10.
स्मृति और देश
[साहित्य
अकादेमी, नई दिल्ली में 'स्मृति के परिदृश्य’ शीर्षक के अधीन दिये
गये दो व्याख्यानों में से पहला व्याख्यान।]
‘हम काल में जीते हैं’ यह ऐसी स्वयंसिद्ध बात है कि इसे कहना
अनावश्यक होता है। इसलिए जब यह कही जाती है तब श्रोता को यह शंका
होती है कि क्या यह बात कहने में वक्ता का आशय कुछ दूसरा है-क्या यह
वास्तव में वही नहीं कह रहा है जो कि वह कह रहा है बल्कि किसी दूसरे
ही आशय से हमें अवगत कराना चाहता है? इसी बात को उलटकर कहें कि ‘काल
हममें जीता है’-और बात यों भी कई बार कही गयी है-तो श्रोता कुछ
चौंकता है : यह काल के साथ एक-दूसरे के सम्बन्ध की प्रतिज्ञा है अथवा
दूसरे प्रकार का सम्बन्ध स्थापित करने का प्रयत्न है। लेकिन काल,
जिसमें हम जीते हैं अथवा जो हममें जीता है, वह है क्या? यह हम नहीं
बता सकते। बल्कि जब प्रश्न पूछा जाता है तो अनुभव करते हैं कि हम
उत्तर नहीं जानते। सन्त ऑगुस्तीन ने मर्म की बात कही थी जब उन्होंने
कहा था कि ‘जब तक यह प्रश्न नहीं पूछा जाता तब तक उत्तर मैं जानता
हूँ, पर जब कोई पूछ बैठता है तब नहीं जानता।’ काल वर्तमानता के रूप
में, एक नैरन्तर्य अथवा सातत्य के बोध के रूप में, हमारी अनुभूति की
चीज़ है; लेकिन अनुभूति सम्प्रेष्य नहीं है, हम उसका वर्णन ही कर
सकते हैं। काल की हम परिभाषा करते हैं और हमारी हर परिभाषा काल की
अवधारणा के लिए देश अथवा दिक् के आयाम का उपयोग करती है। काल की
हमारी हर परिभाषा दिक्-सापेक्ष होती है; जैसे कि हमारी दिक् की
परिभाषाएँ भी प्राय: काल-सापेक्ष होती हैं। यह कठिनाई हमारे गोचर
अनुभवों की सीमा की कठिनाई है जो उन अनुभवों के वर्णन अथवा वृत्तान्त
में प्रतिबिम्बित होती है। हमारे गोचर अनुभवों के संसार में दिक्काल
के आयाम अलग नहीं किये जा सकते-सत्ता अथवा रिएलिटी का हमारा बोध एक
दिक्काल-सातत्य में-स्पेस-टाइम कंटिन्युअम में-बनता है; दिक्काल के
ताने-बाने से ही उसकी बनावट रची गयी है।
लेकिन जहाँ तक बोध का सवाल है-अपने अनुभव की
संप्रेषण की चिन्ता से
मुक्त निपट अनुभूति का सवाल-काल का हमें एक सहज बोध होता है। जिस काल
में हम जीते हैं, जो काल हममें जीता है, दोनों ही उस सहज बोध का अंग
होते हैं : हम अपने शरीर के प्रत्येक अवयव में भी इस दोहरी गति को
सहज ही पहचानते हैं। सत्ता के एक नैरन्तर्य का-भले ही अनुक्षण बदलते
नैरन्तर्य का, ‘हम थे-हम हैं’ के एक सघन संश्लिष्ट सातत्य का सहज बोध
हमें होता है। स्पष्ट है कि हमारी स्मृति यहाँ काम कर रही है। कोई इस
बात को यों कहना चाहे कि सातत्य के इस बोध का ही नाम तो स्मृति है,
तो फिलहाल काल-बोध और स्मृति के सम्बन्ध में हेतु और हेतुमत् का
विवाद उठाना अनावश्यक होगा।
लेकिन काल के सहज-बोध की भाँति दिक् का भी कोई सहज बोध होता है?
काल-सातत्य अथवा नैरन्तर्य की भाँति क्या दिक्-सातत्य अथवा विस्तार
भी हमारे सहज बोध का एक अंग है?
जब हम यह कहते हैं कि दिक् और काल एक-दूसरे से ऐसे जुड़े हैं कि
उनकी अलग परिभाषा भी नहीं की जा सकती, अथवा जब वह आग्रह करते हैं कि
चार आयामों वाले दिक्काल-सातत्य की बात करना ही संगत है, तब हमने
निहित रूप से यह मान लिया होता है कि दिक् का भी एक सहज-बोध अथवा
प्रातिभ ज्ञान हमें होता है। ‘हम हैं’, यह कहने में ही हम न केवल
अपने काल-गत अस्तित्व के बारे में एक दावा कर रहे होते हैं वरंच अपनी
भौतिक सत्ता का भी एक दावा कर रहे होते हैं-दिक् के आयाम में भी अपने
को प्रतिष्ठापित कर रहे होते हैं।
लेकिन नैरन्तर्य अथवा विस्तार का बोध करनेवाले हम ‘मैं’ को लेकर
बहुत-सी कठिनाइयाँ खड़ी हो जाती हैं। ‘यह शरीर जो मैं हूँ’, ‘यह शरीर
जो मेरा है’-इन दोनों पदों में प्रकट होनेवाला ‘मैं’ क्या एक ही है?
‘मैं’, ‘मेरा’ हूँ, यह कहने का क्या मतलब होता है? इस प्रश्न का
उत्तर मैं नहीं देने जा रहा हूँ। मैं जानता हूँ कि वह करने का
प्रयत्न बर्र के छत्ते में हाथ डालने जैसा है। फिर भी ऐसा प्रश्न उठा
देना इसलिए भी उपयोगी मानता हूँ कि उससे कुछ दूसरे क्षेत्रों के कुछ
दूसरे प्रश्नों का उत्तर तो हमें मिल ही जाता है अथवा कम-से-कम
जिज्ञासा का क्षेत्र स्पष्ट प्रकाशित हो जाता है। भौतिक शरीर को इन
दो सम्बन्धों में रखकर देखने के प्रयत्न का एक लाभ यह होता है कि
विस्तार के सहज-बोध का एक आधार हमें मिल ही जाता है। इस शरीर की, जो
‘मैं’ हूँ या जो ‘मेरा’ है, पहुँच कितनी है, इसका हमें एक सहज अनुभव
होता है और वह हमारे दिग्बोध का एक आधार है। जैसे ‘मैं’ वह
हूँ
जिसकी मुझे स्मृति है, ‘मैं उतना हूँ जितना मुझे स्मरण है’, यह हम
काल के आयाम में कहते हैं, उसी प्रकार मैं ‘वह विस्तार या देश हूँ
जहाँ मैं हूँ, मैं उतना हूँ जितनी जगह मैं घेरता हूँ’-यह हम दिक् के
आयाम में कह सकते हैं। काल-सातत्य में हमारा टिकाव है, दिक्सातत्य
हमारी पहुँच है। अगर इस पहुँच के कुछ स्थूल भौतिक रूप हैं और कुछ
क्रमश: सूक्ष्मतर होते जाते हैं, तो पहुँच के इन विविध प्रकारों को
एक क्रम में रखना भी हमारे लिए सम्भव हो जाता है, भले ही उस क्रम के
विभिन्न पदों के सम्बन्धों को हम पूरी तरह न समझ पाते हों। मैं हाथ
बढ़ाकर कलम उठा सकता हूँ, अथवा बिजली का बटन दबाकर कमरे में प्रकाश
कर दे सकता हूँ; यह विस्तार का एक प्रकार का बोध है। लडक़े ढेला मारकर
फल गिरा सकते हैं, या शैतानी पर उतारू होने पर किसी के घर के शीशे
तोड़ सकते हैं, यह विस्तार का दूसरे प्रकार का बोध है। एक
अन्तरिक्षयान यहाँ से छोड़ा जाकर इतने अर्से के बाद किसी ग्रह तक
पहुँचेगा जो इस समय हमारे सामने की दिशा में नहीं है और जो स्वयं
निरन्तर चक्कर काट रहा है, यह विस्तार का एक तीसरी कोटि का बोध है।
यह कहना काफ़ी नहीं है कि इनका अन्तर केवल मात्रा का-छोटी और बड़ी
का-अन्तर है : एक गुणात्मक अन्तर भी है। लेकिन प्रत्येक कोटि के बोध
में हमारी स्मृति का कितना और कैसा योग है, इस प्रश्न को लेकर कठिनाई
हो सकती है। उस कठिनाई का केवल संकेत करके छोड़ दें और एक दूसरे
प्रकार के दिग्बोध की बात करें। शिशु माँ की गोद में अपने को
सुरक्षित अनुभव करता है। गोद से उतरकर थोड़ी दूर पर खेलता है तो भी
सुरक्षा का भाव वैसा ही बना रहता है। कुछ और दूर हटकर, ऐसी जगह
पहुँचकर भी जहाँ से माँ उसे नहीं दीखती, वह अपने को उतना ही सुरक्षित
अनुभव करता है। माँ भी बच्चे के अदृश्य होने पर भी उसके बारे में
चिन्तित नहीं होती। लेकिन एक दूरी ऐसी आती है जिस पर बच्चा एकाएक
असुरक्षा का अनुभव करता है। ऐसा भी सम्भव है कि वहाँ से उसे माँ दीख
भी सकती हो, फिर भी मानो माँ से मिलनेवाली सुरक्षा की परिधि के वह
अपने को बाहर पाता है-सुरक्षा का वह सूत्र मानो टूट गया होता है। माँ
की ओर से भी ऐसी बात हो सकती है-एक दूरी के बाद वह बच्चे के बारे में
एकाएक चिन्ताकुल हो उठे। विस्तार का यह बोध कैसा है? सहज दिग्बोध का
यह कौन-सा आयाम है जिसके साथ सुरक्षा-असुरक्षा का भाव जुड़ा हुआ है?
इस प्रश्न का उत्तर मैं नहीं जानता। अनेक प्रकार के वैज्ञानिक और
अवैज्ञानिक अथवा वैज्ञानिकता का आभास देनेवाले अनुमानों की बात जानता
हूँ। और यह मानता हूँ कि जिस अनुभव की बात मैं कर रहा हूँ उसे हम सभी
ने लक्षित किया होगा।
क्योंकि वह अनुभव हम सभी का परिचित है, इसलिए मेरा विश्वास है कि यह
बात भी हम सब स्वीकार कर लेंगे कि यह सहज-बोध कहीं-न-कहीं
हमारी-अर्थात् हमारे उदाहरण की माँ और बच्चे की-स्मृति से जुड़ा है।
विस्तार की एक सहज स्मृति है। हमारी स्मृति में विस्तार का- दिक् के
आयाम का एक सहज बोध है जिसके साथ हम आत्यन्तिक रूप से जुड़े हैं। वह
बोध तभी नष्ट होता है जब स्मृति नष्ट होती है-अर्थात् जब व्यक्तित्व
नष्ट हो गया होता है।
दिक् का यह आयाम हमारी सत्ता के साथ जुड़ा है।
जिस तरह काल की प्रतीति को हम जिस ढाँचे में रखते हैं-अथवा इसे
उलटकर यों भी कह सकते हैं कि काल के जिस ढाँचे में हम काल की निजी
प्रतीति को और अपने वर्तमान को रखते हैं-वह हमारे सारे इतिहास को और
अपनी ऐतिहासिक स्थिति की समझ को प्रभावित करता है, उसी प्रकार दिक्
की जिस संरचना में हम अपने को रखते हैं उसी से हमारा सारा भूगोल
निर्धारित होता है और फलत: दिक्काल-सातत्य में हमारी अवस्थिति भी
निर्धारित और निरूपित होती है। कहने को तो हम कह सकते हैं कि दिक् का
विस्तार एक वैज्ञानिक वास्तविकता है, भले ही उसका एक पौराणिक
प्रतिरूप भी हो-कि यह पौराणिक प्रतिरूप केवल काल्पनिक या मिथकीय
अस्तित्व रखता है। वस्तुत: दिक् के इस आयाम को ‘पौराणिक’ या ‘मिथकीय’
कह देने से उसकी यथार्थता और उसकी प्रभावशीलता नष्ट नहीं हो जाती; हम
केवल यथार्थ के एक-दूसरे आयाम की अवधारणा कर रहे हैं जो हमें उतनी ही
व्यापकता से प्रभावित करता है।
जिस प्रकार काल की संरचना वर्तमान के उस बिन्दु से आरम्भ होती है
जिस पर हम खड़े होते हैं-हमारा कालिक परिदृश्य वहीं से आरम्भ होता
है-उसी प्रकार हमारी दिक् की संरचना भी उसी बिन्दु से आरम्भ होती है
जिस पर खड़े होकर हम आसपास देखते हैं। दिग्विस्तार में हम खड़े हुए
हैं, यह वैज्ञानिक सत्य भी है और पौराणिक भी; किन्तु ये दो अलग-अलग
प्रकार के दिग्विस्तार हैं जिनके केन्द्र में हम अपने को रख रहे होते
हैं। कहा जा सकता है कि वह ‘हम’ भी दो अलग-अलग प्रकार के आत्मबोध से
सम्बन्ध रखता है।
विज्ञान के दिग्विस्तार को हम कई तरह से देख सकते हैं और वैज्ञानिक
आवश्यकतानुसार ऐसा करते भी हैं। वैश्विक दिग्विस्तार को
सूर्य-केन्द्रित परिदृश्य में भी देखा जा सकता है और दूसरी ओर (यह
बात ध्यान में रखते हुए कि हमारे सौर-मंडल जैसे और भी अनेक सौर-मंडल
आकाश में बिखरे हुए हैं) इस वृहत्तर विस्तार के किसी दूसरे केन्द्र
की अवधारणा की जा सकती है। अथवा ऐसा भी हो सकता है कि एक
बहुकेन्द्रिक विस्तार की बात की जाए। ठीक उसी प्रकार पौराणिक अथवा
मिथकीय दिग्विस्तार के बारे में भी कहा जा सकता है। यहाँ भी
देखनेवाली एक चेतना केन्द्र में है। लेकिन ‘किसके केन्द्र में? इसके
एक से अधिक उत्तर हैं-इसके बावजूद कि एक सामान्य उत्तर हर हालत में
बना रहता है कि ‘मैं दिग्विस्तार के केन्द्र में हूँ’ अथवा
‘दिग्विस्तार वह है जिसके केन्द्र में मैं हूँ।’’
‘मैं यह शरीर हूँ जो कि मैं हूँ।’
‘मैं इस शरीर में हूँ जो मेरा शरीर है।’
‘मैं दिग्विस्तार में एक जगह भरता हूँ, वह मैं हूँ अथवा वह मेरी
है।’
‘जम्बू द्वीपे भरतखंडे’- विभिन्न अनुष्ठानिक अवसरों पर संकल्प पढ़ते
समय हम अपने को काल के एक बिन्दु पर प्रतिष्ठापित करते हैं-’मासानाम्
मासोत्तमे अमुक मासे अमुक वासरे’ इत्यादि और उसके साथ-साथ दिक् में
भी विशेष बिन्दु पर स्थापित कर रहे होते हैं। अनुष्ठानिक रूप में
मिथकीय दिग्विस्तार में खड़े होने के कारण ही सारा विश्व ब्रह्मांड
हमारे संकल्प का साक्षी हो जाता है। दिक् संरचना के ये अनेक रूप हैं
जिनका विस्तार अलग-अलग ढंग से अथवा अलग-अलग आयामों में होता है लेकिन
प्रत्येक संरचना के केन्द्र में वही एक चेतना होती है जिसे हम ‘मैं’
की संज्ञा देते हैं। इन अवधारणाओं की अर्थवत्ता और शक्तिमत्ता को
ध्यान में रखते हुए यह कहना उचित नहीं है कि दिक् संरचना के ये आयाम
मिथकीय हैं, इसलिए काल्पनिक हैं, इसलिए मिथ्या हैं। ये सब उतने ही
मिथ्या हैं अथवा सत्य हैं जितना हमारा अनुभव, हमारे अनुभवों की हमारी
स्मृति, और संचित स्मृतियों के आधार पर बना हुआ हमारा आत्मबिम्ब।
अनुभव और अनुभव की स्मृति के साथ दिग्बोध को जोडऩे का स्पष्ट आशय यह
तो है ही कि दिक्संरचना का एक मानसिक अथवा मनोवैज्ञानिक आयाम है।
दूसरे शब्दों में हम भीतरी, मानसिक अथवा मनोवैज्ञानिक देश की भी
अवधारणा कर सकते हैं। ‘मैं’ वह (या उतना) दिग्विस्तार हूँ जिसे मैं
भरता हूँ-यह वाक्य भी जैसे भौतिक अथवा भौगोलिक स्तर पर अर्थ रख सकता
है वैसे ही इसका एक मानसिक मनोवैज्ञानिक और सांस्कृतिक आयाम भी है।
पक्षी घोंसला बनाते हैं तो स्थूल सीमाओं के घेरे के भीतर चक्कर
काट-काटकर एक सूक्ष्म दिग्विस्तार की रचना कर लेते हैं और शायद यह
सूक्ष्म संरचना ही पक्षी का असली घोंसला होती है। (या पक्षी का असली
घोंसला वह होता हो या न हो, मनुष्य जब घोंसले की अवधारणा करता है तब
इस सूक्ष्म संरचना को ही अधिक महत्त्व दे रहा होता है और वह सूक्ष्म
संरचना ही रूपक का आधार बनती है, नया मुहावरा देती है, भाषा को
समृद्ध करती है।) अनेक चौपाये भी विश्राम के लिए बैठने से पहले चक्कर
काटकर एक सूक्ष्म घेरे की रचना करते हैं जो उनके विश्राम स्थल का
घेरा होगा, और तभी उसके भीतर बैठते हैं। जिस प्रकार पशु-पक्षी
दिग्विस्तार में एक ‘अपने’ देश की रचना करके उसमें बसते हैं उसी
प्रकार मानव प्राणी भी करता है। एक सूक्ष्म देश रचना की इस प्रवृत्ति
का एक पक्ष ऐसा है जो समूची मानव जाति को व्यापता है, दूसरा पक्ष
विभिन्न संस्कृतियों से अलग-अलग ढंग से प्रभावित होता है और जो रचना
है उसे हम सांस्कृतिक देश अथवा दिक् कह सकते हैं। मानव शरीर को ही एक
भौतिक इकाई अथवा सूक्ष्म जीव के आवास के रूप में देखने के जो परिणाम
होते हैं उनकी ओर संकेत हो ही चुका है। दिक् संरचना का क्रम शरीर के
बाहर भी वृत्त रचता चलता है। गरीब-से-गरीब भारतीय व्यक्ति भी अपने
शरीर को स्वच्छ रखने का प्रयत्न करता है, भले ही नहा लेने के बाद वह
फिर कपड़े मैले ही पहन ले। भारतीय गृहिणी घर-आँगन की सफाई करती है और
कूड़ा बाहर गली में फेंक देती है। आधुनिक प्रभाव को छोड़ दें तो बाहर
से आनेवाला व्यक्ति जूते बाहर उतारकर घर में प्रवेश करता है जिससे घर
की स्वच्छता दूषित न हो। दूसरी ओर, पश्चिम का व्यक्ति कपड़े साफ
पहनना चाहता है लकिन शरीर की सफाई के प्रति बहुधा बड़ी उपेक्षा बरतता
है जो सदैव निर्धनता के कारण नहीं होती। गली और सडक़ और घर के समूचे
बाहरी परिदृश्य की स्वच्छता की इसे बहुत चिन्ता रहती है। पर घर के
भीतर बर्तन कई-कई दिन तक जूठे पड़े रह सकते हैं। ऐसे ही और भी उदाहरण
दिये जा सकते हैं जिनसे यह बात स्पष्ट हो जाती है कि जिस सूक्ष्म
दिक् संरचना की बात मैंने कही है वह कहाँ तक संस्कृति से प्रभावित
होती है। यह दोहराने की तो आवश्यकता न होनी चाहिए कि सूक्ष्म अथवा
आभ्यन्तर देश की रचना के साथ हमारा जो सम्बन्ध है वह हमारे स्थूल
परिदृश्य को भी अनिवार्यतया प्रभावित करता है क्योंकि देश की जिस
संरचना के केन्द्र में हमारी चेतना होती है उसके सूक्ष्म और स्थूल
रूपों में निरन्तर संवाद और सम्प्रवाह बना रहता है। सांस्कृतिक अथवा
पौराणिक देश के लिए युद्ध लड़े जाते हैं-बल्कि युद्ध अधिकतर उसी के
लिए लड़े जाते हैं और उसी से युयुत्सा भी प्रेरणा पाती है : स्थूल
भू-विस्तार तो एक निमित्त बना जाता है। दूसरी ओर, देश छोडऩे को बाध्य
हो गयी जातियाँ नए देश में अपनी पुरानी सांस्कृतिक दिक्-संरचना की
पुन: प्रतिष्ठा कर लेती हैं-एक ओर अयोध्या अथवा काशी बन जाती है, एक
नया कैलाश पर्वत अथवा वृन्दावन बन जाता है-और इस प्रकार अपने
विस्थापन में अपने को फिर से स्थापित कर लेती है, अपनी ‘जमीन’ से
अपने को ‘उखडऩे’ नहीं देती...
अस्मिता की यह पुन: प्रतिष्ठा सत्ता-बोध के साथ जुड़ी है, और स्मृति
ही उसका आधार है।
सत्ता और स्मृति। स्मृति और कल्पना। कल्पना और बिम्ब। स्मरण, कवन और
कल्पन। यह असम्भव नहीं है कि शास्त्र-ज्ञान का किसी तरह का कोई प्रकट
या निहित दावा किये बिना इन शीर्षकों के या ऐसे किसी शीर्षक के
निमित्त से केवल कविता अथवा रचना की भूमि पर खड़े होकर बात की जाए।
लेकिन वैसा करने पर भी एक व्यावहारिक प्रश्न सामने आता है। वैसे
विचार के लिए कदाचित् अधिक उपयोगी यही हो कि काव्य से-रचनात्मक
साहित्य से-कुछ उदाहरण पहले लिये जाएँ और उन्हीं को आधार बनाकर
सामान्य स्थापनाओं की ओर बढ़ा जाए। किन्तु इस पद्धति को व्यावहारिक
मानकर भी आज ऐसे अवसर पर और ऐसे समाज में, उसकी उपादेयता का भरोसा
नहीं कर पाता। क्योंकि इस समाज के वैदुष्य और उसकी सहृदयता को
स्वीकार करते हुए भी निश्चयपूर्वक यह नहीं सोच सकता कि उदाहरण के लिए
सामग्री किस साहित्य से या कौन-कौन-से साहित्यों से ली जा सकती है।
बहुभाषी समाज के भाषा-संस्कार तो अलग-अलग होंगे ही, उनके स्मृति
भंडार भी अलग-अलग होंगे। निश्चय ही बहुत-सी समान सामग्री भी उनमें
होगी, लेकिन उसकी उपस्थिति का भी मैं अनुमान ही कर सकूँगा। इसलिए उस
सम्भाव्य व्यावहारिकता को मानकर भी मुझे दूसरा ही रास्ता पकडऩा अधिक
उपयोगी जान पड़ता है-सामान्य विचार और स्थापनाओं का रास्ता, जिस पर
कहीं-कहीं ऐसे उदाहरण भी दिये जा सकते हैं जिनके बारे में विश्वास
किया जा सकता हो कि वे विभिन्न भाषा-समाजों से परिचत होंगे।
उपनिषदों में एक अनोखे पेड़ का उल्लेख किया गया है जिसकी जड़ें ऊपर
को फैली हैं और जिसकी शाखाएँ नीचे की ओर बढ़ती हैं। यह
ऊध्र्वमूलमध:शाखा वृक्ष क्या केवल एक रूपक है, अथवा हमारे अनुभव से
इसका कोई गम्भीरतर सम्बन्ध भी है? अनुभव से सम्बन्ध है तो स्मृति से
भी सम्बन्ध है। लेकिन स्मृति का एक स्तर यह है कि वृक्ष होता है
जिसकी जड़ें और शाखाएँ होती हैं-जड़ें नीचे रसवती वसुन्धरा धरती की
ओर फैलती हैं और शाखाएँ ऊपर प्रकाश से भरे अन्तरिक्ष की ओर। इससे आगे
कल्पना इस स्मृति-बिम्ब को उलटकर यह अनोखा पेड़ रच रही है। लेकिन
क्या वह अनोखा पेड़ केवल एक अवधारणा है, केवल एक रूपक है? क्या
वास्तव में यह अनोखा उलटा पेड़ ही हमारे अधिक गहरे अनुभव का अंग नहीं
है? क्या उलटे वृक्ष का यह बिम्ब भी कल्पना-प्रसूत न होकर हमारी
स्मृति का ही अंग नहीं है? अर्थ-विस्तार के लिए हम इस उलटे वृक्ष के
रूपक को लेकर कल्पना को चाहे जितनी छूट दें, क्या कहीं पर यह बिम्ब
मानवीय अस्तित्व के आरम्भ का एक स्मरण-बिम्ब नहीं है? क्या भ्रूण की
स्थिति ऐसे ही ‘ऊर्ध्वमूलमध:शाखा’ वृक्ष की नहीं है जिसे पोषण
देनेवाली ‘भूमि’ ऊपर है और जिसे विस्तार का अवकाश देनेवाला ‘आकाश’
नीचे है? एक अवस्थिति की प्राक्तन समृति इस उलटे पेड़ के बिम्ब में
संचित है; एक दूसरे प्रकार की अवस्थिति के अनेक बिम्ब भी हम संचित
करते हैं जिनमें पेड़ सीधे उगे होते हैं, उनकी जड़ें और उन्हें पोषण
देनेवाली भूमि नीचे होती है और उन्हें विस्तार का अवकाश देनेवाला
आकाश ऊपर होता है। और इन दो विपरीत बिम्बों को जोडऩेवाले-उनमें एक
बिम्ब-प्रतिबिम्ब भाव स्थापित कर देनेवाले-एक पेड़ को भी हम देख पाते
हैं, प्रत्यक्ष भी और प्रस्तर-मूर्तियों में अंकित भी, और यह
न्यग्रोध वृक्ष भी हमारी स्मृति में बस जाता है। कवि के लिए वह फिर
प्रतीकन और कल्पना के नए मार्ग खोल देता है। लेकिन स्मृति की महत्ता
इसी में नही है। उसका वास्तविक महत्त्व इस बात में है कि वह ‘ऊपर’,
‘नीचे’ और ‘मध्यवर्ती’ का एक अमिट बोध हमें देती है-ऊध्र्वाधरता अथवा
अनुलम्बता का, दिक् की संरचना के हमारे ज्ञान का आधार बनाती है।
जापानी भाषा में मानव की संज्ञा का अर्थ ही होता है मानवी
मध्यवर्ती-अर्थात वहाँ ऊध्र्वाधर के, वर्टिकैलिटी के, इस बोध को ही
मानवीयता की परिभाषा का आधार बना दिया गया है। ऊध्र्व और अधर के सीधे
और उल्टे का यह बोध एक तरफ हमारे गोचर अनुभवों की आधार-भित्ति है और
दूसरी तरफ हमारी सर्जनात्मक कल्पना की।
दिक् की संरचना के इस आधारभूत बोध के साथ उस संरचना की समझ के और भी
पक्ष जुड़ते जाते हैं। स्थिरता का बोध जगानेवाला चौकोर प्रकोष्ठ जो
धरती अथवा पृथ्वी का प्रतीकन करता है-लेकिन प्रकोष्ठ का प्रतीक-रूप
पाने से पहले वह घर के एक आदिम बिम्ब के रूप में हमारी चेतना का अंग
बनाती है। इस आदि बिम्ब का ही फिर विस्तार होता है : हमारी स्मृति,
हमारी कल्पना हमारी बुद्धि सभी उसी आधार-बिम्ब के ऊपर अपने-अपने ढंग
की इमारत खड़ी करते हैं, प्रतीक रचते हैं और संकेतों का आविष्कार
करते हैं। घर का अथवा कुटीर का बिम्ब स्थिरता और सुरक्षा का ही बिम्ब
नहीं है; वह ऊपर और नीचे, ऊध्र्व और समतल के हमारे बोध का भी आधार
है। घर है तो ‘भीतर’ और ‘बाहर’ भी है। और घर है तो छत भी है और तलघर
भी। और अनन्तर छत से ऊपर के प्रासाद भी हैं और भू-तल से नीचे के
पाताल-लोक भी। प्रश्न उठ सकता है कि इनकी चर्चा करते हुए क्या हम
स्मृति-शक्ति की बात कर रहे हैं अथवा कल्पना-शक्ति की? लेकिन मैं
पहले भी यह कह चुका कि स्मृति के बिना कल्पना नहीं है। और यह भी है
कि कल्पना से भी हम जो लोक रचते हैं-और कल्पना अनवरत क्रियाशील रहती
है-वे हमारे रचे हुए लोक भी हमारी स्मृति का अंग बनते चलते हैं। इसी
प्रकार हमारे स्वप्न और हमारे दिवास्वप्न हमारी स्मृति का कोश विकसित
करते चलते हैं और नई कल्पनाओं की सम्भावनाओं की रचना करते चलते हैं।
स्मृति के भंडार को भी समृद्धतर करते चलते हैं और उससे किसी बिम्ब का
आह्वान करने के अपने साधन-अपनी शब्दावली को भी बढ़ाते चलते हैं।
साथ-ही-साथ हमारे स्वप्न और दिवास्वप्न वास्तविकता को अथवा यथार्थ को
नापने-कूतने और समझने के हमारे साधनों को और हमारे सामथ्र्य को
बढ़ाते चलते हैं।
ऊपर, नीचे और मध्य। स्थिर और सुरक्षित। घर के ये अन्तर-ग्रथित और
परस्परभेदी स्मृति-बिम्ब हमारे विश्व की संरचना के आधारभूत बिम्ब
हैं। छत और तलघर की बात मैंने अभी कही; लेकिन दुर्ग, गढ़, नगर,
ग्राम, दुर्ग-द्वारका और पूरयोध्या अथवा अयोध्या की रचना का आरम्भ भी
यहीं से होता है। कुटीर की आधारभूत स्मृति की शक्ति की इन सबकी
कल्पना का भी आधार बनती है और उनकी संरचना, उनके निर्माण का आधार भी।
और क्योंकि ऊपर और नीचे, भीतर और बाहर की अवधारणा हमारी स्मृति के इस
कुटीर के साथ आधारभूत रूप से जुड़ी हुई है, इसलिए हम अपनी देह को भी
अपने दुर्ग के रूप में देख सकते हैं-अष्टचक्रा नवद्वारा देवानां
पूरयोध्या अथवा हाउस ऑफ गॉड-और सारे विश्व-ब्रह्मांड को अपने एक आवास
अर्थात घर के रूप में भी पहचान सकते हैं-यत्र विश्वं भवत्येकनीडम्।
और हम भरे-पूरे आवासित दिक् को भी जान लेते हैं जो हमारा संसार है,
और उस महारिक्त को भी जान लेते हैं जो कि आज विज्ञान का दिक् अथवा
आकाश है-एम्प्टी स्पेस-लेकिन जिसे हम ‘शून्य’ कहते हैं, अर्थात रिक्त
नहीं बल्कि वह जो रिक्त को भरता है, जैसे छत्ते को मधु भरता है; जो
स्वयं निरालोक है लेकिन जिसमें ही पडक़र जो कुछ चमकता है, वह चमकता
है।
मैंने चौखूँटे प्रकोष्ठ को आदिम घर अथवा कुटीर कहा है और फिर दुर्ग
और नगर के विस्तार की बात की है। जब तक यह घर एक कुटी है तब तक उसकी
छत और उसका फर्श दिक् की हमारी संरचना में कुछ और स्थान रखते हैं। और
उनकी स्मृति के स्रोत उस घर-कुटीर से भी जुड़ते हैं जिसमें जन्म हुआ,
उससे पहले की गर्भस्थ अवस्था में भी। दिवास्वप्न उस स्मृति के द्वार
खोलता है और वहाँ के रचनाकार की कल्पना नई सृष्टि पाती है। दुर्ग और
नगर और अनेक मंजिलोंवाली इमारतें हमारी दिक्-संरचना को नया विस्तार
देती हैं पर साथ ही उसे विकृत भी करती हैं। शहर के घर में छत के ऊपर
आकाश नहीं होता, दूसरे घर का फर्श होता है। नीचे भी बहुधा जमीन नहीं
होती बल्कि दूसरे घर की छत होती है। मनुष्य ऊध्र्वाधरता के आयाम में
तो रहता है, पर दूसरे मनुष्यों के सिर पर सवार होकर या उनके पैरों के
नीचे दबा हुआ। विकृति का और भी महत्त्वपूर्ण पक्ष यह है कि जहाँ
कुटीर के साथ एक द्वार अथवा झरोखा और उसमें टिमटिमाता दीये का प्रकाश
होता है-एक समग्र बिम्ब जिसमें सुरक्षा भी है और आशा भी-वहाँ शहरी
स्थिति में उसका स्थान अनेक प्रकार के विकृत और विखंडित बिम्ब ले
लेते हैं। अकेलेपन के बोध के लिए गुंजाइश कुटीरवाली आदिम स्थिति में
भी रहती है : दूर प्रकाशित झरोखेवाले कुटीर को देखती हुई चेतना उस
सूने विस्तार का भी अनुभव करती है जिसमें वह अकेली है :
मेरे छोटे घर-कुटीर का दिया
तुम्हारे मन्दिर के
विस्तृत आँगन में
सहमा-सा रख दिया गया,
लेकिन फिर भी उस अकेलेपन में उस कुटीर के साथ उस चेतना का सम्बन्ध
आश्वस्ति का सम्बन्ध रहता है। शहर का कमरा वैसे आश्वस्ति भाव के लिए
कोई गुंजाइश नहीं छोड़ता। शहर के कमरे की ओर ताकती हुई चेतना अपने को
अकेला पाती है तो वह अकेलापन सूने खुले विस्तार का अकेलापन नहीं होता
बल्कि एक सुरंग का अथवा बोगदे का अकेलापन होता है।
गाँव-घर और शहर-घर की बात हो रही है तो वह भी संकेत कर दिया जाए कि
शहर का घर जब बोगदे का रूप ले लेता है तो दिक् के साथ कोई घनात्मक
रिश्ता बनने की सम्भावना नहीं रहती। दूरी वहाँ है, चलना भी वहाँ है,
लेकिन सफर के अन्त में साथ जुड़ा हुआ आश्वासन अथवा उपलब्धि का भाव
नहीं है। अकेलापन है, वीरानगी है, वंचित किए गये होने का भाव है,
प्रति हिंसा है- एक लक्ष्यहीन अन्धी जिज्ञासा है। दूसरी ओर कुटीर का
झरोखा मानो कुटीर की आँख है, अपलक बाट जोहती हुई आँख। कह सकते हैं कि
इस प्रकार बोगदा भी और कुटीर भी जितने दिक् के बिम्ब हैं उतने ही काल
के भी; लेकिन एक में काल सूखा और विजडि़त है, दूसरे में रससिक्तऔर
स्पन्दनशील।
देश की संरचना और उसका विकृतियों-विसंगतियों की जिनकी बातें मैं कह
रहा हूँ, सभी के उदाहरण प्रभूत मात्रा में समकालीन साहित्य में मिल
जाएँगे, जैसे कि आधारभूत बिम्बों के उदाहरण संस्कृत और अपभ्रंशों के
साहित्य में। ग्राम-चेतना और नगर-बोध और महानगर-चेतना की समकालीन
बहसें भी उनके साथ जुड़ जाएँगी।
इस बात की ओर भी संकेत किया जा सकता है कि जिस ऊध्र्वाधर अथवा
अनुलम्ब संरचना का उल्लेख मैंने पहले किया उसकी अवधारणा भी दिक्तक
सीमित नहीं रहती बल्कि काल की भी एक संरचना हमारे समक्ष प्रस्तुत
करती है। ‘ऊपर’, ‘बीच’ और ‘नीचे’ (या उपनिषद के अनोखे वृक्ष को सामने
रखते हुए प्रतीप क्रम से नीचे, मध्य में और ऊपर, भू: भुव: स्व:)
दिक्-संरचना से विचलित होकर काल-संरचना में भविष्य, वर्तमान और अतीत,
‘आगे’, ‘यहाँ’ और ‘पीछे’ में परिवर्तित हो जाते हैं। वास्तव में तो
यह एक समान्तर संरचना नहीं है बल्कि उस दिक्काल सातत्य के बारे में
ही दो तरह के बयान हैं जिसकी बात मैंने पहले भी की थी : अन्ततोगत्वा
तो दिक् और काल एक अविभाज्य संरचना के ही अंग हैं।
मुझे कदाचित् आतंकित होना चाहिए कि अब तक की चर्चा में मैंने कितनी
विधाओं, कितने शास्त्रों के क्षेत्र में हाथ डाला है जिनमें किसी की
भी विधिवत् दीक्षा मुझे नहीं मिली है, किसी का कोई ज्ञान मुझे नहीं
है। ‘जहाँ न पहुँचे रवि, वहाँ पहुँचे कवि’और ‘फूल्स रश इन ह्वेयर
एंजेल्स फियर टु ट्रेड’ की व्यंजनाओं में बहुत दूरी नहीं होती! लेकिन
कवि जब किसी सहज अथवा प्रातिभ ज्ञान के प्रति खुले रहने का दावा करता
है, अथवा दावा नहीं भी करता तो ऐसा विश्वास रखता है कि ऐसे खुलेपन
में ही वह समय-समय पर उस दिव्य आलोक का संस्पर्श पा सकेगा जिसमें ही
सर्जना-कर्म होता है, तब वह यह भी मान लेता है कि समय-समय पर उसके
द्वारा ऐसे अनधिकृत काम भी होते रहेंगे!
मैंने कहा कि मुझे शायद आतंकित होना चाहिए, लेकिन आतंकित मैं हूँ
नहीं। क्योंकि आलोक के क्षणों में जो परिदृश्य खुल जाते हैं उन्हें
किसी शास्त्र-सम्मत व्यवस्था में जुडऩे का काम कवि का नहीं है। वह
काम तो शास्त्रों का है। कवि को मिलनेवाले आलोक को भी मैंने दिव्य
इसीलिए कहा है कि वह स्मृति का आलोक है और वह स्मृति तर्कातीत है।
स्मृति के परिदृश्य इतिहास के परिदृश्य नहीं हैं बल्कि इतिहास से
मुक्तिके परिदृश्य हैं। वह दिव्य प्रकाश तथ्यों को मूल्यों से
वेष्टित करता है; यदि हम उन मूल्यों को नकारते अथवा मिटा देते हैं तो
उन तथ्यों का भी कोई अस्तित्व नहीं रहता। कवि के लिए यह
मुक्तकरनेवाला मूल्य ही केन्द्रीय तत्व है और उसी के आस-पास सारा
संसार घूमता है। कवि के लिए दिक्काल की बाहरी संरचना दिक्काल के एक
आभ्यान्तर बोध का आवेष्टन है अवश्य ही इन दोनों संरचनाओं में एक
अभिन्न और परस्पर-भेदी सम्बन्ध है; बाहरी संरचना कबीर की ‘झीनी
चदरिया’ नहीं है जो उतारकर ‘जस की तस धर दी’ जा सकती है : जैसे कि
भीतर की संरचना भी केवल बाहर की संरचना की एक उपज नहीं है। कवि की इन
उद्भावनाओं में कभी अन्तरविरोध भी होता है तो वह उससे हतप्रभ नहीं
होता, भले ही वह वाल्ट ह्विटमैन की तरह ललकारकर यह न कह दे कि
‘मुझमें अन्तरविरोध है तो क्या हुआ, मैं विराट हूँ और समूहों को अपने
में समोए हूँ।’
विराट का यह बोध ही सर्जनात्मक स्मृति का एक महत्त्वपूर्ण परिदृश्य
है। कवियों के विराट्-दर्शन के वृत्तान्त उस प्रकार सुरक्षित नहीं
रखे जाते जिस प्रकार पुराण-पुरुषों के अथवा धर्मगुरुओं के
विराट्-रूप-दर्शन के वृत्तान्त रखे जाते हैं। इसका एक कारण यह भी हो
सकता है कि कवि को जब ऐसी झाँकी मिलती है तो वह ऐसा नहीं मान लेता कि
उसने सम्यक् सत्य का अन्तिम स्वरूप देख लिया है अथवा उसे शब्दों में
बाँध लिया है; फिर वह प्रभाव उसमें सदैव बना भी नहीं रहता। दिव्य
आलोक उस दीवाने को जब-तब छूता है, पर फिर उसकी धारा आगे निकल जाती
है। महाप्रभु चैतन्य ने सागर में एक विराट् रूप का दर्शन किया था जो
उनके प्रिय का रूप था और जिसमें उन्होंने लय हो जाना चाहा था। भगवान
बुद्ध ने एक-दूसरे विराट् का दर्शन किया था जिससे उन्हें सम्बोधि
प्राप्त हुई थी; यह विराट् रूप भी एक तरह से अन्तिम सत्य का ही रूप
था यद्यपि तथागत का यह आदेश था कि उस सत्य को जो कोई देखे अपने ही
प्रकाश में देखे, उनके उपदेश में श्रद्धा के सहारे नहीं : ‘अप्प दीपो
भव।’ आत्म-दीप कवि भी होता है, और कदाचित् उसके दीप की लौ से असंख्य
दूसरे दीयों की बत्तियाँ आग पकड़ती हैं। लेकिन कवि का विराट् दर्शन
अन्तिम नहीं होता। शायद यह कहना भी अन्याय न हो कि कवि का विराट
दर्शन होता भी नहीं : वह विराट के स्वरूप को नहीं देखता बल्कि केवल
यह बोध प्राप्त करता है कि विराट है-और वह भी जब-तब, विरल क्षणों
में। इसी बोध का प्रकाश उसके शब्द को दीप्त कर जाता है और उसकी भाषा
को अपूर्वानुमेय बना जाता है। भाषा एक सामाजिक समय है; समाज में
सम्प्रेषण का आधार वही हो सकता है जो न केवल पूर्वानुमेय है वरंच
जिसे प्रत्येक पद का एक निर्धारित मूल हो। इस अर्थ में भाषा एक और
अनेक को परस्पर एक-दूसरे से बाँधती है जैसे कि वह शब्द-व्यवहार को
समय से बाँधती है। सर्जनात्मक भाषा समय से ऊपर उठती है, अपूर्वानुमेय
होती है, सम्प्रेषण की नई प्रणालियाँ ही नहीं, सम्प्रेष्य नया संसार
भी रचती है। इस प्रकार रचनात्मक भाषा बन्धनों से मुक्त करती है और
मुक्ति के नए गलियारे उद्घाटित करती है।
यहाँ पर कदाचित् एक बात की ओर इशारा कर देना उपयोगी हो। रचनात्मक
साहित्य पढऩेवाले सभी लोग जानते हैं कि भाषा की जिस अपूर्वानुमेय
शक्ति की बात मैं कह रहा हूँ उसका वास शब्द में होता है। भाषा को
मैंने एक व्यापक सामाजिक समय के साथ जोड़ा है क्योंकि संवाद का पहला
आधार तो यही होता है लेकिन रचनात्मक भाषा इस समय सेऊपर उठती हुई हमें
परे ले जाती है; इसी में तो उसकी सृजनात्मक शक्ति अथवा
अपूर्वानुमेयता है, यही तो हमें समय से मुक्त करती है। यह शक्ति
शब्दों के सामान्य अर्थों में नहीं होगी यह तो स्पष्ट ही है :
सामान्य अर्थ तो सामाजिक समय से बँधा है। लेकिन यह शक्ति रचनात्मक
शब्द की गूँज और अनुगूँज तक भी सीमित नहीं है। रचनात्मक शब्द की गूँज
होती है उससे फिर अनुगूँजें अनेक दिशाओं में फैलती हैं। काव्य का जो
शब्द इस प्रक्रिया को जितनी गहराई और व्याप्ति देता है उसके आधार पर
हम काव्य को उतना महत्त्व देते हैं और उसका प्रभाव उतना टिकाऊ भी
होता है। लेकिन मुक्त करनेवाली प्रक्रिया की यह अन्तिम सीमा नहीं है
यह समझ लेना भी ज़रूरी है। आलोचकों में ऐसे लोग हैं जो मान लेते हैं
कि यही एक अनुरण है जिसकी चर्चा पुराने काव्यशास्त्रियों ने की।
वास्तव में अनुरणन इससे परे की चीज़ है-प्रभाव का एक दूसरा ही आयाम
अथवा विस्तार है। गूँज और अनुगूँज को हम लागातार एक ही उत्स अथवा
आरम्भ-बिन्दु से जोड़े रहते हैं। अनुरणन एक व्यापक प्रभाव है जो
बहुकेन्द्रिक हो जाता है; जो सत्ता के दूसरे कई स्रोतों से भी ऊर्जा
प्राप्त करता चलता है। श्रेष्ठ काव्य की एक गूँज ऐसी भी होती है जो
कालान्तर में प्रकट होती है, जिसका असर दूसरी विधाओं में, ज्ञान के
दूसरे क्षेत्रों में क्रियाशील हो जाता है। ऐसे अपूर्वानुमेय प्रभाव
भी अनुरणन हैं, केवल गूँज नहीं।
काव्य की इस दुरागत प्रभविष्णुता को स्मृति का ही एक रूप मानना होगा
लेकिन उसको समझने में कठिनाई होने के कारण उसे पूर्व जन्म के
संस्कारों से जोड़ा जाता है। लेकिन है वह स्मृति का ही एक सर्जनात्मक
आयाम।
इस सर्जनशीलता का आधार क्या है, स्रोत कहाँ है? इसका सीधा और आसान
उत्तर है-’कल्पना में’। लेकिन यह कल्पन, यह कल्प रचने की शक्ति अथवा
प्रतिभा, इसका आधार क्या है? इसके निश्चय ही दूसरे भी उत्तर हो सकते
हैं और उनमें से कुछ उत्तर सीधे और आसान भी जान पड़ेंगे। एक तरह से
सीधे उत्तर उन्हें तोष देंगे जो ईश्वर में आस्था रखते हैं, एक दूसरी
तरह के सीधे उत्तर उन्हें जो ईश्वर को नकारते और आधारभूत भौतिक सत्ता
पर आग्रह करना चाहते हैं। कवि के लिए इन दोनों में से कोई एक
प्रतिज्ञा आवश्यक नहीं है, क्योंकि इनमें से किसी एक को काटना भी
उसके लिए ज़रूरी नहीं है। इस क्षेत्र में ज़रूरी कुछ है तो यही जानना
कि अगर दोनों प्रतिज्ञाओं में से किसी एक से भी आरम्भ करके भी
सर्जना-कर्म हो सकता है, विराट तत्त्व का बोध हो सकता है, भाषा की
अपूर्वानुमेय शक्ति प्राप्त की जा सकती है और मुक्ति का आह्वान किया
जा सकता है, तो वह क्या हो सकता है जो इन दोनों के बीच सेतु का काम
करे? वह कौन-सा परिदृश्य हो सकता है जो इन दोनों के लिए रास्ते खुले
रखते हुए हमारे लिए विराट का संस्पर्श पाने की सम्भावना बनाये रखे,
हमारे चिदाकाश में भी वह दिव्य आलोक झरने दे जिसका मैंने पहले उल्लेख
किया है? यह परिदृश्य स्मृति का ही परिदृश्य हो सकता है। यह ज़रूरी
नहीं है कि हम इस स्मृति को ‘पूर्वजन्मों के सौहृदों की पर्युत्सुक
करनेवाली स्मृति’ मानें जैसा कालिदास ने संकेत किया था, न यही ज़रूरी
है कि हम उसे अवचेतन में छिपी मगर सुरक्षित जातीय स्मृति मानें, जैसे
कि कार्ल युंग की अवधारणा है। यह भी ज़रूरी नहीं है कि वह रम्य और
मधुर वस्तुओं को देखकर ही जागृत हो, अथवा उसके संस्पर्श के लिए
जंगलों-देहातों में घूमना अथवा नदी-झरनों-पेड़ों का सान्निध्य आवश्यक
हो। उसके लिए तो अपने प्रति खुला रहना ही एक मात्र ज़रूरी शर्त है :
यह अपनापन ही वन्य भी है, देहाती भी, शहरी भी, प्राचीन भी और समकालीन
भी; यही स्मृतियों का भंडारण भी करता है और उनका संयोजन-संपादन भी :
यही उन्हें आह्वान होने पर उपलब्ध भी कराता है और उनकी ऊर्जा को
सर्जक के द्वारा उपयोज्य बनाता है।
प्राग्बिम्बों की स्मृति दोनों अवधारणाओं में अक्षुण्ण बनी रहती है।
ये प्राग्बिम्ब ही हममें एक पर्युत्सुकी भाव भी जगाते हैं और हमें
मुक्ति की प्ररेणा भी देते हैं। और ये प्राग्बिम्ब स्मृति के ही
बिम्ब हैं। स्मृति का परिदृश्य ही हमारी बेचैनी और उत्कंठा का भी
परिदृश्य है, हमारी सर्जनातम्क कल्पना और हमारी सम्भाव्य मुक्ति का
भी। आधुनिक प्रौद्योगिकी और संचार-व्यवस्था का सारा जोर इस पर है कि
जानकारियों का निरन्तर वर्धमान भंडार हमारे बाहर हमारे
भंडार-केन्द्रों में सचित होता जाए और परिणामत: हम कुछ भी स्मरण रखने
की आदत और जरूरत से छुट्टी पा जाएँ। और कवि की कल्पना की, उसकी
सर्जनात्मक स्मृति की प्रतिज्ञा है कि वह हमें भूलने नहीं देगी। लोग
कभी-कभी पूछते हैं कि इक्कीसवीं सदी में-कम्प्यूटरों की सदी
में-कविता की जरूरत क्या होगी? हमारी स्मृति का परिदृश्य ही हमारे
उत्तर में विश्वास का बल भरता है-कि अगर हमें तब अपनी ही कोई जरूरत
होगी तो कवन की-काव्य के रचना-कर्म की-भी जरूरत होगी। जब-और अगर-हमने
अपने को ही गैर-ज़रूरी बना दिया होगा तब की बात दूसरी है। और वह बात
दूसरों के करने की है, न कवि के, न सहृदय के।
(शीर्ष पर वापस)
11. नई कविता : प्रयोग के
आयाम
‘तार सप्तक’ की भूमिका प्रस्तुत करते समय इन पंक्तियों के लेखक में
जो उत्साह था, उसमें संवदेना की तीव्रता के साथ नि:सन्देह अनुभवहीनता
का साहस भी रहा होगा। संवेदना की तीव्रता अब कम हो गयी है, ऐसा हम
नहीं मानना चाहते; किन्तु इसमें सन्देह नहीं कि अनुभव ने नए कवियों
का संकलन प्रस्तुत करते समय दुविधा में पडऩा सिखा दिया है। यही नहीं
कि तीसरा सप्तक के कवियों की संगृहीत रचनाओं के बारे में हम उससे कम
आश्वस्त, या उनकी सम्भावनाओं के बारे में कम आशामय हैं जितना उस समय
तार सप्तक के कवियों के बारे में थे। बल्कि एक सीमा तक इससे उलटा ही
सच होगा। हम समझते हैं कि तीसरा सप्तक के कवि अपने-अपने विकास-क्रम
में अधिक परिपक्व और मँजे हुए रूप में ही पाठकों के सम्मुख आ रहे
हैं। भविष्य में इनमें से कौन कितना और आगे बढ़ेगा, यह या तो
ज्योतिषियों का क्षेत्र है या स्वयं उनके अध्यवसाय का। तीसरा सप्तक
के कवि भी एक मंजिल तक पहुँचे हों, या एक ही दिशा में चले हों, या
अपनी अलग दिशा में भी एक-सी गति से चले हों, ऐसा नहीं कहा जा सकता।
नि:सन्देह तार सप्तक में भी यह स्पष्ट कर दिया गया था कि संगृहीत कवि
सब अपनी-अपनी अलग राह का अन्वेषण कर रहे हैं।
दुविधा और संकोच का कारण दूसरा है। तार सप्तक के कवि अपनी रचना के
ही प्रारम्भिक युग में नहीं, एक नई प्रवृत्ति की प्रारम्भिक अवस्था
में सामने आये थे। पाठक के सम्मुख उनके कृतित्व की माप-जोख करने के
लिए कोई बने-बनाये मापदंड नहीं थे। उनकी तुलना भी पूर्ववर्ती या
समवर्ती दिग्गजों से नहीं की जा सकती थी-क्योंकि तुलना के कोई आधार
ही अभी नहीं बने थे। इसलिए जहाँ उनकी स्थिति झारखंड की झाड़ी पर
अप्रत्याशित फूले हुए वन-कुसुम की-सी अकेली थी, वहाँ उन्हें यह भी
सुविधा थी कि उनके यत्किंचित् अवदान की माप झारखंड के ही सन्दर्भ में
हो सकती थी-दूर के उद्यानों से कोई प्रयोजन नहीं था।
अब वह परिस्थिति नहीं है। ‘द्विवेदी काल’ के श्री मैथिलीशरण गुप्त
या छायावादी युग के श्री ‘निराला’ जैसा कोई शलाका-पुरुष नई कविता ने
नहीं दिया है (न उसे अभी इतना समय ही मिला है); फिर भी तुलना के लिए
और नहीं तो पहले दोनों सप्तकों के कवि तो हैं ही, और परम्पराओं की
कुछ लीकें भी बन गयी हैं। पत्र-पत्रिकाओं में ‘नई कविता’ ग्राह्य हो
गयी है, संपादक-गण (चाहे आतंकित होकर ही!) उसे अधिकाधिक छापने लगे
हैं, और उसकी अपनी भी अनेक पत्रिकाएँ और संकलन-पुस्तिकाएँ निकलने लगी
हैं। उधर उसकी आलोचना भी छपने लगी है, और धुरन्धर आलोचकों ने भी उसके
अस्तित्व की चर्चा करना गवारा किया है-चाहे अधिकतर भर्त्सना का
निमित्त बनाकर ही।
और कृतिकारों का अनुधावन करनेवाली, स्वल्प पूँजीवाली ‘प्रतिभाएँ’ भी
अनेक हो गयी हैं।
कहना न होगा कि इन सब कारणों से ‘नई कविता’ का अपने पाठक के और
स्वयं अपने प्रति उत्तरदायित्व बढ़ गया है। यह मानकर भी कि शास्त्रीय
आलोचकों से उसे सहानुभूतिपूर्ण तो क्या, पूर्वाग्रहरहित अध्ययन भी
नहीं मिला है, यह आवश्यक हो गया है कि स्वयं उसके आलोचक तटस्थ और
निर्मम भाव से उसका परीक्षण करें। दूसरो शब्दों में परिस्थिति की
माँग यह है कि कविगण स्वयं एक-दूसरे के आलोचक बनकर सामने आवें।
पूर्वाग्रह से मुक्त होना हर समय कठिन है। फिर अपने ही समय की उस
प्रवृत्ति के विषय में, जिससे आलोचक स्वयं सम्बद्ध है, तटस्थ होना और
भी कठिन है। फिर जब समीक्षक एक ओर यह भी अनुभव करे कि वह प्रवृत्ति
विरोधी वातावरण से घिरी हुई है और सहानुभूति ही नहीं, समर्थन और
वकालत भी माँगती है, तब उसकी कठिनाई की कल्पना की जा सकती है।
लेकिन फिर भी नई कविता अगर इस काल की प्रतिनिधि और उत्तरदायी
रचना-प्रवृत्ति है, और समकालीन वास्तविकता को ठीक-ठीक प्रतिबिम्बित
करना चाहती है, तो स्वयं आगे बढक़र यह त्रिगुण दायित्व ओढ़ लेना होगा।
कृतिकार के रूप में नए कवि को साथ-साथ वकील और जज दोनों होना होगा
(और संपादक होने पर साथ-साथ अभियोक्ता भी!)
तीसरा सप्तक के संपादन की कठिनाई के मूल में यही परिस्थिति है। तार
सप्तक एक नई प्रवृत्ति का पैरवीकार माँगता था, इससे अधिक विशेष कुछ
नहीं। तीसरा सप्तक तक पहुँचते-न-पहुँचते प्रवृत्ति की पैरवी अनावश्यक
हो गयी है, और कवियों की पैरवी का तो सवाल ही क्या है? इस बात का
अधिक महत्त्व हो गया है कि संकलित रचनाओं का मूल्यांकन संपादक स्वयं
न भी करे तो कम-से-कम पाठक की इसमें सहायता अवश्य करे।
नई कविता की प्रयोगशीलता का पहला आयाम भाषा से सम्बन्ध रखता है।
नि:सन्देह जिसे अब ‘नई कविता’ की संज्ञा दी जाती है वह
भाषा-सम्बन्धी प्रयोगशीलता को वाद की सीमा तक नहीं ले गयी है-बल्कि
ऐसा करने को अनुचित भी मानती रही है। यह मार्ग ‘प्रपद्यवादी’ ने
अपनाया जिसने घोषणा की कि ‘चीज़ों का एकमात्र नाम होता है’ और वह
(प्रपद्यवादी कवि) ‘प्रयुक्त प्रत्येक शब्द और छन्द का स्वयं
निर्माता है।’
‘नई कविता’ के कवि को इतना मानने में कोई कठिनाई न होती कि कोई
शब्द किसी दूसरे शब्द का सम्पूर्ण पर्याय नहीं हो सकता, क्योंकि
प्रत्येक शब्द के अपने वाच्यार्थ के अलावा अलग-अलग लक्षणाएँ और
व्यंजनाएँ होती हैं-अलग संस्कार और ध्वनियाँ। किन्तु ‘प्रत्येक वस्तु
का अपना एक नाम होता है,’ इस कथन को उस सीमा तक ले जाया जा सकता है
जहाँ कि भाषा का एक नया रहस्यवाद जन्म ले ले और अल्लाह के निन्यानबे
नामों से परे उसके अनिर्वचनीय सौवें नाम की तरह हम प्रत्येक वस्तु के
सौवें नाम की खोज में डूब जाएँ। भाषा-सम्बन्धी यह निन्यानबे का फेर
प्रेषणीयता का और इसलिए भाषा का भी बहुत बड़ा शत्रु हो सकता है। शब्द
अपने-आपमें सम्पूर्ण या आत्यन्तिक नहीं है; किसी शब्द का कोई
स्वयम्भूत अर्थ नहीं है। अर्थ उसे दिया गया है, वह संकेत है जिसमें
अर्थ की प्रतिपत्ति की गयी है। ‘एकमात्र उपयुक्त शब्द’ की खोज करते
समय हमें शब्दों की यह तदर्थता नहीं भूलनी होगी : वह ‘एकमात्र’ इसी
अर्थ में है कि हमने (प्रेषण को स्पष्ट, सम्यक और निर्भ्रम बनाने के
लिए) नियत कर दिया है कि शब्द-रूपी अमुक एक संकेत का एकमात्र
अभिप्रेत क्या होगा।
यहाँ यह मान लें कि शब्द के प्रति यह नई, और कह लीजिए मानववादी
दृष्टि है; क्योंकि जो व्यक्ति शब्द का व्यवहार करके शब्द से यह
प्रार्थना कर सकता था कि ‘अनजाने उसमें बसे देवता के प्रति कोई अपराध
हो गया हो तो देवता क्षमा करे’ वह इस निरूपण को स्वीकार नहीं कर
सकता-नहीं मान सकता कि शब्द में बसनेवाला देवता कोई दूसरा नहीं है,
स्वयं मानव ही है जिसने उसका अर्थ निश्चित किया है। यह ठीक है कि
शब्द को जो संस्कार इतिहास की गति में मिल गये हैं उन्हें ‘मानव के
दिये हुए’ कहना इस अर्थ में सही नहीं है कि उनमें मानव का संकल्प
नहीं था-फिर भी वे मानव द्वारा व्यवहार के प्रसंग में ही शब्द को
मिले हैं और मानव से अलग अस्तित्व नहीं रख या पा सकते थे।
किन्तु ‘एकमात्र सही नाम’ वाली स्थापना को इस तरह मर्यादित करने का
यह अर्थ नहीं है कि किसी शब्द का सर्वत्र, सर्वदा सभी के द्वारा ठीक
एक ही रूप में व्यवहार होता है-बल्कि यह तो तभी होता जब कि वास्तव
में ‘एक चीज़ का एक ही नाम’ होता और एक नाम की एक ही चीज़ होती!
प्रत्येक शब्द का प्रत्येक समर्थ उपयोक्ता उसे नया संस्कार देता है।
इसी के द्वारा पुराना शब्द नया होता है-यही उसका कल्प है। इसी प्रकार
शब्द ‘वैयक्तिक प्रयोग’ भी होता है और प्रेषण का माध्यम भी बना रहता
है, दुरूह भी होता है और बोधगम्य भी, पुराना परिचित भी रहता है और
स्फूर्तिप्रद अप्रत्याशित भी।
नए कवि की उपलब्धि और देन की कसौटी इसी आधार पर होनी चाहिए।
जिन्होंने शब्द को नया कुछ नहीं दिया है, वे लीक पीटनेवाले से अधिक
कुछ नहीं हैं-भले ही जो लीक वह पीट रहे हैं वह अधिक पुरानी न हो। और
जिन्होंने उसे नया कुछ देने के आग्रह में पुराना बिलकुल मिटा दिया
है, वे ऐसे देवता हैं जो भक्त को नया रूप दिखाने के लिए अन्तर्धान ही
हो गये हैं! कृतित्व का क्षेत्र इन दोनों सीमा-रेखाओं के बीच में है।
यह ठीक है कि बीच का क्षेत्र बहुत बड़ा है, और उसमें कोई इस छोर के
निकट हो सकता है तो कोई उस छोर के। दुरूहता अपने-आपमें कोई दोष नहीं
है, न अपने-आपमें इष्ट है। इस विषय को लेकर झगड़ा करना वैसा ही है
जैसा इस चर्चा में कि सुराही का मुँह छोटा है या बड़ा, यह न देखना कि
उसमें पानी भी है या नहीं।
प्रयोक्ता के सम्मुख दूसरी समस्या सम्प्रेष्य वस्तु की है। यह बात
कहने की आवश्यकता नहीं होनी चाहिए कि काव्य का विषय और काव्य की
वस्तु (कंटेंट) अलग-अलग चीज़ें हैं; पर जान पड़ता है कि इस पर बल
देने की आवश्यकता प्रतिदिन बढ़ती जाती है! यह बिलकुल सम्भव है कि हम
काव्य के लिए नए से नया विषय चुनें पर वस्तु उसकी पुरानी ही रहे;
जैसे यह भी सम्भव है कि विषय पुराना रहे पर वस्तु नई हो...
नि:सन्देह देश-काल की संक्रमणशील परिस्थितियों में संवेदनशील व्यक्ति
बहुत कुछ नया देखे-सुने और अनुभव करेगा; और इसलिए विषय में नएपन के
विचार का भी अपना स्थान है ही; पर विषय केवल ‘नए’ हो सकते हैं,
‘मौलिक’ नहीं-मौलिकता वस्तु से ही सम्बन्ध रखती है। विषय सम्प्रेष्य
नहीं है, वस्तु सम्प्रेष्य है। नए (या पुराने भी) विषय की, कवि की
संवेदना पर प्रतिक्रिया, और उससे उत्पन्न सारे प्रभाव जो
पाठक-श्रोता-ग्राहक पर पड़ते हैं, और उन प्रभावों को सम्प्रेष्य
बनाने में कवि का योग (जो सम्पूर्ण चेतन भी हो सकता है, अंशत: चेतन
भी,और सम्पूर्णतया अवचेतन भी)-मौलिकता की कसौटी का यही क्षेत्र है।
यही कवि की शक्ति और प्रतिभा का भी क्षेत्र है-क्योंकि यही कवि मानस
की पहुँच और उसके सामथ्र्य का क्षेत्र है। कहाँ तक कवि नई परिस्थिति
को स्वायत्त कर सकता है (आयत्त करने में रागात्मक प्रतिक्रिया भी और
तज्जन्य बुद्धि-व्यापार भी है जिसके द्वारा कवि संवेदना का पुतला-भर
न बना रहकर उसे वश करके, उसी के सहारे उससे ऊपर उठकर उसे सम्प्रेष्य
बनाता है), इसी से हम निश्चय करते हैं कि वह कितना बड़ा कवि है। (और
फिर सम्प्रेषण के साधनों और तन्त्र (टेकनीक) के उपयोग की पड़ताल करके
यह भी देख सकते हैं कि वह कितना सफल कवि है-पर इस पक्ष को अभी छोड़
दिया जाए!)
यहाँ स्वीकार किया जाए कि नए कवियों में ऐसों की संख्या कम नहीं है
जिन्होंने विषय को वस्तु समझने की भूल की है, और इस प्रकार स्वयं भी
पथभ्रष्ट हुए हैं और पाठकों में नई कविता के बारे में अनेक
भ्रान्तियों के कारण बने हैं।
लेकिन ‘नकलचियों से सावधान!’ की चेतावनी असली मालवाले प्राय: नहीं
देते; या तो वे देते हैं जिन्हें स्वयं अपने माल की असलियत के बारे
में कुछ खटका हो, या फिर वे दे सकते हैं जो स्वयं माल लेकर उपस्थित
नहीं हैं और केवल पहरा दे रहे हैं। अर्थात् कवि स्वयं चेतावनी नहीं
देते; यह काम आलोचकों, अध्यापकों और संपादकों का है। यह भी उन्हीं का
काम है कि नकली के प्रति सावधान करते हुए असली की साख भी न बिगडऩे
दें- ऐसा न हो कि नकली से धोखा खाने के डर से सारा कारोबार ही ठप हो
जाए!
इस वर्ग ने यह काम नहीं किया है, यह सखेद स्वीकार करना होगा। बल्कि
कभी तो ऐसा जान पड़ता है कि नकलची कवियों से कहीं अधिक संख्या और
अनुपात नकली आलोचकों का है-धातु उतना खोटा नहीं है जितनी की कसौटियाँ
ही झूठी हैं! इतनी अधिक छोटी-मोटी ‘एमेच्योर’ (और इम्मेच्योर)
साहित्य-पत्रिकाओं का निकलना, जबकि जो दो-चार सम्मान्य पत्रिकाएँ हैं
वे सामग्री की कमी से क्षयग्रस्त हो रही हैं, इसी बात का लक्षण है कि
यह वर्ग अपने कर्तव्य से कितना च्युत हुआ है। यह ठीक है कि ऐसे
छोटे-छोटे प्रयास एक आस्था की घोषणा करते हैं और इस प्रकार एक शक्ति
(चाहे कितनी स्वल्प) के लक्षण हैं, पर यह भी उतना ही सच है कि इस
प्रकार व्यापक, पुष्ट और दृढ़ आधारवाले मूल्यों की उपलब्धि और
प्रतिष्ठा का काम क्रमश: कठिनतर होता जाता है।
पर नकलची हर प्रवृत्ति के रहे हैं, और जिनका भंडाफोड़ अपने समय में
नहीं हुआ उन्हें पहचानने में फिर समय की दूरी अपेक्षित हुई है। अधिक
दूर न जाएँ तो न तो ‘द्विवेदी युग’ में नकलचियों की कमी रही, न
छायावाद युग में। और न ही (यदि इसी सन्दर्भ में उनका उल्लेख भी उचित
हो जितनी उपलब्धि भी ‘प्रयोगवादी सम्प्रदाय’ से विशेष अधिक नहीं रही
जान पड़ती) प्रगतिवाद ने कम नकलची पैदा किये। हमें किसी भी वर्ग में
उनका समर्थन या पक्ष-पोषण नहीं करना है-पर यह माँग भी करनी है कि
उनके अस्तित्व के कारण मूल्यवान की उपेक्षा न हो, असली को नकली से न
मापा जाए।
शिल्प, तन्त्र या टेकनीक के बारे में भी दो शब्द कहना आवश्यक है। इन
नामों की इतनी चर्चा पहले नहीं होती थी। पर वह इसीलिए कि इन्हें एक
स्थान दे दिया गया था जिसके बारे में बहस नहीं हो सकती थी। यों
‘साधना’ की चर्चा होती थी, और साधना अभ्यास और मार्जन का ही दूसरा
नाम था। बड़ा कवि ‘वाक्सिद्ध’ होता था, और भी बड़ा कवि ‘रससिद्ध’
होता था। आज ‘वाक्शिल्पी’ कहलाना अधिक गौरव की बात समझा जा सकता
है-क्योंकि शिल्प आज विवाद का विषय है। यह चर्चा उत्तर छायावाद काल
से ही अधिक बढ़ी, जबकि प्रगति के सम्प्रदाय ने शिल्प, रूप, तंत्र,
आदि सबको गौण कहकर एक ओर ठेल दिया, और ‘शिल्पी’ एक प्रकार की गाली
समझा जाने लगा। इसी वर्ग ने नई काव्य प्रवृत्ति को यह कहकर उड़ा
देना चाहा है कि वह केवल शिल्प का, रूप-विधान का आन्दोलन है, निरा
फार्मेलिज्म है। पर साथ-साथ उसने यह भी पाया है कि शिल्प इतना नगण्य
नहीं है; कि वस्तु से रूपाकार को बिलकुल अलग किया ही नहीं जा सकता,
कि दोनों का सामंजस्य अधिक समर्थ और प्रभावशाली होता है; और इसी
अनुभव के कारण धीरे-धीरे वह भी मानो पिछवाड़े से आकर शिल्पाग्रही
वर्ग में आ मिला है। बल्कि अब यह भी कहा जाने लगा है कि ‘प्रयोगवाद
के जो विशिष्ट गुण बताये जाते थे (जैसा बतानेवाले वे ही थे!) उनका
प्रयोगवाद ने ठेका नहीं लिया है-प्रगतिवादी कवियों में भी वे पाये
जाते हैं।’ इससे उलझी परिस्थिति और भ्रामक हो गयी है। वास्तव में नई
कविता ने कभी अपने को शिल्प तक सीमित रखना नहीं चाहा, न वैसी सीमा
स्वीकार की। उस पर यह आरोप उतना ही निराधार था जितना दूसरी ओर यह
दावा कि केवल प्रगतिवादी काव्य में सामाजिक चेतना है, और कहीं नहीं।
यह मानने में कोई कठिनाई न होनी चाहिए कि प्रगतिवाद सबसे अधिक
समाजाग्रही रहा है; पर केवल इसी से यह नहीं प्रमाणित हो जाते उस वाद
के कवियों में गहरी सामाजिक चेतना है या कि जैसी है वही उसका स्वस्थ
रूप है-उसकी पड़ताल प्रत्येक कवि में अलग करनी ही होगी।
खैर, यहाँ पुराने झगड़ों को उठाना अभीष्ट नहीं है। कहना यह है कि
नया कवि नई वस्तु को ग्रहण और प्रेषित करता हुआ शिल्प के प्रति कभी
उदासीन नहीं रहा है, क्योंकि वह उसे प्रेषण से काटकर अलग नहीं करता
है। नई शिल्प दृष्टि उसे मिली है; यह दूसरी बात है कि वह सबमें
एक-सी गहरी न हो, या सब देखे पथ पर एक-सी सम गति से न चल सके हों।
यहाँ फिर मूल्यांकन से पहले यह समझना आवश्यक है कि यह नई दृष्टि
क्या है, और किधर चलने की प्रेरणा देती है।
संकलित कवियों के विषय में अलग-अलग कुछ कहना कदाचित् उनके और पाठक
के बीच व्यर्थ एक पूर्वाग्रह की दीवार खड़ा करना होगा। एक बार फिर
इतना ही कहना अलम् होगा कि ये कवि किसी एक सम्प्रदाय के नहीं हैं; न
सबकी साहित्यिक मान्यताएँ एक हैं, न सामाजिक, न राजनीतिक; न ही उनकी
जीवन-दृष्टि में ऐसी एकरूपता है। भाषा, छन्द, विषय, सामाजिक
प्रवृत्ति, राजनीतिक आग्रह या क्रम की दृष्टि से प्रत्येक की स्थिति
या दिशा अलग हो सकती है; कोई इस छोर के निकट पाया जा सकता है, कोई उस
छोर के, कोई ‘बाएँ’ तो कोई ‘दाहिने’, कोई ‘आगे’ तो कोई ‘पीछे’, कोई
सशंक तो कोई साहसिक। यह नहीं कि इन बातों का कोई मूल्य न हो। पर
तीसरा सप्तक में न तो ऐसा साम्य कलन का आधार बना है, न ऐसा वैषम्य
बहिष्कार का। संकलनकर्ता ने पहले भी इस बात को महत्त्व नहीं दिया है
कि संकलित कवियों के विचार कहाँ तक उसके विचारों से मिलते हैं या
विरोधी हैं; न अब वह इसे महत्त्व दे रहा है। क्योंकि उसका आग्रह रहा
है कि काव्य के आस्वादन के लिए इससे ऊपर उठ सकना चाहिए और उठना
चाहिए। सप्तकों की योजना का यही आधारभूत विश्वास है। प्रयोजनीय यह है
कि संकलित कवियों में अपने कवि-कर्म के प्रति गम्भीर उत्तरदायित्व का
भाव हो, अपने उद्देश्यों में निष्ठा और उन तक पहुँचने के साधनों के
सदुपयोग की लगन हो। जहाँ प्रयोग हो वहाँ कवि मानता हो कि वह सत्य का
ही प्रयोग होना चाहिए। यों काव्य में सत्य क्योंकि वस्तुसत्य का
रागाश्रित रूप है इसलिए उसमें व्यक्ति-वैचित्र्य की गुंजाइश तो है
ही, बल्कि व्यक्ति की छाप से युक्त होकर ही वह काव्य का सत्य हो सकता
है। क्रीड़ा और लीला-भाव भी सत्य हो सकते हैं-जीवन की ऋजुता भी
उन्हें जन्म देती है और संस्कारिता भी। देखना यह होता है कि वह सत्य
के साथ खिलवाड़ या ‘फ्लर्टेशन’ मात्र न हो।
इन कवियों के एकत्र पाये जाने का आधार यही है। ऐसा दावा नहीं है कि
जिस काल या पीढ़ी के ये कवि हैं, उसके यही सर्वोत्कृष्ट या सबसे अधिक
उल्लेख्य कवि हैं। दो-एक और आमन्त्रित होकर भी इसलिए रह गये कि वे
स्वयं इसमें आना नहीं चाहते थे-चाहे इसलिए कि दूसरे कवियों का साथ
उन्हें पसन्द नहीं था, चाहे इसलिए कि संपादक का सम्पर्क उन्हें
अप्रीतिकर या हेय लगा, चाहे इसलिए कि वे अपने को पहले ही इतना
प्रसिद्ध और प्रतिष्ठित मानते थे कि ‘नए’ कवियों के साथ आने में
उन्होंने अपनी हेठी या अपना अहित समझा। एक इसलिए रह गये कि उनकी
स्वीकृति के बावजूद दो वर्ष के परिश्रम के बाद भी उनकी रचनाएँ न
प्राप्त हो सकीं। एक-दो इसलिए भी छोड़ दिये गये कि एकाधिक स्वतन्त्र
संग्रह प्रकाशित हो चुकने के कारण उनका ऐसे संकलन में आना अनावश्यक
हो गया था-स्मरण रहे कि मूल योजना यही थी कि सप्तक ऐसे कवियों को
सामने लाएँगे जिनके स्वतन्त्र संग्रह प्रकाशित नहीं हुए हैं और जो इस
प्रकार भी ‘नए’ हैं। यदि प्रस्तुत संकलन के भी दो-एक कवियों के
स्वतन्त्र संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं तो वह इसी बात का घोतक है कि
तीसरा सप्तक की पांडुलिपि बनने और उसके प्रकाशन के बीच एक लम्बा
अन्तराल रहा है। यों हम तो चाहते हैं कि सभी कवियों के स्वतन्त्र
संग्रह छपें-बल्कि सप्तक में उन्हें लाने का कारण ही यह विश्वास है
कि उनके अपने-अपने संग्रह छपने चाहिए।
इन शब्दों के साथ हम ओट होते हैं। भूमिका का काम भूमि तैयार करना
है; भूमि ‘तैयार’ वही है जिस पर चलने में उसकी ओर से बेखटके होकर उसे
भुला दिया जा सके। पाठक से अनुरोध है कि अब वह आगे बढक़र कवियों से
साक्षात्कार करे। उपलब्धि वहीं है।
(शीर्ष पर वापस)
12.
शब्द, मौन, अस्तित्व
(
बेओग्राद (बैलग्रेड) रेडियो से जून, 1966 में प्रसारित वक्तव्य। मूल
हिन्दी वक्तव्य के कुछ अंश और कविता के उद्धरण लेखक के स्वर में
प्रसारित किये गये थे, पूरे वक्तव्य का सृप्स्की-ख्रावात्सी
(सर्बो-क्रोएशियन) अनुवाद पढ़ा गया था।)
मैं क्यों लिखता हूँ? यह
प्रश्न अब मैं अपने से नहीं पूछता, क्योंकि पूछना होता तो कम-से-कम
तीस वर्ष पहले पूछना चाहिए था। और इसकी तो और भी कम सम्भावना करता
हूँ कि दूसरा कोई मुझसे एकाएक यह सवाल पूछ बैठेगा। फिर भी, मन के
भीतर कहीं गहरे में, हर लेखक के पास इसका कोई उत्तर होना ही चाहिए;
और जब-तब इसकी पड़ताल कर लेना भी अच्छा ही है कि क्या वह उत्तर अब भी
सन्तोषजनक है?
ईमानदारी का उत्तर-और ऐसा उत्तर जो दिया जा सकता है-एक ही है। या कि
दो हैं, लेकिन दूसरा तो पहले की व्याख्या भर है।
पहला उत्तर है : ‘मैं नहीं जानता कि क्यों।’ और दूसरा : ‘शायद इसलिए
कि मैं पागल हूँ।’
क्योंकि लेखक पागल होता ही है। यह कोई बड़ी मौलिक बात नहीं है।
लेकिन मौलिकता शायद इस चिरन्तन आविष्कार का ही नाम है कि कला के
क्षेत्र में वास्तव में नया कुछ नहीं होता। यहाँ तक कि जो नएपन का
आभास देता है वह नए के रूप में तब तक प्रतिष्ठित नहीं होता जब तक कि
हम उसमें, अथवा उसके द्वारा, जो कुछ उससे पहले था उसके नए मूल्यांकन
का आधार न पा लें और उससे एक अर्थवान सम्बन्ध न स्थािपत कर लें-दूसरे
शब्दों में जब तक कि हम उसमें वह न पहचान लें जो कि ‘नया नहीं’ है।
लेकिन अगर मैं इसलिए लिखता हूँ कि मैं जरूर पागल हूँ, और इससे आगे
अपने भीतर गहरे से कहीं इस प्रश्न का उत्तर पाना भी ज़रूरी है कि मैं
क्यों लिखता हूँ, तो क्या इसका अर्थ यह नहीं हुआ कि मैं जानता हूँ कि
मैं क्यों लिखता हूँ?
हाँ, हुआ तो। लेकिन जानने और जानने में अन्तर होता है और इसीलिए
पाये हुए उत्तर और दिये जा सकने वाले उत्तर में भेद करना आवश्यक हो
जाता है।
वास्तव में इन दो उत्तरों के बीच में जो तनाव रहता है वही मुझे
लिखने की प्रेरणा देता है। शायद कला मात्र में जो शक्ति सृजन की
प्रेरणा बनती है वह यही तनाव है-जाने हुए उत्तर और दिये जा सकनेवाले
उत्तर के बीच का तनाव। लेखन इस तनाव का हल या उसे हल करने का प्रयत्न
है। नि:सन्देह यह हल अन्तिम नहीं हो सकता, क्योंकि अगर संवेदन है तो
नया अनुभव नया तनाव पैदा करता है-ज्ञान के क्षेत्र के विस्तार के साथ
जाने हुए उत्तर और दिये जा सकने वाले उत्तर के बीच नई दूरी पैदा हो
जाती है।
इसी से हमें लेखक-अथवा कलाकार मात्र-के लिए चिरयात्री का प्रतीक
मिलता है। अपने से इतर उस दूसरे की ओर अपनी यात्रा में, वह बीच की
दूरी को-दूरी को ही, निरन्तर मिटाता चलता है।-उस दूसरे की ओर अपनी
यात्रा में, जिसमें वह जानता है कि उसकी अपनी प्रतिमूर्ति भी है। यह
सहज ज्ञान ही उसे यह आस्था देता है कि उस दूसरे तक पहुँचा जा सकता है
और उससे सम्पर्क स्थापित किया जा सकता है-कि उससे समालाप सम्भव है,
कि सम्पर्क की एक भाषा अवश्य है, केवल सही शब्द मिल जाएँ तो।
आँगन के पार
द्वार खुले
द्वार के पार आँगन
भवन के ओर-छोर
सभी मिले-
उन्हीं में कहीं खो गया भवन।
कौन द्वारी
कौन आगारी, न जाने,
पर द्वार के प्रतिहारी को
भीतर के देवता ने
किया बार-बार पा-लागन।
(आँगन के पार द्वार)
‘केवल सही शब्द मिल जाएँ तो’
लेखक के नाते, और उससे भी अधिक कवि के नाते मैं अनुभव करता हूँ कि
यही समस्या की जड़ है। मेरी खोज भाषा की खोज नहीं है, केवल शब्दों की
खोज है। भाषा का उपयोग मैं करता हूँ, नि:सन्देह : लेकिन कवि के नाते
जो मैं कहता हूँ वह भाषा के द्वारा नहीं, केवल शब्दों के द्वारा।
मेरे लिए यह भेद गहरा महत्त्व रखता है।
भाषा का मैं उपयोग करता हूँ। उपयोग करता हूँ लेखक के नाते, कवि के
नाते, और एक साधारण सामाजिक मानव प्राणी के नाते, दूसरे सामाजिक मानव
प्राणियों के साधारण व्यवहार के लिए। इस प्रकार एक लेखक के नाते मैं
कला-सृजन के माध्यमों में सबसे अधिक वेध्य माध्यम का उपयोग करता
हूँ-ऐसे माध्यम का जिसको निरन्तर दूषित और संस्कारच्युत किया जाता
रहता है। अथवा उसका उपयोग मैं ऐसे ढंग से करना चाहता हूँ कि वह नए
प्राणों से दीप्त हो उठे। ऐसा मैं कैसे करता हूँ या कर सकता हूँ?
अपना ध्यान शब्द पर-हमेशा शब्द पर-केन्द्रित करके ही।
नि:सन्देह दूसरी कलाएँ भी वेध्य हैं। इन सभी को व्यापारिक, लौकिक,
पापुलर बनाया जा सकता है और निरन्तर बनाया जाता है। लेकिन चित्रकारी
किये बिना, गाये बिना, पत्थर या लकड़ी उकेरे बिना भी सामाजिक हुआ जा
सकता है; बोले बिना सामाजिक नहीं हुआ जा सकता। भाषा को भी यह चिन्त्य
विशिष्टता प्राप्त है कि उसे निरन्तर और अनिवार्य हीनतर संस्कार का
शिकार बनना पड़ता है।
शायद ‘हीन’ संस्कार का प्रयोग मैं जैसे कर रहा हूँ उसका कुछ
स्पष्टीकरण आवश्यक है। भाषा के बारे में कोई झूठा आभिजात्य या
स्नॉबरी मुझमें नहीं है। लेकिन इस बात पर मैं जोर देना चाहता हूँ कि
जो विभिन्न प्रक्रियाएँ काम कर रही होती हैं उनमें गुणात्मक भेद होता
है। किसी भी कला-माध्यम का जितनी उसकी क्षमता है उससे कम कहने के लिए
उपयोग करना उसे घटिया संस्कार देना है, संस्कारभ्रष्ट करना है, उसका
वल्गराइजेशन है। कवि का उद्देश्य केवल शब्द की निहित सत्ता का पूरा
उपयोग करना नहीं बल्कि उसका जानी हुई सम्भावनाओं के परे तक उसका
विस्तार करना है। जैसे साधारण व्यवहार में किसी नए व्यक्ति से
परिचित होने पर हम जब कहते हैं कि हम कृतार्थ हुए अथवा मुग्ध हो गये
तो हमारा अभिप्राय कुल इतना ही होता है कि हम आशा करते हैं कि यह नया
सम्पर्क सुखद अथवा प्रीतिकर होगा; या कि जब हम जो केवल साधारण रम्य
है उसे मर्मस्पर्शी अथवा विमुग्धकारी कहते हैं, तब हम इन अर्थगर्भ
शब्दों का बहुत ही साधारण अर्थ में सम्प्रेषण के लिए उपयोग करते हैं।
दूसरी ओर जिस किसी ने भी अच्छा काव्य पढ़ा है उसने लक्ष्य किया होगा
कि कवि शब्दों का न केवल भरपूर सार्थक प्रयोग करता है बल्कि कभी-कभी
शब्दों या वर्णों का उपयोग न करके ही अर्थ की वृद्धि करता है-यानी
शब्दों का ही अर्थगर्भ उपयोग नहीं, अर्थगर्भ मौन का भी उपयेाग करता
है। मुझे हमेशा लगा है कि यही भाषा का श्रेष्ठ कलात्मक उपयोग
है-जिसमें न केवल शब्दों के निहित और सम्भाव्य अर्थों का पूरा उपयोग
किया जाता है बल्कि उन अर्थों का भी जो कि शब्दों के बीच के शब्दहीन
अन्तराल में भरे जा सकते हैं। मैंने जब कहा ‘केवल सही शब्द मिल जाएँ
तो’ उसका यही आशय है। सही शब्द वे ही हैं जो उनके बीच के अन्तराल का
सबसे अधिक उपयोग करें-अन्तराल के उस मौन द्वारा भी अर्थवत्ता का पूरा
ऐश्वर्य सम्प्रेषित कर सकें। इतना ही क्यों, पूर्व की एक परम्परा के
उत्तराधिकारी के नाते मैं यहाँ तक कह सकता हूँ कि कविता भाषा में
नहीं होती, वह शब्दों में भी नहीं होती; कविता शब्दों के बीच की
नीरवताओं में होती है। और कवि सहज बोध से जानता है कि उससे दूसरे तक
पहुँचा जा सकता है, उससे संलाप की स्थिति पायी जा सकती है, क्योंकि
वह जानता है कि मौन के द्वारा भी सम्प्रेषण हो सकता है।
मुझे तीन दो शब्द
कि मैं कविता कह पाऊँ।
एक शब्द वह :
जो न कभी जिह्वा पर लाऊँ।
और दूसरा :
जिसे कह सकूँ
किन्तु दर्द मेरे से
जो ओछा पड़ता हो
और तीसरा : खरा धातु
पर जिसको पाकर पूछूँ
क्या न बिना इसके भी काम चलेगा?
और मौन रह जाऊँ।
मुझे तीन दो शब्द
कि मैं कविता कह पाऊँ।
एक समय था जब मैं एक
क्रान्तिकारी संगठन का सदस्य था और ब्रितानी साम्राज्यवाद के विरुद्ध
लड़ रहा था; उस युद्ध में मैंने सभी साधनों का उपयोग किया-शब्दों का
भी। पिछले महायुद्ध के समय मैं भारतीय सेना के एक सदस्य के रूप में
भारत के सीमान्त पर था; भारतीय सेना तब कभी ब्रितानी सेना ही थी। उस
समय भी मैंने कई साधनों का उपयोग किया जिनमें क्रान्तिकारी जीवन में
प्राप्त किये हुए कौशल भी थे। अवसर आया होता तो और भी साधनों का
उपयोग मैंने किया होता। आज मैं दिल्ली से एक राजनीतिक
समाचार-साप्ताहिक का संपादन कर रहा हूँ। इनमें से किसी कार्य का भी
मुझे अनुशोच या परिताप नहीं है। इनमें से कोई भी कलाकार के जीवन का
अनिवार्य अंग नहीं है; पर दूसरी ओर इन कामों में और काव्य-रचना में
कोई विरोधाभास भी दीखता है तो मैं अपनी सफाई में नि:संकोच वाल्टर
ह्विटमैन की एक उक्ति का सहारा ले सकता हूँ:
मैं
अपनी बात का खंडन करता हूँ।
तो ठीक है, मैं अपनी बात का खंडन करता हूँ।
मैं विराट् हूँ : मुझमें विविध समूह समा जाते हैं।
लेकिन विरोध का केवल आभास
है, वह वास्तविक नहीं है। वास्तव में उन सब अनुभवों ने मुझे जो मैं
हूँ वह बनाया है और अपनी बात कहने का साहस दिया है-अपनी भूलें
स्वीकार करने का और अपने विश्वासों को घोषित करने का-यह मानते हुए भी
कि ये विश्वास निराधार भी सिद्ध हो सकते हैं और उन्हें बदलना, शोधना
या छोड़ भी देना पड़ सकता है। लेखक के नाते मैंने समाज में कोई
विशिष्ट स्थान या सहूलियत नहीं चाही है। समाज के एक सदस्य के नाते
मैंने स्वतन्त्रता के लिए, सामाजिक न्याय के लिए और मानव-व्यक्तित्व
की प्रतिष्ठा के लिए, विशालतर सामान्य उद्देश्यों की सिद्धि के
प्रयत्नों के लिए आग्रह करना अपना कर्तव्य समझा है, कवि के नाते
मैंने उस कर्तव्य से मुक्ति कभी नहीं चाही। बल्कि इसके प्रतिकूल कवि
के नाते भी मैंने कुछ मूल्यों पर आग्रह करना आवश्यक समझा है। और इन
मूल्यों के लिए अपने प्रयत्नों पर किसी तरह की रोक या नियन्त्रण
लगाने का समाज का कोई अधिकार मैं नहीं मानता। ये मूल्य और ये प्रयत्न
हैं मेरे कला माध्यम और सभी कला माध्यमों की शुद्धि और संस्कारिता के
लिए अनवरत प्रयत्न; व्यावहारिकता या प्रत्युत्पन्न लाभ से ऊपर स्थायी
नैतिक मूल्यों की प्रतिष्ठा-(यह मानते हुए कि ज्ञान-क्षेत्र के
विस्तार के साथ नैतिक मूल्य अपने-आप परिवर्तित हो सकते हैं), अनुभूति
की प्रामाणिकता, सोचने, मानने, अभिव्यक्त करने, वरण करने और होने
अर्थात् अस्तित्व रखने की व्यक्ति की स्वतन्त्रता... सम्पृक्तता
(कमिटमेंट) का विवाद और देशों की भाँति मेरे देश में भी होता रहा है
और अब भी जारी है। इसकी शायद अभी आवश्यकता भी है क्योंकि अभी शायद
बहुत-से लोगों को इसमें निहित प्रश्नों का स्पष्ट निरूपण करना है।
लेकिन जहाँ तक मेरा सवाल है, यद्यपि मैं अब भी हर किसी की बात ध्यान
से सुनता हूँ और कभी-कभी विवाद में भाग भी लेता हूँ, मुझे लगता है कि
अनुभव ने मुझे संघर्ष के शोर और धुएँ से बाहर निकालकर ऐसी जगह
पहुँचने का मार्ग दिखा दिया है जहाँ से मैं परिवेश को भी देख सकूँ,
और साधनों और उपकरणों का अधिक सोद्देश्य उपयोग कर सकूँ। लेखक न केवल
असम्पृक्त नहीं होता बल्कि उसी सम्पृक्ति दोहरी होती है-वह निरन्तर
दो मोर्चों पर लड़ता है। यह तो सम्भव है कि वह कभी एक मोर्चे पर और
कभी दूसरे मोर्चे पर बल संग्रह करे; लेकिन किसी एक मोर्चे को छोड़
देने में वह भारी जोखिम उठाएगा।
बात को यों कहने में लग सकता है कि लेखक की परिस्थिति बड़ी
संकटपूर्ण और अप्रीतिकर है। वास्तव में ऐसा नहीं है। वास्तव में उसकी
परिस्थिति अत्यन्त रुचिकर और रसमय है। मुझे एक पौराणिक दृष्टान्त याद
आता है जिसका समकालीन अर्थ भी है बल्कि जो ‘कन्दिस्यों यूमेन’-मानव
नियति-का उसके आधुनिक पश्चिमी अस्तित्ववादी निरूपण की अपेक्षा कहीं
अधिक सच्चा प्रतिबिम्ब है।
बाघ से बचने के लिए एक मनुष्य पेड़ पर चढ़ता है और उसकी दूरतम शाखा
तक पहुँच जाता है। उसके बोझ से शाखा झुककर उसे एक अन्धे कुएँ में
लटका देती है। ऊपर दो चूहे शाखा को काट रहे हैं, नीचे कुएँ में अनेक
साँप फुफकारते हुए उसके गिरने की प्रतीक्षा कर रहे हैं। इस अत्यन्त
संकटापन्न परिस्थिति में वह देखता है कि कुएँ की जगत् से घास की एक
पत्ती उसकी ओर झुकी हुई है और उसकी नोक पर मधु की एक बूँद काँप रही
है। वह जीभ बढ़ाकर मधु चाट लेता है-और कितना सुस्वादु है वह मधु...
कितना सुस्वादु, अनिवर्चनीय स्वादिष्ट मधु... हम सभी ने, प्रत्येक ने
अपने अलग ढंग से उस मधु का स्वाद जाना है जो कि हमारा जीवन है। लेकिन
मैं समझता हूँ कि जिन्होंने मधु के साथ-साथ अपनी अवस्थिति का भी
आस्वादन किया है उन्होंने अस्तित्व का गम्भीरतर अनुभव प्राप्त किया
है, क्योंकि उनके लिए अवस्थिति का स्वाद भी मधु के स्वाद का एक अंग
बन गया है। और उनके लिए मधु के प्रति सम्पृक्ति में अवस्थिति के साथ
सम्पृक्ति (कमिटमेंट) भी अनिवार्यतया निहित है। और दृष्टान्त का सार
तो यही है कि यह (अस्तित्ववादी मुहावरे की) ‘चरम परिस्थिति’ कोई ऐसी
चरम परिस्थिति नहीं है, क्योंकि वह सार्वलौकिक है, साधारण है।
महत्त्व की बात इसके प्रति चेतन होना ही है : पहचान होते ही व्यक्ति
की अवस्थिति व्यापक सार्वलौकिक अवस्थिति से एकात्म हो जाती है और
हमारी तात्कालिक चिन्ताएँ उस एक चरम चिन्तन में परिणत हो जाती हैं जो
कि आधुनिक व्यक्ति के लिए आस्था, विश्वास, धर्म या उसे और जो कुछ भी
नाम दे दें उसका पर्याय है-वह ठोस आधारशिला जिस पर वह मूल्यों की
इमारत खड़ी करता है-इस आशा के साथ ही कि वे टिकाऊ सिद्ध होंगे।
भीड़ों
में
जब-जब जिस-जिससे आँखें मिलती हैं
वह सहसा दिख जाता है
मानव :
अगार-सा-भगवान-सा
अकेला।
और हमारे सारे लोकाचार
राख की युगों-युगों की परतें हैं।
(शीर्ष पर वापस)
13.
साहित्य, संस्कृति और समाज परिवर्तन की प्रक्रिया
यदि मैं यह मानता होता कि
साहित्य का-और यहाँ साहित्य से मेरा आशय रचना अथवा कृति साहित्य का
ही है-सामाजिक परिवर्तन में कोई योग नहीं होता, अथवा साहित्यकार का
समाज के प्रति कोई ऐसा उत्तरदायित्व नहीं है जिसमें यह भी निहित हो
कि समाज को बदलने का कुछ यत्न भी उससे अपेक्षित है, तो शिविर में
विचार के लिए इस विषय का प्र्रस्ताव मैंने न किया होता। इतना तो
स्वयंसिद्ध जान पड़ सकता है, लेकिन इससे आगे यह भी कहूँ कि उस दशा
में मैंने अपने साहित्यिक कर्म के बारे में भी नए सिरे से विचार
किया होता क्योंकि आज अपने को साहित्यकार का नाम देकर मैं जिस तरह के
गौरव का अनुभव करता हूँ उसका कोई आधार न रहा होता। तब साहित्य कर्म
भी दूसरे पेशेवर कर्मों अथवा व्यवसायों की तरह आजीविका का एक साधन
मात्र होता और ऐसा सोचने का कोई आधार न रहता कि साहित्यकार होने के
नाते अपने समाज के साथ मेरा एक विशेष प्रकार का सम्बन्ध है-समाज से
मेरा आशय चाहे हिन्दीभाषी समाज हो जो मेरा पहला पाठक होगा, चाहे
भारतीय समाज जिसके दिक्काल संचित अनुभव को मैं वाणी दे रहा हूँगा,
चाहे मानव समाज हो जो शब्द मात्र में अभिव्यक्त होनेवाले मूल्यों की
अन्तिम कसौटी है-बल्कि जो उनका स्रोत भी है।
विशेष पद का यह दावा या गौरव-बोध का यह स्वीकार किसी आभिजात्य का
दावा नहीं है। यह केवल रचना-कर्म के स्वभाव की पहचान है। सभी लेखन
साहित्य नहीं होता और सभी साहित्य रचना भी नहीं होता। जब किसी
साहित्यिक कृति को हम रचना का पद देते हैं, तब विहित अथवा निहित रूप
में हमने उसमें कुछ गुणों की सत्ता मान ली होती है। इसी से वह
विशिष्ट होती है और इसी से उस सत्ता को प्रतिष्ठापित करनेवाला होने
के नाते साहित्यकार विशिष्ट हो जाता है।
सर्जक के नाते विशिष्ट होकर भी साहित्यकार ऐसा नहीं है कि साधारण
नागरिक नहीं रहता अथवा नागरिक कर्मों से और नागरिक जीवन के
उत्तरदायित्वों से मुक्ति पा जाता है। उन दायित्वों को यहाँ गिनाना
आवश्यक नहीं है, न इस साधारण स्थापना के बाद साहित्यकार के साधारण
नागरिक कर्तव्यों का प्रश्न फिर से उठाने की कोई आवश्यकता होगी। इतना
ही काफ़ी है कि नागरिक पर कुछ चीज़ों को बनाए रखने की भी जिम्मेदारी
होती है क्योंकि व्यवस्था में एक प्रकार के स्थायित्व के बिना
सामाजिक और सांस्कृतिक जीवन भी सम्भव नहीं रहता; दूसरी ओर चीज़ों के
लगातार परीक्षण और उनको बदलने के आयोजन की भी जिम्मेदारी नागरिकता का
एक अंग है क्योंकि लगातार और नियोजित ढंग से बदलाव लाते रहते बिना
व्यवस्था भी व्यवस्था नहीं बनी रह सकती, निरी जकड़बन्दी बन जाती है
जिसे तोडऩा ही स्वस्थ जीवन का एकमात्र उपाय रह जाता है। साहित्यकार
के जिन वृहत्तर अथवा गम्भीरतर उत्तरदायित्वों की ओर मैं संकेत
करनाचाहता हूँ उनका सम्बन्ध केवल व्यवस्था के स्थायित्व और व्यवस्थित
परिवर्तन के नियोजन से नहीं है, बल्कि उन आधारभूत मूल्यों से है
जिनसे इसका निर्णय होता है कि वांछित दिशाएँ कौन-सी हैं, और जहाँ
वांछित परिणामों और हितों की टकराहट दीखती है, वहाँ पर अभिमूल्यों का
उच्चावच क्रम कैसे निर्धारित होता है।
इससे यह न समझा जाए कि मैं साहित्यकार के लिए समाज के नियन्ता का या
मूल्यों के किसी चरम निर्णायक का पद आरक्षित करके उसे समाज से अलग
करना चाह रहा हूँ या समाज से ऊँचे पद पर बिठाना चाह रहा हूँ। लेकिन
सर्जक कर्म के दृष्टि से जो अनिवार्य सम्बन्ध है उससे इनकार नहीं
किया जा सकता। कुछ अधिक देख पाना, कुछ अधिक दूर तक देख पाना, कुछ
अधिक गहराई तक या गहराई से देख लेना, कुछ समय से पहले देख लो, जो
स्पष्ट दीख रहा है उससे भिन्न या उसके प्रतिकूल भी कुछ देखना अथवा
भाँप लेना, गति की जो दिशा स्पष्ट है अथवा स्वीकृत है उससे भिन्न
दिशा में होने वाली गति को देख लेना या उसके प्रतिकूल दिशा का संकेत
दे देना-ये सभी उस दृष्टि का अंग हैं जिसका श्रेय हम सर्जक को देते
हैं, जिसकी अपेक्षा उससे रखते हैं और जिसके आधार पर ही इसका निर्णय
करते हैं कि उसकी कृति कहाँ तक सर्जना है, रचना है। सर्जक साहित्यकार
को, कवि को हम कालजित्, त्रिकालदर्शी, अनागतदर्शी, मनीषी, परिभू,
स्वयम्भू आदि कहते हैं तो इसीलिए। यह बात अलग है कि आज जिन कृतियों
को हम साहित्य के नाम से पढ़ते हैं उनमें इनी-गिनी ही इस कोटि में
आती हैं; जिन्हें हम साहित्यस्रष्टा और कवि कहते हैं उनमें भी विरला
ही इस कसौटी पर खरा उतरेगा जिसकी ओर संकेत किया गया है। ऐसा कवि हमें
आसपास नहीं दीखता, लेकिन ऐसा कवि होता है-हमारा यह विश्वास नहीं
डिगता। साधु, महात्मा, योगी भी हमें आस-पास नहीं दीखते, लेकिन योगी
होता है-यह आस्था हमारी नहीं टूटती। आप कहें कि इन आस्थाओं का तथ्यों
से कोई सम्बन्ध नहीं है, केवल मानवीय आकांक्षा से है, तो उससे कोई
अन्तर नहीं पड़ता क्योंकि यह आकांक्षा भी मनोजगत में प्रतिष्ठित एक
मूल्य अथवा एक आदर्श की और संकेत करती है। ऐसे ही आधारभूत मूल्य तो
वे हैं जिन्हें सर्जक-साहित्यकार की अन्तर्दृष्टि समय-समय पर या
बार-बार देख लेती है, दिखा देती है; उसके आलोक में सारा परिदृश्य बदल
जाता है और सारी व्यवस्थाएँ, सारे समाज, सारी बिरादरियाँ अपनी
कर्म-प्रवृत्तियों को फिर से देखने को बाध्य हो जाती हैं। अपने
संवेदनों पर ही प्रश्नचिह्न लगा देती हैं।
लेकिन अगर मैं मानता भी हूँ कि समाज को बदलने में साहित्य का योग
होता है, कि उसमें साहित्यकार की भी कुछ जिम्मेदारी होती है, तो भी
आज साहित्यिक रचना और सामाजिक परिवर्तन में जैसा सीधा समीकरण बनाया
जा रहा है उसे मैं बिलकुल स्वीकार नहीं करता। मैं समझता हूँ कि पिछले
लगभग पचास वर्षों से इस तरह का सीधा सम्बन्ध बनाने और सिद्ध करने का
जो एक प्रयत्न होता रहा है उसने साहित्य का बहुत अहित किया है।
आलोचना को, जिसका लोचन से सम्बन्ध ही स्पष्ट करता है कि उसे स्वच्छ
प्रकाश की अनिवार्य आवश्यकता है, उसने एक धुँधलके में भटका दिया है।
रचना की दृष्टि को एक रंगीन चश्मा पहनाकर उसने एकांगी और असमर्थ बना
दिया है। उसके राजनीतिक और आर्थिक आग्रह सतह को और केवल सतह को
महत्त्व देकर वहीं दीखनेवाले तनाव और संघर्ष को वास्तविक मानना और
मनवाना चाहते हैं, और गहराई में काम करने वाली शक्तियों को दखने से
साहित्यकार और पाठक को विरत करना चाहते हैं। प्रगति का अर्थ केवल
आर्थिक विकास बल्कि आर्थिक विकास की एक दिशा रह गया है, यहाँ तक कि
संस्कृति की अथवा सांस्कृतिक मूल्यों की चर्चा को निरी विलासिता मान
लिया गया है।
ऐसा चिन्तन साहित्य और साहित्यकार को न केवल सीधे-सीधे सामाजिक
परिवर्तन से जोड़ता है बल्कि उसे अपना अधिकार समझता है कि साहित्यकार
को बताये कि कौन-सा सामाजिक परिवर्तन सही और वांछनीय है। और इसके लिए
वह योजना बनाकर साहित्यकार को देना चाहता है-जिस योजना का साहित्कार
की अपनी दृष्टि या अपने विवेक से आत्यन्तिक सम्बन्ध होना वह आवश्यक
नहीं मानता।
मैंने आरम्भ में कहा कि अगर मैं मानता होता कि साहित्य और
साहित्यकार का कोई योग सामाजिक परिवर्तन में नहीं है तो मैंने न केवल
शिविर के लिए एक विषय का प्रस्ताव न किया होता बल्कि स्वयं अपने
साहित्यकारत्व के बारे में फिर से विचार किया होता। अब मैं यह कहूँ
कि अगर मैं मानता हूँ कि रचना और सामाजिक परिवर्तन में वैसा सीधा
सम्बन्ध है, या होता है या हो सकता है, जिसका मैंने अभी उल्लेख किया,
कि अगर योजना बनाकर साहित्य लिखना (बल्कि लिखवाना, क्योंकि योजना
बनानेवाले और परिवर्तन की दिशा निर्धारित करनेवाले तो दूसरे होंगे)
योजना बनाकर साहित्य लिखना ही वास्तविक और सही साहित्यिक कर्म है तो
मैंने साहित्य-रचना बहुत पहले छोड़ दी होती और किसी दूसरे काम में
अपने को लगाया होता।
लेकिन अगर सामाजिक परिवर्तन के साथ रचना का ऐसा सीधा सम्बन्ध नहीं
है, फिर भी मैं मानता हूँ कि समाज को बदलने में साहित्य का भी योग है
और साहित्यकार का भी उत्तरदायित्व है, तो इस विरोधाभास का निरसन कैसे
होता है? मैं भी समझता हूँ कि इस प्रश्न के उत्तर का कुछ संकेत मैंने
अपने निरूपण में दे दिया है। लेकिन संकेत ही दिया है। शायद कुछ बातों
को अधिक विस्तार से निरूपित करना उपयोगी होगा।
(शीर्ष पर वापस)
[2]
साहित्यिक कर्म रचना-कर्म है
यह मानने में तो किसी को कठिनाई नहीं होगी। कम-से-कम यह सोचने के लिए
तो कोई नहीं रुकेगा कि वह रचना-कर्म है कि नहीं, मान लेगा कि सोचने
का काम पहले हो चुका है और सिद्धान्त सामने है। लेकिन क्या साहित्यिक
कर्म सांस्कृतिक कर्म भी है? यह सवाल पूछने पर साहित्यकार और आलोचक
और सिद्धान्तों के प्रतिपादक लोगचौकन्ने होते हैं। न केवल इस रूप में
प्रश्न प्राय: रखा नहीं जाता, वरन् जिससे पूछा जाता है उसे यह सन्देह
होता है कि कहीं इसमें कोई पेच तो नहीं है, ‘हाँ’ कह देने पर कहीं
मैंने अनजाने अपने को ऐसा बाँध तो नहीं लिया होगा कि आगे तर्क में
मेरा पक्ष गिर जाए? इसलिए इस सवाल का जवाब कई खंडों या सीढिय़ों में
तैयार करना पड़ता है। दोनों कल्पना का सहारा लेते हैं, और कल्पना
सर्जन का आधार है। दोनों समाज से जुड़े हैं, दोनों का स्वरूप समाज पर
निर्भर करता है और दोनों समाज को अभिव्यक्ति देते हैं-समाज के इतिहास
को भी, उसकी वर्तमान स्थिति को भी और उसकी आकांक्षा को भी। ऐसा है तो
दोनों लगातार उसके द्वारा बदले भी जाते हैं और स्वयं उसमें बदलाव
लाने का भी आधार बनते हैं। प्राचीन इतिहास और वर्तमान वास्तविकता की
अभिव्यक्ति होने के कारण दोनों में एक अनिवार्य गम्भीरता भी होती है,
लेकिन दोनों में कल्पना का महत्त्वपूर्ण योग होने के कारण उनमें एक
लीला अथवा क्रीड़ा-भाव भी बना रहता है। बल्कि दोनों की सर्जक सत्ता
अनिवार्यतया लीला-भाव से भी जुड़ी हुई है। जिन संस्कृतियों में
लीला-भाव नहीं रहता वे उस हद तक बन्ध्य और स्थितिशील हो जाती हैं,
भले ही गम्भीरता उनमें बनी रहे। बल्कि उनकी यह गम्भीरता भी परम्परा
के आग्रह का रूप ले लेती है। और जिन साहित्यों में लीला-भाव नहीं
रहता वे भी स्थितिशील हो जाते हैं और उनकी गम्भीरता भी रीति और
परम्परा के आग्रह का रूप ले लेती है, प्रयोग से कतराती है। फिर उनमें
भी गम्भीरता भले ही बनी रहे और वह वास्तविकता को देखने के, जिम्मेदार
होने के दावे में भले ही परिणत हो जाए। विमर्श की इतनी सारी सीढिय़ाँ
चढक़र-या अनिच्छा को ध्यान में रखते हुए कहें कि उतरकर-लोग मान लेते
हैं कि ‘हाँ, साहित्यिक कर्म भी सांस्कृतिक कर्म है, साहित्य रचना भी
एक तरह से संस्कृति की रचना है और साहित्य के सांस्कृतिक परिवेश की
उपेक्षा नहीं की जा सकती, लेकिन-’
यह ‘लेकिन’ यथार्थ स्थिति का एक विचारणीय तथ्य है। इस ‘लेकिन’ के
बाद कोई तर्क प्रस्तुत किए जाएँ या न किए जाएँ, इतना तो इससे स्पष्ट
हो ही जाता है कि मन में कहीं एक गाँठ है। इस बात को स्वीकार करने
में अनिच्छा की एक बाधा है कि साहित्य से संस्कृति बनती है जैसे कि
संस्कृति से साहित्य बनता है। संस्कृति, समाज, साहित्य और ऐसी अन्य
अवधारणाओं में परस्परता और अन्योन्याश्रय का गहरा सम्बन्ध है। इनमें
से किन्हीं भी दो को उठाकर उनके सम्बन्धों का विचार हो सकता है और वह
विचार उपयोगी भी हो सकता है, लेकिन तभी जब इस बात को कभी न भुलाया
जाए कि ऐसी किसी भी जोड़ी का एक व्यापकतर सन्दर्भ है और केवल विचार
ही नहीं, ये संज्ञाएँ भी उस सन्दर्भ से जुड़ी रहती ही अर्थवान है।
साथ ही यह भी ध्यान में रखने की आवश्यकता है कि किन्ही भी दो
संज्ञाओं को चुनकर विचार करते समय हम प्रत्येक पर अपने पूर्वग्रहों
का आरोप कर देते हैं। यह नहीं कि दूसरी सब मान्यताओं का हम एकान्त
रूप से खंडन कर देते हों; इतना ही कि हमारी दृष्टि कुछ पहलुओं पर
केन्द्रित हो जाती है जिसके कारण परिदृश्य बदल जाता है। उदाहरण के
लिए, संस्कृति की चर्चा में कहीं यह अलक्ष्य या अघोषित पूर्वग्रह हो
सकता है कि वह परम्परा का, सामूहिक अनुभव के नित्य पक्ष का भंडार
होती है। यह बात गलत नहीं है, लेकिन जिसका आग्रह इसी पक्ष पर होगा वह
संस्कृति को केवल एक आस्था के रूप में नहीं, एक स्थितिशील आस्था के
रूप में देखता हुआ चलेगा। अब संस्कृति को स्थायित्व देती है, यह
असन्दिग्ध है, लेकिन फिर भी संस्कृति न निरी स्थिति है, न निरी
स्थितिशीलता है। वह एक गत्यात्मक प्रक्रिया भी है। इसी तरह वह
अन्तर्दृष्टि भी है, ऐसी अन्तर्दृष्टि जो सत्यों को-धु्रव सत्यों को
भी और नए सत्यों को भी-आलोकित कर जाती है, हमें उनमें आस्था भी दे
देती है। लेकिन इसके साथ ही संस्कृति लीला भी है, निरा खिलवाड़ भी
है, अटकल भी है, साहस-कर्म भी है। अनुमान और रूपकमयी भाषा में वह
स्वप्न-महल भी खड़े करती है, जिन्हें वह एक साथ ही सच मानने को और
छूकर ढहा देने को सदैव प्रस्तुत भी है। बिना इसके संस्कृति जी नहीं
सकती, पनप नहीं सकती। हम कहें कि पुराण और परम्परा के नाम पर जिन
बहुत-सी चीज़ों का संचय और परिग्रह हम किये रहते हैं, उसमें से
बहुत-सी इसी तरह की हैं-साहसपूर्ण कल्पना की ऐसी सृष्टि जिसे हम
शब्दश: सत्य नहीं मानते क्योंकि हम बराबर जानते हैं कि वह हमारी
सृष्टि है, हमारी कल्पना-सृष्टि है, हममें से उपजी होने के कारण
शून्य में से नहीं उपजी है जैसे कि हम भी शून्य में से नहीं उपजे
हैं। इतना ही नहीं, वह हमारे सामूहिक और समाजिक स्वास्थ्य का एक आधार
है, हमारी अस्मिता की पहचान का एक अंग है। उसे हम एकान्त मिथ्या तभी
मान सकते हैं जब अपने को भी एकान्त मिथ्या मान लें।
पूर्वाग्रहों के व्यापक प्रभाव की इतने विस्तार से चर्चा का कारण
है; जैसे कि संस्कृति की चर्चा का भी कारण है। संस्कृति के बारे में
जो कुछ कहा गया है सब साहित्य पर भी पूरी तरह लागू है। साहित्य भी
यथार्थ और कल्पना की सीमा-रेखा पर साहसपूर्वक बढ़ता है और उसी
सन्धि-भूमि पर उसका सर्जकत्व क्रियाशील होता है। साहित्य भी अस्मिता
की पहचान कराता है-सामूहिक, सामाजिक, व्यक्तिगत और आस्तित्विक अस्मित
की। साहित्य भी स्थितिबोध जगाता है, जड़ों की पहचान कराता है, उनके
द्वारा अपनी मिट्टी से रस खींचने की प्रेरणा देता है, प्रक्रिया
सिखाता है, दक्षता बढ़ाता है। साहित्य भी बदलाव की पहचान कराता है,
बदलाव की सम्भावनाएँ उजागर करता है, बदलने की प्रेरणा देता है।
साहित्य भी सपने देखता है, कल्पना के महल खड़े करता है (और गिराता
है), अटकल लगाता है, भूल करता है, भूल करने का साहस करता है और भूल
को काटकर अलग कर देने का निर्ममत्व भी रखता है।
संस्कृति के विचार की तरह साहित्य के विचार में भी हम उसे किसी
दूसरी एक संज्ञा के साथ जोड़ ले सकते हैं। और वैसा विचार, ज़रूरी
नहीं है कि सिर्फ इसलिए अर्थहीन हो जाए कि उसमें भी पूर्वाग्रह काम
कर रहे होंगे। मंशा यही है कि हम पूर्वाग्रह की सम्भावना और व्याप्ति
को पहचानते रहें और इस बात को भी न भूलें कि विचार के लिए जो भी
जोड़ा हमने चुना है वह विचार की सुविधा के लिए ही चुना है। इसलिए
नहीं कि व्यापकतर सन्दर्भ से इन दो संज्ञाओं को किसी तरह भी अलग किया
जा सकता है। दूसरे शब्दों में कहें कि कोई भी जोड़ा चुनना अपने-आपमें
एक पूर्वाग्रह की अभिव्यक्ति है। साहित्य और सामाजिक परिवर्तन भी इसी
तरह का एक जोड़ा है-यहाँ तक कि साहित्य और साहित्यकार भी एक जोड़ा है
जो पूर्वाग्रह से मुक्त नहीं होता और जो सन्दर्भ से कटकर अर्थहीन हो
जाएगा।
(शीर्ष पर वापस)
[3]
संस्कृतियाँ लगातार बदलती
हैं। समाज लगातार बदलते हैं। साहित्य लगातार बदलता है।
आप लक्ष्य करेंगे कि इन तीनों वाक्यों का ढाँचा एक-सा है, लेकिन
तीसरे से हम बहुवचन से एकवचन पर आ गये हैं। थोड़ा रुककर सोचिए कि अगर
इस बात को हम आँखों-ओट हो जाने देते हैं तो अनजाने कितना बड़ा
पूर्वाग्रह हमने निगल लिया है।
दोनों उक्तियों को अलग-अलग एकवचन और बहुवचन में रखकर देखिए।
संस्कृति बदलती है, समाज बदलता है, साहित्य बदलता है। ऐसा कहने में
हम समग्र मानव जाति, समग्र मानव समाज की बात सोच रहे होते हैं और
साहित्य की भी अमूत्र्त सैद्धान्तिक अवधारणा कर रहे होते हैं। लेकिन
जब हम कहते हैं कि संस्कृतियाँ बदलती हैं, समाज बदलते हैं, तब हम एक
दूसरी कोटि की सच्चाई की बात कर रहे होते हैं; संस्कृति और समाज की
एक दूसरी परिभाषा लेकर चल रहे होते हैं। इस स्थूलतर मूत्र्त सन्दर्भ
में हमें साहित्य की नहीं, साहित्यों की बात करनी चाहिए और बहुवचन
में ही कहना चाहिए कि साहित्य बदलते हैं।
मानव संस्कृति की बात करते हुए हम आरम्भ यहाँ से भी कर सकते हैं कि
मानव पहला आत्मचेतन प्राणी है-ऐसा प्राणी जो पूछ सकता है मैं कौन
हूँ, मैं कहाँ जा रहा हूँ-ऐसा प्राणी जो अपनी मृत्यु की पूर्व-कल्पना
कर सकता है और इसलिए अमरत्व को सन्तानता की भावना के साथ जोड़ सकता
है-जो इस प्रकार इतिहास का स्रष्टा बन जाता है, जैविक स्तर पर अपने
विकास को प्रभावित करने का सामथ्र्य पा लेता है, संस्कृति का
उद्भव-स्रोत बन जाता है। स्पष्ट है कि ऐसा मानव प्राणी न केवल
संस्कृति को बदलने में समर्थ है बल्कि लगातार उसे बदलता चलता है।
परिवर्तन की कामना, योग्यता और उसका संकल्प उसकी आत्म-चेतना का सहज
विस्तार है।
स्पष्ट है कि मानव संस्कृति के बारे में जो कुछ कहा गया है वह सब
मानव समाज के बारे में भी कहा जा सकता है।
यह भी स्पष्ट होना चाहिए, पर प्राय: उतने स्पष्ट रूप में हमारे
सामने नहीं रहता, कि मानव समाज और मानव संस्कृति की बात करते हुए
कहीं भी हम संस्कृति और समाज की उस दूसरी अवधारणा का खंडन नहीं कर
रहे होते हैं जो देश-काल से बँधी होती है। भारतीय संस्कृति, यूनानी
संस्कृति, मध्यकालीन संस्कृति, आधुनिक संस्कृति इत्यादि अवधारणाएँ
कहीं भी उस व्यापकतर परिकल्पना में आड़े नहीं आतीं। दो प्रकार की
अवधारणाओं को हम अलग-अलग स्तरों पर रख लेते हैं-या ज्यादा सही ढंग से
यों कहें कि एक बड़े वृत्त के भीतर अनेक छोटे वृत्तों का अस्तित्व
मानते हुए चलते हैं।
यह भी स्पष्ट होना चाहिए कि परिवर्तन और उसकी गत्यात्मकता और
परिवर्तन के संकल्प की बात करते हुए भी हम बदलाव के दो आयामों की बात
सोच रहे होते हैं-एक सीमित देश-काल द्वारा मर्यादित और दूसरा जैविक
विकास और प्राणि-समाज का वृहत्तर सन्दर्भ लिये हुए।
साहित्य की चर्चा करते हुए जैसे हम बहुवचन से एकवचन पर आ गये थे और
इसकी ओर ध्यान दिलाना आवश्यक हुआ था, वैसे ही यहाँ भी एक झिझक उठती
है जिसे सामने ले आना चाहिए। साहित्य के साथ विशेषण के रूप में मानव
जोड़ते हुए, ‘मानव साहित्य’ की बात करते हुए जबान अटक जाती है।
क्यों? यह पूछने पर अटपटा-सा उत्तर आएगा कि क्या मानवेतर साहित्य भी
होता है जो हम मानव साहित्य की बात करें? ऐसा उत्तर देने के बाद
स्वाभाविक है कि स्वयं हमारे सामने यह प्रश्न भी उठ आये कि क्या
मानवेतर संस्कृति भी होती है जो हम मानव संस्कृति की बात करें? इसी
प्रकार यह प्रश्न भी गूँज जाता है कि क्या मानवेतर समाज भी होते हैं
कि हम मानव समाज की चर्चा करें?
ये प्रश्न अर्थहीन नहीं होते और नृतत्त्व-विज्ञान आरम्भ से ही
इन्हीं प्रश्नों से उलझता है। हम क्रमश: पहचानने लगते हैं कि विकास
के क्रम में सामाजिकता की भावना उच्चतर प्राणियों में आयी है। मृगों
की और बन्दरों की अनेक प्रजातियों में सामूहिक आचरण और परस्पर सहयोग
की कुछ मर्यादाएँ हम पहचानने लगते हैं और उन्हें सामाजिकता का मूल
मानकर क्रमश: आदिम वन-जातियों, कबीलों और जन-जातियों की सामाजिकता के
साथ जोडऩे लगते हैं। फिर इस सामाजिकता को संस्कृति की परिभाषा के साथ
जोडक़र हम अपनी तर्क-परम्परा का उलटे क्रम से विस्तार करते हैं।
कम-से-कम कुछ दूर तक तो उसका निर्वाह हो जाता है और उसें निरर्थकता
की झलक हमें नहीं मिलती। फिर भी उससे आगे हम उसे नहीं ले जाते;
सादृश्य के धुँधलके के छोर पर उसे छोड़ देते हैं जहाँ अनजाने ही यह
माने रहना सम्भव हो कि वैसी ही समानताएँ वहाँ भी काम कर रही होंगी।
लेकिन यहाँ भी साहित्य पर इस तर्क-परम्परा का आरोप हम सम्भव नहीं
पाते, सादृश्य-मूलक तर्क का भी नहीं। जन-जातियों, कबीलों और आदिम
वन-जातियों के नृत्यों और गीतों को निश्चय ही हम साहित्य की परिधि
में ले आते हैं और साहित्य के आदि स्रोत को प्राचीनतम सामूहिक
अनुष्ठान के साथ जोड़ लेते हैं। उन अनुष्ठानों के साथ जुड़े हुए गीत
कैसे रहे होंगे यह हम नहीं जानते, न जान सकते हैं; इसलिए यह स्पष्ट
है कि यहाँ भी हम ज्ञान के आधार पर नहीं, सादृश्य के तर्क के आधार पर
ही बढ़ते हैं। लेकिन उसे आगे-अथवा पीछे, प्राचीनतर काल में-सादृश्य
के तर्क के सहारे भी हम जाने को तैयार नहीं हैं, यद्यपि संस्कृति और
सामाजिकता की जड़ें खोजते हुए हम मानव-पूर्व प्राणियों के समाज,
समूह, यूथ अथवा झुंड तक जाने में विशेष कठिनाई नहीं देखते।
साहित्य के मामले में यह झिझक क्यों?
उसका एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण कारण है। यही कारण है कि मानव
संस्कृति और मानव समाज की बात करते हुए भी हम मानव साहित्य की बात
नहीं कर पाते; और वही कारण है कि जिस प्रकार हम सामाजिकता की चर्चा
को सादृश्य के सहारे मानव-पूर्ण प्राणियों के संसार में ले जाते हैं,
वैसे साहित्य को नहीं ले जाते, ले जाने का प्रयत्न करने को भी तैयार
नहीं होते।
और वह कारण यही है कि वैसे प्रयत्न हम कर ही नहीं सकते क्योंकि
साहित्य की ही नहीं, मानव की ही हमारी परिभाषा उसे असम्भव बना देती
है। वह कारण यह है कि साहित्य भाषा की अपेक्षा रखता है, ‘साहित्यिक’
शब्द की अपेक्षा रखता है। किसी-न-किसी प्रकार का सम्प्रेषण तो
मानवेतर अथवा मानव-पूर्व प्राणियों में भी होता है और सम्प्रेषण ही
सामाजिकता की नींव है; लेकिन अर्थवान् शब्द और रूपकार्थ की अवधारणा
मनुष्य की सृष्टि है और यही सर्जकत्व उसे अन्य सभी प्राणियों से ऐसे
आत्यन्तिक रूप से अलग कर देता है कि साहित्य के विचार का वैसा
विस्तार हमारे लिए असम्भव हो जाता है जैसा हम संस्कृति अथवा
सामाजिकता का कर सकते हैं।
इसीलिए साहित्य के साथ विशेषण के रूप में मानव नहीं लगता-क्योंकि
दूसरा कोई साहित्य न केवल होता नहीं बल्कि उसकी कल्पना भी नहीं की जा
सकती। साहित्य की बात हम एकवचन में भी कर सकते हैं और बहुवचन में भी;
जब एकवचन में भी कर रहे होंगे तब भी उसका सन्दर्भ मानवीय ही होगा,
लेकिन उस विशेषण की कोई गुंजाइश नहीं होगी क्योंकि वह परिभाषा में ही
निहित है। और जब बहुवचन में करेंगे तो देश-काल में बँधे समाजों और
संस्कृतियों के साथ जोडक़र कर रहे होंगे।
(शीर्ष पर वापस)
[4]
बदलाव की प्रक्रिया और
संकल्प, उसके प्रयत्न के दो स्तरों अथवा आयामों की चर्चा हम कर चुके
हैं। साहित्य में भी निश्चय ही दो स्तरों की बात हो सकती है, लेकिन
साहित्य को बदलाव के साथ जोड़ते हुए हम एक और बात कर रहे होते हैं
जिसकी ओर ध्यान दिलाना आवश्यक है। संस्कृति अथवा समाज में बदलाव अथवा
उसके संकल्प की बात करते समय हमारे सोच की परिधि यही रहती है कि
संस्कृति कैसे संस्कृति को बदलती या बदल सकती है; समाज कैसे समाज को
बदलता या बदल सकता है। नि:सन्देह यह हम जानते हैं कि समाज अथवा
संस्कृति के बदलाव से संस्कृति अथवा समाज में भी बदलाव आया है,
अर्थात एक के परिवर्तन अनिवार्यतया दूसरे को प्रभावित करते हैं।
लेकिन क्योंकि हम जानते और मानते हैं कि एक का परिवर्तन दूसरे में
परिवर्तन लाएगा ही, इसीलिए हम समाज अथवा संस्कृति को दूसरे को बदलने
का उपकरण बनाकर बदलाव नहीं करते; दोनों के अपने को ही बदलने का विचार
करते हैं। समाज भी अपने को बदलता है या बदलना चाहता है; संस्कृति भी
अपने को बदलती है या बदलना चाहती है। अपने को बदलकर ही दूसरे को बदला
जा सकेगा; दूसरे को बदलने के लिए अपने को ही बदलना होगा।
लेकिन साहित्य भी क्या अपने को बदलता है या बदलना चाहता है? उसके
संकल्प में भी जब परिवर्तन की बात होती है तब क्या अपने को बदलने की
बात होती है? विचार-गोष्ठियों के लिए हम विषय रखते हैं ‘संस्कृति और
परिवर्तन की प्रक्रिया’ अथवा ‘समाज और परिवर्तन की प्रक्रिया’ और
जानते हैं कि पहले में सांस्कृतिक परिवर्तन की बात होगी, दूसरे में
सामाजिक परिवर्तन की। लेकिन साहित्य के साथ हम न केवल ऐसा नहीं मानकर
चलते, बल्कि यह स्पष्ट कर देना चाहते हैं कि विचार होगा तो ‘साहित्य
और सांस्कृतिक परिवर्तन की प्रक्रिया’ अथवा ‘साहित्य और समाजिक
परिवर्तन की प्रक्रिया’ का विचार होगा। ‘साहित्य और सहित्यिक
परिवर्तन की प्रक्रिया’-यह भी गोष्ठी में विचार का विषय हो सकता है,
यह सम्भावना भी हम नहीं करते।
असल में हम अर्थवान शब्द और रूपकार्थ की रचना की बात तो मान लेते
हैं, लेकिन इस बात की उपेक्षा कर जाते हैं कि अर्थवान शब्द न केवल
साहित्य के साथ जुड़ा हुआ है बल्कि मानव की परिभाषा के साथ भी
आत्यन्तिक रूप से जुड़ा हुआ है। अर्थवान शब्द और रूपकार्थ की सृष्टि
कर सकना-मैंने अन्यत्र मनुष्य को पहला प्रतीक-स्रष्टा प्राणी कहा
है-मनुष्य को अपूर्वानुमेय भी बना देता है। प्रतीक-स्रष्टा होने के
नाते मनुष्य पहला स्वाधीन प्राणी है, उसकी सम्भावनाएँ पूर्वानुमान से
परे चली जाती हैं।
अर्थवान शब्द और रूपकार्थ के साथ जुड़ा होने के नाते साहित्य भी इस
विशेष अर्थ में पूर्वानुमेय है। हम चाहें तो कह सकते हैं कि वह
विश्ेाष अर्थ में स्वाधीन अथवा स्वायत्त है, जिस अर्थ में संस्कृति
स्वाधीन नहीं होती, न समाज ही स्वाधीन होता है-अपनी जीवन्त और गतिशील
आस्थाओं में भी हीं।
अर्थवान शब्द अर्थ की सृष्टि तो करता है लेकिन अर्थ की सीमा नहीं
बाँधता। रूपकार्थ की सृष्टि अर्थ-सृष्टियों का एक द्वार खोलती है
जिसके आगे सीमाहीन सम्भावनाएँ गूँज रही होती हैं। इसीलिए सच्चे
रचनात्मक साहित्य का, सच्चे साहित्य सर्जन का, एक कालातीत आयाम होता
है। उसमें हमें लगातार नए अर्थ मिलते रहते हैं। अब अगर यह बात ठीक
है-और इसकी एक उपपत्ति यह भी है कि हम किसी एक समय में अन्तिम रूप से
यह नहीं कह सकते कि अमुक एक काव्यकृति का यही और इतना ही अर्थ है कि
भविष्यत् युगों में उसमें नया अर्थ नहीं पाया जा सकेगा-तो हम कैसे
दावे के साथ कह सकते हैं कि अमुक साहित्य रचना अमुक प्रभाव उत्पन्न
करेगी और केवल अमुक प्रकार की ही प्रेरणा दे सकेगी? कालजित साहित्य
मानव को (और क्या इस शब्द को यह विस्तार भी देने की जरूरत है कि मानव
समाज को और मानव संस्कृति को?) निश्चय ही प्रभावित कर सकता है और
करता है, लेकिन ये प्रभाव पूर्वानुमेय नहीं हो सकते और इसलिए यह नहीं
कहा जा सकता कि साहित्य से कोई भी एक विशेष और सीमित प्रभाव पैदा
करने का काम लिया जा सकता है-कोई विशेष सामाजिक परिवर्तन लाने का काम
लिया जा सकता है। यह तो बिलकुल सम्भव है कि जो विशेष समाजिक परिवर्तन
हमें वांछित जान पड़ता हो उसकी दिशा में भी साहित्य का प्रभाव
क्रियाशील हो, लेकिन यह सीमा बाँध देना सम्भव नहीं होगा कि किसी भी
महान, साहित्यिक रचना का प्रभाव केवल उतना और केवल उसी दिशा में
होगा; क्योंकि यह उसे सम्पूर्णतया पूर्वानुमेय मानकर चलना होगा और हम
साहित्य अर्थात् रचनात्मक अर्थवान् शब्द और मानव अर्थात्
प्रतीक-स्रष्टा प्राणी की परिभाषा में ही इस सीमा को नकार चुके हैं।
साहित्य जो परितर्वन लाता है-या साहित्य से जो परिवर्तन आते हैं और
लगातार आते रह सकते हैं-उनका क्षेत्र मानव का पूरा संवेदन है,
पूर्वानुमान से परे जानेवाली उसकी सर्जक कल्पना है। हमने कहा कि ऐसा
तो हो सकता है कि साहित्य के प्रभावों में से एक प्रभाव वह भी हो जो
कि उस समय हमारा वांछित है, या जो हमारे वांछित सामाजिक परिवर्तन को
प्रेरणा देगा। लेकिन ऐसा कोई एक परितर्वन लाने के लिए साहित्य के
व्यापक तथा देश-काल की सीमाओं का अतिक्रमण करनेवाले सामथ्र्य को
अनदेखा करके उससे एक तदर्थ उपकरण अथवा अस्त्र का काम लेना-बात को
स्पष्ट करने के लिए एक अतिरंजित बिम्ब का सहारा लूँ-वैसा ही होगा
जैसे एक खरगोश को मारने के लिए अणुबम का उपयोग।
यों तो समाज भी एक स्थूल संरचना भी है और एक अमूर्त भाव-संरचना भी,
लेकिन जब हम समाज को बदलने की बात सोच रहे होते हैं तो उसकी स्थूल
संरचना ही हमारे सामने होती है और सम्बन्धों को बदलने की बात करते
हुए हम उसकी संरचना के अन्त:सम्बन्धों को बदलने की बात कर रहे होते
हैं। यही बात बहुत थोड़े परितर्वन के साथ संस्कृति के बारे में भी
कही जा सकती है। उसमें भावना और उसके संस्कारों का महत्त्व कुछ अधिक
है, लेकिन बदलने की बात करते समय वहाँ भी हम मुख्यतया आचार-व्यवहार,
व्यवस्था को बदलने की बात ही सोच रहे होते हैं। लेकिन साहित्य की बात
इनसे बिलकुल अलग है। वहाँ पर अगर हम संरचना की ही बात करना चाहें तो
वह तन्त्र अथवा तकनीकी कौशल की बात हो जाती है। इसमें परिवर्तन
लगातार अनिवार्य रूप से होता ही रहता है। और अगर हम किसी दूसरे बदलाव
की बात सोचना चाहें तो वह अनिवार्यतया संस्कृति और समाज के बदलाव के
साथ जुड़ जाती है, मूल्य दृष्टि के साथ जुड़ जाती है, संवेदन के साथ
जुड़ जाती है-अपूर्वानुमेय के समूचे क्षेत्र के साथ जुड़ जाती है।
प्रकारान्तर से हम यह बात पहले भी कह आये कि समाज और संस्कृति के
बदलाव की बात सोचते समय हमारे सामने यह प्रश्न होता है कि ये सत्ताएँ
अथवा व्यवस्थाएँ कैसे अपने को बदल सकती हैं; साहित्य की चर्चा में
प्रश्न यह बन जाता है कि साहित्य अपने को नहीं, समाज अथवा संस्कृति
को कैसे बदले।
अब तक मैंने जो कुछ कहा है उसमें बराबर यह प्रतिज्ञा निहित रही है
कि साहित्य से भी बदलाव आता है, लेकिन साथ ही यह प्रश्न बराबर बना
रहा है कि वह बदलाव किस क्षेत्र में आता है, कहाँ तक नियोजित हो सकता
है और कहाँ पूर्वानुमेय से परे चला जाता है। अब इतने विवेचन के बाद
मैं सिद्धान्त अथवा स्थापना के रूप में यह बात कह सकता हूँ कि
सर्जनात्मक साहित्य के द्वारा आनेवाले परिवर्तन संवेदन के परितर्वन
होते हैं; व्यवस्था के नहीं, व्यवस्थाओं में अन्तर्निहित मूल्यदृष्टि
के भी नहीं, बल्कि मूल्यदृष्टि की भी आधार-भित्ति के परिवर्तन। यह
आधार-भित्ति मानव की सजर्नात्मक प्रतिभा है, इसलिए वह बराबर
पूर्वानमुमेयता की सीमा में परे जाती रहती है। साहित्य समाज को और
संस्कृति को बदलता है तो इसलिए कि वह नए और अपूर्व-कल्पित जीवन का
उन्मेष और आविष्कार भी है। यह नहीं कि वह यथार्थ को या वास्तविकता को
कहीं नकारता या अनदेखा करता है; यही कि सर्जना कर्म के दौरान ये बदल
गये होते हैं।
(शीर्ष पर वापस)
[5]
आधुनिक हिन्दी साहित्य की
परम्परा अथवा उसका परिदृश्य उतना लम्बा नहीं है कि कुछ बातों की
परीक्षा हम उसी की सीमा के भीतर रहते हुए कर सकें। लेकिन यह बिलकुल
ज़रूरी भी नहीं है-उचित भी नहीं है-कि हम अपने को उसी सीमा से बाँध
कर रखें। पूरे हिन्दी साहित्य के परिदृश्य में भी कुछ बातें स्पष्ट
हो जाती हैं और कुछ सवाल अपना सही सन्दर्भ पा जाते है। भक्त साहित्य
और सन्त साहित्य को ही लीजिए। उन्हें ये नाम ही दिये गए तो इसीलिए कि
इनमें आस्था का स्वर प्रबल रहा, इनका सनातन मूल्यों का आग्रह रहा।
सनातन मूल्यों का आग्रह, भगवन्निष्ठा, आस्था और भक्ति- कहा जा सकता
है कि ये सभी स्थितिशील आग्रह हैं समाज को बदलने से इनका कोई सम्बन्ध
नहीं है, बल्कि बदलते हुए समाज के बीच इन्हीं तत्त्वों पर बल देना
इन्हें अभीष्ट है जो बदलते नहीं। तब फिर सन्तों और भक्तों के साहित्य
ने कैसे अपने युग में और अपने समाज में एक क्रान्तिकारी भूमिका
निबाही? और अगर हम कहें कि ऐसा इसलिए हुआ कि वे शोषित और उत्पीडि़त
की भावनाओं और उसकी मूल्यदृष्टि के साथ जुड़े, तो क्या हम यह कह रहे
हैं कि शोषित और उत्पीडि़त की मूल्यदृष्टि, उसकी आस्था और उसकी
भगवन्निष्ठा, उसके सारे आग्रह स्थितिशीलता के आग्रह हैं? नि:सन्देह
स्थित इतनी सरल नहीं है और ऐसा कोई सीधा समीकरण नहीं बन सकता। सन्तों
और भक्तों के क्रान्तिकारी प्रभाव को समझने के लिए हमें स्थूल
परिस्थितियों का और भावना जगत् का विचार अलग-अलग भी करना होगा और फिर
भावना जगत की अन्त-प्रेरणाओं का विश्लेषण भी अलग से करना होगा।
नि:सन्देह ये भावना फिर आकर सामाजिक परिस्थितियों से भी जुड़ेंगी,
लेकिन अगर सही विश्लेषण हुआ होगा ते स्थितिशीलता की परिभाषा भी बदल
चुकी होगी और साहित्य के प्रभाव का वह पक्ष भी पहचान लिया गया होगा
जो पूर्वानुमेय नहीं होता।
भक्तों अथवा सन्तों की रचनाओं का सामूहिक रूप से विचार न करके
अलग-अलग विचार करें तो बात और स्पष्ट हो जाती है। बल्कि एक अकेले कवि
कबीर का ही विचार किया जाए तो परिवर्तन की समस्या पर प्रकाश डालने के
लिए काफ़ी है।
यह तो एक सर्वमान्य बात का दोहराना ही होगा कि कबीर अपने को न सन्त
मानते थे और न कवि। इससे आगे यह भी कहा जा सकता है-यद्यपि हो सकता है
यह बात वैसी सर्वसम्मत न हो-कि कबीर अपने को क्रान्तिकारी या
समाज-सुधारक के रूप में नहीं देखते थे, यद्यपि सन्त का आग्रह उनका
बराबर रहा। मोटे तौर पर यह बात सभी सन्त और भक्त कवियों के बारे में
कही जा सकती है कि वे अपने को कवि न समझते हुए केवल साधक ही मानते
थे, लेकिन कबीर के बारे में यह अपेक्षया अधिक सच है। साधक होने के
नाते और सत्याग्रही होने के नाते उनकी उक्तियों का ऐसा भी प्रभाव भले
ही रहा हो जो समाज को बदलनेवाला हो और भले ही उन्हें इस बात का बोध
भी रहा हो कि उनकी उक्तियाँ जगह-जगह समाज को चुनौती दे रही हैं, यह
कहा जा सकता है कि ऐसा उनका लक्ष्य नहीं था बल्कि यह उनके जीवन और
उनकी साखियों के आनुषंगिक परिणाम ही थे।
लेकिन हमारे लिए जो बात और भी अधिक महत्त्व की है वह यह कि सत्रहवीं
शती से लेकर बीसवीं शती तक कबीर की उक्तियों-उनकी साखियों, रमैनियों,
शब्दों और पदों को साहित्य ही नहीं माना गया था, अर्थात् हमारे
सन्दर्भ के चौखटे में आनेवाला कृति-साहितय अथवा सर्जनात्मक साहित्य।
यह सुरक्षित भी रहा था तो लोक-साधारण की वाणी में, जहाँ वह एक
सहज-शास्त्र-निर्देश का काम करता था, अथवा कबीरपन्थी का भगताही
परम्परा में जहाँ वह उसी प्रकार साम्प्रदायिक धर्मोपदेश का काम करता
था-और यह कोई नहीं कह सकता कि ये सम्प्रदाय क्रान्तिकारी सम्प्रदाय
थे अथवा समाज को बदलने की भावना से प्रेरित थे।
यह कहना भी अनुचित न होगा कि हिन्दी-भाषी समाज में कबीर की रचनाओं
को सर्जनात्मक साहित्य की कोटि में रखकर उसका विचार करने की कल्पना
ही बीसवीं शती के तीसरे दशक से पहले नहीं की गयी थी, बल्कि उसके बाद
भी कम-से-कम एक दशक तक विश्वविद्यालयी क्षेत्रों में कबीर को साहित्य
के उच्चतर अध्ययन का विषय बनाने के प्रति प्रबल विरोध का भी भाव था।
कबीर की सामाजिक प्रतिष्ठा में कहाँ तक रवीन्द्रनाथ ठाकुर द्वारा
किये गये कल्पनाशील अनुवादों का अथवा क्षितिमोहन सेन जैसे आचार्यों
द्वारा किये गये अध्ययन का योगदान था, इस पर बहस हो सकती है। लेकिन
इसमें कोई सन्देह नहीं कि कबीर का कवि अथवा साहित्यस्रष्टा के रूप
में विचार वर्तमान शती की दूसरी चौथाई से ही आरम्भ हुआ।
कबीर की रचनाएँ विचारों में हेतुवाद का और सामाजिक आचरण में पाखंड
का जोरदार खंडन करती हैं । तार्किक हेतुवाद का खंडन सनातन मूल्यों और
आस्थाओं पर बल देता है। अत: उसे किसी प्रकार की भी क्रान्तिकारिता
मानने के लिए क्रान्ति की परिभाषा को इतनी दूर तक खींचना होगा कि फिर
उसमें पुराणपन्थी प्रवृत्तियाँ भी सम्मिलित हो जाएँगी (और यहाँ यह तो
नहीं ही भूलना चाहिए कि साधु कबीर नारदीय भक्ति का अनुमोदन करते हैं;
अगर नारदीय भक्ति क्रान्तिकारी है तो स्पष्ट है कि हमारी क्रान्ति की
कल्पना आमूल बदल गयी है)। तो कबीर की क्रान्तिकारिता की चर्चा
सामाजिक आचरण में पाखंड के विरोध को लेकर ही हो सकती है। यह विरोध
पैना था, प्रबल था, प्रभावशाली भी हुआ, लेकिन इस गुण के बावजूद तीन
सौ वर्षों तक कबीर को साहित्यकार अथवा कवि की कोटि में नहीं रखा जाता
रहा। क्योंकि यह गुण काव्य गुण माना ही नहीं जाता था, यह कर्म
कवि-कर्म में शामिल नहीं किया जाता था। अब हम यह तो मान सकते हैं कि
तीन सौ वर्ष तक साहित्य की परख करनेवाला समाज अँधेरे में था या गलती
पर था, लेकिन यह मान लेने पर भी यह सवाल तो ज्यों-का-त्यों बना रहता
है कि क्या साहित्यकार चेतन अथवा नियोजित रूप से समाज को बदलने का
अभियान अपने कृति-साहित्य के द्वारा चला सकता है? और इसे जुड़ा हुआ
दूसरा प्रश्न भी ज्यों-का-त्यों बना रहता है कि अगर साहित्यकार
नियोजित ढंग से ऐसा करता भी है तो कालान्तर में होनेवाले प्रभाव वही
होते हैं जो उसने लक्ष्य के रूप में अपने सामने रखे थे? यदि प्रभाव
उनसे भिन्न होते हैं और कवि के युग में न होकर किसी दूसरे युग में
होते हैं जबकि युगीन परिस्थितियाँ ऐसी होती हैं कि ऐसे विचार
क्रियाशील हो उठते हैं जिन्हें हम एक अरसा पुरानी रचनाओं के साथ
जोड़ते हैं, यद्यपि बीच के लम्बे अन्तराल में उन रचनाओं से उन
विचारों का सम्बन्ध हमें नहीं दीखता था, अगर विचारों की क्रियाशीलता
का सम्बन्ध उनसे प्रभावित होनेवाले समाज के संवेदन से ही अधिक है,
अगर कोई समाज अपने युगीन संवेदन के कारण किन्हीं रचनाओं में कोई अर्थ
पाने लगता है जो उससे पहले की कई पीढिय़ों के समाजों को उसमें नहीं
मिला था-तो इसका श्रेय क्या हम कवि की नियोजना को दे सकते हैं? रचना
से तो उसका सम्बन्ध निर्विवाद है ही, लेकिन रचना से जो अर्थ नए युग
में हम पा सकते हैं वह अर्थ उसे हम दे रहे हैं : उसे वह अर्थ देने का
सामथ्र्य हमारे युगीन संवेदन और हमारे समूचे संस्कार का परिणाम है।
वह अर्थ हम उस रचना से पा रहे हैं, इससे रचना की वह अर्थ देने की
क्षमता और शक्तितो प्रमाणित होती है, लेकिन यह तो सिद्ध नहीं होता कि
वह रचनाकार की नियोजनाओं का परिणाम था।
कबीर तो एक उदाहरण है। साहित्य-देशी और विदेशी, हिन्दी और हिन्दीतर
साहित्य-ऐसे उदाहरणों से भरा पड़ा है जिसे हम कालजित् साहित्य कहते
हैं वह कई बार भुला ही दिया जाता है, फिर नए रूप में अवतरित होता
है। उसका अर्थ बदल चुका होता है। और यह नया अर्थ भी अन्तिम नहीं
होता। यह सम्भावना बनी रहती है कि फिर किसी परवर्ती युग में उसमें
किसी नए अर्थ का उन्मेष होगा। इस प्रक्रिया में ग्रहीता वर्ग का
योगदान भी असन्दिग्ध है, रचना की क्षमता भी असन्दिग्ध है। जो चीज़
सन्दिग्ध है वह है कवि की सचेत नियोजना। साहित्य के कारण परिवर्तन
आते हैं, संवेदन की गहराई बढ़ती है और उसे नया संस्कार मिलता है,
लेकिन यह शक्ति साहित्य की है और यह प्रमाण विचार की देश-काल मुक्त
स्वायत्ता का है। इसका श्रेय कवि की नियेाजना को नहीं दिया जा सकता,
कवि का अनुशासन करना चाहनेवाले काव्यशास्त्री अथवा आलोचक को तो और भी
नहीं। कवियों के बारे में ऐसे चुटकुले सुनने को मिलते हैं कि अपनी
रचना का अर्थ वे स्वयं नहीं जानते, लेकिन यह बात है बिलकुल सच। कुछ
ही अर्थ कवि जानते हैं या जान सकते हैं; इनसे अधिक कुछ और अर्थों का
तीव्र क्षणस्थायी बोध उन्हें उस आविष्ट अवस्था में ही हो सकता है जो
सर्जन प्रक्रिया की चरमावस्था होती है। ब्राउनिंग ने अपनी एक अत्यन्त
दुरूह रचना का अर्थ पूछे जाने पर उत्तर दिया था, ‘‘जब मैंने वह लिखी
थी तब उसका अर्थ जाननेवाले दो थे-मैं और ईश्वर; अब केवल ईश्वर ही
जानता है और वही समय-समय पर खंडार्थ विभिन्न युगों अथवा समाजों पर
प्रकट कर दिया करता है।’’ उस युग अथवा उस समाज के काव्य-रसिक अपनी
निष्ठा और साधना के बल पर उससे आगे कुछ और अर्थ का भी आविष्कार कर ले
सकते हैं। उनका इतिहासकार उनका ब्यौरा दूसरे युगों और समाजों के लिए
भी छोड़ जा सकता है। स्रष्टा को जब कवि कहा गया (और उसे कवि कहने में
रूपकार्थ, सृष्टि की उसी प्रतिभा से काम लिया गया था जो मनुष्य को
मानव पद देती है; तभी तो हम एक साथ ही स्रष्टा को ‘कवि’ भी कहते हैं
और फिर ‘नेति-नेति’ भी कहते हैं और इन दोनों बातों में हमें न केवल
विरोध नहीं दीखता बल्कि अर्थगर्भता का विस्तार दीखता है), और फिर कवि
को मनीषी के साथ-साथ परिभू और स्वयम्भू भी कह दिया गया, तो यही
पहचानकर कि अर्थवान शब्द की सम्भावनाएँ अनन्त हैं। रूपकार्थों की
सिद्धि सादृश्यों के आधार पर अर्थ-सृष्टि के जो द्वार खोल देती है
उनसे आगे सादृश्यों की पहचान की ही नहीं रचना की भी अनन्त सम्भावनाएँ
खुल जाती हैं। हाँ, उन्हें पहचानने के लिए दृष्टि चाहिए और सर्जन के
लिए प्रतिभा तो चाहिए ही। जहाँ और जिस स्तर पर हम लेखन का उपयोग समाज
में परिवर्तन लाने के लिए करते हैं-और नि:सन्देह लेखन का उपयेाग तो
सचेष्ट और नियोजित रूप से समाज में निश्चित और अभीप्सित परिवर्तन
लाने के लिए, उसे किसी विशेष दिशा में प्रेरित करने या किसी दूसरी
दिशा से विमुख करने के लिए, किया ही जा सकता है-वह स्तर सर्जन का
नहीं है। कविता की अपेक्षा उपन्यास कुछ अधिक उपयोज्य पाया जाता है;
इस बात को यों भी कह सकते हैं कि कविता की अपेक्षा उपन्यास एक अधिक
‘सामाजिक’ विधा है। और उपन्यास की अपेक्षा नाटक के बारे में यह बात
और भी अधिक सच होती है- जिसे फिर यों भी कहा जा सकता है कि नाटक
उपन्यास की अपेक्षा कहीं अधिक ‘सामाजिक’ विधा है। बल्कि नाटक का
वाचिक अंग अथवा ‘साहित्य’ तो उसका केवल एक अंग है; नाटक का विचार जब
हम एक समग्र प्रस्तुति के रूप में करते हैं तो वह एक सामाजिक विधा ही
नहीं एक सामूहिक अथवा सहयोगी रचना हो जाता है। इस विशेषता के कारण
साहित्य विधाओं में नाट्य विधा निश्चय ही सबसे अधिक उपयोज्य विधा हो
जाती है और पूर्वनियोजित सामाजिक प्रभावों के लिए उसका ही उपयोग सबसे
अधिक हुआ भी है। यों यहाँ भी हमें यह पहचानना चाहिए कि इस स्थिति में
भी मंचित नाटक के भी कुछ बुरे प्रभाव नियोजना की सीमा में बँधे रहते
हैं और अच्छे नाटक हमेशा नियोजना से परे कुछ ऐसे प्रभाव भी रखते हैं
जो अपूर्वानुमेय होते हैं। ऐसा भी हुआ है कि नाटककार ने जिस उद्देश्य
से नाटक लिखा है उससे ठीक उलटा प्रभाव डालकर नाटक स्वयं अपने रचनाकार
को भौचक्का करके छोड़ गया है। अपनी बात स्थापित करने के लिए और कुछ
चिढ़ाने के भाव से यह भी कह दिया जा सकता है कि ऐसी स्थिति में नाटक
में सर्जना उतनी ही थी जितना कि अतर्कित प्रभाव पड़ा; बाकी नियोजित
लेखन था!
नियोजित प्रभाव की अर्हता के सन्दर्भ में अधिक-से-अधिक इतना ही कहा
जा सकता है कि सब साहित्य क्योंकि सर्जना के स्तर तक नहीं पहुँचाता,
इसलिए जो उससे कमतर होता है उसे उपयोज्य बनाना चाहिए। या यह भी कहा
जा सकता है कि जिन साहित्यकारों में उतनी सर्जनात्मक प्रतिभा नहीं
है-और यह तो मानना ही होगा कि वैसी प्रतिभावाले साहित्यकार किसी भी
युग, किसी भी समय में इने-गिने ही होते हैं, बल्कि जो होते भी हैं
उनकी भी सर्जनात्मक प्रतिभा का स्तर हमेशाा एक-सा नहीं रहता-ऐसे
साहित्यकार अपनी योग्यता और दीक्षा का उपयोग ऐसा साहित्य लिखने में
कर सकते हैं जो समाज को बदलने का लक्ष्य रखता हो। यह तो मान लेना
होगा कि ऐसा लेखन कालजित् तो क्या, दीर्घजीवी भी नहीं होगा। लेकिन यह
तो तभी मान लिया जाता है जब ऐसे साहित्य के लेखक को सर्जक से उन्नीस
मान लिया जाता है।
कुछ साहित्य समाज को बदलने के काम आ सकता है, लेकिन श्रेष्ठ साहित्य
समाज को बदलता नहीं, उसे मुक्त करता है फिर भी उस मुक्ति में समाज के
लिए-और हाँ, संस्कृति के लिए, मानव मात्र के लिए-बदलाव के सब रास्ते
खुल जाते हैं।
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