रामचन्द्र शुक्ल ग्रंथावली -
6
अनुवाद
विश्वप्रपंच
तेरहवाँ प्रकरण - जगत् का विकास
जगत् की उत्पत्ति का विषय बड़ा भारी और बहुत टेढ़ा है। पर उन्नीसवीं शताब्दी
में ज्ञान के विविध क्षेत्रों में जो अद्भुत उन्नति हुई है उससे इस विषय का
बहुत कुछ विचार हो गया है। सृष्टिसम्बन्धी जितनी बातें हैं सब का अन्तर्भाव
जादूभरे एक 'विकास' शब्द में हो जाता है। मनुष्य की उत्पत्ति, पशुओं की
उत्पत्ति, वनस्पतियों की उत्पत्ति, सूर्य, पृथ्वी आदि की उत्पत्ति के
सम्बन्ध में अलग अलग प्रश्न न करके केवल एक ही प्रश्न किया जा सकता है-
समस्त जगत् की उत्पत्ति कैसे हुई? किसी दैवी शक्ति से उसकी सृष्टि हुई है
अथवा प्राकृतिक विधान के अनुसार उसका क्रमश: विकास हुआ है? यदि क्रमश:
विकास हुआ है तो किस प्रकार?
प्राचीन काल की पौराणिक व्याख्या के अनुसार तो सृष्टि बनाई गई है।
धर्मग्रन्थों में सृष्टि की उत्पत्ति के विषय में बड़ी अलौकिक और अद्भुत
कथाएँ मिलती हैं। किताबी या पैगम्बरी धर्मों, यहूदी, ईसाई, इस्लाम आदि के
कारण इन कहानियों का बहुत प्रचार हुआ है। ईसाई धर्म के प्रचार के पहले
यूनान के स्वतन्त्र दार्शनिकों और तत्वज्ञों ने सृष्टि के विकास के सम्बन्ध
में अच्छा विचार किया था। ईसाई धर्म के साथ ही साथ यहूदियों के किस्सों और
कहानियों का प्रचार हुआ। आर्यवंशीय
1 इन अनार्य धर्मों में पुराण हैं, शास्त्र नहीं। एक एक पौराणिक
पुस्तक-तौरेत, इंजील, कुरान आदि को लेकर ही ये धर्म चलते हैं। हिन्दू,
बौद्ध, जैन आदि आर्यधार्मों में पुराण और शास्त्र दोनों हैं। विद्वान् लोग
प्राय: शास्त्री या चर्चा में ही अपना समय लगाते हैं। हिन्दुओं के पुराणों
में जिस प्रकार आदि में जल के ऊपर शेषशायी भगवान् के रहने और उनकी नाभि के
कमल से उत्पन्न ब्रह्मा के चराचर सृष्टि बनाने की कथा है लिखी है, उसी
प्रकार उनके सांख्य शास्त्र में एक अव्यक्त मूल प्रकृति से क्रमश: सम्पूर्ण
तत्त्वों के विकास का गम्भीर निरूपण भी किया गया है। पर ईसाइयों का एकमात्र
आधार उनका पुराण ग्रंथ बाइबिल है जिसमें लिखा है कि ईश्वर ने छ: दिन में
आकाश, पृथ्वी, जल तथा वनस्पतियों और जीवों को अलग अलग उत्पन्न किया, मनुष्य
का पुतला बनाकर उसमें अपनी रूह फूँकी। इसी से युरोप में जब पहले
सृष्टिविकास का निरूपण हुआ तब वहाँ बड़ी खलबली मची।
ज्ञानवृद्ध और स्वतन्त्र यूनानी जाति के आगे अनार्य यहूदी जाति बिलकुल
गँवार और जंगली थी। प्राकृतिक कारण से सृष्टि के क्रमश: विधान का भाव तो
उसके अनुन्नत अन्त:करण में आ नहीं सकता था, अत: यह जगत् की उत्पत्ति को
किसी देवी देवता की करामात समझने के सिवा और कर ही क्या सकती थी? इस
सृष्टिकर्तृत्ववाद में पुरुष विशेषवाद मिला हुआ है। इसे माननेवाले समझते
हैं कि कुम्हार जैसे अनेक प्रकार के बरतन उनके ढाँचे सोच कर बनाता है वैसे
ही सृष्टिकर्ता जगत् को बनाता है। इस सृष्टिकर्ता की भावना मनुष्य या
पुरुषविशेष के रूप में ही की जाती है।
सृष्टि की उत्पत्ति की भावना दो रूपों में देखी जाती है- एक तो सम्पूर्ण
विश्व की उत्पत्ति की और दूसरी उसके विविध अंगों की उत्तरोत्तर उत्पत्ति
की। सृष्टि का एक कर्ता माननेवाले लोगों में जो युक्ति और बुद्धि की भी
दुहाई देते हैं, उनका कहना है कि ईश्वर ने आदि में सम्पूर्ण जगत् का मूल या
बीज उत्पन्न कर दिया, उसमें नाना रूपों के विकास की शक्ति भर दी और फिर
चुपचाप बैठा रहा। यह कथन विशेषत: आजकल के मत संशोधकों का है। ये
विकासपरम्परा को एक प्रकार से मानते हैं पर मूल में जाकर उसे छोड़ देते हैं
और वहाँ अपने सृष्टिकर्ता ईश्वर को स्थापित करते हैं। दूसरे धार्मिक
सृष्टिवादियों का कहना है कि ऐसा नहीं, ईश्वर बराबर सृष्टि का पालन और शासन
करता है, उसे एक बार बनाकर फिर किनारे नहीं हो जाता। इन लोगों के विचार कभी
कभी बढ़ते बढ़ते सर्ववाद तक पहुँच जाते हैं और कभी शुद्ध ईश्वरवाद ही तक रहते
हैं।
जगत् की सृष्टि के सम्बन्ध में जो अनेक प्रकार के विश्वास प्रचलित हैं
उनमें से कुछ ये हैं-
1. द्विविधा सृष्टि- ईश्वर ने दो बार सृष्टि की। एक बार तो उसने जड़जगत्
अर्थात निर्जीव द्रव्य को उत्पन्न किया जो उस भौतिक गतिशक्ति के नियमाधीन
है जो अचेतन रूप में कार्य करती है। फिर चैतन्य का प्रादुर्भाव हुआ जिसकी
स्वतन्त्र शक्ति से जीवधारियों के विकास की व्यवस्था हुई।
2. त्रिाविधा सृष्टि- ईश्वर ने तीन बार करके सृष्टि की। पहले उसने आसमान को
बनाया, फिर जमीन को बनाया, पीछे अपने आकार के अनुसार मनुष्य की रचना की। यह
बात ईसाई मत के उपदेशकों के मुँह से बहुत सुनी जाती है।
3. साप्ताहिक सृष्टि- मूसा की किताब में लिखा है कि छ: दिनों में ईश्वर ने
चटपट सारी सृष्टि बनाकर तैयार कर दी और सातवें दिन आराम किया। पढे लिखे
लोगों में अब शायद ही कोई ऐसा निकले जो इस कहानी को ठीक मानता हो। फिर भी
आजकल के कुछ धर्माभिमानी आधुनिक विज्ञान के शब्दों में इस कहानी की विशद
व्याख्या करने का प्रयत्न करते हैं। अठारहवीं शताब्दी तक जीवविज्ञानियों पर
इस कहानी का बहुत कुछ प्रभाव था। सन् 1735 में लिनी नामक
प्राण्श्निविज्ञानवेत्ता ने जंतुओं का वर्गों में विभाग आदि तो किया पर
भिन्न भिन्न योनियों के विषय में उसने यही कहा कि 'संसार में योनियाँ उतनी
ही हैं जितनी के ढाँचे सृष्टि के आदि में ईश्वर ने उत्पन्न किए थे'। डारविन
ने इस प्रवाद का पूर्णरूप से खंडन कर दिया।
4. कल्पसृष्टि- प्रत्येक जीवकल्प का मन्वन्तर के आदि में फिर से नए जीवों
और वनस्पतियों की सृष्टि होती है और जीवकल्प के अन्त में सबका नाश हो जाता
है। भूगर्भस्थपंजरानुसंधान विद्या ने इस कल्पना की असारता सिद्ध कर दी है।
5. व्यक्तिश: सृष्टि- प्रत्येक जीव जंतु जो उत्पन्न होता है वह प्राकृतिक
नियम के अनुसार नहीं; बल्कि ईश्वर के द्वारा रचा जाता है। यह विश्वास
साधारण जनों का है।
इस प्रकार की ऊटपटाँग कल्पनाओं से प्राचीन काल के विचारशील पुरुषों का भी
समाधान नहीं हुआ। प्राचीन काल के अनेक दार्शनिकों ने शुद्ध चिन्तन के बल से
प्राकृतिक कारणपरम्परा दिखाकर सृष्टितत्व का निरूपण किया। आजकल की सी
वैज्ञानिक परीक्षाएँ सुलभ न होने पर भी उनका उस काल में इस प्रकार तत्व तक
पहुँचना नि:सन्देह आश्चर्य की बात है। भारतवर्ष, यूनान आदि सभ्यता के
प्राचीन पीठों में ऐसे अनेक तत्वदर्शी हो गए हैं पर साम्प्रदायिक कल्पनाओं
का जाल, उनके निरूपित तत्त्वों को लोगों की दृष्टि से छिपाने का बराबर यत्न
करता रहा। युरोप में जब ईसाई मत का प्रचार हुआ तब सब प्रकार के स्वतन्त्र
तात्त्विक विचार दबा दिए गए। ईसाई धर्माचार्यों की कोपाग्नि के भय से कोई
ऐसी बात मुँह से निकाल तक न सकता था जो खुदाई किताब के विरुद्ध पड़ती हो। पर
धीरे धीरे ज्ञान की ज्योति का फिर उदय हुआ और वैज्ञानिक युग आया। प्रकृति
में किस प्रकार उत्तरोत्तर अनेक गुणों और रूपों का स्फुरणा हुआ है, इसका
पता लगा। विकास सिद्धांत की स्थापना हुई। उसके आधार पर विश्व विधान के
नियमों का निरूपण हुआ। विश्व के अन्तर्गत लोकों की उत्पत्ति, पृथ्वी की
उत्पत्ति, वनस्पति जीवजंतु आदि की उत्पत्ति इन सब विषयों को लेकर प्रत्यक्ष
प्राकृतिक नियमों के आधार पर अलग अलग शास्त्रों की नींव पड़ी। विस्तार के भय
से सबका यहाँ पूरा वर्णन न करके चार मुख्य विषयों को लेता हूँ-
(1) जगत् की उत्पत्ति, (2) पृथ्वी की उत्पत्ति, (3) जीवों की उत्पत्ति और
(4) मनुष्य की उत्पत्ति।
1 जगत् की उत्पत्ति
प्राकृतिक नियमों के अनुसार जगत् की उत्पत्ति और विधान की व्याख्या पहले
पहल जर्मनी के तत्वज्ञवर कांट ने सन् 1775 में अपनी एक पुस्तक में की। पर
दुर्भाग्यवंश वह पुस्तक प्रकाशित न होने के कारण 90 वर्ष तक लुप्त रही। सन्
1845 में वह मिली और प्रकाशित की गई। इस बीच में लाप्लेस नामक एक फ्रांसीसी
तत्ववेत्ता भी स्वतन्त्र रीति से उसी सिद्धांत पर पहुँचा जिस सिद्धांत पर
कांट पहुँचा था। इन दोनों तत्वज्ञों ने ग्रहों और नक्षत्रों की गति की गणित
की रीति से भौतिक व्याख्या की और यह दिखलाया कि अन्तरिक्ष के समस्त पिंड
पृथ्वी, ग्रह, उपग्रह, सूर्य इत्यादि सब, घूमती हुई ज्योतिष्क नीहारिका के
जमने से उत्पन्न हुए हैं। इस ज्योतिष्क नीहारिका के सिद्धांत द्वारा
ब्रह्मांड के भिन्न भिन्न लोकों की उत्पत्ति का भौतिक कारण बहुत कुछ समझ
में आ गया। पीछे इस सिद्धांत में और उन्नति हुई और यह स्थिर किया गया कि
लोकों की उत्पत्ति का यह विधान केवल एक ही बार नहीं हुआ है बल्कि बराबर
होता रहता है। जबकि विश्व के किसी एक भाग में घूमती हुई ज्योतिष्क नीहारिका
से नए नए पिंड ब्रह्मांडों की उत्पत्ति होती रहती है, दूसरे भाग में जर्जर
ठंढे पड़े हुए सूर्य परस्पर टकराते हैं और उत्पन्न ताप के प्रभाव से फिर
सूक्ष्म नीहारिका की दशा को प्राप्त हो जाते हैं। विश्व का यह क्रम नित्य
है, उसमें साथ ही कुछ लोकों का लय और कुछ लोकों की उत्पत्ति होती रहती है।
अत: उत्पत्ति और लय हम किसी एक विशेष लोक या लोकमंडल जैसे पृथ्वी आदि सहित
सारा सूर्य, ही के सम्बन्ध में कह सकते हैं, समष्टि विश्व के सम्बन्ध में
नहीं। समष्टिरूप में विश्व सदा से है और सदा रहेगा। अत्यंत क्षुद्र अणुरूप
जो लोक हैं उनके रूपान्तरित होते रहने से उसकी नित्यता में कुछ भी अन्तर
नहीं पड़ सकता।
कांट, लाप्लेस आदि ने ब्रह्मांडों की उत्पत्ति का विधान तो समझाया पर लोगों
की यह धारणा बनी रही कि समस्त विश्व का कोई आदि था। इन तत्वज्ञों का यह कथन
कि आदि में एक अत्यंत सूक्ष्म नीहारिका रूप ज्योतिष्क द्रव्य था; लोकों और
ब्रह्मांडों सूर्य, ग्रह, उपग्रह इत्यादि के सम्बन्ध में था, समष्टि विश्व
के सम्बन्ध में नहीं। पर 'आदि में' इस शब्द का अर्थ लोगों ने यही समझा कि
समस्त विश्व का ही कोई आदि था। इस समझ के कारण यह शंका हुई कि विश्व के आदि
में जो मूल ज्योतिष्क द्रव्य था उसमें गति कहाँ से आई। कुछ दार्शनिक चट
कहने लगे कि वह गति 'अप्राकृतिक शक्ति' या 'दैवी प्रेरणा' से उत्पन्न हुई।
मेरी समझ में इस प्रकार की शंका सर्वथा निर्मूल है। जैसा कि मैं पहले कह
चुका हूँ गति और संवेदन परमतत्व या मूल प्रकृति के गुण हैं। इस बात का
प्रमाण द्रव्य और गति की अक्षरता के नियम से तथा भौतिकविज्ञान की परीक्षाओं
और आधुनिक ज्योतिष के बेधों से बराबर मिलता है। प्रकाश की किरनों की जो
वैज्ञानिक परीक्षा की जाती है उससे पता लग जाता है कि वे किरनें कितनी दूर
से आ रही हैं और किस प्रकार के द्रव्यों से आ रही हैं। इस प्रकार की
परीक्षा से यह सिद्ध हो चुका है कि अनन्त अन्तरिक्ष में जो करोड़ों पिंड
नक्षत्रा, ग्रह, उपग्रह, उल्का, इत्यादि के रूप में हैं वे उन्हीं द्रव्यों
से बने हैं, जिन द्रव्यों से हमारी पृथ्वी और सूर्य आदि बने हैं तथा वे
विकास की भिन्न भिन्न अवस्थाओं में हैं, अर्थात कोई बन रहे हैं, कोई बिगड़
रहे हैं। किरणविश्लेषण यत्रों के सहारे ऐसे ऐसे नक्षत्रों की दूरी और गति
आदि का पता लगा है जिनके विषय में दूरबीन कुछ भी नहीं बतला सकते थे। इसके
अतिरिक्त दूरबीन के साथ फोटोग्राफी का जो संयोग हुआ उसके द्वारा ऐसी बातों
का पता लगा जिनका 50 वर्ष पहले स्वप्न में भी किसी को ध्यान नहीं था।
केतुओं अर्थात पुच्छल तारों, उल्काओं, तारकपुंजों और ज्योतिष्क नीहारिकाओं
का जो सूक्ष्म अन्वीक्षण किया गया उसके द्वारा उन असंख्य छोटे छोटे पिंडों
का महत्त्व प्रकट हुआ जो नक्षत्रों के बीच के अन्तर स्थानों में भरे पड़े
हैं।
पहले लोगों का ख्याल था कि अन्तरिक्ष में घूमनेवाले पिंडों के मार्ग बिलकुल
बँधे हुए हैं, उनमें कुछ भी फेरफार नहीं होता, पर अब यह मालूम हो गया है कि
उनके मार्गों में भी फेरफार पड़ता रहता है। वे एक ही लीक पर बिना कुछ ईधर
उधर हुए बराबर नहीं घूमते रहते हैं। किरणविश्लेषण तथा विद्युतक्रिया और ईथर
के निरूपण आदि भौतिक विज्ञान के अंगों का योग पाकर ईधर ज्योतिष विद्या ने
बहुत ही पूर्णता प्राप्त की है। द्रव्य और गतिशक्ति की अक्षरता सम्बन्धी जो
परमतत्व का नियम निरूपित हुआ उसके द्वारा आधुनिक विज्ञान में बड़ी भारी
सिद्धि प्राप्त हुई। अब हमारी ज्ञानदृष्टि इस सौर जगत् के भी बहुत आगे लोक
लोकान्तरों तक पहुँची है और हमने सर्वत्रा इसी नियम को पाया है। अब हम कह
सकते हैं कि यह नियम सर्वदेशव्यापी है। इसी प्रकार हमें यह भी मानना पड़ता
है कि द्रव्य और शक्ति की अक्षरता का यह नियम सर्वकाल व्यापी है अर्थात
नित्य है। जिस प्रकार समस्त विश्व आज इसके अधीन है उसी प्रकार सदा से रहा
है और सदा होगा।
आधुनिक विज्ञान और ज्योतिष के सहारे विश्व के विधान और विकास के सम्बन्ध
में जो तत्व निरूपित हुए हैं वे संक्षेप में ये हैं-
1. जगत् या विश्व का विस्तार अनन्त है। वह कहीं शून्य नहीं है, सर्वत्रा
द्रव्यमय है।
2. जगत् शाश्वत और नित्य है, वह सदा से है और सदा रहेगा। उसका न कहीं आदि
है, न अन्त।
3. परमतत्व सतत गतिशील और परिणामी है। वह सदा गति में रहता है और उसका
बराबर रूपान्तर या अवस्थान्तर होता रहता है। जगत् में कहीं पूर्ण शान्ति या
अचलता नहीं है। पर इस गति के होते हुए भी जगत् में द्रव्य और सतत परिणामशील
गति की जो मात्र है वह सदा वही रहती है।
4. मूलप्रकृति या परमतत्व की जो नित्य गति है वही लोकों के विकास में कल्प
का रूपधारणा करती है। जिसके भीतर लोकों का विकास और लय होता रहता है।
कल्पों का यह विधान अनन्त विश्व में अलग अलग बराबर चलता रहता है। दिक् के
जिस भाग में विकास कल्प का आंरभ रहता है वहाँ लोकों की उत्पत्ति होती है और
जिस भाग में उसका अन्त होता है वहाँ लोकों का लय होता है। यह क्रम बराबर
साथ ही साथ चलता रहता है।
5. विकास कल्प का आंरभ इस प्रकार होता है कि कल्पान्त के पीछे जब
मूलप्रकृति अल्पकाल के लिए साम्यावस्था में आ जाती है तब फिर से उसके घनत्व
में भेद पड़ता है और स्थूल द्रव्य तथा आकाश द्रव्य अर्थात ईथर इन दो रूपों
में आदि विभाग होता है।
6. यह विभाग द्रव्य के उत्तरोत्तर जमने से होता है जिनके कारण जमाव के
अनन्त केन्द्र बन जाते हैं। केन्द्ररूप परमाणुओं में प्रवृत्ति और संवेदन
परमतत्व के ये ही दो मूल गुण होते हैं जो विविध व्यापारों के कारणस्वरूप
हैं।
7. जब दिक् के एक भाग में जमाव के द्वारा इस प्रकार क्रमश: छोटे से बड़े
पिंडों का विधान होता है और आकाशद्रव्य का तनाव बढ़ता है तब दूसरे भाग में
इसी का उलटा होता है अर्थात बड़े बड़े लोकपिंड एक दूसरे से टकरा कर नष्ट हो
जाते हैं।
8. वेग के साथ भ्रमण करते हुए लोकपिंडों के टकराने से प्रचुर परिणाम में जो
ताप उत्पन्न होता है, वही व्यक्त गतिशक्ति होकर फैली हुई ज्योतिष्क
नीहारिका को अमित वेग से घुमाता है और नए घूमते हुए ज्योतिष्क पिंडों का
विधान करता है। इस प्रकार लोक विधान का क्रम फिर से जारी होता है। इसी
प्रकार हमारी यह पृथ्वी भी, जो न जाने कितने अरब वर्ष पहले इसी प्रकार बनी
थी, अन्त में ठंढी और निर्जीव हो जायगी और अपने घूमने की कक्षा को क्रमश:
छोटी करती हुई अर्थात सूर्य से जितनी दूरी पर वह घूमती है उससे क्रमश: और
कम दूरी पर घूमती हुई सूर्य में जा गिरेगी।
आधुनिक विज्ञान और ज्योतिष के द्वारा निर्धारित ऊपर लिखी बातों से विकास
सिद्धांत के व्यापकत्व का पूरा बोध हो जाता है। विश्व विधान सम्बन्धी इन
बातों पर विस्तृत दृष्टि रखकर यदि हम अपनी पृथ्वी को देखें तो वह रन्धा्रगत
प्रकाश में दिखाई पड़ते हुए त्रासरेणु के तुल्य भी नहीं ठहरती। ऐसे ऐसे
असंख्य लोकपिंड अणुओं के रूप में अपार दिक् समुद्र में भ्रमण कर रहे हैं।
मनुष्य जो मोह में पड़कर अपने को ईश्वरतुल्य कहता है, इस दृष्टि से एक
क्षुद्र जरायुज जंतु के अतिरिक्त और कुछ नहीं ठहरता। अनन्त विश्व विधान में
उसका महत्त्व और उपयोग चींटी, जलकीटाणु आदि से अधिक नहीं दिखाई पड़ता। नित्य
और अनन्त परमतत्व के विकास का मनुष्य जाति एक क्षणिक रूप या अवस्था मात्र
है।
तत्वज्ञवर कांट ने दिक् और काल की व्याख्या करते हुए कहा कि ये दोनों चित्
के स्वरूप या आभास मात्र हैं। दिक् वाह्याभास का स्वरूप है और काल
अन्तराभास का1। ये हमारी अनुभूति या मन के ही दो रूप हैं जिनमें ढला हुआ
सारा जगत्
1 पहले के कुछ दार्शनिक देश और काल को वाह्यपदार्थ मानते थे। विशेषिक में
दिक् और काल नौ द्रव्यों में तो माने गए हैं पर समवायिकारण नहीं कहे गए हैं
केवल असाधारण या निमित्त कारण कहे गए हैं। वे परत्व अपरत्व सम्बन्धी
प्रत्यय अर्थात भाव या ज्ञान के कारण हैं। देश और काल दोनों विभु,
दिखाई पड़ता है। जगत् का चित्तानिरपेक्ष वास्तव रूप क्या है यह मनुष्य कभी
नहीं जान सकता। कांट के इस कथन को लेकर अनेक प्रकार की निराधार दार्शनिक
कल्पनाएँ चल पड़ीं जिनसे जगत् की सत्ता तक में सन्देह किया गया।
कल्पनाप्रधान दार्शनिकों को यह कहने का मौका मिल गया कि वास्तव ज्ञान
निराधार चिन्तन या भावनाओं को लेकर ही हो सकता है, निरीक्षण या परीक्षा की
कोई आवश्यकता नहीं। यह बात कांट के अभिप्राय को न समझने के कारण हुई। कांट
का उक्त कथन प्रमातृपक्ष के सम्बन्ध में था प्रमेय पक्ष के सम्बन्ध में
नहीं। उसका मतलब यह था कि देश और काल को जिस रूप में मन ग्रहण करता है वह
मन ही का रूप है। कांट ने स्पष्ट कहा है कि 'देश और काल की विषयसत्ता है पर
उसकी भावना दृश्य जगत् से अतीत है।' कांट का यह निरूपण हमारे आधुनिक
तत्तवाद्वैतवाद के सर्वथा अनुकूल है। पर उसके सिद्धांत का एक अंग लेकर जो
विस्तार एकांगदर्शी दार्शनिकों ने किया है वह सर्वथा असंगत है। बक्र्ले ने
यह सिद्धांत प्रकट किया था कि 'पिंड प्रत्यय या भावना मात्र हैं; उनकी
सत्ता उनके बोध में ही है।' इस सिद्धांत को इस रूप में कहें तो ठीक हो-
'पिंड हमारे चित्ता के लिए प्रत्यय या भावना मात्र हैं। उनकी सत्ता उसी
प्रकार वास्तविक है जिस प्रकार हमारे अन्त:करण की, जो पिंडों को विषयरूप से
ग्रहण करता है।' देश और काल की सत्ता को अस्वीकार करना कोई आश्चर्य की बात
नहीं है जब कि स्वप्न, सन्निपात, उन्माद आदि में लोग अपनी ऊटपटाँग कल्पनाओं
को ही ठीक समझते हैं। डेकार्ट का प्रत्यक्ष ज्ञान के विरुद्ध यह कहना कि
'मैं सोचता हूँ इसलिए मैं हूँ' अब माना नहीं जा सकता। 1' परमतत्व के नियम
और जगदुत्पत्ति के विधान की अद्वैत व्याख्या हो जाने से आधुनिक दर्शन की
पहुँच
सर्वव्यापी और परम महान् हैं। यद्यपि दिक् एक है और काल भी एक ही है पर
उपाधि भेद से संख्या, परिणाम, पृथकत्व, संयोग और विभाग ये गुण उनमें आरोपित
किए जाते हैं। काल और दिक् में मुख्य भेद यह है कि कालिक सम्बन्ध स्थिर
रहता है और दैशिक सम्बन्ध बदलता रहता है। काल में जो आगे और पीछे होता है
वह सदा ज्यों का त्यों रहता है, जो पहले हो गया वह सदा पहले ही रहेगा जो
पीछे हुआ वह सदा पीछे ही रहेगा। दो भाइयों में जो बड़ा होगा वह सदा बड़ा ही
रहेगा और जो छोटा होगा वह छोटा ही रहेगा पर देश में जो एक बार आगे है वह
पीछे हो सकता है और जो पीछे है वह आगे हो सकता है।
आजकल के मनोविज्ञानवेत्ता भी देश की भावना को नेत्रोन्द्रियगत संवेदन और
पेशीगत गतिसंवेदन के योग से उत्पन्न मानते हैं।
1 डेकार्ट न कहा था कि प्रत्यक्ष ज्ञान में मतभेद देखा जाता है, अत:
वाह्यवस्तुमात्र भ्रम हो सकती है यह संशय रहता है। पर यदि यह निश्चित हुआ
कि मुझे संशय है तो यह भी निश्चित है कि मैं सोचता हूँ। पर जो वस्तु है वही
कुछ कर सकती है। इसलिए यदि मैं विचार करता हूँ तो मैं अवश्य हूँ। 'मैं हूँ'
यही एक निश्चय ऐसा है जिसमें कभी किसी प्रकार का भेद नहीं पड़ सकता। चेतना
में 'आत्मबोध' अर्थात अपने होने का निश्चय सदा एक रहता है यदि भेद पड़ता है
तो उस क्रियाविशेष के बोध में जो विषय ग्रहण में वह आप करती है।
अब बहुत बढ़ गई। उसके अनुसार देश और काल की सत्ता अब पूर्णरूप से प्रतिपादित
हो गई है। अब सौभाग्यवश 'शून्य देश' का भ्रम छूट गया है और सर्वदेशव्यापी
द्रव्य का पिंड और आकाशद्रव्य दो रूपों में अस्तित्व सिद्ध हो गया है। इसी
प्रकार सर्वकालव्यापी व्यापार नित्य गति या शक्ति के रूप में सिद्ध हो गया
है जिसकी अभिव्यक्ति नित्यगतिशील जगत् के ब्रह्मांडों के विकासक्रम के रूप
में होती रहती है।
कोई पिंड यदि चल दिया जाये तो तब तक बराबर चलता रहता है जब तक कि उसे बाहरी
अवरोध नहीं मिलता। पर बाहरी अवरोध अवश्य मिलता है और उसकी गति धीरे धीरे
मन्द हो जाती है। एक लटकता हुआ लंगर यदि हिला दिया जाय तो बराबर एक चाल से
अनन्तकाल तक चलता रहे, यदि चारों तरफ फैली हुई वायु का अवरोध न हो और जिस
जगह वह लटका है वहाँ रगड़ न लगे। इस अवरोध और रगड़ के कारण लंगर में हिलने की
जो व्यक्त गतिशक्ति होती है वह ताप के रूप में होकर निकल जाती है। हमें उस
लंगर को फिर चलाने के लिए कमानी आदि के द्वारा फिर से गतिशक्ति पहुँचानी
पड़ती है। अस्तु हम ऐसी कोई कल नहीं बना सकते जो आप से आप यह गतिशक्ति
पहुँचाती रहे और बराबर चलती रहे; ऐसी कल बनाना असम्भव है जो अनन्त काल तक
चलती रहे कभी बन्द न हो1A
पर विश्व या जगत् की गति ऐसी नहीं है, यह नित्य है। विश्व अपार और अनन्त
है। जिस अनन्त द्रव्य से वह व्याप्त है उसकी भावना या प्रत्यय को ही हम
'देश' या 'दिक्' कहते हैं। उसकी नित्य गति की जो भावना हमारे चित्ता में
होती है उसे हम 'काल' कहते हैं। इस नित्यगति की विषय रूप में जो अभिव्यक्ति
होती है वही विकासकल्प है। अनुभूति के ये दोनों रूप- स्वानुभूति अर्थात
चित्ता को अपने ही संस्कार या भावना का अनुभव और वाह्यानुभूति अर्थात वाह्य
विषय रूप में अनुभव, जगत् की अनन्तता और नित्यता का आभास देते हैं। यह जगत्
सदा से चलती हुई और सदा चलती रहनेवाली कल है। इस अनन्त और नित्य क्रियावान्
जगद्रूप यत्रों की नित्य गति बनी रहती है क्योंकि उसमें अवरोध से होनेवाली
कमी की पूर्ति गतिशक्ति की अक्षय समष्टि से हो जाती है और विश्व मं व्यक्त
और अव्यक्त गतिशक्ति का अनन्त योग सदा वही रहता है। गतिशक्ति की अक्षरता का
जो नियम है उससे जिस प्रकार समष्टि विश्व की नित्यगतिशक्ति सिद्ध होती है
उसी प्रकार उसके किसी खंड व्यापार की नित्यगति असम्भव भी सिद्ध होती है। यह
नित्यगति समष्टि के सम्बन्ध में कही जा सकती है, किसी खंड या व्यष्टि के
सम्बन्ध में नहीं। अस्तु शक्तिलय
1 रेडियम की सहायता से अब ऐसी कल बनाई जा सकती है जो कई सौ वर्ष तक बराबर
आपसे आप चलती है। कुछ घड़ियाँ ऐसी बनाई भी गई हैं। रेडियम एक ऐसा द्रव्य है
जिसे हम ज्योति:स्वरूप या गतिशक्तिरूप कहें तो विशेष अत्युक्ति नहीं।
का सिद्धांत, जिसके द्वारा समस्त जगत् या विश्व का प्रलय कुछ वैज्ञानिकों
ने कहा, कभी माना नहीं जा सकता।
भौतिक विज्ञान में तापसम्बन्धी सिद्धांत के प्रवर्तक क्लाशियस सन् 1850 ने
विश्वव्यापिनी गतिशक्ति को दो प्रकार की बतलाया-एक तो वह जो कार्य रूप में
परिणत हो जाती है, जैसे ऊँचे परिमाण का ताप जिससे भौतिक पिंड विधान तथा
विद्युत् और रासायनिक व्यापार होते हैं और दूसरी वह जो कार्य रूप में परिणत
नहीं हो सकती। क्लाशियस के अनुसार यह दूसरे प्रकार की गतिशक्ति वह है जो एक
बार ताप के रूप में होकर ठंढे पदार्थों में मिल जाती है। यह गतिशक्ति सब
दिन के लिए लय प्राप्त हो जाती है, फिर इससे जगत् का कोई कार्य नहीं हो
सकता। इसी को क्लाशियस ने शक्तिलय कहा है। यह शक्तिलय बराबर बढ़ता जाता है।
इस प्रकार जगत् की जो विधायिनी और कार्यकारिणी गतिशक्ति है वह बराबर ताप के
रूप में परिणत होकर लय को प्राप्त होती जाती है और फिर कार्यकारिणी
गतिशक्ति के रूप में परिणत नहीं हो सकती। अत: जगत् में ताप का जो मात्र भेद
है वह न रह जायेगा। ताप बिलकुल अन्तर्लीन होकर एक अखिल और अचल द्रव्य में
समान रूप से व्याप्त हो जायेगा। इस साम्यावस्था के कारण जगत् की सब प्रकार
की गति बन्द हो जायेगी, जीवजंतु कुछ भी न रह जायेगे। शक्तिलय के इस प्रकार
परमावस्था को पहुँचने पर महाप्रलय या समस्त विश्व का अन्त हो जायेगा।
शक्तिलय का यह सिद्धांत यदि ठीक माना जाय तो जिस प्रकार जगत् का अन्त होगा
उसी प्रकार उसका आदि भी मानना ही पड़ेगा, जिसमें शक्तिलय आरम्भावस्था में
होगा और ताप का मात्रभेद अपनी पूरी हद पर रहेगा। पर ये दोनों बातें द्रव्य
और शक्ति की अक्षरता के सिद्धांत के विरुद्ध हैं। जगत् का न कोई आदि है, न
अन्त। समष्टि रूप में विश्व या जगत् शाश्वत और नित्य गतिवान् है। उसमें
व्यक्त गतिशक्ति निहित और निहित गतिशक्ति व्यक्त के रूप में बराबर परिणत
होती रहती है। दोनों शक्तियों का योग विश्व में सदा वही रहता है।
शक्तिलय की बात विश्व में खंडव्यापारों के सम्बन्ध में ही कही जा सकती है,
विश्वसमष्टि के सम्बन्ध में नहीं। अलग अलग जो विधान होते हैं उनमें अलबत
ऐसा होता है कि जो शक्ति ताप के रूप में अन्तर्लीन हो जाती है वह फिर
क्रिया रूप में नहीं परिणत की जा सकती; जैसे, एंजिन में ताप क्रिया रूप में
तभी परिणत होता है जब वह गरम पदार्थ भाप से निकल कर ठंढे पदार्थ जल में
जाता है। इस प्रकार गए हुए ताप को हम फिर क्रियारूप में नहीं ला सकते, उससे
फिर काम नहीं ले सकते। पर अखिल विश्व विधान की व्यवस्था दूसरी है उसमें
लयप्राप्त गतिशक्ति फिर कार्यरूप में परिणत होती है। जब लोकपिंड वेग से
टकरा कर चूर चूर हो जाते हैं जब प्रचुर मात्र में ताप छूटता है जिससे भ्रमण
करते हुए उल्कासमूहों की और उनसे लोकपिंडों की फिर से उत्पत्ति होती है। यह
भवचक्र बराबर चलता ही रहता है।
2 पृथ्वी की उत्पत्ति
जिस पृथ्वी के निर्माण का संक्षिप्त वृत्तान्त मैं देना चाहता हूँ वह जगत्
का एक अत्यंत क्षुद्र अंश है। पृथ्वी की उत्पत्ति आदि के सम्बन्ध में भी
नाना प्रकार की कल्पनाएँ, अनेक प्रकार के प्रवाद बहुत दिनों से चले आते थे।
इस विषय की वैज्ञानिक रीति से छानबीन सन् 1822 से आंरभ हुई। प्रत्यक्ष
बातों के आधार पर पृथ्वी के क्रमश: वर्तमान रूप में आने के इतिहास का पता
लगाया गया। उसकी अलग अलग तहों की परीक्षा की गई और उनके निर्माण के कारण और
काल आदि निश्चित किए गए। इस प्रकार भूगर्भशास्त्र की नींव पड़ी।
सूर्य से ग्रहपिंडों के निकल निकल कर अलग होने के पहले एक बड़ा भारी गोल
ज्योतिष्कनीहारिका पिंड था जो चक्र के समान अत्यंत वेग से घूमता था। जब यह
पिंड क्रमश: जमने लगा तब केन्द्र रूप ज्वाला का एक घूमता गोला मध्य में हो
गया और किनारे उसी प्रकार घूमते हुए ज्वलंत नीहारिकारूप कटिबन्धा या छल्ले
रह गए। ये छल्ले भी क्रमश: जम कर घने पिंड के रूप में हो गए और स्वतन्त्र
रूप से अपने अपने अक्षों पर फिरते हुए उस मध्यवर्ती ज्वलंत गोले के चारों
ओर परिक्रमा करने लगे। मध्यवर्ती ज्वलंत गोला हमारा सूर्य है और उसकी
परिक्रमा करते हुए पिंड ग्रह हैं। इन्हीं ग्रहों में से हमारी यह पृथ्वी
है। पहले यह भी ज्वलंत गोले के रूप में थी पीछे ताप के निकलने से ऊपरी तह
ठंढी होकर पतले ठोस छिलके या पपड़ी के रूप में हो गई। भूतल जब कुछ और ठंढा
पड़ा तब वह भाप जो उसे चारों ओर से आच्छादित किए थी, जमकर जल के रूप में हो
गई। इस प्रकार पृथ्वी पर जल का आविर्भाव हुआ जो आगे चलकर जीवोत्पत्ति का
आधार हुआ। जल ही में जीवों की उत्पत्ति हुई। जल के बिना जीवों की उत्पत्ति
नहीं हो सकती। भूतल पर जल का प्रादुर्भाव सोचिए तो कब हुआ होगा। कम से कम
दस करोड़ वर्ष हुए होंगे।
3 जीव की उत्पत्ति
इस भूलोक में जीवों का प्रादुर्भाव विकास कल्प की तीसरी अवस्था है। किस
प्रकार पृथ्वी पर भिन्न भिन्न रूप के जीव हुए यह एक बड़ा दुरूह प्रश्न समझा
जाता था। इसका ठीक उत्तर आज से 100 वर्ष पहले कहीं से नहीं मिलता था। पर
आधुनिक जीवविज्ञान और जात्यन्तरपरिणाम या रूपान्तर परम्परा के सिद्धांत
द्वारा इस प्रश्न का उत्तर अब सहज हो गया। जीवधारियों के बहुत से व्यापारों
की व्याख्या अब भौतिक नियमों के अनुसार हो गई है। यह दिखला दिया गया है कि
चेतन प्राणियों
1 जल का एक नाम जीवन भी है।
की गतिविधि भी उन्हीं नियमों के अनुसार होती है जिन नियमों के अनुसार जड़
पदार्थों की। इसका मार्ग पहले पहल 1809 में फ्रांसीसी वैज्ञानिक लामार्क ने
दिखलाया। उसने बतलाया कि आजकल जो असंख्य प्रकार के पेड़ पौधो और जीव दिखाई
पड़ते हैं वे सब एक मूलरूप से क्रमश: रूपान्तरित होते हुए अपने वर्तमान
रूपों को प्राप्त हुए हैं। यह रूपान्तर स्थिति परिवर्तन के अनुसार होता आया
है। जीवोत्पत्ति के सिद्धांत में जो कुछ कसर थी वह डारविन ने अपने
प्राकृतिक ग्रहण सिद्धांत द्वारा पूरी कर दी। यह विषय पाँचवें प्रकरण में आ
चुका है इससे यहाँ दोहराने की आवश्यकता नहीं।
4 मनुष्य की उत्पत्ति
विकास कल्प की चौथी अवस्था वह है जिसमें मनुष्य का प्रादुर्भाव हुआ। सन्
1809 मंच ही लामार्क ने इस बात का आभास दिया था कि मनुष्य का विकास
प्राकृतिक विधान परम्परा के अनुसार बनमानुसों से ही मानना पड़ता है। इसके
पीछे हक्सले ने इस सिद्धांत का समर्थन अंगविच्छेद शास्त्र, गर्भविज्ञान और
भूगर्भस्थ पंजरपरीक्षा द्वारा किया। अन्त में डारविन ने सन् 1860 में अपने
'मनुष्य की उत्पत्ति' नामक ग्रंथ में इसे अनेक प्रकार से सिद्ध कर दिखाया।
मैंने भी 1866 में विविध जंतुओं के अंग विधान पर जो पुस्तक लिखी थी उसमें
विकास सिद्धांत पर एक प्रकरण दिया था। सन् 1874 में अपने मानवोत्पत्ति नामक
ग्रंथ में मैंने पहले पहल मूल अर्थात एक घटक अणुजीव मोनरा से लेकर
मनुष्यपर्यन्त उत्पत्तिपरम्परा का क्रम मिलाया। मैंने दिखलाया कि किस
प्रकार एक मूल अणुजीव से अनेक प्रकार के जीव क्रमश: उत्पन्न होते गए हैं और
मनुष्य का भी इसी परम्परा के अनुसार विकास हुआ है। अस्तु, मनुष्य का भी
सबसे आदिम मूल पूर्वज मोनरा के ऐसा कोई सूक्ष्म अणुजीव रहा होगा।
चौदहवाँ प्रकरण -प्रकृति की अद्वैत सत्ता
परमतत्व के नियम द्वारा सिद्ध होनेवाली सबसे बड़ी बात यह है कि एक प्रकार की
प्राकृतिक शक्ति परिणाम द्वारा दूसरे प्रकार की प्राकृतिक शक्ति का
रूपधारणा कर सकती है। शब्द और ताप, प्रकाश और विद्युत् आदि शक्तियाँ एक
दूसरे के रूप में परिवर्तित की जा सकती हैं। वे एक ही मूलशक्ति के भिन्न
भिन्न रूप मात्र हैं। इस प्रकार सब प्राकृतिक शक्तियों की मौलिक एकता या
अद्वैतता सिद्ध होती है। यह सिद्धांत भौतिक विज्ञान और रसायनशास्त्र में,
जहाँ तक उनका सम्बन्ध जड़ पदार्थों से है, सर्वस्वीकृत है।
पर सजीव सृष्टि के सम्बन्ध में यह बात नहीं है। शरीर के बहुत से व्यापारों
का तो भौतिक और रासायनिक शक्ति के द्वारा, प्रकाश और विद्युत् के प्रभाव
से, होना प्रत्यक्ष रूप से बतलाया जा सकता है। ये व्यापार भौतिक और
रासायनिक कारणों से होते हैं, इसमें किसी को कोई सन्देह नहीं। पर कुछ
व्यापार ऐसे हैं, विशेषकर मनोव्यापार और चेतना, जिनके यदि भौतिक और
रासायनिक कारण बतलाए जाते हैं तो लोग विरोध करते हैं। विरोध भी ऐसा वैसा
नहीं, बड़ा गहरा। पर आधुनिक विकाससिद्धांत ने सिद्ध कर दिया है कि इन दोनों
कोटि के व्यापारों में जो भेद प्रतीत होता है वह वास्तविक नहीं है। अब यह
निश्चित हो गया है कि शरीर के समस्त व्यापार क्या चलना फिरना, क्या सोचना
विचारना, उसी प्रकार भौतिक नियमों के वशवर्ती हैं जिस प्रकार जड़ पदार्थों
के व्यापार।
इस प्रकार प्रकृति की अद्वैतता सिद्ध हो गई है और द्वैतभाव का खंडन हो गया
है। 'जगत् की मूल अद्वैतता', जड़ सृष्टि और चेतन सृष्टि की वास्तविक
अभिन्नता, उनके व्यापारों का द्रव्य और गतिशक्ति के विविध रूपों में
अन्तर्भाव दिखाकर, अपने कई ग्रन्थों में मैं सिद्ध कर चुका हूँ। अधिकांश
वैज्ञानिकों ने इसे स्वीकार कर लिया है, पर कई तरफ से इसके विरोध का भी
प्रयत्न किया गया है और सृष्टि के इन दोनों विभागों जड़ और चेतन में तत्वभेद
सिद्ध करने की प्रवृत्ति दिखाई गई है। इस द्वैतभाव के बड़े भारी समर्थकों
में से उदि्भद्वेता रेन्के है जिसने कहा है कि 'जड़सृष्टि में तो केवल भौतिक
और रासायनिक शक्तियों ही के द्वारा सब व्यापार होते हैं पर सजीव सृष्टि में
चेतन शक्तियाँ कार्य करती हैं।' उनके अनुसार जड़ सृष्टि द्रव्य और भौतिक
गतिशक्ति के नियमाधीन है पर चेतन सृष्टि नहीं। इस कथन पर विचार करने के
पहले दूसरे दो सिध्दान्तों का उल्लेख कर देना चाहिए जो वैज्ञानिकों ने सजीव
सृष्टि के सम्बन्ध में स्थिर किए हैं। इनमें एक है अंगारक (कार्बन)
सिद्धांत और दूसरा है स्वत: उत्पत्ति का सिद्धांत।
शारीरिक रसायन ने अनेक विश्लेषणों के उपरान्त ये पाँच बातें स्थिर की हैं-
1- सजीव पिंडों में वे ही मूल द्रव्य पाए जाते हैं जो जड़ सृष्टि में पाए
जाते हैं।
2- मूलद्रव्यों के जिन मिश्रणों से सजीव पिंड बनते हैं और जिनके कारण अनेक
प्रकार के सजीव व्यापार होते हैं वे शरीर धातुओं के कललरसरूप यौगिक द्रव्य
हैं।
3- शरीरव्यापार एक भौतिक और रासायनिक क्रिया है जो इन कलल धातुओं के
द्रव्यों के गुण और परिणाम के आधार पर होती हैं।
4- अंगारक या कार्बन ही वह मूल द्रव्य है जिसमें कुछ और मूलद्रव्यों
अम्लजन, उद्जन, नत्राजन और गन्धक आदि के विशेष मात्र में मिश्रित होने से
यौगिक कललधातुएँ बनती हैं।
5- अंगारक या कार्बन से बनी हुई इन यौगिक कलल धातुओं में और मूलद्रव्यों के
रासायनिक संयोग से बने दूसरे यौगिक द्रव्यों में यह विशेषता होती है कि
इनके अणुओं का मेल अत्यंत जटिल होता है और ये अस्थिर तथा मधु की तरह गाढ़े
रस की होती हैं।
इन पाँच बातों के आधार पर अंगारक सिद्धांत की प्रतिष्ठा हुई जो इस प्रकार
है-'अंगारक से अत्यंत जटिल मिश्रण के द्वारा बनी हुई इन यौगिक कलल धातुओं
के द्रवत्व और विश्लेषणशीलत्व आदि गुण ही उन विशिष्ट गतियों के एकमात्र
कारण हैं जो जीवधारियों में देखी जाती हैं।' इस अंगारक सिद्धांत का कहीं
कहीं विरोध तो किया गया पर इससे अधिक उपयुक्त कोई और सिद्धांत स्थिर नहीं
हुआ। ईधर मूल घटकों के जीवन व्यापार का जो अधिक अन्वीक्षण किया गया और
कललरस की रासायनिक और भौतिक विशेषताओं का जो पता लगा, उससे इस सिद्धांत का
समर्थन अच्छी तरह हुआ है।
अब स्वत:उत्पत्ति1 को लीजिए। 'स्वत:उत्पत्ति' से लोग कई अर्थ लेते हैं,
इससे उसके सम्बन्ध में बहुत झगड़ा है। अत: इसका अर्थ विशिष्ट और स्पष्ट हो
जाना चाहिए। स्वत: उत्पत्ति से अभिप्राय है जीवसृष्टि के आदि में जड़ अंगारक
द्रव्यों से
1 ए बायोजेनेसिस वह उत्पत्ति जो जनक पिंड से छूटकर पृथक् होनेवाले अंश की
वृद्धि द्वारा जैसा कि समस्त प्राणियों में होता है, न हो, किन्तु जड़
द्रव्य से आप से आप हो।
सजीव कललरस का प्रथम प्रादुर्भाव। जीवसृष्टि के इस आंरभ की दो अवस्थाएँ कही
जा सकती हैं- प्रथम अंगारक घटित द्रव्यों से कललरस की योजना और द्वितीय
कललरस का अलग अलग आदिम अणुजीवों में विभाग। इस प्रकार का स्वयं भूतवाद
विकास सिद्धांत के अनुसार अवश्य मानना पड़ता है, और वैज्ञानिकों ने माना भी
है। इसे न मानना जीवोत्पत्ति को 'ईश्वर की लीला' या 'खुदा की करामात' मानना
है।
स्वत:उत्पत्ति मान लेने पर फिर वह मानने की आवश्यकता नहीं रह जाती कि
सृष्टि की रचना किसी उद्देश्य रखनेवाले ने अपने उद्देश्य के अनुसार की है।
जगत् या प्रकृति से भिन्न कोई उद्देश्य रखनेवाला है इस द्वैतभाव की कोई
आवश्यकता नहीं रह जाती। डारविन ने अपने 'प्राकृतिक ग्रहण सिद्धांत' का एक
ऐसा सूत्र हमारे हाथ में दे दिया है जिसके सहारे हम चेतन सृष्टि में जो
अनेक प्रकार की क्रम व्यवस्था दिखाई पड़ती है उसके भौतिक और प्राकृतिक हेतु
निरूपित कर सकते हैं। अब किसी उद्देश्य रखनेवाली अप्राकृतिक शक्ति को मानने
की जरूरत बाकी नहीं है। फिर भी कुछ लोग उसे अब तक मानते चलते जाते हैं।
तत्वज्ञवर कांट ने उपादान कारण और निर्मित्त कारण में जैसा गूढ़ भेद किया है
वैसा और किसी दार्शनिक ने नहीं। इसी भेद के अनुसार उसने जगद्विधान की
व्याख्या की है। जगत् के सम्पूर्ण विस्तारजाल की व्याख्या उसने न्यूटन के
निर्धारित भौतिक नियमों के अनुसार की है। उसका ज्योतिष्क नीहारिका सिद्धांत
न्यूटन के आकर्षण सिद्धांत पर स्थित है। फ्रांसीसी ज्योतिषी लाप्लेस ने
कांट के सिद्धांत की पुष्टि गणित की रीति से की। फ्रांस के बादशाह ने उससे
पूछा कि आपने 'अपने सृष्टि निरूपण में सृष्टि के कर्ता और पालक ईश्वर को
कहाँ स्थान दिया है'? उसने बड़ी सच्चाई के साथ जवाब दिया कि 'महाराज, अपने
निरूपण में मुझे उसके मानने की जरूरत नहीं पड़ी है'। अत: जगदुत्पत्ति
विज्ञान में भी और दूसरे जड़ पदार्थ सम्बन्धी विज्ञानों के समान ईश्वर को
मानने की आवश्यकता नहीं पड़ी है। उसकी भी वैज्ञानिक व्याख्या भौतिक नियमों
के अनुसार हुई है।
आपसे आप होनेवाले भौतिक विधानों के द्वारा ही हम प्राकृतिक व्यापारों के
यथार्थ कारणों अर्थात समवायिकारणों का निरूपण कर सकते हैं और यह बतला सकते
हैं कि सब व्यापार द्रव्य की अचेतन और अन्धा प्रवृत्तियों के द्वारा होते
हैं। कांट ने भी एक जगह साफ कहा है कि 'भूतों के इस स्वत:प्रेरित विधान की
व्याख्या के बिना कोई विज्ञान को विज्ञान नहीं कहा जा सकता। मनुष्य बुद्धि
में व्यापारों के भौतिक हेतु निरूपित करने की अपार सामर्थ्य है।' पर पीछे
जब कांट सजीव सृष्टि के जटिल व्यापारों की ओर आया तब उसने कह दिया कि भौतिक
हेतु पर्याप्त नहीं है, इन व्यापारों की व्याख्या के लिए हमें निमित्त
कारणों का सहारा लेना पड़ता है और यह मानने के लिए विवश होना पड़ता है कि ये
व्यापार किसी उद्देश्य रखनेवाली विधायिनी शक्ति की प्रेरणा से होते हैं।
बुद्धि की भौतिक हेतु निरूपण की शक्ति वहाँ परिमित हो जाती है। जीवधारियों
के विविध व्यापारों की व्याख्या करने में कुछ दूर तक तो वह चलती है पर बहुत
से व्यापार, विशेषत: मानसिक, ऐसे हैं जिनके लिए हमें निमित्त कारणों का
आरोप करना पड़ता है; यह मानना पड़ता है कि वे व्यापार उद्देश्य रखने वाली
स्वतन्त्र शक्ति के द्वारा होते हैं। किसी पदार्थ के प्राकृतिक उद्देश्य को
समझने के लिए स्वयंभू भौतिक विधान को उद्दिष्ट विधान के अधीन मानना पड़ता
है, कांट ने अन्त में यही प्रतिपादन किया। जीवधारियों के विलक्षण कौशल के
साथ बने हुए अवयवों और उनके व्यापारों की व्यवस्था को देख कांट को उनका
'शुद्ध और भौतिक हेतु निरूपित करना असम्भव प्रतीत हुआ। उसने कहा कि शुद्ध
भौतिक और प्राकृतिक सिध्दान्तों के आधार पर ही किसी सजीव पिंड और उसकी
अन्तर्वृत्ति अर्थात अन्त:करण व्यापार का वास्तविक तत्व समझाना तो दूर रहा,
समाधान पूर्वक समझना भी कठिन है। किसी मनुष्य की यह आशा दुराशामात्र है कि
प्राणिविज्ञान में भी कोई न्यूटन पैदा होगा जो एक क्षुद्र तृण तक की
उत्पत्ति को जड़ प्रकृति का ही कार्य सिद्ध कर देगा; जो यह प्रमाणित कर देगा
कि भिन्न भिन्न जीवों की रचना एक सोचे समझे हुए ढाँचे के अनुसार नहीं बल्कि
आप से आप भौतिक नियमों के अनुसार होती है'। बतलाने की जरूरत नहीं कि कांट
के 70 वर्ष पीछे डारविन के रूप में 'सजीवसृष्टि विज्ञान का न्यूटन' पैदा
हुआ और उसने उस बात को कर दिखाया जिसे कांट ने असम्भव बतलाया था।
जबसे न्यूटन ने आकर्षण सिद्धांत का प्रतिपादन किया और कांट, लाप्लेस आदि ने
जगत् की योजना और उत्पत्ति को स्वत: क्रियामाण भूतों का विधान सिद्ध कर
दिया तबसे जड़सृष्टि सम्बन्धी समस्त विज्ञान शुद्ध भौतिक हो गए और उनमें
ईश्वर या भूतातीत शक्ति मानने की आवश्यकता नहीं रह गई। ज्योतिष,
जगदुत्पत्ति शास्त्र, भूगर्भशास्त्र, पदार्थविज्ञान, रसायन इत्यादि सब में
व्यापारों की व्याख्या नपे-तुले भौतिक नियमों के अनुसार होती है। किसी
व्यापार को ईश्वरकृत कह देने की चाल अब उनमें नहीं है। जड़ सृष्टि में जो
कुछ दिखाई पड़ता है वह किसी की इच्छानुरूप रचना है ऐसा इन विज्ञानों में
कहीं नहीं प्रतिपादित किया जाता। 'इच्छानुरूप रचना' का भाव ही जड़ सृष्टि
सम्बन्धी विज्ञान के क्षेत्र से उठ गया। अब कोई वैज्ञानिक इस बात की
जिज्ञासा करने नहीं जाता कि अमुक व्यापार जो जड़ सृष्टि में देखा जाता है
उसका 'उद्देश्य' क्या है। अब कोई वैज्ञानिक यह विश्वास नहीं रखता कि ईश्वर
या किसी उद्देश्य रखनेवाली शक्ति ने कभी किसी समय सृष्टि का सारा ढाँचा
सोचकर जगत् का विधान करनेवाले नियमों की सृष्टि की थी और उन्हें अपनी इच्छा
के अनुसार बराबर चला रहा है। इस प्रकार के पुरुषविशेष या कर्ता के स्थान पर
अब 'प्रकृति के अखंड और शाश्वत नियम' ही माने जाते हैं।
पर सजीव सृष्टि को देखकर 'किसी की इच्छानुरूप रचना' का भ्रम अवश्य होता है।
जीवधारियों के शरीर की बनावट और अंगव्यापारों को देखने से यह प्रतीत अवश्य
होता है कि उनकी रचना सोचे विचारे हुए उद्देश्य के अनुसार हुई है। जंतुओं
और पेड़-पौधों के अवयव उसी प्रकार बैठाए हुए पाए जाते हैं जिस प्रकार किसी
मनुष्य की बनाई हुई कल के पुरजे बैठाए हुए होते हैं। जीवित अवस्था में इन
अवयवों के व्यापारों से विशेष उद्देश्यों की पूर्ति उसी प्रकार होती दिखाई
पड़ती है जिस प्रकार कल के बनाए हुए पुरजों की चाल से। अत: ज्ञान की
प्रारम्भिक अवस्था में यही ख्याल हो सकता था कि सृष्टि का कोई पूर्ण
ज्ञानमय कर्ता है जिसने प्रत्येक पेड़-पौधो और जीव-जंतु के ढाँचे को खूब
सोचसमझ कर चतुराई के साथ बनाया है। पहले तो इस सर्वशक्तिमान् सृष्टिकर्ता
की भावना पुरुष विशेष के रूप में थी। जब तक वह नराकार समझा जाता था, आँखों
से देखनेवाला, कानों से सुननेवाला, हाथों से करनेवाला माना जाता था, तब तक
तो उसका स्वरूप थोड़ा बहुत ध्यान में आ भी जाता था। पर पीछे जब बुद्धिमान्
बननेवाले लोगों ने उसको निराकार बताया और वे 'बिनु पद चलै, सुनै बिनु काना।
कर बिनु कर्म करै बिधि नाना' कहने लगे तब तो उसका ध्यान में आना ही असम्भव
हो गया। वैज्ञानिकों ने ईधर यह चाल पकड़ी कि वे पुरुष विशेष के स्थान पर एक
'शक्तिविशेष' कहने लगे। शरीरव्यापारविज्ञान में बहुत से लोगों ने चेतन
सर्वशक्तिमान् कर्ता के स्थान पर एक अचेतन विधायिनी शक्ति का आरोप किया जो
भौतिक गतिशक्ति से भिन्न और परे होने पर भी उसे अपने अधीन कार्य में
नियोजित करती है। शरीरव्यापारविज्ञान में यह 'शक्तिवाद' बहुत दिनों तक चलता
रहा। सन् 1833 में मूलर ने इस 'शक्तिवाद की जड़ हिलाई। उसने अनेक प्रकार की
परीक्षाओं द्वारा प्रमाणित किया कि मनुष्य तथा और जीवों के शरीर के अधिकतर
व्यापार भौतिक और रासायनिक नियमों के अनुसार होते हैं और उनमें बहुत से तो
ऐसे हैं जिनके विषय में यह बतलाया जा सकता है कि वे किस हिसाब से होते हैं।
उसने रक्तसंचालन, पाचन और खाए हुए द्रव्य के शरीर की धातु में परिणत होने
की प्रक्रिया से लेकर संवेदनसूत्रों जिनसे शरीर में संवेदना होती है, और
पेशियों जिनसे अंगों में गति होती है, की गति तक को भौतिक और रासायनिक
क्रिया विधान सिद्ध कर दिया। प्रजनन और मानसिक व्यापार अर्थात विचार,
चिन्तन आदि ये ही दो बातें ऐसी रह गईं जिनका समाधान बिना कोई शक्ति विशेष
माने शुद्ध भौतिक कारणों के द्वारा न हो सका। पर मूलर की मृत्यु के उपरान्त
ही डारविन का प्रसिद्ध ग्रंथ प्रकाशित हुआ जिसमें ग्रहण सिद्धांत के द्वारा
यह दिखला दिया गया कि शरीरयोजना में जो व्यवस्था क्रम दिखाई पड़ता है वह
भौतिक कारणों ही से उत्पन्न होता है। डारविन ने अपने ग्रहणसिद्धांत द्वारा
भिन्न भिन्न ढाँचे के जीवों के बनने का प्राकृतिक विधान और कारण समझा दिया।
उसने प्रतिपादित किया कि 'जीवन प्रयत्न' ही ऐसी मूल वृत्ति है जिसके अधीन
एक ढाँचे के शरीर से दूसरे ढाँचे के शरीर का क्रमश: विकास होता है। जिस
स्थिति या अवस्था के बीच जीव रहते हैं वह परिवर्तनशील होती है। चारों ओर की
स्थिति के बदलने से कुछ जीवों में कुछ अवयवों की विशेषताएँ उत्पन्न होती
हैं जो उस परिवर्तित स्थिति के उपयुक्त होती हैं। फिर उन जीवों की जो
सन्तति होती है उसमें भी वे ही विशेषताएँ रहती हैं। इस प्रकार नए ढाँचे के
जंतुओं का विकास होता है जो अपने पूर्वज जंतुओं से भिन्न होते हैं। इसी
प्राकृतिक नियम के अनुसार एक सादे ढाँचे के मूल अणुजीव से भिन्न भिन्न
ढाँचों के जीव क्रमश: उत्पन्न हुए हैं। अत: क्रिया के अनुकूल ढाँचे बिना
किसी उद्देश्य रखनेवाले के केवल भूतों की जड़क्रिया से किस प्रकार उत्पन्न
हो सकते हैं, लोग जो यह पूछा करते थे उसका उत्तर मिल गया। अब तो जीवों के
अत्यंत जटिल और सूक्ष्म विधानों की व्याख्या 'व्यापार के अनुकूल शरीर की
आपसे आप उत्पत्ति' मानकर की जाती है। अब भूतों से परे किसी उद्देष्टा या
विधायिनी शक्ति को मानने की आवश्यकता नहीं है।
पर ईधर कुछ दिनों से भूतातीत 'विधायिनी शक्ति' का भूत फिर कुछ लोगों के सिर
पर सवार हुआ है। कई एक जीवविज्ञानियों ने उसकी चर्चा नए ढंग से चलाई है।
उदि्भद्वेता रेनके ने इस विषय में विशेष प्रयत्न किया है। उसने सजीव सृष्टि
के विधान को प्रेरणा करनेवाली एक शक्ति का कार्य बतलाया है और पौराणिक
(बाइबिल की) सृष्टिकथा आदि के मण्डन की चेष्टा की है। दूसरे नए
शक्तिवादियों ने एक पुरुषविशेष या कर्ता माना है जिसने सब जीवधारियों को
उनके जीवनव्यापार के अनुकूल शरीर के ढाँचे सोच समझकर प्रदान किए हैं। पर
ऐसी बातों पर वैज्ञानिक लोग अब ध्यान नहीं देते।
जीवों के ढाँचों को किसी पूर्णज्ञानमय सर्वज्ञ कर्ता ने अपनी इच्छा के
अनुसार सब बातों को सोच कर बनाया है; इसका कोई प्रमाण भिन्न-भिन्न जीवों के
शरीर निरीक्षण से नहीं मिलता है। भिन्न-भिन्न जीवों के शरीर का यदि
निरीक्षण किया जाय तो प्राय: सब में कुछ न कुछ ऐसे फालतू अवयव मिलेंगे
जिनका कोई काम नहीं और जिनसे कभी कभी बड़ी हानि पहुँच जाती है। बहुत से
पौधों के फूलों में स्त्री और पुरुष केसरों के अतिरिक्त जिनसे गर्भाधान
होता है, बहुत से ऐसे दल होते हैं जिनका कोई प्रयोजन नहीं। उड़नेवाले
फतिंगों और पक्षियों में बहुत से ऐसे होते हैं जिनके पर बेकाम होते हैं, जो
उड़ नहीं सकते। बहुत से ऐसे जंतु होते हैं जो अंधेरे में रहते हैं, जिन्हें
आँखें तो होती हैं पर वे देखने के काम की नहीं होतीं, निरर्थक होती हैं।
मनुष्य के शरीर में बहुत से अवयव ऐसे हैं जो निरर्थक हैं, जो मूल पूर्वज
अवस्था के अवशिष्ट चिन्ह मात्र हैं। कान की मांसपेशियाँ, पुरुषों के
स्तनचिन्ह, चुचुक आदि इसी प्रकार के अवयव हैं। बन्द बड़ी आँत निरर्थक ही
नहीं भयंकर भी है। इसकी सूजन से प्रतिवर्ष न जाने कितने मनुष्य मरते हैं1A
इन निरर्थक विधानों का आधुनिक शक्तिवाद कोई हेतु नहीं दे सकता, पर विकास
द्वारा उत्पति क्रिया का जो सिद्धांत है उसकी दृष्टि से विचार करने पर इनके
1 इस बन्द आँत को युरोप में अब कुछ लोग निकलवा देते हैं और कष्ट तथा
प्राणभय से बच जाते हैं।
रहने का कारण सहज में समझ में आ जाता है। विकास की दृष्टि से यदि देखा जाय
तो पता लग जाता है कि ये अवयव प्रयोग के अभाव से क्षीण और बेकाम हो गए हैं।
जिस प्रकार हमारी इन्द्रियाँ, पेशियाँ और नाड़ियाँ इत्यादि अधिक प्रयोग के
द्वारा सबल और पुष्ट होती हैं, उसी प्रकार व्यवहार में न आने या कम आने से
वे विकल और बेकाम हो जाती हैं। प्रयोग के अभाव से अवयव क्षीण और बेकाम तो
हो जाते हैं पर उनके चिन्ह एक बारही में नहीं मिट जाते, वंशपरम्परा के
नियमानुसार वे बहुत पीढ़ियों तक बने रहते हैं, धीरे-धीरे बहुत काल बीतने पर
वे लुप्त होते हैं। भिन्न भिन्न अवयवों के बीच भी स्थिति के लिए जो
अन्धाप्रयत्न चलता रहता है उसी के अनुसार कुछ अवयवों की वृद्धि और कुछ का
ह्रास आप से आप होता है। इसमें किसी उद्देश्य रखनेवाले का कोई और भीतरी
मतलब नहीं है।
जिस प्रकार मनुष्य के शरीर विधान में कुछ अपूर्णता रहती है उसी प्रकार और
जंतुओं और पौधों के शरीर विधान में भी पाई जाती है। बात यह है कि प्रकृति
नित्य परिणामी है। वह सदा परिणाम की अवस्था में रहती है, उसमें बराबर
फेरफार होता रहता है। जहाँ तक हमारे इस भूग्रह की सजीव सृष्टि को देखने से
पता लगता है, विकास की गति द्वारा सजीव पिंड सादे से जटिल, क्षुद्र से
उन्नत और अपूर्ण से पूर्ण होते रहते हैं। पूर्णता प्राप्ति का यह विधान
प्राकृतिक ग्रहणवृत्ति द्वारा होता है, किसी सोची समझी हुई युक्ति के
अनुसार नहीं। इसका प्रमाण यह है कि कोई सजीव पिंड सर्वांगपूर्ण नहीं रहता
है। यदि किसी समय वह स्थिति के सर्वथा अनुकूल घटित होकर पूर्णता प्राप्त भी
करता है तो भी यह पूर्णता बहुत काल तक नहीं चलती, क्योंकि स्थिति में बराबर
परिवर्तन होता रहता है। सन् 1876 में प्रसिद्ध जीवविज्ञानी बेयर ने
उद्देश्यवाद का जो नए ढंग से समर्थन किया वह शक्तिवादियों और दैववादियों को
बहुत भाया, उसकी बातों को लेकर अब तक लोग उछला कूदा करते हैं। यद्यपि बेयर
अत्यंत उच्च कोटि का विज्ञानवेत्ता था पर ज्यों ज्यों वह बुङ्ढा होने लगा
उसके तात्त्विक विचार क्षीण होने लगे यहाँ तक कि अन्त में वह शरीर और
आत्मा, द्रव्य और शक्ति को परस्पर भिन्न माननेवाला पूरा द्वैतवादी हो गया।
गर्भांड के वृद्धिक्रम का सूक्ष्म निरीक्षण करके उसने उन उत्तरोत्तर
होनेवाले परिवर्तनों को दिखलाया जिनसे वह अंडे से रीढ़वाले जीव के रूप में
आता है। उसने उन परिवर्तनों के कारणों और नियमों का भी पता लगाया और यह
सिद्धांत स्थिर किया कि व्यक्ति के विकास का जो यह क्रम है वही व्यक्तित्व
मात्र के विकास का क्रम है। इस सिद्धांत से उसने यह तत्व निकाला कि 'वह
परमभाव जिसके अनुसार अनेक रूपों में जंतुओं का विकास होता है वही है जिसके
अनुसार अन्तरिक्ष के विकीर्ण खंड लोकपिंडों के रूप में बने और सौरब्रह्मांड
का विधान हुआ। वह परमभाव ही जीवन है। विविध प्रकार के जीव ही वे वर्ण और
शब्द हैं जिनमें वह परमभाव व्यक्त होता है। बेयर का यह उद्देश्यरूप परमभाव
प्लेटो1 और अरस्तू के 'नित्यभाव' की पुनरुक्ति मात्र है।
बतलाने की आवश्यकता नहीं कि बेयर ने सृष्टि के उत्पत्तिक्रम के एक ही अंग
पर दृष्टि डाली थी, उसने गर्भ से लेकर एक एक जीव के उत्पत्तिक्रम का ही
विचार किया था। इसी क्रम से जीवों की भिन्न भिन्न योनियों और जातियों की भी
उत्पत्ति हुई है, यह बात उसे नहीं सूझी थी यद्यपि सन् 1809 में ही लामार्क
ने इस बात की ओर ध्यान दिलाया था। अत: जब सन् 1859 में डारविन ने इसे
सिद्धांत रूप में प्रकट किया और अपने ग्रहण सिद्धांत की स्थापना की तब बेयर
इसे स्वीकार न कर सका। वह इसका विरोध ही करता रहा। जीवोत्पत्ति की यह बात
बेयर की समझ में न आई कि गर्भावस्था से लेकर जिस क्रम से किसी एक जीव
(व्यक्ति) का उत्तरोत्तर विकास होता है उसी क्रम से आदिम अणुजीवों से भिन्न
भिन्न जीववर्गों का भी विकास हुआ है।
इतिहास के क्षेत्र में न्यायपूर्ण दैवी विधान दिखाने की चाल बहुत अधिक है।
इतिहास लेखक किसी देश के निवासियों के अभ्युदय, पतन, वृद्धि, दुर्दशा
इत्यादि को ईश्वर की न्यायव्यवस्था के अनुसार बतलाने का प्रयत्न करते हैं।
वे यह दिखाना चाहते हैं कि एक जाति जो दूसरी जाति के ऊपर विजयी होकर शासन
करती है उसमें पूर्णज्ञानमय ईश्वर का कुछ परम उद्देश्य रहता है। जड़ सृष्टि
के सम्बन्ध में तो 'न्यायपूर्ण व्यवस्था' की बात नहीं उठती। अब रहा
जीवविज्ञान, उसमें भी यदि हम मनुष्य को थोड़ी देर के लिए छोड़ दें तो कहीं इस
प्रकार की व्यवस्था नहीं दिखाई पड़ती जो चैतन्य रूप ईश्वर की कृति कही जा
सके। डारविन ने अपने प्राकृतिक ग्रहणसिद्धांत द्वारा यह अच्छी तरह दिखा
दिया है कि जंतुओं और पौधों की शरीररचना और जीवनवृत्ति में जो व्यवस्थित
विधान दिखाई पड़ता है वह भौतिक नियमों के अनुसार उत्पन्न हुआ है, किसी पहले
से सोची समझी हुई युक्ति के अनुसार नहीं। उसने यह भी सिद्ध कर दिया है कि
'जीवनप्रयत्न' ही वह प्रबल प्राकृतिक शक्ति है जिसके वशवर्ती होकर भिन्न
भिन्न जीवों का विकास और स्थिति विधान हुआ है। 'जीवप्रयत्न' का अर्थ यह है
कि जीवों के बीच स्थिति के लिए जो घोर समर चलता रहता है उसमें वे ही जीव
विजयी होते या रह जाते हैं जो सबसे अधिक योग्य या
श्रेष्ठ होते हैं। सबसे अधिक योग्य या श्रेष्ठ वे ही हैं जो सबसे अधिक
बलवान होते हैं। प्रकृति में यही नीति और यही न्याय है।
1 प्लेटो या अफलातून ईसा से 300 वर्ष पहले यूनान में हुआ है। उसने कहा है
कि समस्त जगत् एक परमभाव या संवित् 'आइडिया' के अनुसार चल रहा है। सामान्य
प्रत्ययों को लेकर विचार करने से मनुष्य संवित या परमभाव तक पहुँच सकता है।
संसार में बहुत से लोग वीर आदि हैं पर उन सबमें जो वीरता आदि सामान्य धर्म
हैं, जिनके द्वारा कौन कितना वीर है हम यह समझते हैं, वे ही वीरता के 'भाव'
या वास्तव स्वरूप हैं, उन्हीं के नमूने पर सब वीर, उदार आदि बने हैं।
वीरता, उदारता आदि के ये स्वरूप या 'भाव' केवल मनुष्यों के मन में ही है,
ऐसा नहीं है। ये स्वयंभू और स्नातन हैं, इनकी स्थिति किसी के अधीन या
आश्रित नहीं है।
मनुष्य जातियों के इतिहास में भी हम कोई दूसरी बात नहीं पाते। उसमें भी
हमें कहीं शील के उन्नत आदर्श का अथवा न्यायकारी, दयालु परमेश्वर का पता
नहीं लगता। हम बराबर यह नहीं देखते कि जो जातियाँ बहुत ही शीलवान्, सीधी
सादी रही हैं वे ही समृद्ध और विजयी हुई हैं। इतिहासों से बराबर यही पाया
जाता है कि जिन जातियों ने जितना ही अधिक जीवनप्रयत्न किया है, स्थिति और
उन्नति के लिए वे जितना ही अधिक अग्रसर हुई हैं, उतना ही उनके भाग्य का उदय
हुआ है। उसी 'जीवनप्रयत्न' के द्वारा उनके भाग्य का भी निबटारा हुआ है
जिसके अनुसार समस्त सजीव सृष्टि में स्थिति और विनाश का क्रम करोड़ों वर्षों
से चला आ रहा है।
भूगर्भवेत्ता सजीवसृष्टि के इतिहास को भूगर्भस्थ पंजरों की परीक्षा द्वारा
तीन कल्पों में विभक्त करते हैं- प्रथम, द्वितीय और तृतीय। उनकी गणना के
अनुसार प्रथम कल्प लगभग 34,000,000 वर्षों का, द्वितीय कल्प 11,000,000
वर्षों का और तृतीय कल्प 3000,000 वर्षों का था। इन्हीं तीन कल्पों के बीच
अस्थिवाले जीवों का प्रादुर्भाव और विकास हुआ है। प्रथम कल्प में मछलियाँ
हुईं जो रीढ़वाले जीवों में सबसे निम्नश्रेणी की हैं। द्वितीय कल्प में
मछलियों से और उन्नत कछुए, मगर, घड़ियाल, छिपकली, साँप इत्यादि कूर्मज या
सरीसृप हुए। तृतीय कल्प में दूधा पिलाने वाले स्तन्य जीव हुए जो सबसे उन्नत
हैं। इन तीन प्रधान जीववर्गों के इतिहास को यदि ध्यान से देखा जाये तो पता
लगेगा कि इनके अन्तर्गत जीवों की जो अनेक शाखाएँ हुईं वे भी क्रमश: अधिक
पूर्णता को पहुँचती गईं। उन्नति के इस क्रमागत विधान को क्या हम किसी
चैतन्य को सोचा समझा हुआ कार्य, किसी सर्वशक्तिमान् कारीगर की रचना कह सकते
हैं? कभी नहीं। ग्रहणसिद्धांत की सहायता से जब हम सृष्टि के बीच उस
जीवनप्रयत्न को देखते हैं जिसके द्वारा सबल जीव निर्बलों को दबाकर या नष्ट
करके अग्रसर हुए हैं और बराबर उन्नति करते गए हैं तब हम न्याय, नीति और शील
की कोई व्यवस्था नहीं पाते। पाँच करोड़ वर्षों के बीच जंतुओं की न जाने
कितनी सुन्दर सुन्दर जातियों का कुल नष्ट हो गया और उनके स्थान पर वे ही
जीव रह गए जो सबल निकले। उन सबल जीवों के विषय में यह नहीं कहा जा सकता कि
वे न्याय और शील में बहुत बढ़ कर थे।
यही बात मनुष्य जातियों के सम्बन्ध में भी ठीक है। उनके इतिहासों में भी
यही बात पाई जाती है। एशिया के पश्चिमी भागों में फ्रांस, अफगानिस्तान,
तुर्किस्तान आदि देशों में इस्लाम धर्म का जो प्रचार हुआ वह न्याय, नीति और
शील के बल से नहीं। इन बातों का उन देशों में भी अभाव नहीं था। अत्याचार और
क्रूरता के बल से देखते देखते उन देशों से प्राचीन आर्यसभ्यता का, ज्ञान के
संचित भंडार का, लोप हो गया। ईश्वर की न्याय नीति और दया कहीं देखने में न
आई। जिन असभ्य, दरिद्र और मरभूखी जातियों को आवश्यकतावंश अधिक जीवन प्रयत्न
करना पड़ा वे अग्रसर हो गईं।
एक-एक मनुष्य के जीवन को लेकर यदि हम ध्यानपूर्वक विचार करते हैं तो उसकी
दशा भी मनुष्यजातियों की दशा के समान किसी चेतन शक्ति के अधीन नहीं जान
पड़ती। उसकी गति का विधान भी भौतिक कार्यकारण परम्परा के अनुसार होता है।
मनुष्य के जीवन में जो-जो बातें होती हैं सब का सम्बन्ध कुछ पूर्ववर्ती
कारणों से होता है। ये कारण प्रकृति की अन्धापरम्परा के अनुसार ही खड़े होते
रहते हैं, किसी सोची समझी हुई न्याय व्यवस्था के अनुसार नहीं। भावी प्रबल
होती है, पर यह भावी कार्यकारण भाव के अतिरिक्त और कुछ नहीं। हानि, लाभ,
जीवन, मरण, यश, अपयश किसी विधाता के हाथ में नहीं। विधाता और दयानिधान
परमेश्वर तभी अधिक सूझता है जब किसी की कोई कामना पूरी होती है, किसी अनर्थ
से रक्षा होती है। जब कोई आपत्ति आती है, कोई प्यारा मनोरथ पूरा नहीं होता
तब प्राय: मुँह से यही निकलता है- 'ईश्वर न जाने कहाँ है?' ईधर विज्ञान और
व्यापार की जो अपूर्व वृद्धि हुई है उसके कारण प्रतिवर्ष अनेक दुर्घटनाएँ
होती रहती हैं, हजारों जानें रेल लड़ने से, पुल टूटने से, जहाज डूबने से
जाती हैं। सहों निरअपराध मनुष्यों के प्राण युद्ध में लिए जाते हैं, इतने
पर भी ईश्वर के न्याय और नीति की चर्चा बराबर चली चलती है।
जगत् के विकासक्रम का मनन करने से उसमें किसी विशेष उद्देश्य का पता नहीं
लगता। प्रकृति के जितने व्यापार हैं सब कारण इकट्ठे होने से होते हैं।
संसार में जितनी बातें होती हैं सब संयोग से, किसी संकल्प के अनुसार नहीं।
प्रकृति के गुण या अन्धाप्रवृत्ति के अनुसार जब जैसा संयोग उपस्थित होता है
तब वैसी बात होती है। अत: विकासवादियों के सिद्धांत पर लोग यह आक्षेप करते
हैं कि उसमें सब बातें 'संयोग' के अधीन बतलाई जाती हैं। शक्तिवादियों की
समझ में यह नहीं आता कि सृष्टि का इतना बड़ा चरखा बिना किसी के सोचसमझ कर
चलाए कैसे चल रहा है। इसी बात को लेकर दार्शनिकों के दो भिन्न दल हो गए
हैं। द्वैतवादी दल अपनी भावना के अनुसार यही कहता जाता है कि सम्पूर्ण जगत्
ज्ञानकृत व्यवस्था के अनुसार चल रहा है, छोटी से छोटी बात भी जो होती है
उसका कोई न कोई उद्देश्य होता है, संयोग कोई चीज नहीं। हेतुवादियों का दल
कहता है कि जगत् का विकास एक भौतिक या प्राकृतिक विधान है जिसमें कोई
उद्देश्य या ज्ञानकृत व्यवस्था नहीं है। सजीव सृष्टि में जो व्यवस्था दिखाई
पड़ती है वह शरीरद्रव्य की प्रवृत्तियों के योग का परिणाम है। न तो और
लोकपिंडों के विकास में न पृथ्वी के नाना तलों के विकास में किसी चैतन्य की
कोई करतूत प्रकट होती है; सब बातें
1 राज समाज कुसाज कोटि कटु कल्पत कलुष कुचाल नई है।
नीति, प्रतीति, प्रीति, परिमिति, पति हेतुवाद हठि हेरि हई है। -तुलसी।
2 पुराणों में पृथ्वी तल के तल, वितल, सुतल, रसातल आदि सात भाग किए गए हैं।
संयोग पाकर होती हैं। 'संयोग' शब्द का अर्थ यहाँ स्पष्ट कर देना चाहिए।
'संयोग' पहले से निश्चित अदृष्ट व्यवस्था का नाम नहीं है, कारणों के समाहार
का नाम है। संयोग से कोई बात हो गई इसका यह मतलब नहीं कि बिना कारण कोई बात
हो गई। प्रकृति में जो कुछ व्यापार होता है सबका भौतिक कारण होता है। यदि
कहीं जाने पर कोई किसी आपदा में पड़ता है तो लोग प्राय: कहते हैं कि 'संयोग
उसे ले गया'। 'संयोग' नहीं ले गया, उसके जाने से ऐसा संयोग उपस्थित हुआ कि
वह आपदा में पड़ गया। 'संयोग' का अर्थ है कई भिन्न भिन्न बातों का भिन्न
भिन्न कारणों से एक साथ घटित होना।
रामचन्द्र
शुक्ल ग्रंथावली - 6
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