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सौजन्य : भारतीय ज्ञानपीठ

अज्ञेय रचना संचयन
(मैं वह धनु हूँ...)
संकलन एवं संपादन- कन्हैयालाल नंदन
संवाद : नंदकिशोर आचार्य

1.रमेश चंद्र शाह 2.नंदकिशोर आचार्य* 3.विश्वनाथ प्रसाद तिवारी 4.कन्हैयालाल नंदन

नन्दकिशोर आचार्य के साथ संवाद
*[यह संवाद दिसम्बर-1985 में दिल्ली में हुआ]


आचार्य : वात्स्यायन जी, पहला सवाल जो मैं करना चाहता हूँ, वैसे तो आपके पाठक के नाते मुझे उसे आपकी रचनाओं से ही जानना चाहिए। पर कुछ बातें आपने अन्यत्र कही हैं उनके साथ जोड़ कर देखता हूँ तो एक सवाल मेरे मन में उठता है कि एक कलाकार के रूप में, एक कवि के रूप में आपका मुख्य सरोकार क्या है? यह सवाल मैं इसलिए पूछना चाहता हूँ कि बोधगया शिविर में मुझे याद पड़ता है आपने कहा था कि कलाकार रूप की रचना करता है। बल्कि और सब चीज़ें तो समाज में हैं पर यह काम है जो वह करता है। दूसरी ओर कई दफा आपने कहा है कि वह मूल्यान्वेषण करता है, तो वह मुख्य सरोकार रूप की रचना है या मूल्यान्वेषण, आप कैसे इसे देखते हैं?

अज्ञेय : देखिए, पहला जवाब तो आप जानते हैं। वह यह कि कवि की रचनाएँ जो कहती हैं, और कवि उनके बारे में जो कहता है उसमें दोनों में सामंजस्य ढूँढऩा आपको ज़रूरी जान पड़े तो कम से कम कवि से उसमें कोई मदद नहीं मिल सकती। यह बिलकुल सम्भव है कि कविता के बारे में कवि जो कहता है उसमें आपसी अन्तर्विरोध भी हो, समय-समय पर कही हुई बातों या एक समय में कही हुई बातों में भी। रचना में और उनमें अन्तर्विरोध भी उतना ही स्वाभाविक है। रचना और दूसरी रचना में वैसा नहीं होता जब तक कि दोनों का हम रचना के स्तर पर विचार करते हैं। क्योंकि आपने सवाल इस रूप में पूछा है इसलिए भी जवाब रिकार्ड कर देता हूँ लेकिन आप जानते ही होंगे। दूसरी बात यह है कि अगर आप ही दो बातों तक सीमित कर देते हैं तो मुझे लगता है कि जो कुछ मैं कहता या सोचता या करता रहा हूँ उसमें आप सिर्फ दो विकल्प क्यों रख रहे हैं? रूप की रचना करता है, मूल्य की चिन्ता करता है और इसके अलावा और भी बहुत-से काम कवि या कि उसकी रचना करती है। लेकिन अगर रूप को व्यापक अर्थ में लें तो उसमें इनको शामिल किया जा सकता है। मूल्यों की चिन्ता भी आखिर रूप की रचना में योग देती है। रूप का एक पहलू यह है कि कविता जब एक चीज़ बनकर लिखे हुए या छपे हुए रूप में पृष्ठ पर आती है तो एक रूप वो वह है जो आप देख सकते हैं। एक उसका मानस-बिम्ब है। एक उसके बाद ऐसा भी बिम्ब है जिसमें उसके चाक्षुष बिम्बों का एक प्रतिरूप भी होता है और मूल्य-दृष्टि की भी छाप उसमें होती है। यह जो बनता है वह मूल्य-दृष्टि को छोड़ कर नहीं है उसको सम्मिलित करके ही है। पूरा का पूरा समाज ही उस रूप का अंश हो जाता है। कविता में उस रूप के माध्यम से कवि का पूरा परिवेश भी होता है और वह पहचानता भी जाता है। आखिर जिस कवि के बारे में हम कुछ नहीं जानते उसके जीवन की परिस्थितियों को हम उसी रूप की खिडक़ीे में से पहचानते हैं। इसका मतलब है वह वहाँ पर है। वह रूप की रचना करता है। इसका यह मतलब नहीं है कि कोई बुनियादी विरोध इस बात का दूसरी बात के साथ है कि वह मूल्य का चिन्तन भी करता है। सवाल का जवाब सोचने का एक दूसरा तरीका भी है कि आप यह सवाल उठाएँ कि कवि क्या-क्या नहीं करता। या कि हम सभी मान लेते हैं और आप भी प्रश्नकर्ता के रूप में भी मान लेंगे कि कवि रचना करता है तो किस चीज़ की रचना करता है? समाज की रचना वह नहीं करता, परिवेश की रचना वह नहीं करता, मूल्यों की रचना वह बहुत आंशिक रूप में ही करता है, बहुत-सी कविताएँ ऐसी होती है जिनमें नहीं करता है या नहीं कर रहा दीखता है। भाषा की भी रचना वह नहीं करता है। एक-आध शब्द या कि जीवन भर में 10-20 शब्द रच दे तो बहुत बड़ी बात होती है। शब्दों में अर्थ की रचना करता है तो उसी के सहारे वह रूप रचता है। तो जब उनमें से कोई भी रचना वह नहीं करता तो आखिर किस चीज़ की रचना करता है। या तो हम यह कहना छोड़ दें कि वह रचना करता है, उसको सिर्फ कारीगर मान लें। जैसे बढ़ई कुछ चीज़ों को जोड़ कर कुछ बना देता है वैसे ही कवि भी बना देता है। यह नहीं कि वह यह काम कभी नहीं करता। यह भी उसके काम का एक अंश होता है।

हाँ, क्राफ्ट भी एक अंश है।

हाँ, रचना वह करता है तो फिर यह सवाल उठता है। उसी के अधीन यह भी है कि वह एक दिक् की भी रचना करता है और काल की भी रचना करता है। दिक् और काल की रचना करते हुए दोनों से मुक्तिकी सम्भावना भी दिखाता है यानी मुक्ति की भी रचना करता है। लेकिन सब की सब रूप के नाते।

यह सवाल मैंने इसलिए पूछा दरअसल कि कई दफ़ा इस बात को लेकर जब हम कला का मूल्यांकन करते हैं या उसका रसास्वाद करते हैं तो उसके साथ भी एक सवाल मूल्यों का जुड़ा रहता है कि सभी कवि, सभी कलाकार रूप की रचना करते हैं लेकिन उनकी जो मूल्य-चिन्ता अलग-अलग दिशा में जाती है ऐसा महसूस किया गया देखा गया। तब यह सवाल उठता है अगर हम यह मान लें कि रूप की रचना में मूल्य की चिन्ता शमिल है या मूल्य की आंशिक रचना भी रूप की चिन्ता में शमिल है तब भी यह सवाल उठता है कि फिर उसकी कला की उत्कृष्टता की या उसकी कसौटी क्या हो? यह सवाल मैं इसलिए पूछ रहा हूँ कि इस बात को लेकर के अच्छे आलोचकों ने और कवियों ने भी अक्सर इस तरह के वक्तव्य दिये हैं, उदहारण के लिए आपके ही संपादन में ‘तीसरा सप्तक’ में विजयदेव नारायण साही ने एक वक्तव्य दिया था जिसमें नीत्शे के बारे में उन्होंने कहा कि उनके विचारों को वह जला देने लायक समझते हैं लेकिन एक काव्यकृति के रूप में उनकी पुस्तक वह हमेशा अपने साथ रखना चाहते हैं। भगवतशरण उपाध्याय ने ठीक वही बात आपके उपन्यासों के बारे में कही है कि वे कला की दृष्टि से बहुत उत्कृष्ट हैं लेकिन वे मूल्य-दृष्टि से सहमत नहीं। ऐसी स्थिति में उत्कृष्टता का क्या प्रमाण होना चाहिए? स्वयं आपको किसी ऐसे द्वन्द्व का सामना करना पड़ा है? आप तो बहुत पढ़ते भी रहे हैं?

एक तो बात यह है कि विचार से सहमत या असहमत भी हुआ जा सकता है। और कोई यह कह सकता है कि मैं इन विचारों से सहमत नहीं हूँ लेकिन रूप में सहमत या कि असहमत नहीं हुआ जा सकता। या तो आपको दीखता है या कि आप को नहीं दीखता है। आप यह नहीं कह सकते कि मैं इसे देखने से असहमत हूँ। जो दीखा उसका भी मूल्यांकन करने के बारे में आपकी दृष्टियाँ अलग-अलग हो सकती हैं। मैं समझता हूँ कि इस तरह की बात कोई कह सकता है और वह अर्थहीन नहीं है। कोई कह सकता है कि मैं इस अमुक व्यक्ति के विचारों से सहमत नहीं हूँ। लेकिन विचारों से सहमत नहीं हूँ यह बात वास्तव में रचना के बारे में नहीं है, यह तो उस व्यक्ति के विचारों के बारे में है-जिसकी रचना उसने नहीं की है। रचना के माध्यम से विचार भी व्यक्त हुए तो आप हुआ कीजिए विचारों से असहमत! विचारों को एक तरफ़ रखकर भी रचना पर विचार हो सकता है और यह विचार कर लेने के बाद फिर विचारों को उसके साथ जोड़ा जा सकता है कि यह जो आधार होना चाहिए रूप को देखने, परखने का, उस पर यह खरी उतरती है लेकिन उसका इस्तेमाल जिन विचारों को प्रकट करने के लिए किया गया है वे हमको स्वीकार नहीं है। मैं तो ऐसी बहुत-सी कविताओं का प्रशंसक हूँ जिनमें ऐसे विचार व्यक्त किये गये हैं जो कि मुझको अमान्य हैं।

कुछ उदाहरण देंगे इस तरह के?

इससे क्या अन्तर पड़ेगा! नीत्शे भी एक उदाहरण है ही। मैं भी यह बात मान सकता हूँ कि मैं इन विचारों से सहमत नहीं हूँ लेकिन विचारों से असहमति प्रकट करते हुए भी मैं यह कहना चाहूँगा कि नीत्शे की रचनाओं में एक अन्तर्दृष्टि भी है जिसका कि मूल्य है। उस अन्तर्दृष्टि को तो मैं स्वीकार करता हूँ, उससे बहुत गहराई में उन ची$जों को देखा और पहचाना गया है जिन चीज़ों को लोगों ने उनसे पहले नहीं देखा था। पर उसके बाद, विचार के द्वारा उस अन्तर्दृष्टि से जिन परिणामों तक वह पहुँचा वे परिणाम आपको अस्वीकार भी हो सकते हैं। लेकिन जो उसको दीखा, उसका महत्त्व तो फिर भी बना रह सकता है। आप दूसरे परिणाम निकाल सकते हैं लेकिन यह तो मानना होगा कि उसने कुछ देख लिया जो कि उससे पहले कोई देख नहीं पा रहा था।

तो क्या यह मानें कि कला की उत्कृष्टता के लिए फिर विचारों पर या कवि की मूल्य-चिन्ता किस दिशा में जा रही है उस पर अधिक विचार नहीं किया जाना चाहिए? यह सवाल मैं इसलिए भी पूछ रहा हूँ कि आप भी यह मानते रहे हैं कि कविता का, साहित्य का, कलाओं का असर संवेदना के बदलाव पर पड़ता है।


हाँ, रचना संवेदन को एक नया संस्कार देती है। चीज़ों को देखने, पहचानने-समझने, उनके प्रतिकृत होने की प्रक्रिया दूसरी हो जाती है। इस दृष्टि से तो उसका महत्त्व है; और इस दृष्टि से इसका विचार होना चाहिए कि कविता क्या करती है। क्या है, इसका विचार अपनी जगह है। क्या करती है, इसका विचार अपनी जगह है। वह भी होना चाहिए। लेकिन केवल उतने तक सीमित नहीं रहना चाहिए।

लेकिन जब विचारों की वांछनीयता या संवेदना की दिशा की वांछनीयता का, सवाल उठता है तब सामाजिक सन्दर्भ में वह सवाल इतना महत्त्वपूर्ण हो जाता है कि किसी कलाकार के विचारों की अनेदखी भी नहीं की जा सकती। अगर कभी लगता है कि वे विचार अस्वस्थ हैं तो उसे उत्कृष्ट कलाकार मानने में या उस कला को मानने में कुछ संकोच-सा होने लगता है। ऐसा नहीं होता?

नहीं, एक तो वांछनीय आप कहते हैं तो इस शब्द के आशय पर विचार होना चाहिए। यानी कोई एक परिणाम है जो कि आप का काम्य है। आपके लिए वह चीज़ वांछनीय है जो आपको आपके चाहे हुए फल देती है। यह ज़रूरी तो नहीं है कि कवि ने भी वही चाहा हो या कि रचना भी वही चाहती हो। तो वह प्रभाव आपकी दृष्टि से अवांछनीय होगा। लेकिन यह भी बिलकुल सम्भव है कि समग्र मानव के लिए यह कल्याणकारी भी हो। अस्वस्थता की बात : अगर कोई भी एक जो साधारण स्थिति या कि अवस्था या मानसिकता है उससे इधर-उधर जाना, किसी भी हद तक असाधारण होना भी अस्वस्थता है, तब तो कभी कोई कवि स्वस्थ नहीं होता, कोई रचना स्वस्थ नहीं होती!

इस अर्थ में मैं नहीं कह रहा हूँ। मैं उसी अर्थ में कह रहा हूँ जिसमें विचार आप को अमान्य हैं। या इस तरह के और भी लेखक हो सकते हैं जिनके विचारों में कुछ रुग्णता लगे लेकिन यह लगे कि कलाकार बड़े हैं, कलात्मक उत्कृष्टता उनमें है। तो ऐसी स्थिति में अगर उनकी आलोचना-बल्कि मैं तो कहूँगा कुछ लोग भर्त्सना भी करते हैं जो मैं ठीक नहीं मानता-पर आलोचना अगर होती है इस आधार पर तो उसे क्यों गलत माना जाए?

नीत्शे का ही एक उदाहरण सामने रखें तो उसने पूरी पश्चिमी सभ्यता के ही एक बहुत बड़े रोग को पहचाना। वह स्वयं भी स्वस्थ नहीं था। रोगी था-काफ़ी विकट रूप में रोगी था : उस रोगी का भी रोग था जिसको उसने पहचाना! उसके अलावा ऐसे रोगों का जो कि उससे जुड़े हुए थे उनका भी रोगी था। लेकिन वह पहचान उसने की जो पहले नहीं थी। तो हम उसको रोगी तो मानते हैं लेकिन उस पहचान का महत्त्व स्वीकार करते हैं क्योंकि वह पहचान मनुष्य के, मानव मात्र के, स्वास्थ्य में योग दे सकती है।

हाँ, यह कह सकते हैं कि उस रुग्णता की पहचान वह साहित्य में कराता है। इस दृष्टि से तो वह काम का हो सकता है। पर उसका समाज पर जो असर पड़ता है उसे हम कैसे ठीक मानें? यह सवाल इसलिए मैं और पूछना चाह रहा था कि आपने ही एक दफा कहा था...

नीत्शे का प्रभाव समाज पर पड़ा। जिस तरह की आलोचना का उल्लेख आप कर रहे हैं वह भी उसी समाज में से आ रही है जिसका नीत्शे एक अंग था, जिसको उसने प्रभावित किया-और समाज का बहुत बड़ा भाग, आलोचकों में भी अधिसंख्य लोग, उसकी अन्र्दृष्टि से प्रभावित हुए-जो कि अच्छा प्रभाव है।

नहीं, मैं यह सवाल इसलिए भी पूछना चाह रहा था कि एक दफ़ा आप ही ने अपनी एक टिप्पणी में यह कहा है कि सौन्दर्य-बोध और शिवत्व-बोध दोनों साथ ही रहते हैं। क्योंकि वे एक ही चेतना की उपज हैं। क्योंकि एक कलाकार जब सौन्दर्य की रचना करता है तो शिवत्व का भाव उसमें सन्निहित रहता है क्योंक वह एक ही चेतना में रचता है। तो ऐसी स्थिति में अगर सौन्दर्य-बोध में और मूल्य-बोध में हमें कोई द्वैत दिखाई देता है या ऐसा लगता है कि सौन्दर्य-बोध से हम सहमत हैं और मूल्य-बोध से हम सहमत नहीं हैं, तो क्या यह रचने वाली चेतना या ग्रहण करने वाली चेतना दोनों मे से कहीं किसी का कोई द्वैत नहीं दीखता?

जहाँ तक मुझे याद है कि उस लेख में भी मैंने यही कहा है कि मैं चाहता हूँ कि इन दोनों में कोई विरोध न हो, और मैं मान सकूँ कि कोई विरोध नहीं है या विरोध नहीं होता तो इसका मतलब यह है कि उसका कोई प्रमाण मैं नहीं प्रस्तुत कर सकता। वहाँ भी मुझे यह लगा कि इसको प्रमाणित नहीं किया जा सकता कि वास्तव में ऐसा है। मैं चाहता हूँ कि रचना ऐसी ही हो कि दोनों कसौटियों पर खरी उतरे। मैं सोचता हूँ कि अब भी स्थिति तो वहीं है; दोनों कसौटियाँ कविता पर लागू की जा सकें और दोनों पर कविता खरी उतरे तब हम उसको पूरी तरह स्वीकार करें। उसमें यह शंका निहित है कि ऐसा नहीं भी हो सकता है। तब हम क्या करें? इसका कोई सामान्य उत्तर तो फिर मैं नहीं दे सकता। यह उत्तर जरूर बनता है कि तब फिर उस पर विचार करें कि किस दृष्टि से हम उसको महत्त्व दें और कहाँ तक इसको मर्यादित भी करें। कुछ रचनाओं के बारे में यह कह सकते हैं कि यह सुन्दर तो नहीं है लेकिन यह जो बात कह रही है वह ठीक बात कह रही है, हमारे काम की है। क्या यह कहना उसको रचना के या कला के क्षेत्र से बाहर कर देना होगा? मुझे लगता है कि हाँ, ऐसा होगा, लेकिन इसको लेकर कोई बहुत दावा नहीं करना चाहता हूँ। दूसरी तरफ़ क्या किसी रचना के बारे में यह कहा जा सकेगा कि ‘सुन्दर है और हमारे संवेदन को छूती है लेकिन शायद कल्याणकारी नहीं’? निश्चय ही ऐसी रचनाएँ होती हैं। बल्कि आज-कल अधिकतर जो रचनाएँ सामने आती हैं उनके बारे में यही कहा जा सकता है कि संवेदन को छूती हैं, प्रभावित भी करती हैं, लेकिन शायद शिव नहीं है। तो उनको क्या कहा जाये? उनके बारे में भी अन्तिम रूप से यह निर्णय दे देना कि ये इसलिए कला नहीं हैं, इसमें मुझे थोड़ा संकोच होगा।

इन दोनों में से जब आप को चुनाव करना होता है, आपकी प्राथमिकता का सवाल होता है, तो मुझे लगता है कि आप उस रचना को अधिक महत्त्व देते हैं जो कि कला है चाहे उसमें उसके विचार आपकी दृष्टि से मान्य न हों। दूसरी ओर ऐसी रचना के विचार जो आपको मान्य हों और कल्याणकारी लगते हों लेकिन कला की दृष्टि से जो सुन्दर न हों उसे आप कम महत्त्व देते हैं। या नहीं देते हैं?

शायद यह बात ठीक है। एक तो मूल्य-दृष्टि समय-सापेक्ष यानी समाज-सापेक्ष है। समाज-सापेक्ष है, इसका मतलब यह तो है ही कि समय-समय पर बदलती है। इसका यह भी मतलब है कि उसको अस्वीकार कर देना हमेशा समाज के बस की बात है। लेकिन इससे अलग अगर कोई सौन्दर्य-बोध है तो वह समाज-सापेक्ष नहीं है, वह व्यक्ति-सापेक्ष है। इसलिए उसको महत्त्व देना रचना का अंग हो जाता है। अगर कोई चीज़ सामाजिक मूल्यों से अलग सुन्दर या असुन्दर हो सकती है तो उसका सौन्दर्य जो देखता है उसका वह देखना अद्वितीय देखना है। फिर उसके बाद अगर मूल्यों की दृष्टि से वह घटिया है तो समाज उनको अस्वीकार कर सकता है। लेकिन अगर वह देखने से इनकार कर देता है तब वह समाज की एक क्षति है जिसकी पूर्ति समाज नहीं कर सकता।

इसी के साथ एक और सवाल जो मुझे लगता है जुड़ा हुआ है वह परम्परा का सवाल है। क्योंकि जब आप समाज की सौन्दर्य-दृष्टि की बात करते हैं और उसकी सामाजिक संवेदना की बात करते हैं तो वह समाज की एक परम्परा का सवाल है : कोई भी समाज एक परम्परा में जीवित रहता है और उसकी मूल्य-दृष्टि और सौन्दर्य-दृष्टि दोनों के रूपायन में उस परम्परा का बड़ा योगदान रहता है। और आप मानते हैं कि एक कवि भी परम्परा से मुक्त नहीं हो सकता; वह लगातार उसी में रहता है। उसी का नया सर्जन करता है लेकिन उसी में रहता है। इस बात को दूसरी तरह से भी आपने कहा है कि कविता कविता में से निकलती है और रूप रूप में से निकलता है। पर दूसरी ओर आपने कुछ जगहों पर यह भी कहा है कि स्थितियों में, सामाजिक स्थितियों में, सामाजिक सन्दर्भों में जो परिवर्तन होता है वह कविता में परिवर्तन करता है। शायद ‘तार सप्तक’ की-या पूरा नहीं याद आ रहा है कि किस सप्तक की-भूमिका में यह बात उठी है कि इसी परिवर्तन के कारण कवि नयी प्रणालियाँ खोजता है सम्प्रेषण की। तो क्या इन दोनों में आप कोई विरोध नहीं देखते या इन दोनों को आप एक साथ सच मानते हैं?

इनमें विरोध कहाँ है!

इसलिए कि फिर कविता क्यों बदलती है? कविता में परिवर्तन कविता के अपने दबाव की वजह से होता है या सामाजिक परिवर्तन की वजह से होता है?

देखिए, एक तो कविता कविता में से निकलती है, और जब निकलती है तो उस परम्परा में जुड़ जाती है जिसमें से और कविताएँ निकलेंगी-यानी वे थोड़ी-सी बदल गयी हैं। परम्परा लगातार बदलती जाती है इसलिए कि वह किसी चीज़ को मिटाकर उसका स्थान नहीं लेती बल्कि उसमें जुड़ कर उसका रूपान्तर कर देती है। और स्मृति में तो वह सारी चीज़ बनी रहती है। लेकिन सिर्फ परम्परा बदल रही है, या कविता में से कविता निकलने के कारण वही बदल रही है, ऐसा तो नहीं है। ग्रहीता का संवेदन भी तो लगातार बदल रहा है; कविता ग्रहण करने के नाते बदल रहा है और बाहर के कारणों से भी बदल रहा है। इसका मतलब यह है कि सम्प्रेषण की शैलियाँ और उसकी जरूरतें भी बदलती जाती हैं। तो कविता में से कविता निकलने के कारण जिस तरह के परिवर्तन अपेक्षित होते हैं उसके अलावा और भी परिवर्तन अपेक्षित होते हैं सम्प्रेषण की स्थितियाँ बदल जाने के कारण। तार सप्तक में शायद मैंने दूसरे तक पहुँचने की बात पर इतना बल नहीं दिया था; बाद में अधिक जोर उस पक्ष पर दिया है। दूसरे तक पहुँचने की इच्छा और उसके सामथ्र्य की पहचान को मैं रचना-कर्म का अनिवार्य अंग मानता हूँ। अपने को कह देना ही काफ़ी नहीं है। यह विश्वास उसके साथ बनना चाहिए कि अगर अपने को कहा तो कहने का मतलब ही यह है कि दूसरों तक पहुँचने योग्य उसे बनाया। दूसरे पक्ष का लगातार विचार भी कवि के कर्म के साथ मैं जोड़ देता हूँ। तार सप्तक में इतना आग्रह नहीं है। लेकिन महत्त्व इसको देता हूँ।

यह जो सम्प्रेषण की परिस्थितियों की बदलाव से कविता में बदलाव आता है उसके बारे में आपने कई दफा काफ़ी कुछ कहा है। खास तौर से वाचिक परम्परा से पठ्य परम्परा तक आने में कविता का जो परिवर्तन है उसके बारे में जब आपने कहा कि सम्प्रे्रषण की परिस्थितयों में और सम्प्रेषण के साधनों में जो परिवर्तन हुआ उसकी वजह से कविता में एक संरचनागत परिवर्तन सम्भव हुआ और वह बड़ा बुनियादी परिवर्तन था। अब इसको शरारत भरा सवाल न मानें, लेकिन मुझे कई दफा यह लगता है कि यह ठीक उसी तरह की बात है जो सामाजिक परिवर्तन के सन्दर्भ में माक्र्स ने कही थी, कि ‘मीन्स एंड टूल्स ऑफ प्रोड्क्शन’ में परिवर्तन होता है तो उससे समाज का सारा ढाँचा बदलता है और उस समाज की सारी संरचना में एक तरह का परिवर्तन आता है। तो इसी तरह आप जब ‘मीन्स एंड टूल्स ऑफ कम्युनिकेशन’ में परिवर्तन की बात करते हैं और उससे पूरी कविता में परिवर्तन की बात करते हैं तो क्या यह नहीं लगता कि काव्य-चेतना को एक बाहरी-आन्तरिक दबाव के बजाय एक बाहरी प्रभाव के द्वारा परिवर्तित आप मान रहे हैं?

नहीं। यह तुलना, ऐसा तो नहीं है कि नहीं हो सकती। इसमें तर्क के ढाँचे में एक समानता है। लेकिन मैंने वाचिक परम्परा की जो बात कही, उससे जो परिणाम मैंने निकाले, उनमें एक यह है कि जब हम वाचिक सम्प्रेषण से इस छपी और लिखी कविता की ओर आते हैं तब हमारी रूप की परिभाषा बदल जाती है और संरचना का महत्त्व हो जाता है। तो औजार के रूपान्तर से समाज में जो परिवर्तन आते हैं उनसे आपको तुलना करनी हो तो यह कहना होगा कि जैसे यहाँ पर रूपाकार बदला है वहाँ पर जो चीज़ बनायी गयी-अगर आप ‘बनाने’ में रचना और सिर्फ कारीगरी का भेद छोड़ भी दें तो-जो चीज़ बनायी गयी उसका सामाजिक महत्त्व कुछ दूसरा हो जाएगा। और-उस को समाज तक पहुँचाने की प्रक्रिया भी बदल जाएगी। और यह ठीक है कि यन्त्र के द्वारा या कि बड़े पैमाने के यन्त्र से चीज़ें बनाये जाने से पहले जैसा होता था उसमें कारीगरी का (जब तक दस्तकारी के स्तर पर थी) एक कलात्मक मूल्य था जो कि बाद में नहीं रहा। बाद में वह चीज़ बिक्री के लिए हो गयी, जिंस हो गयी; उसके पहले उसका एक कलात्मक महत्त्व बना रहता था। तो तुलना का आधार यह होगा कि परिवर्तन तो हुआ; जो चीज़ श्रम के द्वारा बनायी जाती थी उसका समााजिक मूल्य उसके उपयोग से जुड़ गया। इस आधार पर तुलना आप कर सकते हैं, और आज कविता का क्या उपयोग होता है यह भी आप देख सकते हैं। लेकिन दूसरे स्तर पर वह बात लागू नहीं होगी।

नहीं, पर अगर कविता में उसकी वजह से कोई परिवर्तन सम्भव होता है तो क्या इससे यह नहीं सिद्ध होता कि चेतना पर औजारों का प्रभाव पड़ता है?

चेतना पर औजारों का प्रभाव भी पड़ता है इसलिए कि चेतना का एक अंग यह पहचान भी है कि इन औजारों से मैं क्या कर सकता हूँ? या कि जो मैं इन से कर सकता हूँ उसकी क्या सीमाएँ हैं जब तक मैं अपने को इन औजारों तक सीमित रखता हूँ।

लेकिन शायद उसकी दिशा की वे औजार नियन्त्रित नहीं करते-

नहीं करते। चेतना तो इससे बड़ी चीज़ है।

और वह औजार का अपने हित में इस्तेमाल करती है बजाय इसके कि औजार उसका इस्तेमाल करें। और वह किसी एक निश्चित दिशा की ओर हमेशा नहीं ले जाती। लेकिन एक फ़र्क़ जो मुझे दिखाई देता है वाचिक परम्परा की कविता में और अब जो कविता लिखी जा रही है उसमें, जैसे एक केन्द्रीय मुहावरा बन गया है; केन्द्रीय संवेदना तो युगों की रहती है और वह साहित्य में व्यक्त हो सकती है, लेकिन एक केन्द्रीय मुहावरा-सा बन गया है और इसका एक नतीजा यह हुआ है कि जो अलग-अलग इलाकों में रहने वाले हैं, जो अलग-अलग सामाजिक परिस्थितियों में रहने वाले कवि हैं, अलग-अलग परिवेश में-(प्राकृतिक परिवेश में भी उसमें शमिल करता हूँ)-रहनेवाले कवि हैं, उनकी कविताओं में जो विशिष्टता अलग-अलग परिवेश में रहने की वजह से दिखाई देनी चाहिए थी वह कम दिखाई देती है और एक सार्वभौम मुहावरा-सा इनकी कविता में दीखने लगा है। अगर कहीं भेद होता है तो विचारों की वजह से कुछ भेद नजर आता है। तो क्या यह स्वस्थ चीज़ है कविता के विकास के लिए?

देखिए, तर्क का जो रूप आप अभी बहस में लाये उसी का इस्तेमाल यहाँ करके कहूँ कि अगर आप यन्त्रोद्योग वाले तर्क कविता पर लागू करेंगे तो अनिवार्यतया यह परिणाम होगा कि-

उसी की ओर मैं संकेत करना चाह रहा था।

एक तो आप यन्त्र-विधियाँ बाहर से लाएँगे और उन्हें कविता पर लागू करेंगे, जैसे टेक्नोलॉजी इम्पोर्ट की जाती है, तो उससे एक एकरूपता तो आएगी ही। जहाँ कविता का ऐसा इस्तेमाल हो रहा है-टेक्नोलॉजी के स्तर पर आप मुहावरा भी ला रहे हैं, वहाँ उसमें एकरूपता भी आएगी बल्कि एक केन्द्रीय समानता तो अपेक्षित ही होगी। जिस तरह का वैविध्य और विचित्रता दस्तकारी के स्तर पर सम्भव होती है और काम में भी बनी रहती है, वह इस स्थिति में नहीं रह सकती। तो यहाँ पर फिर आप को चुनना होगा कि आप क्या चाहते हैं और उसके लिए आप कितना दाम देने को तैयार हैं। मैं उस पक्ष का हूँ जो कि दस्तकारी को फिर भी महत्त्व देगा : मैं कहूँगा कि टेक्नोलॉजी उतनी ही लानी चाहिए जितनी हमारे काबू में रहे-यह हमको स्वीकार नहीं है कि वह हम पर हावी हो जाए। और इसी तर्क को आप चाहें तो कविता के क्षेत्र में भी ला सकते हैं। क्यों कि बड़े-बड़े प्रेस हैं जो कि बहुत बड़ी ग्राहक-संख्या वाली पत्र-पत्रिकाएँ निकालने लगे हैं और उनको एक जिंस के रूप में कविता की भी ज़रूरत है। उनके लिए तत्कालीन लोकप्रिय मुहावरे में आप कविता, कहानी, उपन्यास सब कुछ रच कर देते चलिए! यह तो उस व्यवसाय का तर्क है। लेकिन अगर हम इस स्थिति की बात कर रहे हैं तो उस सम्भावना की बात करनी चाहिए जो कि इस परिस्थिति का या परिस्थिति के दबाव का मुकाबला भी कर सकती है और मानवता को इस टेक्नोलॉजी की गुलामी से बचाने की कोई आशा दे सकती है।

तो क्या पिछले कुछ अरसे से जो आप फिर वाचिक परम्परा का कुछ आग्रह करने लगे हैं और उसके तत्त्व-यह नहीं कि ठीक उसी तरह से वापस उसको पुनर्जीवित किया जाए लेकिन उसकी कुछ विशेषताओं को, उसके बुनियादी तत्त्वों को-आज की कविता के लिए महत्त्वपूर्ण मानते हैं-क्या उसकी वजह यही है?

यह विचार भी उसके साथ जुड़ जाता है, लेकिन वाचिक परम्परा की बात जो करता हूँ तो एक तो उसका सन्दर्भ यह है कि हमारा देश अभी तक दो-तिहाई निरक्षर है। दो-तिहाई तो बिलकुल निरक्षर है; इसका यह मतलब भी नहीं कि एक-तिहाई पुस्तकें पढ़ता है या पढ़ भी सकता है। साक्षर है, बस इतना ही है। जहाँ पढऩे वालों की संख्या इतनी कम है लेकिन साहित्य से या रचना से या काव्य से जुडऩेवालों की संख्या उन लोगों में भी काफ़ी है जो कि निरक्षर है, वहाँ ध्यान रहना चाहिए कि हमारे पूरे समाज का एक संस्कार अभी बचा हुआ है जिसका उपयोग हो सकता है। इस सांस्कृतिक संस्कार के आधार पर रचना को जन-साधारण तक यानी कि निरक्षर समाज तक भी पहुँचाने के लिए वाचिक परम्परा को महत्त्व देना चाहिए। सम्प्रेषण की विधियों के बारे में वहाँ से बहुत-कुछ सीखा जा सकता है-या कि सीखा हुआ, जाना हुआ तो वह है, उसको भुलाये जाने से बचाया जा सकता है। दूसरा कारण उस पर बल देने का यह हुआ कि जब जो नये संचार माध्यम आये हैं, जिनमें श्रव्य की सम्भावनाएँ बहुत हैं, ये वाचिक परम्परा का दूसरा और वर्तमान परिस्थिति में कहना चाहिए कि अँधेरा पक्ष हैं। क्योंकि वाचिक परम्परा में श्रुति का संस्कार रहा और सुनकर ही संस्कार ग्रहण किये जाते रहे; इसलिए अगर आज हम अपने कान को यन्त्रों का-और वह भी सरकारी या कि बड़े संगठनों के यन्त्रों का-गुलाम हो जाने देेते हैं तो हम उस पूरी वाचिक परम्परा की जो रचनात्मक सम्भावनाएँ थीं उनकी रचनात्मकता मिटाकर उनको भी गुलामी में परिवर्तित कर देते हैं। इससे बचने के लिए भी इस चीज़ पर बल देना चाहिए कि वाचिक परम्परा में रचनात्मक संस्कार बनाने की बहुत-सी सम्भावना है और उस सामथ्र्य की रक्षा इस परिस्थिति से करनी चाहिए।

यह जो अभी आपने नये संचार-साधनों की बात कही, इससे एक और बात मेरे मन में उठती है (जिसकी थोड़ी चर्चा जम्मू के शिविर में भी हुई)। यह जो नयी तरह की सम्प्रेषण परिस्थिति दूरदर्शन के जाल ने हमारे देश में पैदा की है, तत्काल ऐसा नहीं लगता कि इसे रोका जा सकेगा; लगता है कि लोगों का यह आकर्षण जो है वह इतना अधिक है, जन-साधारण का भी, कि लेखक अगर उसका सर्जनात्मक इस्तेमाल नहीं करता है या उस दिशा में नहीं सोचता है और इस नयी सम्प्रेषण परिस्थिति की सही पहचान अगर उसके साहित्य में विकसित नहीं होती और उसके अनुरूप वह नयी प्रणालियाँ नहीं खोजता है तो शायद उसकी कविता कुछ पीछे रह जाए। एक सिद्धान्त के रूप में अगर हम यह मान लें कि सम्प्रेषण परिस्थितियों में और साधनों में बदलाव से कविता में भी कुछ बदलाव आता है, तो अब किस तरह का बदलाव आप देखते हैं? क्या चीज़ उन नयी सम्प्रेषण-परिस्थितियों में आनी चाहिए?

अब जो मैं वर्तमान परिस्थिति में देखता हूँ-यह तो है कि इन चीज़ों का एक बड़ा प्रबल आकर्षण है, एक सम्मोहन-सा है टी.वी. का। केवल इसलिए नहीं कि एक स्टेटस सिम्बल बन गया है टी.वी. सैट, इसलिए भी कि माध्यम का सामथ्र्य है सीधे-सीधे लोगों तक पहुँचने का, घर में, झोंपड़ी के भीतर भी पहुँचने का। यह आपने देखा होगा कि पिछले वर्ष लगातार कितनी तेजी से दूरदर्शन का जाल, नेटवर्क के अर्थ में भी और-

जाल ही के अर्थ में कहना चाहिए!

जाल के अर्थ में भी कितनी तेजी से फैलाया गया और इस बात की कितनी प्रशंसा की गयी, इस बात का श्रेय लिया गया, कि सारे देश तक आवाज पहुँचाने की व्यवस्था हमने कर दी है। लेकिन इस बात को तो उतना स्पष्ट रूप से सामने नहीं लाया गया कि यह सारी की सारी एकतरफ़ा व्यापार की व्यवस्था है। एक केन्द्र से निकलने वाली आवाज देश के कोने-कोने की आवाज भी वापस केन्द्र तक पहुँचे, इसकी कोई चिन्ता नहीं थी। हालाँकि इसकी सम्भावना भी तो उसमें दूसरे पक्ष से निकलती है। जो जाल फैलाया गया है वह इसलिए है कि एक दिशा में प्रभावों का प्रवाह तेजी से और दूर-दूर तक हो सके। दूसरी दिशा में भी वैसा होना चाहिए, इसकी कोई खास चिन्ता नहीं है। लेकिन इसके बावजूद इसका बड़ा प्रबल आकर्षण है। तो यह स्थिति तो आएगी। इस पहचान में लोगों को समय लगेगा कि जितना इसमें सामथ्र्य है उससे जितनी सम्भावनाएँ खुलती हैं उतने ही उसके ख़तरे भी हो गये हैं। इस समय तो प्रयत्न यही है-सरकार का भी और समृद्ध संगठनों का भी-कि जल्दी से जल्दी इस शक्ति का उपयोग करके ऐसी स्थिति ले आयी जाये कि सुनने वाला हमेशा के लिए हमारा गुलाम हो जाए। अब कवि के लिए या साहित्यकारों के लिए प्रश्न यह बनता है कि या तो हम इसका विरोध करते हुए परिस्थिति से और इन सभी सम्भावनाओं से कट जाएँ, एक तरफ़ डाल दिये जाएँ-यह सम्भावनाएँ हैं और ऐसा हुआ भी है-या हम भी साथ बहते चलें।

हाँ, पर खतरा आखिर एक सर्जनात्मक चुनौती होता है।

सच्चाई यह है कि कवि का या कि साहित्यकार का आज के इस समाज में वह स्थान नहीं है, जो कि पहले कवि का होता था। न लोगों के बीच वह सम्मान है, और न वह शक्तिउसके पास है। दूसरा सवाल यह बनता है कि क्या कवि यह यत्न कर सकता है कि इस चीज़ में शामिल होकर उसको यथासम्भव इस परिस्थिति से उबार सके, बहाव में साथ बह कर उसे मोड़ दे सके? मैं नहीं जातना इसका क्या जवाब है, कि वास्तव में वह ऐसा कर सकता है या नहीं। लेकिन अगर कोई ईमानदारी से इसका प्रयत्न करना चाहता है तो मैं उस प्रयत्न का श्रेय उसको देने के लिए तैयार हूँ। करके देख ले कि क्या हो सकता है। और अगर वह यह नहीं करता, पर उससे अलग हो कर चाहता है कि टी.वी. के बिना भी या कि जिसके पास टी.वी नहीं है या जो नहीं देखते उन तक पहुँचे, तो उसके प्रयत्न को भी मैं अमान्य नहीें करता। मेरा खयाल है दोनों तरह की कोशिशें होंगी। कम से कम मैं यह नहीं कह सकता कि इनमें से एक गलत है और दूसरी सही है। दोनों होनी भी चाहिए। उन लोगों तक भी पहुँचना चाहिए जो कि यह नहीं मानते कि हम टी.वी. के बिना सभ्य समाज के अंग नहीं रहते, और उन लोगों तक भी पहुँचने की कोशिश करनी चाहिए जो टी.वी. को महत्त्व देते हैं-कि टी.वी. के माध्यम से भी कुछ अच्छे संस्कार लोगों तक पहुँचाये जा सकें-रचनात्मक या सांस्कृतिक जीवन के संस्कार। राजनीति की बात मैं नहीं कह रहा हूँ।

मैं जो बात इंगित करना चाह रहा हूँ वह यह भी है कि यह जो एक नयी सम्प्रेषण-परिस्थिति हमारे सामने पैदा हुई, इसके कारण से जो चुनौती कवि के सामने आती है जिसका मुकाबला उसे अपने माध्यम से ही करना है। उसी की मदद से करना है, तो उससे कविता में क्या कोई और रूपगत परिवर्तन की सम्भावना आप देखते हैं जैसी आपने वाचिक परम्परा से पठ्य परम्परा की कविता के सिलसिले में देखी? क्योंकि अगर एक समाज में लम्बे समय तक टी.वी. का प्रयोग होता है तो (चाहे कवि दूसरी तरह से पहुँचना चाहता रहे, मैं नहीं कहता कि वह न पहुँचे) समाज का जो ग्रहण-संस्कार है उसमें एक संरचनागत परिवर्तन भी लम्बे समय तक होता है। जैसा कि अखबार पढऩे वाला आदमी धीरे-धीरे सुनने की बजाय पढऩा पसन्द करता है। तो जैसे एक पठ्य परम्परा ने एक संरचनागत परिवर्तन कविता में किया, क्या उसी तरह का कोई परिवर्तन अब आप सम्भव देखते हैं?

कुछ परिवर्तन तो होगा। कुछ शायद हो भी रहा है-स्पष्ट तो नहीं हुआ है। जो हो रहा है। वह शायद अच्छा नहीं है। यानी रेडियो और टी.वी. पर, खास कर टी.वी पर, जिस तरह के कवि-सम्मेलन और मुशायरे होने लगे हैं...

वह तो वाचिका परम्परा या पठ्य परम्परा की ही चीज़ें सामने आती हैं वहाँ से-उसमें नया तो नहीं लगता है कुछ।

हाँ, लेकिन उस परम्परा की जो कमजोरियाँ थीं उनका ज्यादा उपयोग होता है, क्योंकि आग्रह तो लोकप्रियता की ओर है। क्योंकि इनकी लोकप्रियता का उपयेाग फिर दूसरे प्रयोजनों के लिए किया जाता है। ऐसे कार्यक्रम का स्पांसर अपनी चीज़ का विज्ञापन करने के लिए कवि-सम्मेलन और मुशायरे का उपयोग करता है। इसलिए इसका बहुत महत्त्व है कि जो चीज़ वहाँ सुनायी जाए, कवियों का जो रूप, जो छवि दीखे वह लोगों को आकर्षित करे। फिर उसके बाद तेल-साबुन बेचना हो, सिगरेट-तम्बाकू बेचना हो, फटफटिया बेचना हो, खाने-पीने की चीज़ें बेचना हो, कुछ भी बेचना हो-उसका इस्तेमाल फौरन करें! लेकिन यों जो प्रभाव पूरे समाज पर या सम्प्रेषण की पूरी परिपाटी पर पड़ता है, उसका कुछ अच्छा उपयोगी भी हो सकता है यदि वैसा लक्ष्य हो। एक तो मेरा खयाल है कि काव्य-वाचन को फिर से नया महत्त्व दिया जा सकता है-और शायद दिया भी जा रहा है। रंगमंच का उपयोग भी काव्य को प्रस्तुत करने के लिए बढ़ेगा, और बढ़े तो अच्छा है।

और कुछ मिश्र माध्यम भी हो, जैसे वाणी भी है जो कि कवि का पहला माध्यम था। उसके साथ कुछ उसका यान्त्रिक विस्तार भी हो और कुछ छवियाँ भी उसके साथ प्रसारित की जाएँ, या चल-चित्र का भी इस्तेमाल हो या नाटकीय मंचन इत्यादि; जिसको कविता की मिश्र प्रस्तुति कह सकते हैं। मेरा खयाल है कि उधर कवियों का भी और दूसरों का भी ध्यान जाएगा। यह भी अच्छा ही है। इसके सहारे फिर उन अर्थों को भी समाज के सामने लाया जा सकेगा जो कि समाज के लिए महत्त्व रखते हैं, उसके संवेदन को समृद्धतर बना सकते हैं और उस छिछलेपन से बचा सकते हैं जो टी.वी. के लिए आकर्षक होता है।

अब मैं फिर वही परम्परा की बात की ओर लौटना चाहूँगा। जब हिन्दी का कवि परम्परा की बात करता है तो उसमें कहीं भारतीयता के संस्कार की बात भी करता है। अब भारतीयता को आप किस तरह व्याख्यायित करते हैं? विशिष्ट दार्शनिक परम्परा के रूप में देखते हैं या कोई और संस्कारों की परम्परा के रूप में देखते हैं, संवेदनागत परम्परा के रूप में देखते हैं? कैसे इसे परिभाषित करेंगे?

दार्शनिक परम्परा भी उसका एक अंग होनी चाहिए। लेकिन एक समग्र अस्मिता का ही महत्त्व होना चाहिए। भारतीयता का मतलब है भारतीय अस्मिता की पहचान-व्यक्तिके सामने एक आत्म-बिम्ब हो जो कि भारतीय हो। लेकिन यह भी है कि उसको सीढ़ी में एक स्थान पर मैं रख देना चाहूँगा क्योंकि भारतीय हो जाने के नाते ऐसा नहीं है कि मनुष्य मनुष्य नहीं रहेगा। तो एक शर्त यह रहेगी कि एक मानव के नाते मैं क्या हूँ, कहाँ हूँ-मानवता की एक पहचान होनी चाहिए। फिर दूसरी तरफ़ मैं जिस प्रादेशिक समाज में जीता हूँ वह है-यहाँ पर ऐसे समाज हैं, जन-जातियाँ हैं, वन-जातियाँ हैं, जिन का जीवन उस बिरादरी के बाहर बहुत कम जाता है। बाहर के प्रभाव उनमें आते जरूर हैं-चीज़ें महँगी होती हैं या दुर्लभ हो जाती हैं और उसका असर उन पर पड़ता है; फिर शहरी लोगों द्वारा शोषण तो है ही। लेकिन उनका सामान्य सांस्कृतिक जीवन उसी एक बिरादरी की सीमा में रहता है।

भारतीयता की बात के साथ ही एक और सवाल जुड़ा हुआ है। खास तौर से आपने एक-आध दफा इस तरह के वक्तव्य भी दिये है जिन्हें देखते हुए मैं समझता हूँ कि पुनर्जन्म या कर्मवाद की बात के बिना भारतीय जीवन-दृष्टि का विचार सम्भव नहीं होता। खास तौर से काल की आपकी जो कल्पना है, चक्राकार, वह भी कहीं-कहीं पुनर्जीवन या पुनर्जन्म की बात पर आधारित है या उसको पुष्ट करती है या दोनों ही एक दूसरे को पुष्ट करती हैं। लेकिन आप पुनर्जन्म को नहीं मानते बल्कि जहाँ तक मुझे स्मरण होता है एक-आध जगह पर आपने कहा भी है कि पुनर्जन्म मैं स्वीकार नहीं करता। ऐसी स्थिति में भारतीय जीवन-दृष्टि से या भारतीय संस्कार से कैसे अपने को जुड़ा अनुभव करते हैं? क्योंकि यह तो भारतीय संस्कार का एक हिस्सा है पुनर्जन्म?

भारतीयता की बात तो मैंने की है; लेकिन एक तो पुनर्जन्म की बात ज़रूरी तौर पर भारतीयता का अंग नहीं है। दूसरे, मैंने ठीक यह नहीं कहा कि मैं इसे नहीं मानता। इतना ही कहा है कि पुनर्जन्म को मानना अनिवार्यतया उस काल की मेरी अवधारणा से जुड़ता नहीं है। उसके बिना भी काम चलता है। तो जितनी कम चीज़ें मान कर काम चल जाए उतना ही ठीक है।

लेकिन फिर भी पुनर्जन्म एक ऐसी धारणा है जिससे किसी तरह की टकराहट के बिना भारतीय जन कैसे रह सकता है?

बात इतनी ही है कि मैं पुनर्जन्म मानना ज़रूरी नहीं समझता; यही मैं कह सकता हूँ। इसका प्रमाण नहीं है कि पुनर्जन्म नहीं होता। उसे मानना अनावश्यक है, बस इतने तक ही मानता हूँ। यों काल की जैसी अवधारणा है, चक्रगति की जो बात है, उससे मैं समझता हूँ कि पुनर्जन्म की बात को मन से पीछे कहीं रखते हुए यह कहें कि जीवन में अवस्थिति का निर्णय करने के लिए एक तो दिक् का विचार करना होता है कि कोई चीज़ ‘कहाँ’ है, दूसरे काल का विचार करना होता है कि कोई चीज़ ‘कब’ है। और तीसरे कह लीजिए कि अस्ति का, अस्मिता का विचार करना होता-कि कौन है। तो पुनर्जन्म में यह जो मान लेना है कि दुबारा फिर वही संयोग होगा कि वही दिग्बिन्दु, वही काल-बिन्दु और अस्मिता का भी वही जब इकट्ठे होंगे, यह मानना मुझे अनावश्यक जान पड़ता है। काल की चक्रगति है, लेकिन जिसको अस्मिता कहते हैं उसे-आत्मा को अमर मान भी लें तो-कहीं ज्यों का त्यों वही पुंज इकट्ठा होता है यह मानना अनावश्यक है। वह कहीं बना रहता है, या किसी विश्वात्मा में एक हो कर रहता है, कोई ऐसी बड़ी चेतना है जिसमें वह भी चला जाता है और उसी से एक बिन्दु कभी अलग होकर फिर रूप लेता है-इस रूप में, अगर आप इसको पुनर्जन्म कहें, यानी कहें कि कुछ है जो मिटता नहीं है और बार-बार प्रकट होता है, तो इसका परिणाम यह नहीं निकलता कि वह ठीक वहीं है। लेकिन अगर आप पुनर्जन्म की परिभाषा ही ऐसी करें तब दूसरी बात हो जाती है। मैं तो सोचता हूँ जिस तरह हम एक निरवधि काल की कल्पना करते हैं, जैसे एक महासागर है उसमें से एक बूँद आप ले लीजिए या उसमें लहरें आती हैं-पुरानी कल्पना भी यह रही है कि एक उसका स्थिर रूप है और एक उसको सतह पर लहरें आती रहती हैं-इसी तरह चेतना का भी एक महासागर हो सकता है जिसका एक अशेष और अनन्त रूप है और जिसमें जब-तब लहरें उठती रहती हैं-ऐसा मान सकते हैं। मैं जब पुनर्जन्म की बात को अनावश्यक मानता हूँ तब इस रूप की बात नहीं कर रहा हूँ बल्कि ठीक उसी इकाई के फिर किसी तरह प्रकट होने की और पिछले जन्म की स्मृति वगैरह की बात करता हूँ। यह सब मानना अनावश्यक है।

स्मृति तो नहीं, लेकिन कर्मवाद का सिद्धान्त यह जरूर मानता है कि जिसे आप अस्मिता का पुंज कहें या आत्मा कहें वह जब तक विश्वात्मा में विलीन नहीं हो जाती-अगर वह हो जाती है तो उसके बाद अगर उसमें से कुछ निकलता है तब तो वह दूसरा कुछ हो सकता है फिर भी तात्त्विक अन्तर उसमें नहीं होता-तब तक वह वही है। दूसरे, यह कहना भी एक तरह से भाषा का प्रयोग ही है, इसके अलावा कुछ नहीं है। लेकिन उसमें विलीन होने से पहले भी और देह के न रहने पर दुबारा वह देह धारण करती है तो वही पुंज अस्मिता का है। दिक् और काल तो बदलते हैं लेकिन अस्मिता का पुंज वही रहता है, उसकी पहचान चाहे तात्त्विक स्तर पर न हो पर उसकी बाहरी पहचान जरूर बदलती है। यह जो धारणा है पुनर्जन्म की मैं उसके बारे में बात कर रहा था?

देखिए, कर्मवाद के साथ इसको जोड़ते हैं तो मेरा खयाल है कि वहाँ पर एक दूसरी समस्या उसके साथ जुड़ी होती है-कि किसी ने जो अच्छे-बुरे कर्म किये उसका फल उसी को न मिल कर अगर किसी दूसरे को मिलता है तो वह कैसे न्याय हुआ? फल उसी को मिलना चाहिए। अगर वह एक जीवन जी के फिर वही वह नहीं रहा तो फल उसको कैसे मिलता है? और एक के कर्म के कारण दूसरे को लाभ या कष्ट हो, तो फिर ऐसा लगता है कि इस विश्व में कहीं न्याय नहीं है। इस बारे में आसान जवाब तो यही है कि ‘मैं नहीं जानता कि न्याय है।’ लेकिन मानना चाहता हूँ कि कुल मिला कर न्याय भी हो जाना चाहिए या एक सन्तुलन बनना चाहिए; और अगर सचमुच हम ऐसा मान लेते हैं कि ये अलग-अलग इकाइयाँ नहीं हैं, तो यह मानने में भी कोई बहुत बड़ी कठिनाई नहीं रहती कि फिर जो न्याय होता है या सन्तुलन बनता है वह उस बड़े पैमाने पर जा कर बनता है; छोटी-छोटी इकाइयों का अलग-अलग एक समीकरण बने यह तब अनावश्यक जान पड़ता है; यह शायद सम्भव भी नहीं है। लगता है कि ऐसा नहीं होता होगा; किसी बड़े पैमाने पर जा कर ही सब चीज़ों का हिसाब बराबर होता होगा।

निरन्तर आपकी कविता में रूप के प्रति एक आकर्षण मिलता है। दूसरी ओर अरूप के प्रति भी उतना ही आकर्षण मिलता है। बल्कि कहीं-कहीं लगता है-जैसे एक चिडिय़ा आ गयी वाली कविता है, उसका शीर्षक भूल रहा हूँ-जिसमें यह कहा गया है एक अरूप को उधार देते मानो डर लगता है, न जाने ऐसा कौन है। दूसरी ओर यह भी है जैसे ‘आँगन के पार द्वार’ की कविताएँ हैं, जिनमें है कि ‘रूपों में एक अरूप सदा खिलता है’ या कि ‘आत्मा की भाँवरें महाशून्य के साथ रची गयीं।’ तो क्या इन दोनों में आप कोई अन्तर्विरोध नहीं देखते-इन दो तरह की अभिव्यक्तियों में?

जहाँ तक मेरा सवाल है, मैं तो यह कह सकता हूँ कि अगर उसमें विरोध है भी, या किसी को दीखता है, तो मुझे क्या!

आपको क्या लगता है?

आप बताइए कि विरोध क्या आपको दीखता है?

मुझे लगता है एक तरफ़ अरूप के प्रति इतना आकर्षण है और सभी रूपों में एक अरूप को देखते हैं, वह ‘महाशून्य’ भी अरूप ही है जिस के साथ आत्मा की भाँवरें रची जाती हैं। दूसरी ओर निरन्तर आप एक रूप को ही महत्त्व दे रहे हैं और जहाँ मन में एक सन्देह है, एक डर जो उस कविता में प्रकट होता है जहाँ उस अरूप को उधार देते हुए मन डरता है-यानी अरूप के प्रति समर्पण करते हुए मन डरता है- तो क्या इसमें ऐसा नहीं लगता कि ये दो तरह की मन:स्थितियों में लिखी हुई कविताएँ हैं? जबकि हुआ यह कि ‘आँगन के पार द्वार’ वाली कविता पहले लिखी गयी है, यह बाद में- छपी तो बाद में ही है, यह बिलकुल तय है; मैं नहीं जानता कि लिखी कब? क्यों कि एक कविता ‘आँगन के पार द्वार’ की है और दूसरी ‘कितनी नावों में कितनी बार’ की पहली कविता है।

नहीं। एक तो यह है कि दार्शनिक को अपने सारे विचारों में जिस तरह का सामंजस्य चाहिए, कवि को उसकी आवश्यकता नहीं होती; और अगर वह उसके पीछे जाए तो फिर एक दूसरी नीरसता ही उसको मिल सकती है। इस अर्थ में तो फिलासफी में और काव्य में एक अन्तर है। वैसी कंसिस्टेंसी कवि को प्रयोजनीय नहीं है। नहीं तो इस तरह के दार्शनिक सवाल भी उठ सकते हैं कि यह जो शून्य की बात आप करते हैं तो बौद्ध दर्शन में जाते हैं, और अरूप की बात करते हैं तो वेदान्त में जाते हैं- यह सब क्या घपला है?

मैं केवल संवेदनागत बात कर रहा हूँ।

शून्य भी मेरे लिए तो वह नहीं है जो कि अँग्रेज़ी का वैकुअम है। इसको अगर आप अन्तर्विरोध ही मानते हैं तो ठीक है, वह तो कविता में होता है और इसकी परवाह नहीं करनी चाहिए! और अगर वैसा नहीं है तो रूप और अरूप की जो बात है, अगर ऐसा है कि ‘‘रूपों में एक अरूप सदा खिलता है’’, तो क्यों नहीं दोनों के प्रति आकर्षण होना चाहिए? और क्यों नहीं यह प्रश्न सबके सामने आते रहना चाहिए कि दोनों में क्या सम्बन्ध है, कि हम एक के माध्यम से कैसे दूसरे को पहचानें?

नहीं; यह सवाल इसलिए भी थोड़ा-सा महत्त्वपूर्ण लगता है कि अरूप के प्रति अगर केवल इस तरह का सन्देह ही व्यक्त हुआ होता और वह कविता में पहले हुआ होता, -अब मैं नहीं जानता क्या क्रम रहा होगा-तब तो मुझे विकास के क्रम में लगता कि शायद ऐसा सम्भव है। लेकिन जिस दृढ़ता के साथ, बहुत गहरे विश्वास के साथ यह बात कही गयी है कि ‘‘रूपों में एक अरूप सदा खिलता है’’ और उसके साथ जुड़ी हुई दूसरी कविताओं में, उसके बाद की कविताओं में, सन्देह है, तो मुझे थोड़ा-सा लगा कि ऐसा क्यों है? इसलिए मैंने यह सवाल पूछा। यह तो मैं मानता हूँ कि कविता में इस तरह का अन्तर्विरोध महत्त्वपूर्ण नही है। बल्कि शायद यह कहना चाहिए कि कवि की संवेदना ही इन सबको अपने घेरे में, परिधि में, लेती है क्योंकि वह केवल तर्क के आधार पर तय नहीं करता है।

सिर्फ कविता की बात न करके कवि की ही बात करें तो इस कवि की शिक्षा-दीक्षा तो जितनी भारतीय चिन्तन में हुई उतनी ही विज्ञान में। बल्कि जो औपचारिक शिक्षा थी वह तो विज्ञान की हुई-भौतिक विज्ञान की। फिर राजनीति की जो पहली दीक्षा हुई उसमें जड़वाद को महत्त्व दिया गया था जो विज्ञान का तत्कालीन रूप भी था। (विज्ञान ने भी उतनी दृढ़ता से जड़ पदार्थ से सृष्टि मात्र की उत्पत्ति मानने का आग्रह छोड़ा नहीं तो कम जरूर कर दिया-या यह कहा कि इस बारे में हम जानते नहीं हैं। यह भी बाद की बात हुई।) तो अगर चिन्तन वैसा है और कविता में पहले इस तरह के आग्रह प्रकट होते हैं या उससे भिन्न आग्रह नहीं प्रकट होते हैं तो इसको चिन्तन का स्वाभाविक या कि दीक्षा के आधार पर आत्म का विकास मानना चाहिए। मैं एक तो चेतना की अपनी सत्ता मानता हूँ। कैसे पहले के जड़वाद के साथ, या भौतिक विज्ञान के आग्रहों के साथ इस बात का मेल बैठाता हूँ, इसका मेरे पास कोई जवाब नहीं है। इतना ही है। इसके प्रतिकूल आग्रह लेकर चलें तो भी यह सारा विश्व समझ में नहीं आता : समस्याएँ बनी रहती हैं। विज्ञान भी यह कहता है कि उतना ही मान कर चलना चाहिए, कम से कम मानना चाहिए, उतना ही जितने से कि जो तथ्य सामने हैं वे समझ में आ सकें। मैं यह कहूँ कि मुझे जान पड़ता है कि चेतन तत्त्व को मानने से कुछ ची$जें समझी जा सकती हैं जो अन्यथा नहीं समझी जा सकतीं; काव्य के लिए यह आधार काफ़ी है। और अगर जुड़ाव की बात भी करते हैं, विश्व से जुडऩे की बात भी करते हैं, तो यह चेतन के स्तर पर ही होता है। जड़ से जड़ के जुडऩे का कोई आग्रह कविता में कुछ अर्थ नहीं रखता।

कहीं भी अर्थ नहीं रखता?

हाँ, चेतन से जुडऩे का ही अर्थ होता है। पंचत्व-प्राप्ति की बात छोडि़ए!

चेतना की स्वतन्त्र सत्ता की बात आपने की। और अभी थोड़ी देर पहले एक विश्व-चेतना या एक परम चेतना की बात भी आपने की-कि उसमें से छोटी-छोटी चेतनाएँ उभरती हैं और फिर उसमें विलीन होती हैं। रूप और अरूप की बात भी हुई। तो क्या उस चेतन सता का कोई स्पष्ट रूप भी आप मानते हैं; उस परम चेतन सत्ता का कोई भी रूप आप मानते हैं या अरूप ही उसे मानते हैं? दूसरे शब्दों में कहूँ तो क्या उसे ईश्वर जैसी किसी अवधारणा के निकट समझते हैं?

पता नहीं। इससे ज्यादा कोई निश्चयात्मक जवाब तो कभी मेरे सामने नहीं आया। हो सकता है, लेकिन मैं नहीं जानता।

एक कवि के रूप में आपकी संवेदना में किस तरह का अहसास होता है? दार्शनिक रूप में या चिन्तन से उसको पुष्ट करें यह आवश्यक नहीं है-तर्क से पुष्ट करने की बात नहीं कर रहा हूँ।

दोनों ही हो सकते हैं, दोनों ही स्वीकार हो सकते हैं; दोनों ही समृद्धि दे सकते हैं। और मेरा इनके बीच अभी अपना कोई चुनाव नहीं हुआ है।

जब आप एक कविता में यह कहते हैं कि ‘‘तू बढ़ा कर हाथ सहसा खींच लेता, गले मिलता है’’, तो जो ‘तू’ है वह क्या कोई अरूप ही है, या आपके मन में कोई इसका रूप भी है? स्पष्ट न हो तो भी क्या एक रूप है उसका?

नहीं; इसमें आगे बढ़ेंगे तो भाषा की सीमाओं का भी विचार वहाँ करना पड़ेगा।

अरूप भी हो सकता है, यह तो मैं मानता हूँ। अरूप के लिए भी ‘तू’ का इस्तेमाल तो हो सकता है।

हाँ। पर इस तरह की बातों से यह परिणाम निकालना ठीक नहीं होगा कि मैं उस रूप में ईश्वर में-

ईश्वर चाहे न सही, क्योंकि इस कविता में पहले जो बात कही गयी है वह यह है कि -

पश्चिमी परिभाषा में जिसे पसर्ननल गॉड कहते हैं- मैं नहीं जानता।

लेकिन इस कविता में पहले जो कहा गया है, कि एक रूपातीत पुनीत गहरी नींव है और उसमें से तू बढ़ा कर हाथ सहसा खींच लेता है- तो रूपातीत की स्थिति तो पहले से है और उसमें से एक और ‘तू’ पैदा होता है। यह सवाल इसलिए मन में उठता है कि रूपातीत में से कोई एक और रूप निकलता है, वह ‘तू’ है, या रूपातीत का भी कुछ और आधार है वह ‘तू’ है। इस तरह...

नहीं; इसका जवाब मैं नहीं जानता, और आवश्यक भी नहीं है। क्योंकि हाथ बढ़ा कर जिसे ग्रहण किया जाता है वह भी उस स्तर पर तो चेतना का ही पुंज है। कोई सरूप चीज़ नहीं है जिसको ग्रहण किया जा रहा है। एक तरफ़ अगर चेतना को ग्रहण किया जा रहा है तो दूसरी तरफ़ भी चेतना के द्वारा ही ग्रहण किया जा रहा है; इतना तो उसमें है। लेकिन इससे ज्यादा रूप उसे देना अनावश्यक है। मैं यह भी सोचता हूँ कि गॉड की प्रेज़ेंस की प्रतिज्ञा के बिना भी डिवाइन की प्रेज़ेंस की बात सोची जा सकती है- और उस तत्त्व के अनुभव का महत्त्व है।

ठीक है।
काल-बोध की ही कुछ और बात करना चाहता हूँ। एक तरफ़ आपने भारतीय काल-बोध की या जिसे पूर्वी कह सकते हैं उसकी चर्चा करते हुए उसको चक्राकार माना है,वर्तुलाकार माना है, और दूसरी ओर पश्चिमी काल-बोध को आपने एक-रेखीय माना है या कि ऐतिहासिक काल इसे कहा है। बल्कि सावधि काल भी उसे कह सकते हैं। लेकिन लगता यह है कि पश्चिम में भी अन्तत: इस सावधि काल को लाँघ कर, उसको ट्रांसेड कर के, निरवधि काल में प्रवेश ही जीवन का उद्देश्य है। क्योंकि अन्तत: ‘पैराडाइज रीगेन’ करना है; जो बात हिब्रू परम्परा से शुरू होती है और उससे निकली हुई सारी परम्पराओं में हम को दिखाई देती है। तो इस सावधि काल में भी यही लगता है कि यह एक ऐसे बड़े उन्नत काल का एक हिस्सा है और हमारे यहाँ भी अगर वर्तुल है या चक्र है तो उसका एक हिस्सा। एक ‘लाइन’, एक रेखा हो जाती है। इसलिए हमारे यहाँ भी ऐतिहासिकता को बिलकुल नकारा तो नहीं जा सकता। मानव-जीवन तो यहाँ भी एक ऐतिहासिक तथ्य के रूप में है-ऐतिहासिक काल से उसका कर्म बँधा हुआ है। पर ऐसा मानते हैं कि उसके बाद वह उसमें से निकल जाती है; इसलिए ऐतिहासिक काल से आतंकित होने की आवश्यकता नहीं है।

ऐसा नहीं मानते कि उससे जो वृहत्तर वृत्त है उसमें उसकी पहुँच नहीं है या कि उससे वह नहीं जुड़ता। पश्चिमी चिन्तन में जो मनुष्य को केन्द्र में रखकर ऐतिहासिक काल की कल्पना होती है, उसका एक आरम्भ और एक अन्त है जो कि हमारी परिभाषा के काल के उस महावृत्त का एक हिस्सा है और वह वृत्त बहुत बड़ा है इसलिए उसका अंश रेखा जैसा भी दीख सकता है-उसकी थोड़ी गोलाई जो है उसकी उपेक्षा भी हो सकती है। और उस टुकड़े का विचार करें तो उसमें तो आदि और अन्त दोनों हैं ही। लेकिन हम तो वहाँ समाप्त नहीं करते। विचार के लिए उतना अंश भी देख सकते हैं। उनके आपने पैराडाइज लॉस्ट और रीगेंड दोनों की बात भी की : उसमें अगर आदम ही पैराडाइज से निर्वासित होता है और आदम ही वापस पहुँचता है तो उसके भी दो छोर या दो सीमाएँ हैं। उससे आगे या पीछे के काल की अवधारणा सैद्धान्तिक या थ्योरी रूप से तो है लेकिन विचार से नहीं लायी जा रही। उनके देवताओं का-यानी फरिश्तों का भी तो एक आरम्भ होता है फिर वे अमर होते हैं; यानी एक ऐसा काल भी है जो कि अनादि तो नहीं है लेकिन अनन्त है। यों उसको मानने में तो अधिक कठिनाई नहीं है। क्योंकि हम जिस विश्व को जानते हैं, यह नहीं जानते कि इसका आरम्भ कब हुआ और ऐसा भी कहने वाले लोग हैं कि इसका आरम्भ कभी तो जरूर हुआ-यानी यह भी अनादि तो नहीं है लेकिन (शायद) अब अनन्त है। एक अनुमान यह भी है कि जो अनाद्यन्त काल है उसकी बात तो फिर दूसरी हो जाती है। ऐतिहासिक काल सिर्फ एक रेखा में चलनेवाला है, इतना ही नहीं है, वह एक ही दिशा में चलता है, लौट कर नहीं आ सकता उस रेखा पर भी; वह मरणोन्मुख है, यानी अन्त की ओर उन्मुख है, उसकी एक अन्त की ओर बढऩे वाली दिशा है। हम जिस चक्रगति की बात करते हैं उसमें ऐसा कोई अन्त तो नहीं होता।

हाँ, पर इसमें भी, इसाई मत में भी जो अन्त होता है उसके बाद भी एक निरवधि काल है। पुन: स्वर्ग में पहुँचने के बाद का जो काल है। यह नहीं है कि उसके बाद सृष्टि नष्ट हो जाती है- उसके बाद भी उसमें एक निरन्तरता बनी रहती है। लेकिन कोई मानवीय काल वहाँ नहीं रहता। तो यदि एक निरवधि काल की कल्पना वहाँ भी इस तरह हो जाती है, तो फिर बुनियादी फ़र्क़ क्या होता है दोनों स्थितियों में?

निरवधि तो फिर उसको नहीं कह सकते। सिर्फ अन्तहीन कह सकते हैं। या-

या कालहीनता की स्थिति कह सकते हैं, ‘टाइमलेसनेस’ जिसे कहा जाता है।

हाँ।

एक बात और मैं जानना चाहता हूँ क्योंकि आपने उसकी भी काफ़ी चर्चा की है क्योंकि काल-बोध संस्कृति का मुख्य आधार है, और हमारे कला-रूपों पर भी काल-बोध और दिग्बोध का प्रभाव रहता है क्योंकि वे इन्हीं को व्यक्तकरते हैं, तो अगर पश्चिमी काल-बोध में और भारतीय काल-बोध में या पूर्वी काल-बोध में कोई फ़र्क़ आप देखते हैं-जो कि आप देखते हैं-तो इन दोनों संस्कृतियों के काव्य-रूपों में क्या संरचनागत कोई फ़र्क़, बुनियादी अन्तर आप पाते हैं?

पहली बात तो यह है कि थोड़ा-सा संशोधन करूँ। संस्कृतियों का आधार भाषा है। भाषा के बिना संस्कृति नहीं है। और काल-बोध के बिना भाषा नहीं है। इसलिए संस्कृतियों में विशिष्ट काल-बोध पाते हैं और उनकी समस्याएँ भी भाषा के साथ जुड़ी हुई हैं, उससे अलग नहीं की जा सकतीं। आपने जो सवाल उठाया वह शायद भाषा के बारे में नहीं है; वह लय के बारे में अधिक हो जाता है शायद।

वह तो मैं अब पूछने वाला हूँ। अभी तक तो कला-रूपों के बारे में ही पूछ रहा था।

कला-रूपों के बारे में? उपन्यास में तो ऐसा काल होता है। आवर्ती काल भी वहाँ पर है हमारी कहानियों में। पूर्वी देशों की कहानियों में ही आवर्ती काल का उल्लेख है, पश्चिम की नहीं। उनमें एक दूसरी तरह के काल का संकेत तो कभी-कभी मिलता है। मैंने विस्तार से इसका विचार अपनी पुस्तक संवत्सर में किया है। कहानियों के आरम्भ में इस तरह के संकेत मिलते हैं जहाँ कि एक सनातन, अनन्त वर्तमान की कल्पना है। (ऐसा दूसरी सभ्यताओं में भी है।) काव्य में, यानी काव्य के उस रूप में जिसको आज काव्य कहते हैं, यानी कविता में, तो यह बात छन्द के साथ जुड़ती है। उपन्यास, कहानी वगैरह और नाटक बाहर चले जाते हैं। वहाँ भाषा के साथ तो समस्या जुड़ी रहती है लेकिन कविता के साथ फिर वह लय की समस्या हो जाती है। हाँ, भारतीय संगीत में जरूर काल का एक ऐसा बोध दीखता है जो कि पश्चिम के काल-बोध से अलग है यानी उनके संगीत में जो दीखता है उससे अलग है। और उसमें यह जो सम पर लौटना है बार-बार, यह काल के आवर्तन का एक रूप है। वहाँ पर तो मैं समझता हूँ फ़र्क़ है, काल का अन्तर है। बाकी काव्य में लय में कहाँ यह दीखता है, यह शायद सोचने की बात होगी : तत्काल उदाहरण तो नहीं दे सकता।

मुझे लगता है कि सैद्धान्तिक स्तर पर अगर यह मान लेते हैं तो यह दीख सकना चाहिए काव्यों में, खास तौर से इसलिए भी कि कविता क्योंकि साहित्य का सबसे प्राचीन रूप है और दो संस्कृतियों में या काल-दृष्टियों में यह भेद है तो इन दोनों काल-दृष्टियों से उपजने वाली कविता में भी और उसके खास तौर से लय-विन्यास में यह भेद होना चाहिए। ‘डेस्क्रिप्शन’ के रूप में या उक्ति के रूप में तो शायद बहुत जगह देखा भी जा सकता हो; लेकिन उसको पूरी संरचना में यह दिखाई दे सकना चाहिए, मेरा ऐसा खयाल है। यदि यह नहीं दिखाई देता तो कहीं...

काव्यों में या साहित्य में कहें तो दीखता है। इतिहास की जो परिभाषा है उसमें भी यह ठीक है। (इतिहास और हिस्टरी में अन्तर है।) और अनुष्ठानों के साथ जो कथाएँ जुड़ी होती हैं उनमें भी कुछ यह होता है।

अन्य भी जगहों पर यह दीखता है। इसलिए यह सवाल मेरे मन में उठा है। कविता की संरचना में भी दीख सकना चाहिए। इसके लय-विन्यास में भी दीख सकना चाहिए।

इसके अलावा भी कुछ और सवाल मैं करना चाहता था। वह कुछ संकोच के साथ कर रहा हूँ, आपकी कविताओं के बारे में ही। आपकी कविताओं में खास तौर से जिस गुण की बहुत चर्चा हुई है वह यह कि एक बहुत ही असाधारण काव्य-संयम उनमें दिखाई देता है। लेकिन कहीं-कहीं, बल्कि कह सकता हूँ, उतनी ही सीमा तक शायद इस तरह की कविताएँ दिखाई देती हैं जो किन्हीं दूसरी कविताओं की व्याख्या-सी करती रहती हैं, या उन्हीं में अन्त में अनुभव की एक व्याख्या जैसी हो जाती है। वह व्याख्या ‘पोएटिक’ होती है इसमें कोई सन्देह नहीं, पर लगता है जैसे पूरी कविता के अन्त में एक जोड़-सा है। इसके लिए मैं ‘असाध्य वीणा’ के अन्तिम अंश को कोट कर सकता हूँ। ‘एक बूँद सहसा उछली’ वाली जो कविता है उसके भी अन्तिम अंश को मैं कोट कर सकता हूँ। मुझे लगता है उसके बिना भी वह सारा अनुभव काव्यात्मक स्तर पर सम्प्रेषित होता है-चाहे उक्तिके रूप में सम्प्रेषित न होता हो, सीधा विचार के रूप में सम्प्रेषित न होता हो। क्या काव्यानुभव को विचार के रूप में सम्प्रेषित करना आप इतना अनिवार्य मानते हैं?


ये जो आपने दो उदाहरण दिये, ये तो बिलकुल अलग-अलग तरह के हैं। जो छोटी कविता है उसमें वह जो दीखता है-उछलती बूँद का आलोकित हो उठना-वह तो इतना छोटा, इतना सघन अनुभव है कि उस ‘उन्मोचन’ की भावना ही उसमें प्रधान है। यह कहना ठीक नहीं होगा कि उसमें स्टेटमेंट है। एक ही इकाई है उस आलोकित बूँद को देखना और उसी क्षणिक झाँकी में मुक्तिका अनुभव, उसकी पहचान। अगर वह बिना कहे भी कही जा सकती है तो उससे और अच्छी कविता होगी; लेकिन उसकी छोटी रचना में वह कह भी दी जाए तो इकाई टूटती नहीं। लेकिन ‘असाध्य वीणा’ के अन्त में जो बात है वह तो बिलकुल दूसरी है। उसका आप आरम्भ देखिए। आरम्भ बड़े नाटकीय ढंग से होता है-’’आ गये प्रियम्वद, केश कम्बली, राजा ने आसन दिया’’-वगैरह। आ गये तो आ गये; उसके बाद कहानी चल पड़ती है तो इस प्रकार एकाएक उसके पाठक या श्रोता को हम एक काव्य के दूसरे आयाम में ले जाते हैं जिसमें यह घटना होती है और कहना चाहिए इतिहास की परिभाषा में इति ह आस-वह घटना घटित होती ही चली आयी है अब तक। अन्त में जो युक्ति है वह इसलिए अपनायी गयी है कि उस काल में हम श्रोता या पाठकों को वापस सामान्य काल में ले आते हैं-’’युग पलट गया/उठ गयी सभा/सब अपने-अपने काम लगे/...यों मेरी वाणी भी मौन हुई...।’’

यह भी एक तरह से अनावश्यक होता है-कहानी तो इससे पहले समाप्त हो गयी जब ‘‘केश कम्बली गुफा-गेह में चला गया।’’ लेकिन वह काल समाप्त हो गया। उसके बाद पाठक को जब सीधे सम्बोधन करते हैं तो उसे उस देश-काल से, उस घटना से, खींच कर उसके सामान्य जीवन में प्रतिष्ठित करते हैं-सीधे सम्बोधन से एक प्रकार से सामान्य स्थिति में ले आते हैं। और सामान्य स्थिति में ले आना क्यों ज़रूरी है, इसका एक उत्तर यह भी है इस प्रकार उस दूसरे काल की जो चुनौती है उससे हम पाठक/श्रोता को बचा भी लेते हैं और मुक्त भी नहीं करते।

नहीं, मैं जो कहना चाह रहा था वह दूसरे ही अंश के बारे में था। मैं यह भी जानना चाहता था लेकिन इसके साथ-साथ यह कि प्रियम्वद को जब राजा और सब लोग ‘धन्य-धन्य’ कहते हैं, श्रेय देने लगते हैं, जब कवि यह कहलाता है कि- ‘‘श्रेय नहीं कुछ मेरा, मैं तो डूब गया था स्वयं शून्य में/जो कुछ सबने सुना, वह तो सब-कुछ की तथता थी’’-आदि, इस तरह की जो पंक्तियाँ हैं-तो मुझे लगता है पूरी कविता का एक सारांश दिया गया है। जो काव्यानुभव के पूरे रेशे-रेशे में फैला हुआ है उसका इस तरह अलग एक जिस्ट निकाल कर दिया गया है इन पंक्तियों में। वह अपने में बहुत पोएटिक है, पर क्या आवश्यकता थी उसे इस तरह से रखने की?

इसकी आवश्यकता यह थी कि इसको हटा कर आप देखिए कि बात बनती है या नहीं। दृष्टान्त काव्य में तो सबका सब दृष्टान्त ही होता है। असल बात तो वही होती है जो निष्कर्ष के रूप में निकले।

लेकिन एक आधुनिक कवि के रूप में, खास तौर से एक ऐसे कलाकार के रूप में जो कि इतना सक्षम है कि बिना उसके सारी बात कह सकता है-पूरी कविता अभिव्यक्त करती है सारी बात-पेड़ के साथ ही लगाव है। इसलिए मुझे लगा कि यह सम्प्रेषण का जो आग्रह आपका रहता है उसकी वजह से है या किसी काव्यात्मक अनिवार्यता की वजह से ऐसा हुआ है? मैं जब भी कविता को पढ़ता हूँ तो वह भाव पहले से आ चुका होता है मेरे मन में। तब मुझे लगता है अलग से इसको लाने की क्या आवश्यकता थी?

पहली बार पढ़ी थी तब से यह बात सच है या बाद में जब पढ़ी तब से यह सच है?

पहली बार पढ़ी थी तब से यह बात सच है इतना तो अब नहीं स्मरण करके कह सकता; पर यह जरूर है उसको पढ़ता हूँ तो लगता है कि हाँ, यह बात समझ में आ रही है।

मैं समझता हूँ कि जो संस्कारवान् पाठक है, सम्भव है उसको वही बात समझ आ जाए जहाँ ‘‘काँपी थीं उँगलियाँ’’ वाला उल्लेख है-वह पाठक वहीं भाँप जाएगा कि पूरी कथा क्या है। लेकिन सभी लोग वैसा करेंगे ऐसा मुझे नहीं लगता। फिर जो ‘अवतरित हुआ ब्रह्मा का मौन’ वाली बात है : ठीक है कि एक स्टेटमेंट है, लेकिन संगीत ने क्या किया-बिना बताये शायद पाठक वहाँ तक नहीं पहुँच सकता है।

यह तो ठीक है। अलग-अलग लोगों के लिए अलग-अलग जो ‘मीनिंग’ है जो वे सुनते हैं-समझ में आता है कि वह बताना भी ज़रूरी था।

अगर इतना ही कहा गया कि संगीत का यह सब असर हुआ, तो फिर तो उसके बाद मैं समझता हूँ यह कहना अपेक्षित है कि ‘यह मैंने नहीं किया, यह आप सब लोगों ने स्वयं किया, आप ही में इसकी सम्भावना है।’ नहीं तो सारी बात झूठी हो जाती है। अगर प्रियम्वद को इसका श्रेय है-यह प्रभाव पैदा करने का-तब तो सारी कविता में जो कुछ कहा गया है उसका एक तरह से नकार हो जाता है।

हाँ, चरित्र के रूप में अगर प्रियम्वद को देखें तब तो शायद यह बात ठीक लगता है जो आप कहते हैं। लेकिन यह लगता है कि आखिर यह चरित्र भी जो चुना गया वह एक अनुभव को व्यक्तकरने के लिए ही चुना गया है। उस चरित्र को इस तरह से उस अनुभव के अनुकूल ही प्रस्तुत किया गया है। तब यह लगता है कि वह चरित्र उस तरह से भी जब बात को रख रहा था, उसके बाद केवल आवर्जन करना ही, राजा को धन्यवाद से रोकना ही पर्याप्त होता। हो सकता है यह उस तरह की ही बहस हो जैसी कि इस कविता की दो पंक्तियों को लेकर चलायी जाती रही है। हो सकता है यह आप ठीक ही कह रहे हों पर...

मैं समझता हूँ ‘‘यह तो सब-कुछ की तथता थी’’ यह कहना, और उसमें यह ध्वनित करना कि यह आपकी ही तथता है उसको पहचानिए- चुनौती तो वही है और सन्देश भी वही है।

दूसरी बात जो मैं कविताओं के बारे में ही कहना चाह रहा था-यह अक्सर आरोप की भाषा में ही कही जाती रही है पर मैं उस तरह से नहीं कहना चाहता-मैं यह जरूर जानना चाहता हूँ कि समकालीन बहुत-सी महत्त्वपूर्ण घटनाओं का प्रभाव आपकी कविता पर नहीं दिखाई देता और कुछ घटनाओं का दिखाई देता है-उदाहरण के लिए पाकिस्तान के साथ जो युद्ध हुआ उसका असर दीखता है और कुछ कविताएँ आपने लिखी हैं उस समय, युद्ध के समय। लेकिन बांग्लादेश के समय का और उसके पहले चीन के साथ जो युद्ध हुआ उसका इस तरह का स्पष्ट असर नहीं दिखाई देता। इसकी क्या वजह रही होगी।

एक तो यह है कि जिन दो की जो आपने तुलना की उनमें एक तो मेरे अनुभव के क्षेत्र में काफ़ी प्रत्यक्ष था और दूसरे का वैसा अनुभव नहीं था। दूसरे, बांग्लादेश वाली घटनाओं का भी उल्लेख है; उतना सीधा नहीं है क्योंकि उतना सीधा वह मेरे अनुभव के क्षेत्र में आया नहीं-लेकिन ऐसी कविताएँ हैं जिनका सम्बन्ध (मसलन) शेख मुजीब से था। मैंने कविता में नाम उनका नहीं लिया, लेकिन कविता का सम्बन्ध है उनसे। यह तो ज़रूरी नहीं होता कि घटनाओं का सीधे-सीधे उल्लेख किया जाए और उसमें कोई पक्ष लिया जाए-वह तो अपने आप दीख जाता है कि कवि कहाँ है।

सामान्यत: यह मानते हैं कि चीन के युद्ध के बाद या उससे भारतीय समाज में एक मोह-भंग की शुरूआत होती है- आज़ादी के बाद से जो एक तरह के भ्रम में जीवित रहा समाज। उसके बाद राजनीति में भी काफ़ी परिवर्तन होते हैं और दूसरी तरह से परिवर्तन होते हैं। कविता में भी एक अलग तरह का परिवर्तन तब से दीखता है बहुत-से कवियों में-जो पहले लिखते रहे उनमें भी, जिन लोगों ने उसके बाद लिखा उनमें भी। क्या आप ऐसा कहना ठीक मानते हैं कि मोह-भंग के नाम से एक काव्य-धारा शुरू हुई?

नहीं, ऐसा तो मुझे नहीं लगता उससे हुआ। जो एक झूठी आदर्शवादिता थी भारतीय समाज में, उसको जरूर उससे एक झटका लगा और राजनीति एक व्यावहारिक स्तर पर आयी, जहाँ कि आदर्श छोड़े भी जाते हैं, बदले भी जाते हैं, सौदे भी होते हैं, इत्यादि-जो सब व्यावहारिक राजनीति का अंश है। लेकिन जो मोह-भंग हुआ वह सिर्फ चीन की जिस तरह की मैत्री के बारे में लोग कल्पना करते थे और विश्व-मैत्री की जैसी कल्पना करते थे उसके बारे में हुआ। राजनीति में मित्र और अमित्र समय-समय पर बदलते रहते हैं-जिसका जैसा राजनीतिक उद्देश्य या प्रयोजन हो, उसके आधार पर-यह समझ विकसित हो गयी। लेकिन भारतीय राजनीति में जो मोह-भंग हुआ उसके कारण और भी थे। आज़ादी से जिस तरह की अपेक्षाएँ बन गयी थीं वे पूरी नहीं हुईं। कहना चाहिए कि वास्तव में वह आज़ादी ही अधूरी हुई है यह ज्ञान धीरे-धीरे प्रकट हुआ। मोह-भंग तो उसके साथ जुड़ता है।

यह तो मैं नहीं कहूँगा कि आपने राजनीतिक या सामाजिक विषयों पर कविताएँ नहीं लिखीं या इस तरह की चेतना बिलकुल ही आपकी कविताओं में नहीं मिलती क्योंकि मैं जानता हूँ कि वह बहुत-सी जगहों पर है। लेकिन फिर भी यह जरूर लगता है कि अगर आपकी कविताओं का एक प्रतिनिधि संकलन कोई भी तैयार करे तो उसमें उस तरह की कविताएँ नहीं होंगी और काव्यगत-

नहीं होंगी, ऐसा तो नहीं।

नहीं होंगी का मतलब मुझे लगता है कि अगर उत्कृष्ट कविताएँ मुझे चुननी हों तो शायद वे कविताएँ कम होंगी या सम्भवत: बिलकुल नहीं होंगी जो राजनीतिक विषयों से सम्बन्धित कविताएँ आपने लिखी हैं या कुछ घटनाओं से प्रेरित होकर लिखी हैं। वे कविताएँ दूसरी हैं, जिनका मैं नहीं जानता नामकरण कैसे किया जाए, लेकिन जिन्हें सामान्यतया ‘पर्सनल पोएम’ या आध्यात्मिक कविता कह सकते हैं, ‘लव पोएम’ कह सकते हैं, इस तरह की कविताएँ उसमें ज्यादा होंगी। और आपकी काव्य-प्रतिभा भी सर्वाधिक उनमें ही मुझे लगता है अभिव्यक्त हुई हैं, ज्यादा ‘मैच्योरिटी’ के साथ हुई है। ऐसा क्यों है? क्या आपका जुड़ाव उनसे बहुत गहरे स्तरों पर नहीं रहा है? या जब तक चीज़ें ‘पर्सनल एक्सपीरिएंस’ तक नहीं पहुँचीं तब तक, गहरे स्तरों तक नहीं पहुँचीं तब तक, उनका काव्य-रूप भी उतना ‘मैच्योर’ नहीं हुआ है?

ऐसा क्यों है, इसका तो कवि क्या जवाब दे सकता है?

आपको खुद लगता है या नहीं?

है तो है, बस-यही जवाब इसका हो सकता है। लेकिन उस तरह की चेतना नहीं है, या कुल मिलाकर मेरे लेखन में व्यक्त नहीं हुई है।

यह तो मैं नहीं कह रहा हूँ। मैं कह रहा हूँ कि हुई है।

हाँ, आप कह भी नहीं रहे हैं। कविताओं में कम हुई है। इसको दूसरी तरह मैं यों भी कह सकता हूँ कि दूसरी विधाओं में हुई है।

यों कहूँ कि पत्रकारिता में...

यह भी है कि इधर की हिन्दी कविता का एक संकलन तैयार करें तो उसमें वह पक्ष लगभग अनुपस्थित होगा जो कि मेरी कविताओं में है; और राजनीति की बहुत-सी कविताएँ होंगी!

नहीं, यह बात इसलिए भी कभी-कभी मुझे आश्चर्यजनक लगती है कि आपका सामाजिक सवालों के साथ, राजनीतिक सवालों के साथ और आर्थिक सवालों के साथ एक पत्रकार के रूप में जो जुड़ाव रहा है, और निरन्तर आप उन पर विचार करते रहे, चिन्तन करते रहे; लिखते भी रहे सामाजिक सवालों के बारे में भी, सारे समाज की कमियों की ओर संकेत भी एक पत्रकार के रूप में करते रहे हैं-शायद ही कोई घटना ऐसी हुई हो जिस पर उन दिनों में आपने कोई ‘कामेंट’ न किया हो-तो ऐसी स्थिति में फिर कविता में वह चीज़ क्यों नहीं आ पाती?

एक तरह से आपको ऐसा नहीं लगता है कि आपके सवाल में ही उसका जवाब भी है? अगर कुछ बातें कहने के मेरे पास दस और साधन थे, और कुछ बातें कहने का सिवाय कविता के कोई रास्ता नहीं था, तो ऐसा क्यों नहीं होना चाहिए? एक तो यह है कि अगर ये सब बातें मैंने न कही होतीं तो किसी ने न कही होतीं। दूसरे यह कि मैं भी उन्हें कह सकता था तो कविता में ही कह सकता था; और दूसरी बातें अन्य विधाओं में भी कही जा सकती थीं और कही गयीं।

हाँ। इसीलिए लगता है-यह तो समझ में आता है-कि जो सामाजिक दायित्व है वह पूरा भी होता है। पर कविता में जैसी बहुत-सी बातें आती भी हैं, वे उतनी गहराई के साथ नहीं आतीं तो लगता है कहीं चेतना के बहुत गहरे स्तरों पर कहीं इन सवालों के साथ जो जुड़ाव है वह अस्तित्वगत स्तर पर महसूस नहीं करते, केवल नैतिक स्तर पर महसूस करते हैं। क्या ऐसा है?

इन सवालों का मैं नहीं जानता कि ‘हाँ’ या ‘न’ में क्या जवाब दे सकता हूँ। लेकिन यह जरूर है कि राजनीतिक प्रश्नों को लेकर मैंने राय प्रकट की है और उसके बारे में किसी को सन्देह में नहीं रखा और या रहने दिया। लेकिन इसके साथ-साथ जो राजनीतिक कर्म है वह नहीं किया; यह सवाल बन सकता है कि अगर ऐसे विश्वास थे तो कर्म में क्यों नहीं प्रकट हुए? और इसका जवाब भी यह होता है कि क्यों कि मैं क्रियात्मक राजनीति में नहीं जा रहा था इसलिए इससे अधिक...

उसमें भी आप गये। जब आवश्यकता थी तब तो गये ही।

उससे अधिक अनावश्यक था। लेकिन मेरी जो भी राय है, जो भी कह लीजिए स्टैंड है, वह तो स्पष्ट रहा है। उतना काफ़ी है। उससे आगे अगर...

शायद विरोध का कारण भी ज्यादातर वही रहा है मुझे लगता है-इस राय का ऐसा स्पष्ट होना ही! मेरा सवाल कविता ही को लेकर था। बाकी जगह विचार नहीं स्पष्ट है यह तो मैं नहीं कहता। बल्कि है, और बहुत साफ है। इसलिए कोई सन्देह नहीं।

इसमें तो इतना ही कहना है कि आपकी यह बात शायद सही है कि कविता में यह चीज़ें कम प्रकट हुई है। नहीं है, या जितनी कम अभिव्यक्ति है उसके बावजूद भी वह बड़ी स्पष्ट नहीं है, मैं ऐसा तो नहीं मानता।

नहीं, स्पष्ट तो है। पर उतनी गहरी नहीं है जितनी प्रकृति की कविताओं में, प्रेम की कविताओं में या आध्यात्मिक अनुभव की कविताओं में। कहा जाए कि उनमें जिस तरह की ‘इंटेन्सिटी’ है वैसी-

उस क्षेत्र या उस दिशा में अनुभव मात्र में ज्यादा हुए है, गहरायी में ज्यादा रहे हैं।

बल्कि क्या यह नहीं है कि राजनीति और अन्य चीज़ें कितनी ही महत्त्वपूर्ण क्यों न हों, इस तरह से एक आध्यात्मिक अर्थों में या बहुत गहरे भावनात्मक अर्थों में हमारे अस्तित्व का हिस्सा नहीं बनतीं जिस तरह से कि आध्यात्मिक या इस तरह के सौन्दर्य के अनुभव बनते हैं?

आप यह पूछ रहे हैं कि बन नहीं सकती?

हाँ।

यह तो मुझे नहीं मालूम। सामान्यतया, हाँ, ऐसा मान भी सकता हूँ। पर राजनीतिक सिद्धान्तों की चुनौती कभी उतनी गहरी नहीं हो सकती, यह नहीं कहूँगा। व्यावहारिक राजनीति की नहीं होती, यह ठीक है। पर सिद्धान्तों को लेकर आध्यात्मिक स्तर का लगाव आपको और कहाँ दीखता है-कविता में, समाज में, या हमारी राजनीति में भी? ठोस व्यावहारिक समाज में जी रहे हैं हम!*

*[यह संवाद दिसम्बर-1985 में दिल्ली में हुआ]

(शीर्ष पर वापस)

 

 

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