शेखर : एक जीवनी
: [1.
बंधन और
जिज्ञासा], [2]
बन्धन और जिज्ञासा
जो आदमी जीवन द्वारा जीने
का आदी है, उसे यह असह्य है कि उसे जीवन के बचे-खुचे बासी टुकड़े ही
मिलें, जीवन का उच्छिष्ट मिले-किन्तु बन्दी शेखर के लिए यही विधान हो
गया था... यह विचार ही उसको असह्य था, पर आता था वह बार-बार, और हर
बार मानो उसको बाँधनेवाले लोहे के किवाड़ों का एक सींखचा उसकी
अन्तज्र्वाला से ही तप्त होकर उसके हृदय में घुस जाता था..?
बाहर के संसार से-शशि से-उसका एक सम्बन्ध रह गया था निर्जीव कागज के
पन्ने, उस पर निर्जीव लिपि के अक्षर... भाषा सजीव होती है, दर्द सजीव
होता है, पर क्या उनके प्राण इस ज्ञान के आगे टिक सकते हैं, कि आज जो
उसके सामने है, उसमें जीवन का स्पन्दन तीन दिन, या सात दिन, या दस
दिन पहले था?...
शेखर को शशि का पत्र मिला, तो ऊपर तारीख देखकर उसे अनुमान नहीं हुआ
कि चिट्ठी उस तक पहुँचने में जो नौ दिन लग गये हैं, वे उसके
जीवन-प्रवाह के एक युग का अधिकांश एक ही घूँट से पी गये हैं। वह
बढ़ती हुई वेदना से सारा पत्र एक बार पढ़ गया, फिर दूसरी बार पढ़
गया-हाँ, वेदना बहुत थी, पर इतनी नहीं कि वह फूट जाए, निर्वेद हो
जाए-वह पीछे आयी जब बायाँ हाथ उठाकर उसने तारीखें गिनना शुरू किया और
जाना चौदह में से नौ जाएँ तो पाँच बचते हैं...
अबकी बार शशि का पत्र छोटा था। शेखर से वह सहमत थी कि जीवन में हर एक
को अपना मार्ग स्वयं खोजना होता है, हम किसी को मार्ग नहीं बता सकते,
किसी को प्रकाश भी नहीं दिखा सकते; हम कर सकते हैं तो इतना ही कि
पथिक के पैर दाब दें, उसका कवच कस दें, अगर उसके पास दीया है तो उसकी
बत्ती कुछ उकसा दें। और इसलिए वह शेखर के प्रति दुगुनी कृतज्ञ है कि
वह उसके लिए इतना करके उसके आगे भी जा रहा है, वह उसके दीपक में
स्नेह भी भर रहा है। ...’भविष्य क्या है, नहीं जानती; और मैंने जो
मार्ग अपने लिए निर्धारित किया है, उसमें भविष्य होने-न-होने का
प्रश्न भी नहीं है। वह इतना ज्वलित है; पर इतना मैं आज तुम्हें कहती
हूँ कि तुमने जो मुझे दिया, वह मैं उसमें नहीं भूलूँगी। तुमने लिखा
है निर्णय मेरा है, पर उसका आदर करना तुम्हारा है; तुमने लिखा है एक
निश्चय में तुम्हारा सहयोग और संरक्षण, और आवश्यक होने पर तुम्हारे
हाथों का परिश्रम और तुम्हारे पसीने की रोटी; तुम्हारी उदारता में
मैंने दोनों पा लिये हैं, और अब चुनने के नाम पर तुम्हारा आशीर्वाद
ही चुनती हूँ। मैंने माँ से कह दिया है कि मुझे इस मामले में किसी
तरह की कोई दिलचस्पी नहीं है, उनकी आज्ञा मुझे शिरोधार्य है।’
कठोर और कड़वा और स्वयं नारी की तरह चिरन्तन शशि का निर्णय-कठोर और
कड़वा और चिरन्तन उसका यह अपनी आहुति दे देने का निर्णय-कठोर और
कड़वा और चिरन्तन नारी का अभिमान कि जो समाज उसका आदर नहीं करता, उसी
के हाथों नष्ट-भ्रष्ट, छिन्न-त्रस्त-ध्वस्त होकर वह उसकी अवमानना
करेगी... आशीर्वाद? क्या आशीर्वाद हो उस नारी को क्षुद्र-पुरुष का?
कि तू हुतात्मा हो, मेरी ज्वाला उज्ज्वल और सुगन्धित और निर्धूम हो!
लज्जा, क्षोभ और आत्मग्लानि से शेखर ने अपनी बंधी हुई मुठ्ठी छाती
में मार ली...
क्यों उसने शशि को अपनी सम्मति नहीं दी थी? क्यों नहीं उसे कहा था कि
समाज पर अपने को बलि देने अपनी और समाज की भी विडम्बना है? क्यों
नहीं कहा था कि समाज उसकी विविक्त इकाइयों का समूह है, और इकाई की
अवहेलना समाज की अवहेलना है? क्यों नहीं कहा था कि अन्याय को सहना
उसका भागी बनना है? क्यों स्वाधीनता दी थी निर्णय की? क्यों दोनों
सूरतों में सहानुभूति का वचन दिया था?
उसे याद आया कि उसने क्या लिखा था... कि यह मामला शशि का है, शशि के
अतिरिक्त किसी का भी नहीं है, और इसमें परामर्श भी किसी का ग्राहय
नहीं है, माँ का भी नहीं, शेखर का भी नहीं... शशि, निपट अकेली शशि,
इस समस्या से लड़े और किसी निष्पत्ति तक पहुँचे; बाकी यही कर सकते
हैं कि सहानुभूतिपूर्वक देखें, अपनी इच्छा-शक्ति से उसे इतनी प्रेरणा
दें कि वह ठीक ही परिणाम पर पहुँचे, यह आश्वासन दें कि निर्णय जो भी
हो , वे उसके साथ हैं... ‘और मैं तुम्हारे साथ हूँ, शशि, तुम विवाह
हो जाने दो, अपने भविष्य को किसी और के भविष्य में मिटा दो, तब भी
मेरी सारी शक्ति तुम्हारे साथ होगी कि तुम अपने चुने हुए मार्ग में
अडिग रहो; और वैसा तुम नहीं करो, एक व्यक्ति पर अपने को मिटाने की
बजाय समाज के विरोध से ही टक्कर लेना चाहो, तो भी मैं तुम्हारे साथ
हूँ। वह तुम्हें अलग कर दे, घर-बार भी तुमसे छूट जाए, तो मेरा अकिंचन
सहयोग तुम्हें मिलेगा; अगर अपने हाथों के परिश्रम से मुझे तुम्हारी
रोटी प्राप्त करनी पड़ेगी तो वह मेरा गौरव होगा...मैं जानता हूँ कि
तुमने मुझे जो सीख दी है, उसका मूल्य मैं किसी तरह नहीं चुका सकता,
उसके लिए कृतज्ञता भी दिखा सकता हूँ तो केवल इतनी कि उसी पर
चलते-चलते या चलने की चेष्टा करते-करते समाप्त हो जाएँ। इतनी भी
कृतज्ञता न दिखा सकूँ, ऐसा बुरा मैं नहीं हूँ-पहले रहा भी होऊँ तो
तुम्हारी सीख का मुकुट पहनकर अब नहीं हूँ। मैं तुम्हारे साथ हूँ,
चाहे जिधर भी तुम जाओ; किधर जाओ, इसका उत्तर तुम्हें तुम्हारे भीतर
का आलोक दे...’
शशि ने मार्ग चुन लिया। ‘आज से ठीक दो सप्ताह बाद, आज ही के दिन,
मैं-ओह शेखर, यह वाक्य अधूरा ही क्यों नहीं रह जाता!’ और यह नौ दिन
पहले का पत्र है-केवल पाँच दिन और!
क्यों? किस चीज़ ने बाधित किया शशि को यह निर्णय करने के लिए? क्या
बुद्धि ने? विवेक ने? क्या डर ने? अक्षमता ने? क्या हृदय ने? चाह ने?
क्या आत्मा ने? अभिमान ने?
‘‘मैं जानती हूँ मेरी सम्पूर्ण अनिच्छा है। पर क्या मुझे अनिच्छा का,
अनिच्छा के बाद अस्वीकृति का अधिकार है? समाज का मैं अंग हूँ, उसके
प्रति मेरी जवाबदेही है, पर उसकी मैं उपेक्षा कर सकती हूँ, क्योंकि
वह मेरे प्रति कर्तव्यशील नहीं है और फिर उसके आदर्श भी बदलते रहते
हैं और रहेंगे। पर माँ-माँ तो सनातन है, सदा माँ है, उसके प्रति भी
तो मेरा कर्तव्य है... माँ विधवा है, फिर उसके अपने संस्कार हैं।
मेरी अस्वीकृति समाज के सम्मुख उनकी क्या अवस्था करेगी, यह तो अभी
नहीं कह सकती, पर स्वयं अपने ही सामने उन्हें तोड़ देगी। वे कुछ नहीं
कहेंगी, मैं जानती हूँ; पर क्या उससे मुझे कुछ दीखेगा नहीं? उनका मौन
उनकी व्यथा को धार दे देगा, जिस पर मैं हर समय कटती रहूँगी... मैं
अपना युद्ध लड़ सकती हूँ, पर मुझे क्या अधिकार है, मैं उनसे अपना
युद्ध लड़वाऊँ? ...और अगर किसी को मूक होकर जलना ही है, तो वह कोई
मैं ही क्यों नहीं होऊँ? मैं तो विवाह के बाद चली जाऊँगी, माँ या कोई
भी मेरा होम नहीं देखेगा- मेरे अतिरिक्त कोई भी नहीं देखेगा उसे! इस
दु:ख को अपने बन्धुओं के घेरे से बाहर ले जाने का यही एक तरीका है...
शेखर, यही मेरा निर्णय है, आशीर्वाद दो कि मैं साभिमान इसे निभा ले
जाऊँ...’
क्या शशि ठीक कहती है? क्या वह बेठीक ही कहती है?
पर सच वह अवश्य कहती है कि दु:ख किसी का अवश्य है, प्रश्न यही है कि
कौन बढक़र उसे अपने कन्धों पर ले ले, कौन उसे झेलने में इतना विशाल
अभिमान जुटा सके कि वह असानी से झिल जाए...
उसे अपनी ही लिखी हुई दो-चार पंक्तियाँ याद आयीं, जो उस समय तक केवल
एक शव थीं, किन्तु इस समय प्राणोन्मेष से दीप्त हो उठीं।
I have burned in solitude
And burning has brought its own solace
In more quenchless burning...
(मैं एकान्त में जला किया हूँ, और जलना अपना ही शमन लाया है और भी
अनबुझ जलने के रूप में...)
क्या यही है प्रतिनिधिक
यन्त्रणा का वह सिद्धान्त, जो उसने कहीं पुस्तक में पढ़ा था और
अग्राह्य मानकर छोड़ दिया था- कि हमारी यातना किसी दूसरे के पाप का
प्रायश्चित हो सकती है? क्या प्रत्येक व्यक्ति किसी दूसरे का ईसा
मसीह है, किसी दूसरे का क्रूस ढोनेवाला है? क्या यही है यातना के इस
कुम्भीपाक में आलोक की प्रथम और अन्तिम किरण...
व्यथा से शेखर को रोमांच हो आया...
दूसरा पत्र आने में उतना समय नहीं लगा-पर जितना समय लगा था, उतना
क्या कम था? शशि ने लिखा था, ‘‘आज मेरी उस अवस्था का अन्तिम दिन है,
जिसमें अपने आत्मीयों से अलग एक सम्बन्धी मेरा था-मेरे बहिनापे में
घिरे हुम तुम। कल से मेरा पहला परिचय होगा, अमुक की स्त्री; और अब
सम्बन्ध उसके बाद आएँगे। न जाने यह पत्र तुम्हें कब मिलेगा, पर जब भी
मिले, तुम उस शशि को आशीर्वाद देना, जो आज तक तुम्हारी बहन थी और
उसके अतिरिक्त किसी की कुछ नहीं थी; किन्तु कल वैसा नहीं रहेगी; और
जो आज इस पद से अन्तिम बार तुम्हें प्रणाम करती है...’’
शशि ने शेखर के अभ्यन्तर का कोमलतम मर्म छू लिया था- दर्द इतना था कि
शेखर आह भी नहीं कर सकता था... अन्तिम बार प्रणाम... मेरी बहिनापे
में घिरे हुए.. उसके अतिरिक्त कुछ नहीं...
यह सच था!-कि शशि ने ही उस ‘न-कुछ’ को खींचकर सगेपन का गौरव दिया
था-ऐसे दिया था जैसे कभी किसी ने नहीं दिया था-उसकी अपनी दो सहोदरा
बहनों ने नहीं...शशि ने उसके जीवन को अर्थ और उद्देश्य दिया था, एक
ऐसी निधि दी थी जिसके गौरव के लिए जीना और लडऩा और मरना स्वयं पुरुष
का गौरव है... तब क्या यह भी सच है कि आज उस निधि के रक्षकत्व का
अन्तिम क्षण है?-आज क्यों, आज तो शशि को नए संरक्षण में गये हुए भी
दो दिन हो गये!- क्या जो आरम्भ ही नहीं हुआ था, वह आज समाप्त होने जा
रहा है?
वेदना... कोई उसके भीतर कहता है, वह नहीं थी सहोदरा, नहीं थी बहिन;
जो हुआ है वह होना ही था... उसे दु:ख का अधिकार नहीं है... हाँ नहीं
है अधिकार, अधिकार होता तो दु:ख क्यों होता? दु:ख उसको मेरी स्नेह की
भेंट है, जैसे बहिनापा उसका मुझे स्नेह का दान था? नहीं है वह
सहोदरा, वह सहजन्मा है; एक खंडित आत्मा दो क्षेत्रों में अंकुरित हुई
है... तभी तो... तभी तो... शेखर अपने को देखता है, और नहीं समझ पाता
कि कहाँ वह अपंग हो गया है-यद्यपि एक गहरी टीस उसमें उठती है और एक
मूच्र्छना भी उसके बचे हुए गात पर छायी जा रही है...
किन्तु कर्तव्य अभी बाकी हैं-यन्त्रवत् शेखर ने कागज और कलम उठाया,
एक छोटा-सा आशीर्वाद का पत्र लिखकर लिफाफे में बन्द किया, पता लिखा
और वार्डर को बुलाकर दफ्तर में भिजवा दिया। दूसरा मार्ग नहीं था-और
किसी तरह पत्र भेजने में बड़ी देर लगती।
तब एकाएकक्षत-विक्षत और शून्य और निष्प्राण शेखर चक्की पर सिर टेक कर
खड़ा हो गया। उसकी निविड़ वेदना में ज्वाला की तरह उसके अन्तरंग को
फोड़ता हुआ कुछ फूट निकला...
जल, ऊध्र्वगे, जल यज्ञ-ज्वाले जल! उत्तप्त जल, उज्ज्वल और सुवासित
जल, क्षार-हीन और निर्धूम और अक्षय जल! यह मुझ अभागे का तुझे
आशीर्वाद हो! तब आँसू आए, घने और झरझर...
फिर एक बार कुहासा शेखर के प्राणों पर छा गया। पर अबकी बार उसमें
जैसे विरोधभाव नहीं जागृत हुआ। अपने रोने पर क्षोभ नहीं हुआ, परास्त
हो जाने पर ज्ञान का प्रतिकार करने की भी इच्छा नहीं हुई। वह मानो
अस्तित्व के किसी निचले स्तर पर उतर आया। जीवन शिथिल हो गया, और
शैथिल्य स्वाभाविक धर्म मालूम पडऩे लगा।
शेखर ने ‘साहब’ से अनुमति माँगी कि उसे पहले सिरे की एक कोठरी में
रखा जाए। ‘साहब’ ने विस्मित होकर कारण पूछा, और यह जानने पर कि शेखर
एकान्त चाहता है, मुस्कराकर अनुमति दे दी। ‘तुम स्वयं अपनी आज़ादी कम
करना चाहते हो तो तुम जानो। वहाँ पर तुम्हें वहीं के नियम मानने
पड़ेंगे-बन्द भी रहना पड़ेगा। हाँ, अगर फाँसीवाले अधिक हो गये तो
वहाँ से हटना पड़ेगा।’ शेखर ने मौन स्वीकृति दे दी।
फाँसी की कोठरी साफ-सुथरी थी। पक्का फर्श था, चक्की कोई नहीं थी,
पतरे के लिए फाटक के पास कोने में अलग जगह बनी हुई थी, जहाँ से पानी
बाहर को बह जाता था, अत: कोठरी में बदबू नहीं थी। शेखर दिन में बन्द
रहता, सुबह-शाम टहलने बाहर निकलता और तलाशी के बाद बन्द हो जाता। ये
नियम उसे पसन्द नहीं थे, पर वह मानो अपनी देह से हटकर कहीं रहता था,
ये उसे छूते ही नहीं थे। दिनभर वह अर्धसुप्त-सी अवस्था में रहता-जैसे
अफीमची अफीम न मिलने पर रहते हैं। केवल सायं-प्रात: जैसे उनकी
तन्द्रा टूट जाती, वह जानता कि वह जीवित है।
उषाकाल से लेकर टहलाई के लिए द्वार खुलने तक, और शाम की टहलाई के बाद
बन्द होने से लेकर दिनावसान तक-ये दो मुहूत्र्त न जाने कैसे थे कि
दिनभर मुरझाये रहनेवाले प्राण उसके भीतर एकाएक प्रदीप्त हो उठते थे-
चार-साढ़े चार बजे उसकी नींद खुलती, तब वह पलटकर सिर फाटक की ओर कर
लेता, और आकाश की ओर देखकर मन के मनकेफेरा करता; कभी वर्षा हो रही
होती, तो बूँदों का स्वर उसके विचारों पर ताल देता चलता।
फूटते आलोक की पहली किरण के साथ, मिटते आलोक की अन्तिम दीप्ति के
साथ, तीर-सा एक प्रश्न शेखर के हृदय को बेध जाता, ‘क्या आत्माहुति
देकर वह सुखी है’ उसका पत्र फिर नहीं आया था; जानकारी के लिए शेखर के
पास कुछ नहीं था सिवाय अपनी समझ के-कितनी क्षुद्र समझ! और अपनी
सम्वेदना के-कितनी असमर्थ सम्वेदना!
क्यों नहीं लिखा उसने? क्या दु:ख में है इसलिए? या सुखी है इसलिए?
कभी व्याकुलता इतनी उग्र हो उठती कि वह दाँत भींचकर, मुट्ठी बाँधकर,
फर्श पर, दीवार पर, जँगले पर दे मारता, एक बार, दो बार, तीन बार...
जब तक कि जोड़ों पर से खून न फूट आता-तब उस रक्त को वह माथे पर पोंछ
लेता और उसकी ललाई से उसे कुछ शान्ति मिली! कभी अपने ही कार्य से
घबराकर यह पूछ उठता, क्या मैं पागल हो गया हूँ? पर तत्काल ही पहला
प्रश्न इस दूसरे प्रश्न को निकाल देता, और मानो इस अल्पकालिक
विस्मृति के दंड-स्वरूप स्वयं अधिक तीव्र हो उठता...
किन्तु दिन में इतनी शक्ति का संचय कभी न होता, वह केवल एक क्षीण-सी
चिन्ता में सोचा करता, क्या वह आत्मबलिदान उचित हुआ? ...कौन कह सकता
है? कोई नहीं जानता- जाननेवाली, कहनेवाली, निश्चय करनेवाली एकमात्र
शशि है! यह प्रश्न उसका प्रश्न है... बाबा मदनसिंह ने भी तो कहा था,
हर एक को अपना रास्ता खुद खोजना होता है...
कभी उसे इसमें भी सन्देह हो जाता। क्या सचमुच यह व्यक्तिगत प्रश्न
है? क्या सामाजिक उत्तरदायित्व इसमें शामिल नहीं है? व्यक्ति अपने को
रखे या बलि दे, अच्छे काम में बलि दे या बुरे में, क्या इसका एकमात्र
निर्णायक वह व्यक्ति स्वयं है और समाज को कुछ भी कहने का अधिकार नहीं
है? उसका मन भटकने लगता है... यह तो वही पुराना हिंसा और अहिंसा का
प्रश्न है...
चाहे यह अपने प्रश्न का उत्तर पाने की उत्कट इच्छा रही हो, चाहे केवल
कुछ घूमने-फिरने की; शेखर बाबा मदनसिंह से मिलने गया। और न जाने
क्यों उसकी पुरानी जिज्ञासाएँ उबल पड़ीं; शशि का प्रश्न भी बीच में
उलझ गया और शेखर हिंसा-अहिंसा और सामाजिक दायित्व के पचड़े फिर ले
बैठा।
बाबा बोले, ‘‘देखिए, आजकल न जाने मन क्यों बहुत दु:खी रहता है। शायद
मैं कोई नया सूत्र पानेवाला होऊँ, शायद केवल बुढ़ापा ही हो। इसलिए
आपके सवालों का जवाब सूत्रों में ही-पुराने सूत्रों में ही-दूँगा।
प्रश्न अवश्य सामाजिक भी है। मुझे दीखता है कि हमारा भारतीय जीवन और
दर्शन अन्तर्मुखी और व्यक्तिवादी है-जैसे, हम मुक्ति का साधन यही
मानते हैं कि जहाँ तक हो सके, अपने को समाज से अलग खींच ले और
‘आत्मानं विद्धि’। इस व्यक्तिवाद का परिणाम है कि हम पाप-पुण्य भी
व्यक्तिगत ही समझते हैं। तभी तो हमारे धर्मात्मा लोग साँपों को दूध
पिलाना भी पुण्य समझते हैं। समाजिक दृष्टि से यह हिंसा है। दूसरी ओर
पश्चिम का जीवन और दर्शन हमारे बिलकुल विपरीत है। वह बहिर्मुखी और
समाजवादी है। उनका मानदंड भिन्न है, उनकी समझ में हमारा दृष्टिकोण
आध्यात्मिक कलाबाजी और कायरता है। हम उन्हें निकृष्ट यथार्थवादी कह
सकते हैं, वह हमें थोथे अध्यात्मवादी कह सकते हैं। पर इस गाली-गलौज
से भी यह बात नहीं छिपती कि हम दोनों एक-दूसरे के आदर्श नहीं भूल
सकते। खासकर हम लोगों को अपने आर्दशों में सुधार की जरूरत है,
क्योंकि हम नीचे हैं।’’ कुछ देर चुप रहकर बाबा मुस्कराये, ‘‘भेड़ों
की तरह झुंड बाँधकर रहेंगे, तो भेड़-चाल चलनी पड़ेगी। भेड़-चाल का
सभ्य नाम संस्कृति है।’’
शेखर कुछ देर तक चुपचाप खड़ा रहा। चेहरे पर एकसाथ पड़ी दो बूँदों ने
उसे चौंका दिया। उसने ऊपर देखा, आकाश में सावन के घने बादल थे, और
पश्चिमी क्षितिज पर एक मटमैला धब्बा क्रमश: फैलता हुआ बढ़ रहा
था-उसके भीतर से मानो किसी तरह का प्रकाश फूट रहा था।
‘अन्धड़’ आ रहा है।
‘‘अच्छा ही है, मुझे आजकल इसकी जरूरत थी।’’ बाबा की आँखों पर भी एक
बादल छा गया। ‘‘वह कहानी का पठान बाहर चला गया था, तब जेल की अवधि
नहीं गिनता था, पर मेरे लिए तो ‘कुछ न होना’ ही स्थायी हो गया है। ये
इक्कीस वर्ष मुझ पर बोझ हो गये हैं। इसीलिए आँधी-तूफान से कुछ सहारा
मिलता है।’’
शेखर ने विस्मय से उनकी ओर देखा, उस क्षण में बाबा उसे पहली बार
बूढ़े लगे-उनकी आँखें बूढ़ी हो गयी थीं, और धवल जटा और धवल दाढ़ी से
भी कितनी अधिक बूढ़ी! मानो शाप-ग्रस्त प्रथम मानव का शाप उनमें चमक
गया हो!- ‘‘अपने दु:ख के सहारे ही तू जिएगा!’’
वह सहमा हुआ-सा धीरे-धीरे लौट पड़ा।
कोठरी की ओर लौटते हुए शेखर के भीतर सहसा ग्लानि उमड़ आयी। कितनी घोर
लज्जा की बात है कि वह इस समय कोरी बौद्धिक उलझनों में पड़ा हुआ है,
जबकि शशि पर न जाने क्या बीत रही होगी... मानसिक क्लेश, शायद शारीरिक
यातना-वह चलते-चलते ठिठक गया-कौन जाने क्या अवस्था होगी इस समय शशि
की!
क्या अवस्था होगी? किस बात से डर रहा है वह? वह नामहीन कौन-सा डर है,
जो उसके भीतर है?
मानो उसके प्रश्न के उत्तर में वायु का एक झोंका जेल के असंख्य
सींखचों, लौह-द्वारों और वातायनों में से कराहता हुआ निकल गया-वह
कराह फिर ऊँची उठी और फिर धीमी पड़ गयी, फिर उठी और एक अपार्थिव
पीडि़त प्राणी की चीख बन गयी; उसकी व्याकुल साँस शेखर को धकेलने-सी
लगी-आँधी का पहला वातचक्र उसे घेरे ले रहा था...
वह फिर चल पड़ा। ...किन्तु सोचने से कैसे रुका जाए-सोचने से नहीं,
प्रश्न पूछने से कैसे रुका जाए! और प्रश्नों का अन्त कहाँ-जिज्ञासा
के घूँट नहीं होते, वह भी भीमप्रवाहिनी कूलहीना नदी है, स्वयं जीवन
की तरह दुर्निवार...
मदनसिंह ने कहा था, पीड़ा तपस्या है, किन्तु असली तपस्या तो जिज्ञासा
है-क्योंकि वही सबसे बड़ी पीड़ा है...
वह कोठरी में पहुँच गया था। सन्तरी पहले ही वहाँ मौजूद था, शेखर के
भीतर जाते ही उसने ताला बन्द कर दिया और स्वयं आँगन से बाहर निकलकर
कुछ दूर पर सामने बने हुए कठघरे में जा खड़ा हुआ-आँधी के साथ ही बड़ी
बूँदें वर्षा की पडऩे लगी थीं...
जिज्ञासा-जिज्ञासा-यह मर्मान्तक पीड़ा...
पर मैं जानना चाहता हूँ-शशि की अवस्था जानना चाहता हूँ्...क्या वह
सुखी है?
...’जहाँ अपना वश नहीं है, वहाँ दु:ख करना मोह है।’...कहाँ पढ़ा था
उसने यह? या यह मदनसिंह के शब्दों में ‘सूत्र’ है, दु:ख की चोट से
पाया हुआ? वेदना के बिना ज्ञान नहीं है तभी तो ज्ञान अपौरुषेय है-
पुरुष की बुद्धि में वह नहीं पाया जाता, वेदना में, तपस्या में, वह
उदित होता है। वह मन्थन से मिलनेवाला अमृत नहीं है, वह अवतीर्ण
होनेवाला कोई अप्रेमय है... इसी तरह कभी प्राचीन ऋषियों ने वह
सूत्रबद्ध ज्ञान पाया होगा, जो अब वेद है-जो ‘जाना हुआ’ है, किसी
भीतरी आलोक से सहसा प्रकट हुआ-इसी तरह पीड़ा की तपस्या से सहसा जागकर
उन्होंने प्रज्ञा के बोझ से लडखड़ाकर कहा होगा, ‘अपौरुषेय’!
अपौरुषेय!’
एक चौंधियानेवाले प्रकाश ने घिरती रात के अन्धकार को फाड़ डाला, भीषण
गडग़ड़ाहट ने जेल के लोहे और पत्थर को कँपा दिया, आकाश का बोझीला
पर्दा मानो अपने भार से फट गया और धारासार वर्षा होने लगी; शेखर के
पैरों में कुछ आकर लगा तो उसने देखा, एक बड़ा-सा ओला है; वह जँगले के
पास जाकर खड़ा हो गया; शीत से काँपता हुआ, बादल के गम्भीर घोष और
बिजली की तड़पन से हतबुद्धि, आँधी और पानी के क्रुद्ध थपेड़ों से
पिटता हुआ खड़ा रहा... कितना अच्छा था यह सामने की मार खाना, कितना
अच्छा था इस तरह पिटते हुए खड़े रहना, उस नामहीन, आकारहीन शत्रु
द्वारा असहाय लील लिये जाने की अपेक्षा...
किन्तु उससे निस्तार कहाँ है? प्राकृतिक तत्त्वों की इस उथल-पुथल में
भी आत्मा कहाँ चुप है... जेल में दूसरे भी तो हैं, वे भी क्या कर रहे
होंगे इस समय? उसे याद आया, एक दिन उसने देखा था, जेठ की दुपहरी में
एक कैदी वर्षा में भीगे और ठिठुरे हुए बन्दर की तरह कोठरी के जँगले
के नीचे उकड़ूँ बैठा था; और बिल्लौर के मनके-सी उसकी आँखें उत्तम
सफेद आकाश पर टिकी थीं... क्या वह जीवन था? उस समय उसका जीवन मानो
स्थगित था, प्राणीत्व भी मानो स्थगित था; उस समय उसके भीतर से वह कई
अरब वर्षों का जड़त्व झाँक रहा था, जो विकास द्वारा जीवोद्भव से पहले
उसकी मिट्टी का रहा होगा... बाबा मदनसिंह की कहानी का पठान ठीक ही
कहता था- जेल में आदमी जीता नहीं, वृद्धि नहीं पाता पर वृद्ध अवश्य
हो जाता है-गात सूख जाते हैं और बाल पक जाते हैं...
और स्थगित जीवन के उस भीषण अन्तराल में क्षुद्र बुद्धि ही एकमात्र
सम्बल है, जिज्ञासा ही एकमात्र सम्बल है... वही स्थानापन्न प्राण
है...
शेखर एक बार काँपा, और फिर लिखने बैठ गया। हाँ,...
ईश्वर ने सृष्टि की।
सब ओर निराकार शून्य था, और अनन्त आकाश में अन्धकार छाया हुआ था।
ईश्वर ने कहा, ‘प्रकाश हो’ और प्रकाश हो गया। उसके आलोक में ईश्वर ने
असंख्य टुकड़े किये और प्रत्येक में एक-एक तारा जड़ दिया। तब उसने
सौर-मंडल बनाया, पृथ्वी बनायी। और उसे जान पड़ा कि उसकी रचना अच्छी
है।
तब उसने वनस्पति, पौधे, झाड़-झंखाड़, फल-फूल, लता-बेलें उगायीं; और
उन पर मँडराने को भौंरे और तितलियाँ, गाने को झींगुर भी बना।
तब उसने पशु-पक्षी भी बनाये। और उसे जान पड़ा कि उसकी रचना अच्छी है।
लेकिन उसे शान्ति न हुई। तब उसने जीवन में वैचित्र्य लाने के लिए दिन
और रात, आँधी-पानी, बादल-मेंह, धूप-छाँह इत्यादि बनाये; और फिर
कीड़े-मकोड़े, मकड़ी-मच्छर, बर्रे-बिच्छू और अन्त में साँप भी बनाये।
लेकिन फिर भी उसे सन्तोष नहीं हुआ। तब उसने ज्ञान का नेत्र खोलकर
सुदूर भविष्य में देखा। अन्धकार में, पृथ्वी और सौर-लोक पर छायी हुई
प्राणहीन धुन्ध में कहीं एक हलचल, फिर उस हलचल में धीरे-धीरे एक
आकार, एक शरीर का, जिसमें असाधारण कुछ नहीं है, लेकिन फिर भी
सामथ्र्य है; एक आत्मा जो निर्मित होकर भी अपने आकार के भीतर बँधती
नहीं, बढ़ती ही जाती है; एक प्राणी जो जितनी बार धूल को छूता है नया
ही होकर अधिक प्राणवान् होकर, उठ खड़ा होता है...
ईश्वर ने जान लिया कि भविष्य का प्राणी यही मानव है। तब उसने पृथ्वी
पर से धुन्ध को चीरकर एक मुट्ठी धूल उठायी और उसे अपने हृदय के पास
ले जाकर उसमें अपनी विराट् आत्मा की एक साँस फूँक दी-मानव की सृष्टि
हो गयी।
ईश्वर ने कहा, ‘जाओ, मेरी रचना के महाप्राणनायक, सृष्टि के अवतंस!’
लेकिन कृतित्व का सुख ईश्वर को तब भी नहीं प्राप्त हुआ, उसमें का
कलाकार अतृप्त ही रह गया।
क्योंकि पृथ्वी खड़ी रही, तारे खड़े रहे। सूर्य प्रकाशवान नहीं हुआ,
क्योंकि उसकी किरणें बाहर फूट निकलने से रह गयी! उस विराट् सुन्दर
विश्व में गति नहीं आयी।
दूर पड़ा हुआ आदिम साँप हँसता रहा। वह जानता था कि क्यों सृष्टि नहीं
चलती। और वह इस ज्ञान को खूब सँभालकर अपनी गुंजलक में लपेटे बैठा हुआ
था।
एक बार फिर ईश्वर ने ज्ञान का नेत्र खोला, और फिर मानव के दो बूँद
आँसू लेकर स्त्री की रचना की।
मानव ने चुपचाप उसकी देन को स्वीकार कर लिया; सन्तुष्ट वह पहले ही
था, अब सन्तोष द्विगुणित हो गया। उस शान्त जीवन में अब भी कोई
आपूर्ति न आयी और सृष्टि अब भी न चली।
और वह चिरन्तन साँप ज्ञान को अपनी गुंजलक में लपेटे बैठा हँसता रहा ।
(शीर्ष पर वापस)
[2]
साँप ने कहा, ‘मूर्ख,
अपने जीवन से सन्तुष्ट मत हो। अभी बहुत कुछ है जो तूने नहीं पाया,
नहीं देखा, नहीं जाना। यह देख, ज्ञान मेरे पास है। इसी के कारण तो
मैं ईश्वर का समकक्ष हूँ, चिरन्तन हूँ।’
लेकिन मानव ने एक बार अनमना-सा उसकी ओर देखा, और फिर स्त्री के केशों
से अपना मुँह ढँक लिया। उसे कोई कौतूहल नहीं था, वह शान्त था।
बहुत देर तक ऐसे ही रहा। प्रकाश होता और मिट जाता; पुरुष और स्त्री
प्रकाश में, मुग्ध दृष्टि से एक-दूसरे को देखते रहते, और अन्धकार में
लिपटकर सो रहते।
और ईश्वर अदृष्ट ही रहता, और साँप हँसता ही जाता।
तब एक दिन जब प्रकाश हुआ, तो स्त्री ने आँखें नीची कर लीं, पुरुष की
ओर नहीं देखा। पुरुष ने आँख मिलाने की कोशिश की, तो पाया कि स्त्री
केवल उसी की ओर न देख रही हो ऐसा नहीं है; वह किसी की ओर भी नहीं देख
रही है, उसकी दृष्टि मानो अन्तर्मुखी हो गयी हो, अपने भीतर ही कुछ
देख रही है, और उसी दर्शन में एक अनिर्वचनीय तन्मयता पा रही है... तब
अन्धकार हुआ, तब भी स्त्री उसी तद्गत भाव से लेट गयी, पुरुष को देखती
हुई, बल्कि उसकी ओर से विमुख, उसे कुछ परे रखती हुई...
पुरुष उठ बैठा। नेत्र मूँदकर ईश्वर से प्रार्थना करने लगा। उसके पास
शब्द नहीं थे, भाव नहीं थे, दीक्षा नहीं थी। लेकिन शब्दों से, भावों
से, प्रणाली के ज्ञान से परे जो प्रार्थना है, जो सम्बन्ध के सूत्र
पर आश्रित है, वही प्रार्थना उसमें से फूट निकलने लगी...
लेकिन विश्व फिर भी वैसा ही निश्चल पड़ा रहा, गति उसमें नहीं आयी।
स्त्री रोने लगी। उसके भीतर कहीं दर्द की एक हूक उठी। वह पुकारकर
कहने लगी, ‘क्या होता है मुझे! मैं बिखर जाऊँगी, मैं मिट्टी में मिल
जाऊँगी...’’
पुरुष अपनी निस्सहायता में कुछ भी नहीं कर सका, उसकी प्रार्थना और भी
आतुर, और भी विकल, और भी उत्सर्गमयी हो गयी, और जब वह स्त्री का दु:ख
नहीं देख सका, तब उसनेनेत्र खूब जोर से मींच लिये...
निशीथ के निविड़ अन्धकार में स्त्री ने पुकारकर कहा, ‘ओ मेरे ईश्वर,
ओ मेरे पुरुष यह देखो!’
पुरुष ने पास जाकर देखा, टटोला और क्षण-भर स्तब्ध रह गया। उसकी आत्मा
के भीतर विस्मय की, भय की एक पुलक उठी, उसने धीरे से स्त्री का सिर
उठाकर अपनी गोद में रख लिया...
फूटते हुए कोमल प्रकाश में उसने देखा, स्त्री उसी के एक बहुत
स्निग्ध, बहुत प्यारे प्रतिरूप को अपनी छाती से चिपटाये है और थकी
हुई सो रही है। उसका हृदय एक प्रकांड विस्मय से, एक दुस्सह उल्लास से
भर आया और उसके भीतर एक प्रश्न फूट निकला, ‘ईश्वर, यह क्या सृष्टि है
जो तूने नहीं की?’
ईश्वर ने कोई उत्तर नहीं दिया। तब मानव ने साँप से पूछा, ‘ओ ज्ञान के
रक्षक साँप, बताओ यह क्या है जिसने मुझे तुम्हारा और ईश्वर का समकक्ष
बना दिया है-एक स्रष्टा-बताओ, मैं जानना चाहता हूँ?’
उसके यह प्रश्न पूछते ही अनहोनी घटना घटी। पृथ्वी घूमने लगी, तारे
दीप्त हो उठे, फिर सूर्य उदित हो आया और दीप्त हो उठा, बादल गरज उठे,
बिजली तड़प उठी... विश्व चल पड़ा!
साँप ने कहा, ‘मैं हार गया। ईश्वर ने ज्ञान मुझसे छीन लिया।’ और उसकी
गुंजलक धीरे-धीरे खुल गयी।
ईश्वर ने कहा, ‘मेरी सृष्टि सफल हुई, लेकिन विजय मानव की है। मैं
ज्ञानमय हूँ, पूर्ण हूँ। मैं कुछ खोजता नहीं। 550 मानव में जिज्ञासा
है, अत: यह विश्व को चलाता है, गति देता है...’
लेकिन मानव में उलझन थी, अस्तित्व की समस्या थी। पुकार-पुकारकर कहता
जाता था, ‘मैं जानना चाहता हूँ।’
और जितनी बार वह प्रश्न दुहराता था, उतनी बार सूर्य कुछ अधिक दीप्त
हो उठता था, पृथ्वी कुछ अधिक तेजी से घूमने लगती थी, विश्व कुछ अधिक
गति से चल पड़ता था और मानव के हृदय का स्पन्दन भी कुछ अधिक भरा हो
जाता था।
आज भी जब मानव यह प्रश्न पूछ बैठता है, तब अनहोनी घटनाएँ होने लगती
हैं।
शशि को एक और पत्र-वह लिखती है कि शायद उसका जीवन चल जाए-उसमें सुख
नहीं तो दु:ख भी नहीं है, किसी तरह की कोई गहरी अनुभूति नहीं है,
केवल उनींदें रहने से हो जानेवाले सिरदर्द की तरह एक हल्का-सा बोझ हर
समय उसके ऊपर पड़ा रहता है... कभी सोचती हूँ क्या जीवन ऐसे ही
बीतेगा? गाजर-मूली की तरह बढऩा और उखाड़ लिये जाना, बस? पर फिर ध्यान
आता है, कई ऐसे जीते हैं और दर्जनों बरस निकल जाते हैं... और यहाँ
ऐसे यन्त्र-तुल्य जीवन के सभी साधन हैं, किसी को मुझमें इतनी भी
दिलचप्सी नहीं है कि तिरस्कार भी करे... ‘यह वह जीवन नहीं है, जिसकी
मैंने कल्पना की थी, पर शायद सबका उदाहरण देखकर मैं भी ऐसी बन जाऊँ
कि अपनी अवस्था का तिरस्कार न कर सकूँ और शान्त, सन्तुष्ट, निर्वेद
होकर जीवन जी डालूँ। दु:ख तो मुझे अब भी कोई नहीं है।...’ और फिर
एकाएक बदलकर ‘तुम कब आओगे?’
कब जाएगा वह? वह नहीं जानता। मुकदमा मालूम होता है कभी समाप्त नहीं
होगा? गवाही प्राय: समाप्त हो गयी थी, वकील ने कहा था कि शेखर के
विरुद्ध कुछ नहीं है, तब नए गवाह लाने की अनुमति माँगी गयी थी और
अदालत ने उन्हें बुला भी लिया था...
पर अब जाए न जाए, कोई बात नहीं है। विवाह शशि का हो चुका, और अपना घर
जैसे उसके मन से ही निकल गया है। और शशि अब निराग्रह होकर जी रही है,
जीवन से कुछ माँगती नहीं है, अत: दु:ख भी नहीं पाती है। वह भी उपराम
है, शून्य है, जेल और बाहर सब बराबर है।
भादों...आश्विन...कार्तिक.... प्रकाश होता है और धुँधला पड़ जाता है;
जेल के चौदह सौ आदमी गिनते हैं कि एक दिन और बीत गया; लोग मानते हैं
कि अस्तित्व का छकड़ा एक मंज़िल और पार कर गया; सभी समझते हैं कि वे
जी रहे हैं ... इसी प्रकार तीन महीने-शेखर सुनता और देखता है, पर
जीवन उसका भी स्थगित है...
मोहसिन पर दारोगा का क्रोध होता है, हजामत बनाने के अपराध में उसे
सजाएँ मिलती हैं, कड़ा पहरा बिठाया जाता है; पर न जाने कैसे प्रति
सोमवार परेड के समय उसकी दाढ़ी साफ और चिकनी होती है और वह कहीं से
निकालकर उस्तरे की एक पुरानी पत्ती दारोगा के आगे पेश कर देता है...
ऐसी खुली अवज्ञा असह्य है-दारोगा सजाएँ बढ़ाते जाते हैं-बेड़ी के बाद
डंडा-बेड़ी, फिर खड़ी हथकड़ी, फिर रात हथकड़ी, फिर दो-दो और तीन-तीन
सजाएँ एक साथ-रात को उल्टी हथकड़ी, और दिन-रात डंडा-बेड़ी, फिर
‘कसूरी खुराक’ यानी भोजन की बजाय पानी में घुला हुआ आटा... फिर एक
दिन उसे बेंत लगाने की आज्ञा हुई, वार्डर उसे पकडक़र शेखर की कोठरी के
सामने से ले गये, मोहसिन ने उसे देखकर हँसकर कहा, ‘देख मौलवी, मैं हज
करने चला हूँ!’ पन्द्रह मिनट बाद वह उसी तरह अकड़ता हुआ चला आया-पर
अबकी बार बिलकुल नंगा और कमर तक $खून से लथपथ-शेखर को देखकर बोला,
‘मौलवी, मुझे तेरे पास ला रहे हैं, अब गाना सुना करना!’ और बढ़
गया-घसीटकर आगे ले जाया गया...
स्तम्भित शेखर को वार्डर
ने बताया, बेंत कसूरी थे, अदालती नहीं-यानी जेल के अपराध के कारण जेल
अधिकारियों द्वारा लगवाये गये थे, इसलिए तेल में भिगोकर रखे गये थे
और जल्लाद से पूरे जोर से लगवाये गये थे... जब मोहसिन तीस बेंत खा
चुका और टिकटी से उतारा गया, तब दारोगा को देखकर बोला, ‘बस? अब तो
मैं खलीफा हो गया, अब क्या है!’ इस पर छोटे अधिकारियों को मुस्कुराता
देखकर दारोगा आपे से बाहर हो गया था; मोहसिन को एक और नया दंड मिला
टाटवर्दी का! बेंत लगाने के लिए मोहसिन को नंगा तो किया ही गया था,
जब उसके बाद पहनने के लिए उसे टाट-बोरिए का एक जाँघिया दिया गया, तब
उसने उसे पहनने से इनकार कर दिया, इसलिए उसे नंगा ही कोठरी में भेजा
गया-कोठरी भी बदलवा दी गयी कि पहरा और कड़ाई से हो सके। अब वह
पूरबवाली फाँसी की कोठरियों में रखा गया है...
किन्तु न जाने कैसे, मोहसिन को परास्त नहीं किया जा सकता। अगले परेड
में उसकी ठोढ़ी फिर चिकनी थी, और वह साभिमान नंगा ही साहब के सामने
खड़ा था...
उसके बाद दारोगा ने अपना दैनिक अपमान देखना असम्भव पाकर मोहसिन को
परेड में पेश करना ही छोड़ दिया, फाँसी की कोठरी से हटाकर एक और
कोठरी में डाल दिया, जो जेल में कब्रिस्तान के नाम से प्रसिद्ध
थी-उसमें प्राय: भीषण छूत रोगों के रोगी ही रखे जाते थे या लाइलाज
बदमाश। जब ऐसा कोई व्यक्ति नहीं होता, तब खाली पड़ी रहती थी। मोहसिन
ने हजामत करना नहीं छोड़ा और टाटवर्दी नहीं पहनी। दारोगा शायद इस आशा
में रहे कि सर्दी आने पर वह स्वयं हार मानेगा-अगर टाटवर्दी ही पहन
लेगा तो वही हार होगी। पर कार्तिक भी आया और मोहसिन में कोई परिवर्तन
नहीं आया, केवल उसकी दुबली देह में हड्डियाँ और निकल आयीं, सूखी
त्वचा और साँवली पड़ गयी... तब एक दिन शेखर ने सुना कि उसके शरीर पर
कई-एक फोड़े निकल आये हैं, और डॉक्टर ने कहा कि उसे क्षय हो गया
है...
एक दिन अपराजित मोहसिन को दफ्तर में बुलाया गया, वहाँ उसके अपने
कपड़े पहनाये गये; पाँच मिनट बाद उसे पुलिस की लारी में बिठाकर चलता
कर दिया गया। मालूम हुआ कि उसकी रिहाई समीप आ गयी थी, इसलिए उसे घर
के जिले की जेल में भेज दिया गया...
और बाबा मदनसिंह भी अस्वस्थ रहने लगे। शेखर अब प्राय: नित्य ही उनसे
मिलने जाता और देखता कि उस अत्यन्त बूढ़े चेहरे में तो कोई परिवर्तन
नहीं आया है, पर उसका वह अंश जो अभी तक युवा था, वह तीव्र गति से
वृद्धत्व का मार्ग तय कर रहा है-बाबा की... आँखें... इक्कीस-बाईस
वर्ष के स्थगित जीवन का अन्धकार मानो एकाएक ही उन चमकीली आँखों की
ज्योति को छा लेना चाहता है... इस बन्दी ऋषि के लिए शेखर के मन में
गहरे आदर का भाव हो गया था, और जब से उसने सुना था कि बाबा को
संग्रहणी हो गयी है, तब से एक गहरी चिन्ता हर समय उसे सताती रहती
थी... दिनभर वह चिन्ता लिये रहता और सायं-प्रात: नियमपूर्वक वह बाबा
के पास जाता, यही उसकी दिनचर्या हो गयी थी।
इसी तरह भादों बीता, आश्विन बीता, कार्तिक भी बीत चला। तब एक दिन
सहसा शेखर के स्थगित जीवन में एक गहरा आघात हुआ और उसने पाया कि
स्थगित कुछ नहीं है, उसके मर्म के ऊपर बहुत ही हल्का आच्छादन है, जो
कभी भी छिन्न-भिन्न हो सकता है और मर्मस्थल को किसी भी चोट के लिए
नंगा छोड़ दे सकता है...
फाँसी-कोठरियों की जिस कतार में शेखर था, उसमें कुल चार कोठरियाँ
थीं। उनके वासी प्राय: बदलते रहते थे। एक कोठरी में शेखर था ही, बाकी
तीन में उसके होते-होते ग्यारह आदमी आ चुके थे। दो-तीन वहाँ आने के
बाद भी छूट गये थे, बाकी को फाँसी हो गयी थी।
आश्विन में एक दिन सन्ध्या समय एक नया आदमी लाया गया। शेखर ने कौतूहल
से उसे देखा-23-24 वर्ष का जाट युवक, सुन्दर गठा हुआ शरीर, गोरा रंग,
छोटी-छोटी ऐंठदार मूँछें, बड़ी स्वच्छ और निर्भीक आँखें-शेखर सोच
नहीं सका कि वह आदमी हत्यारा हो सकता है। जब वार्डर उसे शेखर के
साथवाली कोठरी में छोडक़र चले गये, तब शेखर ने पहरेवाले सन्तरी से
उसके बारे में पूछकर जाना कि वह हत्यारा है, इसने अपना अपराध स्वीकार
कर लिया है।
उसका नाम था रामजी। नाम तो शेखर ने पहले ही दिन जान लिया था, दूसरे
दिन शेखर के घूमने निकलने पर उसे बुलाकर परिचय भी कर लिया।
‘‘बाबूजी, ज़रा सुनिये तो!’’
शेखर उसकी कोठरी के आगे जा खड़ा हुआ था।
‘‘इस सुरंग के प्लेटफार्म पर आप कैसे?’’
‘‘क्या मतलब?’’
‘‘आपको भी सजा हुई है क्या?’’
शेखर ने बता दिया कि वह अभी अभियुक्त है, स्वेच्छा से ही उस कोठरी
में आया था।
‘‘तब तो आप बाहर से सामान मँगा सकते होंगे? मुझे कभी दो-एक सिगरेट दे
दिया कीजिएगा-बुरी आदत है बाबूजी, पर अब तो फाँसी चढऩा ही है, इसलिए
पी लेता हूँ-आप पीते हैं न?’’
‘‘नहीं, पर मँगा लूँगा, ले लिया करना।’’
‘‘आप हत्यारे पर इतना दया दिखाना बुरा तो नहीं समझते? नहीं तो-’’
‘‘इसमें दया की कौन-सी बात है-’’ शेखर रुक गया; एक प्रश्न उसकी जबान
पर आया था, जो वह पूछना नहीं चाहता था।
‘‘आप रुक क्यों गये? कुछ पूछना चाहते थे-यही न कि मैंने हत्या क्यों
की?’’
‘‘हाँ...’’
‘‘सो भी औरत की हत्या। आप जानते हैं न?’’
‘‘नहीं!’’
‘‘आपने पूछा है, तो सारी बात बता देता हूँ। अदालत में तो कह ही आया
था।’’ कुछ रुककर कहने लगा, ‘‘गाँव में हमारी थोड़ी-सी जमींदारी थी-
मेरे बड़े भाई की और मेरी। पर भाई को यह काम पसन्द नहीं आया, इसलिए
वह भाभी को घर में छोडक़र नौकरी की तलाश में शहर चले गये थे। नौकरी
उनकी लग भी गयी थी, और वे हर दूसरे महीने बीस-पच्चीस रुपया भाभी को
भेज देते थे।’’
पर भाभी का मन अच्छा नहीं था। पड़ोस के जो लोग हमारे घर आकर भाई का
हालचाल पूछा करते थे, उन्हीं में से एक से उसकी कुछ बातचीत हो गयी
थी, और मेरे पीछे वह अकसर उससे मिलने आता था। मुझे कोई खबर नहीं थी;
मुझे एक दिन एकाएक ही पता चला। भादों में एक दिन साँझ को घर आकर
मैंने भाभी को बताया कि मुझे रात खेत पर ही रहना पड़ेगा, क्यों,
इसमें आपको कोई दिलचस्पी नहीं होगी। खेत में काम था। मैं कहकर और
बासी रोटी लेकर चला गया।
‘‘बारिश तो दिन में भी होती रही थी, पर रात को बड़े जोर की हुई और
ओले भी पडऩे लगे, तब मैं काम छोडक़र लौट पड़ा। घर आकर दरवाजा खटखटाने
पर बहुत देर तक नहीं खुला, आवाजें देने पर भी नहीं। जब मैं गुस्से
में आकर तोडऩे लगा, तब भाभी ने आकर किवाड़ खोले और सहमी-सी एक तरफ़
खड़ी हो गयी। मैंने देखा, सामने वही आदमी खड़ा है, उसके कपड़े और
जूते सूखे हैं जिससे जान पड़ता है, वह देर से आया हुआ है।’’
रामजी चुप हो गया। फिर लम्बी साँस लेकर बोला, ‘‘बाबूजी, मेरी जगह आप
होते तो क्या करते?’’
शेखर कुछ उत्तर नहीं दे सका। चुपचाप खड़ा रहा। रामजी कहने लगा,
‘‘खैर, मैं तो जो कर चुका, कर चुका।’’ मैंने भीतर से पूछा कि यह कौन
है, क्यों आया है? उसने जवाब नहीं दिया। मैंने उस आदमी से पूछा, वह
भी नहीं बोला। तब मैंने भाभी को धमकाकर पूछा कि यह पहले भी आता रहा
है? बहुत धमकाने पर बोली, कई बार आया है। मैंने पूछा, तू इसे चाहती
है? तो कुछ नहीं बोली। मैंने आदमी से पूछा, वह भी नहीं बोला। तब
मैंने कहा, ‘‘अगर तुम लोगों में प्रेम है, तो तुम ब्याह कर लो। मैं
कुछ नहीं कहूँगा। पीछे जो होगी, सो मैं देख लूँगा। भाई को भी मना
लूँगा। बोल, तू है तैयार?’’ भाभी कुछ नहीं बोली। मैंने उस आदमी से
पूछा, तो वह बोला, ‘‘तू कौन है बीच में पडऩेवाला?’’
‘‘मुझे गुस्सा आ रहा था, पर मैं चाहता था भाभी से अन्याय न करूँ।
भाभी तो वह नहीं रही थी, पर भाई के साथ जो तीन बरस रह चुकी थी, उसका
कुछ लिहाज था ही। मैंने फिर पूछा, बता, ‘‘तू इससे ब्याह करने को
तैयार है?’’ वह बोला, ‘‘मैं बीवी-बच्चेवाला आदमी हूँ, मैं क्यों
मुसीबत मोल लूँ?’’ मैंने पूछा, ‘‘तब पहले क्यों इस घर में घुसा था?’’
वह बोला, ‘‘इसी ने बुलाया था।’’ उसके कमीनेपन पर मुझे इतना क्रोध आया
कि मैं मुश्किल से सँभाल सका, पर किसी तरह मैंने कहा, ‘‘यह सब मैं
नहीं जानता। या तो तुम दोनों ब्याह कर लो, या फिर जो मेरे मन में
आएगा, करूँगा।’’
उसने मुझे गाली दी। भाभी से मैंने पूछा, ‘‘तू है तैयार? अगर है तो
मैं इसे मनाकर छोड़ूँगा,’’ पर वह भी नहीं बोली। तब मेरी आँखों में
खून उतर आया और मैंने गँड़ासे से दोनों को काट डाला।’
साँस लेने के लिए और शेखर पर बात का असर देखने के लिए वह थोड़ी देर
रुका। फिर मैंने उसी वक्त थाने में जाकर बयान दे दिया-भाभी को मारकर
मेरा मन दुनिया में रहने को नहीं हुआ। खूनी को मरना ही चाहिए। बस आगे
तो जो होता है, सो है ही।
थोड़ी देर मौन रहा। फिर रामजी अपने आप बोला, ‘‘बाबूजी, मैं आपसे नहीं
पूछूँगा, मैंने अच्छा किया या बुरा। मैं शरमिन्दा नहीं हूँ। और अच्छी
तरह मरूँगा। मैंने इसीलिए अपील नहीं की है।’’
शेखर चुपचाप सोचता चला गया था। उसके बाद क्रमश: उसका परिचय बढ़ता गया
था-शेखर के मन में कुछ स्नेह भी इस आधे जंगली और पूर्णत: ईमानदार
व्यक्ति के लिए हो गया था।
कार्तिक में एक दिन सुना कि रामजी की अपील नामंजूर हो गयी है, और
चौथे दिन उसे फाँसी हो जाएगी। रामजी ने अपील नहीं की थी, पर जेलवालों
ने स्वयं ही उसकी ओर से हाईकोर्ट में दरखास्त भिजवा दी थी।
शेखर उदास था। पर रामजी पर मानो कोई असर नहीं था, जैसे कोई नई बात
हुई ही नहीं थी।
शाम को रामजी ने शेखर को पुकारा, ‘‘बाबू साहब!’’
शेखर जँगले पर आकर बोला, ‘‘क्या है?’’
‘‘आपने कभी फाँसी देखी है?’’
‘‘नहीं।’’
‘‘आप तो लिखनेवाले हैं न, आपको सब कुछ देखना चाहिए।’’
‘‘क्यों नहीं साहब से कहते, मेरी फाँसी देख लेने दें आपको? मुझे भी
अकेला नहीं लगेगा-नहीं तो आखिरी समय सब जल्लादों का ही मुँह देखना
पड़ेगा!’’
शेखर निस्तब्ध कुछ बोल नहीं सका। रामजी की फाँसी देखने की दरखास्त दे
वह...!
‘‘बाबूजी, आप चुप क्यों हैं? इसमें बुराई नहीं है, एक बिचारे की मदद
की है। मैं समझूँगा, मरते वक्त एक दोस्त मौजूद था।’’
शेखर ने काँपते स्वर में कहा, ‘‘अच्छा...’’
पर अनुमति नहीं मिली। शेखर ने उदास वाणी में रामजी से कहा, तो वह भी
कुछ खिन्न होकर बोला, ‘‘जल्लाद, साले! सब जल्लाद हैं!’’ और चुप हो
गया।
उस दिन शेखर बाहर नहीं निकला, कुछ बोला भी नहीं। रामजी ने कई बार बात
करने की चेष्टा की, पर शेखर ‘हाँ-हाँ’ से अधिक नहीं कर सका। अन्त में
शाम को रामजी बोला, ‘‘बाबूजी , आप तो कोई बात नहीं करते, उदास दीखते
हैं। घर से कोई बुरी चिट्ठी आयी है क्या? लीजिए, मैं गाकर आपका मन
बहलाता हूँ-ऐसा मौका कब मिलेगा?’’
शेखर लज्जा से गड़ गया...
रामजी आधी रात तक गाता रहा। फिर न जाने कब शेखर को नींद आ गयी...
एक दिन और भी किसी तरह बीत गया। रात आयी, तब फिर रामजी गाने लगा। आधी
रात के लगभग उसने थककर कहा, ‘‘बाबूजी, अब आप कुछ सुनाइए, मैं तो थक
गया। सुनता-सुनता सो जाऊँगा।’’
शेखर गा नहीं सकता था। पर रामजी के लिए कुछ गाने की कोशिश की। सफलता
नहीं मिली। रामजी ने मीठी चुटकी ली, ‘‘बाबूजी, आप मेरे ही लिए गा रहे
हैं...’’ तब शेखर कहानियाँ कहने लगा-कभी पुराणों से, कभी विदेशी
साहित्य से, कभी एक-आध अपने जीवन की घटना... रामजी का ‘हूँ-हूँ’ धीमा
पडऩे लगा और नीरव हो गया, शेखर ने वार्डर से पूछकर जाना कि वह सो गया
है।
पर शेखर नहीं सो सका। जेल की ‘सब अच्छा’ की पुकारों की ताल पर रात
बीतती चली... एकाएक ऊँघ से चौंककर शेखर ने देखा, उषा फूट रही है।
डॉक्टर रामजी की परीक्षा के लिए आया है।
‘‘डॉक्टर साहब, टाँग तो आप देंगे ही, फिर नाड़ी क्यों देखते हैं?’’
‘‘भाई, मेरा फर्ज है सो अदा करता हूँ। तुम भी खुदा को याद करो।’’
डॉक्टर गया। दिन निकलते-निकलते साहब, दारोगा, मजिस्ट्रेट चीफ वार्डर
और वार्डरों की फौज आ गयी।
शेखर अपनी कोठरी के जँगले पर खड़ा जो देख सकता था, देखता था, बाकी
सुनने की कोशिश कर रहा था।
रामजी की तलाशी ली जा रही थी। हाथ बाँधे जा रहे थे- बाहर निकाला जा
रहा था-
‘‘क्या वसीयत लिखानी है? किसी को कुछ कहना है?’’
‘‘इन साथवाले बाबूजी से दो मिनट बात कर लूँ?’’
कोई तीन सेकेंड बाद साहब का उत्तर, ‘‘नहीं, यह तो हम नहीं कर सकते!’’
‘‘तब चलिए।’’
कुछ घबराहट, कुछ अव्यवस्था, कुछ गति...
एकाएक आँगनों को जोडऩेवाले फाटक पर रामजी, ‘‘अच्छा बाबूजी, अब तो फिर
कभी मिलेंगे, उस पार कहीं-’’ एक द्रुत
मुस्कान-जुलूस चला गया-
और जँगले भींचकर पकड़े हुए खड़ा शेखर सहसा पाता है कि उसकी मुट्ठियाँ
खुल गयी हैं, हाथ छटक गये हैं, सिर झुक गया है...
छ: दिन के बाद शेखर ने बाहर निकलने का विचार किया ही था कि एक और
घटना हुई, जिसने उस बुरे स्वप्न-जैसी अवस्था को तीन दिन और बढ़ा
दिया। शशि का पत्र आया कि वह बहुत कष्ट में है, और मनाती है कि शीघ्र
उसे जीवन से छुटकारा मिल जाए.. क्यों, क्या कष्ट है, कुछ नहीं लिखा
था-कल्पना के दानव के लिए ही यह छोड़ दिया था कि वह उस दु:स्वप्न में
मनमाने रंग भरे...
शेखर सोचता था, जेल में जीवन स्थापित हो जाता है! और यह क्या है, जो
मानो उसे पटककर उसके गले पर चढ़ बैठा है और कह रहा है, ‘‘मैं स्थगित?
तो ले देख, यह मेरा बोझ और मेरी गति की चोट!’’ आह, नहीं सहा जाता...
नहीं सहा जाता... नहीं सहा जाता जीवन, नहीं सहे जाते बन्धन...
क्यों नहीं सहे जाते? दुर्बल, कायर, झूठा कहीं का! उसके सामने ही
मामूली से मामूली आदमी, जीवन की हर एक दने से वंचित, धन से, कुल से,
आत्मीयों से, विद्या से वंचित, जीवन का सामना करते हुए चले जाते हैं,
और वह अभिमानी रोता है कि मैं उसे नहीं सह सकता... कायर, दम्भी
...वेदना होती है... सम्वेदना होती है... सम्वेदना क्या है, जो जीवन
को गहरा नहीं बनाती, धनी नहीं बनाती, जीवन के लिए कृतज्ञ नहीं बनाती?
सम्वेदना की दुहाई देकर जीवन से डरता है! आत्मवंचक...
पीड़ा और अपमान से जलकर सहसा शेखर उठ बैठा, उन्मत्त साँड़ की तरह
कन्धे झुकाकर जीवन के दबाव से टक्कर लेने को तैयार.. फूले हुए नथुनों
से फुंकार की तरह साँस लेता हुआ, पृथ्वी को पैरों से मानो रौंदता हुआ
वह कोठरी से बाहर निकला कि टहलेगा, सबसे मिलेगा, और नहीं दीखने देगा
कि जीवन उसके लिए स्थगित है, बल्कि दुगुनी गति से चल रहा है...
बाबा मदनसिंह खड्डी पर दीवार के सहारे बैठे थे। शेखर ने एक बार उनके
चेहरे की ओर देखा, उसकी जिह्वा पर आया हुआ प्रश्न वहीं रह गया। बाबा
की हालत अच्छी नहीं थी।
बाबा उठे नहीं, मुस्कुराये भी नहीं। शेखर ने देखा, जटा और दाढ़ी के
बीच अब त्वचा भी सफेद हो गयी है, अब केवल आँखें हैं जिनमें रंग है-और
रंग ही नहीं, आज उनमें दीप्ति है-वे जल रही हैं...
‘‘तुम आये... इतने दिन कहाँ रहे?’’
‘‘मेरा मन ठीक नहीं था। मेरे पड़ोसी को फाँसी हो गयी।’’
‘‘मेरा भी मन ठीक नहीं है शेखर! शरीर तो अब चला ही, मन भी बहुत खराब
है।’’
‘‘क्यों बाबा?’’
‘‘कुछ नहीं, कमजोरी! मैं बाहर के समाचार सुनता-पढ़ता हूँ, तो विचलित
हो जाता हूँ!’’
‘‘कैसे समाचार?’’
‘‘तुमने चटगाँव का हाल पढ़ा है?’’
‘‘हाँ-’’
‘‘वहाँ जो गोली-ओली चली, उसका नहीं, उसके बाद जो कुछ हुआ उसका?’’
शेखर ने अख़बार में पढ़ा था कि वहाँ काफ़ी सख्ती हो रही है, कई तरह की
मनाहियाँ जारी हुई हैं, और यह भी पढ़ा था कि वहाँ के समाचार छपने
नहीं दिये जाते, तार और चिट्ठियाँ रोकी जा रही हैं।
‘‘और’’
‘‘और तो मैं नहीं जानता।’’
‘‘शेखर, सुना है कि वहाँ सैनिक मनमानी कर रहे हैं, गाँव के लागों को
पीट-पीटकर सलामी कराई जाती है, स्त्रियों पर बलात्कार किया जाता है,
और-और...’’ एकाएक बाबा का गला रुँध गया, वे कुछ बोल नहीं सके, आवेश
में खड़े हो गये...
‘‘कहाँ सुना आपने?’’
‘‘मुझे चिट्ठी आयी है-’’
‘‘पर जब खबरें नहीं आतीं, तब चिट्ठी भेजनेवाले ने कैसे जाना?’’
‘‘जाना नहीं, सुना। तुम यही कहना चाहते हो न कि ये अफवाहें हैं, हुआ
ही करती हैं, झूठी हैं, कोई प्रमाण नहीं है, जब तक पूरा पता न मिले,
तब तक कुछ कहना अनुचित है? ऐसी बहुत बातें मैं भी सोच चुका हूँ! पर
यह सब धोखा है। मेरा क्रोध इसलिए नहीं कि मेरे पास प्रमाण है; क्रोध
इसलिए है कि प्रमाण नहीं है। तुम नहीं समझते, हमारी परिस्थिति कितनी
भयंकर है, कितनी विवश है कि ऐसे-ऐसे संगीन अभियोगों की भी हम जाँच
नहीं कर सकते; उसके प्रमाण में या सफाई में ही, कुछ पूछताछ नहीं कर
सकते, कुछ जान नहीं सकते! ये अभियोग सच ही हैं, ऐसा मैं नहीं कहता।
लेकिन ये अभियोग लगाये जा रहे हैं, और हमारे पास साधन नहीं हैं कि हम
जाँच करें। इन साधनों को पाना अधिकार है, और वह अधिकार हमें नहीं मिल
रहा...’’
बाबा जँगले के पास आ गये। भिंची हुई मुठ्ठी शेखर की ओर उठाकर
उन्होंने कहा, ‘‘दासता... एकदम घृणित परवशता- और किसे कहते हैं?
अप्रिय के ज्ञान को नहीं, असत्य में विश्वास को भी नहीं, दासता कहते
हैं उस अवस्था को, जिसमें हम सत्य और असत्य को जानने में असमर्थ हो
जाते हैं; दासता वह बन्धन, वह मनाही, जो हमारा ज्ञान आँकने का अधिकार
छीन लेती है...’’
एकाएक वे रुक गये। ‘‘यह बात शायद मैं पहले कह चुका हूँ-इसका अनुभव
किये मुझे एक वर्ष हो गया।’’ वे एक खोखली हँसी हँसे। ‘‘एक साल पहले
जानी हुई बात आज सत्य बनकर चुभती है, और मैं बँधा हुआ हूँ!’’ बाबा की
साँस फूल गयी थी। दो-तीन लम्बी साँसें खींचकर उन्होंने फिर कहा,
‘‘शेखर, चटगाँव हमारे राष्ट्रीय चरित्र पर कलंक है। यही मेरी समझ में
क्रान्ति का प्रमाण है-उसके लिए चारित्र्य की आवश्यकता है, वह
चारित्र्य बनाती है-और उससे बड़ी चीज़ क्या है? हमें चारित्र्य
चाहिए, तो हमें क्रान्ति चाहिए! क्रान्ति! और मैं बँधा हुआ हूँ...’’
बाबा खड्डी पर लौट गये। फीके स्वर में बोले, ‘‘शेखर, तुम जाओ। मेरा
मन ठीक नहीं है। मैंने चाहा था, तुम मुझे हँसता ही देखो-संसार मुझे
हँसता ही देखे, पर ऐसे भी दर्द होते हैं, जो अभिमान से भी बड़े हों।
यदि मैं आज सीख रहा हूँ-अच्छा हुआ कि इतना तीखा दर्द मुझे मिला!
जाओ।’’
शेखर चुपचाप, सहमा हुआ और रोमांचित अपनी कोठरी में लौट आया।
तीसरे दिन शाम को बाबा की हालत बहुत खराब हो गयी। डॉक्टर ने अस्पताल
में ले जाना चाहा, पर बाबा ने कहा, ‘‘एक दिन के लिए वहाँ नहीं
जाऊँगा। मैंने अपने जीवन का उत्तर अंश कोठरी में बिताया है, अब सबसे
महत्त्व का दिन कहीं और बिताने नहीं जाऊँगा।’’ कोई और होता तो
जबरदस्ती ले जाते, बाबा से जबरदस्ती करने का साहस किसी में नहीं था।
डॉक्टर एक वार्डर की ड्यूटी वहाँ लगवाकर चले गये, एक बार रात में भी
आकर देख गये।
शेखर को समाचार कोठरी में बन्द होने के बाद मिला था। जेल में बाबा का
कितना आदर था, उसने तभी जाना। उस रात जैसा सन्नाटा उसने जेल में नहीं
देखा था-बाबा की बीमारी की खबर कानो-कान फैल गयी थी, और नम्बरदार लोग
‘सब अच्छा!’ भी धीमे, सहमे-से स्वर में पुकार रहे थे...
‘‘एक दिन के लिए... सबसे महत्त्व का दिन... सचमुच?’’ शेखर के भीतर
प्रार्थना का भाव उमड़ आया...
सबेरे कोठरी खाली हो गयी।
जब कोठरियाँ खुलीं, तब बाबा का शरीर हटाया जा चुका था। कोठरियाँ
खुलने में देर होती देखकर शेखर ने वार्डर से पूछा था, ‘‘क्या आज कोई
फाँसी है?’’ क्योंकि ऐसे ही दिनों खुलने में देर होती थी।
‘‘नहीं!’’ वार्डर हिचकिचाकर रुक गया था।
‘‘तब?’’ और फिर एकाएक भय से प्रकाश पाकर, ‘‘क्या बाबा...’’
वार्डर बोला नही था...
शेखर दौड़ा हुआ बाबा की कोठरी की ओर गया, जैसे कोई भक्त भूकम्प से
ध्वस्त मन्दिर की ओर जाता है...
कोई कह रहा था... रात में उठ बैठे, घंटा-भर रोते रहे। फिर दीवार से
सटकर खड़े है, और फिर आकर लेट गये और बोले, ‘‘अब चल! बस..’’
यह रात की ड्यूटीवाला वार्डर था। शेखर तड़पकर कोठरी के भीतर घुसा..
हाँ, उसका अनुमान ठीक था, दीवार पर काँपते अक्षरों में एक नया लेख
था...
‘‘अन्तिम सूत्र-अभिमान से भी बड़ा दर्द होता है, पर दर्द से भी बड़ा
एक विश्वास है...’’
बाबा के पैर छूने में शेखर ने अपमान समझा था, उसके लिए अपने को कोसते
हुए उसने उस अन्तिम सूत्र पर माथा टेक दिया, फिर आँखों में आये हुए
दो बड़े-बड़े आँसुओं का निर्लज्ज-भाव वार्डरों को दिखाता हुआ कोठरी
में चला गया-
दर्द से भी बड़ा एक विश्वास है...
बेहूदे दिन...
मुकदमा समाप्त हो गया था। सफाई की काफ़ी-सी तैयारी करने के बााद एकाएक
यह परिणाम निकला कि सफाई देना व्यर्थ है। वादी पक्ष कमजोर हो, तो
प्रतिवाद से लाभ नहीं होता, हानि हो सकती है। केवल विद्याभूषण के लिए
कुछ गवाहियाँ पेश की गयी थीं; और उन सबके बयान एक ही दिन में हो गये
थे क्योंकि जिरह नहीं की गयी थी.. वकीलों की तू-तू मैं-मैं भी हो गयी
थी जिसे बहस कहते हैं।
‘‘अब मैं फैसला ही सुनाऊँगा.. उसकी तारीख फिर तय की जाएगी, अभी आरजी
तौर पर तारीख डाल देता हूँ।’’ और हाकिम ने मुकदमे की अवधि तेरह दिन
और बढ़ा दी थी...
ये दिन बीतते नहीं थे। यह नहीं कि फैसले के बारे में बहुत अधिक
चिन्ता या उत्कंठा थी, पर इस प्रकार आकाश में लटके रहना... मुकदमा
समाप्त हो चुका है, फैसले के लिए जो कुछ आधार होता है, सब सामने आ
चुका है, शायद हाकिम ने मन-ही-मन फैसला कर भी लिया है। अब केवल जानने
की देर है, और इसके लिए तेरह दिन बैठे रहना होगा! नहीं, तेरह दिन बाद
तो यही विदित होगा कि फैसला किस दिन सुनाया जाएगा...
अन्त में तेरहवाँ दिन आया... दुपहर हो गयी, अदालत जाने के लिए बुलाहट
नहीं आयी। शेखर ने समझ लिया, हाकिम ने उन्हें बुलाये बिना तारीख डाल
दी होगी, अपने-आप पता चल जाएगा। वह लेटकर सोचने लगा, सोचते-सोचते सो
गया।
‘‘बाबूजी, बाबूजी? आपको द$फ्तर में बुलाया है?’’
शेखर हड़बड़ाकर उठा, ‘‘किसने बुलाया है?’’
‘‘दारोगा साहब ने।’’
‘‘मुलाकात है?’’
‘‘नहीं, दफ्तर में बुलाया है। पेशी है।’’
‘‘कैसी पेशी?’’ कहकर शेखर वार्ड के साथ चल पड़ा।
दफ्तर पहुँचकर मालूम हुआ कि मुकदमे का फै सला सुना दिया गया है। शेखर
के बारे में मजिस्ट्रेट की राय है कि उसके विरुद्ध गवाही इतनी दृढ़
नहीं है कि सजा दी जा सके, यद्यपि सन्देह बहुत अधिक होता है। किन्तु
अगर प्रमाण अकाट्य भी होता, तो भी शायद जितनी कैद वह भुगत चुका है वह
पर्याप्त होती, इसीलिए उसे छोड़ा जाता है।
बेजान-से स्वर में दरोगा ने कहा, ‘‘बधाई है। आप अब आज़ाद हैं। दफ्तर
से अपना सामान वगैरह ले लीजिए।’’
‘‘अरे बाकी लोग? पूरा फैसला तो सुनाइए-’’
‘‘विद्याभूषण को एक वर्ष; सन्तराम और केवलराम को छ:-छ: महीने, हंसराज
रिहा हो गया है।’’
‘‘मैं उनसे मिल नहीं सकता?’’
दारोगा जोर से हँसे। ‘‘आपने सुना नहीं, जेल की यारी क्या होती है?
कैदियों से कभी कोई मिलता है?’’
‘‘तो आप नहीं मिलने देंगे?’’
‘‘वे अब कैदी हैं। तीन महीने में एक मुलाकात कर सकते हैं। आप दरखास्त
दे सकते हैं; पर आप मिलेंगे तो तीन महीने तक वे दूसरी मुलाकात नहीं
कर सकेंगे। शायद इसके लिए वे आपके शुक्रमन्द नहीं होंगे।’’!
‘‘और हंसराज?’’
‘‘उसे एक घंटा पहले रिहा कर दिया गया है।’’
शेखर चुपचाप दफ्तर में चला गया।
दस महीने नष्ट...
उदास भाव से शेखर दफ्तर की कार्यवाही समाप्त करने के बाद ड्योढ़ी का
फाटक खुलने की प्रतीक्षा में खड़ा था। उसे लेने कोई नहीं आया था-किसी
को खबर नहीं थी। वकील को रही होगी, वे अभी
काम में व्यस्त होंगे.. अकेला ही वह बाहर निकलेगा, अकेला और
उदास-जीवन के बड़े-बड़े दस महीने नष्ट करके...
नष्ट? बाबा मदनसिंह ने इक्कीस वर्ष वहाँ बिताए थे, और उसके बाद भी
लिख गये थे कि दर्द में भी बड़ा एक विश्वास है... इस एक बात को जानने
में दस महीने सफल हो जाते-और उसने बाबा मदनसिंह को जाना था, मोहसिन
को जाना था, रामजी को जाना था, स्वयं अपने को जाना था...नष्ट?
अकृतज्ञ शेखर...
दस दीर्घ जीवनाक्रान्त महीने...बन्धनों का अन्त-जिज्ञासाओं का
अन्त-जीवन, केवल जीवन, विस्तृत और अबाध जीवन...
किन्तु जब फाटक खडख़ड़ाकर खुलने लगा, बाहर का दृश्य उसे सामने आ गया,
ठीक उसी के सामने, बिना सींखचों की ओट लिये, तब एकाएक उसे अपनी बात
पर सन्देह हो आया। बन्धनों का अन्त? जिज्ञासा का अन्त? शेखर को बहुत
पहले पढ़ी हुई कविता की दो पंक्तियाँ याद आयीं :
Peace, peace, such a small lamp
illumines, on this highway.
So dimly, So few steps infront of my feet1
(1. शान्ति, शान्ति! इस राजमार्ग पर
केवल एक छोटा-सा दीप आलोकित करता है-इसके फीके प्रकाश से इतने
थोड़े-से क़दम मेरे चरणों के आगे...)
सभी कुछ जानने को है अभी,
सभी कुछ काट गिराने को है...
और शशि?
सहारे के लिए केवल एक छोटी-सी बात पर बाबा ने लिखा था, अन्तिम
सूत्र...उन्हीं के लिए अन्तिम, या मानव-मात्र के लिए अन्तिम?...
फाटक उसके पीछे बन्द हो गये थे। वह मुक्त था।
‘अभिमान से भी बड़ा दर्द होता है, पर दर्द से भी बड़ा एक विश्वास
है...’
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