गैंग्रीन
दोपहर में उस सूने आँगन में
पैर रखते ही मुझे ऐसा जान पड़ा, मानो उस पर किसी शाप की छाया मँडरा
रही हो, उसके वातावरण में कुछ ऐसा अकथ्य, अस्पृश्य, किन्तु फिर भी
बोझिल और प्रकम्पमय और घना-सा फैल रहा था...
मेरी आहट सुनते ही मालती बाहर निकली। मुझे देखकर, पहचानकर उसकी
मुरझायी हुई मुख-मुद्रा तनिक-सी मीठे विस्मय से जागी-सी और फिर
पूर्ववत् हो गयी। उसने कहा, ‘‘आ जाओ।’’ और बिना उत्तर की प्रतीक्षा
किये भीतर की ओर चली। मैं भी उसके पीछे हो लिया।
भीतर पहुँचकर मैंने पूछा,
‘‘वे यहाँ नहीं हैं?’’
‘‘अभी आए नहीं, दफ्तर में हैं। थोड़ी देर में आ जाएँगे। कोई डेढ़-दो
बजे आया करते हैं।’’
‘‘कब से गये हुए हैं?’’
‘‘सवेरे उठते ही चले जाते हैं।’’
मैं ‘हूँ’ कहकर पूछने को हुआ, ‘‘और तुम इतनी देर क्या करती हो?’’ पर
फिर सोचा आते ही एकाएक प्रश्न ठीक नहीं है। मैं कमरे के चारों ओर
देखने लगा।
मालती एक पंखा उठा लायी, और मुझे हवा करने लगी। मैंने आपत्ति करते
हुए कहा, ‘‘नहीं, मुझे नहीं चाहिए।’’ पर वह नहीं मानी, बोली, ‘‘वाह।
चाहिए कैसे नहीं? इतनी धूप में तो आए हो। यहाँ तो...’’
मैंने कहा, ‘‘अच्छा, लाओ मुझे दे दो।’’
वह शायद, ‘ना’ करनेवाली थी,
पर तभी दूसरे कमरे से शिशु के रोने की आवाज सुनकर उसने चुपचाप पंखा
मुझे दे दिया और घुटनों पर हाथ टेककर एक थकी हुई ‘हुँह’ करके उठी और
भीतर चली गयी।
मैं उसके जाते हुए, दुबले
शरीर को देखकर सोचता रहा। यह क्या है... यह कैसी छाया-सी इस घर पर
छायी हुई है...
मालती मेरी दूर के रिश्ते की बहिन है, किन्तु उसे सखी कहना ही उचित
है, क्योंकि हमारा परस्पर सम्बन्ध सख्य का ही रहा है। हम बचपन से
इकठ्ठे खेले हैं, इकठ्ठे लड़े और पिटे हंक और हमारी पढ़ाई भी बहुत-सी
इकठ्ठे ही हुई थी, और हमारे व्यवहार में सदा सख्या की स्वेच्छा और
स्वच्छन्दता रही है, वह कभी भ्रातृत्व के, या बड़े-छोटेपन के बन्धनों
में नहीं घिरा...
मैं आज कोई चार वर्ष बाद उसे
देखने आया हूँ। जब मैंने उसे इससे पूर्व देखा था, तब वह लडक़ी ही थी,
अब वह विवाहिता है, एक बच्चे की माँ भी है। इससे कोई परिवर्तन उसमें
आया होगा और यदि आया होगा तो क्या, यह मैंने अभी सोचा नहीं था,
किन्तु अब उसकी पीठ की ओर देखता हुआ मैं सोच रहा था, यह कैसी छाया इस
घर पर छायी हुई है... और विशेषतया मालती पर...
मालती बच्चे को लेकर लौट आयी
और फिर मुझसे कुछ दूर नीचे बिछी हुई दरी पर बैठ गयी। मैंने अपनी
कुरसी घुमाकर कुछ उसकी ओर उन्मुख होकर पूछा, ‘‘इसका नाम क्या है?’’
मालती ने बच्चों की ओर देखते हुए उत्तर दिया, ‘‘नाम तो कोई निश्चित
नहीं किया, वैसे टिटी कहते हैं।’’
मैंने उसे बुलाया, ‘‘टिटी, टीटी, आ जा’’ पर वह अपनी बड़ी-बड़ी आँखों
से मेरी ओर देखता हुआ अपनी माँ से चिपट गया, और रुआँसा-सा होकर कहने
लगा, ‘‘उहुँ-उहुँ-उहुँ-ऊँ...’’
मालती ने फिर उसकी ओर एक नजर
देखा, और फिर बाहर आँगन की ओर देखने ली...
काफ़ी देर मौन रहा। थोड़ी देर तक तो वह मौन आकस्मिक ही था, जिसमें मैं
प्रतीक्षा में था कि मालती कुछ पूछे, किन्तु उसके बाद एकाएक मुझे
ध्यान हुआ, मालती ने कोई बात ही नहीं की... यह भी नहीं पूछा कि मैं
कैसा हूँ, कैसे आया हूँ... चुप बैठी है, क्या विवाह के दो वर्ष में
ही वह बीते दिन भूल गयी? या अब मुझे दूर इस विशेष अन्तर पर-रखना
चाहती है? क्योंकि वह निर्बाध स्वच्छन्दता अब तो नहीं हो सकती... पर
फिर भी, ऐसा मौन, जैसा अजनबी से भी नहीं होना चाहिए...
मैंने कुछ खिन्न-सा होकर,
दूसरी ओर देखते हुए कहा, ‘‘जान पड़ता है, तुम्हें मेरे आने से विशेष
प्रसन्नता नहीं हुई-’’
उसने एकाएक चौंककर कहा, ‘‘हूँ?’’
यह ‘हूँ’ प्रश्न-सूचक था, किन्तु इसलिए नहीं कि मालती ने मेरी बात
सुनी नहीं थी, केवल विस्मय के कारण। इसलिए मैंने अपनी बात दुहरायी
नहीं, चुप बैठा रहा। मालती कुछ बोली ही नहीं, थोड़ी देर बाद मैंने
उसकी ओर देखा। वह एकटक मेरी ओर देख रही थी, किन्तु मेरे उधर उन्मुख
होते ही उसने आँखें नीची कर लीं। फिर भी मैंने देख, उन आँखों में कुछ
विचित्र-सा भाव था, मानो मालती के भीतर कहीं कुछ चेष्टा कर रहा हो,
किसी बीती हुई बात को याद करने की, किसी बिखरे हुए वायुमंडल को पुन:
जगाकर गतिमान करने कभी, किसी टूटे हुए व्यवहार-तन्तु को पुनरुज्जीवित
करने की, और चेष्टा में सफल न हो रहा हो... वैसे जैसे बहुत देर से
प्रयोग में न लाये हुए अंग को व्यक्ति एकाएक उठाने लगे और पाए कि वह
उठता ही नहीं है, चिरविस्मृति में मानो मर गया है, उतने क्षीण बल से
(यद्यपि वह सारा प्राप्य बल है) उठ नहीं सकता... मुझे ऐसा जान पड़ा
मानो किसी जीवित प्राणी के गले में किसी मृत जन्तु का तौक डाल दिया
गया हो, वह उसे उतारकर फेंकना चाहे, पर उतार न पाए...
तभी किसी ने किवाड़ खटखटाये।
मैंने मालती की ओर देखा, पर वह हिली नहीं। जब किवाड़ दूसरी बार
खटखटाये गये, तब वह शिशु को अलग करके उठी और किवाड़ खोलने गयी।
वे, यानी मालती के पति आए। मैंने उन्हें पहली बार देखा था, यद्यपि
फोटो से उन्हें पहचानता था। परिचय हुआ। मालती खाना तैयार करने आँगन
में चली गयी, और हम दोनों भीतर बैठकर बातचीत करने लगे, उनकी नौकरी के
बारे में, उनके जीवन के बारे में, उस स्थान के बारे में, और ऐसे अन्य
विषयों के बारे में जो पहले परिचय पर उठा करते हैं, एक तरह का
स्वरक्षात्मक कवच बनकर...
मालती के पति का नाम है
महेश्वर। वह एक पहाड़ी गाँव में सरकारी डिस्पेन्सरी के डॉक्टर हैं,
उसकी हैसियत से इन क्वार्टरों में रहते हैं। प्रात:काल सात बजे
डिस्पेंसरी चले जाते हैं और डेढ़ या दो बजे लौटते हैं, उसके बाद
दोपहर-भर छुट्टी रहती है, केवल शाम को एक-दो घंटे फिर चक्कर लगाने के
लिए जाते हैं, डिस्पेंसरी के साथ के छोटे-से अस्पातल में पड़े हुए
रोगियों को देखने और अन्य ज़रूरी हिदायतें करने... उनका जीवन भी
बिलकुल एक निर्दिष्ट ढर्रे पर चलता है, नित्य वही काम, उसी प्रकार के
मरीज, वही हिदायतें, वही नुस्खे, वही दवाइयाँ। वह स्वयं उकताये हुए
हैं और इसलिए और साथ ही इस भयंकर गरमी के कारण वह अपने फ़ुरसत के समय
में भी सुस्त ही रहते हैं...
मालती हम दोनों के लिए खाना
ले आयी। मैंने पूछा, ‘‘तुम नहीं खाओगी? या खा चुकीं?’’
महेश्वर बोले, कुछ हँसकर, ‘‘वह पीछे खाया करती है...’’
पति ढाई बजे खाना खाने आते
हैं, इसलिए पत्नी तीन बजे तक भूखी बैठी रहेगी!
महेश्वर खाना आरम्भ करते हुए मेरी ओर देेखकर बोले, ‘‘आपको तो खाने का
मजा क्या ही आएगा ऐसे बेवक्त खा रहे हैं?’’
मैंने उत्तर दिया, ‘‘वाह! देर से खाने पर तो और भी अच्छा लगता है,
भूख बढ़ी हुई होती है, पर शायद मालती बहिन को कष्ट होगा।’’
मालती टोककर बोली, ‘‘ऊहूँ, मेरे लिए तो यह नई बात नहीं है... रोज़ ही
ऐसा होता है...’’
मालती बच्चे को गोद में लिये हुए थी। बच्चा रो रहा था, पर उसकी ओर
कोई भी ध्यान नहीं दे रहा था।
मैंने कहा, ‘‘यह रोता क्यों है?’’
मालती बोली, ‘‘हो ही गया है
चिड़हिचड़ा-सा, हमेशा ही ऐसा रहता है।’’ फिर बच्चे को डाँटकर कहा,
‘‘चुप कर।’’ जिससे वह और भी रोने लगा, मालती ने भूमि पर बैठा दिया।
और बोली, ‘‘अच्छा ले, रो ले।’’ और रोटी लेने आँगन की ओर चली गयी!
जब हमने भोजन समाप्त किया तब तीन बजनेवाले थे, महेश्वर ने बताया कि
उन्हें आज जल्दी अस्पताल जाना है, वहाँ एक-दो चिन्ताजनक केस आए हुए
हैं, जिनका ऑपरेशन करना पड़ेगा... दो की शायद टाँग काटनी पड़े,
गैंग्रीन हो गया है... थोड़ी ही देर में वह चले गये। मालती किवाड़
बन्द कर आयी और मेरे पास बैठने ही लगी थी कि मैंने कहा, ‘‘अब खाना तो
खा लो, मैं उतनी देर टिटी से खेलता हूँ।’’
वह बोली, ‘‘खा लूँगी, मेरे खाने की कौन बात है,’’ किन्तु चली गयी।
मैं टिटी को हाथ में लेकर झुलाने लगा, जिससे वह कुछ देर के लिए शान्त
हो गया।
दूर... शायद अस्पताल में ही, तीन खडक़े। एकाएक मैं चौंका, मैंने सुना,
मालती वहीं आँगन में बैठी अपने-आप ही एक लम्बी-सी थकी हुई साँस के
साथ कह रही है, ‘‘तीन बज गये...’’ मानो बड़ी तपस्या के बाद कोई कार्य
सम्पन्न हो गया हो...
थोड़ी ही देर में मालती फिर आ गयी, मैंने पूछा, ‘‘तुम्हारे लिए कुछ
बचा भी था? सब कुछ तो...’’
‘‘बहुत था।’’
‘‘हाँ, बहुत था, भाजी तो सारी मैं ही खा गया था, वहाँ बचा कुछ होगा
नहीं, यों ही रौब तो न जमाओ कि बहुत था।’’ मैंने हँसकर कहा।
मालती मानो किसी और विषय की बात कहती हुई बोली, ‘‘यहाँ सब्जी-वब्जी
तो कुछ होती ही नहीं, कोई आता-जाता है, तो नीचे से मँगा लेते हैं;
मुझे आए पन्द्रह दिन हुए हैं, जो सब्जी साथ लाए थे वही अभी बरती जा
रही है...’’
मैंने पूछा, ‘‘नौकर कोई नहीें है?’’
‘‘कोई ठीक मिला नहीं, शायद दो-एक दिन में हो जाए।’’
‘‘बरतन भी तुम्हीं माँजती हो?’’
‘‘और कौन?’’ कहकर मालती क्षण-भर आँगन में जाकर लौट आयी। मैंने पूछा,
‘‘कहाँ गयी थीं?’’
‘‘आज पानी ही नहीं है, बरतन कैसे मँजेंगे?’’
‘‘क्यों, पानी को क्या हुआ?’’
‘‘रोज ही होता है... कभी वक्त पर तो आता नहीं, आज शाम को सात बजे
आएगा, तब बरतन मँजेंगे।’’
‘‘चलो तुम्हें सात बजे तक तो छुट्टी हुई’’ कहते हुए मैं मन-ही-मन
सोचने लगा, ‘‘अब इसे रात के ग्यारह बजे तक काम करना पड़ेगा, छुट्टी
क्या खाक हुई?’’
यही उसने कहा। मेरे पास कोई उत्तर नहीं था, पर मेरी सहायता टिटी ने
कह, एकाएक फिर रोने लगा और मालती के पास जाने की चेष्टा करने लगा।
मैंने उसे दे दिया।
थोड़ी देर फिर मौन रहा, मैंने जेब से अपनी नोटबुक निकाली और पिछले
दिनों के लिखे हुए नोट देखने लगा, तब मालती को याद आया कि उसने मेरे
आने का कारण तो पूछा नहीं, और बोली, ‘‘यहाँ आए कैसे?’’
मैंने कहा ही तो, ‘‘अच्छा, अब याद आया? तुमसे मिलने आया था, और क्या
करने?’’
‘‘तो दो-एक दिन रहोगे न?’’
‘‘नहीं, कल चला जाऊँगा, ज़रूरी जाना है।’’
मालती कुछ नहीं बोली, कुछ खिन्न-सी हो गयी। मैं फिर नोट बुक की तरफ़
देखने लगा।
थोड़ी देर बाद मुझे ही ध्यान हुआ, मैं आया तो हूँ मालती से मिलने
किन्तु, यहाँ वह बात करने को बैठी है और मैं पढ़ रहा हूँ, पर बात भी
क्या की जाए? मुझे ऐसा लग रहा था कि इस घर पर जो छाया घिरी हुई है,
वह अज्ञात रहकर भी मानो मुझे भी वश कर रही है, मैं भी वैसा ही नीरस
निर्जीव-सा हो रहा हूँ, जैसे-हाँ, जैसे यह घर, जैसे मालती...
मैंने पूछा, ‘‘तुम कुछ पढ़ती-लिखती नहीं?’’ मैं चारों ओर देखने लगा
कि कहीं किताबें दीख पड़ें।
‘‘यहाँ!’’ कहकर मालती थोड़ा-सा हँस दी। वह हँसी कह रही थी, ‘‘यहाँ
पढऩे को क्या?’’
मैंने कहा, ‘‘अच्छा, मैं वापस जाकर जरूर कुछ पुस्तकें भेजूँगा...’’
और वार्तालाप फिर समाप्त हो गया...
थोड़ी देर बाद मालती ने फिर पूछा, ‘‘आए कैसे हो, लारी में?’’
‘‘पैदल।’’
‘‘इतनी दूर? बड़ी हिम्मत की।’’
‘‘आखिर तुमसे मिलने आया हूँ।’’
‘‘ऐसे ही आये हो?’’
‘‘नहीं, कुली पीछे आ रहा है,सामान लेकर। मैंने सोचा, बिस्तरा ले ही
चलूँ।’’
‘‘अच्छा किया, यहाँ तो बस...’’ कहकर मालती चुप रह गयी फिर बोली, ‘‘तब
तुम थके होगे, लेट जाओ।’’
‘‘नहीं बिलकुल नहीं थका।’’
‘‘रहने भी दो, थके नहीं, भला थके हैं?’’
‘‘और तुम क्या करोगी?’’
‘‘मैं बरतन माँज रखती हूँ, पानी आएगा तो धुल जाएँगे।’’
थोड़ी देर में मालती उठी और चली गयी, टिटी को साथ लेकर। तब मैं भी
लेट गया और छत की ओर दखेने लगा... मेरे विचारों के साथ आँगन से आती
हुई बरतनों के घिसने की खन-खन ध्वनि मिलकर एक विचित्र एक-स्वर
उत्पन्न करने लगी, जिसके कारण मेरे अंग धीरे-धीरे ढीले पडऩे लगे, मैं
ऊँघने लगा...
एकाएक वह एक-स्वर टूट गया-मौन हो गया। इससे मेरी तन्द्रा भी टूटी,
मैं उस मौन में सुनने लगा...
चार खडक़ रहे थे और इसी का पहला घंटा सुनकर मालती रुक गयी थी...
वही तीन बजेवाली बात मैंने फिर देखी, अबकी बार और उग्र रूप में।
मैंने सुना, मालती एक बिलकुल अनैच्छिक, अनुभूतिहीन, नीरस यन्त्रवत-
वह भी थके हुए यन्त्र के-से स्वर में कह रही है, ‘‘चार बज गये’’ मानो
इस अनैच्छिक समय गिनने-गिनने में ही उसका मशीन-तुल्य जीवन बीतता हो,
वैसे ही, जैसे मोटर का स्पीडोमीटर यन्त्रवत् फासला नापता जाता है, और
यन्त्रवत् विश्रान्त स्वर में कहता है (किससे!) कि मैंने अपने अमित
शून्यपथ का इतना अंश तय कर लिया... न जाने कब, कैसे मुझे नींद आ गयी।
तब छह कभी के बज चुके थे,जब किसी के आने की आहट से मेरी नींद खुली,
और मैं ने देखा कि महेश्वर लौट आये हैं, और उनके साथ ही बिस्तर लिये
हुए मेरा कुली। मैं मुँह धोने को पानी माँगने को ही था कि मुझे याद
आया, पानी नहीं होगा। मैंने हाथों से मुँह पोंछते-पोंछते महेश्वर से
पूछा, ‘‘आपने बड़ी देर की?’’
उन्होंने किंचित् ग्लानि -भरे स्वर में कहा, ‘‘हाँ, आज वह गैंग्रीन
का ऑपरेशन करना ही पड़ा। एक कर आया हूँ, दूसरे को एम्बुलेंस में बड़े
अस्पताल भिजवा दिया है।’’
मैंने पूछा, ‘‘गैंग्रीन कैसे हो गया?’’
‘‘एक काँटा चुभा था, उसी से हो गया, बड़े लापरवाह लोग होते हैं यहाँ
के...’’
मैंने पूछा, ‘‘यहाँ आपको केस अच्छे मिल जाते हैं? आय के लिहाज से
नहीं, डॉक्टरी के अभ्यास के लिए?’’
बोले, ‘‘हाँ, मिल ही जाते हैं, यही गैंग्रीन, हर दूसरे-चौथे दिन एक
केस आ जाता है, नीचे बड़े अस्पताल में भी...’’
मालती आँगन से ही सुन रही थी, अब आ गयी, बोली,’’हाँ, केस बनाते देर
क्या लगती है? काँटा चुभा था, इस पर टाँग काटनी पड़े, यह भी कोई
डॉक्टरी है? हर दूसरे दिन किसी की टाँग, किसी की बाँह काट आते हैं,
इसी का नाम है अच्छा अभ्यास!’’
महेश्वर हँसे, बोले, ‘‘न काटें तो उसकी जान गँवाएँ?’’
‘‘हाँ, पहले तो दुनिया में काँटे ही नहीं होते होंगे? आज तक तो सुना
नहीं था कि काँटों के चुभने से मर जाते हैं...’’
महेश्वर ने उत्तर नहीं दिया, मुस्करा दिये, मालती मेरी ओर देखकर
बोली, ‘‘ऐसे ही होते हैं डॉक्टर, सरकारी अस्पताल है न, क्या परवाह
है। मैं तो रोज ही ऐसी बातें सुनती हूँ! अब कोई मर-मुर जाए तो खयाल
ही नहीं आता। पहले तो रात-रात भर नींद नहीं आया करती थी।’’
तभी आँगन में खुले हुए नल ने कहा, टिप् टिप् टिप् टिप् टिप् टिप्...
मालती ने कहा, ‘‘पानी!’’ और उठकर चली गयी। खनखनाहट से हमने जाना,
बरतन धोये जाने लगे हैं...
टिटी महेश्वर की टाँगों के सहारे खड़ा मेरी ओर देख रहा था, अब एकाएक
उन्हें छोड़ मालती की ओर खिसकता हुआ चला। महेश्वर ने कहा, ‘‘उधर मत
जा!’’ और उसे गोद में उठा लिया, वह मचलने और चिल्ला-चिल्लाकर रोने
लगा।
महेश्वर बोले... ‘‘अब रो-रोकर सो जाएगा, तभी घर में चैन होगी।’’
मैंने पूछा, ‘‘आप लोग भीतर ही सोते हैं? गरमी तो बहुत होती है?’’
‘‘होने को तो मच्छर भी बहुत होते हैं, पर यह लोहे के पलंग उठाकर बाहर
कौन ले जाए? अबकी नीचे जाएँगे तो चारपाइयाँ ले आएँगे।’’ फिर कुछ
रुककर बोले, ‘‘अच्छा तो बाहर ही सोएँगे। आपके आने का इतना लाभ ही
होगा।’’
टिटी अभी तक रोता ही जा रहा था। महेश्वर ने उसे एक पलंग पर बिठा दिया
और पलंग बाहर खींचने लगे, मैंने कहा, ‘‘मैं मदद करता हूँ,’’ और दूसरी
ओर से पलंग उठाकर निकलवा दिया।
अब हम तीनों... महेश्वर, टिटी और मैं पलंग पर बैठ गये और वार्तालाप
के लिए उपयुक्त विषय न पाकर उस कमी को छुपाने के लिए टिटी से खेलने
लगे, बाहर आकर वह कुछ चुप हो गया था, किन्तु बीचबीच में जैसे एकाएक
कोई भूला हुआ कर्र्तव्य याद करके रो उठता था, और फिर एकदम चुप हो
जाता था... और कभी-कभी हम हँस पड़ते थे, या महेश्वर उसके बारे में
कुछ बात कह देते थे...
मालती बरतन धो चुकी थी। जब वह उन्हें लेकर आँगन के एक ओर रसोई छप्पर
की ओर चली, तब महेश्वर ने कहा, ‘‘थोड़े-से आम लाया हूँ, वह भी धो
लेना।’’
‘‘कहाँ हैं?’’
‘‘अँगीठी पर रखे हैं, कागज में लिपटे हुए।’’
मालती ने भीतर जाकर आम उठाये और अपने आँचल में डाल लिये। जिस कागज
में वे लिपटे हुए थे वह किसी पुराने अखबार का टुकड़ा था। मालती
चलती-चलती सन्ध्या के उस क्षीण प्रकाश में उसी को पढ़ती जा रही थी...
वह नल के पास जाकर खड़ी उसे पढ़ती रही, जब दोनों ओर पढ़ चुकी, तब एक
लम्बी साँस लेकर उसे फेंककर आम धोने लगी।
मुझे एकाएक याद आया... बहुत दिनों की बात थी... जब हम अभी स्कूल में
भरती हुए ही थे। जब हमारा सबसे बड़ा सुख, सबसे बड़ी विजय थी हाजिरी
हो चुकने के बाद चोरी के क्लास से निकल भागना और स्कूल से कुछ दूरी
पर आम के बगीचे में पेड़ों में चढक़र कच्ची आमियाँ तोड़-तोड़ खाना।
मुझे याद आया... कभी जब मैं भाग आता और मालती नहीं आ पाती थी तब मैं
भी खिन्न-मन लौट आया करता था।
मालती कुछ नहीं पढ़ती थी,
उसके माता-पिता तंग थे, एक दिन उसके पिता ने उसे एक पुस्तक लाकर दी
और कहा कि इसके बीस पेज रोज पढ़ा करो, हफ्ते भर बाद मैं देखूँ कि इसे
समाप्त कर चुकी हो, नहीं तो मार-मारकर चमड़ी उधेड़ दूँगा, मालती ने
चुपचाप किताब ले ली, पर क्या उसने पढ़ी? वह नित्य ही उसके दस पन्ने,
बीस पेज, फाडक़र फेंक देती, अपने खेल में किसी भाँति फ़र्क़ न पडऩे
देती। जब आठवें दिन उसके पिता ने पूछा, ‘‘किताब समाप्त कर ली?’’ तो
उत्तर दिया- ‘‘हाँ, कर ली,’’ पिता ने कहा, ‘‘लाओ मैं प्रश्न
पूछूँगा,’’ तो चुप खड़ी रही। पिता ने फिर कहा, तो उद्धत स्वर में
बोली, ‘‘किताब मैंने फाडक़र फेंक दी है, मैं नहीं पढूँगी।’’
उसके बाद वह बहुत पिटी, पर
वह अलग बात है। इस समय मैं यही सोच रहा था कि वही उद्धत और चंचल
मालती आज कितनी सीधी हो गयी है, कितनी शान्त, और एक अखबार के टुकड़े
को तरसती है.... यह क्या, यह...
तभी महेश्वर ने पूछा, ‘‘रोटी कब बनेगी?’’
‘‘बस अभी बनाती हूँ।’’
पर अबकी बार जब मालती रसोई की ओर चली, तब टिटी की कर्तव्यभावना बहुत
विस्तीर्ण हो गयी,वह मालती की, ओर हाथ बढ़ाकर रोने लगा और नहीं माना,
मालती उसे भी गोद में लेकर चली गयी, रसोई में बैठकर एक हाथ से उसे
थपकने और दूसरे से कई एक छोटे-छोटे डिब्बे उठाकर अपने सामने रखने
लगी...
और हम दोनों चुपचाप रात्रि की, और भोजन की, और एक-दूसरे के कुछ कहने
की, और न जाने किस-किस न्यूनता की पूर्ति की प्रतीक्षा करने लगे।
हम भोजन कर चुके थे और बिस्तरों पर लेट गये थे और टिटी सो गया था।
मालती पलंग के एक ओर मोमजामा बिछाकर उसे उस पर लिटा गयी थी। वह सो
गया था, पर नींद में कभी-कभी चौंक उठता था। एक बार तो उठकर बैठ भी
गया था, पर तुरन्त ही लेट गया।
मैंने महेश्वर से पूछा, ‘‘आप तो थके होंगे, सो जाइए।’’
वह बोले, ‘‘थके तो आप अधिक होंगे... अठारह मील पैदल चलकर आये हैं।’’
किन्तु उनके स्वर ने मानो जोड़ दिया, ‘‘थका तो मैं भी हूँ।’’
मैं चुप रहा, थोड़ी देर में किसी अपर संज्ञा ने मुझे बताया, वह ऊँघ
रहे हैं।
तब लगभग साढ़े दस बजे थे, मालती भोजन कर रही थी।
मैं थोड़ी देर मालती की ओर देखता रहा, वह किसी विचार में-यद्यपि बहुत
गहरे विचार में नहीं, लीन हुई धीरे-धीरे खाना खा रही थी, फिर मैं
इधर-उधर खिसककर, पर आराम से होकर, आकाश की ओर देखने लगा।
पूर्णिमा थी, आकाश अनभ्र था।
मैंने देखा.. उस सरकारी क्वार्टर की दिन में अत्यन्त शुष्क और नीरस
लगनेवाली स्लेट की छत भी चाँदनी में चमक रही है, अत्यन्त शीतलता और
स्निग्धता से छलक रही है, मानो चन्द्रिका उन पर से बहती हुई आ रही
हो, झर रही हो...
मैंने देखा, पवन में चीड़ के वृक्ष... गरमी से सूखकर मटमैले हुए चीड़
के वृक्ष... धीरे-धीरे गा रहे हों... कोई राग जो कोमल है, किन्तु
करुण नहीं, अशान्तिमय है, किन्तु उद्वेगमय नहीं...
मैंने देखा, प्रकाश से धुँधले नीले आकाश के तट पर जो चमगादड़ नीरव
उड़ान से चक्कर काट रहे हैं, वे भी सुन्दर दीखते हैं...
मैंने देखा... दिन-भर की तपन, अशान्ति, थकान, दाह, पहाड़ों में से
भाप से उठकर वातावरण में खोये जा रहे हैं, जिसे ग्रहण करने के लिए
पर्वत-शिशुओं ने अपनी चीड़ वृक्षरूपी भुजाएँ आकाश की ओर बढ़ा रखी
हैं..
पर यह सब मैंने ही देखा, अकेले मैंने... महेश्वर ऊँघ रहे थे और मालती
उस समय भोजन से निवृत्त होकर दही जमाने के लिए मिट्टी का बरतन गरम
पानी से धो रही थी, और कह रही थी... ‘‘अभी छुट्टी हुई जाती है।’’ और
मेरे कहने पर ही कि ‘‘ग्यारह बजनेवाले हैं’’ धीरे से सिर हिलाकर जता
रही थी कि रोज ही इतने बज जाते हैं... मालती ने वह सब कुछ नहीं देखा,
मालती का जीवन अपनी रोज की नियत गति से बहा जा रहा था और एक चन्द्रमा
की चन्द्रिका के लिए, एक संसार के लिए, रुकने को तैयार नहीं था...
चाँदनी में शिशु कैसा लगता है, इस अलस जिज्ञासा ने मैंने टिटी की ओर
देखा और वह एकाएक मानो किसी शैशवोचित वामता से उठा और खिसककर पलंग से
नीचे गिर पड़ा और चिल्ला-चिल्लाकर रोने लगा। महेश्वर ने चौंककर कहा,
‘‘क्या हुआ?’’ मैं झपटकर उसे उठाने दौड़ा, मालती रसोई से बाहर निकल
आयी, मैंने उस ‘खट्’ शब्द को याद करके धीरे से करुणा-भरे स्वर में
कहा, ‘‘चोट बहुत लग गयी बेचारे के।’’
यह सब मानो एक ही क्षण में, एक ही क्रिया की गति में हो गया।
मालती ने रोते हुए शिशु को मुझसे लेने के लिए, हाथ बढ़ाते हुए कहा,
‘‘इसके चोटें लगती ही रहती हैं, रोज ही गिर पड़ता है।’’
एक छोटे क्षण-भर के लिए मैं
स्तब्ध हो गया, फिर एकाएक मेरे मन ने, मेरे समूचे अस्तित्व ने,
विद्रोह के स्वर में कहा-मेरे मन ने भीतर ही, बाहर एक शब्द भी नहीं
निकला -’’माँ, युवती माँ, यह तुम्हारे हृदय को क्या हो गया है, जो
तुम अपने एकमात्र बच्चे के गिरने पर ऐसी बात कह सकती हो-और यह अभी,
जब तुम्हारा सारा जीवन तुम्हारे आगे है?’’
और, तब एकाएक मैंने जाना कि
वह भावना मिथ्या नहीं है, मैंने देखा कि सचमुच उस कुटुम्ब में कोई
गहरी भयंकर छाया घर कर गयी है, उसके जीवन के इस पहले ही यौवन में घुन
की तरह लग गयी है, उसका इतना अभिन्न अंग हो गयी है कि वे उसे पहचानते
ही नहीं, उसी की परिधि में घिरे हुए चले जा रहे हैं। इतना ही नहीं,
मैंने उस छाया को देख भी लिया...
इतनी देर में, पूर्ववत् शान्ति हो गयी था। महेश्वर फिर लेटकर ऊँघ रहे
थे। टिटी मालती के लेटे हुए शरीर से चिपटकर चुप हो गया था, यद्यपि
कभी एक-आध सिसकी उसके छोटे-से शरीर को हिला देती थी। मैं भी अनुभव
करने लगा था कि बिस्तर अच्छा-सा लग रहा है। मालती चुपचाप आकाश में
देख रही थी, किन्तु क्या चन्द्रिका को या तारों को?
तभी ग्यारह का घंटा बजा,
मैंने अपनी भारी हो रही पलकें उठाकर अकस्मात् किसी अस्पष्ट प्रतीक्षा
से मालती की ओर देखा। ग्यारह के पहले घंटे की खडक़न के साथ ही मालती
की छाती एकाएक फफोले की भाँति उठी और धीरे-धीरे बैठने लगी, और
घंटा-ध्वनि के कम्पन के साथ ही मूक हो जानेवाली आवाज में उसने कहा,
‘‘ग्यारह बज गये...’’
(शीर्ष पर वापस)
जिजीविषा*
[*यह कहानी
पहले ‘जीवन शक्ति’ के नाम से छपी थी]
कलकत्ता, सेंट्रल एवेन्यू,
गिरीशपार्क से कुछ आगे दक्खिन की ओर सडक़ किनारे की चौड़ी पटरी।
बातरा अपनी घुटनों तक ऊँची,
कमके पास फटी हुई और छाती के सिर्फ बाएँ भाग को मुश्किल से ढाँपने
में समर्थ मैली धोती का छोर पकडक़र उसे बदन से सटाती हुई चल रही है।
वह चलना निरुद्देश्य है, लेकिन रस की अनुपस्थिति के कारण उसे टहलना
नहीं कहा जा सकता। वह यों ही वहाँ चल रही है; क्योंकि उसे भूख तो लगी
है, लेकिन भीख माँगने का उसका मन नहीं होता है। उसमें आत्माभिमान अभी
तक थोड़ा-थोड़ा बाकी है, और उसे यह भी दीखता है कि इस इतने बड़े बहुत
यथार्थ और बहुत यथार्थवादी शहर कलकत्ते में आकर भी वह यथार्थता को
ठीक-ठीक समझ नहीं पायी है, उसके हृदय में कुछ रस की माँग रहती है।
जैसे अब वह भूखी भी है तो सिर्फ रोटी पाना ही नहीं चाहती, पाने में
कुछ मिठास भी चाहती है। भूखे कुत्ते को रोटी मिलती है, तो लार तो
उसके मुँह से टपक ही आती है, फिर भी वह (हो सके तो) किसी घर से खास
अपने लिए आयी हुई रोटी को पसन्द करेगा, गली में माँगने नहीं जाएगा...
बातरा सन्थाल है। बच्ची थी,
तभी उसके माँ-बाप इधर चले आये थे और इसाई हो गये थे। पादरी ने ईसाइयत
के पानी से लडक़ी की खोपड़ी सींचते हुए जब उसका नाम बीएट्रिस रख दिया
था, तब माता-पिता भी बड़े चाव से उसे ‘बातरा! बातरा!’ कहकर पुकारने
लगे थे।
लेकिन वे मर गये। बातरा ने
चाहा, मिशन में जाकर नौकरी कर ले; लेकिन मिशन के भीतर पंजाब से आये
हुए ईसाई खानसामों का जो अलग मिशन था, उसकी नौकरी उसे मंजूर न हुई और
वह भाग आयी।
बातरा जानती थी कि वह
कुत्तों से अच्छी है। उसने मेमों के चिकने-चुपड़े मखमल में लिपटे और
प्लेट में ‘सामन’ मच्छी खानेवाले कुत्ते देखे थे और इस समय अपने
बिखरे और उलझे हुए जूँ-भरे केश, बवाइयों वाले नंगे पैर, और कलकत्ते
की धूप, बारिश और मैल से बिलकुल काला पड़ गया अपना पहले ही साँवला
शरीर, यह बस भी वह देख रही थी; फिर भी वह जानती थी कि वह कुत्तों से
अच्छी है। वह चाहती थी, अच्छी तरह साफ-सुथरे इनसान की तरह जीवन
बिताये, चाहती थी कि उसका अपना घर हो, जिसके बाहर गमले में दो फूल
लगाये और भीतर पालने में दो छोटे-छोटे बच्चों को झुलाये, और चाहती थी
कि कोई और उस पालने के पास खड़ा हुआ करे, जिसके साथ वह उन बच्चों
कोदेखने का सुख और अपने हाथ का सेका हुआ टुक्कड़ बाँटकर भोगा करे-कोई
और जो उसका अपना हो-वैसे नहीं जैसे मालिक कुत्ते का अपना होता है,
वैसे जैसे फूल खुशबू का अपना होता है। अब तक यह सब हुआ नहीं था;
लेकिन बातरा जानती थी कि वह होगा, क्योंकि बातरा अभी जवान है, और उस
कीच-कादों में पल रही है, जिससे जीवन मिलता है, जीवन-शक्ति मिलती है।
बातरा एवेन्यू की पटरी पर
टहलती जाती है और यह सब सोचती जाती है, और बीच-बीच में सिर उठाकर
इधर-उधर आने-जानेवाले लोगों की ओर भी देखती जाती है, आसपास के
भिखमंगों-आवारों-बेघरों की ओर भी।
उसकी आँखें एक आदमी की आँखों
से मिलती हैं जो उसकी ओर जाने कब से देख रहा है, अटकती हैं, हट जाती
हैं और फिर मिल जाती है। अबकी बार उनमें एक उद्दंडता-सी है,मानो कह
रही हों, तुम नहीं हटाते, तो मैं ही क्या हटाऊँ? मुझे काहे की लज्जा?
वह आदमी मुस्करा देता है,फिर
उठकर गिरीश पार्क की ओर चल देता है।
थोड़ी देर बाद बातरा उसी के पीछे चल देती है। वह नहीं जानती कि क्यों
उसे इस आधे से अधिक नंगे गठे हुए बदनवाले गन्दे आदमी के बारे में
कुतूहल हो आया है।
वह गिरीश पार्क की दीवार पर
बैठा हुआ आगे जानेवालों से भीख माँग रहा था। उसे कुछ खास मिलता नहीं
था; लेकिन माँगते वक्त वह एक विचित्र ढंग से मुस्करा देता था, जिसमें
कुछ बेबसी थी और कुछ बेशर्मी, और उसने अनुभव से जान लिया था कि
विशुद्ध गिडगिड़ाहट से यह ढंग अधिक फलदायक होता है, क्योंकि
गिड़गिड़ाने से करुणा तो जाग उठती है, पर अहंकार झुँझलाता है, लेकिन
इस बेशर्मी से अहंकार भी चुप होकर पैसा-दो पैसे कुर्बान कर ही देता
है।
बातरा ने पूछा, ‘‘ऐसे कुछ मिलता भी है?’’
वह एक हाथ से अपने पेट के पास टटोलते हुए बोला, ‘‘तुमको आज कुछ
मिला?’’
‘‘मैंने तो छुट्टी कर दी।’’
‘‘कुछ खाया? तुम्हारा नाम क्या है? कहाँ की हो?’’
‘‘बातरा।’’ कहकर बातरा चुप हो गयी, और उसकी चुप्पी में बाकी दोनों
प्रश्नों का उत्तर हो गया।
‘‘मेरा नाम दामू है।’’ कहकर उसने दूर पर बैठे हुए एक छाबड़ीवाले को
बुलाकर कहा, ‘‘ओ बे, दो अमरूद दे जा!’’
छाबड़ीवाले ने उपेक्षा से कहा, ‘‘आव ले जाव!’’
‘‘अबे पैसे मिलेंगे, दे जा!’’
‘‘वाह रे तेरे नखरे, भिखमंगे!’’ कहता हुआ छाबड़ीवाला मुस्कराता हुआ
उठा और दो अमरूद दे गया और पैसे ले गया।
‘‘खा।’’ कहकर दामू ने बड़ा अमरूद बातरा को दिया और दूसरा स्वयं खाने
लगा।
बातरा भी खाने लगी। और ज्यों-ज्यों वह खाती जाती थी, उसके भीतर
जीवन-शक्तिजाग्रत होती जाती थी...
(शीर्ष पर वापस)
[2]
बातरा के अट्ठारह सालों की
संचित लालसा ने मानो एक आधार पाया। गिरीश पार्क में कुछ आगे एक छोटा
किन्तु घना अशोक का पेड़ था, उसी के नीचे उसने अपना करीब-करीब स्थायी
अड्डा जमा लिया और उसी पेड़ के नीचे दूसरी तरफ़ दामू ने अपना अँगोछा
डालकर माँगने की और रहने की जगह बना ली। किसी दिन वह भीख माँगता, यदि
कभी चार पैसे मिल जाते, तो उसके अमरूद खरीदकर अपने अँगोछे पर सजाकर
दुकान कर लेता।
आसपास के दुकानदार जो उससे
परिचित थे-मजाक बनाते, लेकिन फिर अमरूद महँगे दामों खरीद भी लेते।
इसी प्रकार कभी दिन में चार-छ: पैसों का नफा हो जाता, तो दामू बातरा
के लिए तरबूज की एक फाँक ख़रीद लेता, या पकौडिय़ाँ ले आता और उसे कहता,
‘‘देख, आज तू किसी से मत माँगना।’’-
वह हँसकर कहती, ‘‘और कोई दे जाए तो?’’
‘‘तो कहना, ले जा, हम कोई भिखमंगे हैं?’’
और दोनों हँस पड़ते।
लेकिन इस लापरवाही से और कभी दैवात् बिक्री न होने से उसकी शाम इतनी
सुखद न होती और बातरा थके हुए स्वर में कहती, ‘‘भूख लग आयी...’’ तब
दामू एकाएक दुकान उठा लेता और दोनों जने फल बाँटकर खा जाते। अगले दिन
सवेरे ही दामू कहीं कहीं चल देता, गली-गली में भटककर और कचरा-पेटियाँ
देखकर पुराने टीन, बोतलें, टूटे पुर्जे बटोरकर लाता और एक कबाडिय़े के
पास दो-तीन पैसे में बेच लेता...
एक दिन से दूसरा दिन हो जाता, लेकिन कुछ जुटने की नौबत न आती और
बातरा की संचित लालसा उस कभी न फूलनेवाले अशोक के आस-पास चक्कर काटकर
रह जाती...लेकिन जैसे उसने हारना सीखा ही नहीं था, लालसा को कम उग्र
करना भी नहीं सीखा था।
साल-भर होने को आया।
गर्मियाँ फिर चुक चलीं, आकाश में बादल घिरने लगे। वे आते, घिरकर बिना
बरसे ही फिर बिखर जाते और बातरा को लगता, दुनिया गलत हो गयी है। वह
अशोक के दूसरी ओर बैठे हुए दामू की ओर देखती और न जाने क्यों उसका
हृदय उमड़ आता, उसमें खलबली-सी मच जाती, उसकी आँखों को धुँधला-सा
कुहरा-सा दीखने लगता और उन दोनों के बीच में खड़ा वह अशोक वृक्ष का
तना उसकी दृष्टि में काँप-सा उठता... वह आकाश की ओर मुँह उठाकर कहती,
‘‘अब तो बारिश होनी ही चाहिए!’’ और दामू भी आकाश की ओर देखता हुआ ही
उत्तर देता- ‘‘हाँ, अब तो मेरा जी भी तरस गया।’’
बातरा का हृदय मानो उछल
पड़ता, और वह जैसे पूछने को ही उठती, ‘‘किस चीज़ के लिए तरस गया
है?’’ पर साहस न होता और दिल फिर बैठ जाता...
और आस-पास के लोग भी देखने लगे कि उस अशोक वृक्ष के नीचे कुछ बदल गया
है। वे लोग बीच-बीच में कभी एक तीखी दृष्टि से बातरा की ओर देखते, उस
दृष्टि में थोड़ा-सा उपहास और थोड़ी-सी लोलुप-सी प्रशंसा भी होगी।
बातरा उस दृष्टि को देखती, तो सिमट-सी जाकर अपने से पूछ उठती, ‘‘क्या
मेरी सूरत अच्छी है?’’ फिर उसका ध्यान अपने साँवले बदन की और अपने
सूखे बालों की ओर जाता और प्रश्न मानो मूक होकर बैठ जाता।
(शीर्ष पर वापस)
[3]
‘‘आज तो होकर रहेगी।’’
दामू ने बातरा की ओर देखा, फिर उसकी दृष्टि का अनुसरण करते हुए आकाश
की ओर, और बैठते हुए बोला, ‘‘हाँ, लो यह लाया हूँ।’’
रात को बातरा ने गली में
कचरा-पेटी के पीछे छिपकर यह दूसरी धोती लपेटी, जो पुरानी और कुछ मैली
तो थी, पर फटी कहीं से नहीं थी और मोटी भी खूब थी। अपनी जगह लौटकर
उसने पुरानी धोती नीचे बिछायी, कुछ दिन पहले लाये गये बोरिये के
टुकड़े को ऊपर ओढऩे के लिए रखा और पेड़ की आड़ में दामू की ओर देखने
लगी।
रात को बारिश शुरू हुई।
लेकिन बातरा को लगा कि वह जैसे भीग ही नहीं रही है, उस बोरिये के
टुकड़े से इतना काफ़ी बचाव हो रहा था। लेकिन हवा के झोंकों से जब वह
बोरिया बार-बार उडऩे लगा और साथ ही धोती को भी उड़ाने लगा, तब बातरा
पेड़ की आड़ लेने के लिए बिलकुल उसके तने से सट गयी।
दूसरी ओर सटे हुए दामू ने
पूछा, ‘‘क्यों भीग रही हो?’’ और बोरिये का छोर पकडक़र बातरा के बदन के
नीचे दाब दिया।
तब आधी रात थी। वक्तवैसे बहुत नहीं हुआ था, फिर भी बारिश की वजह से
एवेन्यू सुनसान पड़ा था। बिजली की गडग़ड़ाहट सभ्यता की नीरवता को और
भी स्पष्ट कर रही थी। बातरा को लगा, वह अकेली है, और उसे कुछ ठंड-सी
भी लगी। उसने पेड़ के और निकट सिमटते हुए कहा, ‘‘नहीं...’’
दामू ने उसकी ओर हाथ बढ़ाकर बाल छूते हुए कहा, ‘‘भीग तो गयी...’’
बातरा के भीतर उसका एकान्त सहसा उमड़-उमड़ आया, उसकी पुरानी लालसा
तड़प उठी.. दामू का कोमल स्वर सुनकर उसके भीतर न जाने क्या हुआ, वह
एकाएक हतप्रभ, शून्य-सी होकर अपने ऊपर छाये हुए और कभी-कभी चमक
जानेवाले अशोक के गीले पत्तों की ओर देखने लगी...
दामू ने फिर बुलाया, ‘‘क्या हुआ, बातरा?’’
‘‘कुछ नहीं।’’
‘‘कुछ कैसे नहीं? बताओ न? कोई तकलीफ है?’’
बातरा से सहा नहीं गया। उसका बदन जैसे एकदम तप उठा। वह उठकर बैठ गयी,
बोरिया उसने उतार फेंका, अशोक के तने की छाल में एक हाथ के नाखून जोर
से गड़ाकर, आँखें फाड़-फाडक़र सडक़ की धुली हुई कालिख की ओर देखने
लगी...
दामू ने उसका हाथ धीरे-धीरे पेड़ से अलग कर अपने दोनों हाथों में ले
लिया। बातरा ने छुड़ाया नहीं-उसे जैसे पता नहीं था कि वह कहाँ है...
दामू ने पुकारा, ‘‘बातरा!’’
वह चौंकी। उसने दामू का हाथ झटक दिया, पेड़ से कुछ हटकर बैठ गयी।
बोली, ‘‘मुझे मत बुलाओ!’’
‘‘क्यों?’’ अचम्भे के स्वर में पूछता हुआ दामू उठा और पेड़ के इधर
बैठ गया।
‘‘मुझे माँ की याद आ गयी, वह ऐसे बुलाती थी।’’ कहकर बातरा एकाएक रो
उठी और थोड़ी देर में उसकी हिचकी बँध गयी...
दामू ने कहा, ‘‘लेट जाओ!’’ वह बिना विरोध किये लेट गयी। दामू उसका
सिर थपकने लगा और वह सो गयी।
सवेरा होने को हुआ, तब भी अभी दामू वहीं बैठा था। बातरा एकदम
हड़बड़ाकर उठी और बोली, ‘‘अरे-’’
दामू ने जल्दी से टोकते हुए पूछा, ‘‘क्यों, फिर भी याद आयी?’’
बातरा को अपनी रात में कही हुई बात याद आ गयी। वह झूठ नहीं बोली थी;
लेकिन अब उसे लगा कि वह सच नहीं था...
उसने दामू से कहा, ‘‘तुम सोये नहीं? जाओ सोओ।’’
लेकिन दामू पेड़ के दूसरी तरफ़ नहीं लौटा। उसे लगा कि पेड़ के एक तरफ
से दूसरी तरफ़ आने का पड़ाव डेढ़ वर्ष में तय कर पाया है, तो एक बार
कहने से नहीं लौटेगा।
और एक बार से अधिक बातरा ने कहा भी नहीं। आस-पास के दुकानदारों ने यह
नई व्यवस्था देखी तो एक-दूसरे को बुलाकर उन पर फबतियाँ कसने लगे; एक
ने सुनाकर कहा, ‘‘आखिर खुल ही गयी हकीकत राँड़ की!’’ लेकिन बातरा ने
जब उद्दंड रोष से कहा, ‘‘चुप रहो, लाला!’’ तब वह वीभत्स हँसी हँसकर
चुप हो गया।
और बातरा को पैसे अधिक मिलने लगे। लोगों के भीतर छिपा हुआ शैतान जब
समझता है कि दूसरों के भीतर भी शैतान बसा है, तब उसकी उस कल्पित
मूर्ति को सिर झुकाये बिना नहीं रहता, फिर बाहर से चाहे जो कहे!
और बातरा के भीतर जीवन-शक्ति उमडऩे लगी, उसकी वह उत्कंठा घनी होने
लगी- कभी-कभी रात में वह न जाने कैसा स्वप्न देखकर चौंक उठती और अपना
भीगा हुआ सिर दामू के कन्धे में छिपाकर अपना बोरिया का टुकड़ा कुछ
दामू के ऊपर भी खींचकर जरा-सा काँपकर फिर सो जाती...
(शीर्ष पर वापस)
[4]
सर्दियाँ आयीं, तो बातरा के
ऊपर एक जेल से नीलाम हुए काले कम्बल का आधा हिस्सा था, दामू के सिर
पर एक पुरानी खाकी पगड़ी। और जब बसन्त के दिनों एक शाम को गिरीश
पार्क के पिछवाड़े से मधुमालती की एक बेल में से कुछ फूल तोडक़र
उन्हें दामू के पास डालते हुए बातरा ने अपनी पीड़ा को दबाते हुए
लज्जित स्वर में कहा था, ‘‘मैं अभी आती हूँ, तुम यहीं रहना।’’ और एक
ओर को चल दी थी, तब अशोक के पड़ के नीचे एक अलमोनियम का गिलास पड़ा
था, एक लिपटी हुई छोटी चटाई, एक टूटी कंघी, एक पीतल की डिबिया, एक
पेड़ की शाख में एक पीले कपड़े की पोटली भी टँगी हुई थी। बात जब इन
दो बरसों में इकठ्ठी हुई चीज़ों को देखती थी, तब उसका जी भर आता था,
उसे लगता था कि उसकी लालसा अब फलने के निकट है, क्योंकि अब तो-अब
तो... और वह लज्जा में सिमट जाती थी, चोरी से दामू की तरफ देखती थी
कि कहीं उसने यह देख तो नहीं लिया, उसके स्वप्न पढ़ तो नहीं लिए...
तो उस दिन साँझ को वह दामू
को मधुमालती के फूल देकर चल दी, और रात नहीं लौटी। दामू को प्रतीक्षा
में बैठे-बैठे भोर हो आया, तब वह आयी, अपनी लालसा के स्वर्ग की एक ओर
सीढ़ी चढक़र-गोद में एक गुदड़ी में लिपटा हुआ शिशु लिये हुए। दामू ने
उसके पीले मुँह की ओर देखा, फिर उसकी एक विचित्र स्निग्ध प्रकाश से
भरी हुई आँखों की ओर, और मौन स्वीकृति में सब-कुछ अपनाकर कहा, ‘‘अरे,
हम तो कुनबा हो गये!’’
कितना मधुर था वह एक शब्द ‘कुनबा’-एक सिहरन-सी बातरा के शरीर में
दौड़ गयी। वह खड़ी न रह सकी, धम से बैठ गयी-
दामू ने कहा, ‘‘अब धूप तो नहीं लगा करेगी?’’
धीरे-धीरे टीन की चादर का एक टुकड़ा आया जो पेड़ के साथ बँध गया और
छतरी का काम देने लगा, फिर एक बहुत छोटी-सी खाट जिसकी रस्सियाँ धुएँ
से काली पड़ी हुई थीं और जिस पर बातरा के बहुत सँभलकर बैठने पर भी
रोज एक-न-एक रस्सी टूट ही जाती थी, फिर एक छाबड़ी जिसमें चकोतरे की
फाँकें और पान के बीड़े तक सजने लगे। कभी-कभी कोई आकर दामू के पास
बैठता, तो एक बोतल सोडे की भी आ जाती...
बातरा अपने सब ओर फैलते हुए
परिग्रह की ओर देखती, फिर ऊपर टीन की छत की ओर और फिर अनदेखती-सी
दृष्टि से दूर की उस मधुमालती लता के फूलों की ओर देखकर सोचती, कभी
गमले भी आ जाएँगे-मेरे फूल...
फिर बरसात आयी, तब बच्चे ने चिल्ला-चिल्लाकर नाक में दम कर दिया। तब
अशोक की शाखा में एक पालना भी बँधा और टीन की छत के साथ बाँधकर
बोरिये के टुकड़े आड़ के लिए लटक गये।
एक आदमी के भीतर जो शैतान
होता है, वह तब एक दूसरे आदमी के भीतर के शैतान का पक्ष लेता है, जब
तक कि उसका स्वार्थ न बिगड़े। पास-पड़ोस के दुकानदार दामू को बदमाश
और बातरा को राँड़ से कम कभी कुछ नहीं कहते थे, फिर भी उनके प्र्रति
काफ़ी सहनशील रहते थे, अपने गन्दे मजाक के भाईचारे में उन्हें खींच
लिया करते थे। लेकिन अब पेड़ के बने इस घोंसले को देखकर कुछ को लगा
कि उनकी दुकान के आगे की जगह घिर रही है और ग्राहक की दृष्टि से वह
छिप गयी है। दामू और बातरा के प्रति उनकी उदारता मिटने लगी, और अब
उन्हें यह सोचकर दुगुना क्रोध आने लगा कि इस परिवार पर उन्होंने इतनी
मेहरबानी क्यों दिखायी...
लेकिन दिन बीतते गये, और
बातरा स्वप्न देखती आयी... उसके भीतर जो शक्ति थी, जिसने हारना नहीं
जाना था, आगे देखना ही जाना था, वह भोजन पकाकर बढऩे लगी।
(शीर्ष पर वापस)
[5]
और फिर सर्दियाँ आयीं, फिर
ग्रीष्म। फिर बारिश हुई, ख़ूब हुई और चुक चली।
शरद के मधुर दिन आये, दीवाली के आलोक से कलकत्ता जगमगा उठा, उस
बोरिये कसे घिरे हुए और टीन से छाये हुए थोड़े-से स्थान में भी दो
मोमबत्तियों के आलोक ने काँपकर कहा, अरे, मुझे इससे अधिक आड़ नहीं
मिलेगी? और निराश होकर बुझ गया फिर धीरे-धीरे ठंड बढऩे लगी और रातों
में ओस भी पडऩे लगी... दिन अच्छे थे; बातरा को कभी बचपन में देखे हुए
अपने ऊबड़-खाबड़ प्यारे देश की याद आ जाती; लेकिन वह कुछ अस्वस्थ
रहने लगी। उसकी आँखें भर-भर-सी जाती और दूर कहीं के ध्यान
में-अनुभूति में खो जातीं; कभी उसे लगता, उसके भीतर न जाने क्या
काँप-सा रहा है, कभी उसके जी मिचला उठता, उसे लगा कि उसका शरीर एकदम
से शिथिल हो गया, आँखें भारी होकर निकम्मी हो गयी हैं। वह घबराकर बैठ
जाती... तब एक दिन एकाएक वह जान गयी कि उसे क्या हुआ हैं, और लज्जा
से भरकर उसने दामू से कहा, ‘‘मैं भीतर ही रहूँगी’’ दामू पहले समझा
नहीं, फिर गम्भीर हो गया, फिर कुछ चिन्तित-सा होकर बातरा के कन्धे पर
हाथ रखकर थोड़ी देर खड़ा रहा, और तब बाहर चला गया...
महीने-भर के अन्दर ही बातरा ने देखा, उस अशोक के नीचे बँधे हुए टीन
के चारों और बोरिये की बजाय टीन की चादरें लग गयी हैं, जिसे उसका
छोटा-सा बच्चा हाथ से पकडक़र हिलाता है, और खनखन ध्वनि होने पर जरा
रुककर माँ की ओर देखता हुआ अपनी चालाक आँखों से मुस्कुरा देता है।
बातरा कहती है, ‘‘चल बदमाश!’’ तब खिलखिलाकर हँस पड़ता है।
जिस दिन सामने की ओर टीन की कटी हुई चादर बाँधकर बन्द हो सकने वाला
किवाड़ बन गया, उस दिन भीतर आकर दामू ने झूठमूठ की कठोरता से कहा,
‘‘अब तो झूठ बोलकर नहीं भागेगी, बाती?’’
बातरा कुछ न बोल सकी। उसकी आँखें, उसका हृदय, उसका मन एकाएक उस
स्वप्न से पुलक उठा-दो बच्चे, दो गमले, दो-एक फूल, और-और...
(शीर्ष पर वापस)
[6]
लेकिन सवेरे पिछवाड़े के
दुकानदार ने कहा, ‘‘क्यों बे दामू के बच्चे, यहाँ हवेली खड़ी करेगा
क्या?’’
दामू ने कहा, ‘‘लाला, हमें भी तो रहने को जगह चाहिए, तुम तो-’’
‘‘ऐंहें! बड़ा आया घर में रहनेवाला! और जब यहीं नंगा पड़ा रहता था और
कुत्ते बदन चाटते थे तब?’’ फिर तीखे वीभत्स व्यंग्य से, ‘‘अब वह आ
गयी है न लुगाई, तभी तो घर चाहिए उसके...’’
दामू ने उद्धत होकर कहा, ‘‘लाला, आबरू रखनी है, तो जबान सँभालकर बात
कहो!’’
लाला चुप हो गया। पर शाम को कॉरपोरेशन के इन्स्पेक्टर ने आकर अपनी
छड़ी बातरा की पीठ में गड़ाते हुए कर्कश स्वर में पूछा, ‘‘क्यों री,
यह सब क्या है?’’
बातरा लेटी थी। दामू कहीं
गया हुआ था। उठकर बच्चे को गोद से उतारती हुई बोली, ‘‘क्यों? मेरा
घर।’’
‘‘तेरे बाप की खरीदी हुई जमीन थी, जो घर बनाया? बनी है नवाबजादी
टके-टके के लिए गलियों में ऐसी-तैसी कराती है, यहाँ सेंट्रल एवेन्यू
पर घर चाहिए?’’
बरस-भर से बातरा ने किसी को
गाली नहीं दी थी, न दुकानदारों के तकियाकलाम ‘राँड़’ शब्द के
अतिरिक्त कोई गाली सुनी ही थी। अब इंस्पेक्टर के मुँह से यह
पुण्यसलिता फूटती देखकर वह एकाएक कुछ कह न सकी, उससे हुआ तो सिर्फ
इतना कि उसने खींचकर एक थप्पड़ इंस्पेक्टर के मुँह पर मार दिया!
इंस्पेक्टर एक क्षण भौंचक रह
गया, फिर उसने अपनी छड़ी से बातरा की छाती में, कमर में, टाँगों में
प्रहार करना आरम्भ किया और जबान से इंस्पेक्शन के दौरे करते-करते
दिमाग में भरकर सड़ाँध पैदा करती हुई तमाम कलकत्ते की गन्दगी उगलने
लगा। और आखिर में बच्चे को एक ठोकर मारकर आगे बढ़ा और पुकारने लगा-
‘‘पुलिस! पुलिस!’’
पुलिस आयी। बातरा के हथकड़ी
लग गयी। सहमे हुए बच्चे को अपनी नंगी छाती से चिपटाये उसने देखा,
उसकी पोटली, चटाई, चारपाई, गिलास सब पुलिस ने जब्त कर लिये, और उसकी
स्थिर अनझिप आँखों के आगे टीन की चादरें भी उतर आयीं और अशोक का पेड़
वैसा ही नंगा हो गया, जैसा तीन वर्ष पहले था-नशे-में ही बातरा घिसटती
हुई थाने की अेार चली, उसे होश तक नहीं आया, जबकि हिरासत में बन्द
होकर वह बच्चे को नीचे बिठाने लगी-तक उसने देखा कि बच्चे की गर्दन एक
ओर लटक रही है और मुँह से लार में मिला हुआ खून बह रहा है।
सिपाही ने आकर उसकी फटी धोती
का छोर खींचते हुए कहा, ‘‘इसे निकालो, तलाशी ली जाएगी।’’ लेकिन बातरा
को होश नहीं था। सिपाही उसका बहुत बढ़ा हुआ और कुरूप पेट देखकर धोती
वहीं फेंककर झेंपा हुआ-सा बाहर निकल गया है, वह उसे भी नहीं मालूम
हुआ; बाहर दो-तीन कांस्टेबलों की वीभत्स हँसी भी उसने नहीं सुनी उसने
यन्त्रवत् धोती में बच्चे को लपेटा, उसे गोद में लेकर धोती के छोर से
उसका मुँह पोंछा, फिर उठकर कोठरी के कोने के अँधेरे में सिमटकर बैठ
गयी।
सवेरे चार बजे उसे कोठरी से
निकाल दिया गया। बच्चा उसे नहीं दिया गया-साधनहीन लोगों के मुर्दे
जलाने का पुण्यकार्य कारपोरेशन कर देता है।
(शीर्ष पर वापस)
[7]
गिरीश पार्क से पूर्व की ओर
मुडक़र विवेकानन्द रोड पर कोयले की दुकान के हाते को घेरेनेवाली टीन
की चादरों की दीवार की आड़ में दामू और बातरा।
दामू कुछ पुराने अख़बारों के
गट्ठर में से अखबार निकालकर एक के ऊपर एक बिछाता जा रहा है, कि बैठने
लायक जगह बन जाए; बातरा टीन की चादर को सँभालने वाले खम्भों के सहारे
खड़ी प्रतीक्षा कर रही है। मदद उससे की नहीं जाती, उसकी टाँगें काँप
रही हैं। वह फटी-फटी-सी दृष्टिहीन-सी आँखों से बिछते हुए कागजों की
ओर देखती जाती है, ऐसे मानो आँखें बाहर की ओर नहीं, भीतर की ओर देख
रही हों, जहाँ उसमें दुर्बल, असहाय, लेकिन नया जीवन छटपटा रहा है;
जहाँ एक अदम्य जीवन-शक्ति नींद में भी तड़प उठती है अकथनीय सपने
देखकर-दरवाजे के आगे दो छोटे-छोटे फूल-भरे गमले, भीतर पालने में दो
छोटे-छोटे बच्चे, और बातरा के पास एक और-कोई एक और...
(शीर्ष पर वापस)
रमन्ते तत्र देवता:
अक्टूबर सन् 1946 का
कलकत्ता। तब हम लोग दंगे के आदी हो गये थे, अख़बार में
इक्के-दुक्केखून और लूटपाट की घटनाएँ पढक़र तन नहीं सिहरता था; इतने
से यह भी नहीं लगता था कि शहर की शान्ति भंग हो गयी। शहर बहुत-से
छोटे-छोटे हिन्दुस्तान-पाकिस्तानों में बँट गया था, जिनकी सीमाओं की
रक्षा पहरेदार नहीं करते थे, लेकिन जो फिर भी परस्पर अनुल्लंघ्य हो
गये थे। लोग इसी बँटी हुई जीवन-प्रणाली को लेकर भी अपने दिन काट रहे
थे; मान बैठे थे कि जैसे जुकाम होने पर एक नासिका बन्द हो जाती है तो
दूसरी से श्वास लिया जाता है-तनिक कष्ट होता है तो क्या हुआ, कोई मर
थोड़े ही जाता है?- वैसे ही श्वास की तरह नागरिक जीवन भी बँट गया तो
क्या हुआ... एक नासिका ही नहीं, एक फेफड़ा भी बन्द हो जा सकता है और
उसकी सडऩ का विष सारे शरीर में फैलता है और दूसरे फेफड़े को भी
आक्रान्त कर लेता है, इतनी दूर तक रूपक को घसीट ले जाने की क्या
जरूरत?
बीच-बीच में इस या उस
मुहल्ले में विस्फोट हो जाता था। तब थोड़ी देर के लिए उस या आसपास के
मुहल्लों में जीवन स्थगित हो जाता था, व्यवस्था पटकी खा जाती थी और
आतंक उसी छाती पर चढ़ बैठता था। कभी दो-एक दिन के लिए गड़बड़ रहती
थी, तब बात कानोंकान फैल जाती थी कि ‘ओ पाड़ा भालो ना’ और दूसरे
मुहल्लों के लोग दो-चार दिन के लिए उधर आना-जाना छोड़ देते थे। उसके
बाद ढर्रा फिर उभर आता था और गाड़ी चल पड़ती थी...
हठात् एक दिन कई मुहल्लों पर
आतंक छा गया। वे वैसे मुहल्ले थे जिनमें हिन्दुस्तान-पाकिस्तान की
सीमाएँ नहीं बाँधी जा सकती थीं क्योंकि प्याज की परतों की तरह एक के
अन्दर एक जमा हुआ था। इनमें यह होता था कि जब कहीं आसपास कोई गड़बड़
हो, या गड़बड़ की अफवाह हो, तो उसका उद्भव या कारण चाहे हिन्दू सुना
जाए चाहे मुसलमान, सब लोग अपने-अपने किवाड़ बन्द करके जहाँ के तहाँ
रह जाते, बाहर गये हुए शाम को घर न लौटकर बाहर ही कहीं रात काट देते,
और दूसरे-तीसरे दिन तक घर के लोग यह न जान पाते कि गया हुआ व्यक्ति
इच्छापूर्वक कहीं रह गया है या कहीं रास्ते में मारा गया है...
मैं तब बालीगंज की तरफ़ रहता
था। यहाँ शान्ति थी और शायद ही कभी भंग होती थी। यों खबरें सब यहाँ
मिल जाती थीं, और कभी-कभी आगामी ‘प्रोग्रामों’ का कुछ पूर्वाभास भी।
मन्त्रणाएँ यहाँ होती थीं, शरणार्थी यहाँ आते थे, सहानुभूति के
इच्छुक आकर अपनी गाथाएँ सुनाकर चले जाते थे...
आतंक का दूसरा दिन था। तीसरे
पहर घर के सामने बरामदे में आरामकुर्सी पर पड़े-पड़े मैं
आने-जानेवालों को देख रहा था। ‘आने-जानेवाले’ यों भी अध्ययन की
श्रेष्ठ सामग्री होते हैं, ऐसे आतंक के समय में तो और भी अधिक। तभी
देखा, मेरा पड़ोसी ही एक सिख सरदार साहब, अपने साथ तीन-चार और सिखों
को लिये हुए घर की तरफ जा रहे हैं। ये अन्य सिख मैंने पहले इधर नहीं
देखे थे- कौतूहल स्वाभाविक था और फिर आज अपने पड़ोसी को लम्बी किरपान
लगाये देखकर तो और भी अचम्भा हुआ। सरदार बिशनसिंह सिख तो थे, पर बड़े
संकोची, शन्तिप्रिय और उदार विचारों के; प्रतीक-रूप से किरपान रखते
रहे हों तो रहे हों, मैंने देखी नहीं थी और ऐसे उद्धत ढंग से कोट के
ऊपर कमरबन्द के साथ लटकायी हुई तो कभी नहीं।
मैंने कुछ पंजाबी लहजा बनाकर
कहा, ‘‘सरदारजी, अज्ज किद्धर फौजीं चल्लियाँ ने?’’
बिशनसिंह ने व्यस्त आँखों से मेरी ओर देखा। मानो कह रहे हों, ‘मैं
जानता हूँ कि तुम्हारे लहजे पर मुस्कुराकर तुम्हारा विनोद स्वीकार
करना चाहिए, पर देखते तो हो, मैं फँसा हूँ...’ स्वयं उन्होंने कहा,
‘‘फेर हाजिर होवांगा...’’
टोली आगे बढ़ गयी।
जो लोग आरामकुर्सियों पर बैठकर आने-जानेवालों को देखा करते हैं,
उन्हें एक तो देखने को बहुत कुछ नहीं मिलता है, दूसरे जो कुछ वे
देखते हैं उसके साथ उनका रागात्मक लगाव तो जरा भी होता नहीं कि वह मन
में जम जाए। मैं भी सरदार बिशनसिंह को भूल-सा गया था जब रात को वे
मेरे यहाँ आये। लेकिन अचम्भे को दबाकर मैंने कुर्सी दी और कहा, ‘‘आओ
बैठो, बड़ी किरपा कीत्ती?’’
वे बैठ गये। थोड़ी देर चुप रहे। फिर बोले, ‘‘अज जी बड़ा दुखी हो गया
ए?...’’
मैंने पंजाबी छोडक़र गम्भीर होकर कहा, ‘‘क्या बात है सरदारजी? खैर तो
है?’’
‘‘सब खैर-ही-खैर है इस अभागे मुल्क में, भाई साहब, और क्या कहूँ। मैं
तो कहता हूँ दंगा और खून-खराबा न हो तो कैसे न हो, जब कि हम रोज नई
जगह उसकी लड़ें रोप आते हैं, फिर उन्हें सींचते हैं... मुझे तो
अचम्भा होता है, हमारी कौम बची कैसे रही अब तक!’’
उनकी वाणी में दर्द था।
मैंने समझा कि वे भूमिका में उसे बहा न लेंगे तो बात न कह पाएँगे,
इसलिए चुप सुनता रहा। वे कहते गये, ‘‘सारे मुसलमान अरब और फारस और
तातार से नहीं आए थे। सौ में एक होगा जिसको हम आज अरब या फारस या
तातार की नस्ल कह सकें। और मेरा तो खयाल है-खयाल नहीं तजरुबा है कि
अरब या ईरानी बड़ा नेक, मिलनसारी और अमन पसन्द होता है। तातारियों से
साबिका नहीं पड़ा। बाकी सारे मुसलमान कौन हैं? हमारे भाई, हमारे
मजलूम जिनका मुँह हम हज़ारों बरसों से मिट्टी में रगड़ते आए हैं!
वही, आज वही मुँह उठाकर हम पर थूकते हैं, तो हमें बुरा लगता है। पर
वे मुसलमान हैं, इसलिए हम खिसियाकर अपने दो भाइयों को पकडक़र उनका
मुँह मिट्टी में रगड़ते हैं। और भाइयों को ही क्यों, बहिनों को पैरों
के नीचे रौंदते हैं, और चूँ नहीं करने देते क्योंकि चूँ करने से धरम
नहीं रहता।’’
आवेश में सरदार की जबान
लडख़ड़ाने लगी थी। वे क्षण-भर चुप हो गये। फिर बोले, ‘‘बाबू साहब, आप
सोचते होंगे, यह सिख होकर मुसलमानों का पच्छ करता है ठीक है, उनसे
किसी का वैर हो सकता है तो हमारा ही। पर आप सोचिए तो, मुसलमान है
कौन? मजलूम हिन्दू ही तो मुसलमान हैं। हमने जिससे हिकारत की, वह हमसे
नफरत करे तो क्या बुरा करता है-हमारा कर्ज ही तो अदा करता है न! मैं
तो यह भी कहता हूँ कि यह ठीक न भी हो, तो भी हम नुक्स निकालनेवाले
कौन होते हैं? इनसान को पहले अपना ऐब देखना चाहिए, तभी वह दूसरे को
कुछ कहने लायक बनता है। आप नहीं मानते?’’
मैंने कहा, ‘‘ठीक कहते हैं
आप। लेकिन इनसान आखिर इनसान है, देवता नहीं।’’
उन्होंने उत्तेजित स्वर में कहा, ‘‘देवता? आप कहते हैं देवता? काश कि
वह इनसान भी हो सकता। बल्कि वह खरा हैवान भी होता तो भी कुछ बात थी-
हैवान भी अपने नियम-कायदे से चलता है! लेकिन बहस करने नहीं आया, आप
आज की बात सुन लीजिए।’’
मैंने कहा, ‘‘आप कहिए। मैं
सुन रहा हूँ।’’
‘‘आप जानते हैं कि मेरे घर के पास गुरुद्वारा है। जहाँ जब-तब कुछ
लोगों ने पनाह पायी है, और जब-तब मैंने भी वहाँ पहरा दिया है। यह कोई
तारीफ की बात नहीं, गुरुद्वारे की सेवा का भी एक ढर्रा है, पनाह देने
की भी रीत चली आयी है, इसलिए यह हो गया है। हम लोगों ने इंसानियत की
कोई नई ईजाद नहीं की। खैर, कल मैं शाम बाजार से वापस आ रहा था तो
देखा, रास्ते में अचानक मिनटों में सन्नाटा छाता जा रहा है। दो-एक ने
मुझे भी पुकारकर कहा, ‘घर जाओ, दंगा हो गया है’ पर यह न बता पाये कि
कहाँ। ट्राम तो बन्द थी ही।
‘‘धरमतल्ले के पास मैंने
देखा, एक औरत अकेली घबरायी हुई आगे दौड़ती चली जा रही है, एक हाथ में
एक छोटा बंडल है, दूसरे में जोर से एक छोटा मनीबेग दाबे है। रो रही
है। देखने से भद्दरलोक की थी। मैंने सोचा, भटक गयी है और डरी हुई है,
यों भी ऐसे व$क्त में अकेली जाना-और फिर बंगालिन का-ठीक नहीं, पूछकर
पहुँचा दूँ। मैंने पूछा, ‘माँ, तुम कहाँ जाओगी?’ पहले तो वह और सहमी,
फिर देखकर कि मुसलमान नहीं सिख हूँ, जरा सँभली। मालूम हुआ कि उत्तरी
कलकत्ता से उसका खाविन्द और वह दोनों धरमतल्ले आये थे, तय हुआ था कि
दोनों अलग-अलग सामान खरीदकर के.सी. दास की दुकान पर नियत समय पर मिल
जाएँगे और फिर घर जाएँगे। इसी बीच गड़बड़ हो गयी, वह सन्नाटे से डरकर
घर भागी जा रही-दास की दुकान पर नहीं गयी, रास्ते में चाँदनी पड़ती
है जो उसने सदा सुना है कि मुसलमानों का गढ़ है।
‘‘मैंने उससे कहा कि डरे
नहीं, मेरे साथ धरमतल्ला पार कर ले। अगर के.सी.दास की दुकान पर उसका
आदमी मिल गया तो ठीक, नहीं तो वहाँ से बालीगंज की ट्राम तो चलती
होगी, उसमें जाकर गुरुद्वारे में रात रह जाएगी और सवेरे मैं उसे घर
पहुँचा आऊँगा। दिन छिप चला था, बिजली सडक़ों पर वैसे ही नहीं है, ऐसे
में पाँच-छ: मील पैदल दंगे का इलाका पार करना ठीक नहीं है।’’ इतना
कहकर सरदार बिशनसिंह क्षण-भर रुके, और मेरी ओर देखकर बोले, ‘‘बताइए,
मैंने ठीक कहा कि गलत? और मैं क्या कर सकता था?’’
‘‘ठीक ही तो कहा, और रास्ता ही क्या था?’’
‘‘मगर ठीक नहीं कहा। बाद में पता लगा कि मुझे उसे अकेली भटकने देना
चाहिए था।’’
‘‘क्यों?’’ मैंने अचकचाकर पूछा।
‘‘सुनिए।’’ सरदार ने एक लम्बी साँस ली, ‘‘के.सी.दास की दुकान बन्द
थी। पति देवता का कोई निशान नहीं था। मैं उस औरत को ट्राम में बिठाकर
यहाँ ले आया। रात वह गुरुद्वारे के ऊपरवाले कमरे में रही। मैं तो
अकेला हूँ आप जानते हैं, मेरी बहिन ने उसे वहीं ले जाकर खाना खिलाया
और बिस्तरा वगैरा दे आयी। सवेरे मैंने एक सिख ड्राइवर से बात करके
टैक्सी की, और ढूँढ़ता हुआ उसके घर ले गया शामपुकुर लेन में था-एकदम
उत्तर में। दरवाजा बन्द था, हमने खटखटाया तो एक सुस्त-से महाशय बाहर
निकले-पति देवता।’’
‘‘आप लोगों को देखते ही उछल पड़े होंगे?’’
सरदार क्षण-भर चुप रहे।
‘‘हाँ, उछल तो पड़े। लेकिन बहू को देखकर तो नहीं, मुझे देखकर।’’
उन्होंने फिर एक लम्बी साँस ली। ‘‘महाशय के.सी. दास घर पर नहीं ठहरे
थे, दंगे की खबर हुई तो कहीं एक दोस्त के यहाँ चले गये थे। रात वहीं
रहे थे, हमसे कुछ पहले ही लौटकर आये थे। आँखें भारी थीं। दरवाजा
खोलकर मुझे देखकर चौंके, फिर मेरे पीछे स्त्री देखकर तनिक ठिठके और
खड़े-खड़े बोले, ‘‘आप कौन?’’ मैंने कहा, ‘‘पहले इन्हें भीतर ले जाइए,
फिर मैं सब बतलाता हूँ।’’ स्त्री पहले ही सकुची झुकी खड़ी थी, इस बात
पर उसने घूँघट जरा आगे सरकाकर अपने को और भी समेट-सा लिया।’’
बिशनसिंह फिर जरा चुप रहे, मैं भी चुप रहा।
पति ने फिर पूछा, ‘‘ये रात
आपके यहाँ रहीं?’’ मैंने कहा, ‘‘हाँ, हमारे गुरुद्वारे में रहीं। शाम
को यहाँ आना मुमकिन नहीं था।’’ उन्होंने फिर कहा, ‘‘आपके बीवी-बच्चे
हैं?’’ मैंने कहा, ‘‘नहीं मेरी विधवा बहिन साथ रहती है, पर इससे आपको
क्या?’’
उन्होंने मुझे जवाब नहीं
दिया। वहीं से स्त्री की ओर उन्मुख होकर बंगाली में पूछा, ‘‘तुम रात
को क्या जाने कहाँ रही हो, सवेरे तुम्हें यहाँ आते शरम न आयी?’’
सरदार बिशनसिंह ने रुककर मेरी ओर देखा।
मैंने कहा, ‘‘नीच?’’
बिशनसिंह के चेहरे पर
दर्द-भरी मुस्कान झलककर खो गयी। बोले, ‘‘मैं न जाने क्या करता उस
आदमी को-और सोचता हूँ कि स्त्री भी न जाने क्या जवाब देती। लेकिन औरत
जात का जवाब न देना भी कितना बड़ा जवाब होता है, इसको आजकल का कीड़ा
इनसान क्या समझता है? मैंने पीछे धमाका सुनकर मुडक़र देखा, वह औरत गिर
गयी थी-बेहोश होकर। मैं फौरन उठाने कोझुका, पर उस आदमी ने ऐसा तमाचा
मारा था कि मेरे हाथ ठिठक गये। मैंने उसी से कहा, ‘उठाओ, पानी का
छींटा दो...’ पर वह सरका नहीं, फिर उसकी ढबर-ढबर आँखें छोटी होकर
लकीरें-सी बन गयीं, और एकाएक उसने दरवाजा बन्द कर लिया।’’
मैं स्तब्ध सुनता रहा। कुछ
कहने को न मिला।
‘‘लोग इकट्ठे होने लगे थे। मैं उस स्त्री की बात सोचकर ज्यादा भीड़
करना भी नहीं चाहता था। ड्राइवर की मदद से मैंने उसे टैक्सी में रखा
और घर ले आया। बहिन को उसकी देखभाल करने को कहकर बाबा बचित्तर सिंह
के पास गया-वे हमारे बुजुर्ग हैं और गुरुद्वारे के ट्रस्टी। वहीं हम
लोगों ने मीटिंग करके सलाह की कि क्या किया जाए। कुछ की तो राय थी कि
उस आदमी को कत्ल कर देना चाहिए, पर उससे उसकी विधवा का मसला तो हल न
होता। फिर यही सोचा गया कि पाँच सरदारों का जत्था गुरुद्वारे की तरफ़
से उस औरत को उसके घर लेकर जाए, और उसके आदमी से कहे कि या तो इसको
अपनाकर घर में रखे या हम समझेंगे कि तुमने गुरुद्वारे की बेइज्जती की
है और तुम्हें काट डालेंगे।’’
‘‘आप शायद कल तीसरे पहर वहीं
से लौट रहे होंगे...’’
‘‘हाँ! नहीं तो आप जानते हैं मैं वैसे किरपान नहीं बाँधता। एक जमाने
में जिन बजूहात से गुरुओं ने किरपान बाँधना धर्म बताया था, आज उनके
लिए राइफल से कम कोई क्या बाँधेगा? निरी निशानी का मोह अपनी बुजदिली
को छिपाने का तरीका बन जाता है, और क्या! खैर, हम लोग औरत को लेकर
गये। हमें देखते ही पहले तो और भी कई लोग जुट गये, पर जत्थे को देखकर
शायद पति देवता को अकल आ गयी, उन्होंने हमसे कहा, ‘आप लोगों की
मेहरबानी’, और औरत से कहा, ‘चल, भीतर चल’ बस। हमें आने या बैठने को
नहीं कहा... हम बैठते तो क्या उस कमीने के घर में...’’
‘‘औरत भीतर चली गयी? कुछ
बोली नहीं?’’
‘‘बोलती क्या? जब से होश आया
तब से बोली नहीं थी। उसकी आँखें न जाने कैसे हो गयी थीं, उनमें
झाँककर भी कोई जैसे कुछ नहीं देखता था, सिर्फ एक दीवार। मुझसे तो
उसके पास नहीं ठहरा जाता था। वह चुपचाप खड़ी रही। जब हम लोगों ने
कहा, ‘जाओ माँ, घर में जाओ, अब...’ तब जैसे मशीन-सी दो-तीन कदम आगे
बढ़ी। पति के फैलते-सिकुड़ते नथुनों की ओर उसने देखा, एक-एक कदम पर
जैसे और झुकती और छोटी होती जाती थी। देहरी तक ही गयी, फिर वहीं
लडख़ड़ाकर बैठ गयी। मैं तो समझा था फिर गिरी, पर बैठते-बैठते उसका सिर
चौखट से टकराया तो चोट से वह सँभल गयी। बैठ गयी। उसे वैसे ही छोडक़र
हम चले आये।’’
हम दोनों देर तक चुप रहे।
थोड़ी देर बाद सरदार बिशनसिंह ने कहा, ‘‘बोलिए कुछ, भाई साहब?’’
मैंने कहा, ‘‘चलिए, बात खत्म हो गयी जैसे-तैसे। उन्होंने उसे घर में
ले लिया...’’
बिशनसिंह ने तीखी दृष्टि से मेरी तरफ देखा। ‘‘आप सच-सच कह रहे हैं
बाबू साहिब?’’
मैंने चौंककर कहा, ‘‘क्यों? झूठ क्या है?’’
‘‘आप सचमुच मानते हैं कि बात खत्म हो गयी?’’
मैंने कुछ रुकते-रुकते कहा, ‘‘नहीं, वैसा तो नहीं मान पाता। यानी
हमारे लिए भले ही खत्म हो गयी हो, उनके लिए तो नहीं हुई।’’
‘‘हमारे लिए भी क्या हुई है? पर उसे अभी छोडि़ए, बताइए कि उस औरत का
क्या होगा?’’
मैंने अपने शब्द तौलते हुए कहा, ‘‘बंगाल में आये दिन अखबारों में
पढऩे को मिलता है कि स्त्री ने सास या ननद या पति के अत्याचार से
दुखी होकर आत्महत्या कर ली, जहर खा लिया या कुएँ में कूद पड़ी। और
... कभी-कभी ऐसे एक्सीडेंट भी होते हैं कि स्त्री के कपड़ों में आग
लग गयी, चाहे यों ही, चाहे मिट्टी के तेल के साथ...’’
‘‘हाँ, हो सकता है। आप माफ
करना, मैं कड़वी बात कहनेवाला हूँ। इससे अगर आपको कुछ तसल्ली हो तो
कहूँ कि अपने को हिन्दू मानकर ही यह कह रहा हूँ। आप हिन्दू हैं न,
इसलिए यही सोचते हैं। वह मर जाएगी; छुटकारा हो जाएगा। हिन्दू धर्म
उदार है न; मारता नहीं, मरने का सब तरह से सुभीता कर देता है। इसमें
दो फायदे हैं-एक तो कभी चूक नहीं होती, दूसरे यह तरीका दया का भी है।
लेकिन यह बताइए, अगर आदमी पशु है तो औरत क्यों देवता हो? देवता मैं
जान-बूझकर कहता हूँ, क्योंकि इनसान का इन्साफ तो देवताओं से भी ऊँचा
उठ सकता है। देवता सूद न लें, धेले-पाई की वसूली पूरी करते हैं।
...करते हैं कि नहीं?’’
मैंने कहा, ‘‘सरदार साहब,
आपको सदमा पहुँचा है इसलिए आप इतनी कड़वी बात कर रहे हैं। मैं उस
आदमी को अच्छा नहीं कहता, पर एक आदमी की बात को आप हिन्दू जाति पर
क्यों थोपते हैं?’’
‘‘क्या वह सचमुच एक आदमी की
बात है? सुनिए, मैं जब सोचता हूँ कि क्या हो तो उस आदमी के साथ
इन्साफ हो, तब यही देखता हूँ कि वह और घर से दुत्कारी जाकर मुसलमान
हो, मुसलमान जने, ऐसे मुसलमान जो एक-एक सौ-सौ हिन्दुओं को मारने की
कसम खाये। और आप तो साइकोलॉजी पढ़े हैं न, आप समझेंगे-हिन्दू औरतों
के साथ सचमुच वही करे जिसकी झूठी तोहमत उसकी माँ पर लगायी गयी।
देवताओं का इन्साफ तो हमेशा से यही चला आया है-नफरत के एक-एक बीज से
हमेशा सौ-सौ जहरीले पौधे उगे हैं। नहीं तो यह जंगल यहाँ उगा कैसे,
जिसमें आज मैं-आप खो गये हैं और क्या जाने अभी निकलेंगे कि नहीं? हम
रोज दिन में कई बार नफरत का नया बीज बोते हैं और जब पौधा फलता है तो
चीखते हैं कि धरती ने हमारे साथ धोखा किया!’’
मैं काफ़ी देर तक चुप रहा।
सरदार बिशनसिंह की बात चमड़ी के नीचे कंकड़-सी रगडऩे लगी। वातावरण
बोझीला हो गया। मैंने उसे कुछ हल्का करने के लिए कहा, ‘‘सिख कौम की
शिवेलरी मशहूर है। देखता हूँ, उस बिचारी का दु:ख आपकी शिवेलरी को छू
गया है!’’
उन्होंने उठते हुए कहा,
‘‘मेरी शिवेलरी!’’ और थोड़ी देर बाद फिर ऐसे स्वर में, जिसमें एक
अजीब गूँज थी, ‘‘मेरी शिवेलरी, भाई साहब!’’
उन्होंने मुँह फेर लिया,
लेकिन मैंने देखा, उनके होठों की कोर काँप रही है-हल्की-सी लेकिन
बड़ी बेबसी के साथ...
(शीर्ष पर वापस)
हीली-बोन् की बत्तखें
हीली-बोन् ने बुहारी देने का ब्रुश पिछवाड़े के बरामदे के जँगले से
टेककर रखा और पीठ सीधी करके खड़ी हो गयी। उसकी थकी-थकी-सी आँखें
पिछवाड़े के गीली लाल मिट्टी के काई-ढके किन्तु साफ फर्श पर टिक गयी।
काई जैसे लाल मिट्टी को दीखने देकर भी एक चिकनी झिल्ली से उसे छाये
हुए थी; वैसे ही हीली-बोन् की आँखों पर भी कुछ छा गया जिसके पीछे
आँगन के चारों ओर तरतीब से सजे हुए जरेनियम के गमलों, दो रंगीन बेंत
की कुर्सियों और रस्सी पर टँगे हुए तीन-चार धुले हुए कपड़ों की
प्रतिच्छवि रहकर भी न रही। और कोई और गहरे देखता तो अनुभव करता कि
सहसा उसके मन पर भी कुछ शिथिल और तन्द्रामय छा गया है, जिससे उसकी
इन्द्रियों की ग्रहणशीलता ज्यों की त्यों रही पर गृहीत छाप को मन तक
पहुँचाने और मन को उद्वेलित करने की प्रणालियाँ रुद्ध हो गयी हैं...
किन्तु हठात् वह चेहरे का
चिकना बुझा हुआ भाव खुरदुरा होकर तन आया; इन्द्रियाँ सजग हुईं,
दृष्टि और चेतना केन्द्रित, प्रेरणा प्रबल हीली-बोन् के मँुह से एक
हल्की-सी चीख निकली और वह बरामदे से दौडक़र आँगन पार करके एक ओर बने
हुए छोटे-से बाड़े पर पहुँची, वहाँ उसने बाड़े का किवाड़ खोला और फिर
ठिठक गयी। एक ओर हल्की-सी चीख उसके मुँह से निकल रही थी, पर वह
अध-बीच में ही रव-हीन होकर एक सिसकती-सी लम्बी साँस बन गयी।
पिछवाड़े से कुछ ऊपर की तरफ
पहाड़ी रास्ता था; उस पर चढ़ते व्यक्ति ने वह अनोखी चीख सुनी और रुक
गया। मुडक़र उसने हीली-बोन् की ओर देखा, कुछ झिझका, फिर जरा बढक़र
बाड़े के बीच के छोटे-से बाँस के फाटक को ठेलता हुआ भीतर आया और
विनीत भाव से बोला, ‘‘खू-ब्लाई!’’
हीली-बोन् चौंकी। ‘खू-ब्लाई’ खासिया भाषा का ‘राम-राम’ है, किन्तु यह
उच्चारण परदेसी है और स्वर अपरिचित-यह व्यक्ति कौन है? फिर भी खासिया
जाति के सुलभ आत्मविश्वास के साथ तुरन्त सँभलकर और मुस्कराकर उसने
उत्तर दिया, ‘‘खू-ब्लाई!’’ और क्षण-भर रुककर फिर कुछ प्रश्न-सूचक
स्वर में कहा, ‘‘आइए! आइए!’’
आगन्तुक ने पूछा, ‘‘मैं आपकी कुछ मदद कर सकता हूँ? अभी
चलते-चलते-शायद कुछ...’’
‘‘नहीं, वह कुछ नहीं’’ कहते-कहते हीली का चेहरा फिर उदास हो आया।
‘‘अच्छा, आइए, देखिए।’’
बाड़े की एक ओर आठ-दस बत्तखें थीं। बीचोबीच फर्श रक्त से स्याह हो
रहा था और आस-पास बहुत-से पंख बिखर रहे थे। फर्श पर जहाँ-तहाँ पंजों
और नाखूनों की छापें थीं।
आगन्तुक ने कहा, ‘‘लोमड़ी।’’
‘‘हाँ, यह चौथी बार है। इतने बरसों में कभी ऐसा नहीं हुआ था; पर अब
दूसरे-तीसरे दिन एक-आध बत्तख मारी जाती है और कुछ उपाय नहीं सूझता।
मेरी बत्तखों पर सारे मंडल के गाँव ईष्र्या करते थे-स्वयं ‘सियेम’ के
पास भी ऐसा बढिय़ा झुंड नहीं था! पर अब,’’ हीली चुप हो गयी।
आगन्तुक भी थोड़ी देर चुपचाप फर्श को और बत्तखों को देखता रहा। फिर
उसने एक बार सिर से पैर तक हीली को देखा और मानो कुछ सोचने लगा। फिर
जैसे निर्णय करता हुआ बोला, ‘‘आप ढिठाई न समझें तो एक बात कहूँ?’’
‘‘कहिए?’’
‘‘मैं यहाँ छुट्टी पर आया हूँ और कुछ दिनों नाङ्-थ्लेम ठहरना चाहता
हूँ। शिकार का मुझे शौक है। अगर आप इजाजत दें तो मैं इस डाकू की घात
में बैठूँ-’’ फिर हीली की मुद्रा देखकर जल्दी से, ‘‘नहीं, मुझे कोई
कष्ट नहीं होगा, मैं तो ऐसा मौका चाहता हूँ। आपके पहाड़ बहुत सुन्दर
हैं, लेकिन लड़ाई से लौटे हुए सिपाही को छुट्टी में कुछ शगल चाहिए।’’
‘‘आप ठहरे कहाँ हैं?’’
‘‘बँगले में। कल आया था, पाँच-छह दिन रहूँगा। सवेरे-सवेरे घूमने
निकला था, इधर ऊपर जा रहा था कि आपकी आवाज सुनी। आपका मकान बहुत साफ
और सुन्दर है-’’
हीली ने एक रूखी-सी मुस्कान के साथ कहा, ‘‘हाँ, कोई कचरा फैलानेवाला
जो नहीं है! मैं यहाँ अकेली रहती हूँ।’’
आगन्तुक ने फिर हीली को सिर से पैर तक देखा। एक प्रश्न उसे चेहरे पर
झलका, किन्तु हीली की शालीन और अपने में सिमटी-सी मुद्रा ने जैसे उसे
पूछने का साहस नहीं दिया। उसने बात बदलते हुए कहा, ‘‘तो आपकी इजाजत
है न? मैं रात को बन्दूक लेकर आऊँगा। अभी इधर आस-पास देख लूँ कि कैसी
जगह है और किधर से किधर गोली चलायी जा सकती है।’’
‘‘आप शौकिया आते हैं तो जरूर आइए। मैं इधर को खुलने वाला कमरा आपको
दे सकती हूँ।’’ कहकर उसने घर की ओर इशारा किया।
‘‘नहीं, नहीं, मैं बरामदे में बैठ लूँगा-’’
‘‘यह कैसे हो सकता है? रात को आँधी-बारिश आती है। तभी तो मैं कुछ सुन
नहीं सकी रात! वैसे आप चाहें तो बरामदे में आरामकुरसी भी डलवा दूँगी।
कमरे में सब सामान हैं।’’ हीली कमरे की ओर बढ़ी, मानो कह रही हो,
‘देख लीजिए।’
‘‘आपका नाम पूछ सकता हूँ?’’
‘‘हीली-बोन् यिर्वा। मेरे पिता सियेम के दीवान थे।’’
‘‘मेरा नाम दयाल है-कैप्टन दयाल। फौजी इंजीनियर हूँ।’’
‘‘बड़ी खुशी हुई। आइए-अन्दर बैठेंगे?’’
‘‘धन्यवाद-अभी नहीं। आपकी अनुमति हो तो शाम को आऊँगा। खू-ब्लाई-’’
हीली कुछ रुकते स्वर में बोली,’’खू-ब्लाई।’’ और बरामदे में मुडक़र
खड़ी हो गयी। कैप्टन दयाल बाड़े में से बाहर होकर रास्ते पर हो लिये
और ऊपर चढऩे लगे, जिधर नई धूप में चीड़ की हरियाली दुरंगी हो रही थी
और बीच-बीच में बुरूस के गुच्छे-गुच्छे गहरे लाल फूल मानो कह रहे थे,
पहाड़ के भी हृदय है, जंगल के भी हृदय है...
(शीर्ष पर वापस)
...[2]
दिन में पहाड़ की हरियाली
काली दीखती है, ललाई आग-सी दीप्त; पर साँझ के आलोक में जैसे लाल ही
पहले काला पड़ जाता है। हीली देख रही थी; बुरूस के वे इक्के-दुक्के
गुच्छे न जाने कहाँ अन्धकार-लीन हो गये हैं, जब कि चीड़ के वृक्षों
के आकार अभी एक-दूसरे से अलग स्पष्ट पहचाने जा सकते हैं। क्यों रंग
ही पहले बुझता है, फूल ही पहले ओझल होते हैं, जबकि परिपाश्र्व की
एकरूपता बनी रहती है?
हीली का मन उदास होकर अपने
में सिमट आया। सामने फैला हुआ नाङ्-थ्लेम का पार्वतीय सौन्दर्य जैसे
भाप बनकर उड़ गया; चीड़ और बुरूस, चट्टानें, पूर्व पुरुषों और
स्त्रियों की खड़ी और पड़ी स्मारक शिलाएँ, घास की टीलों-सी लहरें,
दूर नीचे पहाड़ी नदी का ताम्र-मुकुर, मखमली चादर में रेशमी डोरे-सी
झलकती हुई पगडंडी-सब मूर्त आकार पीछे हटकर तिरोहित हो गए। हीली की
खुली आँखें भीतर की ओर को ही देखने लगीं-जहाँ भावनाएँ ही साकार थीं,
और अनुभूतियाँ ही मूर्त...
हीली के पिता उस छोटे-से
मांडलिक राज्य के दीवान रहे थे। हीली तीन सन्तानों में सबसे बड़ी थी,
और अपनी दोनों बहनों की अपेक्षा अधिक सुन्दर भी। खासियों का
जाति-संगठन स्त्री-प्रधान है; सामाजिक सत्ता स्त्री के हाथों में है
और वह अनुशासन में चलती नहीं, अनुशासन को चलाती है। हीली भी मानो
नाङ्-थ्लेम की अधिष्ठात्री थी। ‘नाङ्-क्रेम’ के नृत्योत्सव में, जब
सभी मंडलों के स्त्री-पुरुष खासिया जाति के अधिदेवता नगाधिपति की बलि
देते थे ओ उसके मत्र्यप्रतिनिधि अपने ‘सियेम’ का अभिनन्दन करते थे,
तब नृत्य-मंडली में हीली ही मौन सर्वसम्मति से नेत्री हो जाती थी, और
स्त्री-समुदाय उसी का अनुसरण करता हुआ झूमता था, इधर और उधर, आगे और
दाएँ और पीछे...नृत्य में अंगसंचालन की गति न दु्रत थी न विस्तीर्ण;
लेकिन कम्पन ही सही, सिहरन ही सही, वह थी तो उसके पीछे-पीछे; सारी
समुद्र उसकी अंग-भंगिमा के साथ लहरें लेता था...
एक नीरस-सी मुस्कान हीली के
चेहरे पर दौड़ गयी। वह कई बरस पहले की बात थी... अब वह चौंतीसवाँ
वर्ष बिता रही है; उसकी दोनों बहनें ब्याह करके अपने-अपने घर रहती
हैं; पिता नहीं रहे और स्त्री-सत्ता के नियम के अनुसार उनकी सारी
सम्पत्ति सबसे छोटी बहन को मिल गयी। हीली के पास है यही एक कुटिया और
छोटा-सा बगीचा-देखने में आधुनिक साहबी ढंग का बँगला, किन्तु उस काँच
और परदों के आडम्बर को सँभालने वाली इमारत वास्तव में क्या है? टीन
की चादर से छूता हुआ चीड़ पर चौखटा, नरसल की चटाई पर गारे का पलस्तर
और चारों ओर जरेनियम, जो गमले में लगा लो तो फूल है, नहीं तो निरी
जंगली बूटी...
यह कैसे हुआ कि वह,
‘नाङ्क्रेम’ की रानी, आज अपने चौंतीसवें वर्ष में इस कुटी से जरेनियम
के गमले सँवारती बैठी है, और अपने जीवन में ही नहीं, अपने सारे गाँव
में अकेली है?
अभिमान? स्त्री का क्या
अभिमान! और अगर करे ही तो कनिष्ठा करे जो उत्तराधिकारिणी होती है-वह
तो सबकी बड़ी थी, केवल उत्तरदायिनी! हीली के ओंठ एक विद्रूप की हँसी
से कुटिल हो आये। युद्ध की अशान्ति के इस तीन-चार वर्षों में कितने
ही अपरिचित चेहरे दीखे थे, अनोखे रूप; उल्लसित, उच्छ्वसित, लोलुप,
गर्वित याचक, पाप-संकुचित, दर्प-स्फीत मुद्राएँ... और यह जानती थी कि
इन चेहरों और मुद्राओं के साथ उसके गाँव की कई स्त्रियों के
सुख-दु:ख, तृप्ति और अशान्ति, वासना और वेदना, आकांक्षा और सन्ताप
उलझ गये थे, यहाँ तक कि वहाँ के वातावरण में एक पराया और दूषित तनाव
आ गया था। किन्तु वह उससे अछूती ही रही थी। यह नहीं कि उसने इसके लिए
कुछ उद्योग किया था कि उसे गुमान था-नहीं, यह जैसे उसके निकट कभी
यथार्थ ही नहीं हुआ था।
लोग कहते थे कि हीली सुन्दर
है, पर स्त्री नहीं है। वह बाँबी क्या, जिसमें साँप नहीं
बसता?...हीली की आँखें सहसा और भी घनी हो आयीं-नहीं, इससे आगे वह
नहीं सोचना चाहती! व्यथा मरकर भी व्यथा से अन्य कुछ हो जाती है? बिना
साँप की बाँबी-अपरूप, अनर्थक मिट्टी का ढूह! यद्यपि, वह याद करना
चाहती तो याद करने को कुछ था-बहुत कुछ था-प्यार उसने पाया था और उसने
सोचा भी था कि -
नहीं, कुछ नहीं सोचा था। जो प्यार करता है, जो प्यार पाता है, वह
क्या कुछ सोचता है? सोच सब बाद में होता है, जब सोचने को कुछ नहीं
होता।
और अब वह बत्तखें पालती है।
इतनी बड़ी, इतनी सुन्दर बत्तखें खासिया प्रदेश में और नहीं हैं। उसे
विशेष चिन्ता नहीं है, बत्तखों के अंडों से इस युद्धकाल में चार-पाँच
रुपये रोज की आदमनी हो जाती है, और उसका खर्च ही क्या है? वह अच्छी
है, सुखी है, निश्चिन्त है-
लोमड़ी...किन्तु वह कुछ दिन की बात है-उनका तो उपाय करना ही होगा। वह
फौजी अफसर जरूर उसे मार देगा-नहीं तो कुछ दिन बाद थेङ-क्यू के इधर
आने पर वह उसे कहेगी कि तीर से मार दे या जाल लगा दे... कितनी दुष्ट
होती है लोमड़ी-क्या रोज दो-एक बत्तख खा सकती है? व्यर्थ का
नुकसान-सभी जन्तु जरूरत से ज्यादा घेर लेते और नष्ट करते हैं-
बरामदे के काठ के फर्श पर पैरों की चाप सुनकर उसका ध्यान टूटा।
कैप्टन दयाल ने एक छोटा-सा बैग नीचे रखते हुए कहा, ‘‘लीजिए, मैं आ
गया।’’ और कन्धे से बन्दूक उतारने लगे।
‘‘आप का कमरा तैयार है। खाना खाएँगे?’’
‘‘धन्यवाद-नहीं। मैं खाना खा आया। रात काटने को कुछ ले भी आया बैग
में! मैं जरा मौका देख लूँ, अभी आता हूँ। आपको नाहक तकलीफ दे रहा हूँ
लेकिन-’’
हीली ने व्यंग्यपूर्वक हँसकर कहा, ‘‘इस घर में न सही, पर खासिया घरों
में अकसर पलटनिया अफसर आते हैं-यह नहीं हो सकता कि आपको बिलकुल मालमू
न हो।’’
कैप्टन दयाल खिसिया-से गये। फिर धीरे-धीरे बोले, ‘‘नीचेवालों ने
हमेशा पहाड़वालोंके साथ अन्याय ही किया है। समझ लीजिए कि पातालवासी
शैतान देवताओं से बदला लेना चाहते हैं!’’
‘‘हम लोग मानते हैं कि पृथ्वी और आकाश पहले एक थे-पर दोनों को
जोडऩेवाली धमनी इनसान ने काट दी। तब से दोनों अलग हैं और पृथ्वी का
घाव नहीं भरता।’’
‘‘ठीक तो है।’’
कैप्टन दयाल बाड़े की ओर चले गये। हीली ने भीतर आकर लैम्प जलाया और
बरामदे में लाकर रख दिया; फिर दूसरे कमरे में चली गयी।
(शीर्ष पर वापस)
...[3]
रात के दो-ढाई बजे बन्दूक की
‘धाँय!’ सुनकर हीली जागी, और उसने सुना कि बरामदे में कैप्टन दयाल
कुछ खटर-पटर कर रहे हैं। शब्द से ही उसने जाना कि वह बाहर निकल गये
हैं, और थोड़ी देर बाद लौट आये हैं। तब वह उठी नहीं; लोमड़ी जरूर मर
गयी होगी और सवेरे भी देखा जा सकता है, यह सोचकर फिर सो रही।
किन्तु पौ फटते-न-फटते वह
फिर जागी। खासिया प्रदेश के बँगलों की दीवारें असल में तो केवल काठ
के परदे ही होते हैं; हीली ने जाना कि दूसरे कमरे में कैप्टन दयाल
जाने की तैयारी कर रहे हैं। तब वह भी जल्दी से उठी, आग जलाकर चाय का
पानी रख, मुँह-हाथ धोकर बाहर निकली। क्षण-भर अनिश्चय के बाद वह
बत्तखों के बाड़े की तरफ जाने को ही थी कि कैप्टन दयाल ने बाहर
निकलते हुए कहा, ‘‘खू-ब्लाई, मिस यिर्वा; शिकार जख्मी हो गया पर मिला
नहीं, अब खोज में जा रहा हूँ।’’
‘‘अच्छा? कैसे पता लगा?’’
‘‘खून के निशानों से। जख्म गहरा ही हुआ है-घसीटकर चलने के निशान साफ
दीखते थे। अब तक बचा नहीं होगा-देखना यही है कि कितनी दूर गया
होगा।’’
‘‘मैं भी चलूँगी। उस डाकू को देखूँ तो-’’ कहकर हीली लपककर एक बड़ी
‘डाओ’ उठा लायी और चलने को तैयार हो गयी।
खून के निशान चीड़ के जंगल को छूकर एक ओर मुड़ गये, जिधर ढलाव था और
आगे जरैंत की झाडिय़ाँ, जिनके पीछे एक छोटा-सा झरना बहता था। हीली ने
उसका जल कभी देखा नहीं था, केवल कल-कल शब्द ही सुना था-जरैंत का
झुरमुट उसे बिलकुल छाये हुए था। निशान झुरमुट तक आकर लुप्त हो गये
थे।
कैप्टन दयाल ने कहा, ‘‘इसके अन्दर घुसना पड़ेगा। आप यहीं ठहरिए।’’
‘‘उधर ऊपर से शायद खुली जगह मिल जाए-वहाँ से पानी के साथ-साथ बढ़ा जा
सकेगा-’’ कहकर हीली बाएँ को मुड़ी, और कैप्टन दयाल साथ हो लिये।
सचमुच कुछ ऊपर जाकर झाडिय़ाँ
कुछ विरल हो गयी थीं और उनके बीच में घुसने का रास्ता निकाला जा सकता
था। यहाँ कैप्टेन दयाल आगे हो लिये, अपनी बन्दूक के कुन्दे से
झाडिय़ाँ इधर-उधर ठेलते हुए रास्ता बनाते चले। पीछे-पीछे हीली हटायी
हुई लचकीली शाखाओं के प्रत्याघात को अपनी डाओ से रोकती हुई चली।
कुछ आगे चलकर झरने का पाट
चौड़ा हो गया-दोनों ओर ऊँचे और आगे झुके हुए करारे, जिनके ऊपर जरैंत
और हाली की झाड़ी इतनी घनी छायी हुई कि भीतर अँधेरा हो, परन्तु पाट
चौड़ा होने से मानो इस आच्छादन के बीच में एक सुरंग बन गयी थी जिसमें
आगे बढऩे में विशेष असुविधा नहीं होती थी।
कैप्टन दयाल ने कहा, ‘‘यहाँ
फिर खून के निशान हैं-शिकार पानी में से इधर घिसटकर आया है।’’
हीली ने मुँह उठाकर हवा को सूँघा, मानो सीलन और जरैंत की तीव्र गन्ध
के ऊपर और किसी गन्ध को पहचान रही हो। बोली, ‘‘यह तो जानवर की...’’
हठात् कैप्टन दयाल ने तीखे फुसफुसाते स्वर से कहा, ‘‘देखो-श्-अ्!’’
ठिठकने के साथ उनकी बाँह ने उठकर हीली को भी जहाँ-का-तहाँ रोक दिया।
अन्धकार में कई-एक जोड़े अँगारे-से चमक रहे थे।
हीली ने स्थिर दृष्टि से
देखा। करारे में मिट्टी खोदकर बनायी हुई खोह में-या कि खोह की देहरी
पर नर-लोमड़ी का प्राणहीन आकार दुबका पड़ा था कास के फूल की झाड़ू-सी
पूँछ उसकी रानों को ढँक रही थी जहाँ गोली का जख्म होगा। भीतर
शिथिल-गात लोमड़ी उस शव पर झुकी खड़ी थी, शव के सिर के पास मुँह किये
मानो उसे चाटना चाहती हो और फिर सहमकर रुक जाती हो। लोमड़ी के पाँवों
से उलझते हुए तीन छोटे-छोटे बच्चे कुनमुना रहे थे। उस कुनमुनाने में
भूख की आतुरता नहीं थी; न वे बच्चे लोमड़ी के पेट के नीचे
घुसड़-पुसड़ करते हुए भी उसके थनों को ही खोज रहे थे... माँ और
बच्चों में किसी को ध्यान नहीं था कि गैर और दुश्मन की आँखें उस गोपन
घरेलू दृश्य को देख रही हैं।
कैप्टने दयाल ने धीमे स्वर से कहा, ‘‘यह भी तो डाकू होगी-’’
हीली की ओर से कोई उत्तर नहीं मिला। उन्होंने फिर कहा, ‘‘इसे भी मार
दें-तो बच्चे पाले जा सकें-’’
फिर कोई उत्तर न पाकर उन्होंने मुडक़र देखा और अचकचाकर रह गये।
पीछे हीली नहीं थी।
थोड़ी देर बाद, कुछ प्रकृतिस्थ होकर उन्होंने कहा, ‘‘अजीब औरत है।’’
फिर थोड़ी देर वह लोमड़ी को और बच्चे को देखते
रहे। तब ‘‘उँह, मुझे क्या!’’ कहकर वह अनमने से मुड़े और जिधर से आये
थे वे उधर ही चलने लगे।
(शीर्ष पर वापस)
...[4]
हीली नंगे पैर ही आयी थी; पर
लौटती बार उसने शब्द न करने का कोई यत्न किया हो, ऐसा वह नहीं जानती
थी। झुरमुट से बाहर निकल कर वह उन्माद की तेजी से घर की ओर दौड़ी, और
वहाँ पहुँच कर सीधी बाड़े में घुस गयी। उसके तूफानी वेग से चौंककर
बत्तखें पहले तो बिखर गयीं पर जब वह एक कोने में जाकर बाड़े के सहारे
टिककर खड़ी अपलक उन्हें देखने लगी तब वे गरदनें लम्बी करके उचकती
हुई-सी उसके चारों ओर जुट गयीं और ‘क-क्!’ करने लगीं।
वह अधैर्य हीली को छू न सका, जैसे चेतना के बाहर से फिसलकर गिर गया।
हीली शून्य दृष्टि से बत्तखों की ओर तकती रही।
एक ढीठ बत्तख ने गरदन से
उसके हाथ को ठेला। हीली ने उसी शून्य दृष्टि से हाथ की ओर देखा। सहसा
उसका हाथ कड़ा हो गया, उसकी मुट्ठी डाओ के हत्थे पर भिंच गयी। दूसरे
हाथ से उसने बत्तख का गला पकड़ लिया और दीवार के पास खींचते हुए डाओ
के एक झटके से काट डाला।
उसी अनदेखते अचूक निश्चय से
उसने दूसरी बत्तख का गला पकड़ा, भिंचे हुए दाँतों से कहा,
‘‘अभागिन!’’ और उसका सिर उड़ा दिया। फिर तीसरी, फिर चौथी, पाँचवीं...
ग्यारह बार डाओ उठी और ‘खट्’ के शब्द के साथ बाड़े का खम्भा काँपा;
फिर एक बार हीली ने चारों ओर नजर दौड़ायी और बाहर निकल गयी!
बरामदे में पहुँचकर जैसे उसने अपने को सँभालने को खम्भे की ओर हाथ
बढ़ाया और लडख़ड़ाती हुई उसी के सहारे बैठ गयी।
कैप्टन दयाल ने आकर देखा, खम्भे के सहारे एक अचल मूर्ति बैठी है जिसे
हाथ लथपथ हैं और पैरों के पास खून से रँगी डाओ पड़ी है। उन्होंने
घबराकर कहा, ‘‘यह क्या, मिस यिर्वा?’’ और फिर उत्तर न पाकर उसकी
आँखों का जड़ विस्तार लक्ष्य करते हुए, उसके कन्धे पर हाथ रखते हुए
फिर, धीमे-से ‘‘क्या हुआ, हीली।’’
हीली कन्धा झटककर, छिटककर परे हटती हुई खड़ी हो गयी और तीखेपन से
थर्राती हुई आवाज से बोली, ‘‘दूर रहो, हत्यारे!’’
कैप्टेन दयाल ने कुछ कहना चाहा, पर अवाक् ही रह गये, क्योंकि
उन्होंने देखा, हीली की आँखों में वह निव्र्यास सूनापन घना हो आया है
जो कि पर्वत का चिरन्तन विजन सौन्दर्य है।
(शीर्ष पर वापस)
मेजर चौधरी की वापसी
किसी की टाँग टूट जाती है,
तो साधारणतया उसे बधाई का पात्र नहीं माना जाता। लेकिन मेजर चौधरी जब
छह सप्ताह अस्पताल में काटकर बैसाखियों के सहारे लडख़ड़ाते हुए बाहर
निकले, तो बाहर निकलकर उन्होंने मिजाजपुर्सी के लिए आये हुये अफसरों
को बताया कि उनकी चार सप्ताह की ‘वारलीव’ के साथ उन्हें छह सप्ताह की
‘कम्पेशनेट लीव1’ भी मिली है, और उसके बाद ही शायद कुछ और छुट्टी के
अनन्तर उन्हें सैनिक नौकरी से छुटकारा मिल जाएगा, तब सुननेवालों के
मन में अवश्य ही ईष्र्या की लहर दौड़ गयी थी। क्योंकि मोकोक्चङ् यों
सब-डिवीजन का केन्द्र क्यों न हो, वैसे वह नगा पार्वत्य जंगलों का ही
एक हिस्सा था, और जोंक, दलदल, मच्छर, चूती छतें, कीचड़ फर्श, पीने को
उबाला जाने पर भी गँदला पानी और खाने को पानी में भिगोकर ताजा किये
गये सूखे आलू-प्याज-ये सब चीज़ें ऐसी नहीं हैं कि दूसरों के सुख-दु:ख
के प्रति सहज औदार्य की भावना को जागृत करें!
मैं स्वयं मोकोक्चङ् में
नहीं, वहाँ से तीस मील नीचे मरियानी में रहता था, जो कि रेल की पक्की
सडक़ द्वारा सेवित छावनी थी। मोकोक्चङ् अपनी सामग्री और उपकरणों के
लिए मरियानी पर निर्भर था इसलिए मैं जब-तब एक दिन के लिए मोकोक्चङ्
जाकर वहाँ की अवस्था देख आया करता था। नाकाचारी चार-आली2 से आगे
रास्ता बहुत ही खराब है और गाड़ी कीच-काँदों में फँस-फँस जाती है,
किन्तु उस प्रदेश की आव नगा जाति के हँसमुख चेहरों और साहाय्य-तत्पर
व्यवहार के कारण वह जोखम बुरी नहीं लगती।
मुझे तो मरियानी लौटना था
ही, मेजर चौधरी भी मेरे साथ ही चले-मरियानी से रेल-द्वारा वह गौहाटी
होते हुए कलकत्ते जाएँगे और वहाँ से अपने घर पश्चिम को...
स्टेशन-वैगन चलाते-चलाते मैंने पूछा, ‘‘मेजर साहब, घर लौटते हुए कैसा
लगता है?’’ और फिर इस डर से कि कहीं मेरा प्रश्न उन्हें कष्ट ही न
दे, ‘‘आपके इस-इस एक्सिडेंट से अवश्य ही इस प्रत्यागमन पर एक छाया
पड़ गयी है, पर फिर भी घर तो घर है-’’
अस्पताल के छह हफ्ते मनुष्य के मन में गहरा परिवर्तन कर देते हैं, यह
अचानक तब जाना जब मेजर चौधरी ने कुछ सोचते-से उत्तर दिया, ‘‘हाँ, घर
तो घर ही है। पर जो एक बार घर से जाता है, वह लौटकर भी घर लौटता ही
है, इसका क्या ठिकाना?’’
मैंने तीखी दृष्टि से उनकी ओर देखा। कौन-सा गोपन दु:ख उन्हें खा रहा
है- ‘घर’ की स्मृति को लेकर कौन-सा वेदन ठूँठ इनकी विचारधारा में
अवरोध पैदा कर रहा है? पर मैंने कुछ कहा नहीं, प्रतीक्षा में रहा कि
कुछ और कहेंगे।
देर तक मौन रहा, गाड़ी नाकाचारी की लीक में उचकती-धचकती चलती रही।
थोड़ी देर बाद मेजर चौधरी
फिर धीरे-धीरे कहने लगे, ‘‘देखो, प्रधान, फौज में जो भरती होते हैं,
न जाने क्या-क्या सोचकर, किस-किस आशा से। कोई-कोई अभागा आशा से नहीं
निराशा से भी भरती होता है, और लौटने की कल्पना नहीं करता। लेकिन जो
लौटने की बात सोचते हैं-और प्राय: सभी सोचते हैं-वे मेरी तरह लौटने
की बात नहीं सोचते।’’
उनका स्वर मुझे चुभ गया। मैंने सान्त्वना के स्वर में कहा, ‘‘नहीं
मेजर चौधरी, इतने हतधैर्य आपको नहीं।’’
‘‘मुझे कह लेने दो, प्रधान!’’
मैं रुक गया।
‘‘मेरी जाँघ और कूल्हे में चोट लगी थी, अब मैं सेना के काम का न रहा
पर आजीवन लँगड़ा रहकर भी वैसे चलने-फिरने लगूँगा, यह तुमने अस्पताल
में सुना है। सिविल जीवन में कई पेशे हैं जो मैं कर सकता हूँ। इसलिए
घबराने की कोई बात नहीं। ठीक है न? पर-’’ मेजर चौधरी फिर रुक गये और
मैंने लक्ष्य किया कि आगे की बात कहने में उन्हें कष्ट हो रहा है;
‘‘पर चोटें ऐसी भी होती हैं-जिनका इलाज-नहीं होता...’’
मैं चुपचाप सुनता रहा।
‘‘भरती होने से साल-भर पहले
मेरी शादी हुई थी। तीन साल हो गये। हम लोग साथ लगभग नहीं रहे-वैसी
सुविधाएँ नहीं हुईं। हमारी कोई सन्तान नहीं है।’’
फिर मौन। क्या मेरी ओर से कुछ अपेक्षित है? किन्तु किसी आन्तरिक
व्यथा की बात अगर वह कहना चाहते हैं, तो मौन ही सहायक हो सकता है,
वही प्रोत्साहन है।
‘‘सोचता हूँ, दाम्पत्य-जीवन में शुरू में-इतनी-कोमलता न बरती होगी!
कहते हैं कि स्त्री-पुरुष में पहले सख्य आना चाहिए-मानसिक
अनुकूलता-’’
मैंने कनखियों ने उनकी तरफ़ देखा। सीधे देखने से स्वीकारी अन्तरात्मा
की खुलती सीपी खट् से बन्द हो जाया करती है। उन्हें कहने दूँ।
पर उन्होंने जो कहा उसके लिए
मैं बिलकुल तैयार नहीं था और अगर उनके कहने के ढंग में ही इतनी गहरी
वेदना न होती तो जो शब्द कहे गये थे उनसे पूरा व्यंजनार्थ भी मैं न
पा सकता...
‘‘हमारी कोई सन्तान नहीं है। और अब-जिससे आगे कुछ नहीं है वह सख्य भी
कैसे हो सकता है? उसे-एक सन्तान का ही सहारा होता है... कुछ नहीं!
प्रधान, यह ‘कम्पैशनेट लीव’ अच्छा मजाक है-कम्पैशन भगवान को छोडक़र और
कौन दे सकता है और मृत्यु के अलावा होता कहाँ है? अब इति से आरम्भ
है! घर!’’ कुछ रुककर, ‘‘वापसी! घर!’’
मैं सन्न रह गया! कुछ बोल न सका। थोड़ी देर बाद चौंककर देखा कि गाड़ी
की चाल अपने-आप बहुत धीमी हो गयी है, इतनी कि तीसरे गीयर पर वह झटके
दे रही है। मैंने कुछ सँभलकर गीयर बदला, और फिर गाड़ी तेज़ करके
एकाग्र होकर चलाने लगा-नहीं, एकाग्र होकर नहीं, एकाग्र दीखता हुआ।
तब मेजर चौधरी एक बार अपना
सिर झटके से हिलाकर मानो उस विचार-शृंखला को तोड़ते हुए सीधे होकर
बैठ गये। थोड़ी देर बाद उन्होंने कहा, ‘‘क्षमा करना, प्रधान, मैं
शायद अनकहनी कह गया। तुम्हारे प्रश्नों के लिए तैयार नहीं था-’’
मैंने रुकते-रुकते कहा, ‘‘मेजर, मेरे पास शब्द नहीं हैं कि कुछ
कहूँ-’’
‘‘कहोगे क्या, प्रधान? कुछ बातें शब्द से परे होती हैं-शायद कल्पना
से भी परे होती हैं। क्या मैं भी जानता हूँ कि-कि घर लौटकर मैं क्या
अनुभव करूँगा? छोड़ो इसे। तुम्हें याद है, पिछले साल मैं कुछ महीने
मिलिटरी पुलिस में चला गया था?’’
मैंने जाना कि मेजर विषय बदलना चाह रहे हैं। पूरी दिलचस्पी के साथ
बोला, ‘‘हाँ-हाँ। वह अनुभव भी अजीब रहा होगा।’’
‘‘हाँ। तभी की एक बात अचानक याद आयी है। मैं शिलङ् में प्रोवोस्ट
मार्शल1 के दफ्तर में था। तब-वें डिवीजन की कुछ गोरी पलटनें वहाँ
विश्राम और नए सामान के लिए बर्मा से लौटकर आयी थीं।’’
‘‘हाँ, मुझे याद है। उन लोगों ने कुछ उपद्रव भी वहाँ खड़ा किया था।’’
‘‘काफ़ी! एक रात मैं जीप लिये गश्त पर जा रहा था। हैपी वैली की छावनी
से जो सडक़ शिलङ् बस्ती को आती है वह बड़ी टेढ़ी-मेढ़ी और उतार-चढ़ाव
की है और चीड़ के झुरमुटों से छायी हुई, यह तो तुम जानते हो। मैं एक
मोड़ से निकला ही था कि मुझे लगा, कुछ चीज़ रास्ते से उछलकर एक ओर को
दुबक गयी है। गीदड़-लोमड़ी उधर बहुत हैं, पर उनकी फलाँग ऐसी अनाड़ी
नहीं होती, इसलिए मैं रुक गया। झुरमुटों के किनारे खोजते हुए मैंने
देखा; एक गोरा फौजी छिपना चाह रहा है। छिपना चाहता है तो अवश्य
अपराधी है, यह सोचकर मैंने उसे जरा धमकाया और नाम, नम्बर, पलटन आदि
का पता लिख लिया। वह बिना पास के रात को बाहर तो था ही, पूछने पर
उसने बताया कि वह एक मील और नीचे नाङ्मिथ्-माई की बस्ती को जा रहा
था। इससे आगे का प्रश्न मैंने नहीं पूछा, उन प्रश्नों का उत्तर जानते
ही हो और पूछकर फिर कड़ा दंड देना पड़ता है जो कि अधिकारी नहीं
चाहते-जब तक कि खुल्लमखुल्ला कोई बड़ा स्कैंडल न हो।’’
‘‘हूँ। मैंने तो सुना है कि यथासम्भव अनदेखी की जाती है ऐसी बातों
की। बल्कि कोई वेश्यालय में पकड़ा जाए और उसकी पेशी हो तो असली अपराध
के लिए नहीं होती, वरदी ठीक न पहनने या अफ़सर की अवज्ञा या ऐसे ही
किसी जुर्म के लिए होती है।’’
‘‘ठीक ही सुना है तुमने। असली अपराध के लिए ही हुआ करे तो अव्वल तो
चालान इतने हों कि सेना बदनाम हो जाए; इससे इसका असर फौजियों पर भी
तो उलटा पड़े- उनका दिमाग हर वक्त उधर ही जाया करे। खैर उस दिन तो
मैंने उसे डाँट-डपटकर छोड़ दिया। पर दो दिन बाद फिर एक अजीब
परिस्थिति में उसका सामना हुआ।’’
‘‘वह कैसे?’’
‘‘उस दिन मैं अधिक देर करके जा रहा था। आधी रात होगी, गश्त पर जाते
हुए उसी जगह के आसपास मैंने एक चीख सुनी। गाड़ी रोककर मैंने बत्ती
बुझा दी और टार्च लेकर एक पुलिया की ओर गया जिधर से आवाज आयी थी।
मेरा अनुमान ठीक ही था; पुलिया के नीचे एक पहाड़ी औरत गुस्से से भरी
खड़ी थी, और कुछ दूर पर एक अस्त-व्यस्त गोरा फौजी, जिसकी टोपी और
पेटी जमीन पर पड़ी थी और बुश्शर्ट हाथ में। मैंने नीचे उतरकर डाँटकर
पूछा, ‘यह क्या है?’ पर तभी मैंने उस फौजी की आँखों में देखकर पहचाना
कि एक तो वह परसोंवाला व्यक्ति है, दूसरे वह काफ़ी नशे में है। मैंने
और भी कड़े स्वर में पूछा, ‘तुम्हें शरम नहीं आती? क्या कर रहे थे
तुम’?’’
वह बोला, ‘‘यह मेरी है?’’
मैंने कहा, ‘‘बको मत!’’ और उस औरत से कहा कि वह चली जाए। पर वह ठिठकी
रही। मैंने उससे पूछा, ‘‘जाती क्यों नहीं?’’ तब वह कुछ सहमी-सी बोली,
‘‘मेरे रुपये ले दो।’’
‘‘काफ़ी बेशर्म रही होगी वह भी!’’
‘‘हाँ मामला अजीब ही था। दोनों को डाँटने पर दोनों ने जो टूटे-फूटे
वाक्य कहे उससे यह समझ में आया कि दो-तीन घंटे पहले वह गोरा एक बार
उस औरत के पास हो गया था और फिर आगे गाँव की तरफ़ चला गया था। लौटकर
फिर उसे वह रास्ते में मिली तो गोरे ने उसे पकड़ लिया था। झगड़ा इसी
बात का था कि गोरे का कहना था, वह रात के पैसे दे चुका है, और औरत का
दावा था कि पिछला हिसाब चुकता था, और अब फौजी उसका देनदार है। मैंने
उसे धमकाकर चलता किया। पहले तो वह गालियाँ देने लगी पर जब उसने देखा
कि गोरा भी गिरफ्तार हो गया है तो बड़बड़ाती चली गयी।’’
‘‘फिर गोरे का क्या हुआ? उसे तो कड़ी सजा मिलनी चाहिए थी?’’
मेजर चौधरी थोड़ी देर तक चुप रहे। फिर बोले, ‘‘नहीं प्रधान, उसे सजा
नहीं मिली। मालूम नहीं वह मेरी भूल थी या नहीं, पर जीप में ले आने के
घंटा भर बाद मैंने उसे छोड़ दिया।’’
मैंने अचानक कहा, ‘‘वाह, क्यों?’’ फिर यह सोचकर कि यह प्रश्न कुछ
अशिष्ट-सा हो गया है, मैंने फिर कहा, ‘‘कुछ विशेष कारण रहा होगा-’’
‘‘कारण? हाँ, कारण... था शायद। यह तो इस पर है कि कारण कहते किसे
हैं। मैंने जैसे छोड़ा वह बताता हूँ।’’
मैं प्रतीक्षा करता रहा। मेजर कहने लगे, ‘‘उसे मैं जीप में ले आया।
थोड़ी देर टार्च का प्रकाश उसके चेहरे पर डालकर घुमाता रहा कि वह और
जरा सहम जाए। तब मैंने कडक़कर पूछा, ‘‘तुम्हें शरम नहीं आयी अपनी फौज
का और ब्रिटेन का नाम कलंकित करते? अभी परसों मैंने तुम्हें पकड़ा था
और माफ कर दिया था।’’ मेरे स्वर का उसके नशे पर कुछ असर हुआ। जरा
सँभलकर बोला, ‘‘सर, मैं कुछ बुरा नहीं करना चाहता था।’’ मैंने फिर
डाँटा, ‘‘सडक़ पर एक औरत को पकड़ते हो और कहते हो कि बुरा करना नहीं
चाहते थे?’’ वह बगलें झाँकने लगा, पर फिर भी सफाई देता हुआ-सा बोला,
‘‘सर, वह अच्छी औरत नहीं है। वह रुपया लेती है-मैं तीन दिन से रोज
उसके पास आता हूँ।’’ मैंने सोचा, बेहयाई इतना हो तो कोई क्या करे? पर
इस टामी जन्तु में जन्तु का-सा सीधापन भी है जो ऐसी बात कर रहा है।
मैंने कहा, ‘‘और तुम तो अपने को बड़ा अच्छा आदमी समझते होगे न, एकदम
स्वर्ग से झरा हुआ फरिश्ता?’’ वह वैसे ही बोला, ‘‘नहीं सर,
लेकिन-लेकिन...’’
‘‘मैंने कहा, ‘‘लेकिन क्या? तुमने अपनी पलटन का और अपना मुँह काला
किया है, और कुछ नहीं।’’ तभी मुझे उस औरत की बात याद आयी कि वह कुछ
घंटे पहले उसके पास हो गया था, और मेरा गुस्सा फिर भडक़ उठा। मैंने
उससे कहा, ‘‘थोड़ी देर पहले तुम एक बार बचकर चले भी गये थे, उससे
तुम्हें सन्तोष नहीं हुआ? आगे गाँव में कहाँ गये थे? एक बार काफ़ी
नहीं था!’’
‘‘अब तक वह कुछ और सँभल गया था। बोला, सर, गलती मैंने की है।
लेकिन-लेकिन मैं अपने साथियों से बराबर होना चाहता हूँ।’’
मैंने चौंककर कहा, ‘‘क्या मतलब?’’
वह बोला, ‘‘हमारा डिवीजन छह हफ्ते हुए यहाँ आ गया था, आप जानते हैं।
डेढ़ साल से हम लोग फ्रंट पर थे जहाँ औरत का नाम नहीं, खाली मच्छर और
कीचड़ और पेचिश होती है। वहाँ से मेरी पलटन छह हफ्ते पहले लौटी थी,
पर मैं एक ब्रेकडाउन टुकड़ी के साथ पीछे रह गया था।’’
‘‘तो फिर?’’ मैंने पूछा।
बोला, ‘‘डिवीजन में मेरी पलटन सबसे पहली यहाँ आयी थी, बाकी पलटनें
पीछे आयीं। छह हफ्ते से वे लोग यहाँ हैं, और मैं कुल परसों आया हूँ
और दस दिन में हम लोग वापस चले जाएँगे।’’
मैंने डाँटा, ‘‘तुम्हारा मतलब क्या है?’’ उसने फिर धीरे-धीरे जैसे
मुझे समझाते हुए कहा, ‘‘सारे शिलङ् के गाँवों की, नेटिव बस्तियों की
छाँट उन्होंने की है। मैं केवल परसों आया हूँ, किसी से पीछे मैं नहीं
रहना चाहता।’’
मेजर चौधरी चुप हो गये। मैं
भी कुछ देर चुप रहा। फिर मैंने कहा, ‘‘क्या दलील है! ऐसा विकृत तर्क
वह कैसे कर सका-नशे का ही असर रहा होगा। फिर आपने क्या किया?’’
‘‘मैं मानता हूँ कि तर्क विकृत है। पर इसे पेश कर सकने में मनुष्य से
नीचे के निरे मानव-जन्तु का साहस है, बल्कि साहस भी नहीं, निरी
जन्तु-बुद्धि हैं, और इसलिए उस पर विचार भी उसी तल पर होना चाहिए ऐसा
मुझे लगा। समझ लो जन्तु ने जन्तु को माफ कर दिया। बल्कि यह कहना
चाहिए कि जन्तु ने जन्तु को अपराधी ही नहीं पाया।’’ कुछ रुककर वह
कहते गये, ‘‘यह भी मुझे लगा कि व्यक्ति में ऐसी भावना पैदा करनेवाली
सामूहिक मन:स्थिति ही हो सकती है, और यदि ऐसा है तो समूह को ही दायी
मानना चाहिए।’’
स्टेशन-वैगन हचकोले खाता हुआ
बढ़ता रहा। मैं कुछ बोला नहीं। मेजर चौधरी ने कहा, ‘‘तुमने कुछ कहा
नहीं। शायद तुम समझते हो कि मैंने भूल की, इसीलिए चुप हो। पर वैसा कह
भी दो तो मैं बुरा न मानूँ- मेरा बिलकुल दावा नहीं है कि मैंने ठीक
किया।’’
मैंने कहा, ‘‘नहीं, इतना आसान तो नहीं है कुछ कह देना।’’ और चुप लगा
गया। अपने अनुभव की भी जो एक घटना मुझे याद आयी, उसे मैं मन-ही-मन
दोहराता रहा। फिर मैंने कहा, ‘‘एक ऐसी ही घटना मुझे भी याद आती है-’’
‘‘क्या?’’
‘‘उसमें ऐसा तीखापन तो नहीं है, पर जन्तु-तर्क की बात वहाँ भी लागू
होती। एक दिन जोरहाट में क्लब में एक भारतीय नृत्य-मंडली आयी थी-हम
लोग सब देखने गये थे। उस मंडली को और आगे लीडो रोड की तरफ़ जाना था,
इसलिए उसे एक ट्रक में बिठाकर मरियानी स्टेशन भेजने की व्यवस्था हुई।
मुझे उस ट्रक को स्टेशन तक सुरिक्षत पहुँचा देने का काम सौंपा गया।’’
‘‘ट्रक में मंडली की छहों लड़कियाँ और साजिन्दे वगैरह बैठ गये, तो
मैंने ड्राइवर को चलने को कहा। गाड़ी से उड़ी हुई धूल को बैठ जाने के
लिए कुछ समय देकर मैं भी जीप में क्लब से बाहर निकला। कुछ दूर तो
बजरी की सडक़ थी, उसके बाद जब पक्की तारकोल की सडक़ आयी और धूल बन्द हो
गयी तो मैंने तेज बढक़र ट्रक को पकड़ लेने की सोची। कुछ देर बार सामने
ट्रक की पीठ दीखी, पर उसकी ओर देखते ही मैं चौंक गया।’’
‘‘क्यों, क्या बात हुई?’’
‘‘मैंने देखा, ट्रक की छत तक बाँहें फैलाए और पीठ की तख्ती के ऊपरी
सिरे को दाँतों से पकड़े हुए एक आदमी लटक रहा था। तनिक और पास आकर
देखा, एक बाबर्दी गोरा था। उसके पैर किसी चीज़ पर टिके नहीं थे, बूट
यों ही झूल रहे थे। क्षण-भर तो मैं चकित सोचता ही रहा कि क्या दाँतों
और नाखूनों की पकड़ इतनी मजबूत हो सकती है! फिर मैंने लपककर जीप उस
ट्रक के बराबर करके ड्राइवर को रुक जाने को कहा।’’
‘‘फिर?’’
‘‘ट्रक रुका तो हमने उस आदमी को नीचे उतारा। उसके हाथों की पकड़ इतनी
सख्त थी कि हमने उसे उतार लिया तब भी उसकी उँगलियाँ सीधी नहीं
हुईं-वे जकड़ी-जकड़ी ही ऐंठ गयी थीं! और गोरा नीचे उतरते ही जमीन पर
ही ढेर हो गया।’’
‘‘जरूर पिये हुए होगा...’’
‘‘हाँ-एकदम धुत्! आँखों की पुतलियाँ बिलकुल विस्फारित हो रही थीं, वह
भौंचक्का-सा बैठा था। मैंने डपटकर उठाया तो लडख़ड़ाकर खड़ा हो गया।
मैंने पूछा, ‘‘तुम ट्रक के पीछे क्यों लटके हुए थे?’’ तो बोला, ‘‘सर,
मैं लिफ्ट चाहता हूँ।’’ मैंने कहा, ‘‘लिफ्ट का वह कोई ढंग है? चलो,
मेरी जीप में चलो, मैं पहुँचा दूँगा। कहाँ जाना है तुम्हें?’’ इसका
उसने कोई उत्तर नहीं दिया। हम लोग जीप में घुसे, वह लडख़ड़ाता हुआ
चढ़ा और पीछे सीटों के बीच में फर्श पर धप् से बैठ गया।
‘‘हम चल पड़े। हठात् उसने
पूछा, ‘‘सर, आप स्कॉच हैं?’’ मैंने लक्ष्य किया, नशे में वह यह नहीं
पहचान सकता कि मैं भारतीय हूँ या अँग्रेज, पर इतना पहचानता है कि मैं
अफसर हूँ और ‘सर’ कहना चाहिए। फौजी ट्रेनिंग भी बड़ी चीज़ है जो नशे
की तह को भी भेद जाती है! खैर! मैंने कहा, ‘‘नहीं, मैं स्कॉच नहीं
हूँ।’’
‘‘वह जैसे अपने से ही बोला, ‘‘डैम फाइन ह्विस्की।’’
और जबान चटखारने लगा। मैं पहले तो समझा नहीं, फिर अनुमान किया कि
स्कॉच शब्द से उसका मदसिक्त मन केवल ह्विस्की का ही सम्बोधन जोड़
सकता है... तब मैंने कहा, ‘‘हाँ। लेकिन तुम जाओगे कहाँ?’’
बोला, ‘‘मुझे यही कहीं उतार दीजिए-जहाँ कहीं कोई नेटिव गाँव पास
हो।’’ मैंने डपटकर कहा, ‘‘क्यों, क्या मंशा है तुम्हारी?’’ तब उसका
स्वर अचानक रहस्य-भरा हो आया, और वह बोला, ‘‘सच बताऊँ सर, मुझे औरत
चाहिए।’’ मैंने कहा, ‘‘यहाँ कहाँ है औरत?’’ तो वह बोला, ‘‘सर, मैं
ढूँढ़ लूँगा, आप कहीं गाँव-वाँव के पास उतार दीजिए।’’
‘‘फिर तुमने क्या किया?’’
‘‘मेरे जी में तो आया कि दो थप्पड़ लगाऊँ। पर सच कहूँ तो उसके ‘मुझे
औरत चाहिए’ के निव्र्याज कथन ने ही मुझे निरस्त्र कर दिया-मुझे भी
लगा कि इस जन्तुत्व के स्तर पर मानव ताडऩीय नहीं, दयनीय है। मैंने
तीन-चार मील आगे सडक़ पर उसे उतार दिया- जहाँ आस-पास कहीं गाँव का
नाम-निशान न हो और लौट जाना भी जरा मेहनत का काम हो। अब तक कई बार
सोचता हूँ कि मैंने उचित किया कि नहीं-’’
‘‘ठीक ही किया-और क्या कर सकते थे? दंड देना कोई इलाज न होता। मैं तो
मानता हूँ कि जन्तु के साथ जन्तुतर्क ही मानवता है, क्योंकि वही
करुणा है; और न्याय, अनुशासन, ये सब अन्याय हैं जो उस जन्तुत्व को
पाशविकता ही बना देंगे।’’
हम लोग फिर बहुत देर तक चुप रहे। नाकाचारी चार-आली पार करके हमने
मरियानी की सडक़ पकड़ ली थी; कच्ची यह भी थी पर उतनी खराब नहीं, और हम
पीछे धूल के बादल उड़ाते हुए जरा तेज चल रहे थे। अचानक मेजर चौधरी
मानो स्वगत कहने लगे, ‘‘और मैं मनुष्य हूँ। मैं नहीं सोच सकता कि ‘यह
मेरी है’ या कि ‘मुझे औरत चाहिए!’ मैं छुट्टी पर जा रहा
हँ-कम्पैशनेटर छुट्टी पर। कम्पैशन यानी रहम-मुझ पर रहम किया गया है,
क्योंकि मैं उस गोरे की तरह हिर्स नहीं कर सकता कि मैं किसी के बराबर
होना चाहता हूँ। नहीं, हिर्स तो कर सकता हूँ, पर मनुष्य हूँ और मैं
वापस जा रहा हूँ घर। घर!’’
मैं चुपचाप आँखें सामने गड़ाये स्टेशन-वैगन चलाता रहा और मानता रहा
कि मेजर का वह अजीब स्वर में उच्चारित शब्द ‘घर!’ गाड़ी की घर्र-घर्र
में लीन हो जाए; उसे सुनने, सुनकर स्वीकारने की बाध्यता न हो।
उन्होंने फिर कहा, ‘‘एक बार
मैं ट्रेन से आ रहा था तो उसी कम्पार्टमेंट में छुट्टी से लौटता हुए
एक पंजाबी सूबेदार-मेजर अपने एक साथी को अपनी छुट्टी का अनुभव सुना
रहा था। मैं ध्यान तो नहीं दे रहा था, पर अचानक एक बात मेरी चेतना पर
अँक गयी और उसकी स्मृति बनी रह गयी। सूबेदार मेजर कह रहा था, ‘छुट्टी
मिलती नहीं थी, कुल दस दिन की मंजूर हुई तो घरवाली को तारीखें लिखीं,
पर उसका तार आया कि छुट्टी और पन्द्रह दिन बाद लेना। मुझे पहले तो
सदमा पहुँचा पर उसने चिट्ठी में लिखा था कि दस दिन की छुट्टी में तीन
तो आने-जाने के, बाकी छह दिन में से मैं नहीं चाहती कि तीन यों ही
जाया हो जाएँ।’ और इस पर उसके साथी ने दबी ईष्र्या के साथ कहा था,
‘‘तकदीरवाले हो भाई...’’
मैंने कहा, ‘‘युद्ध में
इन्सान का गुण-दोष सब चरम रूप लेकर प्रकट होता है। मुश्किल यही है कि
गुण प्रकट होते हैं तो मृत्यु के मुख में ले जाते हैं, दोष सुरक्षित
लौटा लाते हैं। युद्ध के खिलाफ यह कदम बड़ी दलील नहीं है-प्रत्येक
युद्ध के बाद इनसान चारित्रिक दृष्टि से और गरीब होकर लौटता है।’’
‘‘यद्यपि कहते हैं कि तीखा अनुभव चरित्र को पुष्ट करता है।’’
‘‘हाँ, लेकिन जो पुष्ट होते हैं वे लौटते कहाँ हैं?’’ कहते-कहते
मैंने जीभ काट ली, पर बात मुँह से निकल गयी थी।
मेजर चौधरी की पलकें एक बार
सकुचकर फैल गयीं, जैसे नश्तर के नीचे कोई अंग होने पर। उन्होंने
सम्भलकर बैठते हुए कहा, ‘‘थैंक यू, कैप्टन प्रधान! हम लोग मरियानी के
पास आ गये-मुझे स्टेशन उतारते जाना, तुम्हारे डिपो जाकर क्या
करूँगा-’’
तिराहे से गाड़ी मैंने
स्टेशन की ओर मोड़ दी।
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