विश्वनाथ प्रसाद तिवारी के साथ संवाद*
* [अज्ञेय जी से यह बातचीत उनके निवास-स्थान
पर 11 अक्टूबर 1976 को हुई। इस बातचीत में विश्वनाथ प्रसाद तिवारी के
साथ केदारनाथ सिंह, परमानन्द श्रीवास्तव तथा वागीश शुक्ल शामिल थे।]
वि.प्र. तिवारी :
आप एक लम्बे समय से रचना और आलोचना के केन्द्र
में रहे हैं। आपका जो मूल्यांकन हुआ है उसके बारे में आपकी क्या
प्रतिक्रिया है? क्या आपको समझने की सही कोशिश हुई है?
अज्ञेय : मुझे इससे सन्तोष है कि
लगातार आलोचना हुई है-जिससे समझा जा सकता है कि कुछ-न-कुछ उत्तेजना
की सामग्री मेरे लेखन में रही है। मेरे सन्तोष के लिए यही काफ़ी है।
प्रशंसा कभी अच्छी भी लगती है पर हमेशा नहीं-तब तो बिलकुल नहीं जब
दीखता है कि उसके पीछे मूल्य विवेक नहीं है या कसौटियाँ ही गलत है।
वैसी प्रशंसा से ग्लानि ही होती है।
प्रतिकूल आलोचना से क्या आपने कुछ सीखा भी?
कुछ सीख सकते हैं तो उसी से। प्रशंसा से क्या सीखना है? हालाँकि
प्राय: अनुभव हुआ कि आलोचक ने मेरे लिए कुछ नयी बात नहीं कही है
बल्कि बहुत-सा ऐसा कहा है जिसे मैं ज़रूरी नहीं समझता। जब प्रतिकूल
आलोचना एक जानी हुई प्रतिज्ञा या पूर्वधारणा पर आधारित हो तो स्पष्ट
है कि मुझे भी पहले से पता होगा कि आलोचक क्या कहेगा! हाँ, यह फिर भी
सीख सकता हूँ कि उस पूर्वग्रह को तोडऩे के लिए क्या कर सकता हूँ। यह
सम्प्रेषण की एक समस्या है।
आपके विषय में इधर कुछ शोध-कार्य भी हुए हैं।
उन्हें देखकर कैसा लगा आपको?
बहुत अधिक तो देखे भी नहीं हैं, जो देखे हैं उनसे प्राय: बड़ी निराशा
होती रही है। एक तो तीन-चार बने-बनाये ढर्रे हैं जिनमें तथाकथित
‘शोध’ सामग्री बैठा दी जाती है। दूसरे नाम को ‘मनोवैज्ञानिक’,
‘समाजशास्त्रीय’, ‘ऐतिहासिक’, ‘दार्शनिक’ और ‘गणितीय’ तक शोध होते
हैं, लेकिन इन विधाओं से इसका सम्बन्ध बहुत कम होता है और निर्देशक
या परीक्षक भी इन विषयों के विद्वान नहीं होते। हिन्दी का हर
अध्यापक-निदेशक सर्वज्ञ होता है ऐसा मान लेना मेरे लिए तो असम्भव है,
उन्हें स्वयं ऐसा मानने में संकोच क्यों नहीं होता वे ही जानें!
स्वाभाविक है कि इस तरह के शोध-कार्य में जिन चीज़ों का महत्त्व होना
चाहिए उनकी उपेक्षा ही होती है। एक ही उदाहरण ले लीजिए-कथा या
उपन्यास की विधा में काल की अवधारणा की कितनी समस्याएँ उठती हैं और
उनका हल निकालने के लिए उपन्यासकारों ने कितने प्रकार की युक्तियाँ
निकाली हैं-किस प्रकार समस्याओं के समाधान की इस खोज ने ही उपन्यास
की विधा के विकास को रूप दिया है। इसकी कहीं चर्चा नहीं होती। विदेशी
आलोचकों के उद्धरण दे दिये जाते हैं-हिन्दी में शोध का प्रधान अंग
दूसरों का उद्धरण होता है!-और यह बता दिया जाता है कि भारतीय लेखक ने
शिल्प की अमुक युक्तिविदेश के अमुक उपन्यासकार से ली। कथावृत्त में
कोई आभ्यन्तर आवश्यकता भी हो सकती है जिसके कारण अमुक युक्ति ग्राह्य
होती है-यह सवाल ही नहीं उठता। पश्चिम में भी उपन्यास की विधा में
कोई नयी युक्ति क्यों आयी, किस आवश्यकता के कारण आयी और कहाँ तक उस
समस्या को सुलझा सकी जिसके कारण वह आवश्यक हुई थी; यह सब पूछना तो
दूर की बात हो जाती है।
इधर आपने कुछ अलग से ही काल-चिन्तन किया है।
हम उस सम्बन्ध में आपके विचार जानना चाहेंगे। विशेष रूप से हम यह
जानना चाहेंगे कि क्या इतिहास से परे काल की अवधारणा हो सकती है?
विज्ञान जब काल की नयी परिभाषा देता है तब विज्ञान की समस्याओं में
ऐतिहासिक काल की समस्या आती है। हमारे अनुभव में कोई भी घटना
ऐतिहासिक क्रम से नहीं होती। ऐतिहासिक काल और अनुभव का काल-दोनों दो
चीज़ें हैं। अनुभव की संरचना में काल हमेशा उलटी दिशा में चलता है।
परिणाम पहले और कारण बाद में अंकित होता है। भारतीय काल चिन्तन में
काल के एक से ज्यादा आयाम रहे। एक महाकाल की धारणा भी रही।
इन सब प्रश्नों पर तो मेरी एक पुस्तक ही आ रही है-संवत्सर, इसलिए
इसकी विस्तार से चर्चा नहीं करूँगा। लेकिन एक बुनियादी प्रश्न पूछा
जा सकता है : अगर कथा-विशेष रूप से कथा, लेकिन साधारणतया काव्य-रचना
मात्र-काल में अवस्थित होती है, घटित का एक रूप है, तो अगर हमारी काल
की अवधारणा आदिकाल से ही अलग प्रकार की रही है, तब क्यों नहीं हमारा
कथा-साहित्य और हमारा काव्य एक विशिष्ट प्रकार का होगा विशिष्ट
रूपाकार लेगा? ये विशिष्ट रूपाकार क्या हैं, क्या हो सकते हैं? अगर
मैं भारतीय हूँ-और अगर नहीं तो वही क्या अस्वास्थ्य नहीं है?-अगर मैं
भारतीय हूँ तो मेरे लिए यह क्यों आवश्यक है कि मैं पश्चिमी उपन्यास
लिखूँ, यानी कथा को एक पश्चिमी रूपाकार में ढालूँ? या यह क्यों
अनावश्यक है, या दोष है, या ‘अनाधुनिकता’ है, कि मेरी कथा भारतीय
अवधारणाओं के आज के सन्दर्भ तक प्रक्षिप्त करे?
आपकी कविता में काल का क्या रूप है?
स्वभावत: कई रूप हैं और जैसे-जैसे काल के अनेक आयामों की मेरी पहचान
बढ़ती गयी है वैसे-वैसे मैंने अपनी रचना में भी उन्हें प्रतिबिम्बित
करने का प्रयत्न किया है बल्कि मैंने क्या प्रयत्न किया है-स्वाभाविक
है कि अगर काल के विभिन्न आयामों का बोध मुझे है तो मेरे अनुभव की
संरचना भी उन्हीं के अनुरूप कई आयामों पर संघटित होगी। यों एक तत्त्व
मेरी कविता में शुरू से रहा है जिसकी ओर एक आध व्यक्ति का ही ध्यान
गया है और वह भी ऐसे व्यक्ति का जो स्वयं आलोचक कम और कवि अधिक
है-जैसे त्रिलोचन। यह है कविता में नाटकीय तत्त्व या नाटकीय
स्थितियों का प्रक्षेपण। और नाटकीय स्थिति स्पष्ट ही काल में
अवस्थिति का प्रश्न है, काल के आयामों को प्रस्तुत और सम्प्रेषित
करने की समस्या का रूप है। इस दिशा में मैंने अवश्य ही अँग्रेज़ी कवि
रॉबर्ट ब्राउनिंग से कुछ सीखा। लेकिन संस्कृत और प्राकृत साहित्य से
भी बहुत अधिक सीखा। दोनों का मुक्तक काव्य और सुभाषितों का भंडार आज
के कवि को बहुत कुछ सिखा सकता है-वस्तु अथवा अभिप्रायों की दृष्टि से
नहीं बल्कि अनुभव की संरचना और उसे सम्प्रेष्य रूप दे सकने की दृष्टि
से।
कतिपय आलोचक ऐसा मानते हैं कि ‘असाध्य वीणा’
आपकी सर्वोत्तम उपलब्धि है।
उसे लोग अच्छा मानें, यह तो मुझे अच्छा भी लगेगा, लेकिन सर्वोत्तम है
इसका फैसला तो तभी होगा जब जो कुछ लिखना है सब लिख चुकूँगा। मैं अभी
से मान लूँ कि अमुक एक रचना मेरी सर्वोत्तम रचना है-यानी थी- तो फिर
और लिखूँगा क्यों? बाकी किसके क्या अच्छा और क्या सबसे अच्छा लगता
है, यह निर्णय करने का उसे पूरा अधिकार है-दूसरों को वैसा मानने को
मनाने का भी अधिकार है।
नये मूल्यों और नये प्रतिमानों की इधर जो
चर्चा होती रही है उनके बारे में आपका क्या विचार है?
इधर ‘नयी कविता के प्रतिमान’ और ‘कविता के नये प्रतिमान’ जैसे
विश्लेषण किये गये। मैं दोनों से सहमत नहीं। किसी भी समय की कविता को
उसी समय में पहचानने के लिए कुछ नये मानदंड ज़रूरी होते हैं, हालाँकि
यह आवश्यक नहीं है कि वे मानदंड कालान्तर में भी बने रहें। यानी यों
समझ लीजिए कि दो कसौटियाँ होती हैं; एक कसौटी पर हम अपने समय की रचना
का मूल्यांकन अपने समय में ही करते हैं, और एक दूसरी कसौटी होती है
जिस पर हम रचना को केवल पूर्ववर्ती ही नहीं बल्कि परवर्ती रचना के
साथ भी जोडक़र उसकी परीक्षा करते हैं। यानी अपने समय की समकालीन
परीक्षा में सन्दर्भ केवल अतीत होता है, (वर्तमान तो है ही), भविष्य
नहीं; लेकिन किसी दूसरे युग की कविता का विचार करते समय हम केवल उसके
अतीत तक सीमित न रहकर परवर्ती विकास को भी देखते हैं।
जब मैं कहता हूँ कि आज की कविता के आज मूल्यांकन में सन्दर्भ केवल
अतीत है, भविष्य नहीं, तो उसका अर्थ यह नहीं लगाना चाहिए कि मैं केवल
किसी पुराने मानदंड से समकालीन कविता की जाँच का अनुमोदन कर रहा हूँ,
बल्कि उससे ठीक उलटा। समकालीन कविता की समकालीन समीक्षा में हम
पुराने निकर्ष पर आज की रचना की परख नहीं बल्कि आज की रचना पर पुराने
निकर्ष की परख कर रहे होते हैं। कल जब हम आज की रचना की परीक्षा
करेंगे तब आज के निकष भी उतने ही परीक्षणीय हो गये होंगे जितने कि
पुराने मानदंड आज हैं। मैंने कहा कि दो कसौटियाँ होती हैं; और दोनों
से हमें अलग-अलग तरह की लेकिन परस्पर-पूरक जानकारी मिलती है।
यह खेद की बात है कि अधिकतर नये प्रस्तावित मानदंड साहित्य क्षेत्र
के बाहर के हैं।
कुछ तो बहुत ज्यादा अन्दर के हैं- जैसे तनाव,
विसंगति और विडम्बना।
हाँ, इनके आधार पर हम समझ सकते हैं कि कविता क्यों और कैसे लिखी जा
रही है। उनसे उसकी प्रामाणिकता का विवेचन सम्भव है पर कालान्तर में
भी वह श्रेष्ठ रचना बनी रहेगी, इसका उत्तर इनसे नहीं मिलता।
महत्त्वपूर्ण यह है कि कोई रचना कितना सम्प्रेष्य है। समाज से उसका
रिश्ता क्या है? सम्प्रेषण ही केन्द्रीय समस्या है जिसकी प्राय:
उपेक्षा हुई है। वाचिक परम्परा में समाज प्रत्यक्ष होता है। रचनाकार
उसे तत्काल प्रभावित करता है और वह रचनाकार को। किन्तु दूसरी स्थिति
में रचना लिखी जाने के बाद बरसों पड़ी रहती है। फिर मुद्रित होती है।
इस प्रकार मुद्रित साहित्य के युग में दूरी बढ़ती है जो अलगाव
(एलिएनेशन) पैदा करती है। यह परिस्थिति में ही निहित है। यहाँ किताब
मानो दीवार के रूप में प्रे्रषक (कवि) और गृहीता (समाज) के बीच रहती
है। जब प्रत्यक्ष नहीं है कि पढ़ेगा कौन, तो कल्पित श्रोता को ही
सम्बोधन सम्भव है। कवि अपने ही एक अंश को श्रोता बनाकर कविता कहता
है। उसी से वह जानता है कि सम्प्रेषण हुआ है या नहीं-कि कविता
सम्प्रेष्य हो गयी कि नहीं। यह हो सकता है कि उसका यह निर्णय गलत भी
हो; वह कितना सही है यह इस पर भी निर्भर करेगा कि वह कहाँ तक समग्र
समाज से एकात्म है-क्योंकि जैसा वह स्वयं होगा वैसा ही तो कल्पित
श्रोता अपने भीतर से रचेगा। फिर भी सम्प्रेष्यता के बारे में
जिज्ञासा हर रचना-कर्म का अंग होती है : यह रचना-प्रक्रिया का एक
अविभाज्य अंग है।
विडम्बनाओं में एक यह भी है कि आज लेखक जिस भारतीय समाज के लिए लिखता
है उसका दो-तिहाई या तीन-चौथाई तो निरक्षर ही है। एक-तिहाई साक्षरों
में भी पढऩे वाले तो थोड़े से ही हैं। फिर साक्षरों में बहुत से
साक्षर होते हुए भी अपेक्षया अधिक विद्या-विहीन हैं क्योंकि वे
पारम्परिक सभी कसौटियाँ खो चुके हैं; जबकि निरक्षरों में कुछ ऐसे भी
हैं जिनके पास वाचिक-परम्परा से अवशिष्ट कसौटियाँ बची हुई हैं। इससे
विडम्बना का रूप और भी जटिल हो जाता है।
क्योंकि आज का भारतीय लेखक सबसे पहल आज के लिए लिखता है और भारत के
लिए लिखता है, इसलिए यह जानते हुए लिखता है कि समाज का बहुत बड़ा भाग
उसे पढ़ेगा नहीं, पढ़ सकेगा नहीं; केवल अल्पांश पढ़ सकेगा : साथ ही
वह यह भी जानता है कि उस अल्पांश का भी एक बड़ा हिस्सा अधिक अजनबी
होगा-और समाज के बहुत बड़े भाग का जो अंश कसौटियों से उतना अजनबी
नहीं होगा, उस तक रचनाएँ पहुँचेगी नहीं क्योंकि वह निरक्षर होगा।
भविष्य में तो पहुँच सकती हैं?
ऐसी आशा तो करनी चाहिए। मैं भी करता हूँ। लेकिन ‘मैं भविष्य के लिए
लिख रहा हूँ’ इसका अर्थ यह लगा लें कि इसलिए आज का पाठक मेरे लिए
महत्त्व नहीं रखता, बड़ा खतरनाक होगा। इस रपटन पर कई समकालीन लेखक
फिसल चुके हैं। जो लेखक अपने काल के विवेकवान पाठक को नहीं छू सकता
वह भविष्य के बारे में किसी अनुमान के सहारे खड़ा नहीं हो सकता।
सिद्धान्तत: इस बात को हम सम्भव मान भी लें कि कोई लेखक, जिसे आज कोई
नहीं समझता, भविष्य में एकाएक महत्त्व पा जाएगा तो भी इसके सहारे हम
आज नहीं चल सकते। मैं जानता हूँ कि कुछ लेखक अपने जमाने में पागल
समझे गये जिन्हें कालान्तर में सम्मान मिला। लेकिन इससे यह परिणाम
निकालने में असमर्थ हूँ कि मेरा लक्ष्य ही यह होना चाहिए कि मैं अपने
जमाने में पागल समझा जाऊँ।
क्या नयी कविता में भक्ति-तत्व को या श्रद्धा
को आप बिलकुल अप्रासंगिक मानते हैं?
आपके प्रश्न का उत्तर देने से पहले एक-दो पारिभाषिक बातें स्पष्ट हो
जानी चाहिए। ‘नयी कविता’ से आपका आशय आज का एक लेखन-सम्प्रदाय भी हो
सकता है और आज की समस्त कविताएँ भी हो सकती हैं। फिर जब आप किसी चीज़
को ‘अप्रासंगिक’ कहते हैं तो प्रश्न यह उठता है कि किस आधार-भूमि पर
खड़े होकर आप उसे तौल रहे है। मैं मान लेता हूँ कि आप एक
काव्य-आन्दोलन की बात न करके समग्र समकालीन कविता की बात कर रहे हैं।
यह भी मान लेता हूँ कि आपका प्रश्न किसी भी प्रकार की श्रद्धा नहीं,
धार्मिक श्रद्धा व भगवत-भक्ति से सम्बन्ध रखता है। इस सन्दर्भ में
मैं आपसे पूछता हूँ कि अगर आप मानते हैं कि किसी समय यह देश
श्रद्धालु, धर्म-विश्वास और ईश्वर-भक्त था और आज वैसा नहीं है, तो
कहीं-न-कहीं तो टूटन या परिवर्तन दीखना चाहिए? विश्वास चाहे एकाएक
टूटा हो, चाहे धीरे-धीरे जर्जर हुआ हो, साहित्य में उसका प्रतिबिम्ब
तो कहीं मिलना चाहिए। वह कहाँ है? एक श्रद्धावान समाज कालान्तर में
श्रद्धा विहीन समाज बन गया तो उस संक्रमण के लक्षण कहाँ हैं? उस
संक्रमण काल का साहित्य कौन-सा है? कहीं-कहीं आपको आध्यात्मिक शंका
का काव्य मिल जाएगा लेकिन जिन कवियों की रचना में मिलेगा उन्हें भी
आप अन्ततोगत्वा अस्तित्व कवि ही पाएँगे। तब फिर प्रश्न का रूप कुछ
बदल जाता है। अगर संक्रमण कभी हुआ ही नहीं तब दो में से एक बात माननी
पड़ेगी-या तो भारतीय समाज आज भी श्रद्धावान है तो भक्ति की चर्चा या
काव्य में उसकी अभिव्यक्ति, स्पष्ट ही प्रासंगिक हो जाती है, और अगर
पहले भी कभी श्रद्धावान नहीं था तब आज जो टूटन और आध्यात्मिक संत्रास
वगैरह की चर्चा होती है, वह सब भी एक आयातित फैशन है, पाखंड है।
आयातित इसलिए कि पश्चिम के साहित्य में तो वह स्पष्ट दीखता है, और
वहाँ उसका कारण भी दीखता है यानी वहाँ हम देख सकते हैं कि श्रद्धा के
टूटन का युग साहित्य में स्पष्ट प्रतिबिम्बित है और विश्वास बनाये
रखना चाहने पर भी उसमें असफल होने का आध्यात्मिक क्लेश भी साहित्य
में पहचाना जाता है। भारत में ऐसा नहीं है।
स्वयं आपके लेखन में क्या भक्ति-चेतना है? और
है तो उसका स्वरूप क्या है?
इसकी चर्चा मुझे क्यों करनी चाहिए। रचनाएँ पाठक के सामने हैं : वह जो
समझे! हाँ, इतना कह सकता हूँ कि लिखते समय अपने से बड़ा कुछ पहचानता
हूँ- जो कुछ भी मैं मूल्यवान समझता हूँ उस सबसे बड़ा कुछ। उसे आप
भक्ति-चेतना मानें तो मुझे आपत्ति नहीं।
क्या आपकी राय में कवि को राजनीति-निरपेक्ष
रहना चाहिए?
मैं इसे इस रूप में रखूँगा कि कवि राजनीति से निरपेक्ष नहीं हो सकता,
कविता राजनीति से निरपेक्ष हो सकती है।
राजनैतिक कविता के बारे में आप क्या सोचते
हैं?
वास्तव में राजनैतिक कविता कुछ नहीं होती; कविता, कविता ही होती है :
ऐसी हो सकती है कि राजनैतिक प्रेरणा से लिखी गयी हो, ऐसी भी हो सकती
है जिसका राजनैतिक प्रभाव हो; जैसे कि ऐसी भी हो सकती है जिसकी
प्रेरणा या जिसका प्रभाव धार्मिक या आध्यात्मिक हो। फिर कविता ऐसी हो
सकती है जिसमें किसी एक राजनीति दर्शन का आभास मिलता हो-जैसे कि
कविता ऐसी हो सकती है जिसमें किसी एक या दूसरे धर्म-दर्शन की झलक
हमें मिले, उसकी मूल्य-व्यवस्था की प्रतिष्ठा हो। ऐसे प्रभाव के कारण
या उसमें निहित मूल्य-बोध के कारण आप कविता को धार्मिक या राजनैतिक
आदि कह लें तो कह सकते हैं। और भी ब्यौरे में जाकर ईसाई कविता या
हिन्दू कविता या मकर््िसस्ट कविता आदि भी कह सकते हैं। ऐसे पद
निरर्थक नहीं हो जाएँगे, लेकिन इसीलिए कि यह स्पष्ट रहेगा कि ये
विशेषण काव्य का मूल्यांकन नहीं कर सकते हैं बल्कि उसमें पहचाने जा
सकने वाले तत्त्व की एक कोटि का निरूपण कर रहे हैं।
दूसरी ओर अगर राजनैतिक कविता से आपका आशय राजनैतिक लक्ष्यों की
पूर्ति या राजनैतिक आन्दोलनों के समर्थन के लिए लिखी गयी कविता से है
तो मैं कहूँगा कि ऐसी रचनाएँ राजनैतिक तो अवश्य हो सकती हैं, कविता
वे नहीं भी हो सकती हैं। काव्य वे हैं या नहीं इसका निर्णय उनकी
राजनैतिकता पर निर्भर नहीं करेगा। यानी यों भी कह सकते हैं कि
‘राजनैतिक कविता’ काव्य की विधा और उसके शिल्प का राजनैतिक उपयोग है।
नि:सन्देह किसी भी साहित्यिक विधा का ऐसा उपयोग किया जा सकता है और
केवल राजनीति के लिए ही नहीं, और अनेक साहित्येतर उद्देश्यों के लिए
भी। विज्ञापन के लिए भी कविता-कहानी का शिल्प काम में लाया जा सकता
है और काम में लाया जाता है। कपड़ा और सब्जी-तरकारी और मिठाई बेचने
के लिए भी काम में लाया जाता है। हम चाहें तो ‘राजनैतिक’ कविता की
तरह ‘विज्ञापनीय’ कविता की भी चर्चा कर सकते हैं। और अपने क्षेत्र
में वह भी उतनी ही संगत होगी। ऐसी ‘कविता’ की सफलता की कसौटी तो यही
होगी न, कि जिस लक्ष्य की पूर्ति के लिए वह लिखी गयी उसमें योग देती
है या नहीं? अगर वह लक्ष्य साहित्यिक नहीं है तो वह कविता भी कविता
नहीं है-सफल पद्य होकर भी।
प्रतिबद्ध कविता के बारे में आपका क्या खयाल
है?
यही कि प्रतिबद्ध कविता लेखक की कविता है तो ‘प्रतिबद्ध’ कविता है।
यदि प्रतिबद्ध लेखक की नहीं है तो फिर नहीं है। वह कविता है कि नहीं,
इसकी परख के लिए मैं तो यह देखूँगा कि रचना की दृष्टि कितनी सच्ची
है।
सन् साठ के बाद की कविता पर आपकी क्या
प्रतिक्रिया है?
उसमें मुझे ऐसा बहुत कम मिलता है जिसकी मैं काव्य से अपेक्षा करता
हूँ। भाषा के कुछ नये गुण मिल जाएँगे, कुछ नये बिम्ब मिल जाएँगे
वगैरह। लेकिन इतना तो काफ़ी नहीं होता। अच्छे काव्यमें सच्चाई की नयी
पहचान होती है-ऐसी पहचान कि जिसके बाद पाठक अपने को भी एक नये रूप
में पहचानता है-यानी अपने में उस नयी पहचान के सामथ्र्य को पहचानता
है और यह भी देखता है कि इस प्रकार एक सीढ़ी आगे बढ़ जाने के बाद अब
पीछे लौटना सम्भव नहीं रहा है। इस अर्थ में अच्छा काव्य संसार को
बदलता है चाहे कितना ही थोड़ा-थोड़ा करके। इस गुण का 60 के बाद की
कविता में खासा अभाव है।
आपके सवाल का जवाब एक-दूसरे ढंग से भी दे सकता हूँ। कुछ लोग तो, खैर
पुस्तकें पढ़ते नहीं और रखते भी नहीं, लेकिन जो लोग पढ़ते हैं और
पुस्तकें संग्रह करते हैं उनकी भी दृष्टियाँ अलग-अलग होती हैं। मैं
अपनी बात कहूँ : कुछ पुस्तकें ऐसी होती हैं जिनके बीच और जिनके साथ
मैं रहना चाहता हूँ। यह ज़रूरी नहीं है कि रोज उन्हें पढूँ या सबको
बार-बार पढूँ। लेकिन अपने आसपास उनके बने रहने से एक अपना संसार बने
रहने का बोध होता है। कुछ चित्र भी ऐसे होते हैं और चीज़ें भी ऐसी
होती हैं। इस कोटि की पुस्तकों के अलावा कुछ ऐसी होती हैं जिन्हें हम
इसलिए रखते हैं कि उनकी किसी वक्त भी जरूरत पड़ सकती है। ये पुस्तकें
हमारे परिवेश या हमारे संसार को बनाने वाली नहीं होंगी, केवल सुविधा
की दृष्टि से पहुँच के भीतर रखी जाती हैं। मैं कहूँ कि साठोत्तरी
कविता के बहुत से संग्रह मेरे पास हैं तो ऐसा इसलिए नहीं है कि उनके
बीच मैं रहना चाहता हूँ या कि उनसे मुझे अपने संसार के बनने का बोध
होता है : उन्हें इसलिए रखता हूँ कि उनकी जरूरत पड़ सकती है।
छन्दोबद्ध कविता का क्या भविष्य है?
छन्द का अर्थ केवल तुक या बँधी हुई समान मात्रा नहीं है। तुक छोड़
देते ही छन्द टूट जाता है यह मैं नहीं मानता। छन्द योजना का ही एक
नाम है। जहाँ भाषा की गति नियन्त्रित है वहाँ छन्द है। तुक इस
संयोजना अथवा नियन्त्रण का केवल एक प्रकार है। हमारे काल में तो
कविता ने प्राय: तुक को छोड़ कर अपने को उपलब्ध किया है- तुक द्वारा
संयोजन में एक प्रकार की कृत्रिमता आती देखकर कविता ने नियन्त्रण और
संयोजन के दूसरे स्तरों और प्रकारों का सन्धान किया है।
रूप तो छन्द से भी व्यापकतर चीज़ है। जहाँ कविता का प्रश्न होता है
वहाँ छन्द से भी आगे बढक़र हम रूप का प्रश्न उठा रहे होते हैं-बल्कि
उस रूप को पहचानने, आत्मसात करने और सम्प्रेष्य बनाने का ही साधन
छन्द है।
बोलचाल की भाषा को सर्जनात्मक भाषा बनाने में
क्या समस्याएँ आती हैं?
बोल-चाल की भाषा को लेकर एक भ्रान्ति काफ़ी दूर तक फैली हुई है। एक
चीज़ है बोल-चाल की भाषा की अन्विति : एक दूसरी चीज़ है बोल-चाल की
भाषा की शब्दावली। सर्जनात्मक भाषा का प्रश्न इन दोनों से आगे तक
जाता है। कविता निरन्तर विशिष्ट शब्दावली को छोड़ कर साधारण शब्दावली
को अपनाने का प्रयत्न करती रही है : पद्य में प्रचलित और सम्भाष्य
कृत्रिम अन्वितियों को छोड़ कर वह बोल-चाल की भाषा की सहज अन्विति के
निकटतम आने का भी प्रयत्न करती रही है। लेकिन यह कहने का अर्थ यह
नहीं है कि रचनात्मक भाषा और बोल-चाल की भाषा एक हो गयी है। कवि
जाने-पहचाने शब्दों का प्रयोग करता है। उन्हें यथा सम्भव जाने-पहचाने
या सहज ग्राह्य अनुक्रममें ही रखता है। लेकिन उन्हीं शब्दों से वह
नये अर्थ की सृष्टि करता है। यानी शब्द परिचित हैं, लेकिन शब्द
प्रयोग विशिष्ट और रचनात्मक हो जाता है, एक हद एक तो यह साधारण
अन्विति के विचलन से होता है: फिर यह परिचित शब्दों को ही अभूतपूर्व
परिवेशों में बैठाने से भी होता है इत्यादि। कवि कभी अभिधा की अवज्ञा
या उपेक्षा नहीं करता है : लेकिन कभी अपने को उतने-भर से बाँध कर भी
नहीं रखता। जो कविता केवल अभिधेयार्थ तक अपने को सीमित रखता है उसकी
कविता उतनी ही इकहरी होती है जितना हमारा एक प्रयोजनवती भाषा का
साधारण व्यवहार। एक बार पढऩे में ऐसी कविता चुटीली भी जान पड़ सकती
है लेकिन उससे आगे उसमें कुछ नहीं रहता। अखबार पढऩे वाले रोज नये
अखबार की प्रतीक्षा करते हैं और कभी-कभी यह प्रतीक्षा आतुर भी हो
सकती है : लेकिन पढ़ लिये जाते ही अखबार रद्दी हो जाता है-या थोड़े
से लोगों के लिए उस दूसरी कोटि में आ जाता है ‘जिसकी कभी जरूरत पड़
सकती है।’
मैं जानता हूँ कि आपके सवाल का पूरा जवाब यह नहीं है। सच कहूँ तो यह
जवाब ही नहीं है। सर्जनात्मक भाषा बनाने की समस्याओं का कोई अन्त
थोड़े ही है। हर कवि के लिए ही नहीं, हर रचना के लिए समस्याएँ
अद्वितीय रूप में आती हैं और रचना हो जाने के बाद ही वास्तव में इस
प्रश्न का सही विचार होता है कि क्या समस्या थी और उसका क्या निराकरण
हुआ। यानी रचनात्मक भाषा की समस्याएँ भविष्यत् के रूप तक नहीं देखी
जातीं : अतीत के रूप में ही दीखती हैं। यों हम ऐतिहासिक दृष्टि से
लम्बी-चौड़ी सूची बना सकते हैं। जो दूसरों के लिए उपयोगी भी हो सकती
है।
गद्य भाषा और काव्य भाषा में भेद का आधार क्या
हो?
आधार क्या हो, इसका जवाब तो क्या दूँ। क्या भेद है इसका कुछ संकेत तो
मैंने रख ही दिया। गद्य भी तो अनेक प्रकार का होता है। जहाँ प्रयोजन
प्रधान है या किसी निभ्रान्त जानकारी का सम्प्रेषण अभीष्ट है वहाँ
गद्य इकहरा भी हो सकता है और वहाँ शब्दों का पर्यायत्व भी माना जा
सकता है-एक शब्द के बदले दूसरा शब्द हम कोश से लेकर रख सकते हैं।
लेकिन रचनात्मक गद्य में स्थिति इतनी सरल नहीं रहेगी और हम क्रमश: उन
जटिलतर स्थितियों की ओर बढ़ते जाएँगे जो काव्य-भाषा के सामने आयी
हैं। यों कुछ मोटे भेद किये जा सकते हैं। बलाघात और काकु का महत्त्व
गद्य में अधिक होता है। काव्य में स्वर मात्रा का नियन्त्रण अधिक
महत्त्व रखता है। स्वर मात्रा का नियन्त्रण काव्य-भाषा की गति को
धीमा करता है। यह नियन्त्रण उस सतही नियन्त्रण से अधिक गहरा होता है
जो गद्य में लक्षित होता है। इस गहराई के कारण ही काव्य में बहुत कुछ
ऐसा भी सहज भाव से कहा जा सकता है जो गद्य में शील विरुद्ध या
संगोप्य या अश्लील तक जान पड़ सकता। गद्य की भाषा में जो भाव असंयत
जान पड़ते हैं काव्य-भाषा में इस गम्भीरतर अनुशासन के कारण संयत हो
जाते हैं।
बुनियादी बात यह है कि गद्य का सीधा संबंध भाषा से है। काव्य का भाषा
से नहीं बल्कि शब्द से और उसकी सत्ता से।
आप अपने रचनात्मक विकास के क्रम में कुछ विशेष
लेखकों से प्रभावित भी हुए होंगे? क्या कुछ नाम लेंगे?
प्रभावित तो अनेकों से हुआ हूँगा लेकिन नाम गिनाना तो कठिन है और
उसमें जोखिम भी है। हम जो कुछ पढ़ते हैं सभी से प्रभावित होते हैं।
प्रभाव अनुकूल भी होते हैं प्रतिकूल भी। फिर अच्छा लगने और ‘प्रभावित
होने’ में अन्तर भी है-महत्वपूर्ण अन्तर। कई बार ऐसा होता है कि हम
अपेक्षया साधारण लेखकों से भी प्रभावित होते हैं-उनसे कुछ सीखते भी
हैं। नाम गिनाते समय लोग यह भी सोचते हैं कि अच्छे और बड़े
साहित्यकारों के नाम गिनाये जाएँ जिससे कि सुनने वाला यह भी जाने कि
हम अच्छा साहित्य पढ़ते रहे हैं। मैंने भी बहुत-सा अच्छा साहित्य
पढ़ा है-महान् कवियों और कथाकारों की चीज़ें पढ़ी हैं-मैं चाहता हूँ
कि आप ऐसा विश्वास करें लेकिन मैंने भी ऐसा बहुत कुछ पढ़ा है जो
बिलकुल घटिया था, और यह सिर्फ संपादक होने के नाते नहीं-मनोरंजन के
लिए भी, वक्त काटने के लिए भी। और यह नहीं कह सकता कि इस घटिया
साहित्य से भी कुछ सीखा नहीं : बल्कि उपन्यास और कथा कि विधा में तो
यह भी कहा जा सकता है कि कई घटिया साहित्यकार बड़े कुशल-शिल्प विशारद
होते हैं और शिल्प की दृष्टि से उनसे अधिक सीखा जा सकता है।
बहुत पढऩे से क्या रचनाकार की मौलिकता पर असर
नहीं पड़ता?
मैंने कहा न कि असर तो सब-कुछ का पड़ता है। वैसे यह मैं मानता हूँ कि
पंडित कवि की कविता कुछ अलग प्रकार की होती है या हो जाती है। सभी
भाषाओं में ऐसे कवि हुए हैं जिन्हें पंडित कवि कहा गया है। पर मैं यह
नहीं मानता कि पढऩे से मौलिकता घटती है-मौलिकता होगी तो घटेगी क्यों?
पढऩे से कवि को लाभ भी हो सकता है, उसकी रचना में गहराई भी आ सकती
है, व्यंजना का क्षेत्र भी बढ़ सकता है। शर्त यही है कि कवि पांडित्य
में खो न जाए-अपने पाठक या समाज को भूल न जाए।
क्या कुछ ऐसी भी महत्वपूर्ण घटनाएँ हैं
जिन्होंने आपके लेखन को विशेष रूप से प्रभावित किया है?
जरूर हैं और होंगी। लेकिन लेखक का एक निजी जीवन भी होता है जिसे कम
से कम उसे स्वयं तो निजी ही रहने देना चाहिए। मैं तो निजी जीवन की
सुरक्षा को हमेशा विशेष महत्व देता रहा हूँ और आज और भी अधिक देता
हूँ जब जीवन की निजता एक ओर यांत्रिक सभ्यता के विकास से और दूसरी ओर
व्यवसायी पत्रकारिता से और भी आक्रांत होती जा रही है। यांत्रिक
सभ्यता का दबाव तो निर्व्यक्तिक माना जा सकता है। व्यवसायी
पत्रकारिता की प्रवृत्ति जैसी होती जा रही है कि उसे साहित्य के
गुण-दोष में रुचि नहीं रहती, न वह अपने पाठक का गुण-दोष विवेक बढ़ाती
है। उसकी दिलचस्पी साहित्यकार को उघाडऩे-उघेडऩे में अधिक रहता है और
इसी सनसनी की एक अस्वस्थ तलाश उसे रहती है-उसी के नशे की आदत वह
बढ़ाती है।
जिन घटनाओं ने मेरे लेखन को प्रभावित किया उनका प्रभाव लेखन में
मिलेगा ही। लेखन में जितना मिलेगा उतना ही संगत होगा। नहीं तो जिस
लेखक के जीवन की जानकारी हमें नहीं है क्या उसके साहित्य का
मूल्यांकन हमारे लिए असम्भव हो जाता है? कालिदास या भवभूति के जीवन
की घटनाओं के बारे में हम कितना जानते हैं? अवश्य ही उनके जीवन में
कुछ न कुछ महत्वपूर्ण घटित हुआ होगा।
इधर की आलोचना में ‘ईमानदारी’ और ‘प्रामाणिक
अनुभूति’ की माँग बहुत की गई है। एक लेखक के रूप में आप इसे किस रूप
में स्वीकार करते हैं?
माँग तो अवश्य बहुत हुई है, लेकिन जिन लोगों ने माँग पर बहुत ज्यादा
बल दिया उन सबने उसकी पूर्ति का भी उतना सात्विक प्रयत्न किया हो ऐसा
तो मुझे नहीं लगता। असल में ये दोनों शब्द कुछ समकालीन मतवादी
प्रवृत्तियों के साथ जुड़े हुए हैं और उन्हीं के संदर्भ में समझे जा
सकते हैं। पहले का कवि ईमानदार नहीं था या उससे ईमानदारी अपेक्षित
नहीं रही हो, ऐसा नहीं था; फिर भी ईमानदारी की उतनी चर्चा साहित्य और
साहित्य विवेचन के क्षेत्र में नहीं होती थी क्योंकि ईमान जिन चीज़ों
पर होता था या जिन चीज़ों पर होना आवश्यक माना जाता था-साहित्य में
भी, सामाजिक जीवन में भी-उनके बारे में पूरा समाज प्राय: एकमत था।
यानी पूरे समाज का जीवन एक ही मूल्य-व्यवस्था से अनुशासित था। ईमान
एक था, ईमानदारी एक थी। अब ऐसा नहीं है। लम्बे विश्लेषण का तो अवसर
यह नहीं है, लेकिन मोटे-तौर पर कहें कि मतवादी आग्रहों से विभाजित
समाज में अनेक मूल्य दृष्टियाँ है और विभिन्न मूल्य-अवस्थओं के
अपने-अपने अनुयायी हैं। जो दूसरे मतवादों और उनकी मूल्य दृष्टियों पर
शंका करते हैं उनके लिए दल-निष्ठा का प्रश्न महत्वपूर्ण हो गया है और
साहित्यिक सम्प्रदायों में भी लगभग उतना ही महत्व रखता है जितना
राजनैतिक सम्प्रदायों में। इसीलिए ईमानदारी की इतनी चर्चा है और अपनी
बिरादरी से बाहर के सभी लेखकों की ईमानदारी पर प्रश्नचिह्न लगाया
जाता है।
प्रामाणिक अनुभूति की बात भी ऐसी ही है, बल्कि शायद कुछ जटिलतर है।
प्राचीन युग में और रीतिकाल तक ‘प्रामाणिक अनुभूति’ की कोई चर्चा
नहीं होती। औचित्य का विचार होता है, जिसका सम्बन्ध कवि की अनुभूति
से नहीं, अनुभूतियों के साधारणीकृत रूप से और काव्य में प्रस्तुत
स्थिति के साथ उस रूप के सामंजस्य से है। और परम्परा में हमेशा कवि
ऐसी बातों की भी चर्चा करते रहे जिनकी अनुभूति का कोई सवाल ही नहीं
उठता था, बल्कि यह भी कह सकते हैं कि प्रामाणिकता का अनुभूति से
संबंध ही नहीं जोड़ा जाता था।
कवि की ओर से कोई दावा न हो कि वह जो लिख रहा है अनुभूति के आधार पर
लिख रहा है, और फिर भी उसे बेईमान मानने की किसी को न सूझे-ऐसा क्यों
था?
अनुभूति की बात कवि के व्यक्तित्व से जुड़ी हुई है। जिस काव्य में
कवि का व्यक्तित्व प्रधान नहीं होता उसमें अनुभूति की दुहाई नहीं दी
जाती। वाचिक परम्परा का समूचा काव्य रीति-प्रधान है : उसमें कहीं कवि
के व्यक्तित्व की छाप अपेक्षित नहीं है बल्कि उसे दोष भी माना जा
सकता है। और उसमें कहीं अनुभूति का प्रमाण भी नहीं माँगा जाता
है-यानी रचनाकार की अनुभूति का प्रमाण, बल्कि अनुभूति के प्रामाण्य
का सवाल उठता है तो दूसरे पक्ष की अनुभूति को लेकर-गृहीता समाज की
अनुभूति को लेकर। यानी सवाल यह नहीं होता कि कविता में जो है उसे कवि
की अनुभूति कहाँ तक प्रमाणित करती है (और वह कहाँ तक कवि की अनुभूति
को प्रमाणित करता है), सवाल यह बनता है कि वह कहाँ तक सामाजिक की
अनुभूति में प्रमाणित होता है-जो कि साधारणीकरण की समस्या का एक पहलू
है।
पिछले दिनों के लेखन में कुछ शब्द बार-बार
उछाले गये हैं, जैसे ‘यथार्थ’, ‘आधुनिकता-बोध’, ‘विद्रोह’ और
‘क्रान्ति’ आदि। एक रचनाकार की हैसियत से आपके निकट इन शब्दों का
क्या अर्थ है?
सुनिए, जिन चीज़ों पर विस्तार से और हाल ही में लिख चुका हूँ उन पर
कुछ न कहलाइए तो क्या? ‘यथार्थ’ की और आधुनिकता बोध की और परम्परा की
प्रासंगिकता की काफ़ी चर्चा मैंने की है, ‘भवन्ती’ में, ‘अन्तरा’ में;
कहानी-संग्रह की भूमिकाओं में और कुछ व्यायानों में जो छप गये हैं या
छप रहे हैं। उन बातों को दोहराने से भी लाभ नहीं और है यहाँ कोई जवाब
दे देने से कुछ सिद्ध नहीं होता।
‘विद्रोह’ और ‘क्रान्ति’-इनके बारे में जरूर कुछ सोचने को है। सोचने
को है तो कहने को भी होगा। लेकिन अभी तुरन्त नहीं जानता कि क्या
कहूँ। इनकी जो परिकल्पना ‘शेखर : एक जीवनी’ के चरित-नायक की थी वह आज
मेरी नहीं है, इतना तो कह सकता हूँ। रोमानी भावना का मुलम्मा काफ़ी
कुछ उतर चुका है, यह पहचानता हूँ कि अपनी दृष्टि के विकास से जो
परिवर्तन होता है या हो सकता है वह अधिक गहरा और टिकाऊ होता है। यह
भी कि जब हम दूसरे के विवेक से अपने विवेक को बड़ा मान कर
जाने-अनजाने मूल्य-निर्धारण का ठेका ले लेते हैं तब तेजी से और
बल-पूर्वक परिवर्तन तो ला सकते हैं; लेकिन वे टिकते नहीं और यह भी
निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता कि वे सब सही ही होंगे। बल्कि ऐसी
हिंसा-शारीरिक या मानसिक या और भी सूक्ष्म स्तर की हिंसा-उसी स्तर पर
वैसी ही प्रतिहिंसा भी अवश्य जगाएगी।
क्या रचनाकार के लिए किसी खास विचारधारा को
स्वीकार करना उसकी रचना के हित में होता है?
विचारधारा हर किसी की होती है-उसके बिना आदमी विवेकवान प्राणी कैसे
है? लेकिन यहाँ विचाराधारा का अर्थ है एक जीवनदृष्टि, एक
मूल्य-पद्धति और आचरण अथवा कर्म के बारे में एक वरीयताप्राप्त
दृष्टिकोण। और अगर इनके बिना जीना ही नहीं होता तो यह सवाल कुछ
महत्त्व नहीं रखता कि ये रचना के हित में है या नहीं। लेकिन आपका
प्रश्न शायद विचारधारा से उतना नहीं जितना मतवाद से सम्बन्ध रखता
है-फिर ये मतवाद चाहे राजनैतिक हो अथवा धार्मिक, चाहे कुछ और।
मतवादों के बारे में कहूँ कि वे जरूर रचना में बाधक हो सकते हैं।
विचारधारा और मतवाद में यह भेद करना चाहूँगा कि जो विचार या मत
सम्प्रदाय भी लेखक के जीवन में ऐसा रच गये हैं कि कर्म के बारे में
द्वैत या तनाव पैदा नहीं करते उन्हीं को मैं किसी रचनाकार की
विचाराधारा कहूँगा और उनसे कोई अहित नहीं होता जहाँ हमारा विवेक हमें
एक प्रकार के कर्म की प्रेरणा देता हो-निजी जीवन से सम्बन्ध रखनेवाले
कर्म की या सामाजिक कर्म की-और हमारा मतवाद एक-दूसरे प्रकार के कर्म
या आचरण का निर्देश देता हो वहाँ समस्या होती है। सिद्धान्तत: तो ऐसा
हो सकता है कि ऐसे द्विभाजित मानस का तनाव रचना के लिए भी प्रेरक हो,
लेकिन वस्तुत: ऐसा नहीं होता है क्योंकि रचनाशील तनाव व्यावहारिक जगत
तक सीमित नहीं होते बल्कि उनकी जड़ें अवचेतन तक फैली हुई होती है।
इसीलिए कहूँ कि मतवाद रचना में सहायक नहीं होते। इसका मतलब यह नहीं
है कि रचनाकार के अपने मताग्रह नहीं हेा सकते या कि उसका सामाजिक काम
उनसे प्रेरित नहीं होना चाहिए। लेकिन वह क्षेत्र दूसरा है।
कविता के मूल्यांकन का आधार कविता में हो या
कविता के बाहर?
कविता के बाहर आप किसको मान रहे हैं? कविता तो सम्प्रेषण है और
सम्प्रेषण में हमेशा दूसरा पक्ष मौजूद है-उसे कविता के बाहर कैसे
माना जा सकता है। रही बात उन मूल्यों की जो कि पहले से प्रतिष्ठित
चले आये हैं। उनके मामले में देखना यह होगा कि वे किस सीमा तक कविता
के काम के हैं, सम्प्रेषण की नयी पृष्ठभूमि में कहाँ तक कवि के सहायक
हैं। यों तो मूल्यांकन का आधार-कविता को ग्रहण करने वाला पक्ष ही
होता है। कवि तो रचयिता है, रचना का मूल्यांकन थोड़े ही करता है।
रचनाकार का बुनियादी सरोकार क्या होता है?
इस सम्बन्ध में मैं तो सिर्फ इतना कह सकता हूँ कि मेरे लिए महत्त्व
की बात यह है कि अपने और अपने आसपास के बीच जो सम्बन्ध है उसे
जानने-पहचानने का प्रयत्न करूँ-उसके सभी स्तरों को उनकी समग्रता ओर
जटिलता में और पहचान के सहारे उस स्वाधीनता को बढ़ाऊँ और पुष्ट करूँ
जो मेरे मानव की सबसे मूल्यवान उपलब्धि है। मेरा आभ्यन्तर जगत भी
मेरा आस-पास हो जाता है जब मैं उसकी ओर देखता हूँ : इसलिए अपने आपसे
अपना सम्बन्ध पहचानना भी आसपास से अपने सम्बन्ध की पहचान का ही एक
पहलू हो जाता है। और मानव की स्वाधीनता मानव मात्र की होने के कारण
अविभाज्य है : किसी एक भी स्वाधीनता को विक्षत या सीमित करके दूसरे
की स्वाधीनता नहीं बढ़ायी जाएगी।
रचनाकार की स्वतन्त्रता से क्या अभिप्राय है?
कौन सी शक्तियाँ उसे बाधित करती हैं? रचना के लिए आदर्श
राज्य-व्यवस्था कौन-सी है?
मैं तो अभी तक मानता हूँ कि सर्वोत्तम शासन-व्यवस्था वही है जिसमें
शासन सबसे कम हो। लेकिन यह मैं जानता हूँ कि यन्त्रोद्योग के विकास
के साथ जीवन में विराट संगठन का महत्त्व बढ़ता जाता है। उस पैमाने पर
संगठन और व्यवस्था करना व्यक्तिके लिए सम्भव नहीं है। इसलिए सरकार का
कार्यक्षेत्र निरन्तर फैलता जा रहा है। यह पहचानना ज़रूरी है कि
सरकार हमें वही दे सकती है जो वह पहले हमसे ले लेती है; शून्य में से
वह कोई समृद्धि या सुविधा या सुरक्षा या स्वतन्त्रता हमें नहीं देती।
तो हमें सोचना होगा कि जब हम सरकार सेकुछ माँगते हैं, तो उस अपेक्षा
में ही पहले ठीक वही चीज़ सौंप दे रहे हैं जिसकी हमें अपेक्षा है।
इसलिए मैं चाहूँगा कि सरकार से हमारी अपेक्षाएँ भी कम से कम हों अगर
हम चाहते हैं कि हमारे जीवन में उसके पंजे की पहुँच कम से कम रहे।
आदर्श राज्य-व्यवस्था कौन-सी हो इस प्रश्न का उत्तर बिना उसे
एक-दूसरे प्रश्न के साथ जोड़े नहीं दिया जा सकता-कि आदर्श
आत्मानुशासन कौन-सा हो। मैं चाहता हूँ कि राज्य की अपेक्षाएँ मुझसे
कम-से-कम हो क्योंकि मैं जानता हूँ कि राज्य पर मेरी निर्भरता भी कम
से कम हो।
यों रचनाकार की स्वतन्त्रता के आयाम दूसरे भी हैं। मेरी समझ में
स्वतन्त्रता एक बुनियादी मूल्य है। मेरा मानवत्व और मेरी स्वतन्त्रता
एक-दूसरे से अविभाज्य रूप से जुड़े हैं। इस पर भी मैंने अन्यत्र लिखा
है जिसे यहाँ नहीं दोहराऊँगा।
आज के यान्त्रिक, तकनीकी और राजनीतिक दबाव के
युग में साहित्य का क्या भविष्य है?
ये सभी पूर्वानुमेय हैं- सभी प्रतिज्ञा और पूर्वानुमान के आधार पर
आगे बढ़ते हैं। रचनाशील मानस अप्रमेय है। इसी में साहित्य का भाष्य
है: वह अप्रमेय और अननुमेय मानव की सम्भावनाओं के उन्मेष का क्षेत्र
है। साहित्य रचना में मनुष्य अपनी अकल्पित और अपूर्व सम्भावनाओं को
पहचानता और आत्मसात करता है। अपनी स्वाधीनता और अपनी रचनाधर्मिता को
अभिव्यक्ति भी देता है और स्वायत्त भी करता है। साहित्य असीम की
देहरी है।
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