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 रामचन्द्र शुक्ल ग्रंथावली -  
अनुवाद

विश्वप्रपंच


चौथा प्रकरण
- गर्भ विधान


तारतम्यिक गर्भ विधान विद्या की उत्पत्ति भी उन्नीसवीं शताब्दी में ही हुई है। माता के गर्भ में बच्चा किस प्रकार बनता है? गर्भांड से जीव कैसे उत्पन्न हो जाते हैं? बीज से वृक्ष कैसे पैदा होता है? इन प्रश्नों पर हजारों वर्षों से लोग विचार करते आए पर इनका ठीक ठीक समाधान तभी हुआ जब गर्भविज्ञानविद् बेयर ने गर्भ विधान के रहस्यों को जानने का उचित मार्ग दिखलाया। बेयर से 30 वर्ष पीछे डारविन ने अपने उत्पत्ति सिद्धांत के प्रतिपादन द्वारा गर्भ विधान के परिज्ञान की प्रणाली एक प्रकार से स्थिर कर दी। यहाँ पर मैं गर्भसम्बन्धी मुख्य मुख्य सिध्दान्तों पर ही विचार करूँगा। इस विचार के पहले गर्भवृद्धि सम्बन्धी प्राचीन सिध्दान्तों का उल्लेख आवश्यकहै।
प्राचीनों का विचार था कि जीवों के गर्भांड में पूरा शरीर अपने सम्पूर्ण अवयवों के साथ पहले से निहित रहता है, पर वह इतना सूक्ष्म होता है कि दिखाई नहीं पड़ सकता1, अत: गर्भ का सारा विकास या वृद्धि अन्तर्मुख अंगों का प्रस्तार मात्र है। इसी भ्रान्त विचार का नाम 'पूर्वकृत' या 'युगपत्' सिद्धांत है। सन् 1759 में उल्फ नामक एक नवयुवक डॉक्टर ने अनेक श्रमसाध्य और कठिन परीक्षाओं के उपरान्त इस सिद्धांत का पूर्णरूप से खंडन किया। अंडे को यदि हम देखें तो उसके भीतर बच्चे या उसके अंगों का कोई चिन्ह पहले नहीं रहता, केवल एक छोटा चक्र जरदी के सिरे पर होता है। यह बीजचक्र धीरे धीरे वर्तुलाकार हो जाता है और फिर फूट कर चार झिल्लियों के रूप में हो जाता है। ये ही चार झिल्लियाँ शरीर के चार प्रधान

1 सुश्रुत ने कई ऋषियों के नाम देकर लिखा है कि कोई कहता है कि गर्भ में पहले बच्चे का सिर पैदा होता है, कोई कहता है कि हृदय, कोई कहता है नाभि, कोई कहता है हाथ पाँव, सुभूति गौतम कहते हैं जड़ जिससे सब अंग सन्निबद्ध रहते हैं, पर धान्वंतरि जी कहते हैं कि इनमें से किसी का मत ठीक नहीं, बच्चों के सब अंग एक साथ ही पैदा हो जाते हैं, बाँस के कल्ले या आम के फल के समान-'सर्वांगप्रत्यंगानि युगपत्संभवतीत्याह धान्वंतरि, गर्भस्य सूक्ष्मत्वान्नोपलभ्यते, वंशांकुरवच्चूतलबच्च।' -सुश्रूत, शरीरस्थान।

विभागों के मूलरूप हैं। चार विभाग या विधान ये हैं - ऊपर संवेदन विधान जिससे समस्त संवेदनात्मक और चेतन व्यापार होते हैं, नीचे पेशी विधान, फिर नाड़ीघट1 हृदय नाड़ी आदि विधान, और अन्त्रा विधान। इससे प्रकट है कि गर्भविकास पूरे अंगों का प्रस्तार मात्र नहीं है बल्कि नवीन रचनाओं का क्रम है। इस सिद्धांत का नाम 'नव विधानवाद' है। 50 वर्ष तक उल्फ की सच्ची बात की ओर किसी ने ध्यान नहीं दिया क्योंकि प्रसिद्ध वैज्ञानिक हालर बराबर उसका विरोध करता गया। हालर ने कहा-'गर्भ में नए विधानों की योजना नहीं होती। प्राणी के अंग एक दूसरे के आगे पीछे नहीं बनते सब एक साथ बने बनाए रहते हैं।'
जब सन् 1806 में जर्मनी के ओकेन ने उल्फ की कही हुई बातों का फिर से पता लगाया तब कई जर्मन वैज्ञानिक गर्भ विधान के ठीक ठीक अन्वेषण में तत्पर हुए। उनमें सबसे अधिक सफलता बेयर को हुई। उसने अपने ग्रंथमें गर्भबीज की रचना का पूरा ब्योरा दिखाया और बहुत से नए नए विचारों का समावेश किया। मनुष्य तथा और दूसरे स्तन्य जीवों के भ्रूण के आकार प्रकार दिखाकर उसने बिना रीढ़वाले क्षुद्र जंतुओं के उत्पत्तिक्रम पर भी विचार किया जो सर्वथा भिन्न होता है। रीढ़वाले उन्नत जीवों के गर्भबीज के गोलचक्र में पत्तो के आकार के जो दो पटल दिखाई देते हैं बेयर के कथनानुसार पहले वे दो और पटलों में विभक्त होते हैं। ये चार पटल पीछे चार कोशों के रूप में हो जाते हैं जिनसे शरीर के चार विभाग सूचित होते हैं-त्वक्कोश, पेशीकोश, नाड़ीघटकोश और लालाकोश।
बेयर का सबसे बड़ा काम मनुष्य गर्भांड का पता लगाना था। पहले लोग समझते थे कि गर्भांशय में डिम्भकोश2 के भीतर जो बहुत से सूक्ष्म सम्पुट दिखाई पड़ते हैं वे ही गर्भांड हैं। 1827 में बेयर ने पहले पहल सिद्ध किया कि वास्तविक गर्भांड इन सम्पुटों के भीतर बन्द रहते हैं और बहुत छोटे एक इंच के 120 वें भाग के बराबर होते हैं और बिन्दु के समान दिखाई देते हैं। उसने दिखलाया कि स्तन्य जीवों के इस सूक्ष्म गर्भांड से पहले एक बीजवर्तुल या कलल3 उत्पन्न होता है। यह बीजवर्तुल एक खोखला गोला होता है जिसके भीतर एक प्रकार का रस भरा रहता है। इस गोले का जो झिल्लीदार आवरण होता है उसे बीजकला कहते हैं। बेयर के इस बीजकला सिद्धांत की स्थापना के 10 वर्ष पीछे सन् 1838 में जब घटकवाद स्वीकृत हुआ तब अनेक प्रकार के नए प्रश्न उठे? गर्भांड तथा बीजकला का उन घटकों और तन्तुओं

1 जिससे रक्तसंचार होता है और जिसके अन्तर्गत रक्तवाहिनी नलियाँ और हृदय हैं।
2 ये डिम्भकोश गर्भाशय के दोनों ओर होते हैं और पुरुष के अण्डकोश के स्थान पर हैं। जिस प्रकार पुरुष के अण्डकोश के भीतर शुक्रकीटाणु रहते हैं उसी प्रकार इन कोशों के भीतर गर्भांड या रज: कीटाणु रहते हैं।
3 हारीत ने लिखा है कि प्रथम दिन शुक्र शोणित के संयोग से जिस सूक्ष्म पिंड की सृष्टि होती है उसे कलल कहते हैं।

से क्या सम्बन्ध है जिनसे मनुष्य का पूर्ण शरीर बना है। इस प्रश्न का ठीक ठीक उत्तर रेमक और कालिकर नामक मूलर के दो शिष्यों ने दिया। उन्होंने दिखलाया कि गर्भांड पहले एक सूक्ष्म घटक मात्र रहता है। गर्भित होने पर उत्तरोत्तर विभाग द्वारा उसी से जो अनेक जीववर्तुल या कलल होते जाते हैं वे भी शुद्ध घटक ही हैं। उनके शहतूत की तरह के गुच्छे से पहले कलाओं या झिल्लियों की रचना होती है, फिर विभेद या कार्यविभाग क्रम द्वारा भिन्न भिन्न अवयवों की सृष्टि होती है। कालिकर ने यह भी स्पष्ट किया कि नरजीवों का वीर्य भी सूक्ष्म घटकों ही का समूह है। उसमें आलपीन के आकार के जो अत्यंत सूक्ष्म वीर्यकीटाणु होते हैं वे रोईंदार घटक मात्र हैं जैसा कि मैंने 1866 में स्पंज (मुरदा बादल) की बीजकलाओं को लेकर निर्धारित किया था। इस प्रकार जीवोत्पत्ति के दोनों उपादानों पुरुष के वीर्य कीटाणु और स्त्री के गर्भांड-का सामंजस्य घटकसिद्धांत के साथ पूर्णतया हो गया। इस आविष्कार का दार्शनिक महत्व कुछ दिनों पीछे स्वीकार किया गया।
गर्भसम्बन्धी विधानों की जाँच पहले पक्षियों के अंडों की परीक्षा द्वारा की गई थी। इस प्रकार की परीक्षा द्वारा हम देख सकते हैं कि किस प्रकार तीन सप्ताहों के बीच एक के उपरान्त दूसरी रचना उत्तरोत्तर होती है। इस परीक्षा द्वारा बेयर को केवल इतना ही पता लगा कि बीजकलाओं की आकृति और अवयवों की सृष्टि का क्रम सब मेरुदंड; रीढ़वाले जीवों में एक प्रकार का है, पर बिना रीढ़वाले असंख्य कीटों की गर्भवृद्धि दूसरे ही ढंग से होती है; अधिकांश में बीज कलाओं के कोई चिन्ह दिखाई ही नहीं पड़ते। थोड़े दिन पीछे कुछ बिना रीढ़वाले कीटों में भी - जैसे कई प्रकार के सामुद्रिक घोंघों और उदि्भदाकार कृमियों में - ये बीज कलाएँ पाई गईं। 1886 में कोवालुस्की नामक एक वैज्ञानिक ने एक बड़ी भारी बात का पता लगाया। उसने दिखलाया कि सबसे क्षुद्र रीढ़वाले जंतु अकरोटी मत्स्य1 का गर्भस्फुरण भी उसी प्रकार होता है जिस प्रकार बिना रीढ़वाले जीवों का। मैं उन दिनों स्पंजों, मूँगों तथा उदि्भदाकार कृमियों के गर्भस्फुरण विधान का अन्वेषण कर रहा था। जब मैंने इन समस्त जीवों में इन दो बीजकलाओं को पाया तब मैंने निश्चित किया कि गर्भ का यह लक्षण समस्त जीवधारियों में पाया जाता है। विशेष ध्यान देने की बात मुझे यह प्रतीत हुई कि स्पंजों और छत्राक2 आदि कुछ उदि्भदाकार कृमियों का शरीर बहुत दिनों तक-और किसी किसी का तो आयुभर घटकों के दो पटल या कलाओं के

1 जोंक के आकार की चार पाँच अंगुली की लम्बी एक प्रकार की मछली जो समुद्र के किनारे बालू में बिल बनाकर रहती है। इसे कड़ी रीढ़ नहीं होती, नरम लचीली हड्डीयों का तरुणास्थिदंड होता है। कपाल भी इसे नहीं होता। इसी से यह अकरोटी अक्रानिया वर्ग में समझी जाती है।
2 यह जंतु खुमी या छत्राक के आकार का होता है पर इसमें एक मध्यदंड के स्थान पर किनारे को और कई पैर सूत की तरह के होते हैं जिनसे वह समुद्र पर तैरा करता है।

रूप में ही रहता है। इन सब परीक्षाओं के आधार पर मैंने 1872 में गर्भस्फुरण सम्बन्धी अपना द्विकलघट सिद्धांत प्रकाशित किया जिसकी मुख्य मुख्य बातें ये हैं-
1. समस्त जीवसृष्टि दो भिन्न वर्गों में विभक्त है-एक घटक आदिम अणुजीव1 तथा अनेकघटक समष्टिजीव। अणुजीव का सारा शरीर आयुभर एक घटक के रूप में, अथवा घटकों के ऐसे समूह के रूप में जो तन्तुओं द्वारा सम्बद्ध वा एकीकृत नहीं होता, रहता है। समष्टिजीव का शरीर आंरभ में तो एक घटक रहता है पर पीछे अनेक ऐसे घटकों का हो जाता है जो मिलकर जाल के रूप में गुछ जाते हैं।
2. अत: इन दोनों जीववर्गों के प्रजनन और गर्भस्फुरण का क्रम भी अत्यंत भिन्न होता है। अणुजीवों की वृद्धि अमैथुनीय विधान से अर्थात विभागपरम्परा2 द्वारा होती है; उनमें गर्भकीटाणु और वीर्यकीटाणु नहीं होते। पर समष्टिजीवों में पुरुष और स्त्री का भेद होता है। उनका प्रजनन मैथुन विधान से अर्थात गर्भकीटाणु से होता है जो शुक्रकीटाणु द्वारा गर्भित होता है।
3. अत: वास्तविक बीजकलाएँ और उनसे बने हुए तन्तु केवल समष्टिजीवों में होते हैं, अणुजीवों में नहीं।
4. सारे समष्टिजीवों के गर्भकाल में पहले ये ही दो कलाएँ-आवरण या झिल्लियाँ प्रकट होती हैं। ऊपरी कला से बाहरी त्वचा और संवेदनसूत्रों का विधान होता है, भीतरी कला से अन्त्रा तथा ओर अवयव उत्पन्न होते हैं।
5. गर्भाशय में स्थित बीज को, जो गर्भित रज:कीटाणु से पहले पहल निकलता है और दो कलाओं के रूप में ही होता है, द्विकलघट कह सकते हैं। इसका आकार कटोरे का सा होता है। आंरभ में इसके भीतर केवल वह खोखला स्थान होता है जिसे आदिम जठराशय कह सकते हैं और बाहर की ओर एक छिद्र होता है जिसे आदिम मुख कह सकते हैं। समष्टिजीवों के शरीर के ये ही सबसे पहले उत्पन्न होने वाले अवयव हैं। ऊपर लिखी दोनों कलाएँ या झिल्लियाँ ही आदि तन्तुजाल हैं, उन्हीं से पीछे और सब अवयवों की उत्पत्ति होती है।
6. सारे समष्टिजीवों के गर्भ विधान में इस द्विकलघट को पाकर मैंने सिद्धांत निकाला कि सारे समष्टिजीव आदि में मूल द्विकलात्मक जीवों से उत्पन्न हुए हैं और मूल जीवों का यह रूप अब तक बड़े जीवों की गर्भावस्था में पितृपरम्परा के धर्मानुसार पाया जाता है।
7. वर्गोत्पत्तिविषयक इस सिद्धांत की पुष्टि इस बात से पूर्णतया होती है

1 ये अणुजीव जल में पाए जाते हैं और अच्छे खुर्दबीन के द्वारा ही देखे जा सकते हैं।
2 ऐसे जीवों की वंशवृद्धि विभाग द्वारा इस प्रकार होती है। एक अणुजीव जब बढ़ते बढ़ते बहुत बढ़ जाता है तब उसकी गुठली के दो विभाग हो जाते हैं। क्रमश: उस जीव का शरीर मध्य भाग से पतला पड़ने लगता है और अन्त में उस जीव के दो विभाग हो जाते हैं।
कि अब भी ऐसे द्विकलात्मक जीव पाए जाते हैं। यहीं तक नहीं है, ऐसे भी जीव; स्पंज, मूँगा आदि सामुद्रिक जीव, मिलते हैं जिनकी बनावट इन द्विकलात्मक जीवों से थोड़ी ही उन्नत होती है।
8. द्विकलघट से घटकजाल के रूप में संयोजित होकर बढ़नेवाले समष्टिजीवों के भी दो प्रधान भेद हैं - एक तो आदिम रूप के जिनके शरीर में कोई आशय, मलद्वार और रक्त नहीं होता; स्पंज आदि समुद्र के जीव इसी प्रकार के हैं; दूसरे उनसे पीछे के और उन्नत शरीर वाले जिनके शरीर में आशय, मलद्वार और रक्त होता है। इन्हीं के अन्तर्गत सारे कृमि, कीट आदि हैं जिनसे क्रमश: शंबुक सीप, घोंघे आदि रज्जुदंडजीव जिनके शरीर में रीढ़ के स्थान पर रज्जु के आकार का एक लचीला दंड होता है और मेरुदंड जीव हुए हैं।
यही मेरे द्विकलघटसिद्धांत का सारांश है। पहले तो इसका चारों ओर से विरोध किया गया पर अब इसे प्राय: सब वैज्ञानिकों ने स्वीकार कर लिया है। अब देखना यह है कि इससे क्या क्या परिणाम निकलते हैं। बीज के इस विकासक्रम की ओर ध्यान देने से सृष्टि के बीच मनुष्य की क्या स्थिति निर्धारित होती है?
और जंतुओं के समान मनुष्य का रज:कीटाणु भी एक सादा घटक मात्र है। यह सूक्ष्म घटकांड जिसका व्यास 1/120 इंच के लगभग होता है, आकार प्रकार में वैसा ही होता है जैसा कि और सजीव डिम्भप्रसव करने वाले जीवों का। कलल की सूक्ष्म गोली एक झलझलाती हुई झिल्ली से आवृत रहती है। यहाँ तक कि कललरस की इस गोली के भीतर जो बीजाशय या गुठली होती है वह भी उतनी ही बड़ी और वैसी ही होती है जितनी बड़ी और जैसी और स्तन्य जीवों में। यही बात पुरुष के शुक्रकीटाणु के विषय में भी कही जा सकती है। ये शुक्रकीटाणु भी सूत या आलपीन के आकार के रोएँदार अत्यंत सूक्ष्म घटक मात्र हैं जो वीर्य के एक बूँद में न मालूम कितने लाख होते हैं। इन दोनों मैथुनीय घटकों की उत्पत्ति समस्त स्तन्य जीवों में समान रूप से अर्थात मूल बीजकलाओं से होती है।
प्रत्येक मनुष्य क्या समष्टिजीव मात्र के जीवन में वह क्षण बड़े महत्व का है जिसमें उसका व्यक्तिगत अस्तित्व आंरभ होता है। यह वही क्षण है जिसमें उसके माता पिता के पुरुष और स्त्री घटक; रज:कीटाणु और शुक्रकीटाणु परस्पर मिलकर एक घटक हो जाते हैं। इस प्रकार उत्पन्न नया घटक मूलघट कहलाता है जिसके उत्तरोत्तर विभागक्रम द्वारा ऊपर कही हुई दोनों कलाओं या झिल्लियों को बनाने वाले घटक उत्पन्न होते हैं। इसी मूलघट की स्थापना अर्थात गर्भाधान के साथ ही व्यक्ति का अस्तित्व आंरभ होता है। गर्भाधान की इस प्रक्रिया से कई बातों का निरूपण होता है। पहली बात तो यह कि मनुष्य अपनी शारीरिक और मानसिक विशेषताएँ अपने माता पिता से प्राप्त करता है। दूसरी बात है कि जो नूतन व्यक्ति इस प्रकार उद्भूत होता है वह 'अमरत्व' का दावा नहीं कर सकता।
गर्भाधान के विधानों का ठीक ठीक ब्योरा 1875 में प्राप्त हुआ जब कि हर्टविग ने अपने अनुसंधान का फल प्रकाशित किया। हर्टविग ने पता लगाया कि गर्भाधान में सबसे पहली बात पुरुष और स्त्री घटक का, रज:कीटाणु और वीर्यकीटाणु का, तथा उनकी गुठलियों का परस्पर मिलकर एक हो जाना है। गर्भाशय के भीतर बहुत से शुक्रकीटाणु गर्भकीटाणु को घेरते हैं; पर उनमें से केवल एक ही उसके भीतर गुठली तक घुसता है। घुसने पर दोनों की गुठलियाँ एक अद्भुत शक्ति द्वारा, जिसे घ्राण से मिलती जुलती एक प्रकार की रासायनिक प्रवृत्ति समझना चाहिए, एक दूसरे की ओर वेग से आकर्षित होकर मिल जाती हैं। इस प्रकार पुरुष और स्त्री गुठलियों के संवेदनात्मक अनुभव द्वारा, जो एक प्रकार के रासायनिक प्रेमाकर्षण (इरोटिक केमिको ट्रापिज्म) के अनुसार होता है, एक नवीन अंकुरघटक की सृष्टि होती है जिसमें माता और पिता दोनों के गुणों का समावेश होता है।
मूलघट के उत्तरोत्तर विभाग द्वारा बीजकलाओं की रचना, द्विकलघट की उत्पत्ति तथा ओर अंगों के विधान का क्रम मनुष्यों और दूसरे उन्नत स्तन्य जीवों में एक ही सा है। स्तन्यजीवों के अन्तर्गत जरायुज जीवों में जो विशेषताएँ हैं वे गर्भ की प्रारम्भिक अवस्था में नहीं दिखाई पड़तीं। द्विकलघट के उपरान्त रज्जुदंड की उत्पत्ति समस्त मेरुदंड जीवों के भ्रूण में एक ही प्रकार से होती है। भ्रूणपिंड की लम्बाई के बल बीचोबीच एक पृष्ठरज्जु (डोर्सल कोर्ड) प्रकट होती है। फिर इस पृष्ठरज्जु के ऊपर तो बाहरी कला (झिल्ली) से मज्जा निकलकर चढ़ने लगती है और नीचे आशय; आमाशय, अन्त्रा आदि प्रकट होने लगते हैं। इसके अनन्तर पृष्ठदंड के दाहिने और बाएँ दोनों ओर उसकी शाखाओं का विधान होता है और पेशीपटल के ढाँचे बनते हैं जिनसे भिन्न भिन्न अवयवों की रचना आंरभ होती है। आशय के अग्रभाग अर्थात गलप्रदेश में गलफड़ों के दो छेद उसी प्रकार के उत्पन्न होते हैं जिस प्रकार के मछलियों में होते हैं। मछलियों में तो ये गलफड़े इसलिए होते हैं कि श्वास के लिए जो जल मुख के मार्ग से चला जाता है वह इनसे होकर बाहर निकल जाय। पर मनुष्य के भ्रूण में इनका कोई प्रयोजन नहीं होता। इनसे केवल यही बात सूचित होती है कि मनुष्य का विकास भी इन जलचर पूर्वज जीवों से ही क्रमश: हुआ है। इसी से जलचर पूर्वजों का यह लक्षण मनुष्य में अब तक गर्भावस्था में देखा जाता है। कुछ काल पीछे ये गलफड़े मनुष्य भ्रूण में नहीं रह जाते, गायब हो जाते हैं। फिर तो इस मत्स्याकार गर्भपिंड में कपाल आदि की विशेषताएँ प्रकट होने लगती हैं, हाथ पैर के अंकुर निकलने लगते हैं और आँख, कान आदि के चिन्ह दिखाई पड़ने लगते हैं। इस अवस्था में भी यदि मनुष्य भ्रूण को देखें तो उसमें और दूसरे मेरुदंड जीवों के भ्रूण में कोई विभिन्नता नहीं दिखाई देती।
मेरुदंड जीवों की तीनों उन्नत जातियों, सरीसृप, पक्षी और स्तन्य के भ्रूण झिल्लियों के कोश के भीतर रहते हैं जो जल से भरा रहता है। इस जल में भ्रूण पड़ा रहता है और आघात आदि से बचा रहता है। इस जलमय कोश की व्यवस्था उस युग में हुई होगी जिसमें जलस्थलचारी जीवों से स्थलचारी सरीसृप आदि के पूर्वज उत्पन्न हुए होंगे। मछलियों और मेंढकों के भ्रूण इस प्रकार की झिल्ली से रक्षित नहीं रहते।
पहले कहा जा चुका है कि मनुष्य जरायुज जीव है। पर जरायु भी एक बार ही नहीं उत्पन्न हुआ है। पहले उत्पन्न होनेवाले निम्न कोटि के जरायुजों में चक्रनालयुक्त पूर्ण जरायु का विधान नहीं होता। उनके गर्भपिंड की सारी ऊपरी झिल्ली पर छेददार रोइयाँ सी उभरी होती हैं जो गर्भाशय के त्वचा से कुछ लगी रहती हैं पर बहुत जल्दी अलग हो सकती हैं। ह्नेल आदि कुछ जलचर स्तन्य तथा घोड़े, ऊँट आदि कुछ खुरपाद इसी प्रकार के अपूर्ण जरायुज जंतु हैं। पूर्ण जरायुजों में माता के गर्भाशय की झिल्ली से लगा हुआ जरायु का भाग एक चक्र के आकार का होता है जिसके पृष्ठ भाग से एक नाल भ्रूणपिंड तक गया रहता है। यह जरायुकचक्र माता के गर्भाशय की दीवार से बिलकुल मिला रहता है जिससे प्रसव होने पर इस चक्र के साथ गर्भाशय का कुछ भाग भी उचड़ आता है और कुछ रक्तसाव भी होता है। मनुष्य के गर्भपिंड में भी एकबारगी पूर्ण जरायु का विधान नहीं हो जाता, पहले वह अपूर्ण रूप में रहता है जैसा कि अपूर्ण जरायुजों में; फिर चक्र और नाल के रूप में आता है। हाथी का जरायु बलय के आकार का होता है। चूहे, गिलहरी, खरहे आदि कुतरनेवाले जंतुओं तथा घूस, बनमानुस और मनुष्य का जरायु चक्राकार होता है।
गर्भ की प्रारम्भिक अवस्था में मनुष्य के भ्रूण और दूसरे मेरुदंड जीवों के भ्रूण के बीच यह सादृश्य ध्यान देने योग्य है। इस सादृश्य का एकमात्र कारण यही हो सकता है कि समस्त जीव एक ही आदिम जीव से उत्पन्न हुए हैं-जीवों के भिन्न भिन्न रूप एक ही आदि पुरातनरूप से प्रकट हुए हैं। गर्भ की विशेष अवस्था में हम मनुष्य, बन्दर, कुत्तो, सूअर, भेड़ इत्यादि के भ्रूणों में कोई विभेद नहीं कर सकते। इसका कारण एक मूल से उत्पत्ति के अतिरिक्त और क्या हो सकता है? विकासवाद के विरोधी बहुत दिनों तक मनुष्य भ्रूण के जरायु आदि में कुछ विशेषताएँ बतलाकर मनुष्य की स्वतन्त्र उत्पत्ति का राग अलापते रहे। पर 1890 में सेलेनका ने ओरंग नामक बनमानुस के भ्रूण में भी उन विशेषताओं को स्पष्ट दिखा दिया। फिर तो हक्सले का यह सिद्धांत और भी पुष्ट हो गया कि 'मनुष्य और उन्नत बनमानुसों के बीच उतना भेद नहीं है जितना नराकार बनमानुसों और निम्न श्रेणी के बन्दरों के बीच।'
शुद्ध विज्ञान की दृष्टि से जो मनुष्य के गर्भस्फुरण क्रम को देखेगा और उसे दूसरे स्तन्य जीवों के गर्भ विधान से मिलायेगा उसे मनुष्य की उत्पत्ति को समझने में बहुत सहायता मिलेगी।




पाँचवा प्रकरण
-मनुष्य की उत्पत्ति


जीवविज्ञान की सब शाखाओं में जीववर्गोत्पत्ति विद्या सबसे पीछे निकली है। इसका प्रादुर्भाव भी गर्भविकास विद्या के पीछे हुआ है और इसके मार्ग में कठिनाइयाँ भी बहुत अधिक पड़ी हैं। गर्भविकास विद्या का उद्देश्य उन विधानों का परिज्ञान प्राप्त करना है जिनके अनुसार उदि्भद् या जंतु का शरीर मूलांड से क्रमश: उत्पन्न होता है, पर जीववर्गोत्पत्ति विद्या इस बात का निर्णय करती है कि जीवों के भिन्न भिन्न वर्ग किस प्रकार उत्पन्न हुए।
गर्भविकास विद्या में तो बहुत सी बातों को प्रत्यक्ष देखने का सुबीता है; क्योंकि वे बातें हमारे सामने बराबर होती रहती हैं। गर्भांड से स्फुरित होने पर भ्रूण में एक एक दिन और एक एक घड़ी में उत्तरोत्तर क्या क्या परिवर्तन होते हैं यह देखा जा सकता है। पर जीववर्गोत्पत्ति विद्या का विषय परोक्ष होने के कारण अधिक कठिन है। उन क्रियाविधानों के धीरे धीरे होने में जिनके द्वारा उदि्भदों और प्राणियों के नए नए वर्गों की क्रमश: सृष्टि होती है, लाखों वर्ष लगते हैं। उनके बहुत ही थोड़े अंश का प्रत्यक्ष हो सकता है। उन क्रियाविधानों का परिज्ञान हमें अनुमान और चिन्तन द्वारा तथा गर्भ विधान और नि:शेष जीवों के भूगर्भस्थित अस्थिपंजरों की परीक्षा द्वारा ही विशेषत: होता है। प्राणियों के विकास के इस वैज्ञानिक निरूपण का पहले बहुत विरोध किया गया क्योंकि वह देवकथाओं और धर्मसम्बन्धी प्रवादों के प्रतिकूल था। प्राचीन समय में सृष्टि की उत्पत्ति के सम्बन्ध में बहुत सी कथाएँ भिन्न भिन्न मतों में प्रचलित थीं। युरोप में ईसाई धर्म का डंका बजता था। ईसाई धर्माचार्य ही ऐसे विषयों के निर्णय के अनन्य अधिकारी माने जाते थे। अत: उनका निर्णय इंजील में जो सृष्टि की उत्पत्ति की कथा लिखी है, उसी के अनुसार होता था। यहाँ तक कि सन् 1735 में जब लिने नामक स्वेडन के एक वैज्ञानिक ने संसार के जीवों का वर्गविभाग किया तब वह भी बाइबिल का सिद्धांत मानते हुए चला। बड़ा भारी काम उसने यह किया कि प्राणिविज्ञान में वर्गविवरण के लिए दोहरे नामों की प्रथा चलाई। प्रत्येक जंतु के लिए एक तो उसने भेदसूचक या योनिसूचक नाम रखा; फिर उसके आदि में उसका वर्गसूचक नाम रख दिया। जैसे श्वन् शब्द के अन्तर्गत उसने कुत्ता, भेड़िया, गीदड़, लोमड़ी आदि जंतु के लिए, फिर इन जंतुओं को इस प्रकार अलग अलग वैज्ञानिक नाम दिए-श्वकुक्कुर (पालतू कुत्ता), श्ववृक (भेड़िया), श्वजंबुक (गीदड़), श्वलोमशा (लोमड़ी)। श्वन् एक वर्ग का नाम हुआ और कुत्ता, लोमड़ी, गीदड़ आदि अलग अलग विशिष्ट योनियों के नाम हुए। दोहरे नामकरण की यह प्रथा इतनी उपयोगी सिद्ध हुई कि इसका प्रचार वैज्ञानिक मंडली में हो गया।
लिने ने जीवों का वर्गविभाग तो किया पर वह भिन्न भिन्न वर्गों के अवान्तर भेदों या विशिष्ट उत्पत्तिक्रम आदि का कुछ विवेचन न कर सका। बाइबिल की बात को मानते हुए उसने यही कहा कि संसार में उतनी ही योनियाँ दिखाई पड़ती हैं जितनी के ढाँचे सृष्टि के आंरभ में ईश्वर ने गढ़े थे1। इस भ्रान्त विचार के कारण जीववर्गोत्पत्ति के परिज्ञान के लिए कोई वैज्ञानिक प्रयत्न बहुत दिनों तक नहीं हो सका। लिने को केवल उन्हीं जीवों और उदि्भदों का परिज्ञान था जो इस समय पृथ्वी पर मिलते हैं। उसे उन जीवों की कुछ भी खबर न थी जो किसी समय इस पृथ्वी पर रहते थे पर अब जिनके केवल अस्थिपंजर भूगर्भ के नीचे दबे मिलते हैं।
इन पंजरावशिष्ट जीवों की खबर पहले पहल सन् 1812 के लगभग क्यूवियर ने दी। उसने इन अप्राप्य जीवों के सम्बन्ध में एक पुस्तक लिखी जिसमें इनका सविस्तार विवरण दिया। उसने दिखलाया कि इस पृथ्वी पर भिन्न भिन्न कल्पों में भिन्न भिन्न जीव परम्परानुसार एक दूसरे के पीछे रहे हैं। पर क्यूवियर ने भी लिने के अनुसार भिन्न भिन्न योनियों को अचल और स्थायी माना। इससे उसे पृथ्वी के इतिहास में संहार और नवीन सृष्टि अनेक बार होने की कल्पना करनी पड़ी। उसने बतलाया कि प्रत्येक प्रलय के समय सब जीवों का नाश हो जाता है और फिर से सब नए जीवों की सृष्टि होती है। क्यूवियर का यह 'प्रलयवाद' नितान्त भ्रान्तिमूलक होने पर भी तब तक सर्वमान्य रहा जब तक डारविन का समय आकर नहीं उपस्थित हुआ।
पर विविध योनियों को स्थिर और अपरिणामशील तथा उनकी सृष्टि को दैवी विधान मानने से विचारशील पुरुषों को संतोष नहीं हुआ। कुछ लोग सृष्टि विधान के प्राकृतिक हेतुओं के निरूपण की चेष्टा में लगे रहे। इनमें मुख्य था जर्मनी का प्रसिद्ध कवि और तत्ववेत्ता गेटे जिसने भिन्न भिन्न जीवों के शरीरों की परीक्षा करके समस्त जीवधारियों के परस्पर घनिष्ठ सम्बन्ध और एक मूल से उत्पत्ति का निश्चय किया। सन् 1790 में उसने सब प्रकार के पौधों को एक आदिम पत्तो से निकला

1 पुराणों में तो इन योनियों की गिनती चौरासी लाख बतला दी गई है। उनके अनुसार इतनी ही योनियाँ सृष्टि के आंरभ में उत्पन्न की गई थीं, इतनी ही बराबर रही हीं और इतनी ही रहेंगी।

हुआ बतलाया। मेरुदंड और कपाल की परीक्षा द्वारा उसने यह सिद्ध करने का प्रयत्न किया कि मनुष्य से लेकर समस्त मेरुदंड जीवों के कपाल एक विशेष क्रम से बैठाई हुई हड्डीयों के समूह से बने हैं और ये हड्डियां मेरुदंड या रीढ़ के विकार या रूपान्तर मात्र हैं। इस सूक्ष्म पंजरपरीक्षा के आधार पर उसे यह दृढ़ निश्चय हो गया कि सारे जीवों की उत्पत्ति एक ही मूल से है। उसने दिखलाया कि मनुष्य का पंजर भी उसी ढाँचेपर बना है जिस ढाँचेपर और रीढ़वाले जीवों का। उस मूल ढाँचे में पीछे से परिवर्तन या विशेषताएँ उत्पन्न करनेवाली दो प्रधान विधायिनी शक्तियाँ हैं-एक तो शरीर के भीतर की अन्तर्मुख शक्ति जो केन्द्र की ओर ले जाती है और नियति या विशिष्टता की ओर प्रवृत्त करती है और दूसरी बहिर्मुख शक्ति जो केन्द्र के बाहर ले जाती है और रूपान्तर अर्थात वाह्यावस्थानुरूप परिवर्तन की ओर प्रवृत्त करती है। पहली शक्ति वही है जिसे आजकल पैतृक प्रवृत्ति1 कहते हैं और दूसरी वह है जो अब स्थितिसामंजस्य2 कहलाती है। गेटे के विचार यद्यपि अनेक प्रकार के प्रमाणों से पुष्ट नहीं हो पाए थे पर उनसे डारविन और लामार्क के सिध्दान्तों का आभास पहले से मिल गया।
जीवों के क्रमश: रूपान्तरित होने का सिद्धांत पूर्णरूप से फ्रांसीसी वैज्ञानिक लामार्क द्वारा ही स्थापित हुआ। 1802 में उसने जीवों की परिवर्तनशीलता और रूपान्तर विधान के सम्बन्ध में अपने नवीन विचार प्रकट किए जिन्हें आगे चलकर उसने पूर्णरूप से स्थिर किया। पहले पहल उसी ने जीवभेदों के स्थायित्वसम्बन्धी प्रवाद के विरुद्ध यह मत प्रकट किया कि योनिभेद भी जाति, वर्ग, कुल आदि के समान बुद्धिकृत प्रत्याहार या सापेक्ष भावनामात्र है। उसने निर्धारित किया कि सब योनियाँ (जीवभेद) परिवर्तनशील हैं और काल पाकर अपने से प्राचीन योनियों से उत्पन्न हुई हैं। जिन आदिम मूल जीवों से ये सब योनियाँ उत्पन्न हुई हैं वे अत्यंत क्षुद्र और सादे जीव थे। सबसे आदिम मूल जीव जड़ द्रव्य से उत्पन्न हुए थे। पैतृक प्रवृत्ति द्वारा ढाँचे का मूलरूप तो बराबर वंशपरम्परानुगत चला चलता है पर स्वभाव परिवर्तन और अवयवों के न्यूनाधिक प्रयोगभेद द्वारा स्थिति सामंजस्य जीवों में बराबर फेरफार करता रहता है। हमारा यह मुनष्यशरीर भी इसी प्राकृतिक क्रिया के अनुसार बनमानुसों के शरीर से क्रमश: परिवर्तित होते होते बना है। सृष्टि के समस्त व्यापारों का क्या वाह्य क्या मानसिक-प्रकृत कारण लामार्क ने भौतिक और रासायनिक क्रियाओं को ही माना।
आदि ही से एक एक जीव की स्वतन्त्र सृष्टि माननेवालों का भ्रम तो लामार्क

1 पैतृक प्रवृत्ति द्वारा जीवों का एक विशिष्ट ढाँचा वंशपरम्परागत बराबर चला चलता है।
2 स्थितिसामंजस्य के द्वारा वाह्य अवस्था के अनुसार प्राणियों के अंगों में कुछ विभेद होता जाता है। जैसे मछली और मेंढक के शरीर का भेद जो जल की स्थिति से जल और स्थल की उभयात्मक स्थिति में आने के कारण हुआ है।
ने अच्छी तरह दिखला दिया पर उसके सिद्धान्तों का अच्छा प्रचार न हो सका। अधिकांश वैज्ञानिक उसका विरोध ही करते रहे। इस विषय में पूर्ण सफलता आगे चलकर डारविन को हुई। उसने अपने समय के सब वैज्ञानिकों से बढ़कर काम किया। उसने अपने 'योनियों की उत्पत्ति' नामक ग्रंथके द्वारा विज्ञानक्षेत्र में एक नवीन युग उपस्थित कर दिया। उसके सिद्धांत से सृष्टिसम्बन्धी बहुत सी समस्याओं का समाधान हो गया। प्राणिविज्ञान के भिन्न भिन्न विभागों में जिन जिन बातों का पता लगा था सबका सामंजस्य डारविन ने अपने उत्पत्ति सिद्धांत में किया। यही नहीं, उसने एक रूप के जीव से वंशपरम्पराक्रम द्वारा दूसरे रूप के जीव में परिणत होने का जो कारण 'ग्रहण क्रिया' है उसका भी पता लगाया। उसने दिखाया कि जिस प्रकार मनुष्य कुछ विशेषता रखनेवाले जंतुओं को चुनकर उनसे एक नए प्रकार की नसलें पैदा करता है उसी प्रकार प्रकृति भी रक्षा के लिए ऐसे जीवों को चुन लेती है जिसमें स्थिति के अनुकूल अंग आदि में विशेषता आ जाती है। इस प्रकार उसने प्राकृतिक 'ग्रहण सिद्धांत' की स्थापना की1A
जीवविज्ञान में डारविन ने इस बात पर बहुत जोर दिया कि जंतुओं और

1 इस सिद्धांत का अभिप्राय यह है कि जिस स्थिति में जो जीव पड़ जाते हैं उस स्थिति के अनुरूप यदि वे अपने को बना सकते हैं तो रह सकते हैं अन्यथा नहीं; जितने जीवों के अंग आदि स्थिति के अनुकूल बन जाते हैं उतने रह जाते हैं, जिनके नहीं बनते वे नष्ट हो जाते हैं। अर्थात प्रकृति इस प्रकार चुने हुए जीवों को रक्षा के लिए ग्रहण करती है। स्थिति के अनुकूल बनने की क्रिया के कारण ही जीवों के अंगों में भिन्नता आती है और भिन्न भिन्न रूप के जीव उत्पन्न होते हैं। यह प्राकृतिक नियम है कि स्थितिपरिवर्तन के अनुरूप किसी वर्ग के कुछ जीवों में यदि औरों से कोई विशेषता उत्पन्न हो जाती है तो वह विशेषता पुश्त दर पुश्त चली चलती है। इस रीति से उस वर्ग में एक नए ढाँचे के जंतु का विकास हो जाता है। जंतुव्यवसायी प्राय: ऐसा करते हैं कि किसी वर्ग के कुछ जंतुओं में कोई विलक्षणता देखकर उनको चुन लेते हैं, और उन्हीं के जोड़े लगाते हैं। फिर उन जोड़ों से जो जंतु उत्पन्न होते हैं उनमें से भी उन्हें चुनते हैं जिनमें वह विलक्षणता अधिक होती है। इस रीति से वे कुछ पुश्तों के पीछे एक नए ढाँचे का जंतु ही उत्पन्न कर लेते हैं, जैसे जंगली नीले (गोले) कबूतर से अनेक रंग और ढंग के पालतू कबूतर बनाए गए हैं। यह तो हुआ कुछ मनुष्य का चुनाव या 'कृत्रिम ग्रहण'। इसी प्रकार का चुनाव या ग्रहण प्रकृति भी करती है जिसे 'प्राकृतिक ग्रहण' कहते हैं। दोनों में अन्तर यह है कि मनुष्य अपने लाभ के विचार से जंतुओं को चुनता है पर प्रकृति का यह चुनाव जीवों के लाभ के लिए होता है। प्रकृति उन्हीं जीवों को रखने के लिए चुनती या रहने देती है जिनमें स्थितिपरिवर्तन के अनुकूल अंग आदि हो जाते हैं। ह्नेल को लीजिए। उसके गर्भ की अवस्थाओं का अन्वीक्षण करने से पता चलता है कि वह स्थलचारी जंतुओं से उत्पन्न हुआ है, उसके पूर्वज पानी के किनारे दलदलों के पास रहते थे फिर क्रमश: ऐसी अवस्था आती गई जिससे उनका जमीन पर रहना कठिन होता गया और स्थितिपरिवर्तन के अनुसार उनके अवयवों में फेरफार होता गया, यहाँ तक कि कुछ काल पीछे उनकी सन्तति में जल में रहने के उपयुक्त अवयवों का विधान हो गया, जैसे उनके अगले पैर मछली के परों के रूप के हो गए, यद्यपि उनमें हड्डियां वे ही बनी रहीं

उदि्भदों की उत्पत्तिपरम्परा स्थिर कर दी जाय। किस प्रकार एक प्रकार के जीवों से उत्तरोत्तर अनेक प्रकार के जीवों की सृष्टि होती गई इसका क्रम निर्धारित कर दिया जाये। तदनुसार सन् 1866 में मैंने इस विषय पर एक पुस्तक लिखकर इस बात का प्रयत्न किया। पहले एक विशिष्ट रूप के जीव को लेकर मैंने यह दिखलाया कि किस प्रकार गर्भावस्था में क्रमश: उसके विविध अंगों का स्फुरण होता है, फिर यह निर्धारित किया कि किस क्रम से सजीवसृष्टि में उत्तरोत्तर भिन्न भिन्न रूपों, योनियों का विधान हुआ है। विकास से पहले गर्भ का उत्तरोत्तर स्फुरण ही समझा जाता था। पर मैंने यह स्थिर किया कि गर्भ के उत्तरोत्तर क्रम विधान के अनुसार ही जीववर्गों का भी उत्तरोत्तर क्रम विधान हुआ है। जिस क्रम से भ्रूण गर्भ के भीतर एक अणुजीव से एक रूप के उपरान्त दूसरे रूप को प्राप्त होता हुआ पूरा सावयव जंतु हो जाता है उसी क्रम से एक घटक अणुजीव से भिन्न भिन्न रूपों के छोटे बड़े जीवों की उत्पत्ति होती गई है। अस्तु, दोनों प्रकार के विकास समान नियमों के अनुसार होते हैं। गर्भ विधान या व्यक्तिविकास विधान वर्गविकास विधान की संक्षिप्त उद्धरणी है जो प्रजनन और संरक्षण क्रियाओं के अनुसार होती है। सारांश यह कि व्यक्ति विकास और वर्ग विकास का क्रम एक ही है।
उपर्युक्त सिद्धांत की व्यापकता का आभास लामार्क ने 1809 में ही दे दिया था। उसने यह दिखा दिया था कि मनुष्य भी जीवों की उस शाखा से उत्पन्न हुआ है जिस शाखा से और सब स्तन्यजीव और स्तन्यजीव भी उसी कांड से निकले हैं जिस कांड से और सब रीढ़वाले जंतु। उसने यहाँ तक कहा कि मनुष्य का बनमानुस से निकलना दिखाया जा सकता है। डारविन भी इस सिद्धांत पर पहुँचा था पर उसने अपना यह मत बहुत दिनों तक प्रकट नहीं किया। अन्त में सन् 1871 में 'मनुष्य की उत्पत्ति' नामक ग्रंथ में उसने अपना मत अत्यंत दृढ़ प्रमाणों से सिद्ध करके प्रकाशित किया।
इस बनमानुसी सिद्धांत के सम्बन्ध में सबसे कठिन कार्य अब यह रह गया

 जो घोड़े, गदहे आदि के अगले पैर में होती हैं। कई प्रकार के ह्नेलों में पिछली टाँगों का चिन्ह अब तक मिलता है।
जीवों के ढाँचों में बहुत कुछ परिवर्तन तो अवयवों के न्यूनाधिक व्यवहार के कारण होता है। अवस्था बदलने पर कुछ अवयवों का व्यवहार अधिक करना पड़ता है और कुछ का कम। जिनका व्यवहार अधिक होने लगता है वे वृद्धि को प्राप्त होने लगते हैं और जिनका कम होने लगता है वे दब जाते हैं। मनुष्य ही को लीजिए, जिसकी उत्पत्ति बनमानुसों से धीरे धीरे हुई है। ज्यों ज्यों दो पैरों के बल खड़े होने और चलने की वृत्ति अधिक होती गई त्यों त्यों उसके पैर चिपटे, चौड़े और कुछ दृढ़ होते गए और एँड़ी पीछे की ओर कुछ बढ़ गई। बनमानुस से मनुष्य में ढाँचे आदि का बहुत अधिक विभेद नहीं हुआ। एक ही ओर बहुत अधिक विशेषता हुई; उसके अन्त:करण या मस्तिष्क की वृद्धि अधिक हुई।

कि मनुष्य के सबसे निकटस्थ पूर्वजों और फिर उनके पहले के और प्राचीन पूर्वजों का पता चलाया जाय जो पृथ्वी के अत्यंत प्राचीन युग में थे और जिनका विकास करोड़ों वर्ष में हुआ था। मैं इस प्रकार की पूर्वज परम्परा दिखाने का प्रयत्न बराबर करता रहा। अन्त में सन् 1891 में मैंने अपने ग्रंथ का जो संस्करण निकाला उसमें भूगर्भपंजर परीक्षा, गर्भविज्ञान और शरीरविज्ञान के प्रमाणों के आधार पर जीवों की विकास परम्परा निश्चित की। भूगर्भ की खोदाई और छानबीन से पीछे जो और ठठरियाँ मिलीं उनसे मेरे निश्चित क्रम की ओर भी पुष्टि हुई। इस प्रकार गर्भविज्ञान और शरीरविज्ञान के आधार पर जो जीवोत्पत्ति परम्परा अर्थात किस प्रकार के जीव से किस प्रकार के दूसरे जीव उत्पन्न हुए, निर्धारित हुई थी उसका सामंजस्य भूगर्भ में मिली हुई अप्राप्य जीवों की ठठरियों से पूरा पूरा हो गया। संक्षेप में यह परम्परा इस प्रकार है-
सबसे पहले आदिम मत्स्य, फिर फेफड़ेवाले मत्स्य1, फिर जलस्थलचारी जंतु मेंढक आदि सरीसृप, और स्तन्य जंतु। स्तन्य जीवों में अंडजस्तन्य सबसे पहले हुए, फिर उन्हींसे क्रमश: थैलीवाले अजरायुज पिंडज और जरायुज जंतु उत्पन्न हुए। इन जरायुजों से ही किंपुरुष निकले जिनमें पहले बन्दर फिर बनमानुस उत्पन्न हुए। पतली नाकवाले बनमानुसों में पहले पूँछवाले कुक्कुराकार बनमानुस हुए, फिर उनसे बिना पूँछवाले नराकार बनमानुस हुए। इन्हीं नराकार बनमानुसों की किसी शाखा से बनमानुसों के से गूँगे मनुष्यों की उत्पत्ति हुई।
रीढ़वाले जंतुओं के उत्पत्तिक्रम की शृंखला तो इस प्रकार मिल जाती है पर उनसे पहले के बिना रीढ़वाले जंतुओं की शृंखला मिलना कठिन है। भूगर्भ के भीतर उनका कोई चिन्ह नहीं मिल सकता; इससे प्राग्जन्तुविज्ञान2 कुछ सहायता नहीं दे सकता। पर तारतम्यिक शरीरविज्ञान और गर्भविज्ञान आदि के प्रमाणों पर हम इस शृंखला को मूलतक ले जा सकते हैं। हम यह दिखला सकते हैं कि मनुष्य का भ्रूण भी दूसरे रीढ़वाले जंतुओं के भ्रूण के समान कुछ दिनोंतक सूत्रादंड अवस्था में; जब कि रीढ़ के स्थान में सूत की तरह लचीली शलाका होती है। अत: जीव सृष्टि के नियमानुसार3 हम निश्चित कर सकते हैं कि पूर्वकाल के जीव सूत्रादंड और द्विकलघट

1 इस प्रकार की मछलियाँ अब बहुत कम मिलती हैं; आस्ट्रेलिया तथा दक्षिणी अमेरिका में दो तीन जातियाँ पाई जाती हैं। ये मछलियों और मेंढक आदि जलस्थलचारी जंतुओं के बीच में हैं।
2 भूगर्भ के भीतर प्राचीन जंतुओं के चिद्दों की खोज करने वाली विद्या।
3 यह नियम कि गर्भ के बढ़ने का क्रम और एक जीव से दूसरे जीव के उत्पन्न या विकसित होने का क्रम एक ही है। गर्भ में भ्रूण जिस एक मूलरूप से क्रमश: जिन दूसरे रूपों में होता हुआ कुछ महीनों में एक विशेष रूप का होकर तैयार हो जाता है सृष्टि में भी उसी एक मूल रूप से उन्हीं दूसरे रूपों में होती हुई अनेक योनियाँ क्रमश: उत्पन्न हुई हैं। अन्तर इतना ही है कि मछली से मनुष्य होने में तो करोड़ों वर्ष लगे होंगे पर मत्स्याकार गर्भपिंड से नराकार शिशु होने में कुछ महीने ही लगते हैं।

रूप के रहे हैं। सबसे अधिक ध्यान देने की बात तो यह है कि मनुष्य का भ्रूण भी और प्राणियों के भ्रूण के समान आदि में एक घटक के रूप का ही होता है। यह एक घटक पिंड इस बात का पता देता है कि जीवसृष्टि के आदिम काल में एक घटक जीव ही रहे होंगे।
हमारे तत्वाद्वैतवाद की स्थापना के लिए बस इतना ही देखना काफी है कि मनुष्ययोनि बनमानुस योनि से निकली है जो क्षुद्र मेरुदंड जीवों की परम्परा से विकसित हुई है। हाल में जो भूगर्भस्थपंजर मिले हैं उनसे इस बनमानुसी सिद्धांत की पुष्टि अच्छी तरह हो गई है। जरायुज जंतुओं के जो मांसभक्षी खुरपाद और किंपुरुष आदि भिन्न भिन्न वर्ग हैं उनकी परम्परा की शृंखला आजकल पाए जानेवाले जंतुओं को देखने से ठीक ठीक नहीं मिलती थी। बीच में बहुत से स्थान खाली पड़ते थे। भूगर्भ की छानबीन से अब इन स्थानों की पूर्ति हो गई है, बहुत से ऐसे जंतुओं के पंजर मिले हैं जो उपर्युक्त भिन्न भिन्न वर्गों के मध्यवर्ती जंतु थे। इन जंतुओं को किसी एक वर्ग में रखना कठिन जान पड़ता है क्योंकि इनमें भिन्न भिन्न वर्गों के लक्षण मिलेजुले हैं। पूर्ण जरायुज अवस्था में आने के पहले की अवस्था के जो क्षुद्र जीव (पंजर) मिले हैं उनमें खुरपाद, मांसभक्षी आदि वर्गों के लक्षण मिलेजुले हैं। सबके पंजरों का ढाँचा एक सा है, सब 44 दाँतवाले हैं, सबका आकार छोटा तथा मस्तिष्क की बनावट अपूर्ण है। तीस लाख वर्ष पहले ये जीव इस पृथ्वी पर थे। जीवसृष्टि क्रम के विचार से कहा जा सकता है कि ये पूर्वजरायुज जंतु भी थैलीवाले मांसभक्षी क्षुद्र जंतुओं से जरायु की विशेषता उत्पन्न हो जाने के कारण निकले हैं।
भूगर्भ की छानबीन से सबसे काम की चीजें जो मिली हैं वे किंपुरुषवर्ग के जंतुओं के पंजर हैं। पहले इन जंतुओं के पंजर नहीं मिलते थे। पर अब बहुत से मिल गए हैं। सबसे महत्व का जो पंजर मिला है वह जावाद्वीप के बानराकार मनुष्य का है जो 1894 में मिला था। उसे न हम ठीक ठीक बनमानुस का पंजर कह सकते हैं, न मनुष्य का। जिस जीव का वह पंजर है वह बनमानुष और मनुष्य के बीच का जीव था। ऐसे जीव की खोज बहुत दिनों से थी। जावा के इस बानराकार नरपंजर के मिलने से मनुष्य का बनमानुस से क्रमश: निकलना प्राग्जन्तुविज्ञान द्वारा भी उसी निश्चयात्मकता के साथ सिद्ध हो गया जिस निश्चयात्मकता के साथ शरीरविज्ञान और गर्भविज्ञान द्वारा सिद्ध था। अस्तु, मनुष्यजाति की उत्पत्ति के सम्बन्ध में तीनों प्रकार के प्रमाणों की एकरूपता हो गई।





छठाँ प्रकरण
- आत्मा का स्वरूप


'आत्मा की क्रिया' या मानसिक व्यापार1 से जिन व्यापारों का ग्रहण होता है वे जिस प्रकार अत्यंत कौतूहलप्रद और महत्व के हैं उसी प्रकार अत्यंत जटिल और दुर्बोध हैं। प्रकृति का परिज्ञान आत्मा के व्यापार का ही अंग है और इस व्यापार की यथार्थता पर ही जंतुविज्ञान, सृष्टिविज्ञान आदि अवलम्बित हैं इसलिए यह निश्चयपूर्वक कहा जा सकता है कि मनोविज्ञान आत्मा के व्यापारों का बोध करानेवाला शास्त्र और सब विज्ञानों का आधारस्वरूप है या यों कहिए कि वह दर्शन, शरीरविज्ञान, जंतुविज्ञान, आदि का अंग ही है।
मनोविज्ञान के सिद्धांत के वैज्ञानिक रूप से प्रतिपादन में बड़ी भारी अड़चन यह पड़ती है वह बिना शरीर के भीतरी अवयवों, विशेषकर मस्तिष्क का सूक्ष्म ज्ञान प्राप्त किए ठीक ठीक हो नहीं सकता। पर अधिकांश मनोविज्ञानी आत्मा के व्यापारों के विधायक अवयवों का बहुत कम परिज्ञान रखते हैं। इसी से दर्शन और मनोविज्ञान में जितना मतभेद देखा जाता है उतना और किसी विज्ञान में नहीं।
जिसे आत्मा कहते हैं वह, मेरी समझ में, एक प्राकृतिक व्यापार मात्र है। अत:मनोविज्ञान को मैं आधिभौतिक शास्त्रों की ही एक शाखा और शरीरविज्ञान का ही एक अंग समझता हूँ। मैं इस बात को जोर देकर कहता हूँ कि इस विज्ञान के तत्वों का अन्वेषण भी उन्हीं प्रणालियों से हो सकता है जिन प्रणालियों से और विज्ञानों के तत्वों का हो सकता है। पहले तो हमें प्रत्यक्षनुभव से परीक्षा करनी चाहिए, फिर विकास सिद्धांत का आरोप करना चाहिए। इसके उपरान्त शुद्ध तर्क के आधार पर चिन्तन करना चाहिए। मनोविज्ञान के सम्बन्ध में पहले द्वैत और तत्वाद्वैत सिध्दान्तों

1 यद्यपि न्याय और विशेषिक ने आत्मा के जो लक्षण कहे हैं वे मानसिक व्यापारों से भिन्न नहीं जान पड़ते पर शेष दर्शनों के समान उन्होंने भी अन्त:करण या मन से आत्मा को भिन्न माना है। हैकल ने आधिभौतिक दृष्टि से अन्त:करण को ही आत्मा माना है।

का थोड़ा वर्णन कर देना आवश्यक है।
मानसिक व्यापार के सम्बन्ध में साधारणा विश्वास, जिसका हमें खंडन करना है, यह है कि शरीर और आत्मा दो पृथक् पृथक् सत्ताएँ हैं। ये दोनों सत्ताएँ एक दूसरे से सर्वथा पृथक् पृथक् रह सकती हैं, यह आवश्यक नहीं कि दोनों संयुक्त ही रहें। यह सावयव शरीर नश्वर और भौतिक है अर्थात कललरस तथा उसके विकारों के रासायनिक योग से संघटित है। पर आत्मा अमर तथा भूतों से परे एक ऐसी स्वतन्त्र सत्ता है जिसके गूढ़ व्यापार बोधगम्य नहीं हैं। यह मत आध्यात्मिक पक्ष का है, इसके विरुद्ध जो मत है वह आधिभौतिक पक्ष का कहा जा सकता है। यह आध्यात्मिक मत सर्वातीतवादी है क्योंकि यह ऐसी शक्तियों का अस्तित्व मानता है जो बिना भौतिक आश्रय के काम करती हैं। इसके अनुसार प्रकृति से परे और वाह्य एक अभौतिक आध्यात्मिक जगत् है जिसका हमें कुछ भी अनुभव नहीं और जिसका कुछ भी ज्ञान हम भौतिक परीक्षाओं द्वारा नहीं प्राप्त कर सकते।
यह 'आध्यात्मिक जगत्', जो भूतात्मक जगत् से सर्वथा स्वतन्त्र माना गया है और जिसके आधार पर द्वैतवाद खड़ा किया गया है, कवि कल्पना मात्र है। यही बात 'आत्मा के अमरत्व' सम्बन्धी विश्वास के विषय में भी कही जा सकती है जिसकी असारता आगे चलकर दिखाई जायगी। यदि अध्यात्मवादियों के विश्वास का कोई दृढ़ आधार होता तो मानसिक व्यापार प्रकृति या परमतत्व के नियमाधीन न होते। दूसरी बात यह कि प्रकृति के नियमबन्धानों से मुक्त सत्ता यदि मानी जाय तो यह आवश्यक है कि वह सृष्टि के पिछले कल्प में ही प्रकट हुई होगी जब कि मनुष्य आदि उन्नत जीवों का प्रादुर्भाव हो चुका होगा; क्योंकि भूतों से परे आत्मा की धारणा मनुष्य आदि कि मानसिक व्यापारों को देख कर ही हुई है। आत्मा की इच्छा किसी प्रकार के नियमों से बद्ध नहीं है, सर्वथा स्वतन्त्र है, यह मत भी भ्रान्त है।
हमारे प्रकृति निरूपण के अनुसार आत्मा की क्रिया द्रव्यशक्तिसम्भूत ऐसे व्यापारों का संघात है जो और प्राकृतिक व्यापारों के समान एक विशिष्ट भौतिक आधार पर अवलम्बित है। समस्त मनोव्यापारों के इस आधारभूत द्रव्य को हम मनोरस कहेंगे। कारण यह है कि रासायनिक विश्लेषण के द्वारा परीक्षा करने पर यह उसी कोटि का द्रव्य ठहरता है जिस कोटि के द्रव्य कललरस2 विशिष्ट कहलाते हैं। ये

1 भारतीय तत्ववेत्ताओं ने मनुष्य से लेकर कीटपतंग तक में आत्मा को माना है। डेकार्ट आदि कुछ पाश्चात्य दार्शनिकों ने मनुष्य में ही 'आत्मा' मानी है, पश्वादिकों में नहीं।
2 कललरस प्रोटोप्लाज्म एक चिपचिपा कुछ दानेदार पदार्थ है जो जीवन का मूल द्रव्य समझा जाता है। प्राणियों और उद्भिदों के सूक्ष्म घटक इसी के होते हैं। आहारग्रहण, वृद्धि स्वेच्छा गति, संवेदन आदि व्यापार इसमें पाए जाते हैं। रसायनिक विश्लेषण द्वारा यह कललरस आक्सीजन, डाइड्रोजन, नाइट्रोजन और कार्बन के विलक्षण अण्वात्मक योग से संघटित पाया जाता है। जल और लवण का भी इसमें मेल रहता है। पर संयोजक मूल द्रव्यों को जान लेने पर भी मनुष्य कललरस नहीं बना सका है।

द्रव्य अंडसाररस और अंगारक1 के रासायनिक संयोग से बनते हैं और समस्त चेतन व्यापारों के मूल हैं। उन्नत जीवों में जिन्हें संवेदन सूत्राजाल और अनुभवात्मक इन्द्रियाँ होती हैं उपर्युक्त मनोरस से ही संवेदन सूत्रारस अर्थात संवेदनसूत्रा निर्मित करनेवाली धातु का विधान होता है। इस विषय में हमारा यह निरूपण भौतिक है। इसे प्राकृतिक और परीक्षात्मक भी कह सकते हैं क्योंकि विज्ञान ने अभी तक किसी ऐसी शक्ति का अस्तित्व नहीं प्रतिपादित किया है जिसका कुछ भौतिक आधार न हो। प्रकृति से परे किसी आध्यात्मिक जगत् का पता नहीं लगा है।
और प्राकृतिक व्यापारों के समान मनोव्यापार या आत्मव्यापार भी परमतत्व या मूलप्रकृति के अटल और सर्वव्यापक नियम के अधीन हैं। एक घटक अणुजीवों तथा दूसरे अत्यंत क्षुद्रकोटि के जीवों में जो मनोव्यापार देखे जाते हैं - जैसे उनका संक्षोभ, उनकी संवेदना, उनकी प्रतिक्रिया2 उनकी आत्मरक्षण प्रवृत्ति इत्यादि वे घटक के भीतर के कललरस की क्रिया के अनुसार अर्थात वंशपरम्परा और स्थितिसामंजस्य द्वारा उपस्थित भौतिक और रासायनिक विकारों के अनुसार ही होते हैं। यही बात मनुष्य तथा दूसरे उन्नत प्राणियों के उन्नत मनोव्यापारों के सम्बन्ध में भी कही जा सकती है क्योंकि वे ऊपर कहे हुए क्षुद्र मनोव्यापारों ही से क्रमश: स्फुरित हुए हैं। उनमें जो पूर्णता आई है वह अधिक मात्रा में समन्वय होने के कारण - उन व्यापारों की विशेष संगति और योजना के कारण जो पहले पृथक् पृथक् थे। सारांश यह कि क्षुद्रकोटि के मनोव्यापारों और उन्नत कोटि के मनोव्यापारों में - मनुष्यबुद्धि और पशुबुद्धि में केवल न्यूनाधिक का भेद है, वस्तुभेद नहीं।
प्रत्येक विज्ञान का पहला काम यह है कि जिस वस्तु के सम्बन्ध में उसे अन्वेषण करना हो उसकी स्पष्ट परिभाषा या व्याख्या कर ले। पर मनोविज्ञान के सम्बन्ध में यह प्रारम्भिक कार्य अत्यंत कठिन है। सबसे विलक्षण बात यह है कि मनोविज्ञान के सम्बन्ध में आज तक नए पुराने दार्शनिकों ने जो मत प्रकट किए हैं उनका परस्पर

1 एक गाढ़ा चिपचिपा पदार्थ जो अंडों की जर्दी, जीवों के रक्त आदि में रहता है। यह आक्सीजन, कार्बन, नाइट्रोजन और हाइड्रोजन और कुछ गन्धक के मेल से बना होता है।
2 क्षुद्र जीवों के शरीर पर बाहरी सम्पर्क या उत्तेजन से उत्पन्न क्षोभ प्रवाह के रूप में कललरस के अणुओं द्वारा भीतर केन्द्र में पहुँचता है और वहाँ से प्रेरणा के रूप में बाहर की ओर पलट कर शरीर में गति उत्पन्न करता है। वस्तु सम्पर्क के प्रति यह एक प्रकार की अचेतन क्रिया है जो ज्ञानकृत वा इच्छाकृत नहीं होती, केवल कललरस के भौतिक और रासायनिक गुणों के अनुसार होती है, जैसे छूने से लजालू की पत्तियों का सिमटना, उँगली रखने से क्षुद्र कीटों का अंग मोड़ना इत्यादि। चेतना विशिष्ट मनुष्य आदि बड़े जीवों में भी यह अचेतन प्रतिक्रिया होती है। उनमें क्षोभ अन्तर्मुख संवेदनसूत्रों द्वारा भीतर की ओर जाता है पर मस्तिष्क तक नहीं पहुँचता बीच ही से मेरुरज्जु या किसी और स्थान से पलट पड़ता है। आँख के पास किसी वस्तु के आते ही पलकें आप से आप, बिना इच्छा या संकल्प के गिर पड़ती हैं।

विरोध देखकर बुद्धि चकरा जाती है। आत्मा क्या है? इन्द्रियानुभव और भावना में क्या अन्तर है? मन में कोई बात किस प्रकार उपस्थित होती है? बुद्धि और विचारों में क्या अन्तर है। मनोवेगों राग, द्वेष, क्रोध आदि का वास्तविक रूप क्या है? अन्त:करण की इन समस्त वृत्तियों का शरीर से क्या सम्बन्ध है? इन अनेक प्रश्नों के तथा इसी प्रकार के और प्रश्नों के जो उत्तर दार्शनिकों ने दिए हैं वे परस्पर विरुद्ध हैं। यही नहीं, एक ही वैज्ञानिक वा दार्शनिक ने पहले कुछ और विचार प्रकट किया, पीछे और। इस प्रकार मनोविज्ञान भानमती का पिटारा बन गया है। जितनी गड़बड़ी इस विज्ञान में दिखाई देती है उतनी और किसी में नहीं।
कुछ दृष्टान्त लीजिए। जर्मनी के सबसे प्रसिद्ध दार्शनिक कांट ने पहले अपनी युवावस्था में यह स्थिर किया कि परोक्षवाद के तीन बड़े विषय-ईश्वर, आत्मस्वातन्त्रय और आत्मा का अमरत्व-शुद्धबुद्धि1 के निरूपण से असिद्ध हैं। पीछे वृध्दावस्था में उसी ने यह कहा कि ये तीनों बातें व्यवसायात्मिका बुद्धि2 के स्वयंसिद्ध निरूपण हैं और अनिवार्य हैं। इसी प्रकार विरचो और रेमण्ड नामक प्रसिद्ध जर्मन वैज्ञानिकों ने पहले बहुत दिनों तक भूतातिरिक्त शक्ति, शरीर और आत्मा की पृथक् भावना आदि का घोर विरोध किया, पर पीछे उन्होंने चेतना को भूतातिरिक्त व्यापार कहा।
अन्त:करण की वृत्तियों की, विशेषत: चेतना की, परीक्षा के लिए वैज्ञानिक अनुसंधानप्रणाली में कुछ फेरफार करना पड़ता है। वैज्ञानिक अनुसंधान बहिर्मुख दृष्टि से होती है अर्थात उसमें मन अपने से भिन्न विषयों का निरीक्षण और विचार करता है। मनोव्यापारों के अनुसंधान में हमें इन बहिर्मुख निरीक्षण के अतिरिक्त अन्तर्मुख निरीक्षण या आत्मनिरीक्षण भी बहुत अधिक करना पड़ता है। इस स्वानुभूति या आत्मनिरीक्षण में मन अपना ही अर्थात अपने ही व्यापारों का चेतना के दर्पण में निरीक्षण करता है3। अधिकांश मनोविज्ञानी केवल इसी आत्मनिश्चय या अहंकारवृत्ति

1 प्योर रीजन।
2 प्रैक्टिकल रीजन।
3 कांट आदि प्रत्यक्षवादी दार्शनिकों ने स्वानुभूति या आत्मनिरीक्षण असम्भव कहा है। वे उसके सम्बन्ध में यह बाधा उपस्थित करते हैं-'निरीक्षण करने के लिए तुम्हारी बुद्धि को अपनी क्रिया रोकनी पड़ेगी और उसी क्रिया का तुम निरीक्षण करना चाहते हो। यदि तुम क्रिया रोकते हो तो निरीक्षण करने के लिए कोई वस्तु ही नहीं रह जाती'। यह बाधा तो आधिभौतिक मनोविज्ञानक्षेत्र की हुई जिसमें जैसे अन्त:करण की और सब वृत्तियों का निरूपण होता है वैसे ही चेतना का भी। भारतीय दार्शनिकों ने भी मन की युगपत् क्रिया असम्भव बतलाई है, अर्थात मन एक ही समय एक साथ दो व्यापारों में प्रवृत्त नहीं हो सकता, पर उन्होंने सब व्यापारों के द्रष्टा आत्मा को मन या अन्त:करण से भिन्न माना है। अध्यात्म या परविद्या के क्षेत्र में भी आत्मबोध के सम्बन्ध में इस कठिनाई का सामना पड़ा है। चैतन्य या आत्मा ही ज्ञाता, द्रष्टा या विषयी है अत: अपने ज्ञान के लिए उसे ज्ञेय, दृश्य वा विषय होना पड़ेगा। पर न विषयी विषय हो सकता है, न विषय विषयी। शंकर स्वामी अपने भाष्य में कहते हैं।

का अनुसरण करके चले हैं, जैसे डेकार्ट ने स्पष्ट कहा है कि 'मैं सोचता हूँ इसलिए मैं हूँ।' अत: पहले इस आत्मनिरीक्षण प्रणाली पर कुछ विचार करके तब हम दूसरी वाह्यनिरीक्षण प्रणाली की व्याख्या करेंगे।
इन दो हजार वर्षों के बीच आत्मा के सम्बन्ध में जितने सिद्धांत उपस्थित किए गए हैं सब इसी अन्तर्मुख प्रणाली के अनुसार स्वानुभूति या आत्मनिरीक्षण के आधार पर। अपनी आत्मा में जिस प्रकार के अनुभव हुए उनकी संगति और आलोचना द्वारा किए हुए निश्चय ही दार्शनिक प्रकट करते रहे हैं।
बात यह है कि मनोविज्ञान के एक प्रधान अंग का विचार, विशेषकर चेतना के धर्म आदि का निरूपण, केवल इसी एक प्रणाली से हो सकता है। मस्तिष्क की एक वृत्ति (चेतना) विशेष रूप की है। इसके कारण जितने दार्शनिक भ्रम हुए हैं उतने और किसी वृत्ति के कारण नहीं। मन की इस स्वनिरीक्षण क्रिया को ही मनोविज्ञान के निरूपण का एकमात्र साधान समझना, जैसा कि बहुतेरे दार्शनिकों ने किया है, बड़ी भारी भूल है। मन के बहुत से व्यापारों का, जैसे इन्द्रियों और वाणी की क्रिया आदि का, निरूपण उसी रीति से हो सकता है जिस रीति से शरीर के और व्यापारों का, अर्थात पहले तो भीतरी अवयवों की सूक्ष्म विश्लेषणपरीक्षा से और फिर उनके आश्रय से होनेवाले व्यापारों के जीवविज्ञाननुकूल निरीक्षण से। अत: बिना इस प्रकार के वाह्य निरीक्षण के केवल आत्मनिरीक्षण द्वारा निश्चित मनोव्यापार सम्बन्धिनी बातें पक्की नहीं समझी जा सकतीं। पर वाह्यनिरीक्षण की पूर्णता के लिए शरीरविज्ञान, अंगविच्छेदशास्त्र, शरीराणुविज्ञान1, गर्भविज्ञान और जीवविज्ञान इत्यादि का यथावत् ज्ञान होना चाहिए। मनोविज्ञानवेत्ता कहलानेवालों में से अधिकांश का नरतत्वशास्त्र2 की आधार स्वरूपिणी इन विद्याओं में कुछ भी प्रवेश नहीं होता। अत: वे अपनी आत्मा के गुण धर्म की विवेचना करने के भी अयोग्य हैं। एक और बात ध्यान में रखने की यह है कि इन मनोविज्ञानवेत्ताओं का अन्त:करण एक सभ्यजाति के उन्नत अन्त:करण का नमूना है जो अनेक पूर्ववत्तरी अवस्थाओं में वंशपरम्पराक्रम से होता हुआ वर्तमान उन्नत अवस्था को प्राप्त हुआ है। अत: उसके गुणधर्म को ठीक ठीक समझने के लिए असंख्य क्षुद्र कोटि के पूर्वरूपों का विचार आवश्यक है। यह मैं मानता

 हैं-'युष्मदस्मत्प्रत्ययगोचरयो: विषयविषयिनो: स्तम:प्रकाशवद्विरुद्धस्वभावयोरितरेतरभावानुपत्तौ सिध्दायाम् '।
हर्बर्ट स्पेंसर ने भी यही कहा है-
शंकराचार्य ने तो यह कहकर उक्त बाधा दूर की कि चैतन्य वा आत्मा 'कूटस्थनित्यचैतन्यज्योति' है, वह ज्ञानस्वरूप है उसे ज्ञेय होने की आवश्यकता नहीं। पर हर्बर्ट स्पेंसर आदि पश्चिमी तत्ववेत्ताओं ने इसी विरोध को लेकर आत्मा, परमात्मा आदि को अज्ञेय ठहराया और संशय की स्थिति में रहना ही ठीक समझा।
1 हिस्टोलाजी
2 एन्थ्रापोलाजी

हूँ कि आत्मनिरीक्षण प्रणाली परम आवश्यक है, पर साथ ही और दूसरी प्रणालियों (वाह्यनिरीक्षण आदि) की सहायता भी निरन्तर अपेक्षित है1A
आधुनिक काल में ज्यों ज्यों मनुष्यों का ज्ञान बढ़ता गया और भिन्न भिन्न विज्ञानों की अनुसंधानप्रणाली पूर्णता को पहुँचती गई त्यों त्यों यह इच्छा बढ़ती गई कि उन विज्ञानों के निरूपण बिलकुल ठीक ठीक नपे तुले हों, उनमें रत्ती भर का भी बल न पड़े, अर्थात व्यापारों का निरीक्षण जहाँ तक हो सके प्रत्यक्षनुभव के रूप में हो और जो नियम निरूपित किए जाएँ वे जहाँ तक हो सकें ठीक ठीक और स्पष्ट हों जैसे कि गण्श्नित के होते हैं। पर इस प्रकार का नपा तुला ठीक ठीक निरूपण कुछ थोड़े से शास्त्रों में ही सम्भव है, विशेषत: उन विद्याओं में जिनमें परिमेय, गिनती या माप के योग्य, परिमाण का विचार होता है, जैसे गणित में तथा ज्योतिष, कलाविज्ञान, भौतिकविज्ञान, और रसायनशास्त्र के बहुत से अंशों में। इसी से ये सब विद्याएँ 'ठीक नपी तुली विद्याएँ' कहलाती हैं। पर समस्त भौतिक विद्याओं को बिलकुल ठीक और नपी तुली समझ कर उन्हें इतिहास, तर्क, आचारशास्त्र आदि से सर्वथा भिन्न कोटि में रखना भूल है। भौतिक विज्ञान का बहुत सा अंश ऐसा है जिसकी बातों को हम इतिहास की बातों से अधिक ठीक और नपी तुली नहीं कह सकते। यही प्राणिविज्ञान और उससे सम्बद्ध मनोविज्ञान के सम्बन्ध में भी कहा जा सकता है। जब कि मनोविज्ञान शरीरविज्ञान का ही एक अंग है तब उसका निरूपण भी उसी प्रणाली से होना चाहिए जिस प्रणाली से शरीरविज्ञान का होता है। अस्तु, मनोविज्ञान में पहले तो हमें प्रत्यक्षनुभव प्रणाली का अनुसरण करके जहाँ तक हो सके इन्द्रिय, संवेदनसूत्र, मस्तिष्क आदि की क्रियाओं का निरीक्षण और परीक्षा करनी चाहिए, उसके पीछे फिर मन के व्यापारों का आत्मनिरीक्षण करके उनके नियमों को तर्क द्वारा स्थिर करना चाहिए। पर यह समझ रखना चाहिए कि इस प्रकार के नियम गणित के समान ठीक ठीक नाप तौल के साथ सर्वत्रा नहीं स्थिर किए जा सकते। शरीरविज्ञान में केवल इन्द्रियों के व्यापारों का निरूपण गणित की रीति से कुछ हो सकता है, मस्तिष्क के और व्यापारों का नहीं।
प्राणिविज्ञान के एक छोटे से अंग का गणित की रीति से कुछ प्रतिपादन हो सका है और उसका नाम मनोभूतविज्ञान (साइकोफिजिक्स) रखा गया है। इस विज्ञान के प्रतिष्ठाता फेक्नर और वेवर नामक वैज्ञानिकों ने पहले यह पता लगाया कि सब प्रकार के इन्द्रियानुभव बाहरी विषयसम्पर्क की उत्तोजना पर निर्भर हैं और जिस हिसाब से विषयसम्पर्क की उत्तोजना घटती या बढ़ती है उसी हिसाब से इन्द्रियसंवेदन भी घटता या बढ़ता है। उन्होंने स्थिर किया कि कम से कम इतनी मात्र की उत्तोजना

1 जो लोग समझते हैं कि आँख मूँदकर ध्यान या समाधि लगाने से भूत, भविष्य, वर्तमान तीनों काल की बातें सूझने लगती हैं उन्हें इस पर ध्यान देना चाहिए।

होगी तभी इन्द्रियसंवेदन होगा, और प्राप्त उत्तोजना में इतनी मात्र का अन्तर पड़ेगा तब संवेदन में कुछ अन्तर जान पड़ेगा। दर्शन, श्रवण, स्पर्श (दबाव) संवेदनों के विषय में यह निर्दिष्ट नियम है कि उनमें अन्तर उत्तोजना के सम्बन्ध के अन्तर के हिसाब से पड़ता है। अस्तु, फेक्नर ने अपने मनोभूतविज्ञान का एक प्रधान नियम स्थिर किया कि संवेदना की वृद्धि संख्योत्तार क्रम जैसे 2,4,6,8,10 से होती है और उत्तोजना की गुणोत्तार क्रम से जैसे, 2,4,8,16,32। 1 पर फेक्नर के ये भौतिक निरूपण सर्वांश में स्वीकृत नहीं हुए हैं। मनोभूतविज्ञान से जैसी सफलता की आशा की गई थी वैसी नहीं हुई। वह आगे नहीं बढ़ सका। उसका विस्तार बहुत ही थोड़ा है। उससे इतना अवश्य सिद्ध हुआ है कि कम से कम आत्मा के एक व्यापार पर भौतिक नियम घटाए जा सकते हैं। पर कहना यही पड़ता है कि मनोव्यापारों को तौलने का प्रयत्न निष्फल हुआ है, उससे कुछ विशेष परिणाम नहीं निकला है विज्ञान का लक्ष्य तो यही होना चाहिए कि सर्वत्रा साध्य नहीं है। अत: जीवसृष्टि, मनोव्यापार आदि के सम्बन्ध में तारतम्यिक-परम्परा मिलान करने की; और गर्भ विधान निरीक्षण, प्रणाली ही विशेष उपयोगी है।
मनुष्य और दूसरे उन्नत जंतुओं जैसे कुत्तो, बन्दर आदि के मनोव्यापारों में जो विलक्षण सादृश्य है वह सब पर प्रकट है। प्राचीन दार्शनिक मनुष्य की आत्मा और पशु की आत्मा में कोई 'वस्तुभेद' नहीं समझते थे, केवल मात्रभेद समझते थे। ईसाई मत के कारण युरोप में लोग मनुष्य की अमर आत्मा और पशु की नश्वर आत्मा में भेद मानने लगे। इस भेद पर डेकार्ट आदि द्वैतवादी दार्शनिकों ने और भी लोगों का विश्वास जमा दिया। डेकार्ट (सन् 1643) कहता था कि केवल मनुष्य ही को वास्तविक आत्मा है, मनुष्य ही में संवेदन और स्वतन्त्र इच्छा, प्रयत्न आदि होते हैं। पशु केवल जड़ मशीन के तुल्य हैं, उनमें किसी प्रकार की संवेदना या इच्छा, प्रयत्न आदि नहीं। 2 डेकार्ट के पीछे युरोप में बहुत दिनों तक लोगों की यही धारणा रही।

1 मान लीजिए कि आँख पर पहले एक दरजे का प्रकाश पड़ा फिर तुरन्त 100 दरजे का अर्थात उससे सौ गुना प्रकाश पड़ा और हमें एक विशेष अन्तर जान पड़ा। अब यदि एक दरजे के स्थान पर 2 दरजे का प्रकाश पहले पड़े तो फिर 200 दरजे का प्रकाश पड़ने से, अर्थात दो का सौ गुना प्रकाश पड़ने से, उतना ही अन्तर जान पड़ेगा। इसी प्रकार 3 और 300 में वही अन्तर जान पड़ेगा। तात्पर्य यह कि पहली उत्तोजना जितनी गुनी अधिक होगी दूसरी के भी उतनी ही गुनी अधिक होने से उतना ही अन्तर जान पड़ेगा। 14 रत्ती का बोझ यदि हाथ पर (हाथ स्थिर और किसी वस्तु के आधार पर रहे) रखा जाय तो फिर उस पर एक रत्ती और रखने से बोझ में कुछ अन्तर न जान पड़ेगा। जब 5 रत्ती और रखा जायेगा तब जान पड़ेगा। अब यदि पहले 30 रत्ती का बोझ रखा जाय तो फिर 5 रत्ती और रखने से अन्तर न जान पड़ेगा, 10 रत्ती और रखने से जान पड़ेगा। गुरुत्व और शब्द संवेदना में 3-4 का अन्तर पड़ने से भेद मालूम होता है, पेशी के तनाव में 15-16, दृष्टि में 100-101 का।
2 न्याय और विशेषिक ने इच्छा, द्वेष, प्रयत्न आदि को आत्मा का लिंग या लक्षण माना है।

उन्नीसवीं शताब्दी के पिछले भाग में जीवनसृष्टिविज्ञान और शरीरविज्ञान की उन्नति के साथ पशुओं के मनोव्यापारों की ओर तत्ववेत्ताओं का ध्यान गया। मूलर ने अपने शरीर विज्ञान के गूढ़ अन्वेषणों द्वारा पशुबुद्धिपरीक्षा का मार्ग सुगम कर दिया। डारविन के पीछे उसके विकाससिद्धांत का प्रयोग मनोविज्ञान के क्षेत्र में भी किया गया।
वुंट जर्मनी के सबसे बड़े मनोविज्ञानवेत्ता हैं। और दार्शनिकों से उनमें यह विशेषता है कि उन्हें प्राणिविज्ञान, अंगविच्छेदशास्त्र और शरीरव्यापारविज्ञान का भी पूरा पूरा अभ्यास है। उन्होंने भौतिक विज्ञान और रसायन के नियमों का बहुत कुछ प्रयोग शरीरविज्ञान और उससे सम्बद्ध मनोविज्ञान के क्षेत्र में करके दिखाया है। 1863 में उन्होंने अपना 'मानव और पाश्व मनोविज्ञान पर व्याख्यान' प्रकाशित किया और सिद्ध किया कि मुख्य मनोव्यापार 'अचेतन आत्मा' में होते हैं। वुंट ने मस्तिष्क के उन पुरजों को दिखाया जो आत्मा के अचेतन पट पर वाह्य विषय सम्पर्क से उत्पन्न उत्तोजना के प्रभावों को अंकित करते हैं। सबसे बड़ा काम वुंट ने यह किया कि उन्होंने वेगसम्बन्धी भौतिक नियम पहले पहल मनोव्यापारों के क्षेत्र में घटाए और मनस्तत्त्व के प्रतिपादन में शरीरगत विद्युद्विधान की बहुत सी बातों का प्रयोग किया।
30 वर्ष पीछे 1892 में वुंट ने जब अपने ग्रंथ का दूसरा परिवर्तित और संक्षिप्त संस्करण निकाला तब उसमें अपना सिद्धांत एकदम बदल दिया। पहले संस्करण में जो महत्त्व के सिद्धांत निरूपित किए गए थे वे सब परित्यक्त कर दिए गए और अद्वैत भाव के स्थान पर द्वैतभाव स्थापित किया गया। वुंट ने इस दूसरे संस्करण की भूमिका में साफ कहा है कि-'पहले संस्करण में जो भ्रम मुझसे हुए थे उनसे मैं मुक्त हो गया। कुछ दिनों पीछे जब मैंने विचार किया तब मालूम हुआ कि पहले जो कुछ मैंने कहा था वह सब युवावस्था का अविवेक था, वह मेरे चित्ता में बराबर खटकता रहा और मैं जहाँ तक शीघ्र हो सके उस पाप से मुक्त होने के लिए देखता रहा।' इस प्रकार वुंट के ग्रंथके दो संस्करणों में किए हुए मनस्तत्वनिरूपण एक दूसरे के सर्वथा विरुद्ध हैं। पहले संस्करण के निरूपण तो सर्वथा भौतिक हैं और अद्वैतवाद लिये हुए हैं और दूसरे संस्करण के निरूपण आध्यात्मिक और द्वैतभावापन्न हैं। पहले में तो मनोविज्ञान को वुंट ने एक भौतिक विज्ञान मानकर उसका निरूपण उन्हीं नियमों पर किया है जिन नियमों पर शरीरविज्ञान के और सब अंगों का होता है। पर 30 वर्ष पीछे उन्होंने मनोविज्ञान को आध्यात्मिक विषय कहा और उसके तत्त्वों और सिध्दान्तों को भौतिक विज्ञान के तत्त्वों और सिध्दान्तों से सर्वथा भिन्न बतलाया। अपनी मन:शरीर सम्बन्धी व्याख्या में उन्होंने कहा है कि प्रत्येक मनोव्यापार का कुछ न कुछ सहवर्ती भौतिक या शारीरिक व्यापार अवश्य होता है, पर दोनों व्यापार सर्वथा स्वतन्त्र हैं, उनमें कोई प्राकृतिक कार्य कारण आदि सम्बन्ध नहीं। वुंट ने जो इस प्रकार शरीर और आत्मा को पृथक् बतलाकर द्वैतवाद का डंका बजाया उससे दार्शनिक मण्डली में बड़ा आनन्द फैला। द्वैतवादी दार्शनिक यह देखकर कि इतना बड़ा और प्रसिद्ध वैज्ञानिक पहले विरुद्ध मत प्रकट करके पीछे अनुकूल मत प्रकाशित कर रहा है एक स्वर से कहने लगे कि मनोविज्ञान की उन्नति हुई। पर लगातार 40 वर्ष के अध्ययन के उपरान्त अब भी मैं उसी 'अविवेक' में पड़ा हूँ। लाख चेष्टा करने पर भी उससे मुक्त नहीं हो सका हूँ। अत: मैं जोर के साथ कहता हूँ कि जिसे वुंट ने अपनी युवावस्था का 'अविचार' कहा है वही सच्चा विचार है, वही सच्चा ज्ञान है। उस सच्चे विचार का समर्थन बुङ्ढे दार्शनिक वुंट के मत के विरुद्ध मैं बराबर करता रहूँगा।
वुंट, कांट विरशो, रेमण्ड, बेयर इत्यादि का इस प्रकार अपने सिध्दान्तों को बदलना ध्यान देने योग्य है। युवावस्था में तो ये योग्य तत्ववेत्ता जीवविज्ञान के सम्पूर्ण क्षेत्र में अत्यंत विस्तृत अन्वेषण करते रहे और सब तत्त्वों की एक मूल प्रकृति ढूँढ़ने के प्रयत्न में लगे रहे, पर पीछे बुढ़ापा आने पर उसे पूर्णतया साध्य न समझ इन्होंने अपना उद्देश्य ही परित्यक्त कर दिया-अपना रंग ही बदल दिया। इस परिवर्तन का कारण लोग यह कह सकते हैं कि युवावस्था में बुद्धि के अपरिपक्व होने के कारण इन्होंने सब बातों की ओर पूरा पूरा ध्यान नहीं दिया था, पीछे बुद्धि के परिपक्व होने पर और अनुभव बढ़ने पर इन्हें अपना भ्रम मालूम हुआ और इन्होंने वास्तविक ज्ञान का मार्ग पाया। पर यह क्यों न कहा जाय कि युवावस्था में अन्वेषण श्रम की शक्ति अधिक रहती है, बुद्धि अधिक निर्मल और विचार अधिक स्वच्छ रहता है, पीछे बुढ़ाई आने पर जैसे और सब शक्तियाँ शिथिल हो जाती हैं वैसे ही बुद्धि भी सठिया जाती है, जीर्ण हो जाती है। जो कुछ हो, पर वैज्ञानिकों का यह सिद्धांत परिवर्तन मनोविज्ञान में मनन करने योग्य विषय है। इससे यह सूचित होता है कि जीवों के और व्यापारों के समान मनोव्यापार या आत्मव्यापार भी अपना रूप बदलते रहते हैं अर्थात आत्मा भी सदा एकरूप नहीं रहती।
भिन्न भिन्न श्रेणियों के जीवों के मनोव्यापारों को परस्पर मिलान करनेवाली विद्या को तारतम्यिक मनोविज्ञान कहते हैं। इसके लिए यह आवश्यक है कि जिस प्रकार जीवसृष्टिविज्ञान1 में जीवों की ऊँचीनीची परम्परा का क्रम स्थिर है उसी प्रकार मनोव्यापारों की ऊँचीनीची परम्परा का क्रम भी स्थिर किया जाये। ऐसा होने से ही हम समझ सकते हैं कि किस प्रकार एक घटक अणुजीव के क्षुद्र व्यापारों से लेकर मनुष्य के उन्नत मनोव्यापारों तक एक अखंडित शृंखला बँधी हुई है। मनोव्यापारों का यह श्रेणीभेद मनुष्य की भिन्न जातियों में भी परस्पर देखा जाता है। एक अत्यंत असभ्य जाति के जंगली मनुष्य की बुद्धि में और एक अत्यंत सभ्य जाति के मनुष्य की बुद्धि में बड़ा भारी भेद होता है। इसी भेदपरम्परा के अन्वेषण के विचार से असभ्य

1 जूलाजी।

बर्बर जातियों की जाँच की ओर विशेष ध्यान दिया जाने लगा है और मनोविज्ञान के तत्त्वों के निरूपण के लिए भिन्न भिन्न मनुष्य जातियों का विवरण बड़े काम का माना जाने लगा है।
मनोविज्ञान में आत्मा के क्रमविकास का निरीक्षण बहुत जरूरी है। इसके द्वारा जितनी जल्दी हम मिथ्या धारणाओं और भ्रमों को हटाकर आत्मवृत्तियों के यथार्थ रूप का आभास पा सकते हैं उतनी जल्दी और किसी प्रणाली के द्वारा नहीं। विकास के दो रूप मैं पहले बतला चुका हूँ-गर्भविकास और जातिविकास। आत्मा का गर्भविकास या स्फुरण क्रम देखने से यह पता चलता है कि किस क्रम से एक व्यक्ति की आत्मा गर्भकाल से लेकर बराबर वृद्धि को प्राप्त होती जाती है और किन नियमों के अनुसार उसका विधान होता है। शिशु का अन्त:करण किस प्रकार क्रमश: पुष्ट और उन्नत होता जाता है। मातापिता, शिक्षक आदि अत्यंत प्राचीन समय से देखते आ रहे हैं, पर उनके चित्ता में आत्मा की पूर्णता, अमरता आदि की जो धारणा बँधी चली आ रही है उससे उनका देखना और न देखना बराबर हो जाता है। पर अब ईधर कुछ दिनों से बालक की आत्मा के विकासक्रम का विचार होने लगा है। इस विषयपर पुस्तकें भी लिखी गई हैं।
पहले कहा जा चुका है कि जीवसृष्टि में गर्भविकास और जाति विकास का क्रम एक ही है। डारविन ने जीवों की भिन्नभिन्न योनियों के विकास की परम्परा का क्रम दिखाकर उसी क्रम से मनोवृत्तियों के विकास का होना भी दिखाया है। उसने अनेक प्रमाणों द्वारा सिद्ध किया है कि जंतुओं की अन्त:प्रवृत्ति भी जीवों की ओर बातों के समान वृद्धिपरम्परा के नियमाधीन है। विशेष विशेष जीवों में अन्त:प्रवृत्ति की जो विशेषता देखी जाती है वह स्थितिसामंजस्य या अवस्थानुरूप परिवर्तन के कारण होती है। यह विशेषता पैतृक परम्परा द्वारा बराबर आगे की पीढ़ियों में चली चलती है। जीवों की अन्त:प्रवृत्ति का निर्माण और संरक्षण भी उसी प्रकार ग्रहण सिद्धांत1 के नियमानुसार होता है जिस प्रकार और शारीरिक शक्तियों का। डारविन ने कई पुस्तकें लिखकर दिखाया है कि 'मनोविकास' सम्बन्धी वे ही नियम समस्त जीवसृष्टि पर घटते हैं - क्या मनुष्य, क्या पशु, क्या उदि्भद्। जिस प्रकार भिन्न भिन्न जीवों की एक मूल से उत्पत्ति देखने से समस्त जीवसृष्टि की एकता प्रमाणित होती है उसी प्रकार अणुजीव से लेकर मनुष्य तक मनस्तत्तव की एकता भी सिद्ध होतीहै।
रौमेंज ने डारविन के मनोविज्ञान को और प्रवर्द्धित किया। उसने दो ग्रंथविकासक्रमबद्ध मनोविज्ञान पर लिखे जो अपने ढंग से निराले हुए। पहला ग्रंथजंतुओं के मनोविकास पर है। उसमें उसने क्षुद्र जंतुओं के संवेदन व्यापार और अन्त:प्रवृत्ति

1 दे प्रकरण पाँचवाँ।

से लेकर उन्नत जीवों की चेतना और बुद्धि तक की शृंखलाबद्ध परम्परा दिखाई है। दूसरे ग्रंथमें उसने मनुष्य के अन्त:करण का विकास और उसकी शक्तियों का उद्भव दिखाया है। उसमें पूर्णरूप से सिद्ध किया गया है कि मनुष्य और पशु के अन्त:करण या आत्मा में कोई तत्वभेद नहीं है। मनुष्य में संकल्पविकल्पात्मक विचार और प्रत्याहार आदि करने की जो शक्ति है वह दूधा पिलानेवाले मनुष्येतर जीवों के अकल्पनात्मक कोटि के अन्त:संस्कारों से ही क्रमश: स्फुरित और विकसित हुई है। मनुष्य की बुद्धि, वाणी, और आत्मबोध आदि की उन्नत शक्तियाँ किंपुरुष, बनमानुस आदि पूर्वजों की मानसिक शक्तियों से उन्नत होते होते उद्भूत हुई हैं। मनुष्य की अन्त:करण शक्ति और दूसरे जीवों की अन्त:करण शक्ति में केवल मात्रभेद है, तत्वभेद नहीं। शक्ति वही है, पर मनुष्य में वह अधिक है और दूसरे जीवों में कम।


 

 


 


रामचन्द्र शुक्ल ग्रंथावली - 6
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