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 रामचन्द्र शुक्ल ग्रंथावली -  
अनुवाद

विश्वप्रपंच


 

सातवाँ प्रकरण - मनो विधान की श्रेणियाँ


विकाससिद्धांत की सहायता से मनोविज्ञान ने ईधर जो उन्नति की है उसके द्वारा समस्त जीवसृष्टि के मनस्तत्तव की एकता पूर्ण तया प्रतिपादित हुर्ई है। तारतम्यिक मनोविज्ञान ने भी यह निश्चय दिला दिया है कि एक घटक अणुजीव से लेकर मनुष्यपर्यंत सब प्राणियों के जीवनव्यापार प्रकृति की उन्हीं मूल शक्तियों अर्थात संवेदन और गति से उत्पन्न हुए हैं। अत: अब मनोविज्ञान के तत्त्वों का निरूपण दार्शनिकों के उन्नत अन्त:करण की स्वानुभूति या आत्मनिरीक्षण के आधार पर ही नहीं होगा बल्कि जिन अनेक क्षुद्र या पाश्व अवस्थाओं से क्रमश: काल पाकर मनुष्य के उन्नत अन्त:करण की व्यवस्था हुई है उनकी सम्बन्धपरम्परा का भी पूर्ण विचार किया जायेगा।
सम्पूर्ण मनोव्यापार शरीर के जीवनतत्वरूपी कललरस में होनेवाले परिवर्तनों के अनुसार होते हैं। हमने कललरस के उस अंश का नाम जो मनोव्यापारों का आधारस्वरूप प्रतीत होता है, मनोरस रखा है। हम उसकी कोई विशेष स्वतन्त्र सत्ता नहीं मानते। हम आत्मा या मन को कललरस के अनर्तव्यापारों की समष्टि मात्र समझते हैं। इस निश्चय के अनुसार 'आत्मा' शब्द शरीर का एक विशेष धर्म सूचित करने के लिए एक भाववाचक संज्ञा मात्र है। मनुष्य तथा और दूसरे उन्नत जीवों में अवयवों और तन्तुओं के कार्यविभाग के अनुसार मनोरस अलग विभक्त होकर संवेदनग्राहिणी संवेदनसूत्राग्रन्थियों की धातु का रूपधारणा करता है। क्षुद्र कोटि के जीवों और पौधों में जिन्हें संवेदना के लिए पृथक् और विशिष्ट सूत्र या अवयव नहीं होते, मनोरस इस प्रकार एक स्वतन्त्र रूप में विभक्त नहीं होता।
एक घटक अणुजीवों में मनोरस या तो घटक के समस्त कललरस ही को कहते हैं या उसके एक अंश को। उनमें संवेदनग्राही सूत्र आदि अलग नहीं होते। क्षुद्र से क्षुद्र और उन्नत से उन्नत मनोविधान में मनोधातु की कुछ रासायनिक योजना और भौतिक क्रिया के बिना 'आत्मा' का व्यापार नहीं उत्पन्न हो सकता। अणुजीवों की कललरसगत क्षुद्र संवेदना और गति से लेकर मनुष्य आदि उन्नत प्राणियों के जटिल इन्द्रिय व्यापार और मस्तिष्क व्यापार तक, सबके विषय में यही नियम हैं। मनोरस की वह क्रिया जिसे हम 'आत्मा' कहते हैं, शरीर के द्रव्यवैकृत्य धर्म1 से सम्बद्ध है।
समस्त जीव संवेदनग्राही हैं। वे अपने चारों ओर स्थित पदार्थों का प्रभाव ग्रहण करते हैं और अपने शरीर की स्थिति के कुछ परिवर्तनों द्वारा उन पदार्थों पर भी प्रभाव डालते हैं। प्रकाश और ताप, आकर्षण और विद्युताकर्षण, रासायनिक क्रियाएँ और भौतिक व्यापार सबके सब संवेदनात्मक मनोरस में उत्तेजना या क्षोभ उत्पन्न करके उसके अण्वात्मक विधान में परिवर्तन उपस्थित करते हैं। मनोरस की इस संवेदना की क्रमश: पाँच अवस्थाएँ हैं-
1. जीव विधान की प्रारम्भिक अवस्था में समस्त मनोरस ही सर्वत्रा समानरूप से संवेदनग्रही होता है और क्षोभकारक पदार्थ पर बाहर से प्रभाव डालता है। सबसे क्षुद्र कोटि के अणुजीव और बहुत से पौधो इसी अवस्था में रहते हैं।
2. दूसरी अवस्था वह है कि जिसमें शरीर के ऊपर विषय विवेकरहित इन्द्रियभास कललरस के सुतड़ों या बिन्दियों के रूप में प्रकट होते हैं। ये स्पर्शेन्द्रिय और चक्षु के पूर्व रूप हैं जो कुछ उन्नत अणुजीवों तथा दूसरे क्षुद्र जंतुओं और पौधों में देखे जाते हैं।
3. तीसरी अवस्था में इन्हीं मूलविधानों से विभक्त होकर अलग अलग कार्यों के उपयुक्त विशिष्ट इन्द्रियाँ उत्पन्न होती हैं। इनमें रसनेन्द्रिय और ज्ञाणेन्द्रिय रासायनिक करण हैं अर्थात रासायनिक क्रियाओं को ग्रहण करती हैं; स्पर्शेन्द्रिय, श्रवण और चक्षु भौतिक करण हैं अर्थात इनसे कोमलता, कठोरता, शीत, उष्ण शब्द (वायुतरंग) तथा वर्ण और आकृति इत्यादि भौतिक गुणों और व्यापारों का ग्रहण होता है। इन 'इन्द्रियों की शक्ति' का कोई निहित मूलगुण नहीं है बल्कि कार्योपयुक्त परिवर्तन और वंशपरम्परागत उन्नतिक्रम के द्वारा प्राप्त होती है।
4. चौथी अवस्था में समस्त संवेदन विधानों अर्थात इन्द्रिय व्यापारों का एक स्थान पर समाहार होता है। विकीर्ण या भिन्न भिन्न स्थानों पर स्थित इन्द्रिय व्यापारों को एक स्थान पर समाहार होने से अन्त:संस्कार उत्पन्न होता है, अर्थात इन्द्रिय संवेदनों के स्वरूप अंकित होते हैं। पर चेतन अन्त:करण का विकास न होने के कारण उन स्वरूपों का कुछ बोध नहीं होता। यह अवस्था बहुत से क्षुद्र्र्र जंतुओं की होती है।
5. पाँचवीं अवस्था में अंकित इन्द्रिय संवेदनों का प्रतिबिम्ब संवेदन सूत्राजाल या विज्ञानमयकोश के केन्द्रस्थल में पड़ता है जिससे अन्त:साक्ष्य या स्वान्तर्वृत्ति बोध उत्पन्न होता है।

1 मेटाबालिज्म घटकों या तन्तुओं की वह क्रिया जिसके अनुसार वे रक्त द्वारा प्राप्त पोषक द्रव्यों को अपने अनुरूप रस या धातु में परिवर्तित कर लेते हैं या घटकस्थ कललरस को विश्लिष्ट करके ऐसे सादे द्रव्यों में परिणत कर देते हैं जो पाचनरस बनाने और मल निकालने में काम आते हैं।

इस प्रकार चैतन्य की उत्पत्ति हो जाने पर जीव को अपने ही अन्त:करण के व्यापारों का बोध होने लगता है। मनुष्य तथा दूसरे रीढ़वाले जंतु इसी अवस्था के अन्तर्गत हैं।
समस्त जीवधारियों में 'स्वत:प्रवृत्त गति' की भी शक्ति होती है। सजीव मनोरस का कुछ ऐसा रासायनिक संयोग होता है कि कारण पाकर उसके अणु अपना स्थान बदलते हैं। इस प्रकार की सजीव गति कुछ तो हम आँखों से देख सकते हैं। यह गति पाँच अवस्थाओं में पाई जाती है-
1. जीव विधान की अत्यंत क्षुद्र प्रारम्भिक अवस्था में, जैसे समुद्र के क्षुद्र उदि्भदाकार कृमियों आदि अत्यंत निम्न श्रेणी के जीवों में केवल 'अंगवृद्धि की गति' देखी जाती है। हम उनके आकार की क्रमश: होनेवाली वृद्धि और परिवर्तन को देखकर ही इस गति का अनुमान कर सकते हैं।
2. बहुत से उदि्भदाकार सूक्ष्म जंतु आगे की ओर एक लसीला पदार्थ निकाल कर शरीर ढालते हुए रेंगते या तैरते हैं।
3. बहुत से क्षुद्र समुद्री अणुजीव कभी घटस्थ वायु को निकाल कर और कभी तरलाकर्षण2 शक्ति के द्वारा अपने गुरुत्व में अन्तर डाल कर पानी में नीचे जाते या ऊपर उठते हैं।
4. बहुत से पौधो, जैसे लजालू (लज्जालु) अपने शरीर के तनाव में फेरफार करके अपनी पत्तियों तथा और अवयवों को हिलाते हैं अर्थात वे अपने घटस्थ कललरस के तनाव को घटा बढ़ाकर अपने अवयवों को सुकोड़ते या फैलाते हैं।
5. सजीव पदार्थों की सबसे अधिक ध्यान देने योग्य गति आकुंचन है। इसमें जीव के बाहरी अवयवों की स्थिति में जो अन्तर पड़ता है वह शरीरस्थ द्रव्यों के आकुंचन और प्रसारण द्वारा। यह आकुंचनात्मक गति चार प्रकार की देखी जाती है -
(क) जल में रहनेवाले अस्थिराकृति अणुजीवों की सी गति3A

1 अन्त:करण से आत्मा को पृथक् मानने वाले यहीं से आत्मा का प्रादुर्भाव मान सकते हैं। आत्मा का नाम चैतन्य है।
2 द्रव पदार्थों में 'परस्पर मिलने की प्रवृत्ति जो अणुओं के परस्पर आकर्षण से सम्बन्ध रखती है।
3 इस प्रकार के अस्थिराकृति सूक्ष्म अणुजीव ताल या गङ्ढों के बँधो जल में तथा समुद्र में होते हैं। इनका शरीर ही एक घटक का बना हुआ सूक्ष्म मधुबिन्दुवत् होता है। ये बहुत ही अच्छे खुर्दबीन से दिखाई पड़ सकते हैं। इनका आकार क्षण क्षण पर बदलता रहता है। इस आकार बदलने का कारण यह है कि ये चारों ओर कभी कभी, कहीं अपने शरीर से पैरों की तरह की अनेक शाखाएँ या पादांकुर निकाला करते हैं। इनके चलने की क्रिया इस प्रकार होती है कि ये एक ओर बड़ी सी शाखा या पादांकुर निकालते हैं फिर उसी ओर अपना सारा शरीर ढाल देते हैं। इस प्रकार शाखा निकालते और शरीर ढालते हुए ये आगे बढ़ते जाते हैं। इन जीवों की विशिष्ट इन्द्रियाँ नहीं होतीं।

(ख) घट के भीतर कललरस की वैसी ही गति या प्रवाह।
(ग) रोईं या सुतड़ेवाले अणुजीवों, शुक्रकीटाणुओं इत्यादि की कुटिल गति। ये जीव अपने रोइयों या सुतड़ों के सहारे जल या द्रव्य पदार्थ में रेंगते हैं।
(घ) मांसपेशियों1 के संचालन की गति जो अधिकतर जंतुओं में देखी जाती है।
संवेदन और गति के संयोग से जो मूल या आदिम मनोव्यापार उत्पन्न होता है उसे प्रतिक्रिया कहते हैं। इसमें गति चाहे किसी प्रकार की हो, संवेदन उत्पन्न करनेवाली विषयोत्तोजना के कारण होती है। इसी से इसे उत्तोजित गति कहते हैं। कललरस में उत्तोजित होने का गुण होता है। जीव के चारों ओर स्थित पदार्थों में जो भौतिक या रासायनिक परिवर्तन उपस्थित होता है, कुछ अवस्थाओं में वह मनोरस को उत्तोजित करता है जिससे शरीर में गति का वेग छूट पड़ता है। जड़सृष्टि में भी इस प्रकार उत्तोजना पाकर वेग के छूटने का भौतिक व्यापार देखा जाता है, जैसे चिनगारी पड़ने से बारूद का भड़कना, ठोकर या आघात लगने से डाइनामाइट का भड़कना इत्यादि। जीवधारियों में जो प्रतिक्रिया होती है उन्नतिक्रम में उसकी सात अवस्थाएँ देखी जाती हैं-
1. जीव विधान की प्रारम्भिक अवस्था के सबसे क्षुद्र अणुजीवों में वाह्य जगत् की उत्तोजना, जैसे ताप, प्रकाश, विद्युत् आदि से कललरस में केवल वही गति उत्पन्न होती है जिसे अंगवृद्धि और पोषण कहते हैं और जो समस्त जीवधारियों में समान रूप से पाई जाती है। अधिकांश पौधों में भी ऐसा ही होता है।
2. डोलने फिरनेवाले अणुजीवों, जैसे अस्थिराकृति अणुजीवों में बाहर की उत्तोजना शरीरतल के प्रत्येक स्थान पर गति उत्पन्न करती है जिससे आकृति बदलती रहती है और स्थान भी बदलता है। यह आकृति परिवर्तन और हिलना डोलना शरीर में से क्षण क्षण पर कभी ईधर कभी उधर चारों ओर पादांकुर या शाखाएँ निकलते और सिमटते रहने से होता है। ये जीव यथार्थ में कललरस के छींटे के रूप के ही

 इनका शरीर झिल्ली के भीतर बन्द कललरस कणिका के अतिरिक्त और कुछ नहीं होता। कललरस के भीतर बिन्दु की तरह एक खाली स्थान होता है जो सुकड़ता और फैलता रहता है। इस आकुंचन ओैर प्रसारण क्रिया से शरीर में प्राणवायु और आहार का संचार होता है। यह पाचन और रक्तसंचार का आदिम रूप है। बतलाने की आवश्यकता नहीं कि ऐसे ही अनेक क्षुद्र अणुजीवों के योग से बड़े जंतुओं के शरीर बने हैं। मनुष्य के रक्त में भी इसी प्रकार के अणुजीव होते हैं। इनका शरीर सर्वत्रा एकरस होता है। जो कुछ व्यापार वे कर सकते हैं अपने रसबिन्दुरूपी शरीर के प्रत्येक भाग से कर सकते हैं।
1 कंकाल से लगा हुआ मांस बहुत से सूक्ष्म टुकड़ों या ग्रन्थियों से बना होता है। इन अलग अलग ग्रन्थियों को पेशी कहते हैं। पेशियाँ कई आकार की होती हैं-कोई लम्बी, कोई पतली, कोई मोटी, कोई चौकोर और कोई तिकोनी। ये महीने सूतों से जुड़ी रहती हैं, यदि सूत हटा दिए जायें तो ये अलग अलग हो जाती हैं। जितनी गतियाँ शरीर में होती हैं सब इन्हीं मांसपेशियों ही के द्वारा।

होते हैं अत: इनमें जो पादांकुर निकलते और मिटते रहते हैं वे स्थिर अवयव नहीं कहे जा सकते। इसी प्रकार की उत्तोजनग्राहकता से लजालू आदि पौधों तथा कई अनेक घटकों के योग से बने 'अनेकघटक' जीवों में भी प्रतिक्रिया उत्पन्न होती है। अनेकघटक जीवों में उत्तोजना एक घटक से हो कर फिर दूसरे घटक में जाती है क्योंकि ये घटक एक प्रकार के तन्तु से सम्बद्ध रहते हैं।
3. बहुत से उन्नत कोटि के अणुजीवों में दो अत्यंत सादे अवयव या इन्द्रियाँ देखी जाती हैं। एक स्पर्श की इन्द्रिय और दूसरी गति की इन्द्रिय। ये दोनों करण (इन्द्रियाँ) भी कललरस के बाहर निकले हुए अंकुर मात्र हैं। स्पर्श की इन्द्रिय पर जो उत्तोजना पड़ती है वह घटकस्थ मनोरस द्वारा गति की इन्द्रिय तक पहुँचती है और उसे आकुंचित करती है। समुद्र में पाए जाने वाले रोईंदार अणुजीवों को लेकर यह व्यापार देखा जा सकता है। ये जीव अस्थिराकृति जीवों से कुछ बड़े अर्थात 1/400इंच के लगभग, और अनेक आकार के होते हैं- कोई प्याले के आकार के, कोई घंटी के आकार के, कोई जौ के आकार के। इनमें कुछ चलने फिरनेवाले 'चर' होते हैं और कुछ अचर। इनके शरीर में एक प्रकार के रोएँ होते हैं जिनके सहारे ये चलते फिरते और आहार संग्रह करते हैं। चट्टान आदि में जमे हुए इन 'अचर' अणुजीवों के खुले ऊपरी छोर, अर्थात वह छोर जो चट्टान आदि में जमा नहीं रहता है, ऊपर की ओर होता है; पर के रोयों को जरा सा भी छुएँ तो जमे हुए छोर पर जो सूत की डंठी होती है वह चट सुकड़ जाती है। इसे जीवों की सादी 'प्रतिक्रिया' कहतेहैं।
4. रोईंवाले अणुजीवों के इस व्यापार के आगे फिर हमें मूँगे1 आदि अनेक घटक जीवों का संवेदनसूत्रमय विधान मिलता है। इनका प्रत्येक संवेदनसूत्रात्मक और पेशीतन्तुयुक्त घटक प्रतिक्रिया का एक एक कारण है। इसके ऊपर की ओर एक मर्मस्थल होता है और भीतर की ओर एक गत्यात्मक पेशीतन्तु होता है। मर्मस्थल छूते ही यह पेशीतन्तु सुकड़ जाता है।
5. समुद्र में तैरनेवाले छत्राककीटों में संवेदनसूत्रा और पेशीयुक्त एक घटक के स्थान पर दो घटक मिलते हैं जो एक सूत्र से सम्बद्ध रहते हैं। इनमें से एक तो बाहर संवेदनग्राही घटक होता है, दूसरा चमड़े के भीतर पेशीघटक होता है। प्रतिक्रिया के इस द्विघटकात्मक करण में बाहरी घटक तो संवेदनग्रहण करने की इन्द्रिय है और भीतरी घटक गत्यात्मक कर्मेन्द्रिय है। दोनों घटकों को मिलानेवाला बीच में जो मनोरस निर्मित सूत्र होता है उसी के द्वारा उत्तोजना एक घटक से दूसरे घटक तक पहुँचती है।

1 मूँगा बहुत से छोटे छोटे कृमियों का समूह है जो समुद्र के भीतर थूहर के पेड़ के आकार में जमा हुआ मिलता है। देखने में वह पेड़ की तरह जान पड़ता है पर वास्तव में क्षुद्र कृमियों की बस्ती है।

6. प्रतिक्रिया का जो विधान आगे चलकर मिलता है उसमें दो दो के स्थान पर तीन तीन घटक मिलते हैं। सम्बन्धकारक सूत्र के स्थान पर एक स्वतन्त्र घटक ग्रन्थि के रूप में प्रकट होता है जिसे हम मनोघटक या संवेदनग्रन्थि घटक कह सकते हैं। इसी घटक के द्वारा अचेतन अन्त:संस्कार उत्पन्न होता है अर्थात संवेदनों के स्वरूप अंकित होने लगते हैं। ऊपर कहा जा चुका है कि इस अवस्था में चेतन अन्त:करण न रहने के कारण उन स्वरूपों का बोध नहीं होता। उत्तोजना पहले संवेदनग्राही घटक से इस मध्यस्थ मनोघटक में पहुँचती है और फिर यहाँ से क्रियोत्पादक पेशीघटक में पहुँचकर गति की प्रेरणा करती है। प्रतिक्रिया का यह त्रिघटकात्मक करण बिना रीढ़वाले जंतुओं में मिलते हैं।
7. रीढ़वाले जंतुओं में त्रिघटकात्मक के स्थान पर चतुर्घटकात्मक करण पाया जाता है अर्थात संवेदनग्राही संवेदनघटक और क्रियोत्पादक पेशीघटक के बीच में दो भिन्न भिन्न मनोघटक मिलते हैं। बाहरी उत्तोजना पहले संवेदनग्राही मनोघटक में जाती है, फिर संकल्पात्मक घटक में पहुँचती है और अन्त में आकुंचनशील पेशीघटक में जाकर गति उत्पन्न करती है। ऐसे अनेक चतुर्घटकात्मक करणों और नए नए मनोघटकों के संयोग से मनुष्य तथा और उन्नत जीवों के जटिल मनोविज्ञानमयकोश या चेतन अन्त:करण की सृष्टि होती है।
ऊपर के विवरणों से स्पष्ट हो गया होगा कि 'प्रतिक्रिया' ही मूल या आदिम मनोव्यापार है। एक घटक अणुजीवों में 'प्रतिक्रिया' नामक सारा भौतिक व्यापार एक ही घटक के कललरस में होता है। कललरस के विकार समग्र मनोरस में जो एक सा व्यापार होता है उसी को हम ऐसे जीवों की घटकस्थ आत्मा कह सकते हैं। आगे चलकर उन्नत अवस्था में इसी मनोरस के अनेक विभाग होकर इन्द्रिय, अन्त:करण आदि उत्पन्न होते हैं।
मनोव्यापार की दूसरी अवस्था यौगिक 'प्रतिक्रया' है जो कर्कोटक1 आदि समूहपिंड में रहनेवाले समुद्री अणु जीवों में देखी जाती है। ये असंख्य एक घटक जीव मिलकर समूहपिंड बनाते हैं और कललरस के तन्तुओं द्वारा एक प्रकार से सम्बद्ध रहते हैं। यदि किसी एक घटक पर कोई उत्तोजना पड़ी तो वह तुरन्त इन तन्तुओं द्वारा शेष सब घटकों तक पहुँच जाती है और सारा समूह संकुचित हो जाता है। इस प्रकार का व्यापार अनेक घटकों का जीवाणुओं द्वारा निर्मित, 'बहुघटक' जंतुओं और पौधों के घटकों के बीच भी होता है। लज्जालु नामक पौधो को ही लीजिए। जहाँ उसकी जड़ के पास भी किसी
1 ये सूक्ष्म एक घटक समुद्री जंतु ककोड़े या अण्डी के फल के आकार का छत्ता या गोलपिंड बनाकर समूह में रहते हैं। पिंडबद्ध होने पर भी प्रत्येक घटक या अणुजीव स्वतन्त्र होता है। पिंड छत्ता मात्र होता है एक शरीर नहीं होता। छत्तो में प्रत्येक अणुजीव जड़ा सा होता है। अणुजीवों के सुतड़े या रोइयाँ बाहर की ओर निकली होती हैं। इनके सहारे पिंड जल में तैरता है। पिंड का परिमाण प्राय: इंच के पचासवें भाग के बराबर होता है।

का पैर छू गया कि उत्तोजना तुरन्त सारे घटकों में फैल जाती है और उसकी पत्तियाँ सुकड़ जातीं तथा टहनियाँ झुक पड़ती हैं।
'प्रतिक्रिया' नामक आदिम मनोव्यापार का सामान्य लक्षण यह है कि उसमें चेतना का अभाव होता है। उत्तोजना पहुँची कि गति उत्पन्न हुई, जैसा कि बारूद आदि निर्जीव पदार्थों में देखा जाता है। चेतना केवल मनुष्य तथा और उन्नत जीवों में ही मानी जा सकती है, उदि्भदों और क्षुद्र जंतुओं में नहीं। उदि्भदों और क्षुद्र जंतुओं में उत्तोजना पाकर जो गति उत्पन्न होती है वह 'प्रतिक्रिया' मात्र है, अर्थात ऐसी क्रिया है जो संकल्पकृत नहीं, किसी अन्त:करण वृत्ति द्वारा प्रेरित नहीं। जिनमें संवेदनवाहक सूत्राजाल केन्द्रीभूत होता है और जिन्हें विशिष्ट पूर्ण इन्द्रियाँ होती हैं उन उन्नत जीवों के मनोव्यापार और ढंग के होते हैं। उनमें 'प्रतिक्रिया' रूपी आदिम मनोव्यापार से धीरे धीरे चेतना का स्फुरण होता है और संकल्पकृत चेतन व्यापार प्रकट होते हैं। निम्न श्रेणी के क्षुद्र जीवों में केवल प्रतिक्रिया ही रहती है। यह प्रतिक्रिया भी दो प्रकार की होती है-मूल और उत्तर। मूल प्रतिक्रिया वह है जो जीवसृष्टि परम्परा में चेतन अवस्था को कभी प्राप्त न हुई हो, अपने मूल रूप में ही बराबर वंश परम्परानुसार चली आती हो। उत्तर प्रतिक्रिया वह है जो पूर्वज जंतुओं में तो संकल्पकृत चेतन व्यापार के रूप में थी पर पीछे अर्थात उन पूर्वज जंतुओं से विकास परम्परानुसार उत्पन्न होनेवाले परवर्ती जंतुओं में, अभ्यास आदि के कारण अज्ञानकृत अचेतन व्यापार के रूप में हो गई। ऐसी अवस्था में चेतन और अचेतन अनर्तव्यापारों के बीच कोई भेदसीमा निर्धारित करना असम्भव है। कौन व्यापार ज्ञानकृत (चेतन) हैं और कौन अज्ञानकृत यह सदा ठीक ठीक बतलाया नहीं जा सकता।
अब अन्त:संस्कार को लीजिए। इन्द्रियों की क्रिया से प्राप्त वाह्य विषय का जो प्रतिरूप भीतर अंकित होता है उसे अन्त:संस्कार या भावना कहते हैं। जीवों की विभिन्न ऊँची नीची श्रेणियों के अनुसार अन्त:संस्कार चार रूपों में देखा जाता है-
1. घटकगत अन्त:संस्कार- क्षुद्र एकघटकात्मक अणुजीवों में अन्त:संस्कार समस्त मनोरस का सामान्य गुण होता है। ऐसे जीवों में भी संवेदन का चिन्ह मनोरस में रह जाता है और धारणा या स्मृति के द्वारा फिर स्फुरित हो सकता है। एक प्रकार के अत्यंत सूक्ष्म गोल समुद्र अणुजीव होते हैं जिनके ऊपर आवरण के रूप में एक पतली चित्रविचित्रा खोपड़ी होती है। इस खोपड़ी की चित्रकारी सबमें एक सी नहीं होती, भिन्न भिन्न होती है। खोपड़ी की रचना और चित्रकारी के विचार से इस जीव के हजारों उपभेद दिखाई पड़ते हैं। किसी एक विशेष चित्रकारीवाले जीव से विभाग द्वारा जो दूसरे जीव उत्पन्न होते हैं उनमें भी वही चित्रकारी बनी मिलती है। इसका केवल यही कारण बतलाया जा सकता है कि निर्माण करनेवाले कललरस में अन्त:संस्कार की वृत्ति होती है, उसमें परत्व अपरत्व संस्कार और उसके पुनरुद्भावन की शक्ति होती है।
2. तन्तुजालगत अन्त:संस्कार- समूहपिंड बनाकर रहनेवाले एक घटक अणुजीवों1 और स्पंज आदि संवेदनसूत्र से रहित क्षुद्र अनेकघटक (समुद्र) जीवों तथा पौधों के तन्तुजाल में हमें अन्त:संस्कार की दूसरी श्रेणी मिलती है। इसमें बहुत से परस्परसंबद्ध घटकों का एक सामान्य मनोव्यापार देखा जाता है। इन जीवों में किसी एक इन्द्रिय के उत्तोजन से मात्र प्रतिक्रिया उत्पन्न होकर नहीं रह जाती, बल्कि तंतु घटकों के मनोरस में संस्कार भी अंकित होते हैं जिनका फिर स्फुरण होता है।
3. संवेदनसूत्रा ग्रंथिगत अचेतन अंत:संस्कार- इस उन्नत कोटि का अन्त:संस्कार अनेक छोटे जंतुओं में देखा जाता है। इसका व्यापार समस्त घटकों में नहीं होता बल्कि विशिष्ट स्थानों में अर्थात मनोघटकों में ही होता है। यह अपने सादे रूप में उन्हीं जीवो में प्रकट होता है जिनमें 'प्रतिक्रिया' के लिए त्रिघटकात्मक करण का विकास होता है। ऐसे जीवों में अन्त:संस्कार का स्थान संवेदनघटक और पेशीघटक के बीच का मध्यस्थ घटक होता है। विज्ञानमय कोश के विभाग विधान के अनुसार यह अचेतन अन्त:संस्कार भी उन्नति की कई अवस्थाओं को पहुँचता है।
4. मस्तिष्कघटकों में चेतन अन्त:संस्कार- जीवों की उन्नत श्रेणियों की ओर बढ़ने पर हमें अन्तर्बोधा या चेतना मिलने लगती है जो कि विज्ञानमय कोश के मध्यभाग के एक विशिष्ट करण की वृत्ति है। उन्नत जीवों में जो अन्त:संस्कार होते हैं वे चेतन होते हैं, अर्थात उनका बोध भीतर होता है। इस अन्तर्बोधा के साथ ही साथ जब चेतन अन्त:संस्कारों की योजना के लिए मस्तिष्क के विशेष विशेष अवयव स्फुरित हो जाते हैं तब अन्त:करण उन वृत्तियों या व्यापारों के योग्य हो जाता है जिन्हें हमें विचार, चिन्तन, बुद्धि आदि कहते हैं। अचेतन और चेतन अन्त:संस्कारों के बीच कोई सीमा निर्धारित करना अत्यंत कठिन है। यह नहीं बतलाया जा सकता है कि जीवसृष्टिक्रम में किन जीवों तक अन्त:संस्कार अचेतन रहते हैं और किन जीवों से चेतन होने लगते हैं। हाँ, इतना अलबत कहा जा सकता है कि अचेतन संस्कार से चेतन संस्कार के विकास की परम्परा कई शाखाओं में चलती है। यह नहीं है कि चेतन और बुद्धि के व्यापार मनुष्य, बन्दर, कुत्तो, पक्षी आदि रीढ़वाले उन्नत जंतुओं में ही देखे जाते हैं बल्कि चींटी, मकड़ी, केकड़े आदि क्षुद्र कीटों में भी पाए जातेहैं।
अन्त:संस्कार से ही सम्बद्ध धारणा या स्मृति है। यह वास्तव में अन्त:संस्कारों की पुनरुद्भावना है जिस पर सारे उन्नत मनोव्यापार अवलम्बित हैं। वाह्यविषय के

1 ये सूक्ष्म अणुजीव एक समूहपिंड तो बना लेते हैं पर इनमें परस्पर उतना घनिष्ट सम्बन्ध नहीं होता जितना समवाय रूप से एक शरीर को योजना करनेवाले घटकों में होता है।
2. संवेदनावाहक सूत्रों को ज्ञानतन्तु भी कहते हैं। ये शरीर के सब स्थानों में फैले होते हैं। रक्तवाहिनी नीली और लाल नलियों (शिराओं और धामनियों) से ये इस प्रकार पहचाने जाते हैं कि ये श्वेत होते हैं और बीच में खोखले नहीं होते। खींचने से ये उतनी जल्दी नहीं टूटते।

इन्द्रियों पर जो प्रभाव पड़ते हैं वे मनोरस में अन्त:संस्कार के रूप में जाकर ठहर जाते हैं और स्मृति द्वारा पुनरुद्भूत होते हैं अर्थात अव्यक्तवस्था से व्यक्तवस्था को प्राप्त होते हैं। मनोरम की निष्क्रिय अव्यक्त शक्ति सक्रिय व्यक्त शक्ति के रूप में परिवर्तित हो जाती है। 1 अन्त:संस्कार की चार श्रेणियों के अनुसार स्मृति की भी चार श्रेणियाँ हैं-
1. घटकगत स्मृति- स्मृति सजीव द्रव्य का एक सामान्य गुण है। इस महत्त्वपूर्ण बात को कुछ दिन हुए एक वैज्ञानिक ने अपने एक ग्रंथ में कहा। मैंने इस बात को विकास सिद्धांत के अनुसार सिद्ध करने का प्रयत्न किया। पहले कहा जा चुका है कि कललरस एक दानेदार चिपचिपा पदार्थ है अर्थात वह बहुत सी सूक्ष्म कणिकाओं के योग से संघटित है। ये कणिकाएँ कई आकार और प्रकार की होती हैं। इनमें से विधान करनेवाली क्रियामाण मूल कणिकाएँ होती हैं उन्हें हम कललाणु कह सकते हैं। मैंने अपनी एक पुस्तक में निरूपित किया है कि 'अचेतन स्मृति' कललाणु की एक सामान्य और व्यापक वृत्ति है। क्रियावान् कललरस के इन मूलकललाणुओं में ही पुनरुद्भूति होती है अर्थात इन्हीं में स्मृति शक्ति आदि रूप में रहती है, निर्जीव द्रव्य के अणुओं में नहीं। यही सजीव और निर्जीव सृष्टि में अन्तर है। वंशपरम्परा ही को कललाणु की धारणा या स्मृति समझना चाहिए। एक घटक अणुजीवों की आदिम स्मृति उन कललाणुओं की अण्वात्मक स्मृति के योग से बनी है जिनके मेल से उनका एक घटकात्मक शरीर बना है। एक अणुजीव की जो विशेषताएँ होती हैं वे उससे उत्पन्न दूसरे अणुजीवों में रक्षित रहती हैं यही ऐसे जीवों की धारणा या स्मृति है। ऊपर कहा जा चुका है कि बहुत से अणुजीव ऐसे होते हैं जिनके आवरणों पर एक दूसरे से भिन्न प्रकार की रचनाएँ होती हैं। परीक्षण द्वारा देखा गया है कि किसी एक विशेष रचना के आवरणवाले जीव से विभाग आदि द्वारा जो दूसरे जीव उत्पन्न होते हैं उनके आवरणों पर भी ठीक ठीक उसी प्रकार की रचना होती है। रचना का यह क्रम बराबर पीढ़ी दर पीढ़ी चला जाता है।
2. तन्तुगत स्मृति- घटकों के समान घटकजाल में भी अचेतन स्मृति पाई जाती है। स्पंज आदि समूहपिंड बना कर रहनेवाले जीवों में भी समूहपिंड के संस्कार उससे उत्पन्न दूसरे पिंडों में बराबर चले चलते हैं।
3. अचेतन स्मृति- उन्नति की तीसरी अवस्था में उन जीवों की चेतना रहित
1 भौतिक विज्ञान में वेग या शक्ति के दो रूप माने गए हैं-निहित और व्यक्त, जैसे पहाड़ की ढाल पर पड़े हुए पत्थर, चाभी दी हुई पर न चलती हुई घड़ी, बोरे में कसी हुई बारूद में क्रमश: गिरने, चलने और भड़कने की जो शक्ति है उसे निहित या अव्यक्त शक्ति कहते हैं। जब पत्थर गिरता है, घड़ी चलती है और बारूद भड़कती है तब वही शक्ति व्यक्त हो जाती हे। ये दोनों प्रकार की शक्तियाँ एक दूसरे के रूप में परिवर्तित होती रहती हैं, अर्थात अव्यक्त से व्यक्त और व्यक्त से अव्यक्त होती रहती हैं।

स्मृति है जिनमें विज्ञानमय कोश रहता है। यह अचेतन स्मृति उन अचेतन अन्त:संस्कारों की पुनरुभावना है जो संवेदनसूत्रा ग्रन्थियों में संचित होते जाते हैं। क्षुद्र कोटि के अधिकांश जंतुओं में स्मृति अचेतन रहती है अर्थात अन्त:संस्कारों की धारणा के अनुसार जो शारीरिक व्यापार होते हैं उनका कुछ भी ज्ञान ऐसे जंतुओं को नहीं होता। वे व्यापार केवल शरीर धर्म समझे जाते हैं। मनुष्य आदि पूर्ण अन्त:करण वाले जीवों में भी यदि देखा जाय तो चेतन की अपेक्षा अचेतन स्मृति के ही व्यापार अधिक पाए जायँगे। हाथ पैर हिलाने, चलनेफिरने, बोलने, खानेपीने इत्यादि क्रियाओं को
यदि लीजिए तो इनमें न जाने कितनी ऐसी निकलेंगी जिनकी ओर हमारा बिलकुल ध्यान नहीं रहता, जो अज्ञानकृत होती हैं।
4. चेतन स्मृति- इसका व्यापार मनुष्य आदि उन्नत प्राणियों के कुछ मस्तिष्कघटकों में होता है। यह व्यापार वास्तव में अन्त:संस्कारों का प्रतिबिंब पड़ने से होता है। पहले क्षुद्र पूर्वज जीवों में स्मृति के जो व्यापार अचेतन रहते हैं वे उन्नत अंत:करणवाले जीवों में चेतन हो जाते हैं। मनुष्य आदि के अंत:करण में जिन संस्कारों की धारणाएँ रहती हैं वे फिर ज्ञानपूर्वक उपस्थित की जाती हैं।
यहाँ तक तो धारणा या स्मृति की बात हुई। अब अंत:संस्कारों की शृंखला या भावयोजना को लीजिए। इसकी भी ऊँची नीची अनेक श्रेणियाँ हैं। यह भी अपने आदि रूप में अचेतन ही रहती है और 'प्रवृत्ति' कहलाती है। यही क्रमश: बढ़ते बढ़ते उन्नत जीवों में चेतनवृत्ति हो जाती है और बुद्धि कहलाती है। इस भावयोजना की परम्परा अनेक रूपों में चलती है। पर ध्यान देकर यदि देखा जाये तो क्षुद्र से क्षुद्र अणुजीव की अचेतन अन्त:संस्कार योजना से लेकर सभ्य से सभ्य मनुष्य की विशद भावशृंखला तक सम्बन्धपरम्परा का सूत्र मिलेगा। मनुष्य में चेतन संस्कारों की योजना होती है यही उसकी सबसे बड़ी विशेषता है। जिस हिसाब से अधिकाधिक अन्त:संस्कारों की योजना होती जाती है और जिस हिसाब से शुद्ध बुद्धि के विवेचन से यह योजना व्यवस्थित होती जाती है उसी हिसाब से अन्त:करणवृत्ति पूर्णता को पहुँचती जाती है। स्वप्न में, इस व्यवस्था करनेवाली विवेचनशक्ति के न रहने से पुनरुद्भूत संस्कारों की जो विलक्षण योजना होती है उससे अलौकिक दृश्य दिखाई पड़ते हैं। कविकल्पित रचनाओं में, जिनमें अन्त:संस्कारों की प्रकृति योजना में उलटफेर करके अनोखे स्वरूप खड़े किए जाते हैं; ये अन्त:संस्कार एक अत्यंत अस्वाभाविक क्रम से संयोजित होते हैं और साधारणा देखनेवाले को अत्यंत अयुक्त प्रतीत होते हैं। मस्तिष्क के बिगड़ जाने पर जो अनेक प्रकार के रूप दिखाई पड़ते हैं वे अन्त:संस्कारों की इसी अव्यवस्था के कारण। मृत पुरुषों की आत्माओं का साक्षात्कार, देवदूतों का दर्शन, आकाशवाणी, इलहाम तथा इसी प्रकार की और भी अन्धीपरम्परा की बातें इसी अव्यवस्था से उत्पन्न हुई हैं। पर 'आभास', 'इहलाम' आदि को बहुत दिनों से लोग ज्ञान का अमित भण्डार समझते आ रहे हैं।
युरोप में बहुत प्राचीन काल से लोग मनुष्य और पशु की अन्त:करणवृत्तियों को भिन्न भिन्न समझते आ रहे थे1। ऐसा साधारणा विश्वास था, और अब भी थोड़ा बहुत है कि मनुष्य 'बुद्धि' के अनुसार कार्य करता है और पशु 'प्रवृत्ति' के अनुसार। पर डारविन आदि विकासवादियों ने इस विश्वास को भ्रान्त सिद्ध कर दिया है। अपने 'ग्रहण सिद्धांत' के आधार पर डारविन ने नीचे लिखी महत्त्वपूर्ण बातें निर्धारित की हैं-
1. एक ही योनि के जीवों की अन्त:प्रवृत्तियों में भी कुछ न कुछ व्यक्तिगत विभिन्नता होती है तथा 'स्थितिसामंजस्य' के नियमानुसार उनमें भी ठीक उसी प्रकार फेरफार हो जाता है जिस प्रकार अवयवों में होता है।
2. इस परिवर्तन से जो विशेषताएँ स्वभावपरिवर्तन के कारण, उत्पन्न हो जाती हैं वे आगे होनेवाली सन्तति को भी अंशत: प्राप्त होती हैं और इस प्रकार वंशपरम्पराक्रम से उत्तरोत्तर अधिक प्रवर्द्धित रूप प्राप्त करती जाती हैं।
3. ग्रहणधर्म के अनुसार मनोवृत्ति की जो विशेषताएँ सबसे अधिक उपयोगी होती हैं वे रक्षित रहती हैं, जो स्थिति के अनुकूल न होने के कारण उपयोग में नहीं आ सकतीं वे नष्ट हो जाती हैं।
4. इस रीति से मनोवृत्ति की जो अनेक विभिन्नताएँ उत्पन्न हो जाती हैं उनसे अनेकानेक पीढ़ियों पीछे ठीक उसी प्रकार नई नई अन्त:प्रवृत्तियों की सृष्टि होती है जिस प्रकार अवयवों के भेद से नए नए प्रकार के जीवों की।
सारांश यह है कि अन्त:प्रवृत्ति सेन्द्रिय (सजीव) पदार्थ मात्र में, पौधों और अणुजीवों से लेकर बड़े बड़े जंतुओं और मनुष्य तक में होती है। मनुष्य में बुद्धि के अधिक बढ़ने पर इसका तिरोभाव होने लगता है।
'प्रवृत्ति' दो प्रकार की होती है, मूल और उत्तर। मूल प्रवृत्तियाँ वे हैं जो अचेतन क्षोभ के रूप में मनोरस में जीव की आदिम अवस्था ही से रहती हैं-जैसे, आत्मरक्षा की, बचाव और पोषण की और वंशरक्षा की, प्रसव और शिशुपालन प्रवृत्ति। सजीव द्रव्य की ये दोनों प्रवृत्तियाँ अर्थात क्षुधा और प्रीति 'समागम की वासना' सर्वथा अज्ञान की दशा में उत्पन्न होती हैं, बुद्धि का इनसे कोई सम्बन्ध नहीं रहता। उत्तर प्रवृत्तियों का क्रम और है। आंरभ में तो ये बुद्धि के उपयोग द्वारा, विचार और संकल्प द्वारा, ज्ञानकृत उद्दिष्ट कर्म द्वारा उत्पन्न हुईं, पर पीछे धीरे धीरे वे इतनी मँज गईं कि अज्ञान की दशा में भी प्रकट होने लगीं। यहाँ तक कि वंशपरम्परा के विधान से वे आगे की पीढ़ियों में स्वभाव सिद्ध सी हो गईं। उन्नत जीवों की वे अज्ञानकृत क्रियाएँ जो

1 भारतवर्ष में उस आवागमन या जन्मातरवाद के कारण ऐसी धारणा कभी नहीं उत्पन्न होने पाई जिसके अनुसार एक ही आत्मा मनुष्य से लेकर कीट, पतंग आदि चौरासी लाख योनियों में भरम सकती है।

शरीर धर्म कहलाती हैं; जैसे, पलकों का गिराना, चलने में पैरों का हिलाना आदि, पूर्वज जीवों में ज्ञानकृत थीं पर पीछे स्वभावसिद्ध प्रवृत्तियों में दाखिल हो गईं। इसी प्रकार मनुष्य के वे सारे निरूपण जो स्वत:सिद्ध कहलाते हैं; जैसे, एक ही वस्तु के समान वस्तुएँ परस्पर समान होती हैं, उसके पूर्वजों ने अनुभव और साक्षात्कार द्वारा स्थिर किए थे।
बहुत से लोग कहते हैं कि पशुओं में बुद्धि नहीं होती, बुद्धि केवल मनुष्य में होती है। पर यह भ्रम है। रीढ़वाले विशेषत: दूधा पिलानेवाले जीवों में बुद्धि बराबर पाई जाती है चाहे वह मनुष्यबुद्धि से कम हो। पशुओं में बुद्धिविकास का तारतम्य उसी प्रकार पाया जाता है जिस प्रकार मनुष्यों में। किसी सभ्यदेश के उद्भट दार्शनिक की बुद्धि और नरभक्षी असभ्य बर्बर की बुद्धि में भी तो अन्तर होता है। बस, उतना ही अन्तर असभ्य बर्बर की बुद्धि में और उन्नत पशुओं, बनमानुस आदि की बुद्धि में समझिए। मनुष्य के उन्नत मनोव्यापार विवेचन आदि भी ठीक उसी प्रकार वंशपरम्परा और स्थितिसामंजस्य के नियमाधीन हैं जिस प्रकार उन व्यापारों की इन्द्रियाँ या मस्तिष्क।
बुद्धि, विवेचना आदि उन्नत कोटि के मनोव्यापारों का घनिष्ठ सम्बन्ध वाणी की उन्नति से है। वाणी की योजना भी न्यूनाधिक क्रम से जीवों में पाई जाती है। यह नहीं है कि एकमात्र मनुष्य ही को वह प्राप्त है। किसी न किसी रूप में वह समूह में रहनेवाले समस्त मेरुदंडजीवों में थोड़ी बहुत पाई जाती है। एक दूसरे का अभिप्राय समझने के लिए उसकी आवश्यकता होती है। कहीं स्पर्श द्वारा, कहीं संकेत द्वारा और कहीं मुँह से निकले हुए शब्द द्वारा अभिप्राय प्रकट किया जाता है। पक्षियों और बनमानुसों की बोली, कुत्तों का भूँकना, घोड़ों का हिनहिनाना इत्यादि पशुवाणी के नमूने हैं। इनसे कुछ न कुछ भाव अवश्य प्रकट होता है। पर मनुष्य ही में उस वर्ण विकासयुक्त वाणी का प्रादुर्भाव हुआ है जिसके सहारे उसकी बुद्धि इस उन्नति को पहुँची है। भाषाविज्ञान ने यह पूर्ण रूप से सिद्ध कर दिया है कि भिन्न भिन्न मनुष्य जातियों की जितनी समृद्ध भाषाएँ हैं सबकी सब किसी न किसी सीधी सादी आदिम भाषा से धीरे धीरे उन्नति करती हुई बनी हैं। भाषा का विकास भी ठीक उसी क्रम से धीरे धीरे हुआ है जिस क्रम से जीवों की जातियों का विकास, उनकी इन्द्रियों और शक्तियों का विकास। पशुवाणी और मनुष्यवाणी में केवल न्यूनाधिक का भेद है, वस्तुभेद नहीं।
अन्त:करण के उन व्यापारों का विचार भी जो उद्वेग कहलाते हैं मनोविज्ञान में अत्यंत आवश्यक है। उनके द्वारा वह सम्बन्ध अच्छी तरह स्पष्ट हो जाता है जो मस्तिष्क व्यापारों और शरीर के दूसरे व्यापारों; जैसे, हृदय की धड़कन, इन्द्रियों के क्षोभ और पेशियों की गति आदि के बीच है। मनुष्य में अन्त:करण के उद्वेग सम्बन्धी जो व्यापार दिखाई देते हैं वे कुत्तो, बनमानुस आदि उन्नत पशुओं में भी देखे जाते हैं। समस्त उद्वेग इन्द्रियसंवेदन और गति इन्हीं दो मूल व्यापारों के योग से प्रतिक्रिया और अन्त:संस्कार द्वारा बने हैं। राग और द्वेष का अनुभव इन्द्रियसंवेदन क्रिया के अन्तर्गत है। इच्छा और विरक्ति, अर्थात रुचिकर वस्तु की प्राप्ति और अरुचिकर परिहार का प्रयत्न, पेशियों की गति के अन्तर्भूत है। 'आकर्षण' और 'विसर्जन' इन्हीं दोनों क्रियाओं के द्वारा 'संकल्प' की सृष्टि होती है जो व्यक्ति का प्रधान लक्षण है। मनोवेग मनुष्य और पशु दोनों में होते हैं। क्षुद्र से क्षुद्र कोटि के अणुजीवों में भी रुचि और अरुचि का मूल संस्कार होता है जिसका पता उनकी प्रवृत्तियों से लगा है। उनमें कुछ प्रकाश की ओर प्रवृत्त होते हैं, कुछ अन्धाकार की ओर, कुछ शीत की ओेर और कुछ ताप की ओर। इन्हीं मूल वासनाओं से आगे चलकर उन्नत अन्त:करणवाले सभ्य मनुष्यों के उल्लास और खेद, प्रीति और घृणा आदि मनोवेग निकले हैं जिनसे सभ्यता का विकास हुआ है और कवियों को अक्षय सामग्री प्राप्त हुई है। इस प्रकार क्षुद्र से क्षुद्र अणुजीवस्थ मनोरस की मूलवासना से लेकर मानव अन्त:करण के विविध मनोवेगों तक सम्बन्धसूत्रा की परम्परा चली गई है। मनुष्य के मनोवेग भी भौतिक नियमों के अधीन हैं यह बात कई दार्शनिक सिद्ध कर चुके हैं।
अब संकल्प को लीजिए जिसे लोग जीवधारियों की एक ऐसी विशेषता समझते हैं जिसका भौतिक नियमों से कोई सम्बन्ध नहीं। इच्छानुसार गति देखकर ही सामान्यत: कर्मसंकल्प की स्वतन्त्रता का भान लोगों को होता है। पर विकास सिद्धांत और शरीरशास्त्र की दृष्टि से यदि संकल्प की परीक्षा की जाय तो मालूम होगा कि वह मनोरस का एक व्यापक गुण है। एक घटक अणुजीवों में प्रतिक्रिया के जो जड़ व्यापार हम देखते हैं वे उन मूल प्रवृत्तियों से उत्पन्न हैं जिनका जीवन तत्व से नित्य सम्बन्ध है। पौधों तक में ये प्रवृत्तियाँ पाई जाती हैं। कुछ पौधो अपनी पत्तियों को जिस ओर प्रकाश होता है उसी ओर प्रवृत्ति करते हैं। जिन जीवों में प्रतिक्रिया का त्रिघटकात्मक करण होता है अर्थात संवेदनग्राहक घटक और क्रियोत्पादक घटक के बीच में एक तीसरे मनोघटक की स्थापना होती है, उन्हींमें संकल्प नामक व्यापार देखा जाता है। क्षुद्र जीवों में यह संकल्प अचेतन रूप में रहता है। जिन जीवों में चेतना होती है अर्थात अन्त:करण की क्रिया का प्रतिबिम्ब अन्त:करण में पड़ता है उन्हीं में संकल्प उस कोटि का देखा जाता है जिसमें स्वतन्त्रता का आभास जान पड़ता है। मस्तिष्क के विकास और अन्त:करण की उन्नति के कारण संवेदन, गति आदि की आन्तरिक क्रियाएँ जितनी ही क्षिप्र होती जाती हैं उनका परस्पर सम्बन्ध उतना ही अव्यक्त होता जाता है। सम्बन्ध के अव्यक्त होने के कारण ही स्वातन्त्रय की भ्रान्ति होती है। पर अब यह अच्छी तरह सिद्ध हो गया है कि संकल्प किया हुआ प्रत्येक कर्म व्यक्ति के अंगविन्यास और प्राप्त परिस्थिति के अनुसार ही होता है। प्रवृत्ति का सामान्य रूप तो वंशपरम्परानुसार पूर्वजों द्वारा प्राप्त होकर पहले से निर्धारित रहता है। कर्मविशेष का जो संकल्प होता है वह जिस क्षण जैसी परिस्थिति होती है उसके अनुकूल परिवर्तन का आयोजन मात्र है। उस क्षण जो मनोवेग सबसे प्रबल होता है उसी के अनुसार प्राणी कर्म करता है। 1


1. कर्मस्वातन्त्रय के विषय में धार्मिकों में भी मतभेद है। कुछ लोग मानते हैं कि ईश्वर की प्रेरणा ही से मनुष्य सब कार्य करता है। कुछ लोग कर्मों की वासना पूर्वकृत कर्मों के अनुसार मानते हैं। पर अधिकांश लोग यही मानते हैं कि मनुष्य की कर्मसंकल्पवृत्ति सर्वथा स्वतन्त्र है। यह बतला देना भी आवश्यक है कि कर्मसंकल्पवृत्ति को 'इच्छा' का पर्याय न समझना चाहिए।
कर्मस्वातन्त्रय को लेकर पाश्चात्य दार्शनिकों में बहुत विवाद हुआ है। कांट ने कर्मसंकल्पवृत्ति को सर्वथा स्वतन्त्र बतलाया है और कहा है कि मनोविज्ञान के नियमों के अनुसार उसका विचार नहीं हो सकता। अन्त:करण की कोई ऐसी वृत्ति नहीं जिससे उसका कार्यकारण सम्बन्ध हो, जो उसे अवश्य उत्पन्न ही करती हो। रहे वाह्य जगत् के नियम उनसे भी वह बद्ध नहीं। वह उन स्वप्रवर्तित नियमों को ही मानती है जिन्हें 'धर्मनियम' कहते हैं (दे प्रकरण 19)। स्पिनोजा और ह्यूम कर्मसंकल्पवृत्ति को कार्यकारण सम्बन्ध के अन्तर्गत मानते हैं। स्पिनोजा ने कहा है कि लोगों का यह समझना भ्रम है कि कर्म करने में हम स्वतन्त्र हैं। बात यह है कि उन्हें अपने कर्मों का बोध तो होता है पर उन कारणों का बोध नहीं होता जिनके द्वारा वे निर्धारित होते हैं। हैकल ने स्पिनोजा के तत्तवाद्वैतवाद ही का अनुसरण किया है अत: उसने इस विषय में उसी का सिद्धांत मान्य ठहराया है।
भारतीय विचारपद्धति में 'कर्मबन्धान' और 'आत्मस्वातन्त्रय' की बड़ी गूढ़ व्याख्या की गई है। वेदान्तसूत्रा के 'जीवकर्तृत्वाधिकरण' में जीव कर्ता अर्थात कर्म करने में स्वतन्त्र है या नहीं इसका विचार किया गया है। कर्मविपाक में संचित, प्रारब्धा और क्रियमाण ये तीन भेद कर्म के किए गए हैं जिससे सिद्ध होता है कि एक कर्म बीज रूप से दूसरे को उत्पन्न करता है। फिर 'आत्मस्वातन्त्रय' या कर्मसंकल्पवृत्ति का स्वातन्त्रय कहाँ रहा? वेदान्त ज्ञान द्वारा मोक्ष बतलाता है। पर ज्ञान प्राप्त करने के लिए भी मनुष्य स्वतन्त्र नहीं। वेदान्ती इसका उत्तर कर्म के 'आरब्धा' और 'अनारब्धा' दो भेद करके इस प्रकार देते हैं कि आरब्धा कर्म, जिनका भोग आंरभ हो चुका है, वे तो भोगने ही पड़ेंगे पर अनारब्धा कर्मों का ज्ञान से पूर्णतया नाश किया जा सकता है। 'कर्मबन्धान' के साथ सम्यक् ज्ञान प्राप्त करने का स्वातन्त्रय भी बराबर रहता है। यही आत्मस्वातन्त्रय है।





आठवाँ प्रकरण -आत्मा का गर्भविकास


मनुष्य की आत्मा को हम चाहे जिस रूप का समझें पर यह निश्चित है कि उसकी भी जीवनकाल में क्रम क्रम से वृद्धि होती है। अत: मनोव्यापारों के निरूपण के लिए गर्भविज्ञान की परीक्षा अत्यंत प्रयोजनीय है। हमें भ्रूण के मस्तिष्कविकास और शिशु के मनोव्यापारों की ओर ध्यान देना चाहिए। वैज्ञानिक दृष्टि से विचार न करने वाले आत्मा की क्रमश: वृद्धि नहीं मानते। वे आत्मा को सदा एकरस मानते हैं। आत्मा के सम्बन्ध में जो भिन्न भिन्न प्रकार के विचार प्रचलित हैं उनमें से कुछ ये हैं-
1. आवागमन- इस सिद्धांत के अनुसार आत्मा एक शरीर से निकलकर दूसरे शरीर में, दूसरे से तीसरे में इसी प्रकार बराबर गमन करती रहती है और नाना योनियों में भ्रमण करती है। वह मनुष्य योनि में भी आ जाती है और फिर उसमें से निकलकर मनुष्य या और कोई योनि प्राप्त करती है।
2. आनयन- अर्थात आत्माओं का कहीं अक्षय भण्डार है जहाँ से बराबर आत्माएँ शरीरों में लाई जाती हैं और जहाँ फिर चली जाती हैं।
3. ईश्वर द्वारा सृष्टि- ईश्वर आत्माओं की सृष्टि करता है और उन्हें संचित रखता है।
जीवनतत्व के अनुसंधान द्वारा ऊपर लिखी कल्पनाएँ असार प्रमाणित हो चुकी हैं। पहले कहा जा चुका है कि गर्भ विधान में पुंस्तत्व और तत्व दोनों सूक्ष्य घटक मात्र हैं। इन दोनों घटकों में ऐसे शारीरिक गुण होते हैं जिन्हें हम घटकात्मा कह सकते हैं। इन दोनों बीजघटकों में गति और संवेदन शक्ति होती है। गर्भांड या अंडघटक जल में रहने वाले अस्थिराकृति अणुजीवों के समान चलते फिरते हैं। अत्यंत सूक्ष्म शुक्रकीटाणु अपनी रोइयों के सहारे वीर्य में उसी प्रकार तैरते रहते हैं जिस प्रकार रोईंवाले समुद्र के सूक्ष्म कीटाणु।
स्त्री पुरुष का संयोग होने पर दोनों बीजघटक परस्पर मिलते हैं; अथवा उनका संयोग बाहर ही बाहर होता है जैसा कि कुछ जलजंतुओं में, तब दोनों एक दूसरे की ओर आकर्षित होकर जुट जाते हैं। इस आकर्षण का प्रधान कारण कललरस की रासायनिक और संवेदनात्मक क्रिया है जो घ्राण या रसन से मिलती जुलती होती है और 'अनुरागमूलक रासायनिक प्रवृत्ति' कहलाती है। इसे हम घटकों का प्रेमव्यापार भी कह सकते हैं। पुरुष के वीर्य में रहनेवाले बहुत से रोईंदार घटक (शुक्रकीटाणु) स्त्री के अंडघटक की ओर रेंग पड़ते हैं और उसमें घुसना चाहते हैं। पर इनमें से घुसने पाता है कोई एक ही। ज्यों ही कोई शुक्रकीटाणु गर्भांड में सिर के बल घुसा कि गर्भांड के ऊपर की झिल्ली छूटकर एक आवरण के रूप में हो जाती है जिससे और कोई शुक्रकीटाणु भीतर नहीं घुस सकता। एक वैज्ञानिक ने बर्फ या मरफिया के प्रयोग से गर्भांड का ऊपरी तल कठोर कर दिया जिससे यह झिल्ली नहीं छूटने पाई। फल इसका यह हुआ कि गर्भांड अतिगर्भित हो गया अर्थात उसमें कई शुक्रकीटाणु घुस पड़े। इन बातों से पाया जाता है कि बीजघटकों में भी एक प्रकार की आन्तरिक प्रवृत्ति या संवेदना होती है। गर्भांड और शुक्रकीटाणु जब परस्पर मिल कर एक हो जाते हैं तब अंकुरघटक की उत्पत्ति होती है जिसके उत्तरोत्तर विभाग द्वारा अनेकघटक भ्रूण का स्फुरण होता है।
गर्भ विधान की ओर ध्यान देने से हमें मनोविज्ञानसम्बन्धी कई महत्त्व की बातों का आभास मिलता है। इस प्रकार के अनुसंधान द्वारा ये पाँच सिद्धांत निकलते हैं-
1. जीवन के आंरभ में प्रत्येक मनुष्य या उन्नत जंतु एक अत्यंत सूक्ष्म घटक के रूप में होता है।
2. सब उन्नत जीवों में अंकुरघटक की उत्पत्ति समान विधान से अर्थात दो बीजघटकों के परस्पर एक हो जाने से होती है।
3. दोनों बीजघटकों में से प्रत्येक की एक घटकात्मा होती है- अर्थात दोनों में एक विशेष रूप की संवेदना और गति होती है।
4. गर्भाधान के समय दोनों घटकों के कललरस और बीज ही मिलकर एक नहीं हो जाते बल्कि उनकी घटकात्माएँ भी परस्पर मिल जाती हैं अर्थात दोनों में जो निहित या अव्यक्त गतिशक्तियाँ, और द्रव्यों के समान, होती हैं वे भी एक नवीन शक्ति की योजना के लिए मिलकर एक हो जाती हैं। अंकुरघटक की यह नवयोजित शक्ति ही 'बीजात्मा' है।
5. अत: प्रत्येक मनुष्य के शारीरिक और मानसिक गुण माता पिता से ही प्राप्त होते हैं। वंशक्रमानुसार माता के गुणों का कुछ अंश गर्भांड द्वारा और पिता के गुणों का कुछ अंश शुक्रकीटाणु द्वारा प्राप्त होता है।
इन सिध्दान्तों के द्वारा यह बात अच्छी तरह सिद्ध हो जाती है कि प्रत्येक मनुष्य के जीवन का आदि होता है। दोनों बीजघटकों का जिस घड़ी संयोग होता है वही घड़ी अंकुरघटक के शरीर और आत्मा दोनों की उत्पत्ति की है। अत: लोगों का यह कहना कि आत्मा अनादि और अमर है, प्रलाप मात्र है। इसी प्रकार यह भावना भी असंगत है कि गर्भ के भीतर ईश्वर शरीर को गढ़ता है। जीवन की उत्पत्ति माता पिता के संयोग से होती है। इस संयोग के लिए यह आवश्यक है कि शुक्रकीटाणु का गर्भाशय में प्रवेश हो, दर्शन या आलिंगन मात्र से गर्भाधान नहीं हो सकता। स्थलचारी जीवों में गर्भाधान की यही रीति है कि गर्भाशय में गर्भोत्पादक तत्व पहुँचाया जाय। कुछ क्षुद्र जलचर जंतुओं में दूसरे प्रकार की व्यवस्था है। उनमें नर और मादा अपना अपना वीर्य और रजोबिन्दु जल में डाल देते हैं जिनका संयोग बाहर ही बाहर किसी अवसरपर हो जाता है। ऐसे जंतुओं में वास्तविक मैथुन नहीं होता, अत: उनमें प्रेम का वह मानसिक उद्गार नहीं देखा जाता जो उन्नत जीवों में इतना अधिक पाया जाता है। क्षुद्र अमैथुनीय जंतुओं में स्त्री पुरुष भेदसूचक कुछ ऐसे चिन्ह भी नहीं होते, जैसे बारहसिंगों के सींग, पुरुषों की दाढ़ी, नर मोर का सुन्दर चित्रित पुच्छवितान।
ऊपर बतलाया जा चुका है कि शिशु, माता और पिता दोनों के मानसिक गुण ग्रहण करता है। दोनों के स्वभाव, लक्षण, संकल्प की दृढ़ता, प्रतिभा आदि गुण उसमें वंशपरम्परा के प्राकृतिक नियमानुसार आते हैं। माता पिता के ही नहीं पितामह आदि के कुछ गुण भी उसमें बराबर पाए जाते हैं। सारांश यह कि शारीरिक विशेषताओं के समान मानसिक विशेषताएँ भी वंशानुक्रम द्वारा एक से दूसरे में जाती हैं। अत: यह निश्चयपूर्वक कहा जा सकता है कि वंशपरम्परा का प्राकृतिक नियम भी एक शरीरधर्म है जिसका निर्धारण भौतिक और रासायनिक क्रियाओं के अनुसार-कललरस की योजना के अनुसार होता है।
शरीरविज्ञान सम्बन्धी यह बात मनोविज्ञान के क्षेत्र में बहुत ध्यान देने की है कि मनस्तत्तव एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में बराबर चला चलता है। जिस क्षण गर्भाधान होता है उसी क्षण एक नए जीव का प्रादुर्भाव होता है। पर इस नए जीव में कोई स्वतन्त्र शारीरिक और मानसिक सत्ता नहीं होती; यह शुक्रघटक और रजोघटक रूप दो उपादानों की योजना का परिणाम मात्र है। जिस प्रकार मनोव्यापाररूपिणी निहित शक्ति के भौतिक आधार, उक्त दोनों घटकों की गुठलियों के मेल से एक नई गुठली पैदा हो जाती है, उसी प्रकार दोनों घटकात्माओं के योग से, निहित शक्तियों की समष्टिरूप एक नई घटकात्मा बन जाती है। अब यहाँ पर प्रश्न यह होता है कि एक ही माता पिता से उत्पन्न दो शिशुओं के स्वभाव आदि में भेद क्यों दिखाई पड़ता है? इसके कई कारण हैं। पहली बात तो यह है कि यह भेद कुछ न कुछ दोनों बीजघटकों में ही-उनके कललरस की योजना में ही, रहता है। माता पिता अपने जीवन में स्थिति के परिवर्तन के अनुरूप जो नई नई विशेषताएँ प्राप्त करते जाते हैं उनका प्रभाव बीजघटकों के अण्वात्मक कललरस के विधान पर भी उलटकर पड़ता है और उनके द्वारा संयोजित सन्तति में देखा जाता है।
इस विभेद के सम्बन्ध में एक बात और है। यद्यपि गर्भाधान के समय दो आत्माओं का जो सम्मिश्रण होता है उसमें दोनों घटकों के अनुरागात्मक संयोग द्वारा केवल जनक जननी की आत्माओं की निहित शक्तियों की ही सम्प्राप्ति अधिकतर शिशु को होती है; पर ऐसा भी होता है कि और ऊपर की पीढ़ियों के पूर्वजों के मानसिक संस्कार भी साथ ही उसे प्राप्त हो जाते हैं। कुलपरम्परासम्बन्धी प्राकृतिक नियम आत्मा पर भी ठीक वैसे ही घटते हैं जैसे अंग विधान पर। छत्राक आदि समुद्र के उभिदाकार कृमियों में एक एक पीढ़ी का अन्तर देकर पूर्वजों की विशेषताएँ प्रकट होती हैं। एक कृमि से जो दूसरा कृमि उत्पन्न होगा उसमें पहले का लक्षण न होगा, उस दूसरे से जो तीसरा उत्पन्न होगा उसमें पहले के लक्षण मिलेंगे, फिर उस तीसरे के लक्षण पाँचवीं पीढ़ी में मिलेंगे, पाँचवीं के सातवीं में, इसी प्रकार यह क्रम बराबर चला चलेगा। इसी नियम के अनुसार दूसरी पीढ़ी के लक्षण चौथी में, चौथी के छठी में, छठी के आठवीं में मिलेंगे। मनुष्य आदि उन्नत जीवों में यद्यपि इस प्रकार के अन्तर का नियम नहीं है पर उनमें भी कभी कभी एक पीढ़ी का अन्तर देकर लक्षण प्रकट होते हैं, जिसका कारण वंशपरम्परा का निहित नियम है। बड़े बड़े लोगों में प्राय: ऐसा देखा जाता है कि उनके गुण और स्वभाव उनके पितामहों से मिलते हैं।
आत्मविकास की दो अवस्थाएँ कही जा सकती हैं-एक गर्भावस्था, दूसरी जीवनावस्था।
गर्भ में आत्मोपत्ति- मनुष्य का गर्भ साधारणात: नौ महीनों में पूरा होता है। इस बीच में बाहरी संसार से वह बिलकुल अलग रहता है और उसकी रक्षा के लिए केवल गर्भकोश ही नहीं रहता, आवरण की तरह लिपटी हुई झिल्लियाँ भी होती हैं। ये झिल्लियाँ सब सरीसृपों, पक्षियों और स्तन्यजीवों में होती हैं। इन समस्त जीवों के भ्रूण झिल्लियों के जलपूर्ण कोश में रहते हैं। आघात से रक्षा का यह आयोजन आदिम सरीसृपों ने अत्यंत प्राचीन कल्प में प्राप्त किया था जब कि वे जल में न रह कर जमीन पर घूमने और साँस लेने लगे थे। उनके पूर्वज जलस्थलचारी जंतु (मेंढक आदि) अपने पूर्वज मत्स्यों के समान जल ही में रहते और साँस लेते थे।
उन रीढ़वाले जंतुओं के भ्रूण में जो जल में रहते थे, आदिम जीवों के बहुत अधिक लक्षण बहुत अधिक काल तक रहते थे जैसा कि आजकल की मछलियों और मेंढकों में देखा जाता है। यह बात प्राय: सब लोग जानते हैं कि अंडे से निकलने के बाद मेंढकों के भ्रूण लम्बी पूँछवाले कीड़ों के रूप में होते हैं और केवल जल ही में तैरा करते हैं। इन बच्चों को साधारणा भाषा में छुछुमछली कहते हैं। इनमें इनके पूर्वज मत्स्यों का ढाँचा बहुत काल तक बना रहता है। इनकी रहन सहन और संवेदना भी उन्हीं की सी होती है। ये गलफड़ों के द्वारा साँस लेते हैं। फिर जब कुछ दिनों के उपरान्त इनका विलक्षण रूपान्तर या कायाकल्प होता है और इनका अंग विधान स्थलचारी जीवन के अनुकूल संघटित होता है तब इनका मत्स्याकार शरीर कूदनेवाले चतुष्पद मेंढक के रूप में परिवर्तित हो जाता है। फिर तो गलफड़ों द्वारा पानी में साँस लेने के बदले ये फेफड़ों के द्वारा स्थल पर साँस लेने लगते हैं, इनकी इन्द्रियाँ और अन्त:करण अर्थात सारा विज्ञानमय कोश अधिक उन्नत अवस्था को प्राप्त हो जाता है। यदि हम छुछुमछली के आत्मस्फुरणक्रम को आदि से अन्त तक ध्यानपूर्वक देखें तो पता लगे कि जीवनोत्पत्ति के सामान्य नियम किस प्रकार आत्मविकास के क्रम पर भी ठीक ठीक घटते हैं। बात यह है कि छुछुमछली की वृद्धि का वाह्य संसार की उस बदलनेवाली परिस्थिति से सीधा लगाव होता है जिसके अनुकूल उसकी संवेदना और गति में परिवर्तन उपस्थित होता है। तैरनेवाली छुछुमछली का ढाँचा ही नहीं रहनसहन भी मछली ही की सी होती है, मेंढक के लक्षण परिवर्तन के उपरान्त आते हैं।
मनुष्य के भ्रूण में ऐसा नहीं होता। झिल्लियों के कोश में बन्द रहने के कारण वह वाह्य संसार के प्रभावों से अलग रहता है और वाह्य परिस्थिति के अनुरूप प्रतिक्रिया उसमें स्वच्छन्द रूप से नहीं होने पाती। जलपूर्ण कोश के भीतर रक्षापूर्वक बन्द रहने के कारण मनुष्य आदि के भ्रूण में आदिम जीवों के लक्षणों का उत्तरोत्तर विकास पूर्णरूप से नहीं होने पाता। अत्यंत संक्षिप्त उद्धरणी के द्वारा ही उसे नए जीव का स्वरूप प्राप्त होने का सुगम साधान प्राप्त हो जाता है। पहली बात तो यह है कि ऐसे भ्रूण के पोषण का पूरा प्रबन्ध रहता है। यह पोषण अण्डजों में तो उस जरदी के द्वारा होता है जो अण्डों के भीतर रहती है। जरायुजों में जरायु के द्वारा माता के रक्त का जो संचार भ्रूण में होता है उसके द्वारा उसका पोषण पूर्ण रूप से होता है। अत: इनका भ्रूण धरती पर गिरने के पहले ही पूर्ण वृद्धि को प्राप्त रहता है। पर गर्भावस्था में भ्रूण की आत्मा सुषुप्तावस्था में रहती है। इसी प्रकार की सुषुप्ति उन कीड़ों के कायाकल्प काल में रहती है जिनका रूपान्तर होता है। तितलियाँ, मक्खियाँ गुबरैले, रेशम के कीड़े इत्यादि जब ढोले से फतिंगे के रूप में आने लगते हैं तब इसी प्रकार की सुषुप्त दशा में रहते हैं। इस सुषुप्तिकाल के बीच उनके तन्तुओं और विविध अंगों का निर्माण होता है। ध्यान देने की बात यह है कि इस कायाकल्प काल के पूर्व जब वे ढोले के रूप में रहते हैं तब उनमें इन्द्रियों और अन्त:करण के व्यापार अच्छी तरह दिखाई पड़ते हैं। फिर इस सुषुप्तावस्था के हट जाने पर जब इन कीड़ों का पूरा कायापलट हो जाता है और ये पूर्ण यौवनप्राप्त फतिंगों के रूप में उड़ने लगते हैं तब ये मनोव्यापार और भी उन्नत रूप में देखे जाते हैं।
मनुष्य के मनोव्यापार की भी जीवनकाल में कई अवस्थाएँ होती हैं। जिस प्रकार उसका शरीर शैशव, कुमार, पोंगंड, यौवन और जरा नामक चढ़ानी उतरानी की अवस्थाओं को क्रमश: प्राप्त होता है उसी प्रकार उसकी आत्मा या मनोव्यापार भी।






नौवाँ प्रकरण -वर्गपरम्पराक्रम से आत्मा का विकास


यह सिद्धांत अब पूर्णतया स्थिर हो गया है कि मनुष्य का शरीर अनेक पूर्वज जंतुओं के शरीर से परम्परानुसार परिवर्तित होते-होते उत्पन्न हुआ है। अत: उसके मनोव्यापारों को हम उसके और शारीरिक व्यापारों से अलग नहीं कर सकते। हमें यह मानना पड़ता है कि शरीर और मन दोनों का विकास क्रमश: हुआ है। अत: मनोविज्ञान में यह देखना अत्यंत आवश्यक है कि किस प्रकार पशु की आत्मा से क्रमश: मनुष्य की आत्मा का विकास हुआ है। आत्मा के जातिपरम्परागत विकासक्रम का निरूपण मनस्तत्त्व विद्या का प्रधान अंग है। एक जाति के जंतु से विकास द्वारा दूसरी जाति के जंतु की जो दीर्घपरम्परा चली आई है उसके अन्वेषण के द्वारा आत्मा के विकासक्रम का भी बहुत कुछ पता चलता है।
मनुष्य के मनोव्यापारों का दूसरे जरायुज जंतुओं के मनोव्यापारों से यदि एक एक करके मिलान करें तो पता लगेगा कि बनमानुस की आत्मा से ही कुछ और उन्नत अवस्था को प्राप्त मनुष्य की आत्मा है। समस्त रीढ़वाले जंतुओं में मनोव्यापारों का प्रधान करण मेरुरज्जु होता है। 1 यह मेरुरज्जु बिना रीढ़वाले पूर्वज कीड़ों की उस खड़ी संवेदनसूत्राग्रन्थि का प्रवर्द्धित रूप है जो चिपटे केंचुओं की गर्भझिल्ली अर्थात घटकों की परत से उन्नत अवस्था को प्राप्त होकर बनी है। चिपटे केंचुओं2 के अंगविश्लेषण द्वारा इस बात का पता लग जाता है। इन आदिम जीवों के कोई अलग संवेदनसूत्रामय विज्ञानकोश नहीं होता, इनके ऊपर का सारा चमड़ा ही संवेदनग्राही और मनोव्यापार साधाक होता है। ये अनेक घटक कीट परस्पर गुछकर झिल्ली के रूप में नियोजित होनेवाले अणुजीवों के उत्तरोत्तर विभाग द्वारा बने हैं। भिन्न भिन्न जंतुओं

1 यह मेरुरज्जु भेजे की बत्ती के रूप का होता है और मस्तिष्क से लेकर पीछे की ओर मेरुदंड के बीचोबीच से होता हुआ नीचे तक गया रहता है।
2 एक प्रकार के चिपटे केंचुए जानवरों के पेट या कलेजे में भी उत्पन्न हो जाते हैं।

के गर्भ विधान की परीक्षा करने से इनके योजनाक्रम का पता चलता है। परस्पर मिलकर झिल्ली या आवरण बनानेवाले ये कलात्मक अणुजीव आदिम एक घटक अणुजीवों से ही उत्पन्न हुए हैं। गर्भ के भीतर एक घटक या अणुजीव से जिस प्रकार अनेक घटकों के कलात्मक समवाय की सृष्टि होती है और फिर उससे उत्तरोत्तर उन्नत अवस्थाओं का क्रमश: विधान होता है यह खुर्दबीन (सूक्ष्मदर्शक यन्त्र) के द्वारा देखा जा सकता है। इस परीक्षा द्वारा आत्मा के विकास का जो क्रम निर्धारित होता है उसके अनुसार आत्मा आठ मुख्य अवस्थाओं से होती हुई मनुष्य की आत्मा का उन्नत रूप प्राप्त करती है। इन पूर्व पर अवस्थाओं के सूचक आठ प्रकार के जो जीव पाए जाते हैं वे ये हैं-
1. एक घटक अणुजीव जिन्हें एक अत्यंत क्षुद्र कोटि की घटकात्मा मात्र होती है; जैसे-जल में रहने वाले रोईंदार अणुजीव1A
2. समूहबद्ध अनेक घटक क्षुद्रजीव जो बहुत से मिलकर एक विशेष आकार के पिंड बनाकर रहते हैं, जैसे स्पंज। ये यद्यपि मिलकर बिलकुल एक जीव नहीं बन जाते तो भी इनमें एक प्रकार का सम्बन्ध रहता है। एक अणुजीव के त्वचा पर जो क्षोभ पहुँचाया जायेगा उसका प्रभाव सारे समूह पर पड़ेगा। ऐसे जीव जल में पाए जाते हैं। इनकी आत्मा को समूहबद्ध आत्मा कह सकते हैं।
3. आदिम अनेकघटक जीव जिनका शरीर कई घटकों के मिलकर सर्वथा एक शरीरकोश हो जाने से बना है, जैसे चिपटे केंचुओं का वर्ग2A
4. बिना रीढ़वाले आदिम जीव जिनमें मस्तिष्क या अन्त: करण एक खड़ी सूत्राग्रन्थि के रूप में होता है, जैसे जोंक आदि का वर्ग।
5. ऐसे रीढ़वाले जंतु जिन्हें कपाल या मस्तिष्क नहीं होता केवल एक सादा मेरुरज्जु होता है, जैसे अकरोटी मत्स्य या कुलाट।
6. कपाल और पंचघटात्मक मस्तिष्क वाले जंतु, जैसे मछली।

1 ये अणुजीव एक इंच के शतांश के बराबर होते हैं और ताल आदि के स्थिर जल में अपने रोइयों के सहारे तैरते फिरते हैं। ये एक लम्बी थैली के रूप के होते हैं। इनमें स्फुट इन्द्रियाँ आदि नहीं होतीं। पेट की ओर कुछ दबा हुआ स्थान होता है जिसमें एक ओर से जल भीतर जाता है और दूसरी ओर से निकलता है। भीतर जो कललरस का चेप रहता है उसमें जल का पोषक अंश (और भी सूक्ष्म वनस्पति आदि) मिल जाता है। जब यह जीव किसी प्रकार उद्विग्न या क्षुब्धा होता है तब अपने त्वचा के भीतर से चारों ओर लम्बे लम्बे सूत निकालता है। सड़ाव के कीड़े इसी प्रकार के होते हैं।
2 ये केंचुए कई प्रकार के होते हैं। अधिकांश तो जंतुओं के पेट में पड़ते हैं, कुछ समुद्र के जल में या दलदलों में पाए जाते हैं।
3 चार अंगुल लम्बा एक कीड़ा जो देखने में जोंक की तरह का होता है। इसमें विशेषता यह है कि इसके शरीर में एक प्रकार की लचीली कोमल रीढ़ होती है जिसे सूत्रादंड कह सकते हैं पर कपाल या मस्तिष्क नहीं होता। यह कीड़ा समुद्र तट पर बालू में बिल बनाकर रहता है और पानी में खड़ा तैरता है।

7. ऐसे स्तन्य जंतु जिनके मस्तिष्क का तल उन्नत अवस्था को प्राप्त रहता है, जैसे जरायुज वर्ग-कुत्तो, बिल्ली आदि।
8. बनमानुस और मनुष्य जिनके मस्तिष्क के भेजे में मेधाशक्ति होती है।
ऊपर लिखे हुए जीवों की सृष्टि भिन्न भिन्न कल्पों में एक दूसरे के पीछे क्रमश: हुई है। इनमें जिस क्रम से मनस्तत्तव का विकास हुआ है वह नीचे दिया जाता है-
1. घटकात्मा या अंकुरात्मा- जीववर्गों के बीच मनोविकास की यह प्रथमावस्था है। ऊपर कहा जा चुका है कि मनुष्य तथा और सब जीवों के सबसे आदिम पूर्वज एक घटक अणुजीव थे। जिस क्रम से मनुष्य आदि प्राणी अपने पूर्ववर्ती जंतुओं से परिवर्तनपरम्परा द्वारा निकलकर अपने वर्तमान रूप में आए हैं उसका पता प्रत्येक प्राणी के भ्रूणविकासक्रम को देखने से लग जाता है। और सब अनेकघटक जीवों के समान मनुष्य भी गर्भाशय के भीतर एक क्षुद्र घटक से जिसे अण्डघटक या अंकुरघटक कहते हैं अपने जीवन का आंरभ करता है। जैसे इस घटक में आंरभ ही से एक प्रकार की आत्मा होती है वैसे ही अत्यंत प्राचीन कल्प के उन पूर्वज अणुजीवों में भी थी जिनसे विकासक्रमानुसार मनुष्य की उत्पत्ति हुई है।
एक घटक जीवों के मनोव्यापार किस प्रकार के होते हैं इसका पता आजकल पाए जानेवाले एक घटक अणुजीवों के शरीर विधान आदि को देखने से लग सकता है। इन अणुजीवों के अन्वीक्षण से बहुत सी नई नई बातों का पता लगा है। वरवर्न नामक एक जर्मन जीवविज्ञानवेत्ता ने अनेक प्रकार से परीक्षा करके बतलाया है कि एक घटक अणुजीवों के समस्त मनोव्यापार अचेतन अर्थात अज्ञानकृत होते हैं, उनमें जो संवेदना और गति देखी जाती है वह कललरस की कणिकाओं के धर्मानुसार होती है। एक घटक अणुजीवों के मनोव्यापार जड़द्रव्य की रासायनिक क्रियाओं, जैसे अणुओं का आकर्षण, विश्लेषण आदि; और उन्नत जंतुओं की अन्त:करण वृत्तियों के बीच की शृंखला के समान हैं। उन्हें मनुष्य तथा और अनेक घटक जीवों के उन्नत मनोव्यापारों का बीज समझना चाहिए।
जल में रहनेवाले भिन्न भिन्न प्रकार के एक घटक कीटाणुओं की परीक्षा करके मैंने कुछ दिन पहले यह मत प्रकट किया था कि प्रत्येक सजीव घटक में कुछ मानसिक वृत्तियाँ होती हैं, और अनेक घटक जीवों और पौधों की मानसिक वृत्ति उन घटकों की मानसिक वृत्तियों की समष्टि है जिनकी योजना से उनका शरीर संघटित रहता है। स्पंज आदि क्षुद्र कोटि के अनेकघटक जीवों में शरीर का प्रत्येक घटक मानसिक क्रिया में समान रूप से प्रवृत्त होता है पर उन्नत कोटि के जीवों में कार्यविभाग के नियमानुसार कुछ चुने हुए घटक ही इस क्रिया के लिए नियुक्त हो जाते हैं और मनोघटक कहलाते हैं।
घटकात्मा की भी ऊँची नीची कई श्रेणियाँ होती हैं। कुछ का व्यापार तो अत्यंत सीधासादा होता है और कुछ का जटिल होता है। सबसे आदिम और क्षुद्र कोटि के एक घटक जीवों में संवेदन और गतिशक्ति घटकस्थ कललरस में सर्वत्रा एक रस होती है। जो कुछ व्यापार वे कर सकते हैं अपने रसबिन्दु रूपी शरीर के प्रत्येक भाग से कर सकते हैं। उन्नत कोटि के एक घटक अणुजीवों में कुछ करणांकुर उत्पन्न हो जाते हैं जिनसे गति आदि व्यापार होते हैं। इस प्रकार के कारण जल के कुछ सूक्ष्म कीटाणुओं में स्थिर पादांकुरों या रोइयों के रूप में देखे जाते हैं। इन कीटाणुओं के कललरस के मध्य में एक सूक्ष्म गुठली होती है जिसे घटक का अन्त:करण समझना चाहिए। सबसे आदिम वनस्पति और सबसे आदिम जंतु जो सृष्टि के बीच उत्पन्न हुए वे एक घटक थे। आज भी इस प्रकार के एक घटक जंतु और एक घटक वनस्पति पाए जाते हैं। जल के ये वनस्पति अत्यंत सूक्ष्म होते हैं, कोई कोई तो एक इंच के कई लाखवें हिस्से के बराबर होते हैं।
जल में रहने वाले रोईंदार सूक्ष्म अणुजीवों में उन्नत कोटि की घटकात्मा देखी जाती है। उनकी गतिविधि का यदि हम अनेक घटक प्राणियों की गतिविधि से मिलान करें तो बहुत कम अन्तर मिलेगा। इन एक घटक अणुजीवों में जो संवेदनग्राही और गतिसम्पादक करणांकुर होते हैं वे वही काम करते हैं जो उन्नत जंतुओं का मस्तिष्क करता है। इन सूक्ष्म अणुजीवों का मनोव्यापार किस प्रकार का होता है इस विषय में कुछ मतभेद है। कुछ वैज्ञानिकों का कहना है कि इनमें जो स्वत: प्रवृत्ति होती है वह जड़ या उद्वेगात्मक अर्थात कललरस के स्वाभाविक क्षोभ से उत्पन्न होती है और जो विषयोत्तोजित गति देखी जाती है वह प्रतिक्रिया मात्र होती है। इसके विरुद्ध कुछ लोगों का कहना है कि इनके ये व्यापार कुछ कुछ ज्ञानकृत होते हैं अर्थात इनमें थोड़ी बहुत चेतना का विकास होता है। पर अधिकांश लोग इनमें चेतना या ज्ञान नहीं मानते। जो कुछ हो, हमारा प्रयोजन इतने ही से है कि इनमें एक प्रकार का समुन्नत मनस्तत्त्व होता है।
2. समूहबद्ध आत्मा- वर्गानुक्रमगत आत्मविकास की यह द्वितीयावस्था है। मनुष्य तथा और दूसरे अनेकघटक प्राणियों की गर्भवृद्धि एक सूक्ष्म घटक के विभाग द्वारा आंरभ होती है। यह सूक्ष्म अंकुरघटक पहले दो घटकों में विभक्त होता है, फिर दोनों घटक विभक्त होकर चार घटक हो जाते हैं। चार से आठ, आठ से सोलह, सोलह से बत्तीस, बत्तीस से चौंसठ इसी प्रकार घटकों की संख्या बराबर बढ़ती जाती है। यहाँ तक कि वे सब मिलकर सूक्ष्म बुद्बुदगुच्छ या शहतूत का सा आकार धारणा करते हैं। इस गुच्छ को कललगुच्छ कहते हैं। धीरे धीरे घटकों के इस गुच्छे के बीच एक प्रकार का रस इकट्ठा हो जाता है और यह गुच्छा झिल्ली का एक कोश या घट बन जाता है। यह इस प्रकार होता है कि सारे घटक रस के ऊपर आकर एक झिल्ली के रूप में जम जाते हैं जिसे मूलकला कहते हैं। इस कला द्वारा जो गोल कोश बनता है उसे अंकुरकोश या कललकोश कहते हैं।
कललकोश के निर्माण में घटकसमूह के जो मनोव्यापार दिखाई पड़ते हैं वे कुछ तो संवेदन हैं और कुछ गत्यात्मक क्रियाएँ हैं। गति इसमें दो प्रकार की होती है-एक तो आभ्यन्तर गति जो विभाग के समय घटक की भीतरी गुठली के स्थितिपरिवर्तन के क्रम में देखी जाती है, दूसरी वाह्यगति जो घटकों के स्थिति बदलने और परस्पर मिलकर झिल्ली बनाने में देखी जाती हैं। हम इन गतियों को कुलपरम्परागत और अचेतन, अज्ञानकृत मानते हैं। ये एक घटक अणुजीवों के धर्म हैं जिनसे समस्त बहुघटक प्राणियों का विकास हुआ है। कुलपरम्परानुसार ये धर्म किसी न किसी रूप में अबतक प्रकट होकर कुछ काल तक रहते हैं। संवेदन भी दो प्रकार के होते हैं-
(क) प्रत्येक घटक के पृथक् पृथक् संवेदन और
(ख) घटकों के सारे समूह का एक सामान्य संवेदन जिसका पता सारे घटकों की उस सामान्य प्रवृत्ति से लगता है जिसके अनुसार वे सबके सब मिलकर एक कोश निर्माण करते हैं। जैसा कि कहा जा चुका है गर्भावस्था का यह कललघट वह रूप है जिस रूप में सारे जंतुओं के आदिम पूर्वज किसी कल्प में थे। इस प्रकार के घटकसमूह अब तक जल के रोईंदार तथा और कई प्रकार के एक घटक अणुजीवों में पाए जाते हैं। ये एक घटक जीव उसी प्रकार समूह बनाकर रहते हैं जिस प्रकार कललकोश के घटक।
3. तन्तुजालगत या समवाय आत्मा- वर्गपरम्परागत आत्मविकास की यह तृतीयावस्था है। उन सब बहुघटक पौधों और जीवों में जिनके घटक तन्तुजाल के रूप में मिलकर एक हो जाते हैं, दो कोटि के मनोव्यापार देखे जाते हैं-
(क) तन्तुजाल के एक एक घटक की आत्मा का अलग अलग मनोव्यापार और
(ख) सारे तन्तुजाल अर्थात घटकसमष्टि का मनोव्यापार।
मनोव्यापारों के इस समष्टि विधान से ही बहुत से घटक मिलकर एक शरीर हो जाते हैं। यह तन्तुजालगत आत्मा या आत्मसमष्टि सारे घटकों की पृथक् पृथक् घटकात्माओं को अंगांगिभाव से चलाती है। निम्नकोटि के बहुघटक पौधों और जंतुओं में आत्मा की यह दोहरी प्रवृत्ति ध्यान देने योग्य है। परीक्षा द्वारा इसे हम प्रत्यक्ष देख सकते हैं। किसी पौधो को लेकर हम देख सकते हैं कि उनके प्रत्येक घटक की निज की संवेदना और गति भी होती है और साथ ही प्रत्येक तन्तुजाल या अवयव का, जो कई समानधर्मवाले घटकों के योग से संघटित रहता है, विशेष उत्तोजन और मनोधर्म भी होता है। दृष्टान्त के लिए पौधों के पराग या परागकेसर को लीजिए।
(क) उदि्भदात्मा- यह बहुघटक पौधों की समस्त आन्तरिक वृत्तियों का सारांश है। पहले पौधों और जंतुओं में बड़ा भारी भेद यह समझा जाता था कि जंतुओं में आत्मा होती है और पौधों में नहीं। पर घटक विधान और कललरस विधान का पता लग जाने से अब जंतुओं और पौधों की मूलयोजना की समानता सिद्ध हो गई है। आजकल के तारतम्यिक शरीरविज्ञान ने अच्छी तरह दिखा दिया है कि बहुत से पौधों और क्षुद्र जंतुओं की प्रवृत्ति पर प्रकाश, ताप, विद्युत्प्रवाह, संघर्षण और रासायनिक क्रिया इत्यादि उत्तोजनों का प्रभाव समान पड़ता है और दोनों में इस प्रकार के उत्तोजन से एक ही ढंग की प्रतिक्रिया उत्पन्न होती है। ऐसे उत्तोजनों से जिस प्रकार की प्रतिक्रिया स्पंज, मूँगे के कृमि आदि में उत्पन्न होती है उससे बढ़कर लज्जालु और मक्षिकाग्राही आदि पौधों में देखी जाती है। अत: यदि एक की क्रिया को हम आत्मा की क्रिया मानते हैं तो दूसरे की क्रिया को भी आत्मा की क्रिया क्यों न मानें? जो लज्जालु छूने के साथ ही अपनी पत्तियों को बन्द कर लेता और टहनियों को झुका लेता है, जो मक्षिकाग्राही पौधा पत्तो पर मक्खी बैठते ही उस पत्तो को दूसरे पत्तो के साथ जुटाकर मक्खी को फँसा लेता है, उसमें स्पंज आदि की अपेक्षा अधिक संवेदन और गतिशक्ति हमें माननी पड़ेगी।
(ख) संवेदनसूत्रा रहित अनेक घटक जीवों की आत्मा- उन क्षुद्र बहुघटक जीवों के मनोव्यापार ध्यान देने योग्य हैं जिनका शरीर तन्तुजालमय तो होता है पर जिन्हें अलग संवेदनवाहक सूत्र नहीं होते। जल में रहनेवाले घटकृमि, चिपटे केंचुए, स्पंज तथा प्रवालकृमि इत्यादि सबसे क्षुद्र कोटि के आशय विशिष्ट जीव इसी प्रकार के होते हैं।
घटकृमि आशय विशिष्ट जीवों में सबसे आदिम हैं। इन्हीं से और सब बहुघटक जीव उत्पन्न हुए हैं। इन कृमियों का क्षुद्र शरीर एक अंडाकार कोश या पात्रा के रूप में होता है जिसमें एक छोटा छिद्र होता है। कोश के भीतर का खाली स्थान उदर का और छिद्र मुख का आदि रूप है। कोश दोहरी झिल्लियों का होता है। नीचे वाली झिल्ली उदराशय का आवरण है जिसके द्वारा पाचन क्रिया होती है और ऊपर वाली झिल्ली त्वचा है जिसके द्वारा स्पर्शसंवेदन और गति होती है। त्वचाक्वाली झिल्ली जिन घटकों के योग से बनी रहती है उनके ऊपर बहुत सूक्ष्म रोइयाँ होती हैं जिनके सहारे ये कृमि पानी में तैरते हैं। इन कृमियों की कई जातियाँ जल में मिलती हैं। ये द्विकलघट कृमि अपने जीवन भर उसी अवस्था में रहते हैं जिस अवस्था में कुछ काल तक मनुष्य आदि समस्त बहुघटक प्राणियों के भूरण आंरभ में रहते हैं। यह द्विकलघट रूप भ्रूण को कललघट अवस्था के उपरान्त ही प्राप्त होता है। कललकोश की जो एकहरी झिल्ली होती है वह एक ओर पिचककर नीचे की ओर धाँस जाती है। आधी झिल्ली जब पिचककर शेष आधी झिल्ली के भीतर जम जाती है तब कललकोश का आकार बदलकर दोहरी झिल्ली के एक कटोरे का सा हो जाता है जिसे हम द्विकलघट कह सकते हैं। नीचे ऊपर जमी हुई दो झिल्लियों में से बाहरी झिल्ली वाह्यकला, त्वक्कला है और भीतरी झिल्ली आशकला है। कटोरे के आकार के द्विकलघट में जो खाली स्थान होता है वही पेट या जठराशय है और जो छिद्र होता है वही मुख है। बाहरी त्वक्कला ही संवेदन की एकमात्र इन्द्रिय है। इसी से क्रमश: उन्नति करते करते बड़े जीवों की ऊपरी त्वचा, इन्द्रियाँ तथा संवेदनसूत्रा कार्यविभाग क्रम द्वारा बने हैं। द्विकलघट जीवों में संवेदनवाहक सूत्रआदि नहीं होते, उनकी ऊपरी झिल्ली (वाह्यकला) के सारे घटक समान रूप से संवेदनग्रही और गतिशील होते हैं। उनमें तन्तुजालगत आत्मा सबसे आदिम या प्रारम्भिक रूप में रहती है।
चिपटे केंचुओं में से कुछ की बनावट तो बिलकुल घटकृमियों की सी होती है अर्थात उनमें संवेदनसूत्रा विधान नहीं होता। पर कुछ ऐसे भी होते हैं जिनमें एक लम्बा संवेदनसूत्रा और एक सूक्ष्म मस्तिष्कग्रन्थि भी होती है। स्पंजों की बनावट सबसे विलक्षण होती है। वे अधिकतर समुद्र के तल में पाए जाते हैं। सबसे क्षुद्र कोटि के जो स्पंज होते हैं वे द्विकलघट के अतिरिक्त और कुछ नहीं होते। उनकी झिल्ली में छलनी की तरह के बहुत से छेद होते हैं जिनसे होकर खाद्यमिश्रित जल भीतर जाता है। वे कांड या शाखा के रूप में समूहपिंड बनाकर रहते हैं जिसके भीतर जल के लिए नालियाँ होती हैं। वे चर नहीं होते हैं। उनमें संवेदन और अंगगति बहुत ही मन्द होती है। इसी से पहले लोग उन्हें उदि्भद समझते थे।
जल के उदि्भदाकार कृमियों की यदि हम परीक्षा करें तो साफ दिखाई पड़ेगा कि किस प्रकार तन्तुजालगत आत्मा से उन्नतिक्रम द्वारा संवेदनसूत्रागत आत्मा का विकास होता है। मूँगा और छत्राक इसी प्रकार के कृमि हैं। एक प्रकार के कृमियों का समूहपिंड या छत्ता समुद्र और झीलों में चट्टानों आदि पर जमा मिलता है जो देखने में खड़े पौधो की तरह जान पड़ता है। इन्हें खंडबीज1 कहते हैं। छत्तो के प्रधान कांड में से जगह जगह पर छोटी छोटी शाखाएँ निकली होती हैं जो सिरे पर चौड़ी होकर गिलास के आकार की होती हैं। इसी गिलास के भीतर असली कृमि बन्द रहते हैं, केवल उनकी सूत की तरह की भुजाएँ निकली होती हैं। कुछ शाखाओं के भीतर विशेष प्रकार के कुड्मल होते हैं। जब कोई कुड्मल अपनी पूरी बाढ़ को पहुँच जाता है तब एक स्वतन्त्र जीव होकर कांड से अलग हो जाता है और चर जंतु के रूप में ईधर उधर तैरने लगता है। इसी को छत्राककृमि कहते हैं क्योंकि यह छाते के आकार का होता है। जिस अचर पिंड से इसकी उत्पत्ति होती है उससे यह बिलकुल भिन्न होता है। अचर खंडबीज कृमियों में संवेदनसूत्रा और इन्द्रियाँ नहीं होतीं, उनमें संवेदन शरीरव्यापी होता है। पर छत्राक में संवेदनग्रन्थियों और विशेष इन्द्रियों का कुछ विधान होता है। इसके प्रजनन का विधान भी ध्यान देने योग्य है। स्थावर खंडबीज कृमियों में स्त्री पुरुष विधान नहीं होता, कुड्मल विधान होता है जैसा कि ऊपर दिखाया जा चुका है। पर उनसे जो छत्राककृमि उत्पन्न होते हैं उनमें स्त्री पुरुष अलग अलग होते हैं। पुरुष के शुक्रकीटाणु जल में छूट पड़ते हैं और जल के प्रवाह द्वारा मादा के गर्भाशय में जाकर गर्भकीटाणु को गर्भित करते हैं। ये गर्भकीटाणु शीघ्र डिम्भकीट के रूप में प्रवधरित होकर कुछ दिनों तक जल में तैरते फिरते हैं, पीछे किसी पौधो, लकड़ी के तख्ते आदि पर जम जाते हैं और धीरे धीरे बढ़कर खंडबीज कृमि के रूप में हो जाते हैं। जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है इसी खंडबीज कृमि से फिर छत्राककृमि की उत्पत्ति होती है। सारांश यह कि खंडबीज

1 इनमें यह विशेषता होती है कि इनके शरीर के यदि कई खंड कर डालें तो उसमें प्रत्येक खंड बढ़कर कृमि के रूप में हो जायेगा।

कृमि से छत्राक कृमि की उत्पत्ति होती है और छत्राककृमि से खंडबीज कृमि की। प्रजनन के इस विधान को इतरेतरजन्म1 या योन्यंतर विधान कहते हैं। इसमें हम आत्मा की वर्गपरम्पराक्रम से वृद्धि अपनी आँखों के सामने देख सकते हैं। समूहपिंड बनाकर रहनेवाले उदि्भदाकार कृमियों में हमें दोहरी आत्मा दिखाई पड़ती है। एक तो समूहपिंड के कृमियों की पृथक् पृथक् आत्मा, दूसरी सारे समूहपिंड की सामान्य आत्मसमष्टि।
4. संवेदनसूत्रागत आत्मा या सूत्रात्मा- वर्गपरम्परानुगत आत्म विधान की यह चतुर्थावस्था है। मनुष्य आदि समुन्नत जीवों के मनोव्यापार एक विशेष यत्रों या करण के द्वारा होते हैं। इस करण के तीन मुख्य विभाग होते हैं-
(क) वाह्यकरण या इन्द्रियाँ जिनसे संवेदन होता है,
(ख) पेशियाँ जिनसे गति या संचालन होता है और
(ग) संवेदनसूत्रा2 जो इन दोनों के बीच मस्तिष्क रूपी प्रधान करण के द्वारा सम्बन्ध स्थापित करते हैं। मनोव्यापारों का साधन करनेवाले इस भीतरी यत्रों की उपमा तारयत्रों से दी जा सकती है। संवेदनसूत्रा तार हैं, इन्द्रियाँ छोटे स्टेशन हैं और मस्तिष्क सदर स्टेशन है। गतिवाहक सूत्रसंकल्परूपी आदेश को सूत्राकेन्द्र या मस्तिष्क से पेशियों तक पहुँचाते हैं जिनके आकुंचन से अंगों में गति होती है। संवेदनवाहक सूत्रइन्द्रियों के द्वारा प्राप्त संवेदनों को अन्तर्मुख गति से मस्तिष्क या अन्त:करण में पहुँचाते हैं। मस्तिष्क या अन्त:करण रूपी मनोव्यापार केन्द्र ग्रन्थिमय होता है। इन सूत्राग्रन्थियों के घटक सजीव द्रव्य के सबसे समुन्नत अंश हैं। इनके द्वारा इन्द्रियों और पेशियों के बीच व्यापार सम्बन्ध तो चलता ही है, इसके अतिरिक्त भावग्रहण, बोध और विवेचन आदि अनेक प्रकार के मनोव्यापार होते हैं।
अत्यंत क्षुद्र जीवों को छोड़ शेष सब जंतुओं में मनोव्यापार का एक अलग करण होता है। छत्राक कृमियों में मुँह के मेंडरे पर भेजे या संवेदनसूत्रा बनाने वाली धातु का एक छल्ला सा होता है जिसमें थोड़े बहुत अन्तर पर कई, प्राय: चार या आठ कोश या ग्रन्थियाँ होती हैं। ये ग्रन्थियाँ निकले हुए पैरों के सिरे पर होती हैं और वही काम देती हैं जो मस्तिष्क देता है। चिपटे केंचुओं और जोंक आदि कीड़ों में मुँह के ऊपर केवल दो सूत्राग्रन्थियों का खड़ा मस्तिष्क होता है। इन ग्रन्थियों से दो सूत्राशाखाएँ त्वचा और पेशियों की ओर जाती हैं। शुक्तिवर्ग के कोमलकाय कृमियों में नीचे की ओर भी ग्रन्थियाँ होती हैं जो ऊपरवाली ग्रन्थियों से एक छल्ले के द्वारा जुड़ी होती हैं। इस प्रकार का छल्ला खंडकाय अर्थात जिनका शरीर गुरियों से बना

1 ऋग्वेद में लिखा है कि 'अदितिर्दक्षो अजायत, दक्षाददिति: परि' अर्थात अदिति से दक्ष उत्पन्न हुए और दक्ष से अदिति। इसका यास्काचार्य ने इस प्रकार समाधान किया है 'इतरेतरजन्मानो भवन्तीतरेतर प्रकृतय:'।
2 क्षुद्र कोटि के जीवों में साधारणा तन्तुओं से अलग संवेदन सूत्र नहीं होते।

हो, जैसे कनखजूरा, मकड़ा, केकड़ा आदि कीटों में भी होता है पर वह पेट की ओर भेजे के दो सूत्रों के रूप में दूर तक गया होता है। रीढ़वाले जंतुओं में अन्त:करण की बनावट और ही प्रकार की होती है। उनमें पीठ की ओर भेजे की एक बत्ती प्रकट होती है जो अगले सिरे की ओर फैल कर घटस्वरूप मस्तिष्क का रूपधारणा करती है।
उन्नत कोटि के सब जीवों के मस्तिष्क यद्यपि एक ही ढाँचे के नहीं होते पर भिन्न भिन्न जंतुओं के मस्तिष्कों का मिलान करने से यह स्पष्ट प्रतीत हो जाता है कि उनकी उत्पत्ति एक ही मूल से अर्थात चिपटे केंचुओं और जोंक आदि कीड़ों के केवल दो ग्रन्थियों से निर्मित क्षुद्र मस्तिष्क से हुई है। मस्तिष्क या अन्त:करण का स्फुरण गर्भकाल में सबसे ऊपरवाली झिल्ली में होता है। सब जंतुओं के मस्तिष्क में ग्रन्थिघटक या मनोघटक होते हैं जिनके द्वारा चिन्तन, बोध आदि अनेक प्रकार के मनोव्यापार होते हैं। संवेदन सूत्रों के अतिरिक्त गतिसूत्रा भी मस्तिष्क तक गए होते हैं जिनके द्वारा क्रिया की प्रेरणा होती है।
अन्त:करण का केन्द्र मस्तिष्क है। रीढ़वाले जंतुओं में इसकी परिस्थिति, रचना और योजना एक विशेष प्रकार की होती है। प्रत्येक जंतु के मस्तिष्क से भेजे की एक नली रीढ़ में होती हुई पीठ के बीचोबीच नीचे की ओर गई होती है। इस नली की एक एक गुरिया से दोनों ओर संवेदनसूत्रा और गतिसूत्रा शरीर के भिन्न भिन्न भागों में जाते हैं। भेजे की इस नली की उत्पत्ति मेरुदंड जीवों के भ्रूण में एक ही ढंग से होती है। पीठ की त्वचा के बीचोबीच पहले भेजे की एक लकीर या नली सी दिखाई पड़ती है। पीछे इस लकीर के दोनों किनारे कुछ कुछ उठने लगते हैं और धीरे धीरे मिल जाते हैं जिससे यह लकीर भेजे की एक पोली नली के आकार की हो जाती है। 1
भेजे की एक नली मेरुदंड जीवों की सबसे बड़ी विशेषता है। इसी से काल पाकर भिन्न भिन्न करण उत्पन्न होते हैं जिनसे अनेक प्रकार के मनोव्यापार-ज्ञान, अनुभव, प्रेरणा आदि होते हैं। मनुष्य में यह नली या मेरुरज्जु अत्यंत पूर्ण अवस्था को प्राप्त होती है। इसकी गुरियों के दोनों ओर बहुत से सूत्रशरीर के भिन्न भिन्न भागों में जाते हैं जिनके द्वारा ज्ञानेन्द्रियों का अनुभव और कर्मेन्द्रियों का संचालन होता है। करोड़ों वर्षों में अनेक मध्यवर्ती जंतुओं की आत्माओं से उन्नति करते करते मनुष्य की समुन्नत आत्मा का प्रादुर्भाव हुआ है। सृष्टि के भिन्न भिन्न कल्पोंमें जिन जिन अन्त:करण विशिष्ट जंतुवर्गों का एक दूसरे से क्रमश: विकास हुआ है,

1 बाम की तरह की एक छोटी मछली जिसके मुख का विवर गोल होता है। इसके मुँह में नीचे ऊपर के जबड़े नहीं होते, महीन महीन दाँत चारों ओर होते हैं जिनके द्वारा यह चट्टानों या बड़ी मछलियों के शरीर पर चिपटी रहती है।

मेरुरज्जु की क्रमोन्नति के विचार से मनुष्य तक उनके आठ वर्ग होते हैं-
(1) अकरोटीमत्स्य, (2) चक्रमुखमत्स्य1, (3) मत्स्य, (4) जलस्थलचारी जंतु,
(5) अजरायुज जंतु, (6)आदिम जरायुज जंतु, (7) किंपुरुषवर्ग
(8) नराकार बनमानुस और मनुष्य।
मेरुरज्जुवाले जीवों में सबसे प्रथम अकरोटी मत्स्य उत्पन्न हुए जिनके वर्ग का केवल एक जंतु कुलाट आज तक समुद्र के किनारे मिलता है। इसके मनोव्यापार का करण एक सीधी भेजे की नली है जिसमें मस्तिष्क नहीं होता। इसी से आगे चलकर चक्रमुख मत्स्यों की उत्पत्ति हुई जिनके वर्ग के दो चार जंतु अब भी पाए जाते हैं। इनमें मेरुरज्जु का अगला छोर फैलकर एक घट के रूप में हो जाता है जिसके पाँच विभाग हो जाते हैं-बड़ा मस्तिष्कघट, अन्तरवत्तरी मस्तिष्कघट, मझला मस्तिष्कघट, छोटा मस्तिष्कघट और पिछला मस्तिष्कघट। इसी पंचघटात्मक मस्तिष्क से समस्त कपालवाले जंतुओं के मस्तिष्क का विकास हुआ है। साधारणा मछलियों में ये पाँचों घटक अधिक स्पष्ट होते हैं। मछलियों से फिर जलस्थलचारी जंतुओं की उत्पत्ति हुई जिनके वर्ग के मेंढक आदि जंतु अब भी पाए जाते हैं। इनसे आगे चलकर जीवों के जो तीन वर्ग एक दूसरे के पीछे उत्पन्न हुए वे दूधा पिलानेवाले जंतुओं के हैं। दूधा पिलानेवाले जीवों के मस्तिष्क में दूसरे रीढ़वाले जंतुओं के मस्तिष्क से कई बातों की विशेषता होती है। सबसे मुख्य विशेषता तो यह है कि उसमें प्रथम और चतुर्थ घट की बहुत अधिक वृद्धि होती है और तृतीय या मझला घट बिलकुल नहीं होता। सबसे आदिम वर्ग के स्तन्यअंडजस्तन्य, अजरायुज स्तन्य, जीवों का मस्तिष्क जलस्थलचारी जीवों के मस्तिष्क से मिलता जुलता होता है पर उनसे जो उन्नत कोटि के स्तन्य जीव उत्पन्न हुए उनके मस्तिष्क में प्रथमघट की बहुत अधिक वृद्धि हुई। मनुष्य के मस्तिष्क में यह घट सबसे बड़ा और दूर तक लोथड़े की तरह फैला है1। इसी से संकल्प, विचार आदि उन्नत कोटि के व्यापार होते हैं। इस प्रकार का मस्तिष्क मनुष्य के अतिरिक्त केवल नराकार बनमानुसों ही का होता है।
अस्तु, यह बात पूर्णरूप से सिद्ध है कि मनुष्य की आत्मा निम्नकोटि के स्तन्य जीवों से क्रमश: उन्नति करते करते उत्पन्न हुई है।


1 इसमें अखरोट के गूदे की तरह उभार होते हैं।
 

 


 


रामचन्द्र शुक्ल ग्रंथावली - 6
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