रामचन्द्र शुक्ल ग्रंथावली -
6
अनुवाद
विश्वप्रपंच
अठारहवाँ प्रकरण
-
ज्ञानतत्तवोपासना या
तत्त्वाद्वैतदृष्टि से उपासनाकाण्ड
आजकल के बहुत से वैज्ञानिक और दार्शनिक यह कहने लगे हैं कि मत या मजहब,
जैसे ईसाई, इस्लाम आदि की अब कोई आवश्यकता नहीं रह गई। उनके इस कथन का
अभिप्राय यह है कि विज्ञान की अपूर्व उन्नति से जगद्विकास के जो नाना रहस्य
खुल पड़े हैं उनसे केवल हमारी बुद्धि ही तुष्ट न होगी बल्कि भक्ति, श्रध्दा,
प्रेम आदि वृत्तियाँ भी जाग्रत होंगी। सारांश यह कि यदि हमें सम्यक्
तत्वदृष्टि प्राप्त हो जाये तो उसमें ज्ञानकांड और उपासनाकांड दोनों का मेल
हो जाता है। पर बड़े दु:ख की बात है कि इस प्रकार की तत्वदृष्टि बहुत ही कम
लोगों को प्राप्त होती है। अधिकांश शिक्षितों की यही धारणा रहती है कि
मतविश्वास एक और ही चीज है जिसका ज्ञान से कोई सम्बन्ध नहीं। वे कहते हैं
कि मजहब में अक्ल का दखल नहीं। पर अब ऐसा कहना ठीक नहीं। विज्ञान की आधुनिक
उन्नति से हमें जो नए नए तर्क और नई नई युक्तियाँ प्राप्त हुई हैं वे तो
हमारे मन में अवश्य रहेंगी पर उनके साथ ही साथ हमारे अन्त:करण को श्रध्दा,
भक्ति आदि उदात्ता वृत्तियों के लिए यथेष्ट सामग्री भी प्राप्त होगी, अत:
हमारी भावुकता में किसी प्रकार की कमी न होने पाएगी। अन्तर इतना ही होगा कि
हमारी श्रध्दा, भक्ति आदि वेगवती वृत्तियों के लिए, हमारी भावुकता के लिए,
जो सामग्री अप्राकृतिक और असत्य कल्पनाओं के द्वारा उपस्थित की गई थी उनके
स्थान पर अब सत्य वैज्ञानिक अनुसंधानों द्वारा प्राप्त सामग्री होगी।
आधुनिक विज्ञान ने अन्धविश्वास की बातों का खंडन तो कर डाला; अब उसको चाहिए
कि वह मनुष्य की श्रध्दाभक्ति के लिए एक भव्य ज्ञानमन्दिर खड़ा करे जिसमें
तत्वदृष्टि प्राप्त करके लोग सत्य, सत्व और रजस् (सौन्दर्य) इन तीन देवताओं
की उपासना करें। इस दिव्य भाव की प्राप्ति के लिए यह देख लेना आवश्यक है कि
प्रचलित मतमतान्तरों की कौन कौन सी बातें हमें रखनी होंगी और कौन छोड़नी
होंगी। हजारों वर्षों से जिन मतों का अधिकार मनुष्य जाति के हृदय पर चला आ
रहा है उनकी शील और सदाचार सम्बन्धिनी बातों को हम नहीं छोड़ सकते, उनका
महत्त्व हम कभी अस्वीकार नहीं कर सकते। अत: हमें चाहिए कि इन मतों में जो
सदाचार तत्व है उसी पर अपना आग्रह प्रकट करें। उसी पर दृष्टि रखने के लिए
भिन्न भिन्न मतों और सम्प्रदायों से अनुरोध करें। इसी रीति का अवलम्बन करने
से आधुनिक ज्ञानमूलक धर्म की स्थापना सुगम होगी। हमें अपने धार्मिक जीवन
में विप्लव नहीं उपस्थित करना है, संस्कार करना है। जिस प्रकार प्राचीन
सभ्य जातियाँ आदर्श के लिए भिन्न भिन्न सद्गुणों की मूर्त भावना करती थीं
उसी प्रकार हमें भी चाहिए कि हम सत्य, सत्व और रजस् को देवरूप में ग्रहण
करें।
1. सत्य- पहले सत्य को लीजिए। जो कुछ पीछे कहा जा चुका है उससे यह दृढ़ हो
गया कि विशुद्ध सत्य प्रकृति ही के भीतर साधनापूर्वक ढूँढ़ने से मिल सकता है
और इस साधना के दो ही मार्ग हैं, सूक्ष्म अन्वीक्षण और चिन्तन। पहले
प्रकृति में जो व्यापार वास्तव में होते हैं उनका एक एक करके पता लगाना
चाहिए फिर उनके कारणों का खूब मनन करना चाहिए। इसी रीति से हम शुद्ध बुद्धि
के बल से उस सत्य ज्ञान या विज्ञान तक पहुँच सकते हैं जो मनुष्य की सब से
बड़ी सम्पत्ति है। हमें 'ईश्वराभास', 'दैवी प्रेरणा' आदि बातों का एकदम
परित्याग करना होगा क्योंकि उनका मतलब यह है कि ज्ञानप्राप्ति के जो दो
मार्ग ऊपर बतलाए गए हैं केवल उन्हीं से नहीं, बल्कि बिना बुद्धि के प्रयास
के, आसमान से भी ज्ञान टपक सकता है1। अब यह बात पूर्णतया स्थिर हो गई है कि
ज्ञान अप्राकृतिक या अलौकिक रीति से न कभी किसी को प्राप्त हुआ है और न हो
सकता है। प्रकृति का मन्दिर ही सत्यदेव का निवासस्थान है। वे हरेभरे
जंगलों, नीलाभ समुद्रों और तुषारमंडित गिरिशृंगों में रहते हैं; मन्दिरों,
मसजिदों और गिरिजों के अंधेरे कोने में नहीं। सत्य और ज्ञानरूप देवताओं की
प्राप्ति के लिए हमें प्रकृति से प्रेम करना चाहिए और उसके नियमों का मनन
करना चाहिए। ज्ञानतत्त्वोपासना के लिए हमें अपार और अनन्त नक्षत्रों और
लोकों की दूरबीनों द्वारा, और सूक्ष्म घटक या अणुजगत् की सूक्ष्मदर्शक
यत्रों द्वारा छानबीन करनी होगी; कर्मकांड के निरर्थक विधानों तथा पूजा की
लम्बी चौड़ी पद्धतियों की कोई आवश्यकता न होगी। सत्यदेव के प्रसाद से हमें
ज्ञानवृक्ष के विशद फल प्राप्त होंगे जिनसे हमारी दृष्टि स्वच्छ हो जायेगी
और हम जगत् के नाना रहस्यों का आनन्द ले सकेंगे।
2. सत्व- सावित्कशीलता या सत्व के सम्बन्ध में हमें उतना उलटफेर करने की
आवश्यकता न होगी जितना सत्य के सम्बन्ध में करना पड़ेगा। सत्य की स्थापना के
लिए हमें 'ईश्वराभास', 'आकाशवाणी', 'इलहाम' इत्यादि को कपोलकल्पना कहकर
1. किसी देवी देवता के प्रसाद से किसी मूर्ख का एकबारगी भारी कवि या पंडित
हो जाना इसी प्रकार की बात है।
एकदम किनारे कर देना होगा, पर सद्गुण या सात्विकशीलता के सम्बन्ध में
प्रचलित मतों से हमारा कोई विरोध न होगा। ईसाई धर्म को ही लीजिए। उसमें
वदान्यता, उदारता, दया, दैन्य और परोपकार के जो भाव हैं वे सब को समान रूप
से मान्य हैं। हमारे ज्ञानमूलक धर्म में भी उनका वही स्थान रहेगा। सदाचार
के वे तत्व संसार के सब सभ्य मतों में हैं, अकेले ईसाई मत में नहीं। अस्तु,
ईसाई लोग अन्य मतावलम्बियों को अपने मत में लाने का क्यों प्रयत्न किया
करते हैं समझ में नहीं आता। एक विषय में ईसाई मत एकांगदर्शी है1। कर्माकर्म
की व्यवस्था में, सदाचार के नियम में, यह मत परार्थ ही पर ज्यादा जोर देता
है, स्वार्थ का एकदम निषेध करता है। हमारा ज्ञानमूलक धर्म दोनों पर समान
दृष्टि रखेगा। वह स्वोपकार और परोपकार दोनों का पलड़ा ठीक रखने का उपदेश
देता है।
3 रजस्- जिससे हमारी प्रकृति का अनुरंजन हो उसे रजस् या सौन्दर्य कहना
चाहिए। सौन्दर्य के सम्बन्ध में हमारे तत्त्वाद्वैत धर्म का वैराग्यप्रधान
मतों से बड़ा भारी विरोध है। ये मत सांसारिक जीवन को सर्वथा असार समझते हैं,
उसे केवल परलोक की तैयारी के लिए समझते हैं। अत: मनुष्य के जीवन की जो
बातें हैं, प्रकृति, विज्ञान और कलाकौशल में जो कुछ सौन्दर्य हम देखते हैं,
वह सब उन मतों की दृष्टि में निरर्थक है। सच्चे धार्मिक को इससे दूर रहना
चाहिए, उसे केवल परलोक की चिन्ता में रहना चाहिए। प्रकृति से घृणा, उसकी
नाना शोभाओं से विरक्ति, सुन्दर कलाओं से कुरुचि ये सब धर्म के अंग हैं। ये
अंग यहाँ तक पूर्णता को पहुँचाए जाते हैं कि लोग स्ववर्गियों से अलग जाकर
रहते हैं, शरीर को नाना प्रकार के क्लेश देते हैं, मढ़ियों और कुटियों में
पड़े पड़े अपना समय नाम जपने और भजन गाने में बिताते हैं।
जिस उद्देश्य से प्रकृति का यह तिरस्कार किया गया वह सिद्ध भी नहीं हुआ।
इतिहास इस बात का साक्षी है। संन्यास आश्रम इसलिए निकाला गया था कि कुछ लोग
विषय वासनाओं से निर्लिप्त रहकर यम, नियम और पवित्रता के आदर्श बनेंगे। पर
हुआ इसका उलटा। मढ़ियों के स्थान पर साधुओं के बड़े बड़े मठ खड़े हो गए जिनमें
ऐसी ऐसी व्यभिचार लीलाएँ होने लगीं जिनका बेचारे गृहस्थ अनुमान तक नहीं कर
सकते। बड़े बड़े मठधारी महन्तों के धनवैभव और भोगविलास को देख बड़े बड़े राजा
दंग रहने लगे। लोग कहेंगे कि ईसाई, जैन, बौद्ध, शैव आदि मत वैराग्यप्रधान
हैं, पर उनके द्वारा कलाकौशल की कितनी उन्नति हुई है, उनके अनुयायियों ने
कैसे सुन्दर सुन्दर मन्दिर, गिरजे आदि बनवाए हैं। यह ठीक है, पर उन मतों की
शिक्षा से सुन्दर रचनाओं से क्या सम्बन्ध? इनका निर्माण तो उनकी शिक्षाओं
से स्वतन्त्र हुआ है। कहाँ उनकी शिक्षा कि इस संसार के आमोद प्रमोद से दूर
रहो, इस जीवन
1 जैन आदि अन्य वैराग्यप्रधान धर्म भी इसी प्रकार के कहे जा सकते हैं।
के भौतिक सौन्दर्य पर मत भूलो, स्त्रियों के प्रेमजाल में मत फँसो, धन,
परिजन आदि सबको माया समझो, कहाँ मन्दिरों और गिरजों का ठाटबाट, महन्तों और
धर्माचार्यों की धूमधाम की सवारियाँ! कैथलिक सम्प्रदाय के गिरजों तथा और
दूसरे मतों के मन्दिरों की चित्राकारियाँ होती कैसी हैं? इन गिरजों को जाकर
देखिए तो उनमें ईसा, मरियम और महात्माओं की अलौकिक भावनापूर्ण प्रतिमाएँ
मिलेंगी, उनके अप्राकृतिक चरित्र अंकित पाए जायेगे। मन्दिरों को देखिए तो
उनमें कहीं बौद्ध जातकों की कल्पित कहानियाँ चित्रित मिलेंगी, कहीं कई
सिरपैर वाले देवताओं की मूर्तियाँ सामने आयेगी। इन चित्रकारियों का प्रभाव
भी जनता पर विलक्षण पड़ता आया है। जनसाधारण के चित्ता पर यह संस्कार बराबर
जमता रहा कि जिस रूप के देवी देवता हैं, वैसे कभी रहे हैं और जो अलौकिक
बातें चित्रकारियों में दिखाई गई हैं वे वास्तव में कभी हुई हैं।
मतों और सम्प्रदायों के आश्रय से कलाकौशल को जो रूप प्राप्त हुआ है उससे
कलाकौशल की वह नई प्रवृत्ति जो आजकल विज्ञान के सम्बन्ध से जाग्रत हुई है,
सर्वथा विरुद्ध है। विज्ञान द्वारा प्रकृति के क्षेत्र में हमारी दृष्टि का
जो विस्तार बढ़ गया है और हमें जीवों और पदार्थों के असंख्य रूपों का जो पता
लगा है उससे हमारे अन्त:करण में सौन्दर्य के नए नए भावों का उदय हुआ और
चित्रकारी तथा शिल्पविद्या को नई उत्तोजना प्राप्त हुई है। पृथ्वी के नाना
प्रदेशों, द्वीपों और खंडों की जो छानबीन हुई है उससे नए नए प्रकार के
असंख्य जीव, विशेषत: छोटे जीव जिनकी ओर पहले किसी का ध्यान तक नहीं गया था,
मिले हैं जिनके मनोहर रूप रंग को लेकर बहुत सुन्दर चित्रकारी और कारीगरी हो
सकती है। सूक्ष्मदर्शक यत्रों ने हमें सूक्ष्म से सूक्ष्म कीटाणुओं की;
विशेषत: जल कीटाणुओं की एक नई दुनिया दिखा दी है। सहों प्रकार के
चित्रविचित्र समुद्री जीव, मूँगे, छत्राक, शुक्तियाँ, केकड़े इत्यादि हमें
देखने को मिले हैं जिनके सौन्दर्य और आकृतिभेद के सामने मनुष्यों की कल्पना
झख मारे। जंतुविज्ञान और उदि्भद्विज्ञान की कोई बड़ी सचित्र पुस्तक खोलकर
देखिए, इस बात का निश्चय हो जायेगा।
आधुनिक विज्ञान ने हमें सूक्ष्म जगत् की ही सैर नहीं कराई है बल्कि प्रकृति
के विशाल पदार्थों का भी अधिक परिचय कराया है। एक समय था जब हिमालय ऐसे
पर्वतों और पर्वताकार तरंगवाले समुद्रों को लोग भय की दृष्टि से देखते थे।
अब विज्ञान ने ऐसे साबीत कर दिए हैं कि साधारण वित्ता के मनुष्य भी ऊँचे
ऊँचे पर्वतों पर जाकर हिमप्रपातों के निकट महीनों रह सकते हैं और वहाँ के
विशाल और मनोहर दृश्यों का आनन्द ले सकते हैं; तथा समुद्र के अपार वक्षस्थल
पर निर्भय विचरण करते हुए नीलांबुराशि की क्रीड़ा का अवलोकन कर सकते हैं।
आजकल जिस प्रकार प्रकृति के नाना रहस्यों के परिज्ञान के साधान सुलभ हो गए
हैं उसी प्रकार उसके असीम सौन्दर्य के उपभोग के भी। इसी अवस्था में हमारे
अन्त:करण की भिन्न भिन्न वृत्तियाँ परिपुष्ट हो सकती हैं और तत्त्वाद्वैत
धर्म का भाव दृढ़ हो सकता है।
वर्तमान काल की चित्रकारी को देखने से इस बात का अच्छा प्रमाण मिल सकता है।
पुराने समय में जो चित्र बनते थे वे अधिकतर मनुष्य या कुछ थोड़े से जंतुओं
के ही होते थे। अब वन, नदी, पर्वत, समुद्रतट आदि नाना प्राकृतिक पदार्थों
के सुन्दर सुन्दर चित्र देखने को मिलते हैं। न जाने कितने मासिकपत्र
चित्रों के ही निकलते हैं जिनमें अनेक प्रकार के प्राकृतिक दृश्य अंकित
रहते हैं। प्राकृतिक दृश्यांकन में आजकल बड़ी उन्नति हुई है। इन दृश्यों के
द्वारा प्रकृति से हमारा प्रेम बढ़ता है और उसके रहस्यों के जानने की
उत्कंठा उत्पन्न होती है। इस प्रकार के चित्र शिक्षा के अच्छे साधान हैं।
बच्चों में इनकी ओर अभिरुचि उत्पन्न करनी चाहिए। प्रकृति अनन्त सौन्दर्य का
भंडार है। उसके सौन्दर्य का आनन्द, उसके अविचल और नित्य नियमों से सम्बद्ध
होने के कारण, ज्ञानविज्ञान का उत्तोजक है। इस आनन्दानुभव की उत्कंठा
द्वारा ज्ञान की ओर सच्ची प्रवृत्ति होती है। यही प्रवृत्ति मार्ग ज्ञान का
सच्चा मार्ग है। जिस विस्मय के साथ हम तारकित गगनमंडल को और एक जलबिन्दु के
भीतर की सजीव सृष्टि को देखते हैं, जिस स्तब्धाता के साथ द्रव्य की नाना
गतियों में उसकी शक्ति की क्रीड़ा का परिचय पाते हैं, जिस पूज्य भाव से
'परमतत्व की अक्षरता' के नियम की विश्वव्यापकता का अनुभव करते हैं, वह
विस्मय, वह स्तब्धाता और वह पूज्यभाव सब के सब हमारी धर्मभावना के ही अंग
हैं। ये ही धर्म के सच्चे आवेश हैं। इन सच्चे आवेशों द्वारा प्रेरित धर्म
हमारा प्रकृत धर्म है।
प्रकृत सत्य का बोध और प्रकृत सौन्दर्य का उपभोग दोनों हमारे तत्त्वाद्वैत
धर्म के अंग हैं। ईसाई आदि वैराग्यप्रधान मतों से इन दोनों अंगों का विरोध
प्रत्यक्ष है। ये दोनों अंग ऐहिक हैं, इसी लोक से सम्बन्ध रखनेवाले हैं। पर
ईसाई आदि मत सदा परलोक ही की ओर ध्यान रखने का उपदेश देते हैं।
तत्त्वाद्वैत धर्म बतलाता है कि हम लोग इस पृथ्वी पर के मर्त्य जीव हैं जो
कुछ काल तक इसके नाना पदार्थों का उपभोग कर सकते हैं, इसके सौन्दर्य का
आनन्द ले सकते हैं और इसकी अद्भुत शक्तियों की क्रीड़ा का ज्ञान प्राप्त कर
सकते हैं। ईसाई आदि मत कहते हैं कि यह संसार दु:ख का समुद्र है जिसमें हम
अल्पकाल तक के लिए इस कारण डाल दिए गए हैं कि नाना प्रकार के क्लेशों
द्वारा अपनी आत्माओं को शुद्ध करें जिससे परलोक में अनन्त सुख के अधिकारी
हों। यह परलोक कहाँ है? इसका सुख किस प्रकार का है? यह सब ये मत कुछ भी
नहीं बतलाते। जब तक लोग पृथ्वी के ऊपर असंख्य नक्षत्रों से दीप्त नीलमंडल
को ही स्वर्गधाम समझते थे, तबतक तो उनकी कल्पना में यह बात किसी प्रकार आ
सकती थी कि वहाँ देवता लोग नित्य विहार किया करते हैं। पर अब ये सब देवता
और अमर जीव बिना ठौरठिकाने के हो गए हैं; क्योंकि अब यह बात
ज्योतिर्विज्ञान द्वारा अच्छी तरह स्पष्ट हो गई है कि इस नीलमंडल में उस
ईथर या आकाशद्रव्य के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है जिसमें असंख्य लोकपिंड
बनते और बिगड़ते हुए चक्कर मार रहे हैं।
वे स्थान जहाँ लोग अपनी धर्मभावनाओं की पुष्टि और ईश्वर या देवता की उपासना
के लिए जाते हैं अत्यंत पवित्र माने जाते हैं और 'मन्दिर', 'मस्जिद' या
'गिरजे' कहलाते हैं। उनमें जाकर लोग जीवन के झंझट और हाय हाय को भूल एक
उच्च भावमय जगत् में प्रवेश करके शान्ति पाते हैं। वर्तमान शताब्दी के 'कला
और विज्ञानसम्पन्न' शिक्षित मनुष्य को इस बात के लिए दीवारों से घिरे हुए
किसी संकीर्ण स्थान की आवश्यकता न होगी। उसके लिए सम्पूर्ण प्रकृति का
पवित्र क्षेत्र खुला हुआ है। वह जिधर आँख उठा कर देखेगा उधर उसे 'जीवन की
हाय हाय' तो मिलेगी पर उसके साथ ही साथ सर्वत्रा 'सत्य, सत्व और सौन्दर्य'
की शान्तिदायिनी दिव्य प्रभा का भी साक्षात्कार होगा।
उन्नीसवाँ प्रकरण
-तत्त्वाद्वैतदृष्टि से धर्म या कर्माकर्मव्यवस्था1
जीवन के व्यवहार में प्रत्येक मनुष्य के कुछ कर्तव्य होते हैं जो तभी पूरे
हो सकते हैं जब कि वे उसके जगत्सम्बन्धी सिद्धांत के अनुकूल हों। इस
सिद्धांत के अनुसार हमारी कर्माकर्म व्यवस्था उस अद्वैत भाव के अनुकूल होनी
चाहिए जो प्राकृतिक नियमों के समुन्नत ज्ञान द्वारा हमें प्राप्त हुआ है।
जिस प्रकार हम इस अनन्त विश्व को एक अखिल अद्वितीय सत्ता या समष्टि मानते
हैं उसी प्रकार मनुष्य के आध्यात्मिक या धार्मिक जीवन को भी उसी विश्व
विधान का एक अंग मानते हैं। आध्यात्मिक और भौतिक दो अलग अलग जगत् नहीं हैं।
पर अधिकांश दार्शनिकों और धर्ममीमांसकों का मत इसके विरुद्ध है। जैसे कांट
ने कहा है वैसे ही वे भी कहते हैं कि धार्मिक और आध्यात्मिक जगत् भौतिक
जगत् से सर्वथा अलग और स्वतन्त्र है अत: मनुष्य की सद्सद्विवेक बुद्धि भी
उस ज्ञान से सर्वथा स्वतन्त्र है जो विज्ञान द्वारा जगत् के सम्बन्ध में
हमें प्राप्त होता है। सद्सद्विवेक बुद्धि अपने मत के विश्वास पर अवलम्बित
होती है। कांट के कथन के अनुसार सद्सद्विवेक का आभास केवल व्यवसायत्मिका
बुद्धि को होता है, शुद्ध बुद्धि को नहीं जिससे भौतिक या दृश्य जगत् का बोध
होता है, जिससे चिन्तन, तर्क और अनुमान आदि किए जाते हैं। ज्ञान की यह
द्वैधा भावना। कांट के दर्शन का बड़ा भारी दोष है। इससे अनेक प्रकार के भ्रम
फैले हैं। पहले तो कांट ने 'शुद्ध बुद्धि' का एक अपूर्व और विशाल भवन खड़ा
करके अच्छी तरह सिद्ध कर दिया कि उसमें ईश्वर अर्थात पुरुषविशेष तथा
स्वतन्त्र और अमर आत्मा के लिए कोई
1 धर्म से अभिप्राय आचरण पर शासन रखनेवाले नियमों से है, मत या मजहब से
नहीं। मनु ने धर्म के दस मूल लक्षण बतलाए हैं-
धृति: क्षमा दमोऽस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रह:।
धीर्विद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्मलक्षणम्ड्ड
इस लक्षण में स्वार्थ (धृति, शौच दम) और परार्थ (क्षमा, अक्रोध, सत्य)
दोनों आ गए हैं।
स्थान नहीं है, उसकी सत्ता का कोई प्रमाण नहीं है। पीछे उसने भी प्रमाणहीन
कल्पना का सहारा लिया और 'व्यवसायत्मिका बुद्धि' का एक दूसरा हवाई महल खड़ा
करके उसमें इन कल्पित वस्तुओं के लिए जगह की।
विश्वास के आधार पर स्थित इस भवन में उसने 'कर्माकर्म की व्यवस्था'
प्रतिष्ठित की। इस व्यवस्था के अनुसार सदसत्सम्बन्धी व्यापक नियम सर्वथा
स्वतन्त्र और स्वत:प्रमाण हैं, वे और किसी वस्तु की प्रामाणिकता पर निर्भर
नहीं। भौतिक या दृश्य जगत् में जो नियम दिखाई पड़ते हैं उनके द्वारा उनका
समाधान नहीं हो सकता। वे चिन्मय जगत् के अन्तर्गत हैं। वे आत्मानुभूति के
नियमों में दाखिल हैं अर्थात किसी कर्म के उपस्थित होने पर आत्मा उसके भले
या बुरे होने के सम्बन्ध में अपनी स्थिति का आप जो बोध करती है वह सदा एक
ही प्रकार का होता है। इसी आदेश पर चलना धर्म या सदाचार है। कांट का
सिद्धांत यदि ठीक मानें तो संसार के सब मनुष्यों में एक ही प्रकार की
कर्तव्यबुद्धि होनी चाहिए। पर ईधर जो पृथ्वी पर की भिन्न भिन्न जातियों का
अनुसंधान किया गया है उससे यह बात पाई नहीं जाती। अनुसंधान से यही पाया
जाता है कि भिन्न भिन्न जातियों में, विशेषत: असभ्य जातियों में, कर्तव्य
की भावनाएँ भिन्न भिन्न हैं। वे कर्म और रीतिरिवाज जिन्हें हम घोर पाप और
अपराध समझते हैं, कुछ जातियों द्वारा कुछ अवस्थाओं में धर्म और कर्तव्य
माने जाते हैं।
कांट ने बुद्धि के जो दो परस्परविरुद्ध भेद किए उसका खंडन यद्यपि पीछे से
लोगों ने किया पर उसे बहुत से लोग अभी तक मानते जाते हैं। बात यह है कि
उससे मतवादियों और ख्याली पुलाव पकानेवालों की निराधार कल्पनाओं को बहुत
कुछ सहारा मिला है। इसी से यह द्वैधाभाव उन्हें अत्यंत प्रिय है। पर कांट
ने 'व्यवसायत्मिका बुद्धि' का जो आडम्बर खड़ा किया था उसे आधुनिक विज्ञान ने
छिन्न भिन्न कर दिया है। परमतत्व की अक्षरता के नियम द्वारा जगद्विज्ञान ने
सिद्ध कर दिया है कि कोई पुरुष विशेष रूप ईश्वर नहीं है। भिन्न भिन्न
जंतुओं के मनोव्यापारों के मिलान और अन्त:करण के क्रमागत विकास के निरीक्षण
द्वारा जिस आधुनिक मनोविज्ञान की स्थापना हुई, उसने प्रमाणित कर दिया है कि
अमर आत्मा कोई वस्तु नहीं। शरीरव्यापार शास्त्र द्वारा 'कर्मसंकल्पवृत्ति'
के स्वातन्त्रय का भी खंडन हो गया है। विकास सिद्धांत से यह अच्छी तरह
स्थिर हो गया है कि प्रकृति के उन्हीं अविचल या शाश्वत नियमों के अधीन सजीव
सृष्टि तथा उसके धर्म आदि सब व्यापार भी हैं जिनके अधीन जड़ सृष्टि है।
अस्तु, मनुष्य तथा उसका कोई व्यापार, क्या मानसिक, क्या धर्म और क्या
आचारसम्बन्धी, उन नियमों के परे नहीं है।
आधुनिक विज्ञान ने कांट के द्वैधाभाव का खंडन ही नहीं किया है उसके स्थान
पर सच्ची कर्तव्याकर्तव्य व्यवस्था भी स्थापित की है। इस व्यवस्था के
अनुसार कर्तव्यबुद्धि कल्पना के आधार पर स्थित नहीं है बल्कि 'सामाजिक
प्रवृत्ति' पर निर्भर है जो समुदाय में रहनेवाले सब जंतुओं में पाई जाती
है। धर्म या सदाचार का सबसे बड़ा उद्देश्य यह है कि स्वार्थ और परार्थ के
बीच सामंजस्य स्थापित हो। दोनों के पलड़े इस प्रकार तुले रहें कि व्यवहार
में किसी प्रकार की बाधा न पड़े, अपनी भलाई और दूसरे की भलाई दोनों का साधान
बराबर होता जाये, दोनों के बीच विरोध न आने पाये। प्रसिद्ध अंग्रेज
दार्शनिक हर्बर्ट स्पेन्सर ने विकास सिद्धांत की दृढ़ नींव पर इस प्रकार की
तात्त्विक कर्तव्याकर्तव्य व्यवस्था स्थापित की है। 1
मनुष्य समुदाय में रहनेवाला प्राणी है अत: समुदाय में रहनेवाले और दूसरे
जंतुओं के समान उसके दो प्रकार के कर्तव्य हैं; एक अपने प्रति और दूसरा उस
समाज के प्रति जिसमें वह रहता है। एक का साधन स्वार्थ कहलाता है और दूसरे
का परार्थ या परोपकार। मनुष्य के लिए दोनों उचित हैं। यदि मनुष्य को समाज
में रहना है तो उसे केवल अपना ही भला न देखना चाहिए, दूसरों का भला भी
देखना चाहिए जिनके साथ उसे रहना है। उसे यह समझना चाहिए कि समाज के हित से
उसका भी हित है। यदि समाज का कोई भी अनिष्ट होगा तो उस समाज में रहने के
कारण वह उस अनिष्ट से बच नहीं सकता। सिद्धांत रूप में तो इसका खंडन कोई
नहीं कर सकता पर इसके विरुद्ध व्यवहार लोग बराबर करते हैं।
'स्वार्थ' और 'परार्थ दोनों पर समान दृष्टि रखना हमारे तत्त्वाद्वैत धर्म
का मुख्य तत्व है। आत्मोपकार और परोपकार दोनों इस धर्म के अन्तर्गत हैं।
'दूसरों के साथ वैसा ही व्यवहार करो जैसा तुम चाहते हो कि वे तुम्हारे साथ
करें', ईसाई धर्म की इस शिक्षा में यह बात स्पष्ट है कि हमारे लिए अपने
प्रति भी वैसे ही पवित्र कर्तव्य हैं जैसे दूसरों के प्रति। ये युगपद् धर्म
कुटुम्ब और समाज की रक्षा के लिए परम आवश्यक प्राकृतिक नियम हैं। आत्मभाव
से व्यक्ति की रक्षा होती है और परार्थभाव से व्यक्तियों से बनी हुई जाति
की। प्राणियों के समूहबद्ध होने के लिए उनमें एक प्रकार की सामाजिक
प्रवृत्ति सजीव सृष्टि की आदिम अवस्था में ही उत्पन्न हुई। यह वंशपरम्परागत
प्रवृत्ति समूह में रहनेवाले छोटे बड़े सब जंतुओं में पाई जातीहै।
1 पाश्चात्य दर्शन में कर्तव्याकर्तव्य शास्त्र के सम्बन्ध में कई प्रकार
के सिद्धांत पाए जाते हैं-(इन्टयूशनल थ्योरी) 'विवेकबुद्धिवाद' जो सदसत्य
का भेद करनेवाली बुद्धि को स्वभावसिद्ध मानता है, 'प्रेरणावाद'
(सेंटिमेन्टल ओर इमोशनल थ्योरी। जो कर्मों के प्रति स्वाभाविक रुचि और घृणा
की प्रेरणा को सदसभेद का मूल बतलाता है, सुखवाद (युटिलिटेरियन थ्योरी) जो
समाज के लाभालाभ की दृष्टि से, अर्थात किस कर्म से सबसे अधिक लोगों के सबसे
अधिक सुख का साधान होता है, कर्माकर्म का निर्णय करता है। प्रथम दो
सिध्दान्तों के अनुयायियों में ही कुछ आध्यात्मिक दृष्टि रखनेवाले दार्शनिक
हुए हैं जो धर्म और आचार के नियमों को नित्य और स्वतन्त्र मानते हैं। पर
प्राय: सब दार्शनिकों ने शब्दों पर ही तर्कवितर्क करके भारी वाग्जाल खड़ा
किया है। पर जब से आधिभौतिक शास्त्रों के विविध अंगों की अपूर्व उन्नति
होने लगी तब से विचारपद्धति बदल गई। व्यवहार और समाजविकास की दृष्टि से
धर्म और आचार इन दोनों की व्याख्या की गई।
विकास परम्परानुसार उत्तरोत्तर उन्नत कोटि के जीवों की उत्पत्ति के साथ साथ
यह प्रवृत्ति भी वृद्धि को प्राप्त होती गई। लोक के प्रति जो हमारे धर्म
हैं वे इसी मूल प्रवृत्ति के उन्नत या प्रवर्द्धित रूप हैं जो धीरे-धीरे
वर्तमान अवस्था को पहुँचे हैं।
सभ्य मनुष्यों के बीच सदाचार सम्बन्धी जो नियम पाए जाते हैं वे बहुत कुछ
उनकी उस धारणा के अनुसार होते हैं जो जगत् के विषय में होती है। अत: उन
नियमों का सम्बन्ध किसी न किसी मत या मजहब से रहता है।
धर्म का मुख्य तत्व उस सिद्धांत में है जिसे ईसाई लोग भी अपने मत की प्रधान
शिक्षा मानते हैं। 'तुम दूसरों के साथ वैसा ही व्यवहार करो जैसा तुम चाहते
हो दूसरे तुम्हारे साथ करें', इस कथन में धर्म का सम्पूर्ण सार है पर यह
बात भी समझ रखनी चाहिए कि इस धर्मतत्व की स्थापना ईसा के जन्म से हजारों
वर्ष पहले प्राचीन सभ्य देशों में ही हो चुकी थी। सबसे पहले इस तत्व का
निरूपण भारत1 और चीन में हुआ। ईसा से 500 वर्ष पहले कनफूची ने जो
पुरुषविशेष ईश्वर और अमर आत्मा नहीं मानता था, उपदेश दिया था कि 'हर एक
आदमी के साथ वैसा कर जैसा तू चाहता है कि वह तेरे साथ करे, दूसरे के साथ
वैसा कभी न कर जैसा कि तू चाहता है कि वह तेरे साथ न करे। तुझे एकमात्र इसी
उपदेश की आवश्यकता है।' इसी प्रकार यूनान के कई तत्वज्ञों ने इस सिद्धांत
को प्रकट किया था। अरस्तू का कथन है कि 'हमें दूसरों के साथ वैसा ही करना
चाहिए जैसा हम चाहते हैं कि दूसरे हमारे साथ करें।' सारांश यह कि ईसाई मत
ने इस सिद्धांत को भी अपने और सिध्दान्तों के समान, अपने से पूर्व के मतों
से विशेषत: बौद्धमत से लिया है।
जैसा ऊपर कहा जा चुका है, इस सिद्धांत का महत्त्व हमारा तत्त्वाद्वैत धर्म
भी स्वीकार करता है; क्योंकि इसमें स्वार्थ और परार्थ दोनों पर समान दृष्टि
रखी गई है। पर ईसाइयों की तथा ओर मतों की पुस्तकों में बहुत से विरुद्ध
वाक्य मिलते हैं जिनमें स्वार्थ का एकदम परित्याग करने को कहा गया है और
परार्थ ही की ओर लक्ष्य रखा गया है। पर स्वरक्षा के लिए स्वार्थ पर दृष्टि
रखना आवश्यक है। आत्मरक्षा पहला धर्म है। ईसाई मत की शिक्षा है कि 'जो
तुम्हें एक गाल में चपत मारे उसके लिए दूसरा गाल भी फेर दो, अपने वैरियों
से प्रेम करो, जो तुम्हें शाप दें उसे आशीर्वाद दो, जो तुम्हें सतावें उनके
कल्याण के लिए प्रार्थना करो' इत्यादि। ये बातें सुनने में तो बहुत अच्छी
लगती हैं पर अस्वाभाविक हैं और व्यवहार में नहीं चल सकतीं। यदि कोई दुष्ट
धूर्तता करके हमारा आधा माल उठा ले जाये तो क्या हमें यही चाहिए कि हम बाकी
आधा भी उसके आगे उठाकर रख दें। यदि व्यापार,
1 शरशय्या पर भीष्म ने जो उपदेश दिए हैं उनमें एक यह भी है कि ''जो अपने को
अच्छा लगे उसे दूसरों के लिए भी अच्छा समझे और जो अपने को अप्रिय हो उसे
दूसरों के लिए भी अप्रिय समझे।'' बौद्ध धर्म में भी यह सिद्धांत कई जगह कहा
गया है।
राजनीति आदि में इन उपदेशों का पालन किया जाये तो क्या दशा होगी। अत: यही
कहना पड़ता है कि ईसाई आदि मत एकांगदर्शी हैं। उनमें परार्थभाव को तो बढ़ाकर
कल्पित आदर्श खड़े किए गए हैं पर स्वार्थ का कुछ भी ध्यान नहीं रखा गया है।
यही कारण है कि 'पर उपदेश कुशल' लोगों की बातें मनुष्य समाज के बीच कहीं
नहीं पाई जातीं।
दूसरी बात यह है कि ईसाई धर्मपुस्तक में शरीर को एक क्षणभंगुर पिंजरा मात्र
समझने के कारण उसकी रक्षा के लिए शौच आदि नियमों का समावेश नहीं है।
हिन्दूधर्म में नित्यस्नान आदि के जैसे नियम हैं वैसे ईसाई मत में नहीं।
यहाँ तक कि कैथलिक सम्प्रदाय के बहु तेरे मठों में सबसे पवित्र और धार्मिक
वह समझा जाता है जो शरीर के मैले कुचैले रहने की परवा नहीं करता, अपने कपड़े
धोने धुलाने की चिन्ता नहीं करता, किसी काम के किनारे नहीं फटकता और अनेक
प्रकार के व्रत, उपवास तथा स्तुति पाठ आदि में ही सारा समय व्यतीत करता है।
जैन आदि कुछ मतों में शौच का इतना अभाव है और व्रत, उपवास आदि के नियम इस
हद तक पहुँचाए गए हैं कि आश्चर्य होता है। शौच सम्बन्धी आचार प्रथम धर्म
है-
'आचार: प्रथमो धर्म:'।
इसी प्रकार शरीर रक्षा भी प्रधान कर्तव्य है-'शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधानम्'।
एक और बड़ा भारी दोष ईसाई आदि पैगम्बरी, शमई या इबरानी मतों में यह है कि
उनमें मनुष्य सारी सृष्टि से अलग किया जाकर एक अतीत पद को पहुँचा दिया गया
है। ऐसा जान पड़ता है कि सारी सृष्टि मनुष्य ही के लिए है, उसमें जो कुछ
होता है सब मनुष्य ही के हानि-लाभ के लिए। आदमी न होता तो शायद दुनिया भी न
होती। इन मतों में मनुष्य की दृष्टि मनुष्य ही तक रह गई है, आगे सृष्टि के
उस अपार विस्तार की ओर जरा भी नहीं गई है मनुष्य जिसका एक क्षुद्र से
क्षुद्र अंश मात्र है। बाइबिल में मनुष्य ने अपने को 'ईश्वर की
प्रतिमूर्ति' कहा है पर सच पूछिए तो ईश्वर को ही उसने अपनी प्रतिमूर्ति
समझा है। अपनी प्रधानता के मद में इन मतप्रवर्तकों ने यह न समझा कि कुत्तो,
बिल्ली, बन्दर आदि जो सुख-दु:ख का अनुभव करनेवाले और प्रयत्नशील जीव हैं
उन्हीं में से एक मनुष्य भी है। अहंकार वंश यदि मनुष्य अपने को अलग समझे और
अपने से छोटे जीवों के जी को जी न समझे तो यह उसकी सरासर भूल है। सम्यक्
दृष्टि के अभाव से ही ईसाई आदि मतों में अन्य जीवों, गाय, भैंस, कुत्तो,
बन्दर इत्यादि के प्रति दया और स्नेह का वैसा भाव थोड़ा बहुत भी नहीं पाया
जाता जैसा हिन्दू, बौद्ध आदि धर्मों में कूट कूट कर भरा हुआ है। ईसाई देशों
में जाकर देखिए कि पशुओं के प्रति कितनी निष्ठुरता की जाती है, किस
निर्दयता से उनके प्राण लिए जाते हैं। ईसाई लोग पशुओं के जी को जी ही नहीं
समझते। इस विषय में हमारा तत्त्वाद्वैत धर्म कितना उदार है। डारविन ने अपने
विकासवाद द्वारा हमें यह सुझा दिया है कि हमारी उत्पत्ति बनमानुसों से हुई
है और सब जीव एक ही प्रकार के मूल अणुजीवों से क्रमश: विकास द्वारा उत्पन्न
हुए हैं। अत: यों तो सभी जीव हमारे सम्बन्धी हैं पर स्तनपायी पशु हमारे सगे
हैं। आधुनिक शारीरिक या शरीर व्यापार विज्ञान ने हमें यह बतला दिया है कि
हममें और उनमें एक ही प्रकार के संवेदन सूत्र हैं, एक ही प्रकार की
इन्द्रियाँ हैं और एक ही प्रकार की सुख-दु:ख का अनुभव करने की वृत्ति है।
कोई तत्त्वाद्वैतवादी या प्रकृति विज्ञानी पशुओं के प्रति वैसी निष्ठुरता
और क्रूरता नहीं कर सकता जैसी ईश्वर के सगे बनकर ईसाई लोग करते हैं। ईसाई
मत हमें प्रकृति के प्रेम से दूर रखता है।
ईसाई आदि वैराग्यप्रधान मतों में सांसारिक जीवन तो कुछ समझा ही नहीं गया
है, अत: उनकी शिक्षाओं पर लोग यदि चलें तो फिर वही दशा हो कि 'सकल पदारथ
हैं जग माहीं। भाग्यहीन नर पावत नाहीं।' विज्ञान ने जो रेल, तार आदि के
सुबीते कर दिए हैं; संगीत, चित्रकारी आदि में जो अपूर्व चमत्कार अविष्कृत
हुए हैं, वे सब सभ्य मनुष्य के 'सांसारिक सुख' हैं अत: उनसे सच्चे ईसाइयों
को, सच्चे विरक्तों को दूर ही रहना चाहिए। अस्तु, यही कहना पड़ता है कि ईसाई
मत सभ्यता का शत्रु है। यहीं तक नहीं, उस पारिवारिक जीवन की भी ईसाई मत
उपेक्षा करता है जो समूह में रहनेवाले समस्त उच्च कोटि के प्राणियों का
प्रकृत लक्षण है। परलोक की ओर ही लौ लगाए रखने के कारण ईसा ने इस लोक के
पारिवारिकर कत्ताव्यों की ओर ध्यान नहीं दिया। अपने माता-पिता के प्रति
उनके स्नेह का कोई दृष्टान्त पाया नहीं जाता। स्वयं घरबारी न होने के कारण
दाम्पत्य प्रेम की वे निन्दा ही करते रहे। उनके शिष्य पाल ने यहाँ तक कहा
कि 'स्त्री का स्पर्श तक करना बुरा है।' यदि इस शिक्षा पर दुनिया चलती तो
धर्म अधर्म का आचार ही नष्ट हो जाता। पारिवारिक जीवन ही उन्नति का प्रथम
विकास है। पारिवारिक जीवन से सामाजिक जीवन का और सामाजिक जीवन से राजनीतिक
या राष्ट्रीय जीवन का विकास होता है। स्त्रियों की उपेक्षा करने से संसार
नहीं चल सकता। स्त्री और पुरुष दोनों समाज के अंग हैं, दोनों के मेल से ही
अर्थ, धर्म आदि का साधन हो सकता है। ज्यों ज्यों सभ्यता बढ़ी स्त्री जाति का
महत्त्व स्वीकार किया गया, स्त्री पुरुष की अध्र्दांगिनी कहलायी। स्त्रियों
के रूप में गुण आदि द्वारा मनुष्य में सौन्दर्य की भावना का कितना विकास
हुआ है और काव्य तथा चित्रकला आदि में कितनी मोहिनी शक्ति आई है। पर
स्त्रियों को 'पैर की धूल' समझनेवाली प्राचीन असभ्य जातियों का भाव ईसा में
भी भरा था।
ईसा के इस भाव का परिणाम यह हुआ कि पोप द्वारा प्रवर्तित ईसाई मत में
उपदेशकों और पादरियों के लिए अविवाहित रहने का कठोर नियम बनाया गया। पर इस
कठोर नियम का फल क्या हुआ? व्यभिचार की घोर वृद्धि। पोप के अधीन धर्माचार्य
लोग जिस समय नास्तिकों के दंड की व्यवस्था देने बैठते थे उस समय वे
व्यभिचारिणी स्त्रियों से घिर कर बैठते थे। पादरियों के व्यभिचार की सीमा
इतनी बढ़ी कि प्रजा घबरा गई। अब भी युरोप के उन देशों में जिनमें कैथलिक
सम्प्रदाय के ईसाई बसते हैं, अविवाहित रहने के नियम के विरुद्ध आन्दोलन चला
करते हैं।
अब यह देखना चाहिए कि संसार में प्रचलित भिन्न भिन्न मतों या मजहबों के
प्रति वर्तमान सभ्य राज्यों का क्या कर्त्तव्य है। कहने की आवश्यकता नहीं
कि अब वह समय आ गया है जब राज्य से किसी मतविशेष से कोई लगाव न रहे। न
राज्य अपनी ओर से किसी मत को आश्रय दे, न सतावे। किसी मजहब के प्रचार आदि
के लिए राज्य की ओर से कोई प्रयत्न नहीं होना चाहिए। सब मजहबवालों को अपने
अपने विश्वास के अनुसार चलने देना चाहिए। हाँ यदि कोई सम्प्रदाय ऐसा है
जिसके विधान व्यभिचारमय हैं और जिससे सदाचार को धक्का पहुँचने की सम्भावना
है तो उस पर कुछ रोक रखनी चाहिए, बस। दूसरी बात यह है कि सर्वसाधारण की
शिक्षा के लिए जो व्यवस्था हो वह मतमतान्तरों से सर्वथा स्वतन्त्र रहे।
विद्यालय में मतामतान्तरों की शिक्षा को स्थान न देना चाहिए। यह बालकों के
माता पिता का काम होना चाहिए कि वे उनका विश्वास जिस मत या मजहब पर चाहे
जमावें। स्कूलों और काँलेजों को मजहबी झगड़ों से अलग रखना चाहिए। वे शुद्ध
ज्ञान के मन्दिर हैं। उनमें मानसिक शक्ति की वृद्धि की ऐसी व्यवस्था होनी
चाहिए कि उनमें से निकले हुए लोगों को अन्वीक्षण द्वारा सृष्टि के नाना
रहस्यों को समझने में सहायता मिले। सर्वसाधारण की शिक्षा के सम्बन्ध में
नीचे लिखी बातों का ध्यान यदि रखा जाये तो बहुत अच्छा हो।
1. अब तक शिक्षा का जो क्रम रहा है उसमें मनुष्य की कृतियों का परिचय कराने
की ओर ही अधिक प्रवृत्ति रही है। व्याकरण, कानून, धर्मशास्त्र आदि पर अधिक
जोर रहा है जिनमें मनुष्यों के बनाए हुए नियम संगृहीत हैं। प्रकृति के
अध्ययन की ओर उतना ध्यान नहीं रहा है।
2. अब जो विद्यालय होंगे उनमें अध्ययन की प्रधान वस्तु होगी प्रकृति। यह
जगत् किस प्रकार का है इस बात को अब शिक्षा प्राप्त करके लोग समझेंगे। वे
अपने को प्रकृति से अलग करके न देखेंगे बल्कि उसी का एक सर्वोच्च विकास
समझेंगे।
3. अब तक संस्कृत, अरबी, लैटिन, यूनानी इत्यादि पुरानी भाषाओं के पठनपाठन
में बहुत लोगों का बहुत अधिक समय लगाया जाता था। इन भाषाओं का जानना जरूरी
है पर एक हद तक, सो भी सबके लिए नहीं। अब इन भाषाओं के बिना भी ज्ञान की
वृद्धि हो सकती है। दर्शन, विज्ञान आदि के नवीन तत्व अब प्रचलित भाषाओं में
ही लिखे जाते हैं।
4. अब प्रचलित देशभाषाओं की उन्नति की ओर ही ध्यान होना चाहिए, उनमें नई
पुरानी सब बातों का समावेश होना चाहिए।
5. इतिहास की शिक्षा में ऊपरी बातों जैसे, राजवंश परम्परा, युद्ध इत्यादि
की ओर उतना ध्यान न होना चाहिए जितना किसी जाति की आभ्यन्तर दशा तथा उसकी
सभ्यता और ज्ञान की वृद्धि और ह्रास के क्रम की ओर।
6. विकासशास्त्र की शिक्षा की पूर्णता के लिए यह आवश्यक है कि जगद्विकास
विज्ञान की शिक्षा हो। भूगोल के साथ भूगर्भशास्त्र, प्राणिविज्ञान और
मानवविज्ञान जिसमें मनुष्यजाति के विकास आदि का विस्तृत वर्णन होता है, की
भी शिक्षा अवश्य होनी चाहिए।
7. प्राणिविज्ञान के स्थूल तत्त्वों का ज्ञान प्रत्येक शिक्षित पुरुष को
होना चाहिए। वैज्ञानिक शिक्षा द्वारा अन्वीक्षण की शक्ति प्राप्त हो जाने
से उनकी ओर चित्ता आप से आप आकर्षित होगा। पीछे शारीरिक अर्थात शरीरव्यापार
विज्ञान और अंगविच्छेदशास्त्र का भी कुछ अभ्यास कराना चाहिए।
8. पदार्थविज्ञान और रसायनशास्त्र की शिक्षा भी गणित के साथ साथ अवश्य होनी
चाहिए।
9. रेखाओं द्वारा आकृति लेखन (ड्राइंग) और यदि हो सके तो थोड़ी बहुत
चित्रकारी का अभ्यास भी प्रत्येक छात्र-छात्रा को होना चाहिए। फूलपत्तो,
पशु, पक्षी, समुद्र, मेघ आदि के अपने हाथ से बनाए चित्रों के द्वारा
मनोरंजन भी होगा और प्रकृति के अन्वीक्षण की उत्कण्ठा और उसके रहस्यों को
समझने की प्रवृत्ति भी उत्पन्न होगी।
10. छात्रों के व्यायाम की ओर भी अधिक ध्यान रखना होगा। कसरत करने और तैरने
का अभ्यास सबको रहना चाहिए। पर सबसे अच्छा तो यह होगा कि कम से कम सप्ताह
में एक दिन दूर दूर तक भिन्न भिन्न स्थानों में पैदल सैर करने जाया करें।
इससे उन्हें प्रकृति के नाना पदार्थों के अन्वीक्षण का अवसर मिलेगा। इस
प्रकार के अन्वीक्षण द्वारा जो ज्ञान प्राप्त होगा वह अधिक स्थायी होगा।
अब तक शिक्षा का उद्देश्य यही समझा जाता रहा है कि छात्रा ऐसे व्यवसायों और
ऐसे राजकीय पदों के लिए तैयार हो जायें जो समाज में प्रतिष्ठित समझे जाते
हैं। अब से शिक्षा का मुख्य उद्देश्य यह होगा कि उनमें स्वतन्त्र विचार
करने की और सीखी हुई बातों को स्पष्ट रूप से समझने की शक्ति आये। यदि ऐसे
आदर्श राज्य की स्थापना वांछनीय है जिसमें प्रत्येक व्यक्ति को राजकीय
सदस्य आदि चुनने का अधिकार हो, तो यह आवश्यक है कि शिक्षा द्वारा प्रत्येक
व्यक्ति की बुद्धि इस प्रकार उन्नत और परिष्कृत कर दी जाय कि वह राज्य का
हित अहित समझ सके।
बीसवाँ प्रकरण
-जगत् के रहस्यों
का उद्धाटन
अब यह देखना है कि विज्ञान के अनेक अंगों की अपूर्व उन्नति से जगत् के
रहस्यों का कहाँ तक उद्धाटन हुआ है। यह तो मानना ही पड़ेगा कि ईधर 100
वर्षों के बीच प्रकृति के नाना क्षेत्रों का जितना सूक्ष्म अनुसंधान हुआ है
उतना पहले कभी नहीं हुआ था। बहुत से ऐसे नए नए शास्त्रों और विज्ञानों की
स्थापना हुई है जिनकी ओर 100 वर्ष पहले किसी का ध्यान भी न गया था। अब
विचारने की बात यह है कि ज्ञानविज्ञान की इस उन्नति से हम जगत् के नाना
विधानों को समझने में अधिक समर्थ हुए हैं अथवा जैसे पहले थे वैसे ही हैं।
मेरा कहना यह है कि हम कहीं अधिक समर्थ हैं। विज्ञान ने दिखा दिया है कि
कार्यकारण का भौतिक नियम समस्त जगत् में चलता है और समस्त जगत् को चलाता
है। कोई वस्तु उसके बाहर नहीं। मनुष्य का अन्त:करण भी इसी कार्यकारण
परम्परा द्वारा उत्पन्न हुआ है और चल रहा है। इस बात को स्पष्ट करने के लिए
यह आवश्यक है कि विज्ञान के मुख्य मुख्य क्षेत्रों में जो अभूतपूर्व उन्नति
हुई है उसका संक्षेप में उल्लेख कर दिया जाये।
1 ज्योतिर्विज्ञान की उन्नति
मनुष्य ने अपने विकास आदि का ज्ञान तो अब प्राप्त किया है पर आकाश के
नक्षत्रों और ग्रहों की स्थिति के सम्बन्ध में सभ्य जातियों ने 5,000 वर्ष
पहले भी बहुत जानकारी प्राप्त की थी। हिन्दू, चीनी, मिश्री इत्यादि प्राचीन
पूर्वीय सभ्य जातियों को ज्योतिष की जितनी जानकारी थीं उतनी युरोप के
ईसाइयों को उनसे 4,000 वर्ष पीछे भी नहीं प्राप्त थी। चीन देश में ईसा से
2697 वर्ष पहले एक सूर्य ग्रहण का ज्योतिष की रीति से विचार किया गया था और
1100 वर्ष पहले क्रान्तिवृत्ता का धरातल शंकु के प्रयोग द्वारा निश्चित
किया गया था। बेचारे ईसा को ज्योतिष का कुछ भी ज्ञान न था। वे आकाश और
पृथ्वी को किसी के हाथ की बनाई चीजें समझते थे। पृथ्वी ही को वे सम्पूर्ण
जगत् का केन्द्र और मनुष्य ही को सब कुछ समझते थे। अत: ईसाई मत के कारण
युरोप में ज्योतिष के सम्बन्ध में बहुत दिनों तक कुछ उन्नति नहीं हो सकी।
अन्त में सन् 1500 में जब कोपरनिकस ने टालमी के सिद्धांत का खंडन करके यह
सिद्धांत स्थापित किया कि सूर्य ही केन्द्र है जिसकी पृथ्वी इत्यादि
ग्रहपिंड परिक्रमा कर रहे हैं, तब ईसाई धर्माचार्यों में बड़ा कोलाहल मचा,
क्योंकि ईसाई मत की दृष्टि में पृथ्वी ही जगत् का केन्द्र है और मनुष्य ही
उसका एकमात्र अधिष्ठाता देवता है। पीछे गैलीलियो और केप्लर ने कोपरनिकस के
सिद्धांत को पुष्ट करते हुए ग्रहों की गति आदि का भौतिक नियमानुसार निरूपण
किया। अन्त में सन् 1686 में न्यूटन ने अपने आकर्षण सिद्धांत द्वारा गति की
मीमांसा की और आधुनिक ज्योतिर्विज्ञान की दृढ़ नींव डाली।
सन् 1755 में प्रसिद्ध दार्शनिक कांट ने सम्पूर्ण जगत् के प्राकृतिक विकास
का क्रम न्यूटन के सिद्धांत के आधार पर निरूपित किया। लाप्लेंस अपनी
स्वतन्त्र परीक्षाओं द्वारा उसी सिद्धांत पर पहुँचा जिस पर कांट पहुँचा था।
उसने सम्पूर्ण जगत् की गति को प्राकृतिक या भौतिक विधान सिद्ध कर दिया और
नए नए अनुसंधानों के लिए मार्ग खोल दिया। फोटोग्राफी और रश्मिविश्लेषण के
द्वारा ज्योतिष के साथ भौतिक विज्ञान और रसायन का योग हुआ जिससे एक बड़ा
भारी सिद्धांत निकला। यह स्पष्ट सिद्ध हो गया कि समस्त विश्व में एक ही
द्रव्य का प्रसार है। जिस द्रव्य से हमारा यह भूपिंड बना है उसी द्रव्य से
सूर्य, चन्द्र, मंगल, बुध इत्यादि सब ग्रह, नक्षत्र आदि बने हैं और उस
द्रव्य के भौतिक और रासायनिक गुण हम यहाँ देखते हैं, वे ही सर्वत्र हैं।
ज्योतिष के साथ विज्ञान के मिलने से जिस ज्योतिर्विज्ञान की सृष्टि हुई
उसकी सहायता से अब हमें निश्चय हो गया है कि समस्त विश्व वस्तुत: एक है, एक
ही अद्वितीय तत्व का प्रसार सर्वत्रा है। यह नहीं है कि जिस द्रव्य को अनेक
रूपों में हम इस पृथ्वी पर पाते हैं उससे परे या सर्वथा भिन्न कोई और तत्व
दूसरे लोकों या ग्रह नक्षत्र पिंडों में है। द्रव्य के गुण जो यहाँ हैं वे
ही अन्तरिक्ष के सब भागों में हैं। जो भौतिक नियम यहाँ चलते हैं वे ही
सर्वत्रा चलते हैं। जगत् की गति नित्य है। उसके प्रत्येक भाग में रूपान्तर
या परिवर्तन का क्रम सदा चलता रहता है। प्रकृति के भीतर विकृति का क्रम अलग
अलग बराबर जारी रहता है। भारी भारी दूरबीनों से यदि हम अन्तरिक्ष में चारों
ओर देखते हैं तो कहीं कहीं लपट के रूप का अत्यंत सूक्ष्म और पतला ज्वलंत
वायु पदार्थ फैला दिखाई पड़ता है जिसे ज्योतिष्क नीहारिका कहते हैं। इसके
ताप और तेज का अनुमान तक हमलोग नहीं कर सकते। इसी को हम हिरण्यगर्भ1 कह
सकते हैं जिससे सृष्टि उत्पन्न होती है। इसी तेज:पुंज के
1 हिरण्यगर्भ: सर्मवत्ताताग्रे भूतस्य जात: पतिरेक आसीत्। अर्थात पहले
हिरण्यगर्भ था और उस हिरण्यगर्भ से सब सृष्टि उत्पन्न हुई। -ऋ 10-121-1
जमने से ग्रह, नक्षत्र आदि के पिंड बनते हैं। यह द्रव्य का वह प्रारम्भिक
रूप है जो रासायनिक मूल द्रव्यों में विभक्त नहीं हुआ रहता। सबसे मूल
साम्यवस्था में तो द्रव्य ग्राह्य अर्थात ईथर या आकाश द्रव्य इन दो रूपों
में भी विभक्त नहीं रहता। जिस प्रकार आकाश में कहीं-कहीं लोकों के उपादान
तेज:पुंज दिखाई पड़ते हैं उसी प्रकार कहीं-कहीं ऐसे तारे भी दिखाई पड़ते हैं
जो ज्वलंत वायु पदार्थ के कुछ ठंढे पड़ने से देदीप्यमान द्रवपदार्थ जैसे
गरमी से पिघलकर पानी से भी पतला होकर बहता हुआ लाल लोहा के रूप में हो गए
हैं। कहीं ऐसे तारे मिलते हैं जो बिलकुल ठंढे पड़ गए हैं; जिनमें कुछ भी
गरमी नहीं रह गई है। शनि के समान बहुत से ऐसे तारे भी देखे जाते हैं जो
चारों ओर घूमते हुए ज्योतिर्वलय से वेष्ठित रहते हैं। ज्योतिष्कनीहारिका के
ये वलय क्रमश: जमते जमते चन्द्रमा बन जायँगे जो उन तारों की परिक्रमा किया
करेंगे। हमारा चन्द्रमा वलय के रूप में था जो जमकर पृथ्वी से उसी प्रकार
अलग हुआ है जिस प्रकार पृथ्वी सूर्य से अलग हुई है। कौन सा तारा विकास की
किस अवस्था में है इसका बहुत कुछ पता हमें उसके रंग से लग सकता है।
बहुत से नक्षत्र, जिनके प्रकाश के यहाँ तक पहुँचने में हजारों वर्ष लगते
हैं, हमारे सूर्य के ही समान हैं। उनके अधीन भी अनेक ग्रह, उपग्रह हैं जो
उनकी परिक्रमा किया करते हैं। इन ग्रहों में हजारों लाखों ऐसे होंगे जो उसी
अवस्था में होंगे जिस अवस्था में हमारी पृथ्वी है, अर्थात उनके ऊपर न तो
इतना उग्र ताप ही होगा कि जल वाष्प के रूप में ही रहे, और न इतनी गहरी सरदी
ही होगी कि वह ठोस होकर ही जमा रहे, उनमें भी जल द्रव अवस्था में होगा। जल
की इसी अवस्था में अंगारक द्रव्य में वह अपूर्व संयोग सम्भव होता है जिससे
कललरस का प्रादुर्भाव होता है। यही कललरस जीवनतत्व है। अत्यंत सूक्ष्म
जीवाणु कललरस रूप ही होते हैं और अंगारक और नाइट्रोजन के संयोग विशेष से
स्वत: उत्पन्न होते हैं। बहुत सम्भव है कि पृथ्वी से मिलती जुलती
अवस्थावाले ग्रहों में भी जीवोत्पत्ति उसी क्रम में हुई हो जिस क्रम से
पृथ्वी पर हुई है। जीवोत्पत्ति के लिए जल का द्रव रूप में होना आवश्यक है।
जो तारे तरल तेज:स्वरूप हैं उनमें जल भाप के ही रूप में रहता है और जो
नक्षत्र या सूर्य जीवनशक्ति का विसर्जन करके बिलकुल ठंढे हो गए हैं उनमें
जल जब रहेगा तब ठोस बर्फ के रूप में। ऐसे तारों में जीव नहीं रह सकते। अपने
वर्तमान ज्ञान के अनुसार हम नीचे लिखी बातों का अनुमान कर सकते हैं-
1- यह बहुत सम्भव है कि जिस प्रकार क्रमश: हमारी पृथ्वी पर जीवोत्पत्ति हुई
है उसी प्रकार हमारे इस सूर्य के और ग्रहों में जैसे, मंगल और शुक्र तथा
दूसरे सूर्यों के ग्रहों में भी हुई हो, अर्थात आदि में कललरस के अणुरूप
जीव मोनरा और फिर उनसे एक घटक अणुजीव पहले अणूदि्भद और फिर कीटाणु उत्पन्न
हुए हों।
2- यह बहुत सम्भव है कि इन एक घटक अणुजीवों से पहले घटकों के समूहपिंड
जैसे, स्पंज आदि बने हों और फिर तन्तुजाल द्वारा एकीभूत अनेक घटक जीवों का
प्रादुर्भाव हुआ हो।
3- यह बहुत सम्भव है कि पौधों में पहले निरवयव निष्पुष्प पौधो जैसे, भुकड़ी
खुमी आदि जिनमें जड़, डाल, पत्ते, फूल आदि नहीं होते केवल घटकों की तह पर तह
मात्र होती है, उत्पन्न हुए हों फिर दलकांडयुक्त निष्पुष्प पौधो जैसे, पानी
के ऊपर की काई, सेवार आदि जिनमें डाल, पत्ते तो होते हैं पर जड़ नहीं होती
और सबके पीछे पुष्पवान् पौधे होते हैं।
4- यह बहुत ही सम्भव है कि जंतुओं की उत्पत्ति भी इस क्रम से हुई हो अर्थात
पहले कललात्मक अणुजीवों से कलात्मक अनेक घटक जीव जिनके शरीर में घटकजाल की
दो झिल्लियों से बना केवल एक कोठा होता है, जैसे स्पंज, मूँगा आदि हुए हों
और उनसे द्विकोष्ठ जीव जिनके शरीर के कोठे से पेट का कोठा अलग होता है,
उत्पन्न हुए हों।
5- पर इसमें बहुत सन्देह है कि इस पृथ्वी पर जीवधारियों की भिन्न भिन्न
शाखाएँ जिन जिन रूपों में प्रकट हुई हैं, ठीक उन्हीं रूपों में और ग्रहों
पर भी प्रकट हुई हैं। सम्भव है कि जीवों की शाखाओं ने वहाँ भिन्न भिन्न रूप
धारण किए हों वहाँ और ही आकार-प्रकार के जीव मिलते हैं।
6- कौन कह सकता है कि और ग्रहों पर रीढ़वाले जंतु हुए हों और उनमें फिर
लाखों वर्ष के अनन्तर दूधा पिलाने वाले जंतु हुए हों, जिनमें सबसे श्रेष्ठ
मनुष्य नाम का प्राणी हुआ हो। ऐसा कहने के पहले यह मानना पड़ेगा कि उन
ग्रहों पर भी ठीक ठीक ब्योरेवार वे ही घटनाएँ हुई हैं जो यहाँ हुई हैं। पर
ऐसा मानना कठिन है।
7- अस्तु, यह बात अधिक सम्भव जान पड़ती है कि ओर ग्रहों पर और ढाँचे के
उन्नत जीव उत्पन्न हुए हों जो इस पृथ्वी पर नहीं पाए जाते। जैसे, यहाँ
रीढ़वाले जंतुओं में मनुष्य हुआ वैसे ही सम्भव है वहाँ किसी और ही उन्नत
शाखा से मनुष्य की अपेक्षा कहीं अधिक शक्तिशाली और ज्ञानसम्पन्न जीव
उत्पन्न हुए हों।
8- इस बात की कभी सम्भावना नहीं कि दूसरे ग्रहों के निवासियों के साथ कभी
हमारी बातचीत हो सके क्योंकि एक तो वे बहुत ही दूर हैं, दूसरे पृथ्वी के और
उनके बीच बराबर हवा नहीं है, केवल ईथर या आकाशद्रव्य मात्र है।
पहले बतलाया जा चुका है कि जिस प्रकार बहुत से तारे उसी अवस्था में हैं जिस
अवस्था में हमारी पृथ्वी है उसी प्रकार बहुत से ऐसे भी हैं जो इस अवस्था को
पार कर गए हैं और इतने जीर्ण हो गए हैं कि नष्ट होने के निकट हैं। यही दशा
कभी हमारी पृथ्वी की भी होनेवाली है। बात यह है कि किसी लोकपिंड को लीजिए,
उसके ताप का बराबर विसर्जन होता रहा है, उसकी गरमी निकल निकल कर बराबर आकाश
में लीन होती जाती है। गरमी जब बिलकुल घट जायेगी तब सारा जल जमकर ठोस बर्फ
के रूप में हो जायेगा और सम्पूर्ण प्राणियों, जंतु वनस्पति आदि सबका नाश हो
जायेगा। घूमता हुआ लोकपिंड और भी ठोस होता जायेगा और उसके परिभ्रमण की गति
बराबर मन्द पड़ती जायेगी। सूर्य से जितनी दूरी पर वह परिक्रमा कर रहा है वह
बराबर घटती जायेगी और वह सूर्य के निकट आता जायेगा। यही दशा अन्त में सब
ग्रहों और उपग्रहों की होगी। उपग्रह ग्रहों पर जा गिरेंगे और ग्रह सूर्य
में जा पड़ेंगे जिससे वे निकले थे। इस घोर संघर्ष से अत्यंत प्रचुर परिमाण
में फिर ताप उत्पन्न होगा। जिस द्रव्य से लोकपिंड बने थे वह चूर्ण होकर
अन्तरिक्ष में दूर तक व्याप्त हो जायेगा और उसी से नए सूर्य और नए लोकों की
उत्पत्ति का विधान फिर से चलेगा। इस प्रकार अनन्त लोकपिंड बनते और बिगड़ते
रहते हैं। अन्तरिक्ष में कहीं नए सूर्य और नए लोकपिंड बन रहे हैं, कहीं
पुराने सूर्य और ग्रहपिंड नाश को प्राप्त हो रहे हैं। उत्पत्ति और लय का यह
क्रम सदा साथ-साथ चलता रहता है। द्रव्य कभी एक अवस्था में नहीं रहता। कहीं
तेजस् या ज्योतिष्क निहारिका से नए लोकों का गर्भाधान हो रहा है, कहीं उससे
बहुत दूर ज्योतिष्क नीहारिका से जमकर तरल अग्नि का बड़ा भारी घूमता हुआ गोला
बन गया है। दूसरी ओर देखिए तो उसी प्रकार से घूमते हुए गोले के
कान्तिवृत्ता से वलय टूटकर अलग हो गए हैं, जो क्रमश: जमकर उस बड़े गोले की
परिक्रमा करनेवाले ग्रह के रूप में हो रहे हैं। कहीं वह गोला खासा सूर्य हो
गया है जिसकी परिक्रमा अनेक ग्रह अपने चन्द्रमाओं या उपग्रहों के सहित कर
रहे हैं। सारांश यह कि अन्तरिक्ष के बीच द्रव्य कहीं किसी अवस्था में और
कहीं किसी अवस्था में पाया जाता है। पर जैसा कि पहले कहा जा चुका है एक
अवस्था से दूसरी अवस्था में जाने से द्रव्य के परिमाण में कोई घटती या बढ़ती
नहीं होती। उत्पत्ति और लय का यह चक्र भिन्न भिन्न स्थानों में चलता है पर
द्रव्य और शक्ति का योग विश्व में सदा वही रहता है। परमतत्व नित्य और अक्षर
है।
2 भूगर्भशास्त्र की उन्नति
भूगर्भशास्त्र का यथार्थ ज्ञान न होने से प्राचीनों को पृथ्वी की उत्पत्ति
आदि के सम्बन्ध में पक्की जानकारी नहीं थी। बहुत दिनों तक लोग धर्मग्रन्थों
में दी हुई कथाओं पर ही संतोष किए बैठे थे। यहूदी और ईसाई यही समझे हुए थे
कि पृथ्वी को बने केवल 6,000 वर्ष हुए। पृथ्वी बनी किस प्रकार इसका उत्तर
देने के लिए वे मूसा की कहानी का ही सहारा लेते थे। कहने की आवश्यकता नहीं
कि मूसा ने जो सृष्टिकथा लिखी है वह प्राचीन असुरों और हिन्दुओं की पौराणिक
कथाओं से ली गई है। सन्1750 के उपरान्त पृथ्वी की नाना तहों की जाँच शुरू
हुई जिससे बहुत सी नई बातों का पता लगा। भूगर्भशास्त्र के संस्थापक बर्नर
का कहना था कि पृथ्वी की जितनी तहें हैं सब की सब जल के भीतर बनी हैं। पर
1788 में हटन आदि वैज्ञानिकों ने यह निर्धारित किया कि केवल पर्तवाली तहें
या चट्टानें जल के भीतर बनी हैं, इसी से उनमें पूर्वकाल के प्राणियों के
पंजर पाए जाते हैं। बाकी जो ढोंको की आग्नेय पर्वत श्रेणियाँ हैं उनकी
चट्टानें आग से पिघले हुए द्रव्य के ठंढे पड़कर जमने से बनी हैं। सन् 1830
में लायल ने यह अच्छी तरह सिद्ध कर दिया कि पृथ्वी का तल लगातार होनेवाले
प्राकृतिक व्यापारों के द्वारा बहुत धीरे धीरे अपने वर्तमान रूप को पहुँचा
है। फिर इस विश्वास के लिए कोई जगह नहीं रह गई कि किसी दैवी प्रेरणा से
पृथ्वी बात की बात में बन गई।
सबसे बड़ा काम उन अस्थिपंजरों की परीक्षा द्वारा हुआ जो पृथ्वी की नाना तहों
के भीतर पाए गए। पृथ्वी के भिन्न-भिन्न कल्पों का भोगकाल और उन कल्पों के
प्राणियों का बहुत कुछ ब्योरा इस परीक्षा द्वारा मालूम हुआ। यह बात
पूर्णतया निश्चित हो गई कि पृथ्वी की वह ठोस पपड़ी जिस पर हम लोग बसते हैं,
द्रव्य अग्नि के गोले क्रमश: ठंढे पड़कर जमने से बनी है। कड़ी पपड़ी के
सुकड़ने, पिघले हुए आग्नेय द्रव्य के ठंढी सतह पर आने तथा जल की क्रीड़ा से
ही पृथ्वी की परतें और पहाड़ आदि बने हैं। ये शक्तियाँ अब भी बराबर कार्य कर
रही हैं पर उनका कार्य इतने धीरे होता है कि हमें उसका कुछ भी पता नहीं
लगता।
आधुनिक भूगर्भ विद्या की दो बातें तो सब दिन के लिए सिद्ध हो गईं। एक तो यह
कि इस भूतल और उस पर के पहाड़ों आदि की रचना किसी भूतातीत चेतन शक्ति द्वारा
बात की बात में नहीं हुई है। दूसरी यह कि इस सृष्टि को हुए जितना काल
पैगम्बरी मतवाले समझते थे उससे कहीं अधिक काल एक एक पहाड़ या चट्टान की तह
बनने में लगा है।
3 भौतिकविज्ञान और रसायन की उन्नति
इन 100 वर्षों के बीच विज्ञान में जो उन्नति हुई है वह किसी से छिपी नहीं
है। भाप और बिजली के द्वारा मनुष्य के नाना व्यापारों में जो अपूर्व
चमत्कार आ गया है उससे सत्यज्ञान का प्रभाव प्रत्यक्ष है। व्यवहार के जितने
अंग हैं, क्या व्यापार, क्या कृषि, क्या शिल्प, क्या चिकित्सा सबमें
विज्ञान द्वारा अपूर्व उन्नति हुई है। व्यवहारदृष्टि से भी कहीं अधिक
तत्वदृष्टि से इस उन्नति का महत्त्व हमें स्वीकार करना पड़ता है। प्रकृति का
अधिक ज्ञान होने से अब हम जगत् के रहस्यों पर पहले से कहीं अधिक ठीक विचार
कर सकते हैं। विज्ञान द्वारा प्राप्त ज्ञान के आधार पर जो दार्शनिक
सिद्धांत स्थिर किए जायेगे, वे कहीं अधिक सुसंगत होंगे।
4 प्राणिविज्ञान की उन्नति
इस विद्या का पहले लोगों को कुछ भी ज्ञान नहीं था। ईधर 100 वर्षों के बीच
प्राणियों के सम्बन्ध में जितनी बातों का पता लगा है, पुराने समय के लोगों
के अनुमान तक में वे नहीं आई थीं। अंगविच्छेद-शास्त्र, शरीर-व्यापार
विज्ञान, वनस्पति-शास्त्र, जंतु-विभाग शास्त्र, जंतुविकासशास्त्र,
जातिविकासशास्त्र में इतनी नई नई बातों का पता लगा है कि हमारी आँखें खुल
गई हैं। प्राणिविज्ञान की उन्नति दो रूपों में हुई है, एक तो बहुत सी बातों
के अलग अलग और ठीक ठीक ब्योरे मालूम हुए हैं जिनसे बहुत कुछ काम निकलता है।
दूसरे इन बातों की संगति मिलाकर देखने से प्राणतत्व तथा उसके कारण आदि के
सम्बन्ध में हम सुव्यवस्थित सिद्धांत स्थिर कर सकते हैं। इस क्षेत्र में
डारविन ने सबसे बढ़कर काम किया। उसने यह दिखला दिया कि किस प्रकार
सूक्ष्मअतिसूक्ष्म कललकणिकारूप जीवों में से प्राकृतिक ग्रहण द्वारा क्रमश:
अनेक रूपों के जीव प्रकट हुए हैं। अब हम यह अच्छी तरह जानते हैं कि क्षुद्र
कीटाणुओं से लेकर मनुष्य तक में एक ही तत्व का विधान नाना रूपों में हुआ
है, किसी में कहीं से और किसी अतिरिक्त तत्व की योजना नहीं हुई है। मनुष्य
की उत्पत्ति किस प्रकार क्रमश: बनमानुसों से हुई है यह अब अच्छी तरह सिद्ध
हो चुका है और आदिम क्षुद्र जीवों से लेकर मनुष्य तक की शृंखला दिखाई जा
चुकी है।
उपसंहार
प्रकृति परिज्ञान की उन्नति होने से ईधर जगतसम्बन्धी बहुत से गुप्त भेद खुल
गए हैं। अब केवल परमतत्व का भारी भेद रह गया है। वह सत्ता कैसी है जिसे
वैज्ञानिक विश्व या प्रकृति कहते हैं, दार्शनिक परमतत्व कहते हैं और भक्तजन
ईश्वर या कर्ता कहते हैं? क्या हम कह सकते हैं कि आधुनिक विज्ञान की अपूर्व
उन्नति से इस 'परमतत्व का भेद' खुल गया है अथवा कुछ खुलनेवाला है? इस
अन्तिम प्रश्न के विषय में यही कहना पड़ता है कि यह आज भी उसी प्रकार बना
हुआ है जिस प्रकार 2,500 वर्ष पहले के तत्वज्ञों के सामने था। बल्कि यों
कहना चाहिए कि ईधर इस परमतत्व के अनेकानेक व्यक्त रूपों का जितना ही अधिक
ज्ञान हमें होता जाता है, उसके दृश्य व्यापारों का जितना ही अधिक पता हमें
लगता जाता है, उतना ही उसका रहस्य हमारे लिए अभेद्य और अपार होता जाता है।
वही कहावत है कि 'ज्यों ज्यों भीजै कामरी त्यों त्यों भारी होय।' इस
नामरूपात्मक दृश्य जगत् की ओट में वस्तुत: क्या है यह हम न जानते हैं और न
जान सकते हैं। पर इस 'वस्तुत:' के फेर में हम क्यों पड़ने जाये, उसके लिए हम
क्यों हैरान रहें जबकि यह भी नहीं कहा जा सकता कि उसका अस्तित्व तक है या
नहीं। अत: इस काल्पनिक 'वास्तव सत्ता' के पीछे 'कल्पनात्मक दार्शनिक' ही
पड़े रहें, हमें 'सच्चे वैज्ञानिकों' के समान प्रकृति के सम्बन्ध में अपने
उत्तरोत्तर बढ़ते हुए ज्ञान पर आनन्द मनाना चाहिए।
वर्तमान समय में सबसे बड़ी बात यह हुई कि द्रव्य और शक्ति की अक्षरता सिद्ध
हो गई। परमतत्व नित्य गतिशील और परिवर्तनशील है अत: विकास का चक्र भी नित्य
और विश्वव्यापी है। सम्पूर्ण विश्व इस विकास नियम का वशवर्ती है। कोई वस्तु
इससे परे नहीं, अत: प्रकृति की अद्वैत सत्ता हमें माननी पड़ती है। हमारा यह
अद्वैतवाद इस बात की स्पष्ट घोषणा करता है कि समस्त जगत् प्रकृति के अटल और
शाश्वत नियमों पर चल रहा है। हमारे इस अद्वैतवाद द्वारा द्वैतभावापन्न
दार्शनिकों के पुरुषोत्तम रूप ईश्वर, आत्मा के अमरत्व और आत्मस्वातन्त्रय
इन तीन वितंडावादों का खंडन हो जाता है। इसमें सन्देह नहीं कि हममें से
बहुतों का उन देवताओं के सब दिन के लिए विदा हो जाने पर बहुत दु:ख होगा जो
हमारे पुरखों को इतने प्रिय थे। उनका वियोग हमें बहुत दिनों तक खटकेगा। पर
अब यह समझकर ढाँढ़स बाँधना होगा कि पुरानी बातें सब दिन नहीं बनी रह सकतीं।
दु:ख की कोई बात भी नहीं है। यदि परोक्षवाद और अन्धविश्वास की पुरानी इमारत
गिरी तो उसके स्थान पर विज्ञान की नई नींव पर प्रकृति का भव्य और विशाल
मन्दिर खड़ा हुआ। यदि 'पुरुषविशेष ईश्वर, आत्मस्वातन्त्रय और अमरत्व' का
विश्वास हमने खोया तो उसके स्थान पर 'सत्य, सत्व और रजस् अर्थात सौन्दर्य'
की उपासना का प्रकृत धर्म स्थापित हुआ।
अब तक जो कुछ कहा गया उससे हमारे विज्ञाननुमोदित तत्त्वाद्वैतवाद की
व्याख्या स्पष्ट रूप से हो गई। इस अद्वैततत्ववाद का आजकल के प्राय: उन सब
वैज्ञानिकों ने अनुमोदन किया है जिनमें सुसंगत सिद्धांत स्वीकार करने का
साहस है। पर अब भी बहुत से ऐसे दार्शनिक और विज्ञानवेत्ता हैं जो द्वैतभाव
को नहीं छोड़ सके हैं; जो द्रव्य और शक्ति, शरीर और आत्मा, जगत् और ईश्वर,
प्रकृति और पुरुष को परस्पर भिन्न और स्वतन्त्र कहते चले जाते हैं। इस दशा
में भी इस बात की पूरी आशा है कि इस विरोध का आगे चलकर बहुत कुछ परिहास हो
जायेगा और अन्त में एक अखंड, अद्वितीय सत्ता सबको मान्य होगी। सबसे विलक्षण
बात तो यह है कि अधिकांश तत्ववेत्ता एक ओर तो प्रत्यक्षाश्रित विशुद्ध
ज्ञान को स्वीकार करते जाते हैं, दूसरी ओर संस्कारवश परोक्षवाद और
अन्धविश्वास के लिए मार्ग ढूँढ़ते रहते हैं। पर विज्ञान द्वारा नए नए
रहस्यों के उद्धाटन से हमारा प्रकृति सम्बन्धी ज्ञान दिन दिन बढ़ रहा है,
जिससे आशा होती है कि यह विरुद्ध स्थिति न रहेगी, और एक ही अद्वितीय विश्व
की भावना के भीतर सब भेदों का अन्तर्भाव हो जायेगा।
रामचन्द्र
शुक्ल ग्रंथावली - 6
विश्वप्रपंच
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राज्यप्रबंध शिक्षा
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