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अज्ञेय रचना संचयन
(मैं वह धनु हूँ...)
संकलन एवं संपादन- कन्हैयालाल नंदन
यात्रा-वृत्त

1. बीसवीं शती का गोलोक
2. वसंत का अग्रदूत

3. ‘ऋण-स्वीकारी हूँ’
4. ‘अज्ञेय’ : अपनी निगाह में


बीसवीं शती का गोलोक


बाईस घंटे में मुझे प्राय: आठ सौ मील की यात्रा करनी है। बिजली के इंजिन से चालित रेलगाड़ी के लिए 37 मील प्रति घंटे की रफ्तार बहुत अधिक नहीं है, लेकिन इन आँकड़ों का उल्लेख यही बताने के लिए कर रहा हूँ कि आराम से रेलगाड़ी में बैठ जाने के बाद, इतनी लंबी यात्रा की बात सोचकर समय काटने के उपायों के बारे में सोचना स्वाभाविक हो जाता है। यह तो ठीक है कि नया देश है-मैं बहुत-सा समय खिडक़ी से बाहर झाँकने में बिताऊँगा ही-और यहाँ सब रेलें बिजली से चलती हैं इसलिए धुएँ की भी चिंता नहीं है। लेकिन बाईस घंटे बाहर ताकते रहना तो असंभव है। इस यात्रा में प्राय: बाईसों घंटे का प्रकाश रहेगा, फिर भी! मैं स्टाकहोम से उत्तर, ध्रुव प्रदेश की ओर दौड़ा जा रहा हूँ, मध्य जून का मौसम है जब ध्रुव-मंडल में चौबीसों घंटे दिन रहता है। स्टाकहोम में प्राय: दो घंटे की रात रहती है। लेकिन वहाँ से पाँच बजे चलकर ‘रात’ होते न होते तो मैं उस सीमा के और निकट पहुँच जाऊँगा जहाँ रात होती ही नहीं।

अपने साथ स्वीडन के संबंध में जो परिचय-पुस्तकें रख ली थीं, उन्हें उठाकर उलटने-पलटने लगा। आरंभ में ही जो आँकड़े दिए गए थे उनसे ज्ञात हुआ कि स्वीडन की कुल भूमि का आधे से अधिक (54.5 प्रतिशत ) वन-भूमि है और प्राय: 12 प्रतिशत गोचर-भूमि या चरागाह। देश की आबादी का घनत्व प्रति वर्गमील 43 जन है। दूध और मक्खन की खपत प्रति व्यक्ति क्रमश: 210 सेर और 11 सेर वार्षिक है, अर्थात औसत से प्रत्येक व्यक्ति प्रतिदिन 9 छटाँक दूध और 1/2 छटाँक मक्खन का सेवन करता है। क्रीम और पनीर आदि इससे अलग हैं।

स्वाभाविक था कि इन आँकड़ों के आधार पर एक आधुनिक गोलोक की कल्पना करने लगूँ जिसमें असंख्य काम-धेनुएँ मुक्त भाव से वन-प्रदेशों और हरियालियों में विचरण करती फिरती हैं, और जहाँ-जहाँ उनके पैर पड़ते हैं वहाँ समृद्घियाँ पनप उठती हैं। सुना था कि सात आकाशों के पार जो गोलोक है उसमें कभी अँधेरा नहीं होता, इससे उत्तरी स्वीडन में भी उत्तरायण के दिनों गोलोक की कल्पना करना और भी स्वाभाविक था।

मैं कभी पुस्तकों के पृष्ठ उलटता हुआ और कभी बाहर के बदलते हुए दृश्य देखता हुआ अगले दिन तीसरे पहर अपने लक्ष्य पर पहुँच गया। आबिस्को का ‘टूरिस्ट केंद्र’ यद्यपि था यथानाम ही, तथापि उसकी सब व्यवस्था विद्यार्थियों के हाथ में थी जो उन दिनों ग्रीष्मावकाश के कारण इधर-उधर घूम रहे थे और अपने भरण-पोषण के लिए ऐसे स्थानों की व्यवस्था में आवश्यकतानुसार परिश्रम का दान देते थे। बड़े डायनिंग-रूम में, जिसमें वेटर नहीं थे और स्वयं-सेवा का ही विधान था, जहाँ-तहाँ दूध और दही के भरे हुए जग रखे थे। होटल में रहने वाले इच्छानुसार पानी, दूध अथवा दही पी सकते थे-जब, जितनी बार, जितना चाहें।

आधुनिक गोलोक की कल्पना इससे और पुष्ट हो आई। लेकिन जग से दूध ढालते समय सहसा ध्यान आया कि इतनी लंबी यात्रा में कम-से-कम आरंभिक अंश हरियाली के प्रदेश में से गुजरा था, मैंने कहीं भी गाय या बैल नहीं देखा। यह कैसा गोलोक है जिसमें गाय अदृश्य रहती है?

आबिस्को में तो नहीं, पर वहाँ से स्टाकहोम लौट जाने के बाद दक्षिणी स्वीडन की यात्रा में मैंने इस विषय में जिज्ञासा प्रकट की थी। यह विशेष रूप से इसलिए कि गोचर प्रदेश मुख्यतया दक्षिणी स्वीडन में ही है। जिज्ञासा शांत करने लायक उत्तर तो वहाँ भी नहीं मिला। उलटे मुझसे ही भारत की परिस्थिति के विषय में अप्रत्याशित प्रश्न पूछ गए। एक ने पूछा : ‘‘सुना है आपके देश के शहरों में साँड़ फिरते हैं। मुझे एक मित्र ने बताया था कि बनारस में शहर के एक चौक में साँड़ों की लड़ाई देखी थी। क्या यह सच है?’’ मुझे याद आया कि स्वीडन में तो नहीं, इंग्लैंड में कहीं-कहीं मैंने देखा था कि जहाँ साँड़ रखा जाता है वहाँ आस-पास लंबी-चौड़ी चरागाह छोड़कर उसके बाहर मजबूत दीवार या बाड़ लगा दी जाती है, और जहाँ-तहाँ चेतावनी के नोटिस टाँग दिए जाते हैं...एक दूसरे व्यक्ति ने पूछा : ‘‘आपके यहाँ, सुना है, गायें शहरों में, बल्कि लोगों के घरों में रहती हैं और चराने के लिए सड़कों पर छोड़ दी जाती हैं-बल्कि खूँद-खूँदकर कचरा खाती हैं। क्या यह बात ठीक है?’’ और एक दूसरे ने इस प्रश्न के साथ जोड़ दिया : ‘‘लेकिन यह कैसे हो सकता है-भारत में तो गाय पूज्य मानी जाती है। है न?’’

जिज्ञासा का उत्तर इन प्रश्नों से नहीं मिला, लेकिन उत्तर कहाँ से मिलेगा इसका कुछ संकेत तो मिल ही गया। देश की 12 प्रतिशत भूमि गोचर-भूमि है और वह शहरों से अलग ही रखी जाती है। वहाँ गायें स्वच्छता और स्वच्छंदता से रहती हैं; और वहीं दुहा जाकर दूध शहर में पहुँचता है। यह तभी संभव हो सकता है जबकि वितरण का संगठन बहुत अच्छा हो; वितरक संस्था के मुख्य कार्यालय में और दो एक संग्रह और वितरण केंद्रों में जाकर समझ लिया कि वह संगठन वास्तव में बहुत विस्तृत और कुशल है। अन्य प्रकार के सहकार-संगठनों की बात अनंतर करूँगा, लेकिन दूध की सहकारी संस्था का उल्लेख यहाँ कर देना अप्रासंगिक न होगा। पूर्वीय मध्य स्वीडन की जिस दुग्ध सहकार संस्था का केंद्र स्टाकहोम में है, उसके 30,000 गोपालक सदस्य हैं। इसकी विभिन्न डेरियाँ प्रतिदिन 20 लाख किलोग्राम दूध का संग्रह करती हैं। इन्हीं डेरियों में कृमि-नाशन के बाद दूध बोतलों में अथवा मोम लगे कागज के पात्रोंमें बंद करके बिक्री के लिए भेजा जाता है, अथवा क्रीम और पनीर निकालने के लिए प्रयुक्त होता है। इन डेरियों से प्रतिवर्ष 1 करोड़ 20 लाख किलोग्राम (प्राय: सवा तीन लाख मन) मक्खन और 1 करोड़ किलोग्राम पनीर तैयार होता है।

वहाँ पर अपने देश की गोधन-संबंधी चर्चा कुछ प्रीतिकर नहीं थी। गोधन-संबंधी सुधार और उन्नति का उल्लेख भी कुछ विशेष अर्थ न रखता जबकि उस उन्नति के बाद की स्थिति भी स्वीडन की दृष्टि से शोचनीय होती है। मन-ही-मन सोचता रहा कि इन प्रश्नों में कितना अचिंतित और अज्ञात व्यंग्य है: ‘‘आपके देश में साँड़ छुट्टे फिरते हैं?’’ ‘‘आपके देश में गाय कचरा खाती है?’’ ‘‘किंतु आपके यहाँ तो गाय पूज्य मानी जाती हैं।’’...

ठीक ही तो है। जहाँ मनुष्य गाय को नहीं खाता वहाँ गाय मनुष्य को खाती है-और मनुष्य अच्छा भोजन नहीं है इसलिए उसको खाकर भी भूखी रह जाती है। गाय क्योंकि पूज्य है इसलिए उसको पालने वाला निर्धन व्यक्ति उसको भी भूखों मारता है और उसके साथ स्वयं भी भूखों मरता है; और अपने को यही सोचकर सांत्वना दे लेता है कि गाय को भूखों रखने के कारण वह पाप-भागी नहीं है क्योंकि वह स्वयं भी तो भूखा है। वास्तव में जब तक हमारी गो-संबंधी भावना में परिवर्तन नहीं होता तब तक स्थिति में कोई सुधार भी नहीं हो सकता और उस दिशा में किया जाने वाला सब प्रयत्न बालू की दीवार है। गोधन का संवर्धन तो तभी हो सकता है जब हम उसे धन मानें; अर्थात भावना को एक ओर रखकर उसे आर्थिक नियमों के अधीन मान लें। माताओं की वृद्घि नहीं की जाती, न सुधार होता है, और माताओं की नस्ल के बारे में कुछ कहना तो निरा दुर्विनय है!

स्टाकहोम अत्यंत साफ-सुथरा शहर है। इतना साफ कि उसकी सफाई आँखों में चुभे। लेकिन यह कहने में मुझे थोड़ा संकोच होता है कि स्थापत्य दृष्टि से वह सुंदर भी है। वास्तव में स्टाकहोम का स्थापत्य नवीन प्रवृत्तियों के अध्ययन के लिए उपयोगी भले ही हो, कुछ-एक विशिष्ट इमारतों को छोड़कर सुंदर प्राय: नहीं है। आरामदेह वह हो सकता है, क्योंकि वह जिस सिद्घांत पर आधारित है वह सुविधा-प्रधान ही है, सौंदर्य-प्रधान नहीं। बल्कि वह सौंदर्य को सुविधा की उपज मानता है। जो वस्तु या उपकरण जिस काम के लिए हो, उस काम के अधिक-से-अधिक अनुरूप होना ही उसका सौंदर्य है,-उपकरणवाद (फंक्शनलिज्म) का यह सिद्घांत सन् 1930 के लगभग जर्मनी और फ्रांस से स्वीडन आया और फिर यहाँ स्वतंत्र रूप से विकसित होता रहा। नगर-निर्माण और स्थापत्य में इस सिद्घांत का खंडन तो कठिन है, लेकिन अपनी ओर से यह स्वीकार करने में मुझे कोई संकोच नहीं कि अपनी संवेदन-पद्घति को अभी तक उसके अनुरूप नहीं ढाल सका हूँ। उपकरण को सुविधाजनक उपकरण अवश्य होना चाहिए, लेकिन उपकरण होने मात्र से वह सुंदर हो जाता है, यह अभी तक नहीं मान पाया हूँ और समझता हूँ कि लोक-शिल्प के इतिहास से जो उदाहरण उपकरणवादी देते हैं, वे उनकी युक्तियों का पूरा समर्थन नहीं करते। कोई भी उपकरण और सुंदर बनाया जा सकता है, बिना उसकी उपयोगिता कम किये हुए। किसी भी उपकरण को अधिक उपयोगी बनाया जा सकता है, बिना उसकी सुंदरता बढ़ाये हुए। मैं नहीं जानता कि उपयोगिता की दृष्टि से स्टाकहोम का पुराना नगर अपने समय की आवश्यकताओं की पूर्ति अधिक अच्छी तरह करता था, लेकिन फिर भी मानता हूँ कि वह नए नगर से कहीं अधिक सुंदर है। मैं ही नहीं, स्वयं स्वीडी लोग भी इसे मानते हैं, और विदेशी को सगर्व वह दिखाते हैं। नवीनता के पोषक भी, जो नए नगर-भवन पर गर्व करते हैं, कम-से-कम उतना ही गर्व पुरानी नगरी पर भी करते हैं।

स्थापत्य के विशेष सुंदर न होने पर भी स्टाकहोम के अनेक भाग बहुत ही सुंदर हैं, जिसका मुख्य कारण मालार झील है। वह सर्पिल और घुमावदार झील नगर के विभिन्न खंडों में विभिन्न आकार लेती है-कहीं नहर सी सँकरी, कहीं सरोवर-सी गोल और कहीं उपसागर-सी फैली हुई। बीच-बीच में चट्टानी टीले अथवा वन-खंड उसके सौंदर्य को और बढ़ा देते हैं। बंदरगाह से एक ओर का तटवर्ती प्रदेश तो सुरक्षित राष्ट्रीय उद्यान बना दिया गया है, और इसमें सड़कों के आस-पास हरियालियों में बिखरे हुए कहवाघर और भोजनालय बहुत ही आकर्षक हैं। प्रवास के पहले दिन अपने आतिथेय के साथ इस प्रदेश में घूमकर ऐसे ही एक रेस्तराँ में भोजन किया था। आतिथेय को अपनी नई जर्मनी गाड़ी दिखाने का भी चाव था, लेकिन मैं तो उसी तन्मय भाव से बाहर के दृश्य देख रहा था जिसके लिए अँग्रेज़ी मुहावरा ‘रबर की गर्दन घुमाना’ बहुत ही उपयुक्त है। रेस्तराँ का नाम लिंडगार्डन (नींबू का बाग) तो सार्थक था ही, बरामदों के बाहर और अनेक मालंचों पर सजे हुए विलायती फूलों का रूप और सौरभ भी रमणीय था। पैंजी और नैस्तर्शम, कार्नेशन और हाइड्रेंजिया-ये फूल भारत में भी होते हैं, लेकिन यहाँ उनका रंग-रूप और आकार सभी और थे- हाइड्रेंजिया के गुच्छ तो फूलगोभियों से भी बड़े! और आस-पास पाँगुर और लीलाक के पेड़ फूल रहे थे- लीलाक के फूल कुछ-कुछ महानिंब (बकायन) के फूल से मिलते हैं, लेकिन उससे अधिक सुगन्धित होते हैं; और ऊदे के अलावा गुलाबी और सफ़ेद रंग के भी होते हैं।

अपने आतिथेय का उल्लेख कर ही दिया है तो दो-एक बातें उनके विषय में और कह दूँ। आतिथ्य के लिए वह व्यस्त तो थे ही, मैंने उनके लिए एक समस्या और उपस्थित कर दी थी जिसे उन्होंने बड़े ही आकर्षक सहज भाव से स्वीकार कर लिया। स्वीडिश इन्स्टीट्यूट नामक संस्था के एक मंत्री होने के नाते विदेशों से आने वाले सभी प्रकार के अध्येताओं के स्वागत और उनके लिए आवश्यक प्रबंध का काम वह करते रहे थे। यूनेस्को से संबद्ध होने के कारण मेरे स्वीडन-प्रवास का प्रबंध भी उनकी संस्था को सौंपा गया था। ऐसी संस्थाओं के लिए प्रबंध की एक स्वयं-चालित रूढि़-सी बन जाती है। लेकिन मेरे बारे में कठिनाई यह थी कि मैं उस संस्था का पहला लेखक-अतिथि था! मुझसे पहले जो अध्येता आते रहे, उन सबकी रुचि दूसरी दिशाओं में थी : कोई इस्पात का कारखाना देखना चाहता था तो कोई जन-विद्युत् की व्यवस्था, कोई पूर्वनिर्मित (प्री-फैब्रिकेटेड) घरों का अध्ययन करने आया था तो कोई समाज-कल्याण के कानूनों का, कोई कागज बनाने के कारखाने देखना चाहता था तो कोई सहकार संघ का केंद्रीय कार्यालय। लेकिन मैं-मैं लेखकों से मिलना चाह रहा था! और वह अभी तक सोच नहीं पाये थे कि मेरे लिए क्या व्यवस्था उन्हें करनी चाहिए। केवल इतना उन्होंनेकिया था (स्वयं-चालित रूढि़ का प्रताप!) कि मेरे समवयस्क कुछ लेखकों से भेंट की व्यवस्था कर दी थी। मैंने यह बताया कि यूनेस्को के केंद्र पैरिस में भी ऐसी ही समस्या उठी थी, और इसलिए मुझे वहाँ 15 दिन अधिक रुकना पड़ा था कि उनके विशेषज्ञों से पूछकर अपना कार्यक्रम स्वयं निश्चित कर सकूँ। इस सूचना से उन्हें बड़ी सांत्वना मिली और उनका बोझ प्रत्यक्ष ही कुछ हल्का होता जान पड़ा। दबे स्वर से मैंने यह भी सुझा दिया कि मिलने के लिए समान वय का ध्यान रखना उतना आवश्यक नहीं है जितना समान रुचि अथवा जिज्ञासाओं का-‘समानशीलव्यसनेषु सख्यम्’। पहले ही दिन यह स्पष्टीकरण हो जाने से अनंतर बहुत लाभ हुआ, क्योंकि इस प्रकार मैं युवतर लेखकों से भी मिल सका। बल्कि कई दृष्टियों से उनसे मिलना अधिक शिक्षाप्रद हुआ।

पहले दिन मैं विद्यार्थियों के एक होटल में ठहरा था-एक छात्रावास में जो कि ग्रीष्मावकाश में विद्यार्थियों द्वारा होटल के रूप में चलाया जा रहा था। किंतु दूसरे दिन मेरे लिए दूसरी जगह व्यवस्था कर दी गई। यह दूसरा होटल प्राइवेट होटल था-कुल आठ कमरे-और पहाड़ी की ढाल पर बनी हुई पाँच मंजिलों की इमारत में पाँचवी मंजिल पर था। (निचली मंजिलों में एक क्लब और एक रेस्तराँ भी था।) यह होटल ‘लेखकों का होटल’ प्रसिद्घ था। कुछ ऐसी परंपरा थी कि स्टाकहोम आने वाले विदेशी लेखक यहीं ठहरते या ठहराये जाते थे। होटल का खाता देखने पर अनेक प्रसिद्ध नाम मुझे मिले, यह भी ज्ञात हुआ कि स्ट्रिंडबर्ग भी कभी वहाँ रहे थे।

होटल से स्टाकहोम का और मालार झील के विभिन्न जलाशयों का विहंगम दृश्य दिखता है। बल्कि अपने छज्जे से ही मैं सूर्योदय से सूर्यास्त तक का पूरा आकाश देख सकता था। क्योंकि यह छज्जा इमारत के कोने पर बना हुआ था। पश्चिम की ओर मालार के एक पुल के आगे नगर-भवन सांध्य आकाश की पृष्ठिका के कारण बहुत अच्छा लगता था।

होटल पहाड़ की ढाल पर था, पाँच मंजिलें उतर करके समतल भूमि पर नहीं पहुँचते थे बल्कि वहाँ से बहुत नीचे उतरकर सड़क अथवा ट्राम की लाइन मिलती थी। पटरी से उतरने में इससे प्राय: दस मिनट का समय लगता, और आती बार कर्री चढ़ाई चढ़नी पड़ती। इसलिए नगर के इस खंड में आने के लिए बाहर एक सार्वजनिक लिफ्ट लगा हुआ था जिससे प्राय: 200 फुट सीधे चढ़-उतर सकते थे। यह लिफ्ट उपयोगी तो था ही, नगर के लिए एक विशेष आकर्षण इसलिए भी था कि ऊपरी खंड से पहाड़ी तक बना हुआ पुल, स्टाकहोम का विहंगम दृश्य देखने के लिए उत्तम स्थान था। सूर्योदय और सूर्यास्त, नया और पुराना नगर, बंदरगाह और आने-जाने वाले जहाज, नीचे दौड़ती और बल खाती हुई ट्राम और मोटरें, सभी यहाँ से देखी जा सकती थीं। मैं आते-जाते सदैव इस पुल की मुँडेर पर झुके हुए लोगों को देखा करता था। इतना ही नहीं, आने-जानेवालों की सुविधा के लिए पुल पर ही एक कहवाघर था जो वहीं खड़े-खड़े या छोटी कुर्सी पर बिठाकर चाय-काफ़ी और उपाहार दे सकता था।

इस पुल और इस लिफ्ट की एक और भी उपयोगिता थी जिसका पता लिफ्ट की एक चालिका से लगा। (अधिकतर स्त्रियाँ ही लिफ्ट चलाती थीं; केवल रात के तीसरे पहर ही ड्यूटी पुरुष करते थे।)

चालिकाएँ लिफ्ट पर आने-जानेवाले प्रत्येक व्यक्ति का चेहरा बड़े ध्यान से देखा करती थीं, यह मैं लक्ष्य कर चुका था। स्वीडन जैसे विनयशील देश में ऐसे देखे जाना कुछ असमंजसकर भी था। एक दिन साँझ को लिफ्ट के ऊपर जाने पर पाया कि लिफ्ट का तत्काल प्रयोग चाहने वाले व्यक्ति वहाँ नहीं है, तो चालिका से थोड़ी देर बातचीत करता रहा। यह पहले भी सुना था कि आत्महत्या करना चाहनेवाले प्राय: वहाँ आते हैं-200 फुट की यह कूद आत्महत्या का अमोघ उपाय है! चालिका ने बताया कि वह हर चेहरे को इसीलिए ध्यान से देखती है-कि कहीं यह आत्म-जिघांसु का चेहरा तो नहीं है? ‘‘कभी-कभी यह भी सोचती हूँ कि अगर कोई आत्महत्या करना ही चाहेगा, तो अब क्या उसे मैं रोकूँगी?’’
इस ‘अब’ पर मेरा ध्यान टिक गया। मैंने पूछा : ‘‘क्या पहले भी आपने कभी किसी को रोका है?’’

चालिका ने बताया कि एक बार एक व्यक्ति उसके सामने ही कूदने के लिए मुँडेर पर चढ़ रहा था तो उसने पीछे से उसकी कमर पकड़ ली; किंतु भरसक बाधा देने पर भी वह उसे कूदने से रोक न सकी-जकड़ छुड़ाकर वह गिर ही गया। बाधा का केवल इतना ही असर हुआ कि जहाँ कूदने से वह लिफ्ट से दूर खुले स्थान में गिरता, वहाँ कूदने की बजाय गिरने के कारण वह अधबीच बिजली के तारों के एक जाल पर गिरा, और फिर तारों के टूट जाने से नीचे-किंतु कम वेग से। फलत: वह तत्काल मरा नहीं-उसे अस्पताल ले जाया गया, जहाँ टूटी हुई हडि्डयों और बिजली से जल जाने के घावों के कारण आठ दिन के मर्मांतक कष्ट के बाद उसकी मृत्यु हुई।

‘‘तब से मैं हर चेहरे को बड़े ध्यान से देखती हूँ। इसलिए नहीं कि जान लूँ कि वह आदमी मरना चाहता है या नहीं; केवल इसलिए भी कि मैं समझ सकूँ कि इसके मरना चाहने पर मुझे बाधा देनी चाहिए या नहीं।’’

थोड़ी देर हम दोनों चुप रहे। फिर उसने मानो स्वगत कहा : ‘‘कोई कैसे जान सकता है कि दूसरे का दु:ख कितना गहरा है? और जानकर कैसे उसमें दखल दे सकता है?’’

लिफ्ट का प्रयोग तो मैं इसके बाद भी बहुत दिनों तक करता रहा। लेकिन चालिका की कही अंतिम बात मेरे मन में बार-बार उदित होती रही-विशेषकर उसका उत्तरार्द्ध-और जानकर कैसे उसमें दखल दे सकता है?

क्योंकि यह ‘दखल न देना’ स्वीडी जीवन दर्शन में एक महत्त्व का स्थान रखता है-उनके स्वातंत्र्य-पूजन का एक अंग है। दखल न देने का दर्शन पेरिस में भी पाया जाता है। अपवाद-रूपी किसी-किसी व्यक्ति में वह मानवीय सहानुभूति का रूप भी हो सकता है और मैं जानता हूँ कि पेरिस में ऐसे भी लोग हैं जो बिना एक-दूसरे के जीवन में दखल दिए एक-दूसरे की सहायता करते हैं। लेकिन पेरिस का दखल न देने का दर्शन मुख्यत: संवेदना की अनुपस्थिति का दर्शन है- मानव के प्रति मानव की उदासीनता का। स्वीडन में यह दोनों से अलग आधार पर खड़ा है- मानव के प्रति मानव के सम्मान पर, व्यक्ति की अखंड सार्वभौम सत्ता पर। इस विशेष दृष्टिकोण के अनेक उदाहरण सुने भी और देखे भी। लेकिन इस संबंध में अपने कुछ अनुभवों का वर्णन अलग से करना ही अच्छा होगा।

एक छोटे कस्बे के बाहरी मुहल्ले की एक सड़क; सड़क के किनारे दीवार पर टँगा हुआ लेटरबक्स। सहसा आँख लेटरबक्स पर नहीं, उसके नीचे कुटि्टम भूमि पर टिक जाती है। वहाँ एक चिट्ठी और उसके ऊपर कुछ पैसे रखे हैं। स्थिति समझ में आ जाती है : बिना टिकट की चिट्ठी और पैसे इस विश्वास के साथ रखे गए हैं कि डाकिया स्वयं टिकट लगाकर चिट्ठी ले जावेगा।
राजधानी की ट्रामगाड़ी। पिछले द्वार से सवारियाँ चढ़ती हैं, अगले दो द्वारों से उतरती हैं। क्रमश: आगे बढ़ती हुई वे बीच में बैठे कंडक्टर से टिकट ले जाती हैं। भीड़ बहुत है, प्रगति धीरे हो रही है, कुछ लोगों को जल्दी उतर जाना है- वे टिकट कैसे लेंगे? अचानक दीखता है, उतरने के द्वारों के पास छोटी-छोटी पेटियाँ लगी हुई हैं- लोग उतरते हुए उनमें पैसे डालते जाते हैं। पेटियों पर लिखा है-आपको टिकट लेने की सुविधा न हुई हो तो किराया यहाँ डालते जाइए’’।

एक मामूली स्टेशन। आप गाड़ी से उतरे हैं। मध्यवित्ती भारतवासी हैं, इसलिए प्राय: आवश्यकता से अधिक असबाब लेकर यात्रा करने के आदी हैं, यद्यपि इतना सीख गए हैं कि बिस्तर ले जाना आवश्यक नहीं है। कुली कहीं दीखते नहीं। आप बगल में एक बंडल और दोनों हाथों में एक-एक सूटकेस तौलते हैं कि एक मधुर स्वर कहता है-एक मुझे दीजिए-“ और आपके कुछ कहने से पहले एक सुरूप, सुवेश व्यक्ति आपके हाथ से एक सूटकेस ले लेता है- “बस तक जावेंगे?’’ बस पर पहुँचकर वह आपको धन्यवाद देने का अवसर न देकर कहता है- “हमारे देश में आपका प्रवास सुखद हो यह मेरी हार्दिक कामना है’’-और चल देता है।

एक और स्टेशन। रात के ग्यारह बजे का समय; थोड़ी देर बाद आपकी गाड़ी आने वाली है। आप सूने प्लेटफार्म पर टहल रहे हैं कि अचानक देखते हैं, जिस होटल में आप दो दिन ठहरे थे उसी में टिके हुए आठ-दस स्वीडी व्यक्ति आपकी ओर आ रहे हैं। क्या ये भी उसी गाड़ी से जानेवाले है, या किसी को लेने आए हैं? नहीं; ये सब आपको विदा करने आए हैं। ‘‘आप बाहर से आए हुए हमारे अतिथि हैं; पराये देश में जाकर यह अनुभव करना कि हम अजनबी या पराये हैं अच्छा नहीं लगता। हम चाहते हैं कि आप इस देश को अपना घर समझें और आपको गाड़ी पर पहुँचाने आए हैं-इस कामना के साथ कि आपका हमारे मध्य में आना फिर हो।’’ रात के ग्यारह बजे और बिना किसी संस्था की प्रेरणा के, निजी सौजन्यवश, यह शिष्टाचार! अतिथि सत्कार की उज्ज्वल परंपराएँ कई देशों में हैं और आतिथ्य की अतिरंजित परिभाषाएँ भी कई जगह मिलती हैं। सभ्यता की अनेक परिभाषाएँ हैं, और संस्कृति की तो और भी अधिक। किंतु सभ्यता यदि व्यक्ति की स्वतंत्रता का निर्वाह करते हुए एक सुगठित और सुव्यवस्थित समाज के रूप में रहने की कला का नाम है, तो जिस देश में ये छोटे-छोटे किंतु स्मरणीय अनुभव मुझे हुए वह संसार का कदाचित् सबसे अधिक सभ्य देश है। और अगर मानवता का शील-संस्कार जिससे वह सहज और निरायास भाव से वैसा आचरण करता है जो दूसरे मानव के लिए सुखकर, प्रीतिकर या कल्याणकर है, और इसे दूसरे पर बोझ भी नहीं बनने देता-अगर ऐसा शील-संस्कार संस्कृति में कुछ भी महत्त्व रखता है तो नि:संदेह स्वीडन एक अत्यंत पुष्ट संस्कृति-संपन्न देश है।

ये घटनाएँ यों असाधारण नहीं हैं, किंतु उनका किसी देश के साधारण दैनंदिन जीवन का अंग होना ही उन्हें असाधारण बनाता हैं नहीं तो इक्के-दुक्के नीतिवान या शालीन व्यक्ति किस देश में नहीं मिलते? स्वीडन में और भी मार्के की बात यह है कि नैतिक मूल्य का निर्वाह आधुनिकतम वैज्ञानिक प्रगति के साथ-साथ होता है। औद्योगिक उन्नति, आर्थिक संपत्ति, विस्तृत व्यापार, व्यापक शिक्षा-इनके साथ-साथ विनय का विकास होता है और समाज के हर स्तर पर होता है। यों स्तर वहाँ इतने नहीं हैं जितने भारत में या दूसरे अनेक पूर्वी अथवा मध्यपूर्वी देशों में, क्योंकि स्वीडन साथ ही सबसे अधिक समाजवादी देश भी है। वहाँ वाद पर उतना मुखर आग्रह भले ही न हो, व्यवहार पूरा है। यह अत्यंत विकसित व्यक्ति-स्वातंत्र्य और उसके साथ-साथ इतना व्यापक सामाजिक सहयोग-यही स्वीडन का अचरज है और यही मानव-जाति के भविष्य के लिए आशा का संकेत।

किसी देश अथवा समाज के साधारण अथवा जातिगत चरित्र को उसकी भौगोलिक स्थिति का परिणाम मान लेना एक प्रकार के नियतिवाद को जन्म देता है। ऐसा भौगोलिक नियतिवाद मुझे अमान्य है। किंतु स्वीडी चरित्र की विशेषताओं को उसकी देशगत स्थितियों के संदर्भ में अवश्य देखा जा सकता है। विरल आबादीवाले ऐसे प्रदेश में, जहाँ वनों, सरोवरों और पर्वतों का बाहुल्य है, जहाँ गर्मी-जाड़ों में दिन और रात का अंतर इतना अधिक होता है कि कुछ महीने दिन काटे नहीं कटता और कुछ महीने रात मानो अंतहीन हो जाती है, जिसमें बहुधा गाँव या अकेले घर महीनों तक बर्फ से घिर अथवा दबकर बाकी संसार से अलग हो जाते हैं, बसनेवाले लोगों का ऐसा स्वभाव पाना कुछ अद्भुत नहीं है। अलग अकेले रहने का अभ्यासी अगर चिंतनशील, अल्पभाषी या मृदुभाषी, एकांतप्रेमी और दूसरे के काम में हस्तक्षेप न करनेवाला हो जाता है, तो क्या आश्चर्य है? स्वीडन में एक ही झील के एक ही घाट पर सैलानियों द्वारा मछली के शिकार के लिए या दो-एक दिन की छुट्टी बिताने के लिए कोई मालिक-मकान दो-चार बँगले बनवाता है तो इसका ध्यान रखता है कि वे एक-दूसरे को न दीखें, एक-दूसरे के परिदृश्य में, एकांत में अथवा मनोवांछित ढंग से समययापन में बाधक न बनें। यह नहीं है कि (लारेंस के शब्दों में) ‘सभ्य मानव को मानव की बू असह्य हो गई है।’ बल्कि यह इस बात का प्रमाण है कि ऐसा नहीं हुआ है, और न साधारण स्वीडी चाहता है कि कभी हो। इंग्लैंड में एक बार देखा था, गर्मियों में अपने अलग ढंग से होटलों के वातावरण से मुक्त रहकर छुट्टियों के कुछ दिन ‘निजी पारिवारिक वातावरण में’ बिताने के लिए लोग अपनी-अपनी मोटरों के पीछे कारवाँ-ठेले जोतकर निकले, तो एक ही सागर-तट पर एक ही विशाल ‘कैरावान-पार्क’ में 6,000 ठेले पंक्तियाँ बाँधकर खड़े हो गए! पार्क में मोटर और ठेले खड़े करने की जगह थी; प्रत्येक अपने अद्वितीय ढंग से, निर्बाध रूप से, छुट्टी बिताने के लिए एक ही मैदान में जुटे हुए 6,000 पंक्तिबद्ध परिवार! मानो छुट्टी बिताने के युद्ध के लिए महाप्रांगण में सेनाएँ जुटी हों!

यह कहना इंग्लैंड के साथ दोहरा अन्याय होगा कि प्रांगण में जुटे हुए सब लोग वास्तव में ऐसा ‘अवकाश संग्राम’ चाहते हैं। इंग्लैंड की आबादी कहीं घनी है, और वहाँ वैसे एकांत विश्राम के लिए स्थान भी नहीं है जैसा स्वीडन में संभव है। किंतु जो कुछ संभव है उसका पूरा उपयोग वहाँ नहीं होता, जबकि स्वीडन में जो व्यक्ति अवकाश या विश्राम के लिए दौड़ता है वह केवल अपने कार्यस्थल या परिचित परिवेश से दूर नहीं जाता बल्कि जन-मात्र से दूर जाता है।

शिक्षित और संपन्न देश में ऐसे एकांत-प्रेम से, विशेषतया जब उस संपन्नता के साथ-साथ स्वतंत्र वैज्ञानिक चिंतन कई विश्वासों को दुर्बल कर देता है, इसकी संभावना बनी रहती है कि व्यक्ति एक आध्यात्मिक शून्य का अनुभव करे। इसके दुष्परिणाम स्वीडन में देखे जा सकते हैं। एकांत में और अति मात्रा में मद्य-सेवन वहाँ की एक सामाजिक समस्या है। मद्य के कारण ही नहीं, अन्य कारणों से भी एकांत से घिरे हुए कुछ व्यक्तित्व वहाँ विकृत हो जाते हैं। यह शायद भौतिक समृद्धि का अनिवार्य दंड है। किंतु इन विकृत परिणामों को छोड़ भी दें तो भी लक्षित होता है कि स्वीडी लोगों में कहीं गहरे में एक उदासी अथवा चिंतनशील निरानंद का भाव होता है। कदाचित् इसी अति-गंभीरता अथवा अंतरोन्मुख उदासी के कारण दक्षिणी जातियों के लोग उन्हें मनहूस या बुद्घू मानते हैं। उदाहरणत: फ्रांस में प्राय: ही स्वीडियों में विनोद की कमी की चर्चा होती है। फ्रांस का साहित्यकार जहाँ बातचीत में सदैव दूसरे को चमत्कृत करने, प्रभाव डालने, वाचिक और आंगिक अभिनय द्वारा मुग्ध और अभिभूत करने में यत्नशील रहता है, स्वीडन का लेखक वहाँ ग्रहण करने, चुपचाप बैठकर या सागर-तट अथवा वन-खंडी में घूमते हुए चिंतन करने का अभ्यासी है। फ्रांसीसी कलाकार एक कुशल नट है, अविराम अपने करतब दिखाता है और आपकी ओर से प्रशंसा चाहता है। वह सतर्क है कि आप उसके अभिनय कौशल के कायल हों। उसके लिए यह मानो बड़ी पराजय होगी कि वह जो पार्ट अदा कर रहा है उसे आप उसका सच्चा रूप समझ लें! यह दूसरी बात है कि जो अभिनेता सोते-जागते कभी भी रंगमंच छोड़ता ही नहीं, उसका सच्चा रूप आप क्या मानें! किंतु यही तो फ्रांसीसी कलाकार आपको बताना चाहता है: वह आपके सामने बैठकर अपना रूप-अपने अनेक रूप देखता है, आपको सम्बोधन करके अपनी बात-अपनी अनेक बातें सुनता है। इसके विरुद्ध स्वीडी लेखक कम बोलता है; अपने गंभीरतम विश्वासों और मान्यताओं की चर्चा प्राय: नहीं करता, किंतु जब करता है तो शिशुवत् निश्छल भाव से। आपके सामने आकर वह आपकी बात सुनता है, गुनता है, यदि सहमत नहीं होता तो आपकी बात गाँठ बाँधकर रख लेता है कि फिर एकांत में किसी झील-झरने के किनारे बैठकर सोचेगा।

और मजे की बात यह है कि फ्रांस का बौद्धिक व्यक्ति तो उत्तर के साहित्यकार को बुद्घधू और मनहूस समझता ही है, उत्तरी साहित्यकार भी सहज ही इस मूल्यांकन को स्वीकार लेता है! मुझसे एकाधिक बार स्वीडी लेखकों ने ऐसा कहा। ‘फ्रांस का लेखक प्रतिभाशाली है, हम लोगों में तो कोई प्रतिभा नहीं है।’ ‘‘वी आर नॉट ब्रिलिएंट लाइक द फ्रेंच, वी आर डल पीप्ल।’’

किंतु आभ्यंतर विवेचन को छोड़कर सतह को ही देखें। स्वीडन में शिक्षा का प्रसार आश्चर्यजनक है। शिक्षा सभी स्तरों पर नि:शुल्क या लगभग नि:शुल्क है। कई जिलों में प्रारंभिक और उच्च विद्यालयों में भी विद्यार्थियों को दोपहर का भोजन स्कूल की ओर से बिना मूल्य दिया जाता है- बिना इसका विचार किये कि किस विद्यार्थी की आर्थिक स्थिति कैसी है। सन् 1955 में सात लाख विद्यार्थियों को ऐसा बिना मूल्य भोजन मिलता रहा। (स्वीडन की कुल जनसंख्या सात करोड़ है)

विश्वविद्यालयों में शिक्षा राज्य की ओर से नि:शुल्क दी जाती है किंतु राज्य विश्वविद्यालयों का नियंत्रण नहीं करता और वे अपनी स्वतंत्रता की रक्षा के बारे में अत्यंत सतर्क है। बल्कि विश्वविद्यालयों की स्वतंत्रता अध्ययन-स्वातंत्र्य और विचार-स्वातंत्र्य के आंदोलन की ही एक पहलू है। स्वीडन के प्राचीन विश्वविद्यालय सत्रहवीं शती में स्थापित हुए और उस समय धर्म-शिक्षा उनके पाठ्य-क्रम का अंग थी ही। अनंतर धर्म-विश्वास संबंधी आंदोलन के साथ-साथ अध्ययन और अनुशीलन की स्वतंत्रता का प्रश्न जुड़ गया। विश्वविद्यालयों की स्वतंत्रता का आंदोलन इसका एक पहलू था। आचार्यों की नियुक्ति के संदर्भ में राज्य और विश्वविद्यालयों का एक ऐतिहासिक संघर्ष भी हुआ, जिसमें वैज्ञानिक अनुशीलन की स्वतंत्रता का सिद्घांत जयी हुआ। स्वीडी समाचार-पत्रों की स्वतंत्रता भी यहाँ कानून द्वारा सुरक्षित है। स्वीडियों का दावा है कि इस स्वतंत्रता को सुरक्षित रखने का सबसे प्राचीन विधान स्वीडन का है। वर्तमान कानून में भी किसी प्रकार के नियंत्रण का निषेध है, और युद्घ-काल में भी समाचार-पत्रों पर सेंसर नहीं नियुक्त किया जा सकता।
विश्वविद्यालयों में शिक्षा नि:शुल्क होती है, इसका अर्थ यही है कि विश्वविद्यालय विद्यार्थियों से कुछ नहीं लेते। किंतु प्रत्येक विद्यार्थी के लिए किसी विद्यार्थी संगठन का सदस्य होना आवश्यक होता है, और ये संगठन चंदा लेते हैं। ऐसे संगठनों के नाम अधिकतर प्रादेशिक होते हैं और वे ‘राष्ट्र’ कहलाते हैं। विद्यार्थी-जीवन के अनेक पहलू इन संघों अथवा राष्ट्रों के सहकारी अनुशासन में रहते हैं। संघ ही छात्रावास चलाते हैं और विद्यार्थियों के रहने की व्यवस्था करते हैं, सहकारी आधार पर विद्यार्थियों के काम की चीज़ों की दुकानें चलाते हैं, विद्यार्थियों के लिए चिकित्सालय चलाते हैं, नौकरी दिलाने के लिए उद्योग करते हैं; और यहाँ तक कि सदस्यों के बेकार रहने पर उन्हें वृत्तियाँ भी देते हैं अर्थात् बेकारी-बीमा की व्यवस्था करते हैं। और ये छात्र संगठन स्वयंसेवी और स्वायत्त होते हैं। विश्वविद्यालय उनमें कोई हस्तक्षेप नहीं करता; केवल माँगे जाने पर परामर्श देने की व्यवस्था कर सकता है। उदाहरणतया सहकारी संस्था को चलाने के लिए किसी अर्थ-शास्त्रज्ञ की आवश्यकता होने पर विश्वविद्यालय से इस संबंध में सहयोग माँगा जा सकता है।

विश्वविद्यालय सभी ग्रीष्मावकाश के लिए बंद थे; केवल उपसाला के प्राचीन विश्वविद्यालय में जाना हुआ-वह भी इसलिए कि कुछ लेखकों से मिलना था जो स्थायी रूप से वहीं रहते थे।

किंतु सिगतुना का लोक-संस्कृत महाविद्यालय खुला था। बल्कि ग्रीष्मावकाश में तो वहाँ विशेष हलचल होती है, क्योंकि अवकाश में बाहर के लोग भी वहाँ अतिथिशाला में आकर रहते हैं। उपसाला से मैं सिगतुना जाकर उसी अतिथिशाला में ठहरा। यह संस्था लोक-संस्कृति के अध्ययन के लिए और लोक-कला तथा लोक-शिल्प की रीतियों के पोषण और प्रचार के लिए कार्य करती है। यहाँ की गायक-मंडली से मैंने अनेक स्वीडी लोकगीत सुने; और कुछ फीते पर रेकार्ड करके साथ ले आया। उन दिनों अयनोत्सव (मिड-समर फैस्टिवल) भी था, इसलिए स्वीडी लोक-नृत्य भी देखने को मिले जिसमें न केवल विद्यालय के छात्र और छात्राएँ सम्मिलित होती थीं, बल्कि आसपास की बस्तियों के अनेक कृषक और नागरिक भी। प्रतिदिन विधिवत् इंद्र-ध्वज (मे-पोल) की प्रतिष्ठा होती थी और उसके आस-पास पिंडीबद्घ नृत्य होता था। नृत्यों के विभिन्न प्रकार थे। मंडलाकार नृत्य होने पर भी कुछ को नटन (डांस) कहा जाता था और कुछ को अटन (वॉक)। सारे यूरोप में ऐसे अनेक लोक-नृत्य प्रचलित हैं, जिनको वॉक कहा जाता है- उन्हें विशिष्ट करने के लिए उनके साथ विदेश का नाम जुड़ा हुआ हो सकता है। मेरा अनुमान है कि भारत में भी ऐसा ही परंपरागत अंतर रहा-नट्’ अथवा ‘अट्’ धातु से बने हुए विभिन्न नाम कदाचित् इस भेद को सूचित करते हैं कि कुछ नृत्य अभिनयप्रधान थे और वाचिक तथा आंगिक अभिनय के द्वारा किसी पद की व्याख्या करते थे; जबकि कुछ दूसरे नृत्य, गीत के साथ होने पर भी, सहज आनंदाभिव्यक्ति के नृत्य होते थे। मैं नहीं जानता कि यह अनुमान कहाँ तक तथ्यसंगत है, न यही कि भाषा-तत्त्व के विद्वान इसके बारे में क्या कहेंगे; किंतु इतना अवश्य है कि इस प्रकार का भेद लोक-नर्तक के मन में भी रहा और शास्त्रीय परिभाषा करनेवाले नाट्य-शास्त्र-विशारदों के मन में भी।

दूर-देशीय अतिथि होने के नाते मुझे संस्था देखने की पूरी सुविधा तो दी ही गई, प्रतिदिन, भोजन के समय अध्यक्ष की मेज का साझा करने का सम्मान भी मिला। पश्चिम में भोजन का समय ही वार्तालाप का उत्तम समय माना जाता है, इसलिए यह अवसर मेरे लिए विशेष उपयोगी हुआ क्योंकि प्रतिवार अध्यक्ष के साथ दो-एक और लेखक-अतिथियों से भी बातचीत हो जाती और पश्चिम की साहित्यिक और सांस्कृतिक परंपरा अथवा उनकी विशेष समस्याओं पर कुछ प्रकाश मिलता या किसी नए दृष्टिकोण से परिचय होता। मध्य-काल में धर्म और कला का जो संबंध-विच्छेद हुआ, ईसाई चर्च ने कलाकार का जो बहिष्कार कर दिया उसके परिणामों पर बहुत चर्चा होती रही। अध्यक्ष महोदय का दृढ़ विश्वास था कि कलाकार को अविश्वास्य मानकर कला के प्रति उदासीन हो जाने में चर्च ने जो भूल की थी उसके कुप्रभाव दोनों पर पड़े और अब धर्म-संस्थाओं को फिर से यह उद्योग करना चाहिए कि उनमें और कलाकारों में सामीप्य हो-धर्म-संस्थाओं को रचनाशीलता का योग मिले और कृतिकार फिर से श्रद्घा से अनुप्राणित हो। निरी श्रद्घाहीनता को मैं भी कोई रचनात्मक शक्ति नहीं मानता हूँ, यद्यपि वैज्ञानिक जिज्ञासु-बुद्घि का कायल हूँ। फिर भी अध्यक्ष महोदय की भावना का सम्मान करते हुए भी मैं उनकी योजनाओं को व्यावहारिक नहीं मानता था-भारत जैसे देश में भी नहीं, स्वीडन जैसे देश की तो बात ही क्या! किंतु ऐसे वार्तालाप का उद्देश्य सहमति नहीं होता, विचारोत्तेजन ही होता है।

लेखक, चिंतक, अध्यापक, सभी तो ग्रीष्मावकाश के लिए शहर से या अपने साधारण निवासों से दूर भागे हुए थे-कोई जंगल में, कोई सागर के किनारे, कोई मछेरों के झोंपड़ों में तो कोई गड़रियों के काठ-बँगलों में। ‘चार दिनाँ की चाँदनी’ में ही धूप के आकर्षण से सब लोग ऐसे स्थानों को चले गए थे जहाँ दिन-भर (और कितना लंबा दिन !) कछुए अथवा मगरमच्छ की तरह धूप में पड़े-पड़े दिन काटे जा सकें। क्योंकि फिर लंबी अँधेरी रात में सभी को अपने-अपने शहर लौटकर काम में लग जाना होगा।...योजना बनाकर किसी से मिलना संभव नहीं था, क्योंकि किसी का पता पाना ही कठिन था। कोई अचानक ही मिल जाए तो मिल जाए। ऐसे ही केंद्रों में जाना उपयोगी हो सकता था जहाँ उस समय में लोगों के होने की संभावना हो। सिगतुना के बाद दक्षिणी स्वीडन के मुल्श्वे नामक स्थान में हाकिनसास (‘गरुड़-नासा’) की संस्था में जा पहुँचा, जहाँ मेरे पुराने परिचित मार्टिन आलवुड समाज-विज्ञान के एक शोध-केंद्र का संचालन करते हैं और वह ग्रीष्मकालीन विद्यालय भी चलाते हैं। मार्टिन से मेरा परिचय प्राय: बीस वर्ष पहले से था जब वह भारत आए थे और कलकत्ते में मेरे साथ रहे थे। वह मूलत: उत्तरी इंग्लैंड के निवासी थे किंतु उनके पिता यहाँ अँग्रेज़ी शिक्षक होकर आए थे और यहीं बस गए थे। इसी केंद्र में उनकी नार्वेयी पत्नी श्रीमती इंगा आल्वुड से परिचय हुआ और प्रवासी चीनी लेखक और शिक्षक ह्वाङ्ग त्सु-यू तथा उनकी जर्मन पत्नी से भी-और अनेक हँसमुख विद्यार्थी युवकों और युवतियों से भी और एक सर्वथा अनौपचारिक शिक्षा-पद्घति से भी। मार्टिन तथा विद्यार्थियों के अनुरोध पर विद्यालय में एक-दो भाषण भी दिए और कहानियाँ भी सुनायी, फिर मार्टिन के अध्ययन-कक्ष में बैठकर उनके भारत के तथा अपने स्वीडन के अनुभवों का विनिमय करता रहा।

लौटकर फिर स्टाकहोम के अपने परिचित होटल में स्थान पाया। लिफ्ट से अब भी उसी प्रकार लोग आते-जाते थे और लिफ्ट की चालिका अब भी उतने ही ध्यान से उनके चेहरे देखा करती थी। किंतु होटल में टिक जाने के बाद एक नया अनुभव हुआ।

सवेरे नाश्ते के बाद परिचारिका ने पूछा : ‘‘क्या आपको कुछ कष्ट दे सकती हूँ ?’’
मैंने कहा, ‘‘बताइए ?’’
‘‘आप मेरी हस्ताक्षर-पुस्तक में हस्ताक्षर कर देंगे ?’’
मैंने हँसकर कहा : ‘‘सहर्ष ।’’
‘‘और साथ कुछ लिख भी देंगे ?’’
मैंने कहा : ‘‘अच्छी बात है, आप कापी मुझे दे दीजिए; मैं लिख रखूँगा।’’

वह कापी ले आई। कापी नहीं थी, मेरी अभ्यस्त छोटी-बड़ी ‘आटोग्राफ़ बुक’ भी नहीं थी। एक बड़ा-सा एलबम था। उस होटल में इस परिचारिका के रहते जो-जो देशी-विदेशी साहित्यकार वहाँ टिके थे (और यह मैं कह चुका हूँ कि वह होटल साहित्यकारों का अड्डा था)-उन सभी के उसमें न केवल हस्ताक्षर और संदेश थे, बल्कि स्टाकहोम में रहते हुए उनके भाषणों या भेंट के जो भी संवाद समाचार-पत्रों में छपते रहे उनके कटिंग भी। पन्ने उलटते हुए मुझे आश्चर्य हुआ जब मैंने देखा कि मुल्श्वे के समाचार-पत्रों में मेरे वहाँ जाने के संबंध में जो संवाद और (निश्चय ही मार्टिन का दिया हुआ) जीवन-वृत्त छपा था, उसके भी कटिंग उस एलबम में लगे हुए थे। मैंने यथास्थान कुछ लिखकर हस्ताक्षर तो कर ही दिया, तीसरे पहर कापी लौटाते समय चिढ़ाते हुए स्वर में पूछा : ‘‘लेकिन मेरा फोटो तो समाचार-पत्रों में नहीं छपा, उसका आप क्या करेंगी ?’’

उसने हँसकर कहा : ‘‘अभी तो आप स्टाकहोम में हैं।’’ अर्थात् अभी तो इसकी संभावना है कि आपका फोटो अखबार में छप जाए! यों समाचार-पत्रों में ऐरे-गैरे अनेकों के फोटो छपते रहते हैं और मेरा फोटो छप जाना भी नितांत असंभव तो नहीं था, लेकिन स्वीडन की विनयशीलता का आभारी हूँ कि यहाँ वैसा नहीं हुआ। स्टाकहोम से विदा होने से पहले मैंने स्वयं ही अपना एक फोटो एलबम के लिए उसे दे दिया। भविष्य में जो भारतीय लेखक वहाँ जावें तो उस होटल में ठहरें, वे चाहें तो इस संकेत से लाभ उठा सकते हैं!

मैंने ऊपर कहा कि स्वीडन संसार का सबसे अधिक समाजवादी देश है- कि समाजवाद के आदर्शों का व्यावहारिक रूप वहीं सबसे अधिक देखा जाता है। नि:संदेह ऐसे समाजवादी व्यवहार के लिए देश का समृद्घ होना आवश्यक है, और वहाँ की वन-संपत्ति, खनिज संपत्ति और जल-विद्युत शक्ति की दृढ़ भित्ति के कारण स्वीडन की समृद्घि बढ़ती ही जाती है; किंतु वास्तव में समाजवादी व्यवस्था का विकास वहाँ के सहकारिता-आंदोलन के कारण ही होता रहा है। सहकारिता सिद्धांत पर अमल वहाँ उन्नीसवीं शती से ही होता रहा, पर सन् 1930 से यह आंदोलन देशव्यापी हो गया और अब तो इसके विभिन्न पहलुओं के आँकड़े चकित कर देनेवाले हैं। डेरी संघ की सदस्य-संख्या अढ़ाई लाख से अधिक है; माँस-विक्रय संघ की प्राय: तीन लाख और कृषि संघ की प्राय: डेढ़ लाख। कृषि संघ क्रय और विक्रय दोनों का काम सँभालता है; खेती की पैदावार बेचता है और कृषक के लिए बीज, खाद, चारा, औषधि आदि प्राप्त करता है। इतना ही नहीं, सदस्यों की शिक्षा-प्रशिक्षा में भी वह योग देता है, सूचना-पत्रिकाएँ और साहित्य भी प्रकाशित करता है-यहाँ तक कि कुछ भारतीय कृति-साहित्य भी उसने प्रकाशित किया है। (यदि वह भारत का उत्तम साहित्य नहीं है तो इसका उत्तरदायित्व उसे परामर्श देनेवाले भारतीयों पर ही है : उसने तो सुंदर प्रकाशन किया है...)

यह सहकार सिद्घांत अंतर्राष्ट्रीय क्षेत्र में भी लागू होता है : स्कैंडिनेविया के चारों देश आपस में ऐसा सहयोग करते हैं। एक देश के संघ के सदस्यों को दूसरे देशों के संघ भी वही सुविधा देते हैं जो स्वदेशीय संघ देता; इसके अलावा अंतर्देशीय क्रय-विक्रय भी इनके द्वारा होता है। यह आपसी सहयोग देशों के सहजीवन का उत्तम और प्रेरणाप्रद उदाहरण है। स्वेच्छापूर्वक सहयोग पर आधारित यह समाजवादी समाज कैसे इतनी व्यवस्थापूर्वक चलता है, कहीं रगड़ या अटक उसमें क्यों नहीं पैदा होती, इसकी पड़ताल करने चलें तो लौटकर फिर एक जानी हुई बात पर आ जाना पड़ेगा : कि समता उसी समाज में होती है जो स्वतंत्र हो, और समाज वही स्वतंत्र होता है जिसका अंग व्यक्ति स्वतंत्र हो, और अपने स्वतंत्रता के उपभोग के लिए ही सामाजिकता का वरण करता हो। सब सामाजिक संपर्कों और संबंधों की मूल प्रेरणा है व्यक्ति की आध्यात्मिक स्वतंत्रता की खोज।

किंतु आधुनिक गोलोक में गो-दर्शन? हाँ, गोलोक की यात्रा का मेरा वृत्तांत अधूरा ही रह जाएगा यदि अंत में यह न कहूँ कि वहाँ से लौटने से पहले गायें मैंने देखीं- खुली हरियाली में खड़ी वैसी वात्सल्य-भरी आँखोंवाली गायें, जिन्होंने गोपद-परिक्रमा द्वारा पृथ्वी-प्रदक्षिणा का फल पाने की कल्पना को जन्म दिया होगा-जैसी गायों के लिए कालिदास ने ‘पयोधरीभूतचतु:समुद्रा गोरूपधरा इवोर्वी’ की उत्प्रेक्षा की थी। अगर मुझसे किसी गाय ने यह भी कहा कि
‘न केवलानां पयसां प्रसूतिमवेहि माँ कामदुघां प्रसन्नाम्’
और न यह अनुग्रह ही प्रकट किया कि
‘प्रीतास्मि ते, पुत्र! वरं वृणीष्व’
तो इसका कारण यह भी हो सकता है कि बीसवीं शती की सुरभी अथवा नंदिनी मानव भाषा नहीं बोलती, और यह भी कि मैं ही गुरु-गो-भक्तिविहीन होने के कारण अपात्र समझा गया। जो हो, इस गोलोक-यात्रा से लौटकर यह मान लेने को तैयार हूँ कि कालिदास ने अगर ताम्र-लोहिता ‘प्रभा पतंगस्य’ को पल्लववर्णा ‘मुनेश्च धेनु:’ के समकक्ष ही ठहराया तो कोई अनर्थ नहीं किया :

‘सञ्चारपूतानि दिगंतराणि कृत्वा दिनांते निलयाय गंतुम्।
प्रचक्रमे पल्लवरागताम्रा प्रभा पतङ्गस्य मुनेश्च धेनु:॥’

(शीर्ष पर वापस)

वसंत का अग्रदूत

‘निराला’ जी को स्मरण करते हुए एकाएक शांतिप्रिय द्विवेदी की याद आ जाए, इसकी पूरी व्यंजना तो वही समझ सकेंगे जिन्होंने इन दोनों महान विभूतियों को प्रत्यक्ष देखा था। यों औरों ने शांतिप्रियजी का नाम प्राय: सुमित्रानंदन पंत के संदर्भ में लिया है क्योंकि वास्तव में तो वह पंतजी के ही भक्त थे, लेकिन मैं निरालाजी के पहले दर्शन के लिए इलाहाबाद में पंडित वाचस्पति पाठक के घर जा रहा था तो देहरी पर ही एक सींकिया पहलवान के दर्शन हो गए जिसने मेरा रास्ता रोकते हुए एक टेढ़ी उँगली मेरी ओर उठाकर पूछा, ‘‘आपने निरालाजी के बारे में ‘विश्वभारती’ पत्रिका में बड़ी अनर्गल बातें लिख दी हैं।’’ यह सींकिया पहलवान, जो यों अपने को कृष्ण-कन्हैया से कम नहीं समझता था और इसलिए हिंदी के सारे रसिक समाज के विनोद का लक्ष्य बना रहता था, शांतिप्रिय की अभिधा का भूषण था।
जिस स्वर में सवाल मुझसे पूछा गया था उससे शांतिप्रियता टपक रही हो ऐसा नहीं था। आवाज तो रसिक-शिरोमणि की जैसी थी वैसी थी ही, उसमें भी कुछ आक्रामक चिड़चिड़ापन भरकर सवाल मेरी ओर फेंका गया था। मैंने कहा, ‘‘लेख आपने पढ़ा है ?’’
‘‘नहीं, मैंने नहीं पढ़ा। लेकिन मेरे पास रिपोर्टें आई हैं! ‘‘
‘‘तब लेख आप पढ़ लीजिएगा तभी बात होगी,’’ कहकर मैं आगे बढ़ गया। शांतिप्रियजी की ‘युद्धं देहि’ वाली मुद्रा एक कुंठित मुद्रा में बदल गई और वह बाहर चले गए।

यों ‘रिपोर्टें’ सही थीं। ‘विश्वभारती’ पत्रिका में मेरा एक लंबा लेख छपा था। आज यह मानने में भी मुझे कोई संकोच नहीं है कि उसमें निराला के साथ घोर अन्याय किया गया था। यह बात 1936 की है जब ‘विशाल भारत’ में पंडित बनारसीदास चतुर्वेदी निराला के विरुद्ध अभियान चला रहे थे। यों चतुर्वेदी का आक्रोश निरालाजी के कुछ लेखों पर ही था, उनकी कविताओं पर उतना नहीं (कविता से तो वह बिलकुल अछूते थे), लेकिन उपहास और विडंबन का जो स्वर चतुर्वेदीजी की टिप्पणियों में मुखर था उसका प्रभाव निरालाजी के समग्र कृतित्व के मूल्यांकन पर पड़ता ही था और मेरी अपरिपक्व बुद्धि पर भी था ही।

अब यह भी एक रोचक व्यंजना-भरा संयोग ही है कि सींकिया पहलवान से पार पाकर मैं भीतर पहुँचा तो वहाँ निरालाजी के साथ एक दूसरे दिग्गज भी विराजमान थे जिनके खिलाफ भी चतुर्वेदीजी एक अभियान चला चुके थे। एक चौकी के निकट आमने-सामने निराला और ‘उग्र’ बैठे थे। दोनों के सामने चौकी पर अधभरे गिलास रखे थे और दोनों के हाथों में अधजले सिगरेट थे।

उग्रजी से मिलना पहले भी हो चुका था; मेरे नमस्कार को सिर हिलाकर स्वीकार करते हुए उन्होंने निराला से कहा, ‘‘यह अज्ञेय है।’’

निरालाजी ने एक बार सिर से पैर तक मुझे देखा। मेरे नमस्कार के जवाब में केवल कहा, ‘‘बैठो।’’
मैं बैठने ही जा रहा था कि एक बार फिर उन्होंने कहा, ‘‘जरा सीधे खड़े हो जाओ।’’

मुझे कुछ आश्चर्य तो हुआ, लेकिन मैं फिर सीधा खड़ा हो गया। निरालाजी भी उठे और मेरे सामने आ खड़े हुए। एक बार फिर उन्होंने सिर से पैर तक मुझे देखा, मानो तौला और फिर बोले, ‘‘ठीक है।’’ फिर बैठते हुए उन्होंने मुझे भी बैठने को कहा। मैं बैठ गया तो मानो स्वगत-से स्वर में उन्होंने कहा, ‘‘डौल तो रामबिलास जैसा ही है।’’

रामविलास (डॉ. रामविलास शर्मा) पर उनके गहरे स्नेह की बात मैं जानता था, इसलिए उनकी बात का अर्थ मैंने यही लगाया कि और किसी क्षेत्र में न सही, एक क्षेत्र में तो निरालाजी का अनुमोदन मुझे मिल गया है। मैंने यह भी अनुमान किया कि मेरे लेख की ‘रिपोर्टें’ अभी उन तक नहीं पहुँची या पहुँचायी गई हैं।

निरालाजी सामान्य शिष्टाचार की बातें करते रहे-क्या करता हूँ, कैसे आना हुआ आदि। बीच में उग्रजी ने एकाएक गिलास की ओर इशारा करते हुए पूछा, ‘‘लोगे ?’’ मैंने सिर हिला दिया तो फिर कुछ चिढ़ाते हुए स्वर में बोले, ‘‘पानी नहीं है, शराब है, शराब।’’
मैंने कहा, ‘‘समझ गया, लेकिन मैं नहीं लेता।’’
निरालाजी के साथ फिर इधर-उधर की बातें होती रहीं। कविता की बात न उठाना मैंने भी श्रेयस्कर समझा।
थोड़ी देर बाद उग्रजी ने फिर कहा, ‘‘जानते हो, यह क्या है ? शराब है, शराब।’’
अपनी अनुभवहीनता के बावजूद तब भी इतना तो मैं समझ ही सकता था कि उग्रजी के इस आक्रामक रवैये का कारण वह आलोचना और भर्त्सना ही है जो उन्हें वर्षों से मिलती रही है। लेकिन उसके कारण वह मुझे चुनौती दें और मैं उसे मानकर अखाड़े में उतरूँ, इसका मुझे कोई कारण नहीं दीखा। यह भी नहीं कि मेरे जानते शराब पीने का समय शाम का होता, दिन के ग्यारह बजे का नहीं! मैंने शांत स्वर में कहा, ‘‘तो क्या हुआ, उग्रजी, आप सोचते हैं कि शराब के नाम से मैं डर जाऊँगा ? देश में बहुत से लोग शराब पीते हैं।’’
निरालाजी केवल मुस्कुरा दिए, कुछ बोले नहीं। थोड़ी देर बाद मैं विदा लेने को उठा तो उन्होंने कहा, ‘‘अबकी बार मिलोगे तो तुम्हारी रचना सुनेंगे।’’
मैंने खैर मनायी कि उन्होंने तत्काल कुछ सुनाने को नहीं कहा, ‘‘निरालाजी, मैं तो यही आशा करता हूँ कि अबकी बार आपसे कुछ सुनने को मिलेगा।’’
आशा मेरी ही पूरी हुई : इसके बाद दो-तीन बार निरालाजी के दर्शन ऐसे ही अवसरों पर हुए जब उनकी कविता सुनने को मिली। ऐसी स्थिति नहीं बनी कि उन्हें मुझसे कुछ सुनने की सूझे और मैंने इसमें अपनी कुशल ही समझी।

इसके बाद की जिस भेंट का उल्लेख करना चाहता हूँ उससे पहले निरालाजी के काव्य के विषय में मेरा मन पूरी तरह बदल चुका था। वह परिवर्तन कुछ नाटकीय ढंग से ही हुआ। शायद कुछ पाठकों के लिए यह भी आश्चर्य की बात होगी कि वह उनकी ‘जुही की कली’ अथवा ‘राम की शक्तिपूजा’ पढ़कर नहीं हुआ, उनका ‘तुलसीदास’ पढ़कर हुआ। अब भी उस अनुभव को याद करता हूँ तो मानो एक गहराई में खो जाता हूँ। अब भी ‘राम की शक्तिपूजा’ अथवा निराला के अनेक गीत बार-बार पढ़ता हूँ, लेकिन ‘तुलसीदास’ जब-जब पढ़ने बैठता हूँ तो इतना ही नहीं कि एक नया संसार मेरे सामने खुलता है, उससे भी विलक्षण बात यह है कि वह संसार मानो एक ऐतिहासिक अनुक्रम में घटित होता हुआ दीखता है। मैं मानो संसार का एक स्थिर चित्र नहीं बल्कि एक जीवंत चलचित्र देख रहा हूँ। ऐसी रचनाएँ तो कई होती हैं जिनमें एक रसिक हृदय बोलता है। विरली ही रचना ऐसी होती है जिसमें एक सांस्कृतिक चेतना सर्जनात्मक रूप से अवतरित हुई हो। ‘तुलसीदास’ मेरी समझ में ऐसी ही एक रचना है। उसे पहली ही बार पढ़ा तो कई बार पढ़ा। मेरी बात में जो विरोधाभास है वह बात को स्पष्ट ही करता है। ‘तुलसीदास’ के इस आविष्कार के बाद संभव नहीं था कि मैं निराला की अन्य सभी रचनाएँ फिर से न पढूँ, ‘तुलसीदास’ के बारे में अपनी धारणा को अन्य रचनाओं की कसौटी पर कसकर न देखूँ।

अगली जिस भेंट का उल्लेख करना चाहता हूँ उसकी पृष्ठभूमि में कवि निराला के प्रति यह प्रगाढ़ सम्मान ही था। काल की दृष्टि से यह खासा व्यतिक्रम है क्योंकि जिस भेंट की बात मैं कर चुका हूँ, वह सन् 36 में हुई थी और यह दूसरी भेंट सन् 51 के ग्रीष्म में। बीच के अंतराल में अनेक बार अनेक स्थलों पर उनसे मिलना हुआ था और वह एक-एक, दो-दो दिन मेरे यहाँ रह भी चुके थे, लेकिन उस अंतराल की बात बाद में करूँगा।

मैं इलाहाबाद छोड़कर दिल्ली चला आया था, लेकिन दिल्ली में अभी ऐसा कोई काम नहीं था कि उससे बँधा रहूँ; अकसर पाँच-सात दिन के लिए इलाहाबाद चला जाता था। निरालाजी तब दारागंज में रहते थे। मानसिक विक्षेप कुछ बढ़ने लगा था और कभी-कभी वह बिलकुल ही बहकी हुई बातें करते थे, लेकिन मेरा निजी अनुभव यही था कि काफ़ी देर तक वह बिलकुल संयत और संतुलित विचार-विनिमय कर लेते थे; बीच-बीच में कभी बहकते भी तो दो-चार मिनट में ही फिर लौट आते थे। मैं शायद उनकी विक्षिप्त स्थिति की बातों को भी सहज भाव से ले लेता था, या बहुत गहरे में समझता था कि जीनियस और पागलपन के बीच का पर्दा काफ़ी झीना होता है- कि निराला का पागलपन ‘जीनियस का पागलपन’ है, इसीलिए वह भी सहज ही प्रकृतावस्था में लौट आते थे। इतना ही था कि दो-चार व्यक्तियों और दो-तीन संस्थाओं के नाम मैं उनके सामने नहीं लेता था और अँग्रेज़ी का कोई शब्द या पद अपनी बात में नहीं आने देता था-क्योंकि यह मैं लक्ष्य कर चुका था कि इन्हीं से उनके वास्तविकता बोध की गाड़ी पटरी से उतर जाती थी।

उस बार ‘सुमन’ (शिवमंगल सिंह) भी आए हुए थे और मेरे साथ ही ठहरे थे। मैं निरालाजी से मिलने जानेवाला था और ‘सुमन’ भी साथ चलने को उत्सुक थे। निश्चय हुआ कि सवेरे-सवेरे ही निरालाजी से मिलने जाया जाएगा- वही समय ठीक रहेगा। लेकिन सुमनजी को सवेरे तैयार होने में बड़ी कठिनाई होती है। पलंग-चाय, पूजा-पाठ और सिंगार-पट्टी में नौ बज ही जाते हैं और उस दिन भी बज गए। हम दारागंज पहुँचे तो प्राय: दस बजे का समय था।

निरालाजी अपने बैठके में नहीं थे। हम लोग वहाँ बैठ गए और उनके पास सूचना चली गई कि मेहमान आए हैं। निरालाजी उन दिनों अपना भोजन स्वयं बनाते थे और उस समय रसोई में ही थे। कोई दो मिनट बाद उन्होंने आकर बैठके में झाँका और बोले, ‘‘अरे तुम !’’ और तत्काल ओट हो गए।

सुमनजी तो रसोई में खबर भिजवाने के लिए मेरा पूरा नाम बताने चले गए थे, लेकिन अपने नाम की कठिनाई मैं जानता हूँ इसीलिए मैंने संक्षिप्त सूचना भिजवायी थी कि ‘कोई मिलने आए हैं’। क्षणभर की झाँकी में हमने देख लिया कि निरालाजी केवल कौपीन पहने हुए थे। थोड़ी देर बाद आए तो उन्होंने तहमद लगा ली थी और कंधे पर अँगोछा डाल लिया था।

बातें होने लगीं। मैं तो बहुत कम बोला। यों भी कम बोलता और इस समय यह देखकर कि निरालाजी बड़ी संतुलित बातें कर रहे हैं मैंने चुपचाप सुनना ही ठीक समझा। लेकिन सुमनजी और चुप रहना? फिर वह तो निराला को प्रसन्न देखकर उन्हें और भी प्रसन्न करना चाह रहे थे, इसलिए पूछ बैठे, ‘‘निरालाजी, आजकल आप क्या लिख रहे हैं?’’
यों तो किसी भी लेखक को यह प्रश्न एक मूर्खतापूर्ण प्रश्न जान पड़ता है। शायद सुमन से कोई पूछे तो उन्हें भी ऐसा ही लगे। फिर भी न जाने क्यों लोग यह प्रश्न पूछ बैठते हैं।

निराला ने एकाएक कहा, ‘‘निराला, कौन निराला? निराला तो मर गया। निराला इज़ डेड।’’

अँग्रेज़ी का वाक्य सुनकर मैं डरा कि अब निराला बिलकुल बहक जाएँगे और अँग्रेज़ी में न जाने क्या-क्या कहेंगे, लेकिन सौभाग्य से ऐसा हुआ नहीं। हमने अनुभव किया कि निराला जो बात कह रहे हैं वह मानो सच्चे अनुभव की ही बात है : जिस निराला के बारे में सुमन ने प्रश्न पूछा था वह सचमुच उनसे पीछे कहीं छूट गया है। निराला ने मुझसे पूछा, ‘‘तुम कुछ लिख रहे हो ?’’

मैंने टालते हुए कहा, ‘‘कुछ-न-कुछ तो लिखता ही हूँ, लेकिन उससे संतोष नहीं है- वह उल्लेख करने लायक भी नहीं है।’’
इसके बाद निरालाजी ने जो चार-छ: वाक्य कहे उनसे मैं आश्चर्यचकित रह गया। उन्हें याद करता हूँ तो आज भी मुझे आश्चर्य होता है कि हिंदी काव्य-रचना में जो परिवर्तन हो रहा था, उसकी इतनी खरी पहचान निराला को थी-उस समय के तमाम हिंदी आचार्यों से कहीं अधिक सही और अचूक- और वह तब जब कि ये सारे आचार्य उन्हें कम-से-कम आधा विक्षिप्त तो मान ही रहे थे।

निराला ने कहा, ‘‘तुम जो लिखते हो वह मैंने पढ़ा है।’’ (इस पर सुमन ने कुछ उमँगकर पूछना चाहा था, ‘‘अरे निरालाजी, आप अज्ञेय का लिखा हुआ भी पढ़ते हैं?’’ मैंने पीठ में चिकोटी काटकर सुमन को चुप कराया, और अचरज यह कि वह चुप भी हो गए- शायद निराला की बात सुनने का कुतूहल जयी हुआ) निराला का कहना जारी रहा, ‘‘तुम क्या करना चाहते हो वह हम समझते हैं।’’ थोड़ी देर रुककर और हम दोनों को चुपचाप सुनते पाकर उन्होंने बात जारी रखी। ‘‘स्वर की बात तो हम भी सोचते थे। लेकिन असल में हमारे सामने संगीत का स्वर रहता था और तुम्हारे सामने बोलचाल की भाषा का स्वर रहता है।’’ वह फिर थोड़ा रुक गए; सुमन फिर कुछ कहने को कुलबुलाए और मैंने उन्हें फिर टोक दिया। ‘‘ऐसा नहीं है कि हम बात को समझते नहीं हैं। हमने सब पढ़ा है और हम सब समझते हैं। लेकिन हमने शब्द के स्वर को वैसा महत्त्व नहीं दिया, हमारे लिए संगीत का स्वर ही प्रमाण था।’’ मैं फिर भी चुप रहा, सुनता रहा। मेरे लिए यह सुखद आश्चर्य की बात थी कि निराला इस अंतर को इतना स्पष्ट पहचानते हैं। बड़ी तेजी से मेरे मन के सामने उनकी ‘गीतिका’ की भूमिका और फिर सुमित्रानंदन पंत के ‘पल्लव’ की भूमिका दौड़ गई थी। दोनों ही कवियों ने अपने प्रारंभिक काल की कविता की पृष्ठभूमि में स्वर का विचार किया था, यद्यपि बिलकुल अलग-अलग ढंग से। उन भूमिकाओं में भी यह स्पष्ट था कि निराला के सामने संगीत का स्वर है, कविता के स्वर और ताल का विचार वह संगीत की भूमि पर खड़े होकर ही करते हैं; जबकि स्वर और स्वर-मात्रा के विचार में पंत के सामने संगीत का नहीं, भाषा का ही स्वर था और सांगीतिकता के विचार में भी वह व्यंजन-संगीत से हटकर स्वर-संगीत को वरीयता दे रहे थे। इस दृष्टि से कहा जा सकता है कि ‘पल्लव’ के पंत, ‘गीतिका’ के निराला से आगे या अधिक ‘आधुनिक’ थे। लेकिन जिस भेंट का उल्लेख मैं कर रहा हूँ उसमें निराला का स्वर-संवेदन कहीं आगे था जबकि उस समय तक पंत अपनी प्रारंभिक स्थापनाओं से न केवल आगे नहीं बढ़े थे बल्कि कुछ पीछे ही हटे थे (और फिर पीछे ही हटते गए)। उस समय का नए से नया कवि भी मानने को बाध्य होता कि अगर कोई पाठक उसके स्वर से स्वर मिलाकर उसे पढ़ सकता है तो वह आदर्श सहृदय पाठक निराला ही है। एक पीढ़ी का महाकवि परवर्ती पीढ़ी के काव्य को इस तरह समझ सके, परवर्ती कवि के लिए इससे अधिक आप्यायित करनेवाली बात क्या हो सकती है।

सुमन ने कहा, ‘‘निरालाजी, अब इसी बात पर अपना एक नया गीत सुना दीजिए।’’
मैंने आशंका-भरी आशा के साथ निराला की ओर देखा। निराला ने अपनी पुरानी बात दोहरा दी, ‘‘निराला इज़ डेड। आई एम नॉट निराला!’’
सुमन कुछ हार मानते हुए बोले, ‘‘मैंने सुना है, आपकी नई पुस्तक आई है ‘अर्चना’। वह आपके पास है-हमें दिखाएँगे ?’’
निराला ने एक वैसे ही खोये हुए स्वर में कहा, ‘‘हाँ, आई तो है, देखता हूँ।’’ वह उठकर भीतर गए और थोड़ी देर में पुस्तक की दो प्रतियाँ ले आए। बैठते हुए उन्होंने एक प्रति सुमन की ओर बढ़ायी जो सुमन ने ले ली। दूसरी प्रति निराला ने दूसरे हाथ से उठायी, लेकिन मेरी ओर बढ़ायी नहीं, उसे फिर अपने सामने रखते हुए बोले, ‘‘यह तुमको दूँगा।’’
सुमन ने ललककर कहा, ‘‘तो यह प्रति मेरे लिए है ? तो इसमें कुछ लिख देंगे ?’’

निराला ने प्रति सुमन से ले ली और आवरण खोलकर मुखपृष्ठ की ओर थोड़ी देर देखते रहे। फिर पुस्तक सुमन को लौटाते हुए बोले, ‘‘नहीं, मैं नहीं लिखूँगा। वह निराला तो मर गया।’’

सुमन ने पुस्तक ले ली, थोड़े-से हतप्रभ तो हुए, लेकिन यह तो समझ रहे थे कि इस समय निराला को उनकी बात से डिगाना संभव नहीं होगा।

निराला फिर उठकर भीतर गए और कलम लेकर आए। दूसरी प्रति उन्होंने उठायी, खोलकर उसके पुश्ते पर कुछ लिखने लगे। मैं साँस रोककर प्रतीक्षा करने लगा। मन तो हुआ कि जरा झुककर देखूँ कि क्या लिखने जा रहे हैं, लेकिन अपने को रोक लिया। कलम की चाल से मैंने अनुमान किया कि कुछ अँग्रेज़ी में लिख रहे हैं।

दो-तीन पंक्तियाँ लिखकर उनका हाथ थमा। आँख उठाकर एक बार उन्होंने मेरी ओर देखा और फिर कुछ लिखने लगे। इसी बीच सुमन ने कुछ इतराते हुए-से स्वर में कहा, ‘‘निरालाजी, इतना पक्षपात ? मेरे लिए तो आपने कुछ लिखा नहीं और...’’

निरालाजी ने एक-दो अक्षर लिखे थे; लेकिन सुमन की बात पर चौंककर रुक गए। उन्होंने फिर कहा, ‘‘नहीं, नहीं, निराला तो मर गया। देयर इज नो निराला। निराला इज़ डेड।’’
अब मैंने देखा कि पुस्तक में उन्होंने अँग्रेज़ी में नाम के पहले दो अक्षर लिखे थे-एन, आई, लेकिन अब उसके आगे दो बिंदियाँ लगाकर नाम अधूरा छोड़ दिया, नीचे एक लकीर खींची और उसके नीचे तारीख डाली 18-5-51 और पुस्तक मेरी ओर बढ़ा दी।

पुस्तक मैंने ले ली। तत्काल खोलकर पढ़ा नहीं कि उन्होंने क्या लिखा है। निराला ने इसका अवसर भी तत्काल नहीं दिया। खड़े होते हुए बोले : ‘‘तुम लोगों के लिए कुछ लाता हूँ।’’
मैंने बात की व्यर्थता जानते हुए कहा, ‘‘निरालाजी, हम लोग अभी नाश्ता करके चले थे, रहने दीजिए।’’ और इसी प्रकार सुमन ने भी जोड़ दिया, ‘‘बस, एक गिलास पानी दे दीजिए।’’
‘‘पानी भी मिलेगा,’’ कहते हुए निराला भीतर चले गए। हम दोनों ने अर्थभरी दृष्टि से एक-दूसरे को देखा। मैंने दबे स्वर में कहा, ‘‘इसीलिए कहता था कि सवेरे जल्दी चलो।’’
फिर मैंने जल्दी से पुस्तक खोलकर देखा कि निरालाजी ने क्या लिखा था। कृतकृत्य होकर मैंने पुस्तक फुर्ती से बंद की तो सुमन ने उतावली से कहा, ‘‘देखें, देखें...’’
मैंने निर्णयात्मक ढंग से पुस्तक घुटने के नीचे दबा ली, दिखाई नहीं। घर पहुँचकर भी देखने का काफ़ी समय रहेगा।
इस बीच निराला एक बड़ी बाटी में कुछ ले आए और हम दोनों के बीच बाटी रखते हुए बोले, ‘‘लो, खाओ, मैं पानी लेकर आता हूँ,’’ और फिर भीतर लौट गए।

बाटी में कटहल की भुजिया थी। बाटी में ही सफाई से उसके दो हिस्से कर दिए गए थे।
निराला के लौटने तक हम दोनों रुके रहे। यह क्लेश हम दोनों के मन में था कि निरालाजी अपने लिए जो भोजन बना रहे थे वह सारा-का-सारा उन्होंने हमारे सामने परोस दिया और अब दिन-भर भूखे रहेंगे। लेकिन मैं यह भी जानता था कि हमारा कुछ भी कहना व्यर्थ होगा-निराला का आतिथ्य ऐसा ही जालिम आतिथ्य है। सुमन ने कहा, ‘‘निरालाजी, आप...’’
‘‘हम क्या?’’
‘‘निरालाजी, आप नहीं खाएँगे तो हम भी नहीं खाएँगे।’’
निरालाजी ने एक हाथ सुमन की गर्दन की ओर बढ़ाते हुए कहा, ‘‘खाओगे कैसे नहीं? हम गुद्दी पकड़कर खिलाएँगे।’’
सुमन ने फिर हठ करते हुए कहा, ‘‘लेकिन, निरालाजी, यह तो आपका भोजन था। अब आप क्या उपवास करेंगे ?’’
निराला ने स्थिर दृष्टि से सुमन की ओर देखते हुए कहा, ‘‘तो भले आदमी, किसी से मिलने जाओ तो समय-असमय का विचार भी तो करना होता है।’’ और फिर थोड़ा घुड़ककर बोले : ‘‘अब आए हो तो भुगतो।’’
हम दोनों ने कटहल की वह भुजिया किसी तरह गले से नीचे उतारी। बहुत स्वादिष्ट बनी थी, लेकिन उस समय स्वाद का विचार करने की हालत हमारी नहीं थी।
जब हम लोग बाहर निकले तो सुमन ने खिन्न स्वर में कहा, ‘‘भाई, यह तो बड़ा अन्याय हो गया।’’
मैंने कहा, ‘‘इसीलिए मैं कल से कह रहा था कि सवेरे जल्दी चलना है, लेकिन आपको तो सिंगार-पट्टी से और कोल्ड-क्रीम से फ़ुरसत मिले तब तो! नाम ‘सुमन’ रख लेने से क्या होता है अगर सवेरे-सवेरे सहज खिल भी न सकें!’’
यों हम लोग लौट आए। घर आकर फिर अर्चना की मेरी प्रति खोलकर हम दोनों ने पढ़ा। निराला ने लिखा था :

To Ajneya,
the Poet, Writer and Novelist
in the foremost rank.
Ni...
18.5.51

सन् ‘36 और सन् ‘51 के बीच, जैसा मैं पहले कह चुका हूँ, निरालाजी से अनेक बार मिलन हुआ। उनके ‘तुलसीदास’ का पहला प्रकाशन 1938 में हुआ था और मैंने उनकी रचनाओं के बारे में अपनी धारणा के आमूल परिवर्तन की घोषणा रेडियो से जिस समीक्षा में की थी उसका प्रसारण शायद 1940 के आरंभ में हुआ था। मेरठ में ‘हिंदी साहित्य परिषद्’ के समारोह के लिए मैंने उन्हें आमंत्रित किया तो आमंत्रण उन्होंने सहर्ष स्वीकार किया और मेरठ के प्रवास में वह कुछ समय श्रीमती होमवती देवी के यहाँ और कुछ समय मेरे यहाँ ठहरे। होमवतीजी उस समय परिषद् की अध्यक्षा भी थीं और निरालाजी को अपने यहाँ ठहराने की उनकी हार्दिक इच्छा थी। जिस बँगले में वह रहती थीं उसके अलावा एक और बँगला उनके पास था जो उन दिनों आधा खाली था और निरालाजी के वहीं ठहरने की व्यवस्था की गई। वह बँगला होमवतीजी के आवास से सटा हुआ होकर भी अलग था, इसलिए सभी आश्वस्त थे कि अतिथि अथवा आतिथेय को कोई असुविधा नहीं होगी- यों थोड़ी चिंता भी थी कि होमवतीजी के परम वैष्णव संस्कार निरालाजी की आदतों को कैसे सँभाल पाएँगे। मेरा घर वहाँ से तीन-एक फर्लांग दूर था और छोटा भी था; सुमन, प्रभाकर माचवे और भारतभूषण अग्रवाल को मेरे यहाँ ठहराने का निश्चय हुआ था।

होमवतीजी ने श्रद्धापूर्वक निरालाजी को ठहरा तो लिया, लेकिन दोपहर का भोजन उन्हें कराने के बाद वह दौड़ी हुई मेरे यहाँ आयीं। ‘‘भाई जी, शाम का भोजन क्या होगा ? लोग तो कह रहे हैं कि निरालाजी तो शाम को शराब के बिना भोजन नहीं करते और भोजन भी माँस के बिना नहीं करते। हमारे यहाँ तो यह सब नहीं चल सकता। और फिर अगर हम उधर अलग इंतजाम करें भी तो लाएगा कौन और सँभालेगा कौन ?’’

यह कठिनाई होने वाली है इसका हमें अनुमान तो था, लेकिन होमवतीजी के उत्साह और उनकी स्नेहभरी आदेशना के सामने कोई बोला नहीं था।

उन्हें तो किसी तरह समझा-बुझाकर लौटा दिया गया कि हम लोग कुछ व्यवस्था कर लेंगे, उन्हें इसमें नहीं पड़ना होगा। संयोजकों में शराब से परिचित कोई न हो ऐसा तो नहीं था। शाम को एक अद्धा निरालाजी की सेवा में पहुँचा दिया गया और निश्चय हुआ कि भोजन कराने भी उन्हें सदर के होटल में ले जाया जाएगा।

इधर हम लोग शाम का भोजन करने बैठे ही थे कि होटल से लौटते हुए निरालाजी मेरे यहाँ आ गए। (मैं दूसरी मंजिल पर रहता था।) पता लगा कि उन्होंने ही सीधे बँगले पर न लौटकर मेरे यहाँ आने की इच्छा प्रकट की थी। सुरूर की जिस हालत में वह थे उससे मैंने यह अनुमान किया कि ऐसा निरालाजी ने इसीलिए किया होगा कि वह उस हालत में होमवतीजी के सामने नहीं पड़ना चाहते थे। (मैंने दूसरे अवसरों पर भी लक्ष्य किया कि ऐसे मामलों में उनका शिष्ट आचरण का संस्कार बड़ा प्रबल रहता था।) लेकिन यहाँ पर भी मेरी बहिन अतिथियों को भोजन करा रही थीं, इससे निरालाजी को थोड़ा असमंजस हुआ। वह चुपचाप एक तरफ एक खाट पर बैठ गए। हम लोगों ने भोजन जल्दी समाप्त करके उनका मन बहलाने की कोशिश की, लेकिन वह चुप ही रहे। एक-आध बार ‘हूँ’ से अधिक कुछ बोले नहीं। उनसे जो बात करता उसकी ओर एकटक देखते रहते मानो कहना चाहते हों, ‘‘हम जानते हैं कि हमें बहलाने की कोशिश की जा रही है, लेकिन हम बहलेंगे नहीं।’’
एकाएक निरालाजी ने कहा, ‘‘सुमन, इधर आओ।’’ सुमनजी उनके समीप गए तो निराला ने उनकी कलाई पकड़ ली और कहा, ‘‘चलो।’’
‘‘कहाँ, निरालाजी ?’’
‘‘घूमने।’’ सुमन ने बेबसी से मेरी ओर देखा। वह भी जानते थे कि छुटकारा नहीं है और मैं भी समझ गया कि बहस व्यर्थ होगी। नीचे उतरकर मैं एक बढिय़ा-सा ताँगा बुला लाया। निरालाजी सुमन के साथ उतरे और उस पर आगे सवार होने लगे तो ताँगेवाले ने टोकते हुए कहा, ‘‘सरकार, घोड़ा दब जाएगा-आप पीछे बैठें और आपके साथी आगे बैठ जाएँगे।’’
निरालाजी क्षण ही भर ठिठके। फिर अगली तरफ़ ही सवार होते हुए बोले, ‘‘ये पीछे बैठेंगे, ताँगा दबाऊ होता है तो तुम भी पीछे बैठकर चलाओ। नहीं तो रास हमें दो-हम चलाएँगे।’’
ताँगेवाले ने एक बार सबकी ओर देखकर हुक्म मानना ही ठीक समझा। वह भी पीछे बैठ गया, रास उसने नहीं छोड़ी। पूछा, ‘‘कहाँ चलना होगा, सरकार ?’’
निरालाजी ने उसी आज्ञापना भरे स्वर में कहा, ‘‘देखो, दो घंटे तक यह सवाल हमसे मत पूछना। जहाँ तुम चाहो लेते चलो। अच्छी सड़कों पर सैर करेंगे। दो घंटे बाद इसी जगह पहुँचा देना, पैसे पूरे मिलेंगे।’’
ताँगेवाले ने कहा, ‘सरकार’ और ताँगा चल पड़ा। मैं दो घंटे के लिए निश्चिंत होकर ऊपर चला आया।
रात के लगभग बारह बजे ताँगा लौटा और सुमन अकेले ऊपर आए। निरालाजी देर से लौटने पर वहीं सो सकते हैं, यह सोचकर उनके लिए एक बिस्तर और लगा दिया गया था, लेकिन सुमन ने बताया कि निरालाजी सोएँगे तो वहीं जहाँ ठहरे हैं क्योंकि होमवतीजी से कहकर नहीं आए थे। लिहाजा मैंने उसी ताँगे में उन्हें बँगले पर पहुँचा दिया और टहलता हुआ पैदल लौट आया।

अगले दिन सवेरे ही होमवतीजी के यहाँ देखने गया कि सब कुछ ठीक-ठाक तो है, तो होमवतीजी ने अलग ले जाकर मुझे कहा, ‘‘भैया, तुम्हारे कविजी ने कल शाम को बाहर जो किया हो, यहाँ तो बड़े शांत भाव से, शिष्ट ढंग से रहते हैं।’’
मैंने कहा, ‘‘चलिए, आप निश्चिंत हुईं तो हम भी निश्चिंत हुए। यों डरने की कोई बात थी नहीं।’’

दूसरे दिन मैं शाम से ही निरालाजी को अपने यहाँ ले आया। भोजन उन्होंने वहीं किया और प्रसन्न होकर कई कविताएँ सुनायीं। काश कि उन दिनों टेप रिकार्डर होते-‘राम की शक्तिपूजा’ अथवा ‘जागो फिर एक बार’ अथवा ‘बादल राग’ के वे वाचन परवर्ती पीढिय़ों के लिए संचित कर दिए गए होते। प्राचीन काल में काव्य-वाचक जैसे भी रहे हों, मेरे युग में तो निराला जैसा काव्य-वाचक दूसरा नहीं हुआ।

रघुवीर सहाय ने लिखा है, ‘‘मेरे मन में पानी के कई संस्मरण हैं।’’ निराला के काव्य को अजस्र निर्झर मानकर मैं भी कह सकता हूँ कि ‘मेरे मन में पानी के अनेक संस्मरण हैं- अजस्र बहते पानी के, फिर वह बहना चाहे मूसलाधार वृष्टि का हो, चाहे धुआँधार जल-प्रपात का, चाहे पहाड़ी नदी का, क्योंकि निराला जब कविता पढ़ते थे तब वह ऐसी ही वेगवती धारा-सी बहती थी। किसी रोक की कल्पना भी तब नहीं की जा सकती थी- सरोवर-सा ठहराव उनके वाचन में अकल्पनीय था।’
और क्योंकि पानी के अनेक संस्मरण हैं, इसलिए उन्हें दोहराऊँगा नहीं।
उन्हीं दिनों के आसपास उनसे और भी कई बार मिलना हुआ; दिल्ली में वह मेरे यहाँ आए थे और दिल्ली में एकाधिक बार उन्होंने मेरे अनुरोध किये बिना ही सहज उदारतावश अपनी नई कविताएँ सुनाईं। फिर इलाहाबाद में भी जब-तब मिलना होता; पर कविता सुनने का ढंग का अवसर केवल एक बार हुआ क्योंकि इलाहाबाद में धीरे-धीरे एक अवसाद उन पर छाता गया था जो उन्हें अपने परिचितों के बीच रहते भी उनसे अलग करता जा रहा था। पहले भी उन्होंने गाया था :

मैं अकेला
देखता हूँ आ रही
मेरी दिवस की सांध्य वेला।
... ...
जानता हूँ नदी झरने
जो मुझे थे पार करने
कर चुका हूँ
हँस रहा यह देख
कोई नहीं भेला।
अथवा
स्नेह निर्झर बह गया है
रेत-सा तन रह गया है
... ...
बह रही है हृदय पर केवल अमा
मैं अलक्षित रहूँ, यह
कवि कह गया है।
लेकिन इन कविताओं के अकेलेपन अथवा अवसाद का स्वर एकसंचारी भाव का प्रतिबिंब है जिससे दूसरे भी कवि परिचित होंगे। इसके अनेक वर्ष बाद के,
बाँधो न नाव इस ठाँव, बंधु
पूछेगा सारा गाँव, बंधु!
का अवसाद मानो एक स्थायी मनोभाव है। पहले का स्वर केवल एक तात्कालिक अवस्था को प्रकट करता है जैसे और भी पहले की ‘सखि वसंत आया’ अथवा ‘सुमन भर न लिए, सखि वसंत गया’ आदि कविताएँ प्रतिक्रिया अथवा भावदशा को दर्शाती है। लेकिन ‘अर्चना’ और उसके बाद की कविताओं में हताश अवसाद का जो भाव छाया हुआ दीखता है वह तत्कालीन प्रतिक्रिया का नहीं, जीवन के दीर्घ प्रत्यवलोकन का परिणाम है जिससे निराला जब-तब उबरते दीखते हैं तो अपने भक्ति-गीतों में ही :

तुम ही हुए रखवाल
तो उसका कौन न होगा।
अथवा
वे दुख के दिन
काटे हैं जिसने
गिन-गिनकर
पल-छिन, तिन-तिन
आँसू की लड़ के मोती के
हार पिरोये
गले डालकर प्रियतम के
लखने को शशि मुख
दु:खनिशा में
उज्ज्वल, अमलिन।

कह नहीं सकता, इस स्थायी भाव के विकास में कहाँ तक महादेवीजी द्वारा स्थापित साहित्यकार संसद के उनके प्रवास ने योग दिया जिसमें निराला के सम्मान में दावतें भी हुईं तो मानो ऐसी ही जो उन्हें हिंदी कवि-समाज के निकट न लाकर उससे थोड़ा और अलग ही कर गईं। संसद के गंगा तटवर्ती बँगले को छोड़कर ही निरालाजी फिर दारागंज की अपनी पुरानी कोठरी में चले गए; वहीं अवसाद और भक्ति का यह मिश्र स्वर मुखरतर होता गया। और वहीं गहरे धुँधलके और तीखे प्रकाश के बीच भँवराते हुए निराला उस स्थिति की ओर बढ़ते गए जहाँ एक ओर वह कह सकते थे, ‘‘कौन निराला ? निराला इज़ डेड!’’ और दूसरी ओर दृढ़ विश्वासपूर्वक ‘हिंदी के सुमनों के प्रति’ सम्बोधित होकर एक आहत किंतु अखंड आत्मविश्वास के साथ यह भी कह सकते थे, ‘‘मैं ही वसंत का अग्रदूत’’। सचमुच वसंत पंचमी के दिन जन्म लेनेवाले निराला हिंदी काव्य के वसंत के अग्रदूत थे। लेकिन अब जब वह नहीं हैं तो उनकी कविताएँ बार-बार पढ़ते हुए मेरा मन उनकी इस आत्मविश्वास भरी उक्ति पर न अटककर उनके ‘तुलसीदास’ की कुछ पंक्तियों पर ही अटकता है जहाँ मानो उनका कवि भवितव्यदर्शी हो उठता है- उस भवितव्य को देख लेता है जो खंडकाव्य के नायक तुलसीदास का नहीं, उसके रचयिता निराला का ही है :

यह जागा कवि अशेष छविधर
इसका स्वर भर भारती मुक्त होएँगी
... ...
तम के अमाज्य रे तार-तार
जो, उन पर पड़ी प्रकाश धार
जग वीणा के स्वर के बहार रे जागो;
इस पर अपने कारुणिक प्राण
कर लो समक्ष देदीप्यमान-
दे गीत विश्व को रुको, दान फिर माँगो।

इस अशेष छविधर कवि ने दान कभी नहीं माँगा, पर विश्व को दिया- गीत दिया, पर उसके लिए भी रुका नहीं, बाँटते-बाँटते ही तिरोधान हो गया : मैं अलक्षित रहूँ, यह कवि कह गया है।

(शीर्ष पर वापस)

‘ऋण-स्वीकारी हूँ’

यों तो किसी भी युग में कवि का बहुश्रुत होना आवश्यक माना जाता रहा है, पर आधुनिक काल में कोई विरला ही भाग्यवान होगा जिसने जो कुछ पाया है केवल एक ही भाषा के माध्यम से पाया हो, फिर वह भाषा चाहे देव-भाषा ही क्यों न हो। मैं ऐसे भाग्यवानों में नहीं हूँ। बल्कि ऐसा अबोध भी हूँ कि नाना भारतीय और अभारतीय भाषाओं से जो कुछ प्रेरणा मैंने पायी है उसे सहर्ष स्वीकार भी करता हूँ। मेरा साहित्य का अध्ययन बहुत नियमित नहीं रहा, किसी पद्धति के अनुसार नहीं चला, कुल मिलाकर इसे मैं अपना सौभाग्य ही मानता हूँ, यद्यपि इससे कुछ कवियों से मेरा उतना, या वैसा, या उतना पुराना परिचय नहीं हो पाया जितना होना चाहिए। हर कवि की रचना में ‘मौलिक’ और ‘परंपरा-प्राप्त’ का मिश्रण-या कह लीजिए समन्वय-रहता ही है; पर परंपरा से मैंने जो ग्रहण किया वह क्योंकि समकालीन अनेक कवियों से कुछ भिन्न रहा, इसलिए उसका प्रभाव भी कुछ भिन्न पड़ा। फलत: दूसरों का अवदान भी एक मौलिकता के रूप में प्रकट हुआ- यह दूसरी बात है कि कुछ लोगों को यह रुची तो कुछ ने भर पेट गालियाँ भी दीं।

संस्कृतज्ञ पिता के प्रभाव से मेरी शिक्षा पहले संस्कृत से आरंभ हुई : वह भी पुराने ढंग से-यानी ‘अष्टाध्यायी’ रटकर। पक्का नहीं कह सकता, लेकिन मेरा ख्याल है कि यह रटंत अक्षर-ज्ञान से भी पहले शुरू हो गई थी। जो हो, सबसे पहले और पुराने काव्य-प्रभावों का स्मरण करने लगूँ तो संस्कृत श्लोकों की ध्वनियाँ ही मन में गूँज जाती हैं : ‘शिव महिम्नस्तोत्र’ का मंद्र गंभीर शिखरिणी छंद, पिता के भारी और ओजस्वी कंठ-स्वर में गाये हुए ‘शार्दूलविक्रीडित’ के छंद, जिनमें कुछ उन्होंने मुझे भी कंठस्थ कराये थे और जो अभी तक अविस्मृत हैं, जैसे सरस्वती वंदना का श्लोक
या कुंदेंदु-तुषार-हार-धवला, या श्वेत वस्त्रावृता

तुलसी की शिव-वंदना का
वामांके च विभाति भूधर-सुता देवापगा मस्तके
भाले बालविधुर्गले च गरलं यस्योरसि व्यालराट्

और राम-वंदना का
शांतं शाश्वतमप्रमेयमनघं निर्वाण-शांतिप्रदम्।
ब्रह्मा-शंभु-फणींद्र सेव्यमनिशं वेदांत वेद्यं विभुम्।

तब नहीं जानता था कि यह श्लोक कहाँ का या किसका है; ‘रामायण’ को मैं उसके एकश्लोकी रूप में जानता था। वाल्मीकि रामायण का बालकांड और अयोध्याकांड पिता से बाद में पढ़ा था, पर तुलसीदास रामायण तो बहुत पीछे तब पढ़ी जब अपनी शिक्षा की त्रुटियाँ पूरी करने का व्यवस्थित प्रयत्न करने लगा।

असल में पिताजी का विश्वास था- उस काल में बहुत-से लोग ऐसा मानते थे- कि पढ़ना हो तो संस्कृत-फारसी पढ़े; हिंदी का क्या है, वह तो अपने-आप आ जाएगी। आज मैं यह तो न मानूँगा कि हिंदी विधिवत् पढ़े बिना आ जाती है; पर यह मानता हूँ कि उसे ठीक जानने के लिए संस्कृत और फारसी दोनों जानना और उर्दू से परिचित होना आवश्यक है।

मैं वाल्मीकि के बाद कालिदास और राजा भोज की गाथाओं के द्वारा कालिदास के और कुछ अन्य संस्कृत कवियों के नामों से थोड़ा-बहुत परिचित होने ही लगा था कि सादी और हाफिज के नामों से भी परिचित हो गया, और फारसी के शेर तो नहीं पर कहावतें मुझे याद हो गईं।

और इसके बाद ही अँग्रेज़ी की बारी आई। यद्यपि इसके बाद तो लगातार ही तीन-चार भाषाओं के प्रभाव साथ-साथ चलते रहे-और अभी तक मैं जितना हिंदी काव्य पढ़ता हूँ कम-से-कम उतना ही हिंदीतर भाषाओं का भी-पर उस समय तो एकदम ही अँग्रेज़ी साहित्य में डूब गया। लांगफेलो और टेनिसन से शुरू किया- उस वय में प्राय: इन्हीं से तो आरंभ होता है!-पर प्रभाव टेनिसन का ही अधिक और स्थायी हुआ। मेरा पढ़ना एक-साथ ही व्यवस्थित और अव्यवस्थित दोनों होता था- यानी किसके बाद कौन कवि पढ़ूँ यह तो नहीं सोचता था, पर जिस कवि को पढ़ता था उसकी संपूर्ण कृतियाँ लेकर एक सिरे से दूसरे सिरे तक पढ़ जाता था! टेनिसन ऐसे कई बार पढ़ा: उसके प्रभाव में अँग्रेज़ी में लिखना भी शुरू किया। अभी मेरे पास कुछ कापियाँ पड़ी हैं जिन्हें देखकर अब हँस सकता हूँ : टेनिसन के अतुकांत छंदों की, एक शैली की, और एक सीमा तक उसके मानसिक झुकाव की ऐसी नकल अब यत्न करके भी नहीं कर सकता! लेकिन धीरे-धीरे परख बढ़ी, तब टेनिसन का बहुत-सा अंश छोड़ा और उसके प्रगीत ही मन में बसे रह गए-इनका सौंदर्य आज भी स्मरण होते ही अभिभूत कर लेता है।

ब्रेक, ब्रेक, ब्रेक
ऑन दाइ कोल्ड ग्रे स्टोन्स, ओ सी,
अथवा
आस्क मी नो मोर
की कोटि के प्रगीत कम ही मिलते हैं।

अँग्रेज़ी में तो इसके बाद ही रवींद्रनाथ ठाकुर से परिचित हुआ (मूल बांग्ला में ठाकुर पढ़ना बहुत पीछे की बात है) : ब्राउनिंग के ओज-भरे आशावाद और ठाकुर के आशा-भरे रहस्यवाद के सम्मिश्रण ने मेरे नए विकसते मन पर क्या प्रभाव डाला, यह सोचा जा सकता है। पर अँग्रेज़ी की परंपरा यहाँ सहसा टूटी : हिंदी में पढ़ा
तेरे घर के द्वार बहुत हैं किससे होकर आऊँ मैं ?
और
नीलांबर परिधान हरित पट पर सुंदर है
सूर्य-चंद्र युग-मुकुट मेखला रत्नाकर है।
... ... ...
करते अभिषेक पयोद हैं बलिहारी इस वेश की।
हे मातृभूमि! तू सत्य ही सगुण मूर्ति सर्वेश की!

और सहसा एक नई आत्मीयता मिली- वह काव्यत्व में उतनी नहीं जितनी अपनी भाषा में- मानो सहसा अपना प्रतिबिंब दीख गया, और साथ ही यह भी दीख गया कि प्रतिबिंब दीखने के लिए आकाश नहीं चाहिए, पानी की बूँद में भी वह दीख जाता है...उसके बाद तो मैथिलीशरण गुप्त की जो रचना मिली पढ़ ही न ली बल्कि कापी में उतार ली-आरंभिक काल की सरस्वती से कितनी कविताएँ ऐसे नकल की होंगी! उसके बाद ही हिंदी में कुछ तुकबंदी करना शुरू किया : अँग्रेजी में जहाँ कल्पना या भावना को लेकर चलता था, हिंदी में वर्णनात्मक ही पहले लिखा। वह मेरी प्रकृति के अनुकूल नहीं है, और मेरी ओर से वर्णनात्मक या इतिवृत्तात्मक कुछ कभी सामने नहीं आया है।एक खंडकाव्य लिखने की बरसों की साध अभी मन में ही है, फिर भी इस कारण से मैं गुप्तजी को अपना काव्य-गुरु मानता रहा- यह जानते हुए भी कि इस जानकारी से वही सबसे अधिक चौंकते!

मैथिलीशरण गुप्त के जयद्रथ-वध और भारत-भारती का नाम तो इतना अधिक लिया गया है कि उसका उल्लेख करते भी झिझक होती है। केशों की कथा भी लगभग उतनी ही प्रसिद्घ है। इनके उद्घरण नितांत अनावश्यक होंगे। पर इसी काल में और जिन कवियों ने मुझे प्रभावित किया उनका उल्लेख अवश्य करूँगा।

तुलसीदास कभी मुझे वैसे प्रिय नहीं हो सके जैसे कुछ अन्य भक्त कवि। तुलसी में मुझे न तो हृदय को विभोर करने वाला वह गुण मिला जो सूरदास के पदों में मिलता है, और न बुद्घि को आप्यायित कर देनेवाले वे तत्त्व जो कबीर के पदों में मिलते हैं। और न अटपटी तन्मयता जो मीराबाई के भजनों में है।

तुलसी के भक्त इसे मेरा दुर्भाग्य कह सकते हैं। यह भी हो सकता है कि मैं अष्टाध्यायी से आरंभ करके यूरोपीय काव्य के रास्ते मैथिलीशरण गुप्त तक न आया होता, सीधे ढंग से वृंद और रहीम और तुलसी-रामायण से आरंभ करके चला होता, तो मेरी मनोरचना भी भिन्न होती। जो हो, मैं तो उनसे ईर्ष्या करके रह जाता हूँ जो तुलसी पढ़ते-पढ़ते विभोर हो जाते हैं। मुझे कुछ स्थल अच्छे लगते हैं, पर तुलसी से वैसी आत्मीयता नहीं होती; और जो अच्छे लगते हैं उनकी भी तुलना जब वाल्मीकि के उन्हीं प्रसंगों से करता हूँ तो मन आदि-कवि की प्रतिभा से ही अभिभूत होता है। और संस्कृत में फिर कालिदास की ओर मुड़ता हूँ, जिनका रघुवंश मेरा प्रिय ग्रंथ रहा है। कालिदास ने बड़े साहस से रामायण की कथावस्तु को लेकर काव्य रचने की ठानी होगी, लेकिन रघुवंश में वह वाल्मीकि से प्रतिस्पर्धा करने से बच गए हैं; तुलना का प्रश्न ही नहीं उठता क्योंकि राम-चरित को उन्होंने केवल एक अंश दिया है। रघुवंश के अज-विलाप अथवा कुमारसंभव के पार्वती-तपस्या जैसे प्रसंगों का समकक्ष कुछ मैंने और किस कवि और भाषा में पाया है ? इस प्रश्न का उत्तर नहीं मिलता : वैसा कुछ मैंने अन्यत्र नहीं पढ़ा है...

समकालीन हिंदी काव्य का भी गहरा प्रभाव मुझ पर पढ़ा। महादेवी वर्मा की कविताएँ और प्रसाद का ‘आँसू’ पढ़ा तो उसमें भी वह आविष्कार का-सा भाव था जो मैथिलीशरण गुप्त के ‘स्वयमागत’ से मिला था, पर यह मानो स्थायी न रहा। प्रसाद के ‘आँसू’ के कई अंश मुझे याद हैं, अब भी कभी अपने को उन्हें गुनगुनाते पाता हूँ :

इस करुणा-कलित हृदय में क्यों विकल रागिनी बजती
क्यों हाहाकार-स्वरों में वेदना असीम गरजती?
... ... ...
आती है शून्य क्षितिज से क्यों लौट प्रतिध्वनि मेरी,
टकराती बिलखाती-सी पगली-सी देती फिरी?
... ... ...
किंजल्क-जाल हैं बिखरे उड़ता पराग है रूखा,
क्यों स्नेह-सरोज हमारा विकसा मानस में सूखा!
लेकिन अनंतर पंत और निराला ही घनिष्ट हो गए, और निराला को तो जब-जब पढ़ता हूँ मानो नया आविष्कार करता हूँ। शब्द पर उनका अद्वितीय अधिकार है :
वर्ण चमत्कार
एक-एक शब्द बँधा ध्वनिमय साकार।
निराला से और अनेक उद्धरण देने का मोह होता है : बादल राग का
झूम-झूम मृदु गरज-गरज घन घोर!
राग अमर! अंबर में भर निज रोर।

राम की शक्तिपूजा का

रवि हुआ अस्त; ज्योति के पत्र पर लिखा अमर
रह गया राम-रावण का अपराजेय समर
... ... ...
विच्छुरित-वह्नि-राजीवनयन-हत-लक्ष्य-बाण,
लोहित-लोचन-रावण-मदमोचन-महीयान,
राघव-लाघव-रावण-वारण-गतयुग्म प्रहर...
गीतों की पंक्तियाँ-
सुमन भर लिए, सखि ! वसंत गया।
अथवा
स्नेह निर्झर बह गया है, मैं नहीं, कवि कह गया है।
अथवा-पर यह द्वार खोले देने पर बाढ़ रोकना कठिन हो जाएगा, संकेत करके रुक जाने में ही खैर है!

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‘अज्ञेय’ : अपनी निगाह में

कृतिकार की निगाह नहीं होती, यह तो नहीं कहूँगा। पर यह असंदिग्ध है कि वह निगाह एक नहीं होती। एक निगाह से देखना कलाकार की निगाह से देखना नहीं है। स्थिर, परिवर्तनहीन दृष्टि सिद्घांतवादी की हो सकती है, सुधारक-प्रचारक की हो सकती है और- भारतीय विश्वविद्यालयों के संदर्भ में-अध्यापक की भी हो सकती है, पर वैसी दृष्टि रचनाशील प्रतिभा की दृष्टि नहीं है।

‘अज्ञेय’ : अपनी निगाह में इस शीर्षक के नीचे यहाँ जो कुछ कहा जा रहा है उसे इसलिए ज्यों-का-त्यों स्वीकार नहीं किया जा सकता। वह स्थिर उत्तर नहीं है। यह भी हो सकता है कि उसके छपते-छपते उससे भिन्न कुछ कहना उचित और सही जान पड़ने लगे। चालू मुहावरे में कहा जाए कि यह केवल आज का, इस समय का कोटेशन है। कल को अगर बदला जाए तो यह न समझना होगा कि अपनी बात का खंडन किया जा रहा है, केवल यही समझना होगा कि वह कल का कोटेशन है जो कि आज से भिन्न है।

फिर यह भी है कि कलाकार की निगाह अपने पर टिकती भी नहीं। क्यों टिके? दुनिया में इतना कुछ देखने को पड़ा है : ‘क्षण-क्षण परिवर्तित प्रकृतिवेश’ जिसे ‘उसने आँख भर देखा।’ इसे देखने से उसको इतना अवकाश कहाँ कि वह निगाह अपनी ओर मोड़े। वह तो जितना कुछ देखता है उससे भी आगे बढ़ने की विवशता में देता है ‘मन को दिलासा, पुन: आऊँगा-भले ही बरस दिन अनगिन युगों के बाद!’

कलाकार की निगाह, अगर वह निगाह है और कलाकार की है तो, सर्वदा सब-कुछ की ओर लगी रहती है। अपने पर टिकने का अवकाश उसे नहीं रहता। नि:संदेह ऐसे बहुत-से कलाकार पड़े हैं, जिन्होंने अपने को देखा है, अपने बारे में लिखा है। अपने बारे में लिखना तो आजकल का एक रोग है। बल्कि यह रोग इतना व्यापक है कि जिसे यह नहीं है वही मानो बेचैन हो उठता है कि मैं कहीं अस्वस्थ तो नहीं हूँ? लेखकों में कई ऐसे भी हैं जिन्होंने केवल अपने बारे में लिखा है-जिन्होंने अपने सिवा कुछ देखा ही नहीं है। लेकिन सरसरी तौर पर अपने बारे में लिखा हुआ सब-कुछ एक ही मानदंड से नहीं नापा जा सकता, उसमें कई कोटियाँ हैं। क्योंकि देखनेवाली निगाह भी कई कोटियों की हैं। आत्म-चर्चा करनेवाले कुछ लोग तो ऐसे हैं कि निज की निगाह कलाकार की नहीं, व्यवसायी की निगाह है। यों आजकल सभी कलाकार न्यूनाधिक मात्रा में व्यवसायी हैं; आत्म-चर्चा आत्म-पोषण का साधन है इसलिए आत्म-रक्षा का एक रूप है। कुछ ऐसे भी होंगे जो कलाकार तो हैं लेकिन वास्तव में आत्म-मुग्ध हैं-नार्सिसस-गोत्रीय कलाकार! लेकिन अपने बारे में लिखनेवालों में एक वर्ग ऐसों का भी है जो कि वास्तव में अपने बारे में नहीं लिखते हैं-अपने को माध्यम बनाकर संसार के बारे में लिखते हैं। इस कोटि के कलाकार की जागरूकता का ही एक पक्ष यह है कि यह निरंतर अपने देखने को ही देखता चलता है, अनवरत अपने संवेदन के खरेपन की कसौटी करता चलता है। जिस भाव-यंत्र के सहारे वह दुनिया पर और दुनिया उस पर घटित होती रहती है, उस यंत्र की ग्रहणशीलता का वह बराबर परीक्षण करता रहता है। भाव-यंत्र का ऐसा परीक्षण एक सीमा तक किसी भी युग में आवश्यक रहा होगा, लेकिन आज के युग में वह एक अनिवार्य कर्तव्य हो गया है।

तो अपनी निगाह में अज्ञेय। यानी आज का अज्ञेय ही। लिखने के समय की निगाह में वह लिखता हुआ अज्ञेय। बस इतना ही और उतने समय का ही।

अज्ञेय बड़ा संकोची और समाजभीरु है। इसके दो पक्ष हैं। समाजभीरु तो इतना है कि कभी-कभी दुकान में कुछ चीज़ें खरीदने के लिए घुसकर भी उलटे-पाँव लौट आता है क्योंकि खरीददारी के लिए दुकानदार से बातें करनी पडेंग़ी। लेकिन एक दूसरा पक्ष भी है जिसके मूल में निजीपन की तीव्र भावना है, वह जिसे अँग्रेज़ी में सेंस ऑफ़ प्राइवेसी कहते हैं। किन चीजों को अपने तक, या अपनों तक ही सीमित रखना चाहिए, इसके बारे में अज्ञेय की सबसे बड़ी स्पष्ट और दृढ़ धारणाएँ हैं। और इनमें से बहुत-सी लोगों की साधारण मान्यताओं से भिन्न हैं। यह भेद एक हद तक तो अँग्रेज़ी साहित्य के परिचय की राह से समझा जा सकता है : उस साहित्य में इसे चारित्रिक गुण माना गया है। मनोवेगों को अधिक मुखर न होने दिया जाए, निजी अनुभूतियों के निजीपन को अक्षुण्ण रखा जाए : ‘प्राइवेट फ़ेसेज़ इन पब्लिक प्लेसेज़’। लेकिन इस निरोध अथवा संयमन के अलावा भी कुछ बातें हैं। एक सीमा है जिसके आगे अज्ञेय अस्पृश्य रहना ही पसंद करता है। जैसे कि एक सीमा से आगे वह दूसरों के जीवन में प्रवेश या हस्तक्षेप नहीं करता है। इस तरह का अधिकार वह बहुत थोड़े लोगों से चाहता है और बहुत थोड़े लोगों को देता है। जिन्हें देता है उन्हें अबाध रूप से देता है, जिनसे चाहता है उनसे उतने ही निर्बाध भाव से चाहता है। लेकिन जैसा कि पहले कहा गया है, ऐसे लोगों की परिधि बहुत कड़ी है।

इससे गलतफहमी जरूर होती है। बहुत-से लोग बहुत नाराज भी हो जाते हैं। कुछ को इसमें मनहूसियत की झलक मिलती है, कुछ अहम्मन्यता पाते हैं, कुछ आभिजात्य का दर्प, कुछ और कुछ। कुछ की समझ में यह निरा आडंबर है और भीतर के शून्य को छिपाता है जैसे प्याज का छिलका पर छिलका। मैं साक्षी हूँ कि अज्ञेय को इन सब प्रतिक्रियाओं से अत्यंत क्लेश होता है। लेकिन एक तो यह क्लेश भी निजी है। दूसरे इसके लिए वह अपना स्वभाव बदलने का यत्न नहीं करता, न करना चाहता है। सभी को कुछ-कुछ और कुछ को सब-कुछ-वह मानता है उसके लिए आत्म-दान की परिपाटी यही हो सकती है। सिद्धांतत: वह स्वीकार करेगा कि ‘सभी को सब-कुछ’ का आदर्श इससे अधिक ऊँचा है। पर वह आदर्श सन्यासी का ही हो सकता है। या कम-से-कम निजी जीवन में कलाकार का तो नहीं हो सकता। बहुत-से कलाकार उससे भी छोटा दायरा बना लेते हैं जितना कि अज्ञेय का है और कोई-कोई तो ‘कुछ को कुछ, बाकी अपने को सब-कुछ’ के ही आदर्श पर चलते हैं। ऐसा कोई न बचे जिसे उसने अपना कुछ नहीं दिया हो, इसके लिए अज्ञेय बराबर यत्नशील है। लेकिन सभी के लिए वह सब-कुछ दे रहा है, ऐसा दावा वह नहीं करता और इस दंभ से अपने को बचाये रखना चाहता है।

अज्ञेय का जन्म खँडहरों में शिविर में हुआ था। उसका बचपन भी वनों और पर्वतों में बिखरे हुए महत्त्वपूर्ण पुरातत्त्वावशेषों के मध्य में बीता। इन्हीं के बीच उसने प्रारंभिक शिक्षा पायी। वह भी पहले संस्कृत में, फिर फारसी और फिर अँग्रेज़ी में। और इस अवधि में वह सर्वदा अपने पुरातत्त्वज्ञ पिता के साथ, और बीच-बीच में बाकी परिवार से-माता और भाइयों से-अलग, रहता रहा। खुदाई में लगे हुए पुरातत्त्वान्वेषी पिता के साथ रहने का मतलब था अधिकतर अकेला ही रहना। और अज्ञेय बहुत बचपन से एकांत का अभ्यासी है और बहुत कम चीज़ों से उसको इतनी अकुलाहट होती है जितनी लगातार लंबी अवधि तक इसमें व्याघात पड़ने से। जेल में अपने सहकर्मियों के दिन-रात के अनिवार्य साहचर्य से त्रस्त होकर उसने स्वयं काल-कोठरी की माँग की थी और महीनों उसमें रहता रहा। एकांतजीवी होने के कारण देश और काल के आयाम का उसका बोध कुछ अलग ढंग का है। उसके लिए सचमुच ‘कालोह्ययं निरवधिर्विपुला च पृथ्वी।’ वह घंटों निश्चल बैठा रहता है, इतना निश्चल कि चिड़ियाँ उसके कंधों पर बैठ जाएँ या कि गिलहरियाँ उसकी टाँगों पर से फाँदती हुई चली जाएँ। पशु-पक्षी और बच्चे उससे बड़ी जल्दी हिल जाते हैं। बड़ों को अज्ञेय के निकट आना भले ही कठिन जान पड़े, बच्चों का विश्वास और सौहार्द उसे तुरत मिलता है। पशु उसने गिलहरी के बच्चे से तेंदुए के बच्चे तक पाले हैं, पक्षी बुलबुल से मोर-चकोर तक; बंदी इनमें से दो-चार दिन से अधिक किसी को नहीं रखा। उसकी निश्चलता ही उन्हें आश्वस्त कर देती है। लेकिन गति का उसके लिए दुर्दांत आकर्षण है। निरी अंध गति का नहीं, जैसे तेज मोटर या हवाई जहाज की, यद्यपि मोटर वह काफ़ी तेज रफ्तार से चला लेता है। (पहले शौक था, अब केवल आवश्यकता पड़ने पर चला लेने की कुशलता है, शौक नहीं है।) आकर्षण है एक तरह की ऐसी लय-युक्ति गति का-जैसे घुड़दौड़ के घोड़े की गति, हिरन की फलाँग या अच्छे तैराक का अंग-संचालन, या शिकारी पक्षी के झपट्टे की या सागर की लहरों की गति। उसके लेखन में, विशेष रूप से कविता में, यह आकर्षण मुखर है। पर जीवन में भी उतना ही प्रभावशाली है। एक बार बचपन में अपने भाइयों को तैरते हुए देखकर वह उनके अंग-संचालन से इतना मुग्ध हो उठा कि तैरना न जानते हुए भी पानी में कूद पड़ा और डूबते-डूबते बचा-यानी मूर्छितावस्था में निकाला गया। लय-युक्त गति के साथ-साथ, उगने या बढ़नेवाली हर चीज़ में, उसके विकास की बारीक-से-बारीक क्रिया में, अज्ञेय को बेहद दिलचस्पी है: वे चीज़ें छोटी हों या बड़ी, च्यूँटी और पक्षी हों या वृक्ष और हाथी; मानव-शिशु हो या नगर और कस्बे का समाज। वनस्पतियों और पशु-पक्षियों का विकास तो केवल देखा ही जा सकता है; शहरी मानव और उसके समाज की गतिविधियों से पहले कभी-कभी बड़ी तीव्र प्रतिक्रिया होती थी-क्षोभ और क्रोध होता था; अब धीरे-धीरे समझ में आने लगा है कि ऐसी राजस प्रतिक्रियाएँ देखने में थोड़ी बाधा जरूर होती है। अब आक्रोश को वश करके उन गतिविधियों को ठीक-ठीक समझने और उनको निर्माणशील लीकों पर डालने का उपाय खोजने का मन होता है। पहले विद्रोह था जो विषयिगत था-‘सब्जेक्टिव’ था। अब प्रवृत्ति है जो किसी हद तक असम्पृक्त बुद्धि से प्रेरित है। एक हद तक जरूर प्रवृत्ति के साथ एक प्रकार की अंतर्मुखीनता आई है। समाज को बदलने चलने से पहले अज्ञेय बार-बार अपने को जाँचता है कि कहाँ तक उसके विश्वास और उसके कर्म में सामंजस्य है-या कि कहाँ नहीं है। यह भी जोड़ दिया जा सकता है कि वह इस बारे में भी सतर्क रहता है कि उसके निजी विश्वासों में और सार्वजनिक रूप से घोषित (पब्लिक) आदर्श में भेद तो नहीं है? धारणा और कर्म में सौ प्रतिशत सामंजस्य तो सिद्धों को मिलता है। उतना भाग्यवान न होकर भी अज्ञेय अंतर्विरोध की भट्ठी पर नहीं बैठा है और इस कारण अपने भीतर एक शांति और आत्मबल का अनुभव करता है। शांति और आत्म-बल आज के युग में शायद विलास की वस्तुएँ हैं। इसलिए इस कारण से अज्ञेय हिंदी भाइयों और विशेष रूप से हिंदीवाले भाइयों से कुछ और अलग पड़ जाता है और कुछ और अकेला हो जाता है।

यहाँ यह भी स्वीकार कर लिया जाए कि यहाँ शायद सच्चाई को अधिक सरल करके सामने रखा गया है; उतनी सरल वास्तविकता नहीं है। एक साथ ही चरम निश्चलता का और चरम गतिमयता का आकर्षण अज्ञेय की चेतना के अंतर्विरोध का सूचक है। पहाड़ उसे अधिक प्रिय है या सागर, इसका उत्तर वह नहीं दे पाया है, स्वयं अपने को भी। वह सर्वदा हिमालय के हिमशिखरों की ओर उन्मुख कुटीर में रहने की कल्पना किया करता है और जब-तब उधर कदम भी बढ़ा लेता है; पर दूसरी ओर वह भागता है बराबर सागर की ओर, उसके उद्वेलन से एकतानता का अनुभव करता है। शांत सागर-तल उसे विशेष नहीं मोहता-चट्टानों पर लहरों का घात-प्रतिघात ही उसे मुग्ध करता है। सागर में वह दो बार डूब चुका है; चट्टानों की ओट से सागर-लहर को देखने के लोभ में वह कई बार फिसलकर गिरा है और दैवात् ही बच गया है। पर मन:स्थिति ज्यों-की-त्यों है : वह हिमालय के पास रहना चाहता है पर सागर के गर्जन से दूर भी नहीं रहना चाहता! कभी हँसकर कह देता है : ‘‘मेरी कठिनाई यही है कि भारत का सागर-तट सपाट दक्षिण में है-कहीं पहाड़ी तट होता तो-!’’

क्योंकि इस अंतर्विरोध का हल नहीं हुआ है, इसलिए वह अभी स्वयं निश्चयपूर्वक नहीं जानता है कि वह अंत में कहाँ जा टिकेगा। दिल्ली या कोई भी शहर तो वह विश्रामस्थल नहीं होगा, यह वह ध्रुव मानता है। पर वह कूर्मांचल हिमालय में होगा, कि कुमारी अंतरीप के पास (जहाँ चट्टानें तो हैं!), या समझौते के रूप में विंध्य के अंचल की कोई वनखंडी जहाँ नदी-नाले का मर्मर ही हर समय सुनने को मिलता रहे-इसका उत्तर उसे नहीं मिला। उत्तर की कमी कई बार एक अशांति के रूप में प्रकट हो जाती है। वह ‘कहीं जाने के लिए’ बैचेन हो उठता है। (मुक्तिबोध का ‘माइग्रेशन इन्स्टिंक्ट’?) कभी इसकी सूरत निकल आती है; कभी नहीं निकलती तो वह घर ही का सब सामान उलट-पुलटकर उसे नया रूप दे देता है : बैठक को शयनकक्ष, शयनकक्ष को पाठागार, पाठागार को बैठक इत्यादि। उससे कुछ दिन लगता है कि मानो नए स्थान में आ गए-फिर वह पुराना होने लगता है तो फिर सब बदल दिया जाता है! इसीलिए घर का फर्नीचर भी अज्ञेय अपने डिजाइन का बनवाता है। ये जो तीन चौकियाँ हैं न, इन्हें यों जोड़ दिया जाए तो पलंग बन जाएगा; ये जो दो डेस्क-सी दीखती हैं, एक को घुमाकर दूसरे से पीठ जोड़ दीजिए, भोजन की मेज बन जाएगी यदि आप फर्श पर नहीं बैठ सकते। वह जो पलंग दीखता है, उसका पल्ला उठा दीजिए- नीचे वह संदूक है। या उसे एक सिरे पर खड़ा कर दीजिए तो वह आलमारी का काम दे जाएगा! दीवार पर शरद् ऋतु के चित्र हैं न ? सबको उलट दीजिए : अब सब चित्र वसंत के अनुकूल हो गए-अब बिछावन भी उठाकर शीतलपाटियाँ डाल दीजिए और सभी चीज़ों का ताल-मेल हो गया...

पुरातत्त्ववेत्ता की छाया में अकेले रहने का एक लाभ अज्ञेय को और भी हुआ है। चाहे विरोधी के रूप में चाहे पालक के रूप में, वह बराबर परंपरा के संपर्क में रहा है। रूढि़ और परंपरा अलग-अलग चीज़ें हैं, यह उसने समझ लिया है। रूढि़ वह तोड़ता है और तोड़ने के लिए हमेशा तैयार है। लेकिन परंपरा तोड़ी नहीं जाती, बदली जाती है या आगे बढ़ा जाती है, ऐसा वह मानता है; और इसी के लिए यत्नशील है। कहना सही होगा कि वह मर्यादावान विद्रोही है। फिर इस बात को चाहे आप प्रशंसा से कह लीजिए चाहे व्यंग्य और विद्रूप से।

एक ओर एकांत, और दूसरे में एकांत का निरंतर बदलता हुआ परिवेश-कभी कश्मीर की उपत्यकाएँ, कभी बिहार के देहात, कभी कोटागिरि-नीलगिरि के आदिम जातियों के गाँव, कभी मेरठ के खादर और कभी असम और पूर्वी सीमांत के वन-प्रदेश-इस अनवरत बदलते हुए परिवेश ने अकेले अज्ञेय के आत्म-निर्भरता का पाठ बराबर दुहरवाया है। इस कारण वह जितना जैसा जिया है अधिक सघनता और तीव्रता से जिया है। ‘रूप-रस-गंध-गान’-सभी की प्रतिक्रियाएँ उसमें अधिक गहरी हुई हैं। सिद्धांतत: भी वह मानता है कि कवि या कलाकार ऐंद्रिय चेतना की उपेक्षा नहीं कर सकता। और परिस्थितियों ने उसे इसकी शिक्षा भी दी है कि ऐंद्रिय संवेदन को कुंद न होने दिया जाए। यह यों ही नहीं कि आँख, कान, नाक आदि को ‘ज्ञानेंद्रियाँ’ कहा जाता है। ये वास्तव में खिड़कियाँ हैं जिनमें से व्यक्ति जगत को देखता और पहचानता है। इनके संवेदन को अस्वीकार करना संन्यास या वैराग्य का अंग नहीं है। वह पंथ आसक्ति को छोड़ता है यानी इन संवेदनों से बँध नहीं जाता; यह नहीं है कि इनका उपयोग ही वह छोड़ देता है। जब अज्ञेय को ऐसे लोग मिलते हैं जो गर्व से कहते हैं कि ‘‘हमें तो खाने में स्वाद का पता ही नहीं रहता-हम तो यह भी लक्ष्य नहीं करते कि दाल में नमक कम है या ज्यादा,’’ तो अज्ञेय को हँसी आती है। क्योंकि यह वह अस्वाद नहीं जिसे आदर्श माना गया, यह केवल एक विशेष प्रकार की पंगुता है। इसमें और इस बात पर गर्व करने में कि ‘‘मुझे तो यह भी नहीं दिखता कि दिन है या रात,’’ कोई अंतर नहीं है। अगर अन्धापन या बहरापन श्लाघ्य नहीं है तो जीभ का या त्वचा का अपस्मार ही क्यों श्लाघ्य है? ज्ञानेंद्रियों की सजगता अज्ञेय की कृतियों में प्रतिलक्षित होती है और वह मानता है होनी भी चाहिए। कम या ज्यादा नमक होने पर भी दाल खा लेना एक बात है, और इसको नहीं पहचानना बिलकुल दूसरी बात है।

अज्ञेय मानता है कि बुद्धि से जो काम किया जाता है उसकी नींव हाथों से किये गए काम पर है। जो लोग अपने हाथों का सही उपयोग नहीं करते उनकी मानसिक सृष्टि में भी कुछ विकृति या एकांगिता आ जाती है। यह बात काव्य-रचना पर विशेष रूप से लागू है क्योंकि अन्य सब कलाओं के साथ कोई-न-कोई शिल्प बँधा है, यानी अन्य सभी कलाएँ हाथों का भी कुछ कौशल माँगती हैं। एक काव्य-कला ही ऐसी है कि शुद्ध मानसिक कला है। प्राचीन काल में शायद इसीलिए कवि-कर्म को कला नहीं गिना जाता था। अज्ञेय प्राय: ही हाथ से कुछ-न-कुछ बनाता रहता है और बीच-बीच में कभी तो मानसिक रचना को बिलकुल स्थगित करके केवल शिल्प-वस्तुओं के निर्माण में लग जाता है। बढ़ईगिरी और बाग़वानी का उसे खास शौक है। लेकिन और भी बहुत-सी दस्तकारियों में थोड़ी-बहुत कुशलता उसने प्राप्त की है और इनका भी उपयोग जब-तब करता रहता है। अपने काम के देशी काट के कपड़े भी वह सी लेता है और चमड़े का काम भी कर लेता है। थोड़ी-बहुत चित्रकारी और मूर्तिकारी वह करता है। फोटोग्राफी का शौक भी उसे बराबर रहा है और बीच-बीच में प्रबल हो उठता है।
हाथों से चीज़ें बनाने के कौशल का प्रभाव ज़रूरी तौर पर साहित्य-रचना पर भी पड़ता है। अज्ञेय प्राय: मित्रों से कहा करता है कि अपने हाथ से लिखने और शीघ्रलेखक को लिखाने में एक अंतर यह है कि अपने हाथ से लिखने में जो बात बीस शब्दों में कही जाती लिखाते समय उसमें पचास शब्द या सौ शब्द भी सर्फ़कर दिए जाते हैं! मितव्यय कला का एक स्वाभाविक धर्म है। रंग का, रेखा का, मिट्टी या शब्द का अपव्यय भारी दोष है। अपने हाथ से लिखने में परिश्रम किफायत की ओर सहज ही जाता है। लिखाने में इसमें चूक भी हो सकती है। विविध प्रकार के शिल्प के अभ्यास से मितव्यय का-किसी भी इष्ट की प्राप्ति में कम-से-कम श्रम का-सिद्धांत सहज-स्वाभाविक बन जाता है। भाषा के क्षेत्र में इससे नपी-तुली, सुलझी हुई बात कहने की क्षमता बढ़ती है, तर्क-पद्धति व्यवस्थित, सुचिंतित और क्रमसंगत होती है। अज्ञेय इन सबको साहित्य के बड़े गुण मानता है और बराबर यत्नशील रहता है कि उसका लेखन इस आदर्श से स्खलित न हो।
दूसरे की बात को वह ध्यान से और धैर्य से सुनता है। दूसरे के दृष्टिकोण का, दूसरे की सुविधा का, दूसरे और प्रिय-अप्रिय का वह बहुत ध्यान रखता है-कभी-कभी जरूरत से ज्यादा। नेता के गुणों में एक यह भी होता है कि अपने दृष्टिकोण को अपने पर इतना हावी हो जाने दे कि दूसरे के दृष्टिकोण की अनदेखी भी कर सके। निरंतर दूसरे के दृष्टिकोण को देखते रहना नेतृत्व कर्म में बाधक भी हो सकता है। इसलिए नेतृत्व करना अज्ञेय के वश का नहीं है। वह सही मार्ग पहचानकर और उसका इंगित देकर भी फिर एक तरफ़ हट जाएगा, क्योंकि ‘दूसरों का दृष्टिकोण दूसरा है’ और वह उस दृष्टिकोण को भी समझ सकता है!
‘मार-मारकर हकीम’ न बनाने की इस प्रवृत्ति के कारण अज्ञेय को विश्वास बहुत लोगों का मिला है। मित्र उसके कम रहे हैं, पर अपनी समस्याएँ लेकर बहुत लोग उसके पास आते हैं; ऐसे लोगों को खुलकर बात करने में कभी कठिनाई नहीं होती। सभी की सहायता की जा सके ऐसे साधन किसके पास हैं : पर धीरज और सहानुभूति से सुनना भी एक सहायता है जो हर कोई दे सकता है। (पर देता नहीं)।
लेकिन इस धीरज के साथ-साथ अव्यवस्थित चिंतन के प्रति उसमें एक तीव्र असहिष्णुता भी है। चिंतन के क्षेत्र में किसी तरह का भी लबड़धोंधोंपन उसे सख्त नापसंद है और इस नापसंदगी को प्रकट करने में वह संकोच नहीं करता। इसीलिए उसके मित्र बहुत कम हैं। हिंदीवालों में और भी कम, क्योंकि हिंदी साहित्यकार का चिंतन भारतीय साहित्यकारों में अपेक्षया अधिक ढुलमुल होता है। साहित्यकार ही क्यों, हिंदी के आलोचकों और अध्यापकों का सोचने का ढंग भी एक नमूना है।

अज्ञेय हिंदी के हाथी का दिखाने का दाँत है। कभी-कभी उसको इस पर आश्चर्य भी होता है और खीझ भी। क्योंकि वह अनुभव करता है कि हिंदी के प्रति उसकी आस्था अनेक प्रतिष्ठित हिंदीवालों से अधिक है और साथ ही यह भी कि वह बड़ी गहराई में और बड़ी निष्ठा के साथ भारतीय है। यानी वह खाने के दाँतों की अपेक्षा हिंदी के हाथी का अधिक अपना है। यों तो खैर, दाँत ही हाथी का हो सकता है, कोई ज़रूरी नहीं है कि हाथी भी दाँत का हो। लेकिन शायद ऐसा सोचना भी अज्ञेय की दुर्बलता है-यह भी ‘दूसरे के दृष्टिकोण को देखना’ है। वह अपने को हिंदी का मानकर चलता है जब कि आर्थोडाक्स हिंदीवाला हिंदी को अपनी मानता ही नहीं वैसा दावा भी करता है : अज्ञेय अपने को भारत का मानता है जबकि आर्थोडाक्स भारतीय देश को अपना मानता है। हिंदी के एक बुजुर्ग ने कहा था, ‘‘विदेशों में हिंदी पढ़ाने के लिए तो अज्ञेय बहुत ही उपयुक्त है, बल्कि इससे योग्यतर व्यक्ति नहीं मिलेगा; लेकिन भारतीय विश्वविद्यालयों में-“ और यहाँ उनका स्वर एकाएक बिलकुल बदल गया था-“और हिंदी क्षेत्र में-देखिए, हिंदी क्षेत्र में हिंदी साहित्य पढ़ाने के लिए तो दूसरे प्रकार की योग्यता चाहिए।’’ इस कथन के पीछे जो प्रतिज्ञाएँ हैं उनसे अज्ञेय को अपना क्लेश होता है। लेकिन-और इसे उसका अतिरिक्त दुर्भाग्य समझिए-इस दृष्टिकोण को वह समझ भी सकता है। पिछले दस-बारह वर्षों के उसके कार्य की जड़ में यही उभयनिष्ठ भाव लक्षित होता है। यह दिखाने का दाँत चालानी माल (एक्सपोर्ट कमाडिटी) के रूप में बराबर रहता रहा है लेकिन हर बार इसलिए लौट आया है कि अंततोगत्वा वह भारतीय है, भारत का है और भारत में ही रहेगा।

यह समस्या अभी उसके साथ है और शायद अभी कुछ वर्षों तक रहेगी। बचपन में उसके भविष्य के विषय में जिज्ञासा करने पर उसके माता-पिता को एक ज्योतिषी ने बताया था कि ‘‘इस जातक के शत्रु अनेक होंगे लेकिन हानि केवल बंधुजन ही पहुँचा सकेंगे।’’ अज्ञेय नियतिवादी नहीं है लेकिन स्वीकार करता है कि चरित्र की कुछ विशेषताएँ जरूर ऐसी होती हैं जो व्यक्ति के भविष्य का निर्माण करती हैं। इसलिए शायद ‘यह नहीं है शाप। यह अपनी नियति है’ कि अनेक शत्रुओं के रहते हुए भी अज्ञेय वध्य है तो केवल अपने बंधुओं द्वारा। ऐसा ही अच्छा है। उसी ज्योतिषी ने यह भी बताया था कि ‘‘इस जातक के पास कभी कुछ जमा-जत्था नहीं होगा, लेकिन साथ ही ज़रूरी खर्चे की कभी तंगी भी नहीं होगी- यह या तो फकीर होगा या राजा।’’ और फिर कुछ रुककर, शायद फकीरी की आशंका के बारे में माता-पिता को आश्वस्त करने के लिए, और ‘सत्यं ब्रुयात् प्रियं ब्रुयात्’ को ध्यान में रखकर, उसने एक वाक्य और जोड़ दिया था जिसकी व्यंजनाएँ अनेक हैं- ‘‘यह असल में तबीयत का बादशाह होगा।’’

जी हाँ, तबीयत के अलावा और कोई बादशाहत अज्ञेय को नहीं मिली है। लेकिन यह बनी रहे तो दूसरी किसी की आकांक्षा भी उसे नहीं है।

(शीर्ष पर वापस)

 

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