प्रस्तावना
सच्चिदानंद हीरानंद
वात्स्यायन ‘अज्ञेय’ हिंदी रचना-संसार का विलक्षण प्रतिभावाला नाम।
हिंदी कविता में युग-परिवर्तन कर सकने का जोखिम उन्होंने उठाया
लेकिन परंपरा का पल्ला नहीं छोड़ा। दद्दा मैथिलीशरण गुप्त को इसीलिए
वे कभी नहीं भूलते, क्योंकि ‘अज्ञेय’ जी को परती ज़मीनें तोडऩे में
गहरी रुचि थी और दद्दा ने अपनी रचनाशीलता द्वारा हिंदी कविता में
वही काम किया था।
हिंदी रचनाशीलता की कोई ऐसी विधा नहीं है जिसमें अज्ञेय ने अपना
अवदान न दिया हो। उन्होंने न केवल कविता के क्षेत्र में नई ज़मीन
तोड़ी और ‘नई कविता’ का मंच तैयार किया बल्कि कहानियाँ लिखीं,
उपन्यास लिखे जिन में ‘शेखर : एक जीवनी’ सबसे अधिक चर्चित हुआ।
उन्होंने निबन्ध लिखे— ललित भी और दार्शनिक भी। डायरी, यात्रावृत्त,
आलोचना, नाटक से हिंदी साहित्य को समृद्ध किया। जो नहीं लिखा वह
अन्त:वार्ताओं और इंटरव्यू में बोला। विरोधियों की परवाह किये बिना
नई रचनाशीलता के आन्दोलन खड़े किये। ऐसी विलक्षण प्रतिभा हिंदी
संसार में दूर तक दिखायी नहीं देती।
उनके सोलह कविता-संग्रह, आठ कहानी संग्रह, पाँच उपन्यास, अनेकानेक
निबन्ध, एक सम्पूर्ण गीतिनाट्य, यात्रावृत्त तथा लेखकीय वैविध्य की
अनेक पुस्तकें प्रकाशित हैं। हिंदी में सप्तक परंपरा की शुरूआत
उन्होंने की जो अपने समय में सर्वाधिक चर्चित रही। अनुवाद का बहुत
सारा काम किया। अनेक पुस्तकों का संपादन किया जिनमें ‘रूपाम्बरा’
जैसी संचयन कृति सम्मिलित है। ‘दिनमान’, ‘नवभारत टाइम्स’, ‘एवरी मैंस
वीकली’ के अतिरिक्त ‘प्रतीक’ और ‘नया प्रतीक’ जैसी साहित्यिक
पत्रिकाओं का संपादन भी किया। देश का सर्वोच्च साहित्यिक सम्मान
ज्ञानपीठ पुरस्कार उन्हें मिल चुका है जिसकी सम्मान राशि में अपनी ओर
से धन मिला कर ‘वत्सल निधि’ की स्थापना की। साहित्य अकादेमी,
भारत-भारती, अन्तर्राष्ट्रीय गोल्डन रीथ आदि अनेक
राष्ट्रीय-अन्तर्राष्ट्रीय पुरस्कारों से सम्मानित। अमेरिका, यूरोप,
एशिया के अनेक देशों में अध्यापन, व्याख्यान एवं काव्य पाठ। ‘अज्ञेय’
के कृतित्व एवं साहित्यिक अवदान को याद करने के लिए पन्ने भर जाएँगे
फिर भी उसकी पूरी व्याख्या नहीं की जा सकती।
अज्ञेय के साहित्य की विपुलता स्तब्ध करती है और उसके द्वारा गहरे
पानी पैठने को प्रेरित करती है। उनकी किताबें बाज़ार में हैं लेकिन
सारे कृतित्व की मुकम्मल तस्वीर तभी बनती है जब सब पर दृष्टि डाली
जाएे। प्रसन्नता की बात है कि उनकी रचनावली भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा
प्रकाशित की जा रही है।
तब फिर इस संचयन की ज़रूरत क्या थी? ज़रूरत थी और अत्यधिक थी।
क्योंकि समूची रचनावली हर किसी के वश में नहीं होगी कि वह ख़रीद सके
और अगर अलग-अलग संग्रह या पुस्तकें प्राप्त की जाएँ तो समग्रता में
‘अज्ञेय’ जी को नहीं देखा जा सकता। दूसरे, जो पिपासु पाठक वर्ग है,
छात्र वर्ग, उसके लिए अलग-अलग रचनाएँ इकट्ठा कर ‘अज्ञेय’ की समग्रता
को समझना असम्भव है। इसलिए मेरी यह मंशा हुई कि ‘अज्ञेय’ को समग्रता
में समझने के लिए एक ऐसा संचयन तैयार किया जाएे जिसमें ‘अज्ञेय’ जी
के रचना-संसार को बानगी के रूप में ही सही, देखा जा सके। इस बात को
ध्यान में रखकर यह संचयन तैयार किया गया।
यह संचयन न तो ‘अज्ञेय’ जी की रचनाशीलता का क्रम निर्धारण करने के
लिए है और न इस दृष्टि से इसे देखा जाना चाहिए। सिर्फ़ ‘अज्ञेय’ अपने
रचना-वैविध्य के साथ उपस्थित हैं, यही इस संचयन का लक्ष्य है।
प्रारम्भ ‘कविता’ से किया गया है क्योंकि कविता की दुनिया में
‘अज्ञेय’ ने सबसे ज़्यादा प्रयोग किये और उसके अनुयायी बनाये।
उन्हें समझने में चूकें हुई हैं। उन पर लांछन लगते रहे कि वे अमरीकी
सरकार के पिट्ठू हैं, उन्हें वहाँ से धन मिलता है। किन्तु मेरे जैसे
अनेक अज्ञेय-प्रेमी यह जानते हैं कि ‘अज्ञेय’ में स्वाभिमान किस सीमा
तक उदग्र था। जो व्यक्ति अपने देश की आज़ादी के संघर्ष में बम बना
सकता है, जेल जा सकता है, वह अपने साहित्यिक अवदान के लिए
परमुखापेक्षी होगा, इसकी कल्पना तक नहीं की जा सकती। डॉ. कृष्णदत्त
पालीवाल ने अपनी कृति ‘अज्ञेय : कवि कर्म का संकट’ में लिखा है :
‘‘कैसा दुर्भाग्य है कि हिंदी आलोचना अज्ञेय को विदेश का नकलची ही
सिद्ध करती रही। अथवा व्यक्ति स्वातन्त्र्यवाद का समर्थक कहकर नीचट
कलावादी सिद्ध करती रही। उन्हें परंपरा भारतीयता, भारतीय आधुनिकता,
नवीन प्रयोगधर्मिता, शब्द का सच्चा पारखी, सम्पूर्ण अर्थ में
सांस्कृतिक अस्मिता और जातीय स्मृति से जोडक़र समझने में असमर्थ रही
है।’’
अज्ञेय शब्द से परे जाकर घोषित करते हैं: ‘‘शब्द में मेरी समायी नहीं
होगी, मैं सन्नाटे का छन्द हूँ।’’
अज्ञेय अपने जीवन भर किसी विचारधारा की गुलामी स्वीकार करने को तैयार
नहीं रहे, बल्कि यह स्वीकार किया कि ‘‘मैं वह धनु हूँ... जिसे साधने
में प्रत्यंचा टूट गयी है।’’
इस टूटी प्रत्यंचा वाले धनु ने अपने स्वाभिमान को झुकने नहीं दिया,
रचना में शब्दों के भीतर का सच पहचाना और उसे मुखर किया। यह मुखरता
भारतीयता की मुखरता है जिसमें मनुष्य तो है ही, उसके लीलानामक,
पर्व-तीर्थ-नदियाँ सभी उपस्थित हैं। यही नहीं ‘अज्ञेय’ की रचनाओं में
पशु-पक्षी जगत भी बहुत है। पूरी प्रकृति से तदाकार हैं ‘अज्ञेय’,
जिसे आज काटा-उजाड़ा जा रहा है। ‘अज्ञेय’ उस दर्द को शब्दों की चीख़
बना देते हैं।
जीव जगत में अज्ञेय ने ‘साँप’ पर अनेक कविताएँ लिखी हैं। लगता है कि
अपने ऊपर लगे लांछनों को कवि ने उसी प्रतीक से देखने की कोशिश की है।
एक कविता तो बहुत ही ज़्यादा प्रसिद्ध हुई है:
‘‘साँप तुम सभ्य तो हुए
नहीं,
नगर में बसना भी तुम्हें नहीं आया
एक प्रश्न पूछूँ? उत्तर दोगे?
तब फिर कैसे सीखा डसना
यह विष कहाँ पाया?’’
अनेक लोग अच्छी तरह जानते
हैं कि ‘अज्ञेय’ को किसने कितना और कहाँ-कहाँ डसा, लेकिन ‘अज्ञेय’
बहुत गहरे मनुष्य थे, कभी किसी का नाम नहीं लिया।
मुझे प्रसन्नता है कि मैं ऐसे गहरे, अन्तर्वर्ती प्रवृत्ति वाले
रचनाकार के सम्पर्क में रहा। याद करूँ तो मेरी उनसे पहली मुलाकात
इलाहाबाद में, जब वे नए-नए बने एक्सप्रेस अपार्टमेंट्स में रहते
थे, तब उनके बरामदे में हुई थी जहाँ मैं भारती जी के संपादन में
निकलने वाले अद्र्धवार्षिक संकलन ‘निकष’ की सामग्री लेने जाता था।
वात्स्यायन जी अपने छोटे या बड़े सभी को यथोचित आदर देते थे, लेकिन
अपने स्वाभिमान और लेखकीय गरिमा को कभी झुकने नहीं देते थे। एक
प्रसंग याद आ रहा है। इस देश में तब प्रतापचन्द्र ‘चन्दर’ नामक लेखक
शिक्षामन्त्री था और कानपुर विश्वविद्यालय के पदाधिकारी के नाते वहाँ
के वरिष्ठ रचनाकार श्री गिरिराज किशोर को अनैतिक ढंग से सताया जा रहा
था। वात्स्यायन जी को यह बात नागवार गुज़र रही थी और गिरिराज जी के
अनेक मित्र इस से दुखी थे। गिरिराज की इच्छा थी कि यह बात
शिक्षामन्त्री तक पहुँचायी जाए और हो सके तो वात्स्यायन जी जैसा बड़ा
लेखक उनसे इस चूक की ओर इंगित करे। अन्तत: मैंने वात्स्यायन जी से
प्रार्थना की और वे इस बात को सहर्ष मान गये।
हम लोग वात्स्यायन जी की अगुआई में ‘शास्त्री भवन’ गये और उनके सामने
सारा केस रखा।
प्रतापचन्द्र ‘चन्दर’ इससे बिलकुल न पसीजे और बात खंडित हो गयी।
वात्स्यायन जी ‘‘लौट आये समन्दर की मानिन्द हम, ले के अपने इशारों की
तनहाइयाँ’’। वात्स्यायन जी ने कहा कि मुझे अफसोस है, इस देश का
शिक्षामन्त्री ऐसा गैर सरोकारी शिक्षामन्त्री है जो शिक्षा के
क्षेत्र में हो रहे एक अन्याय को दूर करने में अपने को अक्षम पाता
है। वात्स्यायन जी का तमतमाया हुआ चेहरा देखने क़ाबिल था।
वात्स्यायन जी जब दिल्ली आकर मोती बाग़ में रहने लगे तो उनसे एक ऐसी
दोपहर में, तमतमाती हुई दोपहर में, मुलाक़ात करने गया जब मैं मुम्बई
(जो तब बम्बई था) रहने लगा था। वात्स्यायन जी मेरे जैसे युवा से उस
दोपहर में मिलकर मुझे धन्य कर गये। संयोग से जब मैं भी दिल्ली आकर बस
गया तो उनसे असंख्य मुलाक़ातों का क्रम चला। कभी इंडिया इंटरनेशनल
सेंटर कभी कनाट प्लेस, कभी ग्रीन पार्क, कभी निज़ामुद्दीन और फिर
अन्तिम दिनों में उनके निवास में जहाँ से उन्होंने हम सबसे अन्तिम
विदा ली।
उनकी एक मुलाक़ात कभी भुलाये नहीं भूलेगी जब मेरे मन में यह पहचान
करने की हठ ठन गयी कि देखें, वात्स्यायन जी भी कभी हमें याद करते हैं
या नहीं। अबोला दो तीन हफ़्ते टला जब लखनऊ से भगवतीशरण सिंह आये और
उनके जाते ही वात्स्यायन जी का फोन आया कि ‘‘नंदन जी, अवधी में
‘फलाँ’ शब्द को क्या कहते हैं।’’
शब्द तो ख़ैर मैं क्या बताता उस शब्द-शिल्पी को लेकिन पश्चाताप से
मेरे आँसू छलक पड़े। तत्काल मिलने का तय हुआ और मेरी सुविधा से
इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में मिलना तय हुआ।
वे मनुष्य को बहुत गहराई से प्यार करते थे और उसका आदर करते थे।
संपादकीय दायित्व इस सीमा तक निभाते थे कि किसी संपादक को रचना छपने
के लिए देते हुए उसका नख-शिख दुरुस्त करके देते थे। नवभारत टाइम्स को
रचनाएँ प्रकाशनार्थ प्राप्त करते समय के इसके अनेक उदाहरण मेरे पास
हैं।
मैं अपनी बात को यहीं विराम देकर उनकी स्मृति को प्रणाम करता हूँ और
सन् 2011 को उनकी जन्मशती के सन्दर्भ में यह संचयन हिंदी जगत को
अर्पित करता हूँ।
कन्हैयालाल नंदन
132, कैलाश हिल्स
नई दिल्ली
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