा था,
एक दिन ऐसा आया कि मेरी कुकीर्ति भी बुझ गयी। सत्कीर्ति का मन्दिर एक
क्षण ही में गिर गया था, कुकीर्ति के मिटने में वर्षों लग गये-पर वह
मिट गये। लोग फिर मेरे निकट आने लगे; पूजा-भाव से नहीं, उपेक्षा से।
गाँव की स्त्रियाँ फिर मेरे चरणों में बैठने लगीं; आदर से नहीं, दर्प
से, या कभी थकी होने के कारण। बालिकाएँ फिर मेरे आसपास एकत्र होकर
नाचने लगीं; न श्रद्धा से, न तिरस्कार से, केवल इसलिए कि घर से भाग
कर वहाँ आ जाने में उन्हें आनन्द आता था। मेरे टूटे हुए मन्दिर का
पुनर्निर्माण तो नहीं हुआ, पर उसके भग्रावशेष पर चूना फिर गया!
पर उस खंडहर से ही नई आशा
उत्पन्न हुई!
जब प्रभात होता था, मेरा
शिखर तोतों के समूह से एकाएक ही कूजित हो उठता था, शीतल पवन में मेरे
पत्ते धीरे-धीरे काँपने लगते थे, न जाने कहाँ से आकर कमलों की सुरभि
वातावरण को भर देती थी, इस वल्लरी के शरीर में भी एक उल्लास के कम्पन
का अनुभव मुझे होता था; जब सारा संसार एक साथ ही कम्पित, सुरभित,
आलोकित हो उठता था, तब वह आती थी और उन खेतों में, जिनमें छटी हुई
घास में, अर्धविस्मृत अलसी और पोस्त के फूलों का प्रेत नाच रहा था,
बहुत देर तक इधर-उधर घूमती रहती थी। फिर जब धूप बहुत बढ़ जाती थी, जब
उसका मुख श्रम से आरक्त हो जाता था, और उस पर स्वेद-बिन्दु चमकने
लगते थे, तब वह हँसती हुई आकर मेरी छाया में बैठ जाती थी।
उसकी वेश-भूषा विचित्र थी।
गाँव की स्त्रियों में मैंने वह नहीं देखी थी। वह प्राय: श्वेत या
नीला आभरण पहनती थी, और उसके केश आँचल से ढके नहीं रहते थे। उसका मुख
नमित नहीं रहता था, वह सदा सामने की ओर देखती थी। उसकी आँखों में
भीरुता नहीं थी, अनुराग था, और साथ ही थी एक अव्यक्त ललकार-मानो वे
संसार से पूछ रही हों, ‘‘अगर मैं तुम्हारी रीति को तोड़ूँ, तो तुम
क्या कर लोगे?’’
वह वहाँ समाधिस्थ-सी होकर
बैठी रहती, उसके मुख पर का वह मुग्ध भाव देख कर मालूम होता कि वह
किसी अकथनीय सुख की आन्तरिक अनुभूति कर रही हो। मैं सोचता रहता कि
कौन-सी ऐसी बात हो सकती है, जिसका स्मृतिमात्र इतनी सुखद है! कितने
ही दिन वह आती रही, नित्य ही उसके मुख पर आत्म-विस्मृति का वह भाव
जाग्रत होता, नित्य ही वह एक घंटे तक ध्यानस्थ रहती और आकर चली जाती,
पर मुझे उस पर परमानन्द के निर्झर का स्रोत न मालूम होता।
फिर एक दिन एकाएक भेद खुल
गया-जिस परिहासमय देवता की उपासना मैंने की थी, वह भी उसी की उपासिका
थी; परन्तु परिणाम हमारे कितने भिन्न थे!
एक दिन वह सदा की भाँति अपने
ध्यान में लीन बैठी थी। उस गाँव से आने वाले पथ पर एक युवक धीरे-धीरे
आया, और मेरे पीछे छिप कर उसे देखने लगा। उसका ध्यान नहीं हटा, वह
पूर्ववत् बैठी रही। जब उसकी समाधि समाप्त हो गयी, तब वह उठकर जाने
लगी; तब भी उसने नवागंतुक को नहीं देखा।
वह युवक स्मित-मुख से
धीरे-धीरे गाने लगा :
चूनरी विचित्र स्याम सजिकै मुबारक जू
ढाँकि नख-सिख से निपट सकुचाति है;
चन्द्रमै लपेटि कै समेटि कै नखत मानो
दिन को प्रणाम किये रात चली जाति है!
वह चौंक कर घूमी, फिर बोली,
‘‘तुम-यहाँ!’’ उसके बाद जो कुछ हुआ उसका वर्णन मैं नहीं कर सकता! वह
था कुछ नहीं-केेवल कोमल शब्दों का विनिमय, आँखों का इधर-उधर भटक कर
मिलन और फिर नमन-बस! पर मेरे लिए उसमें एक अभूतपूर्व आनन्द था-न जाने
क्यों।
कुछ दिन तक नित्य यही होता
रहा। किसी दिन वह पहले आती, किसी दिन युवक, पर दोनों ही के मुख पर वह
विमुग्धता का, आत्म-विस्मृति का भाव रहता था। जिस दिन युवक पहले आता,
वह मेरी छाया में बैठकर गाता :
नामसमेतं कृतसंकेतं वादयते मृदुवेणुम्-
बहुमनुतेऽतनु ते तनुसंगतपवनचलितमपि रेणुम्!
और जिस दिन वह पहले आती, वह
उन खेतों में घूमती रहती, कभी-कभी ओस से भीगा हुआ एक-आध तृण उठाकर
दाँतों से धीरे-धीरे कुतरने लगती।
एक दिन वह घूमते-घूमते थक
गयी, और मेरे पत्तों की सघन छाया में इस वल्लरी के बन्धन का मेखलावत्
पहनकर बैठ गयी। युवक नहीं आया।
दोपहर तक वह अकेली बैठी
रही-उसके अंग-अंग में प्रतीक्षा थी, पर व्यग्रता नहीं थी। जब वह नहीं
आया, तब वह कहने लगी-न जाने किसे सम्बोधित करके, मुझे या इस वल्लरी
को, या अपने-आपको, या किसी अनुपस्थित व्यक्ति को-कहने लगी :
‘‘यह उचित ही हुआ। और क्या हो सकता था? अगर कर्तव्य भूल कर सुख ही
खोजने का नाम प्रेम होता, तो-! मैं जो-कुछ सोचती हूँ, समझती हूँ,
अनुभव करती हूँ, उसका अणुमात्र भी व्यक्त नहीं कर सकी-पर इससे क्या?
जो कुछ हृदय में था-है-उससे मेरा जीवन तो आलोकित हो गया है। प्रेम
में दु:ख-सुख, शान्ति और व्यथा, मिलन और विच्छेद, सभी हैं, बिना
वैचित्र्य के प्रेमी जी नहीं सकता... नहीं तो जिसे हम प्रेम कहते
हैं, उसमें सार क्या है?’’
वह उठी और चली गयी। मेरी
छाया से ही निकल कर नहीं, मेरे जीवन से निकल गयी। पर उसके मुख पर
मलिनता नहीं थी, अब भी वही आत्म-विस्मृति उसकी आँखों में नाच रही
थी...
मेरे लिए उसका वहीं अवसान हो
गया। उसके साथ ही मानवी प्रेम की मेरी अनुभूति भी समाप्त हो गयी।
शायद प्रेम की सबसे अच्छी व्याख्या ही यही है कि इतने वर्षों के
अन्वेषण के बाद भी मेरा सारा ज्ञान एक प्रश्न ही में समाप्त हो जाता
है-’’नहीं तो, जिसे हम प्रेम कहते हैं, उसमें सार क्या है?’’ किन्तु
इतने वर्षों में जिस अभिप्राय को, जिस सार्थकता को, मैं नहीं खोज
पाता था, वह उसी स्त्री के एक ही प्रश्न में मुझे मिल गयी। उस दिन
मैं समझने लगा कि अभिव्यक्ति प्रेम के लिए आवश्यक नहीं है... उसने
कहा तो था, ‘‘जो कुछ मेरे हृदय में था-है-उससे मेरा जीवन तो आलोकित
हो गया है!’’ मैं अपना प्रेम नहीं व्यक्त कर सका, मेरा जीवन एक
प्रकार से न्यून, अपूर्ण रह गया, पर इससे क्या? उस दीप्तिमय
आत्म-विस्मृति का एक क्षण भी इतने दिनों की व्यथा को सार्थक कर देता
है!
मैं देखता हूँ, संसार दो
महाशक्तियों का घोर संघर्ष है। ये शक्तियाँ एक-दूसरे से भिन्न नहीं
हैं, एक ही प्रकृति के दो विभिन्न पथ हैं। एक संयोजक है-इसका भास
फूलों से भौरों का मिलन में, विटप से लता के आश्लेषण में, चन्द्रमा
से ज्योत्स्ना के सम्बन्ध में, रात्रि से अन्धकार के प्रणय में, उषा
से आलोक के रेक्य में, होता है; दूसरी शक्ति विच्छेदक है-इसका भास
आँधी से पेड़ों के विनाश में, विद्युत से लतिकाओं के झुलसने में,
दावानल से वनों के जलने में, शकुन्त द्वारा कपोतों के मारे जाने में
होता है... कभी-कभी दोनों शक्तियों का एक ही घटना में ऐसा सम्मिलन
होता है कि हम भौचक हो जाते हैं, कुछ भी समझ नहीं पाते। प्रेम भी
शायद ऐसी ही घटना है...
कभी-कभी मुझे ऐसा मालूम होता
है कि इतना कुछ देख और पाकर भी मैं वंचित ही नहीं, अछूत, परित्यक्त
रह गया हूँ, मुझे बन्धुत्व की, सखाओं की कामना होती है; पर पीपल के
वृक्ष के लिए बन्धु कहाँ है, संवेदनाकहाँ है, दया कहाँ है; कभी पर्वत
को भी सहारे की आवश्यकता होती है? मैं इतना शक्तिशाली नही हूँ कि
बन्धुओं की कामना-उग्र कामना-ही मेरे हृदय के अन्तस्तल में न हो;
किन्तु फिर भी देखने में मैं इतना विशाल हूँ, दीर्घकाय हूँ, दृढ़
हूँ, कि मुझ पर दया करने का, मेरे प्रति बन्धुत्व-भाव का ध्यान भी
किसी को नहीं होता! उत्पत्ति और प्रस्फुटन की असंख्य क्रियाएँ मेरे
चारों ओर होती हैं, और बीच में मैं वैसे ही अकेला खड़ा रह जाता हूँ,
जैसे पुष्पित उपत्यकाओं से घिरा हुआ पर्वत-शृंग...
पर उसी समय मेरे हृदय में यह
भाव उठता है कि मुझे यह दुखड़ा रोने का कोई अधिकार नहीं है, मैंने
जीवन में सब-कुछ नहीं पाया, बहुत अनुभूतियों से मैं वंचित रह गया, पर
जीवन की सार्थकता के लिए जो कुछ पाया है, वह पर्याप्त है। न जाने
कितनी बार मैंने वसन्त की हँसी देखी है, पक्षियों का रव सुना है; न
जाने कितनी देर मैंने मानवों की पूजा पायी है, न जाने कितनी सरलाओं
की श्रद्धापूर्ण अंजलि प्राप्त की है, और उन सबसे अधिक न जाने कितनी
बार मुझे इस अमरवल्लरी के स्पर्श में एक साथ ही वसन्त के उल्लास का,
ग्रीष्म के ताप का, पावस की तरलता, शरद की स्निग्धता का, हेमन्त की
शुभ्रता का और शिशिर के शैथिल्य का अनुभव हुआ है, न जाने कितनी बार
इसके बन्धनों में बँधकर और पीडि़त होकर मुझे अपने स्वातन्त्र्य का
ज्ञान हुआ है! एक व्यथा, एक जलन, मेरे अन्तस्तल में रमती गयी है-कि
मैं मूक ही रह गया, मेरी प्रार्थना अव्यक्त ही रह गयी-पर मुझे इस
ध्यान में सान्त्वना मिलती है कि मैं ही नहीं, सारा संसार ही मूक
है... जब मुझे अपनी विवशता का ध्यान होता है, तो मैं मानव की विवशता
देखता हूँ; जब भावना होती है कि विश्वकर्मा ने मेरी प्रार्थना की
उपेक्षा करके मेरे प्रति अन्याय किया है, तब मुझे याद आ जाता है कि
मैं स्वयं भी तो इस सहिष्णु पृथ्वी की मूक प्रार्थना का, इसकी
अभिव्यक्ति-चेष्टा का, नीरव प्रस्फुटन ही हूँ?
(शीर्ष पर वापस)
जिज्ञासा
ईश्वर ने सृष्टि की।
सब ओर निराकार शून्य था, और
अनन्त आकाश में अन्धकार छाया हुआ था। ईश्वर ने कहा, ‘प्रकाश हो’ और
प्रकाश हो गया। उसके आलोक में ईश्वर ने असंख्य टुकड़े किये और
प्रत्येक में एक-एक तारा जड़ दिया। तब उसने सौर-मंडल बनाया, पृथ्वी
बनायी। और उसे जान पड़ा कि उसकी रचना अच्छी है।
तब उसने वनस्पति, पौधे,
झाड़-झंखाड़, फल फूल, लता-बेलें उगायीं; और उन पर मँडराने को भौंरे
और तितलियाँ, गाने को झींगुर भी बनाए।
तब उसने पशु-पक्षी भी बनाये।
और उसे जान पड़ा कि उसकी रचना अच्छी है।
लेकिन उसे शान्ति न हुई। तब
उसने जीवन में वैचित्र्य लाने के लिए दिन और रात, आँधी-पानी,
बादल-मेंह, धूप-छाँह इत्यादि बनाये; और फिर कीड़े-मकोड़े,
मकड़ी-मच्छर, बर्रे-बिच्छू और अन्त में साँप भी बनाये।
लेकिन फिर भी उसे सन्तोष
नहीं हुआ। तब उसने ज्ञान का नेत्र खोलकर सुदूर भविष्य में देखा।
अन्धकार में, पृथ्वी और सौर-लोक पर छायी हुई प्राणहीन धुन्ध में कहीं
एक हलचल, फिर उस हलचल में धीरे-धीरे एक आकार, एक शरीर का, जिसमें
असाधारण कुछ नहीं है, लेकिन फिर भी सामथ्र्य है; एक आत्मा जो निर्मित
होकर भी अपने आकार के भीतर बँधती नहीं, बढ़ती ही जाती है; एक प्राणी
जो जितनी बार धूल को छूता है नया ही होकर अधिक प्राणवान होकर, उठ
खड़ा होता है...
ईश्वर ने जान लिया कि भविष्य
का प्राणी यही मानव है। तब उसने पृथ्वी पर से धुन्ध को चीरकर एक
मुट्ठी धूल उठायी और उसे अपने हृदय के पास ले जाकर उसमें अपनी विराट्
आत्मा की एक साँस फूँक दी-मानव की सृष्टि हो गयी।
ईश्वर ने कहा, ‘जाओ, मेरी
रचना के महाप्राणनायक, सृष्टि के अवतंस!’
लेकिन कृतित्व का सुख ईश्वर को तब भी नहीं प्राप्त हुआ, उसमें का
कलाकार अतृप्त ही रहा गया।
क्योंकि पृथ्वी खड़ी रही, तारे खड़े रहे। सूर्य प्रकाशवान नहीं हुआ,
क्योंकि उसकी किरणें बाहर फूट निकलने से रह गयी! उस विराट सुन्दर
विश्व में गति नहीं आयी।
दूर पड़ा हुआ आदिम साँप
हँसता रहा। वह जानता था कि क्यों सृष्टि नहीं चलती। और वह इस ज्ञान
को खूब सँभालकर अपनी गुंजलक में लपेटे बैठा हुआ था।
एक बार फिर ईश्वर ने ज्ञान
का नेत्र खोला, और फिर मानव के दो बूँद आँसू लेकर स्त्री की रचना की।
मानव ने चुपचाप उसकी देन को स्वीकार कर लिया; सन्तुष्ट वह पहले ही
था, अब सन्तोष द्विगुणित हो गया। उस शान्त जीवन में अब भी कोई
आपूर्ति न आयी और सृष्टि अब भी न चली।
और वह चिरन्तन साँप ज्ञान का अपनी गुंजलक में लपेटे बैठा हँसता रहा ।
[2]
साँप ने कहा, ‘मूर्ख, अपने
जीवन से सन्तुष्ट मत हो। अभी बहुत कुछ है जो तूने नहीं पाया, नहीं
देखा, नहीं जाना। यह देख, ज्ञान मेरे पास है। इसी के कारण तो मैं
ईश्वर का समकक्ष हूँ, चिरन्तन हूँ।’
लेकिन मानव ने एक बार
अनमना-सा उसकी ओर देखा, और फिर स्त्री के केशों से अपना मुँह ढँक
लिया। उसे कोई कौतूहल नहीं था, वह शान्त था।
बहुत देर तक ऐसे ही रहा।
प्रकाश होता और मिट जाता; पुरुष और स्त्री प्रकाश में, मुग्ध दृष्टि
से एक-दूसरे को देखते रहते, और अन्धकार में लिपटकर सो रहते।
और ईश्वर अदृष्ट ही रहता, और साँप हँसता ही जाता।
तब एक दिन जब प्रकाश हुआ, तो स्त्री ने आँखें नीची कर लीं, पुरुष की
ओर नहीं देखा। पुरुष ने आँख मिलाने की कोशिश की, तो पाया कि स्त्री
केवल उसी की ओर न देख रही हो ऐसा नहीं है; वह किसी की ओर भी नहीं देख
रही है, उसकी दृष्टि मानो अन्तर्मुखी हो गयी हो, अपने भीतर ही कुछ
देख रही है, और उसी दर्शन में एक अनिर्वचनीय तन्मयता पा रही है... तब
अन्धकार हुआ, तब भी स्त्री उसी तद्गत भाव से लेट गयी, पुरुष को देखती
हुई, बल्कि उसकी ओर से विमुख, उसे कुछ परे रखती हुई...
पुरुष उठ बैठा। नेत्र मूँदकर
वह ईश्वर से प्रार्थना करने लगा। उसके पास शब्द नहीं थे, भाव नहीं
थे, दीक्षा नहीं थी। लेकिन शब्दों से, भावों से, प्रणाली के ज्ञान से
परे जो प्रार्थना है, जो सम्बन्ध के सूत्र पर आश्रित है, वही
प्रार्थना उसमें से फूट निकलने लगी...
लेकिन विश्व फिर भी वैसा ही
निश्चल पड़ा रहा, गति उसमें नहीं आयी।
स्त्री रोने लगी। उसके भीतर कहीं दर्द की एक हूक उठी। वह पुकारकर
कहने लगी, ‘क्या होता है मुझे! मैं बिखर जाऊँगी, मैं मिट्टी में मिल
जाऊँगी...’
पुरुष अपनी निस्सहायता में
कुछ भी नहीं कर सका, उसकी प्रार्थना और भी आतुर, और भी विकल, और भी
उत्सर्गमयी हो गयी, और जब वह स्त्री का दु:ख नहीं देख सका, तब
उसनेनेत्र ख़ूब जोर से मींच लिये...
निशीथ के निविड़ अधकार में
स्त्री ने पुकारकर कहा, ‘ओ मेरे ईश्वर, ओ मेरे पुरुष यह देखो!’
पुरुष ने पास जाकर देखा, टटोला और क्षण-भर स्तब्ध रह गया। उसकी आत्मा
के भीतर विस्मय की, भय की एक पुलक उठी, उसने धीरे से स्त्री का सिर
उठाकर अपनी गोद में रख लिया...
फूटते हुए कोमल प्रकाश में
उसने देखा, स्त्री उसी के एक बहुत स्निग्ध, बहुत प्यारे प्रतिरूप को
अपनी छाती से चिपटाये है और थकी हुई सो रही है। उसका हृदय एक प्रकांड
विस्मय से, एक दुस्सह उल्लास से भर आया और उसके भीतर एक प्रश्न फूट
निकला, ‘ईश्वर, यह क्या सृष्टि है जो तूने नहीं की?’
ईश्वर ने कोई उत्तर नहीं
दिया। तब मानव ने साँप से पूछा, ‘ओ ज्ञान के रक्षक साँप, बताओ यह
क्या है जिसने मुझे तुम्हारा और ईश्वर का समकक्ष बना दिया है-एक
स्रष्टा-बताओ, मैं जानना चाहता हूँ?’
उसके यह प्रश्न पूछते ही
अनहोनी घटना घटी। पृथ्वी घूमने लगी, तारे दीप्त हो उठे, फिर सूर्य
उदित हो आया और दीप्त हो उठा, बादल गरज उठे, बिजली तड़प उठी... विश्व
चल पड़ा!
साँप ने कहा, ‘मैं हार गया।
ईश्वर ने ज्ञान मुझसे छीन लिया।’ और उसकी गुंजलक धीरे-धीरे खुल गयी।
ईश्वर ने कहा, ‘मेरी सृष्टि सफल हुई, लेकिन विजय मानव की है। मैं
ज्ञानमय हूँ, पूर्ण हूँ। मैं कुछ खोजना नहीं। मानव में जिज्ञासा है,
अत: यह विश्व को चलाता है, गति देता है...’
लेकिन मानव की उलझन थी,
अस्तित्व की समस्या थी। पुकार-पुकारकर कहता जाता था, ‘मैं जानना
चाहता हूँ।’
और जितनी बार वह प्रश्न
दुहराता था, उतनी बार सूर्य कुछ अधिक दीप्त हो उठता था, पृथ्वी कुछ
अधिक तेज़ी से घूमने लगती थी, विश्व कुछ अधिक गति से चल पड़ता था और
मानव के हृदय का स्पन्दन भी कुछ अधिक भरा हो जाता था।
आज भी जब मानव यह प्रश्न पूछ बैठता है, तब अनहोनी घटनाएँ होने लगती
हैं।
(शीर्ष पर वापस)
हारिति
वह सुन्दरी नहीं थी। उसके
मुख पर सौन्दर्य की आभा का स्थान तेज की दीप्ति ने ले लिया था। उसकी
आँखों में कोमलता न थी, वहाँ कृतनिश्चय की दृढ़ता ही झलकती थी। उसके
सिर की शोभा उस पर की अलकावलियों में नहीं थी, वरन कटे हुए बालों के
नीचे उस उघड़े हुए प्रशस्त ललाट में।
कहते हैं, स्त्री के जीवन में आनन्द हैं, स्नेह है, प्रेम है, सुख
है। उसके जीवन में वे सब कहाँ थे? जब से उसने होश सम्भाला, जबसे उसने
अपने चारों ओर चीन से प्राचीन देश का विस्तार देखा; जबसे उसने अपनी
चिरमार्जित सभ्यता का तत्त्व समझा, तब से उसके जीवन में कितनी दु:खमय
घटनाएँ हुई थीं! जब वह छ: वर्ष की थी, तभी उसके पिता को जर्मन सेना
ने तोप के मोहरे से बाँधकर उड़ा दिया था; क्योंकि वे ‘बाक्सर’ नामक
गुप्त-समिति के सदस्य थे। उसके बाद 1900 वाले ‘बाक्सर’-विप्लव में,
जब उसकी आयु 11 वर्ष की भी नहीं हुई थी, जर्मन और अँगरेज सेना ने आकर
उसके छोटे-से गाँव में आग लगा दी थी। वहाँ के स्त्री-पुरुष सब जल
गये। उसमें उसकी वृद्धा माता भी थी। केवल उसे, उस अनाथिनी को, जो उस
समय सीक्यांग नदी से पानी भरने गयी हुई थी, न जाने किस अज्ञात
उद्देश्य की पूर्ति के लिए, किस भैरव यज्ञ में आहुतिरूप अर्पण करने
के लिए, विधाता ने बचा लिया। वह गाँव की ओर आयी, तो दो-चार बचे हुए
लोग रोते-चिल्लाते भागे जा रहे थे। वे उसे भी खींचकर ले गये। वह
बेचारी अपनी माता के शरीर की राख न देख पायी। उस दिन से कैसा भीषण
रहा था उसका जीवन! फूस की झोपडिय़ों में रहना या कभी-कभी सीक्यांग के
किनारे, टिड्डी-दल की तरह एकत्रित, अँधेरी गन्दी, धुएँ से काली
डोंािगयों में पड़े रहना... उसके अभिभावक, गरीब मछुए, दिन में अफीम
खाकर सो रहते। वह उस गर्मी में बन्द एक कोने में बैठकर सोचा करती, कब
तक देश की यह दशा रहेगी, कब तक विदेशी सिपाही इस प्रकार पहले हमारे
घर जलाएँगे और फिर हमें दंड देंगे, हमारे देश से करोड़ों रुपये ले
जाएँगे...
आज वह युवती थी। अभी
अविवाहिता थी, कुमारियों के जीवन में जो आनन्द होता है, वह उसने अपने
निर्दय जीवन में कभी नहीं पाया। उन मछुओं की सदस्य, किन्तु निर्धन,
शरण से निकलकर उसने कुली का काम किया, और उससे संचित धन से अपना
शिक्षण किया था। अब वह कैंटन-सेना में जासूस का काम करती थी।
वह सुन्दरी नहीं थी। उसके
जीवन में सौन्दर्य के लिए कोई स्थान ही न छोड़ा था। उसकी एकमात्र
शोभा-उसके केश-भी आज नहीं रहे थे। आज वह जासूस का काम करने के लिए
सर्वथा प्रस्तुत थी। वह प्राय: पुरुष-वेश में ही रहती, कभी-कभी
आवश्यकता होने पर ही स्त्री-वेश पहन लिया करती। उसकी सहचारियाँ जब
कभी उससे इस विषय में प्रश्न करतीं, तो वह कहती, ‘‘जिस देश में पुरुष
भी गुलाम हो, उसमें स्त्री होने से मर जाना अच्छा है।’’
उसकी बात शायद सच भी थी। चीन
की दशा उन दिनों बहुत बुरी थी-अशान्ति सब ओर फैली हुई थी। इधर कैंटन
में सनयात-सेन अपनी सेना का संगठन कर रहे थे। उधर से समाचार आया था
कि मंचूरिया से सम्राट का सेनापति युवान शिकाई बहुत बड़ी सेना लेकर आ
रहा है। कैंटन की औद्योगिक अशान्ति का स्थान अब एक नए प्रकार के
संजीवन ने ले लिया। जिधर आँख उठती, उधर ही लोग वर्दियाँ पहने नजर
आते। कैंटन-सेना स्वयं-सेवी थी, युवान शिकाई की सेना में सभी वेतन
पाकर काम करते थे। कैंटन-सेना के सैनिकों के आगे साम्य का आदर्श था,
युवान शिकाई के आगे व्यक्तिगत लाभ का। कैंटन-सैनिकों के हृदय में
प्रजातन्त्र की चाह थी, युवान शिकाई के सैनिक साम्राज्यवाद की हिली
हुई नींव फिर से जमाना चाहते थे। कैंटन की सेना विश्वास के कारण
लड़ती थी, युवान शिकाई की लोभ के कारण। पर कैंटन के सैनिक बहुत थोड़े
थे, और उनके विरुद्ध युवान शिकाई एक शस्त्र-वेष्टित प्रलय-प्रहरी
लिये बढ़ा आ रहा था। उन थोड़े से गुप्तचरों को दिन-रात अनवरत काम
करना पड़ता था; कभी इधर, कभी उधर, कभी सन्देश पहुँचाना कभी खबरें
लाना- कभी-कभी एक-एक रात में चालीस-चालीस मील तक पैदल चलना पड़ जाता
था; पर उनके सामने जो आदर्श था, हृदय में जो दीप्ति थी, वह उन्हें
प्रोत्साहित करती, उन्हें शक्ति प्रदान करती, उन्हें विमुख होने से
बचाती थी।
पर सभी के हृदय में वह
आदर्श-वह दीप्ति नहीं थी। कुछ व्यक्ति ऐसे भी थे, जिनके हृदय में
दूसरी इच्छाओं, दूसरी आशाओं, दूसरी स्मृतियों ने घर कर रखा था। जिनका
ध्यान युवान शिकाई की प्रगति की ओर नहीं, प्रणय की प्रगति की ओर था;
जिनके मन में दृढ़-विश्वास का आलोक नहीं, विरह का प्रज्वलन था। पर
जिस तरह कसौटी पर चढऩे से पहले सभी धातुएँ सोने की तरह सम्मानित होती
हैं, उसी तरह वे भी संघर्ष से पहले सच्चे वीरों में गिने जाते थे।
जिस महान परीक्षा से पृथक्करण होना था, वह अभी आरम्भ नहीं हुई थी।
वह नित्यप्रति जब उठकर अपनी मर्दानी वर्दी पहनती, तो किसी
अनियन्त्रित शक्ति से प्रार्थना किया करती : ‘‘शक्ति! मुझे इतनी
दृढ़ता दे कि मैं उस आनेवाली परीक्षा में उत्तीर्ण हो सकूँ। मैं
स्नेह से वंचित रही हूँ, अनाथिनी हूँ, प्रेम करने का अधिकार मुझे
नहीं है-मैं दासी हूँ। कीर्ति की मुझे इच्छा नहीं है-गुलाम की क्या
कीर्ति; पर मुझे पथ-भ्रष्ट न करना, मुझे विश्वास के अयोग्य न बना
देना।’’
फिर वह शान्त होकर अपने
तम्बू से बाहर निकल आती, और दिन-रात दत्त-चित्त होकर अपना काम करती।
दिन में उसे कभी अनिश्चय का, विश्वास का, कातरता का अनुभव न होता।
सभी उसके प्रशस्त ललाट, उसके प्रोज्ज्वल नेत्र, उसके तेजोमय मुख को
देखकर विस्मित रह जाते।
घनघोर वर्षा हो रही थी। पाँच
दिन से वह अविरल जल-धारा नहीं रुकी थी वह पीतवर्णा, कृशकाया,
सीक्यांग आज घहर-घहर करती बह रही थी। उसका पाट पहले से दुगना हो गया,
और रंग बदल कर लालिमामय हो रहा था। उसके किनारे, वही जहाँ दस वर्ष
पहले अँग्रेज और जर्मन सेना ने एक छोटे-से गाँव को अधिवासियों सहित
जला दिया था, आज एक बड़ा फौजी शिविर था, और कितनी ही छोटी-छोटी छोलदारियाँ
इधर-उधर लग रही थी।
वर्षा हो रही थी, पर कैंटन
के सेना के उस शिविर में उसकी बिलकुल उपेक्षा थी। कितने ही सैनिक
चुपचाप अपने स्थानों पर खड़े पहरा दे रहे थे उनकी वर्दियाँ भीग गयी
थीं। बूट कीचड़ से सन गये थे। हाथों की उँगलियों पर झुर्रियाँ पड़
गयी थी; पर वे अपने स्थानों पर सावधान खड़े थे।
रात बहुत बीत चुकी थी,
छोलदारियों में अँधेरा था। केवल बीचवाले एक बड़े तम्बू में प्रकाश
था। उसे बाहर बहुत-से पहरेदार थे। वे एक-दूसरे के सामने खड़े थे फिर
भी कोई किसी से बात नहीं कर रहा था।
एकाएक भीतर से आवाज आयी,
‘‘क्वेनलुन!’’
एक पहरेदार अन्दर गया, और क्षण-भर में बाहर आकर छोलदारियों की ओर चला
गया।
थोड़ी देर में वह लौट आया। अब वह अकेला न था। उसके साथ थी एक स्त्री,
जिसका शरीर एक भूरे फौजी कम्बल में ढँका था; पर सिर खुला था, उसके
केश कटे हुए थे।
दोनों अन्दर चले गये।
अन्दर एक बड़े गैस-लैम्प के
प्रकाश में चार-पाँच अफसर बैठे हुए थे। एक कुछ चिटि्ठयाँ पढ़ रहा था।
एक ने दो-तीन नक्शे अपने आगे बिछा रखे थे, और उन्हें ध्यान से देख
रहा था-कभी-कभी पेंसिल से उन पर चिह्न भी लगा देता था। एक ओर बैठा
हुआ लिख रहा था। उसकी वर्दी की आरे देखने से मालूम पड़ता था कि वह
कर्नल था। और बाकी सब उससे छोटे पद के थे। पहरेदार और वह स्त्री
कर्नल के आगे सलाम करके खड़े हो गए। उसने कुछ देर ध्यान से स्त्री की
ओर देखा, और बोला, ‘‘नम्बर 474?’’
स्त्री ने शान्त-भाव से उत्तर दिया, ‘‘जी हाँ।’’
‘‘तुम कैंटन में दायना पेइफू का घर जानती हो?’’
‘‘जी हाँ, वह नदी के किनारे ही एक लाल मकान में रहती है।’’
‘‘हाँ।’’
कर्नल ने एक पत्र निकाला, और उस पर मुहर लगाकर उसे दे दिया। फिर कहा,
‘‘नम्बर 474, यह पत्र उन्हें पहुँचाना है।’’
‘‘कब तक’’
‘‘वैसे तो कोई जल्दी नहीं है, पर बाढ़ आ रही है, शायद रात-रात में
रास्ता बन्द हो जाए।’’
‘‘बहुत अच्छा।’’ कहकर वह जाने लगी।
जो व्यक्ति नक्शा देख रहा था, उसने कहा, ‘‘कर्नल, यहाँ से कैंटन के
रास्ते में तो युवान शिकाई की सेना पहुँच रही है।’’
‘‘हाँ, मुझे याद आ गया। नम्बर 474!’’
‘‘जी हाँ।’’
‘‘हाँकाऊ से समाचार लेकर तुम्हीं आयी थीं न?’’
‘‘जी हाँ।’’
‘‘फिर तुम्हें पूरी स्थिति मालूम ही है। अपने साथ दस चुने हुए आदमी
लेती जाओ।’’
‘‘बहुत अच्छा।’’
‘‘तुम्हारे पास वह जासूस का चिह्न है?’’
‘‘नहीं, मैंने हाँकाऊ से आते ही उसे वापस कर दिया था। अब आप दें।’’
कर्नल ने जेब में से चाँदी का बना हुआ एक छोटा-सा चीनी अजगर निकाला,
और देते हुए बोला, ‘‘हमें तुम पर पूरा विश्वास है।’’
उस स्त्री ने कोई उत्तर नहीं दिया। वह चुपचाप विचित्र चिह्न लेकर
सलाम करके चली गयी। कर्नल ने लिखना बन्द कर दिया। एक हल्की-सी
सन्तुष्ट हँसी उसके मुँह पर दौड़ गयी।
‘‘क्या बात थी, हारिति?’’
‘‘कुछ नहीं, एक दौड़ और लगानी होगी।’’
‘‘कहाँ की?’’
‘‘कैंटन।’’
‘‘पर अभी कल ही तो तुम हाँकाऊ से आयी थीं?’’
‘‘तो क्या? काम तो करना ही होता है।’’
‘‘ये नब्बे मील अकेली ही जाओगी?’’
‘‘नहीं, साथ दस आदमी और जाएँगे।’’
‘‘पर जो बाढ़ आ रही है...’’
‘‘उससे आगे बढऩा होगा। अगर कैंटन का पुल पार कर लूँगी, तो हमारी जीत
है।’’
‘‘और अगर न कर पायी तो?’’
‘‘तैरना जानती हूँ-मछुओं के यहाँ पली हुई हूँ।’’
‘‘हारिति!’’
‘‘हाँ, क्या है?’’
‘‘मुझे साथ ले चलोगी?’’
‘‘क्यों?’’
‘‘यों ही तुम्हारे साथ जाने को जी चाहता है।’’
‘‘पर फिर मेरे बाद यहाँ किसी की जरूरत हुई तो?’’
‘‘तुम वापस नहीं आओगी?’’
‘‘पता नहीं। कैंटन में जो आज्ञा मिलेगी, वह माननी होगी। फिर शायद
यहाँ से तुमको भी जाना पड़े-युवान शिकाई बहुत पास आ पहुँचा है।’’
‘‘फिर तो तुम नहीं जाओगी हारिति?’’
हारिति कुछ बोली नहीं। उसने चुपचाप अपनी मर्दानी वर्दी पहनी, और कोट
के अन्दर वह चीनी अजगर लगा लिया। फिर बिना कुछ ही वह छोलदारी से बाहर
निकल गयी।
‘‘क्वानयिन! क्वानयिन’’
‘‘कौन है?’’
‘‘मैं हूँ, हारिति।’’
‘‘इस समय क्या काम है, हारिति?’’
‘‘काम मिला है, अभी जाना होगा। वर्दी पहन कर बाहर आओ।’’
‘‘इतनी रात को काम? कितनी दूर जाना है?’’
‘‘बहुत दूर। समय नहीें है, जल्दी करो।’’
‘‘लो, आया, और कौन साथ जाएगा?’’
‘‘तुम्हीं नौ आदमी चुनकर ले आओ-मैं घोड़े चुनने जाती हूँ।’’
‘‘अच्छा, मैं फाटक पर अभी पहुँचता हूँ; पर इतने आदमी क्या होंगे?’’
हारिति ने धीरे से कहा, ‘‘रास्ते में युवान शिकाई की सेना से मुठभेड़
की आशंका है।’’
‘‘अच्छा, फिर तो पूरी तैयारी करनी होगी?’’
‘‘हाँ, पर जल्दी।’’
हारिति चली गयी। उसके बाद छोलदारी के अन्दर से बहुत कोमल ध्वनि आयी,
आरिति, हारिति, कितनी दृढ़ हो तुम? मैं कभी तुम्हारी बराबरी कर
सकूँगा।
हारिति वहाँ सुनने को या उत्तर देने को नहीं खड़ी थी।
वर्षा अभी हो रही थी। सीक्यांग का नाद घोरतर होता जा रहा था। उसकी
अरुणिमा बढ़ती जा रही थी...
वे ग्यारह व्यक्ति रास ढीली किये, घोड़े दौड़ाये जा रहे थे। कोई कुछ
बोलता नहीं था, पर हर एक के मन में न जाने क्या-क्या विचार उठकर बैठ
जाते थे। किसी के हृदय में भय न था, पर कितने चौकन्ने होकर वे चारों
ओर देखते जाते थे!
वर्षा की और नदी की ध्वनि
में उन घोड़ों के दौड़ाने की ध्वनि डूब गयी थी। उनकी प्रगति काल में
प्रवाह की तरह रवहीन किन्तु अविराम मालूम हो रही थी। किसी महती कामना
की प्रतिच्छाया की तरह शान्त, किसी बे-रोक मशीन की तरह नियन्त्रित,
वे घोड़े जा रहे थे। और उनके सवार धीरे-धीरे हिसाब लागते जाते थे कि
इस गति से कब पुल पार करेंगे-करेंगे भी या नहीं....
नदी भी बढ़ी चली जा रही थी।
उसके प्रवाह में दर्प था, अवमानना थी, सिंह का गर्जन था, और थी
प्रकांड प्रलय-कामना। घोड़ों के उस क्षुद्र प्रयत्न को कितनी उपेक्षा
से देख रही थी वह, और मानो हँसकर कह रही थी-प्रकृति के प्रवाह को
ललकारोगे, जीतोगे, तुम!
‘‘हारिति, कुछ सुनाई पड़ता है?’’
‘‘नहीं। क्या है?’’
‘‘मुझे भ्रम हुआ कि मैंने कहीं गोली चलने की आवाज सुनी।’’
‘‘सम्भव है। हमारा सब सामान तो ठीक है न?’’
‘‘हाँ, चिन्ता की कोई बात नहीं।’’
क्षण-भर शान्ति।
‘‘क्वानयिन, वह देखते हो?’’
‘‘किधर?’’
‘‘वह दाहिनी ओर। कहीं आग का प्रकाश।’’
‘‘हाँ, हाँ’’
‘‘वह है शत्रु का शिविर।’’
‘‘हमने गोलियाँ भर रखी हैं। कितनी दूर और जाना है?’’
‘‘अभी बहुत है-कोई 35 मील।’’
‘‘पुल कितनी दूर है?’’
‘‘तीस मील।’’
फिर क्षण-भर शान्ति।
‘‘क्वानयिन, साथियों को सावधान कर दो। लड़ाई होगी। वे घुड़सवार हमसे
भिडऩे आ रहे हैं।’’
‘‘रुककर लडऩा होगा?’’
‘‘नहीं। रुकने का समय नहीं है। हम बढ़ते जाएँगे।’’
‘‘पर-’’
‘‘क्या?’’
‘‘हमारे घोड़े थक गये हैं।’’
‘‘फिर?’’
‘‘हमें रुककर लडऩा चाहिए, और उनके घोड़े छीन लेने चाहिए।’’
‘‘और अगर हमारे घोड़े भी मारे गये तो?’’
‘‘घोड़ों पर से उतरकर अलग हटकर लड़ेंगे, उन्हें बचा लेंगे।’’
‘‘वे बहुत आदमी हैं, हम थोड़े।’’
‘‘वे वेतन के लिए लड़ते हैं, जान देने के लिए नहीं।’’
‘‘अच्छा, जैसा तुम उचित समझो।’’
घोड़े रुक गये। उन्हें इकट्ठा खड़ा कर दिया गया। हारिति उनके पास
खड़ी हो गयी। क्वानयिन और उसके साथी कुछ आगे हटकर खड़े हो गये।
ठाँय! ठाँय! ठाँय!
फिर दस गोलियाँ छूटीं। अबकी बार उत्तर आया।
हारिति चुपचाप देख रही थी। जब शत्रु-पक्ष की ओर से बौछार आती, तब वह
कुछ चिन्तित होकर पूछती, ‘‘क्वानयिन, कहाँ हो तुम?’’ और वह हँसकर
उत्तर देता-’’हारिति हमारी जीत होगी।’’ फिर वह शान्त हो जाती थी।
एकाएक गोली चलनी बन्द हो गयी। क्वानयिन बोला, ‘‘हारिति, वे भाग रहे
हैं-हम घोड़े पकड़ लेते हैं!’’
थोड़ी देर में आठ नए घोड़े एकत्रित हो गये। हारिति, क्वानयिन और
पाँच अन्य व्यक्तियों ने घोड़े बदल लिये। बाकी उस लड़ाई में खेत रहे
थे।
‘‘क्वानयिन, अपने घोड़ों का क्या करना होगा?’’
‘‘यहीं छोड़ दिए जाएँ?’’
‘‘शत्रुओं के लिए! नहीं, उन्हें खाली साथ ले चलेंगे?’’
‘‘और जो न दौड़ सकते हों?’’
‘‘उन्हें गोली मार देंगे।’’
‘‘हारिति!’’
‘‘क्या है?’’
‘‘कुछ नहीं, चलो।’’
फिर वही होड़, वही सीक्यांग के प्रवाह से प्रतियोगिता, वही नि:शब्द
प्रगति...
‘‘हारिति!’’
‘‘क्या है?’’
‘‘वे फिर आ रहे हैं।’’
‘‘आने दो। अब रुकना नहीं होगा।’’
‘‘एक बात कहूँ?’’
‘‘कहो।’’
‘‘तुम आगे चली जाओ, हम रुक कर उनसे युद्ध करते हैं।’’
‘‘क्यों?’’
‘‘अबकी बार उन्हें भगा नहीं सकेंगे, कुछ देर रोक पाएँगे।’’
‘‘फिर क्या होगा?’’
‘‘होगा क्या? यदि रोक सकेंगे, तो अच्छा। नहीं तो-’’
‘‘नहीं तो क्या?’’
‘‘मैं फिर तुमसे आ मिलूँगा।’’
क्षण-भर निस्तब्धता।
‘‘क्वानयिन!’’
‘‘हारिति!’’
‘‘तुम ठीक कहते हो, मैं अकेली हो जाती हूँ।’’
‘‘जाओ। शायद मैं फिर आ मिलूँ।’’
‘‘शायद!’’
रात्रि के अन्धकार का रूप कुछ बदलने लगा था। बादल अब भी घिरे हुए थे।
वर्षा अब भी हो रही थी पर जहाँ पहले एकदम निविड़ अन्धकार था, वहाँ अब
कुछ भूरा, कुछ सफेद, मिश्रित-सा अन्धकार हो गया था। और धरती पर से
भाप उठकर जमने लग गयी थी। पहले की प्रगाढ़ नीलिमा में जो वस्तुएँ कुछ
अस्पष्ट दीखती थीं, वे अब एकदम लुप्त हो गयी थीं। अभी उषा के
लालिमामय आगमन में बहुत देर थी। सीक्यांग का पुल भी अभी दस मील दूर
था। हारिति थक गयी थी। उसका घोड़ा भी थक गया था। और उन बिछुड़े हुए
साथियों की, क्वानयिन की, स्मृति उसे खिन्न कर रही थी; पर उसके हृदय
में जो शक्ति थी, जिसके आगे उसने इतनी बार दृढ़ता की भिक्षा माँगी
थी, वह शक्ति आज उसकी सहायता कर रही थी, उसके शरीर में नई स्फूर्ति
का संचालन कर रही थी। उसने घोड़े की गति धीमी नहीं की थी; जिस गति से
यात्रा का आरम्भ किया था, उसी से अब भी चली जा रही थी। उसके पीछे एक
ओर सवार चला आ रहा था; पर उसे इसका ध्यान न था। वह पीछे नहीं देखती
थी, न उसे पीछे से घोड़े की टाप सुनाई पड़ती थी उसका ध्यान उस क्रमश:
घटते हुए दस मील के अन्तर पर स्थिर था। वह सवार धीरे-धीरे पास आ रहा
था। जब वह कुछ ही पीछे रह गया, तब उसने पुकारा, ‘‘हारिति, मैं आ
गया।’’
हारिति के मुख पर प्रसन्नता
की रेखा दौड़ गयी, पर उसने घोड़े को रोका नहीं। जब क्वानयिन बिलकुल
उसके बराबर आ गया, तब उसने पूछा, ‘‘क्वानयिन, बाकी साथी कहाँ रहे?’’
क्वानयिन ने बिना उसकी ओर देखे ही उत्तर दिया, ‘‘नहीं रहे।’’
बहुत देर तक दोनों चुपचाप बढ़ते गये। फिर हारिति बोली, ‘‘और घोड़े?’’
‘‘मर गये। मैं भी दूसरा घोड़ा लेकर पहुँच पाया हूँ।’’
‘‘शत्रु कहाँ हैं?’’
‘‘बहुत पीछे रह गये हैं।’’
‘‘फिर मुठभेड़ की सम्भावना है?’’
‘‘अवश्य।’’
‘‘क्यों?’’
‘‘उन्हें शक हो गया है कि हम पत्र-वाहक हैं, और हमसे कुछ पाने की आशा
है।’’
हारिति कुछ हँसी। ‘‘कुछ पा लेने की आशा! कितने मूर्ख हैं वे!’’
‘‘क्यों?’’
‘‘कैंटन के सैनिक धन के लिए विश्वास नहीं बेचते?’’ कुछ देर चुप रहकर
क्वानयिन बोला, ‘‘हारिति, कैसी रहस्यमयी स्त्री हो तुम? अगर-’’
‘‘देखो क्वानयिन, ऐसी बातों से मुझे दु:ख होता है।’’
‘‘क्यों?’’
‘‘हम गुलाम हैं। हमें अपने आदर्श के अतिरिक्त किसी बात का ध्यान करने
का अधिकार नहीं है।’’
क्वानयिन ने धीमे स्वर में कहा, ‘‘सच कहती हो हारिति। मैं बार-बार
भूल जाता हूँ।’’ और फिर चुप हो गया।
‘‘दो मील।’’
‘‘पर हम इतना जा पाएँगे, हारिति! वह देखो, शत्रु कितना पास आ गये
हैं।’’
‘‘कोई चिन्ता नहीं। हम पुल पार कर लेंगे, फिर इनका डर नहीं रहेगा।’’
‘‘पर पुल तक के दो मील...’’
‘‘गति तेज कर दो। अब तो इन्हेंं रोकने का भी प्रयत्न नहीं कर सकते।’’
‘‘मेरे पास पाँच भरे हुए पिस्तौल हैं, और यह बन्दूक तो है ही।’’
‘‘पाँच पिस्तौल!’’
‘‘हाँ, अपने साथियों के उठा लाया हूँ।’’
‘‘दो मुझे दे दो। शायद-’’
क्वानयिन ने जेब से निकाल कर दो पिस्तौल उसे पकड़ा दिये। उसने
उन्हें अपने कोट में डाल लिया, और बोली, ‘‘अगर निर्णय ही करना होगा,
तो पुल पर करेंगे। वहाँ बना-बनाया मोर्चा मिल जाएगा।’’
‘‘शायद पार निकल सकें। नहीं तो-’’
‘‘क्या?’’
‘‘इतने दिन सीक्यांग के ऊपर रही हूँ, आज उसके नीचे तो आश्रय मिल ही
जाएगा।’’
‘‘हारिति!’’
‘‘वह देखो क्वानयिन! सामने पुल आ गया।’’
‘‘प्रजातन्त्र की जय!’’
प्राची दिशा से बादलों को चीर कर फीका पीला-सा प्रकाश निकल रहा था।
उसके समाने ही सीक्यांग के प्रमत्त प्रवाह के ऊपर पुल का जँगला दीख
रहा था। कितना विमुग्धकारी था वह दृश्य, और साथ ही कितना
निराशापूर्ण! नदी की सतह पुल की पटरियों को छू रही थी। कभी-कभी किसी
लहर का पानी पुल के ऊपर से भी छलक जाता था। और ठीक मध्य में, जहाँ
नदी का प्रवाह सबसे अधिक था, पुल का एक अंश टूटकर बह गया था। दोनों
ओर से दो पटरियाँ आतीं और बीच में लगभग 20-22 फुट का खुला स्थान
छोडक़र ही समाप्त हो जातीं। उस स्थान में केवल विपुल जल-प्रवाह का
गर्जन और उसकी अथाह अरुणिमा ही थी।
‘‘हारिति, वह देखो, क्या है!’’
‘‘मैंने देख लिया है।’’
‘‘अब क्या करना होगा?’’
हारिति ने कुछ उत्तर नहीं दिया। रास खींच कर घोड़े को रोक लिया।
क्वानयिन ने भी उसका अनुसरण किया। हारिति ने मुडक़र पीछे की ओर देखा,
शत्रु अभी आध मील दूर थे। क्षण-भर वह अनिश्चित खड़ी रही; फिर बोली,
‘‘क्वानयिन, हमारी परीक्षा का समय आ गया।’’
क्वानयिन कुछ नहीं बोला। प्रतीक्षा के भाव से हारिति के मुख की ओर
देखने लगा। हारिति घोड़े पर से उतर पड़ी। क्वानयिन ने भी उतरते हुए
पूछा, ‘‘क्या करोगी?’’
‘‘बताती हूँ।’’ कहकर वह अपने पुराने घोड़े पर सवार हो गयी। ‘‘देखो
क्वानयिन, तुम यहाँ खड़े होकर मोर्चा लेना, मैं जा रही हूँ।’’
‘‘कहाँ?’’
‘‘पार।’’
‘‘कैसे?’’
‘‘कूद कर।’’
‘‘कूद कर? यह तुमसे नहीं होगा, हारिति! तुम्हारा घोड़ा भी तो थका हुआ
है।’’
‘‘मैंने निश्चय कर लिया है। और कोई उपाय नहीं।’’
क्वानयिन ने अनिच्छा से कहा, ‘‘तो नया घोड़ा ही ले जातीं।’’
‘‘उसका मुझे अभ्यास नहीं। पुराना घोड़ा ही ले जाना होगा।’’
हारिति ने जल्दी से अपना कोट उतारा और पिस्तौल क्वानयिन को दिये। वह
चाँदी का अजगर चिह्न उसने अपनी कमीज में लगा लिया, और पत्र को अच्छी
तरह लपेट कर कमरबन्द में रख लिया।
‘‘हारिति, यह क्या कर रही हो?’’
‘‘शायद कूद न पाऊँ, व्यर्थ का भार नहीं रखना चाहिए।’’
‘‘हारिति, क्या यह विदा है?’’
‘‘हाँ। वह देखो, शत्रु आ रहे हैं। मुझे विदा दो।’’
‘‘तुम्हारे बाद मुझे क्या करना होगा?’’
हारिति क्षण-भर स्थिर दृष्टि से क्वानयिन की ओर देखती रही। फिर
बोली, ‘‘शायद कुछ भी नहीं करना होगा। अगर-अगर बच गये, तो पार कूद
आना, और क्या करोगे?’’
‘‘जाओ, हारिति, जाओ। तुम वीर हो, मैं भी अधीर न होऊँगा।’’
हारिति ने झुककर घोड़े का गला थपथपाया और बोली, ‘‘बन्धु, अब मैं फिर
वही अनाथिनी रह गयी हूँ। मेरी मदद करना।’’ उसने घोड़े को एड़ लगायी,
रास ढीली कर दी। घोड़ा उन गीली पटरियों पर दौड़ा। हारिति कुछ आगे
झुकी।
ठाँय! ठाँय! ठाँय!
शत्रु पहुँच गये। क्वानयिन हारिति को कूदते हुए भी नहीं देख पाया।
उसने शत्रुओं को बन्दूक से जवाब दिया, और फिर पिस्तौल उठा लिये।
क्षण-भर के लिए आक्रमणकारी रुक गए। क्वानयिन ने घूमकर देखा।
पुल की पटरियाँ दोनों ओर खाली थीं। उसने देखा, हारिति के घोड़े के
अगले पैर पुल के टूटे हुए भाग के उस पार की पटरियों पर पड़े, किन्तु
पिछले पैर नीचे स्तम्भ में टकराये, फिसले, और फिर घोड़े समेत हारिति
उसी अथाह अरुणिमा में गिर गयी।
क्वानयिन धीरे-धीरे पुल से
हटने लगा। शत्रु आगे बढ़ते आ रहे थे। उस खुले स्थान में क्वानयिन ने
देखा, हारिति का घोड़ा अभी डूबा नहीं था, एक बहुत बड़े भँवर में
फँसकर घूम रहा था। तैर कर निकलने की उसकी सारी चेष्टाएँ निष्फल हो
रही थीं, और हारिति उस पर बैठी शायद कुछ सोच रही थी।
क्वानयिन ने चाहा, मैं भी कूद पड़ूँ, शायद उसे बचा पाऊँ। फिर उसे
हारिति के शब्द याद आये, ‘‘हमारी परीक्षा का समय आ गया।’’ उसने
मन-ही-मन कहा, ‘‘हारिति, हमारे कर्तव्य अलग-अलग हैं। तुम अपना करो,
मैं अपना। मैं शत्रु को रोकता हूँ, तुम्हें कैसे बचाऊँ?’’ फिर वह
एकाग्र होकर निशाना लगाने और युवान शिकाई के सौनिकों को उड़ाने लगा।
हारिति सँभलकर उठी, और घोड़े की पीठ पर खड़ी होकर बोली, ‘‘बन्धु,
तुमने तो मेरी सहायता की, अब मैं तुम्हें छोडक़र जा रही हूँ।’’ फिर
उसने एक लम्बी साँस ली, और उछलकर पानी में कूद पड़ी- भँवर के बाहर।
गोलियाँ अभी चल रही थीं। एक गोली क्वानयिन के कन्धे में लगी, एक पैर
में। उसने अब शत्रु की चिन्ता छोड़ दी। उसकी आँखों हारिति को ढूँढने
लगीं। पुल से कुछ दूर उसने देखा, एक केशहीन सिर। हारिति तैरती जा रही
थी। घोड़े का कहीं पता न था।
क्वानयिन ने कहा, ‘‘हारिति,
मेरा काम पूरा हुआ।’’
उसने पिस्तौल उठाया और अपने माथे के पास रखा। फिर-
‘‘प्रजातन्त्र की जय!’’
जब शत्रु वहाँ पहुँचे, तो क्वानयिन का प्राणहीन शरीर वहाँ पड़ा था।
उसके मुख पर विजय का गर्व था। उन्होंने जल्दी-जल्दी उसके कपड़ों की
तलाशी ली, फिर धीरे-धीरे ली। कुछ न मिला। क्रुद्ध होकर उन्होंने
ठोकरें मार-मार कर उसके शरीर को नदी में गिरा दिया। वह कुछ देर चक्कर
खाकर डूब गया। कुछ बुलबुले उठे, फिर सीक्यांग का प्रवाह पूर्ववत् हो
गया। युवान शिकाई के सैनिकों ने देखा कि दूर पानी में कोई तैर रहा
है। उन्होंने उसका ही निशाना लेकर गोलियाँ चलानी प्रारम्भ कर दीं।
कितनी ही देर तक वे गोलियाँ चलाते रहे। धीरे-धीरे उस व्यक्ति का
दीखना बन्द हो गया, शायद डूब गया, या उस अनियन्त्रित प्रवाह में बह
गया। वे लौट गये।
कैंटन के बाहर, सीक्यांग के किनारे, बहुत-से मछुए आकर बैठे हुए थे।
कुछ पकडऩे की आशा से नहीं केवल इसी चिन्ता का निवारण करने के लिए कि
बाढ़ कब उतरेगी। सूर्य का उदय हो गया था। बादल फट रहे थे, वर्षा का
अन्त होने वाला था, पर नदी में पानी अभी बढ़ता जा रहा था, और वे मछुए
बैठकर देख रहे थे। कोई कह रहा था, ‘‘बाढ़ से एक फायदा है। युवान
शिकाई इस पार नहीं आ सकेगा।’’
कोई और पूछ रहा था, ‘‘सुना है, युवान शिकाई की सेना कुल पचास मील दूर
रह गयी है। क्या यह ठीक बात है?’’
एक तीसरा बोला, ‘‘हमारी सेना में बहुत अच्छे-अच्छे आदमी हैं। हमारी
हार नहीं हो सकती।’’
दूर कहीं कोलाहल हुआ, ‘‘वह देखो, क्या है? कोई मरा हुआ जानवर बह रहा
है! नहीं-नहीं, यह तो आदमी है, आदमी!’’
सब लोग उधर देखने लगे। फिर कहीं से दो आदमी, एक छोटी-सी नाव पर
बैठकर, तीव्र गति से उधर चले। उन्होंने दो-तीन बार जाल डाला, पर असफल
हुए। फिर किनारे पर खड़े दर्शकों ने देखा कि वे दोनों धीरे-धीरे कुछ
खींच रहे हैं।
थोड़ी देर में उन्होंने एक शरीर निकालकर नाव में रखा और किनारे चले
आये।
दर्शकों की भीड़ लग गयी। सब अपने-अपने मत का दिग्दर्शन करने लगे।
‘‘कैसा बाँका जवान है।’’
‘‘अभी बिलकुल बच्चा है।’’
‘‘वह देखो, बाँह से खून निकल रहा है।’’
‘‘फौजी वर्दी पहने हुए है।’’
‘‘युवान शिकाई का आदमी तो नहीं है?’’
‘‘नहीं, सिर पर चोटी नहीं है, कैंटन का सिपाही होगा।’’
‘‘यह बाँह में गोली लगी है।’’
‘‘कितना खून बह गया है, पीला पड़ गया है।’’
‘‘मर गया है?’’
‘‘नहीं, अभी जीता है।’’
वह शरीर कुछ हिला, फिर उसने आँखें खोलीं, ‘‘मैं कहाँ हूँ?’’
‘‘यह है कैंटन। कहाँ से आ रहे हो?’’
‘‘कैंटन, वह लाल मकान?’’
आँखें फिर बन्द हो गयीं। थोड़ी देर बाद शरीर में कम्पन हुआ, आँख
खुलीं। उनमें एक विचित्र तेज था।
‘‘मुझे उठाकर ले चलो।’’
‘‘कहाँ?’’
‘‘वह बड़ा मकान-डायना पेइफू का-उसमें!’’ वे उसे उठाकर सावधानी से
धीरे-धीरे ले चले।
‘‘जल्दी! जल्दी!’’
वे तेज चलने लगे, तब भी उसे सन्तोष न हुआ।
‘‘और जल्दी!’’
वे दौडऩे लगे।
थोड़ी देर में उस मकान के सामने पहुँच गये। वह शरीर फिर संज्ञाशून्य
हो गया था।
उसने धीरे-धीरे आँखें खोलीं। वह एक बड़े सुन्दर कमरे में सोफे पर
पड़ी हुई थी। पास एक स्त्री खड़ी हुई थी। आँखें खुलती देखकर उसने
चिन्तित स्वर में पूछा ‘‘अब कैसा हाल है?’’
हारिति ने प्रश्न का उत्तर नहीं दिया। बोली, ‘‘आप ही डायना पेइफू
हैं?’’
‘‘हाँ, कहिए!’’
‘‘आपके लिए एक पत्र है।’’ हारिति ने पत्र निकालने का प्रयत्न किया,
पर हाथों में शक्ति नहीं थी। अपने कमरबन्द की ओर इंगित करके ही वह रह
गयी।
डायना ने स्वयं पत्र निकाला, और खोला। उसका मुख लाल हो गया। आँखों
लज्जा से कुछ झुक गयीं। उसने पत्र को चूम लिया, और धीरे से कहा,
‘‘प्रियतम!’’
हारिति देख रही थी। यह दृश्य देखकर उसके नेत्रों का तेज एकाएक बुझ
गया। उसने आँखें मूँद लीं। दो-तीन चित्र उसके आगे दौड़ गये-दो-तीन
स्मृतियाँ-वे मरते हुए बन्धु-वह दीन घोड़ा-क्वानयिन और उसके
शब्द-’’हारिति, हमारी जीत होगी।’’ ‘‘हारिति, क्या यह विदा है?’’
‘‘जाओ, हारिति, जाओ। तुम वीर हो-मैं भी अधीर नहीं होऊँगा।’’
व्यथा की एक रेखा उसके मुख पर दौड़ गयी। यही था काम, जिसके लिए उसने
इतनी मेहनत की थी; यही थी सेवा, जिसके लिए उसने इतना बलिदान किया था;
यही था अनुष्ठान, जिसकी पूर्ति के लिए उसने उस घोड़े की, उन बन्धुओं
की, और क्वानयिन-की आहुति दी थी-यह प्रेम-प्रवंचना।
हारिति को मालूम हुआ, उसका गला घुट रहा है। उसके निर्बल शरीर में
एकाएक स्फूर्ति आ गयी। उसने एक झटके में अपनी मोटी कमीज फाड़ डाली।
उसके मुख पर एक आन्तरिक विचार-तरंग की झलक, एक हल्की-सी हँसी छा
गयी-एक हँसी, जिसमें सफलता की शान्ति नहीं थी, विजय का गर्व नहीं था,
था केवल एक भयंकर उपहासमय तिरस्कार।
डायना ने उसकी ओर देखा और चौंकी। उसके मुख पर से वह अनुराग की आभा
बुझ गयी। हारिति के वक्ष की ओर देखती हुई विस्मित, चिन्तित, भीत स्वर
में वह बोली, ‘‘ओह! तुम-तुम तो स्त्री हो!’’
पर तब हारिति स्त्री नहीं रही थी। वहाँ जो पड़ा हुआ था, वह था केवल
किसी स्वर्गीय व्यक्ति का परित्यक्त शरीर।
और हारिति के उर पर पड़ा हुआ वह चीनी अजगर मानो उसके मुख पर व्यक्त
उस तिरस्कार को प्रतिबिम्बित करके हँसे जा रहा था।
(शीर्ष पर वापस)
अकलंक
वे दोनों उस टीले की चोटी पर
खड़े थे। चारों ओर काले-काले बादल घिरे हुए थे, धारासार वर्षा हो रही
थी, टीले के नीचे घहराता हुआ ह्वांग-हो नदी का प्रवाह था, और जहाँ तक
दृष्टि जाती थी, पानी-ही-पानी नजर आता था।
वे दोनों वर्षा की तनिक भी परवाह न करते हुए टीले के शिखर पर खड़े
थे।
वह चीनी प्रजातन्त्र सेना की
वर्दी पहने हुए था, और भीगता हुआ सावधान मुद्रा में खड़ा था।
स्त्री ने एक बड़ी-सी खाकी बरसाती में अपना शरीर लपेट रखा था। उसके
वस्त्राभूषण कुछ भी नहीं दीख पड़ते थे। उसने वेदना-भरे स्वर में कहा,
‘‘मार्टिन, तुम्हें भी अपना घर डुबा देना होगा। मेंड़ काट देना, नदी
स्वयं भर आएगी।’’
मार्टिन कुछ देर चुप रहा। फिर बोला, ‘‘क्रिस, क्या इसके अतिरिक्तकोई
उपाय नहीं है?’’
स्त्री ने चौंककर कहा, ‘‘मार्टिन, यह क्या? सेनापति की जो आज्ञा है,
उसका उल्लंघन करोगे?’’
‘‘उल्लंघन नहीं। लेकिन अगर बिना शत्रु को आश्रय दिये ही घर बच जाए,
तो क्यों न बचा लिया जाए!’’
‘‘औरों के भी तो घर थे?’’
‘‘वे किसान थे। मैं राष्ट्र का सैनिक हूँ। शायद अपने घर की शत्रु से
रक्षा कर सकूँ।’’
‘‘मार्टिन, तुम्हें क्या हो गया है? तुम अकेले क्या करोगे? हम सब
यहाँ से चले जाएँगे। शत्रु के लिए इतना विशाल भवन छोड़ दोगे, तो
हमारे बलिदान का क्या लाभ होगा? हमने अपने घर डुबा दिये हैं, केवल
इसीलिए कि शत्रु को आश्रय न मिले। और तुम अपना घर रह जाने दोगे?’’
‘‘मेरा घर इतना विशाल है कि उसमें समूचा गाँव आकर रह सकता है।’’
‘‘इसीलिए तो उसे डुबाना अधिक आवश्यक है। मार्टिन, सम्पत्ति का इतना
मोह!’’
मार्टिन को ऐसा प्रतीत हुआ, मानो किसी ने उसे थप्पड़ मार दिया हो। तन
केवल अंगहीन ही नहीं है मानो अशरीरी है, केवल एक दीप्त-अंगों से
क्या? अवयवों से क्या? ‘‘जाना गेलो, ऐटा छाड़ाओ चले’’-इस सबके बिना
काम चल सकता है। केवल दीप्ति : केवल संकल्प-शक्ति। रोटी, कपड़ा,
आसरा, हम चिल्लाते हैं, ये सब ज़रूरी है, नि:सन्देह जीवन के एक स्तर
पर ये सब निहायत ज़रूरी है, लेकिन मानव-जीवन की मौलिक प्रतिज्ञा यह
नहीं है; वह है केवल मानव का अदम्य, अटूट संकल्प...।
(शीर्ष पर वापस)
कलाकार की मुक्ति
मैं कोई कहानी नहीं कहता।
कहानी कहने का मन भी नहीं होता, और सच पूछो तो मुझे कहानी कहना आता
भी नहीं है। लेकिन जितना ही अधिक कहानी पढ़ता हूँ या सुनता हूँ उतना
ही कौतूहल हुआ करता है कि कहानियाँ आखिर बनती कैसे हैं! फिर यह भी
सोचने लगता हूँ कि अगर ऐसे न बनकर ऐसे बनतीं तो कैसा रहता? और यह
प्रश्न हमेशा मुझे पुरानी या पौराणिक गाथाओं की ओर ले जाता है। कहते
हैं कि पुराण-गाथाएँ सब सर्वदा सच होती है क्योंकि उनका सत्य
काव्य-सत्य होता है, वस्तु-सत्य नहीं। उस प्रतीक सत्य को युग के
परिवर्तन नहीं छू सकते।
लेकिन क्या प्रतीक सत्य भी
बदलते नहीं? क्या सामूहिक अनुभव में कभी परिवर्तन नहीं आता? वृद्धि
भी तो परिवर्तन है और अगर कवि ने अनुभव में कोई वृद्धि नहीं की तो
उसकी संवेदना किस काम की?
यहाँ तक पहुँचते-पहुँचते
मानो एक नई खिडक़ी खुल जाती है और पौराणिक गाथाओं के चरित-नायक नए
वेश में दीखने लगते हैं। वह खिडक़ी मानो जीवन की रंगस्थली में
खुलनेवाली एक खिडक़ी है, अभिनेता रंगमंच पर जिस रूप में आएँगे उससे
कुछ पूर्व के सहज रूप में उन्हें इस खिडक़ी से देखा जा सकता है। या यह
समझ लीजिए कि सूत्रधार उन्हें कोई आदेश न देकर रंगमंच पर छोड़ दे तो
वे पात्र सहज भाव से जो अभिनय करेंगे वह हमें दीखने लगता है और कैसे
मान लें कि सूत्रधार के निर्देश के बिना पात्र जिस रूप में सामने आते
हैं-जीते हैं-यही अधिक सच्चा नहीं है?
शिप्र द्वीप के महान कलाकार
पिंगमाल्य का नाम किसने नहीं सुना? कहते हैं कि सौन्दर्य की देवी
अपरोदिता का वरदान उसे प्राप्त है-उसके हाथ में असुन्दर कुछ बन ही
नहीं सकता। स्त्री-जातिमात्र से पिंगमाल्य को घृणा है लेकिन एक के
बाद एक सैकड़ों स्त्री-मूर्तियाँ उसने निर्माण की है। प्रत्येक को
देखकर दर्शक उसे उससे पहली निर्मित से अधिक सुन्दर बताते हैं और
विस्मय से कहते हैं, ‘‘इस व्यक्ति के हाथ में न जाने कैसा जादू है।
पत्थर भी इतना सजीव दीखता है कि जीवित व्यक्ति भी कदाचित् उसकी
बराबरी न कर सके। कहीं देवी अपरोदिता प्रस्तर-मूर्तियों में जान डाल
देतीं। देश-देशान्तर के वीर और राजा उस नारी के चरण चूमते जिसके अंग
पिंगमाल्य की छेनी ने गढ़े हैं और जिसमें प्राण स्वयं देवी अपरोदिता
ने फूँके हैं।’’
कभी कोई समर्थन में कहता,
‘‘हाँ, उस दिन पिंगमाल्य की कला पूर्ण सफल हो जाएगी, और उसके जीवन की
साधना भी पूरी हो जाएगी-इससे बड़ी सिद्धि और क्या हो सकती है!’’
पिंगमाल्य सुनता और व्यंग्य
से मुस्करा देता। जीवित सौन्दर्य कब तक पाषाण के सौन्दर्य की बराबरी
कर सकता है! जीवन में गति है, ठीक है; लेकिन गति स्थानान्तर के बिना
भी हो सकती है-बल्कि वह तो सच्ची गति है। कला की लयमयता-प्रवहमान
रेखा का आवर्तन और विर्वतन-यह निश्चल सेतु जो निरन्तर भूमि को
अन्तरिक्ष से मिलाता चलता है-जिस पर से हम क्षण में कई बार आकाश को
छूकर लौट आ सकते हैं-वही तो गति है! नहीं तो सुन्दरियाँ पिंगमाल्य ने
अमथ्य के उद्यानों में बहुत देखी थीं-उन्हीं की विलासिता और
अनाचारिता के कारण तो उसे स्त्री-जाति से घृणा हो गयी थी... उसे भी
कभी लगता कि जब वह मूर्ति बनाता है तो देवी अपरोदिता उसके निकट
अदृश्य खड़ी रहती है-देवी की छाया-स्पर्श ही उसके हाथों को प्रेरित
करता है, देवी का यह ध्यान ही उसकी मन:शक्ति को एकाग्र करता है। कभी
वह मूर्ति बनाते-बनाते अपरोदिता के अनेक रूपों का ध्यान करता
चलता-काम की जननी, विनोद की रानी, लीला-विलास की स्वामिनी, रूप की
देवी...
एक दिन साँझ को पिंगमाल्य
तन्मय भाव से अपनी बनायी हुई एक नई मूर्ति को देख रहा था। मूर्ति
पूरी हो चुकी थी और एक बार उस पर ओप भी दिया जा चुका था। लेकिन उसे
प्रदर्शित करने से पहले साँझ के रंजित प्रकाश में वह स्थिर भाव से
देख लेना चाहता था। वह प्रकाश प्रस्तर को जीवित त्वचा की सी क्रान्ति
दे देता है, दर्शक उससे और अधिक प्रभावित होता है, लेकिन कलाकार
उसमें कहीं कोई कोर-कसर रह गयी हो तो उसे भी देख लेता है।
किन्तु कहीं कोई कमी नहीं
थी, पिंगमाल्य मुग्ध माव से उसे देखता हुआ मूर्ति को सम्बोधन करके
कुछ कहने ही जा रहा था कि सहसा कक्ष में एक नया प्रकाश भर गया जो
साँझ के प्रकाश से भिन्न था। उसकी चकित आँखों के सामने प्रकट होकर
देवी अपरोदिता ने कहा, ‘‘पिंगमाल्य, मैं तुम्हारी साधना से प्रसन्न
हूँ। आजकल कोई मूर्तिकार अपनी कला से मेरे सच्चे रूप के इतना निकट
नहीं आ सका है, जितना तुम। मैं सौन्दर्य की पारमिता हूँ। बोलो, तुम
क्या चाहते हो-तुम्हारी कौन-सी अपूर्ण, अव्यक्त इच्छा है?’’
पिंगमाल्य अपलक उसे देखता हुआ किसी तरह कह सका, ‘‘देवि, मेरी तो कोई
इच्छा नहीं है। मुझमें कोई अतृप्ति नहीं है।’’
‘‘तो ऐसे ही सही,’’ देवी तनिक मुस्करायी, ‘‘मेरी अतिरिक्त अनुकम्पा
ही सही। तुम अभी मूर्ति से कुछ कहने जा रहे थे मेरे वरदान से अब
मूर्ति ही तुम्हें पुकारेगी-’’
रोमांचित पिंगमाल्य ने अचकचाते हुए कहा, ‘‘देवि...’’
‘‘और उसके उपरान्त...’’ देवी ने और भी रहस्यपूर्ण भाव से मुस्कराकर
कहा, ‘‘पर उसके अनन्तर जो होगा वह तुम स्वयं देखना, पिंगमाल्य! मैं
मूर्ति को नहीं, तुम्हें भी नया जीवन दे रही हूँ-और मैं आनन्द की
देवी हूँ!’’
एक हल्के-से स्पर्श से मूर्ति को छूती हुई देवी उसी प्रकार सहसा
अन्तर्धान हो गयी, जिस प्रकार वह प्रकट हुई थी।
लेकिन देवी के साथ जो आलोक प्रकट हुआ था, वह नहीं बुझा। वह मूर्ति के
आसपास पुंजित हो आया।
एक अलौकिक मधुर कंठ ने कहा, ‘‘मेरे निर्माता-मेरे स्वामी!’’ और
पिंगमाल्य ने देखा कि मूर्ति पीठिका से उतरकर उसके आगे झुक गयी है।
पिंगमाल्य काँपने लगा। उसके दर्शकों ने अधिक-से-अधिक अतिरंजित जो
कल्पना की थी वह तो सत्य हो आयी है। विश्व का सबसे सुन्दर रूप सजीव
होकर उसके सम्मुख खड़ा है, और उसका है। रूप भोग्य है, नारी भी...
मूर्ति ने आगे बढक़र पिंगमाल्य की भुजाओं पर हाथ रखा और अत्यन्त कोमल
दबाव से उसे अपनी ओर खींचने लगी।
यह मूर्ति नहीं, नारी है। संसार की सुन्दरतम नारी, जिसे स्वयं
अपरोदिता ने उसे दिया है। देवी जो गढ़ती है उससे परे सौन्दर्य नहीं
है; जो देती है उससे परे आनन्द नहीं है। पिंगमाल्य के आगे सीमाहीन
आनन्द का मार्ग खुला है।
जैसे किसी ने उसे तमाचा मार दिया है, ऐसे सहसा पिंगमाल्य दो कदम पीछे
हट गया। स्वर को यथासम्भव सम और अविकल बनाने का प्रयास करते हुए उसने
कहा, ‘‘तुम यहाँ बैठो।’’
रूपसी पुन: उसी पीठिका पर
बैठ गयी, जिस पर से वह उतरी थी। उसके चेहरे की ईषत् स्मित कक्ष में
चाँदनी बिखरेनी लगी।
दूसरे दिन पिंगमाल्य का कक्ष नहीं खुला। लोगों को विस्मय तो हुआ,
लेकिन उन्होंने मान लिया कलाकार किसी नई रचना में व्यस्त होगा।
सायंकाल जब धूप फिर पहले दिन की भाँति कक्ष के भीतर वायुमंडल को
रंजित करती हुई पडऩे लगी तब देवी अपरोदिता ने प्रकट होकर देखा कि
पिंगमाल्य अपलक वहीं-का-वहीं खड़ा है और रूपसी जड़वत् पीठिका पर बैठी
है। इस अप्रत्याशित दृश्य को देखकर देवी ने कहा, ‘‘यह क्या देखती
हूँ, पिंगमाल्य? मैंने तो तुम्हें अतुलनीय सुख का वरदान दिया था?’’
पिंगमाल्य ने मानो सहसा जागकर कहा, ‘‘देवी, यह आपने क्या किया?’’
‘‘क्यों?’’
‘‘मेरी जो कला अमर और अजर थी, उसे आप ने जरा-मरण के नियमों के अधीन
कर दिया! मैंने तो सुख-भोग नहीं माँगा-मैं तो यही जानता आया कि कला
का आनन्द चिरन्तन है।’’
देवी हँसने लगी, ‘‘भोले
पिंगमाल्य! लेकिन कलाकार सभी भोले होते हैं। तुम यह नहीं जानते कि
तुम क्या माँग रहे हो-या कि क्या तुम्हें मिला है जिसे तुम खो रहे
हो। किन्तु तुम चाहते हो तो और विचार करके देख लो। मैं तुम्हारी
मूर्ति को फिर जड़वत् किये जाती हूँ। लेकिन रात को तुम उसे पुकारोगे
और उत्तर न पाकर अधीर हो उठोगे। कल मैं आकर पूछूँगी-तुम चाहोगे तो कल
मैं इसमें फिर प्राण डाल दूँगी। मेरे वरदान वैकल्पिक नहीं होते।
लेकिन तुम मेरे विशेष प्रिय हो, क्योंकि तुम रूपस्रष्टा हो।’’
देवी फिर अन्तर्धान हो गयी।
उसके साथ ही कक्ष का आलोक भी बुझ गया। पिंगमाल्य ने लपककर मूर्ति को
छूकर देखा, वह मूर्ति ही थी, सुन्दर ओपयुक्त, किन्तु शीतल और
निष्प्राण।
विचार करके और क्या देखना
है? वह रूप का स्रष्टा है, रूप का दास होकर रहना वह नहीं चाहता।
मूर्ति सजीव होकर प्रेय हो जाए, यह कलाकार की विजय भी हो सकती है,
लेकिन कला की निश्चय ही वह हार है।...पिंगमाल्य ने एक बार फिर
मूत्र्त को स्पर्श करके देखा। कल देवी फिर प्रकट होगी और इस मूर्ति
में प्राण डाल देगी आज जो पिंगमाल्य की कला है, कल वह एक किंवदन्ती
बन जाएगी। लोग कहेंगे कि इतना बड़ा कलाकार पहले कभी नहीं हुआ, और यही
प्रशंसा का अपवाद भविष्य के लिए उसके पैरों की बेडिय़ाँ बन जाएगा...
किन्तु कल...
चौंककर पिंगमाल्य ने एक बार
फिर मूर्ति को छुआ और मूर्ति की दोनों बाँहें अपनी मुट्ठियों में
जकड़ लीं। कल... उसकी मु_ियों की पकड़ धीरे-धीरे शिथिल हो गयी। आज वह
मूर्ति है, पिंगमाल्य की गढ़ी हुई अद्वितीय सुन्दर मूर्ति, कल यह एक
नारी हो जाएगी-अपरोदिता से उपहार में मिली हुई अद्वितीय सुन्दर नारी।
पिंगमाल्य ने भुजाओं को पकड़ कर मूर्ति को ऊँचा उठा लिया और सहसा
बड़े जोर से नीचे पटक दिया।
मूर्ति चूर-चूर हो गयी।
अब वह कल नहीं आएगा। पिंगमाल्य की कला जरा-मरण के नियमों के अधीन
नहीं होगी। कला उसकी श्रेय ही रहेगी, प्रेय होने का डर अब नहीं है।
किन्तु अपरोदिता? क्या देवी का कोप उसे सहना होगा? क्या उसने
सौन्दर्य की देवी की अवज्ञा कर दी है! और इसीलिए अब उसकी रूप-कल्पी
प्रतिभा नष्ट हो जाएगी?
किन्तु अवज्ञा कैसी? देवी ने स्वयं उसे विकल्प का अधिकार दिया है।
पिंगमाल्य धरती पर बैठ गया
और अनमने भाव से मूर्ति के टुकड़ों को अँगुलियों से धीरे-धीरे
इधर-उधर करने लगा।
क्या देवी अब भी छायावत् उसकी कोहनी के पीछे रहेगी और उसकी अँगुलियों
कोप प्रेरित करती रहेगी? या कि वह उदासीन हो जाएगी? क्या वह-क्या वह
आज के कला साधना में अकेला हो गया है?
पिंगमाल्य अवष्टि-सा उठकर
खड़ा हो गया। एक दुर्दान्त साहसपूर्ण भाव उसके मन में उदित हुआ और
शब्दों में बँध आया। कला-साधना में अकेला होना ही तो साधक होना है।
वह अकेला नहीं हुआ है, वह मुक्त हो गया है।
वह आसक्ति से मुक्त हो गया है और वह देवी से भी मुक्त हो गया है।
कथा है कि पिंगमाल्य ने उस मूर्ति से जिसमें देवी ने प्राण डाले थे,
विवाह कर लिया था और उससे एक सन्तान भी उत्पन्न की थी, जिसने अनन्तर
प्रपोष नाम का नगर बसाया। किन्तु वास्तव में पिंगमाल्य की पत्नी
शिलोद्भवा नहीं थी। बन्धनमुक्त हो जाने के बाद पिंगमाल्य ने पाया कि
वह घृणा से भी मुक्त हो गया है। और उसने एक शीलवन्ती कन्या से विवाह
किया। भग्न मूर्ति के खंड उसने बहुत दिनों तक अपनी मुक्ति की स्मृति
में सँभाल रखे। मूर्ति के लुप्त हो जाने का वास्तविक इतिहास किसी को
पता नहीं चला। देवी ने भी पिंगमाल्य के लिए व्यस्त होना आवश्यक समझा।
क्योंकि कला-साधना की एक दूसरी देवी है, और निष्ठावान गृहस्थ जीवन की
देवी उससे भी भिन्न है।
और पिंगमाल्य की वास्तविक
कला-सृष्टि इसके बाद ही हुई। उसकी कीर्ति जिन मूर्तियों पर आधारित है
वे सब इस घटना के बाद ही निर्मित हुईं।
कहानी मैं नहीं कहता। लेकिन
मुझे कुतूहल होता है कि कहानियाँ आखिर बनती कैसे हैं? पुराण-गाथाओं
के प्रतीक सत्य क्या कभी बदलते नहीं? क्या सामूहिक अनुभव में अभी कोई
वृद्धि नहीं होती? क्या कलाकार की संवेदना ने किसी नए सत्य का
संस्पर्श नहीं पाया?
(शीर्ष पर वापस) |