रामचन्द्र शुक्ल ग्रंथावली -
6
अनुवाद
राज्यप्रबंध शिक्षा
1.
भूमिका
प्रत्यक्ष ज्ञान की आवृत्ति का नाम अनुभव है। सांसारिक व्यवहार में
जितना दूसरों के अनुभव से हमारा काम चलता है उतना उनकी कल्पना आदि से नहीं।
अपने व दूसरों के अनुभव के सहारे हम थोड़ी दूर ऑंख मूँदकर भी चल सकते हैं।
इतना भरोसा हमें किसी और दूसरी वस्तु पर नहीं हो सकता। किसी एक मनुष्य से
यह सुनकर कि ''मैंने कई बार ऐसा होते देखा है'' जितनी जल्दी हम किसी कार्य
में प्रवृत्त होते हैं उतनी जल्दी सैकड़ों सत्यवदियों से यह सुनकर नहीं कि
''हम निश्चय समझते हैं कि यह बात ऐसी ही है।'' अत: समाज के हित और सु-बीते
के लिए यह आवश्यक है कि उसमें अनुभव की हुई बातों का अच्छा संचय रहे जिससे
लोगों को अपना कर्तव्य स्थिर करने के लिए इधर-उधर बहुत भटकना न पड़े।
आज इस अनुवाद द्वारा हिन्दी पाठकों के सामने देशी राज्यों के प्रबंध आदि के
विषय में ऐसे पुरुष का अनुभव रखा जाता है जिसने अपने नीति बल और व्यवस्था
कौशल से भारतवर्ष के दो बड़े-बड़े राज्यों को चौपट होने से बचाया था। जिन
लोगों ने राजा सर टी. माधवराव का नाम सुना होगा वे यह भी जानते होंगे कि
उनकी सारी आयु देशी राज्यों की शासन पद्धति सुधारने में बीती थी। वे बड़े
भारी नीतिज्ञ और राज्य संचालक थे।
माधवराव का जन्म कुम्भकोणम के एक महाराष्ट्र ब्राह्मणकुल में हुआ था। उनके
पूर्वज महाराष्ट्र आधिपत्य के समय दक्षिण गए थे। उनके चाचा वेंकटराव
ट्रावंकोर राज्य में दीवन थे और पिता भी उसी रियासत में एक ऊँचे पद पर थे।
माधवराव ने मद्रास के गवर्नमेंट स्कूल में शिक्षा पाई और गणित और विज्ञान
में बड़ी दक्षता प्राप्त की। कुछ दिनों तक ये वहीं गणित और विज्ञान के
अध्यापक रहे। फिर सन् 1849 में एकाउंटेंट जनरल के दफ्तर में नौकर हुए। कुछ
दिनों वहाँ रहकर वे ट्रावंकोर के राजकुमारों के शिक्षक होकर गए। इस कार्य
में उन्होंने इतनी दक्षता दिखाई कि उन्हें शीघ्र माल के मोहकमे में एक
अच्छी जगह मिली और धीरे-धीरे वे दीवन-पेशकार हो गए। जिस समय माधवराव
ट्रावंकोर राज्य में घुसे उस समय उस राज्य की बड़ी बुरी दशा थी। चारों ओर
घोर कुप्रबंध और अन्धाधुन्धा थी। लार्ड डलहौजी बार-बार धमका रहे थे कि यदि
झटपट सुधार न हुआ तो ट्रावंकोर राज्य अंग्रेजी राज्य में मिला लिया जाएगा।
माधवराव ने देखा कि राज्य के वे बड़े कर्मचारी जिनको बाहर के स्थानों में
अपने-अपने काम पर रहना चाहिए, वे भी राजधनी में रहकर दीवन के विरुद्ध
षडयन्त्र रचा करते हैं। उन्होंने महाराज से प्रस्ताव किया कि सारा राज्य
बहुत से जिलों में बाँट दिया जाए और वे जिले ऐसे कर्मचारियों के अधीन कर
दिए जाएँ जो वहीं रहें। इस प्रकार माधवराव के अधिकार में जो-जो जिले पड़े
उनका प्रबंध उन्होंने ठीक कर दिया। धीरे-धीरे महाराज उनकी बड़ी प्रतिष्ठा
करने लगे। सन् 1857 में दीवन कृष्णराव के मरने पर माधवराव उनकी जगह दीवन
बनाए गए। उस समय उनकी अवस्था केवल तीस वर्ष की थी।
दूसरा कोई होता तो ट्रावंकोर की उस समय की अवस्था देख घबड़ा जाता। जहाँ देखो
उधर बेईमानी, अत्याचार और अव्यवस्था। माधवराव ने निश्चय किया कि जब तक देशी
राज्यों में भी अंग्रेजी शासन के सिद्धान्तों का प्रचार न किया जाएगा तब तक
उनकी अवस्था न सुधरेगी। राज्य की आर्थिक दशा दिन-दिन गिरती जाती थी।
माधवराव ने बहुत से सुधार किए जिनसे राज्य की आमदनी बहुत बढ़ गई। बहुत सी
वस्तुओं की बिक्री आदि का अधिकार थोड़े से लोग अपने हाथ में लिए बैठे थे
जिससे व्यापार बढ़ने नहीं पाता था। माधवराव ने यह प्रथा बंद कर दी। बाहर
जानेवाली मिर्च पर उन्होंने महसूल लगाया। पीछे अंग्रेज सरकार से जो संधि
हुई उसके अनुसार आमदनी और रफ्तनी पर जो बड़े-बड़े महसूल थे वे उठा दिए गए।
बहुत से ऐसे कर भी उठा दिए गए जो प्रजा को बहुत खलते थे और जिनके वसूल करने
में खर्च इतना पड़ता था कि राज्य को कुछ विशेष लाभ नहीं होता था। माधवराव ने
राज्य के कर्मचारियों की भी तनख्वाहें बढ़ाईं जिससे वे घूस न लें।
इंजीनियरीं और शिक्षा विभाग की उन्नति की। अदालत में अच्छे कानून जाननेवाले
जज नियुक्त किए और ज़ाब्त: दीवनी, ज़ाब्त: फौजदारी, हद समायत और रजिस्टरी के
कानून का प्रचार किया। ट्रावंकोर राज्य की काया ही पलट गई। ट्रावंकोर के
महाराज इन पर इतने प्रसन्न हुए कि नौकरी छोड़ने पर भी इन्हें बहुत दिनों तक
1000 रुपये महीना पेंशन देते रहे। सरकार से भी इन्हें 'सर' का खिताब मिला।
ट्रावंकोर से जब ये अलग हुए तब सरकार इन्हें बड़े लाट की काउंसिल की मेम्बरी
देने लगी, पर इन्होंने अस्वीकार किया।
सन् 1873 में इन्दौर के महाराज तुकोजी राव होलकर ने इन्हें अपना दीवन
बनाया। यद्यपि महाराज बहुत सा अधिकार अपने ही हाथ में रखते थे फिर भी
इन्दौर में इन्होंने बहुत सा सुधार किया। जिन दिनों ये इन्दौर में थे उन
दिनों विलायत में भारत की आर्थिक स्थिति के विचार के लिए एक कमेटी बैठी थी।
सरकार ने इन्हें विलायत जाकर उसके सामने साक्ष्य देने को कहा, पर इन्होंने
अस्वीकार किया।
ठीक इसी समय महाराज मल्हार राव बड़ौदा की गद्दी से उतारे जा चुके थे। उनके
समय के दुराचार, अत्याचार, कुप्रबंध और अन्धाधुन्धा से बड़ौदा राज्य जर्जर
हो रहा था। उत्तराधिकारी महाराज सयाजीराव नाबालिग थे। उनकी नाबालिगी में
राज्य सँभाले कौन ? अंत में माधवराव बुलाए गए।
सर माधवराव ने वहाँ ट्रावंकोर राज्य से भी गहरी बुराइयाँ पाईं जिनकी जड़
बहुत दिनों की जमी हुई थी। कुछ लोग गद्दी के लिए जोर मार रहे थे। वे कुछ दे
दिलाकर शांत किए गए। महाराज मल्हारराव के समय के बहुत से कर्मचारी राज्य का
बहुत सा रुपया कर्ज लिए बैठे थे जो धीरे-धीरे उनसे निकाला गया। जौहरी,
सौदागर, नौकर, सिपाही तथा बहुत से लोग जो अपना बहुत सा रुपया बाकी बताते थे
संतुष्ट किए गए। इस प्रकार माधवराव ने पहले चारों ओर से षडयन्त्र की
सम्भावना बंद की, फिर वे शासन के सुधार में लगे।
इन्होंने एकबारगी शासन का सारा क्रम नहीं बदला। धीरे-धीरे प्रजा की
प्रवृत्ति बदलते हुए इस बात का सुधार किया। इन्होंने प्रजा के ऊपर से कर का
बोझ भी बहुत कुछ हटाया और राज्य की आमदनी भी बढ़ाई। पुलिस का सुधार किया।
न्यायालयों की व्यवस्था ठीक की। राज्य की आमदनी में से बहुत सा रुपया
इन्होंने सर्वसाधारण की शिक्षा और स्वास्थ्य रक्षा के लिए निकाला। जमीन की
मालगुजारी वसूल करने के बड़े सहज ढंग निकाले । किसानों के ठेकों की मियाद
इन्होंने बहुत अधिक बढ़ा दी जिससे वे जमीन को अपनी समझ उस पर पूरी मेहनत
करने लगे। सारांश यह कि इनके अखण्ड परिश्रम और नीतिबल से बड़ौदा राज्य
सर्वाक्ष् सुव्यवस्थित होकर पूर्ण सुख समृद्धि को पहुँचा।
सन् 1882 में राजा सर टी. माधवराव बड़ौदा राज्य की नौकरी से अलग हुए और अंत
समय तक मद्रास में रहे। ये जब तक जिये तब तक बराबर सार्वजनिक कार्यों में
उद्योग करते रहे। नेशनल काँगरेस की तीसरी बैठक (मद्रास, 1887) की
स्वागतकारिणी समिति के ये सभापति हुए थे।
जिस समय राजा माधवराव बड़ौदा में थे उस समय वर्तमान महाराजा साहब सयाजीराव
नाबालिग़ थे और राजकाज की शिक्षा पा रहे थे। इन्हीं महाराज साहब की शिक्षा
के लिए सर माधवराव ने यह पुस्तक लिखी थी।
परम विद्योत्साही राजा साहब भिनगा की इच्छा और उदारता से यह पुस्तक सभा
द्वारा प्रकाशित की गई है। उन्हीं के इच्छानुसार मूल पुस्तक के बीच-बीच के
कुछ अंश अनुवाद में छोड़ दिए गए हैं। अवशिष्ट में 'ताल्लुकेदारों के लिए कुछ
अलग बातें' राजा साहब की ओर से बढ़ाई गई हैं जिनसे उनकी प्रबंध-कुशलता का
अच्छा परिचय मिलता है। कहने की आवश्यकता नहीं कि अनुवाद की भाषा बहुत ही
सरल रखी गई है।
काशी
22 अप्रैल, 1913 अनुवादक
राज्यप्रबंध शिक्षा
चंदा- राजाओं के पास सभा, समाजों या और अन्य कार्यों के लिए सहायता या चंदे
के लिए सैकड़ों प्रार्थनाएँ पहुँचती हैं। कोई अपनी किताब के प्रकाशित हो
जाने पर उसकी कुछ प्रतियाँ खरीदे जाने की प्रार्थना करता है, कोई मंदिर,
घाट या धर्मशाला बनाने के लिए सहायता माँगता है, कोई घुड़दौड़ के लिए कुछ
चंदा चाहता है, इसी प्रकार स्कूल, अस्पताल, नाटक, घोड़ों की नुमाइश,
सूक्ष्मकला, नए व्यवसाय आदि अनेक कार्यों में महाराज से उदारता दिखाने की
प्रार्थना की जाएगी।
यह तो साफ प्रकट है कि कोई राजा या महाराजा इन सारी प्रार्थनाओं को पूरा
नहीं कर सकता है। इसलिए राजा-महाराजाओं को बहुत समझ बूझकर काम करना होता
है। यों तो इस प्रकार की बातें सामने आने पर प्रत्येक के गुण दोष का
अलग-अलग विचार करना होता है पर साधारणत: नीचे लिखी बातों का विचार रखना
चाहिए-
पहले तो यह याद रखना चाहिए कि धन जो कि चंदे या सहायता में दिया जाएगा वह
राज्य की प्रजा से उगाहा हुआ है, इससे बिना सोचे विचारे मनमानी रीति से
नहीं दिया जा सकता। यह धन ऐसे ही कार्यों के लिए दिया जाना चाहिए जिन
कार्यों से किसी न किसी रूप में उस प्रजा को लाभ पहुँच सकता हो।
उन चंदों की अपेक्षा जो राज्य के बाहर खर्च किए जाएँगे उन चंदों का देना
अच्छा है जिनका राज्य के भीतर ही व्यय होगा। गरीबों को लाभ पहुँचानेवाले
कामों में चंदा देना अमीरों को लाभ पहुँचानेवाले कामों में चंदा देने से
अच्छा है। दु:ख दूर करनेवाली बातों में चंदा देना सुख बढ़ानेवाली बातों में
चंदा देने से अच्छा है।
चंदे में बहुत ज्यादा रुपया न देना चाहिए, एक हिसाब से देना चाहिए, जिसमें
और लोगों को भी चंदा देने की आवश्यकता रहे। यदि एक ही राजा ने बहुत ज्यादा
रुपया दे दिया तो और लोगों को यह कहने का अवसर मिल जाएगा कि ''अमुक राजा ने
ही इतना रुपया दे दिया जो इस कार्य के लिए बहुत है फिर हमको चंदा देने की
क्या आवश्यकता है।''
जिस कार्य के लिए जो कुछ चंदा दिया जाए वह उसके लाभों पर विचार करके दिया
जाए, दूसरों की देखा देखी, आन में आकर व माँगनेवाले के दबाव में पड़कर नहीं।
जो कुछ देना हो उसे या तो एकमुश्त दे दें, या किस्त बाँधकर दे दें, राज्य
के सिर मासिक या वार्षिक चंदा मढ़ देना अच्छा नहीं क्योंकि ऐसा करने से जब
राज्य की अवस्था बदलने या अन्य किसी कारण से चंदे का बंद कर देना जरूरी
समझा जाएगा तब उसके बंद करने में मुश्किल पड़ेगी। ऊपर लिखे सिद्धान्तों को
समझाने के लिए कुछ दृष्टान्तों का दे देना उचित है।
मान लीजिए बड़ौदा के महाराज से बंगलोर, बम्बई या बड़ौदा राज्य के बाहर किसी
और स्थान में होनेवाली घुड़दौड़ के लिए चंदा माँगा जा रहा है। ऐसी दशा में
महाराज गायकवड़ को चंदा नहीं देना चाहिए। ख़ास बड़ौदा में भी ऐसी बातों में कम
ही ख़र्च करना चाहिए क्योंकि बड़ौदा के लोगों को घुड़दौड़ आदि का इतना शौक नहीं
है। यूरोप या अमेरिका के कला-कौशल की उन्नति के लिए बड़ौदा को चंदा देने की
जरुरत नहीं।
बड़ौदा राज्य के भीतर किसी नदी पर बननेवाले घाट के लिए बड़ौदा का चंदा देना
जितना उचित है उतना गोदावरी, कृष्णा, कावेरी आदि के घाट के लिए नहीं।
निज का पत्र-व्यवहार- हर प्रकार लोग राजा-महाराजाओं के पास तरह-तरह की
चिट्ठियाँ भेजा करते हैं। राजा-महाराजाओं को इनका उत्तर बहुत समझ बूझकर
देना चाहिए। निज का पत्र-व्यवहार व्यर्थ बहुत बढ़ने न पावे। नियम तो यह होना
चाहिए कि राजा-महाराजा निज के पत्र बहुत कम भेजा करें। यह अच्छी बात नहीं
है कि मामूली आदमी इधर-उधर उनके पत्र दिखाकर कहते फिरें कि हम महाराजा
साहेब से पत्र-व्यवहार करते हैं। कोई बात जब बहुत साधारण हो जाती है तब
उसकी कदर जाती रहती है।
इस बात का प्रबंध होना चाहिए कि राजा-महाराजा जो चिट्ठियाँ भेजा करें उनकी
नकल रखी जाएँ। ऐसा करना अनेक प्रकार से लाभदायक है। एक ऐसा भी नौकर होना
चाहिए जो महाराज साहब के पास आए हुए पत्रों को अच्छी तरह सँभाल सहेजकर
रखें। कभी-कभी बहुत छोटी बातें भी बड़े काम की निकल आती हैं। इससे इन पत्रों
के विषय में ऐसा प्रबंध रहना चाहिए कि वे काम पड़ने पर चट मिल जाएँ। बहुत से
पत्र तो कर्मचारी लोग राजा-महाराजाओं की ओर से लिखा करते हैं। इस बात की
बड़ी चौकसी रहनी चाहिए कि वे कर्मचारी अपनी ओर से कुछ घटा बढ़ाकर न लिखने पाए
और न ऐसी भाषा रखने पाए जैसी भाषा रखने का अभिप्राय व इच्छा महाराज की न
हो। जितने पत्र महाराज की ओर से लिखे जाएँगे उन सबके जिम्मेदार महाराज
होंगे, इसी से इतनी चौकसी चाहिए। नियम तो यह होना चाहिए कि ऐसी चिट्ठियों
के मसविदे महाराज खुद देख लिया करें और उन पर अपने दस्तखत का चिह्न बना
दिया करें जिससे किसी तरह की भूल न रह जाए।
अच्छी सामग्री- महाराज की ओर से जाने वाले पत्र बहुत ही बढ़िया कागज पर हों।
स्याही और लिफाफे आदि भी अच्छे से अच्छे मेल के हों। हर एक वस्तु साफ सुथरी
और महाराज के उच्च पद के योग्य होनी चाहिए।
भेंट मुलाकात- राजा-महाराजाओं का किसी के यहाँ खुद मिलने जाना बड़ी ही
प्रतिष्ठा की बात है। इस भेंट मुलाकात को इतना न बढ़ावे कि वह कोई बड़ी बात
ही न समझी जाए। राजा-महाराजाओं को यह न चाहिए कि जब जिसके यहाँ हुआ चले गए।
मेरा मतलब राजघराने को छोड़ और दूसरे घरानों में ब्याह शादी आदि अवसरों पर
जाने से है। परस्पर जाने आने की जो रीति चली आई है उसका पालन करना तो ठीक
ही है। पर इस प्रकार का नया व्यवहार बहुत समझ बूझकर खोलना चाहिए।
बिना जाने सुने आदमी या कोई नया आदमी महाराज साहब से भेंट करना चाहे तो एक
आदमी ऐसा चाहिए जो उसे महाराज के सामने पेश करे। यह एक नियम होना चाहिए कि
नए आदमी महाराज के सामने परिचय के साथ पेश किए जाएँ। ऐसा न होने से हर तरह
के भले बुरे आदमियों की पहुँच महाराज तक हो जाएगी और यह बात मर्यादा के
विरुद्ध ही नहीं बल्कि हानि पहुँचानेवाली होगी। यह नहीं कि जो चाहे सो
लोगों को महाराज के सामने पेश किया करे। इस काम पर कोई प्रतिष्ठित और गंभीर
आदमी रहना चाहिए जो अपनी जिम्मेदारी को समझे। उसके ऊपर इस बात का जिम्मा
रहे कि वह अयोग्य मनुष्यों को महाराज के पास न लाए। ऐसे आदमियों की महाराज
तक पहुँच न होनी चाहिए जिनका चाल-चलन बुरा हो, व जिनकी गिनती भलेमानुसों
में न हो, व जो अपनी चालबाजियों से बढ़ना चाहते हैं।
पेश करनेवाले को चाहिए कि किसी नए आदमी को महाराज के सामने लाने के पहले
उसकी भलमनसाहत आदि के विषय में अपना जी भर ले। जब कोई नया आदमी महाराज से
मिलने आए तब यह आवश्यक है कि महाराज को उससे मिलने के पहले उसके संबंध में
कुछ जानकारी हो जाए जिसमें श्रीमान् को यह मालूम रहे कि उससे कैसे मिलना
होगा और क्या क्या बातें करनी होंगी।
वायदे- बहुत से लोग राजा-महाराजाओं से अनेक प्रकार की प्रार्थनाएँ किया
करते हैं। राजा-महाराजाओं को इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि वे चटपट कोई
बात न तय कर डालें और न बिना सोचे विचारे कोई वादा कर बैठें। अच्छा तो यह
है कि किसी विषय में कोई मत प्रकाशित करने व पक्का वादा करने के पहले
महाराज विचार और सलाह करने के लिए पूरा समय ले लिया करें। ऊँचे पद और
अधिकार वाले मनुष्यों को बहुत समझ बूझकर चलना पड़ता है।
नौकर चाकर- राजा और महाराजों को चाहिए कि नीच नौकरों को बहुत मुँह न लगाएँ।
उनसे दूर ही का व्यवहार अच्छा है जिसमें वे केवल अपने काम से काम रखें।
नीच नौकरों को एक ऐसे अफसर की मातहती और निगरानी में रखना चाहिए जो इस बात
की देखभाल रखे कि वे अपना काम अच्छी तरह करते हैं। ऐसे अफसर को नौकरों के
ऊपर कुछ इख्तियार देना चाहिए जिसमें वे उससे कुछ आसरा भी रखें और उसका डर
भी मानें।
नीच नौकरों को महाराज की बातचीत सुनने और उसे इधर-उधर फैलाने से रोकना
चाहिए। यदि इस बात की कड़ी चौकसी न रखी जाएगी तो ये लोग इस प्रकार की खबरें
बेचा करेंगे।
ऐसे नौकर राज्य के सरदारों, अफसरों, कर्मचारियों, सेठ साहूकारों या ऐसे ही
और लोगों के पास भेंट करने व किसी न किसी बहाने इनाम इकराम माँगने न जाने
पाए। राजा के नौकरों का इस प्रकार रुपया कमाना राजा की प्रतिष्ठा के
विरुद्ध है और इससे लोगों को तंग भी होना पड़ता है।
राजा से भेंट मुलाकात करने का प्रबंध ऐसा होना चाहिए कि भेंट होना या न
होना छोटे नौकरों की कृपा व अकृपा पर न रहे।
नीच नौकर कभी राजा-महाराजाओं से व राजा-महाराजाओं के सामने ऐसी बातें न
करने पाए जिनसे उन्हें कुछ प्रयोजन नहीं और जो उनकी हैसियत के बाहर हैं।
जैसे नौकरों का राजाओं के सामने राजकाज के मामलों में बातचीत करना व
मंत्रीयों के गुण दोष बतलाना ठीक नहीं है। इसी प्रकार की अनाधिकार चर्चा का
फल बुरा होता है।
ख़िदमतगारों का यह काम न होना चाहिए कि वे नए और बिना जाने बूझे आदमियों को
महाराज से मिलावें या किसी का कोई प्रार्थनापत्र महाराज के हाथ में दें।
ऐसे नौकरों पर इस बात की ताकीद रहे कि वे महाराज से मिलनेवालों तथा अन्य
लोगों से नम्रता का व्यवहार करें।
जब महल में किसी नौकर चाकर की या और किसी की अकस्मात् व बुरी गति से मृत्यु
हो अथवा महाराज को उसकी मृत्यु के विषय में कुछ संदेह हो तुरन्त उसकी लाश
की चीड़-फाड़ व डॉक्टरी परीक्षण करानी चाहिए जिसमें उसकी मृत्यु का ठीक कारण
मालूम हो जाए और लिख लिया जाए। व्यर्थ के अपवदों और संदेहों को दूर करने के
लिए यह आवश्यक उपाय है।
तनख्वाहें- जहाँ तक हो सके, महल के नौकर चाकरों की तनख्वाह नकद मुकर्रर
होनी चाहिए। इसमें सबको सुविधा है। सीधा और रसद इत्यादि बाँधने से बहुत-सी
बुराइयाँ होती हैं।
महल के नौकर चाकर एक प्रकार से अपने निज के हैं। पर उन्हें भी यह विश्वास
रहना चाहिए कि जब तक वे अच्छी तरह काम करते जाएँगे तब तक बराबर लगे रहेंगे।
मतलब यह कि वे बिना किसी बात के यों ही जब मौज हुई तब छुड़ा न दिए जाएँ। यदि
वे अच्छा काम करें तो मौके से उनकी तरक्की भी हो।
ख़ास सेवा में रहनेवाले ऐसे नौकरों को जिनसे महाराज को दिन रात काम पड़ता है
अच्छी तनख्वाहें मिलनी चाहिए। उनके साथ बर्ताव भी ऐसा होना चाहिए जिससे वे
महाराज के ऊपर बड़ी श्रद्धा भक्ति रखें। कभी उनसे कोई बहुत अच्छा काम बन पड़े
तब उनको इनाम भी मिलना चाहिए जिससे उनका उत्साह बढ़े। राजकुमारों और रानियों
के सेवाकों व दासियों के साथ भी यही होना चाहिए।
अपराध- ऐसे नौकरों के छोटे-छोटे अपराधों को बहुत ज्यादा ध्यान में न लाना
चाहिए और न उनके लिए उन्हें कड़ी सजाएँ देनी चाहिए। सब नौकरों से कुछ न कुछ
अपराध हो ही जाया करते हैं। ध्यान इस बात का रखना चाहिए कि वे ऐसे छोटे
अपराधों से आगे न बढ़ने पाए।
उनका दण्ड- यदि कोई महल का सेवाक ऐसा आचरण करे जिससे उसको दण्ड देना आवश्यक
हो तो भी उचित यही है कि उसके दण्ड के लिए स्वयं महाराज कोई कार्यवाई न
करें। दण्ड या तो महल का कोई बड़ा अफसर दे या अदालत दे, जैसा मामला हो। यह
इसलिए है जिसमें महाराज से व्यर्थ किसी को द्वेष न होने पावे।
मूल भृत्य- महल में जहाँ तक हो पुश्तैनी नौकरों को रखना ही अच्छा है
क्योंकि उन्हें राजपरिवर के साथ अधिक स्नेह रहता है। यदि कोई बुङ्ढा नौकर
मर जाए, अथवा रोग व बुढ़ापे आदि के कारण अशक्त हो जाए तो उसके लड़के, भाई व
और किसी संबंधी को कोई काम दे देना अच्छा है। पर राज्य के कर्मचारी नियुक्त
करने में इस पैतृक सिद्धान्त पर चलना सर्वथा अनुचित है क्योंकि राज्य के
कामों में विशेष गुणों की आवश्यकता रहती है।
हाँ कोई कोई राज्य संबंधी कार्य ऐसे भी होते हैं जिनके करने वालों के
वंशधारों में इनके योग्य गुण आ जाते हैं, जैसे कि पटवरी और कानूनगो। यहाँ
पैतृक सिद्धान्त का काम में लाना अनुचित नहीं है।
कुचक्री- सभी राज दरबारों में थोड़े बहुत कुचक्री (चालबाज) रहते हैं।
राजा-महाराजाओं को सावधन रहना चाहिए कि ऐसे लोगों के जाल में न फँसें। जहाँ
कोई राजा गद्दी पर बैठा, बल्कि उसके कुछ पहले से ही, उनके दाँव पेंच चलने
लगते हैं। इससे यहाँ उनके संबंध में दो चार बातें आवश्यक हैं।
कुचक्री लोग अपने मतलब के बड़े पक्के होते हैं और उनके जी में अच्छी-अच्छी
बातें नहीं जमी रहतीं। वे चुपचाप इधर-उधर की बातें बहुत करना चाहते हैं। वे
झूठी और बिना सोची समझी बातें मुँह से निकालते हैं। छोटी सी बात को भी खूब
बढ़ाते हैं, राई का पहाड़ करते हैं। मामलों पर झूठी रंगत चढ़ाते हैं। वे सदा
खुशामद और चापलूसी द्वारा अपने को प्रिय बनाने के यत्न में रहा करते हैं।
यदि राजा-महाराजा इन लक्षणों को ध्यान में रखें और उनकी एक-एक बात पर
दृष्टि दें तो कुचक्री को पहचान सकते हैं। राजाओं को चाहिए कि जब कभी वे इस
ढंग से कुचक्री को पहचान लें तब फिर उसकी ओर कान न करें और उसे दूर रखें,
जितना ही कम सरोकार राजा-महाराजा ऐसे लोगों से रखेंगे उतना ही उनके लिए
अच्छा होगा।
यदि किसी के विषय में यह मालूम हो कि वह कभी कुचक्री रहा है तो यह समझना
चाहिए कि वह अब भी कुचक्री है। हाँ, यदि इस बात का कोई पक्का प्रमाण मिल
जाए कि वह बिलकुल सुधर गया है तो दूसरी बात है। साधारण नियम यह होना चाहिए
कि राजा-महाराजा उन लोगों को सदा दूर रखें जो कभी कुचक्री रह चुके हों।
जब कभी महाराज को ऐसे लोग जिनको महाराज अपना सच्चा हितयषी और विश्वासी
सलाहकार समझते हों यह निश्चय दिलाए कि अमुक मनुष्य कुचक्री है तो महाराज की
भलाई इसी में है कि उसकी बात मान लें और उस कुचक्री को दूर रखें। कम से कम
उस पर कड़ी दृष्टि तो जरूर रखें।
ऊपर लिखी बातों पर चलने से राजा-महाराजा सब कुचक्रियों से नहीं तो भी
बहुतों से बचे रह सकते हैं।
अब तक जो कुछ कहा गया है वह इस विषय के लिए काफी नहीं मालूम पड़ता। इससे इस
विषय को और अधिक स्पष्ट करने के लिए नीचे कुचक्रियों के लक्षण और सच्चे
हितयषियों के लक्षण आमने सामने दिए जाते हैं।
कुचक्री सच्चा शुभचिन्तक
ऊपर लिखे लक्षणों को राजा-महाराजा यदि पूरी तरह समझ लें तो बहुत अच्छा हो।
मैंने अपने बहुत दिनों के अनुभव और विचार की बातें कही हैं। इनके द्वारा वे
जान सकेंगे कि कौन कुचक्री है और कौन सच्चा हितयषी, कौन पीतल है और कौन
सोना। पर उन्हें थोड़े धैर्य और ध्यान के साथ परखना होगा। किसी मनुष्य के
रंग, ढंग, आशय, लक्ष्य और कथनों को अच्छी तरह ताड़ना होगा, उन्हें ऊपर लिखी
कसौटियों पर कसना होगा। राजा-महाराजाओं को इसका काम बहुत पड़ता है, उन्हें
दस तरह के आदमियों को परखना रहता है। पहले तो यह काम थोड़ा कठिन जान पड़ेगा।
पर अभ्यास करने पर सुगम हो जाएगा और राजा-महाराजा चटपट अपनी स्वाभाविक
बुद्धि से लोगों को परखने लगेंगे।
कुचक्री जो कुछ कहेगा उसकी एक पहचान यह भी है। वह या तो कहेगा कि ऐसा ऐसा
मामला है या कोई राय देगा।
ऐसे इधर-उधर के लोगों की राय को तो कुछ समझना ही न चाहिए। यदि
राजा-महाराजाओं को राय ही लेना है तो विश्वासपात्र और जाने बूझे आदमियों से
लें।
अब रहीं वे बातें जिनका घटित होना बतलाया जाता है।
ये बातें या तो सामान्य और बे-ठीक ठिकाने की होंगी अथवा विशेष और पते की।
सामान्य और बिना ठीक ठिकाने की बातें तो किसी कार्य की नहीं, उनकी ओर तो
ध्यान ही न देना चाहिए।
रह गईं विशेष और पते ठिकाने की बातें। यदि ये काम की हों और सम्भव जँचें
अथवा प्रमाण के साथ हों तो राजा-महाराजाओं को उनकी ओर कुछ ध्यान देना
चाहिए।
ऊपर कही हुई बातों को अधिक स्पष्ट करने के लिए एक दृष्टान्त दिया जाता है।
मान लीजिए कि कोई कुचक्री किसी महाराज से कहता है, ''सोहनलाल बहुत बुरा जज
है। वह घूस लेता है। उस मुकदमे में अभी उस दिन उसने बनवरी से 1000 रुपये
लिए।'' इन तीनों वक्यों में से पहले में तो एक प्रकार की राय दी गई है जिसे
कुछ समझना ही न चाहिए। दूसरे वक्य में एक सामान्य और बिना ठीक ठिकाने की
बात कही गई है जो किसी अर्थ की नहीं। तीसरे वक्य में अलबत्ता: एक विशेष और
पते ठिकाने की बात कही गई है। यदि कहनेवाला खुद गवही देने व गवह बतलाने को
तैयार है तो महाराज अपने मंत्री को सब बातों की ठीक-ठीक तहकीकात करके
इत्तला करने की आज्ञा दें।
ऊपर जो दृष्टान्त दिया गया है वह बहुत ही सीधा है, और केवल समझाने के लिए
है। पर इस प्रकार की बातें जो (चक्रियों द्वारा) कही जाती हैं वे प्राय:
लम्बी चौड़ी और पेचीली होती हैं। उनकी छानबीन ऊपर लिखे उपायों से अच्छी तरह
हो तब पता लगेगा कि कौन-कौन सी प्रयोजनीय बातें विशेष और पते ठिकाने की हैं
जिन पर ध्यान देना होगा, मैंने कई एक कुचक्रियों को देखा है जो इस छान बीन
व परीक्षा में नहीं ठहर सके हैं।
राजा-महाराजाओं को छानबीन का यह ढंग अच्छी तरह जान लेना चाहिए और उसे बराबर
काम में लाना चाहिए, यदि वे ऐसा न करेंगे तो लम्बी चौड़ी बातों के चक्कर में
आ जाएँगे और चालबाजों के हाथ से धोखा खायँगे।
क्रोध- अच्छे से अच्छे मनुष्यों को कभी-कभी क्रोध आ जाता है। और
राजा-महाराजाओं का पद ऐसा है कि नित्य उनके धैर्य और स्वभाव की परीक्षा हुआ
करती है। राजा-महाराजा राज्य में सबसे बड़े आदमी होते हैं इससे बहुत थोड़े
लोग ऐसे होंगे जो उनको किसी बात से रोक सकें। अंत में यह भी स्मरण रखना
चाहिए कि साधारण मनुष्यों के क्रोध की अपेक्षा महाराजों के क्रोध से बहुत
अधिक हानि पहुँच सकती है।
इन बातों से प्रकट है कि राजाओं को क्रोध से कितना सावधन रहना चाहिए। जहाँ
तक हो सके क्रोध को पास ही न आने दें। बार-बार यत्न करने से सब बातों में
शान्ति और धैर्य रखने की टेव पड़ जाएगी।
यदि महाराज देखें कि बहुतेरा यत्न करने पर भी क्रोध उनमें बना हुआ है तो
अच्छा होगा कि अपने मन में इन विचारों को लावें।
क्रोध चित्त का एक ऐसा उद्वेग है जिससे थोड़ी देर के लिए मनुष्य पागल सा हो
जाता है। उस उद्वेग की अवस्था में चित्त वेग के साथ एक ही ओर को टूटता है
और उसे वे बातें नहीं सूझतीं। जिनसे ठीक-ठीक विचार किया जाता है। सारांश यह
कि क्रोध में अत्यन्त अनमोल और प्रयोजनीय विचार शक्ति मारी जाती है।
चित्त की ऐसी दशा में यह करना चाहिए कि जिस बात पर क्रोध उत्पन्न हुआ है
उसके विषय में न कुछ करें और न कुछ कहें। उस समय महाराज उसकी चर्चा ही छोड़
दें और चित्त को किसी दूसरी ओर ले जाएँ। यदि सो जाएँ तो बड़ी ही अच्छी बात
है क्योंकि उससे बहुत शान्ति आती है। यह भी न करें तो घोड़े या गाड़ी पर दूर
हवा खाने निकल जाएँ, या कोई ऐसी पुस्तक पढ़ने लगे जिसमें मन लगे।
जिस बात से उद्वेग उत्पन्न हुआ है उससे चित्त को हटा लेना ही अच्छा है। यदि
हो सके तो दस पाँच दिनों तक उसको फिर मन में न लावें।
इस सीधी सलाह पर चलने से राजा-महाराजा बहुत से अनुचित कार्यों और कटु वचनों
से बचे रहेंगे जिनके कारण राजकाज में कठिनाइयाँ उपस्थित हो सकती हैं, वे
अपने मित्रों और हितयषियों से हाथ धो सकते हैं और उनके विश्वासी नौकरों और
कर्मचारियों का जी टूट सकता है।
दूसरों से राय कैसे लेनी चाहिए- यदि राजा-महाराजाओं को किसी की राय लेनी हो
तो उन्हें पहले अपनी राय कभी न कहनी चाहिए, उसका आभास तक न देना चाहिए। यदि
जिसकी राय माँगी जाती है वह महाराज की राय पूछे भी तो जहाँ तक हो सके न
कहना चाहिए।
इसके दो प्रधान कारण हैं- (1) यदि महाराज की राय पहले ही बतला दी जाएगी तो
सम्भव है जिसकी राय पूछी जा रही है वह विरुद्ध व भिन्न राय देने में आगा
पीछा करे और यदि दे भी तो दबी जबात से दे। पर किसी की राय लेने का मतलब तो
होता है कि वह जहाँ तक हो सके जी खोलकर राय दे। (2) यह भी हो सकता है कि
महाराज ने चट बिना दूसरों की राय जाने कोई राय बैठा ली और वह ठीक न हुई,
महाराज के योग्य यह न होगा कि वे कोई ऐसी कच्ची और बेठीक राय मुँह से
निकालें जो कि उचित विचार और परामर्श के बाद छोड़ देनी पड़े।
दृढ़ता एक ऐसा गुण है जिसका सब आदमियों में होना अच्छा है पर विशेष कर उन
लोगों में जिन्हें परमेश्वर ने राजा बनाया है। यदि किसी राजा में दृढ़ता का
अभाव है तो उसके लिए राजकाज सँभालना बहुत ही कठिन होगा। उसकी राय कभी कुछ
होगी, कभी कुछ। उसका उद्देश्य आज और होगा कल और। वह अभी कुछ और आशा देगा
थोड़ी देर में कुछ और।
सच्ची दृढ़ता तो बातों को अच्छी तरह परखने, अच्छी तरह विचारने, और उनसे
ठीक-ठीक परिणाम निकालने से आती है। इस बात का ज्ञान कि हमने बातों को अच्छी
तरह परखा है, सावधनी से विचारा है और उनसे ठीक-ठीक परिणाम निकाला है चित्त
को दृढ़ करता है। जब हम समझेंगे कि ये सब क्रियाएँ हम उचित रीति से कर चुके
तब दृढ़ होंगे।
जिस राजा-महाराजा ने स्वयं इन क्रियाओं को किया है उसका दृढ़ता रखना और
दिखाना ठीक है।
पर राजा-महाराजाओं के सामने हजारों मामले आते हैं उन सबमें उन क्रियाओं को
आप करना उनके लिए असम्भव है, तब क्या वे इन सब मामलों में अस्थिर चित्त रहा
करें। नहीं, यदि वे इन सब मामलों में अस्थिर चित्त रहेंगे तो राज्य के काम
बिगड़ जाएँगे।
इन सब मामलों में राजा-महाराजाओं को अपने विश्वासपात्र और कर्तव्यपरायण
मंत्रीयों पर विश्वास करना चाहिए जिन्होंने स्वयं इन क्रियाओं को किया है।
उन्हें ऐसे मामलों में ऐसे मंत्रीयों की राय और सलाह मान लेनी चाहिए और तब
उस राय और सलाह के अनुसार काम करने के लिए दृढ़ हो जाना चाहिए।
जो ऊपर कहा गया है वह एक बड़े काम का सिद्धान्त है। राजा-महाराजाओं को इसे
अच्छी तरह समझ लेना चाहिए, यदि वे इसे अच्छी तरह नहीं समझे रहेंगे और उसके
अनुसार काम नहीं करेंगे तो नित्य बड़े-बड़े बेढब झंझटों में फँसेंगे और उनका
नाकों दम रहेगा। बहुत कम मामले ऐसे होंगे जिनमें वे आप सब बातों का पता
लगाकर उन्हें इकट्ठी कर सकें, उन पर विचार कर सकें और उनके विषय में
ठीक-ठीक निश्चय कर सकें। तब उन बहुत से मामलों में जिनमें वे आप इन
क्रियाओं को नहीं कर सकते वे क्या करें? क्या वे अस्थिर चित्त रहें? तब तो
राज्य का सब काम ही चौपट होगा। तब क्या वे मनमाना परिणाम निकाल लें और उसपर
जम जाएँ। तब तो राज्य का काम और भी चौपट होगा। बड़े दुविधा की बात है।
इतिहास में बहुत से ऐसे उदाहरण मिलते हैं जिनमें राजाओं के इस सिद्धान्त को
न समझने और उस पर न चलने के कारण राज्य के काम चौपट हो गए हैं। जो राजा
अपनी दृढ़ता के लिए प्रसिद्ध हो गए हैं वे इस सिद्धान्त को अच्छी तरह जानते
थे। वे जानते थे कि किस प्रकार विश्वासी और योग्य मंत्री चुनना, उनकी जँची
हुई राय व सलाह को मानना, और उस पर दृढ़ता दिखाना चाहिए।
ऊपर जो कुछ कहा गया उससे यह प्रकट है कि दृढ़ता तभी एक गुण है जब वह ठीक-ठीक
परिणाम निकाल चुकने के बाद दिखाई जाए। ऐसी दृढ़ता यदि राजाओं में हो तो एक
अमूल्य गुण है। पर जब दृढ़ता अयथार्थ परिणाम निकालने के बाद दिखाई जाएगी तब
वह गुण न रहेगी, अवगुण हो जाएगी। तब वह हठ के सिवाय और कुछ न कहलाएगी।
दृढ़ता और हठ में प्रधान अंतर क्या है? दृढ़ता जिस बात में होती है वह बात
ठीक परिणाम निकालने के बाद स्थिर की हुई होती है और हठ जिस बात का होता है
वह बात अयथार्थ परिणाम निकालने के बाद स्थिर की हुई होती है। प्रत्येक राजा
को यह निश्चय कर लेना चाहिए कि वह दृढ़ता है, हठ नहीं है उसके निकाले हुए
परिणाम यथार्थ हैं, अयथार्थ नहीं। दृढ़ राजा बहुत भलाई कर सकता है। हठी राजा
बहुत बुराई कर सकता है।
यह अंतर ध्यान देने योग्य है- दृढ़ता और हठ में जो अंतर है उसे सदा ध्यान
में रखना चाहिए जिससे ऐसा न हो कि राजा-महाराजा हठ ही को दृढ़ता मान बैठें।
दृढ़ता गुण है, हठ अवगुण। ग़ुण और अवगुण के बीच बहुत सी बातों में समानता
होती है, इससे दुर्बल चित्त के राजा कभी-कभी अवगुण को गुण मान बैठते हैं।
पर दृढ़ चित्त के राजा अपनी शिक्षा के बल से और मंत्रीयों की चेतावनी के
सहारे गुण और अवगुण में जो मुख्य भेद है उसे समझते हैं और इस बात का ध्यान
रखते हैं कि हम गुण का अनुसरण करें, अवगुण का नहीं।
ऊपर लिखी बातें यह भी सूचित करती हैं कि समझदार राजा यथार्थ बातें मानने के
लिए तैयार रहते है। अर्थात् यदि प्रमाण के साथ यह दिखलाया जाए कि उनकी राय
ठीक नहीं है तो वे उसे बदलने के लिए तैयार रहते हैं। पर नासमझ राजा हठी
होते हैं, यथार्थ बात मानने के लिए तैयार नहीं रहते, युक्ति और प्रमाण एक
नहीं सुनते और अपने बेठीक निश्चय पर जमे रहते हैं।
बुद्धिमान् राजा भारी मामलों में इस बात से अपना जी भरने के लिए कि उनके
निश्चय ठीक हैं अपने विश्वासपात्र मंत्रीयों की सलाह लेते हैं और उनके
निश्चयों से अपने निश्चय का मिलान करते हैं। पर नासमझ राजा मंत्रीयों से
सलाह लेना अपनी शान के खिलाफ समझते हैं, अयथार्थ निश्चय करते हैं और उसका
बुरा भला फल भोगते हैं।
कोई एक मनुष्य, चाहे वह कैसा ही अनुभवी और योग्य हो, यह नहीं कह सकता कि
किसी राजकाज के मामले में उसने अकेले, बिना किसी की सलाह लिए, जो कुछ
निश्चय किया है वह ठीक ही है। सम्भव है कि उसे बातों का ठीक पता न हो, उसने
विचार में भूल की हो व जिस अवस्था में कोई बात हुई हो उस पर ध्यान न दिया
हो। किसी मामले में बात ठीक होगी एक, और झूठे निश्चय होंगे दस तरह के। इससे
हरेक राजा के लिए, जो अपनी प्रजा को झूठे निश्चयों की बुराइयों से बचाना
चाहता है, यह आवश्यक है कि वह ऊपर कहे हुए ढंग से अपने निश्चय की जाँच कर
ले।
राज्य के पुराने अनुभवी मंत्री और दीवन आदि भी यदि दूसरों से सहायता न लें
तो बातों को जानने और विचारने में बड़ी भारी भूलें करें। राज्य प्रबंध में
उन्हें जो सफलता हुई है वह ऊपर लिखे सिद्धान्तों पर चलने से।
किसी झूठे व भ्रान्त निश्चय पर जम जाना सचमुच बहुत बुरा है। कभी-कभी कोई
व्यक्ति ऐसा इसलिए करता है जिसमें लोग उसे दृढ़ समझें। पर यह सच्ची दृढ़ता
नहीं है। यह झूठी दृढ़ता है। यह कोरा हठ है। लोगों को इसका पता बहुत जल्दी
चल जाता है और वे उसे हठी और दम्भी समझते हैं।
राजा-महाराजाओं के लिए सबसे बुद्धिमानी की बात यह है कि वे झूठे निश्चयों
पर कोई काम करने से बचे रहें। उन्हें चाहिए कि अपने निकाले हुए परिणामों को
मंत्रीयों की सभा में प्रकट करें जिसमें उनकी जाँच हो, उन पर वाद-विवाद हो
और उनके विषय में पक्का निश्चय हो। यह सब चुपचाप होना चाहिए। बाहर के लोगों
को इसकी खबर न हो। लोग तो किसी कार्य के फल को देखते हैं। यदि फल से यह
प्रकट होता है कि झूठे निश्चयों पर महाराज कोई काम नहीं करते हैं तो लोग
उनको बहुत अच्छा राजा कहेंगे, वे यह न देखने जाएँगे कि किन उपायों से
महाराज ऐसा करते हैं।
सारांश यह है कि हर तरह से इस बात का निश्चय कर लीजिए कि आपने जो परिणाम
निकाला है वह ठीक है और तब उसके अनुसार दृढ़ता से कार्य कीजिए। इस प्रकार की
दृढ़ता से काम लेना राजाओं में बड़ा गुण है।
इस विषय को समाप्त करने के पहले दो चार बातें और इसके संबंध में कहना चाहता
हूँ।
कोरी दृढ़ता एक कठोर गुण है। व्यवहार में उसकी कठोरता को कुछ कोमल करना
पड़ेगा। राजा को दृढ़ होने पर भी कृपालु और शीलवान् होना चाहिए। जो बात जैसी
आ पड़ती है उसके विषय में इस अभिप्राय सिद्धि के लिए वैसा करना होता है। यह
अभ्यास की बात है और अभ्यास बराबर ध्यान रखने से पड़ जाता है। दृढ़ता की जो
कठोरता है वह इस प्रकार कम हो सकती है कि जिसे आपकी दृढ़ता से कुछ दु:ख
पहुँचा हो उसे आप शान्ति और धैर्य के साथ समझा बुझा दें। उसे यह मालूम हो
जाए कि आपने जो उसकी इच्छा पूरी नहीं की है वह शील न होने के कारण नहीं
बल्कि न्याय की दृष्टि से, राज्य-प्रबंध के सिद्धान्तों के अनुसार तथा जैसा
बराबर होता आया है उसके विचार से, या ऐसे ही और किसी कारण से विवश होकर।
उसे यह जता दिया जाए कि आपने जो किया वह आपका कर्तव्य था, उसके विरुद्ध आप
कर ही नहीं सकते थे। यदि आपको इतना समझाने बुझाने का अवकाश न हो तो आप किसी
ऊँचे कर्मचारी को ऐसा करने की आज्ञा दे सकते हैं। दूसरा उपाय दृढ़ता की
कठोरता को धीमी करने का यह है कि जिसके विरुद्ध दृढ़ता दिखाई गई हो उसके साथ
आप किसी और उचित ढंग से कोई उपकार कर दें। इस बात को स्पष्ट करने के लिए एक
दृष्टान्त बहुत है। मान लीजिए कि कोई कर्मचारी बुङ्ढा और बेकाम हो गया है
और इस कारण छुड़ा दिया गया है। वह आपके पास आकर बहुत कुछ कहता सुनता और
गिड़गिड़ाता है। आप उसे एकबारगी दुतकार न दें। उसे समझावें कि आजकल यह कितना
आवश्यक है कि राज्य का प्रबंध उत्तम हो और जब तक अशक्त कर्मचारी अलग नहीं
होंगे तब तक राज्य प्रबंध उत्तम होगा कैसे? उससे आप यह भी कहें कि हम सबके
सब किसी न किसी दिन बुङ्ढे और बेकाम हो जाएँगे और हमारे स्थान पर नए लोग
आवेंगे। यदि वह कर्मचारी इस योग्य है कि उस पर कुछ कृपा की जाए तो आप उसके
लड़के को उसकी योग्यता के अनुसार किसी काम पर लगा दें। दृढ़ होकर भी दयालु और
उपकारी होना बड़ी बात है।
मैं पहले ही बतला चुका हूँ कि सच्ची दृढ़ता क्या है और झूठी दृढ़ता क्या है,
तथा सच्ची दृढ़ता का गुण राजा-महाराजाओं के कितने काम का है। पर संसार का
व्यवहार ऐसा है कि सब जगह पूरी दृढ़ता से काम लेना अर्थात् तिलभर भी न
डिगनेवाली दृढ़ता दिखाना न सम्भव ही है न अच्छा ही है। राजा-महाराजाओं को तो
और भी एक गुण को दूसरे गुणों के अधीन रखना पड़ता है। दृढ़ता को ही लीजिए,
उसमें भी आगे पीछे का सोच विचार रखना पड़ता है।
मान लीजिए कि 'क' और 'ख' को एक-दूसरे से बराबर काम पड़ता है। यदि किसी मामले
में 'क' ने इतनी दृढ़ता ठान ली है कि हम 'ख' की एक न मानेंगे और 'ख' ने भी
इतनी दृढ़ता ठान ली है कि हम 'क' की एक न मानेंगे तो उन दोनों की कैसे निभ
सकती है? मन-मुटाव होगा, अड़चनें पड़ेंगी, झगड़े की नौबत आएगी अथवा 'क' और 'ख'
को एक दूसरे से अलग होना पड़ेगा या और कोई भारी उपद्रव खड़ा होगा।
इससे सिद्ध हुआ कि जब जैसा आ पड़ता है उसके अनुसार कभी-कभी समझ बूझकर आदमी
को कुछ ढीला भी पड़ना पड़ता है। जब एक ओर एक आदमी की दृढ़ता है और दूसरी ओर
दूसरे आदमी की दृढ़ता है तब सुलह के साथ मिल जुलकर काम करने के लिए हर एक को
दूसरे की कुछ बातें माननी पड़ती हैं और निपटारे की कोई ठीक राह निकालनी पड़ती
है। बुद्धिमान् राजा की बुद्धिमानी, मानने-मनाने की प्रवृत्ति में देखी
जाती है। बहुत से राजा इस मानने-मनाने की प्रवृत्ति से बहुत कुछ लाभ उठाते
देखे गए हैं। इसी प्रकार बहुतेरे राजा इस प्रवृत्ति के न होने से हानि
उठाते देखे गए हैं।
मानने-मनाने में किसी प्रकार की हेठी व अप्रतिष्ठा नहीं है। परस्पर के
व्यवहार में समझदार लोग बराबर मानते हैं। सार्वजनिक कार्यों में भी बड़े-बड़े
लोग मान-मनाकर सुलह व निपटारे की राह निकालते हैं। राजनीति तो सदा
मानने-मनाने में ही है। कोई राजनीतिज्ञ यह आशा नहीं कर सकता कि सदा सब
बातों में उसी की चलेगी। राजा-महाराजाओं को इन सब बातों को अच्छी तरह समझ
रखना चाहिए जिसमें ऐसा न हो कि झूठी आन में आकर वे सुलह व निपटारे की बात
एक न मानें और अपने ऊपर बाधा व आपत्ति लावें। राजाओं को लेना और छोड़ना
दोनों पड़ता है।
किसी मामले में सुलह व निपटारे के लिए कहाँ बात रखनी चाहिए यह जब जैसा हो
वैसा विचार लेना चाहिए। प्राय: यह देख लेना चाहिए कि अपना मन कहाँ तक बैठता
है कैसे-कैसे सिद्धान्तों का हेर फेर है और जिन कारणों से दूसरे की बात मान
रहे हैं वे कैसे हैं। किसी मामले में जहाँ तक दूसरे की बात मान लेने की
आवश्यकता है उससे अधिक मानना दुर्बलता है। इसी प्रकार जहाँ तक मानना आवश्यक
है वहाँ तक भी न मानना और अपने को अड़चन और संकट में डालना ना-समझी है। अपना
लक्ष्य ठीक रखना चाहिए। दूसरे की बात मान लेने में हानि कितनी है और लाभ
कितना है यह अच्छी तरह तौल लेना चाहिए। अगर लाभ का पल्ला भारी है तो बात
मान लेनी चाहिए।
यहाँ पर थोड़े में यह बतला देना भी आवश्यक है कि जहाँ दो राज्यों के बीच
मानने-मनाने का मामला होता है वहाँ जो राज्य निर्बल होता है उसे दूसरे की
बातें अधिक माननी पड़ती हैं। पर जहाँ सबल पक्ष अपने बल ही को सब कुछ न समझकर
युक्ति, न्याय और उदारता से भी काम लेता है वहाँ यह असमानता बहुत कुछ कम हो
जाती है।
बिना आपस में माने-मनाये लोग अपने परिवरों को दु:खी करते हैं, राजनीतिज्ञ
जनसमूह को दु:खी करते हैं, राजा और शासक संसार को दु:खी करते हैं।
ऊपर लिखी बातों को अच्छी तरह ध्यान में रखकर जितनी दृढ़ता आवश्यक हो उतनी
दृढ़ता को काम में लाना चाहिए।
राज्य के बाहर रहना- स्वास्थ्य सुधारने के लिए व यों ही जी बहलाने के लिए
कभी-कभी यात्रा कर लेने के सिवा किसी राजा-महाराजा का व्यर्थ अपना राज्य
छोड़कर बाहर समय बिताना ठीक नहीं है। कुछ लोग महाराज से कहेंगे इस गर्मी में
महाराज शिमला व नैनीताल चलकर रहें तो अच्छा है। इसी प्रकार कुछ लोग आकर
कहेंगे, ''महाराज अबकी का जाड़ा कलकत्ता में कटे।'' जाड़े के दिनों की चहल
पहल देखने के लिए महाराज भी शायद निकल पड़ें। पर देशी रियासतों की प्रजा को
अपने महाराज का इस प्रकार बाहर रहना अच्छा नहीं लगता। वहाँ के लोग चाहते
हैं कि महाराज उन्हीं के बीच में रहें और मालगुजारी के अपने अंश को जहाँ तक
हो राज्य के भीतर ही खर्च करें। वे चाहते हैं कि महाराज बराबर उन्हीं में
रहकर उनकी भलाई में लगे रहें। उनके लिए यह बुरा लगना स्वाभाविक है कि उनके
राजा अपने आनंद के लिए देश और प्रजा को छोड़कर बाहर जाएँ।
एक और बात यह है कि यूरोपिय लोगों के आने जाने की जगहों में किसी देशी
रजवाड़े का अपने भारी दल बल के साथ जाना प्राय: उतना पसन्द भी नहीं किया
जाता। स्थान के स्वास्थ्य और लोगों के आराम में बाधा पहुँचने की आशंका होती
है। इससे कई प्रकार के बंधन रखे जाते हैं जो देशी रजवाड़ों को नहीं भा सकते।
हथियार और गोला-बारूद ले जाने में नियमों की पाबन्दी करनी पड़ती है। महाराज
और उनके आदमियों आदि के टैक्स देने के संबंध में तरह-तरह की बातें उठती
हैं। महाराज और उनके आदमियों के साथ अंग्रेजी पुलिस और अदालत के व्यवहार के
विषय में टेढ़े-मेंढ़े प्रश्न उठ खड़े होते हैं। वजिफ़ दाम और मजदूरी आदि
चुकाने पर भी प्राय: मुकदमे दायर कर दिये जाते हैं।
इन सब बातों को विचारकर और देखकर कि राजा-महाराजाओं के बाहर रहने में
व्यर्थ बहुत सा खर्च बढ़ता है। जिससे उनकी प्रजा को कोई लाभ नहीं, यही कहना
पड़ता है कि उन्हें अपना राज्य छोड़कर व्यर्थ बहुत बाहर नहीं रहना चाहिए।
नाम पाने का उद्योग- राजा-महाराजाओं को प्रसिद्ध होने के लिए बहुत उतावाली
नहीं करनी चाहिए। अच्छे और उदार राजा का प्रसिद्ध होने की अभिलाषा करना
राजा-महाराजाओं के लिए उचित और योग्य ही है। इस संसार में उत्तम प्रकृति के
लोगों के लिए लोकोपकारी माने जाने से बढ़कर और कोई सन्तोष की बात ही नहीं
है। पर ऐसी ख्याति लाभ करने के लिए कुछ समय चाहिए। वह बरसों के शुद्ध आचरण,
गहरे स्वार्थ त्याग, शान्ति और धैर्यपूर्वक विषयों के अध्ययन तथा लोकहित के
लिए लगातार कठिन प्रयत्न करने से मिलती है। ऐसी कीर्ति प्राप्त करने का कोई
और सीधा मार्ग नहीं।
जो राजा-महाराजा इन बातों को पूरी तरह समझते हैं वे बहुत सी स्थिर बातों
में केवल नाम के लिए व्यर्थ छेड़छाड़ करने की धुन में नहीं पड़ते। वे धैर्य और
शान्ति के सुगम मार्ग पर चलते हैं।
जो राजा बात बात में वाहवाही के भूखे रहते हैं वे दु:ख उठाते हैं। संसार को
अपने कामों से इतनी छुट्टी कहाँ कि हर घड़ी राजाओं की 'वाह-वाह' किया करे और
यह ठीक भी नहीं है कि दुनिया की वाहवाही इतनी सस्ती हो जाए कि सड़ी-सड़ी
बातों के लिए भी लुटा करे।
जो राजा अवसर नहीं जोहते और नाम पाने के लिए अधीर रहते हैं वे कभी-कभी
समाचारपत्रों में तारीफष् छपवते हैं। भाड़े के खुशामदी टट्टू ऐसे राजाओं के
छोटे मोटे कामों के भी खूब लम्बे चौड़े वृत्तान्त लिखते हैं और बात बात में
उनकी बे सिर पैर की बुद्धिमानी और उदारता की प्रशंसा लोगों से कराना चाहते
हैं। पर ज़बरदस्ती नाम पैदा करने के ऐसे ऐसे यत्नों का अंत में कुछ भी फल
नहीं होता। परखनेवालों को भाड़े के टट्टुओं की झूठी और बढ़ाई हुई बातों को
ताड़ने में देर नहीं लगती।
इसलिए नए राजाओं के लिए सबसे अच्छी सलाह यह है, बराबर दृढ़ता के साथ, बिना
आडम्बर व दिखावट के भलाई करते रहिए। इस प्रकार यश के अधिकारी हो जाइए और
देखिए वह कब मिलता है, अंत में वह मिलेगा ही।
डेपुटेशन- राजा-महाराजाओं को स्वयं डेपुटेशनों से मिलने में बहुत सावधन
रहना चाहिए। यदि यह मालूम हो जाएगा कि अमुक राजा व महाराजा डेपुटेशनों से
बहुत मिलते हैं तो उनसे इतने अधिक डेपुटेशन मिलना चाहेंगे जिनका अंत नहीं,
उनकी प्रजा के भिन्न-भिन्न वर्गों के डेपुटेशन, आसपास के नगरों के
डेपुटेशन, दूर-दूर तक की मण्डलियों के डेपुटेशन, चारों ओर से डेपुटेशन ही
डेपुटेशन आवेंगे। वे बड़े-बड़े ऐड्रेस (अभिनन्दनपत्र) देंगे और लम्बी चौड़ी
स्पीचें झाड़ेंगे। कभी वे टेढ़े-मेंढ़े विवाद उठावेंगे और किसी विषय पर महाराज
से ठीक-ठीक उत्तर चाहेंगे। वे धर्म, राजनीति, कलाकौशल तथा विषयों से संबंध
रखनेवाली न जाने कितनी बातों से महाराज को हैरान करेंगे। जो कुछ महाराज
उनसे कहेंगे व नहीं भी कहेंगे उसकी चारों ओर कड़ी कड़ी आलोचनाएँ होंगी।
चलता हुआ नियम तो यह होना चाहिए कि साधारण डेपुटेशन जो हों वे महाराज के
मंत्रीयों के पास भेज दिए जाएँ। जैसे मान लीजिए कि कोई डेपुटेशन माल (लगान,
मालगुजारी) के संबंध में कुछ बातें कहना चाहता है, उसे सीधे मालविभाग के
अधिकारी व मंत्री के पास जाना चाहिए। यदि किसी डेपुटेशन को शिक्षा विभाग से
संबंध रखनेवाली बात कहनी है तो उसे शिक्षा विभाग के अधिकारी के पास जाना
चाहिए। इसी तरह और भी समझना चाहिए। विभाग का अधिकारी डेपुटेशन से अच्छी तरह
मिले, उसकी सब बातें सुने और जो कुछ करना हो उसे करे। कोई बड़ा मामला हो तो
डेपुटेशन दीवन या प्रधानमंत्री के पास जाए। जहाँ डेपुटेशन की बातें काम काज
की हों वहाँ के लिए यही सबसे अच्छी और सुगम रीति है।
महाराज स्वयं डेपुटेशन से मिलना केवल तब स्वीकार करें जब डेपुटेशन, उसका
विषय व अवसर बड़े महत्व का हो। ऐसा संयोग कम पड़ता है। दीवन से पूछने पर
मालूम हो सकता है कि कौन बात कैसी है।
जब कभी ऐसा संयोग पड़े तो भी दीवन को पहले से डेपुटेशन के विषय और उद्देश्य
की सूचना होनी चाहिए। डेपुटेशन की ओर से जो ऐड्रेस व अभिनन्दनपत्र दिया
जानेवाला हो उसे दीवन को देख लेना चाहिए जिसमें वह महाराज को उसके लिए
तैयार कर सके।
महाराज की ओर से डेपुटेशनों के जो उत्तर हों वे बड़ी सावधनी के साथ खूब सोच
समझकर लिखे जाएँ। यदि उत्तर स्पष्ट और ठीक-ठीक दिया जा सकता हो तो अच्छी ही
बात है। पर प्राय: ऐसा होता है कि महाराज की ओर से तुरन्त ठीक-ठीक उत्तर
नहीं दिया जा सकता। बात को पीछे से अच्छी तरह से विचारना रहता है। जहाँ यह
हो वहाँ महाराज झटपट बिना सोचे समझे ऐसा उत्तर न दें जिससे उनकी कोई राय व
कार्यवाई प्रकट हो। उत्तर ऐसा हो जिससे कोई आशा न बँधे और जिसमें कोई ऐसे
वादे न हों जिनको पूरा करना आगे चलकर कठिन हो। सारांश यह कि ऐसे उत्तर के
लिए बड़ी बुद्धि और चतुराई चाहिए। यह नहीं कि हर एक आदमी जो शुद्ध शुद्ध
भाषा लिख सकता है ऐसे उत्तर तैयार कर ले। अच्छा तो यह होगा कि महाराज ऐसे
उत्तर अपने मंत्रीयों से तैयार करावें। यूरोप के सम्राट् भी इसी रीति पर
चलते हैं।
राजा-महाराजाओं को किससे सलाह लेनी चाहिए- राजकाज के मामलों में
राजा-महाराजाओं को सलाह लेने की कितनी आवश्यकता है यह मैं पहले दिखला चुका
हूँ। सलाह लेने का मतलब यह है कि ठीक निश्चय पर पहुँचें जिससे राज्य का
प्रबंध उत्तम हो।
अब प्रश्न यह उठता है कि राजा-महाराजा सलाह लें तो किससे लें। यह तो ठीक
नहीं कि जिस किसी से हुआ उसी से सलाह ले ली। बीसों आदमी राजा-महाराजाओं को
बात-बात में सलाह देने को तैयार रहते हैं। जो सबसे मूर्ख होते हैं वे तो इस
बात में सबसे आगे रहते हैं क्योंकि न उन्हें संदेह सताते हैं, न अड़चनें
सुझाई पड़ती हैं।
राजा-महाराजाओं को मंत्रदाता व सलाहकार बहुत समझ बूझकर चुनना चाहिए।
राजा-महाराजाओं का यह एक बहुत बड़ा और आवश्यक कर्तव्य है। यह उन मुख्य बातों
में से है जिनके कारण उन्हें राजकाज में सफलता होती है।
राजा-महाराजाओं को समझ बूझकर ऐसे मंत्रदाता व सलाहकार चुनने चाहिए जिनमें
ये गुण मुख्य हों-
(क) जिस कार्य में सलाह लेनी हो उसके तत्व और सिद्धान्तों की जानकारी।
(ख) व्यवहार का अनुभव जिससे यह जाना जाता है कि उस जानकारी को कहाँ कहाँ
किस प्रकार काम में लाना चाहिए।
(ग) सत्यप्रियता, न्यायप्रियता और स्वार्थत्याग की प्रवृत्ति जिनसे आशय
उच्च होता है, नीयत अच्छी होती है।
राजा-महाराजाओं को इन गुणों को अच्छी तरह समझ लेना चाहिए और जिनमें ये गुण
हों उन्हें सलाहकार चुनना चाहिए। जो राजा-महाराजा ऐसा करेंगे वे संसार को
यह दिखला देंगे कि उनमें योग्यता और विवेक है। इसमें संदेह नहीं कि
राजा-महाराजा की कीर्ति और सफलता बहुत कुछ अच्छे सलाहकारों के चुनाव पर
निर्भर है।
तात्पर्य यह निकला कि राजा-महाराजा को ऐसे लोगों की सलाह न लेनी चाहिए।
जिनमें ऊपर लिखे हुए गुण न हों। ऐसे लोगों की सलाह किसी काम की नहीं। उनसे
तो उलटे हानि पहुँच सकती है। सो ऐसे लोग यदि राजा-महाराजा को सलाह देने
आवें, जैसा कि वे प्राय: करते हैं, तो श्रीमानों के लिए अच्छा यही होगा कि
उनकी ओर विशेष ध्यान न दें। ऐसी सलाहों को सुनना तो समय नष्ट करना और सिर
दुखाना है। यदि कोई राजा-महाराजा ऐसे लोगों की सलाह सुनेंगे तो वे शिक्षित
समाज की दृष्टि से गिर जाएँगे। इसके सिवाय उनके शुभचिन्तकों को भी अपने
महाराज की बुद्धि का कुछ विश्वास न रहेगा। ऐसे शुभचिन्तक कहेंगे व मन में
समझेंगे कि, ''महाराज को योग्य और अयोग्य सलाह की पहचान तो है नहीं, उनकी
बुद्धि का तो कुछ ठिकाना नहीं। संयोग की बात है जिस किसी की सलाह चल जाए।''
मैंने इस विषय को थोड़ा विस्तार के साथ कहा है क्योंकि ऐसा प्राय: हुआ है और
देशी रियासतों में तो बहुत हुआ है कि अच्छी से अच्छी और पक्की से पक्की
सलाह किसी कुचक्री कारकुन, मँहलगे नौकर, संकीर्ण चित्त पुजारी या चतुर
गवैये की सलाह के आगे नहीं चल सकी है। इस प्रकार बहुत सी रियासतों का
प्रबंध गड़बड़ाया है और बहुत सी रियासतें चौपट हो गई हैं।
ऊपर लिखी बातों को अच्छी तरह समझ लेने और ध्यान में रख लेने से
राजा-महाराजा उन बहुत से अयोग्य सलाहकारों से अपना पिण्ड छुड़ा सकेंगे जो
राज दरबारों में सदा अपनी राय भिड़ाने का अवसर ताका करते हैं। किसी राजा के
लिए अयोग्य सलाहकारों से छुटकारा पाना बड़ा शुभ लक्षण है।
अत: इसके पहले कि राजा-महाराजा किसी व्यक्ति की सलाह लें व मानें उन्हें
अपने मन में यह प्रश्न कर लेना चाहिए कि, क्या उस मनुष्य को उस विषय
(जिसमें राय लेनी है) के सिद्धान्त और व्यवहार का ज्ञान है और क्या वह
सत्यप्रिय, न्यायप्रिय और नि:स्वार्थ है? यदि मन में बैठे 'हाँ', तब तो वह
मनुष्य योग्य सलाहकार है। यदि मन में ऐसा न बैठे तो वह मनुष्य योग्य
सलाहकार नहीं है।
अब मान लीजिए किसी राजा-महाराजा ने यह अच्छी तरह समझ लिया कि कैसे योग्य
सलाहकार चुनना चाहिए। यदि ये योग्य सलाहकार सबके सब एकमत हों और एक ही सलाह
महाराज को दें तो बहुत ही अच्छा है। पर प्रश्न यह उठता है कि यदि ये योग्य
सलाहकार सहमत न हों और एक दूसरे के विरुद्ध राय दें तो महाराज क्या करें।
ऐसा प्राय: हो सकता है, इससे यह जान लेना अच्छा है कि ऐसी अवस्था में क्या
करना चाहिए।
यदि योग्य सलाहकार एक दूसरे से भिन्न और विरुद्ध राय दें तो इसका निर्णय
करना महाराज ही के ऊपर है कि किसकी सलाह पर चलना सबसे अच्छा है। यह महाराज
का बहुत बड़ा काम है। इसे उन्हें बड़े विचार और सावधनी से करना चाहिए।
मैं आगे कुछ बातें बतलाता हूँ जो राजा-महाराजा के बड़े काम की होंगी।
सलाह चुनने में कई बातों का विचार रखना चाहिए जिनमें से मुख्य ये हैं:-
किसी जिम्मेदार अफसर की सलाह के सामने किसी इधर-उधर के आदमी की सलाह को न
मानना चाहिए। इधर-उधर का आदमी चाहे कैसा ही योग्य और विचारवान् हो, ठीक-ठीक
निर्णय करने के लिए उतना उपयुक्त नहीं हो सकता। जवाबदेही का ध्यान अर्थात्
यह ध्यान कि महाराज को कच्ची राय देने से विश्वास उठ जाएगा एक ऐसा बंधक व
मुचलका है जो जिम्मेदार अफसर से भरसक अच्छी ही राय दिलाएगा। पर जिसके सिर
कोई जवाबदेही नहीं उसके विषय में इस प्रकार की कोई पुष्टि नहीं रहती और
रहती भी है तो बहुत कम।
इस बंधक से पूरा-पूरा लाभ उठाने के लिए राजा-महाराजा को चाहिए कि भारी
मामलों में जो सलाह उन्हें दी जाए उसे वे सलाह देनेवाले से दस्तख़त और
मितिवर के सहित स्मरण पत्र के रूप में लिखा लें। यह अनुभव की बात है कि
बहुतेरे लोगों से जो जश्बानी बातचीत में यों ही बिना सोचे विचारे कुछ न कुछ
कह देते हैं। जब लिखकर सम्मति देने के लिए कहा जाता है तब वे अपनी जवाबदेही
का अधिक ध्यान रखते हैं। जो कुछ वे लिखते हैं वह उससे अधिक सोचा समझा, अधिक
स्पष्ट और अधिक ठीक होता है जिसे वे केवल मुँह से कहते हैं।
जिस बात में सलाह लेनी है यदि वह सिद्धान्त की बात है तो उसकी सलाह को सबके
ऊपर माने जो वैसे सिद्धान्तों में निपुण हो। इसी प्रकार जिस बात में सलाह
लेनी है यदि वह व्यवहार ज्ञान की बात है तो उस आदमी की सलाह सबके ऊपर मानें
जो वैसे व्यवहारों में पक्का हो।
और सब बातों का विचार करके जिस सलाह को बहुत से योग्य पुरुष दें उसे उस
सलाह से अधिक मानना चाहिए जिसे कम लोग दें।
सब बातों का विचार करके उस सलाह पर चलना चाहिए जिससे चलते हुए कामों में
सबसे कम बाधाएँ पड़ें।
और सब बातों का विचार करके उस सलाह को मानना चाहिए जो प्रजा की इच्छा और
भावना के सबसे कम विरुद्ध हो।
इसी प्रकार उस सलाह को मानना चाहिए जो पड़ोस के राज्य में विशेषकर अंग्रेजी
राज्य में प्रचलित रीति के सबसे अधिक मेल में हो।
इसी प्रकार उस सलाह पर चलना चाहिए जिसे आप समझें कि राज्य की भलाई के लिए
अंग्रेजी सरकार भी अधिक पसन्द करेगी।
कहाँ किस प्रकार और किस सलाह पर चलना चाहिए इसका निर्णय करने के लिए ऊपर
लिखी बातें बड़े काम की हैं।
सबसे उलझन वहाँ पड़ेगी जहाँ ऊपर लिखी सब बातों का विचार करने से कोई एक राह
न सूझेगी अर्थात् कुछ बातों का विचार करने से मन में बैठेगा कि ऐसा करना
चाहिए और कुछ बातों का विचार करने से यह ठहरेगा कि ऐसा नहीं, ऐसा करना
चाहिए। ऐसी दशा में पक्ष और विपक्ष की बातों को अच्छी तरह तौलना चाहिए और
पल्ला देखकर निश्चय करना चाहिए।
पक्ष और विपक्ष की बातों को किस तरह तौलना चाहिए और पल्ला किस तरह ऑंकना
चाहिए ठीक-ठीक बतलाना कठिन है। यह अभ्यास और परख की बात है।
राजा-महाराजाओं को ठीक-ठीक निर्णय करने में बहुत कुछ सुविधा हो सकता है,
यदि वे भिन्न-भिन्न मत देनेवाले अपने सलाहकारों को अपने सामने आपस में
वाद-विवाद करने दें और स्वयं भी उस विवाद में सम्मिलित हों तथा ऊपर जिन
बातों का विचार रखने के लिए कहा गया है उसके संबंध में पूछताछ करें। इस
विवाद का फल यह होगा कि जिन बातों में परस्पर भेद पड़ता होगा। वे तय हो
जाएँगी और सब लोग एक परिणाम पर पहुँच जाएँगे।
यदि सब लोग एक परिणाम पर न पहुँचें और महाराज देखें कि ऊपर कही सब बातों को
तौलकर ठीक-ठीक पल्ला नहीं ऑंक सकते तो सबसे अच्छा होगा कि यदि सम्भव हो तो
महाराज उस विषय को फिर किसी समय सोचने और विचारने के लिए टाल रखें। आगे
चलकर कोई ठीक राह निकल ही आएगी।
यदि उस विषय का टालना सम्भव न हो और उसी समय निर्णय की आवश्यकता हो तो
राजा-महाराजाओं के लिए सबसे अच्छा यह होगा कि वे अपने प्रधानमंत्री की सलाह
को ऊपर मानें और उसी पर चलें।
काम का बोझ- राजा-महाराजाओं को अपने ऊपर बहुत अधिक कामों का बोझ नहीं लेना
चाहिए। उन्हें इतना काम न उठाना चाहिए कि उनके स्वास्थ्य को हानि पहुँचे।
उन्हें आराम के लिए पूरा समय न मिले और काम भी उतनी समझ बूझ और सोच विचार
के साथ न हो।
राजा-महाराजाओं को यह याद रखना चाहिए कि उन्हें जीवन भर काम ही करना है,
कुछ दिन खूब परिश्रम करके फिर चुपचाप बैठ नहीं रहना है। इससे काम भी एक
हिसाब से करना चाहिए।
मोटे तौर पर राजा-महाराजाओं को प्रतिदिन चार पाँच घण्टों से अधिक काम नहीं
करना चाहिए। इससे उन्हें स्वास्थ्य सुधारने, आराम करने, पढ़ने लिखने, परिवर
की देखभाल करने, इष्ट मित्रों से मिलने तथा सुख और आनंद के लिए समय रहेगा।
जब कोई और ऊपर का काम आ जाए तब महाराज कुछ अधिक समय अवश्य लगावें।
बहुत से छोटे ब्योरों को तो राजा-महाराजाओं को अपने प्रधानमंत्री के ऊपर
छोड़ देना चाहिए। उनके संबंध में एक-एक मामले में अलग-अलग ब्योरेवर आज्ञा
देने से अच्छा यह होगा कि महाराज एक सामान्य आज्ञा दे दें जो एक ही प्रकार
के बहुत से मामलों पर घटे। इस युक्ति से बहुत सा समय और श्रम बचेगा
सिद्धान्त यह है कि महाराज बहुत से ऐसे कामों का बोझ अपने ऊपर न उठा लें
जिन्हें और लोग भी अच्छी तरह कर सकते हैं। महाराज एक इंजीनियर के समान हैं।
इंजीनियर को आप इंजिन के कल पुरजों को नहीं चलाना पड़ता। इंजीनियर जितना ही
अधिक दक्ष होगा उतना ही वह इंजिन से अधिक काम लेने का प्रबंध करेगा और अपने
लिए बहुत सा समय देखभाल और सुधार करने के लिए निकालेगा।
कामकाज- राजा-महाराजाओं को अपना स्वास्थ्य और बुद्धि ठिकाने रखने के लिए यह
बहुत आवश्यक है कि वे व्यर्थ के झंझटों से अपने को बचाये रहें। यदि वे इस
बात का ध्यान नहीं रखेंगे तो बहुत माथापच्ची करनी पड़ेगी।
न जाने कितने लोग तरह-तरह की प्रार्थनाएँ लेकर महाराज के पास पहुँचेंगे और
कुछ न कुछ चाहेंगे। उनमें से मुख्य ये होंगी:-
(क) नौकरी, तरक्की, वेतनवृद्धि और एक स्थान से दूसरे स्थान पर बदली के लिए
प्रार्थनाएँ।
(ख) मुआफी जश्मीन के लिए प्रार्थनाएँ।
(ग) ब्याह शादी के लिए पोशाक, गहने और रुपये पैसे की याचना।
(घ) सीधे के लिए प्रार्थना।
(च) गाड़ी, घोड़ा, सवर आदि मँगनी पाने की प्रार्थना।
(छ) उधार और पेशगी आदि के लिए प्रार्थना।
(ज) जो बातें तय हो चुकी हैं उन्हें रद्द करने, बदलने व फिर से विचारने की
प्रार्थना।
(झ) धर्मार्थ दान और चंदे के लिए प्रार्थना, इत्यादि इत्यादि।
इस प्रकार के बहुत से झंझटों से राजा-महाराजा दो चार सिद्धान्तों का ध्यान
रखने से बच सकते हैं। वे यहाँ संक्षेप में कहे जाते हैं।
उन मामलों में, जिनके विषय में सब कार्यवाई करने का अधिकार महाराज ने
भिन्न-भिन्न विभागों के अधिकारियों को दे रखा है, महाराज को हाथ न डालना
चाहिए। यही उचित और योग्य है।
बहुत से मामलों में महाराज प्रार्थी से कह सकते हैं कि जिस विभाग से संबंध
है उसके अधिकारी द्वारा प्रार्थना करो।
बहुत से मामलों में महाराज कहें कि हम व्यय की वर्तमान सीमा को बढ़ा नहीं
सकते, क्योंकि यह बहुत आवश्यक है कि आय से व्यय कम रहे।
बहुत से मामलों में पुराने दाखलों के हवाले पर चलना चाहिए।
कुछ मामलों में इस सिद्धान्त को बताएं कि जिस बात पर एक बार विचार और
निश्चय हो चुका उस पर फिर, जब तक कोई नया और बहुत ही आवश्यक कारण न दिखाया
जाए, विचार नहीं हो सकता।
निर्णय व विवेक- जो लोग ऊँचे पद पर हैं और बड़े-बड़े अधिकार रखते हैं, विशेष
कर जो राजा हैं, उन्हें सदा निर्णय का अभ्यास रखना चाहिए। यह एक पक्ष के
कारणों को एक ओर और दूसरे पक्ष के कारणों को दूसरी ओर रखकर तौलने और पल्ला
ऑंकने का अभ्यास है। यह अभ्यास बहुत ही आवश्यक और उपयोगी है और यत्न करने
से प्राप्त होता है।
जब बहुत सी बातों में से किसी एक बात को चुनना हो तो चुनाव मनमाना नहीं
होना चाहिए। चुनाव किसी अच्छे कारण से होना चाहिए। बड़े और छोटे सब मामलों
में यही सिद्धान्त रखना चाहिए। सारांश यह कि चाहे कोई बात हो, बुद्धि को
ऊपर रखना चाहिए।
जो राजा बुद्धि के अनुसार चलता है उसका मार्ग सदा निष्कंट रहता है।
यदि कोई किसी राजा से कहे कि ऐसा कीजिए तो उससे उसका कारण पूछना चाहिए। सब
बातें बुद्धि के अनुसार करने से राजा की पुष्टि रहेगी, क्योंकि सब
बुद्धिमान् उनका पक्ष लेंगे। प्रजा और सर्वसाधारण की भी सहानुभूति और
सहायता रहेगी।
सच तो यह है कि यह निर्णय व विवेक ही की शक्ति है जिसके कारण एक आदमी कुछ
और होता है दूसरा कुछ और। यदि दो आदमी सामान्य दशा में रखे जाएँ तो वह आदमी
अधिक सफलता प्राप्त करेगा जिसमें विवेक अधिक होगा।
पर निर्णय शक्ति व विवेक किसी को जन्म से नहीं होता। इसको धैर्य के साथ
अभ्यास द्वारा प्राप्त करना पड़ता है। उसको ठीक-ठीक काम में लाने के लिए
पक्के सिद्धान्तों की भरपूर जानकारी चाहिए। यह भी देखना चाहिए कि बड़े-बड़े
प्रसिद्ध पुरुष कठिन और उलझन के मामलों में किस प्रकार निर्णय करते हैं। इस
बात की जानकारी के लिए नित्य कुछ पुस्तकें पढ़ी जाएँ तो अच्छा है।
पूरा-पूरा विचार- यदि राजा-महाराजाओं के पास आज्ञा के लिए कोई बात आए तो
उन्हें यह देख लेना चाहिए कि उसका प्रभाव-
(क) उन पर,
(ख) उनकी प्रजा पर,
(ग) और राज्यों की प्रजा पर,
(घ) अंग्रेजी सरकार पर,
(च) सर्वसाधारण पर तथा
(छ) आगे आनेवाली उसी प्रकार की और बातों पर कैसा पड़ेगा।
भारी भारी मामलों में इन्हीं सब बातों को अच्छी तरह देखना चाहिए।
किसी कार्यवाई की भलाई बुराई समझने के लिए यह भी देख लेना चाहिए कि यदि और
लोग भी वैसी ही कार्यवाई करें तो वह हमें कैसी लगेगी। इसमें यह सिद्धान्त
रखा गया है कि तुम दूसरे लोगों के साथ वैसा ही करो जैसा कि तुम चाहते हो कि
वे तुमहारे साथ करें।
मेरे कहने का तात्पर्य यह है कि किसी कार्यवाई का प्रभाव किन किन बातों पर
कैसा पड़ेगा यह अच्छी तरह देख लेना चाहिए। इसके देखने में वर्तमान का भी
ध्यान रखना चाहिए और भविष्य का भी।
प्रस्तावों के परिवर्तन की प्रवृत्ति- बहुत से राजा-महाराजाओं को जो
प्रस्ताव उनके सामने लाया जाता है उसमें कुछ न कुछ हेरफेर करने का बड़ा चाव
रहता है, चाहे हेरफेर की कोई आवश्यकता हो, चाहे न हो। इस प्रवृत्ति से अपने
को बचाना चाहिए। इसी प्रवृत्ति से काम में रुकावट पड़ सकती है।
इस प्रवृत्ति का मूल है अहंकार। इस प्रवृत्ति वाला मनुष्य समझता है कि यदि
हम अपने सामने आए हुए प्रस्ताव में कुछ अदल बदल करेंगे तो हमारा बड़प्पन
रहेगा। पर यह भूल है। अदल बदल करने ही में बुद्धिमानी नहीं है। अदल बदल का
जब कोई ठीक कारण होगा तभी बड़प्पन और बुद्धिमानी समझी जाएगी। जहाँ बिना किसी
ठीक कारण के केवल छोटाई बड़ाई के खयाल से अदल बदल किया जाता है वहाँ केवल
चित्त की दुर्बलता सूचित होती है। लोग इस दुर्बलता को चट भाँप जाते हैं। वे
असल और नकल की पहचान कर लेते हैं।
राजा-महाराजा उपस्थित प्रस्ताव की जहाँ तक जाँच करते बने, करें। उन पर
विवाद भी करें। जो बात अयुक्त हो उसे कहें और पूछताछ करें। यदि यह मन में
बैठ जाए कि इन कारणों से अदल बदल करना आवश्यक है तो अदल-बदल करें। पर यों
ही केवल अधिकार और बड़प्पन जताने के उद्देश्य से अदल बदल करना बड़ी बुरी बात
है।
मैंने देखा है कि चापलूस लोग, जिनसे शायद ही कोई राज दरबार बचा हो, इस
प्रवृत्ति को बढ़ावा देकर उभाड़ते हैं। पर इन लोगों के फेर में पड़ना मानो
अपने को भूलकर अपनी हानि आप करना है।
बात के ठीक जाँचने पर और कर्मचारियों पर इतना विश्वास होने पर कि उनके हाथ
में सब ब्योरा ठीक रहेगा जो राजा-महाराजा दृढ़चित्त होकर कहते हैं कि ''मैं
सहमत हूँ'' वे काम को बड़ा सुगम कर देते हैं। यही एक उपाय है जिससे काम में
अड़चन नहीं पड़ सकती और राजा-महाराजाओं को भी ध्यान देने योग्य भारी भारी
मामलों को निपटाने का पूरा अवकाश मिल सकता है।
साधय और साधन- किसी काम को अच्छी तरह और सफलतापूर्वक करने के लिए पहले यह
साफ-साफ समझ लेना जरूरी है कि वह उद्देश्य क्या है जिसे पूरा करना है और
विशेष लक्ष्य क्या है और क्या नहीं है।
यह हो जाने पर दूसरा विचार साधन व उपाय का करना चाहिए। एक उद्देश्य की
सिद्धि के अनेक साधन व उपाय हो सकते हैं। इनमें से कौन सबसे अच्छा है, इसका
निश्चय जितनी सावधनी से हो सके कर लीजिए।
सबसे अच्छा उपाय ठहरा लेने पर उन सब कठिनाइयों और आपत्तियों को सोचिए जो
उद्देश्य में बाधा डाल सकती हैं व उसे निष्फल कर सकती हैं और उन कठिनाइयों
और आपत्तियों को दूर करने का उपाय कीजिए व सोचे रहिए।
तब देश, काल और अवस्था का विचार करके काम को कर चलिए।
यदि इस ढंग से कोई चलेगा तो सफलता का विस्तार बढ़ जाएगा अर्थात् बहुत सी
बातों में सफलता होगी।
यद्यपि ऊपर बताया हुआ ढंग बहुत सीधा है पर बहुत से लोग उस पर नहीं चलते और
चलते भी हैं तो पूरी तरह नहीं। ऊपर लिखे ढंग पर कोई कम चलता है कोई अधिक,
इसी से जीवन में किसी को कम सफलता होती है किसी को अधिक।
जो मनुष्य इस ढंग व युक्ति का पूरा-पूरा ध्यान रखता है वह कभी चक्कर में
नहीं पड़ता। वह तो पहले से सोच समझकर ठहराई हुई शैली पर बराबर चला चलता है।
पर जो मनुष्य कोई काम उठाने में इसका ध्यान नहीं रखता वह बिना ठीक ठिकाने
के चलता है और पग-पग पर घबड़ाता और अधीर होता है।
जो बातें मैंने कही हैं वे सब पर घटती हैं पर राजा-महाराजाओं पर विशेष रूप
से, जिन्हें बराबर कुछ न कुछ करना रहता है और जिन्हें प्राय: बड़े-बड़े
मामलों में कार्यवाई करनी रहती है।
कर्मचारियों के साथ व्यवहार- जबकि एक बार कर्मचारी पूरी सावधनी के साथ
योग्यता देखकर चुने गए तब फिर महाराज को उन पर विश्वास रखना चाहिए। महाराज
का यह संदेह करना न्याय और नीति के विरुद्ध होगा कि वे ठीक-ठीक बातें नहीं
बतलाया करते व अंडबंड कार्यवाई कराया करते हैं। जिन राजा-महाराजाओं ने यह
नहीं सीखा है कि दूसरों पर किस तरह विश्वास रखना चाहिए वे अपने जीवन में
कुछ नहीं कर सकते क्योंकि कोई खुशी से उनका साथ देनेवाला नहीं मिलता।
राजा-महाराजाओं को चाहिए कि अपने उच्च कर्मचारियों के साथ शिष्टता और मान
का व्यवहार करके उनकी मर्यादा की रक्षा और पुष्टि करें।
संसार में ऐसे मनुष्य नहीं मिल सकते जो सब गुणों में पूरे हों। योग्य से
योग्य मनुष्य में भी कोई न कोई कसर रहती ही है। राजाओं को इस प्रत्यक्ष बात
का ध्यान उदारतापूर्वक रखना चाहिए। मनुष्य की सब बातों को देखे और ''करे
दोष को कुछ अनदेख, गुण पर रीझे सदा विसेख।''
बड़े-बड़े अफसरों को मामलों पर बेधड़क वाद-विवाद करने और अपना मतभेद प्रकट
करने का पूरा अधिकार रहना चाहिए।
राजा-महाराजाओं से जहाँ तक हो सके किसी बड़े अफसर की पीठ पीछे बुराई न करें।
किसी अफसर के विरुद्ध जहाँ कोई बात महाराज के मुँह से निकली कि वह चट दूर
तक फैला दी जाएगी, फिर लोग उस अफसर को कुछ न समझेंगे और वह अपना काम अच्छी
तरह से नहीं कर सकेगा।
इन्हीं सब बातों का ध्यान रखकर इधर-उधर के साधारण मनुष्यों को, जो
राजदरबारों में पहुँचा करते हैं, बड़े-बड़े अफसरों के विषय में मनमाना अंडबंड
न बकने देना चाहिए।
ऐसे प्रार्थनापत्र भी न लेने चाहिए जिनमें बडे अफसरों के प्रति व्यर्थ
अपमान सूचक शब्द लाए गए हों।
यदि महाराज को किसी बड़े अफसर को कुछ बुरा भला कहना हो तो अच्छा यह होगा कि
एकान्त में कहें, दस आदमियों के सामने नहीं।
सारांश यह कि देश भर यह देखे कि महाराज और उनके कर्मचारी मिल जुलकर एक गहरा
गुट बनाए हैं और उनमें वह शक्ति पूरी है, जो उद्देश्यों, भावों और कर्मों
की एकता से होती है।
मैं यह कह चुका हूँ कि राजा-महाराजा बहुत अधिक काम न करें। राजा-महाराजाओं
को यह भी देखना चाहिए कि उनके उच्च कर्मचारी काम से बहुत अधिक नहीं दबे हैं
और उन्हें थोड़ा बहुत विश्राम करने, पढ़ने लिखने और स्वास्थ्य सुधारने का समय
मिलता है। यदि उनका इतना खयाल रखा जाएगा तो वे काम और भी अच्छा करेंगे।
विश्वास- विश्वास का बना रहना सार्वजनिक कार्यों के लिए अत्यन्त आवश्यक है।
सार्वजनिक कार्यों के लिए तो वह जितना आवश्यक है उतना निज के कामों में भी
नहीं। साधारणत: यह कहा जा सकता है कि किसी उत्तम गुण का होना राज्य के लिए
उससे अधिक आवश्यक है जितना कि वह व्यक्ति के लिए है, क्योंकि राज्य की ओर
से जो कार्य होते हैं उनका प्रभाव बहुत दूर तक पड़ता है।
विश्वास बनाए रखने के लिए यह आवश्यक है कि जो प्रतिज्ञा व वादा किया जाए वह
पूरा करने की इच्छा से, और वह पूरा किया जाए।
खेद है कि बहुत सी देशी रियासतों में इस सिद्धान्त का ध्यान नहीं रखा जाता
फल क्या होता है? देशी रियासतों की ओर से जो वादे किए जाते हैं उन पर कोई
पूरा विश्वास नहीं करता, चाहे वे वादे कैसे ही पक्के क्यों न हों।
इस बात में अंग्रेजी सरकार और देशी रियासतों में क्या अंतर है वह एक
दृष्टान्त देकर दिखाया जा सकता है। मान लीजिए कि किसी देशी रियासत ने उधार
लेने की घोषणा की, अर्थात् उसने सर्वसाधारण से कुछ रुपया उधार लेना चाहा।
अब मान लीजिए कि अंग्रेजी सरकार ने भी रुपए उधार लेने की घोषणा कर दी। यह
निश्चय है कि जिस धड़ाके के साथ लोग अंग्रेजी सरकार को रुपया देने दौड़ेंगे
उस धड़ाके के साथ देशी रियासत को नहीं। देशी रियासत चाहे सूद भी अधिक देती
हो पर लोग कम सूद पर अंग्रेजी सरकार को रुपया देना पसन्द करेंगे। यह भेदभाव
क्यों है ? इसलिए कि लोग समझते हैं कि अंग्रेजी सरकार अपने वादे अच्छी तरह
पूरा करेगी पर किसी देशी रियासत के विषय में उन्हें इतना अधिक निश्चय नहीं
रहता।
सर्वसाधारण के आराम, रक्षा और विश्वास तथा उन्नति और सुख के लिए यह आवश्यक
है कि राजा-महाराजा किसी मनुष्य व किसी समाज से जो वादे करे उन्हें वे पूरा
करें।
पर इसके लिए यह आवश्यक है कि जो वादे किए जाएँ बिना समझे बूझे नहीं। कोई
वादा करने के पहले पूरी जाँच पड़ताल और पूरा सोच विचार कर लिया जाए।
इनाम- राजा-महाराजाओं को न तो एकबारगी बिना समझे बूझे और बेहिसाब इनाम देना
चाहिए और न इनाम देने में बहुत सोच विचार और कंजूसी करनी चाहिए। उन्हें
न्यायी और उदार होना चाहिए। ऐसा करना लोक धर्म है और इससे लोकहित की वृद्धि
होती है।
इनाम या तो धन के रूप में होता है, व मान और प्रतिष्ठा के रूप में होता है
अथवा दोनों रूपों में होता है। इनाम का उद्देश्य है सुख पहुँचाना और अच्छे
कामों के लिए उत्साह उत्पन्न करना। इससे इनाम देनेवाले को इस बात का ध्यान
रखना चाहिए कि यह उद्देश्य पूरा हो अर्थात् इनाम जो दिया जाए वह सुख
पहुँचाने भर को हो और वह इस तरह सोच समझ कर दिया जाए कि उससे अच्छे काम के
लिए उत्साह मिले।
किसी नौकर या कर्मचारी को जो मामूली तनख्वाह मिलती है वह मामूली काम के लिए
है ही, इससे उसके लिए उसे कोई ख़ास इनाम देने की जरुरत नहीं। मामूली काम के
लिए ऊपर से कुछ इनाम देने से उलटी बुराई हो सकती है। इनाम इकराम की बात तो
तब उठनी चाहिए जब नित्य के मामूली काम से बढ़कर कोई काम किया जाए।
अस्तु, जहाँ किसी प्रकार की सेवा न की गई हो या यों ही कोई छोटी-मोटी सेवा
की गई हो वहाँ पुरस्कार न देना चाहिए। यह मैं इसलिए कहता हूँ कि राज
दरबारों में ऐसे बहुत से लोग मिलते हैं जो लम्बा चौड़ा इनाम केवल इसलिए
चाहते हैं कि उनके सिर बहुत सा कर्ज है अथवा वे पुराने खानदान के हैं,
इत्यादि इत्यादि।
बड़ाई और प्रशंसा करना भी एक प्रकार का पुरस्कार ही देना है। ऐसे पुरस्कारों
के विषय में भी ऊपर लिखी बातों का ध्यान रखना चाहिए। ऐसा पुरस्कार भी भरपूर
क्या कुछ अधिक ही होना चाहिए।
किसी इनाम के भरपूर व बढ़-चढ़कर होने की एक अच्छी पहचान यह है कि ऐसा इनाम
पानेवाला अपने इनाम को औरों को दिखाने में लज्जित नहीं होता बल्कि
प्रसन्नता और अभिमान के साथ उसे दिखाता फिरता है। इस तरह जब इनाम दिया जाता
है तभी उससे उत्साह मिलता है और उसका उद्देश्य पूरा होता है। जो राजा समझ
बूझकर इनाम देते हैं उनसे बहुत कुछ भलाई की राह निकल सकती है।
दूसरों के जी को भी जी समझना- प्रत्येक राजा क्या प्रत्येक पुरुष को, जिसे
बहुत से आदमियों से काम पड़ता हो, दूसरों के जी का भी ध्यान रखना चाहिए।
किसी मामले में चाहे वह छोटा हो या बड़ा, न तो व्यर्थ कोई कड़ी व जी दुखाने
वाली बात कहनी चाहिए और न कार्यवाई करनी चाहिए। यह बड़ी अच्छी बात है। और
इसे डालने में जो कष्ट हो उठाना चाहिए। परख और अभ्यास से यह बात पड़ती है।
यह जानने का कि कौन सी बात कड़ी, व जी दुखानेवाली है, एक सीधा ढंग यह है कि
मनुष्य सोचकर देखे कि यदि वही बात हमें कही जाएगी व हमारे साथ की जाएगी तो
हमें कैसा लगेगा। बहुत से लोग इस सिद्धान्त पर अच्छी तरह नहीं चलते।
दूसरा उपाय इस बात के डालने का यह है कि जो लोग इस गुण के लिए प्रसिद्ध हों
उनके विचारों, वचनों और कर्मों की ओर ध्यान दे।
संवादपत्रों की सम्मति- कोई राय समाचारपत्रों में छपी है उससे यह न समझ
लेना चाहिए कि वह ठीक ही है। प्रकाशित मत का मोल तो समाचारपत्र और लेखक की
प्रतिष्ठा पर है। पर कभी-कभी ये दोनों बहुत उच्च श्रेणी के नहीं होते।
कभी-कभी बहुत ही कम जानकारी और समझ के आदमी अखबारों में लिखने बैठ जाते
हैं। कभी-कभी तो बहुत सी ओछी प्रवृत्ति के लोग ऐसा करते हैं। कभी-कभी तटस्थ
निरीक्षक व समालोचक के रूप में ऐसे लोग सामयिक पत्रों में लिखते हैं जो
समझते हैं कि हमारे साथ अन्याय व कुव्यवहार हुआ है अर्थात् ऐसे लोगों की भी
कमी नहीं है जिनकी राय पैसे की है, अर्थात् जो पैसा पावेगा वह वैसा गावेगा।
ऐसी दशा में इस बात के समझने में बहुत सावधन रहना चाहिए कि समाचारपत्रों की
सम्मतियाँ व समालोचनाएँ कहाँ तक ध्यान देने योग्य हैं।
जो संवादपत्र ईमानदारी से चलाए जाते हैं और जो सर्वसाधारण सम्मति का पता
देते हैं अथवा जिनमें बडे-बड़े बुद्धिमानों के विचार निकलते हैं उनका
तिरस्कार न करना चाहिए। उन्हें तो जहाँ तक हो सके ध्यान देकर पढ़ना चाहिए
जिसमें राज्यप्रबंध में सहायता मिले।
स्वाधयाय- अधिकार मिलने पर राजा-महाराजाओं का पढ़ना न छूटना चाहिए। यह बहुत
आवश्यक है कि उनका पढ़ना किसी नियत ढर्रे पर चला चले। राजा-महाराजाओं को
बहुत सा समय और ध्यान तो राज काज की बातों में ही लगाना पड़ेगा। पर स्वाधयाय
के लिए भी कुछ समय निकालना ही चाहिए, और नहीं तो दिन में तीन ही घण्टे सही।
इससे यह होगा कि उनका (क) अंग्रेजी भाषा की और (ख) उपयोगी बातों की जानकारी
बढ़ेगी।
अंग्रेजी हम लोगों के लिए एक विदेशी भाषा है और यों भी कठिन है, इससे हम
लोगों को उसका बराबर अभ्यास रखना पड़ता है। यदि अभ्यास न रखें तो उन्नति
करना तो दूर रहा, सीखा सिखाया भी भूल जाएँ। हम लोगों को बहुत सी अच्छी
अंग्रेजी नित्य पढ़नी चाहिए। हमें नित्य थोड़ी बहुत अंग्रेजी लिखनी और बोलनी
चाहिए।
अंग्रेजी भाषा जानने का मुख्य उद्देश्य उपयोगी बातों की जानकारी प्राप्त
करना है। इससे जो कुछ हम पढ़ें वह ऐसा हो जिसके द्वारा हम अपने ज्ञान का
भण्डार बढ़ा सकें।
जो समाचारपत्र योग्यतापूर्वक चलाए जाते हों उन्हें पढ़ना चाहिए।
राजा-महाराजाओं को संसार के, विशेषकर भारत और इंग्लैण्ड के, वर्तमान चलते
हुए इतिहास को देखते चलना चाहिए। तात्पर्य यह कि बड़ी-बड़ी बातें जानने को रह
न जाएँ।
मि. ग्लैडस्टोन ऐसे बड़े-बड़े राजनीतिज्ञों के व्याख्यानों को पढ़ने से भी
बहुत कुछ लाभ हो सकता है।
पार्लायामेण्ट के वाद-विवाद पढ़ने का भी अच्छा फल होगा।
देशी रियासतों के संबंध में जहाँ जितनी बातें मिलें सबको पढ़ना और नोट करना
चाहिए। बड़े लाट की स्पीचें जो इस संबंध में हों वे तो किसी तरह न छूटने
पाए।
हिन्दुस्तान से संबंध रखनेवाले पार्लामेण्ट के कागजों (Blue Books) को
बराबर मँगाना चाहिए और उनके जो अंश काम के हों उन्हें पढ़ना चाहिए।
प्रान्तिक गवर्नमेण्ट के वार्षिक शासन विवरणों से राजा-महाराजाओं को परिचित
रहना चाहिए।
इस प्रकार की पढ़ाई राजा-महाराजाओं को राजकाज में बहुत काम देगी। इससे
उन्हें राज्य सँभालने की शक्ति आएगी।
राजा को ऐसी चीजें पढ़नी चाहिए जिनसे उनके हृदय में महत् विचारों और ऊँचे
भावों का समागम हो और महल के तुच्छ और साधारण आदमियों की संगत का ओछा
प्रभाव दूर हो। देशी रजवाड़े कभी-कभी ऐसी ही संगत में पड़ जाते हैं जिससे
उनके विचार छोटे व संकुचित हो जाते हैं। वे अपने को उसी पुरानी दुनिया के
भीतर बंद रखते हैं जिसमें वर्तमान उन्नति के युग का प्रकाश नहीं पहुँचता।
इसकी सबसे अच्छी बात यह है कि वे मनुष्य जाति में सबसे अधिक सभ्य और
शिक्षित लोगों के विचारों से जानकार हो जाएँ।
राजा-महाराजा कभी-कभी जीवनचरित और उपन्यास आदि भी पढ़ें जिनसे श्रेष्ठ गुणों
को उत्तेजना मिलती है।
ऊँचा पद पाकर और बड़ा अधिकार हाथ में रखकर जीवन का लक्ष्य व आदर्श ऊँचा रखने
के लिए सतोगुण की शक्ति चाहिए और उस सतोगुण की शक्ति के लिए यह आवश्यक है
कि वह बराबर किसी न किसी ढंग से नई और ताजी होती रहे।
मनुष्यों पर शासन करने के लिए केवल सिद्धान्तों के ही ज्ञान से काम नहीं
चलता ऐसे ज्ञान के साथ बराबर अभ्यास और अनुभव भी चाहिए। यह नहीं कि
राजा-महाराजा व्यवहार ज्ञान और अनुभव को कोई चीज ही न गिनें और बड़े-बड़े
मामलों में अनुभवी लोगों की राय लेना आवश्यक ही न समझें। मैं एक दृष्टान्त
देता हूँ जिससे सिद्धान्त और व्यवहार में जो अंतर है वह मन में बैठ जाएगा।
आप दाहिने हाथ से लिखना अच्छी तरह जानते हैं। यदि सिद्धान्त ही तक बात है
तो उसमें दाहिने और बाएँ। का कुछ विचार नहीं है। पर जरा बाएँ हाथ से लिखकर
देखिए तो कैसा ऊटपटाँग लिखा जाता है। क्यों? बात यह है कि सिद्धान्त तो
दोनों हाथों के विषय में ठीक है पर दाहिने हाथ को अभ्यास है और बाएँ हाथ को
नहीं। अभ्यास के अभाव से जो अंतर पड़ जाता है वह देखिए और अकेले सिद्धान्त
ज्ञान ही के आसरे पर न रहिए।
जो सिद्धान्त मैंने ठहराए हैं और जो व्यवस्थाएँ मैंने बतलाई हैं वे ध्यान
में रखने योग्य हैं। सभ्य और सुशिक्षित राजा-महाराजा उन्हीं के अनुसार चलते
हैं। उन्ही के द्वारा वे सुख, मान और यश के शिखर पर पहुँचते हैं। उन्हीं के
द्वारा देशी रजवाड़े अपनी वर्तमान स्वतंत्रता बराबर स्थिर रख सकते हैं। मैं
अपनी बातों के पक्ष में यहाँ पर उन वक्यों को उध्दृत करता हूँ जो 1879 में
अंग्रेजी सरकार की ओर से कहे गए थे।
''जिस नीति का व्यवहार अंग्रेजी राज्य में होता है उसको समझ बूझकर
धीरे-धीरे देशी रियासतों में फैलाने से ही देशी रजवाड़े अपने प्रबंध की
स्वतंत्रता को सबसे अधिक दृढ़ समझ सकते हैं और साम्राज्य की ओर से किसी
प्रकार के हस्तक्षेप को सबसे अच्छी तरह बचा सकते हैं।''
राजनीति और शासन के सिद्धान्त- अंग्रेजी सरकार की बड़ी अभिलाषा रहती है कि
देशी रजवाड़े इस उत्तमता के साथ अपने राज्यों का प्रबंध करें कि वे आदर्श
हों और देशी लोगो को उनका अभिमान हो। यही अभिलाषा राजा-महाराजाओं की भी
रहती है। पर कोरी अभिलाषा से तो कुछ होता नहीं। उस अभिलाषा को पूरा करने के
लिए काम करना चाहिए, जो बुद्धिमान् और उत्साहियों के लिए कुछ कठिन नहीं है।
मैं यहाँ कुछ सिद्धान्त बतलाता हूँ जिन पर चलने से राजा-महाराजा अपने को
आदर्श बना सकते हैं। इन सिद्धान्तों को संसार के सब सभ्य राज्य मानते हैं।
इन सिद्धान्तों को जान लेना ही बस नहीं है। इनको समझें और मन में जमावें।
इनको सदा ध्यान में रखें और राज्य का हर एक काम इन्हीं के अनुसार करें। इन
सिद्धान्तों को केवल जान लेना और नित्य के व्यवहार में उनको काम में न लाना
वैसा ही अपराध है जैसे अच्छा कम्पास रखकर भी उसकी ओर जहाज चलाते समय न
देखना।
पुराने ढर्रे के कुछ लोग कहेंगे कि वर्तमान महाराज इन सिद्धान्तों को क्यों
जानें और उन पर क्यों चलें? पुराने महाराज लोग तो ऐसा नहीं करते थे और वे
अपने राज्य का प्रबंध करते ही थे। आजकल के महाराज भी वही करें।
यहाँ यह स्पष्ट कहना पड़ता है कि पुराने महाराज लोग बहुत अच्छे शासकों में
से न थे। वे पुराने पूर्वीय मनमाने ढंग पर राज करते थे। वे प्रजा के सुख का
इतना ध्यान नहीं रखते थे और यदि थोड़ा बहुत रखते भी थे तो उस सुख को बढ़ाने
के सबसे अच्छे उपायों को नहीं जानते थे। कभी-कभी वे बड़ी भारी भूलें करते
थे, बड़ी-बड़ी अड़चनों में फँस जाते थे। यदि वे इन ठीक सिद्धान्तों को जानते
होते तो ऐसा न होता। पुराने राजा-महाराजाओं को इन सिद्धान्तों को जानने के
उतने साधन भी नहीं थे जितने आजकल के महाराजों के लिए हैं। एक बात और भी है।
तब की और अब की दशा में बहुत कुछ अंतर है। तब यदि कहीं किसी राज्य का
प्रबंध बुरा होता था तो उस पर बहुत लोगों का ध्यान नहीं जाता था। अब चारों
तरफ रेल दौड़ती है, डाक और तार का प्रबंध है। एक राज्य में जो बुराई होगी
उसकी खबर चट दूर-दूर तक फैल जाएगी।
रेल हो जाने के कारण बाहर के लोग भी देशी राज्यों में बहुत आया जाया करते
हैं। इससे देशी राज्यों का कुप्रबंध ऐसे लोगों को पहले के लोगों से अधिक
खलेगा और उस पर बड़ा हल्ला मचेगा।
देशी राज्यों के लोगों का भी कलकत्ता, बम्बई तथा अंग्रेजी राज्य के और
बड़े-बड़े नगरों में आना जाना रहता है। उनको अब अपने यहाँ की राज्यप्रणाली को
और जगहों की राज्यप्रणाली से मिलान करने का अधिक अवसर मिलता है।
ज्ञान और शिक्षा की वृद्धि के कारण अब लोगों के चित्त में 'उत्तम राज्य' का
आदर्श बहुत ऊँचा हो गया है। जो बुरा राज्य वे पहले सहन कर सकते थे अब नहीं
करेंगे। जिस प्रकार के उत्तम राज्य से उन्हें पहले सन्तोष हो जाता था उस
प्रकार के राज्य से अब नहीं होगा।
एक बात और है। पहले सब देशी रियासतों में थोड़ा बहुत बुरा राज्य था। यहाँ तक
कि अंग्रेजी राज्य में भी व्यवस्था ठीक नहीं थी। पर अब चारों ओर उन्नति है,
कहीं कम, कहीं ज्यादा। अत: यदि कोई देशी रियासत आगे नहीं बढ़ेगी तो लोगों को
यह बात खटक जाएगी और असन्तोष फैलेगा।
सबसे बढ़कर बात तो यह है कि अंग्रेजी सरकार को जिसका भारतवर्ष में साम्राज्य
है पहले की अपेक्षा अब बुरा शासन अधिक खटकता है। अंग्रेजी सरकार अपने ऊपर
इस बात का जिम्मा समझती है कि देशी रियासतों में बुरा राज्य न रहने पावे।
अंग्रेजी सरकार मानो प्रत्येक देशी रजवाड़े से कहती है, ''पहले यदि तुम बुरा
राज करते थे तो घर ही में दवा हो जाती थी अर्थात् तुम्हारी प्रजा बिगड़ जाती
थी और अत्याचार की समाप्ति कर देती थी। इस बात का डर ऐसा था जिससे कुराज्य
के लिए कुछ रोक रहती थी। पर अब हम तुम्हारी प्रजा को इस विद्रोह रूपी उपाय
का अवलम्बन नहीं करने देंगे। जहाँ कहीं इस तरह का विद्रोह होगा उसे अपनी
सेना द्वारा दबाने का भार हमने अपने ऊपर लिया है। इस प्रकार अत्याचार को
दूर करने का जो उपाय प्रजा के हाथ में था उसे हमने ले लिया। पर अत्याचार
अवश्य दूर होना चाहिए। उसे दूर कौन करेगा? हमारा साम्राज्य भारत में है अत:
हमने प्रजा की ओर से इस कर्तव्य को अपने ऊपर लिया है। जब किसी देशी रियासत
की प्रजा बदअमली की शिकायत करेगी तब हम पूरी जाँच करेंगे और उसे ठीक
करेंगे। यदि आवश्यक समझेंगे तो बुरा शासन करनेवाले राजा को गद्दी से उतार
तक देंगे और उसके स्थान पर दूसरे को बैठावेंगे।''
अंग्रेजी सरकार ही देशी रियासतों के कुप्रबंध और सुप्रबंध का निर्णय
करनेवाली है। इस बड़ी बात को देशी रजवाड़ों को कभी न भूलना चाहिए। उन्हें सदा
ध्यान रखना चाहिए कि अंग्रेजी सरकार को इस बात का पूरा इत्मिनान रहे कि वे
अच्छी तरह राज कर रहे हैं, कम से कम उनका शासन बुरा नहीं है।
इससे यह जान लेना जरूरी है कि किसको अंग्रेजी सरकार अच्छा शासन समझती है,
किसको बुरा। देशी राजा-महाराजाओं को शासन के उन सिद्धान्तों को समझ लेना
चाहिए जिन्हें अंग्रेजी सरकार मानती है।
मैं उन बड़े सिद्धान्तों को आगे लिखता हूँ जो अच्छे शासन के लिए आवश्यक हैं।
राजा-महाराजाओं को उन पर पूरा ध्यान देना चाहिए क्योंकि उन्हीं पर चलने से
उन्हें यश और सुख मिलेगा।
सबसे मुख्य सिद्धान्त यह है। राजाओं का पहला धर्म प्रजा के सुख की वृद्धि
करना है।
प्रजा का सुख किसमें है और वह सुख किस प्रकार बढ़ सकता है, हम आगे चलकर
कहेंगे। यह बात बहुत ब्योरे की है जिसमें थोड़ा बहुत मतभेद भी है। पर इस
सिद्धान्त को सब मानते हैं कि राजा का धर्म प्रजा के सुख की वृद्धि करना
है।
इस सिद्धान्त को बार-बार मनन करना चाहिए। इसे राजकाज के काम में लाना
चाहिए। दीवन से लेकर जितने कर्मचारी हों सब पर इस बात का जोर देना चाहिए कि
वे सदा इस सिद्धान्त का पालन करें।
बहुत से राजा-महाराजा इस सिद्धान्त को मानते हुए भी राजकाज के व्यवहार में
उसके अनुसार नहीं चलते। ऐसा नहीं चाहिए।
मैं दो एक ऐसे कार्यों का दृष्टान्त देता हूँ जो इस महत् सिद्धान्त के
विरुद्ध हैं।
मान लीजिए कि किसी राजा साहब को जवहरात खरीदने के लिए बहुत-सा रुपया चाहिए।
इसके लिए वे राज्य के खजाने में से बहुत सा रुपया लेते हैं। अर्थात् जितना
मालगुजारी में से अपने खानगी खर्च के लिए उन्हें लेना चाहिए उससे कहीं अधिक
लेते हैं। यहाँ वे उस सिद्धान्त के विरुद्ध आचरण करते हैं जिसे मैंने
बतलाया है क्योंकि वे सर्वसाधारण के उस रुपये को स्वार्थ में लगाते हैं जो
किसी न किसी तरह प्रजा के सुख की वृद्धि में लगता।
मेरा अभिप्राय यह नहीं है कि राजा-महाराजा जवहरात न ख़रीदें। जब उचित और
आवश्यक हो तब जवहरात भी ख़रीदे जाएँ पर एक हिसाब से।
दूसरा दृष्टान्त लीजिए, कोई राजा हैं जो बिना किसी आवश्यकता के एक महल के
बाद दूसरा महल बनवाते चले जा रहे हैं और इसके लिए वे राज्य के ख़जाने से
बहुत सा रुपया लेते हैं अर्थात् मालगुजारी में से जितना अपने ख़ानगी ख़र्च के
लिए उन्हें लेना चाहिए उससे कहीं अधिक लेते हैं। वे उक्त सिद्धान्त के
विरुद्ध कार्य करते हैं। उनके पास काफी महल होने चाहिए। पर उनकी भी हद है।
रोम के सुलतान और मिस्र के ख़दीव ने महल बनवाते बनवाते राज्य का ख़ज़ाना ख़ाली
कर दिया। यह भी मूर्खता ही है कि आज एक नया महल बनवाना और कल उसे छोड़ना।
इसी प्रकार कोई राजा अपने संबंधियों और कृपापात्रों का खूब घर भरना चाहते
हैं और इसके लिए राज्य के ख़ज़ाने से बहुत सा रुपया लेते हैं जो प्रजा के सुख
की वृद्धि में लगता। यह भी इस सिद्धान्त का उल्लंघन है। संबंधियों और
कृपापात्रों की ख़ातिर मुनासिब है पर एक ठिकाने से।
जिस सिद्धान्त का मैं समर्थन कर रहा हूँ उसके अनुसार धर्मार्थ और परोपकार
में जो दान दिए जाएँ उनकी भी उचित सीमा होनी चाहिए। ऐसे दान भी एक हिसाब से
दिए जाएँ जिसमें प्रजा की सुख वृद्धि के साधन खण्डित न हों।
सारांश यह कि जब कभी राजा-महाराजा कोई भारी खर्च करने को हों तब वे इस
सिद्धान्त को स्मरण कर लें और मन में सोचें, ''क्या इस ख़र्च से प्रजा के
सुख की कुछ वृद्धि होगी?'' यदि उनके मन में आए कि 'नहीं' तो उन्हें इस ख़र्च
को उक्त सिद्धान्त के विरुद्ध समझकर रोक देना चाहिए।
बहुत से खर्च ऐसे होते हैं जिनसे प्रजा को कोई सुख नहीं होता पर राजा लोग
अपने सुख के लिए उसे उठाना चाहते हैं। वे लोग इस प्रकार का ख़र्च करें, पर
मालगुज़ारी के उस अंश में से जो उनके निज के ख़र्च के लिए मुकर्रर है,
अर्थात् खानगी मद से।
कोई राजा जो उक्त सिद्धान्त का पालन करता है ऐसा कभी नहीं समझता कि ''हमें
अधिकार है कि हम राज्य की मालगुजारी को जिस तरह चाहें उस तरह ख़र्च करें।''
राज्य राजा की निज की सम्पत्ति नहीं है बल्कि प्रजा की धरोहर है। प्रजा की
मालगुज़ारी उसके हाथ में इसलिए दी गई है जिसमें वह उसे प्रजा के हित में
लगावे। इस कर्तव्य का उसे ध्यान रखना चाहिए।
इस कर्तव्य का यह मतलब नहीं कि राजा-महाराजाओं को ठीक ठिकाने से जैसा भी
चाहे वैसा खर्च करने की स्वतंत्रता न रहे। जैसा मैंने ऊपर कहा है
राजा-महाराजा अपने मालगुज़ारी के अंश में से अर्थात् खानगी मद से बेधड़क ख़र्च
करे।
अत: यदि देखा जाए तो राजाओं के निज सुख से और उक्त सिद्धान्त से कोई विरोध
नहीं पड़ता है। राजा लोग अपनी प्रजा को भी सुखी कर सकते हैं और साथ ही अपने
को भी सुखी कर सकते हैं। बचाने की बात यह है कि राजा लोग अपने सुख के लिए
प्रजा के सुख की हानि न करें।
प्रजा से मेरा अभिप्राय सब जातियों और सब सम्प्रदायों के लोगों से है। जहाँ
तक हो सके राजा-महाराजाओं को सब जातियों और सम्प्रदायों का बराबर मान रखना
चाहिए। ऐसा न हो कि कुछ जातियों और सम्प्रदायों का जी दुखाकर कुछ जातियों
और सम्प्रदायों पर विशेष कृपा दिखाई जाए। राजाओं को चाहिए कि अपने राज्य के
सब मनुष्यों के सुख की वृद्धि करें चाहे वे हिन्दू हों व मुसलमान, धनी हों,
गरीब, सरदार हों व काश्तकार। सारांश यह है कि राजाओं को अपनी सारी प्रजा का
पिता व पालनकर्ता होना चाहिए न कि किसी विशेष जाति का।
यह केवल उचित और न्यायसंगत ही नहीं है बल्कि बड़ी पक्की नीति की बात है। जो
राजा अपनी सारी प्रजा पर समान अनुग्रह रखते हैं उन्हें सारी प्रजा का बल
रहता है। पर जो राजा अपनी प्रजा के किसी विशेष वर्ग पर ही अनुग्रह रखते हैं
उनका बल दूसरे वर्गों के विरोध के कारण घट जाता है। राजकाज में यह बात बहुत
ध्यान रखने की है।
जो कुछ मैंने अभी कहा है उसके अनुसार एक बात तो यह होनी चाहिए कि रियासत की
नौकरियों के लिए जनसंख्या के हिसाब से सब जातियों और सम्प्रदायों में से
आवश्यक योग्यता रखनेवाले मनुष्य लिये जाएँ। यह भूल होगी कि केवल दक्षिणी, व
केवल गुजराती, व केवल मुसलमान, व केवल पारसी ही रखे जाएँ। इन सब जातियों के
लोग हिसाब से रखे जाएँ।
दूसरी बात यह होनी चाहिए कि प्रजा के किसी एक वर्ग पर दूसरे की अपेक्षा
अधिक कर न लगाया जाए।
तीसरी बात यह होनी चाहिए कि सब लोगों के साथ समान न्याय किया जाए चाहे वे
किसी धर्म व सम्प्रदाय के हों। मान लीजिए कि एक ब्राह्मण और मुसलमान के बीच
कोई मुकदमा है। उसमें किसी हिन्दू राजा का ब्राह्मण का पक्षपात करना व किसी
मुसलमान शासक का मुसलमान का पक्षपात करना भारी भूल है। इसी प्रकार मित्रों,
कृपापात्रों, संबंधियों आदि का पक्षपात भी नहीं होना चाहिए। अच्छे राज्य का
एक बड़ा लक्षण यह है कि वहाँ सबके साथ समान न्याय होता है।
देशी रियासतों में बहुत से सरदार यह कहनेवाले मिलते हैं कि, ''राज्य तो
महाराज के और हमारे वस्ते है ही, मंत्रीयों का यह काम है कि जहाँ तक
मालगुज़ारी वसूल करते बने करें जिससे महाराज और हम लोग खूब सुख करें।'' ऐसे
लोग प्रजा के सुख दु:ख को कोई चीज नहीं समझते। कहने की आवश्यकता नहीं कि
उनका यह सिद्धान्त बिलकुल पोच है। राजा-महाराजाओं को ऐसे लोगों की बातों पर
कुछ भी ध्यान न देना चाहिए। कुछ दिनों में शिक्षा बढ़ने पर ऐसे विचार के लोग
न रह जाएँगे।
सरदार लोग प्रजा के एक अंग क्या प्रधान अंग हैं और अवश्य मान और रक्षा के
अधिकारी हैं। पर यह नहीं हो सकता कि थोड़े से सरदारों के सुख के लिए बड़ी
भारी प्रजा के सुख की हानि की जाए।
इतिहास अनुभव का बड़ा भारी भण्डार है। इतिहास के अनुभव से यह देखा जाता है
कि जिन राज्यों ने प्रजा के सुख का ध्यान रखा है वे सबसे अधिक काल तक रहे
हैं और जिन्होंने प्रजा के सुख का ध्यान नहीं रखा है वे जल्दी मिट गए हैं।
इस समय हम लोगों की ऑंख के सामने एक अच्छा नमूना मौजूद है। अंग्रेजी सरकार
की ओर देखिए। यद्यपि भारत में उसका राज्य विदेशी है पर अब से पहले जितने
राज्य यहाँ हुए हैं उन सबसे कहीं बढ़कर शक्तिमान् और कहीं अधिक दृढ़ है।
क्यों? इसलिए कि उसका पहला सिद्धान्त अपनी सारी प्रजा के सुख की वृद्धि
करना है। सम्भव है कि यहाँ वहाँ अंग्रेजी सरकार से कोई भूल भी बन पड़ी हो और
उसकी आलोचना भी हुई हो। पर सब बातों को देखते यही भाव उठता है कि भारत को
अंग्रेजी राज्य से बढ़कर व उसके समान दूसरा उत्तम राज्य नहीं मिल सकता। इसी
भाव पर अंग्रेजी राज्य की दृढ़ता स्थिर है। जब तक यह भाव बना है तब तक
अंग्रेजी राज्य भी बना है और लोग चाहते हैं कि यह बना रहे, और यह भाव बराबर
बना रहेगा क्योंकि अंग्रेजी राज्य की व्यवस्था इस प्रकार की है कि उसमें
उक्त सिद्धान्त का कभी परित्याग न होगा। जहाँ तक होगा जातीय हित और जातीय
कर्तव्य के बढ़ते हुए विचार से तथा सर्वसाधारण का मन रखने और हौसला पूरा
करने के नीयत से अंग्रेजी सरकार उक्त सिद्धान्त को दिन-दिन और अधिक काम में
लाती जाएगी।
अब यदि एक विदेशी सरकार को उक्त सिद्धान्त से इतनी शक्ति और दृढ़ता प्राप्त
हुई है तो देशी राजा-महाराजाओं को भी चाहिए कि अपने यहाँ इस सिद्धान्त का
पूरा आदर करें। इसके अनुसार उन्हें अपने राज्यों में जान और माल की हिफाज़त
के लिए पुलिस का अच्छा प्रबंध करना चाहिए। मामलों को तय करने और अपराधियों
को दण्ड देने के लिए न्यायालय स्थापित करने चाहिए। व्यर्थ प्रजा को पीड़ित
करने वाले करों को उठा देना चाहिए।
प्रजा का सुख- प्रजा का सुख दो प्रकार का है। एक तो वह जो हर एक आदमी अपने
परिश्रम से अपने लिए प्राप्त कर सकता है और दूसरा वह जिसे वह अपने परिश्रम
से नहीं प्राप्त कर सकता बल्कि जो राज्य की ओर से उसे पहुँचाया जाता है।
अब मैं इन दोनों प्रकार के सुखों के थोड़े से दृष्टान्त देता हूँ।
नीचे उस प्रकार के सुख का दृष्टान्त दिए जाते हैं जो हर एक आदमी अपने
परिश्रम से प्राप्त कर सकता है, जैसे वह सुख
- जो पूरा भोजन वस्त्र आदि मिलने से होता है।
- जो अच्छा घर मिलने से होता है।
- जो बरतन, असबाब, गाड़ी घोड़े आदि से होता है।
- जो स्वास्थ्य का ध्यान रखने से होता है।
- जो सदाचार से होता है।
- जो धर्म पर चलने से होता है।
इसी तरह और भी समझिए। सच तो यह है कि मनुष्य का बहुत सा सुख तो उसी के हाथ
है, अर्थात् उसी की मेहनत, किफायत, बुद्धि और दूरदर्शिता आदि पर निर्भर है।
नीचे उस प्रकार के सुख के दृष्टान्त दिए जाते हैं जो प्रत्येक मनुष्य अपने
परिश्रम से नहीं प्राप्त कर सकता बल्कि जो सारे समुदाय की प्रतिनिधि सरकार
की ओर से पहुँचाया जाता है, जैसे वह सुख
- जो इस निश्चय से होता है कि हमें कोई लूटेगा नहीं, हमारा माल न कोई
ज़बरदस्ती छीनेगा, न धोखा देकर उड़ावेगा।
- जो इस निश्चय से होता है कि वह मारे व घायल नहीं किए जाएँगे, हमारा
अंगभंग नहीं होगा।
- जो इस निश्चय से होता है कि औरों से हमसे जो झगड़ा होगा उसकी पूरी जाँच
होगी और उसका ठीक निर्णय किया जाएगा।
- जो इस निश्चय से होता है कि हम अपने लाभ के लिए परिश्रम करने में
स्वतंत्र हैं, कोई उसमें विघ्न बाधा न डालेगा।
- जो यह देखकर होता है कि वानिज्य व्यापार तथा आने जाने के लिए देश में
अच्छी-अच्छी सड़कें आदि हैं।
- जो यह देखकर होता है कि शहरों, कस्बों और गाँवों में स्वास्थ्य रक्षा का
अच्छा प्रबंध है जिससे रोग व्याधि का भरसक बचाव होता है।
- जो यह देखकर होता है कि रोग व्याधि की शान्ति के अच्छे उपाय पहुँच के
भीतर हैं।
- जो यह देखकर होता है कि लड़कों को पढ़ाने के लिए स्कूल पाठशालाएँ हैं। इसी
प्रकार और भी समझिए।
इस प्रकार लोगों के सुख के दो विभाग हुए। पहला वह सुख जो हर एक आदमी अपने
लिए प्राप्त कर सकता है और दूसरा वह जिसे हर एक आदमी स्वयं नहीं प्राप्त कर
सकता बल्कि जो राज्य की ओर से पहुँचाया जाता है।
इस विभाग को ध्यान में रखकर मुझे यही कहना है कि पहले प्रकार का सुख तो
प्रजा ही के ऊपर छोड़ देना चाहिए अर्थात् राज्य को उसके विषय में कोई
तरद्दुद न करनी चाहिए, पर दूसरे प्रकार के सुख की व्यवस्था कर्तव्य समझकर
राज्य ही को करनी चाहिए।
यह बात अच्छी तरह समझना चाहिए कि इस कर्तव्य के पालन से प्रजा को केवल
दूसरी प्रकार का ही सुख न होगा बल्कि पहले प्रकार का सुख भी होगा। यदि
राज्य इस कर्तव्य का पालन न करेगा तो अपने परिश्रम से सुख प्राप्त करना भी
प्रजा की शक्ति के बाहर होगा। सारांश यह कि यदि राज्य इस कर्तव्य का पालन न
करेगा तो प्रजा को किसी प्रकार का सुख न होगा। अत: सब देशी रजवाड़ों को अपना
यह मुख्य धर्म समझना चाहिए कि अपने सुख के लिए प्रजा जो नहीं कर सकती उसे
वे करें।
राजाओं का कर्तव्य- यदि अदालत किसी राजकर्मचारी व ख़ास नौकर का हाज़िर होना
आवश्यक समझे तो राजा-महाराजाओं को अदालत की पूरी सहायता करनी चाहिए। अदालत
में जिन जिन बातों की आवश्यकता हो उन्हें पूरा कराना चाहिए। ऐसे कर्मचारी
और नौकर बराबर यह समझें कि हम अदालत की पहुँच के बाहर नहीं हैं, हमें अदालत
के सामने अवसर पड़ने पर जाना पड़ेगा और हमें दूसरों के स्वत्व का वैसा ही
ध्यान रखना पड़ेगा जैसा और प्रजा को। वे यह समझे रहें कि अदालत की ओर से
उनके साथ कोई रियायत नहीं की जाएगी। ऐसे लोग प्राय: बड़े चालाक होते हैं। वे
राजाओं का मिज़ाज परखते रहते हैं और उसी के अनुसार चलते हैं।
राजा-महाराजाओं को चाहिए कि वे स्वयं न्याय की मानमर्यादा रखें। जैसे, वे
अपने नौकर चाकरों को भी स्वयं न मारें पीटें और न किसी तरह की चोट
पहुँचावें। वे स्वयं किसी के कैद करने, माल असबाब ज़ब्त करने की आज्ञा न
दें। राजा-महाराजाओं को चाहिए कि जितने जुर्म के मामले व दीवनी के झगड़े हों
उन्हें अदालतों को सुपुर्द करें, वे जैसा उचित समझेंगी करेंगी।
राजा-महाराजाओं को जिसका जितना देना हो बराबर दे देना चाहिए। जिसके साथ जो
व्यवहार हो उसको उन्हें उसी तरह पूरा करना चाहिए जिस तरह और आदमी करते हैं।
जिसका जो कुछ चाहता हो जहाँ तक हो सके साफ कर देना चाहिए। ऐसा न हो कि उसे
उससे हाथ धोना पड़े व उसके लिए अदालत में जाना पड़े। यदि राजा-महाराजा ऐसा
करेंगे तो वैर विरोध से बचे रहेंगे, सर्वप्रिय रहेंगे और साथ ही अदालतों की
मान मर्यादा भी दृढ़ करेंगे।
बड़ी भारी बात यह है कि राजा-महाराजाओं को यह ध्यान रखना चाहिए कि उनका
कर्तव्य बहुत ऊँचा और राज काज की सब बातों की देखभाल रखना है। छोटे-छोटे
कामों में स्वयं हाथ डालना उनका काम नहीं है। राजा-महाराजाओं को अपने राज
कर्तव्य के पालन की अभिलाषा होनी चाहिए, अमलों और कारकुन लोगों के
छोटे-छोटे काम करने की नहीं। जो राजा अपना राज कर्तव्य नहीं जानते हैं अथवा
राज कर्तव्य के पालन करने में असमर्थ हैं वे ही अपने राज कर्तव्य को छोड़कर
ऐसे छोटे-छोटे कामों को करने जाते हैं जिन्हें अमले और कारकुन उनसे कहीं
अच्छी तरह और सोच-समझकर कर सकते हैं।
मनुष्यों पर शासन करनेवाले राजा की योग्यता इसमें नहीं है कि वह सब काम आप
करे। इस बात का हौसला करना एक छोटी बात है। यह आशा करना भी व्यर्थ ही है कि
लोग समझेंगे कि महाराज सब काम कर सकते हैं। राजा राज्य का शरीर नहीं है
आत्मा है। उसके प्रभाव से और उसके आदेश पर हाथों को काम करना चाहिए और
पैरों को चलना चाहिए। उसे सोचना भर चाहिए कि क्या क्या करना होगा, पर उसके
करने के लिए औरों को नियुक्त करना चाहिए। उसकी योग्यता तो युक्तियों व
उपायों को सोचने में और साधाकों (करनेवालों) को चुनने में है। उसे न तो
उनके (साधाकों) काम के किनारे जाना चाहिए और न उनको अपने काम में हाथ डालने
देना चाहिए। राजा को काम करनेवालों के विश्वास पर भी बहुत अधिक न रहना
चाहिए। उसे समय-समय पर उनके कामों को देखते रहना चाहिए। उसमें उनकी भूल चूक
पकड़ने की योग्यता होनी चाहिए। अच्छा राज वही करता है जो लोगों की योग्यता
और प्रवृत्ति को पहचानता है और उन्हें उन कार्यों पर नियुक्त करता है जो
उनकी योग्यता के अनुकूल हैं। राज्य के अधिपति की योग्यता राज्य के काम
करनेवालों का शासन करने में है। जो आधिपत्य रखता है उसे काम करनेवालों की
जाँचना, रोकना और ठीक करना चाहिए, उसे उन्हें उत्साहित करना, बढ़ाना, बदलना
और हटाना चाहिए, उसे सदा उन पर दृष्टि रखनी चाहिए और उनको अपने हाथ में
रखना चाहिए। पर राज्य के प्रत्येक विभाग के छोटे-छोटे ब्योरों में हाथ
डालने से ओछापन और अविश्वास प्रकट होता है और मन में छोटी-छोटी बातों की
चिन्ता बनी रहती है जिससे राजाओं के ध्यान देने योग्य बड़ी-बड़ी युक्तियों को
सोचने विचारने की छुट्टी ही नहीं मिलती। बड़ी-बड़ी युक्तियों को सोचने के लिए
तो पूरी शान्ति और स्वतंत्रता चाहिए। काम काज के पेंचीले ब्यौरों की हैरानी
न हो, छोटी-छोटी बातों की ओर ध्यान न बँटा हो। जो चित्त छोटे-छोटे ब्यौरों
में फँसता है वह उस मद्य के समान है जिसमें न तो कोई स्वाद है और न शक्ति।
वह राजा जो अपने नौकरों का काम करने में लगता है, सदा सामने आई हुई बातों
का ध्यान रखता है, भविष्य की ओर दृष्टि नहीं फैलाता। वह दिन के दिन जो काम
आया उसी में फँसा रहता है। उसका उद्देश्य उसी तक रहता है, इससे उस काम को
बड़ी प्रधानता प्राप्त हो जाती है। पर उस काम को यदि और कामों के साथ मिलान
किया जाए तो उसकी वह प्रधानता न रह जाए। जो चित्त एक बार एक ही बात को
ग्रहण करेगा वह संकुचित हो ही जाएगा।
बिना कई बातों को विचारे, उन्हें एक दूसरे के साथ मिलाए और इस क्रम से मन
में बैठाए कि उनकी एक दूसरे से प्रधानता प्रकट हो, किसी एक बात के विषय में
ठीक-ठीक निर्णय करना असम्भव है। वह जो राजकाज में इस नियम का पालन नहीं
करता उस गवैये के समान है जो अलग-अलग कई सुर निकालकर रह जाता है और उनको
मिलाकर कोई राग नहीं उत्पन्न करता जो कानों को भी अच्छा लगे और जी को भी
लुभावे। अथवा यों कहिए कि वह उस कारीगर के समान है जो बिना अपनी इमारत का
हिसाब-किताब समझे और नक्काशी आदि का क्रम मन में बैठाये रंग बिरंग के कटे
हुए पत्थरों और खम्भों का ढेर लगाता चला जाता है। ऐसा कारीगर कोठरी बनाते
समय यह ध्यान नहीं रखेगा कि इसमें सीढ़ी भी लगानी होगी, भवन उठाते समय यह
ध्यान न रखेगा कि बीच में ऑंगन छोड़ना होगा और इधर-उधर फाटक रखने होंगे।
उसका बनाया हुआ काम ऐसे जुडे-जुडे खण्डों का ऊटपटाँग ढेर होगा जिनका एक
दूसरे से कुछ मेल नहीं और जो मिलकर कोई पूरा रूप नहीं खड़ा करते। ऐसे काम से
उसे यश मिलना तो दूर रहा, सब दिन के लिए कलंक मिलेगा। ऐसे काम से समझा
जाएगा कि उसकी सूझ इतनी दूर तक की न थी कि वह अपने सोचे हुए ढाँचे के सब
पुरजों को एक साथ मन में बैठाकर रखता अर्थात् उसकी ग्रहण शक्ति संकुचित थी
और उसका गुण दूसरे का आश्रित था। क्योंकि वह जो एक-एक अंग को ही एक साथ देख
सकता है केवल दूसरों के सोचे हुए ढाँचे पर काम करने के योग्य होता है। यह
निश्चय रखना चाहिए कि राज्य चलाने में भी संगीत के समान मेल मिलाने और गृह
निर्माण के समान हिसाब-किताब बैठाने की ज़रूरत होती है। वह जो गाने में किसी
एक साज़ को लेकर बैठता है, साधारण गवैया ही समझा जाता है पर जो सारे साज़बाज
का मिलान देखता है वही गाने का आचार्य व उस्ताद माना जाता है। इसी प्रकार
वह जो खम्भा गढ़ता है व दीवर जोड़ता है केवल संगतराश व थवई है पर जो सारी
इमारत का ढाँचा मन में सोचता है और उसके एक-एक अंग को मन में बैठाता है,
वही शिल्पी है। अस्तु, जो राजा बहुत फँसे रहते हैं और सबसे अधिक ब्योरे
निपटाते हैं वे यथार्थ में राज्य नहीं करते हैं बल्कि मज़दूरों व नौकरों का
काम करते हैं। राज्य को चलानेवाली आत्मा तो वह है जो कुछ न करके भी सब कुछ
कराती है, जो सोचती और युक्ति भिड़ाती है, जो आगा पीछा देखती है, जो
हिसाब-किताब (इसका कि कहाँ कौन वस्तु कितनी चाहिए) बैठाती है, जो सब
वस्तुओं को क्रम से लगाती है और न जानें कब कैसा पड़े इसके लिए प्रबंध रखती
है।
नियम और व्यवस्था- अंग्रेजी राज में व और कहीं जो अच्छे नियम हों उन्हें
राज्य में प्रचलित कर लेना चाहिए। केवल स्वतंत्रता व नवीनता दिखाने के लिए
भेद रखना ठीक नहीं। लोगों के इस कहने की कुछ परवह न करनी चाहिए कि महाराज
तो बात बात में नकल कर रहे हैं। यदि नियम अच्छा हो और प्रजा की रहन सहन के
अनुकूल हो तो उसकी नकल करने में कोई बुराई नहीं है। एक देश दूसरे देश की
अच्छी बातों को ग्रहण कर सकता है। सभ्य से सभ्य जातियाँ, जिन्हें अपने गौरव
और स्वतंत्रता का बहुत अभिमान होता है, इस मार्ग का अनुसरण करती हैं। यदि
वे ऐसा न करें तो एक देश का संचित ज्ञान और अनुभव दूसरे देश के किसी काम का
ही न ठहरे।
अनपढ़, मूर्ख और स्वार्थी लोग बराबर राजा-महाराजाओं से कोई न कोई कार्यवाई
नियम व कानून के विरुद्ध कराने व औरों से करवने की प्रार्थना किया करते
हैं। वे यहाँ तक कहते हैं, ''क्या महाराज जो चाहें सो नहीं कर सकते? क्या
महाराज को भी कोई रोकनेवाला है? यदि राज्य में महाराज की कुछ चलती नहीं है
तो महाराज किस बात के हैं?'' इस प्रकार की बातें बराबर किसी न किसी रूप में
राजा-महाराजाओं से कही जाती हैं। उनको चाहिए कि ऐसी बातें सुनकर ज़रा भी
ताव में न आवें बल्कि हँसते हुए यह उत्तर दें।
''शिक्षा और विचार से यह विश्वास मेरे मन में अच्छी तरह बैठ गया है कि वही
राजा सचमुच बड़ा है जो उन नियमों का आदर करता है जो प्रजा के हित के लिए
बनाये गए हैं। मैं इसी विश्वास के अनुसार कार्य करूँगा।'' इसी रीति पर चलने
से राजा-महाराजा बड़े और प्रजापालक कहे जा सकते हैं तथा देश के इतिहास में
कुछ नाम छोड़ सकते हैं।
राज कर्तव्य- जो बड़े-बड़े सिद्धान्त मैंने बतलाए हैं वे मेरे मन में अच्छी
तरह बैठे हुए हैं। मुझे भिन्न-भिन्न रियासतों में दीवनी करते बीस वर्ष से
ऊपर हुए। इस बीच में राज्यप्रबंध करने में ये ही सिद्धान्त मेरे आधार रहे
हैं। इन सिद्धान्तों के अनुसार प्रजा का हित करने में मेरी आत्मा को जो
सन्तोष प्राप्त हुआ है वह वर्णन नहीं किया जा सकता। राजा-महाराजाओं को इन
सिद्धान्तों के अनुसरण से और भी अधिक सन्तोष प्राप्त होगा। मनुष्य के लिए
इससे बढ़कर शुद्ध और श्रेष्ठ कोई आनंद ही नहीं है। यह आनंद ऐसा है जो जीवन
भर रहता है। वेदों का यह उज्ज्वल सिद्धान्त है कि वही मनुष्य जीता है जो
दूसरों की भलाई के लिए जीता है। देश में राजा से बढ़कर, जिसके हाथ में सबसे
अधिक धन और सबसे अधिक शक्ति रहती है, दूसरों की भलाई और कौन कर सकता है?
यदि मेरे जैसे साधारण मनुष्य को प्रजा की सुख वृद्धि के लिए सच्चा प्रयत्न
करने के कारण इतना मान और यश प्राप्त हुआ है तो राजा-महाराजाओं को प्रजा का
हित करने के कारण कितनी उज्ज्वल और अचल कीर्ति प्राप्त हो सकती है, समझने
की बात है। पर सांसारिक यश और कीर्ति से कहीं बढ़कर फल उनके लिए रखा है। मैं
वहाँ की बात कहता हूँ जहाँ की प्रेरणा से राजा-महाराजा इतने ऊँचे पद पर
प्रतिष्ठित होते हैं और उन्हें उपकार करने का इतना अवसर मिलता है।
रामचन्द्र
शुक्ल ग्रंथावली - 6
-विश्वप्रपंच :
भाग
- 1 // भाग -2 // भाग -3
// भाग - 4 // भाग - 5
// भाग -6 // भाग - 7
// भाग - 8 //
राज्यप्रबंध शिक्षा
- भाग-1 // भाग-2 //
|