रामचन्द्र शुक्ल ग्रंथावली -
6
अनुवाद
विश्वप्रपंच
पहला प्रकरण -
जिज्ञासा
उन्नीसवीं शताब्दी में अन्त में मानविज्ञान की जो अपूर्व वृद्धि हुई है वह
ध्यान देने योग्य है। इसके द्वारा हमारी सारी आधुनिक सभ्यता का रंग ही पलट
गया है। हम लोगों ने प्राकृतिक सृष्टि का बहुत कुछ वास्तविक ज्ञान प्राप्त
कर केवल सच्चे और निर्भ्रान्त सिद्धांत ही नहीं स्थिर किए हैं बल्कि अपने
ज्ञान का विलक्षण उपयोग कलाकौशल, व्यापार, व्यवसाय आदि में करके दिखाया है।
पर इस ज्ञान के द्वारा हम अपने आचार और व्यवहार में बहुत कम क्या कुछ भी
उन्नति नहीं कर सके हैं। इस प्रकार की परस्परविरुद्ध गति के कारण हमारे
जीवन में बड़ी भारी अव्यवस्था दिखाई पड़ती है जो आगे चलकर समाज के लिए
अनर्थकारिणी होगी। अत: प्रत्येक शिक्षित और सभ्य मनुष्य का कर्तव्य है कि
वह मानव जीवन से इस विरोध को दूर करने का प्रयत्न करे। यह तभी होगा जब
संसार का वास्तविक और सत्य ज्ञान होगा और उस ज्ञान के अनुसार मानवजीवन के
भिन्न भिन्न अंगों की योजना होगी।
उन्नीसवीं शताब्दी के आंरभ में विज्ञान की जो अपूर्ण दशा थी उसकी ओर ध्यान
देते हुए यही कहना होगा कि गत 50 वर्षों के बीच विज्ञान ने बड़ी विलक्षण
उन्नति की है, विज्ञान के प्रत्येक विभाग में बहुत सी नई नई बातों की
जानकारी प्राप्त हुई है। खुर्दबीन के द्वारा सूक्ष्म से सूक्ष्म वस्तुओं का
और दूरबीन के द्वारा बड़ी से बड़ी वस्तुओं का जो परिज्ञान प्राप्त हुआ है वह
आज से 100 वर्ष पहले असम्भव समझा जाता था। सूक्ष्मदर्शकयत्रों के प्रयोग और
प्राणिविज्ञान के गूढ़ अन्वेषणों द्वारा क्षुद्र कीटाणुओं के अनन्त भेदों का
ही पता नहीं चला बल्कि यह भी जाना गया कि सूक्ष्म घटक1 ही में सेन्द्रिय या
सजीव सृष्टि का वह मूल तत्व है जिसकी सामाजिक योजना से सारे प्राणियों का,
क्या चर क्या अचर, क्या उदि्भज क्या मनुष्य, शरीर बना है। शरीर विज्ञान के
द्वारा अब यह भलीभाँति सिद्ध हो गया है कि एक ही
1 दे भूमिका।
घटक से अर्थात सूक्ष्म गर्भांड से बड़े से बड़े अनेक घटक जीवों का विकास होता
है। घटक सिद्धांत के द्वारा हम अब जीवों के उन समस्त आधिभौतिक, रासायनिक और
यहाँ तक कि मानसिक व्यापारों का सच्चा रहस्य जान सकते हैं जिनके लिए पहले
एक 'अलौकिक शक्ति' या 'अमर आत्मा' की कल्पना करनी पड़ती थी। इस सिद्धांत के
द्वारा रोगों के ठीक निदान में भी चिकित्सकों को बड़ी सहायता मिली है।
इसी प्रकार निरिन्द्रिय (जड़) भौतिक सृष्टिसम्बन्धी आविष्कार भी कम ध्यान
देने योग्य नहीं है। दृष्टिविज्ञान, श्रोत्राविज्ञान, चुम्बकाकर्षण
निर्माणविज्ञान जिसके द्वारा अनेक प्रकार की कलें आदि बनती हैं,
गतिशक्तिविज्ञान इत्यादि भौतिक विज्ञान की सब शाखाओं की अद्भुत उन्नति हुई
है। सबसे बड़ी बात जो विज्ञान ने सिद्ध की है वह अखिल विश्व की शक्तियों की
एकता है। तापसम्बन्धी भौतिक सिद्धांत ने स्थिर कर दिया है कि वे समस्त
शक्तियाँ किस प्रकार एक दूसरे से सम्बद्ध हैं और किस प्रकार एक शक्ति दूसरी
शक्ति के रूप में परिवर्तित हो सकती है। किरणविश्लेषण1 विद्या ने यह बात
स्पष्ट कर, दी है कि जिन द्रव्यों से पृथ्वी पर के सारे पदार्थ बने हैं
उन्हीं द्रव्यों से ग्रह, नक्षत्रा, सूर्य आदि भी बने हैं, उनमें पृथ्वी से
परे कोई द्रव्य नहीं है। ज्योतिर्विज्ञान ने हमारी दृष्टि को ब्रह्मांड के
बीच बहुत कुछ फैला दिया है और अब हमें अगाधा अन्तरिक्ष के बीच लाखों घूमते
हुए पिंडों का पता है जो हमारी पृथ्वी से भी बड़े हैं और एक अखंड क्रम के
साथ बनते बिगड़ते चले जा रहे हैं। रसायनशास्त्र ने हमें अनेक द्रव्यों का
परिज्ञान कराया है जो सबके सब थोड़े से, लगभग 75 मूलद्रव्यों से बने हैं। ये
मूलद्रव्य इसलिए कहलाते हैं कि विश्लेषण करने पर इनमें दूसरे द्रव्य का मेल
नहीं पाया जाता। इन मूलद्रव्यों में से कोई कोई जीवन व्यापार में बड़े काम
के हैं। इनमें से कार्बन या अंगारतत्व (कोयला) ही से अनन्त प्रकार के
सेन्द्रिय पिंडों की योजना होती है। इसी से इसे 'जीवन का रासायनिक आधार'
कहते हैं। इन सबसे बढ़कर आधिभौतिक शास्त्रो के एक परम गुण का प्रतिपादन है
जिसके अन्तर्भूत समस्त भौतिक और रासायनिक गुण हैं। सृष्टि सम्बन्धी इस मूल
सिद्धांत द्वारा यह स्थिर हो चुका है कि द्रव्य और शक्ति (गति) दोनों नित्य
हैं और सम्पूर्ण ब्रह्मांड में सदा एकरस रहते हैं। यही सिद्धांत हमारे
तत्तवाद्वैतवाद का आधार है जिसके द्वारा हम सृष्टिरहस्य के उद्धाटन में
प्रवृत्त हो सकते हैं।
इस परमतत्व के प्रतिपादन के साथ ही साथ इसका पोषक एक दूसरा आविष्कार भी हुआ
जिसे विकासवाद कहते हैं। यद्यपि हजारों वर्ष पहले कुछ दार्शनिकों
1 स्पेक्ट्रास्कोप नामक यत्रों से भिन्न भिन्न प्रकार के किरणों (जैसे
सूर्य की लपट की) परीक्षा की जाती है। किरणों की छोटाई, बड़ाई और रंग से यह
जाना जा सकता है कि किस प्रकार के रासायनिक द्रव्यों से वे आ रही हैं।
ने पदार्थों के विकास की चर्चा की थी, पर यह जगत् 'परमतत्व के विकास' के
अतिरिक्त और कुछ नहीं है यह उन्नीसवीं शताब्दी में ही पूर्णरूप से स्थिर
किया गया। उक्त शताब्दी के पिछले भाग में ही यह सिद्धांत स्पष्टता और
पूर्णता को पहुँचा। इसके नियमों को प्रत्यक्ष के आधार पर स्थिर करने और
सम्पूर्ण सृष्टि में इसकी चरितार्थता दिखाने का यश डारविन को प्राप्त है।
सन् 1859 में उसने मनुष्य की उत्पत्ति के उस सिद्धांत को एक दृढ़ नींव पर
ठहराया जिसका ढाँचा कुछ कुछ फ्रांसीसी प्राणिवेत्ता 'लामार्क' ने खड़ा किया
था और जिसका आभास भविष्यवाणी के समान जर्मनी के सबसे बड़े कवि गेटे ने सन्
1799 में दिया था। आज जो हम इस विकासक्रम को तथा सृष्टि के बीच समस्त
प्राकृतिक व्यापारों को समझने में समर्थ हुए हैं वह इन्हीं तीन नररत्नों के
प्रयत्न का फल है।
प्रकृति के इस परिज्ञान के बल से हमारे जीवन के व्यवहारों में बड़ा भारी
परिवर्तन हुआ है। आज रेल, तार, टेलीफोन आदि के द्वारा हमने जो दिक्काल
सम्बन्धी बाधाओं को दूर किया है और भूमंडल के समस्त देशों के बीच व्यापार
का जाल फैला कर 'व्यापारयुग' उपस्थित किया है, यह सब भौतिक विज्ञान की
उन्नति का, विशेषत: भाप और बिजली की शक्ति के प्रयोग का, प्रसाद है। इसी
प्रकार जब फोटोग्राफी द्वारा बात की बात में हम वस्तुओं का तद्रूप चित्रा
उतरते, कृषि आदि व्यवसायों की इतनी उन्नति होते और क्लोरोफार्म, मरफिया आदि
के प्रयोग द्वारा पीड़ा को शमन होते देखते हैं तब हमें रसायन शास्त्र की
उन्नति के महत्व का ध्यान होता है। पर प्राचीन काल की अपेक्षा हमने इस
वर्तमान काल में वैज्ञानिक विषयों में कितनी उन्नति की है यह बात इतनी
प्रत्यक्ष है कि अधिक विस्तार की कोई आवश्यकता नहीं।
पर जिस प्रकार हमें आजकल के प्रकृति सम्बन्धी परिज्ञान की उन्नति को देख
गर्व और आनन्द होता है उसी प्रकार जीवन के कुछ बड़े बड़े विभागों की दशा देख
खेद और सन्ताप होता है। हमारी शासन व्यवस्था, न्याय व्यवस्था और शिक्षा
पद्धति, यहाँ तक कि हमारे सारे सामाजिक और आचारसम्बन्धी व्यवहार, अभी तक
असभ्य दशा में हैं। न्याय ही को लीजिए जिसे देखते हुए कोई यह नहीं कह सकता
कि वह हमारे सृष्टि और मनुष्य सम्बन्धी वर्तमान समुन्नत ज्ञान के उपयुक्त
है। नित्य अदालतों में ऐसे ऐसे विलक्षण फैसले होते हैं जिन्हें सुन कर
अफसोस आता है। न्यायाधीशों की भूलें अधिकतर इस कारण होती हैं कि ये अच्छी
तरह तैयार नहीं रहते। उनकी ठीक शिक्षा नहीं होती। कानून की शिक्षा ही उनकी
शिक्षा कहलाती है। पर यह शिक्षा कुछ पारिभाषिक शब्दों और कुछ लोगों के बनाए
हुए नियमों की उद्धरणी के अतिरिक्त और है क्या? न तो वे शरीरतत्व को जानते
हैं और न उसके उन व्यापारों को जिसे 'मन' कहते हैं। उन्हें यह सब जानने के
लिए समय कहाँ? उनका समय तो ईधर उधर की बातों तथा नजीरों को याद करने में
जाता है।
शासन व्यवस्था पर विशेष कहने की आवश्यकता नहीं; क्योंकि उसकी वर्तमान
शोचनीय दशा सब पर विदित है। इस दशा का मुख्य कारण यह है कि वर्तमान
शासकवर्ग के लोग उन सामाजिक सम्बन्धों से अनभिज्ञ होते हैं जिनके मूल रूपों
का पता जंतुविज्ञान, विकासवाद, घटकवाद तथा कीटाणुवाद के अध्ययन द्वारा
मिलता है। राष्ट्ररूपी समाजशरीर के संघटन और जीवन का ठीक ठीक ज्ञान हमें
तभी हो सकता है जब हम उन शक्तियों के संघटन और व्यापार का जिनसे वह बना है,
तथा उन घटकों का जिनसे कि प्रत्येक व्यक्ति बना है, वैज्ञानिक परिज्ञान
प्राप्त करें। दूसरा बुरा प्रभाव जो शासन संस्थाओं की उन्नति का बाधाक है
वह मत या मजहब का है। जब तक वैज्ञानिक शिक्षा के प्रचार द्वारा मनुष्य और
जगत् की प्राकृतिक स्थिति का परिज्ञान सर्वसाधारणा को न कराया जायेगा तब तक
शासन में उन्नति नहीं हो सकती। राष्ट्र चाहे एकतन्त्र हो चाहे लोकतन्त्र
(पंचायती), शासन व्यवस्था चाहे नियन्त्रित हो चाहे अनियन्त्रित इसकी कोई
बात नहीं।
सर्वसाधारणा की शिक्षा की ओर ध्यान देते हैं तो देखते हैं कि उसकी दशा भी
हमारे इस वैज्ञानिक उन्नति के युग के अनुकूल नहीं है। भौतिक विज्ञान, जो कि
इतने महत्व का है, यदि स्कूलों में पढ़ाया भी जाता है तो गौण रूप से। प्राय:
प्रधान स्थान उन मृतप्राय भाषाओं और पुरानी बातों की शिक्षा को दिया जाता
है जिनसे अब कोई लाभ नहीं। सारांश यह कि इस बात का जैसा चाहिए वैसा प्रयत्न
नहीं हो रहा है कि जतना से अन्धविश्वास दूर हो और लोगों को बुद्धिबल द्वारा
सुख और उन्नति का पथ प्राप्त करने का अवसर मिले। सर्वसाधारणा अभी उन्हीं
पुराने विचारों में बद्ध रक्खे गए हैं जिनकी नि:सारता भलीभाँति सिद्ध हो
चुकी है। पुराने किस्सेकहानियों और आकाशवाणियों के आगे बुद्धि का कुछ जोर
चलने नहीं पाता। क्या धर्म, क्या न्याय, सब इन पुराने बन्धनों से जकड़े हुए
हैं।
उपर्युक्त अव्यवस्था के प्रधान कारणों में से एक वह है जिसे हम 'पुरुषवाद'
कह सकते हैं। इस शब्द के अन्तर्गत वे समस्त लोकप्रचलित और प्रबल भ्रान्त मत
हैं जो मनुष्य को सम्पूर्ण प्रकृति से एक ओर करके उसे चर सृष्टि का
दैवनिश्चित परम लक्ष्य बतलाते हैं। इन विचारों के अनुसार मनुष्य सम्पूर्ण
सृष्टि से परे और ईश्वरांश है। यदि इन विचारों की अच्छी तरह परीक्षा करें
तो जान पड़ेगा कि ये तीन रूपों में संसार में पाए जाते हैं-पुरुषोत्कर्षवाद:
पुरुषाकारवाद और पुरुषार्चनवाद।
1. पुरुषोत्कर्षवाद का भाव यह है कि मनुष्य सृष्टि का दैवनिश्चित परम
लक्ष्य है, वह आदि ही से बड़ा बनाकर भेजा गया है। यह भ्रान्ति मनुष्य के
स्वार्थ के अनुकूल है और तीनों शामी पैगम्बरी मतों यहूदी, ईसाई और मुसलमान
की सृष्टिकथा से सम्बन्ध रखती है अत: इसका प्रचार भूमण्डल के बहुत बड़े भाग
में है।
2. पुरुषाकारवाद भी इन तीनों तथा और अनेक मतों से सम्बन्ध रखता है। यह जगत्
की सृष्टि और परिचालन को एक चतुर कारीगर की रचना और एक बुद्धिमान् राजा के
शासन के सदृश बतलाता है इसके अनुसार पृथ्वी को बनाने, धारणा करने और
चलानेवाला ईश्वर मनुष्य ही की तरह विचार और काम करनेवाला है। फिर तो बनी
बनाई बात है कि मनुष्य ईश्वर सदृश्य है। बाइबिल में लिखा है-'ईश्वर ने
मनुष्य को अपने ही आकार का बनाया।' प्राचीन सीधे सादे देववाद में देवता
मनुष्य ही की तरह रक्त मांस के शरीरवाले समझे जाते थे। प्राचीन देववाद तो
किसी प्रकार समझ में आ भी सकता है, पर आजकल का निराकार ईश्वरवाद विलक्षण है
जिसमें ईश्वर को एक ऐसा अगोचर या हवाई जंतु मानकर आराधना की जाती है जो
मनुष्यों की तरह विचार करता, बोलता और काम करता है।
3. पुरुषार्चनवाद भी मनुष्य और ईश्वर के व्यापारों के मिलान का फल है। यह
मनुष्य में ईश्वरत्व के गुण का आरोप करता है। इसी से आत्मा के अमरत्व का
विश्वास उत्पन्न हुआ है और मनुष्य के जड़ (शरीर) और चेतन (आत्मा) दो विभाग
किए गए हैं। अब जनसाधारणा की यह सनक है कि आत्मा इस नश्वर शरीर में थोड़े
दिनों का मेहमान है।
इन तीनों प्रचलित प्रवादों से अनेक प्रकार के भ्रम उत्पन्न हुए हैं। जगत्
को इस प्रकार मानव व्यापार की दृष्टि से देखना हमारे तत्तवाद्वैत सिद्धांत
के नितान्त विरुद्ध है और विश्वसम्बन्धी वैज्ञानिक विवेचन से सर्वथा असिद्ध
है।
इसी प्रकार द्वैतवाद, जो आत्मा और शरीर अथवा द्रव्य और शक्ति को पृथक्
मानता है तथा प्रचलित मतों (मजहबों) के और विचार भी तत्तवाद्वैतवाद की
विश्वविज्ञान दृष्टि से नि:सार ठहरते हैं। उक्त दृष्टि से यदि देखते हैं तो
हम निम्नलिखित सिध्दान्तों पर पहुँचते हैं जिनमें से अधिक की आलोचना सम्यक्
रूप से हो चुकीहै-
1. जगत् नित्य, अनादि और अनन्त है।
2. इसका परमतत्व अपने दोनों रूपों, द्रव्य और शक्ति के सहित अनन्त दिक् में
व्याप्त है और सदा गति में रहता है।
3. मूल गति का प्रवाह अनन्त काल के मध्य अखंड क्रम से चला करता है। इसमें
कहीं सृष्टि से विकृति, कहीं विकृति से सृष्टि बराबर होती रहती है।
4. दिग्व्यापी आकाश द्रव्य (ईथर) के बीच जो असंख्य पिंड फैले हैं वे सबके
सब परमतत्व के नियमों के अनुसार चलते हैं। यदि एक दिग्विभाग के कुछ घूमते
हुए पिंड क्रमश: नाश या लय की ओर जाते हैं तो दूसरे दिग्विभाग में क्रमश:
नए नए उत्पन्न होते और बनते हैं। यह क्रम सदा चलता रहता है।
5. हमारा सूर्य इन्हीं असंख्य नश्वर पिंडों में से एक है और हमारी पृथ्वी
उन और भी अल्पकाल स्थायी छोटे छोटे पिंडों में से है जो इन्हें घेरे हैं।
6. हमारी पृथ्वी को ठंढा होने में बहुत काल लगा है तब जाकर उस पर द्रव्य
रूप में जल (जीवोत्पत्ति का पहला आधार) ठहरा है।
7. एक प्रकार के मूल जीव से क्रमश: असंख्य ढाँचे के जीवों के उत्पन्न होने
में करोड़ों वर्ष का समय लगा है।
8. इस जीवोत्पत्ति परम्परा के पिछले खेवे में जितने जीव उत्पन्न हुए, रीढ़
वाले जंतु, विकास या गुणोत्कर्ष द्वारा उन सबसे बढ़ गए।
9. पीछे इन रीढ़वाले जीवों की सबसे प्रधान शाखा दूधा पिलानेवाले जीव कुछ
जलचरों और सरीसृपों से उत्पन्न हुए।
10. इन दूधा पिलानेवाले जीवों में सबसे उन्नत और पूर्णताप्राप्त किंपुरुष
शाखा है, जिसके अन्तर्गत मनुष्य, बनमानुस आदि हैं; जो लगभग 30 लाख वर्ष के
हुए होंगे कि कुछ जरायुज जंतुओं से उत्पन्न हुई।
11. इस किंपुरुष शाखा का सबसे नया और पूर्ण कल्ला मनुष्य है जो कई लाख वर्ष
हुए कुछ बनमानुसों से निकला। अस्तु।
12. जिसे हम संसार का इतिहास कहते हैं और जो कुछ हजार वर्षों की सभ्यता का
संक्षिप्त वृत्तान्त मात्र है वह इस दीर्घ परम्परा के आगे कुछ भी नहीं है।
इसी प्रकार इस दीर्घ परम्परा का इतिहास भी हमारे सौर जगत् के इतिहास का
अत्यंत क्षुद्र अंश है। इस अनन्त ब्रह्मांड के बीच हमारी पृथ्वी सूर्य की
किरण में दिखाई देनेवाले अणु के समान है और मनुष्य सजीव सृष्टि के नश्वर
प्रसार के बीच कललरस प्रोटोप्लाज्म की एक क्षुद्र कणिका मात्र है।
इस विशुद्ध और विस्तृत वैज्ञानिक दृष्टि से जब हम ब्रह्मांड को देखेंगे तब
जाकर विश्व के अनेक रहस्यों को समझने का मार्ग पायेंगे, तब जाकर हम समझेंगे
कि मनुष्य का स्थान इस सृष्टि के बीच कहाँ है। मनुष्य अहंकारवश अपने को
अखिल सृष्टि से अलग करके अपने में 'अमृत तत्व' का आरोप करता है। वह अपने को
'ईश्वरांश' और अपने क्षणिक व्यक्तित्व को 'अमर आत्मा' कहता है। यह अहंकार
और भ्रम बिना विस्तृत विज्ञानदृष्टि के दूर नहीं हो सकता।
असभ्यों को सृष्टि के अनेक व्यापार पहेली समझ पड़ते हैं। ज्यों ज्यों सभ्यता
और ज्ञान की वृद्धि होती जाती है त्यों त्यों इन पहेलियों या समस्याओं की
संख्या घटती जाती है, बहुत से व्यापार समझ में आने लगते हैं। अब
तत्तवाद्वैतवाद में केवल एक ही भारी पहेली रह गई है, एक ही 'परमतत्व' की
समस्या रह गई है। जर्मनी के एक वक्ता ने थोड़े दिन हुए संसार सम्बन्धी ये
सात समस्याएँ गिनाई थीं-
1. द्रव्य और शक्ति का वास्तविक तत्व।
2. गति का मूल कारण।
3. जीवन का मूल कारण।
4. सृष्टि का इस कौशल के साथ क्रम विधान ।
5. संवेदना और चेतना का मूल कारण।
6. विचार और उससे सम्बद्ध वाणी की शक्ति।
7. इच्छा का स्वातन्त्रय।
इनमें से पहली, दूसरी और पाँचवीं तो उस वक्ता की समझ में नितान्त अज्ञेय और
भूतादि से परे हैं। तीसरी, चौथी और छठीं का समाधान हो सकता है पर अत्यंत
कठिन है। सातवीं के विषय में वह अपना कोई निश्चय नहीं बतला सका।
मेरी सम्मति में जो तीन समस्याएँ भूतों से परे कही गई हैं उनका समाधान
हमारे परमतत्व विषयक विवेचना से हो जाता है1 और जो तीन अत्यंत कठिन बतलाई
गई हैं उनका ठीक ठीक उत्तर आधुनिक विकासवाद से मिल जाता है। अब रही सातवीं,
इच्छा की स्वतन्त्रता। उसके विषय में विचार करना ही व्यर्थ है क्योंकि वह
शुद्ध भ्रम और मिथ्या प्रवाद मात्र है।
इन समस्याओं के समाधान के लिए हमने उसी प्रणाली का अनुसरण किया है जिससे और
सब वैज्ञानिक अन्वेषण किए जाते हैं-प्रथम तो प्रत्यक्षनुभव, फिर अनुमान।
वैज्ञानिक अनुभव हमें साक्षात्कार और परीक्षा द्वारा प्राप्त होता है
जिसमें पहले तो इन्द्रियों के व्यापार से सहायता ली जाती है फिर मस्तिष्क
में स्थित अन्त:करण के व्यापार से। पहले के आधारभूत सूक्ष्मकरण इन्द्रिय
घटक हैं और दूसरे के मस्तिष्क ग्रन्थिघटक। वाह्य जगत् के जो अनुभव हम इन
करणों द्वारा प्राप्त करते हैं उनसे मस्तिष्क के दूसरे भाग में भाव बनते
हैं जो अनुबन्धा द्वारा मिलकर शृंखला की योजना करते हैं। इस विचारशृंखला की
योजना दो प्रकार से होती है-व्याप्तिग्रह अर्थात यह अनुमान कि जो बात किसी
वर्ग की कुछ वस्तुओं के विषय में ठीक है वही उसके अन्तर्गत सब वस्तुओं के
विषय में भी ठीक है, और व्यष्टिग्रह अर्थात यह अनुमान कि जो बात किसी समूह
के विषय में ठीक है वही उसके अन्तर्गत किसी एक वस्तु के विषय में भी ठीक
है, के रूप में। चेतना, विचार और तर्क आदि सब मस्तिष्क में स्थित
ग्रन्थिघटकों के व्यापार हैं। इन सब व्यापारों का अन्तर्भाव 'बुद्धि' शब्द
में हो जाता है।
बुद्धि ही के द्वारा हम संसार का यथार्थ ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं और उसकी
समस्याओं को समझ सकते हैं। बुद्धि मनुष्य की बड़ी भारी सम्पत्ति है, मनुष्य
और पशु में बुद्धि ही का भेद है। पर मानवबुद्धि इस पद को शिक्षा और संस्कार
की उन्नति तथा ज्ञान की वृद्धि द्वारा पहुँची है। इस पर भी कुछ लोगों का
ख्याल है कि इस बुद्धि के अतिरिक्त ज्ञान के दो साधान और भी हैं-मनोद्गार
और ईश्वराभास (इलहाम)। जहाँ तक शीघ्र हो सके हमें इस भारी भ्रम को दूर कर
देना चाहिए। मनोद्गार अन्त:करण की वह क्रिया है जिसके अन्तर्गत इच्छा,
द्वेष, प्रवृत्ति, श्रध्दा, घृणा आदि हैं। मनोद्गार हमारे भिन्न भिन्न
अवयवों के व्यापारों, जैसे पेट में लगी भूख
1 दे प्रकरण 12वाँ।
तथा इन्द्रियों की वासनाओं, जैसे प्रसंग की वासना आदि से प्रेरित हो सकते
हैं। उनसे भला सत्य के निर्णय में क्या सहायता मिल सकती है? हाँ! बाधा
अलबत्ता पहुँच सकती है। यही बात ईश्वराभास (इलहाम) वा 'ईश्वरप्रेरित ज्ञान'
के विषय में भी कही जा सकती है जो धोखे के सिवाय और कुछ नहीं, चाहे धोखा
जानबूझकर दिया गया हो चाहे लोगों ने यों ही खाया हो।
जगत् सम्बन्धी प्रश्नों के हल करने के लिए अनुभव और चिन्तन ये दो ही मार्ग
हैं। हर्ष का विषय है कि ये दोनों अब समान रूप से स्वीकृत हो चले हैं।
दार्शनिक, चिन्तन करनेवाले अब समझने लगे हैं कि कोरे चिन्तन से जैसा कि
प्लेटो और हैगल ने1 अपने भावात्मक दर्शनों में किया है सत्य का ज्ञान नहीं
हो सकता। इसी प्रकार वैज्ञानिक भी अब यह जान गए हैं कि केवल प्रत्यक्षनुभव,
जिसके आधार पर बेकन और मिल ने अपना प्रत्यक्षवाद स्थापित किया था, पूर्ण
तत्वज्ञान के लिए काफी नहीं है। सत्यज्ञान की प्राप्ति इन्द्रिय और
अन्त:करण दोनों की क्रियाओं के योग से हो सकती है। पर अभी कुछ ऐसे दार्शनिक
भी हैं जो यों की बैठे बैठे अपने भावमय जगत् की रचना किया करते हैं और
अनुभवात्मक विज्ञान का इसलिए तिरस्कार करते हैं कि उन्हें संसार का यथार्थ
बोध नहीं होता। इसी प्रकार कुछ वैज्ञानिक ऐसे भी हैं जो कहते हैं कि
विज्ञान का परम लक्ष्य भिन्न भिन्न व्यापारों का अन्वेषण मात्र है, दर्शन
का जमाना अब गया इस प्रकार के एकांगदर्शी विचार परम भ्रमात्मक हैं।
प्रत्यक्षनुभव और चिन्तन-ज्ञानप्राप्ति की ये दोनों प्रणालियाँ
अन्योन्याश्रित हैं - एक दूसरे की सहायक हैं। विज्ञान के सबसे पहुँचे हुए
आविष्कार, जैसे घटक सिद्धांत, ताप का गत्यात्मक सिद्धांत, विकासवाद,
परमतत्व की नियम व्यवस्था, दार्शनिक विचार के फल हैं। पर वे कोरे अनुमान के
फल नहीं, अत्यंत विस्तृत, प्रत्यक्षाश्रित अनुमान के फल हैं। जैसा कि ऊपर
कहा जा चुका है अब स्थिति बहुत कुछ बदल गई है। अब दार्शनिक और वैज्ञानिक
दोनों दल के लोग एक दूसरे की सहायता करते हुए दो भिन्न भिन्न मार्गों से एक
ही प्रधान लक्ष्य की ओर जा रहे हैं।
आधुनिक विज्ञान की दृष्टि से दार्शनिकों के परस्पर दो विरुद्ध दल दिखाई
पड़ते हैं। एक तो द्वैतवादियों का, दूसरा अद्वैतवादियों का। द्वैतवाद
ब्रह्मांड को दो भिन्न भिन्न तत्वों में विभक्त करता है - एक भौतिक जगत् और
दूसरा उसको बनाने,धारणा करने और चलाने वाला ईश्वर जो समस्त भूतों से परे
है। अद्वैतवाद ब्रह्मांड में केवल एक परमतत्व मानता है जो ईश्वर और प्रकृति
दोनों है। वह शरीर और आत्मा या द्रव्य और शक्ति को परस्पर अभिन्न या
अनवच्छेद्य मानता है। द्वैतवाद के भूतातीत ईश्वर को माननेवाले दैववादी और
जगत् और ईश्वर को ओतप्रोत भाव से मानने वाले ब्रह्मवादी या सर्वात्मवादी
कहलाते हैं।
1 भारत के दार्शनिकों ने भी इसी प्रणाली का अनुसरण किया था।
उपर्युक्त अद्वैतवाद और भूतवाद को एक मानकर प्राय: लोग गड़बड़ करते हैं। इस
गड़बड़ से अनेक प्रकार के भ्रम उत्पन्न हो सकते हैं। अत: यहाँ पर दो बातें
संक्षेप में बतला देना आवश्यक है-
1. शुद्ध अद्वैतवाद न तो वह भूतवाद है जो आत्मा का अस्तित्व अस्वीकार करता
और जगत् को जड़ परमाणुओं का ढेर बतलाता है, और न वह अध्यात्मवाद है जो भूतों
का अस्तित्व नहीं मानता और जगत् को अभौतिक शक्तियों के विधान का समाहार
मात्र बतलाता है।
2. हमारा सिद्धांत तो यह है कि न तो द्रव्य की स्थिति और क्रिया आत्मा या
शक्ति के बिना हो सकती है और न आत्मा की द्रव्य के बिना। द्रव्य या
अनन्तव्यापी तत्व और आत्मा शक्ति या संविद चेतन तत्व, दोनों उस विभु परम
तत्व के दो मूल रूप या गुण हैं।
दूसरा प्रकरण -
हमारा शरीर
जीवों के समस्त व्यापारों और धर्मों के अन्वेषण के लिए हमें पहले शरीर को
लेना चाहिए जिसमें जीवनसम्बन्धी भिन्न भिन्न क्रियाएँ देखी जाती हैं। शरीर
के केवल बाहरी भागों की परीक्षा से हमारा काम नहीं चल सकता। हमें अपनी
दृष्टि भीतर धाँसाकर शरीररचना के साधारणा विधानों तथा सूक्ष्म ब्योरों की
जाँच करनी चाहिए। जो विद्या इस प्रकार का मूल अन्वेषण करती है उसे
अंगविच्छेदशास्त्र1 कहते हैं।
मनुष्य के शरीर की जाँच का काम पहले पहल चिकित्सा में पड़ा, अत: तीन चार
हजार वर्ष पहले के प्राचीन चिकित्सकों को मनुष्य के शरीर के विषय में कुछ न
कुछ जानकारी हो गई थी। पर ये प्राचीन शरीरविज्ञानी अपना ज्ञान मनुष्य के
शरीर की चीरफाड़ द्वारा नहीं प्राप्त करते थे; क्योंकि तत्कालीन व्यवस्था के
अनुसार मनुष्य का शरीर चीरना फाड़ना बड़ा भारी अपराध गिना जाता था। बन्दर आदि
मनुष्य से मिलते जुलते जीवों के शरीर की चीड़फाड़ द्वारा ही वे शरीर
सम्बन्धिनी बातों का पता लगाते थे। सन् 1543 में विसेलियस ने मनुष्य शरीर
रचना पर एक बड़ी पुस्तक लिखी और शरीर विज्ञान की नींव डाली। स्पेन में उस पर
जादूगर होने का अपराध लगाया गया और उसे प्राणदंड की आज्ञा मिली। अपना प्राण
बचाने के लिए वह ईसा की जन्मभूमि यरूशलम तीर्थ करने चला गया; वहाँ से वह
फिर न लौटा।
उन्नीसवीं शताब्दी में यह विशेषता हुई कि शरीर की बनावट की छानबीन के लिए
दो प्रकार की परीक्षाएँ स्थापित हुईं। तारतम्यिक अंगविच्छेद विज्ञान2 और
शरीराणु विज्ञान। तारतम्यिक अंगविच्छेद विज्ञान की स्थापना सन् 1803 में
हुई जब कि फ्रासीसी जंतुविद् क्यूवियर ने अपना वृहद् ग्रंथप्रकाशित करके
पहले पहल मनुष्य
1 वह विद्या जिससे शरीर के भिन्न भिन्न भीतरी अवयवों के स्थान और उनकी
बनावट का बोध होता है। इसमें चीरफाड़ कर अंगों की परीक्षा की जाती है इससे
इसे अंगविच्छेदशास्त्र कहते हैं।
2 भिन्न भिन्न जंतुओं के अंगों को चीरफाड़ कर उनकी परीक्षा और उनका परस्पर
मिलान।
और पशुशरीर सम्बन्धी कुछ सामान्य नियम स्थिर किए। उसने समस्त जीवों को चार
प्रधान भागों में विभक्त किया- मेरुदंड या रीढ़वाले जीव, कीटवर्ग मकड़ी,
केकड़े, बिच्छू, गुबरैले आदि शुक्तिवर्ग - घोंघे आदि और उदि्भदाकार कृमि1।
यह बड़ा भारी काम हुआ क्योंकि इससे मनुष्य रीढ़वाले जीवों की कोटि में रखा
गया। इसके उपरान्त अनेक शरीर विज्ञानियों ने इस विद्या में बहुत उन्नति की
और अनेक नई नई बातों का पता लगाया। जर्मनी के कार्ल जिजिनबावर ने तारतम्यिक
शरीरविज्ञान पर डारविन के विकासवाद के नियमों को घटाकर इस शास्त्र की
मर्यादा बहुत बढ़ा दी। उसके पिछले ग्रंथ'मेरुदंड जीवों की तारतम्यिक
अंगविच्छेद परीक्षा' के आधार पर ही मनुष्य में मेरुदंड जीवों के सब लक्षण
निर्धारित किए गए।
शरीराणु विज्ञान का प्रादुर्भाव एक दूसरी ही रीति से हुआ। सन् 1802 में एक
फ्रांसीसी वैज्ञानिक ने मनुष्य के अवयवों के सूक्ष्म विधान का खुर्दबीन
द्वारा विश्लेषण करने का प्रयत्न किया। उसने शरीर के सूक्ष्म तन्तुओं के
सम्बन्ध को देखना चाहाँ पर उसे कुछ सफलता न हुई क्योंकि वह समस्त जंतुओं के
उस एक समवाय कारण से अनभिज्ञ था जिसका पता पीछे से चला। सन् 1838 में
श्लेडेन ने उदि्भद् सृष्टि में समवाय रूप घटक का पता पाया जो पीछे से
जंतुओं में भी देखा गया। इस प्रकार घटकवाद की स्थापना हुई। सन् 1860 में
कालिकर और विरशो ने घटक तथा तन्तुजाल सम्बन्धी सिध्दान्तों को मनुष्य के एक
एक अवयव पर घटाया। इससे यह भलीभाँति सिद्ध हो गया कि मनुष्य तथा और सब
जीवों का शरीरतन्तुजाल अत्यंत सूक्ष्म; खुर्दबीन से भी जल्दी न दिखाई
देनेवाले घटकों से बना है। ये ही घटक वे स्वत: क्रियमाण जीव हैं जो करोड़ों
की संख्या में व्यवस्थापूर्वक बस कर शरीररूपी विशाल राज्य की योजना करते
हैं। इन्हीं की बस्ती या समवाय को शरीर कहते हैं। ये सब के सब घटक एक
साधारणा घटक से जिसे गर्भांड कहते हैं, उत्तरोत्तर विभागक्रम द्वारा
उत्पन्न होते हैं। मनुष्य तथा और दूसरे रीढ़वाले जीवों की शरीररचना और योजना
एक ही प्रकार की होती है। इन्हीं में स्तन्य या दूधा पिलानेवाले जीव हैं
जिनकी उत्पत्ति पीछे हुई है और जो अपनी उन विशेषताओं के कारण जो पीछे से
उत्पन्न हुईं, सबसे उन्नत और बड़े चढ़े हैं।
कालिकर के सूक्ष्मदर्शक यत्रों के अन्वेषण द्वारा हमारा मनुष्य और पशुशरीर
सम्बन्धी ज्ञान बहुत बढ़ गया और हमें घटकों और तन्तुओं के विकास क्रम का
बहुत कुछ पता चल गया। इस प्रकार सिबोल्ड (1845) के उस सिद्धांत की पुष्टि
हो गई कि सबसे निम्न श्रेणी के कीटाणु एक घटक अर्थात जिनका शरीर एक घटक
मात्र है; जीव हैं।
1 बहुत से ऐसे जीव होते हैं जो देखने में पौधों की डाल, पत्तियों के रूप
में होते हैं। मूँगा इसी प्रकार का कृमि है जो समुद्र में पाया जाता है।
हमारा शरीर, उसके ढाँचे का सारा ब्योरा, यदि देखा जाय तो उसमें रीढ़वाले
जीवों के सब लक्षण पाए जायँगे। जीवों के इस उन्नत वर्ग का निर्धारण पहले
पहले लामार्क ने 1801 में किया। इसके अन्तर्गत उसने रीढ़वाले जीवों को चार
बड़े कुलों में बाँटा-दूधा पिलानेवाले, पक्षी, जलस्थलचारी1 और मत्स्य। बिना
रीढ़वाले कीड़े मकोड़ों के उसने दो विभाग किए। इसमें कोई सन्देह नहीं कि सारे
रीढ़वाले जीव हर एक बात में परस्पर मिलते जुलते हैं। सबके शरीर के भीतर एक
कड़ा ढाँचा अर्थात तरुणास्थियों और हड्डीयों का पंजर होता है। इस पंजर में
मेरुदंड और कपाल प्रधान हैं। यद्यपि कपाल की उन्नत रचना में छोटे से बड़े
जीवों में उत्तरोत्तर कुछ भेद दिखाई पड़ता है पर ढाँचा एक ही सा रहता है।
समस्त रीढ़वाले प्राण्श्निायों में 'अन्त:करण' अर्थात संवेदनवाहक सूत्राजाल
का केन्द्रस्वरूप मस्तिष्क इस मेरुदंड के छोर पर होता है। यद्यपि उन्नति की
श्रेणी के अनुसार भिन्न भिन्न जीवों के मस्तिष्क में बहुत कुछ विभिन्नताएँ
दिखाई पड़ती हैं पर सामान्य लक्षण सबमें वही रहता है।
इसी प्रकार यदि हम अपने शरीर के और अवयवों का दूसरे रीढ़वाले जीवों के
उन्हीं अवयवों से मिलान करें तो भी यही बात देखी जायेगी। पितृपरम्परा के
कारण सबके शरीर का मूल ढाँचा और उसके अवयवों के विभाग समान पाए जाते हैं,
यद्यपि स्थिति भेद के अनुसार भिन्न भिन्न जंतुओं के विशेष विशेष अंगों की
बड़ाई छोटाई तथा बनावट में फर्क देखा जाता है। सबमें रक्त दो प्रधान नलों से
होकर बहता है जिनमें से एक अतड़ियों के ऊपर ऊपर जाता है और दूसरा नीचे नीचे।
यही दूसरा नल जिस स्थान पर चौड़ा हो जाता है वही हृदय है। हृदय रीढ़वाले
जीवों में पेट की ओर होता है और कीटपतंग आदि में पीठ की ओर। इसी प्रकार ओर
अंगों की बनावट भी सब रीढ़वाले जीवों की सी होती है। अस्तु मनुष्य एक
रीढ़वाला जीव है।
प्राचीन लोग मनुष्य और पक्षियों के अतिरिक्त तिर्यक् पशुओं, गाय, कुत्तो
आदि को चतुष्पद कहते थे। क्यूवियर ने पहले पहल यह स्थिर किया कि द्विपाद
मनुष्य और पक्षी भी वास्तव में चतुष्पद ही हैं। उसने अच्छी तरह दिखलाया कि
मेंढक से लेकर मनुष्य तक मस्तक स्थलचारी उन्नत रीढ़वाले जीवों के चार पैरों
की रचना एक ही नमूने पर कुछ विशेष अवयवों से हुई है। मनुष्य के हाथों और
चमगादर के डैनों की ठटरी का ढाँचा वैसा ही होता है जैसा कि चौपायों के अगले
पैर का। यदि हम किसी मेंढक की ठटरी लेकर मनुष्य या बन्दर की ठटरी से
मिलावें तो इस बात का ठीक ठीक निश्चय हो सकता है। सन् 1864 में जिजिनबावर
ने यह दिखलाया कि किस प्रकार स्थलचारी मनुष्यों का पाँच उँगलियोंवाला पैर
आदि में प्राचीन मछलियों
1 इन जीवों को पानी में साँस लेने के लिए गलफड़े (जैसे मछलियों के) और बाहर
साँस लेने के लिए फेफड़े दोनों होते हैं। इससे वे जल में भी और स्थल पर भी
रह सकते हैं।
के ईधर उधर निकले हुए परों ही से क्रमश: उत्पन्न हुआ है। अस्तु मनुष्य एक
चतुष्पद जीव है।
रीढ़वाले जानवरों में दूधा पिलानेवाले सबसे उन्नत और पीछे के हैं। पक्षियों
और सरीसृपों के समान निकले तो ये भी प्राचीन जलस्थलचारी जंतुओं ही से हैं
पर इनके अवयवों में बहुत सी विशेषताएँ हैं। बाहर इनके शरीर पर रोएँदार चमड़ा
होता है। इनमें दो प्रकार की चर्मग्रन्थियाँ होती हैं - एक स्वेदग्रन्थि
दूसरी मेदग्रन्थि। उदराशय के चर्म में एक विशेष स्थान पर इन ग्रन्थियों की
वृद्धि से उस अवयव की उत्पत्ति होती है जिसे स्तन कहते हैं और जिसके कारण
इस वर्ग के प्राणी स्तन्य कहलाते हैं। दूधा पिलाने का यह अवयव
दुग्धाग्रन्थियों और स्तनकोश से बना होता है। वृद्धि प्राप्त होने पर चूचुक
(ढिपनी) निकलते हैं जिनसे बच्चा दूध खींचता है। भीतरी रचना में एक अन्तरपट
मांस की झिल्ली और नसों का बना हुआ परदा, की विशेषता होती है जो उदराशय को
वक्षाशय से जुदा करता है। दूसरे रीढ़वाले जानवरों में यह परदा नहीं होता, यह
केवल दूधा पिलानेवालों में होता है। इसी प्रकार मस्तिष्क, ज्ञाणेन्द्रिय,
फुप्फुस, वाह्य और आभ्यन्तर जननेन्द्रिय आदि की बनावट में भी बहुत सी
विशेषताएँ दूधा पिलानेवाले जीवों में होती हैं। इन सब पर ध्यान देने से यह
पता चलता है कि दूधा पिलानेवाले जीव सरीसृपों और जलस्थलचारी जीवों से
उत्पन्न हुए। यह बात कम से कम 12000000 वर्ष पहले हुई होगी। अस्तु, मनुष्य
एक दूधा पिलानेवाला स्तन्य जीव है।
आधुनिक जंतु विज्ञान में स्तन्य जीवों के भी तीन भेद किए गए
हैं-अंडजस्तन्य1 अजरायुज पिंडज (थैलीवाले)2 और जरायुज। ये तीनों सृष्टि के
भिन्न भिन्न युगों में क्रमश: उत्पन्न हुए हैं। मनुष्य जरायुज जीवों के
अन्तर्गत है क्योंकि उसमें वे सब विशेषताएँ हैं जो जरायुजों में होती हैं।
पहली वस्तु तो वह है जिसे जरायु3 कहतेहैं और जिसके कारण जरायुज नाम पड़ा है।
इसके द्वारा गर्भ के भीतर शिशु का बहुत
1 इस वर्ग के जीवों में एक ही कोठा होता है जिसमें मलवाहक, मूत्रावाहक और
वीर्यवाहक नल गिरते हैं। मादा चिड़ियों की तरह अंडे भी देती है और स्तन्य
जीवों की तरह दूधा भी पिलाती है। इस प्रकार के दो एक जानवर आस्ट्रेलिया में
पाए जाते हैं। एक बत्ताखघूस होती है जिसका सब आकार घूस की तरह होता है पर
मुँह बत्ताख की चोंच की तरह का और पंजे बत्ताख के पंजों की तरह के होते
हैं। इसी प्रकार की एक साही भी होती है। ये पक्षियों और स्तन्य जीवों के
बीच के जंतु हैं।
2 इस वर्ग के जीव भी आस्ट्रेलिया तथा उसके आसपास के द्वीपों में पाए जाते
हैं। इनके गर्भ में जरायु नहीं होता जिससे गर्भ के भीतर बच्चों का पोषण
होता है, अत: बच्चे अच्छी तरह बनने के पहले ही उत्पन्न हो जाते हैं और मादा
उन्हें बहुत दिनों तक पेट के पास बनी थैली में लिये फिरती है। कँगारू नाम
का जंतु इसी वर्ग का है।
3 जरायु के द्वारा ही भ्रूण माता के गर्भाशय से संयुक्त रहता है। यह गोल
चक्र या तश्तरी के आकार का और स्पंज की तरह छिद्रमय होता है। मुख की ओर तो
यह माता के गर्भाशय की दीवार से जुड़ा
दिनों तक पोषण होता है। यह गर्भ को आवृत करने वाली झिल्ली से नल के रूप में
निकल कर माता के गर्भाशय की दीवार से संयुक्त रहता है। इसकी बनावट इस
प्रकार की होती है कि माता के रक्त का पोषण द्रव्य शिशु के रक्त में जाकर
मिलता रहता है। गर्भपोषण की इस विलक्षण युक्ति के बल से शिशु को गर्भ के
भीतर बहुत दिनों तक रहकर वृद्धि प्राप्त करने का अवसर मिलता है। यह बात
बिना जरायु के गर्भ में नहीं पाई जाती। इसके अतिरिक्त मस्तिष्क की उन्नत
रचना आदि के कारण भी जरायुज जीव अपने पूर्वज अजरायुज जीवों की अपेक्षा बढ़े
चढ़े होते हैं। अस्तु, मनुष्य एक जरायुज जीव है।
जरायुज जीव भी अनेक शाखाओं में विभक्त किए गए हैं जिनमें से चार प्रधान
हैं-छेद्यदन्त (कुतरनेवाले1), खुरपाद2, मांसभक्षी3 और किंपुरुष। इसी
किंपुरुष शाखा के अन्तर्गत बन्दर, बनमानुस और मनुष्य हैं। इन तीनों में
दूसरे जरायुज जीवों से बहुत सी विशेषताएँ समानरूप से पाई जाती हैं। तीनों
के शरीर में लम्बी लम्बी हड्डियां होती हैं जो इनके शाखाचारी जीवन के
अनुकूल हैं। इनके हाथों और पैरों में पाँच पाँच उँगलियाँ होती हैं। लम्बी
लम्बी उँगलियाँ पेड़ों की शाखाओं को पकड़ने के उपयुक्त होती हैं। नख चौड़े
होते हैं, टेढ़े नुकीले नहीं। तीनों की दन्तावली पूर्ण होती है अर्थात
इन्हें चारों प्रकार के दाँत होते हैं - छेदनदन्त, कुकुरदन्त, अग्रदन्त और
चर्वणदन्त (चौभर)। किंपुरुष शाखा के प्राणियों के कपाल और मस्तिष्क की रचना
में भी विशेषता होती है। उन प्राणियों में जो काल पाकर अधिक उन्नत हो गए
हैं और जिनका प्रादुर्भाव इस पृथ्वी पर पीछे हुआ है विशेषता अधिक होती गई
है। सारांश यह कि मनुष्य शरीर में भी किंपुरुष शाखा के सब लक्षणा विद्यमान
हैं। अस्तु, मनुष्य किंपुरुष शाखा का एक जीव है।
ध्यानपूर्वक देखने से इस किंपुरुष शाखा के भी दो भेद हो जाते हैं-एक बन्दर
दूसरे पूरे बनमानुस। बन्दर निम्न श्रेणी के और पहले के हैं, बनमानुस अधिक
उन्नत और पीछे के हैं। बन्दर माता का गर्भाशय और दूसरे स्तन्य जीवों की तरह
दोहरा होता है। इसके विरुद्ध पूरे बनमानुस के दाहिने और बाएँ दोनों गर्भाशय
मिले होते हैं और इस मिले हुए गर्भाशय का आकार वैसा ही होता है जैसा मनुष्य
के गर्भाशय का। नर कपाल के समान बनमानुस के कपाल में भी नेत्रों के गोलक
कनपटी के गङ्ढों से हवी के एक परदे के द्वारा विच्छिन्न होते हैं। पर
साधारणा बन्दरों में या तो यह परदा
रहता है, पृष्ठ की ओर इसमें एक लम्बा नाल निकल कर भ्रूण की नाभि तक गया
रहता है। जरायुचक्र में बहुत से सूक्ष्म घट या उभरे हुए छिद्र रहते हैं जो
गर्भाशय की दीवार के छिद्रों में घुसे होते हैं। इसी के द्वारा भ्रूण के
शरीर में रक्त संचार, पोषक द्रव्यों का समावेश और श्वास विधान होता है।
जरायु या उल्वनाल केवल पिंडजों अर्थात सजीव डिम्भ प्रसव करनेवाले जीवों में
ही होता है, अंडजों आदि में नहीं।
1 चूहे, गिलहरी, खरगोश आदि। 2 गाय, बकरी, हिरन आदि। 3 भेड़िया, बाघ इत्यादि।
बिलकुल नहीं होता अथवा अपूर्ण रूप में होता है। इसके अतिरिक्त बन्दर का
मस्तिष्क या तो बिलकुल समतल होता है अथवा बहुत थोड़ा खुरदुरा या ऊँचा नीचा
होता है और कुछ छोटा भी होता है। बनमानुस का मस्तिष्क बड़ा, उसके तल की रचना
अधिक जटिल होती है। जितना ही जो बनमानुस मनुष्य के अधिक निकट तक पहुँचा हुआ
होता है उसके मस्तिष्क के तल में उतने ही अधिक उभार, अखरोट की गिरी के समान
होते हैं। अस्तु, मनुष्य में बनमानुस के सब लक्षण पाए जाते हैं।
बनमानुसों के दो विलक्षण विभाग देश के अनुसार किए गए हैं। पश्चिमी गोलार्ध
या अमेरिका के बनमानुस चिपटी नाकवाले कहलाते हैं और पूर्वीयगोलार्ध या
पुरानी दुनिया के पतली नाकवाले। चिपटी नाकवाले बनमानुसों का वंश ईधर के
पतली नाकवाले बनमानुसों से बिलकुल अलग चला है। वे पुरानी दुनियाँ (एशिया,
अफ्रिका) के बनमानुसों की अपेक्षा अनुन्नत हैं। अत: मनुष्य एशिया और
अफ्रिका के पतली नाकवाले बनमानुसों ही की किसी अप्राप्य श्रेणी से उद्भूत
हुए हैं।
एशिया और अफ्रिका में अब तक पाए जानेवाले पतली नाकवाले बनमानुसों के भी दो
भेद हैं, पूँछवाले बनमानुस और बिना पूँछवाले नराकार बनमानुस। बिना पूँछवाले
मनुष्य जाति से अधिक समानता रखते हैं। नराकार बनमानुसों के पुट्ठे की रीढ़
पाँच कशेरुकाओं के मेल से बनी होती है और पूँछवाले बनमानुसों की तीन
कशेरुकाओं के मेल से। दोनों के दाँतों की बनावट में भी अन्तर होता है। सबसे
बढ़कर बात तो यह है कि यदि हम गर्भाशय की झिल्ली तथा जरायुज आदि की बनावट की
ओर ध्यान देते हैं तो नराकार बनमानुस में भी वे ही विशेषताएँ पाई जाती हैं
जो मनुष्य में। एशियाखंड के ओरंगओटंग और गिबन तथा अफ्रिका के गोरिल्ला और
चिंपाजी नामक बनमानुस मनुष्य से सबसे अधिक समानता रखते हैं। अस्तु, मनुष्य
और बनमानुस का निकट सम्बन्ध अब अच्छी तरह सिद्ध हो गया है।
इस बात के प्रमाण में अब कोई सन्देह नहीं रह गया है कि मनुष्य और बनमानुस
के शरीर का ढाँचा एक ही है। दोनों की ठटरियों में वे ही 200 हड्डियां समान
क्रम से बैठाई हैं, दोनों में उन्हीं 300 पेशियों की क्रिया से गति उत्पन्न
होती है, दोनों की त्वचा पर रोएँ होते हैं, दोनों के मस्तिष्क उन्हीं
संवेदनात्मक तन्तुग्रन्थियों के योग से बने हुए होते हैं, वही चार कोठों का
हृदय दोनों में रक्तसंचार का स्पन्दन उत्पन्न करता है, दोनों के मुँह में
32 दाँत उसी क्रम से होते हैं, दोनों में पाचन ष्ठीवन ग्रन्थि1,
यकृद्ग्रन्थि और क्लोमग्रन्थि2 की क्रिया से होता है, उन्हीं जननेन्द्रिय
से दोनों के वंश की वृद्धि होती है। यह ठीक है कि डीलडौल तथा अवयवों
1 अत्यंत सूक्ष्म छोटे छोटे दाने जिनसे थूँक निकलता है।
2 आमाशय की त्वचा पर के सूक्ष्म दाने जिनसे पित्ता के समान एक प्रकार का
अम्ल रस निकलता है जो भोजन के साथ मिल कर उसे पचाता है।
की छोटाई बड़ाई में दोनों में कुछ भेद देखा जाता है पर इस प्रकार का भेद तो
मनुष्यों की ही समुन्नत और बर्बर जातियों के बीच परस्पर देखा जाता है, यहाँ
तक कि एक ही जाति के मनुष्यों में भी कुछ न कुछ भेद होता है। कोई दो मनुष्य
ऐसे नहीं मिल सकते जिनके ओंठ, आँख, नाक, कान आदि बराबर और एक से हों। और
जाने दीजिए दो भाइयों की आकृति में इतना भेद होता है कि जल्दी विश्वास नहीं
होता कि वे एक ही माता पिता से उत्पन्न हैं। पर इन व्यक्तिगत भेदों से रचना
के मूल सादृश्य के विषय में कोई व्याघात नहीं होता।
तीसरा प्रकरण -हमारा जीवन
उन्नीसवीं शताब्दी में ही मनुष्यजीवन सम्बन्धी ज्ञान को वैज्ञानिक रूप
प्राप्त हुआ है। सजीव व्यापारों का अन्वेषण करनेवाली विद्या को शरीर
व्यापारविज्ञान1 कहते हैं। यह विद्या आजकल अत्यंत उन्नत अवस्था को पहुँच गई
है। प्राचीन काल में ही लोगों का ध्यान सजीव व्यापारों की ओर गया था। वे
जीवों का इच्छानुसार हिलना डोलना, हृदय का धड़कना, साँस खींचना, बोलना आदि
देखकर इन व्यापारों का कारण जानना चाहते थे। अत्यंत प्राचीन काल में तो
सजीव पदार्थों के हिलने में और निर्जीव पदार्थों के हिलने डोलने में विभेद
करना सहज नहीं था। नदियों का बहना, हवा का चलना, लपट का भभकना आदि जंतुओं
के चलने फिरने के समान ही जान पड़ते थे। अत: इन निर्जीव पदार्थों में भी उस
काल के लोगों को एक स्वतन्त्र जीव मानना पड़ता था। पर पीछे जीवन के सम्बन्ध
में जिज्ञासा आंरभ हुई। 1700 वर्ष हुए कि युरोप में पहले पहल यूनानी हकीम
गैलन का ध्यान शरीरव्यापार के कुछ तत्वों की ओर गया। इन तत्वों का पता उसने
जीते हुए कुत्तों, बन्दरों आदि को चीरफाड़कर लगाया था। पर जीवित जंतुओं का
चीरना फाड़ना एक अत्यंत निर्दयता का काम समझा जाता था। परन्तु बिना इस
प्रकार की चीरफाड़ किए शरीर के व्यापारों का रहस्य नहीं खुल सकता।
सच पूछिए तो सोलहवीं शताब्दी में ही शरीर के व्यापारों की ठीक ठीक जाँच
युरोप में कुछ डॉक्टरों के द्वारा आंरभ हुई। सन् 1628 में हार्वे ने अपने
रक्तसंचार सम्बन्धी आविष्कार का विवरण प्रकाशित करके यह दिखलाया कि हृदय एक
प्रकार का पम्प या नल है जो अचेतनरूप से क्षण क्षण पर
1 अंगविच्छेदशास्त्र केवल भीतरी अवयवों के स्थान और उनकी बनावट बतलाता है
पर शरीर व्यापार विज्ञान उनके व्यापारों और कार्यों की व्यवस्था प्रकट करता
है। अंगविच्छेदशास्त्र केवल यही बतलायेगा कि अमुम अवयव शरीर के अमुक स्थान
पर होता है और इस आकार का होता है, वह यह न बतलायेगा कि वह अवयव क्या काम
करता है।
अपनी पेशियों के आकुंचन द्वारा निरन्तर लाल रंग के खून की धारा धामनियों के
मार्ग से छोड़ा करता है। जीवधारियों के प्रसव विधान के सम्बन्ध में उसने जो
अन्वेषण किए वे भी बड़े काम के थे। पहले पहल उसी ने इस नियम का प्रतिपादन
किया कि 'प्रत्येक जीवनधारी गर्भांड से उत्पन्न होता है।' अठारहवीं शताब्दी
के अन्त में हालर ने शरीर व्यापारसम्बन्धी विद्या को चिकित्साशास्त्र से
अलग करके स्वतन्त्र वैज्ञानिक आधार पर स्थिर किया, पर उसने संवेदनात्मक
चेतनाव्यापारों के लिए एक विशेष 'संविद् शक्ति' का प्रतिपादन किया जिससे
'अभौतिक शक्ति' माननेवालों को भी सहारा मिल गया। उन्नीसवीं शताब्दी के मध्य
तक शरीर व्यापारविज्ञान में यही सिद्धांत ग्राह्य रहा कि जीवों के कुछ
व्यापार तो भौतिक और रासायनिक कारणों से होते हैं पर कुछ ऐसे हैं जो एक
विशेष शक्ति द्वारा होते हैं। यह शक्ति समस्त भूतों से परे तथा द्रव्य की
भौतिक और रासायनिक क्रिया से सर्वथा स्वतन्त्र मानी गई है। यह स्वयंप्रकाश
शक्ति जड़ पदार्थों में नहीं होती और भूतों को अपने आधार पर चलाती है।
संवेदनसूत्रों की वेदनात्मक क्रिया, चेतना, उत्पत्ति, वृद्धि आदि ऐसी बातें
थीं जिनके लिए भौतिक और रासायनिक कारण बतलाना अत्यंत कठिन था। इस अभौतिक
शक्ति का व्यापार उद्देश्यात्मक1 माना गया जिससे दर्शनशास्त्र में
उद्देश्यवाद का समर्थन हुआ। प्रसिद्ध दार्शनिक कांट ने भी कह दिया कि
यद्यपि सिद्धांतदृष्टि से सृष्टि के व्यापारों का भौतिक कारण बतलाने में
बुद्धि में अपार सामर्थ्य है पर जीवधारियों के चेतन व्यापारों का भौतिक
कारण बतलाना वास्तव में उसकी सामर्थ्य के बाहर है, अत: हमें उनका एक ऐसा
कारण मानना ही पड़ता है जो उद्देश्यात्मक अर्थात भूतों से परे है। फिर तो
उद्देश्यवाद एक प्रकार निर्विवाद सा मान लिया गया। बात स्वाभाविक ही थी;
क्योंकि शरीर के भीतर रक्तसंचार आदि व्यापारों का भौतिक और पाचन आदि
क्रियाओं का रासायनिक हेतु तो बतलाया जा सकता था पर पेशियों और संवेदन
सूत्रों की अद्भुत क्रियाओं तथा अन्त:करण (मन) की विलक्षण वृत्तियों का कोई
समाधान कारक हेतु निरूपित नहीं हो सकता था। इसी प्रकार किसी प्राणी में
भिन्न भिन्न शक्तियों की जो उपयुक्त योजना देखी जाती है उसे भी भूतों के
द्वारा सम्पन्न नहीं मानते बनता था। ऐसी दशा में शरीर व्यापारसम्बन्धी
विज्ञान में भी पूरी द्वैतभावना स्थापित हुई। निरिन्द्रिय जड़ प्रकृति और
सेन्द्रिय सजीव सृष्टि के बीच, आधिभौतिक और आध्यात्मिक विधानों के बीच,
शरीर और आत्मा के बीच, द्रव्यशक्ति और जीवशक्ति के बीच पूरा पूरा प्रभेद
माना गया। उन्नीसवीं शताब्दी के आंरभ में भूतातिरिक्तशक्तिवाद की जड़ शरीर
व्यापारविज्ञानों में अच्छी तरह जम गई।
सत्राहवीं शताब्दी के मध्य में प्रसिद्ध फ्रांसीसी तत्ववेत्ता डेकार्ट ने
हार्वे केरक्त
1 यह सिद्धांत कि सृष्टि के व्यापार उद्देश्य रखनेवाली एक चेतन शक्ति के
विधान द्वारा होते हैं।
संचार सम्बन्धी सिद्धांत को लेकर यह प्रतिपादित किया कि और जंतुओं की भाँति
मनुष्य का शरीर भी एक कल है और उसका संचालन भी उन्हीं भौतिक नियमों के
अनुसार होता है जिनके अनुसार मनुष्य की बनाई हुई मशीन का होता है। साथ ही
उसने मनुष्य में एक भूतातीत आत्मा1 का होना भी बतलाया और कहा कि स्वयं अपने
ही व्यापारों का जो अनुभव आत्मा को होता है (अर्थात विचार) केवल वही संसार
में ऐसी वस्तु है जिसका हमें निश्चयात्मक बोध होता है। उसका सूत्र है
कि-'मैं विचार करता हूँ इसलिए मैं हूँ। 2 पर यह द्वैत सिद्धांत रखते हुए भी
उसने शरीर व्यापार सम्बन्धी हमारे भौतिक ज्ञान को बहुत कुछ बढ़ाया। डेकार्ट
के बाद ही एक वैज्ञानिक ने प्राणियों के अंग संचालन को शुद्ध भौतिक नियमों
का अनुसारी सिद्ध किया और दूसरे ने पाचन और श्वास3 की क्रिया का रासायनिक
विधान बतलाया। पर उनके युक्तिवाद पर उस समय लोगों ने ध्यान न दिया।
शक्तिवाद का प्रचार बढ़ता ही गया। उसका पूर्णरूप से खंडन तब हुआ जब भिन्न
भिन्न जीवों के शरीर व्यापारों का मिलान करने वाले विज्ञान का उदय हुआ।
तारतम्यिक शरीर व्यापारविज्ञान का प्रादुर्भाव उन्नीसवीं शताब्दी में हुआ।
बर्लिन विश्वविद्यालय के जोंस मूलर नामक उद्भट प्राणिवेत्ता ने ही पहले पहल
इस विषय को अपने हाथ में लिया और 25 वर्ष तक लगातार परिश्रम किया। उसने
मनुष्य से लेकर कीटपतंग तक सारे जीवों के अंगों और शरीरव्यापारों को लेकर
दार्शनिक रीति से मिलान किया और इस प्रकार वह अपने पूर्ववत्तरी आचार्यों से
प्राणतत्व सम्बन्धी ज्ञान में बहुत बढ़ गया। मूलर भी अपने सहयोगी शरीर
विज्ञानियों के समान शक्तिवादी ही रहा। पर उसके हाथ में पड़ कर शक्तिवाद का
कुछ रूप ही और हो गया। उसने जीवों के समस्त व्यापारों के भौतिक हेतु निरूपण
का प्रयत्न किया। उसने जिस शक्ति का रूपान्तर से प्रतिपादन किया वह प्रकृति
के भौतिक और रासायनिक नियमों से परे नहीं थी; उससे सर्वथा बद्ध थी। उसने
इन्द्रियों और मन की क्रियाओं का उसी प्रकार भौतिक हेतु बतलाने का प्रयत्न
किया जिस प्रकार पेशियों की क्रियाओं का। मूलर की सफलता का कारण यह था कि
वह सदा अत्यंत निम्नकोटि के जीवों के प्राणव्यापार को लेकर चलता और क्रम
क्रम से उन्नत जीवों की ओर अपनी अनुसंधान परम्परा को बढ़ाता हुआ मनुष्य तक
ले जाता था। मूलर की मृत्यु के पीछे सन् 1858 में उसके विस्तृत विषय के कई
विभाग हो गए - मानव और तारतम्यिक अंगविच्छेद परीक्षा, चिकित्सासम्बन्धी
अंगविच्छेद परीक्षा, शरीर व्यापारविज्ञान और विकासक्रम का इतिहास।
1 पशुओं में इस प्रकार की आत्मा डेकार्ट नहीं मानता था।
2 कामिटो इरगो सम (आई थिंक देयर फोर आइ एम्)
3 जिससे शरीर के भीतर ऑक्सिजन या प्राणवायु जाती और कार्बन निकलता है।
मूलर के अनेक शिष्यों में से थिउडरश्वान को सबसे अधिक सफलता हुई। 1838 में
जब प्रसिद्ध उदि्भद्विज्ञानवेत्ता थिउडरश्वान ने घटक को सारे पौधों का
संयोयक अवयव बतलाया और सिद्ध किया कि पौधों का सारा तन्तुजाल इन्हीं घटकों
के योग से बना है, मूलर ने इस आविष्कार से लाभ उठाने की चेष्टा की। उसने
प्राणियों के शरीरतन्तुओं को भी इसी प्रकार के योग से संघटित सिद्ध करना
चाहा। पर यह कठिन कार्य उसके शिष्य श्वान ने किया। इस प्रकार घटक सिद्धांत
की नींव पड़ी जिसका महत्व अंगविच्छेद शास्त्र और शरीर व्यापारविज्ञान में
दिन पर दिन स्वीकृत होता गया। इसके अतिरिक्त अर्न्स्ट ब्रुक और एलबर्ट
कालिकर नामक मूलर के दो दूसरे शिष्यों ने यह दिखलाया कि विश्लेषण करने पर
जीवों की समस्त क्रियाएँ शरीरतन्तु को संघटित करनेवाले इन्हीं सूक्ष्म
घटकों की क्रियाएँ ठहरती हैं। ब्रुक ने इन घटकों को 'मूलजीव' कहा और बतलाया
कि समवाय रूप से ये ही जीव विधान के कारण हैं। कालिकर ने सिद्ध किया कि
जीवधारियों का गर्भांड एक शुद्ध घटक मात्र है।
'घटकात्मक शरीरव्यापार विज्ञान' की पूर्णरूप से प्रतिष्ठा सन् 1889 में
जर्मनी के मैक्स वरवर्न द्वारा हुई। उसने अनेक परीक्षाओं के उपरान्त
दिखलाया कि मेरा उपस्थित किया हुआ घटकात्मा1 सम्बन्धी सिद्धांत एक घटकात्मक
अणुजीवों के पर्यालोचन से पूर्णरूप से प्रतिपादित हो जाता है और इन
अणुजीवों के चेतन व्यापारों का मेल जलसृष्टि की रासायनिक क्रियाओं से मिल
जाता है। उसने बतलाया कि मूलर की मिलानवाली प्रणाली तथा घटक की सूक्ष्म
आलोचना द्वारा ही हम तत्व को यथार्थ रूप में समझ सकते हैं।
इस घटकवाद से चिकित्साशास्त्र को भी बहुत लाभ पहुँचा। मूलर के एक दूसरे
शिष्य विरशे ने रुग्ण घटकों का स्वस्थ घटकों से मिलान करके रुग्ण होने पर
उनकी दशा के उन सूक्ष्म परिवर्तनों को दिखलाया जो उन विस्तृत परिवर्तनों के
मूल स्वरूप होते हैं जिनसे रोग या मृत्यु होती हैं। उसने यह सिद्ध कर दिया
कि रोग किसी अलौकिक कारण से नहीं होते बल्कि भौतिक और रासायनिक परिवर्तनों
के ही कारण होते हैं।
आधुनिक जंतुविभाग विद्या के अन्तर्गत जितने जीव हैं सब में स्तनपायी जीव
प्रधान हैं। मनुष्य इसी स्तन्यवर्ग के अन्तर्गत है अत: उसमें वे सब लक्षण
होने चाहिए जो और स्तन्य जीवों में होते हैं। मनुष्यों में भी रक्तसंचालन
तथा श्वास क्रिया उसी प्रकार और ठीक उन्हीं नियमों के अनुसार होती है जिस
प्रकार और जिन नियमों के अनुसार और स्तन्य जीवों में। ये दोनों क्रियाएँ
हृत्कोश और फुफ्फुस (फेफड़े) की विशेष बनावट के अनुसार होती हैं। केवल
स्तन्य जीवों में रक्त हृदय के बाएँ कोठे से धमनी की वाम कंडरा (शाखा) में
प्रवाहित होता है। पक्षियों में यह रक्त
1 सन् 1866 में हेकल ने यह सिद्धांत उपस्थित किया था।
धमनी की दक्षिण कंडरा से होकर और सरीसृपों में दोनों कंडराओं से होकर जाता
है। दूधा पिलानेवाले जीवों के रक्त में और दूसरे रीढ़वाले जीवों के रक्त से
यह विशेषता पाई जाती है कि उसके सूक्ष्म घटकों के मध्य में गुठली (नूक्लस)
नहीं होती। इसी वर्ग के जीवों की श्वासक्रिया अन्तरपट (डाइफागम) के योग से
होती है क्योंकि इन्हीं जीवों में उदराशय और वक्षाशय के बीच यह परदा होता
है। बड़ी भारी विशेषता तो माता के स्तनों में दूध उत्पन्न होने और बच्चों को
पालने के ढंग की है। दूधा की बड़ी भारी ममता होती है इसी से स्तन्य जीवों
में शिशु पर माता का बहुत अधिक स्नेह देखा गया है।
स्तन्य जीवों में बनमानुस ही मनुष्य से सबसे अधिक समानता रखता है, अत:
उसमें वे सब लक्षण मिलते हैं जो मनुष्य में पाए जाते हैं। सब लोग देखते हैं
कि किस प्रकार बनमानुसों की रहन सहन, स्वभाव, समझ, बच्चों के पालने पोसने
का ढंग आदि मनुष्य के से होते हैं। शरीर व्यापार विज्ञान ने और बातों में
भी सादृश्य दिखलाया है जो साधारणा दृष्टि से देखने में नहीं आता-हृत्पिंड
की क्रिया में, स्तनों के विभाग में, दाम्पत्य विधान में। दोनों के स्त्री
पुरुष धर्म मिलते जुलते हैं। बनमानुसों की बहुत सी ऐसी जातियाँ होती हैं
जिनकी मादा के गर्भाशय से उसी प्रकार सामयिक रक्तश्राव होता है जिस प्रकार
स्त्रियों को मासिकधर्म होता है। बनमानुस की मादा में दूध उसी प्रकार उतरता
है जिस प्रकार स्त्रियों में। दूधा पिलाने का ढंग भी एक ही सा है।
सबसे बढ़कर ध्यान देने योग्य बात तो यह है कि मिलान करने पर बनमानुसों की
बोली मनुष्य की वर्णात्मक वाणी के विकास की आदिम अवस्था प्रतीत होती है। एक
प्रकार का बनमानुस होता है जो कुछ कुछ मनुष्यें की तरह गाता और सुर निकालता
है। कोई निष्पक्ष भाषातत्वविद् इस बात को मानने में आगापाछा न करेगा कि
मनुष्य की विचार व्यंजक विशद वाणी पूर्वज बनमानुसों की अपूर्ण बोली से
क्रमश: धीरे धीरे निकली है।
रामचन्द्र
शुक्ल ग्रंथावली - 6
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